धार्मिकता या आध्यात्मिकता?

द्वारा लिखित :   जैक पूनन श्रेणियाँ :   धार्मिक? आध्यात्मिक
Article Body: 

"न्यू वाइन इन न्यू वाइनस्किन" (नई मशक में नया दाखरस) नामक पुस्तक से - जैक पूनन

एक पवित्र जीवन की अपनी खोज में लगे मसीही के सामने आने वाली सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक यह है कि वह आत्मिक बनने की बजाय धार्मिक ना बन जाए। अक्सर अविवेकी विश्वासी धार्मिकता को आध्यात्मिकता समझने की भूल कर बैठते हैं। लेकिन दोनों के बीच का अंतर बहुत गहरा है। पहली मानवीय है, और दूसरी दिव्य है। व्यवस्था लोगों को धार्मिक तो बना सकती है, लेकिन आध्यात्मिक नहीं बना सकती। धार्मिकता बाहर दिखाई देने वाली बातों से प्रभावित होती है, आध्यात्मिकता मुख्य रूप से ह्रदय से सम्बंधित रहती है।

परमेश्वर का वचन हमें यह चेतावनी देता है कि अन्तिम दिनों में कई लोग ऐसे होंगें जो भक्ति का भेष तो धरेंगे, पर उस की शक्ति को न मानेंगे - दूसरे शब्दों में, वे धार्मिक तो होंगें, लेकिन आध्यात्मिक नहीं होंगे (2 तीमुथियुस 3:5)। वे लगातार सभाओं में जाने वाले, प्रार्थना करने वाले, और प्रतिदिन बाइबल पढ़ने वाले, और यहां तक कि सारी रात उपवास और प्रार्थना की सभाओं में भाग लेने वाले, और उनकी आय का दस्वांश, आदि देने वाले लोग होंगे। परन्तु वे दूसरे लोगों से सम्मान की अभिलाषा रखने वाले, पैसे से प्यार करने वाले और काना-फूसी, आदि में रुचि रखने वाले लोग होंगे। ऐसे लोग आत्मिक नहीं धार्मिक होते हैं। जो भक्ति का भेष तो धरते हैं, पर उस की शक्ति को नहीं मानते। यहाँ कुछ उदाहरण हैं।

यदि आप शरीर को उस की लालसाओं और अभिलाषाओं समेत क्रूस पर चढ़ा देने से अधिक, सभाओं में जाने में रुचि रखते हैं (गलातियों 5:24), तो आप धार्मिक हैं, आत्मिक नहीं। यदि आप पूरे दिन, अपनी जीभ को नियंत्रित करने से अधिक हर सुबह अपनी बाइबल पढ़ने में रुचि रखते हैं तो आप धार्मिक हैं, आत्मिक नहीं। यदि आप धन के प्यार से मुक्त होने की तुलना में कहीं अधिक उपवास और प्रार्थना में रुचि रखते हैं, तो आप धार्मिक हैं, आत्मिक नहीं। यदि आप व्यक्तिगत पवित्राता रखने की तुलना में सुसमाचार प्रसार में अधिक रुचि रखते हैं, तो आप धार्मिक हैं, आत्मिक नहीं।

उपरोक्त उदाहरण में दी गईं सभी गतिविधियां अच्छी हैं। लेकिन यह सवाल प्राथमिकताओं का है। यह एक सही प्राथमिकता ही है जो किसी मनुष्य को आत्मिक बनाती है।

धार्मिक लोग केवल लिखे शब्द ('लिखित संहिता') में रुचि रखते हैं और ऐसा करके व्यवस्था की धार्मिकता को ही प्राप्त कर पाते हैं। लेकिन आत्मिक लोग वचन के अस्तित्व के देह्दारी होने में रुचि रखते हैं, शरीर में भी और लहू में भी, और इस प्रकार वे परमेश्वर की दिव्य स्वरूपी धार्मिकता को प्राप्त कर लेते हैं।

