बहुत साल पहले, जब मेरे बच्चे छोटे थे, तब मैंने बहुत सी चुनौतियों का सामना किया। मेरे हृदय की भीतरी गहराइयों में, मैं एक बेहतर पत्नी, एक बेहतर माँ, और एक बेहतर स्त्री बनना चाहती थी। उन्हीं दिनों में मैंने एक कहानी सुनी जिससे मुझे बहुत मदद मिली।
कोई व्यक्ति एक ऐसी जगह के पास से गुज़र रहा था जहाँ एक बड़ा निर्माण कार्य चल रहा था और उसने वहाँ बहुत लोगों को काम करते देखा। ऐसा लगता था मानो वे वहाँ कोई बड़ा भवन बना रहे थे। कुछ लोग ज़मीन में गड्ढे खोद रहे थे, दूसरे लकड़ियों के लट्ठे और ईटें उठाकर ले जा रहे थे, कुछ सीमेंट और रेत मिला रहे थे, और वहाँ इसी तरह के दूसरे काम हो रहे थे। हरेक व्यक्ति किसी-न-किसी काम में व्यस्त था। उस व्यक्ति ने वहाँ काम कर रहे कुछ लोगों से पूछा, “तुम यहाँ क्या कर रहे हो?” एक ने कहा, “मैं यहाँ ईंटें उठा रहा हूँ।” दूसरे ने कहा, “मैं यहाँ लकड़ी का काम करता हूँ।” फिर एक और ने कहा, “मैं सीमेंट और रेत मिला रहा हूँ।” अंततः, उनमें से एक ने कहा, “मैं इस जगह में काम करने वाला इंजीनियर हूँ। हम यहाँ एक आराधना-भवन बना रहे हैं।”
पत्नियों और माताओं के रूप में जो मामूली काम हम प्रतिदिन करती हैं, उनके बारे में हम भी यही सोच सकती हैं, “मैं तो बच्चों की लंगोटियाँ (डायपर) बदलती रहती हूँ,” या “मैं तो बस घर की सफाई में लगी रहती हूँ,” या “मेरा काम तो खाना बनाना और बर्तन साफ करना ही है।” लेकिन परमेश्वर हमारे अन्दर अपना पवित्र मन्दिर तैयार कर रहा है। और जो काम परमेश्वर हमारे अन्दर कर रहा है, वह एक अद्भुत काम है। हम उसके लिए और उसकी मदद से न सिर्फ अपने बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा कर रही हैं, बल्कि इसके साथ ही वह हममें अपना पवित्र मन्दिर भी तैयार कर रहा है। हमारा घरेलू जीवन और हमारा पारिवारिक जीवन यीशु मसीह की महिमा के लिए तैयार होता जा रहा है। और हम अपने बच्चों को प्रभु के सम्मुख प्रस्तुत कर सकते हैं कि वे भी उनके जीवनों में वैसे ही महिमामय कामों का अनुभव पा सकें। तब हमारा परिवार परमेश्वर की महिमा के लिए एक सुन्दर मन्दिर बन जाएगा - और हमारे बच्चे उसका हिस्सा होंगे।
परमेश्वर ने मुझे घर के मामूली कामों में विश्वासयोग्य रहना और अपने जीवन से संतुष्ट रहना सिखाया, और ऐसी सोच से बचाया कि एक व्यावसायिक-स्त्री के रूप में मैं लोगों की नज़र में कुछ बड़ा काम करूँ (क्योंकि व्यवसाय से मैं एक मैडिकल डॉक्टर हूँ)। और फिर मुझे अपने घर के मामूली काम करने से बहुत ख़ुशी मिलने लगी, क्योंकि मैंने यह जान लिया था कि परमेश्वर ने मेरे जीवन की हरेक बात के लिए योजना बना रखी थी, और वह मुझे जानता था और मैं उसके लिए जो कुछ भी करती थी, वह उसकी नज़र में सराहनीय था।
कभी-कभी, माताओं के रूप में, जब हमारी नींद पूरी नहीं हो पाती, या हम बहुत थकी हुई होती हैं और दैहिक और भावनात्मक रूप में पूरी निढाल हो चुकी होती हैं, तब हम आसानी से इस दर्शन को खो सकती हैं। और फिर यह ज़रूरी हो जाता है कि हम अपने आत्मिक चश्मे के धुंधलेपन को दूर करें, और एक बार फिर इस दर्शन को एक स्पष्ट रूप में देखें - और तब हमें यह नज़र आएगा कि परमेश्वर हमारे जीवन में एक सुन्दर काम कर रहा है - एक ऐसा काम जो एक दिन सिद्ध हो जाएगा!
जब आप एक कढ़ाई/कशीदाकारी का काम करती हैं, तो उसे नीचे से देखने पर आपको वहाँ कोई सुन्दर चित्र नज़र नहीं आएगा; आपको सिर्फ कुछ गाँठें और आड़ी-तिरछी सिलाई ही नज़र आएगी। हमारे जीवन में भी हमें अक्सर ऐसी बहुत सी बातें नज़र आती हैं जो हमें समझ नहीं आती हैं। एक दिन परमेश्वर हमें (और सारे जगत को) ऊपर का हिस्सा दिखाएगा - वह सुन्दर नक्काशीदार फ्कढ़ाई” जिसके ताने-बाने उसने हमारे जीवन में बुने हैं, और हमें और हमारे बच्चों को उन सारी बातों में नया बना दिया है जो पृथ्वी पर हमारे साथ गुज़री हैं। वह सब उसके हाथ की कारीगरी होगा, और इसलिए वह सब कुछ सिर्फ उसकी महिमा की स्तुति के लिए ही होगा।
हालांकि अभी हमें अपने बच्चों के साथ संघर्ष करना पड़ रहा है, और आपको सिर्फ इस बात का निचला हिस्सा ही नज़र आ रहा हैं, फिर भी हम यह विश्वास रखें कि अंततः वे परमेश्वर की संतान के रूप में एक सही तरह तैयार हो जाएँगे। परमेश्वर उनके द्वारा किए जाने वाले मामूली आज्ञा-उल्लँघनो का लेखा नहीं रख रहा है। हममें से कोई सिद्ध नहीं है। परमेश्वर हमारी मदद करेगा, और उनकी भी मदद करेगा। जब हमें यह समझ आ जाता है कि यह परमेश्वर है जो हममें काम कर रहा है, तब हम यह कल्पना नहीं कर सकतीं कि हम बहुत अद्भुत माताएँ हैं या हमने कुछ भी एक सिद्ध रूप में किया है। और हम यह कल्पना करने वाली भी नहीं होंगी कि हम दूसरों को सिखा सकती हैं। सब कुछ सिर्फ परमेश्वर की महिमा के लिए ही है। अंतिम दिन वह अपनी शक्ति की सामर्थ्य को प्रकट करेगा, और यह दिखाएगा कि हमारी सारी कमज़ोरियों और नाकामियों के बावजूद, हम फिर भी मसीह के स्वभाव में सहभागी हुए थे।
मेरे मन में एक दूसरा उदाहरण भी आ रहा है। किसी ने कहा है कि अगर आप एक रुपए के सिक्के को लेकर अपनी आँख के बिलकुल पास ले आएंगे, तो आप सूर्य को नहीं देख पाएंगे। इसी तरह, भौतिक वस्तुओं, आमदनी, बचत, आदि के बारे में जिन चिंताओं का सामना हमें करना पड़ता है, वे हमारी आत्मिक नज़र को इस हद तक संकुचित कर सकती हैं कि फिर हमें परमेश्वर की ज्योति नज़र ही नहीं आती।
बैंगलोर में हमें पानी की कमी रहती थी। इसलिए हमें पानी को बहुत सावधानी के साथ ख़र्च करना पड़ता था, और हमारी ज़रूरतों के लिए मैं अक्सर पानी जमा करती रहती थी। अपने घर में मैं इसी तरह के बहुत से मामूली कामों में उलझी रहती थी। लेकिन मैं जानती थी कि यीशु ने यह कहा था कि हमारे लिए, मरियम की तरह, उसके चरणों में बैठकर उसकी बात सुनना ज़्यादा ज़रूरी था (लूका 10:42)। लेकिन मेरे दिन-भर के कामों में अति-व्यस्त रहते हुए मेरे पास यह करने का समय ही कहाँ था? तब मैंने यह जाना कि मेरे प्रतिदिन के कामों के बीच में भी मेरा मन प्रभु में लगा रह सकता है। ऐसा हो सकता है कि कि मेरे हाथ तो मार्था के हों, लेकिन मेरा हृदय मरियम का हो। हम अपने प्रतिदिन के काम करते हुए भी, हमारे हृदय हमेशा प्रभु की बात सुनने की तरफ लगे रह सकते हैं।
