सुसमाचारों में हम ऐसे तीन ख़मीरों के बारे में पढ़ते हैं जिनके खिलाफ़ यीशु ने लोगों को चेतावनी दी थी।
ये तीन तरह के मसीहियों के प्रतीकात्मक स्वरूप हैं।
राजा हेरोदेस का ख़मीर सांसारिकता था। मरकुस 6:20 में, हम पढ़ते हैं कि हेरोदेस बड़ी प्रसन्नता के साथ यूहन्ना बपतिस्मा का प्रचार सुनता था। लेकिन दो पदों के बाद, हम यह पढ़ते हैं कि वह सलोमी का नृत्य भी उसी प्रसन्नता के साथ देख रहा था (जो शायद अर्धनग्न अवस्था में लुभावनी मुद्राओं और भाव-भंगिमाओं के साथ नाच रही थी)। आज अनेक मसीही भी ऐसे ही हैं। वे रविवार की सुबह एक शक्तिशाली संदेश सुन सकते हैं, और उसी दोपहर को अपने घर में एक अश्लील चलचित्र (मूवी) भी देख सकते हैं। हेरोदेस को यूहन्ना का प्रचार सुनना इसलिए अच्छा लगता था क्योंकि यूहन्ना फरीसियों की तरह नीरस नहीं बल्कि एक जोशीला प्रचारक था। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि जो व्यक्ति एक जोशीले प्रचारक को सुनने से प्रसन्न होता है वह एक आत्मिक मन-मिज़ाज वाला व्यक्ति है। सांसारिक मसीही अक्सर फरीसियों की तरह पाखण्डी नहीं होते। वे सांसारिक मनोरंजनों में सहभागी होते हैं और वे इस वास्तविकता को भी नहीं छुपाते कि वे उसमें आनन्द मनाते हैं।
सदूकियों का ख़मीर मुख्य तौर पर झूठी शिक्षा थी। वे अपनी आस्थाओं में उदारवादी थे। उनका स्वर्गदूतों, या चमत्कारों, या मृतकों के जी-उठने, या आत्मा के संसार में कोई विश्वास नहीं था। आज ऐसे फ्विरामवादी” मसीही भी हैं। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर आज कोई चमत्कार करता है, और वे यह भी नहीं मानते कि मसीहियों के लिए आज पवित्र-आत्मा के अलौकिक दान-वरदान उपलब्ध हैं।
फरीसियों का ख़मीर मुख्य रूप से पाखण्ड था। वे धार्मिक सिद्धान्तों का पालन करने में कट्टरपंथी थे और वे उनके बाहरी जीवन में धर्मी थे। यीशु ने स्वयं इन दोनों क्षेत्रों में उन्हें प्रमाण-पत्र में दिया था (मत्ती 23:3,25)। वे दसवांश देते थे, नियमित प्रार्थना व उपवास करते थे, व्यवस्था की सभी बाहरी आज्ञाओं का पालन करते थे, और सुसमाचार के प्रचार के लिए लम्बी यात्राएँ भी करते थे। आज ऐसे मसीही हैं जो ये सब काम करते हैं लेकिन वे फिर भी उन फरीसियों की तरह हैं।
कुछ मसीहियों में इन तीनों ख़मीरों का मिश्रण हो सकता है।
ऊपर दिए गए वर्णन से कोई यह कल्पना कर सकता है कि यीशु का सबसे ज़्यादा संघर्ष हेरोदेस के अनुयायियों या सदूकियों के साथ हुआ होगा। लेकिन ऐसा नहीं था। उसका सबसे ज़्यादा संघर्ष उन कट्टरपंथी फरीसियों से था जो पवित्रता का प्रचार करते थे! और वे फरीसी ही थे जो यीशु को सूली पर चढ़ाने के लिए सब लोगों से ज़्यादा उत्सुक और संकल्पबद्ध थे।
आज मसीही जगत में, सदूकी और हेरोदी इतने ख़तरनाक नहीं हैं जितने कि फरीसी हैं। एक हेरोदी नर्क में जा रहा होगा। लेकिन वह दूसरों को धोखा देकर भटका नहीं सकता क्योंकि वह सभी लोगों के सामने स्पष्ट रूप में एक सांसारिक व्यक्ति है। और जहाँ तक उदारवादी सदूकी की बात है, तो कोई भी उसके आत्मिक होने की कल्पना करने के धोखे में नहीं पड़ सकता क्योंकि एक सदूकी न तो चमत्कारों को, और न ही मृतकों के जी उठने को मानता है।
आज के मसीही जगत में (जैसा यीशु के समय में भी था), सबसे ख़तरनाक व्यक्ति एक फरीसी है जिसके सभी मसीही सिद्धान्त सही हैं और जो “पवित्रता” का प्रचार करता है। लेकिन उसकी “पवित्रता” एक विधिवादी पवित्रता है जो विधियों और नियमों में से पैदा हुई है। और उसकी "धार्मिकता” में “पवित्र-आत्मा का आनन्द और शांति” नहीं होते (रोमियों. 14:17)। ऐसा व्यक्ति इसलिए ख़तरनाक है क्योंकि वह मसीहियों को भरमा कर एक झूठी पवित्रता में ले जा सकता है।
इसलिए हमारे लिए फरीसियों के लक्षणों को समझना ज़रूरी है। हेरोद के अनुयायियों और सदूकियों के बारे में उससे ज़्यादा नहीं लिखा है जिसका मैं पहले ही उल्लेख कर चुका हूँ। लेकिन जब फरीसियों की बात आती है, तो सुसमाचारों में उनके बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। इसलिए परमेश्वर की ही यह इच्छा होगी कि हम उनके लक्षणों का अध्ययन करें।
ऐसे सभी विश्वासी जिनके धर्म-सिद्धान्त कट्टरपंथी हैं और जो पवित्रता के खोजी हैं, फरीसी बनने के ख़तरे में पड़े हैं - और वे इस ख़तरे के बारे में जानते भी नहीं हैं! हममें से ज़्यादातर क्योंकि इसी श्रेणी में आते हैं, इसलिए हमें इस अध्ययन में बहुत नम्र व दीन होकर प्रवेश करने की ज़रूरत है।
सुसमाचारों में मैंने फरीसियों के कम-से-कम पचास लक्षण पाए हैं। अगर इनमें से सिर्फ 1 हममें है, चाहे बाक़ी बचे 49 में से एक भी हममें न हो, तो हम एक फरीसी हैं। यह पूरी सूची नहीं है। अगर आप अपने स्वयं के जीवन में देखेंगे, तो आपको कुछ ऐसे लक्षण नज़र आ सकते हैं जो जिनका उल्लेख बाइबल में नहीं किया गया है।
फरीसियों की आत्मा मसीह की आत्मा का सीधा विरोध करती है। इस वजह से ही यह इतनी गंभीर बात है। जैसे हम अपनी आत्मा में नर्क का एक अणु भी रखना न चाहेंगे, वैसे ही हमें अपने अन्दर फरीसियों की आत्मा का भी एक अणु नहीं रखना चाहिए।
परमेश्वर की आशिष का एक प्राथमिक चिन्ह् यह होता है कि पवित्र-आत्मा हमें वह ज्योति देता है जिसमें हम अपने आपको देख सकते हैं। अगर हमें अपने जीवन के उन क्षेत्रों में जो मसीह-समान नहीं हैं एक क्रमिक रूप में बढ़ती हुई ज्योति नहीं मिलती, तो वास्तव में हम परमेश्वर से आशिष नहीं पा रहे हैं। स्वास्थ्य और सम्पन्नता परमेश्वर की आशिष का चिन्ह् नहीं हैं क्योंकि अनेक अविश्वासियों के पास ये दोनों हैं - ज़्यादातर विश्वासियों से बहुत ज़्यादा।
जब परमेश्वर हमारे जीवन के वे क्षेत्र हमें दिखाता है जो मसीह-समान नहीं हैं, तो वह चाहता है कि हम अपने आपको उन से शुद्ध करें (2 कुरि. 7:1), कि हम उसके ईश्वरीय स्वभाव में सहभागी हो सकें। इस तरह हमारा व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन, और कलीसियाई जीवन ज़्यादा ज्योतिर्मय होता जाएगा। तब हम विधिवाद से मुक्त होते जाएंगे और सिर्फ तभी हम आकाश में उकाबों की तरह उड़ने वाले बन सकेंगे। अगर हम “अपने अन्दर फरीसी” को नहीं देखेंगे, तो हम पृथ्वी में ही बंधे रहेंगे।
परमेश्वर हमें अपना वचन इसलिए देता है कि उसकी ज्योति में हम अपने आपको देख सकें, इसलिए नहीं कि हम दूसरों में फरीसीवाद को देखने वाले बनें। जब हम अपने भीतर फरीसीवाद को देखते हैं और अपने आपको उससे शुद्ध करते हैं, सिर्फ तभी हम परमेश्वर के काम में उपयोगी हो सकते हैं।
“अपने मन में यह न सोचो, ‘हमारा पिता
अब्राहम है’” (मत्ती 3:9)।
एक फरीसी यह जानता है कि वह स्वयं एक ईश्वरीय भक्त नहीं है, इसलिए वह एक ईश्वरीय पुरुष के रूप में जाने-पहचाने “भाई” के साथ अपना सम्बंध बना लेना चाहता है कि उसके साथ जुड़ जाने से वह भी एक ईश्वरीय भक्त के रूप में जाना जा सके। ऐसे बहुत से सांसारिक मसीही हैं जो एक ऐसी कलीसिया के सदस्य होने से गौरान्वित महसूस करते हैं जिसकी अगुवाई करने वाला व्यक्ति एक ईश्वरीय भक्त के रूप में जाना जाता है। वे उस नेकनामी में से अपने लिए पाते रहते हैं हालांकि उनकी स्वयं की पवित्रता शून्य होती है। फरीसी ईश्वर-भक्त लोगों के साथ घुलने-मिलने द्वारा यह कल्पना कर लेते हैं कि वे भी पवित्र हैं।
आप एक बहुत अच्छी कलीसिया के सदस्य हो सकते हैं, लेकिन अगर आपके जीवन में ऐसे पाप हैं जिनसे आपने अब तक मन नहीं फिराया है, या आपके मन में अब भी किसी के लिए दुर्भावना है, तो आप फिर भी नर्क में जा सकते हैं। अगर आप यह कल्पना करते हैं कि परमेश्वर आपके द्वारा पीठ-पीछे की गई बुराई या दुष्टता से भरी बोली को सिर्फ इसलिए क्षमा और अनदेखा कर देगा क्योंकि आप एक अच्छी कलीसिया के सदस्य हैं, तो एक बड़ी भूल में हैं। न्याय का दिन आपके लिए एक बहुत हैरानी से भरा हुआ दिन होगा। यह हो सकता है कि आपने बीते समय में उद्धार पाया हो। लेकिन आज शायद आप खोए हुए हैं। इसलिए ईश्वर-भक्त लोगों के साथ अपने सम्बंध में कभी गौरव महसूस न करें।
यीशु ने कहा, “जब तक तुम्हारी धार्मिकता फरीसियों कीधार्मिकता से बढ़कर न हो, तब तक तुम स्वर्ग के राज्य में कभीप्रवेश न करने पाओगे” (मत्ती 5:20)।
यहाँ यीशु की बात का क्या अर्थ था? क्या हमें फरीसियों से ज़्यादा उपवास, प्रार्थना और दान देने की ज़रूरत है?
यीशु की बात मात्रा के बारे में बिलकुल भी नहीं थी - वह गुणवत्ता के बारे में बोल रहा था। वह कह रहा था कि अगर हमें स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना है तो हमारी धार्मिकता फरीसियों की धार्मिकता से बढ़ कर होनी चाहिए। फिर उसने अध्याय के बाक़ी पदों में इस बात की व्याख्या की। फरीसियों की धार्मिकता सिर्फ बाहरी थी। वे परमेश्वर के नियमों का आज्ञापालन करने में बाहरी तौर पर गौरव महसूस करते थे। लेकिन यीशु ने कहा कि परमेश्वर भीतरी धार्मिकता की खोज में रहता है - सिर्फ बाहरी हत्या से ही दूर नहीं रहना, बल्कि भीतरी क्रोध से भी बचना है; सिर्फ बाहरी व्यभिचार से ही दूर नहीं रहना है, बल्कि स्त्रियों की भीतरी लालसा से भी बचना है।
यीशु ने कहा कि क्रोध और पापमय लैंगिक लालसा इतने गंभीर पाप हैं कि एक व्यक्ति इनकी वजह से नर्क में जा सकता है (मत्ती 5:22, 29,30)। अधिकांश मसीही इन भीतरी पापों को इतना गंभीर नहीं मानते, क्योंकि वे फरीसी हैं। वे मनुष्यों के सम्मुख अपनी बाहरी साक्षी में गौरव महसूस करते हैं। ऐसे दूसरे क्षेत्र भी होंगे जहाँ आपकी धार्मिकता सिर्फ बाहरी होगी। फ्मनुष्य तो बाहरी रूप को देखता है, लेकिन परमेश्वर हृदय को देखता है” (1 शमू. 16:7)। आपकी आत्मिकता के बारे में दूसरे विश्वासी क्या सोचते हैं, उसकी परमेश्वर की नज़र में कोई क़ीमत नहीं होती। वह आपके विचारों, उद्देश्यों और मनोभावों को देखता है। अगर आपका हृदय शुद्ध नहीं है, तो लोगों के सम्मुख अपनी नेकनामी पर गौरान्वित न हों।
फरीसियों ने यीशु के चेलों से कहा, “तुम्हारा गुरु चुंगी लेने
वालों और पापियों के साथ क्यों खाता है?” (मत्ती 9:11)।
फरीसी सिर्फ अपने “पवित्र” फरीसियों के समूह के साथ ही घुलते-मिलते हैं। पापियों के साथ मिलने-जुलने के लिए उन्होंने यीशु की भी आलोचना की थी। क्या आपकी पवित्रता आपके ऐसे सम्बंधियों के साथ मिलने-जुलने से आपको रोकती है जिन्होंने अभी तक मन नहीं फिराया है? यह सच है कि हम परमेश्वर की संतानों के साथ ही सहभागिता कर सकते हैं। लेकिन हम सबके साथ मित्रता का व्यवहार भी कर सकते हैं। यीशु “पापियों के मित्र” के रूप में जाना जाता था। अगर आप यीशु जैसे बनना चाहते हैं, तो आपको भी पापियों का मित्र होना चाहिए।
एक फरीसी अपने किसी ऐसे सम्बंधी के विवाह समारोह में नहीं जाएगा जिसने अब तक मन नहीं फिराया है, क्योंकि वह ऐसा महसूस करेगा कि वहाँ जाने से वह अशुद्ध हो जाएगा। लेकिन यीशु ख़ुशी से अपने मन-न-फिराए हुए सम्बंधी के विवाह-समारोह में चला जाता था। वह पापियों के घर जाता था, जहाँ शायद पीना-खाना और नाचना-गाना चलता रहता था। वह उन पापियों को सुसमाचार सुनाता था। उनके संपर्क में आने से वह अशुद्ध नहीं हुआ क्योंकि उसकी धार्मिकता भीतरी थी। यह सच है कि उसने अपना ज़्यादा समय अपने शिष्यों के साथ बिताया था। लेकिन उसने अपना बहुत समय पापियों से बात करने में भी बिताया था। अगर हम पापियों के साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार नहीं करेंगे, तो हम उन्हें प्रभु के लिए कैसे जीत सकेंगे?
यह एक अच्छा सवाल है जो आप अपने आपसे पूछ सकते हैंः आपकी कलीसिया में आपके द्वारा कितने लोग लाए गए हैं? हालांकि आपकी कलीसिया में शायद आपको 20 साल हो गए हैं, लेकिन फिर भी यह हो सकता है कि आप एक व्यक्ति को भी मसीह के पास न लाए हों। क्या आपको यह नहीं लगता कि इससे आपके जीवन के बारे में कुछ संकेत मिलता है? बहुत से प्राचीन भी बहुत सालों में एक व्यक्ति को भी मसीह में नहीं लाए हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि वे फरीसी हैं। अगर इस क्षेत्र में आप ईमानदारी से अपना फरीसीवाद स्वीकार कर लेंगे, तो परमेश्वर दूसरों को उसके पास लाने के लिए आपको इस्तेमाल कर सकता है।
“क्या कारण है कि फरीसी उपवास करते हैं,
लेकिन तेरे चेले उपवास नहीं करते?” (मत्ती 9:14)।
फरीसी लोगों से ज़बरदस्ती उपवास व प्रार्थना करवाते थे। वे उपवास जैसे शारीरिक अनुशासन पर यह कहकर ज़ोर देते थे कि वह आत्मिक बनने का माध्यम है, और वे इसमें डींग मारते थे। यीशु फरीसियों से भी ज़्यादा उपवास करता था। लेकिन यीशु ने उपवास करने के लिए फरीसियों की तरह डींग नहीं मारी थी। और न ही उसने लोगों को उपवास करने के लिए मजबूर किया - न तो उसने ऐसा तब किया था जब वह पृथ्वी पर था, और न ही वह आज यह कहता है। परमेश्वर की नज़र में उपवास का तभी कोई महत्व है जब वह स्वेच्छा से हो। वर्ना वह एक मरा हुआ काम होगा।
सभी धर्मों के लोग उपवास करने जैसा कोई न कोई तपस्या का काम करते हैं। कुछ लोग पवित्र बनने के लिए अपनी पत्नी के साथ सम्भोग करना भी बंद कर देते हैं। लेकिन एक मसीही के लिए पवित्र होने का यह तरीक़ा नहीं है। एक सिद्ध मनुष्य का चिन्ह् यह नहीं है कि वह अपने आपको खाने-पीने या लैंगिक मामले में अनुशासित करता है, लेकिन इसमें कि वह अपनी जीभ को वश में रख सकता है (याकूब 3:2)। इसके बाद हमें अपने विचारों और आँखों को वश में करना होता है।
यीशु एक अच्छे भोजन का आनन्द ले सकता था। उन्होंने उसे “पेटू” कहा (लूका 7:34)। उसका पहला ही चमत्कार एक विवाह-भोज में अतिरिक्त दाखरस बनाना था! ऐसा लगता है जैसे वह यीशु द्वारा किए सभी चमत्कारों में से सबसे ग़ैर-ज़रूरी था। वे सारे मेहमान पहले ही बहुत सा दाखरस पी चुके थे। और यीशु ने शायद 200 लोगों के विवाह उत्सव में 600 लीटर दाखरस बना दिया था - जिसका अर्थ था कि उसने हरेक व्यक्ति के लिए 3 लीटर दाखरस बना दिया था! उनके लिए इतना ज़्यादा दाखरस बनाने की क्या ज़रूरत थी? हम यह सोच सकते हैं कि यीशु के पहले ही चमत्कार को एक मुर्दे को जि़न्दा करने जैसा “आत्मिक” चमत्कार होना चाहिए था! इस चमत्कार की एक वजह तो यह थी कि वह बाहरी बातों के धर्म को मिटाने के लिए आया था जो यह सिखाता था, ‘यह मत छूओ’, ‘वह मत चखो’ आदि।
मैं ऐसे मसीहियों से मिला हूँ (विशेषकर कुछ ख़ास मसीही-मतों में), जो अपनी बातचीत में बड़ी चालाकी से अपने उपवासों के समयकालों के बारे में बताते हैं। वे कुछ ऐसे शब्दों में बातें करते हैं, “मैं आपके साथ वह मूल्यवान शब्द बाँटना चाहता हूँ जो प्रभु ने मुझे मेरे 21 दिन के उपवास में दिया था।” उसमें उनकी मुख्य बात आपको इस बात से प्रभावित करना होता है कि उन्होंने 21 दिन का उपवास किया था। उनकी दूसरी सारी बातें गौण होती हैं। लेकिन यीशु ने कहा कि जब हम उपवास करें तो हम किसी को इसकी जानकारी न होने दें। लेकिन फरीसी अपने तप की डींग मारते हैं।
यक़ीनन मसीही जीवन में खाने, सोने और लैंगिक मामलों में अनुशासन के लिए जगह है। लेकिन निश्चित तौर पर यह कोई ऐसा मामला यह नहीं है जिसके बारे में हम दूसरों को बताएं या जिनमें हमें गर्व महसूस हो।
“फरीसियों ने यीशु से कहा, ‘देख, तेरे चेले वह काम कर
रहे हैं जो विश्राम के दिन करना उचित नहीं है’” (मत्ती 12:2)।
फरीसी यह जानते थे कि इस्राएलियों के लिए व्यवस्था में यह प्रावधान था कि वे किसी के खेत में से गुज़रते समय उसमें से अन्न ले सकते थे। लेकिन वे यहाँ यह सवाल उठा रहे थे कि चेले विश्राम-दिन में यह “काम” क्यों कर रहे थे। फरीसी मामूली बातों में दूसरों की आलोचना करते हैं। मत्ती 15:2 में, उन्होंने यीशु से पूछा कि उसके शिष्य खाते समय पूर्वजों की परम्परानुसार सिखाए गए तरीक़े से उनके हाथ क्यों नहीं धोते थे। किसी मामूली सी बात में भी दूसरे विश्वासियों पर दोष लगाने के लिए फरीसी हमेशा उन पर नज़र रखते हैं।
अगर आप एक प्राचीन हैं, और अगर आप ऐसा करते हैं, तो इस बात की पूरी सम्भावना है कि आपकी कलीसिया में ऐसे ही फरीसी भरे होंगे, क्योंकि किसी भी कलीसिया के लोग अक्सर अपने प्राचीनों की ही आदतें अपनाते हैं। हम प्रकाशितवाक्य अध्याय 2 और 3 में यह देखते हैं। और अगर प्राचीन फरीसीवाद से मुक्त होता है, तो यह पूरी सम्भावना है कि उसकी कलीसिया भी फरीसीवाद से मुक्त होगी।
इसलिए मैं हरेक विश्वासी से यह कहना चाहूँगाः अगर आपकी कलीसिया का प्राचीन/अगुवा एक विधिवादी और फरीसी है, तो उसका अनुसरण न करें। एक प्राचीन के प्रति सिर्फ कलीसियाई मामलों में अधीन होना अपेक्षित होता है व्यक्तिगत मामलों में नहीं। इससे मेरा कहने का अर्थ यह है कि अगर वह यह कहता है कि कलीसियाई सभा सुबह 10:00 बजे शुरू होनी है तो उसकी आज्ञा का पालन करते हुए आपको 10:00 बजे कलीसिया में पहुँच जाना चाहिए। सभा में अगर वह यह घोषणा करता है कि गीत न. 45 गाना है, तो आपको भी दूसरों के साथ गीत न. 45 निकाल कर गाना चाहिए। जब वह सभा से खड़े होने के लिए कहे, तो आपको खड़े हो जाना है। और जब वह सबको बैठने के लिए कहे, तो आपको बैठ जाना है। “प्राचीन के अधीन” होने का यही अर्थ होता है। लेकिन अगर उसका जीवन अनुसरणीय नहीं है, तो आपको उसके जीवन का अनुसरण करने की ज़रूरत नहीं है। वर्ना आप भी अपना नाश कर लेंगे। किसी विधिवादी या फरीसीवादी प्राचीन का कभी अनुसरण न करें - चाहे वह आपकी संगति में सबसे पुराना प्राचीन भी क्यों न हो - बल्कि स्वयं यीशु का ही अनुसरण करें। जब तक आपको यह भरोसा न हो कि एक प्राचीन परमेश्वर का जन है, तब तक अपने जीवन के अन्य क्षेत्रों को उसके अधीन न करें।
“देखो, वहाँ सूखे हाथ वाला एक व्यक्ति था। उन्होंने यीशु पर
दोष लगाते हुए कहा, ‘क्या सब्त के दिन चंगा
करना उचित है?’” (मत्ती 12:10)।
फरीसी नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं। वे यीशु के जीवन के अनुसार जीवन व्यतीत नहीं करते। उनके मनगढ़न्त नियम यह सिखाते थे कि एक बीमार को विश्राम-दिन में चंगा होने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अनेक कलीसियाई अगुवों ने भी ऐसे नियम बना रखे हैं जो उनके झुण्ड के जीवनों को मुश्किल बना देते हैं। उन फरीसियों ने यीशु से यह सवाल सिर्फ इसलिए किया था “कि वे उस पर दोष लगा सकें।” यही आज बहुत से कलीसियाई अगुवों के लिए भी सच है, जो ऐसे हरेक व्यक्ति पर दोष लगाने में कोई देर नहीं करते जो उनके बनाए हुए किसी छोटे से नियम को भी तोड़ देता है। सारी सृष्टि में सिर्फ परमेश्वर ही व्यवस्था का देने वाला (या नियमों का बनाने वाला) है। अगर आप कलीसिया में दूसरों के लिए ऐसे नियम बनाएंगे जो सर्वशक्तिशाली परमेश्वर ने भी नही बनाए हैं, तो यह करते हुए आप परमेश्वर की जगह लेने की कोशिश करेंगे, और यह “मसीह-विरोधी की आत्मा” है (2 थिस्स. 2:4)। फिर उन फरीसियों की तरह, आप भी शैतान के साथ हाथ मिला लेंगे जो “भाइयों पर दोष लगाने वाला” है (प्रका. 12:10)। उदाहरण के तौर, स्त्रियों द्वारा उनके सिर को ढाँपने का मामला देखें। बाइबल कहती है कि स्त्रियों को प्रार्थना और नबूवत करते समय अपना सिर ढाँपना चाहिए (1 कुरि. 11:5)। लेकिन कुछ कलीसियाई अगुवे यह सिखाते हैं कि स्त्रियों को हमेशा (प्रतिदिन 24 घण्टे) सिर ढाँपे रखना चाहिए क्योंकि उन्हें “हमेशा प्रार्थना करते रहना” चाहिए। लेकिन उनकी अनियमितता इसमें देखी जा सकती है कि वे पुरुषों को भी उनके सिर हर समय उघाड़े रखने पर ज़ोर नहीं देते (“हमेशा प्रार्थना करते रहने” के इसी सिद्धान्त के अनुसार) कि वे उनके सिरों पर कभी टोपी न पहनें। उनकी अनियमितता इसमें भी देखी जा सकती है कि वे बहनों को उनके सिर का सिर्फ 15% (सिर का पीछे का भाग) ही ढाँपने की अनुमति देते हैं (क्योंकि दिन की गर्मी में पूरा सिर ढाँपना असुविधा भरा होता है!)। फरीसी पूरी तरह से अनियमितता से भरे होते हैं लेकिन वे अपनी इस अनियमितता से पूरी तरह अनजान होते हैं। जिन स्त्रियों को मैंने उनका सिर पूरी तरह से ढाँपे हुए देखा है वे मदर टैरेसा जैसी कुछ रोमन कैथोलिक नन हैं। मैंने यह पाया है कि बाक़ी सभी लोग जो इस पर एक नियम के रूप में ज़ोर देते हैं (और इसका पालन न करने के लिए दूसरों का न्याय करते हैं, वे सभी इसमें अनियमित हैं। वे ढोंगी फरीसी हैं। परमेश्वर ने यह चाहा था कि स्त्रियों का सिर ढाँपना एक कोई नियम नहीं बल्कि एक प्रतीकात्मक चिन्ह् हो। इसलिए मैं यह देखने में अपना समय नष्ट नहीं करता कि हरेक बहन ने अपना 100% सिर ढाँपा हुआ है या नहीं, या उसकी ओढ़नी में से उसके बाल बाहर निकले हुए नज़र आ रहे हैं या नहीं!