धार्मिक लोग परमेश्वर के कुछ दासों के शब्दों या कार्यों पर टिपणी करके अपना औचित्य साबित करना चाहते हैं। हालांकि आत्मिक लोग, कभी मनुष्य के सामने अपना औचित्य साबित नहीं करना चाहते।

धार्मिक लोग परमेश्वर की राय की तुलना में मनुष्य की राय की अधिक परवाह करते हैं। आत्मिक लोग केवल परमेश्वर की राय की परवाह करते हैं। धार्मिक लोग ऐसे शब्दों को वर्षों तक ध्यान में रखते हैं जो कभी कुछ प्राचीन भाईयों ने उनकी प्रशंसा में कहे होंगे। दूसरे हाथ पर आत्मिक लोग, यीशु के समान, मनुष्य की गवाही को ग्रहण करने से इन्कार कर देंगे (यूहन्ना 5:34)। वे जानते हैं कि उनके भीतर के उन दोषों को जिसे वे स्वयं देख सकते हैं उसे अन्य लोग नहीं देख सकते, और इसलिए उन्हें इस बात का एहसास रहता है कि लोगों की प्रशंसा का कोई मूल्य नहीं है।

धार्मिक लोग व्यवस्था सम्मत होते हैं और व्यवस्था के आधीन रहते हैं। वे परमेश्वर को प्रसन्न करने सम्बंधित कार्य का कम से कम करने के बारे में सोचते हैं। यही कारण है कि वे हिसाब रखते हैं कि उनकी आय का कुल 10% कितना पैसा बनेगा और फिर इसे अनिच्छा से परमेश्वर को भेंट में देते हैं। ऐसे ही दृष्टिकोण के कारण पुराने नियम में इस्राएलवासी अन्धी भेड़ों और बीमार बैलों को बलि को रूप में यहोवा के सामने भेंट में लाने लगे थे (मलाकी 1:8)। यही दृष्टिकोण नए नियम की आज्ञाओं के प्रति होना भी संभव है। पति के अधीन रहने की जो आज्ञा पत्नियों को मिली है उस वचन के आदेश का पालन करने में कोई बहन अपने पति के कम से कम समर्पित रह सकती है; या सभाओं में - अपने बालों की सुंदरता को पूरी तरह से छिपाने की बजाय - सर को कम से कम ढक सकती है! 'आध्यात्मिक' बनने लिए सब कुछ को त्याग देने के बजाए पुरुष और महिलाएं कम से कम त्याग करने का विचार रख सकते हैं। ऐसे लोगों के मन में एक सवाल हमेशा रहता है कि "मेरे पास ऐसा क्या कम से कम है जिसे मुझे इस संसार को देना है"? ऐसे लोग कभी आत्मिक नहीं हो सकते हैं। वे केवल धार्मिक हो सकते हैं।

यीशु के विचार पूरी तरह से अलग थे। वे ऐसे तरीके नहीं ढूँढ निकलना चाहते थे जो उनके पिता को प्रसन्न करने के लिए जरूरी कार्य करने का न्यूनतम वांछित हिस्सा हो। इसके विपरीत, क्या अधिकतम किया जा सकता है वे ऐसे तरीककों की खोज में लगे रहते थे जिससे कि वह सब कुछ को पिता को समर्पित कर सकें। इसलिए एक युवा बालक के रूप में जब उन्होंने व्यवस्था का अध्ययन किया, तब वे प्रत्येक आज्ञा के पीछे छिपी भवना को समझ लेना चाहते थे। उदाहरण के लिए, वे समझ गए थे कि व्यभिचार से बचना केवल शरीर में ही पर्याप्त नहीं था, (जितनी अपेक्षित आज्ञाकारिता इस व्यवस्था से है भले ही उसका ये कम से कम हिस्सा क्यों ना हो)। इस विषय को लेकर जब यीशु पिता के दर्शन के खोजी बने और जब उन्होंने व्यवस्था पर साधना के रूप में ध्यान लगाया, तब उन्हें प्रकाशन मिल गया। वह जान गए थे कि उस आज्ञा के पीछे की भावना यह है कि किसी स्त्री पर कुदृष्टि(लालच की दृष्टि) डालना अपने मन में उस से व्यभिचार कर लेने के समान है। इसी प्रकार, उन्होंने यह भी जान लिया था कि क्रोध करना और हत्या करना एक ही जैसे हैं जिनका दण्ड एक ही समान है। और ऐसी कई और बातें। इस प्रकार उन्होंने व्यवस्था के पीछे छिपी भावना को समझ लिया था। और तब उन्होंने हमारे लिए शरीर में रहकर जीवन निर्वाह करने का एक नया मार्ग खोल दिया और इस प्रकार नई वाचा का शुभारंभ किया।

