पाइए परमेश्वर की इच्छा

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अध्याय 0
यह पुस्तक और आप

अनेक मसीही इस उल्झन में रहते हैं कि वे अपने जीवनों के लिए परमेश्वर की इच्छा कैसे जानें। यह पुस्तक उनकी मदद करने की एक कोशिश है। इसमें एक सिद्ध मार्ग-दर्शन का कोई अचूक नुस्ख़ा नहीं है, क्योंकि बाइबल में ऐसा कोई नुस्ख़ा नहीं है। हमें इस ख़तरे के प्रति सचेत रहना होगा कि हमारी एक ईश्वरीय मार्ग-दर्शन पाने की खोज एक यान्त्रिक नहीं बल्कि आत्मिक रीति से हो।

इस पुस्तक का उद्देश्य आपके सारे सवालों का जवाब देना नहीं है। इसका मुख्य उद्देश्य आपको पवित्र-आत्मा पर ज़्यादा निर्भर होने के लिए उत्साहित करना है। वॉचमैन नी ने कहा है, “हम मनुष्यों को ‘सिद्ध’ पुस्तकों की रचना नहीं करनी है।" ऐसी सिद्धता में यह ख़तरा रखा होता है कि मनुष्य उसे पवित्र-आत्मा की सहायता के बिना ही समझ सकता है। लेकिन अगर परमेश्वर हमें पुस्तकें देगा, तो वे बिखरे हुए ऐसे टुकड़ों के रूप में होंगी जो हमेशा स्पष्ट या सुसंगत या तर्कपूर्ण न होंगी और उनमें से जल्दी कोई निष्कर्ष भी नहीं निकल सकेगा, लेकिन फिर भी वे हमारे पास एक जीवित रूप में आएंगी और जीवन द्वारा हमारी सेवा करेंगी। हम ईश्वरीय तथ्यों को काट-छाँट कर उन्हें एक रूपरेखा और क्रमबद्धता में नहीं ला सकते। एक ऐसा मसीही जो हमेशा बौद्धिक रूप से संतुष्ट करने वाले निष्कर्ष पाने की माँग करता रहता है, एक अपरिपक्व मसीही होता है। स्वयं परमेश्वर के वचन की यह एक बुनियादी विशेषता है कि वह हमेशा, और एक मूल रूप में, हमारी आत्मा से और उसमें रखे हमारे जीवन से ही बात करता है। ऐसा हो कि यह पुस्तक आपके मन में सिर्फ जानकारी ही नहीं बल्कि, सब बातों से आगे बढ़कर, आपकी आत्मा में जीवन पहुँचा सके।

इस पुस्तक की लेखन-सामग्री के विषय में एक बात यह है कि इसका कोई अनुच्छेद, या अध्याय भी, जब तक पूरी पुस्तक के संदर्भ में नहीं पढ़ा जाएगा तो वह अपने आप में अधूरा ही रहेगा। कहीं-कहीं, अगर पुस्तक के एक वाक्य को भी अनदेखा किया गया या उसे लापरवाही से पढ़ा गया, तो उसका नतीजा यह हो सकता है कि वह उसमें रखे मूल विचार से एकदम अलग प्रभाव पैदा कर सकता है। इसलिए मैं पाठकों से यह आग्रह करना चाहूँगा कि वे इस पुस्तक को धीरज से और ध्यानपूर्वक पढ़ें (अगर हो सके तो दो बार पढ़ें) कि आप इसके संदेश को सही तरह समझ सकें।

अध्याय 2 शायद इस पुस्तक का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है। अगर हम परमेश्वर की इच्छा को जानने की शर्तें पूरी करेंगे, तब मार्ग-दर्शन पाना सहज हो जाएगा। अगर हम बीच में ही कहीं रुक जाते हैं, तो उसका कारण अक्सर यही होता है कि हमारे जीवन में कोई बात पूरी हुए बिना रह गई होती है। प्रभु हममें से हरेक की मदद करे कि हम पृथ्वी पर उसकी इच्छा पूरी करने के द्वारा उसकी महिमा वैसे ही करें जैसे वह स्वर्ग में है।

मैंने यहाँ किंग जेम्स संस्करण का इस्तेमाल नहीं किया है कि ऐसा न हो कि उसकी पुरानी भाषा हमें पवित्र-शास्त्रों के सही अर्थ को समझने न दे। इसकी बजाय मैंने वचन के सभी उद्धरणों के लिए नए अनुवादों वाले संस्करणों का उपयोग किया है। एक बार मैंने प्रेरितों के काम 8:30,31 पदों में दी गई घटना का एक रूपान्तरित बयान सुना था। फिलिप्पुस ने ईथियोपियाई राजनेता से पूछा, “जो तू पढ़ रहा है क्या उसे समझता भी है?” तब उसने जवाब दिया, “मैं कैसे समझ सकता हूँ जब तक कोई मुझे एक नया अनुवादित संस्करण न दे?”

पवित्र-शास्त्र के सभी उद्धरण, अन्यथा उल्लेख न किए जाने पर, ऐम्प्लिफाइड बाइबल से लिए गए हैं। “जे.बी.पी.” का अर्थ नई वाचा का जे. बी. फिलिप्स द्वारा किया गया अनुवाद है। “टी.एल.बी.” पवित्र-शास्त्रों का कैनैथ टेलर द्वारा किया गया भावानुवाद है। “एन.ए.एस.बी.” न्यू अमेरिकन स्टैन्डर्ड बाइबल है। मैं इन संस्करणों में से लिए गए उद्धरणों का उपयोग करने की अनुमति देने के लिए आपका आभार व्यक्त करता हूँ।

मैं प्रभु के अनेक सेवकों का ऋणी हूँ जिन्होंने इस पुस्तक की हस्तलिपि को पढ़ा और मुझे ऐसे सुझाव दिए जिनसे मुझे बहुत मदद मिली।

अध्याय 1
आपके जीवन के लिए परमेश्वर की योजना

परमेश्वर की इच्छा पूरी करना मनुष्य के लिए सबसे बड़ा सम्मानित काम है और यह उसका विशेषाधिकार है। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को यही सिखाया था। उसने एक बार यह कहा था कि जो उसके पिता की इच्छा पूरी करेगा, सिर्फ वही स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने पाएगा (मत्ती 7:21)। उसने यह भी कहा कि उसके सच्चे भाई-बहन वे ही हैं जो परमेश्वर की इच्छा पूरी करते हैं (मत्ती 12:50)।

प्रेरितों ने इसी तरह ज़ोर देते हुए इस बात को अपनी पीढ़ी के लोगों के पास पहुँचा दिया था। पतरस कहता है कि परमेश्वर मनुष्यों को पाप से इसलिए मुक्त करता है कि फिर वे उसकी इच्छा पूरी कर सकें (1 पत. 4:1,2)। पौलुस ने दृढ़तापूर्वक कहा कि विश्वासी क्योंकि मसीह यीशु में एक नई सृष्टि बन गए हैं, इसलिए वे उस मार्ग में आगे बढ़ सकते हैं जो परमेश्वर ने उनके लिए पहले से ही तैयार कर रखा है। इसलिए उसने इफिसियों के विश्वासियों से यह कहा कि वे मूर्खता न करें बल्कि यह समझें कि उनके जीवनों के लिए परमेश्वर की इच्छा क्या थी (इफि. 2:10; 5:17)। उसने कुलुस्सियों के मसीहियों के लिए यह प्रार्थना की कि वे परमेश्वर की सम्पूर्ण इच्छा को पूरा करें (कुलु. 1:9; 4:12)। प्रेरित यूहन्ना ने सिखाया कि जो परमेश्वर की इच्छा पूरी करता है, वह सर्वदा बना रहेगा (1 यूह. 2:17)।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज के हमारे समय और पीढ़ी में, इस बात पर शायद ही कहीं ज़ोर दिया जाता है। एक आम विश्वासी के सतही और सामर्थ्यहीन होने की आज यही वजह है। मनुष्यों से यह आग्रह किया जाता है कि वे यीशु के पास उनके पापों की क्षमा पाने के लिए आएं। प्रेरितों के समय में, लोगों को यह बताया जाता था कि पापों की क्षमा पाना सिर्फ एक ऐसे जीवन का पूर्वाभास होना था जिसे परमेश्वर की सम्पूर्ण इच्छा पूरी करने के लिए समर्पित होना था।

प्रेरितों के काम 13:22 में यह संकेत मिलता है कि दाऊद इसलिए “परमेश्वर के मन के अनुसार था” क्योंकि वह सिर्फ परमेश्वर की इच्छा पूरी करना चाहता था। एक दूसरी जगह दाऊद हमें स्वयं यह बताता है कि वह परमेश्वर की इच्छा पूरी करने से प्रसन्न होता है (भजन. 40:8)। वह एक सिद्ध मनुष्य नहीं था। उसने बहुत से पाप किए थे, जिनमें कुछ बहुत गंभीर पाप भी थे जिनके लिए परमेश्वर को उसे कठोर दण्ड भी देना पड़ा था। फिर भी परमेश्वर ने उसे क्षमा किया और उसमें आनन्द मनाया क्योंकि दाऊद एक बुनियादी रूप में परमेश्वर की सम्पूर्ण इच्छा को पूरा करना चाहता था। इससे हम उत्सहित होते हैं कि हमारी सारी कमियों के बावजूद - अगर हमारे मन सिर्फ परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में लगे हों - तो हम भी ऐसे पुरुष और स्त्री हो सकते हैं जो परमेश्वर के मन के अनुसार हों।