एक माँ होते हुए मेरी सबसे बड़ी अभिलाषा यही थी कि मैं अपने बच्चों का पालन-पोषण एक ईश्वरीय रूप में कर सकूँ। सभी बच्चे अलग तरह के होते हैं। हरेक संस्कृति और माँ-बाप भी अलग तरह के होते हैं। हम बच्चों की अच्छी परवरिश करने के बारे में मसीही पुस्तकों में से उपयोगी जानकारी पा सकते हैं। लेकिन, आख़िर में, यह प्रभु ही है जो हमारे बच्चों को उसके मार्गों की शिक्षा देने में हमारी मदद कर सकता है।
एक ऐसा भी समय था जब मैं ऐसी दूसरी ईश्वरीय माताओं की नकल करने के प्रलोभन में पड़ गई थी जिन्हें मैं मिली थी या जिनके बारे में मैंने पढ़ा था, और जो अलग-अलग तरह से अपने बच्चों को अनुशासित करती थीं। लेकिन मुझे यह समझ आया कि वे सिर्फ अलग तरीक़े थे। लेकिन मेरा लक्ष्य अपने बच्चों की अगुवाई करते हुए उन्हें सच्ची ईश्वरीयता में पहुँचाना था - और मैंने देखा कि ऐसे बहुत से तरीक़े थे जिनके द्वारा मैं अपना लक्ष्य हासिल कर सकती थी। इसलिए मुझे आँखें बंद करके दूसरों द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे तरीक़े अपनाने की ज़रूरत नहीं थी। और उन तरीक़ों के अनुसार काम न कर पाने की वजह से, मुझे निरुत्साहित होने की भी कोई ज़रूरत नहीं थी। हमारे कुछ बच्चे एक ख़ामोशी-भरे शब्द को सुनने वाले होते हैं। तब हमें अपनी आवाज़ ऊँची करने की कोई ज़रूरत नहीं होती। लेकिन हमारे दूसरे बच्चे इससे अलग हो सकते हैं। इसमें ज़रूरी बात परमेश्वर की आवाज़ सुनना है। जब हम अपने बच्चों की मदद करना चाहेंगे, तो वह हमारा मार्ग-दर्शन करेगा।
मेरे मामले में, कुछ दूसरी बातें भी शामिल थीं।
हमारे घर में 6 सालों तक कलीसियाई सभाएँ आयोजित होती रही थीं। हरेक रविवार की सुबह और सप्ताह में तीन संध्याओं को भी सभाएँ होती थीं। इसके अलावा, कलीसिया के लोग किसी-न-किसी वजह से किसी भी समय आते-जाते रहते थे - किसी व्यावहारिक या चिकित्सीय मदद के लिए, या फिर प्रार्थना के लिए। कभी-कभी हमें अपने घर में कुछ लोगों को रात में रखना पड़ता था क्योंकि वे दूर से आते थे।
एक दूसरी बात यह थी कि मेरे पति अक्सर अपनी सेवकाई के काम में घर से बाहर रहते थे। इसलिए, ऐसे समयों में मुझे उनकी मदद भी नहीं मिल पाती थी।
ऐसे समय में, मैं यह सोचती थी कि उन स्त्रियों के लिए सब कितना आसान होता है जिनके पति हमेशा घर पर ही रहते हैं। उन दिनों मैंने एक पाठ सीखा।
अपनी तुलना कभी ऐसे लोगों से न करें जिनके हालात आपसे ज़्यादा सुविधाजनक हैं; बल्कि अपनी तुलना ऐसे लोगों से करें जिनके हालात आपसे ज़्यादा कठिन हैं।
अगर हम ऐसा करेंगे, तो हम हरेक बात के लिए हर समय परमेश्वर को धन्यवाद देने वाले होंगे।
परमेश्वर ने मेरे पति को सुसमाचार प्रचार करने के लिए बुलाया था। इसलिए मैं उन्हें घर में बहुत से कामों में उलझाए रखना नहीं चाहती थी। वर्ना उनकी सेवकाई सीमित हो जाती, विभिन्न कलीसियाओं में उनका आना-जाना कम हो जाता, और वे ज़रूरतमंद लोगों के लिए उपलब्ध न रह पाते। मुझे यह समझ आ गया कि मेरे जीवन और मेरे परिवार के लिए परमेश्वर की योजना उस योजना से अलग थी जो उसने दूसरों के लिए बनाई थी। परमेश्वर ने उन हालातों को स्वीकार करने में मेरी मदद की जिनकी योजना उसने मेरे लिए बनाई थी। मैं यह देख सकती हूँ कि मेरे जीवन के लिए उसके द्वारा बनाई गई योजना सिद्ध थी।
ऐसे समय होते थे जब मेरे पति घर पर नहीं होते थे, और बच्चे बीमार हो जाते थे। और तब मैं परमेश्वर को धन्यवाद देती थी कि उसने मुझे अपने बच्चों की देखभाल करने के लिए पर्याप्त चिकित्सा-ज्ञान दिया था। उनके बीमार हो जाने पर मुझे हर बार उन्हें अस्पताल नहीं ले जाना पड़ता था। उनकी मामूली बीमारियों से मै स्वयं ही निपट लेती थी। प्रभु ने हमेशा ही उन परिस्थितियों में मेरे पास आकर मेरी मदद की थी। जब कभी रात को मेरी नींद पूरी नहीं होती थी, तो वह मुझे दिन के समय थोड़ा आराम करने का भी समय दे देता था।
मुझे यह भी समझ आ गया था कि अगर मुझे अपने बच्चों की ज़रूरतें पूरी करने जैसे ज़रूरी मामलों पर ध्यान देना है, तो मुझे कुछ ग़ैर-ज़रूरी कामों को अपने सामाजिक जीवन और मनोरंजन में कटौती करनी होगी। अपनी व्यक्तिगत महत्वकाँक्षाओं को मैं अपने बच्चों के बड़े हो जाने, और उनके अपने जीवन जीने के लिए निकल जाने के बाद भी पूरा कर सकती थी। लेकिन उस समय, उनकी पढ़ाई और जीवन के दूसरे मामलों में उन्हें मेरी मदद की ज़रूरत थी। मुझे उनका मित्र बनकर उनके लिए उपलब्ध रहने की ज़रूरत थी।
मुझे ऐसा लगता था कि प्रभु की सेवकाई में, मेरा भाग घर की देखभाल करने के द्वारा मेरे पति की मदद करना था कि वे निश्चिंत होकर प्रवास और प्रचार करने के लिए आज़ाद रह पाते। मैं घर में हर समय एक शांति और मेल-मिलाप का माहौल बनाए रखना चाहती थी, जिससे कि उनके लिए जाना और प्रचार करना आसान बना रहे। हमारे घर में होने वाली किसी भी बात से मैं उन्हें विचलित नहीं होने देना चाहती थी - ख़ास तौर पर हमारे बच्चों के मामलों में। मैं ऐसा नहीं चाहती थी कि हमारे घर में होने वाली किसी भी बात से उनके द्वारा होने वाले प्रभु के काम में कोई रुकावट पैदा हो।
बाइबल के ऐसे तीन सत्य हैं जिन्होंने मेरे वैवाहिक जीवन में मेरी मदद की है - और इन बीते सालों में वे मेरे लिए और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं।
इन सत्यों को एक साफ़ तौर पर मैं नई वाचा में जकड़े जाने के बाद ही समझ सकी हूँ। इससे पहले कि परमेश्वर ने नई वाचा को देखने के लिए मेरी आँखें खोलीं, मैं सिर्फ एक नया जन्म पाई हुई विश्वासी थी जो यह जानती थी कि मेरे पाप क्षमा हो चुके हैं। जब कभी मैं चूकते हुए किसी पाप में गिरती थी, तो मैं भी दूसरे विश्वासियों की तरह ऐसे मौक़ों पर नियमित क्षमा माँगती थी। कभी-कभी मेरा आत्मिक जीवन पूरी तरह सूखा हुआ होता था। मुझे यह अहसास था कि मुझे दिन-प्रतिदिन पवित्र आत्मा की सामर्थ्य की ज़रूरत थी।
