47 वर्षों से नया जन्म पाए मसीही होने के नाते मैंने कुछ महत्वपूर्ण सत्य सीखें हैं, जिन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया है और मेरे जीवन को दिशा और उद्देश्य दिए हैं। मैं उन्हें यहां आपके साथ इस उम्मीद से बाँट रहा हूँ कि वे आप के लिए भी एक प्रोत्साहन का कारण बनेंगे।
1. परमेश्वर हमें वैसे ही प्रेम करते हैं , जैसा उन्होंने यीशु से प्रेम किया
"जैसा तूने मुझ से प्रेम रखा वैसा ही उन से प्रेम रखा" (यूहन्ना 17:23)।
यह सबसे बड़ा सच है जिसे मैंने बाइबल में पाया है। इसने मुझे एक असुरक्षित, उदास विश्वासी से परमेश्वर में पूरी तरह से सुरक्षित और हमेशा प्रभु के आनन्दित रहने वाले विश्वासी में बदल दिया।
बाइबल में कई वचन हैं जो हमें बताते हैं कि परमेश्वर हमें प्रेम करते हैं, लेकिन केवल यही वचन उस प्रेम की हद बताता है - जैसा प्रेम उन्होंने यीशु से रखा।
क्योंकि अपने किसी भी पुत्र को प्रेम करने में हमारे स्वर्गीय पिता कोई पक्षपात नहीं करते, तो निश्चय ही हमारे लिए, जो उनके पुत्र हैं, वे वह सब कुछ करने को तैयार होंगे जो उन्होंने अपने पहलौटे पुत्र, यीशु के लिए किया। जैसे उन्होंने यीशु की मदद की वैसे ही हमारी मदद भी करेंगे। जैसी परवाह उन्हें यीशु की थी वैसी ही परवाह हमारे लिए भी करेंगे। हमारे जीवन की प्रतिदिन की ज़रूरतों की योजना बनाने में वे उतनी ही दिलचस्पी ले लेंगे जितनी वे यीशु के जीवन लिए योजना बनाने में लेते थे। हमारे साथ कभी ऐसा कुछ नहीं हो सकता जिससे परमेश्वर को आश्चर्य होगा। पहले से ही वे हर संभावित स्थिति के लिए योजना बना चुके हैं।
तो अब हमें और असुरक्षित होने की जरूरत नहीं है। हमें इस पृथ्वी पर एक निश्चित उद्देश्य के साथ भेजा गया है जैसे प्रभु यीशु को भेजा गया था।
यह सब आपके लिए भी सत्य है - लेकिन केवल जब आप इस पर विश्वास करते हैं।
जो परमेश्वर के वचन पर विश्वास नहीं करते उनके लिए इसमें से कुछ भी काम का नहीं है।
2. परमेश्वर सच्चे लोगों से प्रसन्न होते हैं
"पर यदि जैसा वह ज्योति में है, वैसे ही हम भी ज्योति में चलें, तो एक दूसरे से सहभागिता रखते हैं"" (1 यूहन्ना 1:7)।
ज्योति में चलने का अर्थ है कि सर्वप्रथम, हम परमेश्वर से कुछ भी ना छुपाएं। हम उन्हें सब कुछ वैसे ही कह जैसा वास्तव में हैं। मुझे विश्वास है कि परमेश्वर की ओर पहला कदम सच्चाई है। परमेश्वर उन लोगों के खिलाफ हैं जो असुरक्षित हैं। यीशु ने किसी अन्य की तुलना में पाखंडियों के बारे में अधिक बात की।
परमेश्वर हमसे सर्वप्रथम पवित्र या परिपूर्ण बनने की उम्मीद नहीं रखते, परंतु उनकी इच्छा है कि हम सबसे पहले सच्चे बनें। यह सच्ची पवित्रता का प्रारंभिक बिंदु है। और यहीं से बाकी सब कुछ निकलता है। और वास्तव में हम में से किसी के लिए भी कोई सरल काम है, तो वह है सच्चा बनना।
तो परमेश्वर के सामने तुरंत ही पाप का अंगीकार कर लो। अपने पापमय विचारों को किसी "सभ्य" नाम से ना बुलाओ। मत कहो कि, "मैं केवल परमेश्वर की रचना की खूबसूरती की प्रशंसा कर रहा था" जबकि वास्तव में कामातुर होकर आपने अपनी आंखों से व्यभिचार किया था। "क्रोध" को "धर्मी क्रोध" कह कर मत बुलाओ।
यदि आप झूठे हैं तो पाप पर आपको कभी विजय नहीं मिलेगी।
और "पाप" को कभी भी "एक भूल" कहकर मत बुलाओ क्योंकि यीशु का लहू आप को पाप से तो शुद्ध कर सकता है लेकिन भूल से नहीं। वह झूठे लोगों को शुद्ध नहीं करते हैं।
केवल सच्चे लोगों के लिए ही उम्मीद होती है। "जो अपने अपराध छिपा रखता है, उसका कार्य सुफल नहीं होता" (नीतिवचन 28:13)।
यीशु ने ऐसा क्यों कहा कि धार्मिक अगुवों की तुलना में महसूल लेने वालों और वेश्याओं के लिए परमेश्वर के राज्य में प्रवेश पाने की ज्यादा उम्मीद थी ( मत्ती 21:31)। क्योंकि वेश्याएं और महसूल लेने वाले पवित्र होने का दिखावा नहीं करते हैं।