एक सांसारिक स्त्री जो अपने दूल्हे से बहुत गहरा प्रेम करती है, वह अपने साथी के लिए आवश्यकता से कम करने के बारे में कभी भी नहीं सोचती। इसके विपरीत, वह यह सोचती है कि अपने साथी के लिए ज्यादा से ज्यादा क्या करे। मसीह की दुल्हन के विचार भी यही हैं। हम सेवक और दुल्हन के बीच का अंतर यहाँ पर ही देख पाते हैं। व्यवस्था के आधीन रहने वाले केवल दास होते हैं। मजदूर मजदूरी के लिए काम करता है और इसलिए अपनी सेवाओं की कीमत लगाने वाला होता है। वह घड़ी के अनुसार अपने काम को नापता है। यदि वह समयोपरि काम करता है, तो अतिरिक्त मजदूरी की आशा रखता है। दूसरे हाथ पर, एक पुत्र (या एक पत्नी) है, काम करते चले जाएँगें, चाहे समय कितना भी क्यों ना बीत जाए - इनाम पाने के लिए नहीं लेकिन प्रेमवश वे ऐसा करेंगे। इसी में धार्मिकता या आध्यात्मिकता के बीच का अंतर निहित है।

ऐसा मन जो यह विचार रखता है कि, "मैं यहोवा से क्या प्राप्त कर सकता हूं?", धार्मिकता की ओर ले जाता है। दूसरी ओर, वह मन जिसकी भावना यह है कि, " मुझे जो सांसारिक जीवन मिला है इससे परमेश्वर क्या प्राप्त कर सकते हैं?", सच्ची आध्यात्मिकता की ओर ले जाएगा। तब यह हमारे लिए स्वाभाविक हो जाएगा कि जहाँ कम से कम एक मील दूर जाने की अपेक्षा हो वहां दूसरे मील तक भी चलें।

आदम ने अपने लिए अंजीर की पत्तियों को लेकर एक लंगोट बना लिया। लोगों के सामने और यहां तक कि परमेश्वर के सामने स्वयं को प्रस्तुत करने योग्य बनाना - यह धार्मिक होने का प्रतीक है! यीशु ने अंजीर की पत्तियों के साथ ढके अंजीर के पेड़ को श्राप दिया था (मरकुस 11:13, 14,21) - क्योंकि समस्त धर्मिक्तावाद पर एक अभिशाप है। परमेश्वर इससे नफरत करते हैं। परमेश्वर ने आदम को एक और अंगरखा दिया था - चमड़े का। और यह सच्ची आध्यात्मिकता का प्रतीक प्रस्तुत करता है - परमेश्वर का अपना स्वरूप जो वे स्वयं हमें देते हैं, नाकि वह जिसे मनुष्य खुद बनाता है। जब यीशु अंजीर के पेड़ के पास आए, उस समय फल फलने का मौसम नहीं था। हम कह सकते हैं कि पुराने नियम का मौसम आत्मा के फल के लिए उपयुक्त नहीं था। वह व्यवस्था सम्मत प्रणाली थी जो मनुष्य को बन्धुआई की ओर ले जाती थी जिसे समाप्त कर दिया गया है। यह दिखाने के लिए कि मनुष्य को उसकी जरूरत थी, परमेश्वर ने उसे एक अवधि के लिए ठहराया था। उस व्यवस्था को पवित्राता के लिए एक साधन के रूप में कभी नहीं दिया गया था। इब्रानियों 8:7 कहता है कि यह एक दोषपूर्ण प्रणाली थी सिर्फ इस लिए क्योंकि - वह एक मनुष्य को आत्मिक नहीं, लेकिन केवल धार्मिक बना सकती थी। आत्मिक बनने के लिए नई वाचा में प्रवेश करना पढता है।