ऐसे फरीसीवादी अगुवे इस तरह के मामलों में अपने परिवार के सदस्यों के लिए लचीले व उदार होते हैं लेकिन दूसरों के प्रति कठोर होते हैं। इस वजह से ही यीशु ने उन फरीसियों से कहा था, “अगर विश्राम-दिन में तुम्हारा गधा गड्ढे में गिर जाए तो तुम क्या करोगे?” उन्हें अपने गधे की चिंता थी, लेकिन एक बीमार मनुष्य की कोई चिंता नहीं थी। कलीसियाई अगुवों को यह ध्यान रखने की ज़रूरत है कि जो नियम वे दूसरों के लिए बनाएं, उनका पालन वे अपने परिवार के लोगों से भी कराएं।
“तब फरीसी बाहर निकले और उसके विरोध में सम्मति की
कि उसे किस प्रकार नाश करें” (मत्ती 12:14)।
किसी के प्रति आपकी ईर्ष्या शायद उस बिन्दु तक न पहुँचे जहाँ आप उसकी हत्या कर दें। लेकिन आपको यह याद रखने की ज़रूरत है कि ईर्ष्या और घृणा हत्या के पहले क़दम होते हैं। कैन इसी तरह आगे बढ़ा थाः ईर्ष्या... घृणा... हत्या। फरीसी यीशु से इसलिए ईर्ष्या करते थे क्योंकि वह ऐसे बहुत से काम करता था जो वे नहीं कर सकते थे, और वह लोगों में उनसे ज़्यादा लोकप्रिय था। पीलातुस ने भी यह देख लिया था (जिसके पास यीशु के बारे में बहुत कम जानकारी थी) कि फरीसी यीशु को सिर्फ इसलिए सूली पर चढ़ाना चाहते थे क्योंकि वे उससे ईर्ष्या करते थे (मत्ती 27:18)। जब आपको किसी से ईर्ष्या होती है, तो वह आपकी बोली और आपके व्यवहार में साफ नज़र आ जाएगा।
आपको किसी ऐसे व्यक्ति से ईर्ष्या हो सकती है जो आपसे ज़्यादा अच्छा प्रचार करता हो, या जो ज़्यादा धनवान हो या जिसके पास ऐसे आत्मिक दान-वरदान हों जो आपके पास नहीं हैं। तब उसकी आलोचना करने के लिए उसमें एक मामूली सी कमी ढूंढ निकालना आपके लिए बहुत आसान होगा। और आपके अन्दर यह लालसा होगी कि आप उसे किसी तरह से गिरता हुआ देख सकें। फरीसियों का धर्म कैन का धर्म है।
मनुष्यों का इतिहास दो धाराओं से शुरू हुआ है - एक आत्मिक (हाबिल) और दूसरा धार्मिक (कैन)। कैन का पाप प्राथमिक रूप में हाबिल से ईर्ष्या करना था। ये दोनों धाराएं अंततः यरूशलेम में पूरी होती हैं – सच्ची कलीसिया और झूठी कलीसिया (बेबीलोन)। अगर हम कैन की धार्मिक और ईर्ष्या-भरी धारा का अनुसरण करेंगे - तब चाहे हमारे धर्म-सिद्धान्त सुसमाचारीय भी क्यों न हों - हम फिर भी अंततः बेबीलोन का ही हिस्सा होंगे।
“यह मनुष्य दुष्टात्माओं को सिर्फ उनके शासक बालज़बूल
की मदद से निकालता है” (मत्ती 12:24)।
जब यीशु ने दुष्टात्माओं को निकाला, तब लोगों ने कहा, “यह मनुष्य दाऊद की संतान हो सकता है (प्रतिज्ञा किया गया मसीह)” (मत्ती 12:23)। लेकिन फरीसी इस वास्तविकता से चिंता में पड़ गए थे कि यीशु ने वह किया था जो वे स्वयं नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने उसके बारे में सबसे बुरे पूर्वानुमान लगा लिए।
अगर कोई ऐसा भला काम भी कर रहा हो जिसमें दूसरे आशिष पाते हों, तब भी फरीसी उस काम के साथ एक बुरा उद्देश्य जोड़ देते हैं। लेकिन, अगर वह काम उनके अपने बच्चों ने किया हो, तो वे उसके बारे में डींग मारते हैं और उसके साथ एक अच्छा उद्देश्य जोड़ देते हैं - क्योंकि फरीसी अपने परिवार का पक्ष लेते हैं, लेकिन दूसरों की कड़ी आलोचना करते हैं। फरीसी दूसरों पर बहुत शक करते हैं, और वे यह मान ही नहीं सकते कि कोई एक निःस्वार्थ भाव से कुछ कर सकता है - क्योंकि वे स्वयं बहुत स्वार्थी होते हैं। अगर आप एक फरीसी हैं तो आप यह पाएंगे कि आप दूसरे लोगों द्वारा किए गए भले कामों के साथ बुरे उद्देश्य जोड़ेंगे, और जिनकी दूसरे लोग सराहना करते हैं, उनकी आलोचना करेंगे।
“फरीसियों ने कहा, ‘यह मनुष्य दुष्टात्माओं को सिर्फ उनकेशासक
बालज़बूल की मदद से निकालता है’” (मत्ती 12:24)।
फरीसी लापरवाही से दूसरों के लिए अभद्र और चोट पहुँचाने वाले शब्द बोलते हैं, और अपनी बातचीत में दूसरों का न्याय करते रहते हैं। ज़रा कल्पना करें कि उन्होंने परमेश्वर के पुत्र को “दुष्टात्माओं का सरदार” कह दिया!
यीशु ने उनकी इस दुष्टता भरी आलोचना का कैसा जवाब दिया? यीशु ने यह कहते हुए जवाब दिया,
“तुमने मेरे जैसे मामूली मनुष्य के खिलाफ़ बोला है, इसलिए तुम्हें क्षमा मिल गई है। लेकिन यह ध्यान रखना कि तुम पवित्र-आत्मा के खिलाफ़ बोलने वाले न बन जाओ” (मत्ती 12:32)।
यीशु ने (मनुष्य होते हुए) उन फरीसियों को क्षमा कर दिया। लेकिन स्वर्ग में परमेश्वर ने उन्हें क्षमा नहीं किया था।
जब हम किसी के विरुद्ध पाप करते हैं, तब उस पाप के दो पक्ष होते हैं-
जिस व्यक्ति के विरुद्ध आपने पाप किया है, यह ज़रूरी है कि वह आपको क्षमा करे; और अगर आपके पाप को मिटाया जाना है, तो यह ज़रूरी है कि परमेश्वर भी आपको क्षमा करे। इसलिए अगर आपके पाप के सपाट पक्ष की तरफ से एक मनुष्य आपको क्षमा कर देता है, लेकिन अगर आप मन नहीं फिराते और परमेश्वर से क्षमा नहीं माँगते, तो आपको उसके सीधे खड़े पक्ष के लिए परमेश्वर के न्याय का सामना करना पड़ेगा। अगर उनमें से एक फरीसी बाद में यीशु के पास जाकर यह कहा होता, “प्रभु, बालज़बूल कहने के लिए मुझे क्षमा कर दे”, और फिर उसने परमेश्वर से उसे क्षमा करने के लिए कहा होता, सिर्फ तभी उसका पाप मिटाया जाता, इसके अलावा नहीं। यीशु ने हमें चेतावनी दी थी कि अंतिम न्याय के दिन हम अपने मुख के शब्दों द्वारा ही दोषी या निर्दोष ठहराए जाएंगे (मत्ती 12:37)।
क्या आपको ऐसी कोई बीमारी है जो आपकी सारी प्रार्थनाओं और चिकित्सा के बाद भी ठीक नहीं हो रही है? तब यह सम्भव है कि आपने भजन संहिता 105:15 में दी गई परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन किया हो – “मेरे अभिषिक्तों को मत छुओ, और मेरे नबियों की हानि मत करो।” क्या आपने एक ईश्वरीय भक्त भाई के बारे में लापरवाही से कुछ बोला है? शायद आपकी बीमारी इस वजह से ठीक न हो रही हो। शायद आपने ऐसे पुरुषों का न्याय किया हो जो आपसे दस हज़ार गुणा ज़्यादा पवित्र हों, और जिन्होंने परमेश्वर के लिए आपसे दस हज़ार गुणा ज़्यादा किया हो। आपके मन फिराने और उस व्यक्ति से क्षमा याचना करने द्वारा ही आपको चंगाई मिलेगी।
“तुम अपनी परम्पराओं के लिए परमेश्वर की आज्ञाओं का उल्लंघन क्यों करते हो? परमेश्वर ने कहा है, ‘अपने पिता और अपनी माता का आदर कर’ ...लेकिन तुम कहते हो, ‘तुम्हें मुझसे जो कुछ मिल सकता था, वह परमेश्वर को अर्पित किया जा चुका है’” (मत्ती 15:1-9)।
माता पिता का आदर करने की परमेश्वर की आज्ञा को फरीसियों ने यह कहते हुए अमान्य ठहरा दिया था कि अगर एक व्यक्ति ने मन्दिर के कोष में धन दे दिया था तो उसे अपने ज़रूरतमंद माता-पिता की देखभाल करने की ज़रूरत नहीं है। एक ग़रीब पिता के “पवित्र” पुत्र ने क्योंकि अपना पैसा सुसमाचार-प्रचार के काम के लिए दे दिया है, इसलिए उसका पिता बीमार होकर मर सकता है!
आज के संदर्भ में यह बात कुछ इस तरह होगीः फरीसी अपनी पत्नी से कहेगा, “मुझे आज शाम कलीसिया की सभा में जाना है, इसलिए मैं घर पर तुम्हारे काम में कोई मदद नहीं कर सकता।” या फिर यह हो सकता है कि वह सुबह अपनी बाइबल खोलकर मिलाप वाले तम्बू (निर्ग. 25) का अध्ययन करते हुए परमेश्वर से उससे बात करने को कह रहा हो, जबकि उसकी पत्नी बच्चों को स्कूल भेजने के लिए तैयार कर रही हो, उनके लिए नाश्ता बना रही हो, और एक रोते हुए बच्चे की भी देखभाल कर रही हो। प्रभु इस फरीसी से यह कहने की कोशिश कर रहा होगा, “अपनी बाइबल बन्द कर, मिलाप वाले तम्बू के अपने अध्ययन को भूल जा, और जाकर रसोई में अपनी पत्नी की मदद कर!” लेकिन वह परमेश्वर की आवाज़ को नहीं सुन सकता, क्योंकि उसके फरीसी कान परमेश्वर की आवाज़ सुनने की तरफ से बहरे हो चुके हैं।
हमारे आत्मिक होने का एक प्रमुख भाग हमारी उन जि़म्मेदारियों को पूरा करना है जो हमारे घर में हमारे लिए रखी होती हैं। “लेकिन अगर कोई अपने घर की, विशेषकर अपने परिवार की, देखभाल नहीं करता तो वह एक अविश्वासी से भी निकृष्ट है” (1 तीमु. 5:8)।
“तब चेलों ने आकर उससे कहा, ‘क्या तू जानता है कि यह
बात सुन कर फरीसियों ने ठोकर खाई है?’ तो यीशु ने कहा,
उन्हें रहने दो’” (मत्ती 15:12-14)।
जब लोगों को उनके माता-पिता का निरादर करना सिखाने के लिए यीशु ने फरीसियों को डाँटा (जैसा हमने ऊपर देखा है), तो उन्हें बुरा लगा। फरीसी उन्हें डाँटने या सुधारने के लिए ऐसे हरेक शब्द का बुरा मानते हैं जो प्रभु ने एक बड़े भाई द्वारा उन्हें दिया होता है। मसीही जीवन में सिखाया जाने वाला सबसे पहले प्राथमिक पाठों में से एक “बुरा मानने” पर जय पाना होता है। आपको सुधारने के लिए जब आपको ताड़ना दी जाए, और तब अगर आप बुरा मानने से अपने आपको पूरी तरह से मुक्त करना न चाहें, तो आपके लिए फरीसीवाद से मुक्त होने की फिर कोई आशा नहीं बचेगी।
मैं ऐसे लोगों को जानता हूँ जो एक समय हमारी कलीसिया में थे, लेकिन जिन्होंने सिर्फ इस वजह से कलीसिया को पूरी तरह से त्याग दिया उन्हें सुधारने के लिए जो शिक्षा उन्हें दी गई थी वह उन्हें बहुत बुरी लगी थी। आज वे जंगल में भटक रहे हैं और इस बात की पूरी सम्भावना है कि वे हमेशा के लिए खो जाएंगे। मैं आपको यक़ीन दिलाना चाहता हूँ कि अगर आपको भी ऐसी किसी बात का बुरा लगा है जो आपको सुधारने के लिए थी, तो आप भी उन फरीसियों की तरह नर्क की तरफ जा रहे हैं।
यीशु ने अपने शिष्यों से कहा, “उन्हें रहने दो।” हमें बुरा मान कर कलीसिया छोड़ कर जाने वाले फरीसियों को मनाने के लिए उनके पीछे नहीं जाना है। हमें प्रभु की आज्ञा मानकर उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना है। अगर वे मन फिराएंगे, तो प्रभु और उसकी कलीसिया के पास लौट कर आ सकते हैं। इसके अलावा नहीं।
“यीशु ने कहा, ‘वे अंधों को मार्ग दिखाने वाले अंधे हैं।
और अगर एक अंधा अंधे को रास्ता दिखाएगा तो दोनों ही
गड्ढे में गिरेंगे” (मत्ती 15:14)।
फरीसियों को बाइबल का बहुत ज्ञान होता है, लेकिन वे आत्मिक तौर पर अंधे होते हैं इसलिए उनके पास आत्मिक वास्तविकताओं के बारे में कोई प्रकाशन नहीं होते। और जब ये अंधे अगुवे दूसरे अंधों की अगुवाई करते हैं, तब यीशु ने कहा, “तब वे ख़ुद भी गड्ढे (नर्क) में जा गिरेंगे और उनके पीछे चलने वालों को भी उसी गड्ढे में ले जाएंगे” (15:14)।
कभी किसी अंधे व्यक्ति के पीछे न जाएं। यह सुनिश्चित करें कि आपका अगुवा/प्राचीन एक आत्मिक दर्शन वाला व्यक्ति हो जो परमेश्वर के लोगों से प्रेम करने वाला हो। प्रेम की कमी की वजह से ही आत्मिक अंधापन होता है जिसमें प्रचारक ऐसे ढंग से प्रचार करते हैं जिसमें वे लोगों को पापी ठहराते हुए दोष लगाते हैं। एक व्यक्ति जो यीशु से प्रेम करता है, वह यीशु को इतने स्पष्ट रूप में देखता है कि वह अपने प्रचार में यीशु को ऊँचा उठाता है और उसे आपको दिखाता है। आपको एक ऐसे ही अगुवे का अनुसरण करना चाहिए और उसके जैसा बनने की अभिलाषा रखनी चाहिए।
“फरीसियों के ख़मीर से सावधान रहो जो कि उनका
पाखण्ड है” (लूका 12:1)।
शब्द "हिप्पोक्रिट - पाखण्डी” मूल रूप में यूनानी है जिसे अंग्रेज़ी भाषा में शामिल कर लिया गया है, और अर्थ “अभिनेता” होता है। अगर आप पहली शताब्दी के यूनान में जाकर यह पूछते कि सारे पाखण्डी (अभिनेता) कहाँ हैं तो उनका जवाब यही होता, “रंगभूमि (थियेटर) में।” वहाँ अभिनेता रंगमंच पर आते थे और कुछ घण्टों के लिए अपने अभिनय (पाखण्ड) करके अपने घर जाकर एक सामान्य जीवन बिताते थे।
एक हॉलिवुड के चलचित्र में एक व्यक्ति यूहन्ना बपतिस्मा का अभिनय करके कुछ समय तक एक बहुत पवित्र व्यक्ति होने का दिखावा कर सकता है क्योंकि वह एक अच्छा अभिनेता है। लेकिन अपने सामान्य जीवन में वह एक शराबी और व्यभिचारी हो सकता है।
आज के अधिकांश पाखण्डी कलीसिया में पाए जाते हैं जहाँ वे भी रविवार की सुबह आकर कुछ घण्टों के लिए अपनी भूमिका निभा कर लौट जाते हैं। प्रत्येक रविवार को वे प्रभु की स्तुति करने का बहुत अच्छा अभिनय करते हैं। लेकिन अगर सप्ताह के बीच में अगर आप उनके घर जाएं, तो आप देख सकेंगे कि रविवार की सुबह वे सिर्फ अपनी भूमिका निभा रहे थे। अपने घरों के सामान्य जीवनों में वे प्रभु की स्तुति नहीं करते बल्कि शिकायत करते हैं, कुड़कुड़ाते हैं, पीठ-पीछे लोगों की बुराइयाँ करते हैं, और एक-दूसरे से झगड़े करते हैं।
क्या आप ऐसे हैं - कलीसियाई सभाओं में दूसरों को दिखाने के लिए अभिनय करने वाले, लेकिन अपने कार्यालय और अपने घर में एक बिलकुल अलग तरह के व्यक्ति?