आज बहुत से युवा कलीसियाओं से इसलिए दूर हो रहे हैं क्योंकि कलीसिया के सदस्य उन पर ऐसी छाप छोड़ने की कोशिश करते हैं कि उन लोगों के जीवन में कोई संघर्ष नहीं हैं। तो युवा विश्वासी लोग सोचते हैं कि यह पवित्र लोगों का समूह हमारी समस्याओं को कभी नहीं समझ पाएगा। यदि वास्तव में ऐसा है, तो हम मसीह के उदाहरण के विपरीत चल रहे हैं, यीशु मसीह तो पापियों को अपनी और आकर्षित कर लेते थे।
परमेश्वर हर्ष से देने वाले से प्रेम रखते हैं (2 कुरिन्थियों 9:7) ।
यही कारण है कि परमेश्वर मनुष्य को पूर्ण स्वतंत्रता देते हैं - दोनों अवस्थाओं में, मन फिराव से पहले और और पवित्र आत्मा से भरे जाने के बाद भी।
यदि हम परमेश्वर के समान हैं तो हम भी दूसरों पर नियंत्रण रखने की कोशिश नहीं करेंगे या उन पर दबाव नहीं डालेंगे। हम उन्हें अपने से अलग होने की आज़ादी देंगे और उन्हें अपने विचारों से अलग विचार रखने की स्वतंत्रता देंगे और उन्हें अपनी ही गति से आत्मिक बढ़ोतरी करने का अवसर देंगे।
किसी भी प्रकार से विवश करना शैतान की प्रवृति है।
पवित्र आत्मा लोगों को भर देती है जबकि दुष्ट आत्मा लोगों को अपने वश में कर देती हैं। इन में अंतर यह है कि जब पवित्र आत्मा किसी को भर देती है, वह व्यक्ति तब भी अपनी इच्छा पूरी करने के लिए आज़ाद रहता है। परंतु जब दुष्ट आत्मा लोगों को वश में कर लेती है, तो वो उनसे उनकी आज़ादी छीन लेती हैं और उन पर अपना नियंत्रण बना लेती हैं। पवित्र आत्मा से भरे जाने का फल संयम है (ग़लातियों 5:22, 23)। दुष्ट-आत्मा से ग्रसित होने का अर्थ है संयम खो देना।
हमें यह याद रखना चाहिए ऐसा कोई भी कार्य जिसे हम परमेश्वर के लिए करते हैं, यदि उसे हर्ष पूर्वक, आनंद पूर्वक, स्वतंत्रता पूर्वक और स्वेच्छा से ना किया जाए तो वह मरा हुआ कार्य है। वेतन पाने या फल पाने ही इच्छा से परमेश्वर के लिए किया गया कार्य भी मरा हुआ कार्य है। दूसरों के दबाव में आकर परमेश्वर को दी गई भेंट की, जहां तक परमेश्वर की बात है, कोई अहमियत नहीं होती।
किसी दूसरे व्यक्ति की अंतरात्मा की आवाज के प्रति-उत्तर में किए गए बड़े-बड़े कामों की तुलना में, उन छोटे-छोटे कामों को जिन्हें हम उनके लिए हर्ष पूर्वक करते हैं, उन्हें परमेश्वर बहुमूल्य समझते हैं।
4. पवित्रता यीशु की ओर ताकने से आती है
वह दौड़ जिस में हमें दौड़ना है... यीशु की ओर ताकते रहें" (इब्रानियों 12:1,2)।
भक्ति का भेद यीशु मसीह के व्यक्तित्व में मिलता है, अर्थात वह जो शरीर में प्रकट हुआ (जैसा 1 तीमुथियुस 3:16 में स्पष्ट किया गया है)। उनके शरीर में प्रकट होने की बात सिद्धांत द्वारा कदापि नहीं स्पष्ट की जा सकती। हम पवित्र बनते हैं तो यह उनके व्यक्तित्व के माध्यम से संभव होता है, ना कि यीशु मसीह के शरीर में प्रकट होने के सिद्धांत की छान-बीन करने के माध्यम से।
हमारा कोई भी प्रयास किसी भी प्रकार हमारे पाप से भरे ह्रदय को पवित्र नहीं बना सकता। हमारे जीवन में जब स्वयं परमेश्वर हमारे भीतर काम करते हैं, हम तब पवित्र बनते हैं।
पवित्रता (अनन्त जीवन) - परमेश्वर का उपहार है और यह कभी कामों द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती (रोमियों 6:23)। बाइबल बताती है कि अकेले परमेश्वर ही हमें पूरी तरह से पाप से मुक्त कर सकते हैं (हमें पवित्र कर सकते हैं) (1 थिस्सलुनीकियों 5:23 में यह बात इतनी स्पष्ट है कि इसके विषय में कोई भ्रम नहीं हो सकता है)। तो भी अनेक विश्वासी स्वयं का इंकार करने द्वारा पवित्र बनने का संघर्ष अपने सामर्थ में करते रहते हैं। लेकिन पवित्र बनने के बजाय वे फरीसी बन जाते।
"पवित्रता जो कोई भ्रम नहीं है (इफिसियों 4:24 - जे. बी. फिलिप्स अनुवाद) यीशु में विश्वास के द्वारा प्राप्त की जाती है" - दूसरे शब्दों में "यीशु की ओर ताकने द्वारा"।
यदि हम सिद्धांत की ओर ही देखते रह जाएंगे तो हम फरीसियों के समान बन जाएंगे। जितना अधिक चोखा हमारा सिद्धांत होगा हम उतने ही बड़े फरीसी बनेंगे।
पृथ्वी पर जिन सबसे बड़े फरीसियों से मैं मिला हूँ वो उन लोगों में से थे जो इस बात पर प्रचार करते थे कि ऊँचे स्तर की पवित्रता मनुष्य स्वयं अपने प्रयास के माध्यम से पा सकता है! हमें ध्यान रखना होगा कहीं हम उनके जैसे ना बन कर रह जाएं!