परमेश्वर ने व्यवस्था को यह देखने के लिए दिया था कि क्या मनुष्य बाहरी धार्मिकता से संतुष्ट हो जाएगा जो केवल लोगों का आदर सम्मान मिलता है, या क्या वह इससे भी और अधिक प्राप्त करना चाहेगा। क्योंकि अधिकतर विश्वासी बाहरी धार्मिकता से संतुष्ट हो कर रहते हैं, वे व्यवस्था सम्मत रहकर और पत्तियों - यानि मानवीय धार्मिकता - से ही ढके रहकर संतुष्ट हो जाते हैं। सुसमाचार उद्धार के निमित परमेश्वर की सामर्थ है। वे पत्तियों को श्रापित कर उन्हें मुरझा देते हैं और जिसका प्रयोजन परमेश्वर ने किया है उस सच्ची पवित्राता को मनुष्य के लिए प्रदान करते हैं।

लेकिन इस सुसमाचार को प्राप्त करने के लिए, सर्वप्रथम हमें बुनियादी रूप से पापों से फिरना होगा। 'बुनियादी रूप से' पापों से फिरने का मतलब है जड़ से शुरू होकर ऊपर की ओर बढना। और 'बुनियादी रूप से' मन फिराव करने का वास्तव में यही अर्थ है। यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला, जो यीशु के अग्रदूत के रूप में मन फिराव के संदेश के साथ आया था, ने कहा कि यीशु पेड़ों की जड़ (बुनियाद) पर कुल्हाडा रख चुका है। हर पाप जड़ से ही पनपता है। यदि हम केवल पाप (फल) का ही पश्चाताप करेंगे हैं, तो हम बुनियादी रूप से पापों से फिरने में और जड़ से सुधार कर पाने से चूक जाएँगे। उदाहरण के लिए, किसी भाई की पीठ पीछे निन्दा करने का गलत दृष्टिकोण जड़ से पनपता है। सुधारवादी मन फिराव न सिर्फ पीठ पीछे निन्दा करने के पाप से वरन साथ ही साथ गलत दृष्टिकोण को भी जड़ से निकाल देगा। बाहरी व्यवहार (पाप) मात्र को संबोधित करना, एक कैंची की मदद से फल काट लेने के बराबर होगा। यीशु हालांकि कैंची लेकर नहीं, लेकिन एक कुल्हाड़ी के साथ आए (जड़ तक से निपटने के लिए)। वे सिर्फ पत्तियां नहीं - वास्तविक फल चाहते हैं। जहां वे केवल पत्तियों को देखते हैं, वहाँ आज भी उसे शापित कर मुरझा देते हैं (जहां लोग उन्हें ऐसा करने की अनुमति देते हैं), ताकि वह उन्हें उपयोगी बना सकें। अन्य कई पाप भी जैसे अपने स्वार्थ की चिंता करना या पैसे से प्रेम रखना आदि भी, हमारे भीतर तक जड़ पकड़े गलत दृष्टिकोण का परिणाम हैं। आत्मिक मनुष्य वह है जो परमेश्वर के प्रकाश में, स्वयं के भीतर छिपी पाप की जड़ की परख करे और जो दूसरों को प्रभावित करने के लिए बस बाहरी फल के काटे जाने मात्र से ही संतुष्ट ना हो कर रह जाए।