"फिर कुछ फरीसी यीशु की परीक्षा करने के लिए उसके पास
आए और कहने लगे, ‘क्या पुरुष को अपनी पत्नी को किसी
भी कारण से तलाक देना उचित है’” (मत्ती 19:3)।
फरीसी लोगों द्वारा बोली गई किसी ऐसी बात में उन्हें पकड़ने की ताक में रहते हैं जिसमें वे दूसरे लोगों के सामने उन पर दोष लगा सकें।
वे आपको फँसाने के लिए आपसे सवाल भी पूछ सकते हैं। मत्ती 22:15 में हम यह पढ़ते हैं कि, “तब फरीसियों ने जाकर आपस में विचार-विमर्श किया कि किस प्रकार उसको उसी की बातों में फँसाएं।” (लूका 11:54 भी देखें)।
मुझे भी ऐसे अनुभव हुए हैं। ऐसा हुआ है कि कुछ कलीसियाओं के विश्वासी (जो मेरे प्रचार से पवित्र-आत्मा द्वारा दोषी ठहराए गए और जिन्होंने मुझ पर ईशनिन्दा का आरोप लगाना चाहा), मेरे पास आए हैं और मेरे ही मुख से निकले शब्दों में मुझे फँसाने के लिए मुझसे सवाल किए हैं। अपने जीवनों में पाप से मुक्त होने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती लेकिन उनकी दिलचस्पी सिर्फ दूसरों में कमी ढूंढने में होती है। फरीसी भी बिलकुल ऐसे ही थे। वे यीशु के शब्दों को तोड़ते-मरोड़ते और उन्हें उस पर ईश-निन्दा का दोष लगाते थे। आज-के-युग के फरीसियों ने भी मेरे शब्दों को भी इसी तरह तोड़ा-मरोड़ा है।
अगर हम किसी से प्रेम करते हैं, तो हम उसके द्वारा कही गई हरेक बात का सबसे अच्छा वाक्य-विन्यास करेंगे। हम यह कहेंगे, “शायद मैंने उसकी बात का ग़लत अर्थ समझ लिया है। वह ज़रूर मज़ाक कर रहा होगा,” आदि। लेकिन एक फरीसी कभी किसी के लिए ऐसी उदारता नहीं दिखाएगा। यीशु के लिए यह लिखा है, “वह न तो मुँह-देखा न्याय करेगा, और न कानों से सुनकर निर्णय लेगा” (यशा. 11:3)। हरेक ईश्वरीय भक्त इसी उदाहरण का अनुसरण करेगा।
“ये लोग होठों से तो मेरा आदर करते हैं,
लेकिन इनके हृदय मुझसे दूर हैं” (मत्ती 15:8)।
एक फरीसी का हृदय कठोर होता है, क्योंकि वह परमेश्वर से दूर होता है। अगर आप मक्खन को आग के पास रखेंगे, तो तुरन्त पिघल जाएगा। लेकिन अगर आप उसे फ्रिज के बर्फ जमाने के ख़ाने में रख देंगे तो वह पत्थर की तरह ऐसा कठोर भी हो सकता है कि आपको उसे एक छेनी से तोड़ना पड़े। एक फरीसी का हृदय ऐसा होता है। परमेश्वर एक आग है, और अगर आप उसके पास रहेंगे तो आप हमेशा नम्र रहेंगे। परमेश्वर की उपस्थिति में चट्टानें भी पिघल जाती हैं।
अगर आप दूसरों के प्रति कठोर होंगे, तो आप एक निश्चित रूप में यह जान लें कि आप परमेश्वर से दूर, बहुत दूर जाकर अपना जीवन जी रहे हैं। फरीसी लोगों के प्रति इतने कठोर इसलिए थे क्योंकि वे परमेश्वर से लाखों मील दूर थे। फरीसी अपने होठों से प्रभु की स्तुति करते हैं और स्तुति के सुन्दर भजन गाते हैं। “योग्य केवल तू, योग्य केवल तू ही प्रभु”, आदि। लेकिन वे अपना न्याय नहीं करते। एक व्यक्ति जो परमेश्वर की सुनता है, वह दूसरों का नहीं हमेशा अपने आपका न्याय करता रहता हैं - यह एक ऐसे मनुष्य का चिन्ह् होता है जिसका हृदय कोमल होता है।
लेकिन मैंने यह देखा है कि फरीसी हालांकि दूसरों के साथ बहुत कठोर होते हैं, फिर भी उनमें से बहुत अपने घर के लोगों के प्रति बहुत कोमल होते हैं। वे पक्षपात और पाखण्ड से भरे होते हैं।
हमारी अपनी आस्थाएं होनी चाहिए। मेरी भी अपनी ऐसी आस्थाएं हैं कि मुझे अपने आपको किन वस्तुओं को पाने की क्या करने की अनुमति देनी चाहिए। लेकिन मैं ऐसे मामलों में अपनी आस्थाएं दूसरों पर नहीं थोपता जिन मामलों में परमेश्वर का वचन ख़ामोश है। मैं लोगों से यह नहीं कहता कि उनके पास एक टी. वी. होना चाहिए या नहीं। मेरे विचार से इन्टरनेट से जुड़ा एक कम्प्यूर किसी भी टी. वी. से ज़्यादा ख़तरनाक होता है। मैं लोगों को इन दोनों उपकरणों की बुराई के बारे में बता देता हूँ। लेकिन मैं फरीसियों की तरह दूसरों के लिए नियम नहीं बनाता। मैं ऐसे फरीसियों को जानता हूँ जिन्होंने दूसरों को कभी ये उपकरण न रखने के लिए कहा, लेकिन फिर उन्हें अपने ही शब्दों को तब वापिस लेना पड़ा जब उन्हें स्वयं ज़रूरत पड़ने पर उन्हें ख़रीदना पड़ा।
“परन्तु जब मुख्य याजकों और शास्त्रियों ने उन आश्चर्यकर्मों को देखा जो उसने किए थे और बच्चों को जो मन्दिर में यह पुकार रहे थे, ‘दाऊद की संतान को होशन्ना,’ तो वे क्रोधित हो गए” (मत्ती 21:15)।
जब लोग परमेश्वर की स्तुति करने के लिए अपना मुख खोलते हैं, तो फरीसी परेशान हो जाते हैं। वे यह मानते हैं कि परमेश्वर का आदर-युक्त भय यह माँग करता है कि उसके लोग उसकी उपस्थिति में शांत रहें या कम-से-कम अपनी स्तुति में ऊँची आवाज़ न करें। लेकिन यीशु ने जब बच्चों को परमेश्वर की ऊँची आवाज़ में स्तुति करते सुना तो वह बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि उसे स्वर्ग याद आ गया था! स्वर्ग ऐसी जगह है जहाँ हर समय ऊँची आवाज़ में स्तुति होती रहती है - कभी-कभी तो बादल की गर्जन जैसी ऊँची आवाज़ में होती है (प्रका. 19:6)। हमने अपनी स्तुति की सभाओं में अभी तक ऐसी ऊँची आवाज़ में कभी स्तुति नहीं की है। लेकिन हमारा लक्ष्य यही है। फरीसी तो तब भी परेशान हो जाते हैं जब वे किसी व्यक्ति को एक संदेश में सुनी किसी बात के जवाब में ‘आमीन’ या ‘हाल्लेलूयाह’ कहते हुए सुनते हैं! वे अपने आस-पास नज़र करके यह देखते हैं कि यह किसने कहा है। वे ऐसा सोचते हैं कि एक कलीसियाई सभा में ऐसे शब्द नहीं बोलने चाहिए! वे यह सोचते हैं कि हरेक व्यक्ति को कलीसियाई-सभा में ऐसे बैठना चाहिए जैसे वह किसी मृतक की शोक-सभा में आया है। उन्हें गाते हुए सुनकर ऐसा लगता है जैसे उन्होंने अभी तक यह सुना ही नहीं है कि यीशु मृतकों में से जी उठा है!
“यीशु ने कहा, ‘शास्त्री और फरीसी स्वयं मूसा की गद्दी पर बैठ गए हैं। इसलिए जो कुछ वे तुमसे कहें उसे करना और मानना, लेकिन उनके जैसे काम न करना, क्योंकि वे कहते तो हैं, पर करते नहीं” (मत्ती 23:2,3)।
मत्ती 23 में, यीशु ने फरीसियों के जितने लक्षणों का बयान किया है, उतने बाइबल के दूसरे किसी अध्याय में नहीं मिलते। मत्ती 23 एक ऐसा अध्याय है जो 1 कुरिन्थियों 13 का विपरीत है। व्यवस्था की अगुवाई में चलना पवित्र द्वारा अलौकिक प्रेम की अगुवाई में चलने से बिलकुल उलटा है। इसलिए अगर हमें फरीसीवाद और विधिवाद में जाना है, तो हमें मत्ती 23 का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने की ज़रूरत है।
फरीसी मूसा की कुर्सी में बैठ गए थे, जिसका अर्थ है कि वे बाइबल कॉलेजों में जाकर अपने स्नातक होने की डिग्रियाँ प्राप्त कर चुके थे और उनके पास बहुत सी बातों का सही ज्ञान था। यीशु ने अपने शिष्यों से यह भी कहा कि वे फरीसियों द्वारा सिखाई गई सारी बातों को पूरा करें। इसलिए जो कुछ फरीसियों द्वारा सिखाया जाता था, वह सही था। लेकिन जिन बातों को वे सही जानते थे, उनका वे स्वयं पालन नहीं करते थे।
ज्ञान एक बहुत उपयोगी वस्तु होती है, लेकिन वह बहुत ख़तरनाक भी हो सकता है। जिस ज्ञान के साथ आज्ञापालन होता है, सिर्फ वही आत्मिक जीवन लाता है। लेकिन वह ज्ञान जिसमें आज्ञापालन नहीं है, वह आत्मिक मृत्यु लाता है। ऐसा ज्ञान जिसमें आज्ञापालन नहीं है, उससे अच्छा ऐसे ज्ञान का न होना है। ज्ञान की तुलना हमारे द्वारा खाए जाने वाले खाने से की जा सकती है, और आज्ञापालन को उसके पचाने की क्रिया माना जा सकता है। खाना पचने के बाद ही हमारी देह का हिस्सा बनता है। चावल और दाल-सब्ज़ी, माँस और हड्डियों में घुल-मिल जाते हैं - एक ऐसा चमत्कार जो पानी को दाखरस बनाने के चमत्कार से कम नहीं है। और हमारी देह प्रतिदिन यह चमत्कार करती है!
लेकिन जो खाना हम खाते हैं अगर वह पचाया न जाए, तो वही खाना हमें जान से ख़त्म भी कर सकता है - क्योंकि जो खाना पचता नहीं है, वह हमारे पेट में सड़ता है और हमें बीमार कर देता है। क्या आपने यह ध्यान दिया है कि जब आप उलटी करते हैं, तो आपके पेट में से आने वाला खाना बदबू उड़ाता है और उसका स्वाद भी बुरा होता है? जब आपने वह खाया था तब वह मुर्ग़ी का स्वादिष्ट माँस था। लेकिन जब उसकी उलटी की, तब उसका स्वाद अलग था। ऐसा तब भी होता है जब हम ज्ञान तो अर्जित कर लेते हैं लेकिन आज्ञापालन नहीं करते। यही वजह है कि आत्मिक तौर पर बहुत से मसीही बदबूदार होते हैं। जो सबसे ज़्यादा बदबूदार होते हैं उनमें सबसे ज़्यादा ज्ञान और सबसे कम आज्ञापालन होता है। फरीसी ऐसे ही होते हैं। लेकिन अफसोस की बात यह होती है कि वे स्वयं नहीं जानते कि वे बदबूदार हैं। लेकिन एक आत्मिक व्यक्ति उस बदबू को बहुत जल्दी पहचान लेता है। एक ईश्वरीय व्यक्ति पाँच मिनट की बातचीत में ही एक फरीसी को परख लेता है। उनकी आँखें या तो घमण्डी या व्यभिचार से भरी होती हैं (नीति. 6:17; पत. 2:14)। ऐसी अनेक स्त्रियाँ जिन्होंने अपने मन-फिराव से पहले एक चंचल जीवन बिताया था, वे बाद में भी अपनी आत्माओं को पूरी तरह शुद्ध नहीं करतीं। इसका परिणाम यह होता है कि उनके मन फिराव के 20 साल बाद भी,
“वे कहते तो हैं, पर करते नहीं” (मत्ती 23:3)।
यह पद प्रेरितों के काम 1:1 का विपरीत है जहाँ यीशु के बारे में यह लिखा है, “उसने (पहले) किया और (बाद में) सिखाया।” फरीसी बोलते थे, लेकिन करते नहीं थे। जिन बातों का वे प्रचार करते थे, वे उनका पालन नहीं करते थे। लेकिन यीशु ने पहले किया और फिर वह सिखाया जो वह पहले कर चुका था! ये दोनों विपरीत आत्माएं। वे जिनमें फरीसियों की आत्मा है वे बेबीलोनी वेश्याई कलीसिया का ही निर्माण करेंगे। और जिनमें मसीह का आत्मा है वे यरूशलेमी दुल्हन कलीसिया का निर्माण करेंगे।
यीशु ने कभी उस बात का प्रचार नहीं किया जिसे उसने पहले किया नहीं था। आप क्या सोचते हैं कि यीशु ने पहाड़ी उपदेश - जो आज तक प्रचार किया गया सबसे अच्छा उपदेश है - तैयार करने में कितना समय लगाया होगा - (मत्ती अध्याय 5, 6 और 7)? उसे वह प्रचार तैयार करने में 30 साल लगे थे। वह सिर्फ उसके मन में से ही नहीं उसके जीवन में से आया था।
जब आप कोई ऐसा प्रचार करते हैं जो आपने किसी दूसरे से सुना है, तो वह सिर्फ आपके मस्तिष्क में से आता है। वह सिर्फ ज्ञान है, उसमें न जीवन और न ही अभिषेक होता है। अगर आप ऐसे प्रचार करना चाहते हैं जैसा प्रचार यीशु ने किया था, तो पहले आपको उस वचन को अपने जीवन के अनुभव में जीना पड़ेगा, और तब आप उसका प्रचार कर सकते हैं। कुछ लोग मुझसे पूछते हैं, “भाई ज़ैक, क्या मैं आपके संदेशों का अपनी सेवकाई में प्रचार कर सकता हूँ?” और मैं उनसे कहता हूँ, “हाँ, अगर तुम पहले अपने जीवन में उसे व्यावहारिक तौर पर लागू कर सको और ईमानदारी से यह स्वीकार कर सको कि वह संदेश तुमने कहाँ से प्राप्त किया है।”
परमेश्वर कहता है, “क्या इनमें से किसी भी प्रचारक ने मुझसे मिलने और मेरी बात सुनने की तकलीफ उठाते हुए फिर उसे अपने जीवन में पूरा किया है?... मैंने इन प्रचारकों को कभी नहीं भेजा, मैंने उनसे कभी बात नहीं की, फिर भी उन्होंने प्रचार किया है” (यिर्म. 23:17,18, 21 – एम.एस.जी.)।
जब आप किसी दूसरे के संदेश का प्रचार उसे अपने जीवन में पूरा किए बिना या लोगों को उसके स्रोत् के बारे में बताए बिना ही करते हैं, तो उसमें से आप सिर्फ अपने ही लिए सम्मान पाना चाहते हैं। यह एक ख़तरनाक आदत है और इसका अंतिम परिणाम आत्मिक मृत्यु भी हो सकता है, क्योंकि परमेश्वर ने कहा है, “देखो, मैं ऐसे सभी प्रचारकों के खिलाफ़ हूँ जो अपने संदेश दूसरों से चुराते हैं, और यह कहते हैं, ‘यह परमेश्वर का वचन है’” (यिर्म. 23:30,31 – एम.एस.जी. व टी.एल.बी.)।
पिछले 30 साल से मैंने यही कोशिश की है कि मैं सिर्फ उन्हीं बातों का प्रचार करूँ जिन्हें मैंने पहले अपने जीवन में पूरा किया है। मैं आपको एक उदाहरण देना चाहता हूँः मैंने कहीं प्रचार करते हुए कभी किसी से उत्तर भारत में मिशनरी होकर जाने का आग्रह नहीं किया है। जबकि उत्तर भारत में सैंकड़ों मिशनरियों की ज़रूरत है, तो मैंने ऐसा क्यों नहीं किया है? सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं स्वयं उत्तर भारत में मिशनरी होकर नहीं रहा हूँ।
अब जो मैं कह रहा हूँ उसे सुनें और यह देखें कि यह सच है या नहींः दक्षिण भारत की सभी सुसमाचारीय मिशनरी संस्थाओं के अगुवे, दक्षिण भारत के सुख-सुविधा में रहते हुए, दूसरे लोगों को उत्तर भारत में जाने के लिए चुनौती देते हैं। ये अगुवे अपने बच्चों को दक्षिण भारत के अच्छे स्कूल कॉलेजों में भेजते हैं। लेकिन वे उत्तर भारत के दुर्गम गावों में (जहाँ अच्छे स्कूल नहीं हैं), रहने वाले मिशनरियों से यह कहते हैं कि वे अपने बच्चों को कहीं दूर किसी छात्रालय में भेज दें। मैं इन लोगों का न्याय नहीं कर रहा हूँ क्योंकि उनके न्याय करने वाला परमेश्वर है। लेकिन मैं यह ज़रूर कहूँगा कि मैं उनके उदाहरण का अनुसरण नहीं करूँगा। अगर मैं उनकी तरह प्रचार करूँगा तो मैं भी एक फरीसी बन जाऊँगा, क्योंकि तब मैं दूसरों से वह करने के लिए कहने वाला बन जाऊँगा जो मैं स्वयं नहीं करता। सिर्फ ऐसा व्यक्ति, जो उत्तर भारत में रहा हो और जिसने अपने बच्चों को वहाँ के मुश्किल हालातों में पाला-पोसा हो, अधिकार-पूर्वक दूसरों को वहाँ जाने के लिए कह सकता है। बाक़ी सभी फरीसी हैं। यही सिद्धान्त और भी बहुत सी बातों में लागू होता है।
कभी किसी ऐसी बात का प्रचार न करें जिसे आपने स्वयं पूरा न किया हो। जिन माता-पिता के किशोरावस्था वाले बच्चे हैं, उन्हें उनके बच्चों की देखभाल करने के बारे में तब तक कोई सलाह न दें जब तक आपने स्वयं अपने किशोरावस्था वाले बच्चों की सही तरह देखभाल न की हो। यह ऐसी ही मूर्खतापूर्ण होगा जैसे एक अविवाहित व्यक्ति का एक माता-पिता को यह बताना कि वे अपने बच्चों की परवरिश कैसे करें। बहुत बार हम लोगों के लिए सिर्फ प्रार्थना करने, और सलाह देने के मामले में, अपना मुँह रखने द्वारा उन्हें आशिष दे सकते हैं।
क्या आप रसायन-शास्त्र का अध्ययन किए बिना रसायन-शास्त्र पढ़ा सकते हैं? नहीं। अगर आपकी कॉलेज की डिग्री अंग्रेज़ी में स्नातक की है, तो आप सिर्फ अंग्रज़ी पढ़ा सकते हैं। यह एक ऐसा सहज सत्य है जो हरेक शिक्षक जानता है। लेकिन फरीसी ऐसी सहज बात भी नहीं समझते।
“वे भारी बोझों को बाँधकर मनुष्यों के कंधों पर लाद
देते हैं, लेकिन स्वयं उन्हें अपनी अंगुली से भी
छूना नहीं चाहते” (मत्ती 23:5)।
फरीसी आत्मिक नज़र आने के लिए दूसरों के अनुसरण के लिए ऊँचे मापदण्डों का प्रचार करते हैं, लेकिन वे स्वयं उन मापदण्डों का अनुसरण नहीं करते।
मुझे बहुत साल पहले का एक युवा-शिविर याद है जिसमें मैं दो मुख्य वक्ताओं में से एक था। दूसरे प्रचारक ने यह प्रचार किया कि सभी को अपना 10 प्रतिशत समय (धन के दसवांश की तरह) परमेश्वर को देना चाहिए, मतलब हरेक को प्रतिदिन अपना 2 घण्टा 24 मिनट बाइबल अध्ययन और प्रार्थना में बिताना चाहिए। प्रश्नोत्तर के समयकाल में एक युवक ने मुझसे पूछा कि क्या मैं उस शिक्षा से सहमत हूँ। मैंने उनसे कहा कि मैं उससे सहमत नहीं हूँ; और फिर मैंने दूसरे प्रचारक से सबके सामने पूछा, “भाई, क्या आप प्रतिदिन 2 घण्टा 20 मिनट बाइबल अध्ययन और प्रार्थना में बिताते हैं?” उसने दबी ज़बान में जवाब दिया, “नहीं।” तब सबने यह देख लिया कि वह एक पाखण्डी फरीसी था जो दूसरों पर भारी बोझ लाद रहा था जो वह स्वयं नहीं उठाना चाहता था। यह सिर्फ एक उदाहरण है।
