प्रेम यौन और विवाह

द्वारा लिखित :   जैक पूनन श्रेणियाँ :   जवानी
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अध्याय 1
यह पुस्तक और आप२ण्ण्

प्रेम, यौन और विवाह ! कितने महत्त्वपूर्ण विषय ! कोई भी इनके प्रभाव से बचा नहीं रह सकता । तौभी मानवजाति को परमेश्वर प्रदत्त इन वरदानों के वास्तविक अभिप्राय के विषय कितनी अज्ञानता व्याप्त है ।

हमारे देश में, इन विषयों प् साधारणतः माता- पिता अपने बच्चें को शिक्षा नही देते न ही धर्मोपदेशक जवानो को सिखाते हैं । परिणामस्वरूप नवयुवक और नवयुवतीयां गंदे स्त्रोतो से बिगड़े रूप इनकी सूएनाएं प्राप्त करते हैं ।जो कुछ कलीसिया को पहले ही शुद्ध रीति से जवानों को सिखाना था , उसी को अपनी प्रकृति के अनुसार और शैतान शीघ्र सिखाते हैं । इन विषयों की आत्मिक शिक्षा से अज्ञान रहकर , अधिकांश नौजवान इन क्षेत्रों में शैतान के धूर्त आक्रमण का सामना नही कर सकते । यह पुस्तक इसी आवश्यकता की पूर्ति का प्रयत्न है । इसमें प्रेम , यौन और विवाह को परमेश्वर के दृष्टीकोन से देखने का प्रयत्न किया गया है ।

परमेश्वर स्वयं ही सच्चे प्रेम का सार है और उसी ने स्वयं यौन की उत्पति की तथा विवाह को ठहराया । अतः वही केवल हमें बता सकता है कि प्रेम का वास्तविक अर्थ क्या हैं , और यौन तथा विवाह प्रयोग हमारी सर्वश्रेष्ठ भलाई के लिए किस प्रकार हो सकता है । हमें ज्ञात होगा की इन विषयों पर परमेश्वर के वचन की शिक्षा और संसार की शिक्षा में मतभेद है । परन्तु वचन की शिक्षा चट्टानसदृश है । जो इस पर अपना घर निर्माण करे वह कभी नहीं गिरेगा - उसे कोई आंधी अथवा भूकम्प नहीं हिला सकेगा ।

कुछ विषय ऐसे हैं जिस पर सैद्धान्तिक नियम बनाकर आदेश नही दिए जा सकते न ही मेरा प्रयत्न ऐसा रहा हैं । किन्तू अन्य विषय हैं , जिन पर दृढतापूर्वक कहे बिना नहीं रहा जा सकता । इन विषयों पर मैंने स्वयं के विचार स्पष्टतापूर्वक व्यक्त किए हैं ।

मैंने इस पुस्तक में इतनी स्पष्टतापूर्वक इन बातों को लिखा है जिनसे कई रूढिवादियों को सदमा पहुंच सकता हैं । कई दृढतापूर्वक कहे गए वक्तव्य भी है । भारत में , बाइबल के आधारमूल सिद्धान्तो को मनाने वाले अधिकांश मसीहियों ने इन विषयों अब तक बडी अवहेलना की है । यदि मसीही अगुवों ने इन विषयो पर निश्चय तथा दृढतापूर्वक आवाज उठाई होती तो अनेक नवयुवकों का जीवन भ्रष्ट होने से बच जाता । अतः में कुछ स्थानों पर कडाई लिखने के कारण क्षमा मांगना नहीं चाहूंगा । मैंने अनेक मसीहियों को यौन के क्षेत्र मे शैतान के जाल में फंसते देखा है । मेंने अनेक ‘‘मसीही ’’ विवाहों को भी देखा है जिनमें परमेश्वर के अभिनय के बदले शैतान के अभिप्रायः को पूरा किया गया है । अतः में इस विषय पर तीखे शब्द और सत्य वचन लिखे बिना नही रह सकता ।

अध्याय 6,‘‘ सिर्फ लडकियों के लिए ’’ मेरी पत्नी द्वारा लिखा गया है । मैं जवानो से विनय करता हूं कि वे यह पुस्तक गम्भीरतापूर्वक पढें । पूर्वचितौनी लेना , स्वयं को पहले से ही हथियारों से सुसज्जित रखना है । अन्त में वा लेने से सदैव ही बचाव करना उत्तम है । यहां लिखित बातों पर ध्यान देने से आप भविष्य के अनेक दुःखो और आपत्तियों से बच सकते हैं ।

कई स्थानों मेंने पुलिंग शब्दों का प्रयोग किया है परंन्तु उसका संकेत सिर्फ युवको के लिए नहीं है । मैंने सामान्य रूप् से मानवजाति की और संकेत किया है -इसमें स्त्रियों का भी समावेश है । पाठकगण इन स्थानों को सरलता से समभ्क लेंगें ।

मैं अनेक विश्वासीयोंका आभारी हूं जिन्होंने मूल हस्तलिपि को पढकर अनेक सहायतापूर्ण सुभ्काव मुभ्के दिए ।

यह मेरी प्राथर्ना है कि प्रेम , यौन और विवाह सम्बन्धी परमेश्वर की सिद्ध इच्छा जानने में यह पुस्तक सहाथ्यक तथा आशिष का कारण हो ।

अध्याय 2
डायनामाइट- सावधान

मलिन विचार को आश्रय देना , शारीरिक काम इच्छाओं की अनुशासनहीन पूर्ति की ओर अग्रसर होना है मसीही ऐसा कार्य कदापि नहीं कर सकता । पौलुस प्रेरित ने लिखा है , ‘‘हर एक पहलवान सब प्रकार का संयम करता है , वे तो एक मुरझाने वाले मुकुट को पाने के लिए यह सब करते हैं , परन्तु हम तो उस मुकुट के लिए करते हैं , जो मुरझाने का नहीं । इसलिए में तो इसी रीति से दौडता हूं , परंतु बेठिकाने नहीं , में भी इसी रीति से मुक्कों से लड़ता हूं , परन्तु उसकी तरह नहीं जो हवा पीटता हूआ लड़ता है । परन्तु में अपनी देह मारता कूटता , और वश में लाता हूं ; ऐसा न हो कि औरो को प्रचार करके , मैं आप ही किसी रीति से निकम्मा ठहरूं ’’ ( 1 कुरि ़ 9:25-27)

उसने पुनः लिखा , ‘‘ तुम में से हर एक पवित्रता और आदर के साथ अपने पात्र को प्राप्त करना जाने । और यह काम अभिलाषा से नहीं ,और न उन जातियों की नाई , जो परमेश्वर को नहीं जानतीं ( 1 थिस्स ़ 4:4,5) ।

सी ़ जी ़ स्कोरर ने ‘‘ द बाईबल एन्ड सेक्स एथिक्स टूडे ’’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है , ‘‘ ( पौलुस प्रेरित के ) इन शब्दो द्वारा अन्य विषय पर सलाह मिलती है , जिस संबंध में बाइबल में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं - गुप्त और एकान्त में किए गये यौन का अनुचित प्रयोग अर्थात हस्तमैथुन । नये नियम में यह प्रयत्न नहीं किया गया है कि मानुषिक जीवन के इस गुप्त क्षेत्र की व्याख्या की जाए । आधुनिक मनोविज्ञान इसे करने का प्रयास कर सकता है ; मसीह और उसके प्रेरित नहीं । परन्तु इस निष्कर्ष से बचना कठिन है कि इस प्रकार के आत्मसन्तोष में अपनी देह पर , परमेश्वर के अधिकार के प्रति विद्रोह की इच्छा छिपी है । इसमें लिंग के इस प्रकार अनुचित प्रयोग को स्वयं में ही लक्ष्य मानकर , उसकी आकांक्षा और पूर्ति का यत्न किया जाता है । स्त्री अथवा पुरूष स्वयं इच्छाओं जो मालिक बनने के बदले दास बन जाता है । यह एक सामान्य सिद्धान्त है कि वासनामय विचार , आत्मिक ज्ञान और सामर्थ के प्रतिकूल है ; यदि हमारे जीवनों पर शारीरिक प्रवृत्तियों का आधिपत्य है , तो आत्मा का नही हो सकता । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से , इस प्रकार के पापों से बहुधा चरित्र की अपरिपक्वता अथवा आत्मसंकोच और आत्म-लीनता प्रगट होती है , जिन पर विजयी होना आवश्यक है । हां , इस दृष्टि से उसे गम्भीर नहीं माना जा सकता कि अविवाहितों में होने वाले इस व्यभिचार में किसी अन्य के संग की आवश्यकता नहीं पड़ती ़ ़ ़ ़ ़ ( किन्तु) इससे व्यक्ति अकेला ही रह जाता हैं क्यांकि यह उनकी प्रवृत्ति की प्रबलता दर्शाता है । इस सम्बन्ध में उसे मान लेना होगा `ि कवह इस प्रवृत्ति को नियंत्रित करने में असमर्थ है । इससे वह अपने आपको देह समझने लगता है । स्वयं के आत्मसन्मान में अस्थिरता उत्पन्न होने मात्र से उनकी मसीही साक्षी निष्फल रह जाती है । हल ,इच्छा शक्ति और सामान्य ज्ञान को अपनाने में हैं कि यौन की उत्तेजना को सदैव उसी समय सफलतापूर्वक रोका जा सकता है जब प्रारम्भ में ही उससे दूर रहा जाए ।

सम्भव है कि हस्तमैथुन किसी रोग को उत्पन्न न करे किन्तु इसका अन्त निराशा , दोष अनुभूति तथा इच्छा- शक्ति की दुर्बलता में होता है ़ ़ ़ ़ ़ इन समस्त बातों के परिणाम स्वरूप व्यक्ति की परमेश्वर के साथ सहभागिता और उसकी आत्मिक प्रभावशीलता समाप्त हो जाती है । आवश्यकता से अधिक इसकी अनुचित संतुष्टि में लग जाने से विवाहोपरान्त के सम्बन्ध में समस्याएं खडी हो सकती हैं । हसतमैथुन अपराध है क्योंकि इससे परमेश्वर द्वारा प्रदत्त यौन के वरदान का दुरूपयोग होता है । जरूरी है कि व्यक्ति इससे पश्चात्ताप करे तथा इसका परित्याग करे ।

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि नौजवान अपने सांसारिक मित्रों द्वारा लिंग संबंधित ज्ञान अनुचित रूप में प्राप्त करते हैं , अतः वे सहज ही इस बुरी आदत की कैद में पड जाते हैं । एक बार इस आदत में पडने से यह व्यक्ति को इतनी मजबूती से जकड़ लेती हैं , कि वह इसे बार बार करने में विवश हो जाता है ।किन्तु मसीही उसे स्वतन्त्र कर सकता है।

अनेक नौजवानों को अनेक मित्र यह शिक्षा देते हैं कि उन्हें हस्तमैथुन करना ही चाहिए , अन्यथा उनके यौन संबंधी अंग प्रयोग में न आने से अनुपयोगी बन जाएंगे , ठीक उसी प्रकार जैसे कोई मांसपेशी कई वर्षों तक काम में न लाने से अनुपयोगी हो जाती है । यह पूर्णतया गलत बिचार है । चिकित्सा शास्त्री इस तथ्य से सहमत है कि यौन अंगो को काम में न लाने का परिणाम कभी नहीं हो सकता कि वे अंग दुर्बल हो जाएं अथवा कार्य के लिए अनुपयोगी बनें । लिगों की प्रबल उत्तेलनाओं को नियंत्रित करने से भी कोई मनोवैज्ञानिक हानि नहीं होती । वस्तुतः काम इच्छाओं को वशीभूत रखने में कोई भय नहीं है । इसके विपरित , जब व्यक्ति स्वयं को इस प्रकार नियंत्रण करता है , तो उसकी इच्छा-शक्ति दृढ और बलवन्त होती है तथा उसका मन और चैतन्य हो जाता है । कोई व्यक्ति जीवन पर्यन्त अपने यौन को एक बार भी प्रयोग में नहीं लाये बिना रह सकता है और इतना होने पर भी शरीर और मन पूर्ण रूपेन स्वस्थ एवं सूक्ष्म बना रह सकता है ।

कुछ नवयुवक निद्रा के समय वाले स्वप्नदोष से चिन्तित हो सकते हैं । यह उनके शरीरों के होने वाले सामान्य कार्यों में से एक हैं , जिनमें आवश्यकता से अधिक परिणाम में संचित वीर्य का निष्कासन होता है । यह असामान्य नहीं , न ही चिन्ता का विषय है ।

प्रत्ये नवयुवक को विवाह पूर्व अपनी काम उत्तेजनाओं को वश में करना सीखना चाहिए , क्योंकि उसके पश्चात् के जीवन में आत्म- नियंत्रण की अधिक आवश्यकता हागी । विवाह के उपरान्त भी काम सम्बन्धो में आत्म अनुशासन के लिए स्थान होता है , क्योंकि विवाह से अनियंत्रित यौन समागम के लिए लाईसेन्स नहीं प्राप्त हो जाता । जिसने शादी के पूर्व आत्म- मर्यादा नहीं सीख ीवह शायद ही उसके पश्चात् कभी सीखेगा । जो अभी तक इस बुरी आदत से जकड़े हुए हैं , वे सोच रहें होंगें कि इससे छुटकारा कैसे पाएं । छुटकारें का मार्ग यह पहचानना है कि मसीह के साथ उसकी मृत्यू और पुनरूत्थान में हमारे मेल द्वारा , पाप का अधिकार हम पर से समाप्त हो चुका है । यदि हम पवित्र आत्मा से परिपूर्ण होने के लिए स्वयं को परमेश्वर को समर्पित करते हैं , तो हमारे जीवन में विजय एक वास्तविकता बन सकती है ( रोमि ़ 8:2) । हमें अपने जीवनों के लिए व्यस्त रूप से दैनिक समय विभाग चक्र बना लेना चहिए । किसी न किसी कार्य में दिन भर हमारें मनों और विशेषकर शरीरों को संलग्न रहना चाहिए । आलस्य और निरूद्योग में समय बिताने वाला शरीर ही अति शीघ्र वासना का शिकार हो जाता है । उद्यागी जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति को इस बहुत कम कठिनाई होगी । परमेश्वर का अभिप्राय है कि मनुष्य परिश्रम करें । आदम को अपने माथे के पसीने की रोटी प्राप्त करना था (उत्पत्ति 3:19) । आधुनिक युग में विज्ञान ने हमारे लिए समय की बचत करने वाले अनेक उपायों की खोज की है इससे आधुनिक नौजवान को निष्क्रियता में समय गंवाने का अवसर सुलभ होता है - जिसका लाभ शैतान शीघ्र उठाता है । मेरे कथन का यह अर्थ नहीं कि इसी कारण हमें इस समय की बचत करने वाले साधनों का उपयोग नहीं करना चाहिए । अवश्य इनका प्रयोग किजिए । किन्तु हमें प्रयत्न करना चाहिए कि फालतू समय को किसी रचनात्मक गतिविधि में बिता कर सदुपयोग करें ।

शरीर की शक्ति को चार प्रकार से खर्च किया जा सकता है - शारीरिक कार्यों में , मानसिक गतिविधियों में , सांवेगिक अनुभवों में अथवा लैंगिक क्रियाओं में । यदि हम दैहिक शक्ति की प्रथम तीन क्रियाओं में न लगाएं , तो इसका बल चौथे प्रकार के प्रयोग की सम्भावना पर पड़ेगा । किन्तु अन्य क्रियाओं की अपेक्षा यौन उपभोग द्वारा नाड़ी तन्तु और शारीरिक शक्ति तथा सामर्थ का अधिक व्यय होता है ।

कुछ पुरूषों पर कामोत्सर्ग के लिए उतना दबाव नही पड़ता जितना अन्योंपर । जो आवश्यकता से अधिक परिणाम में काम उत्तेजनाओं के कारण इसका अधिक दबाव अनुभव करते है , उन्हें स्वयं को असामान्य नहीं सोचना चाहिए । यह इस बात का सूचक है कि उनमें क्रियात्मक शक्ति अत्याधिक संचित है , जिसे शुद्ध और उपयोगी उपायों में खर्च किया जा सकता । परमेश्वर की यह इच्छा नहीं कि हम निरन्तर आभिलाषा से युद्ध करते रहें । उनकी आकांक्षा है कि हम अपनी शारीरिक शक्तियों को ( जो विचार अथवा कार्य द्वारा काम उपभोग के लिए बाध्य करती है ) उन मार्गों पर ले जाएं , जहां उसकी महिमा होगी और मनुष्यों की सहायता होगी ।

अतः प्रत्येक मसीही नवयुवक दैनिक शारीरिक गतिविधियों द्वारा अपनी देह को व्यस्त रखें । गपशप में समय गवाने के बदले वह अतिरिक्त समय में बाइबल अध्ययन और प्रार्थना (जिससे मानसिक व्यायाम होगा ) करे । दिन बीत जाने पर उसे ज्ञात होगा ,कि न सिर्फ उसने अधिक कार्य है , किन्तु वह इतना थक गया है कि बिस्तर में जाते ही उसे निन्द्रा आ घेरती है । रात्रि समय बिस्तर में पड़े पड़े वासनामय विचारों द्वारा पीड़ित होने और हस्तमैथुन की परीक्षा में पड़ने के बदले , वह सुख की नींद सोयेगा । बाइबल में लिखा है , ‘‘परिश्रम करने वाला चाहे थोड़ा खाए ; या बहुत, तौभी उसकी नींद सुखदाई होती है ’’ ( सभो ़ 5:12) ।

यदि हम आहार व निन्द्रा सम्बन्धी साधारण विषयों में स्वयं को अनुशासित करें तो काम उत्तेजनाओं को वशीभूत करने का कार्य अधिक सरल बन सकता है ं बहुत लोग यौन क्षेत्र में पराजित होते है क्योंकि उन्होंने उक्त दोनो क्षेत्रों में कभी स्वयं अनुशासन नहीं किया है । आवश्यकता से अधिक भोजन करने और काम उत्तेजना के मध्य वास्तविकता में गहरा सम्बन्ध हैं । ‘‘ पेअ भर भर खाती और सुख चैन से रहती ’’(यहेज ़ 16:49) रहने के करण प्राचीन सदोम में यौन सम्बन्धी पाप अधिकता से था । जो लोग कामोत्तेजनाओं की दासता में हैं, वे अपने आहार सम्बन्धी आदतों पर अनुशासन लगाएं । वे उपवास के साथ प्रार्थना में परमेश्वर को यत्नपूर्वक खोजें । उन्हें आदत से शीघ्र छुटकारा मिलेगा ।

सबसे बढकर , हम सब समयों में परमेश्वर की उपस्थित ढूंढने का अभ्यास करें । अर्थात इस तथ्य का आभास करते रहें कि परमेश्वर सदैव हमारे साथ है तथा हमें देख रहा है । यह अत्यन्त स्पष्ट ही है कि यदि अन्य विश्वासी हमारा निरीक्षण कर रहा हो , तो हम कभी हस्तमैथुन नहीं करेंगें । हम इससे कितना बढ़ कर परमेश्वर का भय मानना चाहिए ।

यदि सब प्रयत्न करने के पश्चात भी , किसी विशेष परिस्थिती में आप इस परीक्षा से बचाव न कर सकें , तो आपके लिए यही श्रेष्ठ होगा कि तत्काल किसी अन्य व्यक्ति ़ ़ ़ ़ ( विश्वासी हो तो अधिक अच्छा ) का साथ खोंजे । जय पाने में आपको इससे सामर्थ मिलेगा ।

स्त्री और पुरूष के मध्य प्रथम यौन संसर्ग से दोनों के मध्य गहन मेल होता है , ओर विवाह ठीक यही पर पूर्ण होता है । बाइबल में लिखा है , ‘‘ क्या तुम नहीं जानते , कि जो कोई वेश्या से संगति करता है वह उसके साथ एक तन हो जाता है क्योंकि वह कहता है , `ि कवे दोनों एक तन होंगे ’’ ( 1कुरि ़ 6:16) । पुराने नियम में स्त्री पुरूष के मध्य यौन सम्बन्ध को ‘‘जानना ’’ कहा गया है । समागम ऐसा कार्य नही जिसका सिर्फ शारीरिक प्रभाव ही पड़े । इसे सरलतापूर्वक भुलाया नहीं जा सकता । इसमें दानों गूढ़ रीति से एक होकर जुड़ते हैं । इसीलिए परमेश्वरने यौन अनियमितताओं के विरूद्ध मार्ग में अनेक बाधाएं खड़ी की हैं ़ ़ ़ ़ ़ ये तो सिर्फ दो ही हैं । बाइबल में लिखा है कि ‘‘ परमेश्वर व्यभिचारियों और परस्त्रीगामियों का न्याय करेगा ’’ (इब्रा ़ 13:4) ।

उत्तरदायित्व के बिना नौजवान साधारणतया अधिकार और आनन्द की खोज करते हैं । यही कारण है `ि कवे वैवाहिक जीवन के उत्त्रदायित्व के बिना , यौन - उपभोग के आनंद को ढूंढने की परीक्षा में पड़ते हैं । जो मनुष्य का संसर्ग को इतना निम्नकोटि का बनाते हैं , वे अपने जीवनों पर परमेश्वर के श्राप और न्याय के सिवा क्या आशा रख सकते हैं । कई नौजवानों को उनके सांसारिक भ्रष्ट मित्र यह चुनौती देते हैं `ि कवे यौन संसर्ग द्वारा अपने पुरूषत्व को सिद्ध करे । यदि वे किसी लड़की से सम्पर्क नहीं करते अथवा संसर्ग सम्बन्धी घटनाओं का वर्णन नहीं कर सकते , तो उपहास के पात्र बनते हैं । सच्चा पुरूषत्व तो आत्म- नियंत्रण द्वारा सिद्ध होता है , काम लाइसेन्स द्वारा नहीं ।

बाइबल में दाऊद का उदाहरण प्रस्तुत है , जो मर्यादारहित अभिलाषा के कारण श्रशतः पथभ्रष्ट हो गया था । उन परिस्थितियों पर ध्यान दीजिए जिनसे उसका पतन हुआ । 2 शमूएल 11 : 1,2 में लिखा है `ि कवह घर में रूक कर टहल रहा था , जब उसे रणक्षेत्र में जाना चाहिए था । उसने अपने कर्तव्य की अवहेलना की थी , और आलस्य तथा आराम को स्थान दिया था । तब उसने बतशेबा को देखा । अपने चक्षुओं को अनुशासन में रखने के बदले वह एकटक उसे निहारता रहा और इस प्रकार पाप में गिरा ।

हम बाइबल में शिमशोन का भी वर्णन हैं जो अनियंत्रित उत्तेजनाओं के कारण पूर्णतः पथभ्रष्ट हुआ ( न्यायीयों 14और 16) । जब उसने रूपवती स्त्रियों पर दृष्टि की , तो परमेश्वर के सेवक के रूप में अपनी बुलाहट भूल गया इसी से उनकी सेवकाई का अन्त हुआ । उस समय से लेकर आज तक अनेक लोग ठीक उसी तरह परीक्षा में गिरे हैं , और उनकी सेवकाई का अन्त हुआ है ।

दूसरी और हम यूसुफ के विषय में पढ़ते है । उसे दाऊद की नाई विलास आराम और उच्च पद प्राप्त नहीं था ; न ही शिमशोन की नाई परमेश्वर की सेवकाई करने की उच्च बुलाहट प्राप्त की थी । तौभी उसने अभिलाषा पर पूर्ण रूप से जय पाई । प्रत्येक नौजवान को उत्पत्ति 39 पढ़ना और अध्ययन करना चाहिए । यहां 7 वें पद में हम पढ़ते है कि एक दिन एकाएक यूसूफ पर कैसे परीक्षा आई । उसे किसी प्रकार की पूर्व चितौनी नहीं मिली थी । इसी प्रकार हम पर भी परीक्षा आयेगी । यदि अपने गुप्त जीवन में यूसूफ वासनामय विचारों में रत रहता , तो सहज ही गिर जाता । किन्तु यूसूफ परमेश्वर की उपस्थिती का आभास करता रहता था । तभी जब परीक्षा आई , तो किसी और को उपस्थिती की अपेक्षा उसने परमेश्वर की उपस्थिती का अधिक अनुभव किया । यदि यूसूफ का आत्मिक जीवन सिर्फ दूसरों कां प्रभावित करने के लिए दिखावटी होता , उसमें गहराई और वास्तविकता नहीं होती , तो वह इतनी प्रबल परीक्षा में निःसंदेह गिर जाता ।

ध्यान दीजिए कि यूसूफ परीक्षा में गिरने से इसलिए बच निकला , क्योंकि परमेश्वर का भय मानता था । उसे पकड़े जाने का भय नहीं था , न ही दंड़ का भय था ( पद 9) । दुःख की बात है कि उन दिनों में इन्हीं दो बातों से डर कर मनुष्य पाप से रूकते थे । परमेश्वर से यूसूफ का सम्बन्ध बहुत गहरा था , हमारे युग में अधिकांश लोगों के समान दिखावटी नहीं ।

हम पढ़ते हैं कि पोतीदार की स्त्री ने यूसूफ को परीक्षा में डालने का बार बार प्रयत्न किया । यूसूफ ने हर बार अपना बचाव किया (पद 10) । उसने प्रथम बार ‘‘नहीं ’’ कहा , अतः दूसरी बार उसके लिए ‘‘नहीं ’’ कहना अधिक सरल हुआ और तीसरी बार और अधिक । जैसे गीत की पंक्तियां है, ‘‘

‘‘लड़ो तुम शैतान से हार जाना है पाप जय पाने से तेरा फिर होगा प्रताप ’’।

10 वे पद से स्पष्ट है कि उसने पूर्णरूप से यह प्रयत्न किया कि पोतीपर की उपस्थित से दूर रहे । अनुसरण के लिए यह सबसे सुरक्षित मार्ग है - जहां भी संभव हो , परीक्षा के स्थल से दूर रहना ।

यूसूफ का उदाहरण हमें चितौनी देता है कि हमें विरूद्ध लिंग के साथ अपने संबंधो में सावधान होना है । सिर्फ आकर्षक युवतियों की ही उपस्थिति में सावधान होने की आवश्यकता नहीं , अनाकर्षक युवतियों से भी परीक्षाएं आ सकती हैं । इन में से कई अपनी सौंदर्य की कमी पहचानती है और इसकी पूर्ति के लिए पुरूषों को अपनी देह के स्पर्श की स्वतन्त्रता बढ़कर दे सकती है ।

बाइबल हमें सतर्क करती है , ‘‘ व्यभिचार से बचे रहो जितने और पाप मनुष्य करता है , वे देह के बाहर हैं ;परन्तु व्यभिचार करने वाला अपनी ही देह के विरूद्ध पाप करता है । क्या तुम नही जानते , कि तुम्हारी देह पवित्रात्मा का मन्दिर है ! जो तुम में बसा हुआ है और तुम्हे परमेश्वर की ओर से मिला है , और तुम अपने नहीं हो ? क्योंकि दाम देकर मोल लिए गए हो , इसलिए अपनी देह की द्वारा परमेश्वर की महिमा करो ’’ ( 1 कुरि ़ 6:18-20) ।

यूसूफ ने यही किया । उसने निंदा सहने अथवा बन्दीगृह में जाने की परवाह नहीं की , किन्तु अभिलाषा के वशीभूत होना अस्वीकार किया । कोई आश्चर्य नहीं कि परमेश्वर ने उसका सन्मान किया । संभवतः इस क्षेत्र में गिरने के कारण आज परमेश्वर अनेक जवानों को सम्मानित नहीं कर सकता ।

समलिंगरत प्रवृत्ति

समलिंगरत प्रवृत्ति से तात्पर्य है - समान लिंग वाले व्यक्तियों के मध्य का काम आकर्षण उन अपराधों में से यह एक था जिसके कारण लूत के युग में परमेश्वर ने सदोम और अमोरा का न्याय किया था । लैव्यव्यवस्था 18:22और कुरिन्थियों 6,9,10 में इसकी स्पष्ट भर्त्सना की गई है । समलिंगरत प्रवृत्ति का आचरण करने वालक लोगों के लिए बाइबल की चितौनी है , कि उन्होने ‘‘ निर्लज्ज काम करके अपने भ्रम का ठीक फल पाया ’’ ( रोमि ़ 1:26:27) । ऐसा घिनौना काम करने वाले के लिए पुराने नियम की व्यवस्थानुसार दया का कोई स्थान नहीं है , उसके लिए मृत्यू दंड घोषित किया गया है ( लैव्य ़ 20:13 ) ।

विश्वासी को न सिर्फ समान लिंग के साथ कामुकतापूर्ण संसर्ग ही करने से बचना चाहिए , किन्तु समलिंग व्यक्ति के प्रति अस्वाभाविक प्रेम से दूर रहना चाहिए । उसी प्रकार उसे ऐसे लोगो के चतुराई पूर्ण प्रयत्नों में फंसने से भी बचना चाहिए । यदि आप पहले से ही इस बुरी आदत से जकड़े हैं तो परमेश्वर से छुटकारे के लिए प्रार्थना कीजिए कि विरूद्ध लिंग के साथ स्वास्थ्य और सामान्य संबंध कायम रखें । यदि आप किसी विश्वासी व्यक्ति से , जो उम्र में आपसे बड़ा हो , सलाह लें अथवा उसके साथ प्रार्थना करें , आपको अवश्य सहायता मिलेगी ।

