एक लड़की का दृष्टिकोण

द्वारा लिखित :   डॉ एनी पुनन श्रेणियाँ :   जवानी महिला
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अध्याय 1
बचपन के दिन

मेरे माता-पिता द्वारा दिए गए नाम से मुझे प्रेम है- कृपा। इसका अर्थ है 'अनुग्रह'। यह भविष्यद्वाणी थी। मेरे जीवन की कहानी परमेश्वर के अनुग्रह की कहानी है।

पिताजी एक निजी कंपनी के कार्यालय में काम करते थे। वे एक मध्यम वेतन कमाते थे। लेकिन उन्होंने अपनी अधिक से अधिक कमाई, पीने पर ही व्यर्थ कर दी। वे अधिकतर हर दिन रात को देर से आते और माँ उन पर दोष ठहराती कि वे अन्य महिलाओं से मिल रहे थे और कि वे उनके प्रति विश्वासघाती थे।

माँ एक सरकारी कार्यालय में एक क्लर्क के रूप में काम करती थी। लेकिन हर समय नई साड़ी खरीदती थी। इस कारण से हम पैसों की कोई बात नहीं कर पा रहे थे। माँ अब और फिर, कार्यालय में से पेन, लिफाफे और लैटर-पैड उठाकर घर लेकर आती। हम दो बैडरूम वाले घर में रहते थे और पिताजी के माता-पिता हमारे साथ रहते थे।

हमारा घर कई मायनों से एक निराशपूर्ण घर था। लगातार चिल्लाहट और मार से भरा रहता था। माँ को ज्यादा सहना पड़ता था लेकिन हम बच्चों को भी अपना भाग मिल ही जाता था। अक्सर इन घरेलू झगड़ों में पिताजी की माँ भागी होती- और माँ ही हमेशा परास्त होती। लेकिन मैं कई बार यह सोचती कि माँ क्यों इतने ज़ोर से चिल्लाती थी कि पड़ोसियों को भी सब कुछ पता चल जाता था। इससे मुझे असमंजस होता था।

पिताजी को दंडित करने के लिए, माँ उनके लिए या उनके माता-पिता के लिए कोई भी अच्छा भोजन नहीं छोड़ती थी। वे और हम बच्चे सभी विशेष भोजन को गुप्त रीति से बैडरूम में ही खा लेते थे।

लेकिन माँ जिस प्रकार का व्यवहार पिताजी के साथ करती थी, वह मुझे पसंद नहीं था। कभी-कभी उनमें तीखी बहस रात में देर तक होती, जिससे हम ठीक से सो भी नहीं पाते थे।

एक दिन, जब मैं 12 साल की हो गई, माँ मुझे और मेरे छोटे भाई को एक महिला के पास लेकर आई, जिनसे वे एक मसीही प्रार्थना बैठक में मिली थी।

जब हम उस महिला से मिले, माँ बहुत भावुक होने लगी और घर की सारे कठिनाइयों को उस महिला से कहने लगी, इसे देखकर मुझे शर्म आ रही थी, क्योंकि वह महिला हमारे लिए एक कुल अजनबी थी। लेकिन मैंने इस बात पर गौर किया कि कैसे बड़े ही नम्र और सुखदायक रीति से वह महिला सभी जानकारियों के प्रति प्रतिक्रिया दिखा रही है।

मुझे जल्द ही पता चल गया कि माँ उनसे मिलने इस कारण आई थी कि वे हमें अनाथालय में डाल दें जिससे कि हम शराबी पिता द्वारा दी गई कठिनाइयों का सामना करने से बच जाएँ।

वह महिला बहुत ही दयालु और धैर्यपूर्ण थी। उन्होंने माँ से कहा कि व्यक्तिगत रूप में वे किसी भी अनाथालय को नहीं जानती थी। लेकिन उन्होंने माँ को बहुत अच्छी सलाह दी। उन्होंने माँ को कहा कि सबसे पहले उन सभी बातों के लिए पिताजी को क्षमा कर दे, जिनको उन्होंने उनके विरोध में किया था और यह आशा रखे कि एक दिन पिताजी बदल जाएंगे। उन्होंने माँ को यह चेतावनी दी कि हालाँकि हम बच्चे एक कठिन पिता के साथ बढ़ रहे थे, लेकिन अनाथालय में जीवन इससे भी बुरा होता है क्योंकि वहाँ पर हम माँ के प्रेम से भी रहित हो जाएँगे।

उस महिला ने मुझसे भी बातें की। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अपने माता-पिता के प्रति आज्ञाकारी बनी रहूँ, पिताजी का आदर और सम्मान करूं, भले ही उनमें कई कमियाँ थी। उन्होंने मुझे बताया कि यीशु जो स्वयं परमेश्वर के पुत्र हैं, धरती पर जीते समय, अपने सांसारिक माता-पिता के आधीन थे, यह भी जब वे स्वयं निष्पाप थे लेकिन उनके सांसारिक माता-पिता नहीं।

फिर उन्होंने हम सभी के साथ प्रार्थना की। हम बहुत अच्छा महसूस करके वहाँ से चले गए।

एक बढ़ती हुई लड़की के रूप में मुझमें कई प्रश्न थे। लेकिन माँ हमेशा कार्यालय के काम में, और घर के काम में व्यस्त रहती थी और मुझसे बात करने के लिए उनके पास समय ही नहीं था। मुझे भी उनके साथ अपनी समस्याओं को बांटने के लिए खुलापन महसूस नहीं होता था। इस कारण मैं काफी अकेली और कई अनुत्तरित प्रश्नों के साथ बड़ी हुई। तब से मैंने यह निर्णय लिया कि यदि मैं कभी शादी करती भी हूँ और मेरे बच्चे होते हैं तो प्रत्येक के साथ अधिक से अधिक समय बिताना चाहूंगी।

अंत में माँ ने पहाड़ी इलाके में, एक मसीही छात्रावास पाया, जो केवल लड़कियों के लिए था और हमारे घर से कई सौ मील दूरी पर था। वहाँ उन्होंने मुझे दाखिल कर दिया।

अध्याय 2
नई शुरुआत

छात्रावास में जीवन मेरे लिए एक नया समायोजन था।

मैं अक्सर दुखी और उदास रहकर, घर के विषय में ही सोचती रहती थी। लेकिन साथ ही मैं खुश भी थी कि मैं स्कूल जा रही थी और अन्य बच्चों के साथ थी, जिनमें से कुछ मेरे समान, दु:खी परिवारों में से आए थे। भोजन सरल था, शाकाहारी होने पर भी अच्छा था। रविवार के दिन वहाँ पर कुछ माँस भी रखा जाता था।

कभी-कभी माँ उपहार के रूप में थोड़े पैसे भेजा करती थी, जिससे मैं कुछ विशेष चीज़े खरीदा करती थी। एक बार मैंने ऊँचे एड़ी वाले सैंडल के दो जोड़ी खरीदे, जिसे मैं प्रत्येक दिन साफ करके बड़े ही सावधानी से रखती थी। मैं उसके विषय में इतनी उधम मचाती थी कि मेरे दोस्त मज़ाक में मुझे क्रोधित करने के लिए, उसे चारों ओर से लात मारते थे।

एक रात हमारे छात्रावास में एक विशेष समारोह का आयोजन किया गया। हमें यीशु के जीवन की एक फिल्म दिखाई गई। हमारे पास घर में एक बाईबल तो थी, लेकिन जहाँ तक मुझे याद है, उसे हम में से कोई नहीं पढ़ता था। उस पर पुस्तक के शैल्फ में केवल धूल ही इकट्ठा हो रही थी। लेकिन अभी मैं यीशु की कहानियों को दैनिक रूप में- बाईबल पढ़ते समय और प्रार्थना करते समय सुन रही थी, जिसे छात्रवास में रखा जाता था। हालाँकि व्यक्तिगत रूप से अभी तक मुझे इस बात की समझ नहीं थी कि यीशु ने मेरे लिए क्या किया था। लेकिन जब मैंने उस फिल्म को देखा, मुझ पर जोर का एक प्रहार पहुंचा और मैं पहली बार यह जान गई कि यीशु मुझसे कितना प्रेम करते हैं कि वे इस अभागी पृथ्वी पर आकर, मेरे पापों के लिए मरे।

मैं अपने जीवन के विषय में सोचने लगी, कि कैसे कई बार, मैंने अपनी ज़िद के कारण अपने माता-पिता को बहुत दुख पहुंचाया था। मुझे यह भी याद आने लगा कि कैसे मेरे स्वार्थ के कारण मैं अपने दोस्तों के साथ अपने सामान को नहीं बांट रही थी। मैं विचार करने लगी कि किस प्रकार से मैं झूठ बोल रही थी, चोरी करती थी, क्रोधित होती थी और ऐसे कई पापों को करती थी जिसका उल्लेख करने में अब मुझे शर्म आ रही थी। मुझे अब एहसास हुआ कि इन सभी के लिए यीशु को मरना पड़ा और मेरे दंड को उन्होंने अपने ऊपर ले लिया।

उस रात को, जब लाइट बंद कर दी गई, मैं रोने लगी और मैंने यीशु से क्षमा मांगी कि मैं परमेश्वर की संतान बन जाऊँ। हर्ष और शान्ति की एक बाढ़ अचानक से मेरे हृदय में दौड़ने लगी। मैं, जो कभी किसी के भी प्रेम को महसूस नहीं कर पा रही थी, अब तुरन्त मेरे उद्धारकर्ता के प्रेम से परिचित हो गई। मैं अब जान गई कि मैं परमेश्वर की एक विशेष संतान थी और वे मुझे कभी भी उनसे दूर नहीं करेंगे। एक विशेष अभया भावना मेरे हृदय में आ गई थी- एक ऐसे हृदय में जो हमेशा माता-पिता के प्रेम से अनिश्चित हुआ करता था।

मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैं प्रभु यीशु की हो गई थी और वे हमेशा के लिए मेरे हो गए।

मैं नहीं जानती कि यह सुरक्षा कि भावना कैसे मेरे अंदर आ गई क्योंकि इन बातों को मुझे किसी ने भी नहीं सिखाया था। लेकिन यदि मैं अभी पीछे की ओर देखूं, मुझे यह दिख रहा है कि कैसे पवित्र-आत्मा, मसीह की बातों को, एक साधारण से दिमाग के लिए वास्तविक बना सकते हैं, ऐसे व्यक्ति के लिए जिसने बाईबल का अध्ययन ही नहीं किया हो।

यह मेरे जीवन का निर्णायक मोड़ था। मैंने इस अनुभव के बारे में घर को लिखा और चाहा कि मेरी माँ और घर के सभी लोग इसी अनुभव को बांटे।

बहुत ही शीघ्र मैंने अपनी किशोरावस्था में प्रवेश किया। अभी मैं 13 साल की हो गई थी।

गर्मी की छुट्टियों में मैं घर वापस गई। लेकिन मैंने यह पाया कि छात्रवास का जीवन, घर के जीवन की तुलना में बेहतर थाµ छात्रवास में मैं प्रार्थना कर सकती थी, अनुशासित रह सकती थी, अपने दोस्तों के साथ बातें कर सकती थी, और चैपल के सभा में भाग ले सकती थी। छात्रवास में कई बार हमें, किसी पार्क या पहाड़ के किसी सुंदर स्थान पर लेकर जाया जाता था। ऐसे पिकनिक का हम, बड़े ही वास्तविक दावत के रूप में चाह रखते थे। इन सभी की तुलना में घर का यह जीवन रूचिरहित और कार्यरहित था। लेकिन मुझे अपने छोटे भाई से खेलना बहुत पसंद था, जिसे मैं छात्रवास में बहुत याद करती थी।

इस अवकाश के दौरान मैंने एक चौंकाने वाली खोज की। मेरा 17 वर्षीय एक रिश्तेदार था, जिसे मैं भाई के रूप में मानती थी, जैसे अतीत में अक्सर हमें मिलने आता था, इस बार भी वह हमें मिलने आया। लेकिन इस अवकाश के दौरान मैंने पाया कि जब कभी हम अकेले में हुआ करते, वह मेरे देह को यहाँ-वहाँ छूने लगता और शारीरिक रूप से वह मेरे पास आने का प्रयास करता। पहले कभी भी उसने मेरे प्रति इस प्रकार का व्यवहार नहीं किया था, और न ही किसी ने मुझे लड़के-लड़कियों के रिश्ते या यौन सम्बन्धित बातें बताई थी। लेकिन सतर्कता से मुझे इतना जरूर पता चल गया कि उसके व्यवहार में कुछ गलत बात थी।

छात्रवास के मेरे कई साथियों की तुलना में, वे केवल प्रभु ही थे जिन्होंने मुझे सुरक्षित रखा था। मुझे इनके विषय में बाद में ही पता चला कि किस प्रकार अनेक लड़कियाँ अपने किसी नज़दीकी रिश्तेदार के प्रलोभन में आकर यौन पाप में गिर पड़ें, वह भी एक ऐसी आयु में जब वे बहुत ही मासूम और अनभिज्ञ थे। मेरे इस रिश्तेदार का व्यवहार एक और कारण था जिसकी वजह से मैं वापस छात्रवास जाना चाहती थी। मुझे तब यह महसूस हुआ कि किस प्रकार से एक नज़दीकी रिश्तेदार भी ऐसा अशुद्ध दृष्टिकोण रख सकता है।

अध्याय 3
एक उपयोगी मार्ग-दर्शक

एक किशोरी के रूप में मैंने यह शीघ्र ही जान लिया कि मैं अभी एक औरत के रूप में विकसित हो रही थी। मेरे मन में हर प्रकार की भावनाएं अब उत्पन्न होने लगी। मैं, जो दूसरों के प्रेम को अभी चाहने लगी थी, अब मुझमें एक पुरुष के प्रेम की भी इच्छा आने लगी। मैं दिन में उन अच्छे पुरुषों के विषय में सपने देखने लगी जो मुझसे प्रेम करने योग्य थे। कभी-कभी ऐसे विचार बड़ी ही क्रूरता से मेरे मन में दौड़ने लग जाते थे।

मैंने पाया कि मेरी यह काल्पनिक दुनिया, मेरे जीवन में एक बलवन्त राक्षस के समान थी, जो मेरी यीशु के साथ एक्य रखने में एक निरोधक बन रही थी। मैंने पाया कि इस प्रकार से कल्पना करना, मुझे यीशु से बात करने से अधिक पसंद हो रहा था, यीशु- जो मेरे एकमात्र सच्चे साथी थे। मैं इस आदत से मुक्ति पाने में सक्षम नहीं हो रही थी।

मैंने देखा कि छात्रवास की कुछ लड़कियों में एक दूसरे के प्रति बहुत ही असमान्य लगाव था। वे एक दूसरे के प्रति बहुत ही अधिकारात्मिक थे। वे जिस प्रकार एक-दूसरे के प्रति स्नेह व्यक्त करते थे, उसको देखकर मुझको शर्म आती थी। वे अपने ही कमरे के अंदर जाते थे और दरवाजे को बंद कर देते थे। मुझे पता नहीं कि वे वहाँ क्या करते थे। लेकिन मुझे बाद में ही यह पता चला कि वे (समलैंगिकता) समलैंगिक व्यवहार में लिप्त थे- जिससे परमेश्वर को घृणा है और जिसको परमेश्वर ने अपने वचन में बड़े ही स्पष्ट रूप में मना किया था (रोमियों. 1:26,27)। मैं ऐसी लड़कियों के संगठन से दूर रहती थी।

छात्रवास की कई लड़कियों ने अपना जीवन यीशु को नहीं दिया था। वे एक-दूसरे के साथ लड़ती थी और कई सप्ताहों के लिए एक-दूसरे से बात नहीं करती थी।

हमारे छात्रवास में मैंने यह देखा कि सभी शिक्षकों में से एक के चेहरे में एक ऐसी रोशनी थी जो आश्चर्यजनक था। मुझे पता चला कि वे एक प्रतिबद्ध मसीही थी जो प्रभु यीशु से प्रेम करती थी। मैंने अपनी कुछ परेशानियों को उनके साथ बांटा, क्योंकि मुझे ऐसा लगा कि वे मुझे समझ सकती थी। वे हमेशा मुझे अच्छी सलाह देती। मैंने यह पाया कि यीशु उनके बल और ज्ञान के स्रोत थे।

यह शिक्षक आने वाले कई वर्षों के लिए, मेरी उदाहरण बनी रही, यहाँ तक कि मेरे छात्रवास के छोड़ने के बाद भी। मुझे यह एहसास ही नहीं हुआ कि उनका मेरे जीवन में ऐसा प्रभाव पड़ जाएगा कि उनकी आत्मा को मैं आत्म-सात कर बैठूंगी। उनका उदाहरण मेरे जीवन में, कई अच्छी बातों की नींव बन गया।

वे हमारे साथ साधारण बातें करती थी। जब विज्ञान की कक्षा में वे फूलों के बारे में पढ़ाती, उदाहरण के लिए वे कहती कि सोसन एक ऐसा फूल है जो पवित्रता को दर्शाता है। वे कहती कि हमारा जीवन धरती में एक सोसन के समान है जो एक दिन जीवित और उज्जवल है और दूसरे दिन चला जाता है। वे हमें कहती कि गुलाब जो अपनी सुगंध रात को देता है- एक ऐसी तस्वीर का प्रदर्शक है कि किस प्रकार हम भी अपने सबसे अंधेरी परीक्षाओं के मध्य भी निर्मल और दीप्तिमान हो सकते हैं। 'बैंगनी' के विषय में वे यह कहती कि यह अधिकतर छायादार स्थानों में ही खिलती है- यह विनम्रता और दीनता का एक चित्र है। वे कहती कि कई फूल वहीं पर अधिकतर खिलते थे जहाँ उन्हें कोई देख नहीं सकता था। उसी प्रकार हमें भी केवल परमेश्वर को संतुष्टि दिलाने के लिए जीना चाहिए और दूसरों को प्रभावित करने के लिए नहीं। कई फूलों को कुचला जाता है, लेकिन उनमें से कोई प्रतिकार नहीं करता। इसी प्रकार हमें उनसे सीखना है कि कैसे हमें भी बिना किसी कड़वाहट को रखते हुए अपमान को सहना चाहिए- और दूसरों को शीघ्र ही क्षमा करना चाहिए। इन सारी शिक्षाओं का मेरे युवा मन में गहरी छाप का गठन हुआ और इन सभी ने मेरे चरित्र को गठित किया।

यही शिक्षक हमारे छात्रवास की वार्डन भी थी। उन्होंने हमें सिखाया कि जब हम परिपक्व हो जाए तो हमें किस प्रकार से अपनी देखभाल करनी चाहिए। उन्होंने हमें सिखाया कि किस प्रकार स्वच्छता के विषय में हमें हमेशा सोचना चाहिए, प्रतिदिन नहाना चाहिए, मुख्य रूप से हमारे शरीर के उन अंगों को हमें धोना चाहिए जो गंदे हो जाते हैं और उन अंगों को भी जहाँ सबसे ज्यादा पसीना छूटता है। उन्होंने हमें सिखाया कि कैसे हमारे मासिक चक्र को हमें एक बिमारी के रूप में न लेकर, उसे एक सामान्य भाग मानना चाहिए कि किस प्रकार से हमारे निर्माता ने हमारे शरीर को इतने अद्भुत तरीके से बनाया है। उन्होंने हमें सिखाया कि हमारी प्रगति के लिए इन बातों को, हमें बड़े ही प्राकृतिक तरीके से लेना चाहिए, अभ्यास करना चाहिए, चलना और खेलना चाहिए जिससे कि हमारा शरीर तंदरुस्त रहे। वे कहती कि हमें इकहरा और प्रचंड रहना चाहिए और न ही मोटे और आलसी। वे भी हमारे खेल में भागी होती थी।

वे हमें सिखाया करती थी कि हम अपने बालों को साफ और 'जूँ' रहित रखें, क्योंकि यह छात्रवास की कई लड़कियों में सामान्य रूप से देखा जाता था। हमें अपने कमरे की चीज़ों को अच्छे तरीके से रखना पड़ता था और आसपास के परिसर को भी साफ रखना पड़ता था। हमें अपने कपड़ों को नियमित रूप से धोना और जब जरूरत पड़े तो उसकी मरम्मत भी करनी पड़ती थी।

वे कई बार हमें बाईबल के नीतिवचन की किताब से कई बुद्धि के वचनों को हमारे साथ बांटती और हमें बाईबल के पदों को मनन करने के लिए प्रोत्साहित करती। हमें संगीत की कक्षाओं से प्रेम था और हमने आराधना के कई सुंदर गीतों को वहाँ सीखा, जिनको मैं प्रभु के लिए तब गाती जब अकेली होती। और जब भी मैं निराश होती, ये सहगान मेरे आत्मा को उठाने में मेरी सहायता करती। उन दिनों में मैंने यह सीखा कि परमेश्वर की स्तुति निरंतर करने में कितना सामर्थ होता है।

हमारी वार्डन हमें नियमित रूप से अध्ययन करने के लिए ही नहीं बल्कि हमें इस ओर भी प्रोत्साहित करती कि हम परीक्षा से पहले तक के समय के लिए, पढ़ाई के भागों को न छोड़ें। वे हमें बताया करती कि हम परीक्षा से न डरे, लेकिन लगन के साथ अध्ययन करें, और कभी भी नकल करके धोखा न दें और सब बातों को परमेश्वर पर छोड़ दें। उन्होंने हमें बाईबल का एक वचन सिखाया कि जिसका मन तुझमें धीरज धरे हुए है, उसकी तू पूर्ण शान्ति के साथ रक्षा करता है (यशायाह 26:3)। कई लड़कियाँ परीक्षा के समय अनावश्यक रूप से व्याकुल हो जाती है। लेकिन हमारी वार्डन ने हमारी सहायता की कि हम शिथिलता बनाए रखे।