यीशु की की ओर ताकने का अर्थ क्या है इसे इब्रानियों 12:2 में स्पष्ट किया गया है। सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि उन्होंने पृथ्वी पर मनुष्य रूप में अपना जीवन "अपने क्रूस को रोज उठा" कर जिया - "वह सब बातों में हमारी नाईं परखा तो गया, तौभी निष्पाप निकला" (इब्रानियों 4:15) । वह हमारे लिए सदा काल का महायाजक बना जिसके कदमों पर अब हमें चलना है। दूसरा, हमें यह समझना है कि इस समय वे पिता परमेश्वर के दाहिने ओर बैठे हैं और हमारी हर परीक्षा और प्रलोभन की स्थिति में हमारी मदद करने के लिए परमेश्वर के समुख हमारी तरफ़ से खड़े होकर मध्यस्थता करने को सदैव तैयार रहते हैं।
5. हमें लगातार पवित्र आत्मा के साथ भरा होना चाहिए
"आत्मा से परिपूर्ण हो जाओ" (इफिसियों 5:18 - लितेरल अनुवाद)।
अगर हम पवित्र आत्मा से लगातार नहीं भरे होंगे तो जैसा मसीही जीवन परमेश्वर हमसे चाहते हैं, हमारे लिए वैसा जीवन जीना असंभव है। पवित्र आत्मा के अभिषेक और उनके दिव्य वरदान के बिना हमारे लिए परमेश्वर की सेवा करना असंभव है। स्वयं यीशु को भी तो अभिषिक्त होना पड़ा था।
पवित्र आत्मा हमारे जीवन और सेवकाई में हमें यीशु के तेजस्वी रूप में अंश-अंश कर के बदलने के लिए आई है। (2 कुरिन्थियों 3:18 देखें)।
परमेश्वर हमें पवित्र आत्मा से इसलिए भरते हैं कि हम अपने चरित्र में यीशु के तेजस्वी रूप में अंश-अंश कर के बदल जाएँ, और यीशु के समान सेवा करने में सक्षम हो जाएँ।
हमारी सेवकाई प्रभु यीशु के समान भले ही ना हो, इसलिए हम वह नहीं कर सकते जो यीशु ने अपनी सेवकाई में किया। परंतु हम अपनी सेवकाई को पूरा करने के लिए - परमेश्वर की सेवा करने में वैसे ही सक्षम बन सकते हैं जैसे स्वयं यीशु थे।
हमारे भीतर से जीवन के जल की नदिया बहने के लिए हमें अपनी ओर से बस इतना ही करना है, कि हम अपनी प्यास और आस्था को बनाए रखें (यूहन्ना 7:37-39)।
यदि हमें आत्मा के वरदानों को प्राप्त करना है तो हमें निष्ठापूर्वक उन की लालसा रखनी होगी (1 कुरिन्थियों 14:1) अन्यथा हम उन्हें कभी प्रार्थना प्राप्त ना कर पाएंगे।
पवित्र आत्मा के वरदानों के बिना कलीसिया एक ऐसे व्यक्ति के समान है, जो जीवित तो है परन्तु बहरा, अंधा, गूंगा और लंगड़ा है - और इसलिए बेकार है।
6. क्रूस का मार्ग जीवन का मार्ग है
"यदि हम उसके साथ मरे है, तो उस ही के साथ जीयेंगे" (2 तीमुथियुस 2:11)।
यीशु के जीवन को हमारे मरन-हार शरीर में प्रकट करने का और कोई रास्ता नहीं है, सिवाय इसके कि हम यीशु की मृत्यु को अपनी देह में लिए रहें, उन परिस्थितियों में जो परमेश्वर हमारे लिए सुनियोजित और व्यवस्थित करते हैं (2 कुरिन्थियों 4:10 , 11)।
यदि हमें पाप पर विजय प्राप्त करनी है, तो हमें "अपने आप को पाप के लिए मरा हुआ समझना होगा" (रोमियों 6:11) सभी परिस्थितियों में। यदि हमें जीवित रहना है, तो हमें आत्मा से देह की क्रियाओं को मारना होगा (रोमियों 8:13)। हमारे दैनिक जीवन में पवित्र आत्मा हमें सर्वदा क्रूस की राह पर ले चलेगी।
हमें परमेश्वर द्वारा उन परिस्थितियों में भेजा गया है "जहां हम दिन भर घात किए जाते हैं" (रोमियों 8:36) और जहाँ "हम जीते जी सर्वदा यीशु के कारण मृत्यु के हाथ में सौंपे जाते हैं" (2 कुरिन्थियों 4:14)। इन परिस्थितियों में हमें यीशु की मृत्यु को अपनी देह में धारण करना होगा जिससे यीशु का जीवन हम में प्रकट हो।
7. मनुष्य की राय केवल कूड़ेदान में फैंकने के लायक है