प्रभु यीशु ने पवित्र आत्मा से मेरा बपतिस्मा किया था, लेकिन मैंने देखा कि मुझे प्रतिदिन पवित्र आत्मा से भरे जाने की ज़रूरत थी। सिर्फ इस तरह ही मेरे जीवन में सामर्थ्य, शक्ति और ताज़गी बनी रह सकती थी। हम सभी को प्रतिदिन पवित्र आत्मा से भरने की हमारे स्वर्गीय पिता की प्रतिज्ञा है। हममें से किसी को भी यह पाने से चूकना नहीं चाहिए। ये वे तीन सत्य हैं जो मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैंः
इन तीनों क्षेत्रों में, मैं यीशु को अपने उदाहरण के रूप में देख सकती थी। मेरे लिए नई वाचा जीवित हो उठी थी। अब वह मेरे लिए एक पाठ्य-पुस्तक नहीं बल्कि यीशु के जीवित शब्द बन गई थी।
परमेश्वर को अपने पिता के रूप में जानना वह पहला सत्य था जो मेरे लिए महत्वपूर्ण हो गया था।
अनेक पत्नियाँ इस वजह से बहुत सी मुश्किलों का सामना करती हैं क्योंकि वे असुरक्षित होती हैं। अपनी ज़रूरत के समय में, वे एक मित्र या किसी ऐसे व्यक्ति की बहुत लालसा करती हैं जिसके साथ वे अपनी समस्याओं के बारे में बात कर सकें। और कभी-कभी वे ऐसे व्यक्ति के लिए लालायित हो जाती हैं जो उनकी बात को सुने, उन्हें समझे, जिसके आगे वे अपने दिल की बात कर सकें - एक मित्र, एक बहन, या माता-पिता। लेकिन, हमारी मदद कर पाने में, इन सभी लोगों की योग्यताएँ सीमित होती हैं। हम अपने माता-पिता या भाई-बहनों पर ज़्यादा बोझ नहीं डाल सकते, क्योंकि उनकी अपनी मुश्किलें होती हैं। और हमारे सभी मित्रों के पास हमेशा हमारी मुश्किलों के बारे में सुनने का समय नहीं होता। लेकिन हमें किसी मनुष्य की ओर फिरने की कोई ज़रूरत नहीं है। हम अपने स्वर्गीय पिता की तरफ फिर सकते हैं।
यिर्मयाह 17:5-8 कहता है,
“प्रभु-यहोवा यूँ कहता है, ‘श्रापित है वह व्यक्ति जो मनुष्य पर भरोसा रखता है... धन्य है वह मनुष्य जो यहोवा पर भरोसा रखता है और जिसका भरोसा यहोवा ही है। क्योंकि वह उस वृक्ष के समान होगा जो नदी के किनारे लगाया गया हो और जिसकी जड़ें जल तक फैली हों; जब गर्मी पड़ेगी तो उसे कुछ भय न होगा लेकिन उसके पत्ते हरे-भरे रहेंगे; और सूखे के वर्ष में भी उसे कुछ चिंता न होगी और वह निरन्तर फलता रहेगा।”
एक आशिषित जीवन वह है जिसमें हम किसी मनुष्य का सहारा नहीं लेते, बल्कि अपने पिता के रूप में स्वयं परमेश्वर का सहारा लेते हैं। तब हम कभी सूखे हुए नहीं होंगे। तब हम पूरी तरह सुरक्षित रहेंगे।
यीशु ने यूहन्ना 14:17,18 में हमसें कहा है कि जब एक बार वह पवित्र आत्मा को हममें रहने के लिए भेज देगा, तो फिर हम कभी अनाथ नहीं होंगे, क्योंकि तब स्वयं परमेश्वर हमारा पिता होगा।
यीशु ने कहा है कि जब हम प्रार्थना करें तो हमें परमेश्वर को अपने पिता के रूप में सम्बोधित करना है।
जब इस अद्भुत सत्य ने मुझे जकड़ लिया, कि स्वर्ग में मेरा एक प्रेमी पिता है, तो मेरी सारी असुरक्षाएं दूर होनी शुरू हो गईं।
पुरानी वाचा में, लोग परमेश्वर को सिर्फ यहोवा के रूप में जानते थे, और वे उसके सम्मुख एक आदर-युक्त भय से थरथराते रहते थे। लेकिन अब, अगर हमने वास्तव में अपने पापों से मन फिरा लिया है और यीशु को अपने जीवन का प्रभु बना लिया है, तो हम परमेश्वर को अपने पिता के रूप में जानेंगे।
जब हम परमेश्वर की संतान बन जाते हैं, तो हमारे लिए विशेषाधिकार और उत्तरदायित्व दोनों होते हैं। हमारे पास यह विशेषाधिकार होता है कि हम परमेश्वर को अपने पिता के रूप में जान सकते हैं। और हमारा उत्तरदायित्व (जि़म्मेदारी) यह है कि हमें अपने जीवन पर उसे पूरा अधिकार देना होता है।
हमें अपने स्वर्गीय पिता से बहुत सी बातें सीखने की ज़रूरत होती है। यशायाह 30:30 में हम यह पढ़ते हैं,
“यहोवा अपनी प्रतापी वाणी सुनाएगा।”
इस वचन को हमारे जीवनों में लागू करते समय, ऐसा हो कि हमारे बच्चे उस प्रेम-भरे अधिकार को जानें जो हमारा उनके माता-पिता के रूप में है।
हमारा पिता हमारा मार्ग=दर्शन करता है। भजन 32:8 में, वह कहता है,
“मैं तुझे बुद्धि दूँगा, और जिस मार्ग में तुझे चलना है उसमें तेरी अगुवाई करूँगा।”
और यशायाह 30:21 में वह कहता है,
“जब कभी तुम दाएं या बाएं मुड़ने लगो, तो तुम्हारे कान पीछे से यह आवाज़ सुनेंगे, ‘मार्ग यही है, इसी पर चलो।’”
जब हम इसे हमारे जीवनों में लागू करते हैं, तो हम भी अपने बच्चों का सही मार्ग-दर्शन करने की ज़रूरत को महसूस करते हैं।
जब हम नाकाम हो जाते हैं, तो हमारा पिता हमें क्षमा करता है। हमें भी अपने बच्चों और दूसरों को क्षमा करने में देर नहीं लगानी चाहिए।
हमारा पिता हम पर दया करता है। भजन संहिता 103:13 में हम पढ़ते हैं, “जैसे पिता अपने बच्चों पर दया करता है, वैसे ही यहोवा उन पर दया करता है जो उससे डरते हैं। क्योंकि वह हमारी सृष्टि को जानता है; उसे याद रहता है कि हम धूल ही हैं।”
हमें भी अपने बच्चों के साथ कठोरता का व्यवहार करने वाला नहीं बल्कि उन पर दया करने वाला होना चाहिए।
हमारा पिता हमारे साथ उसके वचन और उन हालातों द्वारा बात करता है जिनका हम सामना करते हैं। और, जैसा कि हम इब्रानियों 12:7-10 में पढ़ते हैं, वह हमारी भलाई के लिए हमारी ताड़ना करता है और हमें अनुशासित करता है। हमारा पिता प्रेमी है और कठोर भी है। हमें भी अपने बच्चों को हमारे दिशा-निर्देशों और उन हालातों द्वारा सिखाना चाहिए जिनका सामना वे करते हैं। और हमें भी उनके बर्ताव करते समय प्रेमपूर्ण और कठोर होना चाहिए।
हमारा पिता हमेशा नियमित रहता है और हमेशा अपनी प्रतिज्ञाओं को पूरा करता है। यह एक और ऐसी बात है जो हमें अपने पिता से सीखने की ज़रूरत है - अपने बच्चों से किए हुए वादे पूरा करना।
हम अपने स्वर्गीय पिता के साथ बात कर सकते हैं और उसे वह हरेक बात बता सकते हैं जो हमें परेशान करती है- हमारे डर, हमारी कमज़ोरियाँ, हमारी नाकामियाँ, और हमारी मनोकामनाएँ। हमें इस जगत में किसी बात से भयभीत होने की ज़रूरत नहीं है। यीशु ने अनेक बार अपने चेलों से यह कहा,
“भयभीत न हो, तुम्हारा स्वर्गीय पिता तुम्हारी चिंता करता है!”
