प्रायोगिक शिष्यता

द्वारा लिखित :   जैक पूनन श्रेणियाँ :   चेले
    Download Formats:

अध्याय

अध्याय 1
शिष्यता या परिवर्तित व्यक्ति

विश्वासियों में यह सामान्य त्रृटि पाई जाती है कि वे किसी विषय पर एक वचन से शुरूवात करते हैं और अंत किसी और वचन से।

शैतान ने हमारे प्रभु की परीक्षा यह कहकर लिया ''लिखा है---'' (मत्ती 4:6)। परंतु प्रभु ने उस परीक्षा को यह कहकर खारिज किया, ''यह भी लिखा है---'' (मत्ती 4:7)। परमेश्वर का सारा उद्देश्य तब समझ में आ जाता है जब वचन की तुलना वचन से की जाती है - अर्थात जब ''लिखा है---'' को 'यह भी लिखा है---'' के साथ पढ़ा जाता है।

''महान आज्ञा'' के विषय पर ध्यान दें।

यीशु ने उसके चेलों को यह कहकर आज्ञा दिया, ''तुम सारे जगत में जाकर सारी सृष्टि के लोगों को सुसमाचार प्रचार करो'' (मरकुस 16:15)। उसने उन्हें यह कहकर भी आज्ञा दिया ''जाओ और सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ'' (मत्ती 28:19)। ये दो आज्ञाएँ हैं परंतु एक ही महान आज्ञा के भाग हैं। हम इस आदेश के दोनों भागों को ध्यानपूर्वक विचार और आज्ञापालन के व्दारा परमेश्वर की इच्छा को पूरी कर सकते है।

सुसमाचार प्रचार

स्पष्ट है कि पहला कदम है जाकर सभी को सुसमाचार सुनाना (मरकुस 16:15)। यह आज्ञा एक अकेले विश्वासी को नहीं दी गई, परंतु प्रभु की समस्त देह अर्थात कलीसिया को दी गई है। किसी अकेले व्यक्ति या स्थानीय कलीसिया के लिये संसार के प्रत्येक व्यक्ति को सुसमाचार प्रचार करना मानवीय तौर पर असंभव है। हम में से हर एक उसमें एक छोटी भूमिका अदा कर सकता है।

परंतु वह भूमिका चाहे जितनी भी छोटी हो, उसे पूरी करना चाहिये। यहाँ प्रेरितों के काम 1:8 सामने आता है। हर विश्वासी को यदि वह मसीह का प्रभावी गवाह होना चाहता है उसे पवित्र आत्मा का अभिषेक और सामर्थ्य प्राप्त करना चाहिये। ध्यान दें कि हर किसी को सुसमाचार प्रचार के लिये नहीं बुलाया गया है (क्योंकि मसीह ने कलीसिया को कुछ प्रचारक ही दिये है -इफिसियों 4:11 इसे स्पष्ट करती है), परंतु सभी उसकी गवाही के लिये बुलाए गए हैं।

एक प्रचारक का गवाही की अपेक्षा कार्य का दायरा ज्यादा बड़ा होता है। गवाह को उसके परीधी में ही जिसमें वह घूमता-फिरता और काम करता है, मसीह के विषय बताना होता है - रिश्तेदारों, पड़़ोसियों, सहकर्मियों और उनके साथ जिनके संपर्क में वह रोज आता है, जिन्हें वह यात्रा के दौरान यीशु के पास ला सकता है। यही वह स्थान है जहाँ हम सब गवाही दे सकते हैं, चाहे हमारा सांसारिक पेशा कुछ भी हो।

परंतु मसीह ने कलीसिया को प्रचारक भी दिया है, जिनकी खोए हुओं के प्रति ज्यादा जवाबदारी है। तौभी प्रचारक की जवाबदारी केवल आत्माएँ जीतने की नहीं होती या लोगों को मसीह के पास लाने की नहीं होती (जैसा हम सामान्यत: सुनते है), परंतु ''मसीह की देह को मजबूत बनाने की भी होती है'' (इफिसियों 4:11,12 स्पष्ट करती है)। यही वह बात है जहाँ आज का अधिकांश सुसमाचार प्रचार का संबध मसीह की देह के बनाने से नहीं है परंतु व्यक्तिगत आत्मा बचाने से है। सामान्यत: इन आत्माओं को उनके मृत कलीसियाओं में वापस भेज दिया जाता है जहाँ वे फिर से खो जाते हैं, या ज्यादा से ज्यादा गुनगुने बन जाते हैं और एक दिन प्रभु के मुंँह से उगलने योग्य बन जाते है (प्रकाशितवाक्य 3:16)।

किसी भी तरह से वे मसीह की देह में मजबूत नहीं बनाए जाते। इस प्रकार केवल शैतान के उद्देश्य ही पूरे होते हैं - क्योंकि तब तक वह व्यक्ति नर्क का दुगनी संतान बन जाता है (मत्ती 23:15) - प्रथम इसलिये कि वह शुरू से ही खो गया था, दूसरा इसलिये कि वह किसी प्रचारक के व्दारा इस विचार से छला गया है कि वह बचाया गया है, जबकि वह अब भी खोया हुआ है!! इस प्रकार के सुसमाचार प्रचार से जो एकमात्र बात बनती है वह है प्रचारक की अपनी संपत्ती। और सामान्यत: ऐसे सुसमाचार प्रचार का एकमात्र कारण धन कमाना या मनुष्यों से सम्मान पाना या दोनों उद्देश्य होते हैं!!

यीशु ने प्रचारकों को 'मनुष्य के पकड़़नेवाले' कहा। परंतु ऐसा प्रचार जो ऐसे मसीही बनाता हो जिनका ''‚दय परिवर्तित'' न हुआ हो या ऐसा समूह जो वाेेट बटोरने वाले राजनीतिज्ञों का हो, वह फटे हुए जाल से मछली पकड़़ने के समान होता है। कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि यीशु ने उसके सुसमाचार प्रचार की सभाओं के उद्घाटन के लिये हनन्याह, कैफा या हेरोद या पीलातुस को बुलाया होता। और उनसे एक ही पटल पर उनके साथ बैठने को कहा होता। परंतु आज के कई प्रचारक न केवल ऐसा करते हैं परंतु वे उन अपरिवर्तित अगुवों की इन प्लेटफार्म से तारीफ भी करते हैं।

इसके पश्चात्‌ वह मछली जो ऐसे ''जाल'' में पकड़़ी जाती है उन्हें समुद्र में वापस (मृत कलीसियाओं) जाने दिया जाता है कि अगले सुसमाचारीय सभा में फिर से पकड़़ी जाएं ताकि एक बार फिर से समद्र में जाने दिया जाए!! इस प्रक्रिया को आजकल कई प्रचारकों व्दारा अंतरसामुदायिक सभाओं में दोहराया जाता है और हर प्रचारक हाथों, निर्णय कार्डों आदि की गिनती करता है। ऐसा सुसमाचार प्रचार स्वर्गदूतों के लिये नहीं परंतु शैतान के आयोजकों के लिये आनंद लाता है! क्योंकि स्वर्गदूत उन लोगों के लिये कैसे आनंद मना सकते हैं जो नर्क के दोहरे संतान बनाए गए हैं? आज के सुसमाचार प्रचारीय सभाओं के आंकड़़े पूरी तरह धोखा देनेवाले हैं।

यदि संदेश के साथ चिन्ह और चमत्कार भी जोड़ दिये जाएँ तो प्रश्न तब भी वही रहता है कि कितने लोगों को चेला बनाकर कलीसिया में जोड़ा गया है।

हमारे प्रभु के प्रेरितों ने इस तरह का सुसमाचार प्रचार कभी नहीं किया था। उन्होंने उनके व्दारा परिवर्तित लोगों को स्थानीय कलीसियाओं में जाेेड़ दिया था कि वे चेले बनाए जाएँ और आत्मिकता में मजबूत किए जाएँ।

इफिसियों 4:11 में लिखित पाँच सेवकाइयाँ (प्रेरित, भविष्यवक्ता, प्रचारक, चरवाहे और शिक्षक) उनकी प्राथमिकता के अनुसार 1 कुरि-12:28 में क्रमबद्ध किए गए हैं। वहाँ हमें बताया गया है कि, ''परमेश्वर ने कलीसिया में अलग-अलग व्यक्ति नियुक्त किये हैं: प्रथम प्रेरित, दूसरे भविष्यवक्ता, तीसरे शिक्षक, फिर सामर्थ के काम करने वाले, फिर चंगा करनेवाले और उपकार करनेवाले (यह प्रचारकों के विषय है, क्योंकि नए नियम के सभी प्रचारकों के पास चंगा करने का वरदान था) फिर प्रबंध करने वाले (यथार्थ में, वे जो जहाज चलाते हैं, जो चरवाहों/पास्टर को दर्शाते हैं)।''

यह इस बात को स्पष्ट करता है कि परमेश्वर की दृष्टि में, प्रेरितों, भविष्यवक्ताओं और शिक्षकों की सेवकाई मसीह की देह के निर्माण में प्रचारकों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। प्रचारक को उसका सही स्थान उसकी सेवकाई में ही मिल सकता है जब वह उसका प्रेरित, भविष्यवक्ता और शिक्षक के रूप में निर्धारित भूमिका को अपनाता है। तब ही उसकी सेवकाई मसीह की देह के निर्माण के उद्देश्य को पूरा कर सकती है। यही वह क्षेत्र है जहाँ 20वीं शताब्दी का सुसमाचार प्रचार परमेश्वर के वचन से हटकर किया जा रहा है।

शिष्य बनाना

सुसमाचार प्रचार के उद्देश्य को पूरी तरह केवल तब ही समझा जा सकता है जब उसे महान आज्ञा के दूसरे भाग के प्रकाश में देखा जाए - अर्थात संसार के हर देश में चेले बनाना। मत्ती 28:19 - यही वह तरीका है जिसके द्वारा अपरिवर्तित (खोए हुओं) के विषय परमेश्वर की योजना पूरी होती है।

परिवर्तित व्यक्ति को शिष्य बनाना चाहिये।

दुर्भाग्यवश, यहाँ तक कि आजकल तथा कथित परिवर्तित व्यक्ति भी सच्चा नहीं होता, क्योंकि कई मामलों में उसने सही रीति से पश्चाताप नहीं किया होता है। सुसमाचारीय सभा में उसे केवल यीशु पर विश्वास करने के लिये कहा गया रहा होगा, और पश्चाताप या भरपाई की शिक्षा के बिना ही। ऐसे परिवर्तित लोग यीशु के पास आशीषित होने और चंगे होने के लिये ही आते हैं - उनके पापों को छोड़ने के लिये नहीं। इसलिये आजकल के अधिकांश परिवर्तित लोग असमय जन्में शिशुओं के समान होते हैं, जो अधीर धाईयों व्दारा जल्दबाजी में बाहर निकाले हुए जैसे होते हैं (प्रचारकों) ताकि उनके आंकड़़े बढाए जा सकें - जबकि शिशु जन्म के लिये तैयार ही नहीं हुआ था! सामान्यत: ऐसे असमय जन्में शिशु जल्द ही मर जाते हैं, या उनके जीवनभर दोषयुक्त मामले बन कर रह जाते हैं -और उनके चरवाहों (पास्टरों) के लिये कई समस्याएँ खड़ी करते रहते हैं। ऐसे लोगों को 'पतित' नहीं कहा जा सकता क्योंकि वे कभी ''आगे'' बढ़े ही नहीं थे, सामने पहुँचे ही नहीें थे!! यीशु ने कहा कि स्वर्ग में स्वर्गदूत उन पापियों के लिये आनंद मनाते हैं जो पश्चाताप करते हैं, उनके लिये नहीं जो मात्र विश्वास करते परंतु पश्चाताप नहीं करते (लूका 15:7,10)।

यीशु ने कहा कि, जक्कई के घर में उद्धार आया है लेकिन ऐसा तब कहा जब जक्कई ने उसके व्दारा किये गए सभी अनुचित आर्थिक प्राप्तियों को लौटाने की प्रतिज्ञा किया जो उसने उसके पिछले जीवन में किया था - इसके पहले यीशु ने वह घोषणा नहीं किया था। (लूका 19:9)। दुर्भाग्यवश, आज के सुसमाचार प्रचारक ''उद्धार आया है'' की घोषणा बिना भरपाई की प्रतिज्ञा किये ही करते हैं।

परंतु यद्यपि व्यक्ति ने पूरी तरह पश्चाताप किया हो, और उसका वास्तविक परिवर्तन हुआ हो, तब भी उसे शिष्य बनाना चाहिये, यदि वह अपने जीवन में परमेश्वर की इच्छा को पूरा करना चाहता है। ऐसा सुसमाचार प्रचार जिसमें शिष्यता का कार्य न हो वह अधूरा प्रचार है।

अक्सर, प्रचारक की यह इच्छा होती है कि वह अपना ही राज्य बनाए जो उन लोगों को रोकता है जो उसके साथ मिलकर ''परिवर्तित'' व्यक्ति को शिष्य बना सकते हैं। हमें ऐसे प्रचारकों पर दोष नहीं लगाना चाहिये क्योंकि हमें कहा गया है कि दोष न लगाओ। परंतु ऐसे प्रचारकों को अंतिम दिन निश्चित रूप से प्रभु को जवाब (लेखा) देना होगा, कि क्यों उन्होंने उनके व्दारा परिवर्तित लोगों के शिष्य बनाए जाने में बाधा उत्पन्न किया था।

लोगों को पश्चाताप और विश्वास करने में अगुवाई करने हेतु पहला कदम पानी का बाप्तिस्मा है - जैसा कि यीशु ने मरकुस 16:16 में स्पष्ट कहा है, और जैसा पतरस ने पेन्तिकुस्त के दिन प्रचार किया (प्रेरितों के काम 2:38)। मत्ती 28:19 भी पानी के बाप्तिस्मा की जरूरत को दिखाती है। इसलिये जिनका नया जन्म हुआ है उनके लिये यही अगला कदम है।

इसलिये, उसे उसके दैनिक जीवन में यीशु का चेला बनकर उसके पीछे चलना चाहिये।

शिष्यता की शर्तें

लूका 14:25-35 शिष्यता की इन शर्तों की स्पष्ट रीति से प्रगट करता है।

वहाँ यीशु एक व्यक्ति के विषय कहता है जिसने इमारत बनाने के लिये नींव तो डाल दिया परंतु उसे पूरा न कर सका क्योंकि इमारत बनाने के लिये उसके पास धन नहीं था (पद 28-30)। यह इस बात को सिद्ध करता है कि शिष्य बनने की कीमत चुकाना होता है। यीशु ने हमें सिखाया कि पहले हम बैठकर हिसाब लगाएँ इससे पहले कि बांधकाम शुरू करेंं।

इससे पहले कि हम यह समझें कि शिष्यता की कीमत क्या होती है, परमेश्वर नहीं चाहता कि हम हमारे पापों की क्षमा प्राप्ति के बाद भी कई वर्षों तक ठहरें रहें। यीशु ने उन्हें जो उसके पास आए थे उन्हें शिष्यता की कीमत तुरंत बता दिया था। उसने यह भी कहा कि एक विश्वासी जो शिष्य होने की इच्छा नहीं रखता वह परमेश्वर के लिये उस नमक के समान है जिसने अपना स्वाद खो दिया हो (लूका 14:35)।

एक परिवर्तित व्यक्ति को शिष्य बनने के लिये, सर्वप्रथम उसके उन रिश्तेदारों से संबध विच्छेद करना होगा जो उसे प्रभु के पीछे चलने में बाधा डालते हैं (लूका 14:26)। दूसरी बात, उसे अपने आप का इन्कार करना होगा और प्रतिदिन अपने स्वार्थी जीवन को क्रूस पर चढ़ाना होगा। (लूका 14:27)। तीसरी बात, उसे भौतिक संपत्ति के प्रति लगाव छोड़ना होगा। (लूका 14:33)। किसी भी व्यक्ति को शिष्य बनने के लिये ये तीन शर्तें पूरी करना होगा।

शिष्यता की पहली शर्त यह है कि हमें सभी प्राकृतिक, तथा अत्याधिक प्रेम को त्यागना होगा जो हम हमारे रिश्तेदारों के लिये रखते हैं।

यीशु ने कहा,

''यदि कोई मेरे पास आए और अपने पिता और माता और पत्नी और बच्चों और भाइयों और बहनों वरन अपने प्राण को भी अप्रिय न जाने तो वह मेरा चेला नहीं हो सकता'' (लूका 14:26)।

ये बहुत कड़े शब्द हैं। 'अप्रिय' जानने का क्या अर्थ है? अप्रिय जानने का मतलब हत्या करने के समान है (1 यूहन्ना 3:15)। यहाँ हमें जो क्रूस पर चढ़ाने को कहा गया है वह हमारे रिश्तेदारों के लिये हमारा स्वाभाविक लगाव है।

क्या इसका मतलब यह हुआ कि हम उनसे प्रेम न करें? नहीं। इसका यह मतलब कभी नहीं होता। जब हम उनके लिये अपना मानवीय लगाव त्याग देते हैं, परमेश्वर उसे ईश्वरीय प्रेम में बदल देता है। तब हमारे रिशतेदारों के लिये शुद्ध प्रेम होगा - मतलब यह कि लगाव के विषय परमेश्वर का हमारे जीवन में प्रथम स्थान होगा, हमारे रिश्तेदारों का नहीं।

कई लोग परमेश्वर की इस आज्ञा का पालन इसलिये नहीं करते क्योंकि उन्हें डर होता है कि कहीं वे उनके पिता, माता या पत्नी आदि को दुखी न कर दें। परमेश्वर हमारे जीवन में प्रथम स्थान की मांग करता है। और यदि हम उसे वह स्थान न दें तो हम उसके शिष्य नहीं बन सकते। हमारे जीवन के सभी क्षेत्रों में यीशु को ही प्रभु होना चाहिये, अन्यथा वह प्रभु हो ही नहीं सकता।

यीशु के ही अपने उदाहरण को देखें जब वह इस पृथ्वी पर था। यद्यपि वह उसकी विधवा माँ से प्रेम करता था, फिर भी उसने उसे उसके पिता की सिद्ध इच्छा में दखल देने की कभी अनुमति नही दिया, यहाँ तक कि छोटी बातों में थी। इस बात का उदाहरण हम काना के विवाह में देख सकते हैं जहाँ उसने अपनी माँ के आग्रह पर अमल करने से इन्कार कर दिया (यूहन्ना 2:4)।

यीशु ने हमारे भाइयों को भी ''अप्रिय'' कैसा समझा जाए यह भी सिखाया। जब पतरस ने यीशु को क्रूस पर जाने से रोकने की कोशिश किया तो उसने पीछे मुड़कर उसे ऐसे कड़़े शब्दों में डाँटा जो उसने कभी किसी मनुष्य के लिये नहीं कहा था। उसने कहा, ''हे शैतान, मेरे सामने से दूर हो। तू मेरे लिये ठोकर का कारण है'' (मत्ती 16:23)। पतरस ने उसका यह सुझाव मानवीय प्रेम के व्दारा दिया था। परंतु यीशु ने उसे डाँटा, क्योंकि पतरस ने जो सलाह दिया था वह पिता की इच्छा के विरुद्ध था।

यीशु के स्नेह में पिता हमेशा सर्वोच्च रहा था। वह चाहता है कि उसके विषय भी हमारी भी यही नीति हो। उसके पुनरूत्थान के पश्चात, यीशु ने पतरस से उसे कलीसिया में चरवाहा बनाने से पहले पूछा कि क्या वह उसे पृथ्वी की सब बातों से बढ़कर प्रेम रखता है (यूहन्ना 21:15-17)। कलीसिया में उन्हीं लोगों को जवाबदारी दी जाती है जो प्रभु से सबसे ज्यादा प्रेम करते हैं।

इफिसियों की कलीसिया का अगुवा तिरस्कृत किये जाने के खतरे में था जब उसने प्रभु के प्रति उसका बुनियादी प्रेम खो दिया था (प्रकाशितवाक्य 2:1-5)।

यदि हम भजनकार की तरह कह सकते हैं ''स्वर्ग में मेरा और कौन है? तेरे संग रहते हुए मैं पृथ्वी पर और कुछ नहीं चाहता'', तो हमने वास्तव में शिष्यता की पहली शर्त को पूरा किया है (भजन 73:25)।

जो प्रेम यीशु हमसे चाहता है वह भावनात्मक, संवेदनशील, मानवीय स्नेह नहीं है जो स्वयँ को उसकी आराधना में उत्तेजनापूर्ण गीतों के व्दारा प्रगट करते हैं। नहीं। यदि हम उससे प्रेम करते हैं तो उसकी आज्ञाओं को मानेंगे (यूहन्ना 14:21)।

शिष्यता की दूसरी शर्त यह है कि हमें अपने आप को भी अप्रिय जानना होगा। यीशु ने कहा,

''यदि कोई मेरे पास आए--- और अपने प्राण को भी अप्रिय न जाने, तो वह मेरा चेला नहीं हो सकता'' (लूका 14:26)

इसी बात को उसने स्पष्ट करते हुए आगे कहा,

''जो कोई अपना क्रूस न उठाए, और मेरे पीछे न आए, वह भी मेरा चेला नहीं हो सकता'' (लूका 14:27)। यह यीशु की शिक्षाओं में सबसे कम समझ में आनेवाली शिक्षा है।

यीशु ने कहा की एक चेले को ''अपने आपे से इन्कार करके प्रतिदिन अपना क्रूस उठाना होगा (लूका 9:23)। हमारे व्दारा प्रतिदिन बायबल के पढ़े जाने, या प्रार्थना करने से बढ़कर हमें प्रतिदिन अपने आपे का इन्कार करना होगा और प्रतिदिन अपना क्रूस उठाना होगा। अपने आपे का इन्कार करना ही अपने जीवन को अप्रिय मानना है -वह जीवन जो हमें आदम से प्राप्त हुआ है। क्रूस को उठाने का मतलब अपने आपे को क्रूस पर चढ़ाना है। सर्वप्रथम हमें उस जीवन को अप्रिय जानना है इससे पहले कि हम उसे खत्म कर दें।

हमारा अपना स्वार्थी जीवन ही मसीह के जीवन का मुख्य शत्रु है। बायबल इसे ''शरीर'' कहती है। शरीर बुरी अभिलाषाओं का भंडार है जो हमें हमेशा हमारी अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने को कहता है - हमारा अपना फायदा, अपना सम्मान, अपना सुख अपने ही तरीके से प्राप्त करने को कहता है।