" सो तुम मनुष्य से परे रहो जिसकी श्वास उसके नथनों में है, क्योंकि उसका मूल्य है ही क्या?" (यशाया 2:22)।
जब मनुष्य का श्वास उसके नथनों को छोड़ देता है, तब वह उस धूल के समान हो जाता है, हम जिस पर चलते हैं। तो हम मनुष्य की राय की परवाह क्यों करें।
जब तक कि हम इस सच को अपने ज़हन में नहीं डाल देंगे कि सभी मनुष्य मिल कर कूड़ेदान के ही लायक हैं तब तक हम परमेश्वर की सेवा प्रभावशाली ढंग से नहीं कर पाएंगे। यदि हम एक भी मनुष्य को प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं, तो हम कभी भी मसीह के दास ना बन पाएंगे (ग़लातियों 1:10)।
परमेश्वर की राय के सामने हर मनुष्य की राय बेकार है। जो इस बात पर यकीन करता है वह अपने जीवन और सेवकाई के लिए केवल परमेश्वर के इच्छा की प्रतीक्षा करेगा। वह कभी भी लोगों को प्रसन्न करने या उनके सामने खुद को सही ठहराने की कोशिश नहीं करेगा।
8. इस दुनिया द्वारा महान समझी जाने वाली सभी वस्तुओं से परमेश्वर घृणा करते हैं
"जो वस्तु मनुष्यों की दृष्टि में महान है, वह परमेश्वर के निकट घृणित है" (लूका 16:15)।
जिन वस्तुओं को दुनिया महान समझती है, उनका न केवल परमेश्वर की दृष्टि में कोई मूल्य नहीं, वरन् वास्तव में उनसे परमेश्वर घृणा करते हैं।
जब हर सांसारिक सम्मान से परमेश्वर घृणा करते हैं, तो उन्हें मनुष्य की दृष्टि में भी घृणित समझा जाना चाहिए।
धन वो चीज है जिसे पृथ्वी पर हर कोई मूल्यवान समझता है। लेकिन परमेश्वर कहते हैं कि जो लोग धन से प्रेम करते हैं और धनवान बनने की लालसा रखते हैं उन्हें आज नहीं तो कल इन आठ परिणामों को भुगतना होगा (1 तीमुथियुस 6:9, 10)।
(क) वे लालच में गिर जाएँगे;
(ख) वे धन के जाल में फंस जाएँगे;
(ग) वे मूर इच्छाओं में गिर जाएँगे;
(घ) वे हानि-कारक इच्छाओं में गिर जाएँगे;
(ङ) वे बर्बादी के सागर में डूब जाएँगे;
(च) वे विनाश के सागर में डूब जाएँगे;
(छ) वे विश्वास से दूर हो जाएँगे;
(ज) वे अपने आप को अनेक दु:खों के बाणों से बेध देंगे।
मैंने विश्वासियों के साथ हर जगह निरंतर ऐसा ही होते देखा है।
इन दिनों यदि हमें अपने देश में परमेश्वर की ओर से भविष्यवाणी के वचन सुनने को नहीं मिलते तो उसका एक मुख्य कारण यह है, कि अधिकांश प्रचारक धन के प्रेमी हो गए हैं।
प्रभु यीशु ने कहा कि परमेश्वर द्वारा सच्चा धन (भविष्यवाणी का वचन जिसमें से एक है), उन लोगों को नहीं दिया जाएगा जो धन के मामले में भरोसा करने योग्य नहीं थे (लूका 16:11)। और इसीलिए हमें कलीसिया की सभाओं और सम्मेलनों में उबाऊ उपदेश और बोरिंग गवाहियाँ सुनने को मिलती हैं।
9. हमारे अलावा कोई भी दूसरा हमें नुकसान नहीं पहुँचा सकता
" यदि तुम भलाई करने में उत्तेजित रहो तो तुम्हारी बुराई करने वाला फिर कौन है?" (1 पतरस 3:13)
परमेश्वर इतने शक्तिशाली हैं, कि जो लोग उनसे प्रेम रखते हैं, उन के लिये वे सब बातों को मिलाकर भलाई ही को उत्पन्न करते हैं - अर्थात वे जो अपने जीवन के लिए इस पृथ्वी पर परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के अलावा और कोई महत्वाकांक्षा नहीं रखते हैं (रोमियों 8:28)। जिसकी महत्वाकांक्षा स्वार्थ से भरी हो वे लोग इस प्रतिज्ञा के ऊपर दावा नहीं कर सकते। परंतु यदि हम परमेश्वर की इच्छा को पूर्ण रूप से स्वीकार करते हैं तो हम पृथ्वी पर अपने जीवन के हर पल के लिए इस प्रतिज्ञा के ऊपर दावा कर सकते। ऐसा कुछ भी नहीं है, जो हमें नुकसान पहुंचा सके।