नई वाचा विश्वासियों से यह आग्रह करती है कि वे भी ऐसे ही चलें जैसे यीशु चलता था (1 यूह. 2:6)। पिता की इच्छा पूरी करना ही यीशु मसीह के पूरे जीवन और सेवकाई को निर्देशित वाला सिद्धान्त था। वह तब तक कुछ नहीं करता था जब तक उसका पिता उसे वह करने के लिए नहीं कहता था। और जब वह उस काम को करता था, तो न तो उसके शत्रुओं की धमकियाँ और न ही उसके मित्रों की विनतियाँ उसे उस काम को करने से रोक सकती थीं जो उसका पिता उससे चाहता था। उसके पिता की इच्छा को पूरा करना उसकी रोज़ की रोटी थी (यूह- 4:34)। जैसे मनुष्य अपनी देह को पोषित करने के लिए खाने की लालसा करते हैं, वैसे ही वह उसकी इच्छा पूरी करने के लिए लालायित रहता था जिसने उसे भेजा था।

हरेक विश्वासी में भी परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए ऐसी ही भूख होनी चाहिए। यह प्रार्थना करना कि “तेरी इच्छा जैसे स्वर्ग में पूरी होती है वैसे ही पृथ्वी पर भी हो,” और फिर अपने प्रतिदिन के जीवनों के लिए परमेश्वर के मार्गदर्शन की खोज किए बिना अपनी ही इच्छा पूरी करना कितना आसान होता है।

परमेश्वर की योजना सबसे अच्छी होती है

परमेश्वर द्वारा मार्ग-दर्शन पाने की खोज न करना सबसे बड़ी भूल होती है। अगर आप एक गहरी अंधेरी रात में एक घने जंगल में फँस जाएं, और आपको यह मालूम न हो कि आपको अब मुड़कर कहाँ जाना है, तो आपको अपने साथ एक ऐसा व्यक्ति पाकर बहुत ख़ुशी होगी जो उस जंगल का चप्पा-चप्पा जानता हो और जिस पर आप पूरा भरोसा कर सकते हों। वह जिस रास्ते से भी होकर चलेगा, आप कोई सवाल किए बिना ख़ुशी से उसके पीछे चलते रहेंगे। उसकी सलाह न मानना और उस अंधेरे घने जंगल में, जो ख़तरों से भरा हुआ है, अपने आप आगे बढ़ना एक मूर्खता का काम होगा। फिर भी, अनेक विश्वासी यही करते हैं।

हमारे आगे रखा भविष्य पृथ्वी की किसी भी अंधकारमय बात से ज़्यादा अंधकारमय है। हमें आगे कुछ भी नज़र नहीं आता। फिर भी हमें आगे बढ़ना होता है।

हम कभी-कभी जीवन के ऐसे दोराहों पर आ जाते हैं जहाँ हमें ऐसे फैसले करने पड़ते हैं जिनके दूरगामी परिणाम होते हैं। अपने लिए एक व्यवसाय और एक जीवन-साथी का चुनाव करने जैसे फैसले हमारे पूरे भविष्य को प्रभावित करते हैं। ऐसे समयों में हम कैसे फैसले करें? हमें हरेक मार्ग में मौजूद ख़तरों और छुपे हुए गड्ढों के बारे में कुछ भी पता नहीं होता। जो फंदे शैतान ने हमारे लिए लगाए होते हैं, हम उनसे पूरी तरह अनजान होते हैं। लेकिन फिर भी, हमें यह फैसला करना पड़ता है कि हम कौन से रास्ते में आगे बढ़ें।

इसलिए यह न सिर्फ वांछित बल्कि ज़रूरी होगा कि ऐसे समयों में हमारे साथ कोई ऐसा व्यक्ति हो जो जिस पर हम पूरा भरोसा कर सकें, जो पूरा भविष्य जानता हो। प्रभु यीशु मसीह में, हमारे पास एक ऐसा ही व्यक्ति है, और वह सबसे सुरक्षित और सबसे अच्छे मार्ग में हमें दिशा-निर्देश देने के लिए बहुत उत्सुक है।

बाइबल यह सिखाती है कि हममें से हरेक के लिए परमेश्वर के पास एक ख़ास योजना है (इफि- 2:10)। उसने हमारे लिए एक काम-धंधे की योजना बना रखी है, हमारे लिए एक जीवन साथी चुन रखा है, और उसने यहाँ तक तय कर रखा है कि हमें कहाँ रहना है और हमें प्रतिदिन क्या करना है। हरेक मामले में, उसका चुनाव सबसे अच्छा होता है, क्योंकि वह हमें इतनी अच्छी तरह जानता है कि वह हमसे जुड़ी हरेक बात को अपने ध्यान में रखता है। इसलिए सबसे ज़्यादा समझदारी इसी बात में है कि हरेक मामले में - चाहे वह छोटा हो या बड़ा - उसकी इच्छा को जाना जाए।

सिर्फ हमारी सीमित सोच-समझ के तर्क-वितर्क और हमारी भावनाओं के दिशा-निर्देशों के अनुसार चलना न सिर्फ मूर्खतापूर्ण बल्कि ख़तरनाक भी होता है। जब तक हमारा यह दृढ़ विश्वास न हो कि परमेश्वर की योजना वास्तव में सबसे अच्छी है, तो हम गंभीरता से उसे खोजने वाले भी नहीं होंगे।

अनेक लोगों ने अपने जीवनों का नाश कर लिया है क्योंकि उन्होंने अपनी युवावस्था के समय से ही परमेश्वर की इच्छा की खोज नहीं की थी। एक मनुष्य के लिए यह भला है कि वह अपनी जवानी में अपना जुआ उठाए (विलाप- 3:27)। मत्ती 11:28-30 में, यीशु ने हमें उसका जुआ हमारे ऊपर उठा लेने के लिए आमंत्रित किया है। जुआ उठाने का क्या अर्थ होता है? जब बैलों की एक जोड़ी खेत जोतने के लिए इस्तेमाल की जाती है, तो वे उनकी गर्दनों पर रखे जुए की वजह से एक-दूसरे के साथ जुड़े रहते हैं। जब एक नए बैल को खेत जोतने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, तो उसे एक अनुभवी बैल के साथ जोता जाता है। तब नया बैल पुराने बैल की ही दिशा में और उसी गति में आगे बढ़ने के लिए विवश हो जाता है।

यीशु के जुए को अपने ऊपर उठा लेने का यह अर्थ होता है। हमें यीशु के साथ उस मार्ग में जाना होता है जो उसे पसन्द है - हम न तो उसकी अगुवाई के बिना आगे ही जा सकते हैं, और जब वह हमें आज्ञापालन का एक नया क़दम उठाने के लिए कहे, तब न ही हम अपना क़दम पीछे खींच सकते हैं। ऐसे लोग बहुत कम हैं जो जुए का अर्थ समझते हैं। और ऐसे लोग तो और भी कम हैं जो इसे उठाने के लिए तैयार होते हैं। बैल का मालिक बैल के ऊपर जुआ रखने के लिए उसे नियंत्रित करता है। लेकिन यीशु हमें उसका जुआ उठाने के लिए आमंत्रित करता है। इसमें कोई मजबूरी नहीं है। हम इस आमंत्रण को अस्वीकार करने के द्वारा कितनी बड़ी मूर्खता करते हैं! लेकिन हम यीशु का हल्का जुआ उठाने की बजाय, जो सच्ची आज़ादी और बड़ा आराम देता है, हम अपनी मन-मानी का भारी जुआ ही उठाना चाहते हैं जिसके साथ निष्फलताएं, पराजय और दुःख आता है!

फ्तुम सब जो कठोर परिश्रम करते हो और भारी जुए के नीचे दबे हो, मेंरे पास आओ और मैं तुम्हें आराम दूँगा। मेरा जुआ अपने ऊपर उठा लो... और मुझसे सीखो (जैसे पुराना बैल अनुभवहीन बैल को सिखाता है)... और तुम्हारे जीव को आराम मिलेगा, क्योंकि मै तुम पर सिर्फ हल्का बोझ रखता हूँ” (मत्ती 11:28-30 -टी.एल.बी.)।

हम हनोक के बारे में पढ़ते हैं कि वह “परमेश्वर के साथ-साथ चलता था” (उत्पत्ति 5:22) - अर्थात्, वह जल्दबाज़ी करते हुए आगे नहीं जाता था, और न थक कर पीछे रह जाता था, बल्कि परमेश्वर के तय किए हुए मार्ग पर मानो एक जुए के नीचे आगे बढ़ता रहा था - तीन सौ सालों तक। इसका नतीजा यह हुआ कि परमेश्वर ने यह साक्षी दी कि वह हनोक के जीवन से प्रसन्न था (इब्रा- 11:5)। हम परमेश्वर को सिर्फ इसी तरह प्रसन्न कर सकते हैं - उसके जुए के नीचे उसकी सिद्ध इच्छा में रहते और चलते हुए। सिर्फ इस तरह ही हम उसके दोबारा आने पर बिना खेदित हुए उसके सामने खड़े रह सकेंगे।

परमेश्वर की योजना से चूक जाना

यह हो सकता है कि एक विश्वासी उसके जीवन के लिए बनाई गई परमेश्वर की सिद्ध योजना जानने से पूरी तरह चूक जाए। शाऊल को इस्राएल का राजा होने के लिए परमेश्वर ने चुना था, लेकिन उसकी अधीरता और आज्ञा उल्लंघन की वजह से, परमेश्वर को अंततः उसे अस्वीकार करना पड़ा था। हाँ, यह सच है कि वह कुछ साल और सिंहासन पर बैठा रहा था, लेकिन अपने जीवन के लिए वह परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने से चूक गया था। सुलेमान का जीवन एक और ऐसा उदाहरण है। उसके आरम्भिक दिनों में उसने परमेश्वर को प्रसन्न किया था, लेकिन बाद में मूर्तिपूजक स्त्रियों से विवाह करने के द्वारा वह मार्ग से भटक गया था।

