द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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लव्हलैंड, कोलोरॅडो में आयोजित (मार्च 18-20, 2011) पुरुषों के सम्मेलन की टिपण्णियां आगे दी गई है।

( सत्रों की व्हिडीओ तथा ऑडीओ पाने के लिये इस साईट पर संपर्क करें.
http://rlcfchurch.org/rlcf-mens-leadership-conference-2011 )


• गवाह होना याने (प्रेरितों के काम 1:8) परमेश्वर के सत्य के लिये दृढ़ खड़े होना।


• परमेश्वर के दास की परिक्षा होगी, परन्तु वह निराश न हो।


• यीशु के जैसे होना मतलब स्वयं के लिये न रोते हुए औरों के लिये रोना।


• परमेश्वर के वचन का स्वास्थ हमें सम्भाले रखना है (2 तीमुथियुस 1:13)।


• एक बार पवित्र आत्मा से भरने का उपयोग बहुत ही कम होता है। मानो एक बार कार में पेट्रोल भरने जैसा वह होता है।


• यीशु जब इस संसार में थे तब कई लोगों ने नहीं जाना कि त्रिएकता की दुसरी व्यक्ति हमारे मध्य में है। आज कई मसीही लोग नहीं जानते की त्रिएकता की तीसरी व्यक्त हमारे मध्य में है।


• आपके विषय में इस तरह कहा जाए : परमेश्वर ने इस व्यक्ति को भेजा और वह यीशु की गवाह बना (यूहन्ना 1:6-7)।


• हमारी जिम्मेवारी है कि हम आज जगत की ज्योति बने (यूहन्ना 9:5; मत्ती 5:14)। हमें अपने जीवन में यीशु की ज्योति प्रतिबिम्बीत करना है, जैसे की चाँद सूरज की रोशनी प्रतिबिम्बीत करता है।


• परमेश्वर चाहता है कि हम हमारे जीवन में और सेवकाई में टिकने वाला फल दे (यूहन्ना 15:16) - कुछ दिनों में गायब होने वाला फल नहीं।


• नये नियम के अंतर्गत परमेश्वर के सेवकाई की शुरुआत अति पवित्र स्थान से होती है, इस कारण परमेश्वर की सेवकाई करने के लिये हमे प्रथम उसकी आराधना करना है (मत्ती 4:10)।


• यदि हम परमेश्वर की आराधना करना सीख जाएं तो हम उसकी उपस्थिति में बोर नहीं होंगे।


• अपनी पत्नि से पूर्ण समर्पण की अपेक्षा करने से पूर्व हमें मसीह जो सिर है उसको पूर्ण समर्पित होना है (1 कुरिन्थियों 11:3)।


• जिसने (शैतान) अधिकार के विरुद्ध युद्ध पुकारा उसके द्वारा पाप जगत में आया। इस कारण पापों से मुक्ति यीशु द्वारा मिली है क्योंकि वह हमेशा अधिकार को समर्पित था।


• हमारे अधिकारी परिपूर्ण हो या न हो, हमें उनके प्रति आधीन रहना है या समर्पित रहना है। यीशु भी 30 वर्ष तक अपरिपूर्ण युसूफ तथा मरियम के प्रति समर्पित था।


• रोमियों में दिए गए सुसमाचार की सीढीयों में एक सीढ़ी महत्वपूर्ण है। वह बताती है कि हमें संसार के अधिकारियों के प्रति समर्पित रहना है। (रोमियों 13:1-7)।


• जो व्यक्ति टूटे हुए दिल का नहीं है उसने कलीसिया में अधिकार सम्भालना बहुत धोकादायक है।


• अनंतकाल का जीवन केवल अंतरहित नहीं परंतु शुरुवात रहित भी है । यह जीवन केवल परमेश्वर का जीवन है - उसके दैवी स्वभाव में हम शामील होते है (यूहन्ना 17:3; 2 पतरस 1:4)।


• यीशु के साथ चलने वाले व्यक्ति का चिन्ह नम्रता है (मरकुस 11:29)।


• जिस परमेश्वर ने आज्ञा की है कि ''खून न करना'', ''व्यभिचार न करना'' तथा ''चोरी न करना'' उसी परमेश्वर ने तीन तीन बार आज्ञा दी है, ''चिंता न करना'' (मत्ती 6:25-34) तथा ''भयभित न होना'' (मत्ती 10:26-31) क्या हम पहिली तीन आज्ञाओं की नाई दुसरी दो आज्ञाओं को भी महत्व देते है?


