वास्तविक सत्य

द्वारा लिखित :   जैक पूनन श्रेणियाँ :   जवानी
    Download Formats:

अध्याय 1
बुराई के विषय वास्तविक सत्य

संसार के महान रहस्यों मे से एक जिसे लोगों ने समझने की अथक कोशिशों की वह है बुराई का रहस्य । वह संसार जिसे सर्वज्ञानी और भले परमेश्वर ने बनाया उसमें बुराई की शुरूवात कहाँ से हुई?

संसार के हर क्षेत्र मे बुराई का वर्चस्व Šयों होता है? और सब जगह इतनी बीमारियाँ, गरीबी, दुख और Šलेश Šयों पाया जाता हैं? Šया परमेश्वर हमारी < मदद करने मे रूचि नहीं रखता? ये ऐसे प्रश्न है जिनका हल खोजना है । और बाइबिल हमें उसका उत्तर देती हैं ।

परंतु इससे पहले कि हम इस विषय में आगे बढें, आइये हम परमेश्वर के विषय कुछ सच्चाईयों से अवगत हो जाएँ ।

परमेश्वर का अस्तित्व अनंतकाल से हैं । उसकी कोई शुरूवात नहीं हैं । जिसे हम समय या युग के नाम से जानते है व उसकी भी सीमा के बहुत पहले से अस्तित्व में हैं। इस बात को समझ पाना हमारे लिये बहुत कठिन है । यह केवल इसलिये कि हमारा दिमाग परमेश्वर की बुध्दि को समझ ही नही सकताठीक उसी प्रकार जैसे एक कप अपने आप में समुद्र के जल को समा सकने में असमर्थ होता है ।

बाइबल की पहली आयत इस प्रकार है:

"आदि में परमेश्वर (उत्पत्ति 1:1) (उत्पत्ति की पुस्तक बाइबिल की ६६ पुस्तकों में से पहली पुस्तक हैं) बाइबिल, कोष्टक में दिये गए सभी संदर्भ बाइबिल की पुस्तकों में से किसी न किसी पुस्तक से संबंधित है।)

परमेश्वर अनंतकालीन अस्तित्व का है सिध्द करने की कोई कोशिश नहीं करती । वह इस बात को सत्य घोषित करती हैं ।

बाइबिल में परमेश्वर को एक ऐसे व्यŠत के 
रूप में दर्शाया गया है जो हमारे साथ व्यŠतगत संबंध रखने की इच्छा रखता है । वह एक मनुष्य नहीं है जैसा हम एक व्यŠत को समझते हैं । वह 
एक आत्मा है, हर दृष्टिकोण से अनंत और स्वभाव से कभी न बदलनेवाला । वह सर्वशŠतमान, सर्वज्ञानी, अनादिकाल से बुध्दिमान, अनादिकाल से 
प्रेमी, अनादिकाल से पवित्र हैं ।

परमेश्वर का अनादि प्रेम स्वार्थरहित है । और इसीलिये आरंभ से ही वह अपनी खुशी को दूसरों के साथ बांटने की इच्छा रखता हैं।

यही कारण है कि उसने जीवित प्राणियों की रचना किया । सर्वप्रथम उसने लाखों स्वर्गदूतों को बनाया । ताकि वह अपनी महिमा और आनंद को उनके साथ बांट सके । यह मनुष्य के सूजे जाने के बहुत पहले हुआ ।

स्वर्गदूतों में उनका अगुवा होने के लिये लूसिफर को बनाया । वह नाम जो आज दुष्टता का प्रतीक है, किसी समय स्वर्गदूतों में सबसे बुध्दिमान और सबसे सुंदर के नाम से जाना जाता था । वय प्रधान स्वर्गदूत था ।

परमेश्वर ने लूसिफर के विषय कहा:

 
तू तो उत्तम से भी उत्तम है, तू बुध्दि से भरपूर और सर्वांग सुंदर है । तू परमेश्वर की अदन नामक बारी में था, तेरे पास आभूषण, माणिक, 
पद्यराग, हीरा, फीरोजा, सुलैमानी मणि, यशभ, नीलमणि, मरकद और लाल सब भांति के मणि और सोने के पहरावे थे, तेरे डफ और बांसुलियां तुझी 
मे बनाई गई थी, 

जिस दिन तू सिरजा गया था, उस दिन वे भी तैयार की गई थी । तू छानेवाला अभिषिŠत करूब था, मैने तुझे ऐसा ठहराया कि तू परमेश्वर के 
पवित्र पर्वत पर रहता 

था, तू आग सरीखे चमकने वाले मणियों के बीच चलता फिरता था । जिस दिन से तू सिरजा गया, और जिस दिन तक तुझ में कुटिलता न 
पाई गई, उस समय 

तक तू अपनी सारी चालचलन मे निर्दोष रहा (यहेजकेल 28:12-15) ।

परमेश्वर ने जो तारे और पेड बनाए, उनसे हटकर लुसिफर और अन्य दूतों को परमेश्वर की आज्ञापालन करने या न करने के चुनाव की छूट थी ।

एक व्यŠत को सदाचारी होने के लिये उसकी स्वेच्छा प्रथम आवश्यक बात है । तारे और पेड भला या बुरा नहीं कर सकते Šयोंकि उनमें निर्णय लेने की क्षमता नहीं होती । वे निर्विवाद परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं Šयोंकि वे चुनाव की स्वतंत्रता रहित सूजे गये हैं। इसलिये वे किसी भी पहलू से परमेश्वर के पुत्र नहीं हो सकते । एक वैज्ञानिक द्वारा बनाया गया रोबोट उसे बनाए गए प्रोग्राम के अनुसार उसकी हर आज्ञा का पालन करेगा, परंतु उसका बेटा ऐसा नहीं करेगा । फिर भी रोबोट उस वैज्ञानिक का बेटा नहीं बन सकता ।

एक व्यŠत को सदाचारी होने के लिये उसे भलेबुरे का ज्ञानी होना दूसरी आवश्यकता हैं । पक्षी और जानवर स्वेच्छा से कार्य करने का चुनाव कर सकते है । परंतु वे सदाचारी नहीं है Šयोंकिउन्हे भलेबुरे का ज्ञान नहीं होता । इसलिये वे न पवित्र और न ही पापी होते हैं । इसलिये वे परमेश्वर की संतान नहीं होते Šयोंकि परमेश्वर एक सदाचारी व्यŠतत्व हैं ।

वास्तव में पखी और जानवर किसी भी हाल में आपके संतान नहीं हो सकते।

आप एक कुत्ते को आपका आज्ञाकारी होने का प्रशिक्षण दे सकते हैं । परंतु फिर भी वह आपका बेटा नहीं बन सकता Šयोंकि आपके बेटे में आपका स्वभाव होना जरूरी हे और यह बात कुत्ते में है ही नही ।

परंतु परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में 
बनाया । यही बात हमें उसकी संतान बनने में संभव बनाती हैं ।

विवेक हमारे भीतर वह आवाज है जो हमे सदाचारी होने की याद दिलाता हे और जब हम परमेश्वर के नियमों का उल्लंघन करते है तब वह हमें दोषी ठहराता है । इस प्रकार वे परमेश्वर के द्वारा सृष्टि किये जाने के समय कुछ भिन्न थे Šयोंकि वे सूझबूझ रखने वाले सदाचाी थे । फिर भी अगुवे लुसिफर के ह्दय में ऐसे विचार और जिज्ञानसाएं उठने लगे जो अच्छे नहीं थे ।

यही वह समय था जब इस संसार में बुराई की शुरूवात हुई ।

लुसिफर के केवल विचार ही बुरे नही थे परंतु उसके विचार घमंड, विद्रोह और असंतोष से परिपूर्ण थे ।

जब तक लुसिफर में बुरे विचार नही आए तब तक यह संसार पूर्णत: पवित्र । परंतु अब बुराई ने सूजे हुए मनुष्य के भीतर जिसे भलेबुरे का ज्ञान है, अपना विकृत सिर उठा लिया हैं।

याद रखें कि बुराई की शुरूवात ह्दय से हुई । ़वह बाहय प्रक्रियाआें से नहीं आई । आज भी, बुराई का जन्म ह्दय से ही होता है ।

यह भी याद रखें कि सबसे पहला पाप जिससे सारे संसार में बुराई फैल गई वह घमंड ही था। परमेश्वर ने लुसिफर को उसकी उपस्थिति से हटा दिया। और उसी समय से लूसिफर शैतान कहलाया गया ।

बाइबिल शैतान के पतन का वर्णन इस प्रकार करती है:

 
हे भोर के चमकने वाले तारे तू कैसे आकाश से गिर पडा हैं । तू तो जाति जाति को हरा देता था, तू अब कैसे काटकर भूमि पर गिराया गया हैं 
? तू मन में कहता तो था, मैं स्वर्ग पर चढूंगा, मैं अपने सिंहासन को ईश्वर के तारांगण से अधिक ऊंचा करूंगा, और उत्तर दिशा की छोर पर सभा 
के पर्वत पर विराजूंगा । मैं मेघों से भी ऊंचे स्थानों के ऊपर दिशा चढूंगा, मैं परमप्रधान के तुल्य हो जाऊंगा । परंतु तू अथोलोक में उस गडडे की 
तह तक उतारा जाएगा (यशाया 14:12-15

परंतु जब तक लूसिफर गिराया जाता वह उसके विद्रोह में कुछ अन्य दूतों को भी शामिल करने मे सफल हो गया। लाखों दूत उसके साथ शामिल हो गए अर्थात स्वर्ग के १ तिहाई दूत (जैसा हम प्रकाशितवाŠय 12:4 में पढते हैं ) । इसलिये परमेश्वर ने लूसिफर के साथ उन्हें भी गिया दिया । गिराए हुए यही दूत दुष्ट आत्माएँ (दानव) हैं जो आज लोगों को सताते और तकलीफ देते हैं।

शायद आप भी दुष्ट आत्माआें या दूसरे जादूटोना करने वालों द्वारा सताए गए हो । यदि ऐसा हुआ है तो बाइबिल में आपके लिये शुभ संदेश हैं । आप उनके सताव से हमेशा के लिये पूर्णत: स्वतंत्र हो सकते हैं ।

 
इस पुस्तक को ध्यान से पढे और जब आप इसके अंत में पहुंचेंगे तब आप समझ पाएंगे कि परमेश्वर आपके लिये कैसे चमत्कार कर सकता हैं 
।

कुछ लोग यह पूछ सकते है कि यदि संसार में बुराईयों की सारी जड शैतान ही हे तो परमेश्वर शैतान और अन्य दुष्ट आत्माआें को ही नष्ट Šयों नही करता? यदि परमेश्वर चाहे तो निश्चित रूप से एक क्षण में ऐसा कर सकता हैं ।