शत्रू पर विजयी होना

इस युग में हम यौन क्षेत्र में अनेक परीक्षाओं का सामना करते हैं । बाइबल में शैतान का वर्णन गरजने वाले सिंह की नाईं किया गया हैं , जो फाड़ खाने के प्रयत्न में है । उसे धूर्त सर्प के समान बताया गया है , जो धोेका देने को उद्यत है । उसे ज्ञात है कि जवानों को जाल में फंसाने और उसके जीवनों को नष्ट करने का काम ही सबसे सहज क्षेत्र है । उसे ज्ञात हैं कि जवानों को जाल में फंसाने और उसके जीवनों को नष्ट करने का काम ही सबसे सहज क्षेत्र है । हमारी सुरक्षा इसी में है कि सदैव जागृत और आत्म- नियन्त्रित रहें क्योकि उस क्षेत्र के लिए भी यह सत्य है कि ‘‘ स्वाधीनता का मूल्य अनन्त जागरण है ’’

परमेश्वर के वचन में उसी कारण हमारे लिए आज्ञाएं दी हैं कि हम शत्रू के जाल से बचे रहें - परमेश्वर ने हमें अनेक चितौनियां दी हैं - विशेषतः नीतिवचन में । प्रत्येक नौजवान को यह पुस्तक बार बार पढ़नी चाहिए । कई विश्वासीयों की अत्युत्तम आदत है कि वे नीतिवचन को माह में एक बार - प्रतिदिन एक अध्याय करके पूरा पढ़ते है । यहां शत्रू के प्रयत्नों की चितौनी लिखी है ।

यदि हम विजय प्राप्त करने के लिए संकल्पबद्ध हैं तो हम अवश्य युद्ध का सामना करेंगे । किन्तु हमें हार नहीं खानी है । यदि हम अपराध में गिर चुके हैं , तो परमेश्वर के समक्ष अपने पापों को स्वीकार करें । वह हमें क्षमा करने और हमारे सब भूतकाल के गलत कार्यों एवं अशुद्ध विचारों से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य है । कुछ लोगो के लिए , जो गहराई से इस अपराध में गिरे हैं ,संभव है कि उन्हें क्षमा प्राप्त हुई है किन्तु यदि हम अब तक इस पाप में नहीं पड़े हैं तो सतर्क रहें । बाइबल में लिखा है कि जो कोई सोचता है `ि कवह कभी नहीं गिरेगा , वही जल्दी गिर सकता हैं (1 कुरि ़ 10:12 ) ।

परमेश्वर की आकांक्षा है कि हमें हर समय जय के अनुभव में ले चले ( 2 कुरि :2:14) । अपने जीवनों में ऐसे अनुभव के लिए हम उस पर विश्वास रखें ।

अध्याय 3
विरोधी यौनों का परस्पर आकर्षण

हम सब में कुछ न कुछ ऐसा है , जिससे हम विरोधी यौन की संगति , मित्रता और सराहना की इच्छा रखतें हैं । समान यौन वाले व्यक्ति की अपेक्षा हम उन्ही को अधिक प्रभावित करना चाहते । समवर्ग की अपेक्षा उनके द्वारा उपेक्षित और तिरस्कृत होने पर हमें अधिक निराशा होती है । जो व्यक्ति इन भावनाओं के अस्तित्व को अस्वीकार करता है वह या तो समलिंगरत प्रकृत्ति का होगा अथवा झूठा होगा ।

समस्त सामान्य मनुष्यों में तरूणावस्था में प्रवेश करते ही ( लड़के के लिए 14 से 16 वर्ष की आयु के मध्य और लड़की के लिए 12 से 14 वर्ष की आयु के मध्य) विरूद्ध यौन के प्रति व्यवहार में परिवर्तन आरम्भ हो जाता है । इस उम्र के पहले , साधारणतः लड़के लड़को को पसन्द करते हैं और लड़कियां भी लड़कियों को पसन्द करती हैं । किन्तु तरूणावस्था के प्रारम्भ होते ही , प्रत्येक में विरूद्ध यौन के प्रति आकर्षण बढ़ता जाता है । यद्यपि प्रत्येक इसे सहज स्वीकार नहीं करेगा । यह आकर्षण कभी - कभी इतने से ही प्रकट होता है । कि तरूण अपनी वेषभूषा अथवा रूप की अधिक ध्यान देते हैं । विरूद्ध यौन की उपस्थिति में उनका व्यवहार स्वतः विनीत हो जाता है । ऐसा आकर्षण स्वाभाविक है । इससे देर नहीं रहा जा सकता , तथा यह स्वयं में पापमय नहीं हैं ।

परमेश्वर ने स्वयं इस प्रकार हमें सृजा है , अतः वह निश्चय हमसे यही आशा रखेगा कि हम विरूद्ध यौन व्यक्तियों के साथ स्वाभाविक रूप से मित्रता रखे । वह नहीं चाहता कि हम मित्रता की ऐसी इच्छाओं का किसी अस्वाभाविक रीति से दमन करें । किन्तु उसका कथन है कि हम इन इच्छाओं को वश में रखें , ताकि ये अनियन्त्रित एवं आवश्यकता से अधिक परिणाम में न हों । इसमें संदेह नहीं विरूद्ध यौन वाले सदस्यों से अत्यधिक मित्रता रखना आपत्तिजनक हो सकता है - विशेषकर यदि यह मित्रता सिर्फ एक ही व्यक्ति तक सीमित हो । किन्तु दुसरा ओर उनके सम्पर्क से पूर्णतः अलग रहने का आचारण भी उतना ही अधिक आपत्तिजनक हो सकता है ।

कई व्यक्ति ऐसे हैं जो स्वयं को दूसरों से बढ़कर आत्मिक सोचते हैं , और विरूद्ध यौन के साथ वार्तालाप तक से दूर रहते हैं । यह उनके आत्मिक होने का चिन्ह किन्तु उनके अस्वाभाविक होने का प्रतीक अवश्य है । विरूद्ध यौन के साथ मित्रता रखना आत्मिक बात नहीं है - यह विचार उस तत्वज्ञान काही अंश है जिसकी शिक्षानुसार विवाहित रहने से अविवाहित रहना उत्तम है । धर्मशास्त्र के विरूद्ध इस प्रकार की शिक्षा सिर्फ गुप्त पापों की ओर अग्रसर कर सकती है - जैसा स्पष्ट देखा गया है कि ऐसे अनेक धार्मिक अविवाहित स्त्री पुरूष व्यभिचार में गिर चुके हैं । उसी प्रकार सिर्फ अपने ही यौन वर्ग के साथ मिलने जुलने वाले व्यक्तियों के मन में और गुप्त आदतें , सहज रूप से दोनों यौन वर्ग के साथ रखने वाले व्यक्तियों की अपेक्षा खराब है ।

उपरोक्त कथन का यह तात्पर्य नहीं कि विरूद्ध यौन के साथ अनुशासन रहित स्वतंत्रता को बढ़ावा दिया जाय - क्योंकि इसे व्यक्ति पूर्णतः कामुकतापूर्ण जीवन की ओर ही अग्रसित होगा । हम इतना ही चाहते हैं कि स्वस्थ संतुलन स्थापित हो ।

‘‘मैन विमैन एण्ड गॉड ’’ में डा ़ हरबर्ट ग्रे ने लिखा है ‘ एक साथ काम करने के क्षेत्र में स्त्री पुरूष का परस्पर संबंध , विवाह से अलग भी ऐसा आनन्द दायक , प्ररणादायक कह सकता है , मानवजाति को दो वर्गो में विभाजित करने का यह सम्पूर्ण प्रबन्ध ‘ परमेश्वर के समस्त तेजस्वी विचारों में से एक है ़ ़ ़ ़ ़ कुछ स्थलों को छोड़ , वे जीवन के सभी क्षेत्रों में , एक दूसरे की पूर्ति करते तथा एक दूसरे को उत्साहित करते हैं । वे एक दूसरे के साथ काम करने से इस जीवन को महान और उत्तम बनाते हैं , जो अन्यथा संभव नहीं होता । ’’

मित्रता

बाइबल की शिक्षा है कि युवक , युवतियों को पूरी पवित्रता के साथ बहिन जानें ( 1 तीमु ़ 5:2 ) । दूसरें शब्दो में आप किसी युवती के साथ उसी प्रकार व्यवहार करें , जैसा आप चाहेंगे कि दूसरे पुरूष अपने बहिन के साथ करें । यह वास्तव में सब समयों के लिए आचरण का सर्व सुरक्षित नियम है ।

दोनों यौन वर्ग का आपसी व्यवहार सम्मान और आदरपूर्ण होना चाहिए , साथ ही उन्हें स्वयं को अलग और मयौदा में रखना चाहिए । विरूद्ध यौन वर्ग के साथ गहरा व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं होना चाहिए । यह सदैव बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य होगा कि हम कुछ सीमा तक उनसे एक कदम अलग और संयत रहें - यद्यपि इसका तात्पर्य नहीं कि दोनों के मध्य हास्य और विनोद का कोई स्थान ही न हो । किन्तु हमें स्मरण रखना चाहिए कि दूसरें समयों की अपेक्षा , विरूद्ध यौन की उपस्थिति में हम पर भी परीक्षा आएगी कि हम आवश्यकता से हम अधिक परिणाम में चंचलता का व्यवहार करें । यह संकट का कारण हो सकता है ।

इसका यह अर्थ नहीं कि हम विरूद्ध यौन के व्यक्ति पर कभी इस दुष्टि से विचार न करें , कि वह सम्भवतः भविष्य में हमारा जीवन साथी बनेगा । किन्तु विश्वासी के लिए यह सर्वथा अज्ञानतापूर्वक कार्य है `ि कवह विद्यार्थी जीवन के दिनों में विरूद्ध यौन के साथ पृथक तथा विशिष्ट संबंध बनाये रखे । विद्यार्थी को अपने संवेग वश में रखना चाहिए तथा अध्ययन पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए । नवयुवक को सामान्यतः उस समय तक विवाह पर ध्यान नहीं देना चाहिए ,जब तक उसका अध्ययन समय पूर्ण न हो चुका हो , और जब तक वह कम से कम 25 वर्ष की आयु का न हुआ हो । इसी प्रकार युवती को भी उस समय तक विवाह का विचार नहीं करना चाहिए , जब तक वह कम से कम 20 वर्ष की न हो । इस आयु तक उन्हें अविचलित रहकर विशेष रूप से परमेश्वर के काम में अपना सब अतिरिक्त समय देना चाहिए । विवाह के साथ साथ उत्तरदायित्व जुड़ जाते हैं जिनसे नहीं बचा जा सकता । विवाह के उपरान्त व्यक्ति परमेश्वर के काम के लिये उतना स्वतंत्र (समय के अर्थ में ) नहीं रह जाता , जितना शादी से पूर्व था । किन्तु पत्नी की खोज ( अथवा पति की खोज ) और विरूद्ध वर्ग के साथ विशिष्ट मित्रता , वैवाहिक जीवन से भी अधिक समय ले सकती है ! विवाह देर से करने का ( उक्त कथन अनुसार ) अन्य कारण यह भी हैं कि बुद्धिमानी से चुनाव के लिए , नौजवानों को मानसिक और सांवेगिक परिपक्वता आवश्यक होती है । यह परिपक्वता उम्र बढ़ने से ही आती है । हम अध्याय पांच में इस पर आगे विचार करेंगे ।

अतः विरूद्ध यौन वर्ग के साथ मित्रता उस समय तक कभी गहरी नहीं होनी चाहिए , जब तक विवाह पर गम्भीरता से विचार न हो रहा हो । युवक और युवतीयां ( विशेषतः युवक ) सावधानी से निश्चय करें `ि कवे आपसी संबंध में सच्चे हैं या नहीं । दोनों पक्षों के मध्य , हर समय स्वयं के अभिप्रायों में विश्वास योग्यता होनी चाहिए । इस नियम की अवहेलना से कई जीवनों में मानसिक क्लेश और निराशा का प्रवेश हुआ है । इसका बहुधा यह भी परिणाम हुआ है कि लोगों को परीक्षा में असफलता प्राप्त हुई है तथा उनकी मसीही साक्षी समाप्त हुई है । पुरूष का स्वभाव है कि वह इस मित्रता सम्बन्धी बातों को प्रारम्भ करता है तथा स्त्री में आकर्षण शक्ति है । अतएव दोनों को सावधान होना है ।

नवयुवक को यह जानना चाहिए कि किसी युवती के साथ आवश्यकता से अधिक स्वतंत्र संबंध रखने , अथवा विवाह का अभिप्राय न होते हुए भी दूसरों पर यह प्रभाव डालने से , वह युवती की हानि कर रहा है । ऐसे व्यवहार से भविष्य में युवती को विवाह की संभावना पर आघात पहुंच सकता है । इन मामलों में युवक के भविष्य विवाह सम्बन्ध अथवा आचरण पर कोई आंच नहीं आती । आती भी है तो बहुत थोड़ी । किंन्तु उस समय से लोग युचती को उसके दोषी न रहते हुए भी संदेह और हेय दृष्टि से देखते हैं । किसी मसीही नवयुवक को ऐसा व्यवहार शोभा नहीं देता । पुरूष ही हैं , जो इन बातो को प्रारम्भ करता है , अतः इस आपत्ति को रोकने का प्रमुख दायित्व उसी पर है । हमें कभी दुसरें व्यक्ति के जीवन से नहीं खेलना चाहिए । जो ऐसा करते हैं , उन्हें परमेश्वर कठिन दंड़ देता देगा ।

सम्भव है कि नवयुवक विरूद्ध यौन के किसी सदस्य से गुप्त प्रेम रखे और किसी को न बताए । ऐसा प्रेम यद्यपि छिपा हो , तो भी बढ़ता रहेगा । किन्तु जब उसकी ‘‘प्रमिका ’’का विवाह किसी अन्य से हो जाए , उसे अनन्त दुःख और निराशा होगी । ऐसी घटनाओं में हमेशा उचित है कि प्रेम आरम्भ होते ही अपने विचारों को निर्भीकतापूर्वक किसी विवाहित विश्वासी को बताएं तथा उसकी सलाह एवं सहायता ढ़ंढ़े ।

निश्चित समय का मिलन और शारीरिक स्पर्श

यह पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव हैं तथा भारत में भी इसका प्रवचन दिनोंदिन बढ़ रहा है । निश्चित समय के मिलन से तात्पर्य है कि युवक और युवती अकेले में एक - दूसरे के साथ मिलते है , और बिना किसी के साथ वे दोनों बाहर किसी स्थान पर जाते हैं । शारीरिक स्पर्श से तात्पर्य है कि वे शारीरिक संबंध रखते है ( यौन सहवास के अतिरिक्त सम्बन्ध ) ।

यह निर्दिष्ट रूप से कहा जा सकता हैं कि भारत में यदि एक विश्वासी अपनी साक्षी बनाए रखना चाहता है तथा परमेश्वर के लिए उपयोगी होना चाहता है तो वह विवाह का अभिप्राय रखते हुए भी इस प्रकार एकान्त में न मिले । विरूद्ध यौन के साथ - मुख्यतः अन्धेरा होने के पश्चात वह अकेले कहीं बाहर जाने से भी यथा संभव दूर रहे । भारतीय संस्कृति से परिचित कोई भी व्यक्ति इसका कारण सहज समझ लेगा । विश्वासियों को सचेत रहना है कि दूसरों को कलंक लगाने का अवसर न दें ।

कुछ लोगो का कथन हो सकता है कि आस-पास की संस्कृति और रीति रिवाजों के बन्धन से मसीह ने उन्हें स्वतंत्र किया है । हां अवश्य !किन्तु स्मरण रखिए कि मसीह ने हमें इसलिए स्वतंत्र किया है कि हम परमेश्वर के वचन का पालन करें - और आइअल में कहीं इस प्रकार अकेले में मिलन को प्रोत्साहन नहीं दिया है । इस विषय पर इसमें कही कुछ नहीं लिखा है । जब परमेश्वर के वचन और मनुष्यों के रीति-रिवाज में विरोध हो , तो हमें परमेश्वर के वचन का पालन करना चाहिए । किन्तु अन्य सभी परिस्थितीयों में , हमें निश्चय करना है कि हमारी स्वतंत्रता ‘‘शारीरिक कामों के लिए अवसर ’’ ( गल ़ 5:13) न बने । हमें रोमियों 14:16 में दिए गये इस नियम के अधीन आचरण करना उचित है :

‘‘तुम्हारी भलाई की निन्दा न होने पाये ’’ ।

1 ़ कुरन्थियों अध्याय 8 भी इसी परिस्थित में लागू होता है । इस विषय पर लागू कर व्याख्या करने से निम्नलिखित अर्थ स्पष्ट होता है :

‘‘ अब युवक युचतियों के अकेले में निश्चित समय तक मिलन के विषय में कीजिए कि सिर्फ ज्ञान से मनुष्य में गर्व उत्पन्न होता है , परन्तु प्रेम उसे परमेश्वर की समानता में बदलता है । जो व्यक्ति सोचता है कि वह सब कुछ जानता है , वह सिर्फ अपनी अज्ञानता ही प्रकृट करता है । परन्तु जो मनुष्य वास्तव में परमेश्वर से प्रेम रखता है - सिर्फ वही परमेश्वर का मित्र होता है । इसलिए हम क्या करें ? हमें अकेले में विरोधी यौन के साथ निश्चित समय तक मिलना चाहिए अथवा नहीं ?हम जानते है कि यदि हमारा अभिप्रायः पूर्णतः पवित्र है -- तो विरूद्ध यौन के किसी सदस्य के साथ अकेले भोजन करने जाने या टहलने जाने मे कोई पाप नहीं । किन्तु सभी लोग ( भारत में) इस प्रकार नहीं सोचते । अधिकांश लोग अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में इस प्रकार के मिलन को गलत साचने के अम्यस्त रहें हैं । याद रखिए कि परमेश्वर हमें इस आधार पर ग्रहण नहीं करता है कि हम इस प्रकार मिलते हैं या नहीं । यदि हम मिलते हैं तो उससे हमारा स्वभाव कोई अच्छा नहीं बनता , और यदि नहीं मिलते तो उससे हमारे स्वभाव में कोई बुराई भी नहीं आती । किन्तु चौकस रहिए मिलन की आपसी स्वतंत्रता कही किसी दूसरे मसीही ( अथवा सत्य को खोज करने वाले अन्य जाति के व्यक्ति )के लिए ठोकर और गिरने का कारण न बने । मान लीजिए कोई व्यक्ति ( जो मिलन को गलत समझता है ) आपको किसी युवती ( अथवा युवक ) के साथ बाहर जाते देख ले ,तो उसके मन में आपका सन्मान घट जाएगा और आपकी मसीही साक्षी में अन्तर आ जाएगा । हो सकता है `ि कवह भी ऐसा मिलन प्रारम्भ करे ; और अपराध में गिर जाए , क्योंकि वह आपके सदृश्य दृढ मसीही नहीं है । इस प्रकार अपने भाई के आत्मिक पतन के लिए आप जिम्मेवार होंगे । जब आपके द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहन पाकर कोई दूसरा व्यक्ति अपराध में गिरता है , तो वास्तव में आप मसीह का अपराध करते हैं । इस कारण मेंने अपराध किया है कि यदि मेरे मिलने के लिए बाहर लाने से मेरे भाई को ठोकर खाने अथवा चोट पहुंचने की कोई सम्भावना है , तो मेरे फिर कभी बाहर मिलने को नहीं जाऊंगा --- ऐसा न हो कि में दूसरे के ठोकर का कारण बनूं । ’’

जे बाहर मिलने जाना जरूरी रखेंगे , उन्हें शारीरिक स्पर्श से बचे रहना अत्यधिक कठिन जान पड़ेगा । यह हाथ पकड़ने से प्रारम्भ होगा और आगे चल कर चुम्बन तथा अलिंगन में बदल जाएगा । युवती की अपेक्षा युवक में शारीरिक सम्पर्क की इच्छा बलवन्त होगी , क्योकि यौन इच्छा सदा पुरूषों में अधिक तीव्र होती है । पुरूष शीघ्र ही कामुक हो सकते है और इस प्रकार एक बार यदि इच्छा को जाग्रत किया गया तो फिर उसे वश में करना अत्यन्त कठिन होगा ।

एक बार कियी जोड़े ने शारीरिक स्पर्श प्रारम्भ किया , तो वास्तव में उसे रोकना असम्भव हो जाएगा । एकदम दूसरे को बढ़ावा देगा और प्रत्येक बार जब आप साथ होंगे , आप पहले मिलन से अधिक उत्तेजना और आनन्द प्राप्त करना चाहेंगे । और प्रत्येक बार आपको उससे कम संतोष ही मिलेगा ।

शारीरिक स्पर्श के यौन अनुभवों का प्रभाव मनुष्य के पूर्ण व्यक्तित्व पर पड़ता हेै । इसमें पड़ने से गम्भीर परिणाम हुए बिना नहीं रह सकता । शारीरिक स्पर्श स्वाभाविक रूप से वैवाहिक जीवन के गाड़े संबंधो का प्राथमिक कदम है । अतः अविवाहित जीवन में ऐसा करना महापाप है । साथ ही विवाह से पूर्व इस आदम में पड़ना मूर्खता है । शारीरिक स्पर्श , यौन के महत्त्वपूर्ण स्थान को निम्न करता तथा उसका मूल्य घटता है । इसकी मानसिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं । जहां पहले प्रेम था , वहीं उसका स्थान निराशा और मानसिक तनाव लें सकता है । इसके परिणाम स्वरूप क्रोध और घृणा उपज सकते है । यह बहुत सरलता है । यह बहुत सरलता से यौन संसर्ग कार्य की ओर अग्रसर कर सकता है । तर्क की दृष्टि से देखा जाए तो शारीरिक स्पर्श का परिणाम यही होता है । जब जोड़ा लगातर इस मौन संसंर्ग कार्य के पूर्ण करने में असफल रहें , तो अन्य कठिनाईयां उत्पन्न हो सकती है -- जैसे हस्तमैथुन ( उत्पन्न तनाव को कम करने या उससे छुटकारा पाने ) और भविष्य में विवाह के पश्चात यौन सम्बन्धो में भी समस्याएं आ सकती है । शारीरिक स्पर्श का परिणाम यह भी सम्भव है उस घटना के बाद से मन में सदैव दोष और पश्चाताप बना रहें ।

यदि युवक युवतियों के मध्य की मित्रता कुछ समय उपरान्त टूट जाती है , और यदि वे शारीरिक स्पर्श की आदत में पड़े हो युवती वैश्या समान ठहरती है । इसलिए युवती को यह जानते ही कि उसका युवक मित्र शारीरिक सम्पर्क का इच्छुक है , अपना सम्भन्ध तोड़ देना चाहिए ।

उक्त कथन से स्पष्ट होगा कि युवक युवतियों के मिलन से शारीरिक स्पर्श का मौका आता है ।शारीरिक स्पर्श अन्य समस्याओं को जन्म दे सकता है । इसलिए अपने जीवन में परमेश्वर को महिमा देना का प्रयत्न करने वाले व्यक्ति के लिए इस प्रकार मिलन का प्रश्न ही नहीं उठता । हमारे चहुं ओर लोग ऐसा करते हों किन्तु , हमें उनका आदर्श नहीं अपनाना चाहिए । हमारे मन में उनके प्रति ईर्ष्या भी नहीं होनी चाहिए , क्योंकि उनका अन्त सदैव निराशा और पश्चाताप में होता है । यदि आप परमेश्वर की महिमा करते और उसके वचन में दिए गए सिद्धान्तों का पालन करते हैं , तो आप निश्चिय ऐसे जीवन और अनन्त की आशा रख सकते हैं , जिससे पश्चाताप लेशमात्र को भी नहीं होग ।

अध्याय 4
प्रेम का तेजस्वी रूप

‘‘ प्रेम ’’ सम्भवतः बाइबल का सर्वसुन्दर शब्द है । किन्तु उसके वास्तविक अर्थ को समझने में असफल रहने के कारण , बहुतों ने इसके पूर्व वैभव का आनन्द नहीं उठाया है । परमेश्वर के वचन की शिक्षाओं की अपेक्षा , उनके प्रेम संबंधी विचार 20 वीं शताब्दि के आमोदप्रिय संसार एवं प्रेम के साहित्य से अधिक प्रभावित रहे है ं । इसीलिए कोई नौजवान जोड़े सच्चें प्रेम के लाभप्रद एवं आनन्ददायक अनुभव से वंचित रहे हैं ।

कई विवाह नष्ट हो चुके हैं , क्योंकि वे प्रेम का वास्तविक अर्थ समझने में असफल रहे । विरोधी यौन के किसी सदस्य की उपस्थिती में जो विचारों की उत्तेजना होती है -- उसी को सच्चा प्रेम माना जाता है जो निश्चय गलत है । इसी आधार पर आगे चलकर बहुतों ने विवाह कर यह थोड़े ही समय में जाना है कि जिसे प्रेम समझते थे वह कदाचित प्रेम नहीं था -- सिर्फ मोह ही था ।

कितनी बार ऐसा होता है कि नवयुवक किसी युवती के ‘‘प्रेम में फस जाता है । उसने सिनेमा में अन्तिम खेल देखा था ( अथवा पुस्तक पढ़ी थी ) उसने नायक के स्थान पर स्वयं को रख श्ह अनुभव करना आरम्भ करता है , कि यदि उस युवती से असकी शादी हो सकती , तो वे एक संग ‘‘ सदैव आनन्दित जीवन ’’ निर्वाह कर सकते । किन्तु मित्रता के दिनों एवं विवाह से पूर्व के समय सम्मोहित जोड़ो के बनाए स्वप्न लोक , शादीसे चकनाचूर हो जाते हैं । यदि मोह से पूर्ण प्रेम अन्धा है तो विवाह निश्चय ही दृष्टि देने वाला है !