यदि हम इमानदार हैं, हमें यह स्वीकार करना होगा कि यहाँ तक कि हमारे सर्वोत्तम कार्य भी बुरी लालसाओं व्दारा भ्रष्ट हैं जो हमारी भ्रष्ट अभिलाषाओं व्दारा उठती हैं। जब तक हम इस ''शरीर'' को अप्रिय नहीं जानते, हम कभी भी परमेश्वर के पीछे नहीं चल पाएंगे।

इसीलिये यीशु ने हमारे जीवन को अप्रिय (त्यागने) जानने के विषय इतना कुछ कहा। वास्तव में यह बात सुसमाचारों में 7 बार दोहराई गई है (मत्ती 10:39; 16:25; मरकुस 8:35; लूका 9:24; 14:26;17:33; यूहन्ना 12:25)। यह हमारे प्रभु के व्दारा कही गई एक बात है जो सुसमाचारों में बार बार दोहराई गई है। फिर भी इसे ही कम से कम प्रचार किया जाता और कम ही समझा जाता है।

हमारे जीवन को अप्रिय जानने का अर्थ है हमारे अधिकारों और सहूलियतों की मांग को त्यागना, हमारी अपनी प्रतिष्ठा की चाह न करना, हमारी अपनी इच्छाओं और रूचियों को त्याग देना और हमारे अपने मार्गों का त्याग करना आदि। हम यीशु के शिष्य तब ही हो सकते हैं जब हम इसी तरह चलने को तैयार हों।

शिष्यता की तीसरी शर्त है कि हमें अपनी सारी संपत्ति को त्यागना होगा।

यीशु ने कहा,

''तुम में से जो कोई अपना सब कुछ त्याग न दे, वह मेरा चेला नहीं हो सकता'' (लूका 14:33)।

हमारी संपत्ति वह होती है जिसे हम हमारी अपनी कहकर अपने पास रखते हैं। उन सबको त्यागने का मतलब है कि अब हम उन्हें अपना नहीं समझते।

हम अब्राहम के जीवन में इस स्पष्टीकरण को देखते हैं। इसहाक उसका अपना बेटा था - उसकी अपनी संपत्ति। एक दिन परमेश्वर ने उससे कहा कि इसहाक को बलि चढ़ा दे। और अब्राहाम ने इसहाक को वेदी पर डाल दिया और उसे बलि करने के लिये तैयार हो गया। परंतु परमेश्वर ने उसे रोक दिया और उससे कहा कि बलि की आवश्कता नहीं रही क्योंकि उसने आज्ञापालन करने की इच्छा को सिद्ध कर दिया था (उत्पत्ति 22)। उसके पश्चात्‌ अब्राहम ने यह जान किया कि यद्यपि इसहाक उसके घर में था, तौभी उस पर उसका अपना अधिकार नहीं था। अब इसहाक परमेश्वर का हो गया था।

हमारी सब संपत्ति को त्यागने का यही अर्थ होता है। हमारे पास जो कुछ है उन सब को वेदी पर चढ़ाकर परमेश्वर को समर्पित कर देना चाहिये।

परमेश्वर हमें उनमें से कुछ चीजों का उपयोग करने की अनुमति देता है। परंतु हम उन्हें अपना नहीं कह सकते। यद्यपि हम अपने ही घर में रहते हैं, हमें घर को परमेश्वर की संपत्ति (मिल्कियत) समझना चाहिये; और यह कि उसने हमें यह घर किराए के बिना ही रहने के लिये दिया है। यही सच्ची शिष्यता है।

क्या हमने अपनी सारी संपत्ति उसे दे दिया है? हमारी संपत्ति में हमारा बैंक अकाऊंट, चल-अचल संपत्ति, नौकरी, योग्यताएं, दान-वरदान, पत्नी, बच्चे और वह सबकुछ जो इस पृथ्वी पर हमारे लिये महत्वपूर्ण हैं। यदि हम सच्चे शिष्य होना चाहते हैं तो हमें उन सब को वेदी पर चढ़ाना होगा।

तब ही हम परमेश्वर को हमारे सारे ‚दय से प्रेम कर सकेंगे। यह वही शुद्ध ‚दय जिसके विषय यीशु ने मत्ती 5:8 में कहा। शुद्ध विवेक रखना ही काफी नहीं है। एक शुद्ध विवेक का अर्थ है कि हमने हर जाने हुए पाप को छोड़ दिया है। एक शुद्ध ‚दय का मतलब है कि हमने सब कुछ छोड़ दिया है।

और इस प्रकार हम देखते हैं कि सच्ची शिष्यता में नीतियों का मौलिक परिवर्तन है : (क) हमारे रिश्तेदार और प्रेमी लोग; (ख) हमारा अपना जीवन; और (ग) हमारी सपंत्ति।

जब तक हम इन मुद्दों को पूरी तरह और इमानदारी से सुलझा नहीं लेते, हमारे जीवन के लिये परमेश्वर के संपूर्ण उद्देश्यों को पूरा करना असंभव है।

जब तक प्रचारक शिष्यता के इस संदेश को न दे, उनके लिये मसीह की देह का बनाना असंभव होगा।

शिष्यता का मार्ग

मत्ती 28:20 कहती है कि शिष्यों को हमारे प्रभु के व्दारा जानेवाली प्रत्येक आज्ञा को मानना सिखाना चाहिये। यही शिष्यता का मार्ग है। यीशु के व्दारा दिये गये अन्य आदेशों को जानने के लिये मत्ती के 5वें, 6वें और 7वें अध्याय को पढ़ना होगा -अधिकांश विश्वासी इन आज्ञाओं का पालन करने के विषय सोचते भी नहीं हैं।

एक शिष्य सीखनेवाला और अनुयायी होता है।

हमारे देश की जरूरत ऐसे लोगों की है जो बुलाहट व्दारा जकड़े गए हैं और कि वे परमेश्वर के लोगों वचन सुनाएँ, जो यीशु की सभी आज्ञाओं का पालन करते, और जो यीशु की आज्ञाओं को सिखाने में तत्पर हैं और इस प्रकार मसीह की देह का निर्माण करते हैं।

यीशु ने कहा कि उसके सभी शिष्य एक ही चिन्ह द्वारा जाने जाएँगे - एक दूसरे के लिये प्रेम (यूहन्ना 13:35)।

इस बात पर ध्यान दें! यीशु के शिष्य उनके प्रचार की गुणवत्ता, न ''अन्य-अन्य भाषा बोलने'' न सभाओं में उनके बायबल ले जाने, न ही सभाओं में उनके व्दारा मचाए जानेवाले हुल्लड़ के व्दारा जाने जाते है!! वे एक दूसरे के प्रति उनके प्रेम के लिये जाने जाते हैं।

वे सुसमाचारीय सभाएँ जिनमें लोगों को मसीह के पास लाया जाता है, जरूरी है कि उन लोगों को स्थानीय कलीसिया से जोडा जाए जहाँ शिष्य एक दूसरे से प्रेम करते हैं।

फिर भी दुख की बात यह है कि कई स्थानों में जहाँ हर वर्ष बार-बार सुसमाचारीय सभाएँ होती हैं, वहाँ एक कलीसिया भी पाना मुश्किल होता है जिसे यह कहा जा सकता है कि उसके सदस्य आपस में लड़ते भिड़ते नहीं है या एक दूसरे की चुगली नहीं करते हैं, आदि, परंतु एक दूसरे से प्रेम करते हैं।

यदि नये परिवर्तित लोग तुरंत विजयी जीवन जीने में असमर्थ होते हों तो उन्हें समझा जा सकता है। परंतु हमारे देश की कलीसियाओं के उन प्राचीनों और मसीही अगुवों के विषय हम क्या कहेंगे यदि उनके बीच कलह और अपरिपक्वता दिख पड़़ती है।

यही सबसे अधिक स्पष्ट सबूत है कि महान आज्ञा का दूसरा और अति महत्वपूर्ण भाग (जो मत्ती 28:19,27 में दिया गया है) अर्थात शिष्टता और यीशु की आज्ञाओं का पूरा पालन - पूरी तरह नजरअंदाज किया जाता है।

महान आज्ञा का पहला भाग (मरकुस 16:15)। ही अक्सर हर जगह बताया जाता है। वहाँ बल, सुसमाचार प्रचार, संदेश का चिन्ह चमत्कारों व्दारा जो प्रभु करता है, पर दिया गया है।

मत्ती 28:19,20 में यद्यपि शिष्यता पर जोर दिया गया है अर्थात शिष्य के जीवन व्दारा यीशु की आज्ञाओं का पालन प्रगट होता है। काफी लोग पहली बात को ही ज्यादा महत्व देते हैं परंतु बहुत, बहुत कम लोग ही दूसरी बात पर ध्यान देते हैं। लेकिन दूसरी बात के बिना पहली बात अधूरी और मूल्यहीन है जैसे मनुष्य का आधा शरीर। परंतु कितने लोगों ने इसे देखा है?

यीशु की सेवकाई में, हम पढ़ते हैं कि बड़ी भीड़ उसके पीछे चलती थी, जो उसके सुसमाचारीय तथा चंगाई की सेवा के कारण थी। उसने हमेशा पीछे मुड़कर शिष्यता के विषय सिखाया (देखें लूका 14:25,26)। क्या आज के प्रचारक भी ऐसा ही करेंगे चाहे वे खुद या प्रेरितों, भविष्यवक्ताओं, शिक्षकों और चरवाहों के साथ मिलकर जो उन कार्यों को पूरा कर सकते हैं जिन्हें सुसमाचार प्रचारकों ने शुरू किया था।

प्रचारक लोग शिष्यता का संदेश देने में संकोच क्यों करते हैं? क्योंकि ऐसा करने से उनकी कलीसियाओं में संख्या घट जाएगी। परंतु जिस बात को वे समझ नहीं पाते वह यह है कि उनकी कलीसिया की गुणवत्ता और बेहतर की जाएगी!

जब यीशु ने बड़े समूहों को शिष्यता के विषय सिखाया तो वह घटकर 11 चेलों तक उतर गई (तुलना करें यूहन्ना 6:2 की 6:70 के साथ)। अन्य लोगों को संदेश काफी कठिन लगा और वे उसे छोड़कर चले गए (देखें यूहन्ना 6:60,66)। परंतु वे चेले ही थे जो उसके साथ बने रहे, और अंत में परमेश्वर ने उसके उद्देश्य को पूरा किया।

आज पृथ्वी पर मसीह की देह के रूप में, हमें भी वही सेवकाई करना है जो उन 11 प्रेेरितों ने प्रथम शताब्दी में शुरू किया था। जब लोगों को मसीह के पास लाया जाता है, उन्हें शिष्यता और आज्ञापालन सिखाया जाना चाहिये। केवल इसी तरह मसीह की देह बनाई जा सकती है।

जीवन का मार्ग सकरा है और बहुत थोड़़े लोग ही उसे पाते हैं।

जिसके पास सुनने के कान हों वह सुन ले।

अध्याय 2
शिष्यता और घर

एक शिष्य सीखनेवाला और प्रभु यीशु का अनुयायी होता है। यह वह होता है जिसने यीशु को अपना उदाहरण बनाया है और अपने जीवन को अपने स्वामी के जीवन के अनुसार ढालने की कोशिश करता है।

परोपकारिता के समान शिष्यता भी सर्वप्रथम घर ही शुरू होती है।

शिष्यता और माता-पिता

सच्ची शिष्यता की बुनियाद यीशु को हमारे जीवन के हर क्षेत्र का प्रभु बनाना है उसे वह सब कुछ देना है जो हमारे पास है।

आइये, सबसे पहले हम यह देखें कि हम अपने माता-पिता को अप्रिय कैसे कर सकते हैं? जैसा कि प्रभु ने हमें लूका 14:26 में करने को कहा है।

पहला कदम है कि हम उनका आदर करें। यह प्रतिज्ञा के साथ पहली आज्ञा है (इफिसियों 6:2)। हम अपने माता-पिता उस तरह अप्रिय नहीं जान सकते जब तक हम उनका सम्मान करना न सीख लें। आज संसार में कई बच्चे हैं जो अपने माता-पिता को अप्रिय जानते हैं!! झूठी शिक्षा भी इस बात का काफी दुरूपयोग करती है कि वे उनके लिये ऐसे जवानों को इकट्ठा करें जिन्होंने उनके माता-पिता का आदर करना नहीं सीखा है।

यीशु का उदाहरण वह है जिसे हर शिष्य को अनुकरण करना चाहिये। यदि हम ऐसा करते हैं, तो हम कभी नहीं भटकेंगे। लेकिन यदि हम हमारे प्रभु की कही बातों का उसके उदाहरण को देखे बिना ही व्याख्या करेंगे तो हम उससे दूर हो जाएँगे जैसे कई मसीहियों ने किया है। हमारे प्रभु ने ''उससे सीखने'' को कहा है (मत्ती 11:29)।

यीशु ने उसकी सांसारिक माँ को किस तरह ''अप्रिय'' जाना? सर्वप्रथम उसने जब तक नासरत में उनके घर में रहा उनके अधीन रहकर उनका आदर किया (लूका 2:51)।

नासरत में यीशु के 30 वर्ष के जीवन के विषय केवल दो बातें ही कहीं गई हैं।

सबसे पहले, इब्रानियों 4:15 में हमें बताया गया है कि उसकी भी वैसी ही परीक्षा हुई जैसे हमारी होती है, और उसने कभी पाप नहीं किया। इस बात से हमें यह ज्ञात होता है कि नासरत में उन 30 वर्षों के दौरान उसने कई परीक्षाओं का सामना किया रहा होगा - वही परीक्षाएँ जो एक व्यक्ति उसके जीवन के 30 वर्षों तक सामना करता है - बचपन से प्रौढ़ावस्था तक।

मरकुस 6:3 हमें बताती है कि यीशु के कम से कम चार भाई और दो बहनें थीं, और वह एक गरीब परिवार था। हम जानते हैं कि जब हम लूका 2:24 की तुलना लैव्यवस्था 12:8 से करते हैं तो पाते हैं कि मरियम इतनी गरीब थी कि वह परमेश्वर के लिये बलिदान चढ़ाने हेतु एक मेम्ना भी नहीं ला सकती थी। इसलिये यीशु के पास उसका अपना शयनकक्ष नहीं था जहाँ वह आराम किया होता विशेषकर उस समय जब घर में कठीन परिस्थिति होती थी। यूहन्ना 7:5 भी हमें बताता है कि उसके भाई उस पर विश्वास नहीं करते थे। स्पष्ट है कि वे उससे घर में इर्ष्या करते थे जो कभी क्रोधित नहीं होता था और न कभी स्वार्थी बनता था। कई बार वे उसके विरुद्ध ''गुटबाजी'' भी किए रहे होंगे और उसे चिढ़ाया और खिजाया भी होगा। कोई भी व्यक्ति जो बड़े परिवार के साथ छोटे घर में रहा होगा और साथ में उद्धार न पाए हुए रिश्तेदार रहे हों तो वही व्यक्ति उन समस्याओं को समझ सकता है जिनका सामना यीशु ने नासरत में किया रहा होगा। फिर भी उसने कभी पाप नहीं किया। इन सब के साथ-साथ, यह संभव है कि यूसुफ उस समय मरा होगा जब यीशु किशोरावस्था में या 20 वर्ष की आयु का रहा होगा (क्योंकि यीशु की लोगों के बीच सेवकाई के विषय हम यूसुफ के बारे में कुछ नहीं पढ़ते)। फिर 8 सदस्यों के परिवार को संम्भालने का बोझ यीशु पर आ पड़़ा होगा क्योंकि यीशु सबसे बड़ा बेटा था। परिवार को संम्भालने के लिये उसे कठीन परिश्रम करना पड़़ा। ऐसी स्थितियों में यीशु को कई परीक्षाओं का सामना भी करना पड़़ा रहा होगा। फिर भी उसने पाप नहीं किया।

दूसरी बात, यीशु ''यूसुफ और मरियम के अधीन रहा'' (लूका 2:51) -जब तक वह उनके साथ घर में 30 वर्ष तक रहा। उसके लिये यह आसान नहीं रहा होगा जैसा हम अपने ही बचपन के दिनों से जानते हैं। कितने बार हम अपने बचपन में कुछ करना चाहते थे, परंतु हमारे माता-पिता ने कुछ और करने को कहा जो हम करना नहीं चाहते थे!

इसलिये हम यीशु का उदाहरण अपने बच्चों को दे सकते हैं। पिताओं को आज्ञा दी गई है कि वे बच्चों को परमेश्वर के वचन की शिक्षा दें (इफिसियों 6:4)। ''प्रभु की शिक्षा क्या है''? यह मूलत: वही उदाहरण है जो प्रभु ने स्वंय नासरत में उसके दिनों में आदर्श के रूप में रखा है।

यदि कोई भी लड़का या लड़की प्रभु के आदर्श का अनुकरण करेगा जिन्हें हमने ऊपर दो स्थानों में देखा है, तो वह भी बुद्धि और परमेश्वर के अनुग्रह में बढ़ता जाएगा - जैसा कि यीशु के विषय लिखा है (लूका 2:52)।

यहाँ तक कि जब हम बड़े हो जाते और हमारा विवाह हो जाता है, तब भी हमें अपने बुजुर्ग माता-पिता का आदर करना चाहिये। उत्पत्ति 9:21-27 में हम पढ़ते हैं कि नूह के पुत्र हाम ने उसके पिता को तंबू के भीतर नशे की अवस्था में वस्त्रहीन देखा। उस समय हाम एक प्रौढ़ पुरुष था, क्योंकि वह प्रलय से पहले ही विवाहित हो चुका था। हाम ने बाहर जाकर यह बात उसके भाइयों से कहा और उसके पिता को अपमानित किया। हाम ने जो कहा वह सही था, परंतु उसने उसके पिता का अनादर किया। और हाम और उसके परिवार को परिणामस्वरूप श्रापित किया गया। चुगली करने वाले परमेश्वर के व्दारा शापित किये जाते हैं तब भी जब वे सच कह रहे हों। चुगली करने वाला कोई भी व्यक्ति यीशु का चेला नहीं हो सकता।

नूह के अन्य दो पुत्र - शेम और येपेत ने, यद्यपि उनके बुजुर्ग पिता का पीछे हटने के व्दारा आदर किया (ताकि वे उनके पिता की नग्नता को न देखें) और स्वयं को ढांक लिया। और वे तथा उनके परिवार आशिषित हुए।

इस उदाहरण से जो हम सीखते हैं वह यह है कि परमेश्वर उन्हें आशीष देता है जो उनके माता-पिता का आदर करते हैंं और वह उन्हें श्रापित करता है जो अपने माता पिता को तुच्छ जानते हैं। यह उदाहरण बायबल की शुरूवात में ही हमें चेतावनी और उदाहरण के रूप में दिया गया है - चाहे हम जवान हों या बूढ़े।

यद्यपि यूसुफ और मरियम परमेश्वर का भय माननेवाले थे (पुरानी वाचा के मापदंड के अनुसार), फिर भी हमें यह याद रखना चाहिये कि उन्होंने पाप पर विजय नहीं पाया (जो विशिष्ट रूप से नई वाचा की प्रतिज्ञा है -देखें रोमियों 6:14)। उनके पास पवित्र आत्मा नहीं था और वे उस अनुग्रह को नहीं पा सके जो आज हमारे पास है। इसलिये उनके घर में विवाद होता रहा होगा, एक दूसरे पर क्रोधित हुए होंगे और कई अन्य तरीकों से उन्होंने पाप भी किया रहा होगा (यदि आप इस पर विश्वास करने में कठिनाई करते हैं तो वह शायद इसलिये कि आप सोचते हैं कि मरियम दोष रहित थी!!)। यीशु ने नासरत के घर में यूसुफ और मरियम को कई-कई बार पाप करते हुए देखा होगा। फिर भी उसने उनको तुच्छ नहीं जाना। यही हमारे माता-पिता के आदर का मुख्य भाग है।

नीतिवचन 23:22 कहती है, ''जब तेरी माता बूढ़ी हो जाए, तब भी उसे तुच्छ न जानना।'' यदि आप अपने माता-पिता में कोई दोष देखते हैं (''उनकी नग्नता'') तौभी उन्हें तुच्छ न समझें। अनकी कमजोरियों को ढांप लें और उसके विषय किसी से कुछ न कहें। वास्तव में हमें सभी से ऐसा ही व्यवहार करना चाहिये, क्योंकि हमें कहा गया है कि जहाँ सच्चा प्रेम है, तो वह ''कई पापों को ढांप लेता है।''

यदि आप का नया जन्म हुआ है और आपके माता-पिता का नहींं, और वे आपको कुछ ऐसा करने को कहते हैं जो वचन के विरुद्ध है, (उदाहरण के लिये किसी मूर्ति की पूजा या किसी अविश्वासी से विवाह करने), तो आप उन्हें आदर के साथ कह सकते हैं कि आप ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि परमेश्वर का वचन आपको ऐसा करने से रोकता है। आपको निश्चित रूप से परमेश्वर के लिये ऐसा कदम उठाना चाहिये। परंतु यह बात आपको क्रोध से नहीं कहना चाहिये! इसे आप अनुग्रहपूर्ण रीति से नम्रता के साथ कर सकते हैं।

परंतु उन बातों के विषय जिनमें वचन का संबध नहीं होता - बच्चों को उनके माता-पिता की आज्ञा का पालन करना चाहिये जब वे घर पर होते हैंं। एक बार जब वे अपने माता-पिता का घर छोड़कर अपना अलग घर बसा लेते हैं, तब वे उनकी आज्ञापालन के विषय बाध्य नहीं होते। परंतु तब भी उन्हें उनके माता-पिता का आदर करना चाहिये और उनकी देखरेख करना चाहिये।

इस बात को हम यीशु के उदाहरण मेंं भी देखते हैं -जिसका उसके अनुयायियों को अनुकरण करना चाहिये। जब यीशु ने 30 वर्ष की आयु में घर छोड़ दिया और बाप्तिस्मा ले लिया तो सबसे पहली घटना जो सुसमाचारों में पाई जाती है वह काना में विवाह के भोज की है। मरियम ने यीशु को 30 वर्ष तक आज्ञाकारी पुत्र के रूप में देखी थी जिसने घर की कई समस्याओं को सुलझाया था। और वह जानती थी कि दाखरस की कमी के बावजूद भी वह कुछ कर सकता था। शायद उसने किसी आश्चर्यकर्म की आशा नहीं की थी, क्योंकि तब तक यीशु ने कोई आश्चर्यकर्म नहीं किया था। परंतु उसने घर पर देखी थी कि उसका पुत्र बुद्धिमान और निष्कपट था। इसलिये उसने यीशु से कुछ करने को कही।