धार्मिक लोग आसानी से धोखा खा जाते हैं। एक पति के लिए संभव है कि वह 6 महीने तक अपनी पत्नी के प्रति एक गलत रवैया रखे और फिर भी मन में यह सयंम धर ले कि उसने कभी भी अपनी पत्नी को चोट पहुँचाने लायक कुछ भी नहीं कहा है। लेकिन फिर एक दिन वह आपे से बाहर हो कर उसपर अपनी भड़ास निकल दे। अगर तब उसे यह लगता है कि उसने 6 महीने तक तो पाप पर जीत कायम रखी और बस एक पल के लिए ही वह पाप में गिरा है (जिस पल उसने अपना आपा खो दिया था), तब वह खुद को धोखा दे रहा है। डायनामाइट की छड़ें वह 6 महीने से जमा किए जा रहा था। अंत में जब पूरे ढेर पर एक छोटी सी माचिस की तीली जलाई गई, तब विस्फोट हो गया। वह उस पूरे समय पाप में रह रहा था, लेकिन yयह पाप एक लम्बे समय तक बहरी रूप से प्रकट नहीं हुआ था। विस्फोट का कारण छोटी सी माचिस की तीली का जलाया जाना नहीं था, बल्कि वह बारूद कारण था जिसे वह 6 महीने से अधिक समय से जमा किए जा रहा था।

यदि हम दूसरों के प्रति खुद को 'परमेश्वर के प्यार में' बनाए रखने का दृष्टिकोण (यहूदा 21) धरने की कोशिश करने में चूक जाते हैं, तब हम पाप कर बैठते हैं, फिर चाहे बाह्य रूप से हम एक अच्छी गवाही रखना क्यों ना जारी रखें। चूंकि अधिकांश विश्वासियों के पास विवेक नहीं है, वे हमें आत्मिक समझने की गलती कर सकते हैं। उनकी राय से संतुष्ट हो जाना ऐसा होगा कि, किसी ऐसे मूर्ख से अपने संगीत के कौशल का मूल्यांकन करने के लिए कहा जाए, जिसे स्वयं संगीत के विषय में कोई ज्ञान ना हो!

यदि हमें जड़ मूल से पाप को ख़त्म करके सुधारवादी बनना है और धार्मिकता से मुक्त होना है तो हमें पाप को 'पाप' कहकर ही संबोधित करना होगा। क्रोध को इसके असली नाम - 'हत्या' द्वारा बुलाना होगा (मत्ती 5:21, 22)। यदि आप हर पाप के साथ ऐसा नहीं करेंगे तो आप जीवन भर एक 'धार्मिक' जीवन जीने में ही खो जाएंगे। वास्तव में आप कभी आत्मिक नहीं बन पाएंगे। जब बाहरी धर्म के मसलों की बात आती है तब एक धार्मिक व्यक्ति बहुत सटीक प्रतीत हो सकता है। फरीसी भी यहाँ तक कि उनके पोदीने और सौंफ और जीरे का दसवां अंश भी देते थे। वे अपने कदम बाहरी दिखावे की धार्मिकता से 1 मिलीमीटर भी इधर या उधर नहीं रखते थे। तो भी वे प्रेम, करूणा और भलाई से मीलों दूर जा चुके थे। आज ऐसा ही उन लोगों के साथ भी हो सकता है जो धार्मिकता की रह पकड़ें हैं। बाहरी धार्मिकता के मामले में 100% सटीक प्रतीत होना और फिर भी प्रेम के पथ से पूरी तरह से भटक जाना संभव है। नई वाचा की धार्मिकता प्रेम का पथ है - और हमें सतर्क हो कर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस पथ से हमारा कदम 1 मिलीमीटर भी इधर या उधर ना हो जाए। यह आध्यात्मिकता का मार्ग है।