• यदि हम चिंता तथा भय को हमारी दुर्बलता कहेंगे तो हम उनसे मुक्ति नहीं पा सकते। यदि हम उन्हें पाप कहेंगे तो यीशु ने इन पापों को स्वयं पर ले लिया और हमें मुक्त किया है।


• कई मसीही लोगों ने धार्मिकता का पाखंडीपन पहना है। यह धार्मिकता उपरी है। इन लोगों की तुलना उस कुत्ते से की जा सकती है जिसे बिल्ली का आवाज़ निकालने का प्रशिक्षण दिया है परन्तु जब उसे चिथाया जाता है तब वह भौंकना शुरू करता है।


• परमेश्वर के भय के विरुद्ध मनुष्य का भय मानना है। यदि हम मनुष्य को डरेंगे तो हम उनका आदर चाहते है। यदि हम परमेश्वर को डरेंगे तो हम केवल परमेश्वर का आदर चाहते है।


• पुराने नियम के अनुसार इस्राएली लोगों को सबके सामने प्रार्थना करने की, दान देने की तथा उपास करने की अनुमती थी। नये नियम में हमें बताया है कि हम यह बातें गुप्त रीति से करें (मत्ती 6:1-18), अन्यथा यह कर्म मृत कर्म होंगे।


• पिता ने हर बार यीशु की प्रार्थना सुनी है (यूहन्ना 11:41-42), क्योंकि यीशु पिता के इच्छानुसार करते थे (यूहन्ना 8:29)। यहीं प्रार्थना का रहस्य है।


• मृत कर्म अच्छे कर्म होते है जो मनुष्य से आदर पाने के लिये किये जाते है। हमें इन मृत कर्मों से शुद्ध होना है और फिर जीवते परमेश्वर की सेवकाई करना है (इब्रानियों 9:14)।


• यदि परमेश्वर आपकी प्रार्थना का उत्तर नहीं देता तो शायद उसने आपकी प्रार्थना नहीं सुनी है - क्योंकि आपके जीवन में कबूल न किया हुआ पाप हो (भजन संहिता 66:18)।


• परमेश्वर हर समय प्रार्थना का उत्तर देता है, उसका उत्तर ट्राफीक सिग्नल के बत्ती जैसा ''हा - हरा'', ''नही - लाल'' तथा ''रूके - पिला'' होता है।


• यदि हमारा प्रार्थना जीवन घड़ी के काटों से नियंत्रीत है तो हमारे कार्य गुप्त कार्य है। उससे यह प्रमाण मिलता है कि हम सच्चे दिल से यीशु से प्रेम नहीं करते।


• दस आज्ञाओं में से अंतिम आज्ञा है कि लालच न करना, यह आंतरिक आवश्यकता है। यह आज्ञा पूरी करने के लायक जो नहीं है और कौन इस बात को कबूल करता है वह जांचने के लिये परमेश्वर ने यह आज्ञा दी है। पौलुस ने कबूल किया कि वह लालची है (रोमियों 7:7-8)। इस कारण परमेश्वर ने उसे धर्मी जीवन दिया (रोमियों 8:2-4)।


• पहाड़ी पर के उपदेश की शुरुआत मन के दीन लोगों को वचन देकर हुई। उनके लिये स्वर्ग का पूरा राज उपलब्ध है। मन के दीन होना मतलब स्वयं की आवश्यकता जानना (मत्ती 5:3)। दुख की बात यह है कि बहुतसे मसीही लोग संसारीक राज्य में (संसारीक आशीषों में) संतुष्ट है।


• पहाड़ी पर के उपदेश की समाप्ती दो कलीसियाओं के चित्र से होती है। यरूशलेम तथा बाबूल की कलीसिया। पहिली कलीसिया ने अपनी नींव चट्टान पर बनाई क्योंकि उसने मत्ती अध्याय 5-7 का पालन किया। दुसरी कलीसिया ने अपनी नींव बालू पर रची क्योंकि उसने परमेश्वर के इन वचनों की ओर ध्यान नहीं दिया।


• आम के जिस ड़ाली ने 50 वर्ष तक फल दिया है यदि वह सत्व प्राप्त करने के लिये झाड़ से जुड़ी न रहेगी तो वह आज भी फल देना बन्द कर देगी और सुक जाएगी। अनुभव के आधार पर हमेशा परमेश्वर पर निर्भर रहेंगे ऐसा नहीं। क्योंकि हमें पवित्र आत्मा द्वारा सामर्थ मिलती है। आँख उखाड़कर फेंकना मतलब लैंगिक वासनाओं के प्रति अंध रहना।


• पहाड़ी पर के उपदेश में यीशु ने उन दो पापों के विषय में कहा जो हमें नर्क में भेज सकते है - क्रोध तथा वासनामय विचार और वर्तन (मत्ती 5:21-30)। फिर भी विश्वासी लोग यह दो पाप अधिक करते है।


• चट्टान पर घर बनाना मतलब खोदाई करके परमेश्वर के वचन पर घर बनाना, मतलब पूर्ण रीति से उसकी इच्छा को समर्पित होना (लूका 6:47-48)। यदि आप अपने बुद्धि और भावनाओं पर निर्भर है तो आप कभी भी आत्मिक हो नहीं पाएंगे। परमेश्वर आपके दिलों में वास करना चाहता है। इसके लिये आपको उसके इच्छाप्रति समर्पित होना है।