नई वाचा में दो बार हमें जंगल में नाश हुए इस्राएलियों के उदाहरण से चेतावनी पाने के लिए कहा गया है। उनके लिए परमेश्वर की सिद्ध इच्छा यही थी कि वे कनान में प्रवेश करें। लेकिन उनमें से दो के अलावा बाक़ी सभी उनके अविश्वास और आज्ञा उल्लंघन की वजह से उनके लिए परमेश्वर का सर्वश्रेष्ठ पाने से चूक गए थे (1 कुरि. 10:1:12; इब्रा. 3:7-14)। इसी तरह अनेक विश्वासी भी उनके जीवनों के लिए - अक्सर शादी-ब्याह और काम-धंधे के मामले में - उनके जीवनों में परमेश्वर की सिद्ध योजना को पूरा करने से चूक गए हैं।

जी. क्रिश्चियन वीज़ ने अपनी पुस्तक ‘द परफैक्ट विल ऑफ गॉड’ में एक बाइबल स्कूल के एक शिक्षक के बारे में लिखा। जिसने एक दिन अपनी कक्षा के छात्रों को बताया, “मुझे अपने जीवन का ज़्यादा समय परमेश्वर की सर्वश्रेष्ठ नहीं बल्कि दूसरे दर्जे की श्रेष्ठ बात से ही संतुष्ट होना पड़ा है।” परमेश्वर ने उसकी युवावस्था में उसे एक मिशनरी होने के लिए बुलाया था, लेकिन उसके विवाह की वजह से वह उस बुलाहट की तरफ से मुड़ गया था। फिर उसने अपना एक स्वार्थी व्यावसायिक जीवन शुरू कर दिया था, और एक बैंक में काम करते हुए, उसने धन अर्जित करने को ही अपना मुख्य उद्देश्य बना लिया था। परमेश्वर कुछ सालों तक उससे बात करता रहा था, लेकिन वह टूटने / झुकने से इनकार करता रहा था। एक दिन उसका छोटा बच्चा कुर्सी पर से गिरा और मर गया। इस घटना ने उसे घुटनों पर ला दिया और उसने वह पूरी रात परमेश्वर के सामने आँसू बहाते हुए गुज़ारी, और उसने अपना जीवन फिर से पूरी तरह परमेश्वर के हाथों में सौंप दिया। अफ्रीका जाने में अब बहुत देर हो चुकी थी। वह दरवाज़ा उसके लिए बंद हो चुका था। वह जानता था कि उसके लिए वह परमेश्वर का सर्वश्रेष्ठ था, लेकिन वह पाने से वह चुक गया था। अब वह परमेश्वर से सिर्फ इतना कह सकता था कि वह उसके बाक़ी के जीवन को किसी तरह इस्तेमाल कर ले। वह एक बाइबल स्कूल में शिक्षक बन गया, लेकिन वह यह बात कभी नहीं भूल सका कि यह उसके लिए दूसरे क्रम की श्रेष्ठ बात थी।

वीज़ ने आगे लिखा, “इसके बाद मैं ऐसे अनेक लोगों से मिल चुका हूँ जिनकी ऐसी ही साक्षी है। आम तौर पर इन साक्षियों में से या तो कड़वाहट-भरे आँसू छलक रहे होते हैं या फिर वे उनमें पूरी डूबी होती हैं। हालांकि, परमेश्वर का धन्यवाद हो कि उसके पास उन्हें भी इस्तेमाल करने के तरीक़े हैं जिन्होंने पाप किया है और उसकी सिद्ध इच्छा के एक-मात्र प्रवेश-द्वार से आगे निकल चुके हैं, लेकिन जीवन अब कभी वैसा न हो सकेगा जैसा उसने उसे मूल रूप में तैयार करना चाहा था। अपने जीवन के लिए परमेश्वर की सिद्ध इच्छा को पूरा करने से चूक जाना एक बड़ी दुःखद बात होती है। हे मसीही, तू इन शब्दों पर इस साक्षी पर पूरा ध्यान दे कि ऐसा न हो कि तू परमेश्वर की पसन्द की पहली बात से चूक जाए। निश्चय ही, जीवन के पथ में परमेश्वर ऐसे हरेक जीवन को इस्तेमाल करेगा जो उसके हाथों में सौंपा जाएगा, लेकिन हम ऐसे हों जिन्होंने अपने जीवन की यात्र के आरम्भ में ही उसकी इच्छा के आगे अपने आपको समर्पित कर दिया हो, और इस तरह अपने आपको मार्ग में इधर-उधर भटकने के पीड़ादायक और लज्जाजनक उतार-चढ़ावों से अपने आपको बचा लिया है।”

हम ख़ुद अपने लिए एक जगह का चुनाव करके वहाँ एक जयवंत जीवन नहीं जी सकते, और न ही प्रभु के लिए सबसे ज़्यादा उपयोगी या सबके लिए एक आशिष बन सकते है। कुछ लोग यह सोच सकते हैं कि वे अपने लिए एक काम-धंधा और रहने की जगह चुन सकते हैं और फिर वहाँ पर वे प्रभु के साक्षी हो सकते हैं। प्रभु अपनी दया में ऐसे विश्वासियों को एक सीमित रूप में इस्तेमाल कर सकता है। लेकिन अब परमेश्वर की दाख की बारी में उनकी उपयोगिता उस उपयोगिता का मात्र एक अंश ही होगी जो तब हो सकती थी अगर उन्होंने ईमानदारी से उसकी योजना की खोज की होती और उसकी सिद्ध इच्छा के केन्द्र में रहे होते। आत्मिक उन्नति का रुक जाना और सीमित रूप में फलवंत होना लापरवाह होकर परमेश्वर के नियमों को अनदेखा करने का परिणाम होता है।

अगर आपने किसी बात में परमेश्वर की आज्ञा को तोड़ा है, तो इससे पहले कि देर हो जाए, मन फिरा कर उसके पास लौट आएं। जैसा योना के मामले में हुआ, वैसे ही शायद आपके मामले में भी यह सम्भव हो कि आप वापिस परमेश्वर की योजना की उस मुख्यधारा में लौटकर आ सकें जो उसने आपके जीवन के लिए बनाई है।

हममें से हरेक का बस एक ही जीवनकाल है। वह मनुष्य धन्य है जो पौलुस की तरह उसके जीवन के अंत में यह कह सकता हो कि उसने वह काम पूरा कर दिया है जो परमेश्वर ने उसे सौंपा था (2 तीमु. 4:7)।

“संसार और उसकी लालसाएं भी मिटती जा रही हैं, लेकिन वह मनुष्य जो परमेश्वर की इच्छा पूरी कर रहा है, वह उसका हिस्सा है जो स्थाई है और वह कभी नहीं मरेगा” (1 यूह. 2:17 – जे. बी. पी.)।

“एक जि़म्मेदारी के अहसास के साथ जीवन जीएं, ऐसे लोगों की तरह नहीं जो जीवन के अर्थ और उद्देश्य के बारे में कुछ नहीं जानते, बल्कि ऐसों की तरह जो जानते हैं। इन दिनों की सभी कठिनाइयों के बावजूद अपने समय का सबसे अच्छा उपयोग करो। किसी भ्रम में न पड़ो बल्कि जिस बात को तुमने प्रभु की इच्छा के रूप में जान लिया है, उसे मज़बूती से थामे रहो” (इफि. 5:15-17 – जे. बी. पी.)।

सारांश

  1. प्रभु यीशु और उसके प्रेरितों ने यह सिखाया कि मनुष्य के लिए सबसे सम्मानजनक बात और उसका विशेषाधिकार परमेश्वर की इच्छा को जानना है।
  2. जबकि परमेश्वर हमारा मार्ग-दर्शन करने के लिए तैयार है, तो हमें स्वयं भविष्य में आगे बढ़ने की मूर्खता नहीं करनी चाहिए। उसकी योजना सर्वश्रेष्ठ होती है। अगर हम उसके अधीन हो जाएंगे, तो वह हमें शैतान के फंदों से बचाए रखता है।
  3. यह सम्भव है कि हम लापरवाही या आज्ञा न मानने के द्वारा हमारे जीवनों के लिए परमेश्वर की सिद्ध इच्छा को पूरा करने से चूक जाएं।

अध्याय 2
परमेश्वर की इच्छा जान लेने की शर्तें

ईश्वरीय मार्गदर्शन के विषय में हम परमेश्वर के साथ हमारे व्यक्तिगत सम्बंध से अलग हटकर विचार नहीं कर सकते। अनेक लोग दान-वरदान चाहते हैं लेकिन उनके देने वाले को नहीं चाहते। अगर हम मार्गदर्शन चाहते हैं लेकिन स्वयं परमेश्वर के लिए हममें कोई भूख-प्यास नहीं है, तो जो मार्गदर्शन हम चाहते हैं, वह हमें नहीं मिलेगा।

अगर एक व्यक्ति अपने जीवन में परमेश्वर का मार्गदर्शन चाहता है, तो यह ज़रूरी है कि उसकी परमेश्वर के साथ सहभागिता हो। सबसे पहले, यह इस बात की तरफ इशारा करता है कि उस व्यक्ति का नए जन्म द्वारा मसीह के साथ एक जीवंत सम्बंध स्थापित हो चुका है। लेकिन सिर्फ यही काफी नहीं है। अगर हमें परमेश्वर का मार्गदर्शन पाना है, तो हमें कुछ और अनिवार्य शर्तों को पूरा करने की ज़रूरत होगी। इन पूर्वापेक्षित बातों को उल्लेख पवित्र-शास्त्र के दो भागों में किया गया है - एक पुरानी वाचा में, और दूसरा नई वाचा में (नीति. 3:5,6; रोमि. 12:1,2)। हम इन भागों पर विस्तार से विचार करेंगे।