इतिहास की कक्षा में, हमारी वार्डन ने हमें केवल भारत पर शासन करने वाले राजाओं के विषय में ही नहीं, बल्कि उन मिशनरियों के विषय में भी सिखाया जो अपने जीवन को त्यागकर, हमारी भूमि पर आए, जिससे कि भारत एक बेहतर स्थान बन सके।

उन्होंने हमें विलियम कैरी के बारे में बताया जो इंग्लैंड में केवल एक मोची थे, लेकिन भारत आकर बड़े त्याग के साथ हमारे देशवासियों को सुसमाचार प्रदान किया। हमारी भूमि पर उन्होंने बहुत कष्टों को सहा, लेकिन कई भारतीय भाषाओं में बाईबल का अनुवाद करके, उन्होंने अंत में बहुत अद्भुत कार्य किया। इस एक व्यक्ति के द्वारा कई भारतीयों ने परमेश्वर के वचन को अपनी ही मातृभाषा में प्राप्त किया।

उन्होंने हमें ऐमी कारमाइकल के बारे में बताया जो आयरलैंड से यहाँ आई थी और तमिलनाडु में दोहनावुर नामक जगह में उन्होंने अनाथ बच्चों के लिए एक घर शुरु किया। उन्होंने ऐसी छोटी लड़कियों को बचाया जो अपने माता-पिता द्वारा फेंक दिए गए थे और उन्होंने अपना जीवन इन लड़कियों के लिए व्यक्त किया जो बड़े होकर परमेश्वर का भय रखने वाली महिलाएँ बनी।

उन्होंने हमें जॉन हाइड (जो 'प्रार्थना हाइड' के रूप में जाने जाते हैं) के विषय में बताया, जो पंजाब में मिशनरी बनकर आई थी, और वहाँ उनके द्वारा कई प्राण मसीह के पास आए।

ये कहानियाँ मुझे, इतिहास के पाठ के अशोक और शाहजहाँ से अधिक चुनौती दिलाती थी।

मैं बहुत आभारी थी कि हमारे वार्डन हम में से प्रत्येक के साथ इतना समय बिताती थी। हम खुलकर उनके साथ कई विषयों पर बात करते थे। मैं कई बार यह इच्छा करती कि काश मेरी माँ भी इनके समान होती।

एक दिन वार्डन ने मुझे बताया कि वे खुद भी एक अनाथ थी जो दोहनावुर में ऐमी कारमाइकल द्वारा बड़ी की गई थी। अपने शिक्षक प्रशिक्षण कोर्स की पूर्ति के बाद, उन्होंने छात्रवास के काम को उठा लिया।

वे सही मायनों में एक निष्पक्ष महिला थी और हम सभी से बहुत प्रेम करती थी।

वे अक्सर व्यक्तिगत रूप में मुझे प्रोत्साहित करती कि मैं अनुशासित आदतों को अपने जीवन में विकसित करूँ। वे मुझे कहती थी कि नियमित रूप में बाईबल पढ़ना, प्रार्थना करना और दैनिक प्रभु के साथ एक शान्तिपूर्वक समय बिताना, इनमें उन्होंने स्वयं महान मूल्यता को देखा था। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अपने युद्धों मेंµ अपने वैचारिक जीवन के काल्पनिक दुनिया में और साथ ही छात्रवास के मेरे साथियों के विरोध में मेरी शिकायतों पर, जय पाने के लिए प्रभु से सहायता माँगूं।

मैंने अपने पिता को बहुत पहले ही क्षमा कर दिया था। लेकिन धीरे-धीरे अभी ऐसे कई लोग थे जिनके प्रति मेरे अंदर कड़वाहट भरी हुई थी। मैंने यह पाया कि कड़वाहट के इस युद्ध को जीवनभर लड़ते जाना है। लेकिन साथ ही, परमेश्वर उन सभी को क्षमा करने के लिए और उनसे प्रेम करने के लिए हमें अनुग्रह दे सकते हैं।

मसीह के सुसमाचार में यह अद्भुत सामर्थ है।

अध्याय 4
बुरी आदतों पर जय पाना

मैंने यह गौर किया कि यदि मेरे जीवन में कुछ परिवर्तन होना है, सबसे पहले मेरे पढ़ने की आदतों में बदलाव आना चाहिए। रोमांटिक उपन्यासों को पढ़ने की मेरी आदत थी, क्योंकि वे मेरी कल्पनाओं को उत्साहित करते थे। लेकिन ये मेरे हृदय की आग के लपटों में ईंधन डालते थे और इससे मेरी कल्पना करने की चाह बढ़ती ही जाती थी। स्वस्थ पुस्तकों के स्वाद को चखने के लिए, मेरे वार्डन दोस्त ने मुझे अपने निज पुस्तकालय में से कुछ पुस्तकें उद्धार के लिए दीं। ये पुस्तक मुझे प्रभु की ओर आकर्षित करने लगी।

मैंने प्रभु से कहा कि वे मेरी गलत प्रकार की पुस्तकों की चाह, मुझसे दूर कर दे। धीरे-धीरे मैंने मेरे दृष्टिकोण में परिवर्तन पाया। मैंने अपने छात्रवास के पुस्तकालय में भारत में आए हुए मिशनरियों और वर्षों भर के कई मसीही नायकों के विषय में कई अच्छी पुस्तकें पाईं। धीरे किन्तु निश्चित रूप से मैं अपने भटके हुए विचारों को प्रभु के बंधन में लेकर आने में सक्षम हुई और मेरी कल्पनाओं की दुनियाँ धीरे-धीरे बादलों के समान दूर बहने लगी। अंत में, मैंने इस दुष्ट राक्षस से मुक्ति प्राप्त कर ली, जिसने इतने लंबे समय के लिए मुझे बंदी बनाकर रखा हुआ था।

छात्रवास में एक टी.वी. था और लड़कियाँ अक्सर उसमें आए हुए सिनेमा को देखती थी। मैंने भी कुछ फिल्मों को वहाँ देखा। लेकिन मैंने पाया कि यह मेरे काल्पनिक दुनिया को फिर से वापिस लेकर आ रही थी। तब मैंने प्रभु से कहा कि वे मुझे इस आदत से पूर्ण मुक्ति दिलाए।

इस प्रलोभन पर जय पाने के लिए, मैं विकर्षण की खोज में थी, और इस प्रकार मैंने गलियारे में एक उपर्युक्त कोना पाया जहाँ मैं अपने वार्डन- सहेली के लिए कुछ कढ़ाई करने लगी। हमारे छात्रवास में विक्रय होने वाला था और वहाँ मैं कुछ प्लास्टिक टोकरियों को और अन्य सामानों को बेच सकती थी। मैंने सिलाई में और बुनाई में रूचि उत्पन्न की। और अब मैं कुछ गरिमा के साथ कपड़े पहनने लगी क्योंकि मुझे अब पता चल गया था कि मेरे जीवन का आखिरकार एक मूल्य था।

मेरे भटके हुए विचार अभी धीरे-धीरे प्रभु के बंधन के अंतर्गत आ गए, लेकिन यह एक निरंतर युद्ध था। कभी-कभी जब लड़कियाँ मुझे टी.वी. में आए हुए रोचक कार्यक्रम के बारे में बताकर मुझे उसे देखने के लिए कहती, तब मैं अपनी आँखों को बंद करके स्वयं को एक 'पवित्र व्यक्ति' नहीं प्रकट करना चाहती थी। लेकिन पूर्ण रूप से मैंने यह पाया कि टी.वी. के कई प्रस्तुति मेरे मन को भ्रष्ट कर रही थी।

जैसे मैं परमेश्वर को ढूंढने लगी, मैंने पाया कि मैं दूसरों की जरूरतों के प्रति संवेदनशील हो रही थी, उनकी भीतरी आत्मिक आवश्यकताओं के प्रति। एक लड़की जो बहुत शांत रहा करती थी। वह एक दिन मेरे पास आई और अपनी समस्याओं को मेरे साथ बांटने लगी। उसकी माँ का देहांत हो चुका था और उसको छात्रवास भेजा गया ताकि उसके पिता फिर से विवाह कर पाएं। उसके पिता को यह लगा कि जब तक उनके साथ बेटी नामक एक अतिरिक्त सामान रहता, उनको एक पत्नी नहीं मिल सकती थी। इस लड़की ने मुझे कई जलने के दाग दिखाए और कई मार के दाग भी, जिसे उसने अपने पिता के द्वारा पाया था। वह वापस अपने घर नहीं जाना चाहती थी। कभी-कभी उसकी नानी उसको देखने के लिए आती और साथ ही उसके लिए मिठाईयां भी लाती। लेकिन उसके कड़वाहट और क्रोध में, वह कभी अपनी नानी से बात नहीं करती थी। मैंने यह पाया कि उसके शरीर से भी बढ़कर घाव उसके प्राण में था। उसने और मैंने, अपने कई विचारों को आपस में बांटा, और हम मिलकर प्रार्थना करने लगे। बहुत ही शीघ्र उसने भी प्रभु यीशु को अपने उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार किया। यह मेरे लिए सच में रोमांचक बात थी कि मेरे द्वारा एक प्राण उद्धारकर्ता यीशु के पास आया। तब हम अपने परिवारों के लिए प्रार्थना करने लगे और हमारे समान अन्य लड़कियों के लिए भी जो अंदर चोट पाए हुई थी।

हमारे छात्रवास में कुछ विकलांग बच्चे भी थे। ये ऐसे बच्चे थे जिनको अपनी माताओं ने गर्भवती होते समय दवाईयों को लेकर निरस्त करना चाहा, लेकिन वे असफल हो गए। ऐसी एक लड़की के दाँत नहीं थे। दूसरी ऐसी एक लड़की थी जो मंद थी और पढ़ाई पर ध्यान नहीं लगा सकती थी, इस कारण से उसे हमेशा रसोई काम में डाला जाता था। इन मंद लड़कियों का दूसरी लड़कियाँ मज़ाक उड़ाती थी और मुझे बहुत दुख होता कि इन बच्चों को अपने माताओं के पाप का परिणाम जीवन-भर सहना पड़ेगा। इस भेद का उत्तर मुझे कभी प्राप्त नहीं हुआ। लेकिन मुझे लगा कि मैं इनके साथ दोस्ती कर सकती थी और इनके अंधियारे जीवन में कुछ आनंद लेकर आ सकती थी। मुझे लगा कि परमेश्वर ने मुझे उस छात्रवास में इसी उद्देश्य से भेजा था।

हमारे छात्रवास में ऐसी लड़कियाँ भी थी जिन्होंने अपनी माताओं को खो दिया था और अपनी सौतेली माताओं द्वारा बहुत सताइ गई थीं। इसके परिणाम के रूप में ऐसी लड़कियाँ सभी महिलाओं से नफरत करती थी। कुछ लड़कियाँ अपने ही पिताओं द्वारा यौन दुर्व्यवहार की भागी थी और इस कारण ऐसी लड़कियाँ सभी पुरुषों से नफरत करती थी। और कुछ ऐसी थी जो अतीत के दिनों की कुछ मनोवैज्ञानिक घटनाओं के कारण, हमेशा दूसरों के साथ कठोरता से बात करती थी।

और हाँ, हम लड़कियों की अपनी बुरी मनोदशा अब और तब होती रहती। लेकिन हमारे वार्डन हमारे साथ धीरज रखती थी। वे हमारे साथ समय बिताती, बातें करती और हमें प्रोत्साहित किया करती। उन्होंने हम में से कई को प्रभु यीशु की ओर मुड़ने के लिए सहायता की और इस प्रकार हमने भी अनुग्रह पाया कि अपने गुस्से की भड़ास पर और बुरी मनोदशा पर जय प्राप्त कर सके।

अध्याय 5
दीवारें और दरवाज़े

एक दिन श्रेष्ठगीत में मैंने पढ़ा कि एक लड़की को एक दीवार के समान होना चाहिए (श्रेष्ठगीत 8:9) दरवाज़े के समान नहीं। जहाँ भी पुरुषों से सम्बन्धित बातें हों, उसको एक दरवाज़े के समान पूरी खुली हुई न होकर, बिल्कुल एक दीवार के समान होना चाहिए। वहाँ उसे विनयशीलता और आरक्षण बनाए रखना चाहिए।

क्योंकि हमारी छात्रवास पूर्ण लड़कियों का था, जहाँ पर पुरुषों के साथ हमारा कोई भी संपर्क नहीं था और इस कारण कुछ लड़कियों में सामान्य रूप से, पुरुषों के विषय बहुत ही अस्वभाविक और प्रचंड विचार थे। और जब कभी वे पुरुषों को कलीसिया में या नगर में देखती, वे घबरा जाती, खिसियाने लगती और बहुत ही मूर्खतापूर्ण व्यवहार करने लगती।

हमारी वार्डन ने इस पर भी हमारी सहायता की कि किस प्रकार हमें पुरुषों के साथ व्यवहार करना चाहिए। उन्होंने हमें बताया कि हमें उनसे सामान्य रूप से बात करनी चाहिए। हमारे लिए संकट की बात तब होती जब हम अपना ध्यान केवल एक ही पुरुष पर करने लगते। और इसके लिए हमें तब तक रुकना था जब तक हम विवाह का विचार न कर लेते। उन्होंने हमसे यह भी कहा कि हमारे लिए बुद्धिमानी तब होगी जब हम पुरुषों से साथ सामान्य विषय पर बात करे और कभी भी व्यक्तिगत और निज़ी बातें नहीं। एक 'दीवार' होने का यह अर्थ नहीं था कि हम प्राकृतिक तरीके से उनके साथ आपस में संपर्क ही न रखें। इसका अर्थ यह था कि हमें सचेत और विनम्र होना चाहिए। उनके उपदेशों ने हमें सक्षम किया कि किस प्रकार से हम पुरुषों के साथ सामान्य रूप में व्यवहार करे और कभी भी उनको देखकर दौड़ न जाए।

लेकिन ऐसी कुछ लड़कियाँ छात्रवास में थी जो स्वयं को पिंजरे में बंद पक्षियों के समान मानती थी। एक अशांत पक्षी के समान, उन्हें प्रतिबंधों से नफरत थी जिन्हें हम सभी पर हमारे भलाई के लिए लादा गया था। वे 'स्वतंत्रता' की आस रखी हुई थी। लेकिन मैंने यह ढूँढ निकाला कि एकलौती सच्ची स्वतंत्रता यही है कि हम परमेश्वर के संतान है और प्रभु यीशु के द्वारा सारे बंधनों से छुड़ाए गए हैं। छात्रवास के सारे नियम हमारी भलाई के लिए ही थे, हमें ऐसी आपत्ति से बचाने के लिए जिससे हम परिचित नहीं थे।

एक बार हमारी वार्डन ने हमें बाईबल की एक लड़की 'दीना' के विषय में बताया, जिसने अपने घर से दूर भटक जाने के कारण, अपने जीवन को ही बिगाड़ दिया था और साथ ही अपने परिवार के सदस्यों को भी गहरे संकट में डाल दिया था। मैंने इस कहानी पर पहले ध्यान नहीं दिया था। लेकिन जब हमें यह कहानी सुनाई गई, मैंने इस कहानी को उत्पत्ति के 34 अध्याय में पड़ा। मुझे लगा कि यह सभी युवा लड़कियों के लिए परमेश्वर द्वारा एक दृढ़ चेतावनी थी, जो गैर-जिम्मेदार मार्गों में भटक जाते हैं। दीना की इस प्रक्रिया ने यहाँ तक कि एक युद्ध ही प्रारंभ कर दिया था, जिसमें कई लोग मारे गए। यह निश्चित रूप से हर लड़की के लिए एक चेतावनी थी जो अपने माता-पिता की अवज्ञा करके- इस प्रकार कि स्वतंत्रता के खोज में बाहर जाती थी।

छात्रवास में हम सभी ज्यादातर साधारण से वस्त्र ही पहनते थे। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं था कि हम अपने हृदय में सरल थे। अनेक लड़कियों को चुस्त कपड़ों से प्रेम था और वे टी.वी. में आने वाली अभिनेत्रियों के फैशन की नकल करती थी, उनके मेकअप और लिपिस्टिक के साथ।

मैं उनके बीच अजीब नहीं दिखना चाहती थी, लेकिन उसी समय उनके समान वस्त्र नहीं पहनना चाहती थी। तब मैंने स्पष्ट रूप में यह देखा कि यीशु के चेले इस दुनियां के लिए अनुपयुक्त थे, यहाँ तक कि तथाकथित 'मसीहियों' के बीच भी। कई लड़कियां केवल इसी उद्देश्य के साथ कपड़े पहनती थी कि पुरुषों के लिए वे आकर्षित दिखे। मुझे क्या वस्त्र पहनना चाहिए, उसका निर्णय लेना मेरे लिए सरल नहीं था। लेकिन मैंने एक नियम बनाया कि मेरे द्वारा पहने वस्त्र ऐसे न हो जिसके कारण पुरुष मुझे घूरकर देखे। मैं देख सकती थी कि जब हम समूह में होते किस प्रकार अभिलाषाओं से भरी हुई निगाहों से कई लड़के हमें घूरकर देखते थे। मैं चाहती थी कि अपने कपड़े के पहनने के ढंग से भी मैं प्रभु के लिए गवाही बनूँ बिना अजीब लगे हुए।

छात्रावास के अधिकारियों का आज्ञापालन करना हम में से किसी को भी पसंद नहीं था, कुछ लड़कियाँ इसका विद्रोह करती थी और कुछ चापलूसी कार्य करने की हद तक जाती थी। ऐसी कुछ लड़कियाँ पकड़ी गईं और बड़े संकट में आई।

एक लड़की अपने बॉय-फ्रेंड के विषय में बहुत डींग मारती थी और अपने कपड़े पहनने के ढंग में भी अत्याधुनिक थी। एक दिन वार्डन ने उसे बहुत बीमार पाया और वह डॉक्टर के पास भेजी गई। तब पता लगा कि वह गर्भवती हो गई थी।

उसको तुरन्त छात्रवास छोड़ने के लिए कहा गया और बड़ी ही निंदा के साथ उसे अपने घर जाना पड़ा। मुझे हमेशा लगता था कि उसके साथ कुछ न कुछ होने वाला था, मुख्य रूप से जब मैं देखती थी कि कैसे पुरुषों की उपस्थिति में वह स्वयं को प्रमुख बनाती थी।

सबसे सुरक्षित मार्ग मैंने यह पाया कि हमें किसी भी पुरुष के साथ अकेले समय बिताने से बचना चाहिए, चाहे वे नज़दीक के रिश्तेदार ही क्यों न हो। अनैतिक आचरण में गिरने का मार्ग अचानक और खड़ा है (और इससे पहले कि वह स्वयं को रोकने के बारे में सोचे, वह उसमें गिर सकता है)।

वे लड़कियाँ जिनको अपनी मनोहरता पर घमंड था और अपने पतले रूप में भी, जो टी-वी- में आए फिल्म-सितारों के समान हर जगह चलती थी, और अंत में ये ही ऐसी लड़कियाँ थीं जो सबसे अधिक कठिनाइयों में पड़ती थी। हम जब कभी नगर की बस में यात्र करते थे, पुरुष इन लड़कियों को इधर-उधर चुटकी करते थे। मुझे लगता था कि अपने कपड़े पहनने के और चलने के ढंग से, ये स्वयं ही मुसीबतों को आमंत्रित कर रही थी।

मैंने एक रास्ता पाया कि इस प्रकार के पुरुषों से स्वयं को बचाने के लिए जब भी भीड़ में, चाहे सड़क में या बस में यात्रा करूं तो अपने शरीर के आगे के भाग को अपने हैंडबैग से ढँकू। मैंने पूर्ण प्रयास किया कि जब भी संभव हो, इन शरारती जवान पुरुषों से मैं सुरक्षित दूरी रखूँ।

कुछ अवसरों पर नगर का कोई लड़का हम में से किसी लड़की का निरंतर पीछा करता और बड़े ही निडरता के साथ यह भी कह देता कि वह उससे प्रेम करता था। हम अपने वार्डन से पूछते कि ऐसी परिस्थितियों में हमें क्या करना चाहिए।

उन्होंने हमें चेतावनी दी कि हम ऐसे 'रोमियों' को अपने कठोर शब्दों से क्रोधित न करें, क्योंकि यदि हम उनको इस प्रकार की कठोरता से भगा देते, उनमें से कुछ हमें नुकसान भी पहुंचा सकते थे। उन्होंने हमें ऐसी बहुत सी घटनाएं बताई जहाँ इन जवान लड़कों ने उन लड़कियों के चेहरे पर तेज़ाब फेंक दिया था जिनके द्वारा ये ठुकराए गए थे। लेकिन उसी समय उन्होंने हमें कहा कि ऐसे पुरुषों को हम किसी भी मायने में प्रोत्साहित न करें। ऐसे जवान लड़कों के साथ, हमें बुद्धिमानी के साथ व्यवहार करना चाहिए। सबसे बेहतर तरीका यह था कि उन पर बिल्कुल ध्यान न दे, उन्हें न देखें, और उनके पुकारने पर कुछ भी उत्तर न दे।

वे हमें कहती कि हम में से कई लड़कियाँ मासूम पक्षियों के समान थी, जिनके लिए शैतान ने अच्छी तरह से छिपा हुआ जाल फैलाकर रखा हुआ था। हम अपनी किशोरावस्था में और बीसवीं आयु में सबसे ज्यादा कमजोर थे। यदि कोई भी लड़का हमारे पास 'प्रेम और स्नेह के शब्दों' के साथ आए, तो वे कहती कि इन शब्दों को हम गंभीरता से न लें और न ही आँखों में तारे रखने लगे या उसके प्रति सपना देखकर, हवा में महल बनाने लगे।