ऐसे लोग हैं जो दूसरों से उनकी आय का 10% परमेश्वर को देने का आग्रह करते हैं, लेकिन वे अपनी कुल आय में से स्वयं 10 प्रतिशत नहीं देते। वे पाखण्डी फरीसी हैं। मसीही जगत में ऐसे फरीसी प्रचारक भरे पड़े हैं जो दूसरों के लिए ऐसे असम्भव मापदण्ड तय कर देते हैं जिनके अनुसार वे स्वयं जीवन नहीं जीते हैं। ये वे प्रचारक हैं जो बेबीलोन का निर्माण करते हैं और परमेश्वर के काम को नाश करते हैं। वे परमेश्वर के वचन को लोगों को आशिष देने की बजाय उन पर बोझ लादने के लिए इस्तेमाल करते हैं।
मुझे बाइबल के मैसेज अनुवाद में मत्ती 23:4 बहुत पसन्द है जो इस तरह हैः “परमेश्वर के वचन को तुम्हें खाने व पीने के लिए देने की बजाय, जिसमें तुम परमेश्वर के ख़र्च पर दावत कर सकते थे, वे वचन को नियमों की गठरियों में बाँध कर वज़न ढोने वाले जानवरों की तरह तुम पर लाद देते हैं। इन बोझों तले तुम्हें लड़खड़ाते हुए देखकर ये ख़ुश होते हैं, और तुम्हारी मदद के लिए एक अंगुली भी नहीं उठाने के बारे में सोच भी नहीं सकते।”
ऐसे प्रचारक परमेश्वर के बच्चों के साथ भारी वज़न ढोने वाले गधों की तरह व्यवहार करते हैं। बाइबल के एक ही संदेश का प्रचार दो तरह से हो सकता है - एक बोझ की तरह, या एक आशिष की तरह। यह पूरी तरह से प्रचारक पर निर्भर होता है।
फरीसीवादी प्रचारकों की वजह से ही बहुत से युवाओं ने तंग आकर कलीसियाई सभाओं में आना बंद कर दिया है। यीशु भी उसी पुरानी वाचा में से प्रचार करता था जिसमें से फरीसी प्रचार करते थे। लेकिन उन शास्त्रें द्वारा वह लोगों को आज़ाद करता है, जबकि फरीसी उन्हीं शास्त्रों द्वारा लोगों को और ज़्यादा बड़ी ज़ंजीरों में जकड़ते थे। आज भी जब फरीसी प्रचार करते हैं, तब यही होता है।
“वे अपने सब काम मनुष्यों को दिखाने के
लिए करते हैं” (मत्ती 25:5)।
यीशु ने कहा कि फरीसी रास्तों में खड़े होकर ऊँची आवाज़ में प्रार्थना करते हैं (मत्ती 6:1)। यीशु की इस बात में अतिशयोक्ति थी, लेकिन इसका एक उद्देश्य था। यीशु को जब भी किसी बात की तरफ विशेष ध्यान आकर्षित करना होता था, तब वह एक महागुरु की तरह अतिशयोक्ति का इस्तेमाल करता था। उसने लोगों की आँख में लट्ठा होने, और उनके द्वारा ऊँट निगल जाने की बात की। किसी बात को लोगों के हृदयों की गहराई में उतारने के लिए मैंने भी अति-शयोक्ति का इस्तेमाल करने के यीशु के उदाहरण का अनुसरण किया है। जब हम कोई रिपोर्ट दे रहे हों, तब हमें हर्गिज़ अति-शयोक्ति का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। हमें ऐसा नहीं कहना चाहिए, “मेरी सभा में 200 लोग आए थे, जबकि उसमें सिर्फ 150 लोग ही थे!” लेकिन यीशु ने किसी बात को समझ की गहराई में उतारने के लिए जिस तरह की अति-शयोक्ति का इस्तेमाल किया था, वह बहुत मूल्यवान है।
यीशु ने एक बार उन फरीसियों के बारे में बात की जो लोगों से सम्मान पाने के लिए प्रार्थना करते थे। क्या हम सबने लोगों के बीच में लोगों से आदर पाने के लिए प्रार्थना नहीं की है? प्रार्थना करते समय हमने अक्सर अपनी प्रार्थना पर किसी के द्वारा बोला गया “हाल्लेलूयाह” या “आमीन” सुनना चाहा है। यह फरीसीवाद है क्योंकि तब हमने परमेश्वर से नहीं लोगों से प्रार्थना की है। हमें इस पाप से अपने आपको शुद्ध करने की ज़रूरत है।
प्रचारक आदर पाने के लिए प्रचार कर सकते हैं। मैं अपने द्वारा प्रचार किए गए हरेक संदेश के बाद यह देखने के लिए अपना न्याय करता हूँ कि क्या मैंने मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहा है या परमेश्वर को, और यह कि क्या मैं अपने प्रचार की गुणवत्ता को बेहतर बना सकता हूँ या नहीं। हरेक रसोईया अपने खाने की गुणवत्ता सुधारना चाहता है। लेकिन यह अफसोस की बात है कि ऐसे बहुत से प्रचारक हैं जो अपने प्रचार की गुणवत्ता सुधारना नहीं चाहते हैं। यही वजह है कि ज़्यादातर प्रचारकों के प्रचार सुनने में हमेशा नीरस लगते हैं। वे इतने धोखे में रहते हैं कि अपने प्रचारों को बहुत शक्तिशाली और अभिषेक से भरे हुए मान लेते हैं। वे अपनी पत्नी से भी नहीं पूछते कि उनके प्रचारों के विषय में उसका क्या कहना है। पिछले अनेक सालों में, मैंने अपने प्रचारों में लगातार सुधार करने की कोशिश की है क्योंकि मैं भी यीशु की तरह एक मुग्ध करने वाले तरीक़े से प्रचार करना चाहता हूँ, और अपने अन्दर वही अग्नि और मनोवेग चाहता हूँ जो उसमें था।
ऐसे दूसरे क्षेत्र भी हैं जिनमें हम मनुष्यों से सम्मान पाने के लिए प्रलोभित होते हैं। यह हो सकता है कि आप अपने काम की रिपोर्ट इस तरह लिख रहे हों जिसमें आप दूसरों को इस बात से प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हों कि आप परमेश्वर के लिए क्या कर रहे हैं। हमारी कलीसियाओं में, 1975 से शुरू करने के बाद, हमने पूरे जगत में अपने काम की किसी को न तो कोई रिपोर्ट और न ही चित्र भेजा है। हमने यही माना है कि हमारे काम के बारे में अगर परमेश्वर जानता है, तो हमारे लिए वही बहुत है।
मनुष्यों से आदर पाने के पाप एक ऐसा पाप है जिसके बारे में ज़्यादातर कलीसियाओं में कभी कोई बात नहीं होती। एक व्यक्ति में दूसरे व्यक्तियों से सम्मान पाने की लालसा उसे एक फरीसी बना देती है। और फरीसी सिर्फ बेबीलोन बनाते हैं।
हमारे प्रभु यीशु मसीह की सच्ची कलीसिया बनाने के लिए हमें लोगों का सम्मान पाने की इच्छा से अपने आपको पूरी तरह से शुद्ध करना होगा।
“वे अपने ताबीज़ों को चौड़ा करते हैं (छोटे ख़ाने जिनमें
पवित्र-शास्त्र के वचन लिखकर माथे पर लटकाते थे)
और अपने वस्त्रों की झालरें लम्बी करते थे” (मत्ती 23:5)।
फरीसियों का एक और लक्षण यह है कि वे अपने वस्त्रों की “पवित्रता” पर बहुत गौरान्वित होते हैं! परमेश्वर ने इस्राएलियों से यह कहा था कि वे अपने वस्त्र के छोर पर एक झालर लगाएं (धागों का एक गुच्छा जो एक छोर पर एक नीले फीते से बंधा हो और दूसरे छोर पर खुला हो) - कि वे जब भी उस झालर को देखें तो उन्हें याद रहे कि वे परमेश्वर की उन आज्ञाओं की झालर है जो स्वर्ग से आईं हैं (गिनती 15:38)।
फरीसी अपनी झालरें दूसरों से लम्बी बनाते थे। तब वे यह डींग मार सकते थे कि दूसरों की झालरें सिर्फ 3 इंच लम्बी थीं जबकि उनकी 6 इंच लम्बी थीं - जिससे यह साबित होता था कि वे उनसे ज़्यादा पवित्र थे!
आज भी ऐसे बहुत से फरीसी हैं जो अपने पहने हुए वस्त्रों के “पवित्र” होने पर गर्व करते हैं! एक बार किसी ने मुझे एक बहुत रंगीन, हवाई द्वीप में बनी कमीज़ दी। अगर आप मुझे वह कमीज़ पहने हुए देखेंगे तो आप क्या सोचेंगे? कुछ मसीहियों को तो इससे बहुत आघात लग जाएगा। इससे उनका फरीसीवाद उन पर प्रकट हो जाएगा। हमारे अन्दर ऐसे कितने विचार होते हैं जो पूरी तरह मसीह के विचारों से विपरीत होते हैं क्योंकि हम पवित्र-शास्त्रों पर पर्याप्त चिंतन-मनन नहीं करते। हमें यह डर होता है कि अगर हम एक ख़ास रंग का कपड़ा पहन लेंगे तो लोग हमारे बारे में क्या कहेंगे। लेकिन यीशु की पवित्रता उसके कपड़ों में नहीं थी।
फरीसी ध्यान से यह देखते हैं कि दूसरों ने क्या पहना हुआ है - कपड़े, जूते, कान के बुंदे, आदि, कि उन्हें आलोचना करने के लिए कुछ मिल जाए। ऐसे मामलों में उनकी आँखें उकाब की तरह तेज़ होती हैं।
यीशु ने एक बार ऐसे पुरुषों के खिलाफ़ बोला “जो स्त्रियों जैसे (यूनानी भाषा में - मलाको) कपड़े पहनते हैं” (मत्ती 11:8)। और पवित्र-आत्मा स्त्रियों को “शालीन, सादे और उचित” कपड़े पहनने के लिए प्रेरित करता है (1 तीमु. 2:9; 1 पत. 3:3)। इसके अलावा, हमारे पहने हुए वस्त्रों में कहीं कोई पवित्रता की बात नहीं है। पवित्रता मुख्य रूप में भीतरी बात है।
“वे कलीसियाई भोजों में मेज़ पर प्रमुख स्थान चाहते हैं, और सबसे बड़े आदर के स्थान पाकर उसमें मानो धूप सेंकते हैं, लोगों द्वारा की जाने वाली चापलूसी की चमक-धमक में बन-ठन कर बैठते हैं, और ‘डॉक्टर’ व ‘रैवरैन्ड’ कहलाए जाकर सम्मानसूचक शीर्षक पाते हैं। लोग तुम्हारे साथ यह न करने पाएं - तुम्हें ऐसे ऊँचे स्थान पर न पहुँचाने पाएं” (मत्ती 23:6-8 – एम.एस.जी.)।
फरीसी कलीसिया में प्राचीन पद के साथ जुड़े सम्मान से बहुत प्रेम करते हैं। और ऐसे प्राचीनों की फरीसीवादी पत्नियाँ भी उनके पति को मिले सम्मान पर गर्व करती हैं। अगर कलीसिया में प्राचीन होने या आपके पति के प्राचीन के लिए आपके अन्दर मामूली सा भी गर्व है तो आप पहले दर्जे के फरीसी हैं। ऐसे प्राचीन सिर्फ बेबीलोन का ही निर्माण कर सकते हैं। उन दिनों के फरीसियों में, जो अपने आपको ‘रब्बी’ कहलाना पसन्द करते थे, और आज के उन फरीसियों में, जो अपने आपको ‘पास्टर’, ‘रैवरैन्ड’, ‘राइट रैवरैन्ड’, ‘फादर’ जैसा कोई भी दूसरा बेतुका शीर्षक अपनाते हैं, कोई फ़र्क नहीं है। अगर आप अपने आपको भाई कहलाते हैं (जिसका ‘भ’ बड़े अक्षर में हो), तब भी आपके अन्दर वही आत्मा हो सकती है। ऐसे फरीसी सभी सार्वजनिक सभाओं के मंचों पर बैठना और ‘पास्टर’ के रूप में पहचाने जाना पसन्द करते हैं।
मुझे कुछ साल पहले अमेरिका की एक सेमिनरी से पत्र मिला जो मेरी इन्टरनेट की सेवकाई और मेरे द्वारा लिखी अनेक पुस्तकों की वजह से मुझे एक मानक ‘डॉक्टरेट’ की उपाधि देना चाह रहे थे। उन्होंने मुझसे सिर्फ एक आवेदन-पत्र भर कर देने के लिए कहा था। मैंने उस पत्र का कोई जवाब नहीं दिया। क्या यीशु को एक मानक उपाधि लेने में कोई दिलचस्पी होती? हर्गिज़ नहीं।
उपरोक्त भाग में आगे लिखा है,
“लोगों को यह अनुमति न देना कि वे तुम्हें किसी ऊँचे स्थान पर खड़ा कर दें। तुम सबका सिर्फ एक ही शिक्षक है और तुम सब एक ही कक्षा के छात्र हो। अपने जीवन के ऊपर लोगों को निष्णातों के रूप में नियुक्त मत करना कि वे तुम्हें यह बताएं कि तुम्हें क्या करना है। यह अधिकार सिर्फ परमेश्वर के लिए ही बचाए रखो; वही तुम्हें बताए कि तुम्हें क्या करना है। किसी और के पास पिता न ‘शीर्षक’ न हो, क्योंकि तुम्हारा सिर्फ एक ही पिता है, और वह स्वर्ग में है। और लोगों को यह अनुमति न देना कि वे चालाकी से अपने जीवन तुम्हारे अधिकार में कर दें। उनका और तुम्हारा जीवन का मार्ग-दर्शक एक ही है - अर्थात् मसीह। क्या तुम अलग नज़र आना चाहते हो? तो नीचे उतर आओ। एक सेवक बन जाओ। अगर तुम घमण्ड करोगे, तो तुम्हारा घमण्ड चूर-चूर कर दिया जाएगा। लेकिन तुम जो हो, अगर सिर्फ उसमें ही संतुष्ट रहोगे, तो तुम्हारा जीवन बहुत मूल्यवान होगा” (मत्ती 23:8-12, एम.एस.जी.)।
“हे पाखण्डी फरीसियों, तुम पर हाय! क्योंकि तुम मनुष्यों के लिए
स्वर्ग के राज्य का द्वार बंद कर देते हो। तुम न तो स्वयं प्रवेश करते हो, और न भीतर जाने वालों को भीतर जाने देते हो” (मत्ती 23:13)।
फरीसी अगुवे ईमानदार और युवा विश्वासियों को भी भ्रष्ट कर देते हैं। यह हो सकता है कि इन युवाओं में उनके मन-फिराव के समय पाप पर जय पाने और परमेश्वर के लिए जीने का बड़ा उत्साह रहा हो। लेकिन फिर वे अपने अगुवों को देखते हैं जो फिल्मी सितारों की तरह बड़े-बड़े मंचों पर खड़े हुए प्रचार करते हैं, लोगों से ‘यीशु के नाम में’ धन बटोरते हैं, और फिर उस धन से अपने निजी जीवन में फिल्मी सितारों की तरह जीवन बिताते हैं। तब ये युवा, जिन्होंने यीशु के पीछे चलने और उसकी तरह जीने की इच्छा के साथ अपनी शुरूआत की थी, वे अंततः अब इन मशहूर प्रचारकों की तरह जीना चाहते हैं। और वे यह कल्पना कर लेते हैं कि अगर वे विश्वासयोग्य रहेंगे, तो वे भी एक दिन मशहूर हो जाएंगे और फिल्मी सितारों की तरह रह सकेंगे। इस तरह, ये फरीसी अगुवे उन्हें भ्रष्ट कर देते हैं और उन्हें यीशु के पीछे चलने और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने से रोक देते हैं।
आज युवाओं के पास ऐसे उदाहरण नहीं हैं जिन्हें वे अपना आदर्श मानकर उनके पीछे चल सकें। यह दुर्भाग्यपूर्ण हैं कि आज ऐसा कोई प्रचारक नहीं है जो पौलुस की तरह यह कह सकता हो, फ्तुम मेरे पीछे चलो, जैसे मैं यीशु के पीछे चलता हूँ” (1 कुरि. 11:1; फिलि. 3:17)। इसलिए मैं युवाओं से कहता हूँः यीशु की तरफ देखो और उसे अपना आदर्श बनाओ। और अगर तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए जो इधर-उधर भटके बिना यीशु के पीछे चल रहा हो, तब उसकी तरफ देखते हुए उसका भी अनुसरण करो।
“हे पाखण्डी फरीसियों, तुम पर हाय, क्योंकि तुम विधवाओं
के घरों को निगल जाते हो” (मत्ती 23:14)।
हम पूरी तरह से यह नहीं जानते कि फरीसी विधवाओं के घरों को किस तरह निगल जाते थे। यह हो सकता है कि वे उन विधवाओं से उनकी सम्पत्ति “प्रभु के काम के लिए” यह कहते हुए दे देने का आग्रह करते हों कि फिर परमेश्वर उन्हें इसके लिए आशिषित करेगा - और फिर वे उस सम्पत्ति को अपने उपयोग में लेकर उसमें आनन्द मनाते थे। इस तरह, वे 700 साल पहले के इस्राएल के दुष्ट न्यायियों की तरह “विधवाओं को भी लूटते थे” (यशा. 10:2)।
ग़रीब लोगों का यही शोषण 21वीं शताब्दी में भी हो रहा है। मसीही टी.वी. प्रचारक इस बात के लिए बदनाम हैं कि उन्होंने ग़रीब विधवाओं और सेवा-निवृत्त लोगों से बड़ी धनराशियाँ उन्हें यह आश्वासन देते हुए ले ली हैं “अगर तुम मेरी सेवकाई में धन दोगे, तो परमेश्वर तुम्हें आशिष देगा और तुम्हारी बीमारियों से तुम्हें चंगा करेगा।” अब क्योंकि ज़्यादातर बूढ़ी विधवाओं और सेवा निवृत्त लोगों में अनेक बीमारियाँ और दूसरी बहुत सी समस्याएं होती हैं, इसलिए ये प्रचारक अपने लाभ के लिए उनका शोषण बहुत अच्छी तरह करना जानते हैं। इन ग़रीब लोगों से पैसा खींचने के लिए वे अनेक मनोवैज्ञानिक चालें चलते हैं, भावुकता भरे निवेदन करते हैं, और बाइबल के वचनों का इस्तेमाल करते हैं। ग़रीब विधवाएं इन लालची धोखेबाज़ों पर विश्वास कर लेती हैं और अपनी जमा-पूंजी इन्हें सौंप देती हैं। वे प्रचारक तब उस पैसे से एक भव्य रीति से रहते हैं - अपने निजी विमान और सम्पत्ति आदि ख़रीदते हैं।
ग़रीबों को धोखे से लूटने का यह तरीक़ा पिछले कुछ समय से अमेरिका में शुरू हुआ है, लेकिन अब यह पूरे जगत में फैल चुका है और बहुत से भारतीय प्रचारकों में भी पाया जाता है। ऐसे फरीसी दिन-दहाड़े लूटने वाले डाकू और चोर हैं।
पौलुस की साक्षी कितनी ज़बरदस्त थी कि अपने जीवन के अंत में वह यह कह सका, फ्हमने किसी के साथ अन्याय नहीं किया, हमने किसी को भ्रष्ट नहीं किया, और हमने किसी से अनुचित लाभ नहीं उठाया” (2 कुरि. 7:2)।
परमेश्वर के हरेक सेवक के जीवन के अंत में उसकी यही साक्षी होनी चाहिए।
वैसे भी, ग़रीब विश्वासियों से फायदा उठाना दुष्टता से भरा शैतानी काम है।
“हे फरीसियों, तुम पर हाय, क्योंकि तुम दिखावे के लिए
लम्बी-लम्बी प्रार्थनाएं करते हो... इसलिए तुम्हें भारी
दण्ड मिलेगा” (मत्ती 23:14)।
मैंने यह देखा है कि जो लोगों के बीच में लम्बी प्रार्थनाएं करते हैं, वे अपने निजी जीवन में प्रार्थना नहीं करते। वे सब फरीसी होते हैं। अगली बार जब आप किसी व्यक्ति को लोगों के बीच में एक लम्बा वक्तव्य देता सुनें, तो यह जान लेना कि वह एक फरीसी है। सार्वजनिक स्तुति में, अगर अगुवे ने हरेक को उसकी स्तुति का समय 1 या 2 मिनट तक ही सीमित रखने के लिए कहा हो, तो हरेक को ऐसा ही करना चाहिए। लेकिन फरीसी न सुनते हैं और न आज्ञापालन करते हैं। वे यह सोचते हैं कि उनकी प्रार्थना सबसे लम्बी होनी चाहिए। इसका एकमात्र कारण उनका अहंकार, उनका गर्व, और उनके स्वयं के बारे में उनका ऊँचा मत होता है!