सच्चा प्रेम

हमें समझना चाहिए कि बाइबल में ‘‘ प्रेम ’’ शब्द का अर्थ क्या है , अन्यथा हम भी असफलता के उस पथ पर चलेंगे जहां लाखो नौजवान और विवाहित जोड़े आज चल रहा है ।

नया नियम प्रारम्भ में यूनानी भाषा में लिखा गया था । उस भाषा में ‘‘ प्रेम ’’ के लिए चार शब्द है - ‘‘एगापे,’’ ‘‘फिलिया ’’ , ‘‘स्टोरगे ’’और ‘‘ इरॉस ’’ । इनमें से स्टोरगे ’’ का प्रयोग विशिष्ट रूप से माता-पिता का बालको के प्रति प्रेम और बालकों का माता-पिता के प्रति प्रेम के संबंध को दर्शाने में हुआ है। यह यहां यौन प्रेम का वर्णन कर रहें है , अतः ‘‘ स्टोरगे पर ध्यान न देकर सिर्फ अन्य तीन शब्दों पर ही ध्यान देंगे । ‘‘ एगापे ’’, ‘‘ फिलिया ’’ और ‘‘ इरॉस ’’ प्रेम के तीन स्तरों को प्रकट करते हैं -- जिनका संबंध क्रमशः मनुष्य की आत्मा , प्राण एवं शरीर से है ।

निम्न स्तर से आरम्भ करें , तो ‘‘इरॉस ’’ शारीरिक अभिलाषापूर्ण प्रेम की ओर संकेत करता है । अधीर और अस्थिर इच्छा ’’ के रूप में इसकी व्याख्या की गई है । यह प्राथमिक रूप से दो देहों के एक- दूसरे के साथ संबंध की ओर संकेत करता है । वह ऐसा प्रेम है जो इस बात पर आधारित है कि दूसरे व्यक्ति में क्या शारीरिक विशेषता है , जो मेरी अभिलाषा की पूर्ति कर सकता है । वह प्रेम सदैव दूसरे से पाने का अभिलाषी होता है ।

दूसरा शब्द ‘‘ फिलिया ’’ है । यूनानी भाषा में प्रेम के लिए यह सर्व प्रचलित शब्द है । यह आदरपूर्ण प्रेम और मित्रतापूर्ण प्रेम की ओर संकेत करता है । इसमें मन में प्रेम बनाये रखने का भाव निहित है । विवाह में इसका प्रमुख आशय एक व्यक्ति का ‘‘मन ’’ दूसरे व्यक्ति के साथ जुड़ जाने से है । यह ऐसा प्रेम है जो साधारणतः बौद्धिक एवं मानसिक दृष्टिकोण की समानता पर अवलम्बित है । यह शारीरिक प्रेम से शारीरिक प्रेम से बढ़कर है, किन्तु तौभी स्वार्थी हो सकता है क्योंकि इसमें यह सोचकर सन्तोष होता है कि मेरी जरूरत है । दूसरे व्यक्ति को मेरी सहायता की आवश्यकता है इसलिए में उसकी भलाई और रक्षा करने वाला हूं ।

तीसरा शब्द --‘‘ एगापे ’’ सर्वाधिक उच्च स्तर का प्रेम है । यह परमेश्वर का प्रेम है जो पवित्र आत्मा द्वारा हमें दिया गया है ( रोमि ़ 5:5) । विवाह में इसका प्रमुख अर्थ - एक व्यक्ति की ‘‘आत्मा ’’ का दूसरे व्यक्ति के साथ बंध जाने से है । यह स्वयं के त्याग का प्रेम है - मलवरी के क्रूस का प्रेम ।

‘‘मोर निव टेस्टमेन्ट वर्ड्स’’ में विलियम बार्कले ने लिखा है ,

‘‘ एगापे ’’ अजय परोपकार , दुर्जय उदारता है । यह सिर्फ संवेग की लहर नहीं है ; यह मन का दृढ विश्वास है जो जीवन के कार्यो में दृढता से बदल जाता है ; यह इच्छा की दृढ पूर्ति और विजय है । इस प्यार की पूर्ति के लिए मनुष्य को अपना सब कुछ देना होता है ; न सिर्फ अपना दिल , किन्तु अपना मन और इच्छा भी । ऐसा प्रेम करना मनुष्य के लिए उस समय तक असम्भव है , जब तक उस पर पवित्र आत्मा का अधिकार न हो और परमेश्वर का प्रेम हमारे मन ना ड़ाला गया हो ’’

यूनानी शब्दकोष में ‘‘एगापे ’’ के सम्बन्ध में लिखा है ,

‘‘ यह अपना लक्ष्य अत्यन्त निश्चय के साथ और त्यागपूर्ण प्रेम सहित चूनता है । यही प्रेम का सम्पूर्ण एवं सर्वश्रेष्ठ स्वरूप है । इसका स्त्रोत परमेश्वर में है । क्रिया रूप में इसका अर्थ व्यक्ति के प्रति सहृदयता से है और इच्छा की कोमलता की ओर संकेत है ।

‘‘एगापान ’’ ( ‘‘एगापे ’’का क्रिया -रूप ) का अर्थ है - ‘‘ महत्त्व जानना , चिन्ता करना, उसमे आनन्द लेना और उसके प्रति ईमानदारी बने रहना ’’ । स्त्री और पुरूष से मध्य जैसा प्रेम होना चाहिए , उस सम्बन्ध में इनका अर्थ होगा कि प्रत्येक अपने साथी को असीम महत्वपूर्ण समझे ; वे एक-दूसरे की चिन्ता करें ; एक -दूसरे में आनन्द लें और आपस में ईमानदारी बने रहें ।

बइबल में ‘‘ एगापे ’’ की यह परिभाषा है : ‘‘ प्रेम धीरजवन्त है , और कृपालु है ; प्रेम डाह नहीं करता ; प्रेम अपनी बढ़ाई नहीं करता , और फूलता नहीं । वह अनरिति नहीं चलता , वह अपनी भलाई नहीं चाहता , झुंझलाता नहीं , बुरा नहीं मानता । कुकर्म से आनन्दित नहीं होता , परन्तु सत्य से आनन्दित होता है । वह सब बाते सह लेता है , सब बातो की प्रतीत करता है , सब बातों की आशा रखता है , सब बातों में धीरज धरता है । प्रेम कभी टलता नहीं ’’ ( 1 कुरि ़ 13:4-8) । < /e m> < /p>

‘‘एगापे ’’ की दूसरी परिभाषा इस प्रकार है :

‘‘यह संदेह करने में धीमा है , किन्तू शीघ्रता से विश्वास करता है ; दोष लगाने में धीमा , किन्तु दोष सुधारने में तत्पर है ; चोट पहुंचाने में धीमा , परन्तु पक्ष लेने को तैयार है । यह दोष प्रगट नहीं करता , किन्तु बचाव करता है । यह झिड़कता नहीं , किन्तु सह लेता है । दूसरे को छोटा नहीं दिखलाता , किन्तु सराहना करता है । मांगता नहीं किन्तु देता है । क्रोध नहीं दिलाता किन्तु मित्रता करता है । रूकावट नहीं डालता किन्तु सहायता करता है । क्रोध में धीमा किन्तु क्षमा करने में तत्पर है ।

विश्वासी के विवाहित जीवन में प्रेम के ये सब प्रकार होने चाहिए ़ं ़ ़ ़ ़ किन्तु उचित क्रम में -- पहले ‘‘एगापे ’’ फिर ‘‘फिलिया ’’ और तब ‘‘ इरॉस ’’ । यह 1 थिस्सलुनीकियों 5:23 की शिक्षा के अनुसार है , जिसमें आत्मा का स्थान पहले है फिर प्राण और तब देह का । परमेश्वर का व्यक्ति की सृष्टि करते समय यही अभिप्राय था कि उसमें यह क्रम बना रहे ।

मनुष्य के पाप में गिर जाने से यह क्रम उल्टा हो गया है , अतः उसका प्रेम संबंधी विचार भी विकृत हो गया है । व्यक्ति के मन ओर देह का अन्य व्यक्ति के मन और देह के प्रति आकर्षण की ही आज संसार ‘‘ प्रेम ’’ कहकर पुकारता है । यह सिर्फ ‘‘ फिलिया ’’ और ‘‘ इरॉस ’’ तक ही सीमित रहता है ़ ़ ़ ़ कभी कभी सिर्फ ‘‘इरॉस ’’ तक ही । यह कितने दुख की बात है ! तौभी परमेश्वर की दृष्टि में , ‘‘प्रेम ’’ उस समय तक नहीं कहा जा सकता जब तक उसमें ‘‘ एगापे ’’ का समावेश न हो ।

प्रेम में पड़ना

क्या प्रेम में पड़ना किसी विश्वासी के लिए उचित है ! यह उस बात निर्भर है कि ‘‘ प्रेम में पड़ने ’’ क्या अर्थ लिखा जाता है । संसार की प्रेम के विषय में धारणा है कि यह एक ऐसी शक्ति है , जिसे रोका नहीं जा सकता , जो एकाएक मनुष्य को जकड़ देती है तथा उस पर शासन लग जाती है । यदि भाग्यवश , ऐसा व्यक्ति जो ‘‘प्रेम में पड़ ’’ गया है , अपनी प्रेमिका से विवाह नहीं कर सकता , तो उसके लिए जीवन पर्यन्त चिन्ता व दुख में डूबे रहने के सिवाय और काई दूसरा रास्ता नहीं है । अथवा कम से कम उस समय तक वह शोकाकुल रहता है जब तक पुनः ‘‘ प्रेम में न पड़ ’’ जाए । लोकप्रिय गीतों और चलचित्रों में से अधिकांश ऐसे ही निराश प्रेमी की जीवनगाथा पर आधारित रहते हैं । यह सब इस कारण होता है , क्योंकि संसार प्रेम को सिर्फ ‘‘फिलिया ’’और ‘‘इरॉस ’’ के स्तर पर ही जानता है । विश्वासी के लिए एसे ‘‘ प्रेम में पड़ना ’’ सर्वथा गलत है ।

परमेश्वर की संतान के लिए प्रेम का आरम्भ ‘‘एगापे’’ स्तर पर होना चाहिए और उसे मुख्यतः आत्मिक आकर्षण पर आधारित होना चाहिए । उसे इसी प्रकार ‘‘ प्रेम में पड़ना ’’ चाहिए ।उसे पूर्ण रूप से पवित्र आत्मा के नियंत्रण में जीना चाहिए , ताकि वही उसके विचारों पर नियंत्रण करे । उसे अपने विचारों के ही वश में रहना चाहिए । जितना जीवन के अन्य क्षेत्रों में , उतना ही अपने प्रेम के विषय में एक मसीही को परमेश्वर की आत्मा की अगुवाई मिलनी चाहिए । सिर्फ पवित्र आत्मा ही उस व्यक्ति की ओर अपनी अगुवाई कर सकता है , जिसे परमेश्वर ने आपका जीवन - साथी बनाने के लिए चुना है ़ ़ ़ और आपको अकेले इसी व्यक्ति इसी व्यक्ति के साथ प्रेम में पड़ना है ।

अतः हमें कितना सावधान रहना है ! हम उस अविश्वासी की तरह नहीं हो सकते जो एक व्यक्ति के साथ प्रेम में पड़ता है । फिर कुछ महीनों अथवा वर्षो पश्चात अपना मन बदल कर किसी अन्य व्यक्ति के प्रेम में पड़ता है । एक विश्वासी को कभी अपने विचारों के हाथ खिलौना नहीं बनना चाहिए । उसके प्रेम का उद्भव इच्छा शक्ति द्वारा होना चाहिए , विचारों द्वारा नहीं ़ ़ ़ ़ ़ क्योंकि विचार धोखा देने वाले सिद्ध हो सकते है । आवश्यक नहीं कि मन में प्रेम की भावना हीन हो , किन्तु उसका स्थान सदैव प्रेम की दृढ़ इच्छा शक्ति के बाद ही आना चाहिए । यह तभी सम्भव है , जब हम सतत रूप से क्रुस को अपने जीवनों में कार्य करने देते हैं , स्वयं की इच्छाओं को मारकर सिर्फ परमेश्वर की इच्छा ग्रहण करते हैं ।

जब भी आप विरूद्ध यौन के किसी ऐसे व्यक्ति से मिलें , जिसके प्रति आकर्षण अनुभव करें , अपने स्वाभाविक प्रेम पर निदर्यतापूर्वक क्रुस को काम करने दें , और इस प्रकार अपने के प्रेममय विचारों को (गुप्त रूप में भी ) , उसके प्रति रोके । इन विचारों को तब तक रोके रहें , जब तक इस विषय पर परमेंश्वर की इच्छा न जान लें । अन्यथा आपको ज्ञात होगा कि तर्क की दृष्टि से सोचने के बदले आपने भावनाओं के वशीभूत होकर कार्य किया है और अंन्त में भटक गये ।

आपको सतर्क रहना है कि आप भावनाओं के अधीन होकर उन परिस्थितियों में पड़ जाएँ , जिनके लिए बादमें पछताना पड़े । अपना प्रेम किसी को दे चुकने के पश्चात ( चाहे गुप्त रूप से ) यह जानना अत्यंत दुखदायी होगा , कि वह व्यक्ति आपके लिए परमेश्वर का चुनाव नहीं है । तब अपने मन से उसे अलग करना अत्यंत कठिन होगा । इस प्रकार के अनुभवों से अनेक समस्याऐं आती है और उसके विचार मन में आते ही रहतें है । किसी अन्य के अन्य साथ विवाह हो जाने पर भी बार बार उसका स्मरण आता है । पश्चाताप और अपराध आपके मन को यहा तक पीड़ित कर सकते है , कि उससे आपके व्यक्तित्व को चोट पहुच सकती है तथा विवाह असफल हो सकता है ।

नवयुवकों को विशेष चौकसी करनी है , `ि कवे शारीरिक सौंन्दर्य एवं आकर्षण से ही प्रभावित न हो जाएं । जहां सच्चा प्रेम है वहां शारीरिक आपर्षण का महत्व नहीं रह जाता । सच्चे प्रेम के अभाव में शारीरिक आकर्षण को दबाना चाहिए ।

दूसरे विषयों के समान प्रेम के संबंध में भी यही आज्ञा है , ‘‘ इस संसार के सदृश न बनो ; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल चलन भी बदलता जाए , जिस से तुम परमेश्वर की भली , और भावती , और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो’’ ( रोमि ़ 12:2 )।

मोह और प्रेम

मोह और ‘‘ एगापे ’’ - प्रेम के मध्य बड़ा अन्तर है । कुछ लोग प्रश्न कर सकते है , ‘‘ मैं कैसे जान हूं कि में इस युवक युवती से वास्तव में प्रेम करता हूं अथवा सिर्फ उससे मोहित हुआ हूं ? ’’वेबस्टर के शब्दकोश में ‘‘ मोह ’’ की यह परिभाषा है - मूर्खता पूर्ण प्रेम से प्रेरित रहने की अवस्था जिसमें तर्क से नियंत्रित न होने का हठ हो ‘‘मोह और एगापे’’ -- प्रेम का विरोध और स्पष्ट होगा यदि हम दो मसीही युवकों के अनुभवों पर ध्यान दें -- प्रकाश जो एक युवती से सिर्फ मोहित हुआ है और सुरेश जो एक युवती से सच्चा प्रेम ( ‘‘ एगापे’’ प्रेम ) करता है । निम्नलिखित उदाहरण समान रूप से लड़कियों पर भी लागू होगा । ( प्रेम और मोह के मध्य अन्तर दर्शाने के लिये जो निम्नलिखित बातें दी गई हैं , उनमें से कई ड्वाइट हार्वे स्माल द्वारा लिखित ‘‘ डिजाइन फॉर क्रिश्चियन मेरिज ’’ नामक पुस्तक से उद्धृत है , जिसके लिए मैं उनका कृतज्ञ हूं )।

मोह का एक उदाहरण

प्रकाश की भेंट इस युवती से विश्वविद्यालय में हुई । यह प्रथम युवती थी , जो उसे आकर्षक लगी । असे प्रतीत हुआ कि युवती भी उसकी ओर आकर्षित है । वह उससे अच्छी तरह परिचित नहीं था , किन्तु सहसा उसे ज्ञात हुआ कि वह उसके ( जैसा उसने कहा) ‘‘ प्रेम में पड़ गया है । यह पहली दृष्टि का ही प्यार था । हां , युवती सुंदर थी , आकर्षक थी । उन दोनो की कुछ रूचियां भी समान थी इन्हीं बातों के कारण वह उसके प्रेम में पड़ गया । कोई संदेह नहीं कि इनमें प्राथमिक कारण शारीरिक सौदर्न्य था । वह लड़की के विषश् बहुत थोड़ी जानकारी रखता था , परन्तु सोचता था , कि उसमें कुछ बातें थी जो उसे पसन्द थी । वह इन गुणों की बढ़ा चढ़ाकर प्रशंसा करता था ।अपने मन में उसकी काल्पनिक तस्वीर उतारे हुए था । वह उसे सिद्ध सोचता था (जैसे उसके समान संसार में दूसरी युवती न हो ) और उसके दोषों के प्रति अपने नेत्र बन्द किए हुए था ( यद्यपि उसके दोष दूसरों कों स्पष्ट ज्ञात थे ) वह स्वयं के स्वप्न संसार में रहता था । बहुधा सोचता था कि हवा में उड़ रहा है । इस युवती को प्राप्त क रवह स्वयं को दुनिया का सबसे भाग्यशाली व्यक्ति समझता था (आपको ज्ञात होता है ) वह उसकी और खिंचा चला जाता था । वह उसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता था ं किसी ऐसे वार्तालाप वह दूर रहता था , जिनसे उन दोनों के मध्य का अन्तर और एक दूसरे के प्रति अयोग्यता प्रगट हो ।

इसिलिए कि वह सिद्ध युवती थी प्रकाश ने सोचा वह भी दर्शाये कि वह सिद्ध युवक है । इसलिये उसे कृत्रिमता का सहारा लेना पड़ा , क्योंकि उसने अपना वही भाग प्रकट किया जो उसके लेखे अत्यंत आकर्षक था । उसने दर्शाना चाहा `ि कवह परस्वार्थी और दीन है । किन्तु उसके अन्तर के उद्देश स्वार्थमय थे , क्योंकि वह प्रमुखतः स्वार्थी पुरूष था । इस युवती से उसके दिल की इच्छाएं पूरी होती थी । वह उसे सिर्फ अपनी खुशी के लिए ही चाहता था । युवती इस लक्ष्य कें लिए सिर्फ साधन थी । कभी कभी वह सोचता था कि कैसे उसे प्रसन्न रखें ,किन्तु दूसरों के प्रसन्न रखने के विषय कभी नहीं सोचता था । उसे विश्वविद्यालय के दूसरे युवक से बातें करते देखे सदा ईर्ष्या और शंका होती थी । यह असंगत था और वह आशा रखता था कि लड़की सिर्फ उसी से बातें करे , दूसरी लड़कियों से भी न करें । इन सबका कारण यह था कि प्रकाश में असुरक्षा की भावनाएं थी । बाल्यावस्था में उसने अनुभव किया था कि कोई उसे ग्रहण नहीं करता , न ही उससे प्रेम करता है । परिणामस्वरूप युवती का प्रेम पाने और उसे बनाए रखने की योग्यता पर उसमें विश्वास की कमी थी । वह उससे विश्वासयोग्यता की आशा रखता था । परन्तु असे भय था कि उसने युवती का विश्वास नही जीता है , न ही उसके योग्य है ।

उससे विवाह करने की उसे जल्दी पड़ी थी । वह उसे शीघ्र अपनी पत्नी बनाना चाहता था , अतः इस कार्य में देरी उसे असहनीय थी । उसके विवाह के मार्ग में कई समस्यायें थी पैसों की कमी , माता-पिता का विरोध और भिन्न संस्कृति । तौभी प्रकाश को निश्चय था कि प्रेम प्रत्येक बाधा पर विजयी हो सकता है ; उसने इन कठिनाइयों की और अपनी आँखे बंद कर ली थी (‘‘चतुर मनुष्य विपत्ति को आते देखकर छिप जाता है ; परन्तु भोले लोग आगे बढ़कर दण्ड़ भोगते है ’’ नीति ़ 22:3 ) । दूसरे ने उसे सलाह दी , किन्तु उसने अनसुनी कर दी , क्योकि वह मोह के भ्रमजाल में था (ऐसे भ्रमजाल में फंसे व्यक्ति को बुद्धि की बातें सिखाना निश्चय असम्भव है ) ।

अचानक प्रकाश और उस युवती के मध्य एक दिन नासमझी के कारण विवाद हुआ ं इससे प्रकाश इतना क्रोध आया कि युवती में उसे सब प्रकार की गलतियां दिखाई देने लगी , जो उसने पहले कभी नहीं देखी थीं और उसने इस लड़की को बताया । उसका घमन्ड़ चकनाचूर हुआ वह वास्तविक के संसार में आ गया । उसे लड़की से अत्यंत निराशा हुई । शीघ्र उससे घृणा होने लगी जैसे अन्मोन को तामार से हुई थी (2 शमू ़ 13:1-7)। प्रकाश अधिक दुख नहीं हुआ , कारण उसे युवती की भावनाओं की कुछ फिक्र नहीं थी । इसके सिवाय , उसकी आँखे गुप्त रूप में दूसरी लड़की पर थीं , जो अब उसकी दृष्टि में पहले से अधिक आकर्षक एवं ‘‘सिद्ध थी । ’’

‘‘एगापे ’’ प्रेम का एक उदाहरण

सुरेश का मामला भिन्न था । उसने यह अनुभव किया कि युवती उसके जीवन के लिए परमेश्वर का चुनाव है । इसके पूर्व उसने युवती को कुछ समय पहले से जाना पहचाना था । वह उसके समान परमेश्वरसे प्रेम रखती थी । उनके दृष्टिकोन और रूचियाँ समान प्रतीत होती थीं । कुछ समय तक उसने विभिन्न परिस्थितियों में उनका निरीक्षण किया था और उसके विषय यथासम्भव जानकारी प्राप्त कर चुका था । सुरेश के मन में उसके लिए प्रेम धीरे धीरे बढ़ा था । पहली ही दृष्टि में प्रेम करने लगने वाली बात नहीं थी । न ही शीघ्रता एवं आतुरता थी । पहले कभी समय असमय परिचय हुआ जो स्थिर और शान्त रूप से क्रमशः ‘‘ एगापे ’’ प्रेम की नाईं बढत्रता गया । वह मुख्यतः उसके आत्मिक गुणों और चरित्र के कारण आकर्षिक हुआ था । शारीरिक सौन्दर्य का भी स्थान था ़ ़ ़ ़ किन्तु कम ़ ़ ़ ़ ़ क्योकि वह उन में से नहीं थी , जिसने सौन्दर्य प्रतियोगिता जीती होती । यद्यपि दूसरे ऐसा नहीं सोचते , किन्तु वह सुरेश को सुन्दर जान पड़ती थी । उसने उसकी अच्छाइयों को ही देखते हुए नहीं , किन्तु सभी पहलुओं पर दृष्टि कर उसकी वास्तविक तस्वारे मन में उतारी थी । उसने कुछ सीमा तक आदर्श की भी कल्पना की थी किन्तु वह तो उसकी आशा रखता था । वह बिना भय एवं धोखे के वास्तविकता को स्पष्ट देखता था ( ‘‘ एगापे ’’ प्रेम , मोह के समान अंधा नहीं होता )।

सुरेश के उद्देश्यों में स्वार्थ नहीं था । उसने मन में विशुद्ध इच्छा थी । वह उसका ध्यान रखता था । वास्तव में उसकी फिक्र करता था और अपनी भलाई के आगे उसकी भलाई चाहता था । स्वयं के आनन्द पूर्ति के लिए युवती को नहीं चाहता था । उसकी सर्वप्रथम इच्छा थी `ि कवे एक साथ परमेश्वर को प्रसन्न करें और दूसरी , कि लड़की खुश रहे ( आशिष का मार्ग देना है , लेना नहीं - प्रेरितों 20:35) । उसकी भलाई के लिए वह स्वयं का कुछ भी त्याग करने को तैयार था । उसने उसे स्वयं को दे दिया था और चाहता था कि उसकी भीतरी योग्यताओें का विकास हो । अपनी भलाई के लिए उसका उपयोग करने की तनिक इच्छा नहीं थी ।

उसकी उपस्थिति में भी सुरेश स्वाभाविक बना रहा था । कोई बनावटीपन नहीं था । वह स्पष्ट रूप से ईमानदार और सच्चा ।

वह पूरे समय उसी के विषय ही नहीं सोचता रहता था । वह कई बार सोचता था कि कैसे स्वयं (और भविष्य में दोनों ) आत्मिक और शारीरिक आवश्यकता में पड़े लोगो की सेवा करे । उसके जीवन में सब समय यीशु का सर्वोपरि स्थान था और द्वितीय स्थान लड़की का । वह परमेश्वर के काम को भी जीवन में प्राथमिक स्थान देना था । उससे मिलने के ही लिए वह कभी इस सेवा से विमुख नहीं होता था । उसकी इच्छा थी `ि कवह युवती भी अपने जीवन में परमेश्वर को प्रथम स्थान दे । सुरेश को उसमें पूर्ण विश्वास था । असुरक्षा की भावना उसमें नहीं थी , वह असंगत और अधिकार पूर्ण व्यवहार उससे कभी नहीं करता था । जलन और शंका भी नहीं थी । उसके प्रेम का सबसे बड़ा प्रमाण यही था कि ‘‘नहीं ’’ नहीं कहने की स्वतंत्रता दे रखी थी ।

जब परिस्थितियों वश वे लम्बे समय तक एक दूसरे से अलग हो जाते , तो उनका प्रेम पहीं घटता था । वह तो और भी गहरा होता था । उनके समक्ष पैसे की तथा अन्य समस्याएँ भी थी । इनके कारण उनकी शादी में विलम्ब हुआ । कुछ समय के लिये उसे निराशा अवश्य हुई , किन्तु उसने परमेश्वर की अगुवाई समझकर इसे स्वीकार किया । वह सोचता था कि इससे भविष्य में भलीई ही होगी । प्रतीक्षा काल में वह धैर्यपूर्वक रूका रहा और स्वयं को विवाह के लिए तैयार किया । उसने मूल्य का अनुमान लगाया और एक साथ जीवन बिताने के लिए हर तैयारी की । प्रतीक्षा के समय उसने ज्ञात किया कि उसके प्रति उसका प्रेम कितना गहरा है तथा यह परमेश्वर का ही चुनाव है ।

वह सदैव सब बाता पर उससे सहमत नहीं होता था ं अपने असीम प्रेम के कारण वह इस योग्य बना कि छोटी - मोटी बातों पर विरोध को स्वीकार करे । उसने अनुभव किया कि ऐसा करने से वे अपना व्यक्तित्व प्रकट कर सकते है ।

सुरेश का युवती के लिए स्थायी प्रेम था । वह किसी अन्य को प्रेम करने की सोच भी नहीं सकता था ।

अन्तर

इन दोनों उदाहरणों में हम मोह ( जिसे गलती से प्रेम समझा जाता है) और बाइबल के अनुसार सच्चे प्रेम के मध्य गहन अन्तर देखते हैं । जो नौजवान सिर्फ मोहित हैं , हो सकता है किवे प्रकाश के लक्षणों में से कुछ ही को प्रकट करें तौभी उनका प्रेम सिर्फ मोह ही है । सुरेश का मामला सिद्ध प्रेमी का चित्रण है कि कोई पूर्ण रूप से उसके समान न हो , तौभी सिद्धता हमारा लक्ष्य होना चाहिए । हमारा लक्ष्य इससे कम नहीं होना चाहिए ।

यह हो सकता है कि आगे चलकर मोह , सच्चे प्रेम में परिवर्तित हो जाए परन्तु उसे ‘‘ एगापे’’ प्रेम उस समय तक नहीं कहेंगे जब तक इस प्रेम के कुछ लक्षण प्रकट न हाने लगें ।

दुर्भाग्य से बचने के लिए नौजवानों को मोह तथा प्रेम के मध्य भेद जानना चाहिये । मोह थोड़े समय उपरान्त समाप्त हो जाएगा ं ‘‘ एगापे ’’ - प्रेम वैवाहिक जीवन भर बना रहेगा तथा प्रत्येक कार्य एवं कर्तव्य को आनन्द में बदल डालेगा ।

सावधानी की आवश्यकता

हमें इस चितौनी पर ध्यान देना है जो श्रेष्ठगीत ( अध्याय2:7;3:5;8:4) में तीन बार दी गई है --- ‘‘ जब तक प्रेम आप से न उठे , तब तक उसको न उकसाओ न जगाओ ’’ । दूसरे शब्दों में प्रेम करने के लिए परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा कीजिए । शीघ्रता से काम लेकर मोह के वश न हो जाइए ।

‘‘ सबसे अधिक अपने मन की रक्षा कर ; क्योंकि जीवन का मूल स्त्रोत वही है ’’ (नीति 4:23 ) ।

अध्याय 5
दोनों एक होंगे

पति और पत्नी एक दूसरे से अनेक बातों में भिन्न होते है तौभी एक सूत्र में बंधने के लिए मिलते जाते है ! स्वर्ग के इस पार इससे बढकर सुन्दर क्या कोई अन्य हो सकता है ? ऐसे जोडो में आपको अनेकता में सच्ची एकता दिखाई पडेगी । यह परमेश्वर का अभिप्राय था कि यह एकता विवाह द्वारा प्रकट होवे । उनकी एकता का भेद क्या है ?

दूसरी ओर हजारों जोडो को देखिए जो एक दूसरे को नही समझ पाते । विवाहित जीवन के अनेक वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी उनमें ऐक्य की कमी होती है । यदि इनमें से बहुतों को पुनः मौका दिया जाए तो वे अविवाहित जीवन आनन्द से स्वीकार करेंगे । विवाह , जिसे परमेश्वर ने मनुष्य के सुख के लिए ठहराया , उनके लिए दुःख -- वास्तव में पृथ्वी पर ही नरक बन गया । वे एक ही डत के नीचे रहते है किन्तु व्यक्तिगत रूप से अकेले होते है । उनमें कुछ समानता नही होती । वे एक संग सिर्फ बालकों के कारण रहते है , अथवा शायद इसलिए कि उनका विवाद टूट जाने पर समाज क्या कहेगा । उनका जीवन एक खोखला आडम्बर बना रहता है । और तौभी प्रायः सभी जोडो ने अपना वैवाहिक जीवन प्रगट रूप से एकता तथा प्रेम से प्रारम्भ किया था । वे कहां असफल हुए ?

