यह अंश "नया दाखरस एक नए दाखरस मशको (पात्र) में" किताब से लिए गये है |
विश्वासी प्रायः दो प्रकार के होते है -पहले वह जो परमेश्वर के आशीर्वाद को खोजते है और दुसरे वह जो उनके स्वीकृति को| इन दोनों बातों में ज़मीन असमान का फर्क
है प्रकाशित वकिय 7वि अद्याय की 7 से 14 वे पद्ध में हम वविश्वासियों के एक ऐसे बड़े भीड़ के बारें पढते जिनकी गंनना करना असंभव है| (वचन 10 में) उन सब की कवाही
यही कहती है- वेह स्वयं परमेश्वर को अपने उद्धार (का) करता मानते है अपने उद्धार का पूरा-पूरा श्रय मात्र परमेश्वर को देते है |
उनके वस्त्र मेमने (प्रभु येशु मसीह) के लहू में धो कर श्वेत किया गये है (वचन 14 में) दुसरे शब्दों में स्वयं परमेश्वर ने उन्हें आशीषित किया है | निसंदेहः यह एक अच्छी बात है |
परन्तु ऊपर दर्शाए गये विश्वस्यों और प्रकः वाकया 14 की 1-5 में व्याख किये गयी विश्ववासी समूह में काफी अंतर है | वहां पर हम एक ऐसे समूह के बारे में पढतें है ,जिनकी गंनना संभव है दरअसल इनकी संख्या 1,44,000 है - यह एक काफी छोटी संख्या जब हम इसकी तुनाला पृथ्वी पर बसे कई करोड़ों लोगो से करेंगे | इनकी गवाही यह है की इस दुनिया में वेह प्रभु येशु के सच्चे अनुयायी रहे (जहाँ भी प्रभु येशु जाते थे वह उनके पीछे हो लेते थे|) उनके जीवन एवं मुख में किसी भी प्रकार का छल या झूट नहीं पाया गया | उन्होंने स्वयं को स्त्री द्वारा अशुद्ध / दुषित न होने दिया | यहाँ स्त्री का अभिप्राय / तात्पर्य प्रकःवाकया 17 में दर्शाए बेबीलोन और उसकी पुत्रियों से है) दुसरे शब्दों में इन विश्वसिओं ने (अपने सम्पुर्ण जीवन से) प्रभु परमेश्वर को हमेशा प्रसन्ना किया | यहाँ पर इनके अंतर/फर्क को देखेंगे तो हम पायेगे की:-पहले विश्वासी समूहः को परमेश्वर का आशीष प्राप्त था और दुसरे समूह को (परमेश्वर) की स्वीकृति हमें वही मिलता है जिसकी हमें तलाश/(खोजतें) होती है |अगर हम परमेश्वर की आशीषों से संतुष्ट है तो हमें मात्र आशीष ही प्राप्त होगा |
और अगर हम सिर्फ "सांसारिक आशीर्वाद" से संतुष्ट है तो , नतीजतन आगे चलते हुआ हम परमेश्वर की आध्यात्मिक आशीषों से वंचित रह जायेंगे |
ज्यादा-तर विश्वासी परमेश्वर के आशीष मात्र से संतुस्ट हो जाते है और इनमें से अधिकतर आशीष सांसारिक एवं सामग्रीक दायरे में होते हैं |इसी कारणवर्ष आज का अधिकतम इसाई साहित्य भंडार एसी किताबों से भरा पडा है जो हमे सिर्फ यह बतलाते है की,किस प्रकार हम (एक विश्वासी) शारीरिक चंगाई प्राप्त कर सकते है |या फिर दवांश की भेंट से हम ओर भी अधिक धनवान केसे बन सकते है |यहाँ पर महत्त्व (जोर) शारीरिक ओर सामग्रिक सम्पनाताओं पर (स्वास्थ्य और समृद्धि आशीषों) दिया गया है | यह एक स्वार्थी और (आत्म-केन्द्रित) जीवन के प्रमुख/स्पष्ट लक्षण है |पवित्र शास्त्र में हम साफ़ शब्दों में पढ़तें है की,प्रभु येसु ने अपने प्राण