परंतु वह ऐसा नही करता ।

यह हस बात की पुष्टि करता है कि शैतान और दुष्टात्माआें के अस्तित्व को बने रहने देने में सर्वज्ञानी परमेश्वर का एक उद्देश्य हैं । उसके दद्देश्य का एक भाग यह है कि वह शैतान द्वारा पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन को जटिल, असुरक्षित, खतरनाक बनाना चाहता है ताकि मनुष् संसार में सुखसुविधाओ में ध्यान न लगाकर परमेश्वर की ओर फिरें और अनंत जीवन के विषय सोचें ।

यदि पृथ्वी पर जीवन अत्यंत आरामदायक होता जहाँ कोई बीमारी, Šलेश, गरीबी, आपदाएँ आदि न होते तो शायद ही कोई परमेश्वर का विचार करता । इसलिये परमेश्वर इन सभी आपदाओ और असुरक्षाआें के उपयोग द्वारा हमें उसके विषय सोचने और जरूरत में उसकी ओर फिरने के लिये करता हैं ।

यहाँ तक कि जो समस्याएँ बीमारियाँ और परिक्षाएं शैतान आपके जीवन में लाता है वे भी प्रेमी परमेश्वर की अनुमति से ही आते हैं ताकि आप परमेश्वर की ओर फिर सकें । इस दृष्टिकोण से यह आपके प्रति परमेश्वर के प्रेम को दर्शाता है ।

यह बाइबिल का संदेश हैं ।

मैने एक व्यापारी के विषय सुना जो किसी समय परमेश्वर के निकट था। जैसे ही उसका व्यवसाय बढा वह परमेश्वर से दूर हो गया । उसके चर्च के बुजुर्गो ने उससे बारबार इस विषय बात की और उसे परमेश्वर की ओर लैटा लाने के प्रयत्न भी किये । परंतु वह अपने व्यवसाय में ही अत्याधिक व्यस्त रहा । एक दिन उसके तीन बेटों में से सबसे छोटे बेटे को जहरीले सांप के काट लिया और बच्चा गंभीर रीति से बीमार हो गया । यहाँ तक कि डॉŠटरों ने भी उसके बचने की उम्मीद छोड दिये। तब उस बच्चे का पिता सचमुच बडा चिंचित हो गया और चर्च के एक बुजुर्ग को बच्चे के लिये प्रार्थना करने को बुलावा भेजा । वह बुजुर्ग एक समझदार व्यŠत था । उसने आकर यह प्रार्थना किया, परमेश्वर इस बच्चे को काटने के लिये सांप को भेजने के लिये धन्यवा Šयोंकि आपके बारे सोचने के लिये में इस परिवार को कभी तैयार नहीं कर पाता । परंतु ६ वर्ष में भी मैं जो नही कर पाया वह इस सांप ने एक क्षण में कर दिया । अब जब कि उन्हेें सीख मिल चुकी है, प्रभु इस बच्चे को चंगा कर दीजिये । और होने दे कि आपके विषय याद दिलोन के लिये उन्हें कभी किसी सांप की जरूरत न पडें ।

कुछ लोग ऐसे हैं जो कभी परमेश्वर के बारे में सोचते ही नहीं हैं तब तक जब तक कि वे अचानक एक दिन कैंसर या किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त होकर अस्पताल नहीं पहुुंच जाते । तब वे परमेश्वर के विषय सोचते और उध्दार के लिये उसकी ओर फिरते हैं । कभी न सुधरने वाले रोग, बीमारियां, गरीबी और संसार की कई बुराईयां मनुष्य को पाप से फेर लाने के लिये परमेश्वर उपयोग में लाता हैं । इस प्रकार परमेशवर उन्हें स्वर्ग में अनंतकाल के निवासों तक पहुंचने में सहायता करता हैं । शैतान द्वारा किये जाने वाली बुराइयों का उपयोग करके लोगों को शैतान के ही शिकंजों से छुडाकर उन्हें अनंतकालीन उध्दार दिलाने का परमेश्वर का यही तरीका हैं।

इस प्रकार परमेश्वर शैतान को बारबार मूर्ख बनाता हैं ।

जो गढ्‌ढा शैतान दूसरों के लिये खोदता है वह स्वयं उसी में ढकेला जाता हैं।

शैतान का अस्तित्व बने रहने देने का दूसरा कारण है परमेश्वर की संतोनों को पवित्र बनाना ।

आग के उदाहरण को देखें । संसार के इतिहास मे लाखों लोग आग में झुलसकर मर गये । फिर भी इसके कारण आग का उपयोग करना कोई बंद नही कर देता । Šयों? वह इसलिये कि आग के ही द्वारा भोजन पकाया जाता है, गाडियां चलती है और विमान उडाया जाता है और यंत्र चलाए जाते हैं। सोना भी आग में तपाकर शुध्द किया जा सकता हैं । इसलिये आग भले ही नुकसानकारक और खतरनाक है, अच्छे कामों में उपयोग में लाई जा सकती हैं । उसी प्रकार शैतान यद्यपि बुरा है और लोगों को गुमराह करता हैं फिर भी परमेशव्र उसका उपयोग करता हैं । शैतान को यह अनुमति है कि वह कई अग्नि परीक्षाआें और परेशानियों के जरिये परमेश्वर की संतानों की परीक्षा ले ताकि वे पवित्र और शुध्द बने जैसे सोना आग में डालकर शुध्द किया जाता हैं ।

इस प्रकार हम देखते है कि यद्यपि परमेश्वर संसार की सारी बुराईयों को एक ही क्षण में खत्म कर सकता है, फिर भी वह ऐसा नहीं करता Šयोंकि वह अपने महिमामय उदेश्यों को उन्हीं के माध्यम से पूरा करता हैं ।

अध्याय 2
पाप के विषय वास्तविक सत्य

कुछ लोग अŠसर जानवरों जैसा व्यवहार Šयों करते हैं?

उत्तर हे: Šयोंकि उनकी रूचि केवल उनके शारीरिक जरूरतों और पृथ्वी पर उनके अस्तित्व में ही होती हैं।

एक जानवर की रूचि किन बातों मे होती है? भोजन, नींद और लैंगिक समाधान। और जब एक मनुष्य भी केवल इन्हीं बातों में रूचि रखता है तब हम कह सकते है कि वह जानवर के स्तर तक गिर चुका हैं ।

परंतु परमेश्वर ने मनुष्य को जानवरके समान रहने के लिये नहीं बनाया । उसने हमे उसकी समानता में बनाया सदाचारी, धर्मी, चरित्रवान और संयमी, और जानवरों सी भावनाआें के दासत्व से मुŠत ।

जानवरों से अधिक समझदारी और शिक्षा हमे उनसे बेहतर नहीं बनाती । पढे लिखे शिक्षित और समझदार लोग भी लालच, स्वार्थीपन, लैंगिक अभिलाषा, क्रोध आदि के गुलाम होते हैं ।

हमारे अंगो में एक अंग है जो हमारे विचारों से भी बढकर सक्षम हैं । ़वह है हमारी आत्मा जो हमे परमेश्वर के विषय सजग करती हैं । यह किसी जानवर में नही होती ।

हमने देखा कि परमेश्वर ने हमे स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने की सामर्थवाले सदाचारी व्यŠत बनाया हैं । परंतु निर्णय लेने या चुनाव करने की स्वतंत्रता मे यह खतरा भी है कि हम इस स्वतंत्रता का उपयोग परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन के लिये कर सकते हैं । परंतु परमेश्वर ने यह जोखिम उठाया Šयोंकि वह ऐसी संतान चाहता था कि स्वयं उसके विषय निर्णय लेने वाले हों । संसार मे सारी अव्यवस्था, बीमारियां और बुराईयां मनुष्य द्वारा परमेश्वर की आज्ञा उल्लंघन और शैतान के प्रति समर्पण का ही सीधा परिणाम हैं ।

प्रथम पुरूष और स्त्री जिन्हे परमेश्वर ने बनाया आदम और हव्वा कहलाए । जब वे सूजे गये थे तब वे निर्दोष थे । पवित्र बने रहने के लिये उन्हें ही चुनाव करना था । और चुनाव करने के लिये उन्हें परीक्षा से गुजरना था ताकि वे बुराई का इंकार करें और केवल परमेश्वर को चुनें । इसलिये परमेश्वर ने शैतान को उनके पास आने और उनकी परीक्षा लेने की अनुमति दिया ।

इस बात को हम बाइबिल की प्रथम पुस्तक उत्पत्ति दूसरे और तीसरे अध्यायों में पढते हैं ।

निर्दोषता और पवित्रता में काफी अंतर हैं । निदोषता वह है जो हम एक शिशु में देखते हैं । यदि आप जानना चाहते हैं कि जब आदम सिरजा गया तब वह Šया था तो एक शिशु को देंखे जो निर्दोष, और जिसे भले और बुरे का ज्ञान न हो । परंतु वह बच्चा न पवित्र है और न ही सिध्द । सिध्द होने के लिये उस शिशु को बढना होगा और बुराईयों का इन्कार और परमेश्वर का चुनाव करने के द्वारा कुछ निर्णय लेना होगा ।

जब हम हमारे विचारों में परिक्षाओ मे गिरने से इन्कार करते है तब हम चरित्र का निर्माण करते हैं । आज आप जो भी है वह आपके द्वारा जीवन में अब तक किये गये अच्छे चुनावों की वजह से हैं ।

यदि आपके इर्दगिर्द के लोग आपसे बेहतर है तो वह इसलिये कि उन्होंने आपकी तुलना मे बेहतर चुनाव किया । हम सभी प्रतिदिन चुनाव करते है और वे चुनाव ही निश्चित करते हैं कि हमें Šया बनना हैं ।

जब परमेश्वर ने प्रथम पुरूष और स्त्री को बनाया उसने उन्हें शैतान द्वारा परखे जाकर पवित्र होने के लिये असवर दिया । उसने उन्हें एक बाग में रखा और कहा कि वे एक छोडकर बाकी सभी वृखों के फल खा सकते हैं ।

यह एक परीक्षा थी। परंतु यहएकसरल परीक्षा थी Šयोंकि वे ऐसे बाग में रखे गये थे जहां लुभाने वाले कई फलों के वृक्ष थे और वे एक वृक्ष को छोडकर सभी वृक्ष के फल खा सकते थे । परंतु वे आज्ञापालन की सामान्य परीक्षा में असफल हो गये ।

वह इसलिये हुआ Šयोंकि शैतान ने हव्वा की यह कहकर बहका दिया कि यदि वे मना किये गये वृक्ष के फल को खा लें तो वे भी परमेश्वर के तुल्य हो जाएंगे । उस समय आदम और हव्वा की परीक्षा केवल फल खाने या न खाने की नहीं थी परंतु उनके परमेश्वर के तुल्य होने के चुनाव की परीक्षा थी ।