हमारे बच्चे उनकी आशंकाओं और समस्याओं के बारे में हमें बताने के लिए अपने आपको हमेशा आज़ाद महसूस करने वाले होने चाहिए।
ऐसा प्रेमी और सर्व-शक्तिशाली पिता होना कितने बड़े विशेषाधिकार की बात है। हम उसका आदर करें, सम्मान करें, उससे प्रेम करें, उसका आज्ञा-पालन करें और सिर्फ प्रसन्न करने के लिए ही अपने जीवन बिताएं।
यूहन्ना 17:3 में, हम यह पढ़ते हैं कि परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप में जानना ही अनन्त जीवन है - ख़ास तौर पर यह जानना कि वह हमें उतना ही प्रेम करता है जितना वह यीशु से करता है (यूहन्ना 17:23)। यह एक अद्भुत सत्य है। हमारा स्वर्गीय पिता पक्षपाती नहीं है। उसने जो कुछ यीशु के लिए किया है, वही वह हमारे लिए भी करेगा। जैसे उसने यीशु की देखभाल की थी, वैसी ही वह हमारी भी देखभाल करेगा। माता-पिता होते हुए, हमें भी अपने बच्चों के बीच में किसी तरह कोई भेदभाव करने वाला नहीं होना चाहिए।
जब हम इस अद्भुत सत्य को जान लेते हैं कि हमारा पिता हमें उतना ही प्रेम करता है जितना वह यीशु से करता है, तो हम अपनी असुरक्षा की भावनाओं से मुक्त हो जाएँगे, और फिर हम अपने जीवन की चुनौतियों का दृढ़ता से सामना कर सकेंगे। जैसे-जैसे समय गुज़रता रहेगा, हम अपने पिता को एक ज़्यादा घनिष्ठ रूप में जान सकेंगे, और उस पर ज़्यादा-से-ज़्यादा निर्भर रहना सीख सकेंगे। तब, कुछ हालातों के एक अलग ही तरह का मोड़ ले लेने और हमें समझ में न आने पर भी, हमारे लिए उसकी बुद्धि में अपना भरोसा बनाए रखना आसान हो जाएगा। हमें पूरा यक़ीन होगा कि वह जो कुछ भी हमारे जीवन में होने देता है, अंततः वह हमारे लिए भला ही होगा। हम उसमें यह भरोसा रख सकते हैं कि वह हमारी मुश्किलों को हल कर देगा। फिर हम उसे एक परमेश्वर के रूप में नहीं देखेंगे जो हमें दण्डित करना चाहता है, बल्कि एक ऐसे पिता के रूप में जो हमारी मदद करना चाहता है।
हमारा स्वर्गीय पिता बेहतर माता-पिता होने में हमारी मदद कर सकता है।
अपने पति के साथ एकता में रहने का महत्व वह दूसरा सत्य है जिसने मेरे वैवाहिक जीवन में मेरा मार्ग-दर्शन किया है। यूहन्ना के सुसमाचार में, ऐसे अनेक पद हैं जो यह बताते हैं पिता और यीशु एक हैं।
यूहन्ना 17:21 में, यीशु हमें बताता है कि उसकी इच्छा यही है कि जैसे पिता और पुत्र एक हैं, वैसे ही हम भी आपस में एक हों।
अगर हम इस बात को हमारे वैवाहिक जीवन में लागू करें, तो यह ज़रूरी है कि हम अपने पतियों के साथ एकता के एक मज़बूत रिश्ते में जुड़े रहें। इन दिनों में, शैतान अनेक परिवारों में से एकता को ख़त्म कर रहा है। परिवार टूट कर बिखर रहे हैं। इसलिए हमें सचेत और सतर्क रहने की ज़रूरत है।
अनेक पत्नियाँ अपने पतियों से ज़्यादा उनके माता-पिता और भाई-बहनों के साथ जुड़ी रहती हैं। यह भी एक कारण है कि उन्हें अपने वैवाहिक जीवनों में अनेक मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। अगर हमारे पतियों के साथ हमारी एकता मज़बूत नहीं होगी, तो शैतान बहुत आसानी से हमारे घरों में घुस आएगा। जब माता-पिता एक नहीं होते, तो बच्चे असुरक्षित महसूस करते हैं, और यह उनके अनियमित खाने-पीने, बुरे व्यवहार, सही तरह से सो न पाने, आदि जैसी बातों में प्रदर्शित होने लगता है।
यूहन्ना 1:1 में, हम यह पढ़ते हैं कि यीशु आदि में परमेश्वर के साथ था, और वह स्वयं ही परमेश्वर था। यह एक ऐसी बात है जो हमारी सीमित सोच-समझ में नहीं समाती है। परमेश्वरत्व के तीनों व्यक्तियों में एक ऐसी गहरी और मज़बूत एकता है जिसे हम पूरी तरह स्वयं परमेश्वर को देखने के बाद ही समझ सकेंगे। यह एकता बहुत मूल्यवान है। यीशु ने यूहन्ना अध्याय 17 में यह प्रार्थना की थी कि पिता हमें उस एकता की एक झलक दिखा दे कि हममें भी ऐसी एकता हो सके।
जब परमेश्वर एक पुरुष और एक स्त्री को विवाह के सम्बंध में जोड़ता है, तो उसकी यह इच्छा होती है कि वे एक हों। जिसे परमेश्वर ने जोड़ा है, उसे कोई मनुष्य अलग न करे।
आमोस 3:3 में हम पढ़ते हैं, “अगर दो व्यक्ति आपस में सहमत न हों, तो क्या वे साथ-साथ चल सकते हैं?”
मत्ती 18:18,19 में हम यह पढ़ते हैं कि जब दो विश्वासी एकमत हो जाते हैं, तो वे शैतान के कामों को बाँध सकते हैं और उन्हें मुक्त कर सकते हैं जिन्हें उसने बाँध रखा है। यह बात अपने घर की मुश्किलों के लिए प्रार्थना कर रहे एक पति-पत्नी पर भी लागू हो सकती है। शैतान यह जानता है कि जब एक पति और पत्नी एकमत हो जाते हैं, तो वहाँ सामर्थ्य होती है, क्योंकि तब उनके बीच में प्रभु मौजूद रहता है (मत्ती 18:19,20)। इसलिए वह इस एकता को तोड़ने की हर सम्भव कोशिश करता है।
यह कितने बड़े सौभाग्य की बात है कि एक पति और पत्नी के रूप में हम भी उस एकता का थोड़ा स्वाद ले सकते हैं जो यीशु और उसके पिता की थी। यीशु नीचे पृथ्वी पर इसलिए ही आया था कि वह हमारे घर-परिवारों में एक ऐसी ही एकता दे सके। यह हमारा जन्माधिकार है। हमारे मन इसकी गहराई नहीं नाप सकते, लेकिन यह सम्भव है।
एक परिवार में एकता-न-होने के कुछ कारण क्या हो सकते हैं? एक पति और पत्नी की पारिवारिक पृष्ठभूमि, उनकी संस्कृति, उनके पालन-पोषण के फर्क और अलग नज़रियों की वजह से उनमें मतभेद हो सकते हैं। दो लोगों के एक-दूसरे से भिन्न होने के बावजूद, परमेश्वर की कृपा दो लोगों को एक बना सकती है।
मैंने प्रभु से कहा कि वह मेरे वैवाहिक जीवन में इस बात को एक सत्य बना दे, क्योंकि मैं यह नहीं चाहती थी कि मेरे पति और मेरे बीच आई किसी दूरी की वजह से हमारे जीवनों में लड़ाई-झगड़े, अप्रसन्नता और अकेलापन हो। इसलिए मैंने प्रभु से कहा कि वह मुझे मेरे पति के साथ इस तरह एकता में ले आए कि फिर हमारे बीच की भिन्नताओं से मुझे कोई फ़र्क न पड़े। मैं अपने वैवाहिक जीवन में ऐसी एकता के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार थी। मैंने इसे अपना लक्ष्य बना लिया।
मनुष्य होते हुए, हमारे भीतर यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि ख़ुद हमारी ग़लती होते हुए भी हम दूसरों पर ही दोष लगाते हैं। यह एक वैवाहिक सम्बंध में भी हो सकता है। उस समय हमें यह याद रखना चाहिए कि हम उसे अलग कर रहे हैं जिसे परमेश्वर ने जोड़ा है। परमेश्वर की इच्छा यह है कि हम एकता में रहें, इसलिए हमें उस एकता को बनाए रखने के लिए जो हो सकता है वह सब करना चाहिए।
हम प्रभु से कहें कि वह एक-दूसरे के प्रति धीरज रखने और एक-दूसरे को क्षमा करने में हमारी मदद करे, वैसे ही जैसे प्रभु ने हमारे प्रति धीरज रखा है और मसीह में हमें क्षमा किया है (इफिसियों 4:2,32)।