वह हर बात जो लोग हमारे साथ करते हैं - अच्छी या बुरी, संयोगवश या जानबूझकर - वह रोमियों 8:28 की छलनी (फ़िल्टर) से छन कर हमारी भलाई के लिए हो जाएगी - वह हर बात हमें हर बार थोड़ा-थोड़ा और मसीह की समानता में बनाने के लिए होगी (रोमियों 8:29) - जो कि उस उत्तम योजना का हिस्सा बनेगी, जिसे परमेश्वर ने हमारे लिए तैयार किया है। यह फिल्टर हर बार उनके लिए पूरी तरह से काम करता है जो इस वचन में दी गईं शर्तों को पूरा करते हैं।
"इसके आगे (1 पतरस 3:13) में वचन हमें बताता है कि यदि यदि हम भलाई करने में उत्तेजित रहेंगे तो हमारी बुराई करने वाला फिर कौन है"? यह खेद की बात है कि यह वचन इतना लोकप्रिय नहीं है जितना रोमियों 8: 28 है। लेकिन अब हमें इसे लोकप्रिय बनाना चाहिए।
हालांकि, यह प्रतिज्ञा भी उन्हीं लोगों पर लागू होती है जो सब लोगों के प्रति अपने हृदय को साफ़ रखने के लिए उत्साहित हैं। तब किसी भी दुष्ट आत्मा के लिए और इंसान के लिए एक विश्वासी को नुकसान पहुंचाना असंभव हो जाएगा।
तो जब भी कोई मसीही यह शिकायत करता है कि दूसरों ने उसे नुकसान पहुंचाया है वह यह स्वीकार कर रहा है कि वह परमेश्वर से प्रेम नहीं करता। उसे परमेश्वर की योजनाओं द्वारा बुलाया नहीं गया है और भलाई के लिए वह उत्साहित नहीं रहा है। अन्यथा जो कुछ भी दूसरों ने उसके साथ किया है वह केवल उस के भले के लिए ही तो कार्य करेगा, और फिर उसकी कोई शिकायत ही नहीं रह जाएगी।
वास्तव में, केवल एक है जो आपको नुकसान पहुँचा सकते हैं, सिर्फ आप - अपने अविश्वास और दूसरों के प्रति अपने गलत व्यवहार द्वारा।
अब मैं 66 साल का हो गया हूं और सच बता सकता हूं कि मुझे नुकसान पहुंचाने में आज तक कोई भी सफल नहीं हुआ है। बहुतों ने कोशिश की थी लेकिन हर बात, मेरी भलाई और मेरी सेवकाई की बेहतरी को लेकर आई। तो अब मैं उन लोगों के लिए परमेश्वर को महिमा दे सकता हूं। जिन लोगों ने मेरा विरोध किया नाम मात्र के विश्वासी थे, जिन्होंने परमेश्वर के तरीके को नहीं समझा था। मैं आपको अपनी गवाही इसलिए बता रहा हूं कि आपको उत्साहित कर सकूँ कि आपकी भी गवाही ऐसी ही हो सकती है, हमेशा के लिए।
10. परमेश्वर के पास हम में से हर एक के जीवन लिए एक पूर्ण योजना है
"क्योंकि हम उसके बनाए हुए हैं; और मसीह यीशु में उन भले कामों के लिये सृजे गए जिन्हें परमेश्वर ने पहले से हमारे करने के लिये तैयार किया " (इफिसियों 2:10)।
बहुत समय पहले जब परमेश्वर ने हमें मसीह में चुना, tतब उन्होंने यह योजना भी बनाई कि हमें अपने सांसारिक जीवन के साथ क्या करना चाहिए। अब हमारा कर्तव्य है कि हम इस योजना का पता लगाएँ - दिन-प्रतिदिन - और उसका पालन करें। हम कभी भी परमेश्वर से बेहतर योजना नहीं बना सकते।
हमें दूसरों की नकल नहीं करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर की उसके हर एक संतान के लिए एक भिन्न योजना है। उदाहरण के लिए युसूफ़ के लिए परमेश्वर की योजना थी कि वह मिस्र के महल में रहे, और 80 साल तक एक आराम-देह जीवन जिए। दूसरे हाथ मूसा के लिए परमेश्वर की योजना मिस्र के महल को छोड़ देने की थी। और 80 साल तक कठिनाइयों में जीवन जीने की थी। जंगल में यदि मूसा ऐसे जीवन जीने की इच्छा रखते, जो युसूफ़ के जीवन के समान प्रेम, आराम और आसानी से भरा हो, तो मूसा उनके जीवन के लिए परमेश्वर की रखी गई योजना को पूरा करने से चूक जाते।
ठीक उसी तरह शायद हो सकता है कि आज परमेश्वर चाहते हों कि एक भाई, अमेरिका में आराम से अपना जीवन जिए और एक अन्य भाई, उत्तर भारत की धूल और गर्मी में कड़ी मेहनत करके अपने जीवन जिए। हम में से र एक को जो मिला है उसकी तुलना किसी अन्य को मिली आशीष से नहीं करनी चाहिए और उसके प्रति ईर्ष्या रखने या उसकी आलोचना करने की बजाय अपने जीवन के लिए परमेश्वर की योजना के बारे में आश्वस्त होना चाहिए।