और वहाँ हम पहली बार यीशु को मरियम के साथ कड़़ाई से बात करते हुए देखते हैं : ''हे महिला, मुझे तुझ से क्या काम?'' (यूहन्ना 2:4)। उसने अब अपना घर छोड़ दिया था और इसलिये उसकी आज्ञा का पालन करने के लिये बाध्य नहीं था।

यही वह बात है जो यीशु ने उसके चेलों से उनके माता-पिता को ''अप्रिय'' जानने के विषय कहा। हमें भी यही संतुलन बनाना चाहिये। हम जब अपने माता-पिता के घर में रहते हैं तब तक हमें उनका आदर करना चाहिये और परमेश्वर की आज्ञापालन के विषय उन्हें ''अप्रिय'' जानना चाहिये। यह वह समय था जब परमेश्वर की इच्छा पूरी करने का था कि वह उस सेवकाई को पूरा करे जो उसके पिता ने दिया था जिसके विषय यीशु ने मरियम से कहा, ''अभी मेरा समय नहीं आया।'' (यूहन्ना 2:4)। एक बार जब हम घर छोड़ देते और हमारा घर बस जाता है, हम अपने माता-पिता के अधीन नहीं रहते।

यह जानना रोचक बात है कि सभी मनुष्यों को जो पहली आज्ञा दी गई थी वह यह थी : ''इस कारण पुरुष अपने माता पिता को छोड़कर अपनी पत्नी से मिला रहेगा'' (उत्पत्ति 2:24)। और यह आज्ञा उस समय दी गई थी जब आदम का कोई पिता या माता नहीं थे जिन्हें वह छोड़ता! स्पष्ट है कि यह उनके लिये लिखा है जो उसके पश्चात विवाह करने वाले थे।

दुर्भाग्यवश, भारत में अधिकांश विवाहों में पति, परमेश्वर की इस आज्ञा का पालन नहीं करते। गैरमसीहियों का उनके माता-पिता के साथ ज्यादा लगाव हम समझ सकते हैं बजाए उनकी पत्नी के साथ लगाव रखने के, परंतु हम उन मसीहियों के विषय क्या कहेंगे जो भारत की इस गैरमसीही परंपरा का ही पालन करते रहते हैं? वे उस विवाहित जीवन को प्रस्तुत करने में चूक जाते हैं जो परमेश्वर चाहता है कि हम हमारे देश के सामने प्रस्तुत करें।

यह मूलत: अपने माता-पिता को छोड़ देने की बात नहीं है, परंतु भावनात्मक रीति से उनसे दूर रहने की बात है। एक पति की पहली इमानदारी और लगाव उसके पत्नी के साथ होना चाहिये, उसके माता पिता के साथ नहीं।

उसी प्रकार पत्नी को आज्ञा दी गई है कि वह अपने पिता के घर को भूल जाए (भजन 45:10)।

निश्चित रूप से हमें अपने माता-पिता की देखभाल करना चाहिये जब वे बूढ़े और कमजोर हो जाते हैं। यीशु ने यहाँ भी हमें एक उदाहरण दिया है, जो उसने क्रूस पर अपनी मृत्यु के समय अपनी विधवा माँ के लिये यूहन्ना के साथ मिलकर घर का इन्तजाम किया (यूहन्ना 19:26,27)। परंतु माता-पिता को कभी भी पति-पत्नी के बीच में नहीं पड़़ने देना चाहिये। भारत में कई मसीही परमेश्वर के पीछे चलने में, उनके माता पिता के साथ उनके घनिष्ट तथा प्राकृतिक लगाव के कारण, रूकावट महसूस करते हैं।

व्यवस्थाविवरण 33:8-11 में हमें बताया गया है कि लेवी के कुल को परमेश्वर के याजक होने के लिये क्यों चुना गया था। उन्हें यह सेवकाई प्रतिफल के रूप में इसलिये दी गई थी क्योंकि उन्होंने परमेश्वर को उनके माता-पिता से, भाइयों तथा बच्चों से उपर रखा था। जब मूसा ने इस्त्राएलियों को सुनहरे बछ़डे की आराधना करते देखा और पूछा कि उसके साथ परमेश्वर की ओर से कौन खड़ा रहेगा, तब केवल उस दिन लेवी के गोत्र के लोग ही उसके सामने आए। तब लेवियों को कहा गया कि वे वापस छावनी में जाएँ और यहाँ तक कि उनके अपने रिश्तेदारों का वध करें जिन्होंने मूर्तिपूजा किया था (निर्गमन 32:26)। ये लेवी यीशु के शिष्यों में सबसे आगे थे।

थोड़़े दिन पहले ही मूसा के व्दारा इस्त्राएलियों को व्यवस्था दी गई थी, जिसमें उन्हें कहा गया था कि वे अपने माता-पिता का आदर करें (निर्गमन 20)। परंतु अब उन्हें कहा गया था कि वे अपनी तलवारें निकालें और अपने रिश्तेदारों का वध करें। यहाँ हम सत्य के दो भागों को देखते हैं। जब लेवियों ने उनके रिश्तेदारों को मूर्तिपूजा करते देखा, तो वे उन्हें छोड़कर किसी और का वध करने जा सकते थे। परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। ''उसने तो अपने माता-पिता के विषय में कहा, मैं उनको नहीं जानता; और न तो उसने अपने भाइयों को अपना माना, और न अपने पुत्रों को पहचाना---।'' (व्यवस्थाविवरण 33:9)।

ऐसे कितने लोग हैं जिन्होंने प्रभु की आज्ञा का पालन नहीं किया क्योंकि वे उनकी माताओं के आसुओं को देखा या माता-पिता को यह कहते सुना, ''देखो हमने तुम्हारे लिये कितना कुछ किया।'' इस प्रकार वे स्वयँ को यीशु के चेले बनाने से वंचित कर देते हैं।

परंतु, दूसरी ओर, यदि आप वह हैं जो अपने स्वार्थी कारणों से अपने माता-पिता को अप्रिय जानते हैं तो अभी-अभी जो कहा गया है, वह आपके लिये लागू नहीं होता। सबसे पहले आपको जो सीखने की जरूरत है वह है आपके माता-पिता का आदर करना।

केवल वे लोग ही यीशु के उस तात्पर्य को समझ सकते हैं, जो उसने कहा कि हमें अपने माता-पिता को ''अप्रिय'' जानना चाहिये, जिन्होंने पहले अपने माता-पिता का आदर करना सीखा है - क्योंकि ''अप्रिय'' जानने की बात यीशु ने केवल उन्हीं लोगों से कहा जिन्होंने उनके माता-पिता का आदर करना सीखा था।

वे लोग जो तलवार का उपयोग नहीं करते (जैसा यीशु था), मानवीय स्नेह के कारण, और जो समझौता कर लेते हैं, वे आगे चलकर आत्मिक क्लेश का सामना करेंगे। लेवी के पुत्रों के लिये उनके माता-पिता के साथ ऐसा व्यवहार करना दर्दनाक बात थी। परंतु परमेश्वर के लिये उन्होंने ऐसा किया।

मलाकी 2:4-5 में प्रभु कहता है कि उसने लेवियों को जीवन की प्रतिज्ञा और शांति दिया है, क्योंकि लेवियों ने परमेश्वर का भय माना और उसके नाम को आदर किया है। परंतु वह शांति तलवार के व्दारा खरीदी गई थी!

यह सब आज हम पर किस तरह लागू होता है? हम दूसरों पर वास्तविक तलवार नहीं उठाते जैसा लेवियों ने वाचा के दिनों में किया था। ''तलवार का उपयोग करने'' का अर्थ हमारे लिये आज यह है कि हम हमारे माता-पिता और रिश्तेदारों के लिये जो मानवीय लगाव रखते हैं उसे खत्म कर दें और उसकी जगह इश्वरीय लगाव रखें। हमारे माता-पिता और प्रियजनों के लिये हमारा मानवीय लगाव उनकी मदद करने या उन्हें प्रसन्न करने के लिये हमसे पाप करवा सकता है। जबकि इश्वरीय लगाव हमें न केवल पाप करने से रोकेगा परंतु उनसे पहले से अधिक गहराई से और शुद्ध प्रेम करने में सहायता करेगा और जब वे हमसे घृणा करेंगे तब भी हमें उनसे प्रेम करने में सहायता करेगा!।

और यदि किसी परिस्थिति में, हमारे माता-पिता हमसे जो करने को कहते हैं और परमेश्वर जो करने को कहता है, उसमें कोई मतभेद हो तो हमें परमेश्वर की आज्ञा का ही पालन करना चाहिये। इन्हीं परिस्थितियों के व्दारा परमेश्वर हमें जाँचता है कि हम उसका भय मानते हैं या नहीं, और उसे प्रसन्न करना चाहते हैं या नहीं या हम अपने रिश्तेदारों को ही प्रसन्न करना चाहते हैंं।

हमारे जीवन में माता-पिता, पत्नी, बच्चे और अन्य रिश्तेदारों का स्थान और इसके विपरीत परमेश्वर का हमारे जीवन में स्थान, यह मुद्दा एक बार में हमेशा के लिये मसीही जीवन की शुरूवात के पहले ही सुलझाया जाना चाहिये अन्यथा जीवनभर हमें इस समस्या को झेलना होगा।

यदि हम परमेश्वर का आदर करेंगे तो परमेश्वर भी हमारा आदर करेगा। यदि आप परमेश्वर की ओर रहेंगे तो आपको माता-पिता भी आशीषित होंगे। परमेश्वर का अंतिम उद्देश्य हमारी और दूसरों की भलाई करना है। इसलिये वे लोग जो समझौता करते हैं न केवल स्वयँ को आत्मिक रीति से खोएंगे, परंतु उनके माता-पिता भी परमेश्वर की आशीष से वंचित रहेंगे। परमेश्वर की अज्ञापालन के व्दारा आप किसी रीति से भी कुछ नहीं खोएंगे।

जब परमेश्वर ने अब्राहम से इसहाक की मांग किया, तब यही वह सिद्धांत था जिस पर परमेश्वर बल दे रहा था। इसहाक, अब्राहाम के ‚दय का प्रिय बन चुका था और उसकी मूर्ति भी। इसलिये परमेश्वर ने अब्राहम से कहा कि वह इसहाक को उसे दे दे।

क्या आपको अपने माता-पिता, पत्नी या बच्चों से ऐसा ही लगाव है? यदि है तो आप शिष्य नहीं बन सकते।

जब आपकी पत्नी आपके पास आकर समूह के किसी भाई के विषय कानाफूसी करती है तो क्या आप भी उसी आत्मा से कानाफूसी करते हैं या आप भीतर से उस बात का तिरस्कार करते हैं। क्या आप अपनी पत्नी को प्रसन्न करना चाहते हैं? यदि आप ऐसा करते हैं तो आप स्वयँ को खो देंगे और अपनी पत्नी को भी खो देंगे। लेकिन यदि आप स्वयँ को शुद्ध रखेंगे तो कम से कम स्वयँ को बचा पाएँगे। और लंबे समय में आपकी पत्नी भी बच जाएगी। इसलिये ''अप्रिय'' जानने का तरीका सभी बातों में उत्तम है।

कोई भी हमें नई वाचा के याजक होने से नहीं रोक सकता, यदि हम ऐसे मामलों में मौलिक हैं।

मैं यह बात आपसे एक बार फिर से कहना चाहता हूँ : जब आपको माता-पिता के विरुद्ध निर्णय लेना हो तब आपको कठोर होने की जरूरत नहीं है। नम्र बनें और कहें, ''पिताजी, मुझे खेद है। मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि यह परमेश्वर के वचन के विरुद्ध है। ''कई समस्याएँ इसलिये होती हैं कि कई जवानों ने कठोर होने और सत्य के पक्ष में खड़े होने के बीच अंतर करना नहीं सीखा है।

शिष्यता और विवाह

विवाह एक अति महत्वपूर्ण कदम है जो व्यक्ति के संपूर्ण जीवन को बना सकता है या नष्ट कर सकता है।

जवान लोग जो विवाह में परमेश्वर की इच्छा को जानना चाहते हैं उन्हें चाहिये कि वे प्रभु से कहें कि सर्वप्रथम वे उसके शिष्य हैं और इसलिये उनके लिये विवाह सबसे बड़ी बात नहीं है परंतु यीशु के पीछे चलना महत्वपूर्ण हैं

एक शिष्य वही होता है जिसने सब कुछ त्याग दिया है। यहाँ तक कि यदि प्रभु चाहे तो वह अविवाहित भी रहने को तैयार रहेगा। ऐसे लोग ही विवाह में परमेश्वर की उत्तम आशीषों को प्राप्त करते हैं। आज जब हम विश्वासियों में कई दुखद विवाहों को देखते हैं और उनके बीच सद्भावना की कमी को देखते हैं, तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ये दंपत्ति सर्वप्रथम परमेश्वर के शिष्य के रूप में विवाह के बंधन मे नहीं बंधे हैं।

एक बार जब हम प्रभु को प्रथम स्थान पर रखते हैं तो हम परमेश्वर की इच्छा को ''आराम'' की बुनियाद से प्राप्त कर सकते हैं। याद रखें कि आदम के लिये पत्नी बनाने के समय परमेश्वर ने आदम को नींद में सुला दिया था। आदम को साथी की तलाश में अदन की वाटिका में यहाँ-वहाँ भागना नहीं पड़़ा था! हमें भी परमेश्वर की इच्छा को पूरी करते हुए ''बेफिक्र'' रहना चाहिये। फिर सही समय पर परमेश्वर हमारे जीवनसाथी को हमारे पास ले आएगा। इसका यह मतलब नहीं कि हमें जीवन साथी की खोज नहीं करना चाहिये, परंतु इसका अर्थ यह होता है कि हमें घबराने की जरूरत नहीं होना चाहिये।

जवान लोग जब 25 वर्ष के हो जाते है और स्त्रियाँ जब 20 वर्ष की हो जाती हैं तब उन्हें उनके भावी जीवन साथी के विषय प्रार्थना करना शुरू कर देना चाहिये। उस उम्र तक पहुँचने के पहले आपका संबध केवल परमेश्वर के साथ, उसके वचन और उसके कार्य के साथ ही होना चाहिये और उस बीच विवाह का विचार भी नहीं आना चाहिये। आपसे मिलने वाले प्रत्येक संभाव्य जीवनसाथी आकर्षक लड़का या लड़की के विषय सोचकर समय व्यर्थ न गवाएँ। और जब कोई वास्तविक आकर्षक मिल जाए तो न कहें कि ''मेरे लिये अच्छा होगा कि उसे मैं पहले तुरंत प्राप्त कर लूँ, इससे पहले कि कोई और उसे ले लेवे!!'' यदि परमेश्वर ने सचमुच उसे आपके लिये रखा है तो वह आपके लिये ही उसे आरक्षित रखेगा। उस पर कोई और कब्जा नहीं कर सकेगी/सकेगी!! यदि आप परमेश्वर के सच्चे शिष्य हैं, तो वह आपके लिये सर्वोत्तम ही आरक्षित रखेगा।

दाऊद ने शाऊल से सिंहासन छीनकर नहीं लिया परंतु वह परमेश्वर के समय के लिये रूका रहा और परमेश्वर ने उसे ''मेरे मन के अनुसार'' कहा (प्रेरितों के काम 13:22)। वह आपके विषय भी यही कहेगा, यदि आप भी उसकी ओर से हर चीज को पाने के लिये उसके समय के लिये ठहरे रहेंगे। आप अपने विवाह के विषय को सुरक्षित रीति से परमेश्वर के हाथों में छोड़ सकते हैं यदि आप परमेश्वर के राज्य की खोज में पहले समय बिताते हैं। यदि आप उसका आदर करेंगे तो वह भी आपका आदर करेगा।

नीतिवचन 19:14 कहती है कि पिता अपने पुत्रों को केवल भूमि और घर संपत्ति ही दे सकता है परंतु भली पत्नी केवल परमेश्वर ही दे सकता है। इसलिये अपने विवाह के जीवनसाथी को परमेश्वर की ही ओर से ढूँढ़ें।

एक शिष्य को अपना जीवनसाथी किस तरह ढूँढ़ना चाहिये?

मैं ''सुनियोजित'' रीति से ठहराए हुऐ विवाह पर अटल विश्वास रखनेवाला विश्वासी हूँ - विवाह परमेश्वर व्दारा ठहराए जाते हैं!! बायबल में हमें ऐसे दो विवाहों के विषय बताया गया है। परमेश्वर ने आदम के लिये जीवन साथी का इन्तजाम किया। और परमेश्वर ने इसहाक के लिये जीवन साथी का इन्तजाम किया। और मेरी भी यही गवाही है कि परमेश्वर ने मेरे लिये भी जीवन साथी का इन्तजाम किया - जितनी उत्तम मुझे मिल सकती थी, मिल गई।

यहोवा की दृष्टि सारी पृथ्वी पर इसलिये फिरती रहती है कि जिनका मन उसकी ओर निष्कपट रहता है, उनकी सहायता में वह अपनी सामर्थ्य दिखाए (2 इतिहास 16:9)। परमेश्वर के समान कोई और व्यक्ति पूरे संसार को नहीं खोज सकता। और जो उस पर विश्वास करते हैं वे भी निराश नहीं होंगे

इसलिये यदि आप एक अच्छा पति या पत्नी चाहते हैं, तो पहले संपूर्ण ‚दय से यीशु के शिष्य बनें। और परमेश्वर स्वयँ ही आपके विवाह का इन्तजाम करेगा। ''तेरे विश्वास के अनुसार ही तेरे लिये हो।'' अब्राहम के दास ने प्रार्थना किया और परमेश्वर से कहा कि वह उसे सही लड़की तक पहुँचाए - और परमेश्वर ने ऐसा ही किया (उत्पत्ति 24)। यह परमेश्वर आपका पिता है वह आपके लिये भी ऐसा ही कर सकता है

बायबल कहती है कि परमेश्वर उसकी इच्छा को हमारे मन के नए हो जाने पर प्रगट करता है (रोमियों 12:2)। इसलिये हमें हमारे ‚दयों को नए हो जाने की अनुमति देना चाहिये ताकि परमेश्वर की सिद्ध इच्छा जान सकें। एक नया मन वह होता है जो लोगों को परमेश्वर के दृष्टिकोण से देखता है।

नीतिवचन 31:10-31 में हम पाते हैं कि वह किस प्रकार की पत्नी की सिफारिश करता है। वहाँ जो विशेषताएँ दी गई हैं, सभी जवानों को चाहिये कि विवाह के लिये लड़की खोजते समय उसमें इन्हीं बातों को खोजें। और यही वे मूल्य हैं जो सभी जवान स्त्रियों में उनके जीवन भर पाए जाने चाहिये।

कई जवान पुरुष, स्त्री में केवल सुन्दरता और मोहकता को ही ढूँढ़ते हैं - वही बातें जिन्हें नीतिवचन 31:30 खोखली और धोखा देनेवाली कहती है। नीतिवचन 11:22 यह कहते हुए कड़े शब्दों का उपयोग करती है जो सुन्दर स्त्री विवेक नहीं रखती वह थूथन में सोने की नथ पहिने हुए सूअर के समान हैं (और परमेश्वर का भय विवेक का प्रथम कदम है)। कुछ पुरुष उन ''नथ'' (सुंदर चेहरा) से इतने प्रभावित हो जाते हैं कि वे सूअर (लड़की) से शादी कर लेते हैं!

नीतिवचन 31 में जिस स्त्री का वर्णन किया गया है जो अपने हाथों से कड़़ी मेहनत करती है। वह अपने परिवार की अतिरिक्त आय के लिये दाख की बारी लगाती है (पद 16), वह सोच समझकर धन खर्च करती है, वह निर्धन की सहायता करती और उसके वचन कृपा की शिक्षा के अनुसार होते हैं (पद 26) - दूसरे शब्दों में, वह मेहनती, किफायती और उदार होती है और उसकी वाणी में दया होती है।

उसके साथ सख्त होते हैं। (कठिन परिश्रम के कारण) और उसकी जीभ में नम्रता होती है। दुर्भाग्यवश, आज कई मसीही महिलाओं में जो हम पाते हैं वह इसके विपरीत होता है -उनके हाथ नर्म और जीभ कठोर होती है (ढिठाई के कारण)!! उस पुरुष पर हाय जो ऐसी स्त्री से विवाह करता है!!

जरूरी नहीं कि अच्छी पत्नी केवल उन्हीं लड़कियों के बीच मिले जो हमेशा बायबल अध्ययन के लिये यहाँ-वहाँ घूमती रहती हैं। जवान पुरुषों को चाहिये कि वे धार्मिक कार्यों को आत्मिकता समझने की गलती न करें। जब आप विवाह करते हैं, तो आपको जिस बात की जरूरत होती है वह एक पत्नी की और आपके बच्चों को एक माँ की! आपमें से किसी को भी ऐसी जरूरत नहीं होगी जो बायबल की शिक्षिका हो! इस बात को याद रखें।

श्रेष्ठगीत 8:9 दो प्रकार की लड़कियों के विषय कहती है - वे जो दीवालों के समान हैं और वे जो दरवाजों के समान हैं। दरवाजा उन ''चंचल'' लड़की का प्रकार है जो आपके पास दिल खुला रखकर आती है। दीवाल के प्रकार की लड़की वह होती है जो आदर्श, और सुसभ्य होती है जैसा कि परमेश्वर ने सभी लड़कियों को बनाया है। यदि लड़की दरवाजे के समान है तो पद कहता है कि उसके माता-पिता को उस पर पटरी (सीमा) लगाना होगा (अर्थात, उसे कई मामलों में लगाम लगाना होगा)। लेकिन यदि वह एक शहरपनाह, एक दरवाजा हो तो उसके जीवन से एक धर्मी पर बनाया जा सकता है!