हम विवाहित जीवन के सम्बन्ध में परमेश्वर के वचन की शिक्षा कास पालन करते है अथवा नहीं सिर्फ इसी पर सफल और असफल विवाह निर्भर होता है । किसी मसीही को अपने जीवनसाथी की खोज उस समय तक करना ही नहीं चाहिए जब तक वह विवाह को उस दृष्टि से न देखें जैसे परमेश्वर देखता है ।

विवाह को ठहराने में परमेश्वर का अभिप्राय और नमूना क्या था ? हम पहले विवाह की घटना को निकाल लें और देखें ।

प्रारम्भ में

उत्पत्ति 2:18-25 में मनुष्य के इतिहास के प्रथम विवाह का वर्णन दिया है । यह विवाह परमेश्वर ने स्वयं दिया था । उस अध्याय में वह सब विस्तारपूर्वक दिया गया है, जो उत्पत्ति 1:27 में संक्षिप्त रुप से लिखा था ।

परमेश्वर ने सिर्फ आदमी को ही पहले बनाया । यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि छः दिनों तक उसने जितनी वस्तुओं की सृष्टि की, उन्हें अच्छा कहा (उत्पत्ति 1 में पाँच बार यह वाक्य प्रयुक्त हुआ है, परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है), और तब कहा कि मनुष्य के लिए अकेले रहना अच्छा नही है (उत्पत्ति 2:18) । मिल्टन ने कहा, अकेलापन ही प्रथम था, जो परमेश्वर की दृष्टि में अच्छा नहीं कहा गया । आगे चलकर परमेश्वर ने स्त्री को बनाया ताकि वह आदम की पत्नी तथा सहायक बने । उसे बनाने के पश्चात उसने अपनी सृष्टि केा निहारा और उसे बहुत ही अच्छा कहा (उत्पत्ति 1:31) । परमेश्वर की सृष्टि में विवाहित जोडे से ही इतना अन्तर आया ।

विवाह का अभिप्राय

1.संगति

विवाह का प्राथमिक अभिप्राय ही साहचर्य एवं संगति है, जैसा उत्पत्ति 2:18 द्वारा स्पष्ट है । हव्वा की सृष्टि इसलिए हुई है कि वह आदम की साथी सदा बनी रहे । वह हर प्रकार से उसकी पूरक बनी- उसके योग्य सहायक, उससे मेल खाती हुई, उसकी समानता में तथा उसी के उपयुक्त बनी ।

परमेश्वर की इच्छा थी -आदम और हव्वा सदैव एक दूसरे की आवश्यकता का ध्यान रखते हुए जीवन व्यतीत करें तथा एक साथ जीवन भर उस पर निर्भर रहें । प्रत्येक को एक दूसरे के लिए जीना था और दोनों को परमेश्वर के लिए जीना था । हव्वा आदम की शक्ति के बिना नहीं रह सकती थी और आदम हव्वा के स्नेह के बिना नहीं रहे सकता था, तथा दोनों परमेश्वर के बिना नहीं रह सकते थे ।

परमेश्वर का अभिप्राय था कि वे ऐसाी सहभागिता से आत्मिक शक्ति पाएं । बाइबल में स्मरण् दिलाया गया है, एक से दो अच्छे है, क्योंकि उनके परिश्रम का अच्छा फल मिलता है । क्योंकि यदि उनमें से एक गिरे, तो दूसरा उसका उठाएगा, परन्तु हाय उस पर जो अकेला होकर गिरे और उसका कोई उठानेवाला न हो.... यदि कोई अकेले पर प्रबल हो तो हो, परन्तु दो उसका साम्हना कर सकेंगे (सभो. 4:6-12) ।

यह सत्य इस घ्टना से अधिक स्पष्ट होता है कि शैतान ने हव्वा केा उस समय परीक्षा में डालने की सोची, जब हव्वा अकेली थी, उस समय नही, जब वह आदम के साथ थी । आदम और हव्वा दोनों साथ मिलकर शैतान का आक्रमण विफल कर सकते थे । अकेले प्रत्येक दुर्बल था । एक साथ, दोनों की शक्ति न सिर्फ जुडती किन्तु कई गुण अधिक हो जाती । परमेश्वर चाहता है कि प्रत्येक मसीही विवाहित जोडा ऐसी ही आत्मिक शक्ति प्रगट करें ।

इस शक्ति का अनुभव तभी किया जा सकता है, जब एक दूसरे के संबंध् में परमेश्वर द्वारा नियुक्त अपने स्थान पहचाने । यदि विवाहित जोडे सहचर के रुप में और दोनों जीवन के वरदान के वारिस के (1 पतरस 3:7) समान जीवन नहीं बिताते तो वे परमेश्वर के प्रमुख अभिप्राय केा निष्फल करते है । साथ् ही वे शैतान के प्रवेश के लिए द्वार प्रशस्त करते हैं ।

शायद आपने यह कथन सुना होगा कि परमेश्वर ने हव्वा को आदम के सिर से नहीं निकाला, क्योंकि वह नहीं चाहता था कि स्त्री आदमी पर शासन करे । न ही उसने उसे आदम के पैर से निकाला, क्योंकि वह नहीं चाहता था कि स्त्री आदमी की दासी बने । किन्तु उसने उसे आदम की पसुली में से निकाला, क्योंकि वह चाहता था कि स्त्री आदमी की संगिनी और सहायक बने । हव्वा, आदम की पसुली में से, उसके ह्दय के पास से निकाली गई, ताकि आदम सदैव उसे अपने बाजू में रखे (उसकी रक्षा करें) । वह उसे सदैव अपने दिल के पास रखे (उससे कोमलता के साथ प्रेम करे तथा उसका पालन करे ) । इस तुलना में लाक्षणिक सत्य छिपा हुआ है ।

उत्पत्ति 2:21 में लिखा है कि आदमी की पसुली को निकालकर परमेश्वर ने उस स्थान पर मांस भ्रा। यहाँ भ्ी एक लाक्षणिक सत्य शिक्षा छिपी है । पसुली निकल जाने पर आदम में कुछ कमी आ गई । यह बाहर से नहीं दिखता था, क्योंकि वहां मांस भरा हुआ था । यह उसके आन्तरिक जीवन में एक कमी का प्रतीक था जिसकी पूर्ति सिर्फ हव्वा से ही हो सकती थी क्योंकि वह उस पसुली से बनाई गई थी । यहूदी शिक्षकों का कथन है,

पुरुष् उस समय तक व्याकुल रहता है, जब तक उसके बाजू से निकली हुई पसुली उसे प्राप्त नहीं हो जाती और स्त्री उस समय तक आकुल रहती है, जब तक वह पुरुष की भुजा में शरण नहीं पाती, जहाँ से वह निकाली गई थी ।

यही वह संबंध है, जो परमेश्वर प्रत्येक स्त्री पुरुष के मध्य चाहता है । सिर्फ ऐसी ही संगति द्वारा परमेश्वर की सामर्थ प्रदर्शित होगी तथा उसका अभिप्राय पूर्ण होगा ।

नये नियम में स्त्री पुरुष के संबंधों पर (मत्ती 16:3-6, इफि? 5:22-23) बोलते हुए, प्रभु यीशु और पौलुस प्रेरित (पवित्र आत्मा की प्रेरण से) दोनों, उत्पत्ति 2 का यह अध्याय उद्धृत करते है । यदि हम विवाह की सच्ची मसीही धारणा चाहते है, तो उत्पत्ति का प्रह अध्याय अत्यन्त महत्वपूर्ण है । विवाह का अभिप्राय

घर की स्थापना

उत्पत्ति 1:28 में परमेश्वर ने इस नवविवाहिता जोडे को जो प्रथम शब्द कहे, उससे हमें विवाह का दूसरा अभिप्राय मिलता है । उन्हें फूलना-फलना था । परमेश्वर द्वारा विवाह स्थापना का दूसरा कारण यह था कि सन्तान की उत्पत्ति हो तथा घर स्थापित हो । परमेश्वर ने प्राथ्मिक रुप से इसी उद्देश्य के कारण् यौन प्रवृत्तियों को जन्म दिया ।

परमेश्वर की आराधना और सेवा का केन्द्र घर है, इस बात पर बाइबल में विशेष जोर दिया गया है । परमेश्वर को अगुवा जानकर घर का संचालन करने से उसकी अधिक महिमा होती है । परमेश्वर हमे सन्तान सिर्फ इसलिए नहीं देता कि हमारे ह्दयों को खुश करे, परन्तु इसलिए कि हम उसके भय में बालकों को बढावें, ताकि अपनी पीढी में वे उसके विश्वस्त गवाह हो । धर्मशास्त्र में इस पर बार-बार जोर दिया गया है (भजन 78:5-7) ।

प्रत्येक मसीही दम्पत्ति की बुलाहट है कि वह ऐसे घर का निर्माण करें जहां परमेश्वर को महिमा मिल,े जिसके द्वारा उसकी विश्वास योग्यता और प्रेम की गवाही अन्यों तक पहुंचे । परमेश्वर के मार्गों पर चलनेवाले बालक, अत्यन्त महत्वपूर्ण उपदेशें में से है जिन्हें कोई व्यक्ति दे सकता है । परमेश्वर ने इसे कितनी महत्ता दी- इसका प्रमाण है कि उसने इब्राहीम को अपने पुत्रों को परमेश्वर के मार्ग पर चलाने के लिए आशिष दी, और ऐसा न करने के कारण एली को शाप दिया (उत्पत्ति 18:16, 1 शमू. 3:13, 14) ।

इसके महत्व की शिक्षा नये नियम में भी दी गई है । इफिसियों की पत्री मं कलीसिया का भेद, मसीह की देह के सदृश समझाया गया है (अध्याय 1-3) । तत्पश्चात पौलुस ने आगे लिखा है कि इस सत्य का एक व्यावहारिक रुप मसीही घर के घरेलू संबंधों में पति और पत्नी, माता-पिता और बालक, मालिक और दास के मध्य देखा जाना चाहिए (अध्याय 5:22-6:6) । वह स्थानीय मंडली के बारे में एक शब्द भी नहीं कहता । इससे स्पष्ट है कि परमेश्वर के सम्मुख् मसीही घर की गवाही ही प्राथमिक महत्व की है । स्थानीय मंडली तभी दृढ हो सकती है जब उसका निर्माण् करनेवाले घराने दृढ हों । यदि इन घरानों में आत्मिक वातावरण की कमी हो, तो स्थानीय मंडली के भी विनाश की आशंका रहती है ।

अतः यह आशा करना अत्यंत स्वाभविक होगा कि शैतान अपना प्रचण्ड आक्रमण इसी स्थान पर करना जारी रखेगा । परमेश्वर ने जिस प्रथम घर की स्थापना की, वहॉ शैतान हत्या लाने का कारण हुआ (उत्पत्ति 4:8) । उस समय से लेकर आज तक उसने एक भी आत्मिक घराने को नहीं छोडा है । इसीलिए इफिसियों में आत्मिक युध्दे अध्याय के एकदम बाद मसीही घराना संबंधी अध्याय आया है (अध्याय 6:10-18) । इससे हमें चितौनी मिलती है कि शैतान हमारे आत्मिक धर बनाने का प्रत्येक प्रयत्न विफल करेगा । किन्तु हमें यह भ्ी बताया गया है कि परमेश्वर ने हमें आत्मिक हथियार प्रदान किए है, जिनसे हम शत्रू के प्रत्येक आक्रमण का सामना कर सके ।

परमेश्वर की महिमा करनेवाले की घर की स्थापना करना, निःसन्देह विवाह के प्रमुख अभिप्रायों में से एक है ।

विवाह का अभिप्राय यौन संतोष

3.यौन संतोष

फूलने-फलने की आज्ञा (उत्पत्ति 1:28 में) का यह आशय था कि आदम और हव्वा यौन संबंध रखें । विवाह परमेश्वर द्वारा नियुक्त वह साधन है जिसके द्वारा स्त्री पुरुष यौन इच्छाओं की पूर्ण पूर्ति कर सकते है । यह विवाह का तीसरा अभिप्राय है ।

विवाह में यौन संबंधों के अन्तर्गत सिर्फ शारीरिक संतोष और आनन्द ही नहीं सम्मिलित है । यदि इसमें सिर्फ इतना ही होता, तो मनुष्य पशु से श्रेष्ठ नहीं होता । बाइबल में यौन के शारीरिक पहलू की भर्त्सना नहीं की गई है । हमने पहले अध्याय में देख ही लिया है कि परमेश्वर ने यौन की उत्पत्ति की तथा वह पवित्र और शुध्द है । परन्तु स्त्री पुरुष का यौन संबंध सदैव, उनके मध्य पहले से स्थापित गहरे संबंध की अभिव्यक्ति तथा पराकाष्ठा के प्रतीक से कहीं बढकर होना चाहिए । उनमें एक दूसरे के प्रति विद्यमान, एगापे प्रेम की अभिव्यक्ति, यौन सम्पर्क द्वारा होनी चाहिए । विवाह का बिछौना पवित्र वेदी होना चाहिए,जिस पर पति और पत्नी, यौन सम्पर्क द्वारा यह इच्छा व्यक्त करते है कि वे अपने-अपने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, एक दूसरे के प्रति त्यागपूर्ण सेवा में स्वयं को समर्पित कर देंगे ।

बाइबल में विवाह के अन्तर्गत यौन संबंधों को आदर प्रदान किया गया है । इसमें एक ऐसी पुस्तक भी है जिसमें दो प्रेमियों की कथा का वर्णन है । यह पुस्तक श्रेष्ठगीत है । बाइबल में वर्णन है कि दूल्हा अपनी दुल्हन के कारण हर्षित है (यशा. 62:5) । इसमे पति को प्रोत्साहन दिया गया है कि वह अपनी पत्नी के साथ यौन संतोष् प्राप्त करे और उसी के प्रेम से सदैव आकर्षित रहे (नीति 5:18,16) । इसमें कोई पाप नहीं- यह योग्य और उचित कार्य है । अधिकांश लोगों के मन में यौन के संबंध् में दूषित विचार रहता है, तभी वे समझने में असमर्थ होते है कि परमेश्वर ने यह सब अपने वचन में क्यों लिखा जाने दिया (मन और विवेक में) शुध्द लोगों के लिए सब वस्तुएँ शुध्द है, पर अशुध्द और अविश्वासियों के लिए कुछ भी शुध्द नहीं । वरन् उनकी बुध्दि और विवेक दोनों अशुध्द है (तीतुस 1:15) । यदि हमारे मन शारीरिक है, तो हमें जहाँ कोई मलिनता नहीं, वहाँ भी अशुध्दता दिखाई देगी । तब हम परमेश्वर के वचन में लिखित बातों को भी अशुध्द समझेंगे ? किन्तु यदि हमारे मन पवित्र आत्मा द्वारा नये होंगे, तो हम यौन को उसी दृष्टि से देखेंगे जैसे परमेश्वर देखता है । तब हम समझेंगे कि विवाह के अन्तर्गत यौन संतोष् वास्तव में पवित्र और उचित है ।

अदन की वाटिका में, पाप के संसार में प्रवेश से पूर्व, आदम और हव्वा को एक दूसरे से यौन संतोष पाना था । पाप के प्रवेश के कारण बाइबल अनुसार अब विवाह और भी अधिक आवश्यक हो गया है (शायद यह पुरुषों पर अधिक लागू होता है), क्योंकि अविवाहित पुरुष बडी सरलता से यौन पापों में गिर सकता है (1 कुरि. 7 : 2, 5) । इच्छाओं के अधूरे रहने से निरंतर व्यग्र होने के बदले, बाइबल में पुरुषों केा विवाह करने की सलाह दी गई है । क्योंकि विवाह ही एक साधन है जिसे परमेश्वर ने ठहराया है, जिसके द्वारा स्त्री पुरुष अपनी यौन इच्छाओं को तृप्त कर सकते है (1 कुरि? 7:6) ।

विवाह -प्रतीक

स्त्री पुरुष का संबंध मसीह और उसकी कलीसिया के मध्य स्थापित संबंध का प्रतीक है (इफि 5 : 22, 23) । यह धर्मशास्त्र के अत्यंन्त सुंदर प्रगटीकरणों मेंसे एक है ।

इफिसियों के इस अध्याय में पत्नियों को यह आदेश दिया गया है कि वे अपने पतियों के अधीन रहें, क्योंकि पति को परमेश्वर ने पत्नी का सिर ठहराया है । पत्नी को आज्ञा है कि प्रत्येक बात में अपने पति के आधाीन रहे । (जैसे कलीसिया को मसीह के प्रति होना चाहिए) और उनका आदर भी करें । ऐसी अधीनता आधुनिक समय की हमारी प्रथा न हो, परंतु तो भी यह परमेश्वर का नियम है । जिस घर में इस नियम का उल्लंघन किया जाता है वह निश्चय किसी न किसी तरह इस अनाज्ञाकारिता का परिणाम भोगेगा । यदि कोई मसीही युवती, विवाहित जीवन में परमेश्वर के इन नियमों के पालन की इच्छा नहीं रखती, तो उसे कभी विवाह नहीं करना चाहिए । उसके लिए विवाह कर सदैव परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए जीवन व्यतीत करने से श्रेयस्कर है, वह अविवाहित बनी रहे ।

कोई पति ऐसा न सोचे कि परमेश्वर की आज्ञाएँ, उसे पत्नी के साथ मनमाना व्यवहार करने का अधिकार पत्र देती है । इस अध्याय में आगे लिख है कि पतियों को पत्नियों से ऐसा प्रेम रखना है, जैसा मसीह ने भ्ी कलीसिया से प्रेम करके अपने आप को उसके लिए दे दिया । अर्थात् पतियों को अपनी पत्नियों से त्यागपूर्ण प्रेम रखना है- न सिर्फ वस्तुओं को देना है किन्तु स्वयं को देना है । उन्हें अपनी पत्नियों की भलाई और आनंद के लिए स्वयं का जीवन ही देना है जैसा मसीह अमिट प्रेम से कलीसिया को प्यार करता है, वैसा ही पति का कर्तव्य है कि वह स्त्री से असीम प्रेम करे, चाहे बदले में उसे प्रेम मिले अथवा नहीं । स्मरण रखिए कि मसीह ने चेलों के प्रेम के कारण् उनके पैर तक धोए थे (यूहन्ना 13 :1, 5) । इसी अध्याय में आगे पतियों को यह आज्ञा दी गई है कि पत्नियों से अपनी देह के समान प्रेम रखे । जैसे वे जानबुझकर अपने शरीरों को चोट या हानि नहीं पहुंचाएंगे, उसी प्रकार उन्हें जानबूझ कर अपनी पत्नियों की भावनाओं को चोट या हानि नहीं पहुंचानी चाहिए । जैसे हानि और संकट से वे अपने शरीर की रक्षा और देखभाल करेंगे, वैसे ही उन्हें अपनी पत्नियों की भी रक्षा और परवाह करनी है । जो पुरुष धर्मशास्त्र की इन शिक्षाओं का अनुसरण करने की इच्छा नहीं रखता, उसके लिए अविवाहित रहना भला है ।

इफिसियों के इस अध्याय अनुसार परमेश्वर का उद्देश्य है कि प्रत्येक मसीही पति पत्नी की तस्वीर, मसीह और उसकी कलीसिया की तस्वीर के समान हो । उनका जीवन एक साथ इस संबंध का सौंदर्य प्रगट करनेवाला हो ।

पवित्र आत्मा से परिपूर्ण होने की आज्ञा (इफि 5 : 18) के पश्चात् ही यह अध्याय आता है कि जिसमें स्त्री पुरुष के संबंधों को वर्णन है । अतः इससे ज्ञात होता है कि आत्मा से परिपूर्ण होने का परिणाम प्रमुखतः घर में मसीह की समानता का व्यवहार होना चाहिए । दूसरे शब्दों में, इसका अर्थ होगा कि वैवाहिक जीवन में मसीह को महिमा देने के लिए, पवित्र आत्मा की भरपूरी अनिवार्य होगी ।

जीवन साथाी को खोजने से पूर्व, प्रत्येक मसीही को स्वयं से यह प्रश्न करना चाहिए, कि क्या वह उपर लिखे अनुसार, घर की वास्तव में इच्छा करता है या नहीं । यदि आपकी ऐसी इच्छा नहीं, तो आप विवाह में मसीह की अगुवाई की आशा नहीं रख सकते । आपको उसकी सहायता बिना स्वयं आगे बढना होगा । दूसरी ओर, यदि यही आपकी सच्ची महत्वकांक्षा है, तो आप निश्चय जान सकते है कि परमेश्वर न सिर्फ अपनी सिध्द इच्छा पूर्ति करने में विवाह में आपकी अगुवाई करेगा, किन्तु वह इस प्रकार के घर निर्माण के लिए आपको सामर्थ भी प्रदान करेगा ।

कुंवारापन

बाइबल में विवाह की अच्छाइयों का ही वर्णन नही है, अपितु विवाहित रहने के लाभ का भी वर्णन है । अतः इस अध्याय की समाप्ति के पूर्व आवश्यक है, कि (ताकि दोनों में संतुलन हो) हम यहा अविवाहित दशा पर कुछ कहें । 1 कुरिन्थियों अध्याय 7 मे पौलुस ने कुँवारेपन के विषय में लिखा है । कुछ लोग इस अध्याय और मत्ती 19 : 12 में प्रभु यीशु के शब्दों द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि अविवाहित रहना, विवाह करने से अधिक अच्छा है तथा यह उच्च आत्मिक बुलाहट है । किन्तु क्या बाइबल में यही शिक्षा दी गई है?

हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि 1 कुरिन्थियों 7 मे पौलुस ने चार बार लिखा है कि वह स्वयं के विचार व्यक्त कर रहा है । कई विषयों के संबंध में उसे परमेश्वर के विचार निश्चित रुप से नहीं ज्ञात है (पद 6,12,25,40 देखिए) । कुछ भी हो, पौलुस इसे अत्यन्त स्पष्ट करता है कि यद्यपि वह सब व्यक्तियो को अपने सदृश अविवाहित देखना चाहता है, तो भी उसे मालूम है कि प्रत्येक मनुष्ृय को परमेश्वर की ओर से भिन्न वरदान प्राप्त है (पद 7) । यहा वरदान शब्द का प्रयोग महत्वपूर्ण है, जिसका अर्थ है कि कुंवारेपन में कोई विशिष्टता जुडी हुई नहीं है- यह कोई बडा कार्य नहीं है, न ही पुरुस्कार है, बल्कि वरदान है । मसीह ने मत्ती 19 : 11 मे इसी शब्द का प्रयोग किया है कि कुछ लोगों को ही अविवाहित रहने का दान दिया गया है । उसने बडी स्पष्टता के साथ कहा कि सिर्फ जिन्हें योग्यता परमेश्वर से दी गई है, वे ही ऐसा जीवन व्यतीत करें (मत्ती 19 : 12) । अविवाहित रहने में कोई विशेष सद्गुण नहीं । यह निसंदेह थोउे लोगों के लिए परमेश्वर की बुलाहट है किन्तु अधिकांश लोगों के लिए उसका उपाय है कि विवाह करें । यदि वह आपके लिए अविवाहित दशा चाहता है, तो वह आपको बताएगा । व्यक्तिगत रुप से अपने हृदय में परमेश्वर की ऐसी विशेष आज्ञा न पाकर, आपको यही सोचना चाहिए, कि विवाह परमेश्वर की इच्छा है जो व्यक्ति सोचते है कि कुंवारे बने रहे, उन्हें ऐसे जीवन चुनने के कारणों की जांच करनी चाहिए । इन परि`िस्थ्तियों में निश्चय कुंवारापन गलत है- यदि अकेने बने रहने की स्वार्थपूर्ण् इच्छा हो, अथवा स्वयं को श्रेष्ठ और विरोधी यौन को उपेक्षित जानकर यह निर्णय लिया गया हो, अथवा यह भावना हो कि आत्मिक पवित्रता और शुध्दता सिर्फ इसी जीवन द्वारा संभव है अथवा जब इच्छित व्यक्ति न मिल सका हो और जो मिला हो वह पसंद न हो । दूसरी ओर यदि कुंवारा रहने का यह अभिप्राय हो कि परमेश्वर की सेवा के लिए बिना बाधा के अधिक स्वतंत्र रहा जाए, तो यहां कम से कम उद्देश्य निर्मल है । किन्तु इस इच्छा के होने पर भी, परमेश्वर की ओर से इस जीवन के लिए बुलाहट होनी चाहिए । पौलुस प्रेरित के साथ ऐसा ही हुआ था (1 कुरि. 7 : 32, 33, की तुलना 1 कुरि. 9 : 5 से कीजिए

कुंवारापन पवित्र जीवन व्यतित करने में अधिक सहायक है- यह सर्वथा भ्रान्तिपूर्ण विचार है । संभव है कि अविवाहित व्यक्ति को धार्मिक कार्यो के लिए विवाहित व्यक्ति से अधिक समय मिले, किन्तु ऐसे कार्य पवित्रता के लिए आवश्यक नही । हनोक तीन सौ वर्ष तक परमेश्वर के साथ-साथ् चलता रहा, और उसके और भी बेटे बेटियाँ उत्पन्न हुई (उत्पत्ति 5 : 22) । उसने विवाह करने और पहले पुत्र के जन्म होने के पश्चात ही, परमेश्वर के साथ चलना आरंभ किया । परमेश्वर के साथ चलने से उसके सामान्य वैवाहिक जीवन और सन्तानोत्पत्ति में कोई बाधा नहीं पहुँची । न ही उनके घरेलू जीवन और उसक उत्तरदायित्वों के कारण, परमेश्वर के संग चलने में रुकावट आई । अतः पौलुस का यह अभिप्राय कदाचित नहीं हो सकता था कि सब विश्वासी कुंवारे रहे । उसने स्वयं दूसरे स्थल में लिखा है कि जो कुंवारेपन को जीवन में अनिवार्य बताकर प्रचार करते है, वे वास्तव में दुष्टात्माओं की शिक्षा देते है (1 तीमु 4:1-3) । अतः कुरिन्थियों 7:25-28 में लिखित पौलुस के शब्दों केा उसके उचित संदर्भ और भूमिका में समझना चाहिए । ए. न. ट्रीटन ने इस अध्याय की व्याख्या इस प्रकार की है :

मै कोई नियम नहीं बनाऊंगा किन्तु इन तथ्यों को मन में रखा जाना चाहिए । हम क्लेश के युग (55 ई. में) में है और सताव अत्यंत समीप है । प्रत्येक पीडा पहुंचाने वाला व्यक्ति जानता है कि यदि किसी स्त्री अथवा पुरुष तक प्रत्यक्ष रुप से न पहुंच सके, तोभी उस तक उसके धराने द्वारा पहुंचा जा सकता है । अतः विवाहित लोगों के लिए यह कठिन संकट और दुःख का समय है.... मै इनसे तुम्हें बचाना चाहता हूँ और इसीलिए विवाह न करने की सलाह देता हूँ यद्यपि मै यह नहीं कहता कि विवाह कोई पाप है । मै सिर्फ यही कहता हूँ कि यह इस वर्तमान युग में संकट को आश्रय देना है और मै तुम्हे क्लेश से बचाना चाहता हूँ ।

आधुनिक समय में यह उन विश्वासियों के लिए आज भी लागू होगा जो उन देशों में है जहाँ भारी सताव, युध्द अथवा इसी प्रकार का अन्य क्लेश् व्याप्त है ।

कुछ भी हो, हमें वह बनने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए, जो परमेश्वर नहीं चाहता कि हम बनें । उसने हममें से प्रत्येक के लिए एक जीवन का उपाय किया है- वह चाहे विवाहित हो अथवा अविवाहित । हमारा कर्तव्य है- हम परमेश्वर की सिध्द इच्छा केा जाने और उस पर चलें ।

पौलुस प्रेरित के 1 कुरिन्थियों 7 : 26-36 में लिखे शब्दों पर ध्यान दीजिए । ए. एन. ट्रीटन ने इस अध्याय की व्याख्या इस प्रकार की है :

मसीही कार्य और गवाही का समय सीमित और कम किया गया है । हमें जहाँ तक हो सके, ऐसा रहना चाहिए जैसे इस संसार... और अपने परिवार से मुक्त हो । ये सब वस्तुएँ सिर्फ अस्थायी है और सिर्फ परमेश्वर का कार्य ही अनन्त महत्व का है । परन्तु विवाहित लोग अपने घरेलू उत्तरदायित्व को नहीं त्याग सकते । अविवाहित जैसा सोचते है, उससे बढकर इससे परमेश्वर के कार्य का क्षेत्र सीमित हो जाता है । यदि आप विवाहित है तो घर पर आपके अनेक महत्वपूर्ण कर्तव्य है, जिन्हें आपको अवश्य करना चाहिए, और आप परमेश्वर की सेवकाई में बिना बाधा के मन नहीं लगा सकते ।

विवाह से दूर रहने के लिए ये ही प्रबल कारण है, कम से कम उस समय तक जब तक आप नौजवान है (पद 36) । मसीही सेवा के महान अवसर पर ध्यान दीजिए, जो विशेष रुप से अविवाहितों के लिए खुला है । यदि आप विवाह को सिर्फ आगे की तिथि के लिए टाल दें, जब तक आप अनुभव करें कि अधिक टालने से बहुत देर हो जाएगी (पद 36), आपके लिए सेवा के विशाल क्षेत्र खुले हुए है....