उन्होंने हमें उन जवान पुरुषों के विषय में चेतावनी दी, जो आत्म-हत्या करने के लिए धमकाते थे। यह उन्होंने कहा, एक लड़की को त्वरित विवाह में दबाव डालने के लिए केवल एक चतुर रणनीति थी। एक बुद्धिमान स्त्री इस प्रकार के ज़ोर में आने से इन्कार करेगी। जो इस प्रकार के धमकाने को स्वीकार करते थे, अंत में उन लड़कों के लिए घरेलू दास बन जाते थे (और न कि पत्नी)। और यदि उस पुरुष को दूसरी स्त्री मिल जाए, ऐसे विवाहों का अंत अक्सर तलाक में हो जाता था। इस प्रकार का धमकाना अधिकतर ऐसे पुरुषों के द्वारा किया जाता था, जो अनपढ़, बेरोज़गार, और परिवार का समर्थन करने में असमर्थ थे।

सबसे अच्छा रास्ता यह था कि हम परमेश्वर से सहायता मांगे कि ऐसे जाल में गिरने से वे हमें बचाए। भजन संहिता 91:3 की एक प्रतिज्ञा है कि 'वह तो तुझे बहेलिए के जाल से और महामारी से बचाएगा।' उन्होंने हमसे कहा कि हम इस प्रतिज्ञा का दावा करें और हमारी महत्त्वकांक्षा यह होनी चाहिए कि हम परमेश्वर के प्रिय चले और जीवन में पेशेवर रखने के लिए गंभीरता से पढ़ें। उन्होंने हमें आश्वासन दिया कि परमेश्वर हमें निरंतर देख रहे थे। और यदि हम उनका सम्मान करें, वे उचित समय पर निश्चित रूप से हमें एक साथी प्रदान करेंगे जो हमारे लिए सबसे उत्तम होगा।

उन्होंने हमें बताया कि अधिकतर लड़के हमारा आदर तब ही करेंगे जब हम उनके प्रति एक सम्मानजनक और संयमित मनोभाव रखें। लेकिन फिर भी, इन स्थितियों में भी, उन्होंने हमें चेतावनी दी कि हम लड़कों से एक दूरी रखें और उनको अंतरंग होने की अनुमति न दे, क्योंकि ऐसा न हो कि हम कमजोरी की घड़ी में, या तो हम पाप में गिर जाए या उनके साथ विवाह करने की प्रतिबद्धता कर बैठे। उन्होंने कहा कि जब तक हम 20 साल के न हो जाते, एक प्रत्याशित विवाह के साथी के रूप में, किसी भी लड़के के विषय में विचार न करे। तब तक हम आध्यात्मिक और भावनात्मक रूप में थोड़े सियाने हो जाते हैं कि परिस्थितियों को गंभीरतापूर्ण और बुद्धिमानी से जांच सकें।

मैं इन सभी अच्छी सलाहों के लिए आभारी थी, क्योंकि इन बातों ने मुझे अपनी किशोरावस्था में कई मूर्खतापूर्ण कार्यों को करने से बचाया।

अध्याय 6
छात्रावास जीवन की समस्याएं

छात्रावास में हम सभी के कई कर्त्तव्य थे जिन्हें हमें अपनी-अपनी बारी पर करना पड़ता था- जैसे कि बागवानी, रसोई घर में मदद और चैपल में भी, कपड़े धोना और परिसर को साफ रखना।

जो भोजन हमें मिलता था, उस पर मैं बहुत शिकायत किया करती थी। लेकिन एक दिन, स्वर्ग से एक प्रकाशन के समान यह बात मुझमें उदय हुई कि एक मसीही को किसी भी चीज़ के ऊपर शिकायत नहीं करनी चाहिए। मैंने यह महसूस किया कि नरक के अलावा मैं किसी भी चीज़ की हकदार नहीं थी। मुझे जो कुछ भी मिल रहा था वह नरक की तुलना में बढ़कर था, वह परमेश्वर की दया का परिणाम था। मैंने यह निर्णय लिया कि मेरे सामने जो कुछ भी रखा जाएगा, उसे खाने के लिए मुझे तैयार रहना चाहिए। मैंने देखा कि भोजन के विषय में परमेश्वर मेरी परीक्षा ले रहे थे। मैंने पवित्र-शास्त्र में पढ़ा कि कैसे यीशु ने 40 दिनों तक का उपवास रखा था और फिर शैतान को हराया था।

चोरी, हमारे छात्रावास में एक बहुत ही सामान्य सी आदत थी। मैं अपने माँ के विषय में सोचने लगी जो अपने कार्यालय से छोटी-छोटी वस्तुओं को उठाकर लेकर आती थी। कुछ दिनों पूर्व तक मैं यह सोचती थी कि ये बातें बहुत गंभीर नहीं थी क्योंकि वे केवल सरकारी कार्यालय से ही उठाकर लेकर आती थी और किसी व्यक्ति से नहीं। लेकिन अब मैं जान गई थी कि किसी भी प्रकार की चोरी गलत थी।

मुझमें यह सम्मोहक आग्रह उत्पन्न हुआ कि मैं माँ को लिखूँ और बताऊँ कि सभी चोरी परमेश्वर के दृष्टि में अप्रिय थी। लेकिन मुझे इस बात का पता नहीं था कि माँ इस आदत को अभी छोड़ पाती क्योंकि मैंने यह देखा कि जब कोई भी आदत एक वृद्ध व्यक्ति को जकड़ लेती है, तब इससे उनको मुक्ति दिलाना कठिन हो जाता है।

इन बातों ने मुझ पर एक स्वास्थ्य भय उत्पन्न किया और मैंने यह निर्णय लिया कि मुझे अपनी बुरी आदतों से अपनी जवानी में ही मुक्ति पा लेनी चाहिए, ऐसा न हो कि मेरा अंत इन वृद्ध लोगों के समान हो जाए।

कुछ लड़कियाँ भोजन और दूसरी वस्तुओं के प्रति बहुत ही स्वार्थी और लालची थे, जिसे उन्हें हर किसी के साथ बांटना चाहिए था। कुछ लड़कियाँ चिड़चिड़ी और निरंतर अपने में ही व्यस्त रहती थी। वे पूर्ण रूप से आत्म-हत्या से भरे थे और अपनी दुखद कथाओं को हमें बताने में कभी समाप्ति नहीं लेती थी। यह सच था कि उनमें से कई लड़कियों का घर में दुर्व्यवहार हुआ था लेकिन मैंने उन्हें बताया कि निरंतर अपने अतीत में जीने की उनको आवश्यकता नहीं थी। वे यदि चाहते तो परमेश्वर की सहायता से अपने अतीत को हिला सकते थे और इस प्रकार बड़ी आत्मिक ऊँचाई पर पहुंचने के लिए यीशु उनकी सहायता कर सकते थे कि वे अपने अतीत को भूल जाए और उन लोगों को क्षमा कर दे जिन्होंने उन्हें बहुत नुकसान पहुंचाया था। मैंने उन्हें उत्साहित किया कि दूसरों की सहायता करने के द्वारा वे स्वयं की समस्या का इलाज ढूंढ निकाल सकती थी। इस प्रकार इससे वे मुक्ति पा सकती थी कि हर समय वे अपने में व्यस्त न रहे।

यदि मैं घर से एक पत्र की अपेक्षा करती और मुझे वह न मिलता, इससे मैं काफी निराश हो जाती थी। लेकिन कभी-कभी जो पत्र घर से मुझे मिलते थे, वे मुझे और भी हतोत्साहित कर देते क्योंकि घर के संदेश अधिकतर बुरे ही होते थे।

और दूसरी बात जो मुझे हतोत्साहित करती, वह यह थी कि जब कभी मैं एक छोटी सी वस्तु को खो देती, उस निराशा पर जय पाना मेरे लिए कठिन होता था। मैंने प्रभु से सहायता मांगी कि वे इन पदार्थों के प्रति मेरे लगाव पर मुझे जय दिलाए।

दूसरी ओर, कुछ लड़कियाँ ऐसी थी, जो इतनी अमीर थी कि यदि इस प्रकार की कुछ चीज को वे खो भी देते तो उनको इन पर चिंता करने की आवश्यकता न होती और न ही दूसरों की भावनाओं पर।

छात्रावास में जिस भी प्रकार के खेल का आयोजन किया जाता था उनमें मैं भाग लेती थी। मैंने यह पाया कि ये मेरे लिए अच्छे थे। मैंने देखा कि कुछ लड़कियाँ जो शारीरिक गतिविधियों को पसंद नहीं करती थी और यहाँ तक कि 'टहलने' के लिए भी नहीं जाती थी ऐसी लड़कियाँ मोटी और अधिकतर बीमार रहती थी। मैंने यह पाया कि हमारा शरीर जो पवित्र-आत्मा का मंदिर है, इसे उनके उपयोग के लिए हमेशा तंदरुस्त रहना चाहिए। मैंने यह भी देखा कि मेरे दोस्तों की कई खाने की आदतें वास्तविक रूप में शरीर के लिए हानिकारक थीं। अधिक खाने के कारण, उनमें से कई लड़कियाँ मोटी, आलसी और बदसूरत हो गई थी।

मैंने अपनी एक प्रवृत्ति पर ध्यान दिया कि मैं लोकप्रिय लड़कियों को चाहती थी और उन्हीं को अपना सबसे अच्छा दोस्त बनाती थी। लेकिन जैसे ही मैं इस विषय में सोचने लगी कि यीशु इस स्थिति में क्या करते, मैंने यह जाना कि मुझे उन लोगों के साथ दोस्ती बनानी चाहिए- जो दुखी, अकेले और अधिक तीव्र और सक्षम नहीं थे। मैं बड़ी उत्सुकता के साथ उनको यीशु के बारे में बताने के लिए आशा बनाई हुई थी, जो थके और बोझ में डूबे हुए थे, और जिन्हें यीशु अपने प्राण में विश्राम पाने के लिए बुला रहे थे।

मैं न तो सुंदर थी और न ही गोरी, लेकिन मैंने शीघ्र ही यह सीख लिया था कि जैसे परमेश्वर ने मुझे रचा था वैसे ही मैं स्वयं को स्वीकार कर लूँ। मैं जानती थी कि मेरी माता के गर्भ में मेरी रचना करते हुए उन्होंने कोई भी गलती नहीं की थी। मुझे यह बात भी निश्चित रूप से पता थी कि किस परिवार में मुझे जन्म लेना था इसमें भी उन्होंने कोई गलती नहीं की थी। मैं इस विचार में डूबी हुई थी कि यीशु मुझसे इतना प्रेम करते थे कि उन्होंने मुझे इस योग्य समझा कि वे मेरे लिए मरे। इस अद्भुत सच्चाई से मैं स्वयं को दूर नहीं कर पा रही थी।

मैं छात्रावास के उन लोगों के बारे में सोचती थी जो मुझसे अधिक दुर्भाग्यशाली थे। ऐसी एक लड़की थी जो किसी दुर्घटना के कारण एक आँख से अंधी थी। एक और लड़की के चेहरे में बड़ा बाल वाला तिल था। कुछ के चेहरों पर घाव के निशान थे और बहुत से ऐसे थे जो बचपन में उचित भोजन न खा पाने के कारण अस्वस्थ रहते थे।

कुछ ऐसे थे जो अपनी छोटी आयु में पाए हुए शारीरिक और यौन शोषण द्वारा, दिमाग में घाव पाए हुए थे। मुझे उन सभी के लिए बहुत दुख होता था। ये लड़कियाँ कैसे अपने बदसूरत रहस्यों को उस व्यक्ति को कह पाएंगे जो एक दिन उनके पास विवाह के प्रस्ताव के साथ आएगा। मुझे आश्चर्य हो रहा था- कि क्या वह व्यक्ति इन सभी बातों को सुनकर उन्हें इन्कार कर देगा या विवाह करने के बाद उन्हें छोड़ देगा? मुझे इन बातों का उत्तर प्राप्त नहीं हुआ। इन लड़कियों को मैं यही कह सकती थी कि यीशु उनके सभी दुखों को जानते थे और उनको इन सारी परिस्थितियों पर, जिन बुराईयों को दूसरों ने उनके प्रति किया था, विजय पाने के लिए यीशु उन्हें सक्षम बना सकते थे।

मैं जानती थी कि यीशु उन सभी गाठों को खोलने के लिए आए थे जिन्हें शैतान ने हमारे जीवन में बांधा था (1 यूहन्ना 3:8) छात्रवास में कई अनाथ बच्चे थे जिन्होंने दूसरों के प्रेम को कभी अनुभव नहीं किया और न ही उसे प्राप्त करने के लिए दूसरों के पास जा सकते थे। मैंने उन सभी को उस 'साथी' के विषय में बताया जो उन्हें कभी नीचे गिरने नहीं देंगे। मैंने उनको बताया कि हमें अपने अतीत के बोझ को उन पर डालना सीख लेना चाहिए और उस बोझ को वहीं छोड़ देना चाहिए। केवल यीशु ही इस योग्य थे कि हमारे सारे आंसुओं को पोंछ डाले, सारे खुले घावों को चंगाई दिलाए और अतीत की स्मृति को मिटा दे।

एक और दूसरी भयानक आदत मैंने कुछ लड़कियों में देखी कि वे शैतानी ताकतों को संपर्क करने का प्रयास कर रही थी। मैंने उनमें से कुछ को हस्त रेखाओं को पढ़ना, अपनी कुंडली को पढ़वाना, ज्योतिषी के पास जाना और समाचार पत्र में 'तारे क्या भविष्यवाणी देते हैं' इस पत्र भाग्य के नीचे जो लिखा गया था, उस पर विश्वास करते हुए देखा। इनमें से एक या दो के पास ओझा कार्ड भी थे। मैं जानती थी कि ये गलत था और मैंने उनको चेतावनी भी दी कि वे इनके द्वारा अनजाने में शैतान से संपर्क करके स्वयं को नष्ट कर सकते थे। मैंने उनको चेतावनी दी कि अपने कष्टों को काले जादू या जादू-टोने के द्वारा सुलझाने का प्रयास करके वे अपने ऊपर कष्टों से भी अधिक समस्याओं को आमंत्रित कर रहे थे।

हमारी वार्डन हमारे लिए एक माँ के समान थी। एक समय पर उन्होंने एक शादी-शुदा स्त्री को नियुक्त किया कि वे हमारे साथ यौन सम्बन्धित बाते करें। इस स्त्री ने हमें चार्टों के द्वारा सिखाया कि कैसे लड़के और लड़कियाँ अलग थे और हमारा शरीर किस प्रकार प्रक्रिया करता था। ये सारी जानकारियाँ हमारे लिए उपयोगी थी क्योंकि यद्यपि हम यौन सम्बन्धित बातों को जानने के लिए उत्सुक थे, लेकिन इस विषय में किसी को पूछने से हम डरते थे। इस रीति से एक परिपक्व व्यक्ति से यह सीखना हमें अच्छा लगा कि कैसे एक महिला और पुरुष की कोशिका एकजुट होकर एक अद्भुत नए बच्चे का निर्माण करवाती है।

जबकि मैं जवान थी। मैंने पाया कि छात्रावास के जीवन ने मुझे आत्मिक रूप से परिपक्व बना दिया था और वह भी बहुत ही शीघ्र- क्योंकि यहाँ मेरे पास ऐसे बहुत से अवसर थे जिससे मैं अनेक प्रकार की लड़कियों की सहायता कर पाऊँ।

कई वर्षों बाद ही मैंने इस वचन को देखा जहाँ परमेश्वर कहते हैं- कि जो औरों की खेती सींचता है, उसकी भी सींची जाएगी (नीतिवचन 11:25)।

निश्चित रूप से परमेश्वर ने मुझे उन दिनों में कई अद्भुत रीति से सींचा था।

अध्याय 7
स्कूल की समाप्ति

मैं यह चाहती थी कि मेरे माता-पिता भी प्रभु को जाने। मैं चाहती थी कि पिताजी घर के कर्त्तव्यों को अधिक जिम्मेदारी के साथ अपने कंधों पर उठाएं। मैं चाहती थी कि मेरे माता-पिता एक साथ खुश रहें। मैं यह भी चाहती थी कि मेरा छोटा भाई भी प्रभु को जान जाए। मुझे पता नहीं था कि इन सभी के लिए मैं क्या कर सकती थी। लेकिन मैंने प्रतिदिन इन सभी बातों को प्रभु पर लाद दिया और अपनी चिंताओं को भी उनके साथ छोड़ दिया।

छात्रवास में हम इस सहगान को अक्सर गाते थेः

थोड़े-थोड़े और दिन हर दिन,

थोड़े-थोड़े हर प्रकार से,

मेरा यीशु मुझे बदल रहा है...

मैंने इसे मेरे जीवन में वास्तविक रूप में होते हुए देखा। छोटे-छोटे रूप में प्रभु ने मेरे क्रोध को अपने नियंत्रण में रख दिया था और मेरे चिड़चिड़े स्वभाव को भी और इन सबने मुझे बदलने में मेरी सहायता की।

मैंने ऐसी कुछ पुस्तकें पढ़ी जहाँ लिखा था कि हम कैसे यीशु के शिष्य बने और कैसे उनके स्वरूप में हम बदलते जाए। धीरे-धीरे यह मेरी चाह बन गई थी और मेरी सबसे अधिक इच्छा भी- कि मैं यीशु के समान बनूँ।

मैंने अपने जीवन के उन सभी गुणों को लिख डाला था जो मसीह के समान नहीं थे और नियमित रूप से उनके लिए प्रार्थना करने लगी। मैंने प्रभु से निवेदन किया कि वे मुझे बदले और मेरे इस पूर्व, भ्रष्ट प्रकृति को वे अपने अनुकूल बदल दे। जैसे समय चलता गया, मेरी कमज़ोरियों का और मेरे पापों की यह सूची बढ़ती ही गई! लेकिन मैं खुश थी और प्रभु पर भरोसा करने लगी कि मुझे बदलने का- अपना भाग- वे अवश्य करेंगे जैसे-जैसे मैं अपने भाग को पूर्ण समर्पण के साथ करूँ। मैं दूसरों के लिए अभी प्रार्थना भी करने लगी।

एक दिन मैंने भजन संहिता की पुस्तक में यह पाया कि परमेश्वर के वचन पर ध्यान करने के द्वारा ही, एक युवा लड़की अपने मार्ग को साफ और अपने हृदय को शुद्ध रख सकती थी (भजन संहिता 119:9,11)। इन प्रतिज्ञाओं से, जिन्हें मैंने बाईबल में पाया था, मैं इनसे इतनी प्रोत्साहित हुई कि मैंने निर्णय ले लिया और प्रयास भी करने लगी कि पूरे बाईबल को एक ही वर्ष में पढ़ लूँ। हमारे वार्डन ने हमें बाईबल पढ़ने की योजना दी थी जिसका यदि हम पालन करते, पूरी बाईबल को एक वर्ष में ही पढ़ सकते थे। मैंने इस योजना से शुरुआत की और यह लक्ष्य बना दिया कि मैं पूरी बाईबल को पढ़ लूँ। लेकिन मैं इसे एक वर्ष में समाप्त नहीं कर पाई। मुझे उससे अधिक समय लग गया था। लेकिन अंत में मैंने उसको पूरी पढ़ ही ली।

मैंने स्वयं को अपने स्कूल की पढ़ाई में लगाया क्योंकि अंतत मैं अपनी रोज़ी कमाना चाहती थी और दूसरों पर बोझ नहीं बनना चाहती थी। छात्रवास में जीवन की दिनचर्या मेरे लिए सहायक थी क्योंकि मैं अपने समय को निर्धारित कर सकती थी यह मुझे कई प्रकार से व्यवस्थित बना रही थी।

मेरे पास दूसरों की सहायता करने के लिए पर्याप्त अवसर था। जब मैं परमेश्वर के अनुग्रह से आने वाले दिनों में उच्च माध्यमिक (12 वर्ग) की परीक्षाओं को उत्तीर्ण कर लेती, तब मुझे छात्रवास छोड़ना पड़ता।

वह मेरे लिए एक दुखद दिन होता क्योंकि मैं छात्रवास से प्रेम करने लगी थी और विशेष रूप से मेरे वार्डन से भी, जो लगभग पूर्ण 4 वर्षों के लिए मेरी निर्देशक बनी हुई थी।

मेरे उच्चतर माध्यमिक के अंक केवल मध्यमान थे।

मैंने अपने वार्डन से मेरे भविष्य के विषय में बात की और उन्होंने मुझे सुझाव दिया कि मैं नर्स की पढ़ाई करूँ। मैंने उनकी सलाह का पालन किया और कई नर्सिंग स्कूलों में आवेदन किया। लेकिन एक के बाद एक, दक्षिण भारत के सभी अच्छे नर्सिंग स्कूलों से मुझे 'अस्वीकृति' पत्र ही मिले। मैं निराश हो गई थी। लेकिन मैं जानती थी कि प्रभु मुझसे प्रेम करते थे और वे सही द्वार मेरे लिए अवश्य खोलेंगे, भले ही वह एक प्रतिष्ठित स्कूल न हो।

एक दिन मुझे नर्सिंग के लिए विज्ञान स्नातक का एक प्रस्ताव पत्र, उत्तर भारत के एक नर्सिंग स्कूल से प्राप्त हुआ। वह मेरे घर से बहुत ही दूर था। इस प्रस्ताव को मैं स्वीकार करूं या न करूं इस विषय में मैं अधिक सोचने लगी। वह स्कूल एक अजीब जगह पर स्थित था। मैं वहाँ किसी को भी नहीं जानती थी। वहाँ की भाषा मेरी भाषा से अलग थी और मुझे हिंदी इतने अच्छे तरीके से नहीं आती थी।

भविष्य के विषय में सारे विचार मेरे मन में भय और आशंका को लेकर आने लगी। तब मैंने अपने एक प्रिय गीत को याद कियाः

'सभी तरह से मेरे उद्धारकर्ता मुझे चलाते हैं ,

मैं इसके बदले क्या माँगू ?

क्या मैं उनके सुकुमार दया पर संदेह कर सकती हूँ ,

जो जीवन भर मेरे मार्गदर्शक बने हुए हैं!'