यही इच्छा किसी समय शैतान ने भी किया था । और इसी बात के लिये उसने आदम और हव्वा को भी प्रेरित किया । यह सच है कि शैतान ने उनसे जो कुद कहा वह एक झूठ थाठीक वैसा ही झूठ जैसा वह आज भी लोगों को धोखा देने के लिये करता है। जैसा आज भी लोग शैतान के झूठ में फंस जाते है वैसे ही आदम और हव्वा भी फंस गये। उन्होंने परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन किया और उनका भी शैतान की तरह ही पतन हुआ। वे परमेश्वर की उपस्थिति से निकाले गये।

इन सब बातों का विवरण बाइबिल की प्रथम पुस्तक में पढा जा सकता हैं (उत्पत्ति अध्याय३)

आदम हौर हव्वा ने सोचा कि परमेश्वर की आज्ञा उल्लंघन के द्वारा वे ठीक परमेश्वर के ही समान सर्वसामर्थी और स्वतंत्र हो जाएंगे । परंतु Šया वे स्वतत्र हो सके ? नही ! वे केवल शैतान के गुलाम होकर रह गये । केवल परमेश्वर की आज्ञापालन के द्वारा ही हम वास्तव में स्वतंत्र हो सकते हैं ।

इसी बात में शैतान बहुत से लोगों की गुमराह करता हैं । वह उनसे कहता है कि यदि वे सचमुच जीवन का आनंद उठाना चाहते है तो उन्हे परमेश्वर की विधियों को नजरअंदाज करना होगा ।

अब हम यह देख चुके है कि मनुष्य जाति में पाप किस प्रकार आया । अदन की वाटिका में आदम और हव्वा ने उस दिन एक अहम निर्णय को लिया था । उनके उस निर्णय का परिणाम उनके और उनकी संतानों पर जीवन भर के लिये हुआ ।

हर एक निर्णय जो हम अपने जीवन में लेते हैं, उनके कुछ न कुछ परिणाम होते हैं । जो कुछ हम बोते हैं, हम सबको वही काटना पडता हैं । कई बार तो जो कुछ हम बोते हैं उसके परिणाम मेंं हमारे बच्चों को उससे भी कहीं बढकर कडवे फल काटना पडता हैं । आदम के विषय उसे और उसकी पत्नी को उनके बाकी जीवन भर के लिये परमेश्वर की उपस्थिति से बाहर निकाल दिया गया ।

इसलिये हमें यह कल्पना नहीं कर लेना चाहिये कि वे छोटे छोटे चुनाव जो हम आज करते है वे महत्त्वहीन है या जो कुछ हम आज बोते है उसकी फसल भविष्य में कभी नहीं काटेंगे । परमेश्वर हमें विभिनन लोगों और परिस्थितियों के द्वारा परखे जाने की अनुमति देता हे ताकि हम यह सिध्द कर सकें कि हम संसार की बातों से बढकर उससे ही प्रेम करते हैं । हमारी हर परीक्षा का उद्‌देश्य यही है कि हम इस बात मे परखे जाएं कि Šया हम सृष्टि की सारी बातों से बढकर अपने सृजनहार को महत्त्व देते हैं ।

सभी पापों का सार है सृष्टि की बातों की और स्वयं को परमेश्वर से बढकर महत्त्व देना । यह परमेश्वर के मार्गो को छोडकर स्वयं के मार्गो का चुनाव हैं। यह परमेश्वर को प्रसन्न करने की बजाए स्वयं को प्रसन्न करने का चुनाव हैं ।

केवल व्यभिचार करना, हत्या करना या चोरी रकना ही पा नहीं हैं । यह हमारे अपने मार्गो का चुनाव हैं । एक छोटे बाल की जिद में हम पाप की शुरूवात को देखते हैं । पाप, हर बच्चे के जन्म से ही उसके स्वभाव में निहित होता है और जैसे जैसे वह बालक बढता है वैसे वैसे वह अपने मार्गो को चुनता है ताकि वह दूसरे बच्चों से लडकर उन बातों को हासिल करे जिनकी वह इच्छा रखता हैं ।

जब हम वयस्क हो जाते है, तब भी हम हमारे बचपन के गुणों से बहुत अधिक भिन्न नहीं होते । हम केवल चतुर बन जाते है और हमारे तरीके बदल जाते हैं । यहाँ तक कि सभ्य लोग भी वैसे ही हो जाते है । वे अपना स्वार्थ, लालच और अभिलाषा को दिखावटी, नम्रता और शायद धर्म की आड में छिपाते हैं ।

पाप हमारे रोमरोम में निहित हैं । हम धार्मिक कर्मो, जैसे प्रार्थना या तीर्थयात्रा या स्वयं के नियंत्रण के द्वारा उससे छुटकारा नहीं पा सकते । केवल परमेश्वर ही हमे पाप से बचा सकता हैं ।

परंतु जब तक हम बुराई को पाप के रूप मे मान नहीं लेते, परमेश्वर हमारा इंतजार करता हैं । यीशु ने कहा कि वह धर्मियो के लिये नहीं परंतु पापियों के लिये आया । उसका अर्थ यह नहीं कि उस समय पृथ्वी पर कुछ लोग धर्मी थे और बाकी लोग पापी थे । यह बात उसने व्यंगात्मक भाव में उन लोगों के लिये कहा था जो स्वयं को धर्मी समझते थे । यीशु के कहने का अभिप्राय यह था कि वह उन लोगों को नहीं बचा सकता जो अपनी ही दृष्टि में धर्मिक थे ।

केवल वे ही लोग जो यह मानते है कि वे बीमार है, डॉŠटर के पास जाएंगे । इसलिये हमें सर्वप्रथम इस बात को मानने की जरूरत है कि हम पापी हैं ।

हमारा कोई भी धर्म विश्वास Šयों न हो, हम सब पापी ही हैं । हमने परमेश्वर के पवित्र नियमों को उल्लंघन किया है हमारे विचारों, शब्दों, कार्यो, नीति और इरादों के विषय में ।

हम परमेश्वर के मापदण्ड में कम पाए गये हैं।

 
हमारे शरीर में बीमारी से बढकर पाप हमारी आत्मा के लिये कहीं ज्यादा नुकसानदायक हैं ।

परंत Šया हम इस बात को स्वीकार करते हैं ?

शारीरिक संबंध स्थापित करने के द्वारा संसार भर से फैलने वाली खतरनाक बीमारी एडस के विषय आपकी Šया प्रतिक्रिया है?

एड्‌स ऐसी छूत की बीमारी है कि इससे ग्रस्त व्यŠत के पास जाने से भी डरते है । वास्तव में पाप उससे भी ज्यादा बुरा है इसमें फर्क केवल इतना है कि पाप हमारी आत्मा को नुकसान पहुंचाता हैं । यह बाहय रूप से दिख नहीं पडता । पाप का प्रभाव एड्‌स से कहीं बढकर अधिक बुरा हैं । यदि हम पाप से बचाए न गये तो वह हमारे जीवनों को नष्ट करता, संसार में हमें दुखी करता और अंत में हमें अनंतकाल के लिये नष्ट कर डालता हैं ।

अध्याय 3
हमारे विवेक के विषय वास्तविक सत्य

हम सब विवेक के साथ सिरजे गये हैं जो हमे निरंतर यह याद दिलाता रहता है कि हम सदाचारी प्राणी हैं । विवेक हमारे अंदर परमेश्वर की आवाज है जो हमे यह बताती रहती हैं कि हम अपने कर्मो के लिये जबाबदार हैं । एक दिन हमें हमारे जीवन मे किये गये कमा] के लिये परमेश्वर को जबाब देना होगा ।

हम जानवरों के समान नहीं है जिन्हें विवेक नहीं होता और जिन्हें किसी भी बात के लिये परमेश्वर को जवाब नहीं देना होगा । जब कोई जानवर मर जाता है, तब यही उसका अंत होता है । परंतु हमारे लिये ऐसा नहीं हैं । मनुष्य, परमेश्वर की समानता में बनाया गया और अनंतकाल तक जीवित रहनेवाला प्राणी हैं ।

हमारे लिये न्याय का दिन ठहराया गया है । उस दिन, हर एक कार्य जो हमने किया वे विचार जो जीवन भर हमने कहा और सोचा, हमे याद दिलाए जाएंगे और परमेश्वर द्वारा परखे जाएंगे । और वह बाइबिल में दिये गये उसके पवित्र नियमों के अनुसार, हमारा न्याय करेगा । तब हमे हमारे द्वारा हर एक कार्य, शब्द और विचार के लिये परमेश्वर को जबाव देना होगा ।

बाइबिल कहती है, मनुष्यों के लिये एक बार मरना 
और उसके बाद न्याय का होना नियुŠत है (इब्रानियों 9:27)

इस संसार मे कई लोग उनके गुनाहों की सजा से बच जाते है । परंतु जब वे परमेश्वर के न्याय के सिंहासन के सामने खडे होंगे, तब उन्हें उनके काया] को उचित सजा मिलेगी । उसी प्रकार कई लोग है जिन्हे दूसरों की भलाई करने के लिये इस संसार में कभी प्रशंसा या प्रतिफल नहीं मिला । जब इस पृथ्वी पर मसीह वापस आएगा तब उन्हें भी उनका प्रतिफल मिलेगा ।

Šयोंकि एक दिन हमे हमारे कर्मो के लिये परमेश्वर को जवाब देना होगा, हमें हमारे विवेक की आवाज को हमेशा सुनना होगा ।

विवेक, मनुष्य को परमेश्वर द्वारा दिया गया सबसे बडा दान हैं । यह ठीक वैसा ही है जैसे हमारे शरीर में दिया हुआ दर्द का दान । हममें से अधिकांश लोग दर्द को पीडादायक समझते है । परंत हम यह नहीं समझ पाते कि दर्द हमारे जीवन के लिये कितनी बडी आशीष हैं । Šयोंकि यह दर्द ही है जो हमें यह सूचित करता है कि शरीर में कहीं तो कोई गडबड हैं । यह शरीर का प्रथम संकेत है जो आनेवाली किसी बीमारी के विषय चेतावनी देता हैं । यदि दर्द न होता तो हमें बीमारी का आभास भी न हो पाता और हम मर जाते । दर्द ही हमे असामायिक मृत्यु से बचाता हैं ।

कोढियों को दर्द का आभास नहीं होता Šयोंकि कोढ शिराआें को मार देता है । एक कोढी के पैर में यदि खीला ठोंक दिया जाए तो भी उसे उसका आभास नहीं होगा । पैर सडने लगेगा और उसे पता भी नहीं चलेगा । अंत में उसका पैर इतना खराब हो जाएगा कि उसे काटकर अलग करना पडेगा यह सब इसलिये होगा Šयोंकि उसके पास दर्द की आशीष नहीं है ।