1 पतरस 3:3-4 सभी स्त्रियों से आग्रह करती है कि यदि वे यीशु की शिष्या होना चाहती हैं तो उन्हें कीमती कपड़़े और आभूषण छोड़ना होगा क्योंकि एक स्त्री में परमेश्वर जो सबसे बहुमूल्य बात देखना चाहता है वह है- ''नम्रता और मन की दीनता'' है। यद्यपि व्यक्ति के वस्त्रों के व्दारा उसकी शिष्यता नहीं देखी जाती, तौभी यह सत्य है कि स्त्री का पहनावा उसके चरित्र को प्रगट करता है। जो मूल्य उसके ‚दय में संजोती है वे उसके वस्त्रों के व्दारा प्रगट होते हैं। यीशु की कोई भी शिष्या मैले-कुचले या लापरवाही से वस्त्र नहीं पहनेगी। परंतु वह अपने धन को भड़कीले कपड़़े या आभूषणों पर बर्बाद नहीं करेगी।

इसलिये जो जवान धर्मी पत्नी की खोज कर रहे हैं उन्हें सर्वप्रथम उसमें परमेश्वर का भय, शांत ‚दय, मेहनती, मृदु बोलचाल, आदर्श और सादगी ढूँढ़ना चाहिये।

जब लडकियाँ विवाह के विषय सोचती हैं वे पुरुष में शिक्षा, धन और अच्छा रूप ढूँढ़ती हैं। यह सच है कि स्त्री को ऐसा पुरुष विवाह के लिये नहीं ढूँढ़ना चाहिये जिसके पास उसके परिवार का पोषण करने के साधन न हों, क्योंकि बायबल सभी पुरुषों को प्रोत्साहित करती है कि वे पहले अपना व्यवसाय (आय का साधन) विकसित करें इससे पहले कि वे अपना परिवार बनाएँ नीतिवचन 24:27। परंतु वही सबकुछ नहीं है!

एक लड़की होने के नाते आपको सर्वप्रथम जो बात निश्चित करना चाहिये कि वह यह है कि जिस लड़के के विषय आप सोच रही हैं क्या वह संपूर्ण ‚दय से यीशु का शिष्य है, जिस पर आप भरोसा कर सकती हैं। क्या आप उसे अपना सिर (मुखिया) बना सकती हैं - खुशी से, इसलिये नहीं कि बायबल आपको आज्ञा देती हैं? ये पहली बातें हैं जिन्हें आप को स्वंय से पूछना होगा, जब भी आप किसी लड़के के विषय सोचती हैं।

इस विषय पर अधिक जानकारी के लिये मेरी पुस्तक 'सेक्स, लव एण्ड मैरेज - द क्रिश्चियन अप्रोच'' पढ़ें।

शिष्यता और घर

मलाकी 2:15 में हम पढ़ते हैं कि परमेश्वर ने एक पुरुष और उसकी स्त्री को इसलिये बनाया कि उसे योग्य धर्मी संतान मिले। बच्चे कोई भी पैदा कर सकता है। परंतु यीशु का शिष्य धर्मी बच्चे पैदा करता है।

और इसके लिये सबसे पहली जरूरत यह है कि दो में से कम से कम एक माता या पिता को यीशु का शिष्य होना चाहिये जो परमेश्वर से उसके पूरे ‚दय से प्रेम करता/करती हो। अधूरे ‚दय के मसीही धर्मी बच्चे पैदा नहीं कर सकते।

एक दूसरी महत्वपूर्ण जरूरत है कि पति पत्नी के बीच एकता। यह तब तक संभव नहीं होगा जब तक एक जीवन साथी शिष्य न हो। तब दूसरे साथी को अपने बच्चों के लिये शैतान से अकेले ही संघर्ष करना होगा। परंतु यदि दोनों का ‚दय से समर्पण है, तो कार्य आसान होगा। इसीलिये विवाह में सही जीवन साथी का चुनाव अति महत्वपूर्ण है।

यदि पति और पत्नी हमेशा झगड़ा करते हों और एक दूसरे को दोष देते रहते हों तो बच्चों को धार्मिकता में पालन-पोषण करना बहुत कठिन होता है। यदि आप ईश्वरीय धर्मी परिवार बनाना चाहते हैं तो किसी भी कीमत पर अपने पति/पत्नी के साथ एकता स्थापित करेंं - चाहे आपको अपने कई अधिकार भी क्यों न खोना पड़़ेे। आगे चलकर यह उचित दिखेगा जब आप यह देखेंगे कि आपके बच्चे परमेश्वर के पीछे चलते हैं।

दो शिष्यों के बीच एकता में काफी सामर्थ्य है। मत्ती 18:18-20 में यीशु ने कहा कि, जब दो शिष्य पृथ्वी पर एक हो जाते हैं तो उनके पास ''आकाश'' की शैतानी ताकतों को बांधने का अधिकार आ जाता है (इफिसियों 6:12)। इसी तरीके से हम बुरी आत्माओं को हमारे घरों से और हमारे बच्चों पर प्रभाव डालने से रोक सकते हैं।

इफिसियों 5:22 से 6:9 में पवित्र आत्मा घर के संबधों के विषय कहता है -पत्नियों और पतियों के बीच, बच्चों और माता-पिताआंे के बीच और दासों और स्वामियों के बीच। उसके तुरंत बाद (पद 10 से आगे) पवित्र आत्मा आकाश की दृष्टात्माओं के साथ मल्लयुद्ध के विषय कहता है। वह हमें क्या शिक्षा देता है? केवल यह कि शैतान के हमले मूलत: घर के आपसी संबधों पर ही होते हैं। हमें यहीं पर शैतान पर सबसे पहले विजय पाना है।

जब पति और पत्नी एक दूसरे से लढ़ते हैं तो वे इस बात को नहीं समझते कि वे शैतान के लिये व्दार खोलते हैं (उस खाई के व्दारा जो उन दोनों के बीच आ जाती है) कि वह उनके घर में प्रवेश करे और बच्चों पर हमला करे। एक विद्रोही बच्चा जो अपने माता-पिता से कठोरता से व्यवहार करता है उसने यह संक्रमण उसकी माँ से पाया होगा जो वह भी इसी रीति से उसके पति से बात करती होगी या पिता से सीखा होगा जो प्रभु के साथ इसी क्षेत्र में विद्रोही होगा। उस नादान बच्चे को इस संक्रमण के लिये दोष देकर कोई फायदा नहीं जिसे उसके माता-पिता ने ही सर्वप्रथम घर में लाया था! माता-पिता ही हैं जिन्हे पहले पश्चाताप करने की जरूरत है।

परिवार में एकता ज्यादा महत्वपूर्ण है बजाय आपके घर की सुन्दरता या सजावट के। परमेश्वर की महिमा उस परिवार से प्रगट हो सकती है जो झोपड़़ी में रहता हो, परंतु सर्वप्रथम वे परमेश्वर के शिष्य हों।

यीशु का सच्चा शिष्य ''दूसरों को दोषी ठहराने'' के भयानक बीमारी से स्वतंत्र रहेगा जिससे आदम और हव्वा अदन में संक्रमित थे। आदम ने अपने पाप का दोष हव्वा पर लगाया और हव्वा ने अपने पाप का दोष सर्प पर लगाई।

स्वर्ग का राज्य उनका है। जो ''मन के दीन'' हैं (मत्ती 5:3) - और जो मन का दीन होता है उसकी पहली विशेषता यह होती है कि उसे अपनी गलती और जरूरत का सबसे पहले एहसास होता है। पति और पत्नी जो दोनों भी मन के दीन हैं वे अपने परिवार को पृथ्वी पर स्वर्ग की छाया के रूप में बदल देते हैं। ऐसे परिवार में हर व्यक्ति स्वयँ को जाँचेगा और दूसरे पर दोष नहीं लगाएगा। शैतान ऐसे घर में कभी घुसपैठ नहीं कर पाएगा। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ऐसे परिवार के बच्चों को कितनी आशिष प्राप्त होंगी?

''नौकरी करनेवाली माताओं'' के विषय मैं कुछ कहना चाहूँगा। दुर्भाग्यवश, हमारे दिनों और युग में जीवनयापन के उच्च खर्च के कारण कुछ शहरों में यह एक जरूरत बन गई हैं। परंतु ऐसी माताओं को कुछ सिद्धांत याद रखना चाहिये।

तीतुस 2:5 हमें बताती है कि स्त्रियों के लिये परमेश्वर की इच्छा यह है कि पहले वे ''घर पर ही कार्य करें।'' इसलिये अपने पेशे के खातिर किसी माँ को अपने घर की जिम्मेदारी के विषय लापरवाही नहीं करना चाहिये। प्रभु, उसका पति और उसके बच्चों का उसके स्नेह और समर्पण में क्रमानुसार प्राथमिकता होनी चाहिये। उसकी नौकरी दिशा प्राथमिकता के क्रम में चौथे क्रमांक पर होना चाहिये अर्थात उपर लिखी तीन प्राथमिकताओं के पश्चात।

विवाहित स्त्रियाँ जिनके कोई बच्चे नहीं है वे बाहर काम करने को जा सकती हैं यदि इस बात से कोई समस्या न होती हो तो।

आजकल छोटे बच्चे होने के बावजूद कुछ माताएँ बाहर काम करने के लिये क्यों जाती हैं इसके दो कारण है :

  1. गुजर बसर के लिये, जहाँ पति की आमदनी परिवार की जरूरतों को पूरा करने हेतु पर्र्याप्त नहीं है।
  2. ऐशो आराम के लिये, क्योंकि पति-पत्नी उच्च स्तरीय जीवन का आनंद लेना चाहते हैं।

यदि आप इमानदारी से परमेश्वर के समक्ष कह सकते हैं कि कारण गुजर बसर का है तो आप यह निश्चित रूप से जान सकते हैं कि आपके परिवार की जबाबदारियों को पूरा करने के लिये परमेश्वर आपको विशेष अनुग्रह प्रदान करेगा।

लेकिन यदि कारण एशो आराम का है तो मैं आपको सचेत करना चाहूँगा कि आप सचमुच खतरे में हैं। इसका परिणाम आप कई वर्षों के बाद ही पाएंगे, जब आपके बच्चे घर छोड़कर चले जाएंगे और हठीले हो जाएंगे और परमेश्वर के लिये किसी काम के नहीं रहेंगे। तब इस विषय कुछ करने के लिये बहुत देर हो चुकी होगी।

परमेश्वर मेरा गवाह है कि मैं तब ही प्रचार करता हूँ जब मैं उस पर अमल करता हूँ। जब हमारा पहला बेटा सन 1969 में जन्मा तब मेरी पत्नी वैद्यकीय चिकित्सक (डॉक्टर) थी। उस समय मेरी आय केवल वही थोड़़ी-थोड़़ी रकम थी जो मुझे हर माह मिलती थी, और हम कुछ भी बचा नहीं पाते थे। परंतु हमने निर्णय लिया कि मेरी पत्नी नौकरी छोड़ देगी और परिवार की देखभाल करेगी। उसके पश्चात्‌ से 28 वर्ष से उसने कभी कोई नौकरी नहीं की परंतु घर पर ही रही और हमारे चार पुत्रों की देखभाल की जो परमेश्वर से प्रेम करते और उसके पीछे चलते हैं। परिणाम क्या है? आज हमारा यह आनंद है कि हम अपने चारों पुत्रों को नया जन्म पाए हुए, बाप्तिस्मा पाए हुए और प्रभु के पीछे चलते और उसकी गवाही देते हुए देखते हैं। यह आशीष उन 40 या 50 लाख रूपयों से कहीं ज्यादा है जो मेरी पत्नी ने पिछले 28 वर्षों में कमाई होती। हमें इस बात का कोई खेद नहीं है। यहाँ हम हमारी गवाही इसलिये दे रहे हैं कि अन्य माताओं को प्रोत्साहन मिले जो इस क्षेत्र में परमेश्वर की इच्छा को जानने की कोशिश कर रही हैं।

एक सच्चा शिष्य उन पत्रिकाओं और पुस्तकों के विषय भी सावधान रहेगा जो उसके घर में लाए जाते हैं और उन टीवी और वीडियो कार्यक्रमों के विषय भी जो उसके घर में उसके परिवार के व्दारा देखे जाते हैं। पति को घर का मुखिया होने के नाते एक सख्त व्दारपाल के समान होना चाहिये जो यह निश्चित करता है कि कोई भी सांसारिक चीज उसके घर में प्रवेश न कर सके। उसे कारखाने के क्वालिटी कंट्रोल विभाग के मुखिया के समान होना चाहिये जो हर उत्पादन को जांचता और उसे प्रमाणित करता है। जो माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे प्रभु के शिष्य बनें उन्हें यह निश्चित करना चाहिये कि वे अपने बच्चों को ऐसी कोई सनकी या मौजमस्ती न दें जो प्रेम नहीं है परंतु परमेश्वर के समक्ष मूर्खता और अविश्वास योग्यता है।

किसी भी कलीसिया की ताकत उसके परिवारों में पाई जाती है। यदि परिवार कमजोर हैं, तो कलीसिया कमजोर है। यह उंची आवाज या संगीतमय गीतों का गाना या अच्छा प्रचार नहीं है जो कलीसिया की ताकत कहलाता है, परंतु यह परिवारों की धार्मिकता है जो कलीसिया को बनाती है।

आइये हम हमारे देश में ऐसे घर बनाएँ जो परमेश्वर की महिमा करते हैं।

अध्याय 3
शिष्यता और अर्थक मामले

''कोई दास दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता क्योंकि वह तो एक से बैर और दूसरे से प्रेम रखेगा, या एक से मिला रहेगा और दूसरे को तुच्छ जानेगा। तुम परमेश्वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते'' (लूका 16:13)।

यहाँ हमारे प्रभु ने स्पष्ट कर दिया कि परमेश्वर का विपरीत स्वामी धन है। धन और भौतिक संपत्ति। पर्यायी स्वामी शैतान नहीं है, क्योंकि यीशु का कोई भी शिष्य शैतान से प्रेम करने के खतरे में नहीं है, और यह कल्पना भी कि वह परमेश्वर से भी प्रेम करता हो! परंतु जहाँ तक धन की बात है, यह खतरा विद्यमान होता है।

जब तक हम इस संसार में है हमें धन के साथ रोज व्यवहार करना ही पड़़ता है। और यदि हम चेले होने के नाते सावधान नहीं हैं तो हम इस कल्पना के खतरे में पड़़ सकते हैं कि हम परमेश्वर और धन दोनों से प्रेम कर सकते हैं।

धन हमें आसानी से जकड़़ सकता और प्रभु का शिष्य होने में रूकावट डाल सकता है। इसलिये हम धन के विषय निष्पक्ष नीति नहीं अपना सकते, ठीक वैसे ही जैसे हम शैतान के विषय निष्पक्ष नीति नहीं रख सकते। या तो हम प्रभु यीशु के शिष्य हैं या नहीं तो धन के। हम दोनों के शिष्य नहीं हो सकते। या तो हम परमेश्वर को प्रसन्न करेंगे या धन कमाने का प्रयास करेंगे। ये दोनों बातें विपरीत हैं, ठीक वैसे ही जैसे चुम्बक के उत्तर और दक्षिणी ध्रुव। यदि हम उचित रीति से परमेश्वर की ओर आकर्षित हैं, तो हम धन से दूर हो जाएंगे। परमेश्वर से संपूर्ण रीति से प्रेम करने के लिये हमें धन को अप्रिय जानना होगा। या तो आपको इस कथन को सत्य मानना होगा या यीशु पर झूठ बोलने का आरोप लगाना होगा!

धन को तुच्छ जानने का मतलब है कि आप उसकी चिंता नहीं करते। आप उसका उपयोग करते हैं परंतु उससे जुड़े हुए नहीं है। यहाँ पृथ्वी पर लोग सोने को उनके सिर पर रखते हैं, परंतु स्वर्ग में मार्ग सोने के बने हैं। सोना हमारे पैरों तले होगा। स्वर्ग उनके लिये तैयार किया गया है जो धन को इस पृथ्वी पर उनके पैरों तले रखते हैं।

यीशु ने कई विषयों पर अपने चेलों के लिये मौलिक कथन किया। उसने कहा कि यदि हमारी दाहिनी आंँख ठोकर खिलाए तो हमें उसे ''निकाल देना चाहिये''। इसके व्दारा वह हमें यह कह रहा था कि हमारी आँखों की अभिलाषा कितना गंभीर विषय है। इसके व्दारा उसने बताया कि यीशु के पीछे चलने से हमें हमारे परिवार के सदस्यों से ही कितने मुख्य आपत्तियाँ झेलना पड़़ेगा। ठीक उसी प्रकार यीशु ने एक मौलिक कथन भी दिया जो धन के विषय है। उसने कहा कि परमेश्वर से प्रेम करने के लिये हमें धन को ''अप्रिय'' जानना होगा। धन कई मसीहियों के पास होता है। इसीलिये उनका संबध परमेश्वर से घनिष्टता का नहीं होता। तौभी बहुत कम विश्वासियों ने इन आज्ञाओं को गंभीरता से लिया है। और इसीलिये वे कभी शिष्यता के मार्ग पर नहीं चलते।

प्रभु ने उसके शिष्यों को साधु बनने के लिये नहीं बुलाया जो जंगल में रहते हैं, विवाह छोड़ देते, नौकरी, संपत्ति और धन का त्याग कर देते हैं। मसीही लोग यूहन्ना बाप्तिस्मा देने वाले के शिष्य नहीं है परंतु यीशु के हैं। और यीशु ने उसके जीवन के अधिकांश समय तक धन कमाने और उसके सांसारिक परिवार का पोषण करने के बढ़ई का काम किया।

यीशु सांसारिक बातों में संतुलित नीति रखता था। वह एक विवाह समारोह में भरपूरी से दाखरस बना सकता था और वह 40 दिनों तक उपवास भी कर सकता था। एक सच्चा शिष्य भी जानता है कि अच्छे भोजन का आनंद कब लिया जाए और जरूरत के समय कब उपवास किया जाए।

धन का प्रेम ऐसा है जो हममें से हर एक के भीतर पाया जाता है। जो यह सोचता है कि वह धन से प्रेम नहीं करता वह या तो स्वयँ को धोखा देता है, या वह झूठा है; क्योंकि हर मनुष्य प्राणी धन से प्रेम करता है। बायबल कहती है कि ''धन का लोभ सभी बुराइयों का मूल है।'' केवल प्रभु ही हमें इससे छुटकारा दिला सकता है।

बायबल में ऐसे कई उदाहरण है जिन्होंने अच्छी शुरूवात तो की परंतु धन के पीछे दौड़ने के कारण परमेश्वर की उत्तम आशीषों से वंचित रह गये। लूत सदोम में धन कमाने गया था परंतु अपना पूरा परिवार ही नाश कर बैठा। बालाम ने धन के लिये भविष्यवाणी करके खुद को नाश कर लिया। गेहजी ने परमेश्वर का भविष्यवक्ता बनने का मौका इसलिये खो दिया क्योंकि वह धन के लिये नामान के पीछे भागा था। देमास ने पौलुस को इसलिये छोड़ दिया क्योंकि उसे इस संसार की बातों से प्रेम था (2 तीमु-4:10)। मसीहत के इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं।

धन के विषय धार्मिकता

यदि कोई व्यक्ति उसके ‚दय परिवर्तन के पहले धन के विषय अधर्मी था तौभी वह परिवर्तन के पश्चात यह नहीं कह सकता कि चूंकि परमेश्वर ने उसके अतीत को क्षमा कर दिया है, उसे पिछली गलतियों को सुधारने के लिये प्रयास करने की जरूरत नहीं है। चोरी किये गए धन का, परिवर्तन होने के बाद जितना जल्दी हो सके उतने जल्दी, लौटाना जाना जरूरी है। कर्ज भी जल्द से जल्द लौटाया जाना चाहिये। यदि आपको कुछ वक्त का भोजन छोड़ना पड़़े या अपने घर की कोई अनावश्यक वस्तु बेचना पड़़े, आपको ऐसा करना चाहिये और मामले को तुरंत निपटाना चाहिये। शिष्यता का यही तरीका है।

शायद लौटाने के लिये आपके पास भरपूर धन न हो। आप हमेशा थोड़ा-थोड़ा करके लौटा सकते हैं - शायद केवल 10 रुपये ही प्रतिमाह; परमेश्वर उनका आदर करेगा जो उसका आदर करता है। बायबल कहती है कि यदि मन की तैयारी हो तो दान उसके अनुसार ग्रहण भी होता है उसके पास है (2 कुरि-8:12)। जब जक्कई ने लौटाने की प्रतिज्ञा किया तब ही यीशु ने कहा कि उसके यहाँ उद्धार आया है - उसके पहले नहीं कहा था (लूका 19:9)। परमेश्वर अधार्मिकता को कभी आशीषित नहीं करता। यही कारण है कि कई मसीहियों ने लौटाने का कार्य नहीं किया वे आत्मिक उन्नति नहीं कर सके।

रोमियों 13:8 हमें किसी के कर्जदार न होने की प्रेरणा देती है। यदि हमने धन उधार लिया है, तो हमें जितना जल्दी हो सके लौटा देना चाहिये। एक आशीष जो परमेश्वर ने इस्त्राएलियों से किया था वह यह थी कि यदि वे उसकी आज्ञा का पालन करेंगे तो उन्हें कभी धन उधार नहीं लेना होगा (व्यवस्थाविवरण 28:12)। उधारी की चीजें खरीदना भी उधार लेने का एक तरीका है और कर्ज में पड़ने का भी। कुछ उपकरणों के बिना रहना अच्छा है बजाय परमेश्वर की आशीष के बिना रहने के।

बैंक या किसी कार्यालय से कर्ज लेेने के विषय क्या? क्या घर बनाने या वाहन खरीदने के लिये कर्ज लेना उचित है? यहाँ जो सिद्धांत याद रखने के योग्य है वह है ''संतुलन।'' यदि आपके व्दारा लिये गए कर्ज के बदले कुछ चीज आपके पास है जो कर्ज को संतुलित करता है (जैसे घर, कार या स्कूटर) तब वास्तव में आप कर्ज में नहीं है क्योंकि आप के पास कर्ज की रकम के बराबर के मूल्य की वस्तु है। यदि आप अचानक मर जाते हैं, आपकी पत्नी पर कर्ज का बोझ नहीं रहेगा। घर (या वाहन) को बेचा जा सकता है और कर्ज चुकाया जा सकता है। परंतु यदि आपने शादी करने के लिये कर्ज लिया और पूरी रकम खर्च कर दिया है तो आपके पास कर्ज के दूसरी ओर दिखाने के लिये कुछ भी नहीं है। तब आप कर्ज में हैं। हमें इसी प्रकार के कर्ज से बचना चाहिये।

कई मसीही लोग विवाह में खर्च करने के विषय काफी मूर्ख होते हैं। कई दंपत्ति उनका विवाहीत जीवन कर्ज के शाप के साथ शुरू करते हैं; केवल इसलिये कि वे विवाह के दिन शानदार पार्टी का आयोजन करना चाहते थे। उस कर्ज को अदा करने के लिये उन्हे कई वर्षों का समय लग जाएगा - क्योंकि वे पार्टी के व्दारा लोगों को प्रभावित करना चाहते थे। उन्हे डर था कि यदि वे साधारण पार्टी देंगे तो लोग क्या कहेंगे, परंतु उन्हें इस बात का डर नहीं था कि उसके पश्चात कई वर्षों तक कर्ज में पड़े रहने से परमेश्वर उनके विषय क्या सोचेगा । मैं उन विश्वासियों के लिये परमेश्वर का धन्यवाद करता हूँ जिन्होंने उनके विवाह के अवसर पर पार्टी में केवल कॉफी और बिस्किट दिया, क्योंकि वे उतना ही खर्च कर सकते थे। यदि आपके पास इतना धन है कि आप विवाह के अवसर पर शानदार पार्टी दे सकते हैं तो ही आप ऐसा कर सकते हैं। परंतु शानदार पार्टी देने के लिये यदि आप कर्ज में पड़ते हैं तो यह बात परमेश्वर का अनादर करती है। यह बात मौलिक सुन पड़़ती है परंतु, शिष्यता मौलिक बात ही है।

दहेज एक और बुराई है जो विश्वासियों में दिख पड़ती है। यीशु का कोई भी सच्चा शिष्य कभी भी लड़की या उसके माँ-बाप से शादी की शर्त के नाम पर दहेज की मांग नहीं करेगा। विवाह के पश्चात यदि लड़की का पिता उसे इनाम दे तो इसमें कोई बुराई नहीं है। परंतु विवाह की मंजूरी देने के लिये धन लेना सचमुच बुरी बात है! भारत में दहेज की वर्तमान प्रथा शैतानी है। फिर भी हम करीब-करीब सभी समुदायों मे (सुसमाचार प्रचारीय और अन्य) दहेज लेते हुए देखते हैं।

18 वीं शताब्दी में फ्रेंच इनफायडेल वोल्टेयर ने यूरोप में मसीहियों का अवलोकन करने के पश्चात कहा कि मसीही लोग सिद्धांतों में चाहे जितने भिन्न-भिन्न हों परंतु जहाँ तक धन का सवाल है, वे सब एक ही सिद्धांत के हैं - वे सब धन से प्रेम करते हैं। जब बात दहेज की आती है तो उन सबका एक ही सिद्धांत होता है - वे दहेज लेना पसंद करते हैं!