बाइबल प्रचारकों को यह आज्ञा देती है कि “वे उस अनुग्रह के अनुसार नबूवत करें जो उनके विश्वास के परिमाण के अनुसार उन्हें मिला है” (रोमि. 12:6)। इसका अर्थ है कि हमारे प्रचारों की लम्बाई हमारे जीवन की परिपक्वता के परिमाण के अनुरूप होनी चाहिए। लेकिन जिन कलीसियाई अगुवों से अब तक मैं मिला हूँ उनमें से 90% लम्बे, नीरस, सन्देश सुनाते हैं और हर एक रविवार को इस आज्ञा का उल्लंघन करते हैं। एक बार फिर इस आज्ञा उल्लंघन का एकमात्र कारण यही है कि वे स्वयं अपने बारे में बहुत ऊँची सोच रखते हैं।
“हे पाखण्डी फरीसियों, तुम पर हाय, क्योंकि तुम एक मनुष्य को अपने मत में लाने के लिए जल-थल में फिरते हो, और जब वह आ जाता हैतो उसे
अपने से दूना नरकीय बना देते हैं” (मत्ती 23:15)।
फरीसी सुसमाचारीय मन-मिज़ाज के होते हैं, लेकिन जो तथा-कथित विश्वासी उनके प्रचार द्वारा “मन फिराते” हैं, वे नर्क में जाते हैं क्योंकि वे उन्हें सच्चे मन फिराव और विश्वास तक नहीं लाते।
फरीसी बहुत सा “धार्मिक काम” कर सकते हैं (जो परमेश्वर की इच्छा पूरी करने से मूलभूत रूप में भिन्न होता है) - और यह वे एक बड़े बलिदानी रूप में भी कर सकते हैं। वे “पूर्ण-कालिक मसीही सेवक” बन सकते हैं, लेकिन उनके द्वारा मन फिराए हुए लोग नरक के दोगुने भागीदार हो जाते हैं - क्योंकि वे मन-फिराव का प्रचार नहीं करते, और वे उन लोगों को, जिन्होंने अपने पापमय मार्गों से कभी मन ही नहीं फिराया है, उन्हें वे यह आश्वासन देते हैं कि क्योंकि उन्होंने “विश्वास” किया है, इसलिए उनका नया जन्म हो गया है। इसी प्रकार, वे सिर्फ इस वजह से लोगों को यह आश्वासन देते हैं कि वे पवित्र-आत्मा से भर गए हैं (जबकि वह सच नहीं होता), क्योंकि वे कुछ अनाप-शनाप बकते रहते हैं, जो अन्य-भाषा के असली वरदान से बिलकुल अलग होता है। इस तरह वे लोगों को दोगुना नरकीय बना देते हैं। वैसे भी, नर्क की संतानों के रूप में वे पहले ही पाप में जीवन बिता रहे थे। लेकिन किसी फरीसी प्रचारक ने उन्हें यह आश्वासन दे दिया है कि वे अब सिर्फ इसलिए “अनन्त रूप से सुरक्षित हो गए हैं” क्योंकि उन्होंने वे “जादुई” शब्द दोहरा दिए हैं - “प्रभु यीशु, मेरे हृदय में आ” - हालांकि पाप के प्रति उनकी मनोवृत्ति बदली नहीं है। उनसे यह कहा जाता है कि उन्हें अब सिर्फ नियमित रूप से उनके दसवांश देते रहना है, और उनके लिए स्वर्ग में जगह सुरक्षित है। इस प्रकार उनका सुसमाचार से पृथक्करण (अलगाव) हो जाता है। इसलिए अब वे जब सुसमाचार सुनते हैं, तो उन्हें उसका प्रत्युत्तर देने की कोई ज़रूरत महसूस नहीं होती क्योंकि वह “अनन्त रूप में सुरक्षित हो गए हैं।” आज यह कितना बड़ा धोखा चल रहा है। हमारी अपनी कुछ कलीसियाओं में मैंने लोगों से यह कहा है कि चाहे हमारे बीच में वे सालों से बैठे हुए हैं, लेकिन उनका अभी नया जन्म नहीं हुआ है। जहाँ यह मूल्यांकन करने की बात आती है कि एक व्यक्ति का नया जन्म हुआ है या नहीं, वहाँ बहुत से फरीसी बड़े भाइयों की परखने की क्षमता शून्य होती है। वे उनकी कलीसियाओं में हर तरह के लोगों को शामिल होने की अनुमति दे देते हैं, और यही लोग बाद में उनके लिए बड़ी मुश्किलें पैदा करते हैं।
कुछ फरीसी प्राचीन ग़रीबों का पक्ष लेते हैं। कलीसिया में वे ग़रीब लोगों को, सिर्फ इस वजह से कि वे ग़रीब हैं, ऐसा महसूस करवाते हैं कि वे बड़े महत्वपूर्ण लोग हैं। और ये प्राचीन सोचते हैं कि वे यीशु जैसा व्यवहार कर रहे हैं! (यह उन प्रचारकों से उलटा है जो धनवानों का पक्ष लेते हैं - याकूब 2:1-4)। परमेश्वर जानता था कि प्राचीनों में जो “अति-आत्मिक” हैं उनका यह मनोभाव रहेगा, इसलिए उसने इस्राएल को यह चेतावनी दी थी, “तुम कंगाल का भी पक्षपात न करना” (निर्ग. 23:3)। ऐसे ग़रीब लोगों का पक्ष लेने और उन्हें कलीसिया में महत्वपूर्ण होने का अहसास कराने द्वारा, सिर्फ उनकी ग़रीबी की वजह से, ये फरीसी इन ग़रीब लोगों को दोगुना नरकीय बना देते हैं। यीशु कोई साम्यवादी नहीं था जो निर्धन और धनवान को एक समान बनाने आया था। मैं भी एक साम्यवादी नहीं हूँ। मैं एक मसीही हूँ। मैं उन लोगों का आदर करता हूँ जो मन में नम्र व दीन और परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं, फिर चाहे वे निर्धन हों या धनवान। लेकिन अनेक मसीही अगुवे मसीही विश्वास को साम्यवाद के साथ उलझा देते हैं।
कलीसिया के रूप में हम अपने आपको दो तरह से धोखा दे सकते हैं। एक तो यह कि हम एक बड़ी अद्भुत कलीसिया हैं क्योंकि हमारी कलीसिया के उच्च पदों पर अनेक धनवान, शिक्षित और सुसंस्कृत लोग हैं (लेकिन जिनमें ज़्यादातर भक्तिहीन हैं)। और दूसरा तरीक़ा यह है कि हम यह कल्पना करते हुए अपने आपको एक अद्भुत कलीसिया मान सकते हैं कि हमारे बीच में कोई धनवान या शिक्षित लोग नहीं बल्कि सिर्फ ग़रीब और अनपढ़ लोग ही हैं (लेकिन जिनमें से ज़्यादातर भक्तिहीन हैं)! दोनों ही कलीसियाएं बेबीलोनी कलीसियाएं हैं - सिर्फ दोनों के परिवेश अलग-अलग हैं। यह कल्पना न करें कि सभी निर्धन लोग आत्मिक होते हैं या सभी धनवान लोग अनात्मिक होते हैं। निर्धनता ईश्वरीयता नहीं होती। लोगों को दोगुना नरकीय न बनाएं।
“हे अंधे अगुवों, तुम पर हाय जो कहते हो, ‘अगर कोई मन्दिर की शपथ खाए तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर मन्दिर के सोने की शपथ खाए तो वह बंध जाएगा।’ हे मूर्खो और अंधों, क्या महत्वपूर्ण है, सोना या वह मन्दिर जो उस सोने को पवित्र करता है? फिर कहते हो, ‘अगर कोई वेदी की भेंट की शपथ खाएगा तो वह बंध जाएगा’ हे अंधों, क्या महत्वपूर्ण है, वह भेंट या वह वेदी जो भेंट को पवित्र करती है? इसलिए जो शपथ खाता है, वह वेदी और उस पर रखी भेंट दोनों की शपथ खाता है। जो मन्दिर की शपथ खाता है, वह मन्दिर और उसमें रहने वाले परमेश्वर की भी शपथ खाता है। और जो स्वर्ग की शपथ खाता है, वह परमेश्वर के सिंहासन और उस पर बैठने वाले दोनों की शपथ खाता है।” (मत्ती 23:16-22)।
फरीसी परमेश्वर से कोई प्रकाशन प्राप्त किए बिना ही पवित्र-शास्त्रों की व्याख्या करते हैं। इसलिए वे वचन में अपने विचारों के अनुसार फेर-बदल करके उसे परमेश्वर की व्यवस्था के रूप में सिखाते हैं। आज भी ऐसे फरीसी प्रचारक हैं जो यह कर रहे हैं। परमेश्वर के वचन के पीछे काम करने वाली आत्मा को वे नहीं समझते, बल्कि वे उसके अक्षर के अनुसार प्रचार करते हैं - और “अक्षर मारता है” (2 कुरि. 3:6)। इन प्रचारकों को उस समय अपनी अनियमितता नज़र नहीं आती जब ये उसी शब्द का किसी दूसरे क्षेत्र में उल्लंघन करते हैं।
एक उदाहरण पर विचार करें। कुछ कलीसियाई अगुवे यह सिखाते हैं कि आभूषण पहनना एक पापमय भोग-विलास है, और वे ऐसी हरेक बहन को भी तुच्छ नज़र से देखते हैं जिसने नकली आभूषण पहने होते हैं (जिनकी क़ीमत सिर्फ 400 होती है)। लेकिन यह हो सकता है कि उसी प्रचारक ने अपना घर बनाने में 10 लाख रुपए ख़र्च किए हों जिसमें भोग-विलास की अनेक वस्तुएं लगाई गई होंगी। लेकिन इसमें उन्हें अपनी अनियमितता और पाखण्ड नज़र नहीं आते। वे यह कहते हुए अपने विवेक को शांत कर लेते हैं कि पवित्र-शास्त्र में ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि अपने घर में संगे-मरमर का महँगा पत्थर न लगाएं बल्कि सिर्फ आभूषण पहनने के खिलाफ़ ही लिखा है (1 तीमु. 2:9; 1 पत. 3:3)! लेकिन पवित्र-शास्त्र असल में हमें भोग-विलास की सारी वस्तुओं से दूर रहने के लिए कहता है।
ऐसे और भी दूसरे उदाहरण हैं। ऐसे कलीसियाई अगुवों के पास वचन के के बारे में पवित्र-आत्मा का प्रकाशन नहीं होता। इसकी बजाय, वे अपनी सुविधा के अनुसार पवित्र-शास्त्र की व्याख्या करते हैं और दूसरों का न्याय करते हैं।
“हे पाखण्डी फरीसियों, तुम पर हाय! तुम पोदीने, सौंफ और
ज़ीरे का दसवांश तो देते हो, लेकिन व्यवस्था की गंभीर
बातों को अनदेखा करते हो” (मत्ती 23:23)।
फरीसी पवित्र-शास्त्र में से एक आज्ञा के किसी मामूली से पक्ष ले लेते हैं, और उस पर बहुत ज़ोर देते हैं। वे “छोटी बातों को बड़ा बना देते हैं।” आजकल ऐसे बहुत प्रचार हो रहे हैं। ऐसे प्रचार से एक कलीसिया ऐसे विधिवादी लोगों से भर जाती है जो मामूली बातों में अपने आज्ञापालन पर तो बहुत गर्व करते हैं, लेकिन गंभीर बातों के प्रति अपने आज्ञापालन की तरफ से वे बिलकुल अनजान होते हैं। यीशु ने फरीसियों से यह नहीं कहा कि वे पोदीने और सौंफ आदि का दसवांश न दें। लेकिन उसने यह कहा था कि परमेश्वर की व्यवस्था की गंभीर बातों पर ज़्यादा ज़ोर देने की ज़रूरत थी।
मैंने एक बार चारों सुसमाचारों का अध्ययन किया और उन सभी विषयों को लिखा जिन पर यीशु ने ज़ोर दिया था। उसने मन-फिराव, आत्मा में दीनता, शालीनता, शुद्धता, पाप के लिए विलाप करना, अपने कर चुकाना, नया जन्म पाना, आत्मा में परमेश्वर की आराधना करना, प्रेम, नम्रता, वैवाहिक सम्बंध में विश्वासयोग्यता, मानवीय परम्पराओं को तोड़ने आदि के बारे में प्रचार किया था। लेकिन उसने एक बार भी यह नहीं कहा कि लोगों को कैसे कपड़े पहनने चाहिए, और न ही उसने स्त्रियों के आभूषण पहनन या सिर ढाँपने के बारे में कुछ कहा। लेकिन उसने एक सहज जीवन-शैली अपनाने और धन के प्रेम में न पड़ने के बारे में ज़रूर कहा था।
फिर मैंने यह देखने के लिए पत्रियों का अध्ययन किया कि पवित्र-आत्मा द्वारा किन विषयों पर ज़्यादा ज़ोर दिया है, और किन विषयों पर बिलकुल कम ज़ोर दिया गया है, या जिनका कोई उल्लेख ही नहीं किया गया है।
इस तरह मैंने यह जाना कि मुझे अपने प्रचार में किन बातों को ज़्यादा महत्व देना है और किन बातों को कम महत्व देना है। अगर आप इस तरह से पवित्र-शास्त्रें का अध्ययन करेंगे तो आपके द्वारा दी जाने वाली शिक्षा संतुलित होगी और आप एक फरीसी शिक्षक बनने से बचे रहेंगे।
“तुम फरीसियों ने व्यवस्था की गंभीर बातों, अर्थात् न्याय,
दया और विश्वास-योग्यता की उपेक्षा करते हो; तुम्हें इन
बातों को करना चाहिए था...” (मत्ती 23:23)।
लोगों के साथ उनके व्यवहार में, फरीसी अन्यायपूर्ण और बेईमान थे। उनमें निष्फल हुए लोगों के प्रति कोई दया नहीं थी, और अपने निजी जीवनों में वे विश्वासयोग्य नहीं थे। लेकिन इन सारी कमियों के बावजूद वे अपने उपवास, प्रार्थना और बाइबल के ज्ञान, आदि की वजह से फिर भी अपने आपको पवित्र समझते थे। वे एक ऐसी दुल्हन की तरह थे जिसके विवाह का वस्त्र बिलकुल मैला-कुचैला था लेकिन जिसकी दिलचस्पी सिर्फ इस बात में थी कि विवाह में उसका प्रवेश एक बड़े सम्मानित ढंग से हो। अगर हमारे जीवन में स्वार्थ, गर्व, निर्दयी मनोभाव और विश्वासघात हैं, तो हमारा अपनी धार्मिक गतिविधियों में गौरान्वित होते हुए अपने आपको आत्मिक समझना सिर्फ अपने आपको धोखा देना है। हमें मसीही जीवन की गंभीर बातों को समझने की और पहले उन पर ध्यान देने की ज़रूरत है।
“हे फरीसियों, तुम ऐसे पाखण्डी और अंधे अगुवे हो जो मच्छर को
तो छानते हो लेकिन ऊँट को निगल जाते हो” (मत्ती 23:24)।
फरीसी सामान्य और गौण बातों पर बहुत ध्यान देते हैं (मरे हुए मच्छरों को छानते हैं)। लेकिन वे पवित्र-शास्त्र की आज्ञाओं का पालन करने को अनदेखा कर देते हैं (मरे हुए ऊँट को निगल जाते हैं)। इसमें यीशु फरीसियों से यह नहीं कह रहा था कि मरे हुए मच्छर खाने में कोई बुराई नहीं है। वह उन्हें उनकी वह अनियमितता दिखा रहा था जिसमें वे ज़्यादा महत्वपूर्ण बातों की उपेक्षा कर रहे थे।
ऐसे फरीसी ऐसी मामूली बातों पर बड़ा ध्यान देते हैं जैसे कलीसियाई सभाओं में साफ कपड़े पहन कर जाना, या अपने घरों को साफ-सुथरा रखना, आदि। ये अच्छी आदतें हैं। लेकिन जब ज़्यादा ज़रूरी मामले सामने आते हैं जैसे ईमानदारी से परमेश्वर के खोजी बनना, या क्रोध और लैंगिक वासना पर जय पाना, या कलीसिया में व्यावहारिक बातों में मदद करना, या लोगों को मसीह के पास लाने के लिए गाँवों में जाना, तो इनमें वे बहुत उत्साह नहीं दिखाते, क्योंकि ये ऐसे काम हैं जिनमें एक व्यक्ति को अपने सुख-सुविधा, समय और धन की भेंट चढ़ानी पड़ती है।
मैसेज अनुवाद में इस पद का भावानुवाद इस तरह हैः फ्क्या आप जानते हैं कि आप एक ऐसी कहानी लिखते हुए कितने मूर्ख नज़र आते हैं जो शुरू से आिख़र तक ग़लत है, लेकिन जिसमें आपने अल्प-विरामों और अर्ध-विरामों पर पूरा ध्यान दिया है?”
बैंगलोर में बाइबल स्मृति प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं जिनमें अनेक मसीही कुछ सौ रुपए का पुरस्कार पाने के लिए भाग लेते हैं। उस पुरस्कार को जीतने के लिए, एक व्यक्ति को न सिर्फ पवित्र-शास्त्र के उसके भाग के सभी शब्दों को सही लिखना होता है बल्कि उसके सभी अल्प-विरामों और अर्ध-विरामों को भी सही लिखना होता है! कुछ विश्वासी अनेक सप्ताह तक इस पुरस्कार को पाने में सभी अल्प-विरामों और अर्ध-विरामों की सही जगहों को याद करने में ख़र्च करते हैं। लेकिन इस सारे समय में वे अपने घरों में पवित्र-शास्त्र की आज्ञाओं का उल्लंघन करने में बिताते हैं। लेकिन यह बात उन्हें विचलित नहीं करती। आप ऐसी प्रतियोगिताओं में पहला पुरस्कार जीत सकते हैं और फिर भी पहले दर्जे के फरीसी बने रह सकते हैं।
सुसमाचार का अंतिम उद्देश्य और लक्ष्य प्रेम है (1 तीमु. 1:5) अपने सारे हृदय, जीव और शक्ति से परमेश्वर से प्रेम करना, और अपने साथी विश्वासियों से वैसा ही प्रेम करना जैसा मसीह ने हमसे किया है। अगर हम इस प्रेम की खोज में रहेंगे, तो मसीही जीवन में सबसे ज़रूरी बातें क्या हैं, हमें उनका सहज बोध हो जाएगा।
“हे फरीसियों, तुम कटोरे और थाली को बाहर से तो माँझते हो,
लेकिन भीतर से वे लूट और असंयम से भरे हुए हैं। हे अंधे
फरीसियों, पहले कटोरे और थाली को भीतर से माँझो कि वे
बाहर से भी साफ हो जाएं” (मत्ती 23:25,26)।
फरीसी अपने बाहरी जीवन साफ-सुथरा रखते हैं, लेकिन अपने हृदयों की दशा की कोई परवाह नहीं करते और आत्म-तुष्टि और स्वार्थ से भरे रहते हैं। वे स्वार्थी उद्देश्यों के साथ सिर्फ यह सोचते हुए अपने जीवन व्यतीत करते हैं कि अपने लिए और अपने परिवारों के लिए ज़्यादा से ज़्यादा धन और सम्मान और सुख-सुविधा कैसे प्राप्त करें। लेकिन बाहरी तौर पर वे बड़े पुण्य और धार्मिक नज़र आते हैं। और ऐसी बहुत सी “सेवकाईयों” में भी सक्रिय रहते हैं जिन्हें दूसरे मसीही देख सकें। इस तरह वे लोगों के सामने अपनी अच्छी नेकनामी बना लेते हैं।
परमेश्वर यह देखने के लिए हमें परखता है कि हम उसका समर्थन चाहते हैं या मनुष्य का। ऐसा व्यक्ति जो अपने हृदय की अशुद्धता के प्रति लापरवाह होता है लेकिन सिर्फ लोगों के सामने अपनी अच्छी साक्षी बनाना चाहता है, यह साबित कर देता है कि उसमें परमेश्वर का बिलकुल भी भय नहीं है। वह एक फरीसी है। लोग हमारा बाहरी रूप देखते हैं, लेकिन परमेश्वर हमारे हृदयों को जाँचता है (1 शमू- 16:7)। एक ईश्वरीय पुरुष का प्राथमिक लक्षण यही होता है कि वह परमेश्वर के सामने अपने हृदय को स्वच्छ और शुद्ध रखना चाहते हैं।
“हे फरीसियों, तुम नबियों की कब्रें बनाते हो और धर्मियों के स्मारक सजाते हो, और कहते हो, ‘यदि हम पूर्वजों के समय में होते, तो नबियों की हत्या में साझीदार न होते’” (मत्ती 23:29,30)।
फरीसी दूसरे लोगों के पापों और निष्फलताओं को देखते हैं और कहते हैं, “हमने ऐसा कभी न किया होता। हम ऐसे कपड़े कभी नहीं पहनते। हमने ऐसा व्यवहार कभी न किया होता। हमने ऐसा कभी न बोला होता” आदि।
चाहे हम सबसे अच्छे मसीही भी क्यों न हों, फिर भी हमें यह समझने की ज़रूरत है कि हममें भी वही भ्रष्ट शरीर है जो आदम की हरेक संतान में है। फरीसी स्वयं उनके शरीर में मौजूद भ्रष्टता को नहीं पहचानते। एक ईश्वरीय व्यक्ति यह स्वीकार करेगा कि किसी भी व्यक्ति ने कभी भी जो भी पाप किया है, स्वयं उसमें भी उनमें से कोई भी पाप करने की पूरी क्षमता है। वह यह स्वीकार करेगा कि यह सिर्फ परमेश्वर की प्रतिरोधक कृपा है जिसने उसे बहुत से पाप करने से रोके रखा है। परमेश्वर के एक वृद्ध संत ने, जब एक अपराधी को मृत्यु-दण्ड देने के लिए ले जाते हुए देखा तो वह बोल उठा, “वह देखो, अगर परमेश्वर की कृपा न होती, तो वह मैं जा रहा हूँ।” उस संत को यह समझ आ चुका था कि अगर उसमें परमेश्वर की कृपा की वह अवरोधक शक्ति न होती जिसे ग्रहण करने के लिए उसने अपना हृदय खोला था, तो वह स्वयं उस अपराधी द्वारा किए गए हरेक अपराध करने में सक्षम है। हरेक ईश्वरीय भक्त यह मान लेगा। लेकिन एक फरीसी कभी यह नहीं मानेगा।
“देखो, मैं तुम्हारे नबियों को भेज रहा हूँ... तुम उनमें से कुछ कीहत्या करोगे और कुछ को क्रूस पर चढ़ाओगे, फिर कुछ को अपने आराधनालयों में कोड़े मारोगे, और उन्हें नगर-नगर सताते फिरोगे किजितने धर्मियों का लहू पृथ्वी पर बहाया गया है, वह तुम्हारे सिर परपड़े, अर्थात् हाबिल से लेकर बिरिक्याह के पुत्र जकर्याह तक, जिसेतुमने मन्दिर और वेदी के बीच मार डाला था”
(मत्ती 23:34,35)।
फरीसी जब एक नबी से सत्य सुनते हैं, तो वे ठोकर खाते हैं। इसलिए वे ऐसे प्रचारकों को किसी न किसी तरह सताते हैं। वे ऐसे प्रचारकों को पसन्द करते हैं जो उनकी चापलूसी करते हैं, लेकिन उनसे घृणा करते हैं जो उनकी ताड़ना करते और उन्हें सुधारते हैं। पुरानी वाचा के नबी इस्राएली लोगों को उनके मुँह पर फटकारते थे। अगर आप एक ईश्वर-भक्त की ताड़ना या सुधारने वाली बात का बुरा मानते हैं, तो इस बात की बड़ी सम्भावना है कि आप भी एक फरीसी हैं।