विवेक दर्द के समान हैं । जब हम परमेश्वर के नियमों को उल्लंघन करते हैं, पाप करने की सोचते है या पाप कर चुके होते हैं तब वह हमें चेतावनी देता हैं। यदि हम उस चेतावनी की उपेक्षा करते है और उसके विरूध्द जाते हैं तो धीरेधीरे हम हमारे भीतर के पाप के प्रति चेतना को खत्म कर देते हैं । और फिर एक दिन ऐसा आएगा जब हम पाप के विषय चेतनारहित हो जाएंगे । तब हम आत्मिक कोढी बन जाएंगे जिसका विवेक मर चुका हो । तब हम भी उन जानवरों के समान हो जाएंगे जिन्हे विवेक नहीं होता । यही कारण है कि कुछ लोग जानवरों से भी बदतर व्यवहार करते है । ऐसे जीवन का अंत परमेश्वर द्वारा अनंतकालीन सजा ही रहेगा ।

हम सब यह जानते है कि हम पापी है Šयों कि हमारा विवेक हमें यह बताता हैं । हमे उस दोषी भावना को यूं ही टाल नहीं देना चाहिये Šयोंकि दोषी होने की चेतना ही दर्द की आशीष हैं । यह हमें बताता है कि हम रोगी है और हमें चंगाई की जरूरत हैं । विवेक, परमेश्वर द्वारा मनुष्य को सबसे बडा तोहफा हैं ।

यीशु ने कहा कि वेिवक आँख के समान हैं (लुका 11:34-36) । हमारी आँखे शरीर के सबसे स्वच्छ अंगों में से है Šयों वे प्रतिदिन कई बार हमारे ऑसुआें से धोए जाते हैं ।

हर बार जब भी हमारी आँखे झपकती है (खुलती बंद होती हैं ) (जो दिन में हजारो बार होता है जिसका हमे एहसास भी नहीं होता) उसमें की सारी गंदगी निकल जाती हैं । कचरे का एक छोटा सा कण भी हमारी आँखे में जलन पैदा करने के लिये काफी है जब तक हम उसे आँख से धोकर निकाल नहीं देते । इसी प्रकार हमें

अपने विवेक को भी शुध्द रखना चाहिये हमेशा शुध्द ।

हमारे पाप केवल परमेश्वर द्वारा ही क्षमा किये जा सकते है और धोए जा सकते हैं । यही एक तरीका है हमारे विवेक को दोष की भावना से मुŠत करने का, परंतु पापों की क्षमा सस्ती नहीं ।

अध्याय 4
क्षमा के विषय वास्तविक सत्य

परमेश्वर हमारे पापों को किस प्रकार क्षमा करता है?

परमेश्वर न्यायी और धर्मी परमेश्वर है और वह किसी व्यŠत के पापों को नजरअंदाज करके माफ नहीं करता । यह तो अन्याय होगा ।

परमेश्वर पवित्र और न्यायी परमेश्वर है । इसलिये उसे पाप को दंडित करना ही होगा ।

परंतु चूंकि वह प्रेमी परमेश्वर भी है उसने हमारे पापों की क्षमा के लिये मार्ग भी निकाला ।

हर धर्म हमें अच्छा, दयालु, और सत्यवादी होने की शिक्षा देता हैं । परंतु ये सारी बाते हमे क्षमा प्राप्ति के पशचात किस तरह रहना चाहिये उसके विषय बताती हैं ।

अच्छाई, दयालुता, और सत्यवाद एक इमारत के ढांचे हैं । पापों की क्षमा उस इमारत की बुनियाद हैं ।

एक इमारत का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग उसकी बुनियाद होती हैं ।

परमेश्वर को हमारे पापों को क्षमा करने हेतु वह सब करना पडा जो उसके लिये संसार की सृष्टि के रचने से कहीं ज्यादा कठिन और तकलीफदायक था ।

संसार की रचना के लिये उसे केवल शब्द का उच्चारण करना था, और संसार तुरंत अस्तित्व में आ गया ।

परंतु हमारे पापों को वह शब्द के मात्र उच्चारण से माफ नहीं कर सका ।

यदि मनुष्य के पाप क्षमा किये जाने थे तो एक ही मार्ग था ।

परमेश्वर को हमारे समान मनुष्य बनना पडा 
।

उसे उन परीक्षाआें और परेशानियो से होकर गुजरना पडा जैसे हम मनुष्य अनुभव करते हैं । और उसे हमारी जगह एक बलिदान होकर मरना पडा, और हमारे पापों की सजा उसे उठानी पडी ।

पाप की सजा Šलेश, बीमारी या गरीबी नहीं, और न ही इस संसार में निम्न स्तर पर जन्म लेना या इसी प्रकार की कोई और बात नहीं हैं । पाप की सजा अनंत मृत्यु है जो परमेश्वर से हमेशा के लिये दूर हो जाने के तुल्य हैं ।

भौतिक मृत्यु शरीर से अलग होना है । परंतु आत्मिक मृत्यु, परमेश्वर से जो संपूर्ण जीवन का स्त्रोत है, उससे अलग होना है ।

भविष्य मे आपके द्वारा किये जानेवाले अच्छे कार्य, आपके पिछली बुराईयों के लिये प्रायश्चित नहीं हो सकते । पाप, हमारे लिये परमेश्वर के नियमों का कर्ज है । यदि हम देश के कानून का उल्लंघन करें, जैसे सरकार को टैŠस (कर) न देने के विषय, तो भविष्य में टैŠस देने की प्रतिज्ञा के द्वारा हमारी गलती माफ नहीं की जा सकती । यदि हम भविष्य मं टैŠस देते भी रहें तो भी हमे पिछले कर्ज को तो अदा करना ही होगा । पाप के विषय भी यही बात लागू होती हैं ।

हम भविष्य में चाहे जितने भी अच्छे कार्य Šयों न कर ले, फिर भी हमे पिछले पापों का हिसाब चुकाना ही होगा ।

इसके अलावा, बाइबिल कहती है हमारे धर्म के काम सब के सब परमेश्वर की दृष्टि में मैले चिथडों के समान है (यशायाह 64:6)

परमेश्वर अच्छे कार्यो की प्रशंसा करता हैं । परंतु हमारे भले कार्य भी उसकी पवित्रता के मापदंड पर पूरे नहीं उतरते Šयोंकि वह असीमित रूप से पवित्र हैं । इसलिये हम आशाहीन स्थिति में है, Šयोंकि हमारे अच्छे कार्य किसी फायदे के नहीं है । कोई ऐसा मार्ग नहीं जिसमें हम परमेश्वर की उपस्थिति में जा सके ।

हम आशाहीन तरीके से खोए हुए है ।

परंतु परमेश्वर ने उसके महान प्रेम के कारण एक मार्ग निकाला जिसके द्वारा हमारे पाप क्षमा किये जा सकते हैं ।

परमेश्वर इतना जटिल है कि उसे पूरी तरह समझ पाना मनुष्य की समझ के बाहर हैं । बाईबिल बताती है कि परमेश्वर एक है, परंतु फिर भी उस एक मे तीन व्यŠतयों का समावेश है जिन्हें हम पिता, पुत्र (जिसका अर्थ यह है कि उसका स्वभाव पिता का सा, परंतु यह नहीं कि वह पिता से जन्मा) और पवित्र आत्मा सभी एक दूसरे के तुल्य।

हम मनुष्यों के विचार में इस बात को समझ पाना कठिन है कि तीन भिन्न व्यŠत, किस प्रकार एक परमेश्वर हो सकते है । हम व्यŠतयों को अलग शरीरों के रूप में होने को समझ सकते है । हमारी सोच सीमित है । वह परमेश्वर के मिश्रित स्वभाव को नहीं समझ सकती ।

जिस प्रकार एक कुत्ता, मनुष्यों के समान बातों को समझने में असमर्थ है, उसी प्रकार हम मनुष्य भी परमेश्वर के विषय कई बातों को समझ पाने में असमर्थ है । हम केवल उन्हीं बातों को समझ सकते है जो परमेश्वर हमे बाइबिल में से समझाना चाहता हैं । उससे अधिक नहीं ।

उदाहरण के लिये, आप एक कुत्ते को उसके सामने तीन हड्डिया रखकर यह समझा सकते है कि 1+1+1=3 होता है और उसे गिनकर दिखा सकते है ।

परंतु उसे यह समझाने की कोशिश कर सकते है कि 1X1X1 = 1 होता हैं ?

आप यह पाएंगे कि अत्यंत होशियार कुत्ता भी इस बात को समझ नहीं पाएगा । परंतु हम मनुष्य यह जानते हैं कि, तीन एक मिलकर भी एक ही होते है, उन्हें आपस में गुणा भी कर दिया जाए तो भी ।

अब परमेश्वर भी हमसे बहुत बढकर है जितना हम एक कुत्ते से बढकर हैं । गुणा करने की क्रिया को समझने के लिये कुत्ते को मनुष्य बनना पडेगा । हम भी यदि परमेश्वर को समझना चाहते हैं तो हमें भी अपने आपमें परमेश्वर के समान बनना होगा ।

इसलिये यदि हम यह नहीं समझ पाते हैं कि परमेश्वर तीन व्यŠतयों से मिलकर है और फिर भी एक ही परमेश्वर है तो यह आश्चयृजनक बात नहीं है । यद्यपि यह इस बात को समझ नहीं पाते फिर भी यह जानते हैं कि यह सत्य है Šयोंकि उसका वचन ऐसा ही कहता है ।

कुद मामलों में, कई लोग मानवीय तर्क करते हैं कि यदि परमेश्वर हर जगह है तो वह हर मनुष्य में, जानवर में, पौंधों में, और हर आराधनालय में होगा । यह छोटी सोच वाले मानवीय विचारों के लिये तर्कपूर्ण हो सकता है जिन्हें ईश्वरीय सत्य का ज्ञान नहीं । परंतु यह पूर्णतया झूठ हैं । परमेश्वर हर जगह विद्यमान हे का यह अर्थ है कि वह हर जगह में होने वाली बातों को जानता है । यद्यपि वह यह भी जानता है कि वहां Šया हो रहा हैं ।

नकृ का सही अर्थ (पापियों की अनंतकालीन सजा) है ऐसी जगह जहाँ परमेश्वर की उपस्थिती नहीं । यहीं कारण है कि नर्क में पापियों का Šलेश असहाय हो जाता हैं ।

इस प्रकार हम देखते है कि परमेश्वर निश्चित रूप से हर किसी में नहीं रहता। मानवजाति को पाप की अनंत सजा से बचाने के लिये परमेश्वर ने 2000 वर्ष पहले अपने पुत्र को पवित्र आत्मा के ईश्वरीय कार्य द्वारा एक कुंवारी के माध्यम से बालक के रूप में जन्म लेने के लिये भेजा ।

उसका नाम यीशु मसीह रखा गया 
।

वह बचपन से होकर व्यस्क बनाजिसके दौरान उसे उन्हीं परीक्षाआें से होकर गुजरना पडा जिससे हर व्यŠत को गुजरना पडता हैं । और वह उन सभी परीक्षाआ ें मे वह विजयी रहा ।