मैंने अपने वार्डन से पुनः सलाह मांगी। उन्होंने कहा कि परमेश्वर ने सारे द्वारों को बंद करके केवल इसी को खोला था। कदाचित उत्तर भारत में उन्होंने मेरे लिए कुछ अच्छा रखा हुआ है। मुझे क्या पता था कि ये बातें मेरे लिए भविष्यद्वाणी के शब्द निकलेंगे। मैंने उस नर्सिंग स्कूल को लिखा और उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

आखिरकार मेरे पेशेवर का मेरा स्वप्न अब अमल हो रहा था।

अध्याय 8
एक नया व्यवसाय

नर्सिंग स्कूल में मेरा जीवन, स्कूल के दिनों से बिल्कुल अलग था।

मेरे सामने अब एक पेशा था। यहाँ मेरा मिलन अनेक प्रकार के लोगों के साथ हुआ। मैं खुश थी क्योंकि नर्सों के बीच में 'नर्सस् मसीही संघ' के सदस्य से कुछ विश्वासी भी थे। मैं इन सभाओं में जाने लगी और हम वहाँ बहुत अच्छा समय बिताने लगे- गायन, प्रार्थना और संदेशों को सुनकर।

कुछ नर्स विद्यार्थी अमीर परिवारों में से आए थे और बहुत ही सांसारिक थे। उनके पास जो सामने थी उनमें से कई चीज़ों को खरीदने के लिए मुझमें सामर्थ नहीं थी। इस कारण मैं कई सांसारिकता से सुरक्षित रही। एक सामान्य मध्य-वर्गीय घर से आना कितनी आशीषमय बात थी, क्योंकि हमारे पास उतना ही होता था जिससे हम अपने सांसारिक ज़रूरतों को पूरा कर सकते थे।

मैंने अपनी पढ़ाई से बहुत आनंद उठाया। मुझे हिंदी पढ़ना था और वह मेरे लिए एक चुनौती थी। मैंने योजना बनाई कि मैं सनातक करके, आगे अध्ययन करूँ और एक शिक्षक बनूं।

मेरे शरीर-रचना-विज्ञान की कक्षाओं में, मुझे थोड़ा बहुत यह समझ में आने लगा कि कैसे बहुत ही अद्भुत रीति से परमेश्वर ने हमारे शरीर को रचा था। मैंने यह भी देखा कि कैसे हम अनेक प्रकार से अपने शरीर का दुरुपयोग और उसका अपमान कर रहे थे। मैंने यह पाया कि इस चिकित्सा पेशे का ही अस्पताल में कई डॉक्टरों द्वारा दुरुपयोग हो रहा था। यह पैसे बनाने के लिए और न कि गरीब लोगों की पीड़ा को दूर करने की खोज के लिए उपयोग किया जा रहा था। मैं इतने दिनों तक भ्रमापमोचित थी क्योंकि मैं यही सोचा करती थी कि चिकित्सा पेशा एक बहुत ही वैभवपूर्ण कार्य था।

मैं ऐसे रोगियों से मिली जो स्वयं पर नशीली दवाओं का दुरुपयोग करके (नशेड़ी), पुनर्वास के लिए अस्पताल आए थे। इतने दुरुस्त स्थान में भी शैतान ने कैसे कई जीवनों को नशीली दवाओं और शराब द्वारा नष्ट कर डाला था।

मुझे पता था कि गर्भपात करके अजन्म शिशुओं को मारना गलत था। कुछ डॉक्टर इच्छा-मृत्यु का अभ्यास करते थे। यह मेरे लिए एक नया शब्द था। मैंने यह सीखा कि इसका अर्थ था- लोगों को चिकित्सा साधनों के माध्यम से मारना, जब उन्हें बीमार होने पर उचित उपचार न देकर मारा जाता था। यह अधिकतर वृद्ध और बीमार लोगों पर किया जाता था जो अपने परिवार के लिए बोझ थे। यह सब बातें अस्पताल में होती थी इसे जानकर मैं अत्यंत भयभीत हो गई थी। चिकित्सा जगत में हो रही दुष्टता के प्रति मेरी आँखें अस्पताल में ही खुली। अधिकांश डॉक्टरों का यह मानना था कि, वे हम नर्सों की तुलना में समाज के कुछ उत्तम जाति से आए थे! लेकिन जब मैं उनके द्वारा किए गए गलत कार्यों को देखने लगी, मैं खुश थी कि मैं केवल एक नर्स ही थी जिसे आज्ञाओं का पालन करना था और एक डॉक्टर नहीं जो आज्ञाओं को देता था।

मुझे ये बात पसंद नहीं थी जब कुछ नर्स स्वयं ही उन निर्बल मरीज़ों पर चिल्लाते थे और अपने जूनियर लोगों पर अधिकार के साथ आदेश डालते थे। इनमें से कुछ नर्सों में इतना घमंड था कि दूसरे गैर-चिकित्सा के लोगों को वे मूर्ख और अज्ञानी मानते थे। लेकिन यह कहने के लिए एक दुःख की बात थी कि थोड़े ही दिनों बाद मैंने स्वयं को भी इनके समान व्यवहार करते हुए पाया। मुझे पश्चाताप करना पड़ा और प्रभु से सहायता मांगनी पड़ी कि मैं अपने रोगियों के प्रति अच्छा व्यवहार करूं। मेरी भाषा की अज्ञानता मुझे निराश करती थी और कई बार मैं इसे मेरे अशिष्ट व्यवहार का कारण प्रदर्शित करती थी। हमारी मानव प्रवृत्ति कितनी सूक्ष्म है कि स्वयं को दोषी ठहराने के बदले, किसी और चीज़ पर दोष ठहराते हैं।

लेकिन मैंने यह पाया कि एक मसीही लड़की होने के रूप में, मुझे सभी से आदरपूर्वक बात करनी थी। बीमार, निर्बल और वृद्ध लोगों के प्रति मुझे धीरज रखना था। मुझे एक चिल्लाते हुए बच्चे को सहन करने के लिए और साथ ही एक शोक संतप्त माँ को सांत्वना देने के लिए परमेश्वर का अनुग्रह पाना था। मृत्यु को हम अस्पताल में प्रतिदिन देखते थे और इस कारण दूसरों के कष्टों को देखकर कठोर और कड़ी बन जाना बहुत सरल था। मैं प्रभु से प्रार्थना करती थी कि वे मुझे एक करुणामय हृदय दिलाए। दूसरों के प्रति भलाई करने के लिए मेरे पास बहुत से अवसर थे। कभी-कभी दूसरों को प्रभु के विषय में बताने के लिए भी मुझे कई अवसर मिले।

मेरे आध्यात्मिक जीवन में कई गिरावट भी थी। यहाँ मेरे जीवन पर गौर रखने के लिए कोई विश्वासयोग्य वार्डन नहीं थी। मेरे प्रार्थना के जीवन में अब अनुशासनहीन हो जाना बहुत ही सरल था। मैं अपनी बाईबल पढ़ने में भी धीमी हो गई थी। जिस मसीही छात्रवास में मैं पहले थी, उसकी तुलना में यहाँ एक सच्चा मसीही होना एक युद्ध के समान था। लेकिन इन युद्धों के द्वारा, मैं प्रभु को व्यक्तिगत रूप से जानने लगी।

एक समय पर, इन कमरों में से एक कमरे में एक धनी युवा पुरुष को रोगी के रूप में भर्ती कराया गया। मैं उसको पसंद करने लगी और यह आशा भी रखने लगी कि एक दिन वह मुझसे विवाह करना चाहेगा। मैं इतनी अभिमानी हो गई थी। लेकिन वह शीघ्र ही रिहा कर दिया गया और मैंने उसे फिर कभी नहीं देखा। कभी-कभी जब कोई सुंदर सा डॉक्टर मुझसे अच्छे से बात करने लगता था और यदि मैं उसे ऑपरेशन थियेटर में सहयोग करने जाती थी, तब मैं उसे मेरे भविष्य के पति के रूप में कल्पना करने लगती थी। ये मेरे दिन के सपने थे।

मैं मूर्ख थी! मेरा भविष्य यीशु के साथ सुरक्षित था। मैं कितनी दुखी होती यदि मैं उस धनी रोगी के साथ या उस सुंदर डॉक्टर के साथ विवाह करती क्योंकि उनमें से कोई भी यीशु से प्रेम नहीं करता था, जिस यीशु से मैं प्रेम करती थी। जब तक कि वे मुझे धरती पर एक पति न दे देते, और यदि वह उनकी इच्छा होती तब तक यीशु ही मेरे निर्माता और पति होते। उनके बिना जीवन का कोई मूल्य नहीं था? यदि मैं उनके नियमों को अपेक्षित करती, मेरा अंत किसी कि दूसरी पत्नी के रूप में भी हो सकता था, जैसे कुछ महिलाओं के साथ हुआ था जिन्हें मैं मिली थी।

मैंने यह निर्णय ले लिया कि प्रभु को मेरा भविष्य संभालने का अवसर दूं। अब तक वे ही मुझे चला रहे थे और इस कारण से मैं विश्वास कर सकती थी कि भविष्य में भी वे ही मुझे चलाएंगे। वे मेरे हृदय की अभिलाषाओं को जानते थे। इन अभिलाषाओं को उन्होंने ही उत्पन्न किया था और वे ही स्वयं इनकी पूर्ति, उनकी राह के अनुसार और उनके समय पर कर सकते थे। मुझे प्रतीक्षा करनी थी। मेरे जीवन के इस क्षेत्र में मुझे भीतरी विश्रान्ति पर पहुंचना था।

छात्रवास में मैंने देखा था कि कई नर्स कुछ डॉक्टरों की खोखली प्रतिज्ञाओं पर या पैरा-मेडिकल कार्यकर्ताओं के धोखे में आकर, अपने मार्ग से भटक गई थी। उनमें से कई इस नर्सिंग स्कूल में मासूम युवा लड़कियों के रूप में आई थी और यही पर उन्होंने अपने कुंवारेपन को खो डाला। मैं आभारी थी उन सभी बातों के लिए जिन्हें मैंने यहाँ आने से पहले ही, प्रभु के विषय में जाना था, और इन्हीं ने मुझे सुरक्षित रखा।

प्रभु मुझे वे सभी निर्णय याद दिलाते गए, जिन पर मैंने उनके प्रति सच्चे बने रहने की प्रतिज्ञा ली थी। जहाँ तक कि यहाँ मेरे पिछले छात्रवास की तुलना में अधिक स्वतंत्रता थी, लेकिन मेरे विवेक ने मुझे प्रभु के मार्ग पर ठहरने के लिए बान्धकर रखा था।

मैंने यह भी सीखा कि मुझे कम खर्च करके जीना चाहिए और बहुत सारे कपड़ों पर या फैंसी कपड़ों पर पैसों को व्यर्थ नहीं करना चाहिए। मैंने पाया कि हर महीने प्राप्त किए हुए वजीफा से मैं कुछ पैसों को बचा सकती थी जिसे मैं प्रभु की सेवा के लिए दे सकती थी। एक या दो गरीब रोगियों को दवाएं खरीदने के लिए कभी-कभी मैं एक छोटे से अतिरिक्त पैसों को बचा सकती थी।

कभी-कभी एक नर्स आकर, पैसों को उधार लेकर फिर वापिस नहीं करती थी। मैं महीने पर महीने प्रतीक्षा और आशा करती रहती कि वह मेरे पैसे लौटा देगी। लेकिन वह नहीं करती थी। प्रभु ने मेरी सहायता करते हुए मुझे सिखाया कि मैं उनको क्षमा कर दूं और भविष्य में पैसों के प्रति बुद्धिमान रहूँ क्योंकि ये पैसे मेरे नहीं थे परन्तु प्रभु के थे। गैर जिम्मेदार लोगों को 'नहीं' कहना, मुझे सीखना पड़ा।

कुछ नर्सें मेरी साड़ियों को उद्धार के लिए लेती थी और वापस करने पर मैं उन्हें फटी हुई पाती। यह मुझे व्याकुल कर देती थी। तब ही मैंने यह जाना कि मैं भौतिक चीजों से कितना मोह रख रही थी। प्रभु ने मुझे सिखाया कि इन बातों में मैं स्वयं का न्याय करूं।

मैंने अकेलेपन का सामना करना सीख लिया था और इस पर भी कि मैं अपने भीतर को देखकर उदास न हो जाऊँ। मैं कुछ ऐसी वृद्ध महिलाओं से मिली थी जो हमेशा चपेट और शिकायत करके, हर जगह दूसरों को सलाह देती रहती थी, उनको भी जो उनसे सलाह नहीं चाहते थे। वे इतनी उबाऊ थी कि लोग उन्हें घृणा-स्पंद करते थे। मैं यह नहीं चाहती थी कि मेरा अंत उनके समान हो।

मैंने निर्णय लिया कि मेरा आनंद प्रभु में ही हो और मैंने चाहा कि मेरा आध्यात्मिक जीवन निरंतर ताज़ा बना रहे। मैं अपनी आँखों के सामने उदाहरण के रूप में मेरी पुरानी सहेली और मार्ग-दर्शक- मेरे वार्डन को रखती गई जिन्होंने प्रभु के दिए हुए कार्य को करने में निरंतर संतुष्टि पाई थी। मैं कितनी भाग्यशाली थी कि मेरे युवाओं के दिनों में ही मैंने ऐसे एक उदाहरण को पाया था। मेरा संपर्क उनके साथ बना रहा और मैं अक्सर उनकी सलाह मांगती गई और हर ऋतु में उनके पास मेरे लिए एक शब्द बना रहता था।

अध्याय 9
बुद्धि में वृद्धि

अस्पताल के पास मैंने हिन्दी बोलने वाली एक अच्छी कलीसिया पाई।

यह एक छोटी मण्डली थी- जो स्थानीय क्षेत्र और अस्पताल के ईमानदार मसीहियों से गठित थी। मैंने नियमित रूप से बैठकों में भाग लेने के लिए स्वयं को अनुशासित किया। इस समय तक मैंने पर्याप्त हिन्दी सीख ली थी कि मैं सभी प्रचारों को समझ सकूं और यहाँ तक कि गीतों को भी गा सकूं।

यद्यपि मैं अभी भी हिंदी में स्वतंत्र रूप से बातचीत नहीं कर सकती थी, फिर भी मैंने इस कलीसिया में एक-दो अच्छे परिवारों को पाया जो मेरी गरीब भाषा को सहन कर रहे थे और कभी-कभी मुझे अपने घरों में भी आमंत्रित करते थे। मैं इस कलीसिया की नियमित सदस्य बन गई और मैंने पाया कि मैं अच्छे से इसमें उपयुक्त हो रही थी। और बहुत ही शीघ्र मुझे पता था कि पानी के बपतिस्मा में मुझे प्रभु का पालन करना था।

मैंने अपने विश्वास के बारे में अपने घरवालों को लिखा। लेकिन माँ ने भी मेरा उपहास किया। उन्होंने मुझे लिखा कि वे नहीं चाहती थी कि मैं उन 'हालेलुय्याह' वालों में से एक बनूँ जिन्हें वे नापसंद करती थी। मेरे गाँव के कई लोगों का इन पादरियों और बाईबल स्त्रियों के साथ बुरा अनुभव था, जो घरों में जाकर, लंबी प्रार्थना करके, धर्म को लोगों पर लादते थे और 'परमेश्वर के कार्य' के लिए दूसरों पर पैसे देने का दबाव बनाते थे। मैं यह आशा कर रही थी कि माँ यह देख ले कि मैं उनसे अलग थी। अब मुझे लगा कि वह केवल मेरा जीवन ही था जो उनसे बात कर सकता था और मेरे पत्र नहीं।

मेरा बपतिस्मा मेरे लिए एक बड़ा विख्यात था। यह मेरे लिए एक रोमांचक दिन था, उस दिन के समान जब प्रभु मुझे अपने झुंड में लेकर आए थे, कुछ साल पहले। लेकिन यह दिन मेरे लिए कई सताव और विपक्ष की शुरुआत थी। मैंने यह पता लगाया कि जो भी प्रभु का पालन करते हैं और भक्ति जीवन जीते हैं, उनको उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।

मैं यह सीखना चाहती थी कि परमेश्वर की संतान के रूप में मैं स्वयं को कैसे सुशीलता और गरिमा के साथ संचलित कर सकती थी। मैं चाहती थी कि जो मेरे साथ काम करते थे, वे लोग यह जान जाएं कि मैं प्रभु यीशु की थी। मेरे बपतिस्मा के बाद, दुनिया और उसके आकर्षणों में मेरी रूचि बहुत ही कम हो गई थी।

कलीसिया में मैं कई अच्छे लोगों से मिली। मैंने शीघ्र ही, चाहे वह अस्पताल में या कलीसिया में हो, पुरुषों से बात करने की इच्छा अपने आप में पाई- यहाँ तक की शादी-शुदा पुरुषों के साथ भी। कई बार मैंने पाया कि स्त्रियों से अधिक, पुरुषों से ही बात करने को मैं प्राथमिकता दे रही थी। लेकिन शीघ्र ही मुझे महसूस हुआ कि यह गलत था और प्रभु ने मुझे चेतावनी दी कि मैं सचेत हो जाऊँ। मैंने देखा कि यह मेरे लिए एक गलत बात होती यदि मैं एक पति और पत्नी के बीच जाऊँ क्योंकि उनको परमेश्वर ने ही संग बांधा था। तब मैंने यह निर्णय ले लिया कि मैं किसी भी शादी-शुदा पुरुष के साथ खुलकर बात नहीं करूँगी यदि उसी खुलेपन के साथ उनकी पत्नी से भी बात न करूं। इस निर्णय ने मुझे कई गुप्त संकटों से बचाया। इस निर्णय ने मुझे दूसरों के घरों में असम्मति को लेकर आने से भी बचाया। मैं आभारी थी कि पवित्र-आत्मा ने कैसे इस निष्कपट मार्ग के द्वारा मुझे चेतावनी देकर, ऐसी शर्मनाक स्थितियों से बचाया है।

मैं कई बार यह सोचती कि क्या दूसरी लड़कियाँ भी ऐसा सोचा करती है। ये गलत स्नेह थोड़े समय के लिए मुझे एक अस्थायी आनंद दिलाती थी, लेकिन उसके बाद एक कड़वा स्वाद पीछे छोड़कर जाती थी। मुझे इस बात का भय था कि यह मेरे जीवन में एक राक्षस के समान न हो जाए जो मुझे नष्ट कर सकता था। मैंने प्रभु से एक दिन यह पूछा कि वे मेरे जीवन की ऐसी हर आदत को जड़ से निकाल दे जिनसे वे खुश नहीं थे।

मैंने उन मार्गों को पाया जिनके द्वारा मैं प्रभु की सेवकाई कर सकती थी। सन्डे-स्कूल में बच्चों को सिखाने के लिए मैंने स्वयं को स्वेच्छा से समर्पित किया, और जब कुछ परिवार काम के कारण बाहर चले जाते थे, उनके बच्चों की देखभाल करने के लिए, ऐसे एक या दो परिवारों की भी मैं सहायता किया करती थी। मैं कुछ रोगियों को प्रभु के बारे में बताती थी। मैंने यह खोज निकाला कि दूसरों को खुश करने के लिए हमें अधिक समय की आवश्यकता नहीं होती है। एक बीमार रोगी के चेहरे पर उजाला लाने के लिए एक मुस्कुराहट ही पर्याप्त है और एक नम्र शब्द एक चंगाई देने वाले मरहम के समान है।

साथ ही उसी समय पर मुझे बुद्धिमान होना पड़ा कि मैं लोगों को मेरा लाभ लेने की अनुमति न दूं। मैंने यह पता किया कि ऐसे भी कुछ रोगी थे जो नम्र नर्सों का लाभ उठाकर उनको गुलाम के समान भगाते थे।

मैंने यह पाया कि कुछ नर्सों की यह प्रवृत्ति थी कि वे सभी को सलाह दिया करती थी। वे विशेषज्ञों के समान बात करती थी और दूसरों के लिए गृहिणी के समान व्यवहार करती थी। ऐसे ये तब तक करते जाते जब तक लोग उनसे चिढ़कर उनको टालने लगते। इनको देखकर मैंने दूसरों को सलाह देना त्याग दिया, क्योंकि मैं जानती थी कि मैं युवा और अनुभवरहित थी। मैंने यह पता लगाया कि अधिकतर लोग यही चाहते थे कि उनको कोई सुने और न कि उनको कोई सलाह दे। इस कारण से दूसरों के कष्टों को सुनने की मैंने आदत विकसित की। इस प्रकार अस्पताल के हर वार्ड में मैंने कई मित्र बना लिए।

मेरे द्वारा एक और कठिनाई सही जा रही थी और वह मेरे छात्रवास के सह-नर्सों के साथ थी। उनमें से अधिकांश केवल अस्पताल के अधिकारियों के विषय में गपशप और बुरा बोलने में ही रूचि रखते थे। ऐसे गपशप भरी व्यर्थ बातों में वे घंटों भर समय को व्यर्थ करती थी। उनसे बचना मेरे लिए काफी कठिन था। लेकिन मैं एक बहाना निकालकर कहीं दूर चले जाना चाहती थी। मुझे पता था कि एक दिन मुझे प्रभु के सामने मेरे बोले गए हर एक शब्द और मेरे द्वारा सुनी गई हर एक गपशप का लेखा देना होगा।

ऐसी कुुछ नर्स थी जो रोगभ्रमी थी। वे हमेशा यह कल्पना किया करती थी कि वे बीमार थी और दूसरों की सहानुभूति की चाह करती थी। मुझे अचंभा होता था कि उनका एक दिन विवाह कैसे होता और वे किस प्रकार अपने पति और बच्चों की जिम्मेदारियों को उठा पाते, जब अभी अपने कुंवारें दिनों में वे स्वयं से इतनी व्यस्त थी।

ये लड़कियाँ इतनी अविवेकी थी कि वे बिना दूसरों की असुविधा को सोचकर, स्वयं को दूसरों पर लाद देती थी। मुझे आश्चर्य होता कि क्योंकि उन्होंने अस्पताल में इतनी बिमारियों को देखा था कि वे अभी यह कल्पना करने लगी थी कि वे स्वयं इन रोगों से ग्रस्त थी।

लेकिन जैसे भी एक रोगी के द्वारा एक नर्स तपेदिक से ग्रस्त हो गई थी। जब उसे पता चला कि उसने इस बिमारी को कैसे पकड़ा था, वह बहुत ही परेशान हो गई थी। वह एक अविश्वासी थी और उस रोगी को रात और दिन कोसती गई। लेकिन हम जो परमेश्वर की संतान हैं, हमारे लिए यह कितना भिन्न है। परमेश्वर के ज्ञान के बिना हमें कुछ भी नहीं हो सकता था। और जब हम बीमार होते भी हैं, परमेश्वर की स्तुति हो कि वे हमें चंगा कर सकते हैं। यीशु हमारे प्रतिकार और हमारे बोझ-वाहक है। वे या तो अद्भुत रीति से हमें चंगा कर सकते हैं या हमें ऐसे स्थान पर लेकर जा सकते हैं जहाँ हम अपने बिमारी का एक उचित उपचार प्राप्त कर जाएं।

मेरे सहयोगियों में से कुछ फिल्म-प्रशंसक थे और हमेशा अपने पसंदीदा फिल्म सितारों के विषय में बात करके, उनके गीतों को छात्रवास में गाते थे। मैं आभारी थी कि मैं इनमें से किसी को भी नहीं जानती थी और तब मैं इस भजन के बारे में सोचने लगती थी।

'मेरी आवाज को लीजिए और मुझे गाने दीजिए,

हमेशा केवल मेरे राजा के लिए ही...