एक-दूसरे पर संदेह करना एक और ऐसी बात है जो इस एकता को भंग कर सकती है। इसलिए, इससे सचेत रहें। और याद रखें कि हमारे ज़्यादातर संदेह निर्मूल ही होते हैं।
अगर बीते समय में आपके कुछ पुरुष मित्र रहे हैं, तो उन सभी पुरानी बातों की स्मृतियों को मिटा दें और उन्हें दोबारा फिर कभी याद न करें। और फेसबुक आदि द्वारा उन पुराने सम्बंधों को दोबारा कभी पुनःस्थापित न करें। शुरू-शुरू में ऐसा लग सकता है कि इसमें कोई नुक़सान नहीं है। लेकिन आप व्यर्थ ही स्वयं को ग़ैर-ज़रूरी परीक्षाओं में डाल रही होंगी।
यह याद रखें कि आपके सगे-सम्बंधी आपसे दूर रहते हुए भी आपको उनके वश में रखने की कोशिश कर सकते हैं; इससे आपके पति और आपके बीच एक दूरी पैदा हो सकती है। ऐसा कभी न होने दें।
कभी-कभी धन, भौतिक वस्तुएँ, और पार्थिव लक्ष्य एक पति और पत्नी के बीच फूट डाल देते हैं। इसलिए अपने जीवन की प्राथमिकताओं को सही रखें।
हमारा पति के साथ एकता में रहना एक ऊँचा लक्ष्य है, लेकिन अगर हम दृढ़ होकर इसे हासिल करना चाहें, तो यह सम्भव हो सकता है, क्योंकि हमारी मदद करने के लिए परमेश्वर हमारे साथ है।
जब कभी आपके पति और आपके बीच में कोई मामूली समस्या पैदा हो जाए, तो उसे आपके हाथ में चुभे किसी छोटे से काँटे या फाँस के रूप में देखें। अगर आप उसे वहीं रहने देंगे, तो वह एक ज़ख्म बन जाएगा। शीघ्र ही प्रभु की तरफ फिर जाएँ, उससे क्षमा माँग लें, और फिर से अपने पति के साथ एकता बनाए रखने पर अपना ध्यान केन्द्रित कर दें। अपनी भूल स्वीकार कर लें, अपने पति से क्षमा माँग लें, अपना मन फिरा लें, और अपने पूरे हृदय से उसके साथ एकता में बने रहने की खोज में लगी रहें। स्वयं अपना न्याय करने और स्वयं को शुद्ध करने का यही अर्थ है। शैतान एक मामूली सी ग़लतफहमी को भी आपके पति और आपके बीच एक दरार पैदा करने के लिए इस्तेमाल करेगा। अगर हमें अपने पति के साथ एकता बनाए रखनी है, तो हमें कड़ी मेहनत करते हुए हर समय बहुत सचेत रहना होगा। फिर जब आप अपने जीवन के अंतिम दिनों में पहुँचेंगी, तब आपके अन्दर कोई पछतावा नहीं होगा।
जब कभी घर की किसी बात में आपके पति और आपके बीच में कोई मतभेद हो जाए, तो एक-दूसरे के साथ एक परिपक्व रूप में बातचीत करें। और अगर आपका पति उसकी बात पर अडिग रहना चाहता हो, तो अपना विचार बदलने के लिए तैयार रहें। लेकिन यह भी हो सकता है, कि आपके बीच बातचीत हो जाने के बाद, वह उसका विचार बदल ले या आप उस मुश्किल से निपटने का कोई नया तरीक़ा पा लें। लेकिन हमें कोई वाद-विवाद किए बिना, सारे मतभेदों से एक परिपक्व तरीक़े से निपटना चाहिए। प्रभु विभिन्न स्थितियों के बारे में हमारे नज़रियों की हदें बढ़ाने के लिए भी हमारे मतभेदों को इस्तेमाल कर सकता है।
कलीसिया के मामले प्राचीनों का कार्यक्षेत्र होता है। पत्नियों के रूप में, हमें उन मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। हम अपने पतियों को एक स्त्री के दृष्टिकोण से अवगत करा सकती हैं, लेकिन यह ध्यान रखें कि आप कलीसिया में “सहायक-प्राचीन” न बन जाएँ। प्रकाशितवाक्य 2:20 में, हम प्रभु को प्राचीन की पत्नी को ईज़ेबेल - एक झूठी नबिया कहते हुए पाते हैं जो कलीसिया को नुक़सान पहुँचा रही थी।
जिस कलीसिया में सशक्त परिवार होंगे, वह एक सशक्त कलीसिया होगी। ऐसी कलीसिया के खिलाफ अधोलोक फाटक प्रबल न हो सकेंगे क्योंकि उसके परिवार एकता में जुड़े हुए होंगे। इसलिए हमें कलीसिया में एकता बनाए रखने के लिए हर सम्भव प्रयास करना चाहिए। ऐसी एकता बनाने में सालों लग जाते हैं, लेकिन हमें दिन-प्रतिदिन इस दिशा में काम करते हुए आगे बढ़ते रहना चाहिए। परमेश्वर अपने पवित्र आत्मा के द्वारा इसे हासिल करने में हमारी मदद करेगा। आराधना-भवन के निर्माण की कहानी याद रखें। यह हो सकता है इसे पूरा करने में सालों लग जाएं, लेकिन यह ज़रूर पूरा होगा।
हमें हमेशा ही सब बातें हमारे पतियों के नज़रिए से नज़र नहीं आएंगी। लेकिन जब कभी हमारा उनके साथ मतभेद हो, तो यह ध्यान रखें कि आप इन मतभेदों के बारे में अपने बच्चों या दूसरों के सामने नहीं बल्कि अकेले में बात करें। ऐसी बातें करने का सबसे अच्छा समय बच्चों के सो जाने के बाद ही होता है, और जब दूसरा कोई व्यक्ति भी आसपास नहीं होता है। और जब हम अपने मतभेदों के बारे में बात करें, तो यह हम एक परिपक्व तरीक़े से करें।
जब पति और पत्नी के बीच अनबन होती है, तो बच्चे इसे भाँप लेते हैं, और फिर वे अपने आपको असुरक्षित महसूस करने लगते हैं। तब वे हमसे उन पर ज़्यादा ध्यान देने की माँग करने लगेंगे और बहुत सी दूसरी बातों में भी दुराग्रही हो जाएँगे।
जब भी कोई बात आपको परेशान करने लगे, तब एक सबसे अच्छा नियम ख़ामोश हो जाना है। परमेश्वर से कहें कि इससे पहले कि आप कुछ बोलें, वह शाँत रहने और आपके हृदय की बेचैनी को दूर करने में आपकी मदद करे।
जब आपके बच्चों के विवाह हो जाएंगे, तो अच्छा यही है कि आप उन्हें लगातार सलाह देते रहने की बजाय, उन्हें स्वयं ही उनके घर-परिवार चलाने दें। इस तरह, वे आपका आदर करेंगे। आपको उनके बच्चों - अपने नाती/पोतों के साथ बर्ताव करने में भी बहुत समझदारी की ज़रूरत होगी। यह याद रखें कि आपको पहले ही अपने तरीक़े से बच्चों का पालन-पोषण करने का मौक़ा मिल चुका है। अब आपके हस्तक्षेप के बिना उन्हें अपने तरीक़े से उनके बच्चों का पालन-पोषण करने दें। इस तरह, आप उनके साथ प्रेम और एकता में बने रह सकेंगे। लेकिन जब भी उन्हें आपकी मदद की ज़रूरत हो, तो उनके लिए उपलब्ध रहें। उन्हें सिर्फ तभी अपनी सलाह दें जब वे आपकी सलाह माँगें।
मेरे पति के अधीन रहना वह तीसरा महत्वपूर्ण सिद्धान्त था जिसे देखने के लिए प्रभु ने मेरी आँखें खोली थीं।
लोग “अधीनता” शब्द नहीं सुनना चाहते, क्योंकि वे सोचते हैं कि इसका अर्थ है कि आप हमेशा अपने पति की बात मानें और सिर्फ वही करें जो वह चाहता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है। मैं अधीनता को एक ऐसी बात के रूप में देखती हूँ जिसमें यीशु उसके पूरे जीवन-भर अपने पिता के अधीन रहा, और जो कुछ उसके पिता ने उससे करने के लिए कहा उसने वही किया। वह 30 साल तक युसुफ और मरियम के भी अधीन रहा जो सिद्ध नहीं थे, क्योंकि उसके पिता ने उसे ऐसा करने के लिए कहा था। वह अपने पिता की इच्छा के इसलिए अधीन रहा क्योंकि वह अपने पिता से असीम प्रेम करता था। हममें भी वही स्वभाव होना चाहिए जो यीशु में था (फिलिप्पियों 2:5)।