पानी के बाप्तिस्मा से ज्यादा दहेज के विषय बायबल के विचारों को जानना ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि व्यक्ति तब भी परमेश्वर के राज्य में तब भी प्रवेश कर सकता है यदि उसका मात्र शिशु का बाप्तिस्मा ही हुआ हो। परंतु कोई भी व्यक्ति जो लोभी हो परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता। (1 कुरि-6:10 के अनुसार)।

परमेश्वर ने हमें जो कुछ दिया है उसमे संतोष धार्मिकता का एक और महत्वपूर्ण भाग है। यीशु के सभी शिष्यों को उनकी आय के भीतर ही जीना सिखना चाहिये। परमेश्वर ही है जो यह निर्धारित करता है कि उसकी संतानों को कितना कमाना चाहिये। इसलियें हमें स्वयं को दूसरे मसीहियों से तुलना नहीं करना चाहिये जो हमसे अधिक कमाते हैं। बायबल कहती है कि जो स्वयँ की तुलना दूसरों से करते है वे मूर्ख हैं (2 कुरि-10:12)। अपनी आय के दायरे में रहने के लिये परमेश्वर ने जो सीमा बांधा है उसका मतलब यह है कि हम उन चीजों को नहीं खरीदते जिनके लिये हम खर्च नहीं कर सकते यह सोचकर कि यदि दूसरों के पास वह है तो हमारे पास भी होना आवश्यक नहीं है। हमें उसी में संतुष्ट रहना चाहिये। जितना हम खर्च कर सकते हैं।

मरियम के विषय सोचें जिसने गौशाले में यीशु को जन्म दी। उसके पास साफ सुथरा कमरा नहीं था और न एकांत था जब उसने बालक को जन्म दी! परंतु उसने शिकायत नहीं की। उसने स्वयँ को नम्र की और परमेश्वर के व्दारा उपलब्ध किये गये परिस्थितियों को स्वीकार की। यही है हमारे दायरे के भीतर संतुष्ट रहना।

धन के मामलों में विश्वासयोग्यता

इतना ही काफी नहीं है कि हम अपनी आय के भीतर ही जीएँ, कर्ज से बचें और धन के विषय धर्मी भी रहें। हमें परमेश्वर व्दारा दिये गए धन के विषय विश्वासयोग्य भी रहना चाहिये।

व्यवस्थाविवरण 8:18 हमें बताती है कि परमेश्वर ही है जो हमें धनसंपत्ति प्राप्त करने की सामर्थ देता है। हमें यह बात नहीं भूलना चाहिये। परमेश्वर ने आपको किसी भिखारी (निर्धन) परिवार में जन्म लेने दिया होगा। उसने आपको मूर्ख या शिथिल होने दिया होगा। आपको यह बात कभी नहीं भूलना चाहिये कि परमेश्वर ही है जिसने आपको बुद्धि, योग्यता और होशियारी दिया है जिसने आपको संपत्ति कमाने में सहायता प्रदान किया है।

धन के साथ विश्वासयोग्यता में यह बात मानना भी निहित है कि हमारे पास जो कुछ भी है सब कुछ परमेश्वर का ही है - उसका केवल 10 प्रतिशत ही नहीं (जैसा वे पुराने नियम में समझते थे) परंतु सब कुछ उसी का है जैसा यीशु ने हमें सिखाया। इसमें से हमारा कुछ भी नहीं है। इसलिये सब कुछ जो हमारे पास है उसे हमें वेदी पर चढ़ा देना चाहिये और सब कुछ परमेश्वर को ही लौटा देना चाहिये। और जो कुछ वह हमें वापस देता है हमें केवल उसी का हमारी सांसारिक जरूरतों को पूरा करने के लिये संभल संभलकर और विश्वासयोग्यता के साथ उपयोग करना चाहिये।

5000 लोगों को भोजन खिलाए जाने के व्दारा हम कम से कम दो बातें सीखते हैं। सर्वप्रथम यह कि हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिये थोड़़ा सा ही काफी है; यदि उस पर परमेश्वर की आशीष हो। दूसरी बात, कि परमेश्वर बर्बादी से घृणा करता है। यीशु ने चेलों से कहा कि वे बची हुई रोटियाँ और मछलियाँ भी उठा लें ताकि कुछ भी व्यर्थ न जाए। हमारा प्रभु यह सोच सकता था कि चूंकि उसके पिता ने रोटियों को और मछलियों को आशिषित करके बढ़ा दिया था और भरपूर कर दिया था, वह बचे हुए भोजन को वहीं पहाड़ी पर नाश होने के लिये छोड़ सकता था। परंतु उसने ऐसा नहीं किया। इसलिये कि परमेश्वर ने हमें भरपूरी से आशिषित किया है इसका यह अर्थ नहीं कि हम खर्च के विषय लापरवाही करें।

क्या आप चीजों को इसलिये फेंक देते हैं क्योंकि वे थोड़ा सा क्षतिग्रस्त हैं? यह एक धनी व्यक्ति की नीति होती है। एक धर्मी व्यक्ति कोशिश करेगा कि ऐसे क्षतिग्रस्त सामान सुधारे जा सकें। आप क्या सोचते हैं कि आत्मिकता से इसका कोई संबध नहीं है? निश्चित रूप से इस बातों का संबध आत्मिकता से है।

यीशु के चेले होने के नाते, हमें हमारे खर्च करने की आदतों के विषय अनुशासित होना चाहिये पति को घर का मुखिया होने के कारण घर के धन के खर्च की जिम्मेदारी उठाना चाहिये। यह उसकी जबाबदारी है कि वह यह निश्चित करे कि अनावश्यक खर्च न किये जाएँ। यदि उसकी पत्नी कुछ खरीदना चाहती हो और वे न खरीद सकते हों तो पति को चाहिये कि वह यह बात अपनी पत्नी को समझाए।

जो थोड़़े मे विश्वासयोग्य है वह अधिक में भी विश्वासयोग्य होगा। यही परमेश्वर का बुनियादी सिद्धांत है :

यदि हम छोटी बातों में और भौतिक बातों में विश्वासयोग्य नहीं है तो परमेश्वर हमें सच्ची आशिषेंं नहीं देगा - उसके वचन के प्रगटीकरण की आशीष और उसके स्वभाव की आशीष।

यदि हम आत्मिक उन्नति करना चाहते हैं, तो हमें सभी बर्बादियों को टालना सीखना चाहिये। यदि आप परमेश्वर के विश्वासयोग्य दास बनना चाहते हैं, तो अनावश्यक वस्तुओं की खरीदी पर धन व्यर्थ न गवाएँ शादी भोजन या वैभवपूर्ण जीवनशैली पर धन बर्बाद न करें। जो चीजें अब भी उपयोग में लाई जा सकती हैं, उन्हें न फेंके। यदि आपको उनकी जरूरत न हो तो किसी गरीब को मुफ्त में दे दें।

लूका 14:33 हमें बताती है कि हमें कुछ भी समेट कर नहीं रखना चाहिये। हमारे पास बहुत सी चीजें हो सकती है परंतु हमें उनमें से किसी भी चीज को अपना बनाकर नहीं रखना चाहिये। इसलिये यदि हमारी कोई महंगी वस्तु खो जाए या खराब हो जाए तो हमें उसके लिये दुखी या चिंतित नहीं होना चाहिये, क्योंकि वास्तव में वह हमारी थी ही नहीं। हम तो हमारे स्वामी की संपत्ति के केवल भंडारी हैं: परमेश्वर हमें बहुत सी चीजें देता है ताकि हम उन सब का उपयोग उसकी महिमा के लिये करें! परंतु हम तो यहाँ केवल यात्री है।

एक व्यक्ति का ‚दय तब तक शुद्ध नहीं हो सकता जब तक कि वह सब कुछ परमेश्वर को नहीं दे देता। एक शुद्ध ‚दय शुद्ध विवेक से भिन्न है। शुद्ध विवेक धन के मामलों मे विश्वासयोग्य होने के व्दारा आता है। आपका विवेक शुद्ध हो सकता है, लेकिन आपका ‚दय किसी सांसारिक वस्तु या नौकरी में हो सकता है। तब आप यह नहीं कह सकते कि आप अपने पूरे ‚दय से परमेश्वर से प्रेम करते हैं। तब आपका ‚दय पवित्र शुद्ध नहीं है।

परमेश्वर को देना

इस्त्राएली लोग परमेश्वर को उनकी आय का करीब 15 प्रतिशत देते थे - उनका दशमाँश (10 प्रतिशत) तथा अन्य बलिदान। दशमांश देने के विषय सिद्धांत व्यवस्थाविवरण 14:22 और 23 में बताया गया है :

दशमांश की शिक्षा का उद्देश्य यह है कि आपको अपने जीवन में परमेश्वर को प्रथम स्थान देना सिखाना। 

जब इस्त्राएली उनकी फसल को इकट्ठा करते थे तो उन्हे उसका 10 प्रतिशत परमेश्वर को देना होता था, जो इस वास्तविकता की स्वीकृति होता था कि उन्होंने सब कुछ परमेश्वर से ही पाया है और वे परमेश्वर को उनके जीवन में प्रथम स्थान ही देना चाहते थे। परंतु धीरे-धीरे दशमांश देना एक विधी बन गई और बोझ लगने लगी, जैसे वह आज कई विश्वासियों के लिये भी है।

नई वाचा के अंतर्गत, सिद्धांत वही है - धन के ऊपर प्रथम स्थान देने का सिद्धांत। परंतु अब हमें परमेश्वर को कितना देना चाहिये? नया नियम हमें बताती है कि हमें परमेश्वर के व्दारा दी गई अपनी आमदनी के अनुसार देना चाहिये (1 कुरि-16:2)। परंतु अब महत्वपूर्ण बात यह है कि जो कुछ दिया जाता है वह सहर्ष दिया जाए (2 कुरि-9:7)।

लूका 6:38 हमें बताती है कि यदि हम देते हैं तो हमें भी दिया जाएगा। परंतु यदि आप वापस पाने की आशा से देते हैं तो आप निराश होंगे। क्योंकि परमेश्वर हर दिये जाने के पीछे मनसा को देखता है और फिर आप उससे कुछ भी नहीं पा सकेंगे। वे ही लोग जो वापस पाने की उम्मीद न रखते हुए सहर्ष देते हैं, वास्तव में परमेश्वर से उत्तम आशीषें प्राप्त करेंगे।

मैंने एक भाई के विषय सुना जो यद्यपि बहुत अधिक नहीं कमाता था, उसे किसी बात की घटी नहीं दिख पड़ती थी। जो उसके घर की जरूरत होती थी, और न ही वह कभी कर्ज मेंं रहा। जब किसी ने उसके जीवन का रहस्य पूछा तो उसने कहा, ''परमेश्वर मुझे जो कुछ देता है, मैं उसी मे से कुछ उसे दे देता हूँ और वह मुझे वापस देते रहता है। मैने जाना है कि परमेश्वर के पास बड़ा फावड़ा है!!'' जब भी हम परमेश्वर को देते है, उससे ज्यादा ही पाते हैं।

2 कुरिंन्थियों 9:6 कहती है, ''जो थोड़ा बोता है, वह थोड़ा काटेगा भी; और जो बहुत बोता है वह बहुत काटेगा।''

यह हर जगह एक माना हुआ सत्य है कि मैं दसवाँ अंश देने के विरोध में प्रचार करता हूँ। परंतु लोग जिस बात को नहीं समझ पाए हैं वह यह है कि मैं दशमांश से भी कठिन बात का प्रचार करता हूँ - परमेश्वर को खुशी खुशी 100 प्रतिशत देने के विषय। यही बात यीशु ने भी सिखाया। उसने उन फरीसियों को जो व्यवस्था के अधीन थे 10 प्रतिशत देने को कहा (मत्ती 23:23)। परंतु उसने उसके चेलों से, जो पेन्तिकुस्त के बाद नई वाचा के अंतर्गत आनेवाले थे, कहा कि वे ''सबकुछ'' दें (लूका 14:33)। इसी बात को मैं मानता उस पर अमल करता और पिछले 40 वर्षों से प्रचार करता आया हूँ।

यदि हम परमेश्वर का आदर करेंगे तो वह भी हमारा आदर करेगा। यदि हम परमेश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज पहले करेंगे तो हमारे जीवन की सारी सांसारिक जरूरतें पूरी की जाएँगी (मत्ती 6:33)। परमेश्वर मूर्ख नहीं है जो हमारी इच्छाओं के अनुसार हमें सब कुछ दे दे क्योंकि वह हम संसारिक पिताओं से ज्यादा बुद्धिमान है। परंतु हमारी जरूरत के अनुसार देने में वह विश्वासयोग्य है। हमें किन बातों की जरूरत है और हमारी चाह क्या हैं इसके बीच काफी अंतर है? फिलिप्पियों 4:19 में जो प्रतिज्ञा दी गई है वह यह है कि वह हमारी सभी जरूरतों को पूरा करेगा।

हमें देने के विषय भी समझदार होना सीखना चाहिये। कई गरीब लोग विश्वासयोग्यता के साथ देते हैं; परंतु समझदारी से नहीं। वे उस काम के लिये देते हैं जिसे वह परमेश्वर का कार्य समझते हैं। परंतु उनका धन ही अविश्वासयोग्य मसीही कार्यकर्ता को किसी स्थान पर आलीशान जीवन जीने में सहायता करता है। ऐसे गरीब लोग इमानदार हो सकते हैं परंतु वे समझदार नहीं होते। हमें यह जानना जरूरी है कि हमारा पैसा कहाँ जा रहा है और उसका किस तरह उपयोग किया जा रहा है।

गरीबों को देना

हमें आज्ञा दी गई है ''जहाँ तक अवसर मिले हम सब के साथ'' (गलातियों 6:10)। हमारी यह जवाबदारी है कि हम विश्वासियों के बीच में जहाँ भी गरीब पाए जाते हैं उनकी मदद करें। परंतु हमें सावधान रहना होगा कि हम ऐसे लोगों को कलीसिया में न लाएँ जिनका मुख्य उद्देश्य कलीसिया के उदार लोगों से आर्थिक सहायता प्राप्त करते रहना है। भारत जैसे गरीब देश में ऐसे खतरे को टालने का एकमात्र तरीका है कि सर्वप्रथम यह निश्चित किया जाए कि वह व्यक्ति विश्वासियों की स्थानीय कलीसिया में स्वंय को सच्चा विश्वासी प्रमाणित करे। तब ही उसकी आर्थिक सहायता की जानी चाहिये। अन्यथा हम कलीसिया में आश्रितों को ही इकट्ठा करते रहेंगे, शिष्यों को नहीं।

प्रेरितों के काम 4:34 में हम पढ़ते है कि आरंभिक मसीहियों मे एक भी जरूरतमंद व्यक्ति नहीं था, क्योंंकि जिसके पास धन था वे गरीबों की मदद करते थे। कोई भी व्यक्ति किसी धनी को दबाव नहीं डालता था कि गरीब की सहायता करे। वे स्वतंत्र रूप से ‚दय से देते थे।

परंतु कई विश्वासिसयों के पास गरीबों की मदद करने की बुद्धि (समझ) नहीं होती। वे आत्मा की उदारता से मूर्खतापूर्ण रीति से गलत लोगो को दान देते हैं। इसका परिणाम न केवल परमेश्वर के धन का दुरूपयोग होता है परंतु कलीसिया में परजीवी (आश्रितों) का जमावड़ा भी होता है जो धनी लोगों के व्दारा दिये जानेवाले धन को प्राप्त करने के लिये आते हैं। इस प्रकार का अधिकांश दिया जाना धनी विश्वासियों व्दारा होता है जिनका उद्देश्य गरीबों के बीच में लोकप्रिय बनना और उन गरीबों को अपनी ओर आकर्षित करना होता है। यदि केवल कभी-कभी छोटी रकम ही दी जाए तो यह बात उतनी गंभीर नहीं होगी। परंतु जब भी आप कलीसिया में किसी व्यक्ति को बड़ी रकम या नियमित सहायता प्रदान करना चाहते हैं तो यह बेहतर होगा कि आप हमेशा कुछ धर्मी लोगों से सलाह लें जो आपसे ज्यादा बुद्धिमान हैं'' इसके अलावा वे प्राचीन (अगुवे) यह बात ज्यादा बेहतर रीति से जानते हैं कि कलीसिया में कौन सबसे ज्यादा जरूरतमंद है।

आरंभिक मसीही ऐसे मामलों में अपनी बुद्धि (समझ) की घटी को नम्रतापूर्वक स्वीकार कर लेते थे। इसीलिये वे अपने दान प्रेरितों को देते थे कि वे उन्हें गरीबों में बाँटें। परंतु उन प्ररितों ने उस धन में से अपने लिये कुछ नहीं लिया। पतरस और यूहन्ना जिन्होंने लाखों की रकम प्राप्त किया था उसे उन्होंने विश्वासयोग्यता के साथ दूसरों तक पहुँचा दिया, यहाँ तक कि एक बार उन्हें एक गरीब भिखारी से यह कहना पड़ा, ''चांदी और सोना तो मेरे पास नहीं है।'' सारा धन उनके हाथों से होकर चला जाता था और उनके हाथ में कुछ नहीं रह जाता था। यही कारण है कि उनके जीवन के अंत तक पवित्र आत्मा का, अभिषेक जहाँ उन प्रचारकों के पास ही इतना धन रह जाता है जो उन्हें मिलता है।

जो हमसे उधार लेना चाहते है उन्हें उधार देने के विषय क्या कहेंगे? मुझे याद है जब मैं जलसेना में कार्यरत था तब स्थानीय कलीसिया का एक विश्वासी मुझसे उधार मांगने आया। मैं जानता था कि परमेश्वर का वचन कहता है, ''जो कोई तुझसे मांगे, उसे दे और जो तुझसे उधार लेना चाहे उससे मुँह न मोड़'' (मत्ती 5:42)। उस व्यक्ति ने मुझसे कहा कि वह यह रकम अगले माह ही लौटा देगा। इसलिये मैने उसे उसकी मांग के अनुसार दे दिया। परंतु अगले माह वह नहीं लौटा पाया बल्कि और उधार मांगा। मेरी तनख्वाह काफी थी, और मैं साधारण स्तर में रहता था और मेरा परिवार भी नहीं था। इसलिये देने के लिये मेरे पास काफी धन था। मैने उसे कुछ पैसा और दे दिया - और अगले माह एक बार फिर से उसने मुझसे मांगा। थोड़़े समय के पश्चात्‌ यह व्यक्ति विश्वास से हट गया और मदिरा पीकर पैसा बर्बाद करने लगा। जब मैंने यह देखा तो उससे कहा कि यदि शैतान को देने के लिये उसके पास धन है तो वह मेरा पैसा भी लौटा सकता है ताकि वह पैसा मैं परमेश्वर को लौटा सकूँ। वह मुझसे बहुत नाराज हो गया और मुझसे कहा कि मैं उसे परेशान कर रहा हूँ। इसलिये मैंने उससे उधार की रकम वापस मांगना छोड़ दिया।

फिर मैं परमेश्वर के पास गया और पूछा कि मैंने कहाँ गलती किया था। उसने मेरी गलती मुझे दिखाया। प्रभु ने मुझसे कहा, ''तुमने पैसे को ऐसा समझा जैसे वह तुम्हारा अपना ही हो। वास्तव में वह मेरा (परमेश्वर) था। उसे देने के पहले तुम्हें मुझसे पूछना चाहिये था (चाहे उधार ही क्यों न हो)।''