यह ध्यान रखिए कि मै आपके अधिकार पर आघात पहुंचाने के लिए यह नहीं कहता (पद 35) किन्तु सिर्फ आपके हित के लिए । यदि परिस्थिति अथवा अपनी प्रकृति द्वारा किसी अन्य दिशा में आपका मार्गदर्शन हो, तो विवाह करने से कोई बुराई नहीं (36), यह परमेश्वर का अच्छा वरदान है । पौलुस ने प्रारंभ में कहा कि कुंवारापन परमेश्वर की ओर से वरदान है । वही पौलुस आगे कहता है कि ब्याह करने में कोई पाप नहीं । इन बातों के संबंध में उसके विचार संतुलित थे ।

यह महत्वपूर्ण है कि प्रभु यीशु ने कुंवारेपन पर बोलने के एकदम बाद बालकों को अपने हाथ में लिया और उन्हे ंआशिष दी (इस प्रकार विवाह की अनुमति दी) मत्ती 19 : 10-15 । धर्मशास्त्र में इस संबंध में संतुलन है । हमे भी यह सत्य संतुलित रुप से बनाए रखना चाहिए ।

विवाह व्यक्ति को पूर्ण बनाता है

बहुत ही कम परिस्थितियों में परमेश्वर मनुष्य के कुंवारे जीवन को बुलाहट देता है । परमेश्वर ने स्वयं कहा है कि एक अर्थ में मनुष्य उसी समय पूर्ण होता है, जब वह विवाह कर लेता है । उत्पत्ति 2: 18 में लिख है, फिर यहावा परमेश्वर ने कहा, आदम का अकेला रहना अच्छा नहीं मै उनके लिए एक ऐसा सहायक बनाऊंना जो उससे मेल खाए ।

यह भी महत्वपूर्ण है कि बाइबल के प्रारंभ में विवाह का वर्णन है (उत्पत्ति 2 : 18-25) और अन्त में भी विवाह का विवरण है (प्रकाश 16 : 7-6, 21 : 2-10) । प्रभु यीशु ने पहला आश्चर्यकर्म भी विवाह के समय किया था (यूहन्ना 3 : 1-11) ।

अतः विवाह सब में आदर की बात समझी जाए (इब्रा. 13 : 4 ) ।

अध्याय 6
जीवन-साथी की खोज

देह

देह भी परमेश्वर की सृष्टि का एक भाग है, अतः विवाह पर विचार करते समय मनुष्य के शारीरिक भाग के विभिन्न पहलुओं पर भी ध्यान देना चाहिए । हम कुछ लोगों के समान सीमा से परे नहीं जाना चाहते, जो सिर्फ, इसीलिये विवाह करते है कि अपनी वासना की पूर्ति करें । उनके लिए विवाह सिर्फ व्यभिचार को कानूनी रुप देना ही है । दूसरी ओर हम उस उत्कट सीमा तक भी नहीं जाना चाहते, जो कहते है कि सिर्फ आत्मा का ही महत्व है अतः शरीर की पूर्ण अवहेलना करते है । धर्मशास्त्र का सिध्दान्त, इन दोनों उत्कट विचारधाराओं के मध्य का है । परमेश्वर चाहता है- हमारा यही सिध्दान्त हो ।

इसलिए कि हम सिर्फ देहरहित आत्माएं नहीं अपितु मानव जाति है, अतः विवाह में दोनो साथियों के मध्य कुछ सीमा तक शारीरिक आकर्षण भी होना चाहिए । शारीरिक सौन्दर्य का आकर्षण गलत नहीं । शर्त यह है कि इसे सदैव आत्मा और प्राण के बाद ही महत्व के स्थान पर रखा जाना चाहिए । यदि कोई विश्वासी शारीरिक आकर्षण अथवा रुप रंग पर अधिक ध्यान दे तो उसे अन्त में विवाह अत्यन्त निराशाजनक जान पडेगा । यदि आपका प्राथमिक आकर्षण शारीरिक रहा है, आत्मिक नहीं तो चाहे लडकी विश्वासी भी हो तोभी आपको विवाह के बाद अनेक समस्याओं का सामना करना पडेगा । कुछ अपवादों को छोडकर, रुपवती लडकी अपने महत्व से परिचित तथा पुरुषें का अधिक ध्यान पाने की अभ्यस्त रहती है । स्वाभाविक है कि विवाह के उपरान्त यह अपने पति से भी उसी प्रकार का ध्यान पाने की आशा रखेगी । अतः आपको ज्ञात होगा कि आपकी सुन्दर पत्नी आपके समय और ध्यान की अनुचित मांग करती है ।

आयु का प्रमुख ध्यान रखा जाना चाहिए । पती-पत्नि का संबंध मसीह और उसकी कलीसिया के मध्य संबंध का प्रतीक है और पुरुष को स्त्री का सिर होना है... अतः यह तर्कसंगत है कि पति को आयु में बडा तथा अधिक परिपक्व होना चाहिए । पुरुष, स्त्री की अपेक्षा धीरे परिपक्व होता है और यदि उसने कम आयु में विवाह किया तो अवश्य पत्नी से कम परिपक्व रह जाएगा । यह ठीक नही होगा, क्योंकि स्त्री को सदा अपने पुरुष को सम्मान की दृष्टि से देखना चाहिए । बडी उम्र के पुरुष से एक लाभ यह भी होगा कि उसे संसार के कई व्यावहारिक अनुभव प्राप्त होंगे । तोभी पुरुष के आयु में बडे होने के कारण् यह भी है कि स्त्री पुरुष की अपेक्षा जल्दी वृध्द होती है- विशेषकर सन्तानोत्पत्ति के बाद । यदि वह आयु मे बडी रही तो कुछ वर्षों बाद उनके बीच आयु का बहुत गहरा अन्तर दिखेगा । इन सभी बातों को ध्यान मे ंरखकर, यह सलाह देना कभी उपयुक्त नहीं होगा कि पुरुष अपने से अधिक आयु की लडकी से विवाह करे ।

तोभी, इसलिए कि आयु में भिन्नता का प्रभाव कुछ लोगों पर अधिक पडता है और कुछ पर कम, इस नियम के भी अपवाद हो सकते है यदि बडी उम्र की लडकी से विवाह का विचार हो रहा हो, तो अन्तर दो या तीन वर्ष से अधिक का नही होना चाहिए । यदि अधिक हो, तो बहुत सम्भव है कि स्त्री अपने पति के लिए पत्नी न बनकर माता सदृश्य बने किसी भी परिस्थिति में किसी लडकी को उस पुरुष से विवाह नहीं करना चाहिए, जो उससे कम परिपक्व हो ।

यह सलाह देना भी उचित नही कि लडकी अपनी आयु से दस वर्ष से अधिक आयुवाले व्यक्ती से विवाह करें । ऐसा पुरुष पति बनने के बदले उसके पिता सदृश्य ही बनेगा ।

आयु सम्बन्धी निर्दिष्ट नियम बनाना सम्भव नहीं, किन्तु, यह सलाह उचित है कि पुरुष 25-32 वर्ष के मध्य विवाह करें 21 वर्ष के पूर्व वह अपरिपक्व होगा । उसे इस आयु तक बिना बाधा के परमेश्वर के कार्य में संलग्न रहना चाहिए । 32 वर्ष के पश्चात परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को बदलना (जिससे विवाह में नही बचा जा सकता ), उसके लिए अधिक कठिन होगा । इन्ही कारणों से, लडकी के लिए 20 और 27 वर्ष की आयु के मध्य विवाह करना उपयुक्त होगा । ये कठोर नियम नहीं है, क्योंकि कभी-कभी परिस्थितियों अथवा अन्य कारणवश व्यक्ति को अधिक उम्र में विवाह करने को बाध्य होना पडता है । किन्तु जहां चुनाव आपके हाथों में है, इस सीमा के अन्दर रहना उत्तम है ।

स्वास्थ्य सम्बन्धी सामान्य बातों तथा वंशानुक्रम (जो बच्चों पर प्रभाव डाल सकती है) का भी ध्यान रखा जाना चाहिए । जरुरी है कि प्रत्येक पूर्ण सच्चाई के साथ परम्परागत दोष, रोग अथवा मानसिक रोग का दूसरे से वर्णन करें (जो स्वयं में हो अथवा निकट संम्बन्धी को हो), जिसका प्रभाव अगली पीढी पर पढ सकता है । इसमें सन्देह होने पर डाक्टर की सलाह से निश्चय करना अच्छा है । इस प्रकार की विकृति से विवाह मे रुकावट आना जरुरी नहीं, क्योंकि दूसरा साथी विवाह केा परमेश्वर की इच्छानुसार जानकर भरोसा रख सकता है कि वही शारीरिक कमियों को दूर करेगा तथा सम्भालेगा । परन्तु इसे छिपाना गलत और पापपूर्ण है । कई विवाह संबंधों का विच्छेद इसलिए हुआ क्योंकि विवाह के पूर्व छिपाए गए तथ्यों की जानकारी विवाह के पश्चात् हुई । विश्वासी को कभी छल से काम नहीं लेना चाहिए । इसके विपरीत आपकी सच्चाई से दूसरे का सम्मान बढने की सम्भावना है । यदि आपके सत्य करने से वह सम्बन्ध तोड दे, तो आप निश्चय जान सकते है कि आपने परमेश्वर का आदर किया है अतः वह आपको दुख नहीं सहने देगा । यदि ऐसा संबंध विच्छेद हुआ भी तो हमेशा इस अभिप्राय से होगा- कि आपको पहले से श्रेष्ठ व्यक्ति दे ।

सगे खून के रिश्ते से विवाह भी खतरे से खाली नहीं क्योंकि यदि साथी निकट सम्बन्धी है (और उसमें स्वयं असमानताएँ विद्यमान है) तो उसमें विद्यमान असमानताएँ, उसकी सन्तान में प्रगट हो सकती है । यह परमेश्वरकी ओर से ही है । उसने स्वयं मनुष्य की प्रकृति को ऐसा बनाया है, ताकि सगे सम्बन्धी आपस में विवाह न करें । बाइबल में ऐसे विवाह सम्बन्ध को मना किया गया है । (लैव्य. 18 : 6) ।

भारत के कुछ भागों में यह प्रथा है कि पुरुष अपनी बडी बहन की पुत्री (यदि विवाह योग्य हो) से विवाह करे यह अन्य जातियों की प्रथा का परिणाम है । किसी विश्वासी को इस पर व्यवहार नहीं करना चाहिए । यह प्रकृति तथा धर्मशास्त्र के भी प्रतिकूल है । मैने इसका उदाहरण देखा, तथा सभी बच्चों को किसी न किसी रुप में असामान्य पाया । यदि परमेश्वर ने स्वयं मना किया है, तो हमें निश्चय जानना चाहिए कि उसे कारणवश ही हमारी भलाई के लिए मना किया है ।

प्रेम

यदि परमेश्वर विवाह के लिए आपकी अगुवाई किसी युवती तक करता है, तो वह सदैव उसके प्रति आपको प्रेम देगा । हमने अध्याय 3 में पहले देख लिया कि इस प्रेम के गुण क्या होंगे । विवाह से पूर्व सम्भव है कि प्रेम किसी सीमा तक बढे अथवा न बढे, किन्तु कम से कम इसका होना आवश्यक है । जब इसहाक ने रिबका को (जिससे वह पहले कभी नहीं मिला था), परमेश्वर द्वारा चुनी हुई पत्नी के रुप में ग्रहण किया, तो लिखा है कि उसने उससे प्रेम किया (उत्पत्ति 24:67) । वह उसे भली रीति से नहीं जानता था, तोभी इस विषय पर उसे परमेश्वर की इच्छा का निश्चय था, अतः उसके प्रति उसके दिल मे प्रेम का प्रादुर्भाव हुआ ।

मैं आपसे सहमत हूँ कि सामान्यतः परमेश्वर किसी की अगुवाई (इसहाक के सदृश्य) उस व्यक्ति तक विवाह के लिए नहीं करता, जिसके विषय में उसे जानकारी नहीं होती । न ही वह सामान्यतः इस परिस्थिति के समान इतने आश्चर्य पूर्ण उपायों से अपनी इच्छा प्रगट करता है । इस घटना से जो शिक्षा हम ले सकते है, वह यही है कि जिस व्यक्ति से आप विवाह करने जा रहे है, उसके लिए आप निश्चय जाने कि वह परमेश्वर का चुना हुआ है या नहीं । और यदि वह व्यक्ति वास्तव में आपके लिए परमेश्वर का चुनाव होगा, तो चाहे प्रत्यक्ष रीति से अथवा माता पिता द्वारा आपकी अगुवाई हुई हो, परमेश्वर आपके हृदय में उसके लिए प्रेम (जैसा उसने इसहाक के हृदय में किया) डालेगा । यह प्रेम दोनों के हृदय में एक दूसरे के प्रति होगा ।

किन्तु यह प्रेम कृत्रिमता से उत्पन्न नहीं किया जा सकता । यदि प्रेम स्वयं हृदय में उत्पन्न न हो, किन्तु प्रेम के लिए बाध्य होना पडे तो वह सच्चा प्रेम कदाचित नहीं होगा । सच्चा प्रेम तभी होता है, जब व्यक्ति के प्रति आदर भाव होता है । यदि आप अपने साथी को श्रध्दा और सम्मान पूर्वक नहीं देख सकते, तो कभी उससे सच्चा प्रेम नहीं कर सकते ।

सहानुभूति को प्रेम समझने की गलती नहीं करनी चाहिए । यदि किसी लडकी की दुर्भाग्य पूर्ण परिस्थितियों के कारण उसके प्रति आपकी सहानुभूति जागृत होती है, इसी कारण आप उससे विवाह करना चाहते है, तो यह अत्याधिक अज्ञानतापूर्ण है । आप इसे साहसिक और त्यागपूर्ण कार्य सोच सकते है, किन्तु यदि उसके लिए आपके हृदय में सच्चा प्यार नहीं है, तो आपका विवाह भंग हो सकता है । मसीही विवाह में प्रेम अत्यन्त अनिवार्य शर्त है । दया और सहानुभूति ही पर्याप्त नहीं है ।

यदि उस युवती के आत्मिक जीवन, उसके विश्वास, साहस एवं बौध्दिक योग्यता के प्रति आपका आदर नहीं, और यदि उसके प्रति आपके श्रध्दापूर्ण विचार नहीं है तो इस कार्य में आगे बढना मूर्खता है ।

बाइबल का कथन है कि प्रेम संसार में सर्वश्रेष्ठ है (1 कुरि. 13:13) । हम इसकी उपेक्षा नहीं कर सकते ।

वंश देश ? संस्कृति जाति और धन

अब तक जितना कहा जा चुका है, उसके साथ ही साथ जीवन साथी देखते समय कुछ अन्य बातों का भी ध्यान रखे जाने की आवश्यकता है ।

इनमें से एक रंग-भेद है । क्या रंग-भेद के होते हुए भी विश्वासी को विवाह करना उचित है? रंग-भेद के प्रति बाइबल में क्या शिक्षा है?

कुलुस्सियो 3 : 11 में लिखा है, उसमें न तो यूनानी रहा, न यहूदी, न खतना न खतनारहित, न जंगली, न स्कूती, न दास और न स्वतन्त्र : केवल मसीह सब कुछ और सब में है ।

गलतियों 3 : 28 में हम पढते है, अब न कोई यहूदी रहा और न यूनानी न कोइ दास , न स्वतन्त्र, न कोई नर, न नारी, क्योंकि तुम सब मसीह यीशु में एक हो ।

इन हवालों मे निस्सन्देह यह शिक्षा मिलती है कि चाहे हम किसी भी देश अथवा रंग के हो, परमेश्वर हमें ग्रहण करता है । कलीसिया की संगति में रंग के कारण भेद पूर्ण व्यवहार करना एकदम असंगत है । इसका यह अर्थ नहीं कि देश और वहाँ के निवासियों में कोई भेद ही नहीं है गलतियों 3 : 28 (उक्त उदाहरण) में लिख है कि जैसे मसीह यीशु सब देशवासी एक है और उसका कोइ प्रश्न ही नहीं उठता, वैसे ही यौन का भी । किन्तु यह अर्थ नहीं कि यौन में परस्पर कोई भेद नहीं ! गलतियों 3:28 को उद्धृत कर कोई पुरुष अन्य पुरुष से विवाह नहीं कर सकता ! उसी प्रकार विवाह पर विचार करते हुए रंग-भेद के अन्तरों को मन में रखना चाहिए ।

धर्मशास्त्र के अनुसार दो देशों और रंगो के व्यक्तियों का विवाह कोई गलत नहीं । परन्तु इस संबंध में दो तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए । प्रथम ऐसे मिले-जुले लोगों की सन्तान को, विशेषकर भारत में,साधारणतया अनेक समस्याओं का सामना करना पडता है । द्वितीय, यदि उसका जीवनसाथी विदेशी हुआ तो परमेश्वर के लिए व्यक्ति की सेवकाई में (भारत में) बडी बाधाएं आती है । कुछ लोग अपरिपक्व होने के कारण तथा अति स्वार्थी होने के कारण इन सच्चाइयों की उपेक्षा कर जाते है और विवाह कर लेते है । कई वर्षों के उपरान्त उन्हे ंपछतावा होता है ।

रंग भेद के समान संस्कृति का भी ध्यान रखना चाहिए । यदि एक भारतीय, विदेशी से विवाह करे ती इस परिस्थिति में संस्कृति की अनेक भिन्नताएं हो सकती है । इनसे विवाह के पश्चात, परिस्थिति के अनुसार स्वयं को ढालना, दोनों के कठिन हो सकता ह, विशेषकर भारत में । यह भारतीय व्यक्ति पर भी लागू होता है, यदि वह दूसरे प्रदेश के निवासी से विवाह करे, तोभी उतने बडे पैमाने पर नहीं । दोनों की पृष्ठिभूमि अलग-अलग होती है । कुछ परिस्थितियों में सांस्कृतिक भेद पर सहज विजय प्राप्त हो सकती है- इनमें विवाह पर विचार हो सकता है चाहे दोनों भारत के विभिन्न प्रदेश के हों, तथा विभिन्न भाषा बोलते हों । तोभी एक सी भाषा स्पष्टतः अनिवार्य है । यदि दोनों साथी एक भाषा का अच्छा ज्ञान रखते हो, तो उतनी समस्या नहीं रह जाती । किन्तु बहुत कठिन होगा यदि एक साथी ऐसी भाषा का सदैव प्रयोग करता हो, जिससे दूसरा अनभिज्ञ हो । इस सम्बन्ध में यह भी महत्वपूर्ण ध्यान देने योग्य बात है कि स्थायी निवास कहाँ होगा । ऐसे विवाह में आरम्भ से ही समझ लेना चाहिए कि एक की संस्कृति अन्त में दूसरे पर हावी होगी ।

भारत के अनेक भागों में विवाह का निश्चय करते समय जाति का भी ध्यान रखा जाता है ।

जाति प्रथा अत्यन्त घृणित है । यह गैर मसीही शिक्षा है । इसका प्रवेश मसीही धर्म में उन व्यक्तियों द्वारा हुआ है जिनका जीवन परिवर्तन पूर्ण रुप से नहीं हुआ । मसीह समस्त जाति भेद को दूर करता है, अतः विश्वासी को सिर्फ जाति भेद के आधार पर विवाह प्रस्ताव कभी अस्वीकार नहीं करना चाहिए । जो व्यक्ति विवाह में जाति प्रथा द्वारा प्रभावित हो, वह परमेश्वर की सन्तान कहलाने के योग्य नहीं -क्योंकि यह अभी भी गैर मसीही धर्म द्वारा उत्पन्न भेदों द्वारा नियंत्रित होता है ।

चाहे जो हो, रंग भेद, संस्कृति, भाषा, तथा जाति प्रथा को तोडकर सिर्फ यह सिध्द करने के लिए ही विवाह नहीं होना चाहिए कि मसीही लोग श्रेष्ठ है और इन भेदों के विरुध्द है ।

विवाह प्रस्ताव पर ध्यान देते समय, धन अथवा दूसरे व्यक्ति के घराने का समाज पर प्रभाव भी देखकर निश्चय नहीं करना चाहिए । यह लज्जास्पद और अपमानजनक बात है कि विश्वासी कहलाने वाले व्यक्ति तक इन बातों से प्रभावित होते है ।

दहेज का धन मांगने की प्रथा

स्त्री धन मांगना हमारे देश की घृणित प्रथाओं में से एक है । निस्सन्देह स्त्री धन माँगने की प्रथा (भारत में प्रचलित) का प्रारम्भ गैर मसीही धर्म से हुआ है । इसमें व्यक्तिगत संबंधों की अवहेलना होती है और विवाह सिर्फ व्यापार बन कर रह जाता है । यदि अविश्वासियों के मध्य यह प्रथा प्रचलित हो (जिनमें नाम मात्र के मसीही भी शामिल होंगे), तो इसे समझना सहज है क्योंकि वे आत्मिक दृष्टि से अंधे होते है । उनके जीवनों पर लोभ का शासन होता है । परन्तु हम क्या कहें जब अनेक विश्वासी भी इस प्रथा के सहभागी होते है- यहाँ तक वे भी जो संसार से अलग होने और नये नियम के आदर्श पर चलने का दावा करते है? निश्चित है कि शैतान ने उनकी भी आंखे अंधी कर दी है ।

कई विवाह इसी लिए टूट गए है क्योंकि लडके के माता पिता ने लडकी के माता पिता से दहेज की बहुत बडी राशि माँगी, जिसे देन मे वे अमसर्थ थे । इसके कारण हमारे देश की कितनी ही लडकियों को ठोकर तथा निराशा पहुंची है ।?

परमेश्वर अवश्य उन व्यक्तियों का कठोरता पूर्वक न्याय करेगा, जो विवह संबंधों को केवल सौदा बना लेते है । यह न्याय परमेश्वर के घर से, उन व्यक्तियों के मध्य से ही प्रारम्भ होगा, जो स्वयं को नया जन्म पाए हुए कहते है । यह प्रथा आज भी कलीसिया ने इसीलिए प्रचलित है क्यों कि विश्वासियों ने इस गैर मसीही प्रथा के विरुध्द आवाज नहीं उठाई है- उन्हे तो अधिक समझदार होना चाहिए था । जिन्हें इस टेढे और कुटिल संसार में परमेश्वर के लिए स्थिर खडे रहना था, वे स्वयं भी कुटिल एवं टेढे बन गए है- यह कितनी दुखद बात है! विश्वासी को न सिर्फ स्वयं स्त्री धन लेने से अस्वीकार करना चाहिए किन्तु इस प्रथा की निन्दा भी करनी चाहिए ।

कई विश्वासी बहाना करते है कि उन्होंने नहीं किन्तु उनके माता पिता ने स्त्री धन की मांग की है । किन्तु यदि उनका दृढ विश्वास है, तो क्यों नहीं बोलते और माता पिता से कहते कि किसी भी परिस्थिति में लडकी से दहेज की राशि ग्रहण नहीं करेंगे? कारण सिर्फ यही ह कि वे स्वयं मन ही मन उस धन प्राप्ति की इच्छा करते है । यदि हमें निश्चित बोध है कि दहेज मागने की प्रथा गलत है, तो परमेश्वर आशा रखता है कि हम सच्चाई के लिए बोले । जब विश्वास व्यक्त करने का अवसर आए और हम गूंगे बने रह जाएं, तो विवाह में परमेश्वर से अगुवाई और आशिष पाने की आशा नहीं कर सकते ।

कुछ लोगों का कथन हो सकता है कि यह सिर्फ युक्ति संगत है कि माता पिता, जिन्होंने उनकी शिक्षा पर पैसा खर्च किया था, उन्हें अब लडकी के माता पिता से दहेज के तौर पर कुछ पैसा मिलना चाहिए । कुछ इस कथन की पुष्टि इस प्रकार करते है- कि उनके माता पिता को भी बहिनों के विवाह के समय दहेज लेने के लिए धन की जरुरत होगी । किन्तु सभी तर्क यह अनुमान करने पर महत्वहीन हो जाते है कि स्त्री धन मांगने की प्रथा स्वयं परमेश्वर की अप्रिय है । यदि आप उसकी आज्ञा का पालन करें तो निश्चय जानिए कि वह आपको निराश नहीं करेगा । यदि आप परमेश्वर का सम्मान करेंगे, तो वह भी आपको आदर देगा तथा आपके घर की आवश्यकताएं पूर्ण करेगा । ( 1 शमू 2.30)

कुछ लोग प्रश्न कर सकते है, उस पैसे को ग्रहण करनें में क्या बुराई है, जिसे लडकी का पिता हर्ष पूर्वक दान के रुप में देता है? । निश्चित रुप से इसमें कोई बुराई नहीं । किन्तु ऐसा न हो कि कोई उसे अपने लोभ का बहाना बनाए, ऐसी परिस्थिति में जवानों को ये तीन प्रश्न पहले करने चाहिए :

  • विवाह का निश्चय करते समय क्या यह पैसा (चाहे थोडा भी) विचार में था?
  • क्या विवाह निश्चित हो जाने पर कभी आपने अथवा आपके प्रतिनिधियों (चाहे पिता अथवा रिश्तेदार) ने उस पैसे की मांग की ?
  • क्या आपके मन में यह गुप्त आशा थी कि यह धन (आपको अथवा लडकी को ) दिया जायेगा ?
  • यदि इन तीनों प्रश्नों में से आप किसी भाी एक का उत्तर हाँ मे दे तो आप अवश्य लोभ मे ंफंस चुके है, चाहे आप कितने भी बहाने बनाकर इसे छिपाने का प्रयत्न करें ।

    ऐसी परिस्थितियां द्वारा यह सभी को प्रत्यक्ष प्रमाणित हो जाता है कि आपके विश्वासी होने के नाते प्रचार और व्यवहार में कितनी असमानता है । कोई आश्चर्य नहीं कि नास्तिक ऐसा कहते है, चाहे मसीही कुछ प्रचार क्यों न करें, जब पैसे का अवसर आता है तो सब का एक ही धर्म हो जाता है । वह विश्वासी शापित है जो अपने आचरण से मसीहियों के विरुध्द इस प्रकार के दोषारोपण का अवसर देता है ।

    स्त्री धन मांगने की प्रथा की इतनी कडी निन्दा करने से अनेक क्रोधित हो सकते है, किन्तु वे स्मरण रखें कि यह प्रथा मनुष्य के लोभ से उत्पन्न है, बाइबल में इसे मूर्ति-पूजा कहा गया है (कुलु. 3:5) । कोई पुराने नियम में मूर्ति-पूजा की कडी भर्त्सना पढकर ही समझ सकता है, कि परमेश्वर इससे कितनी घृणा करता है । पुराने नियम के नबियों ने इसकी तीव्र आलोचना की । परमेश्वर जिस वस्तु से घृणा करता है, उसके विरुध्द उन्होंने व्यर्थ ही नहीं कहा ।

    अन्य तथ्य

    विवाह का निर्णय लेने से पूर्व मंडली तथा उसके सिध्दांतों पर विचार करना भी महत्वपूर्ण है मंडली की संगति और बाप्तिस्मा जैसे विषयों पर समझौता होना चाहिए, अन्यथा बाद में समस्याएं उठ सकती है । माता पिता में से कोई एक बालकपन में बात्पिस्मा दिलाने की इच्छा करत सकता है और दूसरा नही । विवाह पश्चात् इन बातों पर झगडने से अच्छा है, पहले ही निर्णय किया जाए । अनिवार्य है कि पूरा घराना एक ही गिरजे जाए । यदि माता और कुछ बच्चे एक गिरजाघर जायें और पिता दूसरे बच्चों को लेकर अन्य गिरजे में जाएं तो यह दर्शाता है कि उनके मध्य शांति नहीं । साथ ही यह धर्मशास्त्र के सिध्दान्तों का उल्लंघन है । इससे घराने में भी गम्भीर बंटवारा हो सकता है । मसीही घराने को सामाजिक आराधना में एकता प्रगट करनी चाहिए ।

    धर्म सम्बन्धी अन्य दृढ विश्वास को शादी के पूर्व प्रगट करना चाहिए, तथा उन पर वार्तालाप होनी चाहिए ।

    ध्यान देने योग्य अन्य प्रमुख तत्व है कि बुलाहट में समानता होनी चाहिए । यदि परमेश्वर ने आपको किसी विशेष स्थान पर जाने अथवा विशेष प्रकार की सेवा करने के लिए बुलाया है तो आपकी ऐसी पत्नी होनी चाहिए जो आपके साथ जाने को तैयार हो । न सिर्फ उसे इच्छुक होना चाहिए किन्तु उसे स्वयं उस बुलाहट का अनुभव होना चाहिए । भारत में प्रथानुसार स्त्रियों से यह आशा की जाती है कि वे जहां पति जाएं, उसका अनुसरण करें । तो भी यदि आपका दर्शन पत्नी को प्राप्त नहीं होगा तो वह आपके लिए बोझ रहेगी और अन्ततः आपको परमेश्वर की इच्छा से दूर ले जाएगी । विवाह से पूर्व इन बातों की जांच करना श्रेष्ठ है ।

    आर्थिक साधनों पर भी ध्यान देना चाहिए । किसी नौजवान को उस समय तक विवाह का विचार नहीं करना चाहिए, जब तक घराने का भार सम्भालने के लिए उसकी पर्याप्त आय नहीं हो जाती है । यह कहना, परमेश्वर प्रबंध करेगा, आपकी स्थिति में बाइबल को गलत उद्धृत करना होगा, क्योंकि परमेश्वर ने आपको सामान्य बुध्दि दी है कि आप विचारपूर्वक निर्णय लें । यदि आप इस बुध्दि का प्रयोग नहीं करते, तो परमेश्वर विवाह के पश्चात् कोई आश्चर्यकर्म करके आपकी आवश्यकताओं की पूति नहीं करेगा । परमेश्वर के समय से पूर्व विवाह करके किसी लडकी को अनावश्यक कष्ट न डालिए ।

    अन्य विचार योग्य बात यह है कि विवाह के पूव आपको कितने समय तक ठहरना होगा । परिस्थितियों का अन्य कारणों से विवश होकर सम्भव है, आपको कुछ समय तक ठहरना पडे । इस परिस्थिति में यह भला है कि आप किसी युवती का उस समय तक विचार ही न करें, जब तक इस योग्य न हो सकें कि उसके एक वर्ष बाद ही करें ।

    संतुलित विचार बनाये रखना

    संसार का सर्वश्रेष्ठ और आत्मिक व्यक्ति भी मानव ही है और गलती कर सकता है । यदि आप सिध्द जीवन साथी की खोज की खोज कर रहे है, तो अपना समय नष्ट कर रहे है । आप इसे कहीं नहीं पाएंगे । यदि कोई ऐसी लडकी होगी भी, तो वह भी आपसे विवाह करना न चाहेगी, क्योंकि स्वयं भी सिध्द साथी चाहेगी ।

    उपरोक्त सभी बातें इसलिए नहीं कही गई कि आपको सिध्द साथी खोजने का प्रोत्साहन दें । इन बातों का तात्पर्य यह था कि आप विचार में संतुलन बनाए रखें और इस प्रकार परमेश्वर की इच्छा जानें ।

    चाहे परमेश्वर आपका स्पष्ट निर्देशन कर अपनी पसन्द का व्यक्ति आपको देवे, तोभी आपको ज्ञात होगा कि विवाह के बाद भी आप दोनों को एक दूसरे के अनुकूल स्वयं को ढालने का कार्य करना है । आप जितना अधिक एक दूसरे के विषय में जानेंगे, आपको मालूम होगा कि आप दोनों में कितने दोष है । यदि आप सच्चे है, तो जानेंगे कि आप में अपने साथी से अधिक दोष है । संसार मे ंकिसी अन्य वस्तु से बढकर विवाह ही व्यक्ति के दोष को सबसे अधिक प्रकट करता है । अविवाहित रहकर व्यक्ति को जो स्वयं के आत्मिक जीवन पर अभिमान था, वह चकनाचूर हो सकता है । जैसा डी. एच. स्मॉल ने कहा है,

    सिध्दता से परे दो व्यक्तियों का सिध्दतारहित संबंध विवाह ही है ।

    तोभी, यद्यपि हम सिध्द नहीं है, यह संभव है- कि विवाह में परमेश्वर की स्पष्ट अगुवाई अनुभव करें । सच्चे मसीही घर के लिए यही चट्टान की नेव बन सकती है । विवाह के पश्चात् एक दूसरे में दोष व कमजोरियां दिखती ही है और विवाद भी खडे होते है, किन्तु वह जोडा शापित है जिसमें एक साथी को भी यह सौ प्रतिशत निश्चय न हो कि परमेश्वर ने ही स्वयं उन दोनों को जोडा है । इसीलिए यह अनिवार्य है कि विवाह से पूर्व दोनों साथी परमेश्वर की इच्छा निश्चित रुप से जानें । जिस व्यक्ति ने चट्टान पर घर बनाया, उसे बालू पर घर बनाने वाले की अपेक्षा नेव डालने में अधिक समय तथा श्रम लगा । किन्तु बाढ आने पर उसने अनुभव किया कि उसकी मेहनत व्यर्थ नहीं गई, क्योंकि जब दूसरे का घर घराशाही हुआ, तब उसका स्थिर रहा (मत्ती 7:24-27) । परमेश्वर की इच्छा पर स्थित विवाह, जीवन की प्रत्येक आँधी सह सकता है । अपना घर निर्माण आरम्भ करने से पूर्व मेहनत करना और परमेश्वर की इच्छा का निश्चय होने तर ठहरना उचित है ।