मैं जानता हूँ कि परमेश्वर ने मुझे भारत में उनकी सेवा करने के लिए बुलाया है। लेकिन मैं अपनी बुलाहट की किसी और के लिए कभी इच्छा नहीं करता हूँ।
हम हालांकि परमेश्वर की इच्छा को जान पाने में कभी भी सक्षम ना होंगे, यदि हम अपने ही सम्मान से या धन से प्रेम करेंगे, या आराम या मनुष्य की स्वीकृति की इच्छा करेंगे।
11. परमेश्वर को आत्मीयता से जानना मजबूत होने का राज़ है
"जो लोग अपने परमेश्वर का ज्ञान रखेंगे, वे हियाव बाँधकर बड़े काम करेंगे" (दानिय्येल 11:32)।
आज परमेश्वर नहीं चाहते कि हम उन्हें दूसरों से प्राप्त किए ज्ञान के द्वारा जानें। उन्होंने छोटे से छोटे विश्वासी को उन्हें व्यक्तिगत रुप से जान लेने का आमंत्रण दिया है( इब्रानियों 8:11)। यीशु ने अनंत जीवन को परिभाषित करते हुए कहा कि, "अद्वैत, सत्य परमेश्वर को जानना और यीशु मसीह को जानना ही अनंत जीवन है" ( यूहन्ना 17:3)। पौलुस के जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा यही थी, और हमारी भी सबसे बड़ी अभिलाषा यही होने चाहिए (फिलिप्पियों 3:10)।
जो परमेश्वर को आत्मीय रूप से जानना चाहता है उसे सर्वदा परमेश्वर को सुनना होगा। यीशु ने कहा कि मनुष्य खुद को आध्यात्मिक रूप से तभी जिंदा रख सकता जब वह परमेश्वर के मुँह से निकले हर शब्द को सुने (मत्ती 4:4) उन्होंने यह भी कहा कि उनके चरणों में बैठकर और उन्हें सुनना ही मसीही जीवन का सबसे उत्तम भाग है (लूका 10:42)।
हमें उस आदत को विकसित करना चाहिए जो यीशु की थी, पिता को तड़के सवेरे से ही सुनना प्रतिदिन (यशाया 50:4), और पूरे दिन; और उसके बाद अपने सुनने की अवस्था में बने रहना रात्रि के समय में और जब हम सो भी रहे हों। ताकि यदि रात को हम अपनी नींद से जाग जाएं तो हम कह सकें, हे प्रभु, बोल तेरा दास सुनता है ( 1 शमूएल 3:10)।
परमेश्वर को जानना हमें हर परिस्थिति के ऊपर जयवंत बनाता है - क्योंकि परमेश्वर के पास उस हर समस्या का समाधान है जिस का हम सामना करते हैं - यदि हम उन्हें सुनेंगे तो वे हमें बताएंगे कि समाधान क्या है।
12. नई वाचा पुरानी वाचा से कहीं अधिक उत्तम है
"यीशु उत्तम वाचा का मध्यस्थ ठहरा" (इब्रानियों 8:6)।
कई मसीहियों को यह नहीं पता है कि पुरानी और नई वाचाओं के बीच एक मूलभूत अंतर है। (इब्रानियों 8:8-12)। नई वाचा, पुरानी की तुलना में उतनी ही उत्तम है जैसे मूसा की तुलना में प्रभु यीशु उत्तम थे (2 कुरिन्थियों 3 और इब्रानियों 3)।
जहां पुरानी वाचा न्याय के भय से और प्रतिफल के वायदे के माध्यम से व्यक्ति को केवल बाहर से शुभ बनाती थी, वहां नई वाचा हमें भीतर से बदल देती है, धमकी द्वारा और प्रतिज्ञाओं के द्वारा नहीं परंतु पवित्र आत्मा के द्वारा, हमें मसीही का स्वभाव दे कर एक - ऐसा स्वभाव जो पूर्ण रुप से शुद्ध है और प्रेमी है।
जंजीरों से बंधे एक सूअर को साफ़ रखना (व्यवस्था के दंड के भय के द्वारा), और एक बिल्ली जो अपने भीतरी स्वभाव के कारण चाट- चाट कर अपनी सफाई करती रहती है, इन दोनों के बीच में बहुत बड़ा अंतर है। यह उदाहरण दोनों वचाओं के बीच के अंतर को दिखाता है।
13. हमें मनुष्यों द्वारा त्यागा और सताया जाने के लिए बुलाया गया है
""पर जितने मसीह यीशु में भक्ति के साथ जीवन बिताना चाहते हैं, वे सब सताए जाएंगे"(2 तीमुथियुस 3:12)।