इनमें से कुछ यह महत्त्वकांक्षा बनाए हुए थी कि वे मध्य पूर्व देशों में जाएं क्योंकि उन्होंने यह सुना था कि जो नर्सें वहाँ जाती थी, वे वापस- अधिक पैसों के साथ और सोने के ज़ेवरों के साथ आती थी।

परमेश्वर क्या चाहते थे कि मैं क्या करूं?

मैं अपने परिवार की आर्थिक रूप में सहायता करना चाहती थी। लेकिन उसी समय पर मैं यह भी चाहती थी कि मैं परमेश्वर की इच्छा पूरी करूँ। मुझे लगा यदि प्रभु मेरे इस कम वस्तु को आशीष दे, तो वह उन 5 रोटी और 2 मछलियों के समान बन सकता था जिससे उन्होंने 5,000 लोगों को खिलाकर उनको आशीष दी थी।

मैं ऐसे कई विश्वासियों को जानती थी जो केवल पैसे बनाने के लिए विदेश गए थे। मैंने यह देखा कि पैसे कैसे एक बड़ा जाल था। और किसी भी प्रकार का धन यदि गलत तरीके से उपलब्ध किया जाए वह मेरे लिए और मेरे परिवार के लिए अभिशाप बन सकता था।

मैंने इस विषय में भी सोचा कि कैसे मेरे पिता उनका पूरा पैसा घर में शराब पीने के लिए खर्च कर देते थे। उनके पीने की आदत के अतिरिक्त, हम एक धनी परिवार बन सकते थे। मैंने यह देखा कि पैसे परमेश्वर द्वारा हमें दी गई एक अनमोल जिम्मेदारी थी, और हमें उसे बुद्धिमानी और मतव्ययिता के साथ उपयोग करना चाहिए। मैं हमेशा व्यस्त रहती थी और बहुत ही कम खाली समय पाती थी। और यह मेरे लिए एक बहुत अच्छी बात थी। एक निष्क्रिय मन शैतान की कार्यशाला होती है। मैंने अपने खाली समय पर, स्वयं के कपड़ों की सिलाई और मरम्मत करना सीखा, जिससे मैं व्यस्त रहूं।

मैं अपनी पढ़ाई से प्रेम करती थी और मेरा जीवन यदि सामान्य रूप से बोला जाए तो हर्षीय था। मेरे जीवन में एक उद्देश्य पूर्ति की भावना थी। मैं अपनी बचपन की सारी असफलताओं पर विजय पाना चाहती थी और उसे हमेशा के लिए अपने पीछे छोड़ना चाहती थी।

मैंने कलीसिया के पुस्तकालय में कई अच्छी पुस्तकें पाई। मैंने मैडम गुयौन की जीवनी की एक पुरानी कॉपी पाई। मैंने उनके बारे में पहले कभी नहीं सुना था। वह एक बहुत बड़ी पुस्तक थी और उसे समाप्त करने के लिए मुझे कई महीने लग गए, क्योंकि मेरे पास पढ़ने के लिए बहुत ही कम समय था। लेकिन मेरे द्वारा पढ़ी गयी पुस्तकों में यह उत्तम पुस्तकों में से एक थी। पूरे हृदय से प्रभु को प्रेम करने के लिए इसने एक नई ताजगी से मुझे चुनौती दी। मेरे आध्यात्मिक जीवन में इसने कई तरह से मेरी सहायता कीµ मुख्य रूप से यह समझने के लिए कि कष्टों और क्रूस के मार्ग का क्या उद्देश्य होता है।

'प्रभु की सेवा को बिना किसी बाधा के साथ करना'।

इसे मैंने अपने लिए एक आदर्श वाक्य बना लिया था- और इसी आदर्श वाक्य की प्रेरणा मुझे प्रभु का पालन करने के लिए खींचती गई।

अध्याय 10
आगे की ओर देखना

मेरी नर्सिंग पढ़ाई की पूर्ति के बाद मैं वहीं पर ठहरकर, उत्तर भारत के उसी क्षेत्र में काम करने लगी, क्योंकि मैंने वहाँ मसीही नर्सों की आवश्यकताओं को देखा।

मुझे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में नौकरी मिल गई थी। हम नियमित रूप से गावों में जाते थे। ये यात्राएँ थकाऊ होती थी लेकिन फिर भी हमें आनंद पहुंचाती थी। मैं हर एक दिन व्यस्त रहती थी। मैं लोगों से प्रेम करती थी और उनको प्रभु के बारे में बताना मुझे पसंद था।

मैं अपने माता-पिता को अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए, हर महीने कुछ पैसे भेजने में समर्थ हुई। मैं उत्तर भारत में प्रभु की सेवकाई करने के लिए भी पैसों को देने में सक्षम थी। केवल यही नहीं बरसात के दिनों के लिए और मेरे विवाह के लिए भी मैं पैसों को जमा करने में सक्षम थी।

मैं स्वयं ही खाना पकाती थी और अपने कपड़ों को स्वयं ही धोती थी, इस प्रकार नीजि खर्च पर मैंने पर्याप्त पैसों की बचत की। हमारी नर्स की वर्दी जिसे मैं अधिकांश पहनती थी, इसने मेरी ऐसी सहायता की कि मैं नवीनतम फैशन के विषय में चिंता नहीं करने लगी।

पिताजी अभी मेरे जीवन में प्रवेश करने का प्रयास करने लगे। इतने सारे वर्षों में उन्होंने मेरी चिंता नहीं की लेकिन अब मैंने स्नातक की उपाधि प्राप्त कर ली थी और कमा रही थी, वे चाहने लगे कि मैं विदेश जाऊँ और इस कारण उन्होंने अनेक परिवारों के साथ मेरे विवाह के बारे में पूछताछ करना शुरु कर दिया था। उन्होंने मुझे लिखा कि वे शराब पीना बंद कर चुके थे और माँ ने इस बात की पुष्टि की। यह मेरी प्रार्थना का उत्तर था।

मैं पिताजी से वास्तव में प्रेम करती थी। इस कारण से उन्हें दु:खी नहीं करना चाहती थी। लेकिन मुझे पता था कि क्योंकि मैंने हल पर अपने हाथों को रख दिया था, यदि मैं अब पीछे मुड़ती, तो प्रभु के लिए मैं अयोग्य हो जाती (लूका 9:62)। मैंने यह निर्णय लिया कि कोई भी रिश्तेदार मेरे लिए प्रभु से बढ़कर महत्त्वपूर्ण नहीं होंगे।

मैं अपने भविष्य के विषय में प्रार्थना करने लगी। मेरे विवाह के विषय में मैं प्रभु के मार्गदर्शन को चाहती थी। मैं इन वचनों को याद करने लगी जिन्हें मैंने बाईबल में पढ़ा था जैसे,

'यदि दो मनुष्य परस्पर सहमत न हो, तो क्या वे एक संग चल सकेंगे? ज्योति और अंधकार की क्या संगति, अविश्वासियों के साथ असमान जुए में न जुतो'..., आदि।

बाईबल के इन शब्दों का अर्थ बहुत स्पष्ट थाः एक विश्वासी को एक अविश्वासी से विवाह कभी नहीं करना चाहिए।

मैंने यह निर्धारित कर लिया था कि मैं अपने विवाहित जीवन को मेरे माता-पिता के समान लड़ाई-झगड़ों से भरे होने की अनुमति नहीं दूंगी। प्रभु मेरी सहायता करेंगे। मैं जानती थी कि बाईबल में लिखा था कि मुझे स्वयं को मेरे पति को समर्पित करना था। लेकिन मैंने यह निर्धारित किया था कि मैं अपने बच्चों को मेरे समान ग्रस्त होने की अनुमति नहीं देना चाहूंगी।

लेकिन मैं अपने माता-पिता को यह सच्चाई कैसे समझा सकती थी।

मैंने यह निर्णय लिया कि मैं प्रभु का पालन- हर कीमत पर- एक समय पर एक कदम लेकर करूंगी।

मैंने यह भी निर्णय लिया था कि किसी अविश्वासी के साथ विवाह करने के बजाए, मैं पूर्ण जीवन कुंवारी ही रहना चाहूंगी। मैं बस यह नहीं चाहती थी कि अपने पूरे जीवन को एक ऐसे व्यक्ति के साथ बिताऊँ जो परमेश्वर द्वारा मेरे लिए नहीं चुने गए थे। और इस विषय में, मैं अपने माता-पिता के विरोध में खड़े होने के लिए भी तैयार थी।

मेरे अनुकरणीय व्यक्ति सांसारिक स्त्री नहीं थी, बल्कि ईश्वरीय स्त्री थी जिनके विषय में मैंने पवित्र-शास्त्र में भी पढ़ा था और कई जीवन की कहानियों में भी- बाईबल की स्त्रियाँ जैसे कि सारा, रूत और प्रिस्किल्ला और अभी के दिनों की स्त्री जैसे कि सुसेनना वेस्ली, बेट्टी स्टॅम और इलीशिबा इलियट।

मैंने एक समय में अपने नर्स प्रार्थना संगति में बाईबल की स्त्रियों पर बाईबल अध्ययन लिया था और वहाँ मैंने इन ईश्वरीय महिलाओं के जीवन की कहानियों को भी बांटा था। इस कारण से इन स्त्रियों के उदाहरण मेरे मन में ताज़े पड़े रहे।

दबोरा, इस तरह की एक निडर स्त्री थी कि परमेश्वर उसका प्रयोग कर पाए, जिस प्रकार उन्होंने मूसा का प्रयोग किया था- इस्राएलियों को उनके शत्रुओं से छुड़ाने के लिए। एस्तर एक ऐसी स्त्री थी जो परमेश्वर के लिए खड़ी हुई और अपनी पीढ़ी में अपने लोगों के लिए एक वरदान बन गई।

मरियम, यीशु की माँ इस बात का एक उत्कृष्ट उदाहरण थी कि कैसे उपहास और गलतफहमी का सामना करके भी, उसने स्वयं को परमेश्वर पर समर्पित किया। मरियम और मार्था ने अपना घर और हृदय प्रभु के लिए खोलकर रखा और अपने ही घर में एक सामर्थी चमत्कार को होते हुए देखा।

लुदिया, दोरकास, तीमुथियुस की माँ यूनीके और उनकी नानी लोइस, ये सभी दूसरी स्त्री थी जिन्हें मैंने अपनी आँखों के सामने रखा था।

बाईबल के बुरे उदाहरणों से भी मैंने चेतावनी पाई, जैसे हवा, लूत की पत्नी, अय्यूब की पत्नी, मूसा की पत्नी और ईसेबेल।

कुछ साल बीत गए और मेरे लिए कोई भी उपयुक्त प्रस्ताव नहीं आए, इस कारण से मैंने जीवन की इस संभावना को स्वीकार कर लिया कि हो सकता है मैं शेष जीवन कुंवारी ही बनी रहूँ।

सुरक्षा के लिए तरस मेरे भीतर बहुत ही सशक्त थी, जैसे हर एक युवा लड़की के अंदर होती है। लेकिन मैं सबसे पहले प्रभु में आनंदित होना चाहती थी और सबसे पहले उन्हीं को आनंदित करना चाहती थी। मैं उनके आगमन के लिए तैयार होना चाहती थी, और विवाह के इस मुख्य कदम पर उनकी अवज्ञा नहीं करना चाहती थी। मैं नियमित रूप से नर्स का काम करके परमेश्वर के काम की आलंबन कर सकती थी। मेरे जीवन में अभी गौरव था और योग्यता का अभिप्राय भी था।

अभी मैं दिन के सपने नहीं देखती थी। चाहे जो कुछ भी हो जाए केवल प्रभु को संतुष्टि दिलाना चाहती थी।

मेरे शासक पूरे अस्पताल के मेडिकल अधीक्षक थे। मैंने उनके साथ में एक सम्मानजनक रवैया रखा और हम दोनों की ठीक ही बनती थी।

जैसे मैंने पहले उल्लेख किया था कि कई नर्स डॉक्टरों के साथ बहुत खुलकर मिला करती थीµ यहाँ तक कि उनसे भी जो शादी-शुदा थे। इन नर्सों को इस बात की चिंता नहीं थी कि उनके मूर्ख प्रेम-विलासी व्यवहार के कारण कितने परिवार नष्ट हो रहे थे। मैं कभी नहीं चाहती कि इस पाप की मैं भागी बन जाऊँ।

हमारी नर्सों की छात्रवास में टी.वी. था। लेकिन अधिकतर टी. वी. कार्यक्रम के खालीपन से मुझे यह एहसास हुआ कि इनको देखना समय की बर्बादी थी। कुछ कार्यक्रम जानकारीपूर्ण थे और मैं उनको कभी-कभी देखती थी। लेकिन निरंतर मैं इसी भय में रहती कि मैं टी. वी. की आदी न हो जाऊँ और इस प्रकार अपने आध्यात्मिकता को गवा न बैठूं। मुझे बाद में यह पता चला कि वह यही भय था जिसे मेरी अच्छी वार्डन साथी ने मेरे अंदर बोया था, और जिस कारण से मैं इस लत से सुरक्षित रही।

कलीसिया के लोगों को जानने के लिए मैं बहुत ही आनंदित थी और उनकी सहायता करने के लिए भी, जो क्लिनिक आया करते थे। मैं उन साधारण लोगों से प्रेम करती थी और मुझे पता था कि वे भी मुझे प्रेम करते थे।

इस प्रकार दिन महीनों में और महीने सालों में बदल गए।

अध्याय 11
जीवन-जल की नदियाँ

हमारी कलीसिया में हमने एक समय पर जॉन बनयन की 'तीर्थ यात्रओं की प्रगति' के ऊपर अध्ययन किया। इसने हममें से कई के अंदर एक परिवर्तन उत्पन्न कर दिया। हमने अपने मसीही जीवन को उसके बाद से और भी अधिक गंभीरता से लेना शुरु कर लिया। मैं चाहती थी कि उस कहानी के क्रिस्टियन के समान मैं विश्वासयोग्य, यीशु का पालन करते जाऊँ, मेरे जीवन के अंत तक।

कई बार हमारी कलीसिया में कुछ विशेष बैठकें रखी जाती थी। मैं उन सभी बैठकों में भाग लेती थी क्योंकि मैं यह चाहती थी कि मेरे जीवन में एक सतत् पुनःप्रवर्तन बनता रहें।

ऐसे ही एक अवसर में अपने जीवन के सूखेपन के विषय में सचेत हुई। इसके ऊपर उत्तर भारत की गर्मी मुझे अधिक निराश कर रही थी। मुझे लगा कि एक नए तरीके से मुझे अभी प्रभु का अनुसरण करना था।

मेरे प्रभु मुझसे मिले और बड़े ही अप्रत्यशित रीति से उन्होंने मुझे आशीष प्रदान किया। एक दिन जब मैं कमरे में अकेले प्रार्थना कर रही थी, मैंने आनंद की लहरों को मेरे शरीर में पूर्ण रूप से बहते हुए पाया और मैं अपनी जीभ में अजीब अक्षरों को बोलने लगी। तब मुझे पता चला कि यीशु ने मुझे अपने पवित्र-आत्मा से बपतिस्मा दिया था और मैं जो प्रार्थना में कह रही थी वह एक ऐसी भाषा थी जिसे मैं समझ नहीं पा रही थी। वह 'अन्य भाषा का वरदान' था। मैंने लोगों से इस अनुभव के बारे में बात करते हुए सुना था, लेकिन मैंने कभी भी इसके बारे में अधिक नहीं जाना।

मैं उल्लासित और उत्तेजित थी।

मुझे पता नहीं था कि मुझ जैसी नीच स्त्री के लिए परमेश्वर के पास ऐसी एक आशीष थी। आत्मा के इस बपतिस्मा ने मुझे आत्मा में एक मुक्ति दिलाई और मेरे अंदर प्रभु के लिए एक गहन प्रेम लाया। मुझे ऐसा लगा कि मेरा जीवन स्वर्ग तक सवार हो चुका था। उस दिन से लेकर आने वाले अनेक दिनों तक, मैं उस महिमामय में प्रकाश में रहने लगी।

उन सभी दिनों के दौरान, प्रभु के द्वारा दी गई इस नयी भाषा से, मैंने मेरे मन की अनकही चाहों को प्रभु को अभिव्यक्त किया। मैं जो कह रही थी उसे मैं समझ नहीं पाई लेकिन यह मेरे लिए प्रभु के साथ एक रहस्य प्रेम-भाषा के समान था। मैं निश्चित रूप से कह सकती थी कि प्रभु इसके हर एक शब्द को समझ रहे थे क्योंकि यह सीधे मेरे हृदय से आया था और इसने मुझे आत्मिक चंगाई दिलाई और मेरे भीतर के मनुष्य को आरामदेह बाम भी।

पवित्र-आत्मा मेरे जीवन में एक ताज़गी लेकर आए- पानी के एक झरने के समान जो मेरे भीतर से बहती हुई बाहर निकलकर आई। मुझे ऐसे लगा कि यह झरना कभी नहीं सूखेगा, धरती के आनंद के झरने के समान, लेकिन यह मेरे भीतर से मेरे जीवन के अंत तक बहता ही जाएगा और अधिक से अधिक नाप में। मैंने इसके लिए परमेश्वर पर विश्वास किया।

मैंने पाया कि मेरा अनुभव वही अनुभव था जिसे आरंभ के चेलों ने पिन्तेकुस्त के दिन प्राप्त किया था, और जिसने उन सभी को- डरपोक कायरों से प्रभु के लिए निडर गवाहों के रूप में परिवर्तित कर दिया था। मुझे पता था कि यह एक ऐसी बात नहीं थी जिसका मुझे गर्व और अभिमान के साथ गवाही देना था, लेकिन यह एक ऐसा अनुभव था जिसे मुझे विनम्रतापूर्वक अकेले परमेश्वर की महिमा के लिए ही उपयोग करना था।

मैंने बाईबल का गहराई से अध्ययन नहीं किया था। इस कारण से इस अनुभव को बाईबल के आधार पर स्वयं को समझाने में मैं असमर्थ थी। जहाँ तक मुझे पता था, मैं परमेश्वर के लिए भूखी और प्यासी थी और वे मुझसे मिले और मेरे भीतर में से जीवन के जल की नदियाँ बहने लगी, जैसे यीशु ने प्रतिज्ञा की थी (यूहन्ना 7:37-39)।

आत्मा के बपतिस्मा ने मेरे मसीही जीवन में मिलकर एक नया आयाम और उनके वचन के प्रति अधिक भूख भी ला दी थी।

इस अनुभव के बाद, अन्य लोगों को मेरे विश्वास के बारे में बांटना अब कठिन नहीं था। मेरी कायरता चली गई थी।

यह नई भाषा जिसे मैंने पाई थी आज तक मेरे साथ है, जो मेरी प्रार्थना के जीवन में ताजगी लेकर आती है। जब भी मुझ पर दबाव आता था और जब भी मैं निराश होने के लिए प्रलोभित होती थी, ऐसे समय पर यह मेरे लिए अधिक सहायक बना रहा।

मैं आभारी थी कि मेरे विवाह के पहले ही मेरा प्रभु के साथ इस तरह से मिलन हो रहा था।

अध्याय 12
एक जवान पुरुष

एक दिन हमारे पादरी उनकी पत्नी के साथ मुझे देखने आए और उन्होंने मुझे पूछा कि यदि मैं विवाह के विषय में सोच रही थी और यदि हाँ, तो क्या मैं कलीसिया के एक युवा पुरुष को अपना सम्भाव्य जीवन साथी बनाने के विचार में रूचि रख रही थी। उसका नाम प्रकाश था और वह इलैक्ट्रॉनिक कंपनी में तकनीशियन का काम करता था। वह एक बहुत अच्छा मसीही था और कई बाधाओं पर विजय प्राप्त करके उसने अच्छी शिक्षा प्राप्त की थी।

इस प्रस्ताव में विचार करने वाले कई तत्त्व थे- दोनों सकारात्मक और नकारात्मक। वे और मैं दोनों अलग समुदायों से आए थे और हमारी मातृभाषा अलग थी। मैं ऐसे व्यक्ति से विवाह करना चाहती थी जिससे मैं खुलकर एक एक सामान्य भाषा में बात कर सकूँ। संचार मेरे लिए मेरे वैवाहित जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। मैं यह जानकर खुश थी कि वह अच्छा अंग्रेजी बोलता था।

