WFTW Body: 

प्रार्थना उन लोगों के लिए सबसे आसान काम होता है जो छोटे बच्चों जैसे होते हैं, क्योंकि प्रार्थना परमेश्वर के सामने हमारी लाचारी और कमज़ोरी को मानना होता है। बड़ी उम्र के चतुर लोगों के लिए यह स्वीकार करना मुश्किल होता है। इस वजह से ही यीशु ने यह कहा कि यह ज़रूरी है कि हम छोटे बच्चों की तरह हों। हम अपने तर्क (सोच-समझ ) पर जितना निर्भर होंगे, हम उतनी ही कम प्रार्थना करेंगे, और उतना ही ज़्यादा यह सवाल करेंगे कि परमेश्वर सब कुछ इस तरह से क्यों करता है कि हम उसे समझ नहीं पाते।

परमेश्वर हमसे जो आज्ञापालन चाहता है वह "तर्क का आज्ञापालन" नहीं बल्कि "विश्वास का आज्ञापालन" है (रोमियों 1:5)। परमेश्वर ने आदम को वह कारण नहीं बताया था कि वह क्यों यह चाहता है कि आदम भले और बुरे के ज्ञान के वृक्ष में से न खाए। आदम के लिए यह जान लेना ही काफी था कि परमेश्वर उससे प्रेम करता है, और (चाहे उसके तर्क में उसे यह बात समझ नहीं आ रही थी) फिर भी परमेश्वर की आज्ञा उसके लिए सबसे अच्छी थी। “अपने पूरे हृदय से प्रभु पर भरोसा रखना, और अपनी सोच-समझ का सहारा न लेना” (नीतिवचन 3:5)। इसलिए जब आदम नाकाम हुआ तो मूल रूप में वह उसकी परमेश्वर के प्रेम और बुद्धि में विश्वास न करने की नाकामी थी। हम भी इसी बात में नाकाम होते हैं।

अगर हम यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर हमसे गहरा प्रेम करता है, और वह यह जानता है कि हमारे लिए क्या सबसे अच्छा है - उससे भी अच्छा जो हम कभी जान सकते हैं और यह कि वह पर्याप्त रूप में ऐसा सर्वशक्तिशाली है कि पृथ्वी पर होने वाली सारी घटनाएं उसकी आज्ञा/अनुमति से होती हैं, तो हम आनन्द के साथ उसकी सारी आज्ञाओं का पालन करेंगे, हमारे जीवनों में सिर्फ उसकी इच्छा पूरी करने के लिए सब कुछ उसके हाथों में सौंप देंगे, प्रार्थनाओं के फौरन जवाब न मिलने पर भी प्रार्थना करते रहेंगे और उसने जो कुछ हमारे लिए तय किया है उसमें बिना कोई सवाल किए सब कुछ उसके अधीन कर देंगे। अगर हममें परमेश्वर की बुद्धि, प्रेम और सामर्थ्य में विश्वास नहीं होगा, तो हम इनमें से कुछ भी नहीं करेंगे।

लेकिन अगर हम छोटे बच्चों की तरह होंगे, तो हम एक सहज विश्वास में परमेश्वर के पास आ सकेंगे, और आसानी से हमारे हृदयों में परमेश्वर की आत्मा की भरपूरी को ग्रहण करते रहेंगे (लूका 11:13)। इसमें हमें बस एक स्वच्छ विवेक (जिसमें परमेश्वर और मनुष्यों के सम्मुख हमने सारे पापों का अंगीकार कर लिया हो), पवित्र आत्मा की भरपूरी के लिए एक भूख और प्यास, हमारे जीवनों के हरेक ज्ञात क्षेत्रों का प्रभु के आगे पूरा समर्पण, और यह विश्वास कि हमारा प्रेमी पिता हमें वह सब कुछ देगा जो हम उससे माँगेंगे। तब हम उससे माँग सकते हैं, और चाहे हमें तत्काल ऐसी किसी अनुभूति या सनसनी का अनुभव भी क्यों न हुआ हो, फिर भी यह विश्वास कर सकते हैं कि जो कुछ हमने परमेश्वर से माँगा है, उसने हमें वह दे दिया है। बाहरी चिन्ह बाद में प्रकट होंगे। इसलिए एक छोटे बच्चे हों।

क्या हम "उद्धार" की तरह "जय" पर भी हम अपना दावा कर सकते हैं? 1 यूहन्ना 5:4 कहता है: “वह विजय जिसने संसार पर जय प्राप्त की है यह है - हमारा विश्वास" - और वचन में "संसार" की व्याख्या "शरीर की अभिलाषा, आँखों की लालसा, और जीविका के घमण्ड" के रूप में की गई है (1 यूहन्ना 2:16)। इसलिए हम सीखते है कि इन सभी पर जय पाने का तरीका विश्वास है। लेकिन इस विश्वास का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि हमारा व्यक्तित्व परमेश्वर के सिद्ध प्रेम, बुद्धि, और शक्ति में पूरा भरोसा रखता है और उसका पूरा सहारा लिए रहता है। विश्वास करना और ग्रहण करना एक ही बात है, जैसा कि यूहन्ना 1:12 स्पष्ट कर देता है। यह बौद्धिक विश्वास नहीं है। इसलिए परमेश्वर में भरोसा करने का मतलब है कि हम इस बात को ग्रहण (स्वीकार) कर लेते हैं कि उसकी इच्छा हमारे लिए सबसे अच्छी है। इसका अर्थ है कि फिर हम अपनी इच्छा का इनकार करने का चुनाव करते हैं । "शरीर को क्रूस पर चढ़ाने" का यही अर्थ है (गलातियों 5:24)। इसमें (अपनी खुदी का इनकार करने में) हमारी मदद करने के लिए हमें अनुग्रह की ज़रूरत होती है।

लेकिन विश्वास इन सब बातों का मूल है। अगर हमारा यह विश्वास नहीं होगा कि परमेश्वर की इच्छा सबसे अच्छी है, तो हम अपनी इच्छा को मारना न चाहेंगे। उदाहरण के लिए, जैसे इस बात को टी.वी. देखने पर लागू किया जा सकता है। क्या आप यह विश्वास करते हैं कि ऐसी बातों/ हालातों में जो कुछ यीशु करेगा वही सबसे अच्छा होगा - मतलब, ऐसे कोई कार्यक्रम या चलचित्र (मूवी) न देखे जाएं जो व्यर्थ और कामुक उत्तेजना से भरे हों? या फिर आप यह विश्वास करते हैं कि जो आपकी लालसाओं को तृप्त करता है, वही सबसे अच्छा है? यह इस पर निर्भर होगा कि आप इस बात पर विश्वास करते हैं या नहीं कि परमेश्वर की इच्छा ही आपके लिए सबसे अच्छी है। विश्वास के बिना कोई जय नहीं।

हमेशा यीशु के बारे में सोचते रहें जिसके पीछे आपको चलना है। यह कभी न भूलें कि आपका शरीर निर्बल है। यीशु ने लगातार मदद के लिए अपने पिता को पुकारा था। आपको भी यही करना चाहिए। यह याद रखें कि हमले के समय में यीशु का नाम वह गढ़ है जिसमें आप दौड़ कर शरण पा सकते हैं (नीतिवचन 18:10)। और अगर पूरी पृथ्वी में आप किसी भी जगह किसी मुश्किल में पड़ जाते हैं, तो इस नाम में आप पिता से कुछ भी माँग सकते हैं।