इसलिए त्यागे क्यों की हम अपना स्वार्थी जीवन छोड़ कर उस के लिया जियें(2 कोर 5:15 )दुसरे शब्दों में- हम स्वयं को न प्रसान करते हुहे मात्र उसी को प्रसन्न करें| एक ओर दृष्टिकोण से इसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है -प्रभु येसु ने अपने प्राणों का बलिदान इसे लिए दिया की हमे अपने स्वार्थी जीवन से मुक्त कराकर एक "परमश्वर-केन्द्रित" जीवन जीने की ओर ले जा सकें| वर्त्तमान समय में जो कार्य हमें अचरज डाल देता है वह ये की परमेश्वर का आशीष ऐसे बहुत सरे इसाई कार्यों एवं गतिविधियों पर बना हुआ है जिन्होंने अपने मूल चरित्र पर समझौता कर लिया है या फिर समझोता करते आ रहें है | क्या इसका मतलब यह है की परमेश्वर अपने वाकया के विपरीत इस प्रकार के समझोतों और विचलनों से जरा भी परेशान नहीं होते ? नहीं - कदापि इसका यह मतलब नहीं है ! ज़ाहिर बात है, परमेश्वर ऐसे अनेक संस्थाओं के कार्यों को आशीषित तो करता है परन्तु पूर्ण रूप से उन्हें स्वीकारता नहीं मूसा ने जब चट्टान पर अपनी लाठी मारकर परमेश्वर के निर्देशो/आज्ञाओं का उल्लंघन किया था (परमेश्वर ने मूसा को कहा की तुम उस चट्टान से केवल बात करो) परमेश्वर ने मूसा के अवज्ञाकारी होने के बावजूद उसके द्वार किये गये कार्य को आशीषित किया |इतना ही नहीं बलिक मूसा के जरिया 20,000,00 लोग आशीषित हुए |बाद में परमेश्वर अपने अवज्ञकारी-दास से गंभीरता से निपटा,(गिनती. 20:8-13) परमेश्वर ने मूसा के सेवकाई को मात्र इस लिए आशीषित किया क्यों की वह उन 20,000,00 जरूरत-मंद लोगों से प्रेम करते थे, न की मूसा द्वारा किये गये उस कार्य पर उनके स्वीकृति की मोहर लगी थी | आज भी परमेश्वर यही मापदंड अपनाता है अनेक सेवकाई पर परमेश्वर का आशीष बना हुआ है क्यों की प्रभु उन (असंखा) जरुरत-मंद लोगों से अपार प्रेम करता है जिन्हें उद्धार,चंगाई आदि... की अवशाकता है| परन्तु इसका कतई यह मतलब नहीं है की प्रभु के नाम पर होने वाले गतिविधियों पर परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त है |सही समय आने पर निश्चित रूप से परमेश्वर उन समझौता करने प्रचारकों को सज़ा देंगे |परमेश्वर द्वारा सांसारिक आशीष प्राप्त करने के लिए एक मात्र आवशकता यह है की, वह व्यक्ति भला अथवा बुरा हो |स्वयं येसु के यह वाक्य इस बात को प्रमाणित करते है " धर्मी और अधर्मी दोनों व्यक्तियों पर परमेश्वर सामान रूप से धूप और बारिश भेजता है " (मत्ती 5:45)साफ़ तौर पर ज़ाहिर है की हमारे जीवन में पाए जाने वाले सांसारिक एवं सामग्रीक आशीष का अर्थ परमेश्वर की स्वीकृति नहीं है |20,000,00 (इस्रायली) जंगलों में (भटकते हुहे) परमेश्वर के अज्ञाओं का उलंधन करते रहे -परमेश्वर उनसे क्रोधित थे (इब्रानी 3:17) |तब भी परमेश्वर ने उन 40 वर्शो के दौरान 20,000,00 इस्रायली को भोजन एवं चंगाई प्रदान करते उन्हें आशीषित किया ओर वह (चंगाई) भी अद्भुत चमत्कारों के रूप में (वियावस्था .8:2 ) |प्रार्थना के प्रतिउत्तर में पाई चमत्कार्रिक शरीरिक चंगाई भी इस बात को साबित नहीं करता की परमेश्वर उस व्यक्ति के निजी जीवन से प्रसन्न है |पर दूसरी ओर परमेश्वर पिता की स्वीकृति येशु पर लगातार बनी रही,जिसका एकमात्र कारण यह है: की उन 30 सालों में येशु ने विश्वयोय्तापूर्ण उन पर आये प्रलोभन एवं परिषाओं का सामना कर उन परिस्थितियों पर विजय पाए | (बप्तिस्मा लेते वक्त प्रभु येशु 30 वर्ष के थे ) उन्होंने एक एसा जीवन व्यतीत किया जिसका केंद्र हमेशा परमेश्वर पिता रहे - ना की वेह स्वयं | उनके सम्पूर्ण जीवन में उन्होने कभी भी स्वयं को प्रस्सन करने की कोशिश की (रोमीयो .15:3) उनके बप्तिस्मा के वक्त स्वयं परमेश्वर पिता ने इस बात को प्रमाणित कर गवाही देते हुए कहा - "यह मेरा प्रिय पुत्र है ,जिससे में अत्यंत प्रस्सन हूँ " उन्होंने गवाही के रूप में यह नहीं थी के "यह मेरा प्रिय पुत्र है ,जिससे मैंने "आशीषित" किया"प्रभु येशु के लिए परमेश्वर की पहली गवाही ही उनके लिए स्वीकृति की मोहर थी |परमेश्वर की दूसरी गवाही ("आशीष पाना")उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी |सही मायनों में येशु मसीह के अनुयाई (येशु के पीछे चलने) होने का अर्थ- पहली गवाही द्वारा परमेश्वर से प्राप्त स्वीकृति (के मोहर) को खोज कर होगी न की परमेश्वर से प्राप्त आशीषों से (जो परमेश्वर की दूसरी गवाही थी ) अदम के संतान (पुत्र) होने के नाते हम स्वभाव में मूल रूप से स्वार्थी है | जेसे-जेसे हम बढ़े होते है तो यह उम्मीद रखतें है की सब हमारे इर्द-गिर्ध (आस पास) केन्द्रित होकर हमारी सेवा करें |और जब हमारा ह्रदय-परिवर्तन हो जाता है तब हम परमेश्वर से भी येही उम्मीद करने लगते है की वह हमें अनेक रूप से आशीषित कर हमारी सेवा करें |सर्व-प्रथम हम उनके समीप इसिलिय आते हें,ताकि उनसे हमारे पापों की क्षमा प्राप्त हो सके, इसके पश्चात हम अन्य आशीषों के पीछे भागतें है जिनमें शारीरिक चंगाई,हमारे प्रार्थनाओं के प्रतिउत्तर, सांसारिक अवम सामग्री समृद्धि,रोज़गार, आवास,जीवन-साथी की तलाश आदि हमारा परिवर्तन होने के पश्चात भी हम संभवता एक स्वर्थी जीवन व्यतीत कर दूसरों के नज़रों में बहुत ही धार्मिक व्यिक्ति दिखाई दे सकते हइन हालातों में परमेश्वर हमारे दायरे में मात्र एक व्यैक्ति बन कर रह जाता है,हम निरंतर यह अपेक्षा रखते है की हमें उनसे से क्या प्राप्त हो सके |पेट की भूख मिटने के खातिर "उडवू पुत्र" जब अपने पिता के पास लौटा तब भी उसके पिता ने उसे स्वीकारा | उसी प्रकार, पूर्ण रूप से स्वार्थी होने के बावजूद भी परमेश्वर हमें स्वीकारता है | वेह हमसे इतना (अपार) प्रेम करता है के ज़ाहिर रूप से स्वार्थी होने के बावजूद जब हम उनके पास लौटते है तब वेह हमें स्वीकारने के लिए व्याकुल / उताव्वले रहते