प्रकाश की कलीसिया में एक अच्छी गवाही थी और जितनी भी बैठकों में मैंने उसे देखा था, जहाँ वह गीतों का नेतृत्व करता था, मुझे लगा कि आध्यात्मिक रूप से वह मेरा निर्देशक बन सकता था। यह मेरे लिए एक बहुत महत्त्वपूर्ण कारक था। मैंने ऐसे कई मसीही पत्नियों को अपने वैवाहित जीवन में कष्ट उठाते हुए देखा जो आध्यात्मिक रूप से अपने पतियों पर निर्भर नहीं हो सकती थी। और मैंने यह भी पाया कि प्रकाश और मुझमें एक मुख्य भाव सामान्य था- प्रभु के लिए हमारा प्रेम।

लेकिन मैं जल्दबाजी में निर्णय नहीं लेना चाहती थी। इस कारण से मैंने अपने पादरी जी को यह उत्तर दिया कि मैं इस विषय में प्रार्थना करूंगी। मैं उत्साहित थी। लेकिन मैं यह नहीं चाहती थी कि मेरी यह उत्साहन मेरे साथ दौड़े। मैंने एक दिन उपवास और प्रार्थना करके प्रभु से यह कहा कि वे मुझे उनकी इच्छा स्पष्ट रूप से दिखाए, और तब से मैं नियमित रूप से प्रत्येक दिन इस विषय के लिए प्रार्थना करती गई। प्रकाश अपने माता-पिता के साथ रहता था, वह उनका इकलौता बेटा था। और मुझे पता था कि यदि मैं उनके साथ विवाह करती मुझे उनके माता-पिता के साथ रहना पड़ता। मैं किसी भी बात के लिए तैयार थी। मुझे केवल इसी बात को जानना था कि मेरे स्वर्गीय पिता की क्या इच्छा थी। मैंने अपने जीवन को आराम और विलासित बनाने की सारी योजनाएं त्याग दी थी। मैंने यह निर्णय लिया कि यदि मैं उनके साथ विवाह करती तो मैं उनके माता-पिता का अपने माता-पिता के समान आदर करती।

अपना स्वयं का एक घर और एक परिवार के होने का मुझमें एक तरस था और अभी विवाह के इस विचार ने मुझे अधिक आनंदित किया। लेकिन मेरे सामने एक आरामदायक जीवन नहीं था। एक नई संस्कृति, एक अलग समुदाय का व्यक्ति और अपने सास-ससुर के साथ एक जीवन- मेरे सामने पड़ा था। लेकिन यह एक हर्ष से भरा जीवन होने वाला था क्योंकि प्रकाश और मैं प्रभु से प्रेम करते थे।

इसने मुझे सबसे अधिक सांत्वना दी।

मैंने बाईबल की एक लड़की रूत के विषय में सोचा, जिसने अपने लोगों को छोड़कर, अपनी संस्कृति और जाति के बाहर एक व्यक्ति के साथ विवाह किया था। वह अपने पति और उनके लोगों के प्रति विश्वासयोग्य बनी रही। उसने अपने जीवन की शुरुवात एक गरीब स्त्री के रूप में की थी। लेकिन परमेश्वर ने उसे आशीषित किया और यद्यपि वह एक मोआबी जाति की थी- एक ऐसी जाति जो अगम्यगमन से जन्मा था (उत्पत्ति 19:30-37) और इस जाति को परमेश्वर की सभा में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई थी (व्यवस्थाविवरण 23:3)- फिर भी वह दाऊद राजा की परदादी बनी।

उन दिनों मेरे द्वारा पढ़े गए इन पुस्तकों ने मुझे परमेश्वर की इच्छा जानने के लिए मेरी सहायता की। वे यौन, प्रेम और विवाह (मसीही दृष्टिकोण) और परमेश्वर की इच्छा की खोज (दोनों जैक पूनन के द्वारा) थे। इन पुस्तकों ने मुझे विवाह को परमेश्वर के दृष्टिकोण से देखना सिखाया। पहली पुस्तक ने मेरी यह भी सहायता की यह जानने के लिए कि एक संभव जीवन साथी में मुझे क्या बातें देखनी चाहिए। फिर मैंने मेरे पादरी जी से प्रकाश और उनके परिवार के विषय अधिक जानकारी माँगी। मैंने अपने माता-पिता को भी इस प्रस्ताव के विषय में लिखा। लेकिन मैं जानती थी कि वे इससे खुश नहीं होंगे। वे चाहते थे कि मैं एक ऐसे व्यक्ति के साथ विवाह करूँ जो अमीर था या जो विदेश में काम करता था। और यदि मैं इन बातों से सहमत नहीं थी, वे संभवतः यही चाहते कि मैं जीवनभर कुंवारी बनी रहकर, उनका समर्थन करूं। मैंने उन्हें आदरपूर्वक लिखा और पूछा कि वे किसमें अधिक रूचि रखते थे- मेरी खुशी में या मेरे अधिक पैसे बनाने में। मैंने अधिक प्रार्थना करके उनको पत्र भेजा कि परमेश्वर उनके हृदय को बदले।

कभी एक व्यक्ति की पत्नी बनने के विचार मुझे अभिभूत कर बैठते थे- मुझमें थोड़ा बहुत भय भी था। मैं अभी एक बहुत ही गंभीर कदम पर निर्णय लेने जा रही थी जिससे मेरे पूरे जीवन का मार्ग बदलने वाला था। मैं अपने भविष्य को एक-दूसरे व्यक्ति के साथ बांटने वाली थी। यह मेरे छात्रावास में एक नए कक्ष साथी को पाने के समान नहीं था। यदि वह कठोर होती तो मैं कभी भी उसको नज़र-अंदाज कर सकती थी या अपने कमरे को बदल भी सकती थी। लेकिन अपने पति के साथ मैं ऐसा नहीं कर सकती थी। मैं गंभीरता से प्रार्थना करने लगी कि मैं परमेश्वर की इच्छा को न खो बैठूँ। और मैंने यह भी प्रार्थना की कि यदि मैं गलती करूँ, तो प्रभु इस प्रस्ताव को इस स्तर पर ही रोक सकते थे। मैं परमेश्वर की इच्छा के केंद्र में होना चाहती थी। मैं नहीं चाहती थी कि मेरी माँ के समान मेरा विवाहित जीवन उदासहीन रहे।

कई महीनों के दैनिक उत्कट प्रार्थनाओं के बाद, मुझे मेरी आत्मा में इस प्रस्ताव के प्रति शान्ति प्रतीत हुई। मुझे पता था कि मुझे प्रदर्शित करने के लिए- यह परमेश्वर का मार्ग था और यही उनकी इच्छा थी। मैंने अपने पादरी जी को इस विषय में बताया। ठीक उसी दिन मुझे अपने माता-पिता से पत्र प्राप्त हुआ जहाँ उन्होंने इस प्रस्ताव के विषय में अपनी अनुमति दी। परमेश्वर का समय कितना उचित होता है।

मेरे माता-पिता ने ऊपरी तौर से (मेरे ज्ञान के बिना) प्रकाश के विषय में अपने कुछ साथियों से पूछताछ की थी (जो मेरे काम करने के स्थान से कुछ दूरी पर रहते थे) और उन्होंने प्रकाश के विषय में अच्छे विवरण पाए।

एक दिन कलीसिया के संगठन के दौरान, पादरी साहब ने हमारी सगाई की सूचना दी। उसके बाद से प्रकाश और मैं मेरे छात्रावास के आगंतुक के कमरे में मिलने लगे और एक-दूसरे को बेहतर जानने लगे। मैंने अपने अंदर प्रकाश के लिए एक बढ़ता हुआ प्रेम पाया और यही प्रेम परस्पर आदान-प्रदान हो रहा था, जबकि हमारे भारतीय संस्कृति के आरक्षण और संकोच के कारण, इसे हमने आपस में खुलकर प्रकट नहीं किया था।

परमेश्वर कितने अच्छे थे और कितने अद्भुत रीति से वे मुझे अपने चुने हुए पुरुष के पास लेकर आए थे। जबकि मेरे युवा दिनों में मैंने मूर्खता से अपने मन में दूसरे पुरुषों के प्रेम की कल्पनाएं की थी, प्रभु ने उनके अनुग्रह से मुझे बचाकर रखा था, कि मैं अपने प्रेम को किसी और पर प्रयुक्त करने से बच जाऊँ।

और यदि मैंने ऐसी गलती की भी होती और मैं गिर भी गई होती, मैं जानती थी कि मेरे प्यारे उद्धारकर्ता मुझे क्षमा करके, मेरे पापों को धो डालते और एक नए सिरे से शुरुवात करने को मेरी सहायता करते। परमेश्वर हम सभी को कई अवसर देते हैं, हमारे गिरने के बाद भी हमारी सहायता करते हैं कि हम अपने अतीत को पूरे तरीके से भूल जाए।

मैंने अपनी वार्डन सहेली को मेरी सगाई के विषय में बताया, जिनकी सलाह और प्रार्थनाओं ने मुझे इन सभी वर्षों में सुरक्षित रखा था। एक ठैठ, मसीही तरीके से उन्होंने मुझे उत्तर दिया कि वे मेरी खुशी को बांट रही थी- हालांकि वे खुद ही कुंवारी थी।

जब मैं यह सोचने लगी कि परमेश्वर ने मेरे लिए इस विषय में जो भी किया था, एक ऐसे समय पर जब मैंने विवाह करने की आशा को ही खो दिया था, और मेरे माता-पिता भी मेरी सहायता नहीं कर पाए, मुझे मरियम के ये शब्द याद आए,

'मेरी आत्मा मेरे उद्धार करने वाले परमेश्वर से आनंदित हुई क्योंकि उसने अपनी दासी की दीनता पर दृष्टि की है, क्योंकि उस शक्तिमान ने मेरे लिए बड़े-बड़े काम किए हैं।' (लूका 1:47-49)

प्रकाश और मैं, सप्ताह में दो बार मिलते और मैं उस मुलाकात की आस रखा करती थी। मैं यह देख सकती थी कि वे प्रभु से गहरे प्रेम करते थे, और यह प्रेम उनके लिए किसी भी चीज से बढ़कर था, इसने मुझे आरक्षित रखा। मैं उनकी दुल्हन बनने वाली थी। और हमने हमारे जीवन के बारे में मिलकर योजनाएं बनाई। हमने हर दिन को प्रार्थना के साथ समाप्त किया, यह स्वीकार करके कि यीशु ही हमारे जीवन के प्रभु थे।

मेरे दिन अब चमकीले सूर्य से पूर्ण थे।

अध्याय 13
एक सुंदर बाग

हमने अपने विवाह के लिए एक दिन तय कर दिया। मेरे माता-पिता कुछ दिन पहले ही आ गए थे। वे प्रकाश के चरित्र से प्रभावित हुए। मैं देख सकती थी कि परमेश्वर ने उनके दृष्टिकोण में एक सच्चा बदलाव लाया था। जब हम परमेश्वर का सम्मान करते हैं, वे भी हमारा सम्मान करते हैं।

हमारा विवाह बहुत ही सरल रीति से सम्पन हुआ, क्योंकि हम में से किसी के पास इतने पैसे नहीं थे कि एक भव्य समारोह के लिए पैसे एकत्रित कर सके। मैं कुछ ऐसे दम्पत्तियों को जानती थी जिन्होंने अपने विवाहित जीवन की शुरुआत ही उधार के साथ की थी, बस इसलिए कि वे एक भव्य विवाह रिसेप्शन रख सकें।

प्रकाश और मैंने इस पर सहमति दी कि हम अपने जीवन के किसी भी स्तर पर उधार नहीं लेंगे। इस कारण से हम ने केवल प्रकाश के रिश्तेदारों को, हमारी कलीसिया के सदस्यों को और मेरे अस्पताल के मित्रों को रिसेप्शन के लिए आमंत्रित किया था। हाँ अवश्य ही, मेरी वार्डन सहेली भी उनमें से एक थी।

प्रकाश और मैंने हमारे विवाह के समय 'प्रभु हमारे लिए क्या थे'- इस पर संक्षिप्त शब्दों में हमने गवाही दी। यह थोड़ा असामान्य था क्योंकि एक दूल्हा और दुल्हन का अपने विवाह के दौरान गवाही देना एक सामान्य बात नहीं थी। लेकिन हम दोनों को यह लगा कि यह हमारे लिए एक अच्छा अवसर था जहाँ हम अपने विश्वास को, शादी में आए हुए हमारे अपरिवर्तित रिश्तेदारों और साथियों के साथ बांट सकें और हो सकता था कि उनको यह अवसर दुबारा न मिल पाए।

पादरी जी ने अपने संदेश में हमें बहुत अच्छी सलाह दी। मैं बहुत ध्यान से उनको सुन रही थी और आज तक उनके द्वारा बोला गया हर एक शब्द मुझे याद है।

उन्होंने कहा कि विवाह एक बाग के समान था। और पति और पत्नी माली के समान। और प्रमुख अभिभावक प्रभु यीशु थे और यदि हम एक सुन्दर बाग चाहते, उनकी आज्ञाओं का हमें बिल्कुल पालन करना था। ऐसे एक बगीचे में, प्रभु स्वयं ही आकर हमारे साथ चलते और हमारे साथ बात करते जैसे उन्होंने अदन की वाटिका में किया था। उन्होंने कहा कि हमें अपने बोल में हर प्रकार की असभ्यता को त्यागना था और एक-दूसरे के प्रति विनाशकारी आलोचनों को भी। हमें एक-दूसरे से बात करने के लिए एक मधुर मार्ग को विकसित करना था और कभी भी चिड़चिड़ाहट से बात नहीं करना था। जब हम चिड़चिड़ेपन को आते हुए देखते, हमें उस अप्रिय जंगली घास को तुंरत उखाड़कर फेंकना था और उसके बदले प्रेम के बीज को तुरंत वहाँ बोना था।

दूसरे जंगली घास जिनके प्रति हमें जागृत रहना था, वे ये थे- एक-दूसरे पर दोष ठहराना, क्षमा न करने की आत्मा, चिड़चिड़ापन, किसी दूसरे व्यक्ति के साथ हमारे साथी की तुलना करना, एक-दूसरे की अतीत की सफलताओं को याद दिलाना या विपरित लिंग के हमारे अतीत दोस्तों को याद दिलाना, शिकायतें और असंतुष्टि रखना आदि।

वे कहते गए कि हमें अपने साथी से यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि वे चीज़ों को ऐसा करे जैसा हम किया करते थे। हमें एक-दूसरे को ऐसे ही स्वीकार करना है जैसे वे स्वयं थे। शक करना, यह उन्होंने हमें याद दिलाया कि एक भयानक जंगली घास थे। यह ईर्ष्या से सम्बन्धित थे- ये दोनों ऐसी जहरीली जंगली घास थे जो बहुत ही आसानी से एक ऐसे बाग में घुस सकते थे जो उपेक्षित थे। और जैसे ही ये प्रकट होना शुरु कर देते हैं, हमें यहाँ तक कि उनके जड़ को भी निकाल देना चाहिए।

कुछ जहरीली घास जैसे शक करना, वे कहते गए, शैतान द्वारा बोया गया था और यदि हम सतर्क नहीं रहते, ये बहुत ही शीघ्र बढ़कर दोनों हमें और हमारे विवाह को नष्ट कर सकता था। भय और निराशा, ये बहुत ही शीघ्र बढ़ने वाले विशाल पेड़ों के समान थे, जो बहुत ही सरलता के साथ बाग के छोटे पौधों को कुचल सकते थे। इनको भी हमें जड़ के स्तर पर ही उखाड़कर फेंकना था।

जैसे पादरी जी 'भय' के विषय में बात करते गए, मुझे याद आया कि मैंने एक पुस्तक पढ़ी थी जिसका शीर्षक 'ऊँचे स्थानों पर मृगी के पैर' (द्वारा हन्ना हरनार्ड) था, जो 'बहुत भयभीत' नामक एक अपंग लड़की के विषय में थी, जिसे प्रभु ने एक निडर, साहसी लड़की के रूप में बदल दिया था। तीर्थ यात्री की प्रगति में भी मैंने निराशा नामक राक्षस के विषय में पढ़ा था जिसने 'क्रिस्तियन' को कैद में रखकर- लगभग उसको मार ही डाला था।

पादरी जी ने कहा- असंतोष एक ऐसा जहरीला पौधा था जो गड़गड़ाहट, शिकायत करना और छिद्रान्वेषी जैसे फलों को उत्पन्न करता है। (छिद्रान्वेषी, उन्होंने मज़ाक में कहा, ऐसा था कि जब पेट खराब होने पर दस्त रुकती नहीं थी, वैसा!!) यदि हम इन बुराईयों को जड़ से उखाड़ने में सतर्क नहीं रहते, तो यह भयानक प्रलय लेकर आ सकता था और केवल हमारे जीवन को ही नहीं बल्कि दूसरों के जीवन का भी विनाश हो सकता था।

वे कहते गए उन असंतुष्ट लोगों के विषय में, जो इस कारण उधार में गिरते गए क्योंकि वे ऐसे सामानों को खरीदना चाहते थे जो उनके बस से अधिक था। और इस प्रकार उधार बहुत अधिक हो जाने पर, कई लोगों ने आखिरकार आत्महत्या कर ली और अपने बच्चों को पितारहित छोड़ दिया। पादरी जी ने हमें चेतावनी दी कि जो इस पृथ्वी से प्रेम करते हैं इस असंतोष के पौधे को अपने बाग के हर भाग में लचकते हुए देखेंगे।

दूसरों के विषय में बुरा कहना और चुगली करना भी उस पौधे के समान था जो हमारे बच्चों को संक्रमित कर सकता था और इसलिए हमारे बाग में कभी भी उनको अनुमति नहीं देनी चाहिए। एक तर्क को जीतने की इच्छा या आखिर शब्द बोलने की चाह, ये भी ऐसे घृणित पौधे थे जो हमारे पूरे बाग को दुर्गन्ध से भर सकते थे।

उन्होंने दबाव डाला कि हम ऐसे लोगों के साथ संगति रखे जो अच्छे पौधों को बोना चाहते थे और ऐसे लोगों से दूर रहे जो जंगली घास और कचरे (चुगली करना और बुरा बोलना) को हमारे बाग में लेकर आते हैं।

इन जंगली घासों को प्रतिस्थापन करने के लिए, कुछ अच्छे पौधे जिन्हें हम अपने बागों में बो सकते थे, वे ये थेः एक दूसरे को क्षमा करने के लिए शीघ्रता, एक दूसरे की भावनाओं पर विचार करना, सारे आर्थिक सामग्रियों को बांटना, प्रतिदिन बाईबल पढ़ना और प्रार्थना करना, दूसरे मसीहियों के साथ संगति रखना और यहाँ तक कि साफ-सफाई करना।

यदि हम इन पौधों को मज़बूत, स्वस्थ पेड़ के रूप में विकसित करना चाहते हैं तो हमें इसका सुरक्षित रूप से पालन-पोषण करना होगा। हम जो शब्द एक-दूसरे के साथ बोलते हैं वह उस पानी के समान था जो इन पौधों को बढ़ने देता था। यदि हमारे शब्दों में क्रोध था, वह उन पौधों पर उबला हुआ पानी डालने के अनुकूल था। यह उन्हें केवल नष्ट करने वाला था।

उन्होंने भजन संहिता 12:6 से पढ़ा, जहाँ प्रभु के वचन की तुलना चाँदी को एक भट्ठी में परिष्कृत करने के साथ की गई थी। हमारे शब्द उन्होंने कहा इसी प्रकार होने चाहिएµ शब्द जो परिष्कृत है और शब्द जो नम्र है।

अच्छे पेड़ को उन्होंने कहा, बढ़ने के लिए कई वर्ष लग जाते हैं। लेकिन जब वे फल देना शुरु कर देते हैं, उन पौष्टिक फलों से कई लोग आशीष पा सकते हैं, और उनके पत्ते भी कई को चंगाई दिला सकते हैं। उन्होंने इस वचन को भी प्रस्तुत किया कि कोमल उत्तर सुनने से जलजलाहट ठण्डी होती है (नीतिवचन 15:1)।

एक मुख्य पौधा जिसे हमारे बाग में पाया जाना चाहिए, पादरी जी ने कहा वह 'स्वयं का न्याय करना' था। ये पौधे खुले स्थानों में नहीं उगते हैं, लेकिन छाया में, मनुष्य की आँखों से दूर ही ये उगते हैं। यह इतना कोमल पौधा है कि यदि हम प्रतिदिन इसका ध्यान से पालन-पोषण न करते, यह मुर्झा सकता है। यह एक ऐसा पौधा है जो बहुत आकर्षित नहीं है। लेकिन इसमें इतनी सामर्थी मनभावन सुगंध होती है कि यह अपने इस सुंदर सुगंध को हमारे बाग के हर क्षेत्र में फैला सकता था।

यदि हम स्वयं का न्याय नहीं करते, तो हमारे यह निजी जीवन और वैवाहिक जीवन का अंत एक ऐसे मानव-निर्मित प्लास्टिक फूलों के रूप में हो सकता थाµ जो मनुष्य के सामने तो अच्छा लगता लेकिन बिना किसी जीवन के होता। उन्होंने हमें चेतावनी दी कि कई वैवाहिक-बाग वास्तव में प्लास्टिक फूलों से भरे हुए हैं जो मनुष्य को तो धोखा दे सकता है लेकिन परमेश्वर को नहीं।