    अतः विचारों में संतुलन रखना अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इस अध्याय में बताई गई प्रत्येक बात को आवश्यकतानुसार महत्व देना चाहिए । कई विश्वासी असफल रहते है क्योंकि वे कुछ बातों की अवहेलना कर जाते है और कुछ को आवश्यकता से अधिक महत्व देते है । इस प्रकार उनका विचार असंतुलित होता है । कई अपनी बुध्दि से काम लने के पूर्व दिल से काम लेकर बहक जाते है । परिणाम यह होता हे कि उनकी आलोचना की कार्यशक्ति समाप्त हो जाती है और वे किसी व्यक्ति के विषय में सही अनुमान लगाना असम्भव पाते है । यही कारण है कि अविश्वासियों के मध्य कुछ विवाह,कई विश्वासियों के विवाह से अधिक सुखी होते ।

    निश्चय

    यदि आपको स्वयं परमेश्वर की इच्छा का सौ प्रतिशत निश्चय नहीं, तो कभी मित्रों, रिश्तेदारों, शुभ-चिन्तकों अथवा परमेश्वर के सेवकों के बहकावे में आकर विवाह की जल्दी नहीं करनी चाहिए । इस स्थिति में सदैव उत्तम है- आप ठहरे रहें । यदि आपमें कुछ है जिससे आप पीछे हटते है, तो आगे न बढिए । पवित्र आत्मा के कारण ही आप ऐसी रुकावट अनुभव करते है और इसके कारण बाद में पछताना नहीं पडेगा ।

    कई लोग सोचते होंगे कि विरोधी यौन के बारे में कैसे जानें जब भारतीय संस्कृति में मिलन के लिए कहीं जाने की प्रथा नहीं है, यहां तक कि (कुछ स्थानों में) उनसे वार्तालाप की भी अनुमति नहीं । किन्तु जो व्यक्ति यह सोचे कि विरोधी यौन के साथ अकेले अथवा वार्तालाप करने से उसे उसके सम्बन्ध में सब कुछ ज्ञात हो जाएगा, वह भूल करता है । हमें सिर्फ पश्चिमी देशों में हजारों तलाकों की ओर दृष्टि डालनी है (जहा अकेले में मिलन बहुत छोटी उम्र में ही प्रारम्भ होता है और जहां प्रत्येक स्वयं अपना साथी चुनता है), और हमें निश्चय होगा कि अकेले में मिलन का प्रश्न हल नहीं है । हल इसी में है कि परमेश्वर से उस युवक-युवती का सच्चा चरित्र दर्शाने की प्रार्थना करें । आपको उस व्यक्ति के सम्बन्ध में अन्य विश्वासियों से, जो उसे जानते सब ज्ञात करने का प्रयत्न करना चाहिए-क्योंकि सिर्फ इसी तरह आप इस विषय पर बुध्दि के साथ प्रार्थना करने की योग्यता रखेंगे । परमेश्वर आपसे अधिक यह चाहता है कि आप सही व्यक्ति को प्राप्त करें, तो चाहे संस्कृति इसमें रुकावट डाले, तोभी जितना उस व्यक्ति के बारे मे ंजानना आवश्यक है, परमेश्वर जरुर बताएगा । इस कार्य के लिए परमेश्वर पर भरोसा रखिए । उसके लिए कुछ असम्भव नहीं । अपने अविश्वास के कारण उसके कार्य में रुकावट न डालिए (मत्ती 13 : 58) ।

    परमेश्वर की इच्छा का दृढ निश्चय हो जाने पर यह ज्ञानपूर्ण कार्य है (कम से कम हमारे देश में), कि प्रस्ताव अपने माता-पिता अथवा मित्र द्वारा रखें ।

    यदि आपका प्रस्ताव अस्वीकृत हो जाए तो क्या होगा? ऐसी परिस्थिति में ठहरना और प्रार्थना करना उत्तम है । किसी अन्य साधन द्वारा बात आगे बढाने का प्रयत्न न कीजिए । यदि कुछ अवधि तक रुकने के पश्चात्, अन्य व्यक्ति आपको जीवन साथी चुनने से इनकार करें, तो निश्चित मानिए कि आपने अगुवाई प्राप्त करने में भूल की है । यदि वास्तव में परमेश्वर की इच्छा रहती है, तो वह दूसरे व्यक्ति को भी इसका दृढ निश्चय देता है । यदि आपको ही अकेले मार्गदर्शन का अनुभव होता है, तो आपकी अगुवाई निश्चित रुप से परमेश्वर की ओर से नहीं है । यदि आप परमेश्वर के समय के लिये ठहरेंगे तो वह आपके मार्ग पर अपने चुनाव के व्यक्ति को लाएगा- उस समय वह आपको अवश्य रिबका के समान हाँ में उत्तर देगा (उत्पत्ति 24 : 58) ।

    माता -पिता की स्वीकृति

    आप जिस व्यक्ति की परमेश्वर का चुनाव समझ रहे है उसे माता-पिता नही कह दे, तब क्या होगा? पहला कदम होना चाहिए कि आप परमेश्वर पर ही छोड दे- वह माता-पिता को इसका निश्चय दे । इस विषय पर आपका दृढ विश्वास क्यों है- यह माता-पिता को समझाइए । आपको उनके साथ स्पष्टवादी होना चाहिए । उनको नीचा न दिखाइए क्योंकि उनकी ज्ञानपूर्ण सलाह से आपको काफी सहायता मिल सकती है । यदि आप सोचते है कि वे प्राचीन प्रथाओं के मानने वाले है, तोभी उनसें यह न कहिए । उनके प्रति सच्ची श्रध्दा और प्रेम दर्शाइए । विवाह में अनेक बार पतन से, परमेश्वर आपको उनके द्वारा बचा सकता है ।

    बाइबल में लिखा है, अपने जन्मानेवाले की सुनना, और जब तेरी माता बुढिया हो जाय, तब भी उसे तुच्छ न जानना, मूढ अपने पिता की शिक्षा का तिरस्कार करता है, परन्तु जो डांट को मानता, वह चतुर हो जाता है ..... इनको अपने गले का हार बना ले । वह तेरे चलने में तेरी अगुवाई, आर सोते समय तेरी रक्षा, और जागते समय तुझ से बाते करेगी । आज्ञा तो दीपक है और शिक्षा ज्योति, और सिखानेवाली की डांट जीवन का मार्ग है (नीति 23 : 22, 15 : 5 : 6, 21-23) । ये बातें उन्हीं माता पिताओं पर लागू होती है जो नया जन्म पाए है और परमेश्वर के साथ चल रहे है । तोभी यदि उनका जीवन परिवर्तन नहीं हुआ हो, फिर भी सलाह से बहुधा सहायता मिल सकती है ।

    माता-पिता की सहमति बडी आशिषमय है । जहां तक सम्भव हो, इसे प्राप्त करना चाहिए । यदि आपके माता पिता विश्वासी है, तो आपको उनकी स्वीकृति प्राप्त करने तक रुकना चाहिए, चाहे उसके लिए कुछ और ठहरना पडे । यदि वे असहमति प्रगट करे, तो आपकेा अपनी अगुवाई की जांच पुनः करनी चाहिए । परमेश्वर इस प्रकार के काय के लिए आपको आदर देगा । वह सर्वप्रधान है और अपने समय में आपके माता पिता के विचारों में परिवर्तन के योग्य है (नीति 21 : 1) । मैं कई व्यक्तियों के उदाहरण जानता हूँ, जिन्होंने इस प्रकार रुककर और परमेश्वर केा अपने बदले कार्य करने का अवसर देकर उनका सम्मान किया । परमेश्वर ने भी उनके माता पिता के विचार बदले किन्तु अनेक व्यक्तियों ने अधीरतापूर्वक विवाह मे शीघ्रता कर इस बहुमूल्य अनुभव से लाभ नहीं उठाया । हडसन टेलर ने कहा है, परमेश्वर द्वारा विजय प्राप्त करों । वह किसी भी द्वार को खोलने में समर्थ है । इस परिस्थिति में उत्तरदायित्व माता पिता का है । यह जिम्मेवारी गम्भीर है । जब पुत्र अथवा पुत्री सच्चे मन से यह कह सके, हे परमेश्वर मैं ठहरा हूं कि तू ही मेरे लिए द्वार खोल दे, तो परिस्थिति परमेश्वर के साथ में है और वही द्वार खोलेगा (डॉ. और श्रीमती हावर्ड टेलर द्वारा हडसन टेलर्स स्पिरिचुएल सीक्रेट से उद्धृत) ।

    तोभी यदि माँ बाप अविश्वासी हों अथवा विश्वासी होकर सांसारिक आधार पर असंगत रुप से विरोध करते हों, तो उनकी सहमति के लिए अनिश्चित रुप से ठहरना आवश्यक नहीं । किन्तु ऐसे मामलों में भी कुछ ठहरकर विवाह से पूर्व, उनकी सहमति प्राप्त करने का प्रयत्न यथासम्भव करना चाहिए यदि आपको अन्त में दृढ निश्चय हो, कि परमेश्वर की इच्छा है- आप उनकी स्वीकृति के बिना आगे बढे, तो उन्हे नम्रतापूर्वक प्रेम से यह बताइए । उन पर यह प्रभाव न डालिए कि आप अभिमान अथवा विद्रोह के कारण ऐसा कर रहे है ।

    प्रतीक्षा काल में हमारा व्यवहार

    विवाह पर ध्यान देन से पूर्व जिन्हे अभी भी लम्बे समय तक ठहरना है, उनके लिए मै यहां कुछ कहना चाहूंगा । जैेस इब्राहीम ने इसहाक को परमेश्वर को समर्पित किया (उत्पत्ति 22), उसी प्रकार आपको भी विवाह और घरेलू जीवन की इच्छा परमेश्वर को समर्पित करना चाहिए । दूसरे शब्दों मे आपमें इच्छा होनी चाहिए कि यदि परमेश्वर की महिमा के लिए हो, तो जीवन भर भी अविवाहित रहें । यदि भावना रखी गई, तो आप इससे बच सकेंगे कि विरुध्द यौन के प्रत्येक आकर्षण व्यक्ति को अपने भावी जीवन साथी के रुप में देखते रहें । किसी न किसी प्रकार आपका अतिरिक्त समय परमेश्वर को महिमा में व्यतीत होना चाहिए । परमेश्वर की इच्छा में विश्रांति करने का यही अर्थ है । जब विवाह के लिए परमेश्वर का नियुक्त समय आएगा, तो वह आपकी समर्पित वस्तु आपको वापिस लौटा देगा, जैसे इब्राहीम को इसहाक वापिस सोंप दिया । लेखक व्यक्तिगत अनुभव द्वारा साक्षी दे सकता है कि परमेश्वर के समक्ष ऐसा व्यवहार कायम रखने के कारण् (जैसा इस परिच्छेद में वर्णित है )शैतान की अने युक्तियों से उनका बचाव हुआ है तथा पमरेश्वर ने विवाह के नियुक्त समय में उसे सर्वश्रेष्ठ साथी प्रदान किया है ।

    जे. आस्वल्ड सैन्डर्स, समुद्रपारीय मिशनरी फेलोश्पि के प्राचीन सामान्य संचालक थे । उन्होंने कहा कि अपनी जवानी में अविवाहित दशा में उन्होंने मसीह को पूर्ण जीवन समर्पण किया । उन्होंने परमेश्वर से प्रतिज्ञा की, इन बातों की जानकारी होने तक वे किसी लडकी तक विवाह के प्रस्ताव को लेकर नही पहुंचेंगे- (

  • परमेश्वर उन्हें क्या बनाना चाहता है,
  • क्या वह लडकी परमेश्वर का सही चुनाव है? और
  • क्या उस तक पहुंचने का परमेश्वर द्वारा नियुक्त समय आ गया है
  • । उसने परमेश्वर से यह भी कहा कि वह अविवाहित बना रहने को तैयार है । उसे ज्ञात हुआ कि परमेश्वर उससे मिशनरी की सेवा चाहता है । यह ज्ञात होने के छः सप्ताह उपरान्त उस युवती से उसकी भेंट हुई, जो भविष्य में उसकी पत्नी बनी : उसने एकदम उस लडकी के प्रति आकर्षण अनुभव किया । किन्तु साढे छः वर्षो पश्चात् ही परमेश्वर ने उस युवती तक प्रस्ताव रखने को कहा । इस प्रकार जो परमेश्वर को आदर देते है, परमेश्वर भी उन्हें सर्वश्रेष्ठ दान प्रदान करता है । यही सुरक्षित पथ है जिस पर चलना चाहिए ।

    चितौनी

    मै यहां दो अन्तिम चितोनियां दूंगा । प्रथम, यदि आपको मित्रता किसी व्यक्ति से टूट गई हो अथवा प्रस्ताव अस्वीकृत हुआ हो, या जिससे आपको विवाह करने की उत्कट इच्छा थी उसका विवाह किसी अन्य से हो गया हो, तो एकदम किसी नये व्यक्ति से संबंध जोडने का निर्णय न कीजिये । इस समय भारी परीक्षा आएगी, क्यों कि आपको विचारों मे उथल-पुथल मची होगी और आप एकदम उस रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए किसी अन्य को चाहेंगे । इस प्रकार के शीघ्रतापूर्ण निश्चयों का अन्त सदा पछतावे में होता है । ऐसी निराशा का सामना करने के उपरान्त कम से कम छः माह तक रुकिये । इस अवधि में आप वास्तविकता की दुनिया में आ सकेंगे ओर तर्क से काम ले सकेंगे । मै अनेक उदाहरण् दे सकता हूं जहाँ ऐसी अप्रिय घटना के कारण भावावेग मे निर्णय लिया गया जिसका अन्त पछतावे में हुआ । द्वितीय, किसी ऐसे व्यक्ति से विवाह का निर्णय कभी न लीजिए, जो आपके विवाह न करने से आत्महत्या (अथवा इसी के समान कार्य) की धमकी देता है । यदि इस आधार पर विवाह करेंगे तो निश्चय आपको अन्त मेंपश्चाताप होगा ।

    विवाह के समय यह जानना अत्यंन्त शांतिदायक है कि आपको परमेश्वर स्वयं, अपनी पूर्वनिर्धारित योजनानुसार, अपने नियुक्त समय में अपने चुनाव के व्यक्ति से जोड रहा है। इस निश्चय की अनुभूति करने वाले जोडे धन्य है। अतुल्य आनंद उन्हीं का है ।

    अध्याय 7
    सिर्फ लडकियों के लिए

    इस अध्याय की लेखिका है डॉ. (श्रीमती) एनी पूनन, एम. बी. एस.

    भली पत्नी कौन पा सकता है? क्योंकि उसका मूल्य मूंगों से भी बहुत अधिक है । बाइबल में भली स्त्री का इस प्रकार वर्णन है (नीति. 31 : 10 ) । गैर मसीही संस्कृति ने हमेशा पुरुष की अपेक्षा स्त्री को हेय दृष्टि से देखा है और निम्न स्तर की सृष्टि माना है । परन्तु प्रभु यीशु मसीह ने अपनी शिक्षा तथा उदाहरण, दोनों के द्वारा दर्शाया कि परमेश्वर ने स्त्री को पुरुष के बाजू में रहने के लिए ठहराता है उसके पद तले नहीं ।

    स्त्री की सृष्टि परमेश्वर ने विशेष कार्य पूर्ति के लिए की - जिसे पुरुष कभी नहीं कर सकता था । अतः स्त्री को परमेश्वर ने पुरुष से भिन्न बनाया, न सिर्फ केवल शारीरिक तौर से, किन्तु मानसिक और सांवेगिक रीति से भी । मातृक होने कारण उसकी रचना ही ऐसी हुई कि वह पुरुष से अधिक सूक्ष्म दर्शक, काल्पनिक और संवेदनशील है । इसीलिए प्रेम करने की उसमें अधिक क्षमता है साथ ही साथ प्रेम पाने की अधिक इच्छा भी है । इनके बिना वह अतृप्त रह जायेगी । उसमें कार्य को पुरुष की अपेक्षा अधिक निपुणता से करने की योग्यता है, क्योंकि उसके कार्य ही इसी प्रकार के है । अतः उसे अन्तर्ज्ञान की शक्ति का वरदान प्राप्त है- चाहे पुरुष इसको सहज स्वीकार न करें ।

    जी. केम्पबेल मॉरगन ने, मातृत्व के उत्तरदायित्वों के सन्दर्भ में स्टडीज इन द प्रॉफेसी ऑफ जेरेमायाह में लिखा है, स्त्रियों को यह अनुभव करना है कि विश्व में प्रगट करने के लिए उनमें परमेश्वर का स्वरुप है, क्योंकि जब परमेश्वर ने कहा ं......... हम मनुष्य को अपने स्वरुप के अनुसार आपनी समानता में बनाएं, तो यह भी लिखा है कि परमेश्वर ने मनुष्य की सृष्टि अपने ही स्वरुप के अनुसार अपनी समानता में की उसने नर और नारी करके मनुष्य की सृष्टि की । मै इस कथन की कठिनाई से परिचित हूं तो भी यदि हमे परमेश्वर को और मनुष्य जाति को समझना है तो यह कथन बाइबल के सर्वाधिक गम्भीर सत्य में से एक है- कि मातृत्व में परमेश्वर ने स्वयं को प्रगट किया है जो पुरुषों में प्रगट नहीं हुआ है....... उसे अलग प्रकार का पवित्र उत्तरदायित्व सौपा गया है, परमेश्वर संबंधी इस गहन सत्य के प्रगटीकरण में पुरुष कभी भागी नहीं हो सकता ।

    यह सत्य क्या है? मैं इसके अतिरिक्त और कैसे व्यक्त करु कि परमेश्वर पिता है- सिर्फ यही सत्य नहीं परमेश्वर माता है- यह भी सत्य है? यदि परमेश्वर पिता है- यह सिध्दान्त बाइबल की शिक्षा है तो उतनी ही स्पष्टता से सिध्दान्त भी बाइबल में है कि परमेश्वर माता है (यशा. 66 : 13 मत्ती 23 : 37 की तुलना कीजिए) । मातृत्व का अभिप्राय है कि उसके द्वारा कोमलता की रहस्यमय गहराइयां प्रगट की जाएं । अनन्तः सामर्थ्य का सार यदि है । हम मानव इसे मातृत्व के पवित्र रहस्य और शक्ति द्वारा अच्छी तरह समझ सकते है ।

    मैं केवल मातृत्व की सत्यता के विषय में ही नहीं कह रही हूं, क्योंकि ऐसी भाी स्त्रियां है जो वास्तविक अर्थ में कभी माताएं नहीं हुई तो भी माता के सभी कार्यों को कर रही है । वे स्नेह दया और शक्ति का प्रदर्शन करती है जिनसे रक्षा चंगाई और सहायता प्राप्त होती हे तथा दोषों को ढाँपा जाता है । यह वही बलवन्त गुण है जो अनन्त कोमलता, नम्रता और सौन्दर्य से शक्तिशाली है, यही गुण स्त्री जाति की महिमा है । परमेश्वर हमें उस दिन से बचाए रखे जब कोई कठोर वस्तु स्त्रीत्व के इस कोमल ताने बाने को नष्ट करें । इन्हीं गुणों द्वारा उसे परमेश्वर को प्रगट करना है । परमेश्वर की प्रकृति का पहलु -जिसे मातृत्व ही कहा जा सकता है- और माताएं इसे पहले स्वीकार करेंगी कि परमेश्वर को स्त्री जाति द्वारा स्वयं को प्रगट करना है ।

    यही स्त्री की बुलाहट है! यदि नारी वास्तव में परमेश्वर को पूर्णतः समर्पित हो, तो परमेश्वर प्रदत्त इन विशेष गुणों का प्रयोग, उनकी महिमा और दूसरों की भलाई में हो सकता है । किन्तु यदि वह जीवन के हर क्षेत्र में धार्मिकता की खोज नहीं करती तो ये ही गुण व्यर्थ जा सकते है तथा इनका गलत प्रयोग हो सकता है । परमेश्वर यह समझने में हमारी सहायता करे कि उसने हमें विशेष वरदान स्वरुप कोमलता और स्नेह का विशेष गुण सौंपा है । वह आशा करता है कि हम जीवन की सामान्य वस्तुओं इस गुणों के द्वारा अधिक सुन्दर बनाएं और इस प्रकार चहूं ओर लोगों के लिए आशिष का कारण हों ।

    नारी में भाी यौन प्रवृत्तियां विद्यमान है । पुरुष से विभिन्न वे प्रवृत्तियां शीघ्र कार्यशील नहीं होती अतः इन्हें सहज नियंत्रण में रखा जा सकता है । ये प्रवृत्तियां सामान्य है, इनके बिना स्त्रियाँ असामान्य होती है । स्त्री ध्यान और प्रेम प्राप्ति की इच्छुक होती है । वह पुरुष से अधिक, स्वयं के घर की इच्छा करती है । इस प्रकार की इच्छाएं उसके मातृत्व की तैयारी ही है । इसमें कोई बुराई नहीं । परमेश्वर ने स्वयं हमें इस प्रकार बनाया है । इन इच्छाओं के कारण लडकी के लिए विवाह के अभिप्राय से पुरुष की और आकर्षित होना स्वाभाविक है । पुरुष सिर्फ शारीरिक मैत्री के लिए लडकियों की ओर आकर्षित हो सकते है । किन्तु लडकियां सामान्यतः पुरुषों की ओर सिर्फ विवाह के ही अभिप्राय से आकर्षित होती है । इसके बहुत कम अपवाद है जब लडकियां सिर्फ मिथ्या प्रेम प्रदर्शन के लिए लडकों से मित्रता करती है । परन्तु यह असामान्य है । कुछ उदाहरण भी है, जहां लडकियां विरोधी यौन की ओर तनिक भी आकर्षित न होकर सिर्फ समान यौन की ओर ही आकर्षित होती है । यह भी अत्यन्त असामान्य और अस्वस्थ्य है तथा अधिकतर समलिंगरत प्रवृत्ति का लक्षण है ।

    सुहावने वस्त्र

    बाइबल में स्त्रियों के लिए चितौनी है, और तुम्हारा सिंगार दिखावटी न हो, अर्थात् बाल गुंथने और सोगे के गहने, या भाँंति-भाँति के कपडे पहिनना । वरन तुम्हारा छिपा हुआ मनुष्यत्व, नम्रता और मन की दीनता की अविनाशी सजावट से सुसज्जित रहे, क्योंकि परमेश्वर की दृष्टि में इनका मूल्य बडा है । और पूर्वकाल में पवित्र स्त्रियां भी जो परमेश्वर पर आशा रखती थी, अपने आप को इसी रीति से सवांरती और अपने-अपने पति के आधीन रहती थी (1पतरस 3 : 3-5) ।

    स्त्री में विरुध्द यौन को आकर्षित करने की शक्ति होती है यह परमेश्वर प्रदत्त शक्ति है, किन्तु इसका अत्यधिक दुरुपयोग हो सकता है तथा बहुधा होता ही है । यदि शक्ति पवित्र आत्मा के अधीन न रखी गई, तो लडकी आपत्ति के मार्ग पर है । उम्र के विकास के साथ लडकियाँ स्वयं की इन योग्यता की जानने लगती है और इनमें वृध्दि करने के लिए हर सम्भव प्रयास करने की परीक्षा में पडती है । परिणाम होता है-सौन्दर्य वृध्दि के साधनों तम फॅशन द्वारा और बाल की सजावट में अधिक समय खर्च करना । बाइबल में लिखा है, वैसे ही स्त्रियां भी संकोच और संयम के साथ सुहावने वस्त्रों से अपने आपको संवारे, न कि बाल गूंथने, और सोने और मोतियों । और बहुमोल कहडों से परभले कातों से (1 तीमु. 2 : 9) । इस पद में तथा उक्त परिच्छेद के हवाले में परमेश्वर द्वारा वास्तविक सुन्दरता की परिभाषा दी गई है ।

    हमारी देह परमेश्वर द्वारा सौंपी गई पवित्र निधि है और हम उसका दुरुपयोग नहीं कर सकते । हमें अपनी देह द्वारा परमेश्वर की महिमा करने की आज्ञा दी गई है । इसका तात्पर्य सिर्फ शरीर की आदतों से ही नहीं है किन्तु शरीर पर धारण करनेवाले वस्त्र से भी है । पुराने नियम में परमेश्वर ने अनेक साधनों द्वारा विरोधी यौन को आकर्षित करने की शक्ति के दुरुपयोग के लिए, सिथ्योन की पुत्रियों को धिक्कारा है (यशा. 3 : 16 -24 पढिए )

    हम जो कुछ है, हमारे वस्त्र बहुधा उसके विज्ञापन है । हमारे वस्त्र कुछ सीमा तक हमारे व्यक्तित्व को प्रकट करते है । लोगों पर हमारा पहला प्रभाव इमारी वेष-भूषा को देखकर ही पडता है । यदि हम संसार के फॅशन के अनुसार वस्त्र पहनें तो मसीह के लिए हमारी साक्षी समाप्त हो जाएगी, क्योंकि दूसरे अवश्य देखेंगे हम क्या पहने है । जो कुछ वे देखते है, सम्भव है हमें सब न बताएं, परन्तु जब हम उन्हें बताते है कि पमरेश्वर ने हमें इस बुरे संसार से बचाया है, तो वे हमारी हंसी करते है! अतः हमें अपने परिधान के विषय में सावधान होना है ।

    मेरा यह अर्थ नहीं कि हमे फूहडता से वस्त्र पहिनना चाहिए । नहीं! हमे स्वच्छ और आकर्षक बनने का प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि परमेश्वर नहीं चाहता हम गंदे और उदासीन बने रहें । ए. बी. सिमसन ने कहा है कि एक विश्वासी का वस्त्र साधारण और सुहावना होना चाहिए ताकि दूसरे उसमें कोई विशेषता न देखें और उसे पहनने वाला स्वयं भूल जाय कि क्या पहने है । यह अच्छा नियम है, जिसका अनुकरण करना चाहिए ।

    किसी भी परिस्थिति में हमारे वस्त्र पहनने का तरीका इस प्रकार नहीं होना चाहिए, जिससे पुरुष की वासना जागृत हो । यदि परमेश्वर कभी वासना के लिए पुरुष का न्याय करेगा, तो मेरे विचार में यह युक्ति संगत होगा कि परमेश्वर उन लडकियों का भी न्याय करेगा जिन्होंने वासना उभारने लायक वस्त्र पहना था ।

    मैं माथे पर तिलक लगाने के सम्बन्ध में भी यहां कुछ कहना चाहती हूं । इन दिनों अधिक से अधिक मसीही लडकियां इस हिन्दू प्रथा को अहनाती जा रही है-यह कितना दुखद विषय है । यदि तिलक, शिव देवता के नेत्र का चिन्ह समझा जाता है और हिन्दुओं द्वारा इसका प्रयोग (यद्यपि वे इसे न समझें) दुष्टात्मा के विरुध्द जादू के समान होता है । अतः इस प्रकार का चिन्ह लगाना न सिर्फ पापमय है किन्तु खतरनाक भी है । चाहे उसे ज्ञान न हो, तो भी यह कार्य देवी देवताओं और दृष्टात्माओं की पूजा के सदृश है, और शैतान के प्रभावों को अवसर देना है । अतः लडकियां सावधान रहें ।

    काश परमेश्वर हमें साहस दे कि हम अपनी मसीही साक्षी में बाधक समस्त सांसारिक रीति-रिवाजों के विरुध्द स्थिर रहें !