“यूहन्ना का बपतिस्मा किसकी ओर से था, स्वर्ग की ओर से या मनुष्यों की ओर से?” और वे यह कहकर आपस में विचार-विमर्श करने लगे, “अगर हम कहें, ‘स्वर्ग की ओर से’ तो वह हमसे कहेगा, ‘तब तुमने उसका विश्वास क्यों नहीं किया?’ पर अगर हम कहें, ‘मनुष्यों की ओर से, तो हमें भीड़ का डर है, क्योंकि वे सब यूहन्ना को नबी मानते हैं।” तब उन्होंने यीशु को जवाब दिया, ‘हम नहीं जानते’” (मत्ती 23:25-27)।
फरीसी हमेशा इस बात से चिंतित रहते थे कि अगर वे किसी बात पर अपना मत व्यक्त करेंगे, तब दूसरे लोग क्या सोचेंगे। उनकी आस्थाएं परमेश्वर के वचन द्वारा सिखाई गई बातों पर आधारित नहीं थीं, बल्कि इस पर कि उनके बारे में उनके आसपास के लोग क्या सोचेंगे। उन्हें रोमियों या यूनानियों के मतों की परवाह नहीं थी, लेकिन उन्हें अपने साथी यहूदियों के मतों की चिंता थी।
अगर आपकी दिलचस्पी अपने विवेक के अनुसार सही काम करने की बजाय इस बात में ज़्यादा है कि आपकी कलीसिया के लोग आपके बारे में क्या सोच रहे हैं, तो आप एक फरीसी हैं। अनेक प्रचारक अपनी कलीसिया के किसी ख़ास समूह के लोगों को ख़ुश करने के लिए इसलिए कुछ ऐसी बातें बोलते हैं और ऐसे काम करते हैं क्योंकि वे उनसे कुछ लाभ प्राप्त करना चाहते हैं। अनेक विश्वासी यह चाहते हैं कि उनके बच्चों के आचरण अच्छे हों, परमेश्वर की महिमा के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि माता-पिता के रूप में वे अपने लिए सम्मान चाहते हैं। इसलिए, वे अपने बच्चों के लिए मूर्खता भरे नियम बनाते हैं, और उनसे “हुक्म के गुलाम” जैसा व्यवहार करवाते हैं।
1987 में, मेरे सबसे बड़े पुत्र ने अपने स्कूल की पढ़ाई ख़त्म की और उसे दो कॉलेजों में प्रवेश मिला - भारत के एक आई.आई.टी. में, और छात्रवृत्ति सहित अमेरिका के एक बेहतर कॉलेज में भी। उसने जब मुझसे कहा कि वह अमेरिका के कॉलेज में जाना चाहेगा, तो मैंने कहा, “ठीक है, मैं तुम्हें वहाँ भेज दूँगा।” (आज हमारी कलीसियाओं में से अनेक युवा अमेरिका गए हुए हैं, लेकिन 1987 में, हमारी किसी भी कलीसिया में से कोई भी युवा अमेरिका नहीं गया था। अनेक फरीसीवादी भाइयों के मनों में यह विचार भी था, ‘भारत के आत्मिक मनोवृत्ति वाले लोग कभी विदेश नहीं जाएंगे और अपने बच्चों को भी बाहर नहीं भेजेंगे - न तो अरब खाड़ी के देशों में और न ही अमेरिका में’)। जब मैं अपने पुत्र को अमेरिका भेजने के लिए तैयार हो गया तो वह हैरान हो गया और उसने मुझसे पूछा, फ्हमारी कलीसियाओं में जब लोग यह सुनेंगे कि आपने मुझे अमेरिका भेज दिया है तो वे क्या कहेंगे?” लेकिन मैं अपने बच्चों को फरीसियों के बनाए हुए नियमों के अनुसार जीने वाले नहीं बनाना चाहता था। इसलिए मैंने उससे कहा, “इसमें इस बात की परख हो जाएगी कि मैं दूसरों के मतों से मुक्त हो गया हूँ या नहीं।”
यह एक दिलचस्प बात है कि जिन लोगों ने मेरे पुत्र को अमेरिका भेजने की आलोचना की थी, उन्होंने स्वयं कुछ साल बाद अपने बच्चों को अमेरिका भेजा था। फरीसी ऐसे ही होते हैंः वे दूसरों के लिए बहुत कठोर नियमों का प्रचार करते हैं, लेकिन अपने परिवार के सदस्यों के लिए वे नियमों में फेर-बदल कर देते हैं। ऐसे प्राचीन बड़े भाई पाना भी दुर्लभ है जो अपने परिवार के सदस्यों का पक्ष लेने से पूरी तरह मुक्त हों।
अगर हम दूसरों के मतों की परवाह करेंगे, तो यह हो सकता है कि हमारे बच्चे संसार में खो जाएं। अपनी कलीसिया के फरीसीवादी प्राचीनों द्वारा बनाए हुए मूर्खतापूर्ण व विधिवादी नियमों पर ध्यान देने द्वारा अपने बच्चों के भविष्य बर्बाद न करें।
पौलुस ने कहा,
“मैं संसार की तरफ से सूली पर चढ़ाया जा चुका हूँ, और दूसरों को ख़ुश करने और उनके द्वारा बनाए हुए मामूली साँचों में ढाले जाने के घुटन-भरे वातावरण से मुक्त हो चुका हूँ” (गला. 6:14 – एम.एस.जी.)।
लोगों को ख़ुश करने की कोशिश करना एक दुर्गन्ध से भरे कक्ष में रहने के समान है। बाहर निकल जाएं और मसीह में मुक्ति की ताज़ा हवा में जीवन बिताएं।
“फरीसी धन के लोभी थे” (लूका 16:14)।
जब हम फरीसियों के बारे में सोचते हैं, तो हम अक्सर धन के प्रेम को उनके साथ नहीं जोड़ते। लेकिन असल में एक फरीसी का सबसे स्पष्ट चिन्ह् यही होता है। अगर आपके अन्दर एक फरीसी के 49 लक्षण नहीं हैं और सिर्फ यही एक लक्षण है, तो आप फिर भी एक फरीसी हैं। फरीसी व्यवस्था में से मामूली से मामूली नियमों को भी छानकर चुनते हैं, लेकिन जहाँ धन का मामला आता है, तो वे उससे बहुत प्रेम करते हैं। यीशु ने कुछ देर पहले ही यह कहा था, “तुम परमेश्वर और मामोन (भौतिक धन-सम्पत्ति) दोनों से प्रेम नहीं कर सकते” (16:13)। फरीसियों ने इस कथन का ठट्ठा उड़ाया क्योंकि वे धन से प्रेम करते थे और वे यह भी सोचते थे कि वे परमेश्वर से भी प्रेम करते थे। एक विश्वासी भौतिक सम्पत्ति को इस्तेमाल कर सकता है (चाहे वह कितना भी धन हो), लेकिन जैसे ही वह उससे प्रेम करने लगता है, तो वह एक फरीसी बन जाता है।
परमेश्वर ने हमें भौतिक वस्तुएं इस्तेमाल करने के लिए और लोग प्रेम करने के लिए दिए हैं। शैतान मानव जाति में इस बात को उलटा घुमाने में सफल हुआ है जिसका नतीजा यह हुआ है कि लोग अब भौतिक वस्तुओं से प्रेम करते हैं और (अपने स्वार्थ के लिए) लोगों को इस्तेमाल करते हैं। यीशु हमारे उलटे पासे को सीधा करने के लिए आया था - कि हम लोगों से प्रेम कर सकें और भौतिक वस्तुओं को (लोगों को आशिष देने के लिए) इस्तेमाल कर सकें। ईश्वरीय लोग अपने आपको बहुत सी भौतिक वस्तुओं से इसलिए वंचित करते रहते हैं कि फिर उन्हीं वस्तुओं से वे दूसरों को आशिष दे सकें। यीशु ने अपना जीवन इसी तरह बिताया था।
ऐसे अनेक प्रचारक जो दूसरों पर लादे गए मामूली नियमों का भी कठोरता से पालन करवाते हैं, स्वयं धन के बड़े प्रेमी होते हैं। वे अपने लिए ज़्यादा धन कमाने के लिए अपनी कलीसियाई जि़म्मेदारियों को भी अनदेखा कर देते हैं - क्योंकि वे फरीसी हैं और उनके मन हमेशा धन पर लगे रहते हैं।
“यीशु ने उन लोगों से जो इस बात के लिए अपने ऊपर भरोसा रखते थे कि हम धर्मी हैं और जा दूसरों को तुच्छ समझते थे, यह दृष्टान्त कहा, दो व्यक्ति मन्दिर में प्रार्थना करने गए। उनमें से एक फरीसी... जो स्वयं से यह प्रार्थना कर रहा था,
हे परमेश्वर, मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ कि मैं दूसरे लोगों की तरह नहीं हूँ”
(लूका 18:9-11)।
इस दृष्टान्त में सबसे पहले हम यह देखते हैं कि यह फरीसी परमेश्वर से प्रार्थना नहीं कर रहा था। वह अपने आपसे प्रार्थना कर रहा था (पद 11)। उसने अपने मन में परमेश्वर को धन्यवाद दिया कि वह दूसरों से बेहतर था। यह उसने ऊँचे स्वर में नहीं कहा था, क्योंकि तब वह नम्र होने की उसकी नेकनामी खो देता!
मान लें कि एक दिन कोई अपना संतुलन खोकर आप पर क्रोधित हो जाता है। लेकिन आप अपना संतुलन बनाए रखते हैं और उस पर क्रोधित नहीं होते। तब आप गुप्त में अपने आपको बधाई देते हैं और कहते हैं, “प्रभु, मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ कि मैं उस व्यक्ति की तरह नहीं हूँ। मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ कि मुझमें आत्म-संयम है।” उस पल में, आपने भी वही प्रार्थना कि है जो उस फरीसी ने की थी। वह व्यक्ति “क्रोध” नामक व्यक्ति 10 फुट गहरे गड्ढे में गिरा था। लेकिन आप “आत्मिक गर्व” नामक 1000 फुट गहरे गड्ढे में जा गिरे हैं! आप दोनों में से ज़्यादा बुरा कौन हुआ? यह व्यक्ति बाद में उसके क्रोध के लिए दोषी ठहराया जाकर मन फिरा सकता है और प्रभु के पास लौट सकता है। लेकिन आप शायद अपने आत्म-धर्मी होने को कभी न देख पाएं, और अपने आत्मिक गर्व के लिए कभी मन न फिराएं! अंततः, परमेश्वर की दृष्टि में, वह व्यक्ति आपसे बेहतर साबित होगा।
आत्मिक गर्व एक प्याज़ की तरह होता है। उसकी एक परत उतारने के बाद आपको ऐसा महसूस होगा कि आपका काम पूरा हो गया। लेकिन उसके नीचे एक दूसरी परत होती है, और फिर एक और होती है - और यह बढ़ता ही रहता है। हम पृथ्वी पर अपने जीवनों में से आत्मिक गर्व को कभी नहीं मिटा सकेंगे। लेकिन दूसरों का न्याय करने की बजाय अगर हम ईमानदारी से स्वयं अपना न्याय करेंगे, तब हम इस प्याज़ को बहुत पतला ज़रूर बना सकते हैं!
आत्मिक गर्व बहुत दुर्बोध होता है, और अपने आपको नम्रता के वस्त्र के नीचे छुपा सकता है। एक सण्डे स्कूल की शिक्षिका बच्चों को फरीसी और चुंगी लेने वाले की यह कहानी सुना रही थी। अंत में उसने कहा (ऐसे शब्द जो हूबहू उस फरीसी द्वारा कहे गए शब्दों जैसे थे), “बच्चों, परमेश्वर को धन्यवाद दो कि हम फरीसी जैसे नहीं है।” हम इस पर हँस कर यह कह सकते हैं, “परमेश्वर का धन्यवाद हो कि हम उस सण्डे-स्कूल की शिक्षिका जैसे नहीं हैं।” हाँ, आत्मिक गर्व वास्तव में एक प्याज़ की तरह होता है!
स्वार्थ और आत्मिक गर्व दो ऐसे पाप हैं जिनसे हम तब तक पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकते जब तक मसीह नहीं लौटता और हम उसके जैसे नहीं बन जाते। ये पाप ऐसी प्याज़ की तरह हैं जिसमें असंख्य परतें हैं। जैसे ही हम इनमें से किसी एक पाप की परत अपने अन्दर नज़र आए, और हम अपने आपको उससे शुद्ध कर लें, तो हम धीरे-धीरे इन फ्प्याज़ों” को मसीह के लौटने तक जितना हो सकता है उतना पतला ज़रूर कर सकते हैं। अगर आप ऐसा कर रहे हैं, तो आप सही मार्ग पर हैं, और आप कभी एक फरीसी नहीं बनेंगे।
“उसने यह दृष्टान्त उन लोगों से कहा जो अपने ऊपर यह
भरोसा रखते थे कि हम धर्मी हैं” (लूका 18:9)।
एक विश्वास की धार्मिकता है जो परमेश्वर की तरफ से एक वरदान होता है। और एक ऐसी धार्मिकता है जो हम अपने आप पैदा कर सकते हैं। आपकी धार्मिकता कौन सी है यह जानने के लिए आप अपने आपसे यह सवाल पूछें कि क्या आपको अपनी धार्मिकता पर गर्व है। अगर ऐसा है, तो आपकी धार्मिकता स्वयं आपने ही पैदा की होगी। अगर आपके अन्दर परमेश्वर की धार्मिकता होती जो आपने एक दान के रूप में उससे पाई होती, तो उसके लिए आप गर्व नहीं करते बल्कि आभारी होकर धन्यवाद देते। फरीसियों की धार्मिकता ऐसी होती है जिस पर वे गर्व करते हैं।
आपके द्वारा लिखी गई एक पुस्तक पर आप गर्व कर सकते हैं। लेकिन आप किसी दूसरे की लिखी पुस्तक पर गर्व नहीं कर सकते। इसलिए अगर आपके अन्दर मौजूद किसी अच्छे गुण के लिए आप गर्व करते हैं - चाहे वह नम्रता हो, उदारता हो, प्रार्थना करना हो, या कुछ भी, तो वह आपने स्वयं ही पैदा की होगी। अगर आप उदार और अतिथि-सत्कार करने वाले हैं, और आपको इन गुणों पर गर्व है, तो वे ईश्वरीय स्वभाव नहीं मात्र मानवीय गुण ही होंगे। क्योंकि अगर वे परमेश्वर के उस स्वभाव का हिस्सा होते जो उसने आपको मुफ्त में दिया है, तो आप उसकी डींग कैसे मार सकते थे? अतिथि-सत्कार करने वाला होना एक अच्छी बात है, लेकिन अगर आपको इस पर गर्व है, तो आपका अतिथि-सत्कार परमेश्वर के सामने दुर्गन्ध उड़ाने वाला है।
यह सिद्धान्त ऐसे दूसरे क्षेत्रों में भी काम करता है जिनका धार्मिकता से कोई सम्बंध नहीं है। शायद आप दूसरों से बेहतर गा सकते हैं, या कोई वाद्य यन्त्र बेहतर बजा सकते हैं, या बेहतर प्रचार कर सकते हैं। जिस किसी बात पर आप गर्व करते है, वह आपकी अपनी मेहनत का ही फल होगा। लेकिन अगर वह परमेश्वर का काम है, तो आप उसकी बड़ाई नहीं कर सकते।
अनेक लोग उन बलिदानों के बारे में अहंकार से बोलते हैं जो उन्होंने प्रभु के लिए किए हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने सूली पर उनके लिए यीशु द्वारा किए गए बलिदान की असीमता को नहीं देखा है। जब सूर्य चमक रहा होता है तो क्या आपको एक भी तारा नज़र आता है? जब कलवरी पर यीशु का बलिदान हमारे मनों में सूर्य की तरह चमकने लगता है, तब हमारे सारे तुच्छ बलिदान दिन में तारों की तरह ग़ायब हो जाएंगे, और फिर हम उन्हें “बलिदान” भी नहीं कह सकेंगे। अगर आपको अपने सारे बलिदान अभी तक याद हैं, तो आप ज़रूर अभी अंधेरे में ही होंगे, क्योंकि तारे हमें अंधेरे में ही नज़र आ सकते हैं!
विश्वास से आएं और परमेश्वर की उस धार्मिकता को पाएं जो वह हमें मसीह में देता है - और अपने जीवन के सारे दिनों उसकी सारी महिमा उसे ही दें। तब आप कभी एक फरीसी नहीं बनेंगे।
“यीशु ने यह दृष्टान्त उन लोगों से कहा जोदूसरों को
तुच्छ समझते थे” (लूका 18:9)।
लोगों अनेक कारणों से दूसरों का तुच्छ समझते हैं। यह हो सकता है कि उनके बचपन से ही उनके माता-पिता ने उन्हें ऐसे लोगों को तुच्छ समझना सिखाया हो जो सामाजिक स्तर, या धन-सम्पत्ति, या पढ़ाई-लिखाई में उनसे कम हों। अगर आप बहुत कुशाग्र-बुद्धि हैं और अपनी कक्षा में सबसे पहले स्थान पर रहते हैं, तो आप अपनी कक्षा के दूसरे छात्रों को तुच्छ समझ सकते हैं। और अगर इसके साथ, आपके ऐसे मूर्ख माता-पिता हैं जो आपको यह कल्पना करने वाला बना देते हैं कि आपकी प्रतिभा विशिष्ट है, तब मामला और ज़्यादा बिगड़ सकता है।
मैं सभी माता-पिताओं से यह निवेदन करना चाहता हूँः अगर आपके बच्चे प्रतिभाशाली हैं, तो उनकी बड़ाई कर-करके उन्हें बर्बाद न करें। मैंने अपने घर में यह नियम बनाया था कि मेरे बेटे अपनी कक्षा में उनके स्थान और उन्हें मिलने वाले पुरस्कारों के बारे में कभी किसी को नहीं बताएंगे। मैं जानता था कि अगर वे घमण्डी बन गए तो उसी पल वे परमेश्वर की कृपा खो देंगे। फिर वे पाप में गिर जाएंगे और सामान्य भाइयों के साथ संगति नहीं कर सकेंगे। मुझे यह आशंका है कि अनेक माता-पिता अपने बच्चों को इस तरह बर्बाद कर चुके हैं।
बच्चों में यह एक आम आदत होती है कि जो एक अच्छी शैली में अंग्रेज़ी नहीं बोल सकता (या उसकी जो भी मातृभाषा हो), तो वे उसका मज़ाक उड़ाते हैं। आप अपने घर में इस बात को प्रोत्साहन देने के प्रति सचेत रहें। क्या हममें से कोई अपनी माता के गर्भ में से एक अच्छी शैली के साथ बोलता हुआ आया था? हमारे अन्दर जो भी योग्यता है, उसके लिए हम परमेश्वर को धन्यवाद दें। लेकिन हम इस पर कभी घमण्ड न करें। क्या आप जानते हैं कि वे स्वर्ग में कैसी शैली में बात करते हैं? नम्रता और प्रेम की शैली में। हमें इन शैलियों में साफ-साफ बोलना सीख लेना चाहिए।
शायद आप एक ऐसी स्त्री हैं जो अपने घर को बहुत साफ-सुथरा रखती हैं जिसमें सब कुछ उसकी सही जगह पर होता है। फिर आपको किसी का ऐसा घर नज़र आता है जो अस्त-व्यस्त और बेढंगा है - और आप उसे तुच्छ समझती हैं। तब आप एक फरीसी हैं, जबकि अस्त-व्यस्त पड़े घर वाला व्यक्ति एक ईश्वरीय व्यक्ति हो सकता है।
कुछ भाइयों की संगीत की समझ बहुत कम होती है, और अगर वे कलीसिया में सबके लिए नियुक्त स्तुति के समय में गाते हैं, तो उनके बेसुरे स्वर अलग ही सुनाई देते हैं। उन्हें तुच्छ न समझें, क्योंकि परमेश्वर संगीत नहीं सुनता। वह शब्द सुनता है। वह ग़लत सुर में गाने वाला भाई आपसे, जो सही सुर में गाते हैं, ज़्यादा ईमानदार हो सकता है। व्यक्तिगत तौर पर, मैंने ऐसे भाइयों के लिए परमेश्वर को धन्यवाद दिया है क्योंकि वे कलीसिया के सारे चतुर संगीतकारों को नम्र व दीन बना देते हैं। बेसुरे गीत-संगीत वाले नहीं, सुरीले गीत-संगीत वाले फरीसी कलीसिया का नाश करते हैं। परमेश्वर बेसुरे भाइयों से सबके समान प्रेम करता है - लेकिन वह फरीसियों को अस्वीकार करता है। प्रभु के लौटने पर ऐसे फरीसियों को हैरान कर देने वाली बहुत सी बातें होंगी।
मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि आपको अपनी कक्षा में प्रथम नहीं आना है, या अपने घर को साफ नहीं रखना है, या आपको सुर में नहीं गाना है। नहीं, बिलकुल नहीं। हम सब तरह से ये सब करें। लेकिन इनके बारे में हम नम्र व दीन रहें, और ऐसे किसी व्यक्ति को तुच्छ न समझें जो वह नहीं कर सकता जो हम कर सकते हैं।
हमारे जीवनों में ऐसे और भी अनेक क्षेत्र हैं जहाँ हम दूसरों को आसानी से अपने से तुच्छ समझ सकते हैं। अय्यूब 36:5 में लिखा है, फ्परमेश्वर सर्वसामर्थी है, फिर भी किसी को तुच्छ नहीं समझता।” हम जितना ज़्यादा परमेश्वर की तरह बनते जाएंगे, उतना ज़्यादा लोगों को मूल्यवान जानेंगे और कभी किसी को तुच्छ नहीं समझेंगे - किसी भी बात में।
इसलिए हम अपने आपको शुद्ध करें और लोगों को वैसे ही देखना शुरू करें जैसे परमेश्वर उन्हें देखता है।
“तेरे पास ऐसा क्या है जो तुझे परमेश्वर से नहीं मिला? तब तू किसी भी बात में घमण्ड कैसे कर सकता है या किसी को तुच्छ कैसे जान सकता है” (1 कुरि. 4:17)।
“मैं तुमसे कहता हूँ कि फरीसी नहीं लेकिन चुंगी लेने वाला धर्मीठहराया जाकर अपने घर लौटा, क्योंकि हरेक जो अपने आपकोबड़ा बनाता है, दीन किया जाएगा।” लूका 18:14)।
फरीसी परमेश्वर द्वारा धर्मी नहीं ठहराए जा सकते क्योंकि वे अपने आपको ऊँचा उठाते हैं। परमेश्वर उन सबको दीन बनाता है जो अपने आपको दूसरों से ऊँचा उठाते हैं।
ऐसे बहुत से गूढ़ तरीक़े होते हैं जिनमें हम अपने आपको दूसरों से ऊँचा उठा सकते हैं। हम इस तरह के व्यवहार कर सकते हैं जिनसे दूसरे लोग अपने आपको हमसे छोटा और तुच्छ समझने लगें। इसमें प्रतिभाशाली लोग और (स्तुति-आराधना करने वाले) संगीतकार बहुत ख़तरे में पड़े होते हैं। एक कलीसियाई सभा में आपको अपना संगीत-वाद्य इस तरह नहीं बजाना चाहिए कि लोग आपके प्रशंसक बन जाएं। आप वहाँ इसलिए हैं कि लोगों की परमेश्वर की आराधना करने में मदद करें, इसलिए नहीं कि उन्हें आपकी आराधना करने वाले बना दें!