उसने कभी पाप ही नहीं किया ।

परमेश्वर पिता ने यीशु मसीह को ३३ वर्ष की आयु में दुष्टों के हाथों पडकर क्रूस पर यीशु का बलिदान ग्रहण किया गया है, उसे गाडे जाने के तीन दिन पश्चात्‌ मृतकों में से जीवित किया ।

निम्नलिखित दो सत्य से यह सिध्द होता है कि एक ही परमेश्वर है, और यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर का एक ही बार इस पृथ्वी पर प्रगट हुआ ।

  1. केवल यीशु मसीह ही वह एक व्यŠत है जो संसार के पापों के लिये मरा।
  2. यीशु मसीह केवल वही एक व्यŠत है जो मृतकों मे से जीवित हुआ और दुबारा फिर कभी न मरेगा इसके द्वारा यह सिध्द किया कि उसने मनुष्य के सबसे बडे दुश्यन मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लिया हैं ।

चालीस दिनों पश्चात यीशु स्वर्ग लौट गयाजहाँ वह आज भी हैं ।

स्वर्गारोहण से पहले उसने प्रतिज्ञा की कि वह एक दिन संसार का नयाय करने और धर्म और शांति के साथ राज्य करने वापस आएगा ।

जब हम उन चिन्हों को इस समय देखते है, हम जान सकते है कि मसीह का दोबारा आगमन बहुत ही निकट हैं ।

इससे पहले कि वह इस पृथ्वी पर लौटे, आपको परमेश्वर द्वारा मसीह में पापों की क्षमा प्राप्त करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं ।

अध्याय 5
पश्चाताप के विषय वास्तविक सत्य

हमने देखा कि पाप की सजा आत्मिक मृत्यु है अर्थात्‌ परमेश्वर की उपस्थिति से हमेशाके लिये अलग किया जाना । यही अनुभव यीशु को क्रूस पर हुआ । वह अपने पिता द्वारा छोड दिया गया था ।

नर्क की जो दुखदर्द और तकलीफे हमे भोगना था उन्हें यीशु ने हमारे बदले सहा और क्रूस पर तीन घंटे के दौरान उसने जो परमेश्वर है और स्वयं में अनंत है पिता से अलग होने की तकलीफ को अनुभव किया ।

हमारे पापों की सजा उसने ले लिया । परंतु हमें तब तक माफी नहीं मिलती और सजामुŠत नहीं हो जाते जब तक हम उसे परमेश्वर से प्राप्त नहीं कर लेते । यही कारण है कि संसार में बहुत से लोग परमेश्वर द्वारा क्षमा प्राप्त करते है यद्यपि मसीह उनके लिये मरा ।

मसीह केवल मसीहियों के पापों के लिये नहीं परंतु समस्त संसार और हर धर्म के लोगों के लिये मरा ।

मसीह की मृत्यू के द्वारा परमेश्वर ने आपके लिये जो कुछ मोल लिया है उसे पाने के लिये सर्वप्रथम आपको आपके पापों के विषय पश्चाताप करना होगा । इसका अर्थ यह है कि आपको अपने पापी मागा] क विषय सचमुच खेद है और आप अपने पापों से जिन्हे आप अच्छी तरह जानते हैं फिरना चाहते हैं ।

परमेश्वर को Šया प्रसन्न करता है Šया नहीं इसके विषय आरंभ में आपका विवेक जागृत नहीं होता । इसलिये परमेश्वर को अप्रसन्न करनेवाली सभी बातों से फिरना आपके लिये संभव नहीं होता । और परमेश्वर इसकी मांग नहीं करता । वह यर्थातवादी हैं । वह चाहता है कि आप उन सभी बातों को जो उसे अप्रसन्न करती है छोडने के लिये तैयार रहे ।

आप उन बातों को छोडने के द्वारा शुरूवात कर सकते है जिनके विषय आपका विवेक आपको दोषी ठहराता हैं । आपको अपनी बुरी आदतों को छोडने की हिम्मत नहीं होगी । ऐसी परिस्थिति में भी परमेश्वर आपकी कमजोरी को अच्छी तरह समझता हैं । वह आपसे बहुत बलवान होने की उम्मीद नहीं करता । वह आपके केवल यह पूछता है, 'Šया आप उन आदतों को छोडने के लिये तैयार है? ' जब वह आपकी ईमानदारी को देखता कि आप सभी पापमय बातों को छोडना चाहते है, वह आपके उसी अवस्था में स्वीकार करता हैं, यद्यपि आप अब भी कई बुरी बातों को छोड पाने में पूरी तरह सफल नहीं हुए हैं ।

यह कितनी अच्छी बात हैं ।

इस बात का एक प्रमाण कि आप बुरे मार्गो को छोडने के इच्छुक हैं यह है कि आप बीते दिनों में की गई गलतियों को सुधारना चाहते हैं । और इस विषय भी परमेश्वर आपकी सीमाआें को समझता हैं ।

पिछले दिनों मे आपने हजारो पाप किये होंगे जिन्हें आप अथक प्रयत्नों द्वारा भी सुधार नहीं पाएंगे । परमेश्वर चाहता है कि आप गलतियों को अपनी योग्यतानुसार सुधारें ।

उदाहरण के लिये यदि आपने किसी व्यŠत के पैसे चुराए हो, तो आपको जाकर (या लिखकर) उन बातों के लिये संबंधित व्यŠत से माफी मांगने के इच्छुक होना चाहिये । इसी प्रकार के कार्यो द्वारा परमेश्वर आपकी ईमानदारी और नम्रता को परखता हैं । वह नम्र लोगों की ही सहायता करता हैं ।

और बिना परमेश्वर की सहायता के हम बचाए नहीं जा सकते ।

सच्चे पश्चाताप को बाइबिल 'मूरतों की ओर से 
परमेश्वर की ओर फिरना बताती ह'ै (1 थिस्स 1:9)।

परमेश्वर मूर्तिपूजा के हर रूप से घृणा करता हैं ।

यह 
सृजी गई वस्तु को सिरजनहार से बढकर महत्त्व देना है चाहे वह धन, सुुंदर स्त्री, या मानसम्मान हो 

। सिरजी गई किसी भी वस्तु का चुनाव मूर्तिपूजा है Šयोंकि ऐसे करने का अर्थ है सिरजनहार से बढकर सिरजी गई वस्तु की पूजा करना और वही पाप की जड हैं ।

मूर्तियां भी लकडी, पत्थर या धातु की बनी प्रतिमाएं हैं । मनुष्य के द्वारा बनाई गई मूर्तियां उन्हें दर्शाते है जिस ईश्वर की वे पूजा करते हैं । परंतु किसी भी व्यŠत के लिये एक चित्र या मूर्ति बनाना जो सिरजनहार से मेल खाती हो असंभव बात है ।

परमेश्वर का स्मरण करने के लिये हमें किसी मूर्ति या चित्र का सहायक के रूप में उपयोग नहीं करना चाहिये । जैसा कि कुछ लोग कहते हैं कि वे मूर्ति या चित्र द्वारा उन्हें परमेश्वर को याद करने में सहायता होती हैं । सर्वशŠतमान परमेश्वर का सृष्टि के किसी भी चीज के रूप में प्रतिमा बनाना परमेश्वर को नीचा दिखाना, अपमान करना है चाहे वह प्रतिमा पुरूषों, स्त्रियों या किसी पशुआें के रूप में हो ।

परमेश्वर खुली आँखो से नहीं दिखता, वह किसी मूर्ति की तुलना से कहीं बढकर महान है चाहे वह कितनी भी अच्छी तरह से Šयों तराशी गई हो । किसी भी परिस्थिति में हमेेेें किसी ऐसे भौतिक वस्तु की जरूरत नही जो हमें परमेश्वर की याद दिलाए Šयोंकि हम सब के पास विवेक है जो रातदिन लगातार हमसे बातचीत करता है और हमे सिरजनहार के विषय याद दिलाता रहता हैं । अधिकतर, मूर्तिपूजा, धार्मिक कार्यक्रम और तीर्थ यात्रा विवेक की आवाज सुनने के पर्याय बन जाते हैं ।

जब लोग परमेश्वर के नियमों का उल्लंघन करते और भविष्य में भी करते रहते है तो वे कई धार्मिक अनुष्ठानों और कार्यो के माध्यम से उनके विवेक की आवाज को दबा देते हैं । ़वे सोचते है कि उनके कई बलि और तीर्थयात्राआें के कारण परमेश्वर उनके बहुत से पापों को माफ कर देगा । परंतु यह एक भ्रम है ।

परमेश्वर हमारे अनुष्ठानों और धार्मिक कार्यो को नही देखता । वह हमारे ह्दयों को जांचता है कि हम अपने विवेक की आवाज को सुनते है या नहीं । इसलिये पश्चाताप हर रीति में मूर्तिपूजा से फिरने को बताता हैं । सच्चे पश्चाताप का अर्थ है कि हम हर सिरजी गई वस्तु से सिरजनहार की ओर फिरते है, उससे यह कहते हैं, 'सर्वशŠतमान परमेश्वर, केवल तू ही आराधना के योग्य और सेवा करने के योग्य है । सिरजी गई वस्तुआें की आराधना करने के कार मैं खेदित हूँ । अब से अं तक तू ही मेरे जीवन में सर्वश्रेष्ठ होगा ।'

परमेश्वर चाहता है कि हम सबके परिवार होवें और हमारे जीवन निर्वाह के लिये कार्य करके कमाएं । पैसा कमाना पाप नहीं है । परंतु परमेश्वर से बढकर पैसो के प्रति प्रेम पाप हैं । आधुनिक सभ्यता की देन के रूप मे मिलनेवाली सुखसुविधाआें का उपयोग पाप नहीं है। परंतु उन सुखसुविधाआें के प्रति परमेश्वर से बढकर प्रेम और लगाव पाप हैं ।

परमेश्वर ने हमारे शरीरों को कुछ इस प्रकार बनाया है कि हम भोजन, नींद और यौन समाधान का अनुभव कर सकते हैं। इनमे ंसे कोई भी बात गलत नहीं है।

अब हमें यौन संबंधी इच्छाआें के प्रति शर्माने की जरूरत नहीं बल्कि हमे इस वास्तविकता के प्रति शर्माना चाहिये कि हम अŠसर भूख और थके हारे महसूस करते हैं । परंतु भूख के सम हमें भोजन चुराने या काम पर थकने के कारण सोते रहने की आवश्यकता नहीं है । उसी प्रकार हमारी यौन इच्छा की पूर्ति के लिये किसी दूसरे व्यŠत के साथ ज्यादती नहीं करना चाहिये। परमेश्वर ने विवाह का पवित्र बंधन दिया है वह चाहता है कि एक पुरूष की एक पत्नी हो ताकि यौन इच्छा पूरी हो सके। विवाह से हटकर किसी भी प्रकार का यौन संबंध पाप है । हमें यौन संबंधी सभी पापों से फिरना चाहिये, उन्हें छोडना चाहिये और ईमानदारी से परमेश्वर की ओर फिरना चाहिये।