है परन्तु वह हमसे यह उम्मीद रखते है की हम जल्द-से -जल्द परिपक्व होकर इस बात का एहसास करें की सच्ची आध्यात्मिकता का अर्थ है की (स्वयम) परमेश्वर के प्रकृति एवं उनके स्वाभाव में हिस्सा ले सकें या सम्मिलित हो सकें |परमेश्वर के इस स्वाभाव को प्राप्त कर - हमे दूसरों को देने मैं अधिक ख़ुशी देने में होगी न की उनसे प्राप्त कर करने में | परन्तु जहाँ तक परमेश्वर के अनेक संतानों का सवाल है- परमेश्वर कभी भी उनके जीवन में अपन इस उदेश को पूरा नहीं कर पाएंगे | वvahसब अपने स्वार्थ में जी कर अपने स्वार्थ में ही मारे जातें है,क्यों की वह अपने सोंच के "केन्द्र-बिंदु"में स्वयम "खुद", "में" और "अपने-आप" को रखते हुए जीते हें ओर मर जाते है,और उस सोंच में शामिल होते है उनके भोतिक एवं शारीरिक समृधि | सही मायनों में परिपक्वता का अर्थ है मन (चिंतन सोंच ओर दृष्टी-कौन) का नवीनिकर्ण |इस नवीनिकर्ण के प्रक्रिया स्वरुप इस पृथ्वी पर हमारे जीवन का एक मात्र उदेश यह नहीं रहता की परमेश्वर से हमें क्या प्राप्त हो, बल्कि परमेश्वर को हमारे जीवन द्वारा क्या प्राप्त हो सकता है | यह मन का नवीनिकर्ण ही है जो हमारे जीवन मैं एक सच्चा बदलाव लाता है | (रोमियो.12:2)|और मात्र यह ही हमे योग्यता प्रदान करेगा की हम उस 1,44,000 समूह के अंग/हिस्सा होकर सीनाई पर्वत में मेमन के संग खड़ा हो सकें जिसकी व्याख (प्रकः वाकया.14) में की गयी है |सच्ची आद्यात्मिकता का अर्थ क्रोध,लोभ कामुक इच्छाएं,कड़वाहट, आदि पर विजय पा लेना मात्र नहीं है |सही मायनों में इसका (सच्ची आद्यात्मिकता) का अर्थ है स्वयं के लिए जीने वाले जीवन के संगर्ष को त्याग देना है खुद के लाभ को त्याग देना | ,खुद के सुख/सुविधा को त्याग देना , खुद के अधिकारों को त्याग देना, खुद के सामान को त्याग देना, न सिर्फ इतना परन्तु यहाँ तक अपने ही आद्यात्मिक वृधि के विषय में चिंता को त्याग देना है | प्रभु येशु के चेलों नें जब उनसे यह पूछा के किस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए (सिखाने को कहा) प्रतिउत्तर में प्रभ येशु ने जो प्रार्थना सिखाई उस (प्रार्थना) में कहीं भी "खुद में" "मेरा" अथ्वः "अपने आप" जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया (लुका.11:1-4)| प्रार्थना में प्रभु येशु ने सिखाया की सर्वप्रथम परमेश्वर पिता के नाम, उनके साम्राज्य और उनकी इच्छाओं को सम्बोधित करने को कहा और उसके पश्चात अपने सह-विश्वासियों (उनके अध्यात्मिक एवं भौतिक जरूरतों) के बारे में सचेत रहने को कहा -ठीक वैसे ही जिस प्रकार स्वयं हम अपने लिए इन जरूरतों को पाने के लिए प्रार्थना करते है |("हम" "हम""हम" न के "में" "में" "में") यह बहुत ही आसान कार्य होगा की हम भी एक तोत्ते के तरेह इस प्रार्थना को रट कर दोहरा सकते हैं |अगर सही मायनों में इस प्रार्थना को हृदय से सीखना चाहें