कभी-कभी विवाहित दम्पत्ति विवाहित जीवन के आनन्द के बारे में ऐसी बहनों के सामने बात करने लगते हैं जिनकी उम्र ज़्यादा हो गई और जिनका विवाह नहीं हुआ है। जब वे इस तरह बात करते हैं तो वे उनके वैवाहिक सम्बंध को ऊँचा उठाते हैं और उन अविवाहित बहनों की भावनाओं की कोई परवाह नहीं करते। हमें ऐसी साक्षियों द्वारा दूसरों को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए। फरीसी दूसरे लोगों की भावनाओं की बिलकुल परवाह नहीं करते। यही वजह है कि वे परमेश्वर द्वारा धर्मी (सही) नहीं ठहराए जा सकते क्योंकि परमेश्वर सिर्फ नम्र लोगों को सही ठहराता है। और भी ऐसे तरीक़े हैं जिनके द्वारा हम अपने आपको दूसरों से ऊँचा ठहरा सकते हैं। हमें पवित्र-आत्मा से कहना चाहिए कि वह हमें इस क्षेत्र में संवेदनशील बनाए।
“हे परमेश्वर, मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ कि मैं दूसरे लोगों की तरह ठग, अन्यायी व व्यभिचारी नहीं हूँ। मैं सप्ताह में दो बार उपवास करता हूँ और जो कुछ मुझे मिलता है उसका दसवाँश तुझे देता हूँ” (लूका 18:11,12)।
जो कुछ भी प्रभु ने हमारे द्वारा किया है, जब भी हम उसका बयान करते हैं तो हम बहुत ख़तरे में पड़ जाते हैं। हमें अपनी साक्षी परमेश्वर की महिमा के लिए देनी चाहिए - लेकिन हमें इस बात का बहुत ध्यान रखना चाहिए कि हम उस फरीसी की तरह अपनी उपलब्धियों की बड़ाई करने वाले न बन जाएं। इस बात में प्रचारक ख़ास तौर पर ख़तरे में पड़े होते हैं। भारत में हो रहे मसीही काम के बारे में मसीही सेवकों द्वारा पश्चिमी देशों में भेजी जाने वाली रिपोर्टों में अक्सर एक बड़ाई करने वाली आत्मा होती है। ये सेवक यह साबित करना चाहते हैं कि वे परमेश्वर के लिए बड़ा काम कर रहे हैं - और शायद बड़ी चालाकी से यह इशारा भी कर देते हैं कि वे भारत में काम कर रही किसी दूसरी मिशन से बेहतर काम कर रहे हैं।
अगर हमें फरीसीवाद से मुक्त रहना है, तो प्रभु के लिए हम जो कुछ भी कर रहे हैं, उसमें लेशमात्र भी बड़ाई न करें।
हमें प्रभु के लिए किया गया काम इस तरह छुपा कर रखना चाहिए कि वह सिर्फ उसे ही नज़र आए। अगर हमारे जीवनों में से बड़ाई करने की मामूली सी भी गंध आ जाएगी, तो हम परमेश्वर से कृपा नहीं पा सकते - क्योंकि परमेश्वर उसकी कृपा सिर्फ नम्र व दीन लोगों को ही देता है।
“फरीसी एक स्त्री को लाए जो व्यभिचार में पकड़ी गई थी औरउसे बीच में खड़ा किया। उन्होंने कहा, ‘गुरु, यह स्त्री व्यभिचारकरती हुई पकड़ी गई है। व्यवस्था में तो मूसा ने हमें ऐसी स्त्रीको पथराव करने की आज्ञा दी है। तू इस बारे में क्या कहता है?’ वे उसे परखने के लिए ऐसा कह रहे थे, जिससे कि उन्हें उसपर दोष लगाने के लिए कोई आधार मिले” (यूहन्ना 8:3-6)।
फरीसी व्यवस्था के उस नियम के पीछे, जो एक व्यभिचारी स्त्री का पथराव करने की आज्ञा देता था, वे परमेश्वर के हृदय को नहीं देख पाए थे। स्त्रियों का पथराव होते हुए देखने से परमेश्वर को कोई ख़ुशी नहीं होती थी, लेकिन व्यभिचार के रास्ते में वह एक बड़ी रुकावट ज़रूर खड़ी करना चाहता था। असल में, यहाँ फरीसियों की दिलचस्पी व्यवस्था का पालन करने में नहीं थी। वे सिर्फ यीशु पर दोष लगाने का आधार ढूंढ रहे थे। वे पहले ही एक पापी स्त्री पर दोष लगा चुके थे, और अब वे परमेश्वर के निष्पाप पुत्र पर भी दोष लगाना चाह रहे थे। फरीसी ऐसे ही होते हैं। उनमें परमेश्वर का कोई भय नहीं होता, और वे किसी पर भी दोष लगाने के साथ-साथ सबसे अच्छे ईश्वरीय भक्तों पर भी दोष लगा सकते हैं।
फरीसी ने सोचा था यीशु इस स्थिति में “सब तरफ से फँस चुका था” कि अब जो भी कहता, उसमें उन्हें उस पर दोष लगाने का मौक़ा मिलता। अगर वह कहता, “उसका पथराव करके उसे मार डालो,” तो वे उस पर संवेदनाहीन होने का दोष लगाते; और अगर वह कहता, फ्नहीं, उसका पथराव मत करो,” तो वे उस पर मूसा की व्यवस्था का पालन न करने का दोष लगाते। यह मानो एक सिक्का उछाल कर ऐसा कहना था, “चित हम जीतते हैं, पट तुम हारते हो।” हर तरफ से हम ही जीतेंगे। लेकिन वे नहीं जीते। वे हार गए! यीशु ने फौरन कोई जवाब नहीं दिया, और वहीं बैठे रहकर पिता की ओर से आने वाले शब्द का इंतज़ार करता रहा। जैसे ही उसने पिता को यह कहते हुए सुना, उसने उनसे कह दिया, “तुम में जो निष्पाप हो, वही उसे पहला पत्थर मारे।” पिता की तरफ से आया एक वाक्य, सारी समस्या को हल कर देने के लिए काफी था।
अगर आप पवित्र-आत्मा की सुनेंगे, तो ऐसी स्थितियों में आपको लम्बे प्रचार करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। आपके द्वारा बोला गया एक वाक्य आपके शत्रुओं का मुँह बंद कर सकता है। जो फरीसी नहीं हैं और जो दूसरों पर दोष नहीं लगाते, परमेश्वर आज भी उन्हें बुद्धि का ऐसा शब्द देता है। ऐसे लोगों के लिए परमेश्वर की यह प्रतिज्ञा हैः
“मैं तुम्हें ऐसे सही शब्द, ऐसा तर्क और बुद्धि दूँगा कि तुम्हारा कोई भी विरोधी न तो तुम्हें जवाब दे सकेगा और न ही तुम्हारा खण्डन कर सकेगा” (लूका 21:15 – एन.ए.एस.बी. और टी.एल.बी.)।
क्या यीशु व्यभिचार के खिलाफ़ था? हाँ, निश्चित रूप में था। लेकिन व्यभिचार से ज़्यादा वह विधिवाद के खिलाफ़ था। हम यहाँ इस बात को बहुत स्पष्ट रूप में देखते हैंः व्यभिचारी स्त्री यीशु के एक तरफ थी और विधिवादी फरीसी उसके दूसरी तरफ थे। अंत में हम सिर्फ व्यभिचारी स्त्री को यीशु के चरणों में पाते हैं। दूसरे यीशु के द्वारा बोले गए शब्द से पीछे हट गए थे। फरीसियों की आँखों के विधिवाद और घृणा के लट्ठों की तुलना में, उस स्त्री की आँख का व्यभिचार एक तिनके जैसा था।
अब आप अपने आपसे यह सवाल करें कि आपने कितनी बार ऐसे अच्छे भाई बहनों पर उन बातों में दोष लगाए हैं जिनकी तुलना में व्यभिचार दस लाख गुणा ज़्यादा बुरा पाप है। उन बातों के बारे में सोचें जो आपने अपने घरों में और दूसरी जगहों में उनके पीठ-पीछे उनके बारे में बोली हैं। हर बार जब भी आपने ऐसे दोष लगाए हैं, तो आपकी आँख का लट्ठा - दूसरों के प्रति आपको कठोर, न्यायी, और दोषपूर्ण मनोभाव - बड़ा और ज़्यादा बड़ा होता रहा है और उसने आपको आत्मिक बातों के लिए ज़्यादा और ज़्यादा अंधा बना दिया है। अंत में आपने किसका नुक़सान किया है? किसी दूसरे से ज़्यादा अपना स्वयं का।
क्या आप सोचते हैं कि जिस व्यक्ति की आँख में लट्ठा है वह दूसरों की आँखों में से तिनके निकालने वाला नेत्र-चिकित्सक हो सकता है? आपको प्रभु के शब्द को आपसे यह कहते हुए सुनने की ज़रूरत है, “अपने भाइयों व बहनों को छोड़ दे। उनकी आखों में तिनके हो सकते हैं। लेकिन तेरी आँख का लट्ठा उनके सारे तिनकों से कहीं ज़्यादा बुरा है।”
यीशु दोष लगाने वाली इस आत्मा के इतना खिलाफ़ क्यों था? क्योंकि जब वह स्वर्ग में था तब उसने शैतान (“भाइयों पर दोष लगाने वाले”) को “रात-दिन” निरंतर लोगों पर दोष लगाते हुए सुना था (प्रका. 12:10)। जब यीशु पृथ्वी पर आया और वह लोगों में उसी आत्मा को देखता था, तो उसे शैतान याद आता था। यीशु तब भी इस दोष लगाने वाली आत्मा से घृणा करता था और वह आज भी उससे घृणा करता है। क्या आपको यह अहसास है कि जब आप दूसरों पर दोष लगाते हैं तो आप यीशु को शैतान की याद दिलाते हैं? ज़्यादातर विश्वासी यह नहीं देख पाते, क्योंकि उनकी आँख के लट्ठे ने उन्हें अंधा कर दिया है।
अगर कोई एक ऐसा संदेश है जिसका मैं 30 सालों से प्रचार कर रहा हूँ तो वह यही हैः अगर आप आत्मिक रूप में उन्नत होना चाहते हैं तो दूसरों का न्याय करना छोड़ कर अपना न्याय करना शुरू कर दें। अपना सूक्ष्मदर्शी यंत्र दूसरों पर नहीं अपने ऊपर लगा कर रखें। और जब आपने अपना न्याय कर लिया हो, तो मैं आपको बताता हूँ कि फिर आपको क्या करना चाहिए। अपना और ज़्यादा करें। ऐसा करने से आपको कब रुकना है? जब आप पूरी तरह यीशु जैसे हो जाएं। प्रेरित यूहन्ना ने अपने जीवन के अंत में विश्वासियों से कहा, फ्हम यह जानते हैं कि जब मसीह प्रकट होगा तो हम उसके जैसे होंगे... और हरेक जिसके पास यह आशा है वह अपने आपको वैसा ही पवित्र करता है जैसा वह पवित्र है” (1 यूहन्ना 3:2,3)। तब एक कलीसियाई अगुवे को एक ग़लती करने वाले को कैसे सुधारना चाहिए? दया के साथ - भरपूर दया करते हुए, उतनी दया जितनी प्रभु ने उस पर की है। यीशु ने इस स्त्री द्वारा किए गए व्यभिचार के पाप को अनदेखा नहीं किया था। उसने पहले बहुत संवेदना से भरकर उससे कहा, “मैं भी तुझ पर दोष नहीं लगाता।” फिर उसने उसे दृढ़ शब्दों में यह चेतावनी दी, “अब दोबारा यह पाप कभी न करना।” परमेश्वर की कृपा हमारे पाप को अनदेखा नहीं करती। वह पहले हमारे पाप को क्षमा करती है, फिर हमें पाप न करने के लिए चेतावनी देती है, और फिर पाप न करने के लिए हमारी मदद करती है।
सारे फरीसी क्यों चले गए? उनमें से हरेक को अपने टूटे हुए हृदय लेकर प्रभु के पास यह कहते हुए आना चाहिए था, “प्रभु, कृपा करके मुझे क्षमा कर दे। मेरे छुपे हुए पापों और मेरे कठोर विधिवादी मनोभाव पर अब मैंने ज्योति पा ली है। अब मैं यह देख सकता हूँ कि मैं इस स्त्री से भी बुरा हूँ। प्रभु मुझ पर दया कर।” लेकिन उनमें से एक भी इस तरह यीशु के पास नहीं आया।
आप अपने बारे में क्या कहना चाहेंगे, जो दूसरे लोगों में नज़र आने वाली किसी न किसी बात में दोष निकालते रहे हैं? क्या आप प्रभु को यह अनुमति देंगे कि वह आज आपको तोड़ सके?
जब कुछ लोगों ने मेरे पास आकर उन बातों के लिए क्षमा-याचना की जिनमें उन्होंने मेरे बारे में कुछ किया या कहा था, तब मैंने यह महसूस किया है कि वे टूटे हुए नहीं थे। इससे यह साबित हुआ कि असल में उन्होंने अपने पाप से मन नहीं फिराया था। वे अपने विवेक को शुद्ध बनाए रखने के लिए सिर्फ एक नियम का पालन कर रहे थे। मैंने उन्हें तत्काल क्षमा कर दिया था। लेकिन मुझे यक़ीन था कि वे उस पाप में दोबारा गिरेंगे क्योंकि वे विधिवादी थे। उन्होंने मानो एक तकनीकी रूप में यह समझ लिया था कि उन्होंने नियम संख्या 347 को तोड़ा था – “तू एक बड़े भाई की पीठ के पीछे उसकी बुराई न करना”, और इसलिए अब उन्हें खेद प्रकट करने की ज़रूरत महसूस हुई थी क्योंकि उन्हें नियम संख्या 9 - जिसे तूने हानि पहुँचाई है, उससे क्षमा माँग” कर क्षमा-याचना की औपचारिकता को पूरा करना है! लेकिन उनके अन्दर कुछ नहीं बदला है। वे अपने जीवन पहले जैसे ही व्यतीत करते रहते हैं।
जब परमेश्वर हमारे अपने पापों पर हमें ज्योति देता है, तो हम उस ज्योति से ऐसे अंधे हो जाएंगे कि हम एक मृतक की तरह यीशु के चरणों में जा गिरेंगे (प्रका. 1:17) और हम अपने आपको पृथ्वी का सबसे बड़ा पापी मानेंगे (1 तीमु. 1:15)। क्या आपको कभी ऐसा महसूस हुआ है? या आपको सिर्फ लगा कि आपसे एक मामूली सी ग़लती हो गई है? तब आप एक फरीसी हैं और जब तक आप ऐसे मामूली लोगों पर पथराव करने की तरफ से मन नहीं फिराएंगे जिनकी आँखों में तिनके हैं, तब तक आपका भला नहीं हो सकता। ऐसा होने दें कि परमेश्वर आपके कठोर हृदय को तोड़ दे।
याकूब 2:13 हमें याद दिलाता है कि, “जिसने कोई दया नहीं दिखाई, उसका न्याय भी बिना दया के होगा।” और कलीसियाई अगुवे इस बात में सबसे बड़े दोषी होते हैं। माता-पिताओं को भी यह ध्यान रखने की ज़रूरत है कि वे अपने बच्चों के प्रति निर्दयी न हों।
एक ऐसा कलीसियाई अगुवा जो व्यभिचार में गिर जाता है कभी कलीसिया का नाश नहीं कर सकता क्योंकि हरेक विश्वासी जानता है कि व्यभिचार पाप है, और उस अगुवे को उसकी जगह से फौरन हटा दिया जाएगा। लेकिन अगर एक कलीसियाई अगुवा विधिवादी है, तो एक ज़्यादा बड़ा ख़तरा है, क्योंकि वह “पवित्रता” का प्रचार करता है। और जिनके पास विधिवाद पर ज्योति नहीं है, वे उसके पीछे चल देंगे और स्वयं विधिवादी बन जाएंगे। एक अंधे फरीसी की तरह वह भी दूसरों को विधिवाद के गहरे गड्ढे में ले जाएगा जिसमें वह स्वयं गिरा हुआ है।
क्या आपको यह नज़र आया है कि दूसरों का न्याय करने और उन पर दोष लगाने का आपकी मनोवृत्ति आपके दस बार व्यभिचार में गिर जाने से भी ज़्यादा बुरी है? अगर आप पिछले महीने दस बार व्यभिचार में गिर गए होते तो आप कैसे पश्चाताप् करते (मन फिराते)? दोष लगाने वाली आत्मा होने के लिए आपको उससे बढ़ कर पश्चाताप् करने की ज़रूरत है।
“यीशु ने उनसे कहा, ‘अगर परमेश्वर तुम्हारा पिता होता, तो तुममुझसे प्रेम रखते... तुम अपने पिता शैतान से हो, और उसकी लालसाओं को पूरा करते हो”
(यूहन्ना 8:42,44)।
यीशु ने फरीसियों के मुँह पर यह बोला कि शैतान उनका पिता था। कुछ प्रचारक यह मानते हैं कि कोई मनुष्य शैतान की संतान नहीं होता। लेकिन यीशु ने इससे विपरीत बात कही, और इस बात के सत्य को वह हममें से हरेक से ज़्यादा जानता है। वे फरीसी यह कल्पना करते थे कि परमेश्वर उनका पिता है जबकि असल में शैतान उनका पिता था। आज भी फरीसियों में ऐसा ही है। बच्चे अपने पिता का स्वभाव प्रदर्शित करते हैं, और फरीसी अपने पिता की तरह “भाइयों पर दोष लगाने वाले हैं।” यह वास्तव में एक हैरानी की बात है कि इतनी बड़ी संख्या में “मसीही” दूसरे विश्वासियों पर दोष लगाते रहते हैं लेकिन फिर भी उन्हें यह समझ नहीं आता कि ये शैतान के लक्षण हैं। इसलिए वही उनका पिता होना चाहिए! ऐसे लोग यह कल्पना कैसे कर सकते हैं कि परमेश्वर उनका पिता है? यह तो पूरा अंधापन है! पहली शताब्दी के फरीसियों को जो बातें यीशु ने बताई थीं, उन्होंने उन बातों पर विश्वास नहीं किया था। और आज के फरीसी भी उन बातों को नहीं मानते।
मैं कभी-कभी हमारी कलीसियाओं में आने वाले लोगों से कहता हूँ कि मुझे ऐसा महसूस नहीं होता कि वे प्रभु को जानते हैं हालांकि वे बीते समय में ये शब्द कह चुके हैं, “प्रभु यीशु, मेरे हृदय में आ” - क्योंकि मैंने उनके जीवनों में ऐसा कोई फल नहीं देखा है जो इस बात का संकेत हो कि वे प्रभु को जानते हैं। अनेक कलीसियाई अगुवे अपने लोगों को (यीशु की तरह) सच बताने में विश्वासयोग्य नहीं होते। उनकी दिलचस्पी लोगों को नर्क में जाने से बचाने से ज़्यादा अपनी नेकनामी को बचाए रखने में होती है। इसलिए उन मन-न-फिराए हुए लोगों का लहू ऐसे अगुवों के हाथों पर लगा होता है।
“तुम अपने पिता से शैतान से हो, और तुम अपने पिता की लालसाओंको पूरा करना चाहते हो। वह तो आरम्भ से ही हत्यारा है, और सत्य पर स्थिर नही रहा, क्योंकि उसमें सत्य है ही नहीं। जब भी वह झूठ बोलताहै तो अपने स्वभाव से ही बोलता है क्योंकि वह झूठा है और झूठ का पिता है” (यूहन्ना 8:44)।
व्यभिचार में पकड़ी गई स्त्री के प्रति फरीसियों में हत्या की लालसा थी। लेकिन आज के फरीसी ज़्यादा सभ्य हो गए हैं और लोगों की हत्या सिर्फ अपनी जीभ से ही करते हैं।
क्या आपने किसी व्यक्ति के बारे में बुरी बातें फैलाकर - चाहे वे बातें सच्ची बातें ही क्यों न थीं - उसकी नेकनामी की हत्या की है? शैतान जब परमेश्वर के सम्मुख विश्वासियों पर दोष लगाता है तब वह कभी झूठ नहीं बोलता। उसे इसलिए सच बोलना पड़ता है क्योंकि वह जानता है कि वह परमेश्वर से झूठ नहीं बोल सकता। वह परमेश्वर को आपके पापों के बारे में सच बोलता है लेकिन यह वह एक दोष लगाने वाली आत्मा में बोलता है। इसी तरह, एक विश्वासी के बारे में दोष लगाने वाले की आत्मा में होकर सच्ची बातें बोली जा सकती हैं जिससे कि उसकी नेकनामी को ख़त्म किया जा सके। आपमें से कोई अपने बच्चों के बारे में ऐसी बातें नहीं फैलाएगा। अगर आपकी बेटी व्यभिचार में गिर गई हो, तब क्या आप कलीसिया में हरेक को उसके बारे में बताएंगे या उसे छुपाने की पूरी कोशिश करेंगे? बहुत से बेटे और बेटियों ने बीते समय में अनेक मूर्खता से भरे काम किए थे। लेकिन माता-पिता होने की वजह से आपने प्रेमपूर्वक उन्हें ढाँप दिया था और उनकी नेकनामी की रक्षा की थी। फिर जब वही बात किसी दूसरे भाई के बेटे या बेटी के साथ होती है तो आप वैसा ही क्यों नहीं करते? हमें कलीसिया में से सारे “हत्यारों” को निकाल देना चाहिए।