दूसरा पाप जिसके, विषय आपको पश्चाताप करना और छोडना हे वह है दूसरों को माफ न करने की प्रवृत्ति । यदि पापों को माफ करें तो आपको उन सारे लोगों को माफ करने के इच्छुक होना चाहिये जिन्होंने किसी भी तरीके से आपको नुकसान पहुंचाया हो । जैसा परमेश्वर ने आपके साथ किया है वैसे ही आपको दूसरों के साथ करना चाहिये । यदि आप ऐसा नहीं करना चाहते तो परमेश्वर आपको भी माफ नही करेगा ।

प्रभु यीशु मसीह ने कहा,

'यदि तुम मनुष्यों के अपराध क्षमा न करोगे तो तुम्हारा पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा न करेगा' 
(भत्ती 6:15)।

जिस ने आपको अत्याधिक दुख दिया है उसे माफ करने में आप बहुत कठिनाइ महसूस करेंगे । तब आप परमेश्वर से प्रार्थना करत सकते है कि उस व्यŠत को माफ करने के लिये वह आपकी मदद करें ।

सर्वशŠतमान परमेश्वर की सामर्थ आपकी मदद करने के लिये उपलब्ध है । यदि परमेश्वर अपनी सामर्थ द्वारा आपकी मदद करे तो आपके लिये कुछ भी करना असंभव नहीं है ।

हमारे पाप चाहे जितने भी बुरे Šयों परमेश्वर उन सब को माफ कर सकता है यह तभी हो सकता है, यदि हम उनके लिये पश्चाताप करें, यदि हम अपने पापों के लिये सचमुच खेदित हों और पिछले पापमय मार्गो को छोडने के लिये तैयार हो ।

अध्याय 6
विश्वास के विषय वास्तविक सत्य

जब हम पश्चाताप के द्वारा परमेश्वर से अपने पापों की माफी प्राप्त कर लेते है तब हमारी अगली आवश्यकता होती है विश्वास।

बाइबिल कहती है,

'Šयोंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उध्दार हुआ है (इफिसियों 2:8)' 

।

अनुग्रह, परमेश्वर का हाथ है जो हमारी मदद आशीष के लिये हम तक पहुंचता हैं । विश्वास हमारा हाथ है जो परमेश्वर के हाथ से उस मदद और आशीष को प्राप्त करने के लिये उस तक पहुंचता हैं ।

जैसा हमने पहले देखा, परमेश्वर बुध्दिहीन कठपुतलियों को नहीं चाहता जो इसलिये कार्य करते है Šयों कि उनमें उसी प्रकार का प्रोग्राम डाला गया है या आदेश दिया गया हो । वह चाहता है कि हम स्वयं चुनाव करें ।

Šया आप यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर एक अच्छा परमेश्वर है जो आपको बहुत प्यार करता है ।

Šया आप विश्वास करते है कि परमेश्वर ने आपके पापों के लिये क्रूस पर बलिदान होने के लिये अपने पुत्र प्रभु यीशु मसीह को भेजा, और सह भी कि परमेश्वर ने उसे तीसरे दिन मृतकों में जिलाया और यह कि वह आज स्वर्ग में विद्यमान है?

यदि आप ऐसा विश्वास करते हैं तो इसी समय आप अपने पापों की माफी को परमेश्वर से प्राप्त कर सकते हैं।आपको अब ठहरने की जरूरत नहीं हैं ।

यदि यीशु मसीह के नाम को छोडकर इस पृथ्वी पर और कोई दूसरा नाम नहीं जिसके द्वारा पापी और नर्क से छुटकारा मिलता हो । यदि आप उसे अपना प्रभु और उध्दारकर्ता ग्रहण करना चाहते हैं तो, जैसा विवाह मेे होता है, 'अन्य सारी बातों को छोडकर केवल उसे थाम रहें'।विवाह में, एक स्त्री को अपने सभी पूर्व प्रेमियों को छोडकर जीवन भर एक ही पुरूष को थामे रहना होता हैं।

बाइबिल प्रभु यीशु मसीह के साथ हमारे संबंध को आत्मिक विवाह को बताती हैं । वही हमारा पवित्र पति हैं । इसलिये आप यह नहीं कह सकते कि आप मसीह को ग्रहण करने को तैयार है परंतु अब भी दूसरे ईश्वरों की उपासना और प्रार्थना करेंगे । आपको एक चुनाव करना होगा ।

यदि आप चुनाव करना चाहते है तो यही समय है ।

अपनी आँखो को बंद करें, अपने विचारों को परमेश्वर पर केन्द्रित करें और ह्दय से इन शब्दों को कहें । आप जहाँ भी हो वह आपकी सुन सकता है ।

वह आपकी सुनने में रूचि रखता हैं । अब यह कहें :


प्रभु यीशु मसीह, मै एक पापी हूं और मैं सचमुच अपने पापों से फिरना चाहता हूं / चाहती हूं । मैंविश्वास करता /करती हूँ कि तू मेरे पापों के 

लिये मरा, मृतकों में जी उठा और आज भी जीवित हैं । कृपया मेरे सारे पापों को माफ कर दें । मेरे ह्दय और जीवन में आ और आज से मेरे 

जीवन का स्वामी हो जा। अब से मैं सारे ईश्वरों को छोड देता हूँ / देती हूँ और केवल तेरी ही उपासना करना चाहता /चाहती हूँ । 

यह एक अत्यंत सरल प्रार्थना है जिसे आप बहुत जल्दी से कह सकते हैं ।परंतु यदि आप उस प्रार्थना को पूरी ईमानदारी से परमेश्वर से कहेंगे तो आपकी आत्मा अनंतकाल के लिये बचाई जाएगी । आप तुरंत परमेश्वर की संतान बन जाएंगे ।

यह एक जादुई सूत्र नहीं है कि जिसे कोई तोते की तरह रटकर बोले और आशिषित हो जाए। यह सब आपके ह्दय की सच्चाई पर निर्भर करता हैं । यदि आपके ऐसा कहने में सच्चाई है तो परमेश्वर आपके पापों को माफ करेगा, आपको ग्रहण करेगा और अपनी संतान बनाएगा । यदि आप ईमानदारी और सच्चे ह्दय से ऐसा नही कहेंगे तो आपमें कोई परिवर्तन नहीं रहेगा ।

यह आश्वासन कि हमें सचमुच माफ किया जा चुका है और हम परमेश्वर द्वारा ग्रहण किये गए हैं और हम परमेश्वर की संतान बनाए गए हैं सभी अत्यंत महत्त्वपूर्ण बाते हैं । परमेश्वर नहीं चाहता कि हम उसके आश्वासन के बिना ही रहें । परमेश्वर यह आश्वासन हमें हमारे ह्दय में पवित्र आत्मा के द्वारा देता है जो हमें यह बताता है कि हम परमेश्वर की संतान हैं । परमेश्वर हमें उसके लिखित वचन (बाईबिल) में प्रतिज्ञा के द्वारा भी आश्वासन देता है ।

प्रभु यीशु मसीह ने कहा, जो कोई मेरे पास आएगा उसे मैं कभी न निकालूंगा (यूहन्ना 6:37)

अनंत जीवन के लिये हम मसीह की इस प्रतिज्ञा पर विश्वास कर सकते हैं । Šया आपने दीनता के साथ प्रभु यीशु मसीह से यह प्रार्थना की? यदि आपने ऐसा किया है तो आप सचमुच उसके पास आ चुके हैं । तब आप इस बात से आश्वत हो सकते है कि उसने आपका तिरस्कार नहीं किया हैं । उसके पास आने में यदि आपने अपनी भूमिका को पूरा किया है तो आप इस बात से आश्वत हो सकते हैं कि आपको ग्रहण करने में उसने भी अपनी भूमिका को पूरा किया हैं ।

अब आपको आपके उस विचारधारा पर कि आप परमेश्वर द्वारा ग्रहण किये जा चुके हैं या नहीं, निर्भर नहीं रहना होगा । भावनाएं हमारे भौतिक शरीर से संबंध रखती है और आत्मिक बातों के विषय धोखा देती हैं ।

अपनी भावनाआें पर भरोसा रखना, बालू की बुनियाद पर घर बनाना हैं । हमें अपना विश्वास परमेश्वर की प्रतिज्ञाआें, उसके वचन पर ही रखना चाहिये जो चट्‌टान की बुनियाद पर घर बनाने के समान होगा ।

एक बार जब आप इस बात से आश्वत हो जाते है कि आप परमेश्वर की संतान बन गए हैं तो इस सत्य को आपको सार्वजनिक रूप से अंगीकार करना चाहिये । बाइबिल कहती है कि जो कुछ तुम ह्दय में विश्वास करते हो उसे अपनी जीभ द्वारा अंगीकार करो । इसलिये आपको चाहिये कि आप अपने ओठों से यह स्वीकार करें कि यीशु मसीह अब आपका उद्वारकर्ता और प्रभू हैं । आपको अपने मित्रों और रिश्तेदारों से कहना चाहिये कि मसीह ने आपनके पापों को माफ कर दिया है और अब केवल वहीं आपके जीवना का प्रभू हैं ।

फिर आपको मसीह के साथ अपने संबंध का, बाप्तिस्मा के द्वारा अंगीकार करना चाहिये । जब भी आपने अपना ह्दय मसीह को देने का निर्णय लिया जितना जल्द हो सके, अपको बाप्तिस्मा ले लेना चाहिये । बाप्तिस्मा कोई धार्मिक संस्कार नहीं हैं । यह परमेश्वर, मनुष्य और शैतान के लिये जाहीर गवाही है कि अब आप केवल यीशु मसीह के ही हैं ।

बाप्तिस्मा की विधि में एक अन्य मसीही आपको पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम में पानी में पूरी तरह डुबाएगा (उतारेगा) (एक नदी या टंकी में) और फिर पानी से बाहर भी निकलेगा । उस सरल विधि के पूरा करने के द्वारा आप यह गवाही देते है कि आपका पुराना मनुष्यत्त्व मर चुका हैं । पानी में पूरा पूरा डूबने के द्वारा आप सांकेतिक रूप से पुराने मनुष्यत्त्व को पानी में दफन कर देते हैं ।

पानी से बाहर आने के द्वारा आप इस बात की पुष्टि करते है कि अब आप एक नये व्यŠत हैं (आत्मिक तौर से कहा जाए तो मृतकों में से जी उठे हैं ) और केवल परमेश्वर को ही प्रसन्न करने की इच्छा रखते हैं ।

अभी आप सिध्द नहीं हुए हैं । सिध्द होने के लिये आपको जीवन भर का समय लगेगा । परंतु आपने अपने जीवन की दिशा को बदल दिया है । अब आप फिर से पाप करना या परमेश्वर को नाराज करना नहीं चाहते ।