यीशु ने अपने चेलों से कहा कि संसार में तुम्हें क्लेश होगा, (यूहन्ना 16:33); और उन्होंने पिता से चेलों को जगत से ना उठा लेने की विनती की (यूहन्ना 17:15) । प्रेरितों ने विश्वासियों को सिखाया कि केवल बड़े क्लेश उठाकर ही परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना होगा ( प्रेरितों के काम 14:23)।
यीशु ने कहा जब उन्होंने घर के स्वामी को शैतान कहा तो उसके घर वालों को क्यों न कहेंगे? (मत्ती 10:25)। केवल इस प्रकार हम जानते हैं कि हम उनके घर के विश्वास योग्य सदस्य हैं। अन्य 'विश्वासियों' द्वारा, जिन नामों से मैं बुलाया गया हूँ वे इस प्रकार हैं: 'शैतान', 'शैतान का पुत्र', 'दुष्ट आत्मा', 'मसीह-विरोधी', धोखेबाज़, 'आतंकवादी', 'कातिल', और 'दियुत्रिफेस '। इसलिए यीशु ने घर के एक हिस्सा होने के रूप में पहचाना जाना, यह एक महान सम्मान की बात है। जो सच्चाई से प्रभु की सेवा करते हैं वे सब इसका अनुभव करेंगे।
यीशु ने यह भी कहा कि, एक सच्चा भविष्यवक्ता "अपने ही रिश्तेदारों द्वारा" अपने कुटुम्ब और अपने घर में नहीं सम्मानित होगा (मरकुस 6:4)। स्वयं यीशु को भी अपने परिवार के सदस्यों द्वारा स्वीकार नहीं किया गया था। परमेश्वर के हर सच्चे नबी को त्यागा जाएगा और आज भी अपने ही रिश्तेदारों द्वारा, अपमानित किया जाएगा। उसी तरह, एक सच्चा प्रेरित भी "बदनाम होगा और जगत के कूड़े और सब वस्तुओं की खुरचन की नाईं ठहया जाएगा" (1 कुरिन्थियों 4:13)। सताया और त्यागा जाना सदा से परमेश्वर के चुने हुए सबसे बड़े दासों का प्रारब्ध रहा है।
ऐसी शिक्षा बहुत से विश्वासियों में प्रचलित है, कि कलीसिया "महान क्लेश" होने से पहले उठा ली जाएगी, क्योंकि यह सुनना उन्हें दिलासा देता है। परंतु यीशु ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वे अपने चुने हुओं को महान कलेश के बाद ही लेने के लिए दोबारा आएंगे (मत्ती 24:29-31)।
पूरे नए नियम में एक भी ऐसा पद नहीं है जो सिखाता हो कि कलीसिया महान क्लेश से बच जाएगी, इसके होने से पहले उठा लिए जाने द्वारा। इस सिद्धांत का सन 1800 के मध्य में इंग्लैंड में एक आदमी द्वारा आविष्कार किया गया था।
अब समय आ गया है कि हम कलीसिया को महान क्लेश के लिए तैयार करें।
14. हमें उन सभी को ग्रहण करना चाहिए जिन्हें परमेश्वर ने ग्रहण किया है
परमेश्वर ने इस शरीर में अपनी इच्छा के अनुसार भाग बनाए हैं... कि इनमें किसी में अलगाव ना हो (1 कुरिन्थियों 12:18,25)।
परमेश्वर ने अलग-अलग समय में भिन्न-भिन्न लोगों को उनके निमित खरी गवाही को पुनः स्थापित करने के लिए खड़ा किया, लेकिन उन परमेश्वर के दासों की मृत्यु के बाद उनके चेलों के अपने समूहों को शैतानी संप्रदाय में बदल दिया है।
लेकिन मसीह की देह (बॉडी ऑफ क्राइस्ट) किसी भी समूह से कहीं बड़ी है। और इस बात को हमें कभी नहीं भूलना चाहिए। मसीह की दुल्हन आज अनेकों-अनेकों समूहों में निहित है।
तो हमें उन सभी के साथ संगती करने की इच्छा रखनी चाहिए, जिन्हें परमेश्वर ने ग्रहण किया है फिर चाहे परमेश्वर के वचन को समझने में आपसी मतभेद के कारण हम एक दूसरे के साथ काम ना भी कर पाएं।
15. हमें हर मनुष्य के साथ सम्मान पूर्वक व्यवहार करना चाहिए
"जीभ से हम मनुष्यों को जो परमेश्वर के स्वरूप में उत्पन्न हुए हैं श्राप देते हैं। हे मेरे भाइयों, ऐसा नहीं होना चाहिए" (याकूब 3:9, 10)।
ऐसा कोई भी शब्द जो मनुष्य को नीचा बनाता हो कभी भी परमेश्वर की ओर से नहीं है। वह हमेशा शैतान की ओर से होता है जो हमेशा लोगों को अपमानित करना और नीचा दिखाना चाहता है।