फिलिप्पियों 2:5-11 में, हम यह पढ़ते हैं कि यीशु ने पिता के तुल्य होने के अपने अधिकार को अपने वश में रखने की वस्तु न समझा। उसने अपने अधिकार को स्वेच्छा से त्याग दिया था। और ऐसा नहीं था कि अपना अधिकार छोड़ने के बाद, वह सिर्फ एक स्तर नीचे उतर कर एक स्वर्गदूत बन गया था। वह और भी नीचा होकर एक मनुष्य बन गया था। और फिर, वह और नीचा होकर एक दास बन गया था। एक दास वह होता है जिसके पास कोई अधिकार नहीं होता, और जो उसके साथ होने वाले व्यवहार पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। पहली शताब्दी में दासों को भूखा रखा या जान से मारा जा सकता था, और उनकी रक्षा के लिए कोई क़ानून नहीं था। इसके बाद, यीशु और भी नीचा हो गया, एक अपराधी गिना गया, और सूली पर हमारे लिए मारा गया। इसमें हम जैसे पाप में पड़े मनुष्यों के लिए यीशु के अद्भुत प्रेम को देखते हैं।
अगर हमारे प्रभु ने इस तरह से नीचा हो जाने का चुनाव किया था, तो हमें भी अपने ऊँचे स्थानों से नीचे आ जाना चाहिए। हम यीशु के उदाहरण से ही अधीनता और दीनता सीखते हैं।
शैतान को स्वर्ग से उसके घमण्ड और विद्रोह की वजह से ही निकाला गया था। लेकिन यीशु ने उनके पूरे पार्थिव जीवन में पिता की अधीनता में रहने और अंततः सूली की मृत्यु सह लेने द्वारा हमें बचाया है। इस तरह, उसने हमारे लिए वह रास्ता तैयार कर दिया है जिसमें हम स्वर्ग में उसके पिता के साथ अनन्त सहभागिता कर सकते हैं। अधीनता में ऐसी शक्ति है।
1 पतरस 3:1-4 में, बाइबल हमें यह बताती है कि एक ऐसी स्त्री जिसमें एक नम्र व शांत आत्मा है, वह अपने अविश्वासी पति को भी एक शब्द बोले बिना प्रभु की तरफ फेर सकती है। परमेश्वर अधीनता में रहने वाली एक पत्नी के द्वारा अद्भुत काम कर सकता है।
और, अगर परमेश्वर ने आपको एक अच्छा पति दिया है, तब तो आनन्दपूर्वक उसके अधीन हो जाना संसार में सबसे आसान काम होगा।
हमें अधीनता को हम पत्नियों के लिए परमेश्वर की एक आज्ञा के रूप में भी देखना चाहिए (इफिसियों 5:22)। जब हम परमेश्वर के वचन में यह आज्ञा पाते हैं, और अगर हम परमेश्वर का भय मानने वाली होंगी, तो हम परमेश्वर से कोई सवाल किए बिना वही करेंगी। बाइबल में दी गई हरेक आज्ञा के साथ परमेश्वर की मदद की भी प्रतिज्ञा है। इसलिए, वह इस मामले में भी हमारी मदद करेगा। तब हमें जानेंगे कि अधीनता में रहना एक बहुत ही आसान बात है।
कुछ लोग हमें दया का पात्र समझते हुए यह कह सकते हैं, “बेचारी मसीही पत्नियाँ! यह कितने अफसोस की बात है कि आपको अपने पतियों के अधीन रहना पड़ता है। आप ऐसा कैसे कर सकती हैं? आप ख़ामोशी से क्यों सब सहती हैं और अपने हक़ के लिए अपनी आवाज़ क्यों नहीं उठाती हैं?”
लेकिन उन्हें यह बात समझ नहीं आती कि संसार में रहते हुए परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना सबसे ज़्यादा ख़ुशी की बात होती है। हमें इस पृथ्वी पर यीशु की तरह जीवन बिताने से ज़्यादा ख़ुशी और दूसरी किसी बात में से नहीं मिल सकती।
“जो कहता है कि मैं उसमें बना रहता हूँ, तो वह स्वयं भी वैसा ही चले जैसा वह चलता था” (1 यूहन्ना 2:6)।
हम पत्नियों के पास कितना ज़बरदस्त मौक़ा है। हम एक ऐसा काम कर सकती हैं जो यीशु ने उसके पूरे जीवन के दौरान किया था - एक ऐसा जीवन जीना जो उसके पिता की इच्छा के प्रति पूरे समर्पण का जीवन था। जब हम एक ऐसा जीवन जीना चाहते हैं जो प्रभु को भाता है, तो वह हमें ऐसी शांति और आनन्द देता है जो यह संसार कभी नहीं दे सकता। जब-जब मैंने ऐसा जीवन जीना चाहा, तब-तब मुझे इसका और भी ज़्यादा अनुभव हुआ है।
मेरा विवाह हुए (2020 तक) 52 साल हो चुके हैं, और मैं पूरी ईमानदारी के साथ यह कह सकती हूँ कि एक विवाहित स्त्री के रूप में जो सबसे प्रसन्नचित्त जीवन मैं जी सकती हूँ, वह परमेश्वर के नियमों के पालन का जीवन है, जिसमें मेरे पति की अधीनता में रहने का नियम भी शामिल है। मुझे बस सिर्फ इस बात का अफसोस है कि कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि मैंने उस तरह से अधीन नहीं हुई थी जैसे मुझे होना चाहिए था। पवित्र आत्मा की उस सामर्थ्य के लिए प्रभु की स्तुति हो जो हमें ऐसा जीवन जीने की योग्यता देता है। और प्रभु की इस बात के लिए भी स्तुति हो कि हम जब कभी चूकते और उसे निराश कर देते हैं, वह तक भी हमें सहर्ष क्षमा कर देता है।
1 पतरस 3:1-6 में, पवित्र आत्मा हमें सारा का उदाहरण देता है जिसने प्रभु में अपना यह भरोसा बनाए रखा था कि वह उसके पति अब्राहम का मार्ग-दर्शन करेगा। इसलिए वह उसके पीछे-पीछे चलती रही। कभी-कभी ऐसा करना उसके लिए मुश्किल रहा होगा। जैसे, उस समय जब अब्राहम ने उसे अपनी बहन कहते हुए उसके जीवन को ख़तरनाक ढंग से एक मूर्तिपूजक राजा के हाथों में सौंप दिया था। लेकिन परमेश्वर ने उसकी रक्षा की। वही परमेश्वर हमारी भी रक्षा करेगा। और अगर सारा ने परमेश्वर में अपना भरोसा न बनाए रखा होता, तो वह समय उसके लिए कितना मुश्किल होता जिसमें उसने यह पता चला था कि परमेश्वर ने अब्राहम से उसके बेटे को वेदी पर भेंट चढ़ाने के लिए कहा है? तब वह अब्राहम के लिए उस आज्ञा का पालन करना बड़ी मुश्किल पैदा कर देती।
जब हम अपने पतियों के अधीन हो जाती हैं, तब असल में हम प्रभु में अपना यह भरोसा व्यक्त करती हैं कि वह हमारे पति की शीर्षता द्वारा हमारे परिवार की अगुवाई करेगा।
1 कुरिन्थियों 11:3 में परमेश्वर का अधिकार-क्रम इस तरह दिखाया गया हैः
“हरेक पुरुष का सिर मसीह है, और स्त्री का सिर पुरुष है, और मसीह का सिर परमेश्वर है।”
हालांकि यीशु और पिता एक-दूसरे के बराबर हैं, फिर भी यीशु ने पिता के अधीन होना स्वीकार किया। इसी तरह, हम पत्नियाँ हालांकि अपने पतियों के बराबर हैं, फिर भी हम उनके शीर्षाधीन रहना स्वीकार करती हैं, क्योंकि यह परमेश्वर का अनुक्रम है। जब हम परमेश्वर के अनुक्रम के अनुसार चलते हैं, तब हम अपने घरों में परमेश्वर की आशिष की भी अपेक्षा कर सकते हैं।
यक़ीनन, हम निर्भय होकर अपने मत अपने पतियों के सम्मुख व्यक्त कर सकती हैं। लेकिन जब अंतिम फैसला लेने की बात हो, तो हमारा यह भरोसा होना चाहिए कि प्रभु हमारी हरेक बात को हटाते हुए हमारे पति को सही फैसला लेने वाला बनाएगा। अगर मेरा मत अलग होता है, फिर भी मैं अपने पति को ही अंतिम फैसला लेने देती हूँ। मेरे बच्चों के लिए यह देखना भला है कि मैं अपने घर में परमेश्वर के अनुक्रम का आदर करती हूँ।