आप स्वर्ग के नागरिक और परमेश्वर की संतान बन गए हैं ।

अध्याय 7
उध्दार के विषय वास्तविक सत्य

'यीशु' नाम का अर्थ है 'उध्दारकर्ता ।'

वह इसी नाम से संसार में आया Šयोंकि वह यही करने के लिये आया अर्थात्‌ लोगों को उनके पापों से छुटकारा देने के लिये ।

उध्दार पापों की क्षमा से बढकर हैं ।

इस अंतर को और अधिक स्पष्ट करने के लिये मैं एक उदाहरण देना चाहता हूँ ।

समझ लीजिये कि मेरे घर के बाहर का रास्ता सुधारा जा रहा है जिसके लिये एक गहरा गड्‌ढा खोदा गया है । मैं अपने छोटे से बेटे को चेतावनी देता हूँ कि उस गड्‌ढे के पास न जाना Šयोंकि तुम उसमें गिर सकते हो । परंतु हम यह मान लें कि उसने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया और उसमें झाँक कर देखने के लिये उसके समीप गया और वह फिसलकर उसमें गिर पडा । १० फीट गहरे गड्‌ढे के भीतर से वह मुझे चिल्ला चिल्लाकर पुकार रहा हैं ।

जब मैं वहाँ जाता हूँ तब वह मुझे बताता है कि मेरी आज्ञा के उल्लंघन करने के विषय वह बहुत खेदित है और वह मुझसे माफी मांगता है । मान लीजिये कि तब मैं उससे यह कहूँ, ठीक है बेटा, मैने तुझे माफ किया । अलविदा । ऐसा करने के द्वारा मैं Šया किया होता? मैं उसे माफ तो कर दिया परंतु उसे बचाया न होता ।

उध्दार क्षमा प्राप्ति से कहीं बढकर हैं । उसे उस गड्‌ढे से खींचकर बाहर निकालना, माफ करने से बढकर रहा होता ।

यह बात यीशु भी हमारे लिये करने को आया । वह हमारे पापों को केवल माफ ही नहीं करता परंतु वह हमें हमारे पापों से बचाने भी आया । हम सब अपने विवेक की बारबार आज्ञा न मानने के कारण पाप के गहरे गड्‌ढे में गिर गए हैं । यदि परमेश्वर हमें माफ कर देता है तो यह अपने आप में एक आश्चर्यजनक समाचार होता । परंतु मसीह की ओर से सुसमाचार यह है कि वह न केवल हमारे पापों को माफ करता है परंतु पाप की शŠत से भी बचाता हैं ।

हमें 3 काल (समयों) में उध्दार का अनुभव करना होता है, भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल । सर्वप्रथम, हमें पाप की मजदूरी से बचना हैं । तब हमें पाप की शŠत से बचना है, अंत में जब हम स्वर्ग में जाते है तब पाप की उपस्थिति से भी बच जाते हैं ।

उध्दार का पहला चरण हमारे पापों की क्षमा से संबंध रखता है अर्थात हमारे भूतकाल के गुनाहों का अंत ।

परंतु वह काफी नही है । भविष्य में भी खराई से चलने के लिये भी हमें परमेश्वर की सहायता की जरूरत होती हैं । इसके लिये परमेश्वर हमें उसकी सामर्थ देता हैं ।

मैेन एक मनोरूग्णालय के विषय सुना जहाँ मानसिक रूप से रोगी लोग इलाज के लिये भर्ती किये गए हैं। उन्होंने यह जानने के लिये कि उनमें से कुछ लोक वास्तविक रूप में स्वस्थ हुए हैं या नहीं, एक परीक्षण किया । वे उनमें सेएक रोगी को ऐसे कमरे में रख देते थे जहाँ नल से लगातार पानी बह रहा था । फिर वे उसे एक पोछा और बाल्टी दे देते और उसे फर्श को पोछने को कहते । यदि वह व्यŠत नल को बंद किये बिना ही फर्श पोंछने लगता तो वे यह समझ जाते थे कि वह अब भी अपने पूरे होशहवास में नहीं लौटा हैं ।

हमारी समस्या भी ऐसी ही हैं । हमारे भीतर भी एक नल है जो लगातार पाप का निर्माण कर रहा है । यीशु न केवल हमारे पापों को मिटाता है, परंतु वह उस पाप के स्त्रोत नल को बंद करने की सामर्थ भी देता हैं । अन्यथा सुसमाचार किसी भी पहलू से शुभ समाचार न होता ।

सुसमाचार (शुभ समाचार) बाइबिल में उध्दार के लिये परमेश्वर की सामर्थ है (रोमियों 1:16)

सामर्थ का पहला स्त्रोत परमेश्वर का वचन हैं । बाइबिल एक शŠतशाली हथियार है जो परीक्षा पर विजय प्राप्त करने में हमारी सहायता करती हैं । स्वयं यीशु भी परमेश्वर के वचन की सामर्थ द्वारा ही शैतान की परीक्षाआें पर विजय प्राप्त किया (मत्ती 4:1-10)

यही कारण है कि हमें प्रतिदिन परमेश्वर के वचन को पढने की आदत डालना चाहिये ताकि परमेश्वर उसके द्वारा हमसे बात करे और जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिये हमें मजबूत बनाए ।

जवानों से बाइबिल कहती है, तुम बलवंत हो, और परमेश्वर का वचन तुम मं बना रहता है, और तुम ने उस दुष्ट पर जय पाई है (1 यूह 1:14)

सामर्थ का दूसरा स्त्रोत है, परमेश्वर की पवित्र आत्मा जो हमारे भीतर वास करती हैं । वह हमारे भीतर स्थायी रूप से बसना चाहती है, हमसे रोज बात करना चाहती है, जीवन की चुनौतियों का सामना करने में हमे दृढ करना चाहती है और यीशु के चेलों की नाई उसके पीछे चलने में हमारी मदद करना चाहती है। हमें परमेश्वर से मांगना चाहिये कि नियमित रूप से वह हमें पवित्र आत्मा से परिपूर्ण करता रहे ।

प्रभु यीशु मसीह ने कहा, अत: जब तुम बुरे होकर अपने बच्चों को अच्छी वस्तुएं देना जानते हो, तो स्वर्गीय पिता अपने मांगनेवालों को पवित्र आत्मा Šयों न देगा (लूका 11:13)

सामर्थ का तीसरा स्त्रोत है समान विचारधारा वाले अन्य मसीहियों के साथ संगति ।

जब बहुत से कोयले एक साथ जल रहे हो तो वे सब तेजी से जलते हैं । परंतु यदि उनमें से एक कोयले को (जो सबसे अधिक तेज के साथ जल रहा था) बाहर निकालें तो वह जल्द ही बुढ जाएगा । ठीक यही बात हम पर भी लागू होती है यदि हम परमेश्वर के लिये अन्य मसीहियों को छोडकर अलगअलग रहकर जीते है ।

परंतु यही वह क्षेत्र है जहाँ हमें सावधान रहना है Šयोंकि स्वयं को मसीही कहलवाने वाले सभी लोग मसीही नहीं होते ।

वास्तव में यह कहना ज्यादा सही होगा कि जो लोग स्वयं को मसीही कहलवाते है (चाहे वे किसी भी मसीही समूह या संस्था के Šयों न हो) उनमें से 90 प्रतिशत लोग परमेश्वर की संतान नहीं होते । उन्होने अपने पापों को छोडने और यीशु मसीह को उनके जीवन का प्रभु मानने का निर्णय नहीं लिया है । वे जन्म की घटना के आधार पर स्वयं को मसीही समझते है अर्थात्‌ मसीही परिवार में जन्म लेना उनके लिये मसीही कहलाता हैं ।

हमे ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिये जो नामधारी मसीही है और उनके साथ संगति करना चाहिये जो अनुभव से मसीही हुए है और जो अपने दैनिक जीवन में मसीह के पीछे चलना चाहते हैं ।

जब हम यीशु को अपना प्रभु और उध्दारकर्ता ग्रहण कर लेते है तब बाइबिल हमे बताती है कि हम स्वर्ग में नया जन्म पा लेते है Šयोंकि उसे ग्रहण करने के द्वारा हम परमेश्वर की संतान बन जाते है । और संसारिक पिता की तरह परमेश्वर भी हमाीर सभी आवश्यक जरूरत को जो हमारे संसारिक जीवन में पडती हैं आत्मिक और भौतिक दोनों पुरा करने की इच्छा रखता हैं ।

प्रभु यीशु मसीह ने कहा कि यदि हम अपने जीवन में परमेश्वर की इच्छाआें को पूरा करें, तो बाकी सभी बातें जो इस संसार में हमारे जीवन के लिये आवश्यक है हमें मिल जाएगी ।

उसने कहा, तुम्हारा स्वर्गीय पिता अच्छी तरह 

जानता है कि तुम्हे किन किन बातों की जरूरत है । और यदि तुम अपने जीवन में उसे प्रथत स्थान दो और जैसा वह चाहता है वेसे ही जियो तो 

वह तुम्हं सब कुछ देगा (मत्ती 6:33)

परमेश्वरकी संतान का सबसे बडा सौभाग्य है प्रार्थना सर्वशŠतमान से बातचीत करना, उसकी आत्मा से परमश्वर द्वारा बातचीत को सुनना । परमेश्वर हमसे वैसे बात नहीं करता जैसे हम अपने कानों से सुनते है, परंतु वह अंदर ही हमारी आत्मा पर प्रभाव के द्वारा बात करता है जो ठीक हमारे सुन सकने वाली आवाज के समान ही होती हैं । यीशु ने हमें हमारे ह्दय के बोझ को परमेश्वर से कहने को सिखाया ।

कई लोग खामोशी से दुख उठाते है Šयोंकि उनके दुखों को बांटने वाला कोई नहीं होता । परंतु परमेश्वर की संतान के पास स्वर्गीय पिता है । वह उसकी सारी जरूरतों की पूर्ति के लिये जिनकी उसे पृथ्वी पर जरूरत है, उसके स्वर्गीय पिता पर विश्वास कर सकता हैं ।

प्रभु यीशु मसीह ने हमे परमेश्वर से विनती करने के द्वारा परिस्थितियों को बदलना सिखाया । यह प्रार्थना का चमत्कार है । हमारे साथ जो कुछ होता है और वह किसी भी प्रकार से हमारे परिवार को नुकसान पहुंचाता है, तो उसे हमे यूं ही स्वीकार नहीं कर लेना चाहिये (यह कहकर कि जो कुछ हमारे साथ हुआ है वह परमेश्वर की इच्छा से ही हुआ है) भाग्य, किस्मत, तकदीर, परमेश्वर की इच्छा के प्रति अधीनता से भिन्न हैं । हमें हमारी जरूरतों के लिये परमेश्वर से मांगना सिखाया गया है ।