विश्वास

“अपने सम्पूर्ण हृदय से परमेश्वर पर भरोसा रखना... तब वह तेरे लिए सीधा मार्ग निकालेगा” (नीति. 3:5,6)।

ऐसे बहुत लोग हैं जो कभी परमेश्वर की इच्छा के ज्ञान तक नहीं पहुँच पाते, जिसकी वजह सिर्फ यही है कि वे यह विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर उनका मार्गदर्शन कर सकता है। जब हम परमेश्वर द्वारा मार्गदर्शन पाने की खोज में होते हैं, तो सबसे प्रमुख पूर्वापेक्षित बात विश्वास का होना है। विश्वास का अर्थ सिर्फ सत्य की बौद्धिक स्वीकृति नहीं होती बल्कि परमेश्वर में एक ऐसा भरोसा होता है जो उसे व्यक्तिगत रूप में जानने से आता है।

जब हममें बुद्धि की कमी होती है (किसी ख़ास स्थिति में परमेश्वर के मन की बात जानना) तो हमें परमेश्वर से माँगने के लिए आमंत्रित किया गया है, और हमसे यह प्रतिज्ञा की गई है कि वह हमें भरपूरी से देगा - लेकिन हमें विश्वास से माँगना होगा। जो विश्वास से नहीं माँगता, वह कुछ नहीं पाता (याकूब 1:5-7)।

युवा विश्वासी यह सेाच सकते हैं कि ईश्वरीय मार्गदर्शन सिर्फ ऐसे परिपक्व विश्वासियों को ही मिलता है जो अनेक वर्षों से प्रभु के ज्ञान में बढ़े हैं। इसमें कोई शक नहीं कि हम जितना परमेश्वर के साथ-साथ चलते हैं, उसके मन को भी हम उतनी ही अच्छी तरह परखने लगते हैं। फिर भी यह सच है कि परमेश्वर अपने सब बच्चों का मार्गदर्शन करना चाहता है। जो पौलुस से कहा गया था, वह हम सबके लिए सच है, “परमेश्वर ने तुझे इसलिए नियुक्त किया है कि तू उसकी इच्छा को जाने - अर्थात् उसकी इच्छा को महसूस करे, ज़्यादा दृढ़ता और स्पष्टता के साथ उसे समझे, और ज़्यादा अच्छी तरह और घनिष्ठता से उसे जान ले” (प्रेरितों. 22:14)। एक पिता अपनी उन अभिलाषाओं और योजनाओं को न सिर्फ अपने बड़े बच्चों को बल्कि छोटे बच्चों को भी ख़ुशी से बता देता है जो उनके लिए उसके मन में होती हैं। हमारे स्वर्गीय पिता के साथ भी ऐसा ही है। नई वाचा के इस दिन में, परमेश्वर ने अपने वचन में कहा है कि उसके सब बच्चे, “छोटे से लेकर बड़े तक”, उसे व्यक्तिगत तौर पर जानेंगे (इब्रा. 8:10,11)। इसलिए हममें से हरेक “विश्वास के इस पूरे आश्वासन के साथ” उसके पास आ सकता है, कि परमेश्वर के जो बच्चे उसकी इच्छा जानना चाहते हैं, वह ख़ुशी के साथ उसे उन पर प्रकट करेगा।

इब्रानियों 11:6 में, हमसे यह कहा गया है कि हम विश्वास के बिना उसे प्रसन्न नहीं कर सकते। इसी पद में आगे लिखा है कि जो परमेश्वर के पास आते हैं उनके लिए यह विश्वास करना आवश्यक है कि वह अपने खोजने वालों को प्रतिफल देता है। एक व्यक्ति के विश्वास का प्रमाण उसकी आग्रहपूर्वक की जाने वाली प्रार्थना में मिलता है (लूका 18:1-8)। जो शक करता है, वह जल्दी ही प्रार्थना करना छोड़ देता है। लेकिन जेा विश्वास करता है, वह परमेश्वर को तब तक नहीं छोड़ता जब तक उसे उसकी प्रार्थना का जवाब नहीं मिल जाता। परमेश्वर निष्ठा का आदर करता है क्योंकि वह एक गहरे विश्वास में से पैदा होती है। हम परमेश्वर से तब तक कुछ नहीं पा सकते जब तक पहले उसे पाने की हममें तीव्र इच्छा नहीं होती। फ्वह (सिर्फ) अभिलाषी जीव को ही संतुष्ट करता है” (भजन. 107:9)। परमेश्वर ने कहा है, “जब तुम मुझे ढूंढोगे, मेरे बारे में पूछोगे, और एक जीवंत रूप में मेरी ज़रूरत महसूस करोगे, तब तुम मुझे पाओगे क्योंकि तुम सम्पूर्ण हृदय से मुझे ढूंढोगे” (यिर्म. 29:13)। क्या यह सच नहीं है कि जब कभी हमने परमेश्वर से मार्गदर्शन चाहा है तो वह एक अधूरे मन से चाहा है? जब यीशु ने गतसमनी के बाग़ में पिता की इच्छा को जानना चाहा, तो उसने “आहें भर-भर कर और आँसू बहाते हुए” बार-बार प्रार्थना की (इब्रा. 5:7 – जे.बी.पी.)। इसकी तुलना में हमारा माँगना कितना लापरवाही-भरा होता है! परमेश्वर की इच्छा को जानने की हमारी निष्ठा अक्सर उस निष्ठा से ज़्यादा नहीं होती जो हम एक खोए हुए सिक्के को ढूंढने में दर्शाते हैं! इसलिए इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि हम उसे नहीं जान पाते। अगर हम परमेश्वर की इच्छा को पृथ्वी के सबसे क़ीमती ख़ज़ाने के रूप में जानेंगे, तो हम पूरे हृदय से उसकी खोज करेंगे। क्या हम वास्तव में यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर उन सबको प्रतिफल देता है जो श्रमपूर्वक उसकी खोज करते हैं? तब हमारा विश्वास समय-असमय प्रार्थना में अपने आपको प्रकट करता रहेगा। हमारे जीवन के सभी क्षेत्रें में परमेश्वर की इच्छा पूरी करने की अगर हममें एक तीव्र इच्छा होगी, तो परमेश्वर ज़रूर अपने मन की बात हम पर प्रकट करेगा। उसे ऐसे विश्वास का सम्मान करना ही पड़ता है जो उसे तब तक नहीं छोड़ता जब तक वह उससे जवाब नहीं पा लेता।

बाइबल में, विश्वास को अक्सर धीरज से जोड़ा गया है। परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं को अपनी विरासत के रूप में पाने के लिए, हमें दोनों की ज़रूरत है (इब्रा. 6:12,15)। दाऊद हमें उत्साहित करता है (अवश्य ही अपने अनुभव के आधार पर) कि हम अपने मार्ग की चिंता परमेश्वर को सौंप दें, उस पर भरोसा रखें और धीरज से उसकी प्रतीक्षा करें, तो हमें आश्वस्त किया गया है, कि सब कुछ पूरा करेगा (भजन. 37:5,7)। परमेश्वर की इच्छा की खोज करते समय एक सबसे बड़ी परीक्षा कुड़कुड़ाने और अधीर हो जाने की होती है। लेकिन एक विश्वासी का हृदय शांत रहता है।

कुछ ऐसे फैसले होते हैं जिनके लिए हमें प्रभु के मन के बारे में एक बिलकुल स्पष्ट संकेत पाने का इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं होती। उदाहरण के तौर पर, अगर आप इस बारे में प्रभु की इच्छा जानना चाह रहे हैं कि आप अपनी यात्रा 15 को शुरू करें या 16 को, तो इसके लिए आपको प्रभु से एक स्पष्ट जवाब पाने के लिए एक अनिश्चित समय तक इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं होती।

लेकिन ऐसे फैसले भी होते हैं जिनमें हमें प्रभु की इच्छा के बारे में बिलकुल स्पष्ट होने के लिए इंतज़ार करने की ज़रूरत होती है। जैसे, विवाह करने का फैसला करते समय, हम अनिश्चित नहीं रह सकते। यह फैसला करने से पहले, हमें परमेश्वर की इच्छा के बारे में बिलकुल स्पष्ट होने की ज़रूरत होती है। साफ तौर पर, यह फैसला पहले फैसले से ज़्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके प्रभाव दूर तक जाने वाले हैं। जो फैसला जितना ज़्यादा ज़रूरी होता है, उसमें परमेश्वर की इच्छा जानने के लिए हमें अक्सर उतना ही ज़्यादा इंतज़ार करना पड़ता है।

अगर हम प्रभु में भरोसा करते हैं, तो हम इंतज़ार करने से नहीं डरेंगे। हम परमेश्वर का समय होने से पहले किसी बात को अपने लिए इस डर से दबोचने की कोशिश नहीं करेंगे कि इंतज़ार करने से शायद हम सर्वश्रेष्ठ पाने से चूक जाएंगे। परमेश्वर हरेक परिमण्डल में हमारे लिए रखी सर्वश्रेष्ठ बात की रक्षा करने में पूरी तरह सक्षम है। जब हम अधीर होकर दबोचने जाते हैं, तो हम प्रभु का सर्वश्रेष्ठ पाने से चूक ही जाते हैं। बाइबल कहती है, “वह जो विश्वास करता है... उतावली नहीं करता” (यशा. 28:16)।