ऐसे कई लोग हैं जो दूसरों का न्याय तो करते हैं लेकिन बहुत कम जो स्वयं का न्याय करना जानते हैं। जो स्वयं का न्याय नहीं करते वे प्रभु से एक भयानक न्याय उस दिन पाने वाले हैं, जब प्रभु धरती पर लोगों का न्याय करने वाले हैं। पादरी ने इस बात पर अत्यधिक दबाव डाला कि हम एक-दूसरे को क्षमा करने के लिए तैयार रहें और एक-दूसरे से क्षमा मांगने के लिए भी- यह एक अच्छे बाग की मूलभूत आवश्यकता थी।

एक पत्नी के लिए, उन्होंने कहा, अधीनता एक विनय पौधा है जो बहुत अनिवार्य और अत्यधिक बहुमूल्य है। हम सभी के पास एक सख्त 'इच्छा शक्ति' होती है और इसे त्यागने के लिए हमें तैयार होना चाहिए जिस प्रकार से यीशु थे। यीशु ने कहा था, 'तौभी मेरी इच्छा नहीं परन्तु आपकी इच्छा पूरी हो।' इसी प्रकार पत्नियों के लिए परमेश्वर की इच्छा यही थी कि वे अपने पतियों के अधीन बने रहे, जैसे कलीसिया मसीह के अधीन है।

आत्मा की भग्नता एक सुगंधित इत्र के समान है जिसकी सुगंध से मरियम का पूरा घर ही भर गया था, जब उसने संगमरमर के पात्र को तोड़कर, यीशु के चरणों को अभिषिक्त किया था। जो कोई भी आत्मा के दीन है, परमेश्वर उन्हीं के समीप है (भजनसंहिता 34:18)।

मेरे विवाह में मैं अपने कई दोस्तों के बारे में सोचने लगी जिन्होंने या तो एक अंधे प्रेम-सम्बन्ध के बाद या सांसारिक लाभ और प्रतिष्ठा के विचार से मोहित होकर जल्दबाज़ी में आकर निर्णय लिया था।

मैं उन कई विश्वासी नर्सों के विषय में सोचने लगी जिन्होंने केवल अपने माता-पिता को संतुष्टि दिलाने के लिए अविश्वासियों के साथ विवाह किया था, या तो इसलिए कि वे अमेरिका जाना चाहते थे या मध्य पूर्व देशों में जाकर पैसा बनाना चाहते थे।

मैं बहुत आभारी थी कि प्रभु ने मुझे इस भाग्य से सुरक्षित रखा था। यह मेरी विश्वासयोग्यता नहीं लेकिन प्रभु की दया थी जिसने मुझे सुरक्षित रखा था। यद्यपि मैं अपने कुंवारे जीवन से प्रेम करती थी क्योंकि मैं अभी एक स्वतंत्र जीवन जी सकती थी, लेकिन विवाह करने के लिए भी मैं बहुत खुश थी। मैंने अपने आगे एक ऐसे जीवन को देखा जहाँ मैं प्रभु के लिए, अब प्रकाश की एक अधीन पत्नी बनकर जी सकती थी। मैं अपने विवाह में सफलता देखना चाहती थी और दुनियां को सिद्ध करना चाहती थी कि परमेश्वर मुझ जैसी पापी के साथ भी क्या कर सकते हैं।

मैं प्रकाश की एक सहायक बनना चाहती थी, न कि बाधा। मैं चाहती थी कि हमारा जीवन हर प्रकार से मैत्रीपूर्ण बना रहे।

मैं जानती थी कि जैसे मैं आगे-आगे बढ़ती जाती, यदि मैं नम्र बनी रहती तो प्रभु की सहायता को हर समय पाती। मैं प्रकाश के माता-पिता को प्रेम करना चाहती थी और उनके प्रति अच्छी बनी रहना चाहती थी और उन सभी लोगों के प्रति भी जो प्रकाश के प्रिय थे।

मैं जानती थी कि यदि मैं शांति के बीज को बोती, मैं उचित समय पर शान्ति और धार्मिकता के भरपूर फसल की आशा कर सकती थी (याकूब 3:18)।

मैं अपने जीवन में सभी भरपूर उपहारों के लिए परमेश्वर की स्तुति कर रही थी। कई वर्षों पहले उन्होंने मुझे यशायाह 58:11 से यह प्रतिज्ञा की थी कि मेरा जीवन एक पानी से तृप्त बाग के समान और पानी के एक झरने के समान होगा जिसमें विफलता नहीं आएगी क्योंकि परमेश्वर ही स्वयं इसकी आपूर्ति के स्रोत बने रहेंगे। अब मैं देख रही थी कि परमेश्वर उस प्रतिज्ञा को पूरा करने की शुरुआत कर रहे थे।

अध्याय 14
वारिस साथ में

यद्यपि मैं उत्सुक थी कि मेरे पास अब स्वयं अपना एक घर हो, लेकिन प्रभु ने मुझे अभी इतना योग्य नहीं समझा कि वे मुझे यह अनुदान करे। अपनी आवश्यकताओं के कारण हमें प्रकाश के माता-पिता के घर पर रहना पड़ा। लेकिन प्रकाश और मैं फिर भी 'अनुग्रह के जीवन के साथ में वारिस थे।' इस कारण हम एक शाही दंपति हैं और सबसे बढ़कर, हम प्रभु में खुश हैं।

मुझे प्रकाश के माता-पिता का आदर करना सीखना पड़ा और उन्हें स्वयं के माता-पिता के रूप में स्वीकार करना भी। वे मेरे प्रति अच्छे बने रहेंगे और मेरी ओर से मैंने कामों को उनकी रीति से सीख लिया है। मैंने उनसे कई व्यवहारिक चीजों को सीख लिया है। मुझे पता था कि यदि मैं एक नम्र और मेहनती रवैया रखती, मैं उनसे अधिक सीख पाती।

प्रभु ने मुझे कहा कि मैं कभी भी उनकी तुलना अपने माता-पिता से न करूं और वे जैसे भी थे उन्हें वैसे ही स्वीकार करूं और वे बदले में मुझे अपनी बच्ची के रूप में स्वीकार करते।

जैसे ही मैंने अपने नए घर में प्रवेश किया,मैंने कई निर्णय बनाएः

˜ यदि प्रकाश के माता-पिता उनके साथ समय बिताना चाहते तो मैं उस बात पर कभी क्रोधित नहीं होती क्योंकि आखिरकार वे उनके बेटे हैं।

˜ मैं ऐसा कुछ भी नहीं कहती या करती जिसके कारण प्रकाश और उनके माता-पिता के बीच दूरी आ जाए।

˜ मैं इस निर्णय को प्रकाश पर छोड़ देती कि वे कब उस अलगाव की तर्ज को खींचे (जैसे बाईबल में उत्पत्ति 2:24 में लिखा था)। मैं इस विषय में ताक झाँक नहीं करती।

एक दिन हमने पास की एक झुग्गी में एक छोटी सी लड़की के बारे में सुना जिसे उसके माता-पिता बेच रहे थे क्योंकि वे बहुत गरीब थे। यह उत्तर भारत में एक सामान्य प्रथा थी क्योंकि कई परिवार यहाँ बहुत गरीब थे। हम शीघ्र उनके पास गए और हमने उनसे अनुमति मांगी कि उनकी बेटी को हम अपने साथ रख सकते हैं, जिससे कि उनकी बेटी बेची न जाए। क्योंकि हम पास में ही रहते थे, इस कारण वह हर एक सप्ताह के अंत में अपने माता-पिता को जाकर मिल सकती थी। अब मेरे पास बात करने के लिए एक व्यक्ति था और परमेश्वर के मार्ग को बताने के लिए भी। हमने उसे पास के स्कूल में भेजने की भी व्यवस्था की। इस प्रकार मैंने एक ऐसा अवसर पाया कि मैं ऐसे व्यक्ति को अपनी विनम्रता दिखा पाऊँ जिसका जीवन बहुत दुखद था और इस प्रकार मेरे किशोरावस्था में मेरे प्रति दिखाई गई करुणा को मैं चुका पाऊँ।

यीशु धरती पर सभी का दास बनने के लिए आए थे। मैं भी अपने प्रभु के समान बनना चाहती थीµ मैं उन सभी लोगों की दास बनकर जीना चाहती थी जो मेरे मार्ग में आए थे, और मुख्य रूप से गरीब और जरूरतमंद लोगों की।

मैंने प्रयास किया कि मैं प्रकाश के लिए एक अच्छी साथी बनूं और मेरी दिनचर्या को उनके दिनचर्या के अनुकूल बनाऊँ। यद्यपि प्रारंभ में हमारे दृष्टिकोण कई बातों में अलग थे, लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गए हमारे विचार अधिक और अधिक मिलने लगे, इंद्रधनुष के रंगों के समान। यह हमारे जीवन को साथ में धनी और अर्थपूर्ण बना रही थी।

अक्सर घर के काम करने में मुझको उबाऊ लगता था जैसे कि पकाना, धोना और घर को साफ रखना। लेकिन मैंने स्वयं को भाई लौरेन्स के द्वारा लिखे गए एक पुस्तक के इस पद के विषय में याद दिलाया कि वे परमेश्वर की उपस्थिति का उतना अनुभव रसोई में बर्तन मांजने में पाते थे जितना वे घुटनों पर प्रभु भोजन के दौरान, रोटी और प्याले को लेते समय पाते थे। मैं चाहती थी कि मेरा अनुभव भी ऐसा ही हो। परमेश्वर का स्तुति गीत गाकर हम सारे बोझ को हल्का कर सकते थे।

मैंने यह पाया कि कई बातों पर जय पाने के लिए मुझे परमेश्वर के अनुग्रह की आवश्यकता थी जैसे मेरा चिड़चिड़ापन और जिद्द, प्रकाश की मेरी सत्ता और मेरे भीतर कई आदतें जो मसीहीरहित थे। मैं एक ऐसी पत्नी होना चाहती थी जो मेरे पति के सिर पर एक मुकुट के समान हो, जिस पर वे सुरक्षित रूप में हमेशा विश्वास कर सकते थे (नीतिवचन 12:4,31:11)।

'यह मेरी गलती थी, मुझे क्षमा करे', यह ऐसे शब्द थे जो हमारे जीवन की कई परिस्थितियों पर बार-बार ईलाज लेकर आए थे अन्यथा वहाँ तनाव और धमाका हो सकता था। मैंने यह सीखा कि विवाह का एक बड़ा रहस्य यह था कि हम एक-दूसरे की प्रशंसा करें और एक-दूसरे के लिए धन्यवाद दें। तब किसी भी प्रकार वैमनस्य का कोई भी स्थान नहीं रह पाता।

वह लड़की कितनी भाग्यशाली है जो प्रभु को अंतरंग साथी और मार्गदर्शक के रूप में जानती है। ऐसी लड़की के जीवन में किसी भी बात की कमी-घटी नहीं होगी, चाहे वह शादी-शुदा हो या कुँवारी।

भक्ति जब संतोष के साथ पायी जाए, उसमें अधिक लाभ था- इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर ने हमारे जीवन के लिए जो भी ठहराया है उसके प्रति हम संतुष्ट रहें।

हो सकता है कि मेरे पास जैसे मैं चाहती थी वैसा स्वयं का अपना घर न हो, और जीवन-भर मुझे अपने पति के माता-पिता के साथ ही रहना पड़े। इसमें मैं संतुष्ट बनी रहूंगी।

हो सकता है कि मुझे जीवनभर नर्स के रूप में काम करके अपने परिवार की सहायता करना पड़े। इसमें मैं संतुष्ट बनी रहूंगी।

या संभवत मुझे एक दिन काम छोड़ना पड़े, जब प्रभु मुझे अपने बच्चे दे और मैं एक पूर्णकालिक माँ बन जाऊँ। तब भी मैं संतुष्ट बनी रहूंगी।

मैं तैयार हूँ उन सभी बातों के लिए जिन्हें प्रभु मेरे मार्ग में लेकर आएंगे, क्योंकि वे प्रभु ही थे जिन्होंने मेरे लिए सभी बातें नियुक्त की थी।

मैं नीतिवचन 31 की वर्णित गुणी स्त्री के समान बनना चाहती हूँ, जिसकी जीभ में विनम्रता के नियम हैं, और जो प्रभु में असंशय के साथ भविष्य का सामना करती है। यह बाईबल का ऐसा पद है जिस पर मैं अक्सर मनन करती हूँ।

मेरे विवाह के बाद एक दूसरा वचन जिसे प्रभु अक्सर मुझे याद दिलाते थे, वह भजन संहिता का 45:10 पद था। वहाँ पर मुझे बताया गया था कि जब मेरा विवाह हो जाए, 'मुझे अपने पिता के घर को भूलना था।' रिबका का इसहाक के साथ विवाह के बाद, वह अब अपने घर के लोगों से जुड़ी नहीं थी। जैसे कि जब मैंने हल पर अपना हाथ रख दिया था तब मैंने यह चुन लिया था कि प्रभु यीशु ही मेरे प्रभु और उद्धारकर्ता हैं और मैं पीछे नहीं मुड़ने वाली, उसी प्रकार, जब मैंने अपने पति को अपना सांसारिक सिर मान लिया था, मैंने अपने हाथों को एक-दूसरे हल पर रख दिया और मैं कभी भी पीछे नहीं मुड़ना चाहती। लूत की पत्नी पीछे मुड़ी और उसने स्वयं को नष्ट कर डाला। मैं नहीं चाहती थी कि मैं भी वही गलती कर बैठूं। मैं अपने माता-पिता और मेरे परिवार के सदस्य को जाकर मिल सकती थी लेकिन इसके पश्चात्, मेरा लगाव केवल मेरे पति के साथ ही होना था।

यौन के विषय में मेरे कई गलत विचार थे। जब मैं कुंवारी थी, तब मैं सोचती थी कि सभी यौन सम्बन्धित क्रियाएं गलत थी। अब जब कि मैं एक शादी-शुदा स्त्री थी, मुझे पता चला कि यह केवल विवाह के बाहर ही गलत था। पवित्र-शास्त्र में मैंने यह देखा कि यौन सम्बन्ध का उद्देश्य केवल बच्चे पैदा करने के लिए ही नहीं था, लेकिन यह पति और पत्नी का एक-दूसरे के प्रति एक कर्त्तव्य था, केवल उस समय के अलावा जब वे इससे दूर रहने के लिए परस्पर सहमत हो (1 कुरि॰ 7:3-4)। मैंने देखा कि परमेश्वर ने यौन क्रियाओं को मनुष्य के पाप करने से पहले ही नियमित किया था, जहाँ एक पति और पत्नी एक-दूसरे को अपना प्रेम प्रकट कर सके (उत्पत्ति 1:28)।

अब जब कि मेरा विवाह हो चुका था, मुझे पता चला कि बाईबल पढ़ने के लिए और प्रार्थना करने के लिए और इसी प्रकार प्रभु के साथ एक निकट मार्ग आग्रह करने के लिए अब से मुझे अधिक अनुशासित रहना था, क्योंकि इन सभी को मेरे व्यस्त दैनिक कार्यक्रम में उपयुक्त होना था।

मेरे लिए देर रात का समय एक अच्छा समय था। जब मैं अपने सारे काम को पूरा कर चुकी होती, तब मैं उस स्थिर जल के पास जाती, और मेरे प्राण के चरवाहे से बात करती और ये सभी मैं सोने से पहले करती। जैसे ही मैं अपने प्राण को उन पर लाद देती, मैं उनकी उपस्थिति में सच्ची प्रसन्ता को पाती। वहाँ में ऐसे हर्ष से नवीकृत होती- जो शुद्ध और स्वर्गीय था। यहाँ कोई भी पाप मुझ पर सामर्थी नहीं बन सकता था। यहाँ मैं अनंत खुशियों को पाती थी।

अभी मैंने उस सच्चाई के छोटे भाग को अनुभव करना जान लिया है जिसे मैं कई वर्षों पहले तक गीतों में गाया करती थीः

'एक ऐसा स्थान है जहाँ विश्राम है- परमेश्वर के हृदय के पास एक ऐसा स्थान है जहाँ पाप छेड़छाड़ नहीं कर सकता- परमेश्वर के हृदय के पास।'

एक रीति से देखा जाए तो मैं हमेशा प्रभु की उपस्थिति में ही हूँ और मेरा हृदय प्रभु की स्तुति में बार-बार ऊपर उठा हुआ है, जिन्होंने मेरे लिए इतने अद्भुत काम किए हैं।

अध्याय 15
मसीह की देह

यह स्थानीय कलीसिया हमारे 'हृदय की धड़कन' बन चुकी थी। परमेश्वर के परिवार को हम अपने परिवार के रूप में देखने लगे हैं।

मैं यह देखकर आभारी थी कि प्रकाश का दृष्टिकोण बिल्कुल मेरे जैसा था, मुख्य रूप से इस महत्त्वपूर्ण तत्व पर। मैं यह देख सकती थी कि यीशु ने मुझे अपने सांसारिक परिवार से अलग करके, अपने परिवार में जोड़ दिया था।

हमारी कलीसिया केवल 60 विश्वासियों का एक छोटा समूह था। लेकिन हम एक-दूसरे से प्रेम करते थे। मैं देख सकती थी कि परमेश्वर यह चाहते थे कि उनकी कलीसिया इसी रीति से बनी रहे।

कलीसिया में इस प्रकार का वातावरण मुख्य रूप से पादरी जी की मेहनत से ही लाया गया था, वे एक निस्वार्थ व्यक्ति थे, जिन्होंने परमेश्वर की ओर से उनकी सेवकाई का एक स्पष्ट बुलावा पाया था। मैंने अपने जीवन में कई मृतक कलीसियाओं को देखा था। अब मैंने उसका कारण देखाः एक कलीसिया अंततः अपने अधिनायक के समान ही बन जाती है।

प्रकाश और मैं नियमित रूप से परिवार की सुबह की बैठकों में और सप्ताह के मध्य- बाईबल अध्ययन बैठकों में भाग लेते थे। मैंने दूसरी नर्सों के साथ समंजन करके, अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया कि मैं इन दो बैठकों में से किसी को भी न गवा बैठूं।

हमारी कलीसिया में रविवार की सुबह की स्तुति और गीत का भाग बहुत ही उत्साहपूर्ण रहता था और यह मेरी आत्मा को हर समय उठाता था। मैं बाईबल अध्ययन बैठकों में नियमित रूप से नोट उठाती थी ताकि मैं अवकाश के समय पर शास्त्र के उन वचनों पर मनन कर सकूँ और जो कुछ मेरे लिए अधिक उपयोगी थे उसे दूसरी नर्सों के साथ बांट सकूं।

परमेश्वर के वचन को अपने हृदय में अध्ययन करने के लिए, मैंने अपने में एक भूख पाई।

मैंने वचनों से इन बातों पर मनन किया जहाँ सिखाया गया था कि कलीसिया में एक स्त्री का क्या स्थान होता है (1 तीमुथियुस 2:9-15, 1 कुरिन्थियों 14:34-38)। मैंने स्पष्ट रूप में यह देखा कि बाईबल यह सिखाती है कि कलीसिया में पुरुषों को ही अधिनायक होना है। मैं छोटी-छोटी बातों में भी परमेश्वर का पालन करना चाहती थी। और मैं अपने पति और अपनी कलीसिया के पितरों के प्रति अधीन होने के लिए खुश थी। उनकी सेवकाई के लिए प्रार्थना करने के लिए भी मैं अत्यधिक खुश थी।

मैंने देखा कि एक स्त्री होने के नाते, कलीसिया में मेरा बुलावा प्रसिद्धी से दूर होकर, एक सहायक बनना था, पर्दे के पीछे रहना था। मैं संडे स्कूल में बच्चों को सिखाती थी और बहनों की बैठकों में और नर्सों की बैठकों में प्रभु के वचन को बांटती थी।

जिस दुपट्टे से मैं बैठकों में अपने सिर को ढकती थी वह मेरे लिए एक परंपरा से बढ़कर था। वह एक चिन्ह था इसे प्रकट करने के लिए कि मेरे पति के प्रति अधीन रहना, परमेश्वर का मेरे लिए एक नियुक्त स्थान था और उन व्यक्तियों के प्रति भी जिन्हें परमेश्वर ने कलीसिया में नेतृत्व के पद पर रखा था (1 कुरिन्थियों 11:32-16)।

मैंने पाया कि जैसे ही अधीन होकर आनंद के साथ, मैंने एक बहन का स्थान लिया था, परमेश्वर की सेवा में मैं जिस सेवकाई में व्यस्त थी, वह अधिक से अधिक फलवन्त बनती गई। बच्चों की शिक्षा देने में और बहनों के पास वचन बांटने में, मैंने परमेश्वर के एक अधिक समृद्ध अभिषेक का अनुभव किया।

अधीनता, मैंने यह निर्धारित किया कि वह मेरी आत्मा का एक मनोभाव था और न कि एक बाहरी बात। मैंने इस भावना को प्रभु यीशु में अपने सांसारिक जीवनभर अपने पिता के अधीन बने रहते हुए भावना में देखा। जब यही भावना हमारे पूरे अस्तित्व में व्याप्त हो जाती है, परमेश्वर हमें ऐसे आशीष देते हैं कि हम दूसरों के लिए भी आशीष का पात्र बन जाते हैं।

और मैंने विद्रोह को बिल्कुल शैतान की भावना के रूप में देखा। यदि मैं एक बुद्धिमान पत्नी बनना चाहती थी, मैं अपने घर का निर्माण तब ही कर पाती, जब अपने पति के अधीन बनी रहती जैसे कलीसिया मसीह की अधीन है, हर चीज़ में (इफिसियों 5:24, नीतिवचन 14:1)।

दोनों प्रकाश और मुझे यह लगा कि हमें नियमित रूप से प्रभु के कार्य के लिए देना चाहिए। इसे करने के लिए हम किसी भी व्यवस्था के बंधे नहीं थे और न ही किसी दबाव में आकर हम यह कर रहे थे।