बाइबिल में प्रतिज्ञा है, परमेश्वर तुम्हारी हर एक 

घटी को पूरी करेगा (फिलिप्पियों 4:19)

परंतु हर समझदार पिता की तरह परमेश्वर भी वह सब नहीं देगा जो हम चाहते या मांगते हैं । वह हमे वही सब देगा जिनकी हमें जरूरत है और वह सब जो उसकी दृष्टि में हमारे लिये भला हैं ।

परमेश्वर एक अच्छा परमेश्वर है । वह नहीं चाहता है कि कभी भी कोई भी बुराई उसकी संतानों के जीवन मे आए । इसलिये हम निडर होकर उसके पास जा सकते है और हमे सारी बुराईयों से छुडाने के लिये उससे विनती कर सकते हैं ।

संसार में ऐसे बहुत से लोग है जा दूसरों के द्वारा उन पर किय गये जादूटोना के कारण तकलीफ उठा रहे हैं । यदि आपने अपना जीवन मसीह को दिया है तो ऐसी शैतानी बातें अब आपको नुकसान नहीं पहुंचा सकती। आप शैतान को भगाने के लिये प्रभु यीशु का नाम (जिसने शैतान को हराया है) ले सकते हैं।

यदि आप यीशु मसीह के नाम से सामना करें तो 

किसी भी प्रकार का जाूद टोना आपको या आपके बच्चों और परिवार को हानि नहीं पहुंचा सकते । यदि आप बचाए जाने के लिये प्रभु यीशु मसीह 

के नाम से पुकारें तो आप पर किये गये जादूटोना की शŠत अभी उसी क्षण निकाली जा सकती हैं।

बाइबिल हमे बताती है कि जब यीशु क्रूस पर मरा, उसने शैतान की सारी शŠत छीनकर उसे हरा दिया । यह हो चुका है । परंतु आपके पापों की क्षमा के विषय शैतान की हार यहाँ वास्तविक नहीं हो सकती, जब तक कि आप स्वयं उसे मान न ले ।

इसलिये जब कि लडके मांस और लोहू के भागी हैं, तो वह आप भी उनके समान उनका सहभागी हो गया ताकि मृत्यु के द्वारा उसे जिसे मृत्यु 

पर शŠत मिली थी, अर्थात्‌ शैतान को निकम्मा कर दें । और जितने मृत्यु के भय के मारे जीवन भर दासत्व में फंसे थे, उन्हें छुडा लें (इब्रा
2:14,15)

इसलिये परेश्वर के अधीन हो जाओ, और शैतान का सामना करो, तो वह तुम्हारे पास से भाग निकलेगा (याकूब 4:7)

यद्यपि हम परमेश्वर की संतान बन भी जाएं, तब भी परमेश्वर हमे परखने के लिये शैतान को अनुमति देगा Šयोंकि यही तरीका है जिसके द्वारा हम बलवंत हो सकते हैं । परंतु अब हमारे पास पवित्र आत्मा की सामर्थ है जो हमारे भीतर वास करती है, जो हमें शैतान का सामना करने और उसके हमलों पर विजय प्राप्त करने की सामर्थ देती हैं।

परेश्वर ने यह वाचा नहीं बांधा है कि उसकी संतान इस संसारिक जीवन में परीक्षाआें और समस्याओ सें मुŠत रहेंगे नहीं ।

परमेœर चाहता है कि हम है और मजबूत बनें धनाडय मातापिता की बिगडी संतान के जैसे नहीं जो जन्म से ही गुमराह हो जाते है । और हमें मजबुत बनाने के येि वह हमें परीक्षाआें और समस्याआें का सामना करने की अनुमति देता है ठीक अन्य मनुष्यों की तरह ।

परंतु जैसे ही हम हर परिस्थिति में उसकी आश्चर्यजनक सहायता का अनुभव कतरे हैं, उसे और अधिक अच्छी रीति से जान लेते हैं ।

अध्याय 8
अनंतकाल के विषय वास्तविक सत्य

उस व्यŠत के लिये जो परमेश्वर की संतान बन चुका है, अनंतकाल की बातें वर्तमान युग की बातों से कहीं बढकर है । उसके लिये स्वर्ग के मूल्य पृथ्वी पर के मूल्यों से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं ।

2000 वर्ष पूर्व जब प्रभु यीशु मसीह मृतकों में से जी उठा तब उसने इस संसार में फिर से आने की प्रतिज्ञा किया । इस मीसह का पुनरागमन कहा जाता हैं ।

इस संसार के इतिहास की यह अगली महान घटना होगी ।

परमेश्वर की संतान यह जानती है कि जब मसीह इस संसार मे आएगा तब एक दिन उसे आपने जीवन का हिसाब देना होगा ।

यह संसार हमारी अनंतकाल की यात्रा में एक पडाव ही हैं । हम यहाँ अस्थायी हैं । जीवन के कई परिस्थितियों के द्वारा परमेश्वर यह परख रहा है कि हम स्वर्ग की अनंत बातों को या संसार की अस्थायी बातों को चुनते हैं । यदि हम बुध्दिमान है तो हम उन्हीं बातों का चुनाव करेंगे जिनका अनंतकाल में महत्त्व हैं।

एक छोटा बालक 500 रूपये के नोट की बजाए एक चमकदार, रंगीन कागज का चुनाव करेगा Šयोंकि उसे कीमत की समझ नहं है । जब हम स्वर्ग और अनंतकाल की जगह पृथ्वी की बातों को प्राथमिकता देते है, तब हम ठीक इस बच्चे के समान ही व्यवहार करते हैं ।

परमेश्वर ने बाइबिल में हमें स्पष्ट रीति से बताया है कि संसार और उसकी सारी बातें खत्म हो जाएगी ।

इस संसार की अस्थायी बातों के लिये जीना ऐसे बैंक में पैसे जमा करना हे जो जल्द ही नष्ट होनेवाला हैं ।

एक बुध्दिमान व्यŠत अपने धन को ऐसे बैंक में रखेगा जो स्थिर हो । उसी प्रकार जो बुध्दिमान है वे अनंतकाल की महत्त्वपूर्ण बातों के लिये ही जीएंगे अर्थांत्‌ वे बातों जो हमारे चरित्र से संबंधित है जैसे पवित्रता, प्रेम, अच्छाई, क्षमा,नम्रता आदि जिन्हें हम संसार छोडते समय साथ ले जाएंगे ।

बाइबिल हमें बताती है कि उन लोगों का अंत बहुत बुरा होनेवाला है जो अपने पापों के विषय पश्चाताप किए बिना ही मर जाते हैं ।

मनुष्यों के लिये एक बार मरना और उसके बाद न्याय का होना नियुŠत है (इब्रानियों 9:27) । 
एक व्यŠत जब मर जाता है, उसे बदलने का कोई मौका नहीं रहता । परमेश्वर भी ऐसे व्यŠत को नहीं बदल सकता Šयोंकि वह व्यŠत की इच्छा के 
विरूध्द उसे नहीं बदलता । यह तभी संभव है जब हम इस पृथ्वी पर रहते हुए ही बदलने की इच्छा रखते हैं । 

आनेवाले समय में, हर एक व्यŠत जो कभी इस पृथ्वी पर रहा था, मृतकों में से जिलाया जाएगा कि वह परमेश्वर को उसके जीवन का लेखा दे ।

बाइबिल बताती है कि दो पुरूत्था होगे अर्थात्‌ वे मृतक शरीर जो मिट्‌ठी में मिल चुके है, परमेश्वर की पुन: शरीर रूप में आ जाएंगे ।

पहला पुनरूत्थान उनके लिये होगा जो धर्मी है 
जिन्होने मसीह को गृहण किया और पापों की क्षमा प्राप्त किया और वे जो संसार में रहते हुए परमेश्वर की संतान बन गए 
।

 
दूसरा पुनरूत्थान उनके लिये होगा जो पापों की क्षमा प्राप्त किये बिना ही मर गये, जिन्होंने मसीह को अपना उध्दारकर्ता और प्रभू नहीं स्वीकारा 
हैं । यदि एक व्यŠत पापों के लिये पश्चाताप किये बिना मर जाए और पापों की क्षमा के लिये मसीह पर विश्वास न किया हो, परमेश्वर के न्याय के 
सिंहासन के सामने उसका न्याय किया जाएगा जहाँ उसके संपूर्ण जीवन पर विचार किया जाएगा । तब वह अनंतकाल तक के लिये आग की झील 
में डाल दिया जाएगा । यह उनके लिये एक डरावना भविष्य है जिन्होने मसीह का इंकार किया वे अनंतकाल तक ऐसे ही रहेंगे । वह उनके लिये जो 
मसीह का इंकार करते है यह एक डरावना भविष्य होगा जो अनंतकालीन होगा ।

वह शैतान जिसने संसार में सभी मनुष्यों को लाया और लोगों को पाप की ओर ले जाता है, वह भी सर्वप्रथम आग की झील में डाला जाएगा ।

दूसरी ओर वे लोग जिन्होंने स्वयं को नम्र किया अपने पापों को मानकर उन्हें छोड दिया, और क्रूस पर मसीह की मृत्यु के द्वारा अपने पापों की क्षमा का परमेश्वर द्वारा दिया गया अवसर का उपयोग किया, स्वर्ग के आनंद में प्रवेश करेंगे जहाँ वे परमेश्वर और यीशु मसीह के साथ युगानुयुग रहेंगे ।

स्वर्ग एक ऐसी पवित्र, शांति और आनंद की जगह है जहाँ स्वर्गदूत और मनुष्य जाति में से वे सब लोग जिन्हे ंपापों की क्षमा मिली है, परमेश्वर की स्तुति करेंगे और भिन्न तरीकों से अनंतकाल तक उसकी सेवा करते रहेंगे ।

यह मारे उन प्रियजनों से मिलने का आनंदमय स्थान होगा जो इस पृथ्वी पर हमसे पहले परमेश्वर की संतान और यीशु को उध्दारकर्ता विश्वास करके मरे।

परमेश्वर की सच्ची संतान उस महिमामय दिन की बाट जोहता हे जब वह परमेश्वर के साथ हमेशा के लिये होगा ।

 
अब जब अप वास्तविक सत्य को जान गए है तो आपकी कया प्रतिकिया होगी? Šया आपने प्रभु यीशु मसीह से वह प्रार्थना की कि वह आपके 
पापों को माफ करे और आपको परमशेवर की संतान बनाए ? वह प्रार्थना करने का अवसर अभी है जब परमेश्वर आपके ह्दय से बातचीत कर रहा हैं 
। हमसे कोई भी यह नहीं कह सकता कि हम कब मरेंगे और इस पृथ्वी को छोड जाएंगे ।उससे पहले कि वह दिन आए इस बात को सुनिश्चित करें 
आपको पापों की क्षमा मिल चुकी है और आप परमेश्वर से मिलने को तैयार हैं ।