यदि कोई मुझे सुरक्षित रखने के लिये दस हजार रूपये देता और आप इस विषय जानते और उसमें से कुछ पैसा उधार मांगते तो मैं आपसे यह कहा होता कि आपको देने से पहले मुझे इन पैसों के मालिक से पूछना होगा क्योंकि यह मेरा पैसा नहीं है। परंतु उपर लिखे विषय में मैने ऐसा नहीं किया था क्योंकि मैंने यह एहसास नहीं किया था कि मेरा पैसा वास्तव में परमेश्वर का था। यदि मैने वास्तव में सब कुछ (परमेश्वर को) दे दिया था, जैसा यीशु ने आज्ञा दिया था (लूका 14:33), तो मुझे उस व्यक्ति से कहना चाहिये था कि जो कुछ मेरे पास था वह परमेश्वर का था और उसे देने के विषय मुझे परमेश्वर से पूछना होगा। परंतु ऐसा करने के बजाए मैंने वचन के शब्दों पर अमल करते हुए उसका पालन किया और इस प्रकार परमेश्वर का कुछ पैसा मैने व्यर्थ गवाँ दिया। यहाँ तक कि शैतान ने यीशु को भी एक पद बोलकर बताया। मुझे वचन की तुलना वचन से करना चाहिये था।

निश्चित रूप से हमें उन लोगों को देने के इच्छुक रहना चाहिये जो जरूरतमंद हैं, परंतु हर बार हमें परमेश्वर से इस विषय पूछना चाहिये। हमें उस ''हर एक वचन के अनुसार जीना चाहिये जो परमेश्वर के मुख से निकलता है।'' जब हम ऐसे किसी व्यक्ति को मिलते हैं जो सचमुच जरूरतमंद है, और यदि हम परमेश्वर से पूछें, तो हम हमारी आत्मा में इस बात की गवाही पाएंगे कि उस व्यक्ति को पैसा दिया जाए या नहीं। क्योंकि हो सकता है कि जो व्यक्ति आपसे पैसा मांग रहा है वह एक ''उड़ाऊ पुत्र'' होगा जिसे परमेश्वर अनुशासित कर रहा होगा वह भी ''सुअरों के बीच।'' यदि ऐसा ही है तो जो भी पैसा आप उसे देंगे वह उसे स्वर्गीय पिता के पास आने में रूकावट डालेगा और उसकी भलाई में नहीं होगा।

परमेश्वर का धन्यवाद हो कि हमें आज व्यवस्था के नियमों और बंधनों में नहीं रहना पड़ता, परंतु पवित्र आत्मा की अगुवाई में चलना होता है जो हमें प्रत्येक परिस्थिति में, अद्भुत रीति से बताता है कि हमें क्या करना है और क्या नहीं करना है।

पूर्ण-कालीन मसीही कर्मचारी

1 कुरि-9:14 हमें बताती है कि प्रभु ने कहा है कि जो सुसमाचार प्रचार का कार्य करते हैं उनकी जीविका सुसमाचार से ही मिलनी चाहिये। परंतु पौलुस आगे 15 से 18 वीं आयत में कहता है कि ऐसा सहायता वह स्वयँ के लिये नहीं चाहता क्योंकि वह आत्मनिर्भरता के सिद्धांत पर कार्य करता था और प्रभु की सेवा करता था। इसीलिये पौलुस कुरिन्थ के मसीहियों से प्रभु के लिये धन देने के विषय खुलकर बोल सका। क्योंकि उसने स्वयं के लिये उनसे कोई आर्थिक सहायता नहीं लिया था। उसने उनसे आग्रह किया वे उनका धन गरीब विश्वासियों को दें जिन्हें इसकी जरूरत थी।

हम यीशु या उसके किसी प्रेरित को किसी से उनकी अपनी सेवकाई के लिये आर्थिक सहायता मांगते नहीं देखते। उन्होंने केवल गरीबों को ही धन देने की बात किया। (देखें मरकुस 10:21; यूहन्ना 13:29; 2 कुरि-8 और 9, और गलातियों 2:10)। धन के विषय यही शिष्यता है।

यह संदेश आज पूर्ण समय के मसीही कर्मचारियों के लिये विशेष रूप से जरूरी हैं, क्योंकि उनमें से कई लोग बेशर्मी से उन्हें और उनकी सेवकाई के लिये सहायता मांगते हैं - यहाँ तक कि वे यह भी कहते हैं कि यदि वे उनकी सहायता नहीं करेंगे तो परमेश्वर उन्हें दंडित करेगा!! यह परमेश्वर का तरीका नहीं है। परमेश्वर का तरीका वह है जिसमें हम दूसरों की देखभाल में अपना समय और शक्ति खर्च करते हैं और फिर परमेश्वर हमें सींचता (देखभाल) करता है। (नीतिवचन 11:25)। यह परमेश्वर पर भरोसा रखने का तरीका है जहाँ हम मनुष्यों पर निर्भर नहीं होते।

जब मैं भारतीय नौसेना मे काम करता था, तो वह मेरे वेतन और मेरी शारिरिक जरूरतों की जिम्मेदारी उठाते थे। मुझे किसी अन्य के पास जाकर मेरे लिये आर्थिक सहायता नहीं मांगना पड़ता था। क्या परमेश्वर जलसेना या किसी नियोक्ता से बढ़कर नहीं है। यदि हम सचमुच सर्वशक्तिमान परमेश्वर के दास हैं, तो क्या हमें नाश्वान मनुष्य के पास जाकर सहायता मांगने की जरूरत है? परमेश्वर इस बात की इच्छा करता है कि उसके दास केवल उसी पर निर्भर रहें किसी मनुष्य पर नहीं।

मैं इसे समझाना चाहता हूँ : मान लिजिये कि एक पश्चिमी देश का व्यक्ति एक दिन आपके घर आए और सूट पहनकर स्वयं को संयुक्त राज्य अमेरिका के राजदूत के रूप में बताए तो कैसा रहेगा। और फिर वह आपसे कहे कि उसका देश आर्थिक संकट से गुजर रहा है और वह आपसे आर्थिक योगदान की मांग करे (चाहे छोटी रकम क्यों न हो) कि उसके देश की जरूरतें पूरी हो सकें तो आप क्या सोचेंगे आप तुरंत समझ जाएंगे कि यह कोई छली व्यक्ति है जो आपको धोखा देना चाहता है। क्यों? क्योंकि आप अच्छी तरह जानते है कि यू-एस-ए-सरकार कभी भी धन के लिये लोगों से भीख मांगने के स्तर तक नहीं गिर सकती, या घर घर जाकर नहीं मांग सकती!

अब सोचिये कि एक व्यक्ति आपके घर आकर या आपको एक पत्रिका भेजकर स्वयं को प्रभु यीशु मसीह का राजदूत कहकर परिचित कराए और वह आपसे कहे कि आपकी कठिन परिस्थिति में भी आप कोई भी रकम देकर (चाहे वह छोटी ही क्यों न हो) सहायता करें। आप उस पर विश्वास कर लेंगे। क्यों? क्योंकि आप परमेश्वर के राज्य को अमेरीका सरकार से काफी तुच्छ समझते हैं। यह एक दुखद सत्य है! और यही कारण है कि क्यों आश्वत छली लोग जो स्वंय को ''परमेश्वर के दास'' कहलवाते हैं, आज हजारों विश्वासियों को ठगने में सफल रहे हैं।

यह कितने शर्म कि बात है कि कई तथा कथित ''परमेश्वर के दासों'' ने परमेश्वर के राज्य की गरिमा को इतने नीचे के स्तर तक गिरा दिया है। यह इसलिये होता है क्योंकि वे धन के मामलों में स्वयं यीशु के शिष्य नहीं बन पाए है। इसलिये वे स्वंय किसी और को धन के विषय यीशु का शिष्य नहीं बना सकते।

आज कई प्रचारकों ने बायबल स्कूल और अनाथाश्रम खोल रखे हैं, दूसरों की मदद करने के लिये नहीं परंतु स्वयं के लिये मोटी रकम का वेतन और उनके परिवारों को उच्चस्तरीय जीवन शैली प्रदान करने के लिये। उनके श्रम की महिमामय रिपोर्ट नियमित रूप से समाचार पत्रों के व्दारा विदेशों में भेजे जाते हैं ताकि ''सामर्थी डॉलर'' प्राप्त किया जा सके!! धन के लोभ ने सचमुच परमेश्वर के कई बातों को हमारे देश में नष्ट कर दिया है।

परमेश्वर के कार्य के लिये दिया जानेवाला धन संसार के सभी धन से पवित्र होता है। यदि हम उस धन में से कुछ अपने व्यक्तिगत या पारीवारिक उपयोग के लिये ले लें, जो उस उद्देश्य के लिये दिया ही नहीं गया था, तब हम बड़े खतरे में पड़़ जाते है। हम अनंतकाल में खो जाने के खतरे में पड़़ जाते हैं। हम एक कटोरा दलिया (धन) का अपना जन्मसिद्ध अधिकार खो देते है।

मसीही कर्मचारियों को कम खर्च में गुजारा करने को सीखने की बड़ी आवश्यकता है। यह भी धन के प्रेम से स्वतंत्र रहने का एक भाग है। मैने ऐसे मसीही कर्मचारियों को देखा है जो उनके अपने वेतन में से सावधानीपूर्वक खर्च करते हैं। परंतु जब वे ''मिशन का धन'' खर्च करते हैं तो वे बहुत उड़ाऊ होते हैं। कुछ गरीब विधवाएं अपना थोड़ा सा धन भी भारत में प्रभु के काम के लिये भेज देते है। और भारतीय कर्मचारी उस धन का उपयोग अपने लिये महंगा घर बनाने और शाही भोजन पर खर्च करता है। यह अविश्वासयोग्यता है। यही एक मुख्य कारण है कि ऐसे कर्मचारियों के पास बोलते समय भविष्यवाणी के शब्द नहीं होते।

भारतीय कलीसिया में भविष्यवक्ताओं की कमी क्यों है। क्या यह संभव है कि प्रभु इस देश के 100 करोड़ लोगों की चिंता नहीं करता इसीलिये वह हमारे आज के समय में भविष्यवक्ता नहीं भेजता। परमेश्वर भारत की सचमुच फिक्र करता है और संभवत: उसने हमारे देश में कई लोगों को भविष्यवक्ता होने के लिये बुलाया है। परंतु उनमें से अधिकांश लोगों ने भविष्यवाणी के वरदान को पैसों के लिये बेच दिया है और बालाम और गेहजी के मार्ग पर चल रहे हैं। परिणाम यह है कि आज बहुत थोड़े भविष्यवक्ता ही रह गए हैं।

भारत में कलीसिया को अपने पैरों पर खड़े रहने की जरूरत है। और इसके लिये, एक दिन परमेश्वर भारत में आनेवाली विदेशी धन की सहायता को बंद कर देगा। यदि परमेश्वर ऐसा करता है तो किराए के टट्टू तुरंत उजागर हो जाएंगे, क्योंकि वे उस काम को छोड़ देगें जिसे वे कर रहे हैं। तब शायद सच्चे भविष्यवक्ता उठेंगे, मसीह की देह बनाई जाएगी, और हमारे देश में परमेश्वर के नाम की महिमा होगी।

यदि परमेश्वर ने आपको पूरे समय की सेवकाई के लिये बुलाया है तो निश्चित करें कि आप परमेश्वर के ही दास बने रहें मनुष्य के नहीं जब धनी लोग आपको व्यक्तिगत रीति से धन देना शुरू करें तब आपके लिये परमेश्वर के संदेश के साथ समझौता करना आसान होगा, ताकि आप कभी ऐसा कुछ नहीं कहेंगे जिससे उन्हें ठेस पहुँचती हो। और 1 कुरि-7:21,23 में बायबल कहती है हम दाम देकर मोल लिये गये हैं इसलिये हमें कभी भी मनुष्य के दास नहीं बनना चाहिये। कई विश्वासी आपको उनके दान के व्दारा ही उनके दास बनाना चाहेंगे। आपको उनसे सावधान रहना चाहिये।

अन्य क्षेत्र

भारत में अन्य क्षेत्रों में से एक क्षेत्र वह है जहाँ कई विश्वासियों की परमेश्वर के प्रति विश्वास और इमानदारी की परीक्षा होती है जब गैर-मसीही लोग उनके त्योहारों को मनाने के लिये उनसे धन की मांग करते हैं। मसीह के शिष्य को दयालु तो होना चाहिये परंतु ऐसे समयों में उसे स्थिर रहना चाहिये और कहना चाहिये कि यद्यपि वह गरीबों की भलाई के लिये यदि धन इकट्ठा किया जा रहा तो दे सकता है परंतु वह गैर मसीही त्योहारों के लिये नहीं दे सकता क्योंकि वह उन विश्वास नहीं करता। आज भारत के कुछ क्षेत्रों में इस प्रकार की अस्वीकृति मसीही के जीवन के लिये खतरा बन सकती है। ऐसे मामलों में शिष्य को चतुर होना चाहिये। उसे किसी भी कीमत पर प्रभु का इन्कार नहीं करना चाहिये। परंतु यदि लोग उसे पैसे देने के लिये दबाव डालें जैसे एक चोर करता है, तो उसे स्वयँ को दोषी नहीं ठहराना चाहिये, क्योंकि परमेश्वर उसकी स्थिति को समझता है।

एक और समस्या का, जो हमारे देश के लोग सामना करते हैं वह है वैध लायसेंस, परवाना या स्वीकृति प्राप्त करने हेतु सरकारी अफसरों को धन देना। कई प्रचारक इस विषय पर प्रचार करने से डरते हैं कि कहीं उनकी ''पवित्रता'' समाप्त न हो जाए। परंतु इस विषय पर शिक्षा देने की अत्यंत आवश्यकता है क्योंकि हमारे देश में मसीही लोग हर रोज इस समस्या से जूझते हैं। इसलिये कुछ समझदारी पूर्ण सुझाव हैं जो मैं देना चाहता हूँ जो कई विश्वासियों के कंधो से दोषभावना के अनावश्यक बोझ को हटा देगा।

तीन स्तर हैं जिनमें लोग रह सकते हैं जैसा 1 कुरि-6:12 और 10:23 में पढ़ते हैं।

  1. सिद्धांतरहित : यह वह स्तर है जिसमें अधार्मिकता का पालन किया जाता है।
  2. सिद्धांतपूर्ण : यह धार्मिकता का कम से कम स्तर है।
  3. लाभ का : यह विश्वास का सबसे ऊँचा स्तर है।

स्पष्ट है कि हमें कभी भी कोई भी कार्य सिद्धांतरहित स्तर पर नहीं करना चाहिये।

इसलिये हमें किसी को भी किसी भी अधार्मिक कार्य के लिये धन नहीं देना चाहिये। यह सरकार को धोखा देना होगा (या संस्था को) और आप जो देते हैं वह घूस कहलाएगा।

परंतु यदि कोई अधिकारी आपको किसी बात का परवाना या परमिट देने के लिये जो पूरी तरह से कानूनी हो और उसके लिये वह धन मांगे ताकि आपको उस कार्यालय के चक्कर न काटना पड़े तो इस विषय आप क्या कहेंगे? ऐसे मामले में आप किसी को धोखा नहीं दे रहे हैं। आप स्वेच्छा से अपना धन दे रहे हैं। इसकी तुलना होटल में वेटर को आपके व्दारा दिये जाने वाले ''टिप'' से की जा सकती है; या ज्यादा उचित यह कहना होगा कि आप उस डाकू को अपना पैसा दे रहे हैं जिसने आप पर बंदूक तान कर रखा हों! आप उस डाकू को अपनी जान बचाने के लिये पैसा दे रहे हैं। इस बात में फर्क केवल इतना ही है कि आप पर अधिकारी ने बंदूक नहीं लगाया परंतु शर्त रख दिया है! यह तब भी ''दिन-दहाड़े की जानेवाली डकैती'' थी। परंतु कम से कम आपने अपने फायदे के लिये कोई अधार्मिक कार्य नहीं किया और न ही किसी को धोखा दिया है। यह दूसरा स्तर है - सिद्धांतपूर्ण स्तर।

लेकिन ऐसी ही स्थिति में एक और भाई विश्वास से ऐसा भी सोच सकता है कि किसी बाबू को कुछ पैसा दिये बिना ही परमेश्वर उसे परवाना (परमिट) दिलवा सकता है। यह सबसे ऊँचा स्तर है। परंतु सभी के विश्वास का यह स्तर नहीं हो सकता। जिनका ऐसा विश्वास है वे ही इस स्तर में रह सकते हैं। परंतु उन्हें दूसरों को उनके विश्वास के स्तर तक न होने पर दोष नहीं देना चाहिये। यह बात रोमियों 14 में स्पष्ट रूप से सिखाई गई है।

तौभी हमें एक बात मानना ही चाहिये कि कई ऐसे समय रहे होंगे जब हमने कठिन परिस्थितियों से बचने की कोशिश में भ्रष्ट अधिकारी को धन दिया होगा, जबकि वास्तव में प्रभु हमारे लिये कोई चमत्कार करना चाहता था यदि हम उस पर केवल विश्वास ही करते। इसलिये हर कठिन स्थिति में हमें परमेश्वर से बुद्धि मांगना चाहिये और उससे पूछना चाहिये कि उसे क्या भाता है। हमें सिद्धता की ओर बढ़ते रहना चाहिये। परंतु यदि हमारा विश्वास दूसरों के स्तर तक नहीं उठ पाता है तौभी हमें स्वयँ को दोषी नहीं समझना चाहिये।

वेतन और बचत

क्या नौकरी खोजते समय सबसे अधिक वेतन की अपेक्षा करना सही है? यह तब तक सही है जब तक वह आत्मिक जीवन, शरीर या प्राण को किसी रीति से हानी न पहुँचाए। यदि आपके पाने की इच्छा में परमेश्वर के राज्य का या उसकी धार्मिकता का त्याग निहित हो, चाहे वह थोड़़ा सा भी क्यों न हो, तो यह गलत होगा। वास्तव में अच्छे वेतन की नौकरी ढूँढ़ना अच्छी बात हैं, क्योंकि ऐसा करने से परमेश्वर के कार्य के लिये देने को आपके पास अतिरिक्त धन रहेगा। परंतु यदि ऐसी नौकरी का परिणाम, परमेश्वर के कार्य में आपके व्दारा दिये जाने वाले समय में कटौती है, त

अध्याय 4
शिष्यता और कलीसियाई मामले

शिष्यता और कलीसियाई मामले

यीशु का शिष्य कभी अकेला नहीं रहेगा। वह हमेशा किसी स्थानीय कलीसिया में अन्य शिष्यों की संगति में रहेगा।

यीशु ने कहा कि, उनके चेलों (शिष्यों) की पहचान ''एक दूसरे के लिये प्रेम'' होगी (यूहन्ना 13:35)। यह तब ही संभव है जब शिष्य अन्य शिष्यों से संबध रखता हो। इसलिये अकेला शिष्य जैसी कोई बात नहीं हो सकती।

यूहन्ना 12:24 यह स्पष्ट करती है कि गेहूँ का एक दाना जब तक भूमि में पड़़कर मर नहीं जाता तब तक वह अकेला ही रहता है। लेकिन जो दाना इस तरह मर जाता है वही काफी फल लाता है : ऐसा शिष्य या तो दूसरे शिष्यों को खोजेगा या अन्य लोगों को शिष्य बनाएगा और फिर उनके साथ मिलकर एक स्थानीय कलीसिया बनाएगा जो मसीह की देह कहलाएगी। हर शिष्य को ऐसी ही किसी स्थानीय कलीसिया का अंग होना चाहिये। यदि आप अकेले हैं, तो यह इसलिये कि आप अभी तक भूमि में पड़़कर स्वयं के लिये मरे नहीं हैं।

परमेश्वर का भय

नए नियम में कलीसिया का चित्रण उस घर के समान किया गया है जिसे परमेश्वर बना रहा है; और नीतिवचन 24:3 कहती है कि एक घर केवल बुद्धि से ही बनाया जा सकता है।

एक शिष्य मात्र वचन के अध्ययन व्दारा बुद्धिमान नहीं बन जाता। वह केवल उसके ज्ञान को बढ़ाता है। यह परमेश्वर का भय ही है जो बुद्धि का मूल है (नीतिवचन 9:10)। परमेश्वर का भय मसीही जीवन का क, ख, ग है। याकूब 3:17 कहती है कि ''जो ज्ञान उपर से आता है वह पहले तो पवित्र होता है।'' इसलिये वे सब जो मसीह की देह बनाना चाहते हैं उन्हें सर्वप्रथम परमेश्वर का भय मानना सीखना होगा। उन्हें दूसरों से यह कहने के योग्य बनना होगा : ''आओ, मेरी सुनो, मैं तुमको यहोवा का भय मानना सिखाऊंगा। (भजन 34:11)

हम सैद्धांतिक सटीकता, भावनात्मक अनुभव, स्तुति और आराधना और सुसमाचार प्रचार पर बल दे सकते हैं। परंतु यदि परमेश्वर के भय की बुनियाद ही न हो तो जो कुछ हमने बनाया है वह सब एक दिन ढह जाएगा।

कलीसिया कार्यक्रमों, गतिविधियों, मानवीय तरकीबों या व्यवसाय की दुनिया के किसी भी सिद्धांत के व्दारा नहीं बनाई जा सकती। मसीही कार्य जो ऐसे सिद्धांतों व्दारा किये जाते हैं मानवीय आखों के लिये प्रभावशाली तो दिख पड़ेंगे, परंतु जब परमेश्वर उन्हें आग के व्दारा जांचेगा, तो वे केवल काठ, घास या फूस ही दिख पड़ेगा (1 कुरि-3:11-15)।

परमेश्वर के घर की विशेषता है स्वयँ का न्याय (1 पतरस 4:17) - स्वयँ का न्याय जो परमेश्वर के मुख के सामने रहने का परिणाम है। यशायाह, अय्यूब और यूहन्ना सभी ने उनकी शून्यता और पाप को उस समय देखा जब उन्होंने परमेश्वर को देखा (यशायाह 6:5; अय्यूब 42:5,6, प्रकाशितवाक्य 1:17)।

जब आदम और हव्वा ने परमेश्वर ने पवित्रता का उल्लघंन किया, तो उन्हें अदन के बाहर निकाल दिया गया। फिर परमेश्वर के करूबों की ज्वालामयी तलवार के साथ जीवन के वृक्ष अनंत जीवन को दर्शाता है (इश्वरीय स्वभाव) जो हमें देने के लिये यीशु आया। तलवार उस क्रूस का प्रतीक है जो हमारे ''अपने'' जीवन को काटती है, इससे पहले कि हम इश्वरीय स्वभाव के सहभागी होवें। यह सच है कि तलवार सबसे पहले यीशु पर चली। परंतु हम भी उसके साथ क्रूस पर चढ़ाए गये (गलातियों 2:20)। ''और जो मसीह यीशु के है, उन्होंने शरीर को उसकी लालसाओं और अभिलाषाओं समेत क्रूस पर चढ़ा दिया है'' (गलातियों 5:24)।

करूबों के समान कलीसिया के प्राचीनों को भी यह तलवार उठाना चाहिये और यह घोषणा करना चाहिये कि इश्वरीय जीवन का एकमात्र मार्ग शरीर की मृत्यु व्दारा ही है। परमेश्वर के साथ पुन: संगति का मार्ग इस तलवार के व्दारा ही है। क्योंकि यह तलवार उठाई नहीं जाती, आज अधिकांश कलीसियाएँ समझौता करनेवालों से भरी पड़़ी है और अब वे मसीह की देह को प्रगट नहीं करती।

गिनती 25:1 में हम ऐसे समय के विषय पढ़ते हैं जब इस्त्राएलियों ने ''मोआबी लड़कियों के साथ कुकर्म करने लगे थे।'' यहाँ तक कि एक इस्त्राएली ने तो एक मोआबी स्त्री को तंबू में भी ले आया था (पद 6)। परंतु एक याजक ने इस्त्राएल को एक राष्ट्र के रूप में नष्ट होने से उस दिन बचा लिया था - उसका नाम पीनहास था। वह परमेश्वर के आदर के प्रति इतना ज्वलंत था कि उसने तुरंत एक भाला लिया, तंबू के भीतर गया और पुरुष और स्त्री दोनों को मार डाला (पद 7,8)। तब परमेश्वर ने महामरी को टोक दिया (पद 9)। परंतु उस समय तक 24000 लोग पहले ही मारे जा चुके थे। महामारी इतनी तेजी से बढ़ रही थी कि यदि उस दिन ''वह करूब न होता'' जिसने तलवार उठाया था, तो महामरी ने इस्त्राएल की पूरी छावनी को खत्म कर दी होती।

क्या आपने देखा कि हर कलीसिया में ''तलवार के साथ एकरू करूब'' का होना कितना महत्वपूर्ण है?