इफिसियों 5:22,32 में हमें बताया गया है कि एक पति का उसकी पत्नी से ऐसा सम्बंध है जैसे मसीह का उसकी कलीसिया से है। वहाँ इस बात को एक बड़ा रहस्य कहा गया है। जब एक पत्नी अपने पति के अधीन होती है, तो असल में वह वह संसार के समक्ष कलीसिया के मसीह के अधीन होने के सत्य को प्रदर्शित कर रही होती है। इस तरह, एक ईश्वरीय घर असल में कलीसिया का एक छोटा स्वरूप होता है। जब हम कहीं पर मुक्ति की प्रतिमा (स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी) या ताज महल की छोटी सी प्रतिमा देखते हैं, तो उसे देखकर हम जान लेते हैं कि वे इमारतें कैसी नज़र आती होगी। फिर हमारे अन्दर उन्हें प्रत्यक्ष देखने की भी इच्छा जागृत होगी। इसी तरह, हमारा घरेलू जीवन भी लोगों को कलीसिया की तरफ आकर्षित करने वाला होना चाहिए।
1 पतरस 3:4 में, पत्नियों को यह उपदेश दिया गया है कि वे नम्र व शांत मन वाली हों क्योंकि इसका परमेश्वर की नज़र में बड़ा मूल्य है। और यीशु ने हमसे कहा है कि हम उससे नम्र और दीन होने का पाठ सीखें (मत्ती 11:28,29)।
नीतिवचन 31:36 में हम एक ऐसी भक्त स्त्री के बारे में पढ़ते हैं जिसकी जीभ पर कोमल शिक्षा रहती है। पत्नियों के रूप में, हमें अपने पतियों से आदर-पूर्वक बात करने की आदत डालनी चाहिए। हम जब भी ऐसा करने से चूक जाएं या कठोर शब्दों में ऐसी बात करें जो मसीह-समान नहीं है, तो हम क्षमा माँग लें। अनेक बच्चे अक्सर अपनी माँ से ही अभद्र भाषा बोलना सीखते हैं।
हमें अपने बच्चों को एक सबसे ज़रूरी पाठ माता-पिता की आज्ञापालन करना सिखाना होता है (इफिसियों 6:1)।
बच्चों की माँ होते हुए, हम अपने पतियों के प्रति हमारे मनोभावों द्वारा उन्हें आज्ञापालन करना सिखा सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, जब उनके पिता घर से बाहर गए हों, और वे हमें पिता द्वारा घर के लिए ठहराए गए किसी नियम को भंग करता हुआ देखें, तो यह देखकर वे भी एक दिन विद्रोह करने का दुस्साहस कर सकते हैं। लेकिन जब हम अपने पतियों का सम्मान करते हैं, तो हमारे बच्चे हमारा और दूसरों का भी सम्मान करना सीखेंगे।
हमें अपने बच्चों को हमेशा सच बोलना सिखाना चाहिए। अगर ऐसा समय होगा जब हम सच नहीं बोल रहे होंगे, तो हमारे बच्चे आसानी से यह जान लेंगे। एक छोटी उम्र में भी बच्चे बेईमानी को परख लेते हैं।
हम अपने बच्चों को साफ-सुथरा और व्यवस्थित रहना भी सिखाएँ। अगर हम व्यवस्थित होंगे और अपने घर को व्यवस्थित रखेंगे, तो हमारे बच्चे भी व्यवस्थित रहना सीखेंगे। जब वे अपने खिलौनों से खेल चुकें, तो उन्हें उनके खिलौनों को व्यवस्थित तरीक़े से रखना सिखाएं।
हमें अपने बच्चों को यह भी सिखाएं कि कुछ भी बर्बाद करने वाले न हों। खाने के समय, उन्हें पहले थोड़ा खाना ही दें। फिर जब वे उसे खा लें तो वे दोबारा ले सकते हैं। इस तरह, वे उनकी प्लेट में रखा सारा खाना ख़त्म करना सीखेंगे कि खाना बर्बाद न हो।
अगर हम स्वयं समय के उपयोग में, बातचीत करने में, सब कुछ सुव्यवस्थित तरीक़े से रखने में, और खाने के मामले में अनुशासित होंगे, तो हमारे बच्चे भी अनुशासन में रहना सीखेंगे।
हमारे बच्चों को अपनी चीजों दूसरों के साथ बाँटना भी सीखना चाहिए कि वे स्वार्थी न हो जाएँ। जब हम स्वयं दूसरों का ख़्याल रखने वाले होंगे, तो हमारे बच्चे भी दूसरों का ख़्याल रखने वाले बन जाएंगे।
संतुष्ट रहना एक और ऐसा मूल्यवान गुण है जो हमें अपने बच्चों को सिखाना चाहिए। बहुत से बच्चे अपने कपड़ों और खिलौनों से संतुष्ट नहीं होते, क्योंकि वे अपनी तुलना ज़्यादा धनवान घरों के बच्चों से करते हैं। आप अपनी जीवन-शैली द्वारा उन्हें संतुष्ट रहने का मूल्य सिखाएं - और फिर वे आपके उदाहरण को हमेशा याद रखेंगे।
जब भी हम बच्चों के पालन-पोषण की बात करते हैं, तो लोगों के मन में जो सबसे पहला विचार आता है, वह उन्हें अनुशासित करने का मामला होता है।
हम अपने बच्चों को अनुशासित कैसे करें?
अगर आप कुछ ऐसे सकारात्मक काम करेंगे जैसे उनके साथ समय बिताना, उनसे बातें करना, उन्हें बाइबल की और दूसरी अच्छी कहानियाँ सुनाना, अपनी चीज़ों को अच्छी तरह सम्भाल कर रखना, घर में आपकी मदद करना, तो आप उन्हें एक सकारात्मक रूप में उन्नत कर सकते हैं। तब आपको उन्हें ज़्यादा अनुशासित करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन अगर आप उन्हें अक्सर अकेला छोड़ देंगी क्योंकि आप अपने ही कामों में व्यस्त रहती हैं, तो आप यह पाएँगी कि फिर वे आसानी से किसी भी तरह की मुश्किल पड़ जाएँगे और अंततः बहुत से ग़लत काम करने वाले बन जाएँगे - और फिर उन्हें दण्ड देने द्वारा अनुशासित करना पड़ेगा। इसलिए, अपने बच्चों के साथ समय बिताएं, ख़ास तौर पर उस समय जब वे छोटे होते हैं।
अगर बच्चे आपकी सबसे बड़ी प्राथमिकता हैं, तो आपको उन्हें बार-बार दण्ड देने द्वारा अनुशासित करने की ज़रूरत नहीं होगी।
फिर आप यह जानेंगी कि उनकी किशोरावस्था के समय आने वाले सभी दबावों से आप ज़्यादा अच्छी तरह निपटते हुए सही फैसले ले सकेंगी, क्योंकि आपने उनके बचपन के सालों में एक मज़बूत नींव डाली थी।
दण्ड देने द्वारा अनुशासित करने का सुनहरा नियम यह हैः अपने बच्चों को क्रोधित होकर कभी दण्ड न दें।
अगर आप क्रोधावस्था में अपने बच्चों को पीटेंगी, तो आप उन्हें उनकी ज़रूरत से ज़्यादा दण्ड दे देंगी। अगर आपके बच्चे की देह पर निशान पड़ गए हों, तो आपने उसे ज़रूरत से ज़्यादा पीटा है। मुझे मालूम है कि अपने क्रोध को वश में करना आसान नहीं होता। लेकिन हम प्रभु से उसे वश में रखने और अपने बच्चों को एक ईश्वरीय रूप में अनुशासित करने के लिए मदद माँग सकते हैं।
जब दूसरा कोई भी तरीक़ा काम न करे, पीटाई लगाना सिर्फ तभी हमारा अंतिम विकल्प होना चाहिए। उन्हें कुछ सुविधाओं से वंचित कर देना भी उन्हें अनुशासित करने का एक अच्छा तरीक़ा हो सकता है - जैसे उनके लिए एक ऐसा समय ठहराया जा सकता है जिसमें उनका “(मनमानी का समय) पूरा हो गया है”, और फिर उन्हें चुपचाप एक जगह बैठे रहना है, या उनके बिस्तर में 10-15 मिनट लेटे रहना है। फिर जब वह समय पूरा हो जाए, तो आप उन्हें यह बता सकती हैं कि आपने क्यों उनके लिए ऐसा “समय” ठहराया था।
हम यह भी याद रखें कि बच्चे बहुत जल्दी उन्हें दिए गए निर्देश भूल जाते हैं, और इसलिए हमें उन्हें बार-बार याद दिलाना पड़ता है। एक अनावश्यक रूप में, हम उन्हें यह सोचकर न तो डाँटें और न ही उन पर दोष लगाएँ कि वे भी एक बड़ी उम्र के व्यक्ति की तरह सोचने-समझने वाले हैं।