तो इसका मतलब होगा की हम सर्वत्र को त्याग कर परमेश्वर को अपने ह्रदय के केंद्र में स्थापित करें| अगर हम ईमानदारी से अपने न्याय करेंगे तो पाएंगे जो प्रमाण हम और हमारे समूह में प्रचलित है (रोम. 7:22), वह प्रमाण "स्वार्थ का प्रमाण " होगा- जीवन भर स्वयं अपने स्वार्थ अपनी सहूलियत एवं अपने अधिकारों को पाने की लालच/लालसा का प्रमाण| प्रभु येशु ने हमें सिखाया की सर्वप्रथम परमेश्वर के राज्य को खोजे-जिसका अर्थ है- अपने ह्रदय में स्वयं का तख्ता पलट कर पिता परमेश्वर और उनके हितों को केंद्र-बिंदु बनाना होगा येशु ने स्वर्ग के एशो-आराम को त्याग कर धरती पर अपने पिता की इच्छा को पूरा करने आया|प्रेरित पौलोस एक सच्चे प्रेरित बनने के खातिर, तर्सुस शहर अपने इसाई-व्यापारी होने के नाते मिलने वाले एशो-आराम को त्याग दिया |उन्होंने परमेश्वर के खातिर काफी कठिनाइयों का सामन किया | इसी तरह अन्य प्रेरितों ने भी अपने निजी हितों को त्याग कर एक परमेश्वर-केन्द्रित जीवन व्यतीत किया | इस धरती में परमेश्वर के साम्राज्य की बढ़ोतरी के लिए अपने सर्वत्र को) (सब कुछ ) त्याग दिया |वर्त्तमान में पायेजाने वाले 'पर्यटक' प्रचारकों के ठीक विपरीत| वेह पर्वित्रता जिसमे आप अपने स्वर्थ को खोजतें है- एक झुटी पवित्रता है | चाहे हमने अपने क्रोध और दूषित विचारों पर काबू क्यों न पा लिया हो| इस बात का एहसास बहुत कम लोगों (विश्वासियों) को हुआ है ओर यही कारण है की शेतान उनको छलने में सफल/कामियाब रहा है | कई ईसाई (विश्वासि) दौलत-शोहरत,एशो-आराम,सुख सुविधा की खोज में अपना देश छोड़ कर दुसरे देशों में पलायन कर जाते है अथवा दुसरे देशों की यात्रा करते है, ऐसे विस्वसियों पर परमेश्वर का आशीष तो बन रहता है परंतु परमेश्वर की स्वीकृति नहीं | कोई भी व्यक्ति संभवता परमेश्वर और दौलत दौनो (दो स्वामियों) की सेवा नहीं कर सकता | (दौलत का तात्पर्य शौहरत,एशो-आराम,सुख सुविधा आदि है) अगर हम यह मान चुके है की परमेश्वर हमारे जीवन से प्रसन्नः हो कर हमें और हमारे संतान एवं परिजनों को आशीषित किया है तो इसका मतलब साफ़ है की शैतान हमें छलने पूरी तौर पर कामयाब हो गया है परमेश्वर का आशीष और परमेश्वर की स्वीकृति यह दौनो बिलकुल अलग बातें है | हमारे सांसारिक जीवन के अंत में,हमारी गवाही भी "हनोक"की गवाही की तरह होनी चाहिए जब वह इस संसार से उठा लिया गया था | "उससे परमेश्वर प्रसन्नः था" (हिब्रानियों.11:5) केवल यह 3 शब्द - परंतु पूरे संसार में इससे अधिक शैक्तिशाली गवाही किसी ओर की नहीं हो सकती | ठीक यही गवाही प्रभु येशु और पौलूस के थे "परमेश्वर ने हमें आशीषित किया" मात्र यह गवाही होने का कोई मूल्य नहीं - संसार के असंख्य आविश्वसियों भी यह गवाही दे सकतें है| परमेश्वर की नज़रें उन पर टिकी है जो उनके (परमेश्वर की) स्वीकृति को खोजतें है और न सिर्फ (परमेश्वर) के आशीष को |