    परमेश्वर ने इसहाक की स्त्री (जो परमेश्वर द्वारा की गई प्रतिज्ञाओं का उत्तराधिकारी था) बनने का सौभाग्य देने के लिए रिबका को क्यों चुना? अथवा यीशु की माता होने के लिए मरियम क्यों चुनी गई? अवश्य इसका कारण हुआ होगा -उनका आन्तरिक सौन्दर्य- जिससे परमेश्वर प्रसन्न हुआ । वास्तविक सौन्दर्य, आन्तरिक है, बाहय नहीं और इसे सौन्दर्य प्रसाधन की दूकान से नहीं खरीदा जा सकता ! (नीति. 31 :30)।

    इसमें आश्चर्य नहीं कि बाइबल में भक्तिहीन स्त्री का सौन्दर्य उस सुअर के समान वर्णित किया गया है, जो नाक में सोने की नथ पहने हो (नीति 11 : 22)। कितनी कठोर भाषा है ।

    मुझे निश्चय है कि इस संसार के फॅशन का अनुकरण कर, लडकिया परमेश्वर का सर्वश्रेष्ठ उपाय खो रही है ।

    पुरुषों के साथ संबंध

    आप चाहे या न चाहे आपको अति शीघ्र अथवा देर से ज्ञात हो जाएगा कि लडके आप में रुचि ले रहे है । वे आपके विश्वविद्यालय के, गिरजे के अथवा पडोस के हो सकते है । आप इससे बच नहीं सकतीं । अतः जरुरी है कि आप उनके साथ व्यवहार करना जानें ।

    दोनों योनों के पारस्पिरिक संबंध का अध्याय 2 विवरण है, अतः जो कुछ कहा जा चुका है, उसे मैं नहीं दोहराऊंगी । किन्तु मै कुछ बातों का वर्णन करुंगी, जिन पर विशेषकर लडकियों को ध्यान देना चाहिए ।

    लडकियां आधुनिक समय में अपनी भूतकाल की बहिनों की अपेक्षा बडी उम्र में विवाह करती है । इसका कारण यह है कि वे अधिकाधिक संख्या में उच्च शिक्षा के लिए जाने लगी है । उपाधि अथवा प्रशिक्षण प्राप्त करने की अवधि में वे पुरुष के सम्पर्क में आती है और अनेक परीक्षाओं का सामना करती हैं ।

    उन पर परीक्षा आती है कि बिना विवाह के अभिप्राय के, वे अपनी आकर्षण शक्ति का प्रयोग पुरुष का ध्यान खींचने मे करें । इस परीक्षा में गिरने से विपत्ति आ सकती है ।

    लडकियों को जानना चाहिए कि संवेगों का प्रभाव उन पर पुरुष की अपेक्षा अधिक समय तक बना रहता है । युवक के लिए सहज होता है कि किसी युवती से प्रेम करे और उसे सरलतापूर्वक भूल जाए । व दूसरों के साथ भी इसी प्रकार कर सकता है और उसके सांवेगिक जीवन को कोई हानि नहीं पहुंचती । यह इसलिए हेाता है कि अधिकांश युवकों का अभिप्राय सिर्फ शारीरिक संबंध हेाता है । वे यह संबंध उस सीमा तक रखते है, जहां तक लडकी स्वीकृति दे । सम्भव है कि उसके मन में प्रेम न हो किन्तु ऐसे संबंधों में लडकियां का संवेग जागृत हो जाता है । एक बार किसी पुरुष को प्यार कर, उसे अपने विचारों से अलग करना लडकी के लिए अत्यन्त कठिन है । कई लडकियों ने विवाह पश्चात भी इसे कठिन पाया है- इसी कारण उनका विवाहिम जीवन दुखद बना है । अतः सावधानी की बडी आवश्यकता है ।

    आपको नही भूलना चाहिए कि स्पर्श से जो परीक्षा आती है, वह बहुत बडी होती है । अतः आप किसी युवक को अपना हाथ पकडने की अनुमति न दीजिए- अपना चुम्बन लेने की तो और भी नहीं । एक बार इसकी अनुमति देने पर आपके लिए बहुत कठिन होगा कि व्यर्थ कल्पनाओं को मन में आने से रोकें- और तब एक कदम सहज ही दूसरे को बढावा देगा ।

    आपको यह भी स्मरण करना चाहिए कि आपकी युवक से मैत्री टूट जाने पर आपको ही उसकी अपेक्षा अधिक दुख सहना होगा । उस युवक के लिए आपको छोडकर किसी अन्य से विवाह करना सरल होगा । परन्तु आपके लिए उतना सहज नहीं होगा । आप पर कलंक लग जाएगा, परिणामस्वरुप भविष्य में साथी पाना अत्यधिक कठिन होगा । यह विशेषकर भारत में सत्य है । मैं सिर्फ उन्हीं के लिए नहीं कह रही हूँ जो युवक के साथ बाहर जाने और स्पर्श जैसे सम्बन्धों में फंस चुकी है । जिनका युवकों के साथ प्रेम संबंध शुध्द (चाहे सिर्फ पत्र व्यवहार ही होता हो), यदि वह दूसरों पर प्रगट हो गया (उनके पत्र व्यवहार की बात), तो उन्हे भी उतना ही सहना होगा । लडकियों को ज्ञात होना चाहिए कि उन्हें शीघ्र ही आघात पहुंच सकता है ।

    अनेक लडकियों का यही हाल हुआ है और प्रारम्भ में असावधान रहने के कारण उनका नाम कलंकित हुआ हे । इससे न सिर्फ उनकी ही साक्षी समाप्त हुई है, परन्तु परमेश्वर के नाम की भी निन्दा हुई है । बाइबल में अकारण ही नहीं कहा गया कि स्त्री निर्बल पात्र है और पुरुष की अपेक्षा शीघ्र ही बहकावे में आ सकती है (1पतरस 3 :7, 1 तीमु. 2 : 14)

    मैं दूसरा कारण दूंगी जिसके कारण आपको लडके से गहरी मित्रता नहीं बढानी चाहिए, जब तक आप निकट भविष्य में विवाह की न सोच रही हों । अविवाहित जीवन के वर्षों में ही आप परमेश्वर की सेवा स्वतन्त्रतापूर्वक बिना बाधा के कर सकती है । विवाह पश्चात आप अपने समय की स्वामिनी नही ंरह जाएंगी । यदि विवाह से पूर्व के वर्ष आपने सिर्फ युवक - मित्रों के ही दिवा स्वप्न में बिताए, तो आपने जीवन का एक महत्वपूर्ण काल खो दिया, जिसका परमेश्वर के लिए सदुपयोग हो सकता था । शैतान को अवसर न दीजिए कि वह आपको मार्ग से विचलित करें ।

    विवाह

    प्रायः सभी माताएं सहमत होंगी कि विवाह करने और माता बनने से उन्हें एक संतोष और पूर्णता का अनुभव हुआ, जो विवाह से पूर्व कभी नहीं हुआ था । मेरा अर्थ नहीं कि अविवाहित रहने के लिए बुलाई स्त्रियां इस पूर्णता से वंचित रहती है । एक मसीही लडकी को, चाहे वह विवाहित हो अथवा अविवाहित-परमेश्वर की इच्छा पूर्ण करने में संतोष का अनुभव करना चाहिए । और परमेश्वर के प्रति ऐसे आज्ञापालन में कुंवारी लडकी भी पूर्णता की अनुभूति कर सकती है । किन्तु स्त्री को अविवाहित जीवन की बुलाहट बहुत ही कम मिलती है । परमेश्वर ने स्त्री को इस अभिप्राय से बनाया कि वह प्राथमिक रुप से पत्नी और माता बने ।

    किसी युवती को यह नहीं सोचना चाहिए कि शादी कर लेने से उसकी परमेश्वर की सेवकाई सीमित हो जाएगी । जो लडकी मसीही कार्य में सक्रिय रही है उसे ज्ञात होता है कि विवाह के पश्चात उसकी स्वतन्त्र गतिविधियों पर रोक लग गई है और यहाँ वहाँ जाने की स्वतन्त्रता पर भी किसी सीमा तक प्रतिबन्ध है । विवाह में पुरुष को यह अनुभव नहीं होता परन्तु स्त्री को होता हे । अतः उसे जानना चाहिए कि विवाह के पश्चात परमेश्वर उससे दूसे प्रकार की सेवकाई चाहता है । निराशा और चिन्ता से बचे रहने के लिए आवश्यक है कि वह इस सच्चाई को स्वीकार करे । विवाह के उपरान्त उसकी प्रमुख बुलाहट गृहणी बनने की होगी । उसे अपने घर को अनेक आपद्ग्रस्त जवानों (और बडी उम्र के लोगों के लिए भी)के लिए शरण स्थान बनाना चाहिए तथा अपने बालकों को परमेश्वर के भय में बढाना चाहिए । ये ही कार्य उतने महत्वपूर्ण है जितने अविवाहित दिनों के अन्य कार्य ।

    जैसा किसी ने कहा है, उसी स्त्री के पास दूसरों को देने के लिए बहुतायत से होगा, जो विवाह से प्रसन्न है, जिसने यह समझ लिया है कि विवाह करने से उसके समय और शक्ति की मांग होगी तथा उसकी स्वतन्त्रता सीमित हो जाएगी । अपने घरेलू जीवन के अनुभव द्वारा और दूसरों के प्रति अधिक संवेदनशील होने के द्वारा वह ऐसे वातावरण का निर्माण कर सकती है, जिसमें मित्रता स्वाभाविक रुप से बढे । उसके वे अनुभव और संवेदनशक्ति, विवाहित जीवन के प्रेम के कारण ही होते है ।

    सुजाना वेसली कोई प्रचार करने वाली नहीं थी, तोभी वे भक्त माता थी । उन्होंने अपने कई बालकों को परमेश्वर के भय में बडा किया । उनके दो पुत्र जॉन और चार्ल्स, बडे होकर परमेश्वर के सामर्थी साधन हुए, जिनके द्वारा इंग्लंड में आत्म-जागृति आई । उस धार्मिक माता ने इस प्रकार अपने देश के लिए इतना अधिक किया, जितना वे अविवाहित रहकर कभी न कर पाती ।

    विवाह की तैयारी के लिए प्रत्येक लडकी को नीतिवचन 31 : 10-31 बार बार पडना चाहिए, तथा उस पर मनन करना चाहिए । यहाँ हमें आदर्श पत्नी का विवरण मिलता है । परमेश्वर का भय, उसके पूर्ण जीवन का भेद है (पद 30 ) । किन्तु ऐसे विवाहित जीवन की नेव शादी से बहुत पहले डल जाती है अतः यह अध्याय प्रत्येक मसीही लडकी के लिए चुनौती होना चाहिए । यहाँ लिखित प्रत्येक बात इतनी स्पष्ट है कि उसे समझने की तनिक आवश्यकता नहीं । अच्छें गुणों में से एक बताया गया है- मितव्ययता का गुण । आदर्श पत्नी वह है जो पैसे खर्च करने में सावधानी से काम लेती हैं । यह ऐसी आदत है, जिसका विकास प्रत्येक लडकी में होना चाहिए । आजकल विश्व विद्यालय की अनेक लडकियाँ अपव्ययी होती है । यदि आप मितव्ययता से अभी से काम लें, तो भविष्य में विवाह कर लेने पर आपको बडी सहायता मिलेगी । आपका वर्तमान अनुभव तब काम आएगा ।

    त्याग दूसरा गुण है जिसे प्रत्येक लडकी को शादी की तैयारी के लिए सीखना चाहिए । त्याग बिना कोई विवाह आनन्दमय नहीं बन सकता । यह बात लडकी के सम्बन्ध में विशेष रुप से लागू होती है । विवाह के उपरान्त, पुरुष की अपेक्षा उस पर त्याग करने के अधिक अवसर आएंगे । उसे कोई अधिकारों को छोडना होगा, जो कुंवारेपन मे प्राप्त थे । यदि शादी से पूर्व आप त्याग का अर्थ नही सीखतीं, तेा आगे चलकर आपको अत्याधिक कठिनाई होगी । अतः इस सीखने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना कीजिए ।

    सबसे महत्वपूर्ण तैयारी, जो एक लडकी शादी के लिए कर सकती है वह है प्रार्थना । विवाह की सम्भावना के दो तीन वर्षों पूर्व प्रत्येक मसीही लडकी को गम्भीरतापूर्वक नियमित रुप से अपने जीवन-साथी के लिए प्रार्थना करनी चाहिए । उसे प्रार्थना करनी चाहिए कि परमेश्वर अपने चुनाव के व्यक्ति तक उसकी अगुवाई करें । उसे परमेश्वर से निवेदन करना चाहिए कि बाकी सभी प्रस्ताव और माँंगे समाप्त हो जाएं । भारत में इसकी अधिक आवश्यकता है, क्योंकि बालकों के विवाह में-विशेष लडकियों के समय, माता-पिता ही समर्थन करनेवाले होते है । लडकी प्रार्थना करे कि परमेश्वर उसके माता पिता की अगुवाई करे- चाहे उनका नया जन्म न हुआ हो । निरन्तर विश्वास से माँंगने वालों की प्रार्थना का उत्तर परमेश्वर अवश्य आश्चर्यजनक रुप से देगा ।

    विवाह की तैयारी के लिए एक और व्यावहारिक सुझाव : अभी, जब भी समय मिले, आप पकाना सीखिए । सीख लेने पर विवाह के पश्चात् आप अनेक कठिनाइयों और लज्जा के अनुभवों से बच सकेंगी !

    गुणों की परख

    भावी पति में एक लडकी को क्या गुण देखना चाहिए? अध्याय 5 में प्रमुख गुणों का विवरण दिया जा चुका है । मैं कुछ बातें स्मरण दिलाना और जोडना चाहूंगी, जो लडकियों को ध्यान में रखना चाहिए ।

    लडकी को ऐसा साथी चाहिए जो उसकी रक्षा करें, उसकी सहायता करे, सांत्वना दे और कुछ सीमा तक उसे समझ सकें । उसे इतना मजबूत और परिपक्व होना चाहिए, जिस पर निर्भर रहा जा सके तथा जो उसमें हीनता की भावना न उत्पन्न करें । परमेश्वर ने स्त्री की सृष्टि की, कि वह पुरुष पर निर्भर रहे । उस व्यक्ति को ऐसा होना चाहिए जो आप में साहस उत्पन्न करें और जिस पर आप वास्तव में आश्रित हो सकें ।

    बाइबल में लिखां है, पत्नी भी अपने पति का भय माने (इफि. 5 : 33) । सम्मान से प्रेम उत्पन्न होता है । यदि पत्नी अपने पति का आदर न करे तो उसे प्रेम करना असम्भव हो जाएगा- हाँ, हो सकता है वह उसे दया की दृष्टि से देखे । यदि स्वयं से अधिक परिपक्व समझ पत्नी अपने पति का आदर न करे, तो वह उसे अपना अगुवा समझकर भी व्यवहार नहीं कर सकेगी । किसी व्यक्ति पर ध्यान देते समय स्वयं प्रश्न कीजिए-क्या आपमें उसके प्रति इतनी श्रध्दा और आदर है कि उसे जीवन भर सम्मानपूर्वक देख सकती है? ऐसी श्रध्दा से वैवाहिक जीवन की अनेक समस्याएं हल हो सकती है ।

    मैं समझती हूँ कि किसी व्यक्ति के स्वभाव का शत प्रतिशत अनुमान लगाना सम्भव नहीं । किन्तु उक्त बातों और अध्याय 5 में कही गई बातों द्वारा आपको पर्याप्त निर्देश मिलना चाहिए, जिससे आप परमेश्वर के चुने हुऐ व्यक्ति को पहचान सकें । कभी किसी देसे व्यक्ति से विवाह न कीजिए, जिसका आपको थोडा या कम ज्ञान न हो । हमारे देश मे कई लडकियाँ ऐसे व्यक्ति से विवाह करती है, किन्तु आप न कीजिए । विवाह जीवन भर का संबंध है जिसे बदला नहीं जा सकता अतः इसे खेल नहीं समझना चाहिए ।

    आप शायद सोचें कि यदि माता पिता किसी अविश्वासी अथवा अयोग्य व्यक्ति का चुनाव करें, तब आपको क्या करना चाहिए । ऐसी परिस्थिति में युवकों की अपेक्षा लडकियों के लिए माँ बाप को न कहना अधिक कठिन होता है- यह मैं स्वीकार करती हूँ । तोभी आवश्यक है कि आप दृढ रुप से किन्तु प्रेम के साथ अपने विश्वास के लिए स्थिर रहें । ऐसा करने के लिए परमेश्वर आपको आदर देगा । शैतान आपको परीक्षा में डाल सकता है । वह ये विचार आपके मन में डाल सकता है कि आपका भविष्य कितना असुरक्षित होगा, अतः अविश्वासी साथी से विवाह कर लें । परन्तु उसकी न सुनिए । परमेश्वर की आज्ञा पालन से आज तक किसी की हानि नहीं हुई है । इसलिए डरने की आवश्यकता नहीं । यदि आप परमेश्वर का आदर करेंगे और उस पर निर्भर रहेंगे, तो वह आपको नीचे नहीं गिरने देगा । वह आपको अपने नियुक्त समय मे सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति देगा । आप उसे खोना नहीं चाहेंगे न ?

    स्त्री धन माँग के प्रश्न पर विचार किया जा चुका है । मैं यहाँ इतना जोडना चाहूंगी कि ऐसा धन माँगने वाले पुरुष से विवाह करने के लिए मसीही लडकी पुनः सोचें । उसमें शायद आपसे अधिक आपके पैसे की चाह होगी । ऐसे ही किसी पुरुष पर उस के धन अथव पद के कारण मोहित मत होइए । बाइबल हमें स्मरण दिलाती है कि धन प्रेम का स्थान भी सकता (श्रेष्ठ 8 : 7) /

    जीवन पर्यन्त अविवाहित रहनेवाली स्त्रियों के लिए

    यह अध्याय उस समय तक अपूर्ण रह जाएगा, जब तक कुंवारी बनी रहने वाली लडकियों के लिए कुछ लिखा न जाए ।

    भारतीय समाज में ऐसा वास्तव में बहुत ही कम होता है कि लडकी दृढतापूर्वक कुंवारी होना चुने । ऐसा जीवन तभी चुना जाना चाहिए, जब परमेश्वर की स्पष्ट अगुवाई प्राप्त हो-क्योंकि सिर्फ इसी बुलाहट के सहारे आप परीक्षा के समय स्थिर रह सकेंगी । कुछ लडकियों के लिए यह अस्थायी बुलाहट होगी, ताकि कुछ वर्षों तक वे गृहस्थी के संकट से बच कर परमेश्वर की विशेष सेवकाइ कर सकें । बाद में उन्हें विवाह का मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता है ।

    इसे पढनेवाली कुछ स्त्रियाँ ऐसी भी होंगी, जिन पर उनकी इच्छा के विरुध्द अविवाहित जीवन लादा गया होगा । आपके लिए यह कितना कठिन होगा कि अपने घराने, या उस व्यक्ति अथवा परिस्थिति के प्रति क्रोध न करें, जिनके कारण आप इस स्थिति तक पहुंची है! स्वयं के लिए दुःख का अनुभव न करना भी कितना कठिन होगा, जब कि आपकी सभी स्त्रियोचित स्वाभाविक इच्छाएं किसी का प्रेम पाने और किसी को प्रेम करने को लालायित रहती है! तोभी, चाहे आप पर कितना कठिन ही अन्यायपूर्ण व्यवहार क्यों न हुआ है, क्रोध और स्वयं पर दया करना सदैव गलत है । यह आपके व्यक्तित्व पर हानिकर प्रभाव भी डाल सकता है । इन्हें अंगीकार कर त्याग देना चाहिए । इनसे शुध्द होकर आप परमेश्वर की संगति पुनः प्राप्त कर सकेंगी । आप परमेश्वर के सर्वाधिकार पर अपने भूत, वर्तमान तथा भविष्य के लिए दीनतापूर्वक निर्भर रह सकेंगी । वह आश्चर्यजनक उपायों से आपकी परिस्थितियों को परिवर्तित करने में समक्ष है । किन्तु यदि ऐसा न हो, तोभी आप निश्चय जान सकती है कि जिस बुलाहट में आप हैं, वहाँ उसने आपके लिए श्रेष्ठ उपाय किया है । उसके अनुग्रह का धन आपका अनन्त भाग होगा, जिसके द्वारा आपकी कमी की आवश्यकता से आर्थिक पूर्ति होगी ।

    जरुरी नहीं कि आप अपनी विवाहित बहिन से जलन रखते हुए जीवन व्यतीत करें । निस्सन्देह उसे कई ऐसे सौभाग्य प्राप्त है, जो आपको नहीं प्राप्त है । किन्तु यह भी न भूलिए कि आपको भी कई सौभाग्य प्राप्त है जो उसे नहीं है । 1 कुरिन्थियो 7 : 34 में प्रगट है कि आप उसकी अपेक्षा अधिक बाधाओं के बिना परमेश्वर की सेवा में लगी रह सकती है । आप कई क्षेत्रों में फलवन्त रुप से कार्य कर सकती है-जैसे, बालकों की सेवा और जवानों की सेवा । अपने अनुभव के कारण, आप जीवन के रणक्षेत्र में कटु अनुभव प्राप्त करने वालों से सहानुभूतिपूर्ण मित्रता रख सकती है ।

    फिर भी आप पर परीक्षाएं किसी न किसी प्रकार से आएंगी ही, जैसे सभी पर आती है । स्त्री की संवेदन और विचारशील प्रकृति है, जिस पर शैतान सरलतापूवक आक्रमण करता है । परमेश्वर सच्चा है वह तुम्हें सामर्थ्य से बाहर परीक्षा में न पडने देगा, वरन परीक्षा के साथ निकास भी करेगा, कि तुम सह सको (1 कुरि. 1 : 13) । परमेश्वर के प्रेम, सर्वाधिकार और उसकी विश्वास योग्यता पर अटल भरोसा, ऐसी ढाल है जिससे शैतान के सब जलते हुए तीरों को बुझाया जा सकता है (इफि 6 : 16)

    अपने जीवन की मध्यावधि में कई अविवाहित स्त्रियाँ कडूआहट से भर जाती है, और संकुचित प्रवृत्ति की हो जाती है, किन्तु यह जरुरी नहीं है । आपका जीवन सतत प्रेम से परिपूर्ण हो सकता है जिससे अन्यों को अपार आशिष मिल सकती है । किन्तु यह तभी होगा - जब आप परमेश्वर की आराधक हों, उसके उपायों को हर्षपूर्वक स्वीकार करती हों, और छोटे से भी दयापूर्ण कार्य के लिए मनुष्य तथा परमेश्वर का आभार मानती हों ।

    अकेले जीवन बिताने वाली स्त्रियों के कई उदाहरण है जिन्होंने कलीसिया में विशिष्ट सेवकाई पूर्ण की । पंडिता रमाबाई (विधवा) ने केडगांव (मध्य भारत) मुक्ति मिशन की स्थापना की - यह एक अभूतपूर्ण उदाहरण है । एक अन्य उदाहरण डोनावर की ऐसी कारमाइकल है, जो भारत को आने वाले भक्त मिशनरियों में से एक थी । उनके निधन के कई वर्षों पश्चात, आज भी उनके जीवनों से आािशष का स्त्रोत प्रवाहित हो रहा है । ये तो अनेक में से सिर्फ दो ही उदाहरण हैं ।

    महत्वपूर्ण बात वास्तव में यह है कि अपने जीवन के लिए परमेश्वर की बुलाहट जानिए । यह बुलाहट जो भी हो- उसे पूर्ण कीजिए । इसी में सच्ची शान्ति निहित है ।

    हमारी निर्बलता में उसकी सामर्थ्य

    यह जानकर कि हम निर्बल यौन है, हमें परमेश्वर से और अधिक लिपटना चाहिए जिसने कहा, मेरा अनुग्रह तेरे लिए बहुत है (2 कुरि. 12 : 9) यह न भूलिए कि परमेश्वर ने एक विशिष्ट कार्य पूर्ति के लिए नारी की सृष्टि को । काश इसकी पूर्ति आपके जीवन द्वारा हो !

    अध्याय 8
    विवाह की घडी गिनना

    दस, नौ, आठ, सात, छः पाँंच ........... । राकेट दागते समय जब गिनती शून्य तक पहुँच जाती है, तब वहाँ दर्शकों के समूह का जोश दुगुना हो जाता है । चांद तक एक और समानव उडान प्रारम्भ होने पर है । आज के दिन के लिए महीनों से सूक्ष्म तैयारी हो रही है और अन्तिम क्षणों तक कल पुर्जों की जाँच अब भी जारी है । इसमें थोडी सी भी असावधानी से- मनुष्यों के जीवन को खतरा पहुंच सकता है ।

    अन्तरिक्ष उडान से बढकर विवाहित जीवन साहसिक कार्य तथा खतरनाक हो सकता है । इसे सरल जानकर असावधानी से काम नहीं लेना चाहिए । तैयारी अनिवार्य है ।

    जैसे अन्तरिक्ष यान के प्रस्थान से पूर्व उसमें लाखोें की संख्या में निहित कलपुर्जो की सूक्ष्म जांच प्रारम्भ की जाती है तथा संख्या पुकारी जाती है, वैसे ही विवाह के कुछ महीनों पूर्व एक दिन निर्धारित करना चाहिए, जब इस प्रकार की तैयारी आप प्रारम्भ करें (यह निश्चित दिन मंगनी का हो सकता है) । इस समय सबको खुले में सूचना देनी चाहिए कि अमुल युवक और युवती का विवाह होने जा रहा है । उस समय से लेकर विवाह का दिन निकट आते आते, दोनों साथियों के लिए उत्साह से पूर्ण होना स्वाभाविक हेागा । किन्तु इस उत्साह को शादी की तैयारी में बाधक नहीं बनना चाहिए ।

    मंगनी से मुख्य लाभ यह है कि इससे विवाह के पूर्व दोनों को एक सीमा तक परस्पर जानकारी का अवसर मिलता है । वे दोनों बदनामी के भय के बिना पत्र व्यवहार कर सकते और मिल सकते है । इससे प्रत्येक को दूसरे के घराने उसके सदस्यों और उनकी पृष्ठभूमि से परिचित होने का अवसर मिलता है । यह भारत में अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि हमारे देश में विवाह से दो घरानों का भी सम्बन्ध जुड जाता हैं ।

    निष्कपटता और विश्वासयोग्यता

    मंगनी और शादी की मध्यावधि में दोनों साथियों के बीच स्वतन्त्रता और स्पष्टतापूर्वक वार्तालाप होना चाहिए । दोनों को निष्कपटतापूर्वक अपनी-अपनी पूर्व मित्रता और प्रेम संबंधों को स्वीकार करना चाहिए (यदि विरुध्द यौन से शारीरिक संसर्ग हुआ, तो वह भी बताना चाहिए) । कुछ लोगों का विचार हो सकता है कि इन तथ्यों की स्वीकृति से विवाह संबंध टूटने की सम्भावना होगी । परन्तु मसीही विवाह में यदि दोनों साथी ज्योति में न चले तो वे एक दूसरे से सहभागिता नहीं रख सकते (1 युहन्ना 1 : 7 का सिध्दान्त यहाँ भी लागू होता है) । यदि वे आरम्भ से ही अपने जीवन की बातों को छिपायेंगे, तो उनका विवाहित जीवन कितना धोखे पूर्ण होगा ! यदि आप ज्योति में चलते है, तो भय की कोई आवश्यकता नहीं । जब किसी क्षेत्र को अन्धकार में रख जाता है, वहाँ शैतान प्रवेश कर अवश्य नाश करता हैं ।

    सुनी हुई बातों पर विश्वास करने में भी सावधान होना चाहिए । मैने लोगों के ऐसे उदाहरण देखें है (या तो जलनवश अथवा इसी के समान अन्य अभिप्रायों से) जहाँ अन्यों ने एक साथी के किस्से दूसरे को सुनाए है, और विवाह न करने की सलाह दी है । इसके कारण कई विवाह प्रस्ताव टूटे क्योंकि एक साथी ने यह ध्यानपूर्वक नहीं जांचा कि दूसरे साथी के विषय में वर्णित किस्से कहां तक सच हैं । साधारणतः ऐसे किस्से या तो पूर्णतः गलत होते है अथवा इनमें आंशिक सत्यता होती है । बिना अपने साथी से प्रश्न कर पक्का किये बिना दोनों केा आपस के इन किस्से पर विश्वास नहीं करना चाहिए । भोला तो हर कए बात को सच मानता है (नीति 14 : 15) । प्रभु यीशु मसीह के लिए कहा गया था कि वह मुंह देखा न्याय न करेगा, न ही कानों के सुनने के अनुसार निर्णय करेगा, परन्तु धर्म से ही निर्णय करेगा (यशा. 11:3,4) । यह सब समय सब विश्वासियों पर लागू होना चाहिए । मंगनी किये हुए जोडे पर यह अधिक लागू होना चाहिए । उन्हें अपने मन में एक दूसरे के प्रति संदेह का बीज बोने का अवसर शैतान को नहीं देना चाहिए । यदि आपस में विश्वास की कमी है, तो विवाह न करना ही भला है ।

    यदि एक साथी यह स्वीकार करे कि उसका जीवन भ्रष्टाचारी और व्यभिचारी रहा है परन्तु अब वह मसीह में नया व्यक्ति है तब क्या करना चाहिए? बाइबल में लिखा है, जो कुछ परमेश्वर ने शुध्द ठहराया है, उसे तू अशुध्द मत कह (प्रेरितो 10 : 15) । यदि हमें निश्चय है कि नये जन्म के बाद से उस व्यक्ति के जीवन में सच्चा परिवर्तन आया है तो उसके भूतकालिक अपराधपूर्ण जीवन के आधार पर ही उसे अस्वीकार करना, न्यायपूर्ण नहीं । आखिर, परमेश्वर ने हमें भी कीचड भरे गडढे से निकाला है । हमें लोगों को परमेश्वर के दृष्टिकोण् से देखना चाहिए । क्या वह मसीह के लोहू में शुध्दता पाए व्यक्ति को अपवित्र समझता है? नहीं । तो हम भी नहीं समझ सकते । हम तभी व्यक्ति के नये जन्म के पूर्व जीवन के आधार पर न्याय करते रहते है, जब हममें पर्याप्त समझ नहीं होती कि प्रभु यीशु के लोहू की सामर्थ से व्यक्ति धर्मी बन गया है (उसे पापों की क्षमा मिली है । वह धमी है, मानो उसने पूर्ण जीवन भर पाप न किया हो- रोमि. 5:6) ।

    माता-पिता से लगाव

    मंगनी ने बाद के समय से यह भी लाभ है कि दोनों साथियों को अपने माता-पिता से अनावश्यक लगाव समाप्त करने का अवसर मिलता है । विवाह के पश्चात भी माता-पिता से प्रेम करने और उनकी चिन्ता करने में कोई बुराई नहीं । वास्तव में यह धर्म शास्त्र की शिक्षानुसार है । किन्तु एक अथवा दोनों साथियों का, अपने माता-पिता से अत्याधिक लगाव होने के कारण कई विवाह असफल रहें है ।

