द्वारा लिखित :   जैक पूनन श्रेणियाँ :   मसीह के प्रति समर्पण
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जब यीशु 30 वर्ष का था तब पिताने स्वर्ग सेउसके विषय यह शब्द कहे, "यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हूं " (मत्ती 3:17)। यह ऐसा समय था कि अब तक यीशु ने एक भी चमत्कार नहीं किया था और एक भी संदेश नहीं दिया था।

यीशु की ऐसी कौन सी बात थी कि परमेश्वर उससे प्रसन्न हुआ? उसने की हुई सेवा तो निश्चय ही नहीं थी क्योंकि उसने उस समय तक किसी भी सार्वजनिक स्थान पर संदेश नहीं सुनाया था। परमेश्वर के इस प्रसन्नता के पिछे एक ही कारण था और वह था – यीशु का 30 वर्ष तक परमेश्वर के इच्छानुसार आचरण।

हमारे सेवकाई के आधार पर परमेश्वर हमसे प्रसन्न नहीं होता। प्रतिदिन के हमारे जीवन में हमपर आनेवाली परीक्षाओंपर हम विश्वास से जय पाते है उस आधार पर परमेश्वर हमसे प्रसन्न होता है।

यीशु के जीवन के 30 वर्ष के गुप्त जीवन के विषय में हमें केवल दो बातें बताई गई (मंदिर की घटना को छोड़कर) और वह यह है, ''वह सब बातों में हमारे समान परखा तो गया, तौभी निष्पाप निकला'' (इब्रानियों 4:15) और ''मसीह ने अपने आप को प्रसन्न नहीं किया'' (रोमियों 15:3)।

उसने विश्वाससे हर एक परीक्षा का सामना किया तथा किसी भी परिस्थिति में उसने स्वयं का विचार नहीं किया। यही बात थी जिससे पिता उससे प्रसन्न था।

हमने जो प्राप्त किया है उसके द्वारा सांसारिक लोग तथा दैहिक विश्वासीजन प्रभावीत होंगे परंतु परमेश्वर हमारे चरित्र द्वारा प्रभावीत होता है। परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिये हमारा चरित्र ही महत्वपूर्ण है। यदि हम परमेश्वर का हमारे विषय में विचार जानना चाहते है तो हमने हमारी सेवा में जो प्राप्त किया है वह हम हमारे मन से निकाल डाले तथा पाप के विषय और स्वयँ के विषय हमारी वृत्ती का मूल्यांकन करे। वही हमारे आत्मिकता का प्रमाण है।

इसीतरह दुनियामें सफर करके चंगाई की सेवा करनेवाले प्रचारक या घर में रहनेवाली व्यस्त माता जो कभी घर से बाहर नहीं निकलती वह भी परमेश्वर को प्रसन्न कर पाती है।

इसी कारणवश मसीह के सिंहासन के सामने हम देखेंगे कि जो यहांपर मसीह में पहले है व आखरी होंगे और जो यहां पर आखरी हैं उन्हें वे पहले होंगे (क्योंकि उनके पास सेवकाई का घमंड नहीं है)।