“मार्गदर्शन” के महान् भजन 25 में, दाऊद बार-बार परमेश्वर की धीरज से प्रतीक्षा करने की बात करता है (पद 3, 5,21)। जो प्रभु के समय का इंतज़ार करते हैं, उन्हें कभी पछताना नहीं पड़ेगा, क्योंकि “जो (निष्ठापूर्वक) परमेश्वर की बाट जोहते हैं, वह उनके लिए काम करता है” (यशा. 64:4; तुलना करें यशा. 49:23)।

अक्सर, परमेश्वर अपने मन की बात हमें साफ तौर पर तभी बता पाता है जब हम धीरज से प्रतीक्षा करते हैं। जेम्स मैक्कॉन्की ने अपनी पुस्तिका “गाइडैंस” में लिखा है, “कभी-कभी आप जब नल में से पानी निकालते हैं, तो वह मटमैला होता है। तब आप उसे कैसे साफ करते हैं? आप उस मटमैले पानी को गिलास को मेज़ पर रख देते हैं। तब धीरे-धीरे उसमें से मिट्टी के कण नीचे बैठ जाते हैं। धीरे-धीरे पानी साफ होने लगता है। कुछ क्षणों बाद वह इतना साफ हो जाता है कि उसके आर-पार चीज़ें नज़र आने लगती हैं। और यह सिर्फ धीरज से प्रतीक्षा करने से हो जाता है। मार्गदर्शन के परिमण्डल में भी यही सिद्धान्त काम करता है। यहाँ भी बात को साफ कर देने परिबल प्रतीक्षा करना है... जब हम यह करते हैं, तो ठोस तत्व धीरे-धीरे नीचे बैठ जाते हैं... गौण बातें नीची होकर उनकी सही जगह पर आ जाती हैं। बड़ी बातें उनकी महत्वपूर्ण जगह ले लेती हैं। इन सब बातों का हल प्रतीक्षा करना है... हमारी बहुत सी ग़लतियों की वजह यही होती है कि हम इसे अनदेखा कर देते हैं। अक्सर जल्दबाज़ी मार्गदर्शन की एक ज़रूरत न होकर शैतान का फंदा ही होती है।

कई बार हमारी उलझन इतनी बड़ी होती है कि ऐसा लगता है कि हमें कोई दिशा निर्देश नहीं मिलेगा। ऐसे समयों के लिए भजनकार के पास रात-के-पहरेदारों के लिए कहे गए वचन में से हमारे लिए एक मूल्यवान संदेश है। “पहरेदार जितना भोर को चाहते हैं, मैं उससे भी ज़्यादा प्रभु की बाट जोहता और उसे चाहता हूँ” (भजन. 130:6)। वे लोग जो रात के लम्बे घण्टों में भोर होने की बाट जोहते हैं, वे सुबह होने का इंतज़ार किस तरह करते हैं? इसका जवाब चौगुणा हैः

“वे अंधेरे में जागते और देखते रहते हैं।" वे एक बात का इंतज़ार करते हैं जो धीरे-धीरे आती है। वे एक ऐसी बात का इंतज़ार करते हैं जिसका आना निश्चित है। यह एक ऐसी बात की बाट जोहते हैं जो उसके साथ दिन का प्रकाश लेकर आती है।

“उनके साथ भी ऐसा होता है जो मार्गदर्शन पाने के लिए धीरज से बाट जोहते हैं। अक्सर हमारी उलझन इतनी ज़्यादा होती है कि हम मानो पूरे अंधेरे में प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। और प्रतीक्षा करते हुए, और उन्हीं की तरह जो सुबह होने की बाट जोहते हैं, उनके लिए भी भोर का उजाले की पहली किरणें कितने धीरे-धीरे आती हैं! और वैसे ही, जैसे आज तक ऐसी कोई रात नहीं हुई है जिसके पूरा होने पर एक भोर न हुई हो, वैसे ही हमारी अनिश्चितता की रात का अंत भी परमेश्वर के मार्गदर्शन की ज्योति के प्रकट होने से ही होगा। अंत में, धीरे-धीरे आने वाली भोर, जब आ जाती है, तब अपने साथ असीम आशिष लाती है, वैसे ही अंततः जब हमें परमेश्वर द्वारा दिया गया मार्गदर्शन मिल जाता है, तब हमारे बाट जोहने वाला प्राण हर्षित हो उठता है और हमारे धुंधले रास्ते को इतना प्रकाशित कर देता है कि हम लगभग यह भूल ही जाते हैं कि हमने इतने दिनों तक अंधेरे में प्रतीक्षा की थी।”

जल्दबाज़ी में रहने की तरफ से सावधान रहें। अधीरता हमेशा अविश्वास में से आती है। जंगल में घूमने वाले इस्राएलियों के बारे में यह कहा गया था कि फ्उन्होंने परमेश्वर की योजनाओं को धीरज से (निष्ठापूर्वक) पूरा नहीं होने दिया” (भजन- 106:13)। इस तरह वे उनके जीवन में परमेश्वर के सर्वश्रेष्ठ से चूक गए थे। परमेश्वर ऐसी त्रासदी से हमें बचाए रखे।

अपने आप पर भरोसा न रखना

“अपनी सोच-समझ का सहारा न लेना... तब वह तेरा मार्गदर्शन करेगा” (नीति. 3:5,6)।

ऐसा व्यक्ति जो आत्मिक मामलों में अपनी प्राकृतिक सोच-समझ का सहारा लेना नहीं छोड़ता, उसे अभी मसीही जीवन के मूल पाठों में से एक पाठ सीखना बाक़ी हैं। अगर एक व्यक्ति परमेश्वर का सहारा लेता है, तो उसकी मामूली सोच-समझ अपने आप में उसे परमेश्वर की इच्छा जानने में अयोग्य नहीं बना देती। लेकिन एक व्यक्ति का उसकी अपनी चतुराई और दूर-दृष्टि पर गर्व-पूर्वक निर्भर रहना उसे ज़रूर परमेश्वर की इच्छा जानने में अयोग्य ठहरा सकता है। फिलिप्पयों 3:3 में पौलुस कहता है कि एक विश्वासी की यह विशिष्ट पहचान हो कि वह अपने आप में भरोसा रखने वाला न हो।

पौलुस एक सामर्थी बुद्धिजीवी था लेकिन फिर भी उसे अपने आप पर भरोसा न रखते हुए परमेश्वर का सहारा लेना पड़ा था। अपने स्वयं के अनुभव में से उसने कुरिन्थियों के मसीहियों को लिखा, फ्कोई अपने आपको अगर यह धोखा देता है कि वह संसार का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति है, तो वह अपनी चतुराई को छोड़ दे कि वह वास्तव में बुद्धिमान बन सके। क्योंकि इस संसार का ज्ञान परमेश्वर के समक्ष मूर्खता है” (1 कुरि. 3:18,19 – जे.बी.पी.)। सांसारिक बुद्धि परमेश्वर की इच्छा को जानने में एक बाधा होती है, इसलिए उसे फेंक देना ज़रूरी होता है।

इस अंतिम बात को कहीं ग़लत न समझ लिया जाए, इसलिए मैं इसमें स्पष्टीकरण का एक शब्द जोड़ना चाहता हूँ। सांसारिक बुद्धि को अस्वीकार करने का अर्थ यह नहीं है कि हमें अपनी मानसिक क्षमताओं का उपयोग नहीं करना है। पौलुस ने उसकी मानसिक क्षमताओं का उपयोग किया था, और हम यह सोच भी नहीं सकते कि वह दूसरों द्वारा उनके उपयोग पर रोक लगाएगा। सांसारिक बुद्धि की बात शैक्षणिक योग्यता या पढ़ाई-लिखाई के बारे में नहीं है, क्योंकि पढ़े-लिखे पौलुस और अनपढ़ कुरिन्थियों (जिन्हें वह लिख रहा था) दोनों को ही उसे अस्वीकार करना था। हमारी पढ़ाई-लिखाई चाहे कम हो या ज़्यादा, लेकिन यह बात हमारी अपनी चतुराई में रखे भरोसे की मात्र के बारे में है। यह एक ऐसी बीमारी है जो पढ़े-लिखे और अनपढ़ दोनों को लग सकती है।

बाइबल विश्वासियों को भेड़ों के समान बताती है। भेड़ एक मूर्ख जानवर होती है जिसकी पास की नज़र बहुत कमज़ोर होती है और जिसके लिए अपना रास्ता ढूंढना मुश्किल होता है। उसकी एकमात्र सुरक्षा इसमें होती है कि उसका चरवाहे जहाँ-जहाँ भी जाए, वह उसके पीछे-पीछे चलती रहे। यह बात एक आत्म-निर्भर व्यक्ति के लिए बहुत लज्जाजनक होती है। अगर आत्मिक मामलों में उसके मूर्ख होने की तरफ अगर एक हल्का सा भी इशारा किया जाएगा, तो उसका गर्व विद्रोह करेगा। फिर भी, हमारे जीवनों के लिए परमेश्वर का मार्गदर्शन पाने के लिए हमारा अपनी ख़ुदी में बिलकुल कोई भरोसा न होना एक ऐसी आरम्भिक तैयारी है जिससे हम बच कर नहीं निकल सकते। प्रभु के सम्मुख दाऊद एक भेड़ बन कर खड़ा रहता था, इसलिए उसने ईश्वरीय मार्गदर्शन पाया था। - “प्रभु मेरा चरवाहा है, वह मेरी अगुवाई करता है... वह मुझे ले चलता है” (भजन. 23:1-3)।