हममें एक नियमितता भी होनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर, अगर आप उन्हें किसी बात से रोकते हैं, और वे आपकी आज्ञा का उल्लंघन करते हैं, और फिर वे यह देखते हैं कि आप उनके आज्ञा उल्लंघन पर कोई ध्यान नहीं देते, तब आप अनियमितता कर रहे हैं। फिर वे अपने वे ग़लत काम करने जारी रखेंगे। उन्हें यह पता होना चाहिए कि आप उनके आज्ञा-उल्लंघन के बारे में जानती हैं और इसके प्रति आप बहुत गंभीर हैं। जब घर में मेहमान आए हुए होंगे, तो बच्चे हमसे ग़लत फायदा उठाने की कोशिश करेंगे। ऐसे समय में, आपको बच्चों को अलग ले जाकर उनसे बात करनी चाहिए।
हमें अपने बच्चों को उनकी पिछली ग़लतियाँ बार-बार याद नहीं दिलाते रहना चाहिए। प्रभु की दया प्रतिभोर नई होती है - और हमारी दया भी ऐसी ही होनी चाहिए।
नियमों के पालन में हमेशा कठोर न बने रहें। कभी-कभी हमें लचीले होकर, और समझौता करते हुए, ऐसा कहने वाला भी होना चाहिए, “ठीक है, इस बार मैं अनदेखा कर रही हूँ, तुम्हें एक मौक़ा और दे रही हूँ।”
जब कभी मेरे पति घर से बाहर गए हुए होते थे (कभी-कभी पूरे सवा महीने तक), तो अपने बच्चों के साथ मुझे नाना प्रकार के मामलों से निपटना पड़ता था। उनके कुछ आज्ञा-उल्लँघन के मामले गंभीर नहीं होते थे और इसलिए वे उसी समय बातचीत से निपट जाते थे। लेकिन कुछ मामले गंभीर होते थे। इसलिए मैं एक नोट बुक में उनके आज्ञा-उल्लँघन के उन मामलों को लिख लेती थी - ऐसे मामले जिनके बारे में मुझे उनसे बाद में बातचीत करने की ज़रूरत महसूस होती थी। मैं उनसे कह देती थी कि उनके पिता के लौटने पर मुझे उन बातों के बारे में उन्हें बताना होगा। लेकिन मैं यह भी नहीं चाहती थी कि उनमें अपने पिता के आने का एक डर बैठ जाए - मानो कोई पुलिस वाला आकर उनकी जाँच-पड़ताल करने वाला है। मैं चाहती थी कि वे आनन्द के साथ उनके आने की राह देखें, यह जानते हुए कि वे उनके लिए चॉकलेट और दूसरे उपहार लेकर लौटेंगे। इसलिए मेरे पति के लौटने से कुछ दिन पहले ही मैं वह नोट बुक निकाल कर उनसे व्यक्तिगत रूप में बात करती थी, और उनके आज्ञा-उल्लंघन के बारे में उन्हें बताती थी। और फिर मैं उन्हें उनके आज्ञा-उल्लंघन की गंभीरता बताती थी। वे हमेशा ही ये कहते थे कि वे आज्ञा न मानने के लिए शर्मिन्दा थे। तब मैं एक-एक करके उन बातों को रद्द कर देती थी। और अंत में उसमें कुछ भी नहीं बचता था! हालांकि उनमें से कोई भी आज्ञा-उल्लँघन का बहुत गंभीर मामला नहीं होता था, लेकिन फिर भी मैं उनके साथ एक-एक मामले पर चर्चा करती थी क्योंकि मैं चाहती थी वे बाद में उनके जीवन में आज्ञापालन के मामले में गंभीर हो जाएँ।
फिर जब उन्हें पढ़ना-लिखना आ गया, तो उनके आज्ञा उल्लँघन करने पर मैं उस बात को उनसे एक कागज़ पर 20 बार (या 100 बार) लिखने के लिए कहती थी कि वे उस बात में दोबारा आज्ञा-उल्लंघन नहीं करेंगे। इस तरह, मेरी आशा यही थी कि वे उनके आज्ञा-उल्लंघन के कामों को अनदेखा नहीं करेंगे। और इसका एक अतिरिक्त फ़ायदा यह हुआ कि उनकी लिखावट बहुत अच्छी हो गई!
अगर उनकी आज्ञा-उल्लँघन का कोई मामला इतना गंभीर होता था कि उसके बारे में मेरे पति को जानना ज़रूरी हो जाता था, तो जब हम खाने की मेज़ पर बैठे होते थे, तो मैं किसी का भी नाम लिए बिना उस घटना का बयान करती थी! तब मेरे पति उसके बारे में शिक्षा देते थे और वे उनके शब्दों उन्हीं बातों को पुनःस्थापित करते थे जो मैंने उनसे पहली ही की होती थीं। इससे बहुत मदद मिलती थी। मैं अपने घर में अनुशासन बनाए रखना चाहती थी, और यह चाहती थी कि मेरे बच्चे यह जानें कि आज्ञा-उल्लंघन एक गंभीर मामला है। लेकिन मैं एक शिक्षक या न्यायाधीश की तरह कठोर होना नहीं चाहती थी। मैं यह चाहती थी कि वे भी उसी तरह क्षमा का अनुभव पाएं जैसे परमेश्वर ने हमें क्षमा किया है।
कभी-कभी मेरे पति बच्चों को एक दिन क्रिकेट खेलने न जाने द्वारा उन्हें अनुशासित करते थे - और क्रिकेट उनका प्रिय खेल था!
बच्चे एक व्यवस्था के अधीन होते हैं, लेकिन उन्हें हमारे अन्दर से कृपा का अनुभव भी होना चाहिए। अगर हम उन्हें सिर्फ नियमों द्वारा प्रशासित करेंगे, तो बड़े होने पर वे हमसे विद्रोह करने वाले हो सकते हैं। फिर वे घर छोड़कर जाने के समय का इंतज़ार करेंगे कि फिर वे उनकी मनमानी कर सकें। मैं चाहती थी कि मेरे बच्चे हमारे घर से प्रेम करें, और एक क्रूर संसार में उसे अपने लिए एक शरण-स्थान के रूप में देखें, और हमेशा लौटकर हमारे पास, अपने माता-पिता के पास लौटना चाहें।
माता-पिता होते हुए, हमारी सबसे बड़ी ज़रूरत बुद्धि होती है। हमें प्रभु से यह पूछना चाहिए कि हम अपने बच्चों के साथ कहाँ ज़रूरत से ज़्यादा कठोर हुए हैं और कहाँ ज़रूरत से ज़्यादा उदार हुए हैं। ख़ास तौर पर उनकी किशोरावस्था के सालों में, हमें उनके साथ हमेशा बड़ी बुद्धिमानी, धीरज और प्रेम के साथ व्यवहार करना चाहिए।
एक ईश्वरीय घर का निर्माण करने के लिए सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि पति और पत्नी प्रार्थना करें - व्यक्तिगत प्रार्थना और सामूहिक प्रार्थना जिसमें वे सभी बातों के लिए परमेश्वर से मदद माँगें। हम जब भी हो सके, प्रार्थना करें - और यह हम पूरे दिन, अपने हृदय में ख़ामोशी से हर समय कर सकते हैं। हमें उस समय ख़ास तौर पर प्रार्थना करनी चाहिए जब हमारे बच्चे मुश्किलों का सामना कर रहे हों। जब हम अपने पति के साथ एकमत होकर जुड़े होते हैं, तो हमारी प्रार्थनाओं का हमें ज़रूर जवाब मिलता है। मेरे पति को मुझे हमारी प्रार्थनाओं के अद्भुत जवाब मिलने के अनेक अनुभव हुए हैं।
पारिवारिक प्रार्थना को कभी एक ऐसी विधि न बनाएँ जिसमें हमारे बच्चे उसे एक सामान्य दिनचर्या की तरह करने वाले बन जाएँ। ऐसा करना एक नीरस बात बन सकती है और वे उससे तंग आ सकते हैं। यह ज़रूरी है कि वे प्रार्थना को इस रूप में देखने वाले बन जाएँ कि वह एक मुक्त और आनन्दायक रूप में हमारे स्वर्गीय पिता से उसी तरह बात करना है जैसे वे हमसे, अपने माता-पिता से बात करते हैं।
और अंत मेंः जब भी किसी वजह से आपके हृदय में बेचैनी हो - और ऐसा अक्सर हो सकता है - तो प्रभु से कहें कि वह जल्दी ही उस पर जय पाने में आपकी मदद करे और आप शांति पाएँ। अगर आप उससे जल्दी नहीं निपटेंगे तो आपके घर में फूट और अशांति आ जाएगी, और इससे शैतान के लिए आने और गड़बड़ी फैलाने का द्वार खुल जाएगा। और तब सबसे ज़्यादा पीड़ा आपके बच्चों को ही सहनी पड़ेगी। अगर आप अपने बच्चों से प्रेम करते हैं, तो फूट/अनबन से शीघ्र निपट लें।
सिर्फ प्रभु ही एक ईश्वरीय घर बनाने में हमारी मदद कर सकता है। और ऐसे घर का निर्माण करने के लिए वह हमेशा तैयार रहता है - ऐसे घर जहाँ स्वर्ग का पूर्व स्वाद मिलता है।
हम सभी के घर ऐसे ही हों और इसकी सारी महिमा सिर्फ प्रभु को ही मिले।