हमें "नम्रता और सम्मान के साथ" बात करने की आज्ञा मिली है - सभी मनुष्यों के साथ (1 पतरस 3:15) चाहे वह पत्नियाँ हों, हमारे बच्चे हों, हमसे छोटे लोग, भिखारी या दुश्मन हों।
सभी मनुष्यों से सम्मान का व्यवहार करना चाहिए। उदाहरण के लिए जब अपने से ग़रीब भाई को तोहफा दें, हमें ऐसा उनकी गरिमा को हानि पहुंचाए बिना करना चाहिए। एक मनुष्य होने के नाते हमें उसका भाई बनना है ना की अपने दानी होने का दिखावा है।
16. हमें अपनी आर्थिक ज़रूरतों को केवल परमेश्वर के सामने प्रकट करना चाहिए
"परमेश्वर अपने उस धन के अनुसार जो महिमा सहित मसीह यीशु में है तुम्हारी हर एक घटी को पूरी करेगा।" ( फिलिप्पियों 4:19)।
वे मसीही जो अपना पूरा समय परमेश्वर की सेवा में लगते हैं उन्हें अपनी आर्थिक ज़रूरतों के लिए केवल परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए और उन ज़रूरतों को केवल परमेश्वर पर प्रकट करना चाहिए। परमेश्वर अपने बच्चों को उन ज़रूरतों के विषय में संकेत दे देंगे। उन्हें "परमेश्वर में विश्वास द्वारा साथ ही दूसरों को संकेत देने द्वारा जीवित नहीं रहना है", जैसे आज कई लोग जीवित रहने की कोशिश करते हैं।
"प्रभु ने ठहराया, कि जो लोग सुसमाचार सुनाते हैं, उन की जीविका सुसमाचार से हो" (1 कुरिन्थियों 9:14)।
तो जो लोग परमेश्वर की सेवा में पूरा समय देते हैं उन्हें अन्य विश्वासियों से भेंट लेने की अनुमति तो मिली है, परन्तु उन्हें इसके लिए वेतन नहीं लेना चाहिए। भेंट लेने में और वेतन लेने में एक बहुत बड़ा अंतर है। भेंट को मांगा नहीं जा सकता जबकि वेतन को मांगा जा सकता है। बहुत से विश्वासियों के आज विश्वास से गिर जाने का कारण इसी बात में निहित है।
हमें हालाँकि अपने व्यक्तिगत या पारिवारिक इस्तेमाल के लिए उन लोगों से भेंट नहीं लेनी चाहिए जो हमसे ग़रीब हैं। अगर ऐसा व्यक्ति हमें भेंट देता है, तो हमें उस धन को अपने से अधिक ग़रीब व्यक्ति को दे देना चाहिए या उस धन को भेंट पात्र में परमेश्वर के कार्य के लिए दे देना चाहिए।
यहाँ धन को लेकर "दस आज्ञाएँ" दी गई हैं, जिनका पालन करने से सभी पूर्णकालिक रूप से परमेश्वर की सेवा करने वालों को मदद मिलेगी:
- 1. अपनी आर्थिक ज़रूरतों को परमेश्वर को छोड़कर किसी अन्य पर ना प्रकट करें ( फिलिप्पियों 4:19)।
- 2. कभी गैर विश्वासियों से धन ना ग्रहण करें (3 यूहन्ना 7)।
- 3. कभी किसी से भेंट की अपेक्षा ना रखें (भजन संहिता 62:5)।
- 4. कभी किसी को आप पर या आपकी सेवकाई पर पैसे से नियंत्रण रखने का मौका ना दें।
- 5. कभी उन लोगों से धन ना ग्रहण करें जो आप की सेवकाई को ग्रहण नहीं करते ।
· 6. कभी भी किसी ऐसे व्यक्ति से अपनी व्यक्तिगत या पारिवारिक ज़रूरतों के लिए धन ना ग्रहण करें जिसकी आर्थिक क्षमता आप से कम हो ।
- 7. कभी अपनी आर्थिक ज़रूरतों के लिए किसी मनुष्य पर निर्भर ना हों ।
· 8. कभी भी परमेश्वर के धन का प्रयोग इस प्रकार ना करें जिससे दूसरों के मन में इसके दुरुपयोग का संदेह उत्पन्न हो (2 कुरिन्थियों 8:20, 21)।
- 9. कभी भी धन प्राप्त करके उत्साहित ना हों ।
- 10. कभी भी धन के खो जाने पर निराश ना हों।
निष्कर्ष
मुझे आशा है कि ये सत्य ना केवल आप को प्रोत्साहित करेंगे, किन्तु आपको मुक्त भी करेंगे । यदि आप अपनी सेवकाई में परमेश्वर के साथ चलने के विषय में गंभीर हैं, तो आपको अपने दैनिक जीवन में इनमें से प्रत्येक सत्य को गंभीरता से लेना चाहिए।