दिखावटी सांसारिकता के माध्यम से नरक में जाने वालों की तुलना में कहीं अधिक लोग झूठे धर्म के माध्यम से वहां पहुंच जाते हैं। यही कारण है कि हमें धार्मिकता और आध्यात्मिकता के बीच अंतर करने में सावधानी बरतनी चाहिए। यदि हमारे बाहरी काम प्रभु के लिए एकनिष्ट भक्ति और पवित्र प्रेम से प्रेरित ना हों तो हालांकि वे भले कार्य ही क्यों ना हो तो भी वे भक्ति का भेष मात्र ही धारण किए हुए होंगे। इस तरह के कार्य मरे हुए होंगें क्योंकि वे प्रेम के सामर्थ से प्रेरित नहीं होंगे। हमें मरे हुए कामों - अर्थात, उन धर्म के कामों से मन-फिराव करने की आज्ञा मिली है जिन्हें हमने मसीह के प्रति एकनिष्ट भक्ति और पवित्रता से प्रेरित हृदय से नहीं किया है (इब्रानियों 6:1; 2, कुरिन्थियों 11:3)।

परमेश्वर हर्ष से देने वालों से - न केवल धन देने के मामले में लेकिन आज्ञाकारिता के अन्य सभी मामलों में भी। जब परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता निभाना एक बोझ लगने लगे, तब यह स्पष्ट है कि हम अध्यात्म के पथ से दूर भटक गए हैं और अब धार्मिकता के मार्ग पर चल रहे हैं। नई वाचा के अंतर्गत यह जरूरी है कि परमेश्वर को दी गई प्रत्येक भेंट प्रेम की भावना - हर्ष से और स्वेच्छा से दी जाए। अन्यथा हम व्यवस्था सम्मत बन जाएँगें और एक पुत्र होने की बजाय एक दास की भावना और आत्मा के साथ पुनः पुरानी वाचा में लौट आएँगें।

यहूदा अपनी पत्री में तीन लोगों की चर्चा करते हैं जो आत्मिक नहीं परन्तु धार्मिक थे - कैन, बिलाम और कोरह (यहूदा 11) । आइए हम उन पर एक-एक करके विचार करें।

कैन परमेश्वर भक्त नहीं था। वह पूरी तरह से एक धार्मिक पुरुष था जिसे परमेश्वर को भेंट देने की बात पर विश्वास था (उत्पति 4:3)। हाबिल ने भी परमेश्वर को भेंट दी। लेकिन कैन और हाबिल दोनों की भेंटो के बीच का अंतर नरक और स्वर्ग के बीच का अंतर, और धार्मिकता और आध्यात्मिकता के बीच का अंतर था। कैन और हाबिल उन दो रास्तों का प्रतीक प्रस्तुत करते हैं जिसमें लोग चलते हैं- धार्मिकता और आध्यात्मिकता के रास्ते। कैन उन लोगों का प्रतीक प्रस्तुत करता है जो धन, सेवाएँ, समय, आदि बाहरी चीजों को परमेश्वर की भेंट चढाते हैं। दूसरे हाथ पर हाबिल ने जब भेड़ के एक बच्चे को मार कर उसे वेदी पर रखा तो प्रतीकात्मक रूaप से वेदी पर, स्वयं को रख दिया था।