फरीसी झूठे भी होते हैं। मैंने गुज़रे हुए सालों में एक बात पर बार-बार ध्यान दिया है। जब भी एक विश्वासी भटकता है, वह फौरन झूठ बोलना शुरू कर देता है। ऐसा लगता है जैसे शैतान फौरन ही उसके हृदय और जीभ को उसके वश में कर लेता है। वे अपने झूठ पर पर्दा डालने की कोशिश करते हैं और ऐसा दिखावा करते हैं जैसे वे ईमानदार हैं। वे सच बोलने के अलावा बाक़ी सब कुछ बोलेंगे। वे जब बोलेंगे तो आपके मुँह की तरफ देखकर नहीं बोलेंगे। शैतान झूठ का पिता है। लेकिन उन झूठी बातों को पैदा करने के लिए उसे एक माँ की भी ज़रूरत होती है। जब आप अपना हृदय उसे दे देते हैं तब आपके द्वारा वह उस झूठ को पैदा कर सकता है। पतरस ने हनन्याह से पूछा, “शैतान ने तेरे मन में यह बात क्यों डाली कि तू झूठ बोले” (प्रेरितों. 5:3)। एक प्रचारक जो झूठ बोलता है, तब उस क्षण वह अपनी जीभ को शैतान को दे देता है। फिर जब तक वह अपने पाप का अंगीकार नहीं करता, अपना मन नहीं फिराता, और अपनी उस आदत को छोड़ नहीं देता, तब तक वह परमेश्वर से यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि वह उसकी जीभ का अभिषेक करके उसे प्रचार करने के लिए इस्तेमाल कर सके।
हमें झूठ से भी उतनी ही घृणा करनी चाहिए जितनी हम हत्या से करते हैं।
“फरीसियों ने (उस अंधे से जो चंगा हुआ था) कहा, तू तो पापोंमें ही जन्मा है, और तू हमें सिखाने आया है?’ और उन्होंने उसे (आराधनालय में से) निकाल कर बाहर कर दिया”(यूहन्ना 9:34)।
फरीसी उस मनुष्य को चंगा न कर सके थे जो जन्म से ही अंधा पैदा हुआ था। लेकिन जब यीशु ने उसे चंगा कर दिया, तो वे बेचैन हो गए और उन्होंने उसे एक पापी कहा और आराधनालय में से निकाल दिया। फरीसी कलीसियाई अगुवे लोगों को यह धमकी देते हैं कि अगर वे अगुवे के आदेशों का पालन नहीं करेंगे तो वे उन्हें कलीसिया में से निकाल देंगे। फरीसी प्राचीनों को यह बहुत अच्छा लगता है कि उनका दूसरों पर अधिकार हो और वे उन्हें अपने वश में रखें। यीशु ने कहा कि अगर एक भाई पाप करे तो हमें जाकर उससे बात करनी चाहिए और उसे फिर से जीत लाने की कोशिश करनी चाहिए (मत्ती 18:15)। कलीसिया में से बाहर निकालना एक अंतिम विकल्प के रूप में ही होना चाहिए। हमारा लक्ष्य हमेशा पाप करने वाले भाई को वापिस जीत लाना ही होना चाहिए।
विश्वासी पाप में गिर कर ग़लत काम कर सकते हैं। जब ऐसा होता है, तब कलीसिया के अगुवे के पास यह विकल्प होता हैः उससे बात करे जैसा यीशु ने किया होता, या जैसा एक फरीसी ने किया होता। यीशु उस भाई को जीत लाने की कोशिश करता। लेकिन शैतान उसका नाश करना चाहेगा। फरीसी शैतान के साथ मिले होते हैं और जो उनकी बात नहीं मानते या जो उनके अधिकार के अधीन नहीं होते, वे उन्हें सताते हैं।
“फरीसियों ने कहा, ‘हम क्या कर रहे हैं? यह मनुष्य तोबहुत चिन्ह् दिखाता है।’ उसी दिन से उन्होंने उसे मारनेका षड़यंत्र रचा” (यूहन्ना 11:47,53)।
यहाँ, यूहन्ना 11 में, यीशु ने कुछ ही समय पहले लाज़र को जि़न्दा किया था। फरीसियों को इस घटना से प्रेरित होना चाहिए था। लेकिन वे प्रेरित नहीं हुए थे क्योंकि जिस मनुष्य ने यह किया था, वह उनके समुदाय में से नहीं था! यीशु एक दूसरे धर्म-मत (डिनॉमिनेशन) का था! इस बात से फरीसी ईर्ष्या से जल-भुन गए। ईर्ष्या एक ऐसी साफ नज़र आने वाली बात है कि पिलातुस जैसे सांसारिक व्यक्ति ने भी उसे फरीसियों में देख लिया था (मत्ती 27:18)। ईर्ष्या से सावधान रहें।
फरीसी उनसे ईर्ष्या करते हैं जो चिन्ह्-चमत्कार करते हैं। मैं टी-वी- प्रचारकों द्वारा किए जाने वाले उन नकली “चमत्कारों” की बात नहीं कर रहा हूँ जिनके द्वारा आज अनेक विश्वासियों को मूर्ख बनाया जा रहा है। वे तो हमने बहुत देख लिए हैं। मैं उन असली चमत्कारों की बात कर रहा हूँ जो आज भी हो रहे हैं। लेकिन वे आपको टी.वी. या तथा-कथित “चंगाई-सभाओं” में नज़र नहीं आएंगे। आज जो असली चमत्कार हो रहे हैं, वे उन जगहों में हो रहे हैं जहाँ सुसमाचार का प्रचार पहली बार किया जा रहा है - जैसे उत्तर भारत की अनेक जगहों में। बहुत लोग इस सच्चाई को नहीं समझ पाते कि प्रेरितों के काम में परमेश्वर ने जो चिन्ह्-चमत्कार किए थे, वे ऐसी जगहों में हुए थे जहाँ सुसमाचार पहली बार गया था। परमेश्वर आज जिन लोगों के द्वारा ऐसे चमत्कार कर रहा है वे सामान्य और अज्ञात विश्वासी हैं, और यीशु की तरह, वे भी उनके द्वारा देखे गए चमत्कारों के विज्ञापन नहीं देते।
परमेश्वर चमत्कारों का परमेश्वर है, और अगर आप उसमें यह भरोसा नहीं कर सकते कि वह आपके लिए भी चमत्कार कर सकता है, तो आप एक फरीसी हैं। जब आप बीमार हों तो बीमारी को यूँ ही स्वीकार न कर लें बल्कि परमेश्वर से चंगाई के लिए प्रार्थना करें। परमेश्वर की संतान के रूप में हमारे पास कुछ ऐसे विशेषाधिकार हैं जो दूसरों के पास नहीं हैं। हम “आने वाले युग की सामर्थ्य का स्वाद चख सकते हैं” (इब्रा. 6:5)। और अगर परमेश्वर की यह इच्छा नहीं है कि आपको चंगाई मिले (किसी भी कारणवश) तो आप उससे “चंगाई से भी बेहतर” कुछ माँग सकते हैं, जैसा उसने पौलुस को दिया था (2 कुरि. 12:7-10)। अगर आप कलीसिया में एक प्राचीन हैं, और एक बीमार व्यक्ति आपके पास प्रार्थना के लिए आता है, तो आपको यह प्रार्थना करनी चाहिए (उस विश्वास के अनुसार जो आपके पास है) कि परमेश्वर उसे चंगा करे और इस तरह उसे अपनी नज़दीकी में लाए। और जब परमेश्वर आपकी प्रार्थना का जवाब दे, तो ध्यान रखें कि उसकी सारी महिमा उसे ही दें और उसके बारे में डींग न मारें - वर्ना आपका अंत एक और भी बड़े फरीसी के रूप में होगा।
“फरीसिया में से कुछ ने कहा, ‘यह मनुष्य परमेश्वरकी ओर से नहीं है,
क्योंकि यह विश्राम-दिन कोनहीं मानता’” (यूहन्ना 9:16)।
फरीसी लोगों की भक्ति के अनुसार नहीं बल्कि उनका मूल्यांकन इस आधार पर करते हैं कि वे कोई धार्मिक विधि पूरी करते हैं या नहीं। उन्हें इस बात का यक़ीन था कि यीशु परमेश्वर की तरफ नहीं था, क्योंकि वह विश्राम-दिन का पालन इस तरह नहीं करता था जैसे वे करते थे। कलीसिया में कोई काम कैसे किया जाए, इसके बारे में हमारे भी अपने विचार हो सकते हैं, और अगर कोई उस काम को हमारे सोचे हुए तरीक़े से न करें, तो हम भी उसे भक्तिहीन घोषित कर सकते हैं। द्वेष एक शक्तिशाली बुराई है जो संगति का नाश कर सकता है।
सैल्वेशन आर्मी की सभाओं में (जिसे 19वीं शताब्दी में विलियम बूथ ने इंगलैण्ड में स्थापित किया था), “रोटी तोड़ना” नहीं होता था। ऐसा न करने का वे एक यह कारण भी बताते थे कि परिवर्तित हुए लोगों में अनेक ऐसे शराबी लोग भी थे जो प्रभु-भोज में दाखरस की गंध पाकर फिर से शराबी बन सकते थे। वे पानी का बपतिस्मा भी नहीं करते थे, क्योंकि उनका कहना था कि अनेक बपतिस्मा पाए हुए लोगों के जीवन नहीं बदले थे। लेकिन विलियम बूथ अपने समय के सबसे ज़्यादा भक्तिमय पुरुषों में से एक था, और उसने और उसकी पत्नी ने मिलकर पूरे विश्व में से समाज के सबसे निचले वर्गों के हज़ारों लोगों को मसीह के पास पहुँचाया था। आप ऐसे पुरुष के बारे में क्या सोचेंगे? फरीसी ऐसे व्यक्ति को तुरन्त अस्वीकार कर देंगे। लेकिन अगर मैं 150 साल पहले इंगलैण्ड में रह रहा होता, तो मैं भी उसके द्वारा शराबियों, वेश्याओं और चोर-लुटेरों को मसीह के पास लाने के लिए किए जा रहे काम में उसके साथ जुड़ जाता - ऐसा काम, जो उस समय दूसरा कोई नहीं कर रहा था। मैं इन दोनों मामलों में उनके धर्म-सिद्धान्तों से सहमत नहीं हूँ। लेकिन मैं एक मनुष्य की ईश्वरीय भक्ति का मूल्यांकन इस बात से नहीं करूँगा कि वह बपतिस्मे और प्रभु-भोज के बारे में मुझसे सहमत है या नहीं।
हमें विलियम बूथ जैसे ईश्वरीय भक्तों के बारे में आलोचना के खोखले शब्द बोलने के प्रति सचेत रहना चाहिए। यह सच है कि पौलुस ने पतरस की उस समय आलोचना की थी जब उसने (बुराई से) समझौता कर लिया था (गला. 2:11)। लेकिन पतरस ने परमेश्वर द्वारा पौलुस को दी गई कृपा को जान लिया था (गला. 2:9)। इसलिए जब पौलुस जैसा एक व्यक्ति पतरस की आलोचना करता है, तो वह स्वीकार्य होता है।
लेकिन वे कौन हैं जो आज ईश्वरीय लोगों की आलोचना करते हैं? निरपवाद रूप में वही जिन्होंने प्रभु के लिए स्वयं कभी कुछ नहीं किया है, और वे जिनके लिए परमेश्वर ने किसी भी तरह से कोई साक्षी नहीं दी है। ऐसे मूर्ख विश्वासी उन ईश्वरीय लोगों की आलोचना करते हैं जिन्हें परमेश्वर ने उनसे हज़ार गुणा ज़्यादा इस्तेमाल किया है। यह फरीसीवाद है।
“फरीसियों ने यीशु से कहा, ‘गुरु, हम तुझसे कोई
चिन्ह् देखना चाहते हैं’” (मत्ती 12:38)।
सत्य के प्रति आश्वस्त होने के लिए फरीसी हमेशा कोई चिन्ह् या चमत्कार माँगते हैं। वे सहज विश्वास द्वारा जीवन व्यतीत नहीं कर सकते। और यही वजह है कि धार्मिक कपटी आज ऐसे फरीसियों को अपने झूठे चिन्ह् और चमत्कारों द्वारा भरमा सकते हैं। ऐसी कल्पना कभी न करें कि परमेश्वर से एक चिन्ह् या चमत्कार माँगना आत्मिकता की निशानी होता है। यह एक फरीसी की निशानी है। यही कथन मत्ती 16:1 में भी दोहराया गया है।
“फरीसियों ने कहा, ‘यह भीड़ जो व्यवस्था नहीं
जानती, श्रापित है’” (यूहन्ना 7:49)।
आज के फरीसियों का नर्क में जाने वालों के प्रति भी यही मनोभाव हो सकता है और वे यह कह सकते हैं, “ये लोग जो मसीह को अपने मुक्तिदाता के रूप में स्वीकार नहीं करते नर्क में जा रहे हैं।” यह सच है। लेकिन ऐसा कथन बोलने वाला अपने आपको एक ऐसे फरीसी के रूप में प्रकट कर देता है जिसकी खोए हुए लोगों में कोई दिलचस्पी नहीं होती। अगर उन लोगो में आपकी कोई दिलचस्पी नहीं है जो नर्क में जा रहे हैं, तो यह बात साफ तौर पर यह साबित करती है कि आप एक फरीसी हैं।
जब हम दूसरे लोगों के सम्मुख साक्षी देते हैं, तो हमारी दिचलस्पी इस बात में नहीं होनी चाहिए कि उनका लहू अब हमारे हाथों पर न हो, बल्कि इसमें कि उनका उद्धार हो। मैंने मसीहियों को बिना सोचे-समझे लोगों को ट्रैक्ट बाँटते हुए, उनकी पत्र-पेटियों और कारों में ट्रैक्ट चिपकाते हुए, और फिर इस बात में संतुष्ट होते हुए देखा है कि उन्होंने अपने हिस्से का काम कर दिया है। फ्परमेश्वर ने अपने पुत्र को जगत में इसलिए नहीं भेजा कि जगत को दोषी ठहराए, बल्कि इसलिए कि जगत उसके द्वारा उद्धार पाए” (यूहन्ना 3:17)। लेकिन आज बहुत से विश्वासियों द्वारा किया जा रहा ट्रैक्ट-वितरण सिर्फ उन अविश्वासियों को दोषी ठहराने के लिए ही होता है। वह विश्वासियों के विवेक को शान्त करने के बुरे उद्देश्य से किया जाता है, इसलिए नहीं कि प्रेम और बोझ के साथ उन खोए हुए लोगों को मुक्तिदाता के चरणों में लाया जाए। इन ट्रैक्ट बाँटने वालों में से अनेक यह कल्पना करते हैं कि उनके अन्दर खोए हुओं के प्रति एक दिलचस्पी है। लेकिन उनमें कोई दिलचस्पी नहीं होती। वे फरीसी हैं।
“उसने फरीसियों से यह भी कहा, ‘तुम अपनी परम्पराओं कापालन करने के लिए परमेश्वर की आज्ञा को कैसी अच्छी तरह टाल देते हो!” (मरकुस 7:9)।
सभी कलीसियाओं में किसी न किसी तरह की परम्पराएं होती हैं। अगर आपके लिए वे परम्पराएं परमेश्वर के वचन से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गई हैं, तो आप एक फरीसी हैं। यीशु ने फरीसियों से कहा कि जब वे अपनी परम्पराओं को परमेश्वर के वचन से ज़्यादा ऊँचा उठाते थे, तो एक क्रमिक रूप में (1) “वे परमेश्वर के वचन को अनदेखा करते थे,” (2) “उसे टाल देते थे,” और अंततः (3) उसे पूरी तरह “अमान्य ठहरा देते थे” (मरकुस 7:8-13)।
हममें से हरेक को अपने आपसे यह पूछने की ज़रूरत है कि क्या हम भी इस पाप के लिए दोषी है या नहीं। क्या आपकी परम्पराएं आपके लिए परमेश्वर से पूरे हृदय से प्रेम करने, और (हरेक मसीही-मत के) अपने साथी-विश्वासी से बिलकुल यीशु जैसा प्रेम करने से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गई हैं? क्या आप परमेश्वर के किसी बच्चे को सिर्फ इसलिए अस्वीकार कर देते हैं क्योंकि वह आपकी कलीसिया की परम्पराओं को नहीं मानता? अगर ऐसा है, तो आप एक फरीसी हैं।
यीशु ने फरीसियों से कहा, ‘तुम ऐसे लोग हो जो मनुष्यों केसामने अपने आपको धर्मी ठहराते हो, लेकिन परमेश्वर तुम्हारेहृदयों को जानता है। वह जो मनुष्यों में अति सम्मानित है, परमेश्वर की दृष्टि में घृणित है” (लूका 16:15)।
एक फरीसी हरेक बात में अपने आपको सही ठहराता है। वह नम्र व दीन होकर अपनी ग़लती को नहीं मानता और अपने पापों और भूलों के लिए अपनी जि़म्मेदारी को स्वीकार नहीं करता।
आदम अपने पाप के दोष को स्वीकार नहीं कर सका था। जब परमेश्वर ने उससे पूछा, “क्या तूने उस पेड़ का फल खाया है?” तो उसका सिर्फ एक ही सही जवाब थाः “हाँ, प्रभु।” लेकिन उसने यह नहीं कहा था। उसने फल देने के लिए पहले अपनी पत्नी पर दोष लगाया, और फिर ऐसी पत्नी देने के लिए उसने परमेश्वर पर भी दोष लगाया! (उत्पत्ति 3:12)। अपने आपको सही ठहराने का यह अर्थ होता है। इसका नतीजा यह हुआ कि आदम को अदन की वाटिका में से निकाल दिया गया।
लेकिन उद्धार पाने वाला सूली पर लटका डाकू पूरी तरह से भिन्न् था। उसने कहा, “मैं इस दण्ड के योग्य हूँ।” (लूका 23:41)। उसने अपने माता-पिता पर यह दोष नहीं लगाया कि उन्होंने उसकी सही परवरिश नहीं की थी, या उसके मित्रें पर कि उन्होंने उसे भटका दिया था, या उस न्यायाधीश पर कि पूर्वाग्रह से ग्रस्त था, या पक्षपाती था, या कुछ ज़्यादा ही कठोर था। उसने एक सहज रूप में सिर्फ यही कहा, “मैं पूरी तरह से इस दण्ड के लायक़ हूँ।” इसका नतीजा यह हुआ कि वह उसी दिन यीशु के साथ परलोक (स्वर्ग) में पहुँच गया - क्योंकि परलोक (स्वर्ग) उन लोगों के लिए है जो अपने पापों का अंगीकार करते हैं और जो किसी दूसरे पर दोष नहीं लगाते।
अगर आप ऐसे व्यक्ति हैं जो अपने आपको सही ठहराने के लिए अपनी पत्नी, या परमेश्वर या और किसी पर दोष लगाते हैं, तो आप एक फरीसी हैं और नर्क के रास्ते में आगे बढ़ रहे हैं।
यीशु ने फरीसियों से अंत में जो शब्द कहे, वे भयजनक हैं, “हे साँपों, हे करैतों के बच्चों, तुम नर्क के दण्ड से कैसे बचोगे?” (मत्ती 23:33)।
“इसलिए जब हमें ऐसा राज्य मिलने पर है जो अटल है, तो आओ, हम कृतज्ञ होकर आदर और भयसहित परमेश्वर की ऐसी आराधना करें जो ग्रहणयोग्य हो, क्योंकि हमारा परमेश्वर भस्म करने वाली आग है। इसलिए एक-दूसरे के साथ भाईचारे के सच्चे प्रेम में बने रहो” (इब्रा. 12:28-13:1)। फरीसीवाद आपकी त्वचा पर एक घाव के अन्दर भरे मवाद जैसा होता है। जैसे-जैसे आप रोज़ उसे दबाकर उसमें से मवाद निकालते हैं, वैसे-वैसे उसके पूरी तरह सही होने तक वह उसमें निकलता ही रहता है। इसलिए हमें अपने अन्दर से सारे फरीसीवाद को तब तक दबा-दबा कर निकालते रहना है जब तक हममें कुछ न बचे।
हम ईमानदारी से यह स्वीकार करें,
“प्रभु, मैं एक दोषी व्यक्ति हूँ। मेरा पति, या मेरी पत्नी, या मेरा भाई, या मेरी बहन या कोई और फरीसी नहीं है। वह मैं ही हूँ। मुझ पर दया कर और मेरे फरीसीवाद से मुझे पूरा छुटकारा दे। मुझे एक ईश्वरीय व्यक्ति और अपना शिष्य होने की कृपा प्रदान कर। और मेरी मदद कर कि हर समय सब लोगों के प्रति वैसा ही दयावंत हो सकूँ जैसा तू मेरे प्रति दयावंत रहा है।”
प्रभु हमारी मदद करे कि हम अपने जीवन के सभी दिनों में इसी तरह आगे बढ़ते रहें, और फिर एक दिन हमें उसके राज्य में भरपूर प्रवेश मिल सके।
आमीन और आमीन।