मनुष्य जब तक अपने आपको नम्र नहीं करता, और ऐसी दीन-हीन जगह में आकर खड़ा नहीं होता, तब तक वह परमेश्वर के मार्ग नहीं जान सकता। “वह (परमेश्वर) न्याय के मार्ग में दीन लोगों की अगुवाई करता है, और नम्र लोगों को अपने मार्ग की शिक्षा देता है”, दाऊद ने भजन 25:9 (टी.एल.बी.) में कहा। आत्म-निर्भरता सांसारिक मनुष्य के लिए ठीक हो सकती है, लेकिन वह परमेश्वर की संतान के लिए ठीक नहीं है। अनेक विश्वासी उनके जीवनों के लिए परमेश्वर की योजना को पूरा करने से क्यों चूक जाते हैं, उसकी यही वजह है। अपनी स्वयं की योग्यताओं में भरोसा रखने वाले होने की वजह से, वे गंभीरता के साथ परमेश्वर की इच्छा के खोजी नहीं बन पाते। इसकी बजाय वे अपनी चतुराई में भरोसा रखते हैं और इस वजह से भटक जाते हैं।

परमेश्वर अक्सर हमारे जीवनों में निष्फलताओं और उलझनों को आने देता है कि हम अपने हृदयों की पूरी विकृति को और हमारी दोषक्षम बुद्धि के भरोसेमंद न होने को देख सकें, और इस तरह परमेश्वर के साथ और ज़्यादा नज़दीकी से जुड़े रहने की ज़रूरत को देख सकें। प्रभु ने जो एक मुख्य पाठ अपने शिष्यों को सिखाना चाहा वह यही था कि वे उसके बिना कुछ नहीं कर सकते थे (यूह. 15:5)। वे यह सीखने में बहुत मतिमंद थे; हम भी वैसे ही हैं।

एक नम्र व दीन व्यक्ति जो अपनी हदों को जानता है और अपना सारा बोझ प्रभु पर डालकर उसका सहारा लेता है, वह बिना ईश्वरीय इच्छा को जान सकता है। दूसरी तरफ, धर्मज्ञान में डॉक्ट्रेट की डिग्री हासिल किया हुआ एक आत्म-निर्भर व्यक्ति, जो अपनी सेमिनरी के प्रशिक्षण पर भरोसा रखता है, वह अंधकार में टटोलता रह जाएगा।

हरेक क्षेत्र में आज्ञापालन

“उसी को याद करके अपने सब काम करना, तब वह तेरा मार्गदर्शन करेगा” (नीति. 3:6)।

हम कभी-कभी अपने जीवन के एक क्षेत्र में तो परमेश्वर से दिशा-निर्देश पाने के लिए बहुत उत्सुक रहते हैं, लेकिन दूसरे क्षेत्रों में उसका मार्गदर्शन पाने के लिए उतने ज़्यादा उत्सुक नहीं होते। जैसे, हम विवाह के मामले में तो परमेश्वर की इच्छा जानना चाहेंगे, लेकिन जब हम अपने लिए एक काम-धंधा ढूंढ रहे होंगे, तब शायद उसमें हम उसकी इच्छा जानना न चाहें। या फिर इसका उलट भी हो सकता है। या यह हो सकता है कि हम इस बात में परमेश्वर से मार्गदर्शन माँग रहे हों कि हम अपनी वार्षिक छुट्टी का एक महीना कहाँ और कैसे बिताएं, लेकिन हम अपना धन कैसे ख़र्च करें, इस बारे में उससे कभी कुछ न पूछें।

ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर का मार्गदर्शन पाने के लिए हम तभी झुकते हैं जब वह हमारे लिए अनुकूल होता है। हमारे हृदयों में, अक्सर हमारे स्वार्थी उद्देश्य मंडराते रहते हैं, और हमें उनकी कोई जानकारी भी नहीं होती। हम मामलों में हम चाहते कि परमेश्वर की इच्छा पूरी हो क्योंकि हम ऐसी ग़लतियाँ नहीं करना चाहते जिनसे हमें पीड़ा या नुक़सान हो। इसमें हमारा उद्देश्य परमेश्वर को प्रसन्न करना नहीं होता, बल्कि यह कि हम सुविधा और सम्पन्नता में रहें। इस तरह हम परमेश्वर का मार्गदर्शन पाने से चूक जाते हैं, क्योंकि उसने सिर्फ उन्हें ही अपना मार्गदर्शन देने की प्रतिज्ञा की है जो अपने सभी मामलों में उसे याद करते हैं, जो अपने जीवन के हरेक क्षेत्र में सहर्ष उसका मार्गदर्शन स्वीकार करते हैं।

ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जिनके बारे में पवित्र-शास्त्र में पहले ही परमेश्वर की इच्छा प्रकट हो चुकी है। जैसे, बाइबल कहती है कि परमेश्वर यह चाहता है कि हम पवित्र और धन्यवादी होंः

“परमेश्वर की इच्छा है कि तुम पवित्र बनों - एक शुद्ध और पवित्र जीवन जीने के लिए अलग और अर्पित किए हुए... “परिस्थिति चाहे कैसी भी क्यों न हो, परमेश्वर को सब बातों में धन्यवाद देते रहो; क्योंकि मसीह यीशु में परमेश्वर की तुम्हारे लिए यही इच्छा है” (1 थिस्स. 4:3; 5:18)।

इसी तरह, हमसे यह कहा गया है कि परमेश्वर कि यह इच्छा है कि हम अपने पड़ौसी से अपने समान प्रेम करें (रोमियों 13:9)। अगर हमने परमेश्वर की क्षमा और उद्धार ग्रहण कर लिया है, तो हमारी यह अभिलाषा होनी चाहिए कि हमारा पड़ौसी भी क्षमा और उद्धार पाए। नई वाचा में परमेश्वर की इच्छा साफ तौर पर बयान की गई हैः हमें उसके साक्षी होना है (प्रेरितों. 1:8)।

अपने पड़ौसी से प्रेम करने का अर्थ मुख्य रूप से उनकी आत्मिक ज़रूरतों में दिलचस्पी रखना है, लेकिन इसके साथ ही उनकी दूसरी ज़रूरतों को भी अनदेखा नहीं करना है। परमेश्वर ने कहा है, “मेरी इच्छा है कि तुम अपना खाना भूखों के साथ बाँटो... जो ठण्ड में ठिठुर रहे हैं, उन्हें ढाँपो... अगर तुम यह करोगे, तो परमेश्वर अपनी महिमामय ज्योति तुम पर प्रकट करेगा... फिर जब तुम पुकारोगे, तो प्रभु तुम्हें जवाब देकर कहेगा, “हाँ, मैं यहाँ हूँ।” वह शीघ्र ही जवाब देगा। आपको सिर्फ यही करना होगा कि ग़रीबों को सताना छोड़ देना होगा, झूठे दोष लगाना बंद कर देना होगा, और क्रूरता-भरी अफवाहें उड़ाना छोड़ देना होगा! भूखों को खिलाओ! जो मुसीबत में हैं उनकी मदद करो! तब तुम्हारी ज्योति अंधकार में से चमकेगी, और तुम्हारे आसपास का अंधकार दिन के उजाले की तरह प्रकाशमान हो उठेगा। और प्रभु निरंतर तुम्हारा मार्गदर्शन करता रहेगा (यशा. 58:7-11 – टी.एल.बी.)। जो स्वार्थी नहीं होते और दूसरों की ज़रूरतों में दिलचस्पी रखते हैं, परमेश्वर उन पर अपने मन की बात प्रकट करने से हर्षित होता है।

जिन क्षेत्रों में प्रभु ने अपनी इच्छा पहले ही प्रकट कर दी है, और अगर हम उनमें उसकी आज्ञापालन करने में निष्फल हो जाते हैं, तब हम यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि वह दूसरे क्षेत्रों में हमारा मार्गदर्शन करेगा। यह ईश्वरीय मार्गदर्शन का सिद्धान्त है कि परमेश्वर उन लोगों को और ज़्यादा ज्योति प्रदान नहीं करता जो उन्हें पहले दी जा चुकी ज्योति को अनदेखा करते रहते हैं। जब तक हम पहली बात को पूरा नहीं करते, तक तक परमेश्वर हमें दूसरी बात नहीं बताता। यह उसका वादा है कि “जैसे-जैसे तू एक-एक क़दम आगे बढ़ेगा, वैसे-वैसे मैं तेरे आगे रास्ता खोलता रहूँगा” (नीति. 4:12 - भावानुवाद)। उसकी हमारे हरेक क़दम में दिलचस्पी है। “(अच्छे) मनुष्य के क़दम प्रभु दृढ़ करता है। वह उसके चाल-चलन से प्रसन्न होता है और उसके हर क़दम में दिलचस्पी लेता है” (भजन. 37:23)।

आज्ञापालन करने वालों को मार्गदर्शन दिय जाने की यह एक और प्रतिज्ञा हैः “मैं तुझे बुद्धि दूँगा (प्रभु कहता है) और तेरे जीवन के सबसे अच्छे मार्ग में तेरी अगुवाई करूँगा; मैं तुझे सलाह दूँगा, और तेरे आगे बढ़ने पर नज़र रखूँगा, लेकिन एक घोड़े या खच्चर के समान न बन जिनमें कोई समझ नहीं होती” (भजन. 32:8,9 – टी.एल.बी.)। एक घोड़े की विशिष्टता उसकी अधीरता होती है जिसमें वह हमेशा आगे दौड़ना चाहता है, जबकि एक खच्चर की विशिष्टता हठीलापन होती है जिसमें वह अक्सर आगे बढ़ने से इनकार करता रहता है। हमें इन दोनों ही मनोदशाओं से बचने की ज़रूरत होती है।