धार्मिक लोग भेंट दे सकते हैं, प्रार्थना कर सकते हैं, और कई अच्छे काम कर सकते हैं - लेकिन वे यह नहीं समझते कि खुद को दे देने का अर्थ क्या होता है। वे अपने दस्वांश का बिल्कुल सही भाग भेंट कर सकते हैं, लेकिन परीक्षा की घड़ियों में मृत्यु तक के लिए वे स्वयं को अर्पित नहीं करेंगे। पुरानी और नई वाचाओं के बीच का अंतर यही है। पुरानी वाचा में आप स्वयं के लिए मर जाने के बिना ही प्रवेश कर सकते थे। लेकिन यह नई वाचा में प्रवेश पाना स्वयं के लिए मर जाए बिना असंभव है। यीशु दस्वांश की भेंट देने के लिए नहीं आए थे, वरन जिससे परमेश्वर प्रसन्न होते हैं उस स्वीकार्य योग्य भेंट के रूप में स्वयं को देने के लिए आए थे। कैन और हाबिल परमेश्वर तक पहुंचने के उन दो चौडे और संकीर्ण रास्तों का प्रतीक प्रस्तुttत करते हैं - धार्मिकता का रास्ता और सच्ची आध्यात्मिकता का रास्ता। स्वयं के लिए मर जाए बिना आप एक दास तो हो सकते हैं। लेकिन इसके बिना आप एक पुत्र नहीं हो सकते।.

परमेश्वर ने हाबिल की भेंट के प्रति उत्तर में स्वर्ग से आग भेजी। लेकिन कैन की भेंट पर कुछ भी नहीं गिरा। जब कोई दिन-प्रतिदिन लगातार स्वयं के लिए मर जाता है, तो उसके जीवन और सेवकाई में स्वर्ग से आग आ जाएगी। यही आत्मा और आग का वास्तविक बपतिस्मा है, जिसके विषय में यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले ने बताया था जो यीशु उन लोगों को देने वाले हैं जिनकी जड़ों पर वे पहले ही कुल्हाड़ा रख चुके हैं। दूसरी ओर, एक ऐसा भाई जो मात्र बाह्य रूप से ही सही बातें करता हो और जिसका जीवन शायद देखने में अच्छा लगता हो, लेकिन वास्तव में उसके जीवन में आग और स्वर्ग का अभिषेक नहीं होगा। आत्मा और आग के वास्तविक बपतिस्में को जिसे यीशु अपने उन चेलों पर जो क्रूस का रास्ता चुनते हैं, पर भेजता है उसकी तुलना में शैतान का भावनाओं को गुदगुदाने वाला नकली 'बपतिस्मा' (जिसका आज कई लोग आनंद ले रहे हैं) बेकार कचरा है।

बिलाम एक और धार्मिक व्यक्ति था। वह एक उपदेशक था जो परमेश्वर की सेवा तो करना चाहता था, लेकिन उसे भीa धन और दुनिया के महान पुरुषों से संपर्क बनाने में रुचि थी (गिनती 22)। परमेश्वर के नाम पर वह खुद के लिए धन के लाभ की लालसा रखता था। बिलाम की तरह आज ऐसे कई झूठे भविष्यद्वक्ता हैं। उनके सभी सिद्धांत, मौलिक रूप से 'लिखित संहिता' के अनुसार सही तो हैं। लेकिन अविवेकी विश्वासी यह परख नहीं कर पाते कि वे भविष्यद्वक्ता बिलाम की आत्मा (धन और सम्मान की लालसा) द्वारा प्रेरित हैं। ये वही लोग हैं जिनके विषय में पौलुस लिखते हैं कि " क्योंकि सब अपने स्वार्थ की खोज में रहते हैं, न कि यीशु मसीह की" (फिलिप्पियों 2:21)। पिरगमुन की कलीसिया में ऐसे लोग थे जो बिलाम के इस सिद्धांत द्वारा चलते थे (प्रकाशित-वाक्य 2:14 )। कलीसिया में सम्मान की लालसा रखना और धन की लालसा रखने के बीच कोई अन्तर नहीं है। दोनों बिलाम की एक ही भावना के दो अलग-अलग रूप हैं।