    जो आजीवन अपने माता-पिता के साथ घर पर रहे और कभी विलग नहीं हुए, उनमें दूसरों की अपेक्षा यह प्रवृत्ति अधिक होती है । परन्तु बाइबल में यह शिक्षा अत्यन्त स्पष्ट दी गई है । इस कारण् पुरुष अपने माता‘-पिता को छोडकर अपनी पत्नी से मिला रहेगा और वे एक ही तन बने रहेंगे (उत्पत्ति 2 : 24) । यह स्त्री पर भी लागू होता है । भजन 45 : 10 पढिए ।

    साथ बाहर जाना

    जहाँ मंगनी किए जोडे केा मिलने के कई अवसर मिलते है, क्या उनके लिए अकेले बाहर जाना और शारीरिक स्पर्श की आदत में पडना उचित है? हमें पुनः अध्याय 2 में वर्णित सिध्दान्त ध्यान में रखना चाहिए । मैं कहुंगा कि भारत में मंगनी के पश्चात भी दोनों साथियों का अकेले बाहर जाना ठीक नहीं । हाँ, मंगनी के उपरान्त तो स्वाभाविक है कि वे दोनो अकेले में मिलना और बातचीत करना चाहेंगे । किन्तु यह दोनों में से किसी एक घर अथवा मित्र के घर पर होना चाहिए, जहाँ दोनों बैठकर बातें कर सकें । यदि दोनों अकेले स्थान में स्वयं ही मिलने जाएं, तो लोग अफवाह उडाएंगे और यौन परीक्षाओं का भी द्वार खुला रह सकता है ।

    स्पर्श के लिए में निस्संकोच कहूंगा कि यह गलत है । मंगनी से यौन कार्यो के अभ्यास का अधिकार लेखा नाहीं प्राप्त हो जाता । प्रत्येक काम का उचित समय होता है, गले लगाने का समय, और लगाने से रुकने का भी समय है (सभो. 3 : 5) । लगाने का समय विवाह के पश्चात् हे । यहाँ धीरज धरिए और आपको ज्ञात होगा कि आपका वैवाहिक जीवन कितना अधिक आनन्दपूण है, क्योंकि उसमें पछताना नहीं होगा । जहाँं जोडे स्पर्श और आलिंगन शादी से पूर्व करते है, वहाँ सम्भावना होती है कि उनके व्यक्तिगत संबंध भ्रष्ट हो जाएं उनके बीच विचारों में तनाव बढ सकता है । उनके एक साथ प्रार्थना का जीवन समाप्त हो सकता है (क्योंकि प्रार्थना का स्थान स्पर्श और आलिंगन लेगा) । विवाह के पूर्व उनका यौन संसर्ग ही हो सकता है ।

    मंगनी टूटने की सम्भावना पर भी ध्यान देना चाहिए । यदि स्पर्श का सम्बन्ध रहा हो, तो मंगनी टूटने पर लडकी को दुःख होगा कि उनके लडके को अपना शरीर स्पर्श करने की अनुमति दी । अतः जैसे मैने अध्याय दो में वर्णन किया- यदि युवक आवश्यकता से अधिक आगे बढना चाहे, तो लडकी को रोकना चाहिए, क्योंकि अन्त में उसी को लडके से अधिक कष्ट सहना होगा । आलिंगन अस्वीकार कर उसे भय की आवश्यकता नहीं कि वह युवक को खो देगी । यदि सचमुच विवाह योग्य पुरुष है, तो आपके ऐसे व्यवहार से दुखी नहीं होगा, अपितु इसके विरुध्द आपका अधिक आदर करेगा । यदि वह दुखी हो तो प्रगट है कि वह लडकी के योग्य नहीं ।

    असझौता और कठिनाइया

    कई मंगनी लिए जोडे समझते है कि यदि छोटी बातों पर दोनों में समझौता न होने पाए, तो यह दर्शाता है कि वे एक दूसरे के योग्य नहीं । वे प्रश्न करने लगने है कि मंगनी के बाद शादी करना उचित है अथवा नहीं । किन्तु यदि कोई व्यक्ति इस विचार को रखते हुए विचार करे कि उसका अपने साथी से कभी समझौता नहीं होगा, वह स्वप्न संसार में जी रहा है । वह वास्तविकता से अधिक परियों की कथा से प्रभावित है । सर्व सिध्द विवाह में भी सर्वाधिक आत्मिक लोगों के मध्य, कभी न कभी असहमति होगी ही । यह इसका चिन्ह नहीं कि दोनों एक दूसरे के अयोग्य है अथवा विवाह परमेश्वर के इच्छानुसार नहीं हुआ । यदि ऐसा होता, तो परमेश्वर द्वारा नियुक्त विवाह कहीं होता ही नहीं । विवाह में कभी कोई विचारों में भिन्नता अथवा छोटी बात पर भी असहमति तभी नहीं होती, जब दोनों में से कोई एक साथी यन्त्रवत कार्य करने वाला व्यक्ति होता जिसमे स्वयं की इच्छाशक्ति नहीं होती । इसके विरुध्द ये असमझौते प्रत्येक व्यक्ति में जीवन के स्वाभाविक लक्षण है, किन्तु शर्त यह है कि दोनों में स्वयं को नम्र बनाने और एक दूसरे से क्षमा मांगने की योग्यता हो । पुरुष को भी स्त्री के समान ही क्षमा मांगने में तत्पर होना चाहिए । भारतीय समाज में पुरुष के लिए क्षमा मांगना लज्जास्पद समझा जाता है- परन्तु एक मसीही के लिए ऐसा नहीं होना चाहिए । जो पुरुष अपनी पत्नी से क्षमा याचना करने को तैयार न हो, उसे कभी विवाह नहीं करना चाहिए ।

    मंगनी के बाद अन्य बाहय कठिनाइयाँ या समस्याएं उठ सकती है । इनसे कभी- कभी विवाह में देर हो सकती है अथवा दोनों साथियों को दुःख पहुंच सकता है । उदाहरणार्थ, माता-पिता की असहमति अथवा पैसे की समस्याएं आ सकती है । इन्हें निराशा और दुःख उत्पन्न करने का अवसर नहीं देना चाहिए । किन्तु, स्वीकार करना चाहिए कि इनसे प्रेम संबंध दृढ हो सकता है तथा भविष्य के घर की नेव गहरी हो सकती है । परमेश्वर को ज्ञात है- आप कितना सह सकते है और वह तुम्हें सामर्थ से बाहर परीक्षा में न पडने देगा (1 कुरि? 10 : 13) । वह अपने समय में प्रत्येक लाल समुद्र में आपके लिए मार्ग बनाएगा, तथा उस स्थान तक जयपूर्वक ले जाएगा, जो उसने आपके लिए तैयार किया है (निर्ग? 14) । इसलिए परमेश्वर पर भरोसा रखिए और हिम्मत न हारिए ।

    मंगनी कब तक ?

    मंगनी के बाद कितने समय तक ठहरना चाहिए? कोई नियम नहीं दिए जा सकते, पर जहां जोडे एक स्थान में हों, तथा उन्हें बार-बार मिलने का अवसर मिलता हो, उनके लिए उचित नहीं कि छः माह से अधिक ठहरें । यदि वे एक-दूसरे से दूर हों, तो यह अवधि सामान्यतः एक वर्ष के अधिक की नहीं होनी चाहिए । क्योंकि मंगनी के पश्चात दोनों के संवेग तीव्र होंगे । यदि अधिक समय तक ऐसा ही रहा, तो मानसिक तनाव बढ सकता है ।

    आई लव अ यंग मैन में वाल्टर टॉबिस्क ने मंगनी के इस समय की तुलना उस अवधि से की है, जब बालक माँ के पेट में रहता है । उसने विवाह के दिन की तुलना उस दिन से की है, जब शिशु वास्तव में इस संसार में जन्म लेता है और सब उसे देखते है । किन्तु जन्म के पूर्व, कई माह की तैयारी और बढती पेट में हो चुकी थी । यह सचमुच सुन्दर उदाहरण है कि मंगनी का समय कैसा होना चाहिए ।

    मंगनी नियमित अथवा अनियमित हो, यह विवाह करने की एक गम्भीर प्रतिज्ञा है- इसे सरल नहीं समझना चाहिए । बाइबल में लिखा है परमेश्वर के समीप रहने वाला व्यक्ति वह है जो शपथ खाकर बदलना नहीं चाहे हानि उठानी पडे (भजन 15 : 4) । झूठों से यहोवा को घृणा आती है, परन्तु जो विश्वास से काम करते है, उनसे वह प्रसन्न होता है (नीति 12 : 22) । मसीही के हा कहने का अर्थ हां और नहीं कहने का अर्थ नही होनी चाहिए (मत्ती 5 : 36, याकूब 5 :12)

    क्या मंगनी तोडना उचित है, जब कुछ नई बातों के प्रकाश में आने से विवाह के औचित्य पर संदेह होता है? यदि व्यक्ति का नया जन्म नहीं हुआ है तो आपको तत्काल ही मंगनी तोडनी चाहिए, यद्यपि नये जन्म के अनुभव को मंगनी के पूर्व ही सत्य प्रमाण्ति किया जाना चाहिए था- यदि इस प्रतिज्ञा को तोंडे, तोभी उक्त परिच्छेद की आज्ञा को नहीं तोडेंगे- क्योंकि इस विवाह से न सिर्फ आपकी, किन्तु संसार में परमेश्वर के कार्य की भी हानि होगी । आपको 2 कुरिन्थियों 6 : 14 से अगुवाई लेनी चाहिए ।

    यदि दुसरा साथी नया जन्म पाया हुआ हो तो सिर्फ इसी आधार पर मंगनी तोडनी चाहिए यदि वह आपके प्रति अविश्वसनीय निकला हो, अथवा किसी गम्भीर असमानता का पता चला हो, जैसे प्रमुख विषयों पर गहरे सैध्दान्तिक मतभेद । परमेश्वर निश्चयपूर्वक उन अविवेकी विश्वासियों का आदर नहीं कर सकता, जो किसी व्यक्ति को वचन देकर यह कह कर तत्काल ही मुकर जाते है कि अब उन्हें परमेश्वर की इच्छा का निश्चय नहीं है मुझे एक व्यक्ति के विषय में ज्ञात है जिसने मंगनी इसलिए तोडी क्योंकि वह विदेश जाना चाहता थ । इससे लडकी कठिनाई में फंसी । उसके घराने के लोग अन्य युवक से उसका विवाह नहीं कर सकें । इस प्रकार के व्यवहार के लिए अधिकतर पुरुष स्त्रियों की अपेक्षा दोषी हैं । मसीही यीशु के नाम पर ऐसे अस्थिर व्यक्ति कलंक है । वचन देने के पहले सौ प्रतिशत निश्चय कीजिए । निश्चय न हो, तो ठहरिए । पर अपने चंचल मन के कारण दूसरों का जीवन नष्ट न कीजिए । मन्नत मानकर पूरी न करने से मन्नत का न मानना ही अच्छा है (सभो. 5 : 5)

    सलाह ढूंढना

    विवाह करने वालों के लिए अति उचित है कि कम से कम एक विवाहित विश्वासी से, जो उसी के यौन का हो और जिस पर भरोसा रखा जा सके, विवाहित जीवन पर सलाह लें । ये सलाहें अत्यधिक महत्वपूर्ण सिध्द हो सकती है ।

    दोनों साथियों को यौन अंशों की रचना, शरीर-विज्ञान, सन्तानोत्पति के सिध्दान्त और विवाह के शारीरिक पहलू का सामान्य ज्ञान होना चाहिए । इस संबंध में वे समान यौन के डॉक्टर से (विश्वासी हो, तो अच्छा) सलाह ले सकते है । अने विवाहित जोडे, यौन संबंधों में ठीक सामंजस्य स्थापित न कर सकने के कारण नैराश्य अनुभव करते है- यह बहुधा उनकी अज्ञानता के कारण होता है । टुवर्ड्स क्रिश्चियन मेरिज -डब्लू मेलविल कापर और एच. मॉरगन विलियम्स द्वारा लिख्ति पुस्तक में, आपको यौन रचना और शरीर विज्ञान की जानकारी प्राप्त हो सकती है ।

    विवाह की योजनाएं

    दोनों साथियों को वार्तालाप कर अपने विवाह की छोटी से छोटी योजना बनानी चाहिए । उन्हें इसके पश्चात अपने माता-पिता और पास्टर को बताना चाहिए कि विवाह के संचालन संबंधी उनकी क्या इच्छाएं है । प्रत्येक विश्वासी ऐसे साधारण विवाह पर जोर दे, जिससे मसीह को महिमा मिले तथा जिसमें अन्यजाति प्रथाएं और रिवाज शामिल न हों । अत्यंन्त दुःख की बात है कि भारत के मसीही विवाहों में उन प्रथाओं का समावेश है, जो हिन्दू धर्म से ली गई है । यह लज्जाजनक बात है कि विश्वासी भी बहुदा इन अन्यजाति की रीति-रिवाजों के अधीन हेा जाते है । स्पष्ट है कि वे परमेश्वर को चोट पहुंचाने, दुःखी और असम्मानित करने (सम्भवतः परमेश्वर के भय से अधिक अपने रिश्तेदारों का भय मानते है और इस प्रकार उन सृजनहार की उपासना के बदले वे सृष्टि की उपासना करते है-रोमियों 1 : 25) की फिक्र ही नहीं करते । यदि आप इस अवसर पर अन्यजाति के रीति-रिवाजों के लिए द्वार खुला छोडते है, तो परमेश्वर की उपस्थिति और आशिष की आशा भी नहीं कर सकते । परमेश्वर के वचन से लिपटे रहिए तथा किसी भी कीमत पर उन रिवाजों से मसझौता करना अस्वीकार कीजिए- परमेश्वर इसके लिए आपको आदर देगा ।

    विवाह, दोनों दूल्हा-दुल्हन को उपयुक्त, अवसर प्रदान करता है कि वे मसीह में अपने विश्वास की छोटी साक्षी दें । इस अवसर से चूकना नहीं चाहिए अपितु परमेश्वर के लिए इनका सदुपयोग करना चाहिए । इन सब पर पहले से ही माता-पिता और पास्टर के साथ बातचीत होनी चाहिए, और इसी के अनुसार विवाह की योजना बननी चाहिए ।

    विवाह के पश्चात

    विवाह के एक दम उपरान्त, अथवा उसके पश्चात जितना शीघ्र सम्भव हो, नवदम्पत्ति को किसी एकान्त स्थान पर साथ जाना चाहिए, जहां वे कम से कम एक सप्ताह तक अकेले एक दूसरे के साथ और परमेश्वर के साथ रह सकें । ऐसा समय बडा महत्वपूर्ण हो सकता है । यदि यह असम्भव प्रतीत होता है तो इसके लिए प्रार्थना कीजिए और देखिए कि परमेश्वर आपके लिए क्या उपाय निकाल सकता है । इस उपाय से आपको आश्चर्य ही होगा ।

    विवाह के उपरान्त नव दत्पत्ति के लिए सदैव अच्छा हे कि उनका अलग घर हो, और वे अपने किसी रिश्तेदार के साथ न ठहरें । भारत में आर्थिक अथवा अन्य कारणों से यह सदैव सम्भव नहीं होता । परन्तु जहां तक हो सके यही लक्ष्य होना चाहिए ।

    हमने विवाह की तैयारी में ध्यान देने योग्य मुख्य बातों पर विचार कर लिया । इनमें से प्रत्येक को गम्भीरतापूर्वक लेना चाहिए । याने की अन्तरिक्ष में सफलता पूर्वक भेजना उन सावधानीपूर्वक की गई तैयारियों पर निर्भर होता है जो वास्तविक घडी आने से पूर्व होती है । इसी प्रकार सफल विवाह की नेव विवाह के दिन से बहुत पूर्व ही डाली जाती हैं ।

    अध्याय 9
    आनन्द का मार्ग

    प्रेम, यौन और विवाह के क्षेत्र में आनन्द का एक मार्ग है । परमेश्वर चाहता है- हम इसी पर चलें । किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि अनेक लोग दुःख के पथ से होकर जाना अधिक पसन्द करते है ।

    इस विषय सम्बन्धी बातें स्पष्ट कर दी गई है । आपका काम है- चुनाव करना । आपका हृदय परमेश्वर के ही समक्ष खुला है । सिर्फ आपके और परमेश्वर के अतिरिक्त कोई नहीं जानता कि आप अपने दिल में क्या निर्णय करते है । किन्तु इन्हीं निर्णयों पर यह निर्भर होगा कि आपका जीवन कितना प्रभावोत्पादक तथा आशिषपूर्ण बनेगा । यदि हम परमेश्वर के राजमार्ग पर चलें तो हमें इसकी कीमत चुकानी पडेगी- यह कीमत प्रत्येक कदम पर परमेश्वर का आज्ञापालन होगा-क्योंकि आनन्द का राजमार्ग पवित्रता का राजमार्ग भी है (यशा 35 : 8 और 10 की तुलना कीजिए ।)

    परमेश्वर ने इस राजपथ के दोनों ओर बाडा बांधा है । बाइबल में चितौनी है कि जो भी इस बाडे को तोडेगा-सर्प उसे डसेगा (सभो. 10 : 8) । अदन की वाटिका में भी परमेश्वर ने एक वृक्ष पर प्रतिबन्ध लगाया था । किन्तु शैतान ने हव्वा को उस वृक्ष के फल की सुन्दरता दिखाई । उसने उस फल को खाने का लाभ बताया तथा निश्चय दिलाया कि यदि वह उसे खाए तो उसका परिणाम नहीं सहना होगा । हव्वा उस प्रतिबंध को तोडने के प्रलोभन में पढ गई और शीघ्र ही उस पुराने सर्प, शैतान ने उसे काटा ।

    प्रेम, यौन और विवाह के क्षेत्र में भी परमेश्वर ने प्रतिबंध लगाया । ये प्रतिबंध बाइबल में स्पष्ट दर्शित है । इसलिए इन्हें पुस्तक में भी बताया गया है ।

    तोभी शैतान लाखेां जवानों (और वयस्कों को भी) को इस प्रलोभन में डालने में सफल रहा है कि वे परमेश्वर का राजमार्ग छोड दें । उसने बहकाया है कि लोग परमेश्वर के बाडे को तोड दे और परमेश्वर ने जो कुछ मना किया है, उसमें सहभागी हों । इन मनुष्यों को बाद में ज्ञात होता है कि सर्प का काटना आज भी उतना ही विषैला है, जितना हमारे आदि माता-पिता के समय में था ।

    हमारी सुरक्षा इसी में है- हम परमेश्वर के वचन का कठेारतापूर्वक पालन करें,परमेश्वर के स्वयं बनाये प्रतिबन्धों का आदर करें । हम उन्हें तोडने से बचे रहें । ऐसा न हो कि तू अपने अन्तिम समय में जब कि तेरा शरीर क्षीण हो जाए, तब यह कहकर हाय मारने लगे, कि मैने शिक्षा से कैसा बैर किया, और डांटने वाले का कैसा तिरस्कार किया! मैने अपने गुरुओं की बातें न मानी और अपने सिखानेवालों की ओर ध्यान न लगाया । मैं सभा और मण्डली के बीच में प्रायः सब बुराइयों में जा पडा (नीति 5 : 11-14)

    हम कभी परमेश्वर केा ठटठों में नही उडा सकते (गल. 6 : 7)

    उभडता हुआ प्याला

    दूसरी ओर, काना का विवाह हमें उस आशिष की एक झलक दिखाता हैं, जो परमेश्वर को सम्मानित करने से आती है (यूहन्ना 2 : 1-11) । यह महत्वपूर्ण है कि विवाह के अवसर पर ही, प्रभु यीशु ने प्रथम बार अपनी महिमा प्रकट करने का निश्चय लिया । आज भी, वह प्रत्येक विवाह में अपनी महिमा प्रकट करने की इच्छा रखता है । प्रेम, यौन और विवाह, उसके दिए बहुमूल्य वरदानों में से एक है । यह वह साधन बन सकता है जिसके द्वारा वह अपनी महिमा न सिर्फ हम तक किन्तु हमारे द्वारा अन्यों तक भी प्रकट करे । यह तभी हो सकता है, जब हम उसे अवसर दें ।

    काना में दाखरस की कमी यह दर्शाती है कि समस्याएं और आवश्यकताएं प्रत्येक विवाह में अवश्य आएगी । ये समस्याएं अन्त में पति पत्नी दोनों को निराशा में डुबा देंगी । किन्तु जिस विवाह में प्रभु यीशु केा सर्वोपरि स्थान दिया जाता है, वहां वह शीघ्र ही समस्याओं का हल करता तथा आवश्यकताओं की पूर्ति करता है- जैसा उसने काना में किया था ।

    इतना पर्याप्त नहीं कि प्रभु यीशु को घर में सिर्फ पाहुन करके निमंत्रित करें, उसे तो प्रभु या स्वामी बनाना चाहिए । यह पद लिखा हुआ दीवार पर टांग देना सिर्फ कए उपहास है कि मसीह इस घर का अगुवा है, जब कि यह सत्य है कि पति (अथवा पत्नी) ही उस घर का प्रमुख है । किन्तु जब भी मसीह को वास्तव में प्रभु और अगुवा समझा जाता है, वह उसी प्रकार अपनी महिमा प्रकट करता है जैसा उसने दो हजार वर्षो पूर्व काना में किया था (पद 11) ।

    जो कुछ वह तुमसे कहे, वही करना- यह सलाह मरियम ने सेवकों को दी (पद 5 ) । उन्होने वह सलाह मानी और यीशु की आज्ञा का पालन निश्चयपूर्वक, उसी समय किया था और शीघ्र ही समस्या हल हो गई । यदि विवाहित जोडे (और विवाह पर ध्यान देनेवाले नौजवान भी) सिर्फ इसी सलाह को माने और परमेश्वर की आज्ञाओं का वैसे ही निश्चयपूर्वक तथा तत्काल पालन करें तो कितनी जल्दी उन्हें समस्याओं का हल मिल जाएगा ।

    उस विवाह में जल दाखरस में परिवर्तित हो गया था जो कुछ निःस्वाद, रंगहीन और साधारण था, वह एक ही क्षण में स्वादिष्ट,रंगयुक्त और कीमती हो गया था । यह इस बात का द्योतक है कि यदि परमेश्वर केा घर का पूर्ण नियंत्रण सौंपा जाए, तो वैवाहिक जीवन की साधारण बातें (प्रतिदिन होने वाली एक सी क्रियाएं) कितनी कान्तियुक्त हो सकती है । जिसे पहले साधारण समझकर तिरस्कृत किया गया था, उसी का अनन्त महत्व मालूम होने लगता है तथा जो अरुचिकर था वह रोचक बन जाता है ।

    उस आश्चर्यकर्म के परिणामस्वरुप अनेक लोगों की आवश्यकताएं पूर्ण हुई थी । मसीही विवाह का अभिप्राय सिर्फ दोनों साथियों के लिए ही आनन्द प्रदान करने से कभी पूर्ण नहीं होता । परमेश्वर की इच्छा है कि विवाहित जोडों का प्याला निरन्तर उमण्ड रहा (भजन 23 : 5) । उन्हें, अन्य व्यक्तियों के लिए- वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति के लिए जिनसे भेंट करें, आशिष का कारण होना चाहिए । परमेश्वर ने एक बार अपने आज्ञाकारी सेवक से कहा- मैं तुझे आशिष दूंगा...... और तू आशिष का मूल होगा....... और भूमंडल के सारे कुल तेरे द्वारा आशिष पाएंगे (उत्पत्ति 12 : 2, 3) । गलतियों 3 : 14 के अनुसार परमेश्वर की यह आशिष हमारे लिए भी है । विवाह में इससे बडा लक्ष्य किसी का और क्या हो सकता है? हम किस सीमा तक दैनिक जीवन में परमेश्वर की आज्ञाएं मानते है, उसी पर निर्भर होगा कि हम दूसरों के लिए किस सीमा तक आशिष का कारण बनते है । पृथ्वी की सारी जातियां अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेंगीः क्योंकि तू ने मेरी बात मानी है, -परमेश्वर ने इब्राहीम से यह कहा (उत्पत्ति 22 : 18)

    काना के आश्चर्यकर्म में आशा का एक संदेश भी उन व्यक्तियों के लिए है, जिन्होेंने प्रेम, यौन और विवाह के क्षेत्र में गलती की है और असफल रहे हैं । जब काना में दाखरस समाप्त हो गया,तो उन्होने मसीह की शरण ली और प्रभु यीशु ने उनकी सुनी । यदि आप अपनी आवश्यकता लेकर उसकी ओर फिरेंगे तो वह आपको कभी निराश नहीं करेगा- चाहे आपकी असफलता कितनी भी भारी रही हो । वह सिर्फ यही चाहता है कि आप ईमानदारीपूर्वक अपनी आवश्यकता (काना के लोगों के समान) पहचाने तथा अपनी असफलता के विषय में उसे बताएं । क्या आप अपनी मूर्खता से किसी युवती (अथवा युवक) के साथ अपने संबंधों में सीमा से अधिक बढ चुके है? क्या आपने सम्भवतः अज्ञानता के कारण प्रेम से भयंकर भूल की है? क्या आप, उसके कारण निराशा और लज्जा सह रहे है? क्या दूसरे आपको गलत समझते और अपमानित करते- अथवा आप पर कलंक लगाते है? तो इसी समय प्रभु यीशु की ओर फिरिए । देरी न कीजिए । वह पापियों का मित्र है । वह आपके अपराधों को क्षमा करने, और शैतान द्वारा आपके बिगडे हुऐ जीवन केा बनाने ठहरा हुआ है-क्योंकि इन्हीं दो उद्देश्यों की पूर्ति करने वह इस संसार में आया (1 मूहन्ना 3 : 5,8) । निराशा के गर्त में मत फंसे रहिए, क्योंकि आपके लिए उसमें से निकलने की अभी आशा है । प्रभु यीशु ने काना के विवाह में उस कमी की आवश्यकता से अधिक पूर्ति की । वह आपके जीवन की कमी की आवश्यकता से बढकर पूर्ति कर सकता है ।

    यदि आपने निराशा का सामना किया है तो इस सत्य से हिम्मत बांधिए कि मसीही जीवन की सच्ची आशिष त्याग से प्राप्त होती है, लेने और रख्े रहने से नहीं (प्रेरितों 20 : 35 ) । परमेश्वर ऐसा कर सकता है कि सब बातें मिलकर आपके लिए भलाई उत्पन्न करें और अपूर्ण इच्छाओं के होते हुए भी अपनी महिमा के लिए पूर्णता का जीवन बिताने में आपकी सहायता करें ।

    वर्तमान महिमा से भविष्य की महिमा तक

    आपका यही एकमात्र उद्देश्य हो- प्रेम, यौन और विवाह के क्षेत्र में परमेश्वर की महिमा करना । इससे इन क्षेत्रों में, परमेश्वर की सर्वश्रेष्ठ इच्छा से चूकने का भय करने की, तनिक आवश्यकता नहीं रह जाएगी । वह आपको निश्चय उस राजपथ से ले जाएगा जहाँ कोई सिंह अथवा हिंसक जन्तु नहीं किन्तु जहाँ परमेश्वर की महिमा का प्रकाश उस समय तक अधिकाधिक स्पष्ट और तेज होता जाता है- जब तक जीवन यात्रा का अन्त न हो जाए । काश, आप इस स्वर्गीय राजपथ पर अपने सम्पूर्ण जीवन भर चलते रहें ! आमीन

    अध्याय 10
    समर्पण का गीत

    विवाह की प्रार्थना और समर्पण का गीत

    समर्पण में प्रभु सब हम है झुकते,

    तेरे लोहू से गए खरीदे,

    तेरे है हम, सदा तेरे रहेंगे

    तू भी हमारा, विनती हम करते ।

    हमारी प्रार्थना कल्पनाओं से बढकर,

    तेरी आशिषें बरसीं जीवन पर,

    आभारी हृदय तेरी, स्तुति से भरे,

    अनन्त प्रेम में, हम तुझसे बंधे ।

    दुर्बल लाचार है,यह जानकर भी,

    तेरी सेवा में, नित रत रहेंगे,

    तू सर्व सामर्थी, यह जानकर भी,

    शक्ति तेरी से, सफल बनेंगे ।

    दुखों में तेरे, सहभागी बनना,

    क्रूस पर तेरे, घमंड करना,

    यही इच्छा, तुझे प्रसन्न करें,

    सांसारिक लाभ को, तुच्छ सा जानें ।

    अनादर उपहास, यदि, संसार से झेले,

    दुख व परीक्षाएं, पथ पर आ घेरे,

    साथ ही चलेंगे, तोभी हम तेरे,

    प्रेम मे बढेंगे, दिनों दिन तेरे ।

    आनंद दे हमे रोज अन्य लोगों की सहायता का,

    उनके आँसू-पीडा में भाग लेने का,

    कलवरी तक उनकी, दृष्टि उठाएं,

    ताकि पापों से वे भी छुटकारा पाएं ।

    भर दे सामर्थ से, अपने आत्मा के,

    बनें हम आशिष, मानव जाति के,

    जीवन तेरा हममें निर्मल स्त्रोत सा बहे

    सुगंध तेरी हमसे सुदूर फैले ।

    कामना सदा तेरी इच्छा पूर्ति की,

    तेरे लिए सिर्फ, जीवित रहने की,

    उस दिन तक जब हम, विभव में तेरे,

    शामिल हो सदैव, राज्य संग करें ।