जब हम आज्ञा पालन नहीं करते तब परमेश्वर हमारे विवेक द्वारा हमसे बात करता है। इसलिए हमें अपने विवेक की आवाज़ सुनने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। यीशु ने कहा, “तेरे शरीर का दीपक तेरी आँख है; जब तेरी आँख निर्मल हो और अपना काम सही तरह कर रहे हो, तो तेरा सारा शरीर भी पूरी तरह प्रकाशमान होगा” (लूका 11:34)। आँख से यीशु का क्या अर्थ था? मत्ती 5:8 में, उसने आत्मिक दृष्टि को हृदय की शुद्धता के साथ जोड़ा था। इसलिए आँख विवेक ही होना चाहिए, जिसमें जब हम लगातार आज्ञापालन करते रहते हैं, तो हम हृदय की शुद्धता प्राप्त करते जाते हैं। 

अपने आप में, विवेक परमेश्वर की आवाज़ नहीं होता, क्योंकि वह उन सिद्धान्तों द्वारा सिखाया और तैयार किया जाता है जिन पर एक व्यक्ति अपना जीवन आधारित करता है। लेकिन अगर उसका लगातार आज्ञापालन होता रहे और उसे बाइबल की शिक्षा के अनुकूल बना लिया जाए, तो वह क्रमिक रूप में विकसित होते हुए परमेश्वर के मापदण्डों को प्रतिबिम्बित करने लगेगा। लूका 11:34 की प्रतिज्ञा, तब यह है, कि अगर हम अपना विवेक शुद्ध रखेंगे, तो हमारे जीवनों में परमेश्वर की ज्योति चमकेगी, और इस तरह हम उसकी इच्छा को जान लेंगे। लेकिन अगर हम अपने प्रतिदिन के जीवन में विवेक की आवाज़ को सुनने में चूक जाएंगे, तो परमेश्वर का मार्गदर्शन पाने की हमारी खोज में हम पवित्र-आत्मा की आवाज़ नहीं सुन पाएंगे। परमेश्वर का मार्गदर्शन पाने का रहस्य यह है कि वह जब भी हमसे बात करे, तब हमें तुरन्त उसकी आज्ञा का तुरन्त पालन करना होगा।

हाल ही में, मैंने एक 15 साल के एक लड़के के बारे में पढ़ा जो जन्म से ही अंधा था लेकिन जिसने एक हवाई जहाज़ को उड़ाया और उसे सुरक्षित ज़मीन पर भी उतरा। यह अद्भुत काम वह इसलिए पूरा कर सका क्योंकि उसने अपने मार्गदर्शक चालक के हरेक निर्देश का तुरन्त पालन किया था। जीवन की अनेक समस्याओं का सामना करते हुए, हम ऐसे अंधे व्यक्ति जैसा महसूस कर सकते हैं जो एक अनजान और अदृश्य हवाई पट्टी पर जहाज़ उतारने की कोशिश कर रहा हो। लेकिन अगर हम परमेश्वर की आज्ञाओं का तुरन्त पालन करने की आदत विकसित कर लें, तो हम यह देखने पाएंगे कि हम सुरक्षित उतर आए हैं।

शर्तहीन समर्पण

“एक दृढ़ संकल्प के साथ अपने शरीर को अर्पित कर दो - अपने सारे अंग और बौद्धिक क्षमताएं - एक जीवित बलिदान के रूप में, जो पवित्र और परमेश्वर को ग्रहणयोग्य हो... कि तुम (स्वयं के लिए) यह सिद्ध कर सको कि परमेश्वर की भली, ग्रहणयोग्य, और सिद्ध इच्छा क्या है” (रोमि. 12:1,2)।

नई वाचा हमें प्रभु के बंधुवा दास बन जाने का उपदेश देती है। पौलुस ने कहा कि वह स्वेच्छा से यीशु मसीह का बंधुवा-मज़दूर बना है। पुरानी वाचा में सेवकों की दो श्रेणियाँ थीं - बंधुवा-मज़दूर और किराए का मज़दूर। किराए के मज़दूर की तरह, बंधुवा मज़दूर को कोई वेतन नहीं दिया जाता था। उसका मालिक उसकी क़ीमत चुका कर उसे ख़रीद लेता था - और इस लिए वह अपने आपमें जो होता था, और उसका जो कुछ होता था, वह उसके मालिक का होता था। हरेक विश्वासी को अपने आपको इस तरह जानने की ज़रूरत है। हमारा समय, धन, योग्यताएं, परिवार, भौतिक वस्तुएं, मन और देह - सब कुछ - हमारे स्वामी और हमारे प्रभु का है, क्योंकि उसने सूली पर उनका दाम चुका कर उन्हें ख़रीद लिया है (1 कुरि. 6:19,20)।

इसलिए हमें प्रोत्साहित किया गया है कि हम अपनी देह को एक बार, और हमेशा के लिए, एक जीवित बलि के रूप में परमेश्वर को अर्पित कर दें, वैसे ही जैसे पुरानी वाचा में होम बलि अर्पित की जाती थी। पाप बलि के साथ ऐसा नहीं होता था, लेकिन होम बलि पूरे तौर से परमेश्वर को अर्पित की जाती थी, और वह प्रभु के प्रति उसके चढ़ाने वाले को पूरा समर्पण दर्शाती थी। एक व्यक्ति जब एक होम बलि अर्पित करता था, तो उसे कुछ वापिस नहीं मिलता था। परमेश्वर उसके साथ जो चाहे वह कर सकता था। वह कलवरी की सूली का प्रतीक होती थी जहाँ प्रभु यीशु ने अपने आपको यह कहते हुए पूरी तरह समर्पित कर दिया था, “हे पिता, मेरी नहीं पर तेरी इच्छा पूरी हो।” हमारी देह को एक जीवित बलि के रूप में परमेश्वर को अर्पित करने का यह अर्थ होता हैः हमें इस बात में अपनी इच्छा और चुनाव करने के लिए मर जाना होता है कि हमारी देह अब परमेश्वर द्वारा कैसे और कहाँ इस्तेमाल की जाएगी। हम सिर्फ इस तरह से ही उसकी इच्छा जान सकते हैं।

हमारा इस तरह से अपने आपको अर्पित न करना ही आम तौर पर हमारे परमेश्वर की इच्छा को न जान पाने का मुख्य कारण होता है। हम अक्सर अपने आपको कुछ शर्तों के साथ प्रभु को अर्पित होते हैं। जो कुछ परमेश्वर हमारी तरफ भेजता है, वास्तव में हम वह सब कुछ स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते।

मुझे एक बार एक ऐसा भाई मिला जो पूर्ण-कालिक मसीही सेवा के अलावा बाक़ी हरेक काम करने के लिए तैयार था। मैंने उससे कहा कि उसकी यही शर्त थी जिसकी वजह से वह उसके जीवन के लिए परमेश्वर की योजना को स्पष्ट रूप में नहीं जान रहा था। अंततः जब उसने इस बात को भी प्रभु को अर्पित कर दिया, तब तुरन्त ही उसने परमेश्वर की इच्छा का एक गहरा आश्वासन पा लिया। परमेश्वर ने उसे पूर्ण-कालिक मसीही सेवा के लिए नहीं बुलाया, लेकिन वह चाहता था कि वह इस बात में भी अर्पित होने के लिए तैयार हो।

परमेश्वर की इच्छा जानने के बहाने से उसके पास आने वाले अनेक लोग, असल में सिर्फ उस रास्ते के लिए उसका अनुमोदन पाने के लिए ही आते हैं जो उन्होंने अपने लिए पहले ही तय कर लिया होता है। इसलिए उन्हें उसके पास से कोई जवाब नहीं मिलता। मार्गदर्शन की हमारी समस्याएं कितनी जल्दी हल हो सकती हैं अगर हम सिर्फ अपने आपको प्रभु के हाथों में बिना किसी शर्त यह कहते हुए सौंप दें, “प्रभु, अगर तू सिर्फ मुझे इतना आश्वासन दे दे कि वह तेरी इच्छा है, तो मैं कुछ भी स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ। मेरे प्रभु, तू मुझे चुन ले। इस मामले में मेरी अपनी कोई इच्छा नहीं है।” परमेश्वर के लिए किसी भी समय कहीं भी जाने और कुछ भी करने की इच्छा की वजह से ही अब्राहम “परमेश्वर का मित्र” बन गया था।

ब्रिस्टल (इंगलैण्ड) का ज्योर्ज मुलर एक बड़े विश्वास वाला व्यक्ति था, और वह एक अद्भुत रीति से परमेश्वर की इच्छा को बड़े सटीक रूप में जान लेता था। इस विषय में उसने कहा, फ्किसी एक मामले में, पहले मैं अपने हृदय को एक ऐसी दशा में ले आता हूँ जहाँ उसमें उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं बचती। लोगों की 90 प्रतिशत समस्या यही होती है। जब हमारा हृदय प्रभु की इच्छा पूरी करने के लिए तैयार हो जाता है - चाहे वह जो कुछ भी है, तब 10 में से 9 समस्याओं पर जय पा ली जाती है। जब एक व्यक्ति वास्तव में इस स्तर पर आ जाता है, तो वह परमेश्वर की इच्छा जान लेने से बस थोड़ा ही दूर होता है।”

कुछ लोग यह फैसला करने से पहले, कि वे आज्ञापालन करेंगे या नहीं करेंगे, यह जान लेना चाहते हैं कि परमेश्वर की इच्छा क्या है। लेकिन परमेश्वर ऐेसे लोगों पर अपनी इच्छा प्रकट नहीं करता। यीशु ने कहा, “अगर कोई उसकी इच्छा पूरी करना चाहता है, तो वह उसे जान लेगा...” (यूह. 7:17)। परमेश्वर जो भी आज्ञा देता है, उसका पालन करने की हमारी इच्छा ही हमें इस योग्य बनाती है कि हम उसकी सिद्ध इच्छा को जान सकें। यह बात छोटे और बड़े सभी मामलों में लागू होती है।