आज मसीहत में महामारी तेजी से फैल रही है, क्योंकि अब उतने पीनहास नहीं हैं जो यह जानते हैं कि तलवार किस तरह चलाई जाए। अधिकांश प्राचीन और प्रचारक मनुष्यों को प्रसन्न करने वाले हैं जो हमें ''मिद्यानियों से प्रेम'' करने की सलाह देते हैं। शैतान हमें सैकड़ों तर्क देगा कि हमें कलीसिया में तलवार का उपयोग क्यों नहीं करना चाहिये। यहाँ तक कि वह अपने तर्क के पक्ष में वचन भी प्रस्तुत करेगा जैसा उसने यीशु को वचन का हवाला दिया था।

तलवार के उपयोग के व्दारा पीनहास को व्यक्तिगत स्तर पर क्या लाभ हुआ? कुछ भी नहीं। दूसरी ओर उसने बहुत कुछ खोया - विशेषकर दयालु और नम्र होने की उसकी पहचान को खोया! वह उन लोगों के कानाफूसी तथा चुगली का भी विषय रहा होगा जो उसके रिश्तेदार रहे होंगे जिसे उसने मारा था। परंतु वह परमेश्वर के नाम की महिमा और आदर ही था जिसने पीनहास को ऐसा करने के लिये प्रेरित किया था। और परमेश्वर ने पीनहास की सेवकाई पर यह कहते हुए मोहर लगाया उसे 'मेरी सी जलन' थी (गिनती 25:11)। अंतिम विश्लेषण में, परमेश्वर की सहमति को मोहर ही है जो महत्व रखती है। परमेश्वर ने पीनहास के विषय आगे कहा, ''मैं उससे शांति की वाचा बाँधता हूँ--- क्योंकि उसे अपने परमेश्वर के लिये जलन उठी'' (गिनती 25:12,13)। पिछले एक अध्याय में हमने देखा कि परमेश्वर ने किस तरह लेवियों को भी शांति की वाचा दिया जिन्होंने तलवार का उपयोग किया (मलाकी 2:4,5)।

आज कई कलीसियाओं में इसलिये शांति नहीं है क्योंकि उन्होंने मानवीय तरीकों से शांति पाया है परमेश्वर की तलवार के उपयोग के बिना। परिणाम कलह और मुकदमें हैं। मसीह की शांति तलवार से खरीदी जाती है। जो जीवन में ''अपने स्वार्थ'' का वध करती है घर और कलीसिया दोनों स्थानों में।

जो लोग किसी कलीसिया में अगुवाई करते हैं उन्हें परमेश्वर के नाम के आदर के लिये जलन की भावना रखना चाहिये, यदि वे कलीसिया को पवित्रता में बनाए रखना चाहते हैं। उन्हें दयालु और नम्र होने की छवि पाने की इच्छा को भूलना चाहिये और केवल परमेश्वर के नाम की महिमा के विषय ही सोचना चाहिये।

यह परमेश्वर के नाम के आदर के लिये जलन ही थी जिसने यीशु को धन के लेनदेन करनेवालों को मंदिर से निकाल बाहर करने पर मजबूर किया। परमेश्वर के घर की धुन उसे खा गई (यूहन्ना 2:17)। मसीही होने का यही मुख्य भाग है। परंतु कौन मसीह के समान बनना चाहेगा यदि ऐसा करना उसे बदनाम करेगा और उसे गलत समझा जाएगा?

होशे 6:1 में हमें बताया गया है कि परमेश्वर पहले फाड़ता है और वही चंगा भी करता है। यही वह संतुलन है जिसकी हमें सभी कलीसियाओं में जरूरत है- कि सभी कैंसर को फाड़े और फिर चंगाई के लिये पट्टी भी बांधे। ऐसी सेवकाई केवल उन दो भाइयों के व्दारा ही पूरी की जा सकती है जो मिलकर सद्भावना से कार्य करते हैं - एक फाड़ने का काम करता हो और दूसरा बांधने का - या दोनों कार्य एक व्यक्ति के व्दारा ही किए जाएँ। पवित्र आत्मा ने पौलुस और बरनबास को एक दल हाेेने के लिये बुलाया (प्रेरितों के काम 13:2); जहाँ पौलुस ने अधिकांश फाडने का काम किया और बरनबास ने अधिकांश बांधने का कार्य किया।

यशायाह ने यीशु के विषय भविष्यवाणी किया कि उसके शब्द धारवाली तलवार के समान होंगे (यशायाह 49:2) और थके हुओं के लिये शांति होंगे (यशा-50:4)। यदि प्रभु आज कलीसिया से बात करता है तो वह फिर से तेज धार वाली तलवार और शांति के शब्द होंगे।

जिन लोगों ने यीशु की बातों को उसी के दिनों में सुना था या तो उन्होंने पश्चाताप किया और उसके शिष्य बन गए या नहीं तो वे खेदित हुए और उसे छोड़कर चले गये। यीशु ने पतरस से कड़़े शब्द कहे (मत्ती 16:23)। परंतु पतरस नाराज नहीं हुआ और न छोड़कर चला गया (यूहन्ना 6:68)। दूसरी ओर यहूदा इस्करियोती यीशु के छोटे से कथन व्दारा खेदित हुआ (देखें यूहन्ना 12:4-8 तथा साथ में मत्ती 26:14)। परमेश्वर का वचन आज भी हमें परखता है कि हम खेदित होते हैं या नहीं। ऐसी कलीसिया जहाँ परमेश्वर का वचन इस तरह नहीं बताया जाता वह परमेश्वर के उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकती।

संगति और एकता

प्रेम, यीशु के शिष्यों की प्राथमिक पहचान है। इसलिये यीशु के शिष्यों के बीच संगति महत्वपूर्ण है।

मत्ती 18:18-20 में हम ऐसे सामर्थ के विषय पढ़ते हैं जो यीशु के चेलों के बीच ऐसी संगति के व्दारा आती है। उन पदों का भावार्थ इस प्रकार होगा :

प्रभु यीशु ने कहा,

''यदि मेरे दो या तीन शिष्य एक स्थान में पाए जाएँ और उनके बीच फूट न हो परंतु इसके बदले एक ऐसी एकता जो ताल के समान हो। (यूनानी भाषा में
श्श्नैउचीवदमव अर्थात सहमति) जो कई संगीत वाद्यों के एक साथ बजाए जाने के व्दारा उत्पन्न होती हो, तब मैं उनके मध्य उपस्थित रहूँगा। और फिर यदि वे मेरे पिता से जो भी मांगेंगे उन्हें दिया जाएगा। उनके पास पृथ्वी पर कहीं भी शैतान के कामों को बांधने का अधिकार होगा और पृथ्वी पर वे शैतान के जिन गतिविधियों को बांधेंगे, वे ''आकाश'' में उनके स्त्रोत में बांधे जाएंगे (जहाँ से ये आत्मिक ताकतें कार्य करती है)। ऐसे विश्वासियों के पास उन लोगों को भी स्वतंत्र करने (छुड़ाने) का
अधिकार होगा जो पृथ्वी पर शैतान के व्दारा बांधे गए हैं।''

शैतान जानता है कि यीशु के शिष्यों की एकता और संगीत में अद्भुत सामर्थ है परंतु कई विश्वासी इस बात को नहीं जानते। इसलिये शैतान का मुख्य उद्देश्य विश्वासियों के बीच हमेशा फूट डालना है ताकि वह उनके उसके खिलाफ सामर्थहीन कर दे।

यदि किसी परिवार में पति और पत्नी आत्मा में एक रहें तो वहाँ कितनी सामर्थ होगी! शैतान ऐसे परिवार पर कभी विजयी नहीं हो सकेगा!

उस कलीसिया में कितनी सामर्थ होगी जहाँ दो प्राचीन आत्मा में एक होंगे! शैतान ऐसी कलीसिया पर कभी हावी नहीं हो पाएगा!

शैतान अधिकांश मसीही कलीसियाओं और घर पर इसलिये विजय होता है क्योंकि उनमें ऐसी एकता और संगति नहीं पाई जाती।

मैं दुष्टात्माओं को निकालने के विषय नहीं कह रहा हूँ। कोई भी विश्वासी जिसके पास इस बात का विश्वास है अकेले ही यीशु के नाम से दुष्टात्माओं को निकाल सकता है जैसा यीशु ने मरकुस 16:17 में कहा है। वास्तव में हम मत्ती 7:22,23 में अविश्वासियों के विषय भी पढ़ते हैं जो यीशु के नाम में दुष्टात्माओं को निकालते हैं।

परंतु शैतान की गतिविधियों को बांधना जो उसने लोगों के जीवन में करता है, कि वे समस्याओं से स्वतंत्र हो सके काफी कठिन है। इसे एक अकेला विश्वासी नहीं कर सकता। उसके लिये मसीह की देह की जरूरत होती है - और शिष्यों की कम से कम संख्या दो होनी चाहिये जो मसीह की देह के प्रतीक है! इसी प्रकार की ''देह'' के व्दारा अधिकार के उपयोग से ही अंधकार की ताकतों को दूर रखा जा सकता है।

प्रत्येक कलीसिया के मध्य में कम से कम दो लोग होना चाहिये जो एक दूसरे से पूरी तरह सहमत हों। शैतान ऐसे मजबूत जोड़ी पर निशाना लगाएगा कि उनमें आपसी फूट डालकर उन्हें अलग कर दे। यदि वह सफल होता है तो कलीसिया उसके विरुद्ध सामर्थहीन हो जाएगी। परंतु यदि वे एकजुट रहेंगे तो शैतान उस कलीसिया के विरुद्ध सामर्थहीन रहेगा। यही बात एक परिवार के लिये भी लागू होती है।

हर कलीसिया में परिपक्व तथा नये परिवर्तित लोग भी होते हैं - ठीक वैसे ही जैसे एक परिवार में शिशु तथा बड़े बच्चे होते हैं। शिशु आपस में लढ़ते, चुगली करते, शिकायत करते और कानाफूसी करते हैं क्योंकि वे शांति के मार्ग में पाए जाएंगे। परंतु वे कभी भी परमेश्वर के कार्य में रूकावट नहीं डाल पाएंगे। किसी भी कलीसिया में एकजुट प्राचीनों का दल कलीसिया को विजयी कलीसिया बना सकता है। शिशु हर कलीसिया में बड़ी संख्या में हो सकते हैं। परंतु परमेश्वर हमेशा मुख्य लोगों को आत्मिक और गिनती दोनों में मजबूत बनाना चाहता है। यह वह मुख्य दल है जो शैतान के विरुद्ध मल्लयुद्ध करता है और कलीसिया को विजयी बनाए रखता है।

कलीसिया में, सुसमाचार प्रचार से संगति ज्यादा महत्वपूर्ण | खोई हुई भेड़ के दृष्टांत में यीशु ने कहा कि 99 भेडें वे 99 धर्मी लोग थे जिन्हें पश्चाताप की जरूरत नहीं थी। (लूका 15:7) वे कौन लोग हैं जिन्हें पश्चाताप की जरूरत नहीं है? स्पष्टत: वे लोग जो नियमित रूप से स्वयँ को जांचते रहते हैं। ऐसे लोगों को पश्चाताप की जरूरत नहीं होती क्योंकि वे उनके पापों के विषय नियमित रूप से पश्चाताप करते रहते है। ऐसे शिष्यों को एक दूसरे के साथ एकजुट होने में कोई समस्या नहीं होती।

लेकिन यदि 99 भेडें लगातार एक दूसरे से झगड़ती रहती और एक दूसरे को मारकर फाड़ती रहतीं तो चरवाहा उस खोई हुई भेड़ को वहाँ नहीं लाता क्योंकि वह भेड़ पहाड़ पर ही सुरक्षित रहती बजाए ऐसे स्थान में रहने के जहाँ वह मारी जाती।

हमारे कलीसिया में ऐेसे ''धर्मी लोग होना चाहिये जिन्हें पश्चाताप की आवश्यकता नहीं होती''। तब ही हमारी कलीसियाएँ ऐसे स्थान होंगी जहाँ चंगाई और शांति होती है और जहाँ खोई हुई भेड़ को भी सुरक्षित रीति से लाया जा सकता है। प्रभु अपनी भेड़ों को हरी चराइयों में सुखदाई झरने के पास ले जाता है। जिस कलीसिया को यीशु बनाता है वह शांति का स्थान होती है। खोई हुई भेड़ों को केवल ऐसी ही कलीसियाओं में लाया जाना चाहिये। अधिकांश कलीसियाएँ ऐसी नहीं होती, क्योंकि उनके सदस्य परिवर्तित लोग ही होते हैं, शिष्य नहीं।

एक बार मेरी मुलाकात एक बुद्धिष्ट परिवर्तित व्यक्ति से हुई जिसने मुझे बताया कि जब वह पहली बार एक मसीही कलीसिया में गया तो वह वहाँ के कलह को देखकर डर गया था और सोचा था कि क्या बौद्ध धर्म इससे बेहतर नहीं है! फिर उसने एक कलीसिया पाया जहाँ सच्ची संगति प्रभुता करती थी। तब उसे शांति मिली।

पक्षपात

कई कलीसियाओं में जो बुराई हम देखते हैं वह पक्षपात है (याकूब 2:1)। याकूब इस अध्याय में हमें सभाओं में विशेष स्थान देने के विषय चेतावनी देता है। वे लोग जो ऐसा करते हैं वे पाप करते हैं (याकूब 2:9)। यही बात भाषा और जाति के भेदभाव पर भी लागू होती है।

कई कलीसियाओं में एक भाषा के समूह के लोग दूसरी भाषा के लोगों के साथ नहीं चल सकते। कुछ ऐसे समुदाय के लोग होते हैं जो दूसरे समुदाय के साथ, तालमेल नहीं बिठा पाते और एक जाति के लोग केवल उन्हीं के लोगों के साथ संगति करते हैं। परंतु यदि वे यीशु के शिष्य होते तो सभ्य व्यक्ति और असभ्य दोनों भी बिना किसी समस्या के एक दूसरे से संगति करते।

2 कुरि-5:16 कहती है कि नई वाचा के अंतर्गत हम लोगों को उनकी शारीरिक स्थिति के व्दारा नहीं जानते। हम चमड़ी के रंग, समुदाय या जाति नहीं देखते क्योंकि हर कोई मसीह में नई सृष्टि है (पद 17)। नई सृष्टि में कोई भाषा, समुदाय या जाति अंतर नहीं होता। यदि हम विश्वासियों को ऐसे जीवन में नहीं ढालते तो हम कभी भी यीशु मसीह की देह का निर्माण नहीं कर सकते।

लेकिन यहाँ चेतावनी की एक बात जरूरी है। यीशु के एक शिष्य को इस बात की अनुमति नहीं है कि वह यह सिद्ध करने के लिये कि वह जातिभेद में विश्वास नहीं करता इसलिये वह अन्यजाति से विवाह कर ले। कुछ लोगों ने ऐसा किया और असंगत विवाह में वे खतम हो गये! विवाह में आपसी समन्वय की काफी जरूरत होती है इसलिये दो साथियों के मतभेद का क्षेत्र कम से कम ही होना चाहिये। यीशु के शिष्य होने का मतलब यह नहीं होता कि विवाह के विषय सोचते समय उम्र, शिक्षा, पारीवारिक पार्श्वभूमि, आर्थिक स्तर या जाति के विषय विचार न किया जाए। एक परिपक्व निर्णय लेने से पहले इन सभी बातों पर विचार किया जाना चाहिये।

जब आप प्राचीन हाेेेने के नाते पक्षपात के दोषी हैं। ऐसे स्थिति के विषय भी सोचें जब आप प्राचीन होने के बावजूद पक्षपात के दोषी भी हों। प्रचार के दौरान यदि आपको आत्मा के व्दारा कुछ प्रेरणा मिली हो कि आप कुछ कड़े शब्दे कहें और अचानक आपने यह महसूस किया कि आपके शब्द सुनने वालों को ठेस पहुँचाएंगे, तो चूंकि आप उन्हें दुखी नहीं करना चाहते थे आपने यह बात नहीं कहा जो पवित्र आत्मा ने आपसे कहने के लिये कहा था ऐसा करने के कारण आपने परमेश्वर जैसा चाहता था वैसा तलवार उपयोग नहीं किया, क्योंकि आप मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहते थे। यही पक्षपात है और आपकी सेवा में परमेश्वर के अभिषेक को खोने का कारण बन सकता है।

पवित्र आत्मा के वरदान

आइये, अब हम आत्मिक वरदानों के विषय पर विचार करे!

ये दोनों बातें मसीह की देह के निर्माण में अति महत्वपूर्ण हैं। नए नियम में हमें आत्मिक वरदानों की तीन सूचियाँ दी गई हैं (1 कुरि-12:8-10, रोमियों 12:6-8 और इफिसियों 4:11)।

1 कुरि-12:12-26 में आत्मिक वरदानों के उपयोग की तुलना हमारे भौतिक शरीर के अंगों के कार्य से की गई है। एक मनुष्य में जीवन हो सकता है फिर भी वह अंधा, बहरा, गूंगा और लकवाग्रस्त हो सकता है। कई कलीसियाएँ ऐसी ही हैं। उनके सदस्यों ने नया जन्म पाया है। परंतु उनके पास पवित्र आत्मा के वरदान नहीं हैं जिससे वे परमेश्वर की सेवा कर सके और इसलिये वे सामर्थहीन हैं।

आत्मा के वरदान वे हैं जो मसीह की देह को देखने, सुनने, बोलने और चलने में सहायता प्रदान करते हैं। धार्मिकता मसीह की देह का जीवन है। परंतु आत्मा के वरदानों के बिना मसीह की देह दूसरों के लिये क्या कर सकती हैं। यदि यीशु के पास आत्मा के वरदान न होते तो वह स्वंय कैसा रहा होता? वह तब भी पाप पर विजय पाता और पवित्र जीवन जीता। परंतु पवित्र आत्मा के अभिषेक के बिना वह वैसा प्रचार नहीं कर पाया होता जैसा उसने किया था, अर्थात बीमारों को चंगा करना, दुष्टात्माओं को निकालना या कोई भी चमत्कार करना।

30 वर्ष की आयु में पवित्र आत्मा व्दारा यीशु के अभिषेक ने उसे पहले से ज्यादा पवित्र नहीं बना दिया। उसका 31 वर्ष 29 वें वर्ष से ज्यादा पवित्र नहीं था। परंतु पवित्र आत्मा के अभिषेक के साथ उसने दूसरों की सेवा करने की सामर्थ को पाया। यदि यीशु घूम घूम कर लोगों को अपना पवित्र जीवन दिखाता तो वह उसके पिता के उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पाया होता। न ही आज की कलीसिया दूसरों को मात्र अपना पवित्र जीवन दिखाकर परमेश्वर के उद्देश्यों को पूरा कर सकती है। यीशु में पवित्रता और वरदान दोनों ही थे। उसके देह में भी ये दोनों बातें होना आवश्यक है।

आज की मसीहत में दुर्भाग्य यह है कि कुछ समूह जीवन की पवित्रता पर बल देतें हैं जबकि अन्य लोग आत्मा के वरदानों पर परंतु ये पर्याय या विकल्प नहीं है। बायबल कहती है, ''तेरे वस्त्र सदा उजले रहें (हमेशा पवित्र जीवन जीएँ) और तेरे सिर पर तेल की घटी न हो (हमेशा अभिषेक में रहें) (सभोपदेशक 9:8) हमें दोनों की जरूरत है।

आत्मा के फल किसी को आत्मिक नहीं बनाते। कुरिन्थ के मसीहियों के पास सभी वरदान थे (1 कुरि-1:7)। वे सभाओं में ''बुद्धि की बातें'' बोलते थे (जो आत्मा के वरदानों में से एक है)। इसके बावजूद उनमें एक भी बुद्धिमान (आत्मिक) व्यक्ति नहीं था (1 कुरि-6:5)। बुद्धि की बातें सांसारिक व्यक्ति से भी आ सकती हैं |परंतु बुद्धि केवल आत्मिक व्यक्ति में ही पाई जाती है। कोई भी व्यक्ति परमेश्वर की ओर से एक पल में बुद्धि की बात पा सकता है। परंतु बुद्धि कई वर्षों के क्रूस उठाने के पश्चात्‌ ही मिलती है।

हम अपने आत्मिक वरदानों का चुनाव खुद नहीं कर सकते, क्योंकि परमेश्वर ही है जो यह निर्धारित करता है कि मसीह की देह में हमारी सेवकाई के लिये कौनसा वरदान सबसे उचित होगा। परंतु हमें कहा गया है कि हम नम्रतापूर्वक उन वरदानों की खोज करें जो मसीह की देह को बनाती है - विशेषकर भविष्यवाणी के वरदान की। (1 कुरि-14:1,12)।

जब यीशु ने उसके शिष्यों को पिता से पवित्र आत्मा मांगना सिखाया (लूका 11:13), उसने उन्हें उस एक मनुष्य के दृष्टांत व्दारा तरीका भी सिखाया जो उसके पड़ोसी के घर भोजन मांगने गया था। इस दृष्टांत में ध्यान देने योग्य दो महत्वपूर्ण बातें हैं :

  1. वह मनुष्य स्वयं के लिये नहीं परंतु किसी और के लिये भोजन माँग रहा था।
  2. वह तब तक मांगता रहा जब तक उसकी आवश्यकता पूरी नहीं हो गई।

इस दृष्टांत से हम क्या सीखते हैं?