कोरह एक और धार्मिक व्यक्ति था। वह लेवी के याजक गोत्र से था (गिनती 16)। लेकिन वह परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई से असंतुष्ट था। उसकी लालसा और अधिक महत्वपूर्ण होने की थी जैसे मूसा था। अंत में यही लालच (धार्मिक वेश से ढका व्यक्तित्व), उसके विनाश का प्रमाण बना। सिर्फ उसके और उसके सहभागी, दातन और अबीराम के उनके परिवारों समेत जीवित नरक में चले जाने की बात पवित्र शास्त्र में दर्ज की गई है (गिनती 16:32, 33)। जिन प्राधिकारियों को अपने लोगों पर परमेश्वर ने स्वयं नियुक्त किया था, उनके खिलाफ विद्रोह के इस पाप को यहोवा ने इतनी गंभीरता से लिया था।

आज के ज्यादातर प्राचीन, प्रचारक और पासवान स्वयंभू हैं। उनके खिलाफ विद्रोह करने के परिणाम इतने गंभीर नहीं हो सकते। वरन यह कभी-कभी आवश्यक भी हो सकता है! लेकिन एक ऐसे प्रभु के दास जिसे परमेश्वर की ओर से नियुक्त किया गया हो उसके खिलाफ विद्रोह करने का परिणाम परमेश्वर के गंभीर न्याय का सामना करना होगा। एक आत्मिक मनुष्य कभी भी ऐसी बात करने की कल्पना नहीं करेगा। लेकिन धार्मिक लोग ऐसा करेंगे। इसी तरह की आत्मिक मूढ़ता धार्मिकता के साथ जुडी हुई है।

कोरह उन लोगों का प्रतीक प्रस्तुत करता है जो कलीसिया में अन्य विश्वासियों के साथ एक अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा में लगे हैं। जब एक परमेश्वर का भय मानने वाले भाई की प्रशंसा और सराहना करने में आपको कठिनाई का अनुभव हो, तो यह एक संकेत है कि आप में कोरह की कुछ भावना है। जब आप उस की आलोचना करते हैं, तो आप कोरह की भावना से पूर्ण रूप से भरे हैं। यदि आप चुप बैठ कर दूसरों को उसकी आलोचना करते सुनते हैं, तो आप उन 250 विद्रोहियों में शामिल हो गए हैं, जिनपर यहोवा का गंभीर दण्ड आया था।

अगर हम धार्मिकता और आध्यात्मिकता पर गहन विचार नहीं करेंगें तो हम कभी आत्मिक नहीं हो सकते। यह इस समय की मांग है - क्योंकि अन्तिम दिनों के विषय में यह लिखा गया है कि कई लोग ऐसे होंगें जो भक्ति का भेष तो धरेंगे, पर उस की शक्ति को न मानेंगे (जो क्रूस का वचन है)। पवित्र आत्मा ने इस बात के लिए भी विशेष रूप से सावधान रहने को कहा है कि हमारी पवित्रता के लिए परमेश्वर द्वारा नियुक्त मार्ग से कई मसीही विमुख हो जाएँगे और अन्य धार्मिक माध्यमों - जैसे विवाह ना करना और कुछ प्रकार के भोजन आदि से परहेज करना जैसी बातों की ओर मुड़ जाएँगे।

मनुष्य ने अन्य बातों का आविष्कार भी कर लिया है जैसे पाप का सार्वजनिक अंगीकार करना ('विनम्र' बनने के लिए) और बीमारी के समय दवाओं का सेवन ना करना ('विश्वास' बढ़ाने के लिए) आदि आदि, ये सब झूठी बातें दुष्टात्माओं के सिद्धांत हैं, जिनका तात्पर्य मसीहियों को सच्ची भक्ति के रहस्य से दूर ले जाना है (1 तिमुथियास 3:16 से 4:5 पढ़ें)।.

सच्ची आध्यात्मिकता प्राप्त करने का एकमात्र तरीका यह है कि हर दिन अपने आप को मृत्यु तक समर्पित कर दें जैसा प्रभु यीशु ने किया था (रोमियों 8:36; 2 कुरिन्थियों 4:10-12)। अन्य हर तरीका झूठा और गलत है।