हमने प्रसन्नतापूर्वक दिया। हम कलीसिया में दान के रूप में कुछ पैसे देते थे। और हर महीने हम उत्तर भारत में काम करने वाले दो मिशनरी संस्थाओं को भी पैसे भेजते थे, जहाँ पुरुष और स्त्री दोनों मिलकर काम करते हैं। हम नियमित रूप से उन सेवकों के लिए प्रार्थना करने लगे, जिन्हें हम जानते थे।

हमारे घर में किसी भी चीज़ की कमी नहीं थी, क्योंकि जैसे ही हम परमेश्वर को देने लगे, उन्होंने बचे हुए को इस प्रकार से सक्षम किया कि वह हमारे घर की आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त था। इस प्रकार हमने प्रभु की विश्वासयोग्यता को बार-बार सिद्ध किया।

यह स्थानीय कलीसिया प्रकाश और मेरे जीवन का एक अत्यावश्यक भाग था। यह कलीसिया मसीह का शरीर था, जिसके हम प्राणाधार भाग थे। वहाँ पवित्र लोगों के साथ रखी गई संगति ने हमारे जीवन को कई तरह से समृद्ध बनाया।

जब कभी हमें कोई भी समस्या का सामना करना पड़ा, हमने परमेश्वर के लोगों के साथ प्रार्थना की। हमने उन लोगों की भी सहायता की जो अपने जीवन में दबाव और परिक्षणों का सामना कर रहे थे। मैंने देखा कि परमेश्वर ने अपने बच्चों के जीवन में अनेक परिक्षणों की अनुमति दी है। जिससे कि इन परिक्षणों के द्वारा हम मसीह के दूसरे अंगों के साथ और भी नजदीकी के साथ जुड़ जाए। मुझे उन लोगों के लिए दुख होता है जिनके पास एक अच्छी स्थानीय कलीसिया नहीं है जिनके साथ वे अच्छी संगति रख पाए, और उनके लिए भी जो अपने स्थानीय कलीसिया को अधिक मूल्य नहीं देते।

प्रकाश और मैं ईमानदारी के साथ यह कह सकते हैं कि हमने अपनी कलीसिया के भाईयों और बहनों की संगति में लगभग स्वर्ग सा अनुभव चखा है।

अध्याय 16
पीछे देखना

मेरे अतीत के जीवन को पीछे मुड़के देखने पर, मैं अपने प्रभु और उद्धार के के लिए कृतज्ञता से भरी हूँ, उन सभी बातों के लिए जिन्हें उन्होंने मेरे जीवन में किया है।

उन्होंने मुझे, जो पहले एक असुरक्षित लड़की थी, अब परमेश्वर की बेटी बना दिया है और पूर्ण सांसारिक सुरक्षा और साथ ही स्वर्ग में अनंत सुरक्षा का मालिक बना दिया है।

इन पिछले महीनों में प्रकाश और उनके माता-पिता के साथ रहने से मैंने बहुत कुछ सीखाः जैसे मैंने आपको पहले कहा था, बचपन के दिनों में मैं एक सुखद घर के वातावरण का आनंद कभी नहीं उठा पाई। अब मैं देख सकती थी कि एक सुखद परिवार में जीना, एक छात्रवास के जीवन से कितना बेहतर था।

एक घर में, हर व्यक्ति को देना और लेना सीखना होता है। एक साथ रहने पर, हम एक-दूसरे से अधिक रगड़ते हैं और इस कारण एक-दूसरे पर चिड़चिड़ाहट होना अधिक सरल है। मुझे क्षमा करना सीखना पड़ा, और साथ ही क्षमा मांगना भी, और यह बार-बार मुझे करना पड़ता है। मुझे यह भी सीखना पड़ा कि हिन्दी में मुझसे बुजुर्ग व्यक्तियों को किन उचित और आदरपूर्वक शीर्षकों से बुलाना चाहिए।

मुझे सीखना पड़ा कि घर के हर सदस्य से कैसे मैं अपने स्वामित्व वस्तुओं को बाँटू। मुझे सीखना पड़ा कि कैसे प्रकाश द्वारा अचानक से घर पर बुलाए गए प्रत्याशित मेहमान को स्वीकार करूं और उनके सामने भोजन रखने के लिए अपने ही भोजन को मुझे त्यागना पड़े।

मैंने यह भी निर्धारित किया कि घर के सभी व्यक्ति मेरे द्वारा पकाए गए सभी व्यंजन का बराबर अशं पाए- विशेष रूप से अच्छे व्यंजनों का। मैं कभी भी स्वयं के लिए एक विशेष अंग नहीं लेती थी। लेकिन यदि वह प्रकाश का पसंदीदा व्यंजन होता तो पूर्व ही मैं उन्हें उसे चखने के लिए एक सैम्पल देतीµ क्योंकि वे हमेशा मेरे खाने पकाने का अभिनंदन करते हैं।

मुझे कभी-कभी रात तक, एक बीमार माता-पिता की देखभाल करने के लिए जगा रहना सीखना पड़ा। मुझे सीखना पड़ा कि मुझसे भिन्न लोगों के साथ मैं कैसे समायोजित हो सकती हूँ।

लेकिन फिर भी कहीं ओर रहने के बजाय, मैं प्रकाश के साथ रहना चाहूंगी (एक ऐसे घर में भी जो पूर्ण रूप से मेरा अपना न हो)।

एक मुख्य चीज़ जो मैं सीख रही हूँ वह यह है कि 'सब कुछ प्रेम में करूं'। तब यदि मैं गलती कर भी बैठती हूँ, वह परमेश्वर की दृष्टि में गंभीर नहीं होगी।

मैं प्रकाश को सराहने लगी हूँ। वे बहुत ही मेहनती हैं और वे प्रभु से प्रेम करते हैं और मुझसे भी। हम दोनों अत्यधिक खुश हैं। हम हर शाम के समय टहलने के लिए जाते हैं और हमारे प्रतिदिन के अनुभव को एक-दूसरे के साथ बांटते हैं। मैं हर दिन उस समय की आशा करती हूँ।

कभी-कभी हम दोनों के बीच बहस होती है- जैसे कि हर विवाहित जोड़ी में होती है। लेकिन हमने यह प्रयास किया कि वह कभी भी नियंत्रण से बाहर न जाए। मैं जानती हूँ कि परमेश्वर ने मुझे प्रकाश की एक सहायक के रूप में नियुक्त किया है और न केवल एक 'हाँ, कहने वाली स्त्री।' इस कारण से मैं अपनी राय को खुलकर उनको कहती हूँ। लेकिन उनको मेरी राय और उसका कारण देने के बाद, मैं उन पर यह बात छोड़ देती हूँ कि यदि वे चाहे तो उसे ग्रहण करे या तो नहीं।

मैं देख सकती हूँ कि मैं उनसे कितनी अलग हूँ। जो छोटी बातें मुझे परेशान करती हैं, वह उनको थोड़ा भी परेशान नहीं करती। यह इसलिए कि मैं एक स्त्री हूँ और वे एक पुरुष।

हम एक-दूसरे को तंग करते हैं और आपस में हँसते भी हैं। और यदि हम एक-दूसरे को बिना चोट पहुँचाए, या एक-दूसरे को नीचा दिखाए बिना यह कर पाए, तब हम यह जान सकते हैं कि हमारा सम्बन्ध वास्तव में स्वस्थ है। हमारा जीवन साथ ही साथ वास्तव में अधिक रूचिपूर्ण है।

एक दिन बैठकर मैंने उन सभी बातों की एक सूची बनाई जो मुख्य रूप से मेरी अपनी समस्याएं थी और मैंने परमेश्वर से पूछा कि मैं इनका सामना कैसे करूं।

मैं कई बार अकेली और गृहासक्त महसूस करती थी- उस दिन से जब से मैं पहली बार घर छोड़कर आई थी। अकेलेपन और गृहासक्ता का यह सिलसिला अधिकतर तब प्रकट होता था, जब मेरे जीवन की नियमित दिनचर्या किसी कारण से परेशान होती थी। लेकिन जैसे ही मैं परमेश्वर को अपने माता-पिता के रूप में अधिक जानने लगी, और मेरी भावनाओं को उनको बताने लगी, मुझे लगा कि मेरे अकेलेपन को संभालने में मैं अब सक्षम हो रही थी।

मैं अक्सर बहुत घबराती थी। मुझे अंधेरे से डर लगता था, लोगों से डर लगता था, भविष्य का सामना करने से डर लगता था और इसी प्रकार कई बातों से डर लगता था। मुझे इस बात से भी डर लगता था कि कहीं नर्स के रूप में, किसी रोग की खतरनाक बिमारी का ईलाज करते समय यदि मैं मर जाती तो क्या होता। तब मैंने पाया कि पुराने नियम के समय परमेश्वर ने अपने प्रिय लोगों को 'मत डर' कहकर प्रोत्साहित किया और उसी प्रकार यीशु ने भी अक्सर अपने प्रिय शिष्यों के साथ यही शब्द दोहराए। मैंने इन शब्दों को एक प्रेमी पिता की आज्ञा और सांत्वना के शब्दों के रूप में देखा। मैं बार-बार अपने आप को ये बातें याद दिलाती हूँ और जैसे ही भय मेरे भीतर आता है, प्रभु या तो तुरंत उसे भगा देते हैं, या मेरे द्वारा उसके साथ थोड़ा संघर्ष करने के बाद।

मुझमें एक ऐसी बुरी आदत भी थी कि मैं या तो बिना किसी कारण के या तो किसी मूर्खतापूर्ण बात के लिए रोती थी। मैंने अब देखा कि इस प्रकार का रोना 'आत्मतरस' का परिणाम था। प्रभु ने मुझे आश्वासन दिया कि वे मेरे हर आंसुओं को पोंछ डालेंगे। मैं इस गीत के विषय में अक्सर सोचा करती थी जिसे मैंने विद्यार्थी होने के समय छात्रवास में सीखा थाः

'उनके (यीशु के) पास अपने क्लेश के लिए कोई आंसू नहीं था, लेकिन मेरे लिए उनके पास लहू के पसीने थे।'

इन वर्षों में उन्होंने मेरी सहायता की कि मैं इस 'रोने' की आदत पर जय पा सकूँ और दूसरों के दुखों की अधिक परवाह कर सकूँ।

असुरक्षा मेरे जीवन का एक दूसरा बड़ा राक्षस था और कई तरीकों से यह अपने आपको प्रदर्शित करता था। यह मुझे अपने दोस्तों और सम्पत्ति के प्रति बहुत ही स्वत्वबोधक बनाती थी। मैं हताशापूर्ण यह चाहती थी कि दूसरे मुझे प्रेम करें और यहाँ तक कि यदि मेरे दोस्त दूसरों के द्वारा प्रेम किए जाते तो मुझे यह पसंद नहीं होता था। मैं चाहती थी कि उनकी दोस्ती केवल मेरे लिए रहे। मेरे इस मनोभाव को मैंने छात्रवास में रहते समय ही देखा था। मैं जानती थी कि यह मनोभाव गलत था, लेकिन इसके प्रति मैं कुछ भी नहीं कर सकती थी।

मेरे विवाह के बाद, इसी स्वत्वबोधक मनोभाव को मैंने प्रकाश की ओर पाया। यदि उनके रिश्तेदार भी उनके करीब जाते, मैं उसको बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। मैं इस बात को यह कहकर उचित ठहराती कि प्रकाश अब मेरे हैं। लेकिन मैं अब जानती हूँ कि मेरा यह मनोभाव गलत था। मैं कैसे मेरे पति की माँ के प्रेम को उनके बेटे के प्रति रोक सकती थी केवल इसलिए कि अब वे मुझसे विवाह कर चुके हैं? मैं यह पसंद करती थी कि दूसरे अपने प्रेम को मुझ पर उमड़ाएं। फिर यह मेरे लिए कितनी स्वार्थ की बात थी कि मैं प्रकाश को उनके अपने रिश्तेदारों के प्रेम का आनंद उठाने से रोकूं। संभवत यह स्त्रियों में पाए जाने वाली, एक-दूसरे प्रकार का लक्षण था और परमेश्वर की संतान होने के नाते मुझे इस पर जय पाना था।

मैंने मुझमें सामानों को खरीदने की एक महान सनक देखी। मैं यह सोचती थी कि प्रकाश यह पसंद नहीं करेंगे कि मैं अधिक पैसे खर्च करूं या उनको उन चीजों को खरीदने की आवश्यकता न हो, जिसे मैं स्वयं आवश्यक मानती थी। इस कारण मैं कभी-कभी उनसे परामर्श किए बिना सामानों को खरीदती थी। लेकिन क्योंकि मैं अनुभवहीन और सरल थी, अक्सर उस शहर के लोगों से मैं धोखा खाती थी। तब मैंने जाना कि यह बेहतर था कि मैं प्रकाश के साथ ही अपनी खरीदारी करूं और किसी भी कीमती वस्तु को उनके साथ ही खरीदूं।

कभी-कभी मैं आशा करती थी कि वे मेरे लिए नवीनतम फैशन के कुछ कपड़े खरीदे। लेकिन मैंने देखा कि यह लालसा दूसरों को प्रभावित करने की इच्छा से पैदा हुआ था, और मैं तुरंत इससे पश्चाताप करती थी। मुझे सांसारिकता को दूर रखना था और सांसारिक फैशन के पीछे उत्कंठा को बंद करना था। मुझे यह भी सीखना था कि मुझसे गरीब लोगों के साथ मुझे अपनी चीजों को कैसे बांटना चाहिए। तब परमेश्वर मुझे मेरी सारी आवश्यकताएं प्रदान करेंगे- भले ही मैं अपनी इच्छाओं को न पाऊँ।

कभी-कभी मैं अपनी सास के साथ क्रोध को बनाए रखती थी और बहुत समय तक उनके साथ बात नहीं करती थी। मैं उनके द्वारा सलाह पाने को नापसंद करती थी और उनके आलोचनात्मक टिप्पणी को भी। मेरी खामोशी मेरा बदला लेने का एक तरीका था। अब मैं जान चुकी हूँ कि इस प्रकार की खामोशी कई बार, क्रोध के एक विस्फोट से भी बुरा था। मैंने प्रभु से कहा कि वे मुझे इस पापी आदत पर जय पाने की सहायता करे। जब मुझे अपने पाप का ज्ञान हो जाता है, मैं प्रभु को मुझे क्षमा करने को कहती हूँ और अपनी सास को भी मुझे क्षमा करने के लिए कहती हूँ।

मेरी असुरक्षा और स्वत्वबोधक प्रकृति के शाखाओं के कारण, मैंने पाया कि मैं उन स्त्रियों से जलती थी जो प्रकाश से बात करती थी। मैं इस बात को अच्छी तरह से जानती थी कि वे मेरे अलावा किसी और पर रूचि नहीं रखते थे। उनकी विश्वासयोग्यता की तुलना मैं किसी के साथ नहीं कर सकती थी। लेकिन मेरी स्वत्वबोधक मुझे ईर्ष्यापूर्ण बनाती। प्रभु ने मुझे सिखाया कि इस प्रकार प्रकाश पर दोष ठहराना गलत था। इस प्रकार उन पर शक करके उनके जीवन को कठिन बनाना गलत था।

संभवत यह इस कारण था कि मैं जानती थी कि मेरे पिता मेरी माँ के प्रति अविश्वासयोग्य थे, और इस कारण से मैं ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त करती थी या संभवत, हर कोई स्त्री ऐसी हो सकती है।

फिर मैंने यह सोचा कि मुझे भी कितनी बार अस्पताल में काम करते समय पुरुषों से बात करना पड़ता था। उसमें क्या गलत था? तब मुझे पता चला कि मेरे मनोभाव को बदलना था। प्रकाश ने मेरे प्रति कितना धीरज बनाकर रखा था।

मुझे वह सलाह याद थी जिसे मेरे बचपन में मेरी माँ ने उस महिला से पाया था। उन्होंने माँ को कहा था कि यदि उनके पति विश्वासघाती भी थे, उन्हें उनको क्षमा करना था और उनको इतना प्रेम दिखाना था कि वे उस प्रेम के सामर्थ के द्वारा उनकी ओर खींचे जाएं, जैसे लोहे के टुकड़े चुंबक की ओर खींचे जाते हैं। इस प्रकार एक बुद्धिमान स्त्री अपने पति को अनेक नुकसान से बचाकर रख सकती है।

एक दिन कैंसर से ग्रस्त एक पुरुष को हमारे अस्पताल में भर्ती किया गया था। मुझे सुनने को मिला कि जब वे काम के लिए अपने परिवार से दूर एक दूसरे शहर में काम कर रहे थे, वहाँ वे पाप में गिरे और एक दूसरी स्त्री से उन्हें एक बच्चा पैदा हुआ। उनकी पत्नी जो एक सच्ची विश्वासी थी, वह उन्हें हमारे अस्पताल लेकर आई थी और उनकी मृत्यु तक उन्होंने उनकी देखभाल की। मुझे बाद में पता चला कि उनकी पत्नी ने उस स्त्री के साथ दोस्ती बनाई जिनसे उनके पति पाप में गिरे थे। उसने उस स्त्री के द्वारा पैदा किया हुआ बच्चे को गोद ले लिया और अपने बच्चे के समान उसकी परवरिश की। वह दूसरों को यह कहती थी कि वे उस बच्चे से प्रेम करती है क्योंकि वह उसके ही पति की संतान था। केवल मसीह ही इस प्रकार के चमत्कार को कर सकते थे- एक मनुष्य को इतना प्रेमी और दयालु, वे ही बना सकते थे।

इस प्रकार का उदाहरण मुझे मेरे पति की एक प्रेमी पत्नी बनने को उत्साहित करती थी। मैंने सीखा कि एक विवाह में सबसे अधिक आवश्यकता इसी बात की थी कि हम अंत तक प्रेम में ही चले। प्यार पति की कमियों और असफलताओं को ढकती है, उनकी गलतियों को अनदेखा करती है और उनके अतीत के पापों को मन में फिर से नहीं लेकर आती है। हर बार जब मैं उस प्यार अध्याय (1 कुरि. 13) को पढ़ती हूँ, मुझे यह ज्ञात होता है कि मैं प्रभु के मानक से कितनी बुरी तरह से कम थी और मुझे यह पता चलता है कि मुझे कितना लंबा रास्ता तय करना है।

इस अंधेरी दुनिया में केवल वह केवल परमेश्वर का अपरिवर्तित प्यार ही है जो रोशनी दिलाने वाला प्रकाश है। परमेश्वर ने मुझसे बहुत प्रेम किया है। इस कारण उन्होंने मुझे अपने आसपास के लोगों के कर्ज में रखा है कि मैं मेरे मार्ग में आए हुए सभी लोगों से उनके प्रेम को बाँटू। प्यार, मैंने देखा कि यही मसीह जीवन की सबसे बड़ी बात थी। लेकिन साथ ही मेरा मानव-प्रेम बहुत ही अविश्वासी है। मैंने देखा कि मुझे नियमित रूप से पवित्र-आत्मा से भरना था, जिससे कि मेरा हृदय परमेश्वर के प्रेम से भरा रहे।

मैं जानती थी कि परमेश्वर- जिन्होंने मेरे लिए अपने इकलौते बेटे को ही नहीं बख्शा, वे मुझे उनके साथ, मेरे जीवनभर, स्वतंत्र रूप से, सब कुछ प्रदान करेंगे।

मैंने कितना अद्भुत उद्धार पाया था।

मेरे पिछले दिनों में मैं एक निर्वासित थी, लेकिन अभी मैंने प्रभु से ऐसा अनुग्रह पाया था कि मुझे आश्चर्य होता है कि मुझसे अधिक खुश, इस पूरी दुनिया में कोई और हो ही नहीं सकता। आप में से कुछ लोगों को यह आश्चर्य हो रहा होगा कि मैं संभवतः कैसे इतनी खुश हो सकती हूँ, जबकि मुझे अपने पति के माता-पिता के साथ रहना पड़ रहा है, बिना एक घर के जिसे मैं अपना कह सकूँ। यह इसलिए क्योंकि मैंने अपनी खुशियों को प्रभु में पाया है और न कि मेरी परिस्थितियों पर।

'संतोष के साथ भक्ति महान लाभ है।'

मैं अनेक मसीहियों से मिली हूँ जो कभी खुश ही नहीं होते और मैं इसका कारण अब जान चुकी हूँ। उनके पास असंतुष्ट सांसारिक लालसा है। उनको यह लगता है कि उनके पास या तो यह वस्तु होनी चाहिए या कोई दूसरी, और उन्हें यह लगता है कि इनके बिना वे नहीं रह सकते। इस कारण वे बेचैन बने रहते हैं।

मुझे स्पष्ट रूप से यह याद है कि जिस दिन मैंने पवित्र-आत्मा का बपतिस्मा पाया था, मैंने प्रभु से यह कहा थाः

'अब से मैं धरती की किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं करूंगी, केवल आप की ही, प्रभु यीशु (भजन संहिता 73:25)।'

मैं अपने हृदय को बार-बार जाँचती हूँ कि क्या मैंने अपने इस वचन को रखा है। जब मैं यह पाती हूँ कि मैं फिसल गई हूँ, मैं तुरन्त पश्चाताप करती हूँ और इस प्रतिज्ञा को नवीकृत करती हूँ कि मैं प्रभु को पूर्ण हृदय से प्रेम करूँ।

इतनी दूर प्रभु ने मुझे सुरक्षित रखा है। मैं विश्वास करती हूँ कि उनकी इस भक्ति को जीवन के अंत तक रखने में वे मेरी रक्षा करेंगे। मेरा अनुभव मेरे नाम के समान है- मैंने 'कृपा पर कृपा' पाई है।

मैं प्रभु यीशु को पूर्ण महिमा और सम्मान देना चाहूँगी।

'यीशु मेरे प्रभु, मैं पूर्ण समर्पण में झुकती हूँ, क्योंकि आपने मुझे कलवरी में खरीदा है; अब मैं आपकी हूँ, और केवल आपकी हमेशा, और आप मेरे भाग अनंतकाल के लिए।'