सर्वप्रथम यह कि आत्मा का वरदान हमें हमारे लिये नहीं लेकिन दूसरों के हित के लिये मांगना चाहिये। केवल वे लोग जिन्होंने बाप्तिस्मा लिया है और आत्मा के वरदान के सिद्धांत को ही उनके आगे रखा होता तो वे कहीं अधिक आत्मिक बन गए होते। और आज मसीहत में झूठे वरदानों का चलन बहुत कम रहा होता। दुर्भाग्यवश, कई लोगों को पवित्र आत्मा की सामर्थ इसलिये खोजने को कहा जाता है कि वे उनके अपने लिये अनुभव बने सकें, दूसरों के लिये आशीष का कारण बनने के लिये नहीं।

हमारे आसपास ऐसे कई लोग हैं जिनकी जरूरतों को परमेश्वर पूरी करना चाहता है और वह उनकी जरूरत को हमारे व्दारा ही पूरा करना चाहता है। इसलिये वह उन्हें हमारे मार्ग के बीच ले आता है। वह चाहता है कि हम उससे आत्मा के वरदान मांगे जो उस व्यक्ति को छुड़ाने और आशीष देने के लिये जरूरी है।

एक बार एक व्यक्ति उसके दुष्टात्माग्रस्त बच्चे को लेकर यीशु के चेलों के पास आया। परंतु चेले उसकी मदद नहीं कर पाए। वह व्यक्ति यीशु के पास गया और कहा, ''मैं तेरे चेलों के पास गया था परंतु वे मेरी सहायता नहीं कर सके।'' क्या यही शब्द आज हमारे पड़ोसी और मित्र हमारे विषय प्रभु से कहते है?

यदि हम परमेश्वर की आशीषों को हमारे अपने लिये ही मांगते हैं तो हम सूखे ही रहेंगे। परमेश्वर उन्हें ही सींचता है जो दूसरों को सींचते (मदद करते) हैं (नीतिवचन 11:15)। शायद आपके आसपास किसी भाई को आपकी बुद्धि की बातों की जरूरत होगी ताकि उसकी समस्या हल हो सकें। दूसरे व्यक्ति को उसके निराशाजनक स्थिति में प्रोत्साहन के शब्दों की जरूरत होगी। और किसी अन्य को बंधन से छुटकारे की जरूरत होगी। हमें ऐसे लोगों की मदद करने के लिये परमेश्वर से वरदान मांगना चाहिये।

आत्मा का हर वरदान इसलिये दिया जाता है कि हम दूसरों को आशीषित करें और उनकी उन्नति होवे। लूका 4:18,19 हमें यीशु के पवित्र आत्मा से भर जाने के परिणाम को बताती है। उसके पश्चात्‌ वह गरीबों को सुसमाचार प्रचार कर सका, बंधकों को छुड़ा सका, अंधों को आंखें दे सका, बोझ से दबे लोगों को स्वतंत्रता दे सका और प्रभु के प्रिय दिन की घोषणा कर सका। ध्यान दें कि यहाँ पर लिखी बातें दूसरों के हित की ही हैं। आत्मा के वरदानों ने स्वयं प्रभु के जीवन में कोई फायदा नहीं पहुँचाया।

हमें दूसरों के विषय चिंता करना चाहिये और उनकी सहायता करने में हमारी अपनी अयोग्यता का एहसास भी होना चाहिये, यदि हम सही तरीके से आत्मा के वरदानों को पाना चाहते हैं।

इस दृष्टांत से जो दूसरी बात हम सीखते हैं वह यह कि हमें परमेश्वर से तब तक पवित्र आत्मा की सामर्थ मांगते रहना चाहिये जब तक हम उसे प्राप्त नहीं कर लेते। परमेश्वर हमें परखता है कि क्या हम सचमुच उसकी सामर्थ को पाने के लिये लालायित हैं और क्या हम सचमुच उसके वरदानों की कीमत करते हैं? वह यह देखने के लिये भी रूका रहता है कि क्या हम सचमुच निसहाय महसूस करते हैं और इस सामर्थ के बिना उसकी सेवा कर सकने में असमर्थ पाते हैं। कई लोग प्रार्थना करना जल्द ही छोड़ देते हैं क्योंकि वे खुद पर भरोसा रखते हैं - और इस प्रकार परीक्षा में असफल रहते हैं।

स्थानीय कलीसिया की सभाएँ

1 कुरि-12 में बताए गए आत्मा के वरदानों में हमने पाया है कि स्थानीय कलीसियाओं में केवल वरदान शब्द का उपयोग किया जाता है -शिक्षा, भविष्यवाणी अन्य भाषा और अनुवाद (देखें 1कुरि-14:26)। हम वहाँ किसी आश्चर्यजनक वरदान के विषय नहीं पढ़ते जो स्थानीय कलीसिया में उपयोग में लाया जाता हो। आज भी सुसमाचार प्रचारीय सभाओं में चंगाई और दुष्ट आत्माओं के निकालने के वरदानों के उपयोग के लिये स्थान होता है जो सुसमाचार के संदेश की पुष्टि करता हैं (मरकुस 16:15-18)। और जो लोग सुसमाचार प्रचारक होने के लिये बुलाए गए हैं (विशेषकर जहाँ सुसमाचार नहीं पहुँचा) उन्हें इन वरदानों को पाने के लिये परमेश्वर से अपेक्षा करना चाहिये परंतु ये बातें प्रत्येक स्थानीय कलीसियाओं में नही होना चाहिये।

कलीसिया की सभा में मुख्य वरदान जिसका उपयोग किया जाना चाहिये वह भविष्यवाणी है। पुराना नियम की भविष्यवाणियाँ भविष्य के विषय बताती हैं। परंतु नए नियम की भविष्यवाणि परमेश्वर के वचन को इस तरह बताती है। ''उन्नति करने (बनाने), उपदेश (चुनौती देने) और शांति (प्रोत्साहन) देने के लिये हैं (1कुरि-14:3)। प्रत्येक कलीसिया में ऐसे भाई होना चाहिये जो इस वरदान का उपयोग कर सके। स्थानीय कलीसिया में प्रेरित, शिक्षक और प्रचारकों की जरूरत नहीं होती (ये सेवकाइयाँ दौरे पर की जा सकती है), परंतु वहाँ भविष्यवक्ताओं और चरवाहों की जरूरत होती है, यदि कलीसिया को परिपक्वता में उन्नती करना हाेे।

पुराने भविष्यवक्ताओं ने प्रभु के बोझ के विषय कहा जिसे वे अपने ‚दय में लिये फिरते थे। हारून 12 पत्थरों को लिये फिरता था (जो इस्त्राएल के 12 गोत्रों को दर्शाते हैं) जो उसके ‚दय की पटिया पर थे। यह इस बात का चित्रण है कि जो परमेश्वर का वचन (भविष्यवाणी) लेकर चलते हैं आज उन्हें किस तरह परमेश्वर के लोगों को अपने ‚दय में रखकर चलना चाहिये - ठीक वैसे ही जैसे एक माँ अपने बच्चे को अपनी कोख में लेकर चलती है (देखें फिलिप्पियों 1:7)।

जिनके पास भविष्यवाणीय वचन होता है उन्हें कलीसिया की सभा में पहले बोलना चाहिये और परमेश्वर की ओर से उस वचन को बोलना चाहिये जो कलीसिया में उस समय उचित हों। उन्हें परमेश्वर के प्रवक्ता के समान बोलना चाहिये (1 पतरस 4:11)। धार्मिक उपदेश और भविष्यवाणीय वचन में काफी अंतर होता है। एक उपदेश मनुष्य के सिर से बुद्धि और मेहनत से होता है और सुननेवालों को प्रभावित करता है। लेकिन भविष्यवाणी परमेश्वर की ओर से उसका वचन होती है जो मनुष्य के लिये नहीं होती, परंतु उनके ‚दयों की गुप्त बातों को उजागर करने और उन्हें क्रियाशील बनाने के लिये होती है।

जो ऐसे भविष्यवाणीय वचनों पर अनुक्रिया करते हैं वे स्वयँ को सुधारते हैं। जो उससे चिढ़ जाते हैं वे भविष्यवक्ता से नाराज हो जाते हैं। भविष्यवक्ता कभी लोकप्रिय नहीं होते बल्कि उनसे घृणा की जाती है, उन्हें गलत समझा जाता है और उन्हें सताया जाता है। जब यीशु ने नासरत के आराधनालय में भविष्यवाणी किया तो लोगों ने उसे उपदेश के बीच में ही रोक दिया, उसे खींचकर बाहर निकाला और उसे मार डालने की कोशिश किये!

बायबल कहती है कि हमें हर रोज एक दूसरे को समझाते रहना चाहिये, कहीं ऐसा न हो कि हम पाप के छल में आकर कठोर हो जाएँ (इब्रानियों 3:13)। इसलिये कलीसिया में भविष्यवाणी (समझाने) का उद्देश्य लोगों को उनके पाप से ठोकर लगने से बचाना है। भविष्यवाणी उनके ‚दय के गुप्त पापों को उजागर करता है तब वे परमेश्वर के सम्मुख मुँह के बल गिरकर पश्चाताप कर सकते हैं (1 कुरि-14:25)।

यदि हम स्वयँ को जाँचे और ''डरते और काँपते हुए अपने अपने उद्धार का कार्य पूरा करें'' (फिलिप्पियों 2:12), तो प्रभु हमें प्रकाश देगा और पहले हमें हमारे अपने पापों के छल से बचाएगा। फिर हम उसी वचन को दूसरों को भी प्रचार कर सकते हैं और उन्हें बचा सकते हैं। हमें दूसरों को केवल वही प्रचार करना चाहिये जिसने पहले हमें स्पर्श किया है।

लेकिन यहाँ पर चेतावनी की एक बात महत्वपूर्ण है। जो भविष्यवाणीय वचनों को सुनते हैं उन्हें आज्ञा है कि वे उस बात पर अपनी राय दें जो उन्होंने सुना है (1 कुरि-14:29)। सर्वप्रथम उन्हें यह परखना चाहिये कि जो उन्होंने सुना है, वह परमेश्वर के वचन के अनुसार है और दूसरी बात यह कि क्या वह वचन परमेश्वर की ओर से उनके अपने ‚दयों के लिये था। ऐसा इसलिये है क्योंकि हर प्रचार के संदेश में, की गई हर भविष्यवाणी में और हर अन्य भाषा के अनुवाद में बोलने वाले के अपने विचार भी होते हैं। इसलिये हमें आज्ञा दी गई है कि ''सब बातों को परखें और जो अच्छी हैं उसे पकड़े रहें'' (1 थिस्स-5:21)।

यदि हमारे भीतर का अभिषेक ''भविष्यवाणी'' के किसी भाग से सहमत नहीं होता है जो हमने सुना है, तो हमें उसका इन्कार कर देना चाहिये। यही एक तरीका है जिससे हम स्वयँ को धोखा खाने से सुरक्षित कर सकते हैं (1 यूहन्ना 2:28)। कई विश्वासियों ने उनके जीवन में अवर्णनीय क्षति उठाया है क्योंकि उन्होंने उनके व्दारा सुनी गई सभी भविष्यवाणियों पर आंख बंद करके विश्वास किया जैसे वह परमेश्वर की ओर से ही थी और उन्होंने जो सुना था उसी पर अमल किया था।

मैं आपको चेतावनी का एक संदेश और देना चाहता हूँ अर्थात, अन्य प्रचारकों की नकल करने के विषय जिनकी आप सराहना करते हैं। यदि ऐसी नकल अनजानें में होती हैं तो वह गंभीर नहीं है। परंतु यदि यह सोच समझकर किया जाता है तो आप नुकसान उठाएंगे क्योंकि नकल करने के कारण परमेश्वर व्दारा आपको दी गई सेवकाई में रूकावट आएगी और आपके व्दारा वैसी सेवकाई नहीं हो पाएगी जैसी होनी चाहिये।

यद्यपि संपूर्ण नया नियम आत्मा से प्रेरित है, तब भी हम देखते हैं कि पौलुस, पतरस और यूहन्ना ने सत्य को व्यक्त करने के लिये एक ही भाषा का उपयोग नहीं किया। उनमें से प्रत्येक ने वचन उन्हीं शब्दों में लिये जो सहज रूप से उनके सामने आया था। पौलुस ने एक बार भी ''नया जन्म पाने'' के विषय नहीं लिखा, परंतु ''यीशु के साथ क्रूस पर चढ़ाए जाने के विषय'' बहुत कुछ लिखा, और ''पुराने मनुष्यत्व को उतारने'' के विषय लिखा। बाद में जब पतरस ने अपनी पत्री लिखा, वह पौलुस की शैली की नकल कर सकता था, परंतु उसने ऐसा नहीं किया। उसने उन्हीं शब्दों का उपयोग किया जो उसके पास प्राकृतिक रूप से आए और ''शरीर की अवस्था में क्लेश के विषय लिखा।'' यूहन्ना भी उसकी भाषा के उपयोग में भिन्न था जब उसने भी कई वर्षों के पश्चात लिखा था। उसने न पौलुस और न ही पतरस की भाषा का उपयोग किया परंतु विपरीत उसने ''परमेश्वर से जन्म'' के विषय लिखा - एक ऐसी बात जो उसके लिये अनोखी थी।

यह बात स्पष्ट रूप से बताती है कि परमेश्वर नहीं चाहता कि हम दूसरों के शब्दों को जैसा का वैसा ही उपयोग करें। उसके वचन की सेवकाई करते समय वह हमारे व्यक्तित्व को हटा नहीं देता और उस सेक्रेटरी के समान नहीं बनाता जो केवल वही टाइप करता है जो उसका अधिकारी बताता है। परमेश्वर हमारे व्यक्तित्व को भी बनाए रखता है, तब भी जब हमे पवित्र आत्मा से परिपूर्ण होकर अभिषिक्त किये जाते हैंं।

प्रकाशितवाक्य 21:19-20 में हम कलीसिया को एक इमारत के रूप में कीमती पत्थरों से जड़ित और रंगीन चित्रित करते हुए देखते हैं। इन पत्थरों से जो प्रकाश चमकता है वह एक ही है -यीशु का जीवन। परंतु उनसे जो रंग बिखरता है वह भिन्न-भिन्न है। लाल, नीला और हरा आदि। हममें से प्रत्येक को यीशु के जीवन को प्रगट करने के लिये बुलाया गया है - परंतु हमारे अपने अनोखे, व्यक्तिगत व्यक्तित्वों के व्दारा।

यदि आप मेरी सेवकाई की या प्रचार के तरीका का या लिखने की शैली की नकल करेंगे तो आप निराश होंगे। आपको अपने ही जीवन से, जो आपके साथ प्राकृतिक रूप से होता है अपने अनोखे तरीके से ही बोलना चाहिये - और तब आप मसीह की देह के लिये आशीष बनेंगे। परमेश्वर उसकी कलीसिया में केवल एक ही ''जॅक पूनेन'' चाहता है। वह दूसरा नहीं चाहता। वह चाहता है कि आप, आप ही रहें।

कलीसिया की सभा सभाआंे में जिन्हें परमेश्वर से कोई वचन प्राप्त होता है वे भविष्यवाणी कर सकते हैं लेकिन प्राचीनों के अधीन होकर। इसमें पुरुष और स्त्री दोनों शामिल हैं - क्योंकि परमेश्वर का आत्मा स्पष्ट कहता है कि परमेश्वर उसके भविष्यवाणी की आत्मा पुरुष और स्त्री दोनों पर उंडेलता है (प्रेरितों के काम 2:17,18)। सभा में यदि कोई स्त्री सिर को ढाँकती है, तो परमेश्वर उसे प्रार्थना की अनुमति देता है और भविष्यवाणी करने की अनुमति देता है (1 कुरि-11:5)।

कई लोग कलीसिया में उनकी आत्मिक ढीलेपन या शर्म के कारण भविष्यवाणी नहीं करते। तीमुथियुस ऐसा ही एक शर्मीला व्यक्ति था जिसे पौलुस को प्रोत्साहन देना पड़़ा कि वह उस पर दान के विषय जो परमेश्वर ने उसे दिन निश्चिंत न रहे (1 तीमु-4:14; 2 तीमु-1:6,7)। हमें डर और अविश्वास की आत्माओं को कलीसिया की सभाओं मे आते समय बांध देना चाहिये।

लेकिन इस स्वतंत्रता का सांसारिक लोग गलत फायदा उठा सकते हैं जो अपनी ही आवाज को सुनना चाहते हैं और खड़े होकर सबको परेशान करते हैं। ऐसे लोगों को प्राचानों के व्दारा शांत किया जाना चाहिये क्योंकि कलीसिया में हर बात ''शालीनता और व्यवस्थित रूप से'' की जानी चाहिये (1 कुरि-14:40)। लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि आज अधिकांश कलीसियाओं में प्राचीन या तो डरपोक हैं या ''नम्र'' भाई होने के सम्मान प्राप्ति की आशा करतें हैं इसलिये वे सांसारिक विचार वाले, बहुत बोलने वाले व्यक्ति को चुप नहीं करा सकते।

इसलिये आइये हम यह अपने दिमाग में समझ लें कि कलीसिया की सभा में सबसे महत्वपूर्ण समय ''स्तुती और आराधना का नहीं है यद्यपि वह आवश्यक है लेकिन वह समय महत्वपूर्ण है जब परमेश्वर का भविष्यवाणीय वचन बांटा जाता है।

आत्मिक अगुवापन

आइये हम परमेश्वर की कलीसिया में अगुवाई के विषय देखें।

परमेश्वर कलीसिया में अगुवों को नियुक्त करता है कि वह अपनी इच्छा से कलीसिसया की अगुवाई करे (1 कुरि-14:23; तीतुस 1:5)। एक प्राचीन प्राथमिक तौर पर प्रचारक नहीं होता परंतु वह एक अगुवा होता है। अगुवा वह होता है जो दूसरों के आगे आगे चलता है। वह नियमित रूप से आगे बढ़ता है। वह कहता है, ''मेरा अनुकरण करो जैसे मैं मसीह का अनुकरण करता हूँ।''

तौभी कई प्रचारक कहते हैं, ''मेरा अनुकरण मत करो। केवल यीशु को देखो और उसके पीछे चलो।'' यह नम्र सुन पड़़ता है। परंतु आरंभिक प्रेरितों ने ऐसा नहीं कहा था। उन्होंने विश्वासियों को उनका भी अनुकरण करने को कहा जैसे वे मसीह का अनुकरण करते हैं (1 कुरि-11:1; फिलिप्पियों 3:17)। उन्होंने ऐसा इसलिये नहीं कहा था क्योंकि वे सिद्ध थे, परंतु इसलिये कि वे सही दिशा में चल रहे थे

प्राचीन की अगुवाई एक तुलनात्मक मामला है। इसे यह उदाहरण स्पष्ट कर सकता है : जब माता-पिता थोड़ी देर के लिये घर से बाहर जाते हैं तब वे अपने सबसे बडे पुत्र को घर पर ''अगुवा'' होने के लिये कहते हैं और उनकी गैरहाजिरी में निर्णय लेने की अनुमति देते हैं - चाहे वह 10 वर्ष का ही क्यों न हो। निश्चित रूप से वह परिपक्व नहीं है। परंतु वह 7 वर्ष और 4 वर्ष के बच्चों में अवश्य परिपक्व है! एक बार जब उसके माता-पिता लौट जाते हैं वह अगुवा नहीं रह जाता।

कलीसिया में भी अगुवापन इसी तरह कार्य करता है। एक जवान भाई कलीसिया में अगुवा रह सकता है, यदि वह उस कलीसिया में सबसे परिपक्व भाई है। जैसे जैसे कलीसिया के अन्य लोग उन्नति करते है, वह भी उनके साथ उन्नति करता है। परंतु यदि वह आत्मिक उन्नति में ठहर जाता हैं, तब कलीसिया का कोई अन्य भाई प्राचीन (अगुवा) बन जाता है - वह भाई जो इससे आगे निकल गया हो। इसलिये प्राचीन की जवाबदारी किसी कार्यालय में या परमेश्वर के घर में कोई शीर्षक नहीं है, परंतु दूसरों की अगुवाई करने में परिपक्व होना है।

ऐसे प्राचीन वे होते हैं जिन्हें समर्पण करने और आज्ञा पालन करने की जरूरत होती है (इब्रानियों 13:17)। उस मनुष्य के दृष्टांत में जिसने अपना खेत किराए पर दिया था, हम देखते हैं कि वह किराया लेने स्वयँ व्यक्तिगत रूप से नही आया, परंतु उसने अपने दासों को भेजा। (मत्ती 21:34)। उसी प्रकार प्रभु की कलीसिया में उसके प्रतिनिधियों को अधिकारी के रूप में नियुक्त करता है। यीशु ने उसके प्रेरितों से कहा कि जब लोग उनका स्वागत करके उन्हें ग्रहण करते हैं तब वास्तव में वे स्वयं प्रभु को ही ग्रहण करते हैं (मत्ती 10:40)। मैं अभी मसीहत में पाए जानेवाले आज के असंख्य याजकों और प्रचारकों तथा पादरियों के विषय नहीं कह रहा हूँ, परंतु उनके विषय कह रहा हूँ जिन्हें आप परमेश्वर के योग्य दास मानते हैं

परमेश्वर की कलीसिया में अधिकार उपर से थोपा नहीं जाता परंतु नीचे के स्तर में स्वीकारा जाता है।