एक मन जो नया हो गया है

“इस संसार के सदृश न बनो, लेकिन अपने मन के नए हो जाने से - उसके नए आदर्शों और नए मनोभावों में - तुम बदल जाओ, कि तुम अपने अनुभव में यह जान सको कि (तुम्हारे लिए) परमेश्वर की भली, ग्रहण-योग्य और सिद्ध इच्छा क्या है” (रोमियों 12:2)।

सांसारिकता हमारे कानों को परमेश्वर की आवाज़ सुनने की तरफ से बन्द कर देती है। इस संसार में रहने वाला हरेक व्यक्ति इस संसार की आत्मा से प्रभावित होता रहता है। इसके प्रभाव से कोई नहीं बच सका है। हमारे शिशुकाल से ही, हममें से हरेक, दिन-प्रतिदिन संसार की इस आत्मा को अपने अन्दर लेता रहता है - उन सब बातों के द्वारा जो वह सुनता है, देखता है, और पढ़ता है। इससे हमारा मन विशेष रूप से प्रभावित होता है और इसका असर हमारी सोच-समझ पर पड़ता है। और फिर जो फैसले हम करते हैं, वे मुख्य तौर पर सांसारिक बातों के अनुसार ही होते हैं।

परमेश्वर का आत्मा, जो हमारे “नए जन्म” के समय हममें रहने के लिए आ जाता है, इस संसार की आत्मा का विरोध करता है, और इसलिए वह हमारी सोच-समझ को पूरी तरह से नया बना देना चाहता है। परमेश्वर का अंतिम उद्देश्य यह है कि हम उसके पुत्र की समानता में बदल जाएं।

हममें से हरेक के लिए उसकी इच्छा का यह मुख्य भाग है। बाक़ी सब कुछ - कि हम किससे विवाह करें, या कहाँ रहें और क्या काम करें - गुण बातें हैं। हमारा साथ परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला सारा बर्ताव एक इसी बात को पूरा करने की तरफ लक्षित होता है - कि हम यीशु-जैसे हो जाएं (रोमियों 8:28,29)। लेकिन यह हममें तभी पूरा हो सकता है जब हम प्रतिदिन पवित्र-आत्मा को हमारे मनों को नया बनाने देंगे। हमारे मन इस तरह जितना ज़्यादा नए होते जाएंगे, जीवन के चौराहा चौराहों पर पहुँचने पर हम उतना ही सटीक रूप में परमेश्वर की इच्छा को जानने योग्य बनते जाएंगे।

सांसारिकता मूल रूप में कोई बाहरी बात नहीं होती - जैसे पिक्चर देखना, शराब या सिग्रेट पीना, महँगे और भड़कीले कपड़े या गहने पहनना, या एक फिज़ूलख़र्ची वाला जीवन जीना। ये एक सांसारिक व्यक्ति के लक्षण हो सकते हैं, लेकिन वे सिर्फ सांसारिक विचार-श्रृंखला की बाहरी अभिव्यक्ति होती है। संसार के साथ एक व्यक्ति की अनुरूपता मूल रूप में उसके मन में होती है, और वह विभिन्न रूप में प्रकट होती है, विशेष कर उसके फैसलों में। जैसे, अपने लिए कोई नौकरी या काम-धंधे के बारे में फैसला करते समय, एक सांसारिक व्यक्ति इन तथ्यों पर विचार करेगा - वेतन, उन्नति की सम्भावनाएं, सुविधाएं, सहजता, सरलता, आदि। और विवाह के बारे में विचार करते समय, वह ऐसी बातों से प्रभावित होगा जैसे परिवार का सामाजिक स्तर, जाति, मिलने वाला दहेज, जीवन की पद-प्रतिष्ठा, शारीरिक सौन्दर्य, या धन-सम्पत्ति।

दूसरी तरफ, एक विश्वासी के फैसले मुख्य रूप में आत्मिक तथ्यों द्वारा तय होने चाहिए, हालांकि दूसरी बातों को भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। परमेश्वर के नाम की महिमा और उसके राज्य को बढ़ाना हमारी पहली दिलचस्पी हो। इस वजह से ही प्रभु ने हमें पहले यह प्रार्थना करनी सिखाई, “तेरा नाम पवित्र माना जाए, तेरा राज्य आए”, और यह कहने के बाद ही यह कहना है, “तेरी इच्छा पूरी हो।”

अगर हमें परमेश्वर की इच्छा जाननी है तो यह अनिवार्य है कि हममें अपने सांसारिक उद्देश्यों को जानने और उन्हें दूर करने की प्रक्रिया शुरू हो।

हमारे उद्देश्य स्वार्थी होने पर भी यह कहना, “परमेश्वर ने मेरी अगुवाई की है”, ईशनिन्दा है। परमेश्वर का नाम व्यर्थ लेने और हमारी सांसारिकता को आत्मिकता का वस्त्र ओढ़ाने की बजाय यह कहना ज़्यादा अच्छा है कि वह फैसला हमारा अपना था। लोगों को (और अपने आपको भी) इस बात का यक़ीन दिलाने से, कि हम परमेश्वर की इच्छा पूरी कर रहे हैं, हमें कुछ हासिल नहीं होता। जैसे बाइबल कहती है, “हम अपने आपको हमेशा सही ठहरा सकते हैं, लेकिन क्या प्रभु मान लेता है? …हम अपने हरेक काम को सही साबित कर सकते हैं, लेकिन परमेश्वर हमारे उद्देश्यों को देखता है” (नीति. 16:2; 21:2 – टी.एल.बी.)।

हमारे मन के नए हो जाने का परिणाम यह होगा कि जैसे प्रभु सोचता है वैसे ही हम भी सोचेंगे, और स्थितियों और लोगों को वैसे ही देखेंगे जैसे वह देखता है। पौलुस का मन इस हद तक नया हो गया था कि वह यह कहने का दुस्साहस कर सका कि उसमें प्रभु का मन है और यह कि अब वह लोगों को सिर्फ एक मानवीय दृष्टिकोण से नहीं देखता (1 कुरि. 2:16; 2 कुरि. 5:16)। कुलुस्सियों के विश्वासियों के लिए उसकी यह प्रार्थना थी कि वे भी इस तरह बदल जाएं – “हम परमेश्वर से यह माँग कर रहे हैं कि तुम्हें ऐसी आत्मिक अंतर्दृष्टि और समझ मिले कि तुम परमेश्वर के नज़रिए से सब बातें देखने लगो” (कुलु. 1:9 – जे.बी.पी.)।

हमारे मनों का ऐसा बदलाव हमें यह जानने योग्य बना देगा कि परमेश्वर को क्या पसन्द है और क्या नापसन्द है, और तब जिन विभिन्न परिस्थितियों का हम सामना करते हैं, उनमें हम आसानी से परमेश्वर की इच्छा को जान सकेंगे। नई वाचा के इस युग में हमारे लिए परमेश्वर की प्रतिज्ञा है, “यह नया क़रार (वाचा) है... ‘मैं अपनी व्यवस्था उनके मनों में लिख दूँगा कि वे मेरे उन्हें बताए बिना ही वे यह जानेंगे कि मैं उनसे क्या चाहता हूँ... मैं अपनी व्यवस्था उनके मनों में इस तरह लिख दूँगा कि वे हमेशा मेरी इच्छा को जानेंगे’” (इब्रा. 8:10; 10:16 – टी.एल.बी.)।

ऐसी नवजागृति से हमें न सिर्फ परमेश्वर की इच्छा की समझ प्राप्त हो जाएगी, बल्कि हम उसके तरीक़े और उसके उद्देश्य को भी जान लेंगे - हम न सिर्फ यह जान लेंगे कि परमेश्वर हमसे क्या चाहता है, बल्कि यह कि वह उस काम को कैसे और क्यों कराना चाहता है। हम परमेश्वर के उद्देश्यों को नहीं जानेंगे, तो परमेश्वर की इच्छा को पूरा करना एक कोल्हू के बैल के काम जैसा नीरस काम बन सकता है। लेकिन जब हम परमेश्वर के उद्देश्यों को जान लेते हैं, तब परमेश्वर की इच्छा हमारे लिए वही बन जाती है जो वह यीशु के लिए थी - एक ख़ुशी। परमेश्वर के स्वभाव के बारे में हमारी अज्ञानता की वजह से ही हम उसकी इच्छा से डरते हैं। अगर हम उसे ज़्यादा अच्छी तरह जानते, तो हम बड़े आनन्द के साथ उसकी हरेक इच्छा को पूरा करते।

हमारे मन नए कैसे हो सकते हैं? एक पत्नी जो अपने पति के साथ हृदय से जुड़ी होती है, साल गुज़रने के साथ-साथ, उसके मन की बातों और तौर-तरीक़ों को ज़्यादा से ज़्यादा समझने लगती है। यही बात एक विश्वासी और उसके परमेश्वर के बारे में भी लागू होती है। नया जन्म प्रभु यीशु के साथ एक विवाह की तरह होता है। उस बिन्दु के बाद से हमें प्रभु के साथ रोज़ बातचीत करते हुए एक नज़दीकी सहभागिता में बढ़ते जाना होता है।

हमें उसे भी प्रतिदिन हमारे हृदयों से बातचीत करने देनी चाहिए, उसके वचन के द्वारा, और उन परीक्षाओं के अनुशासन द्वारा भी जो वह हमारे जीवनों में भेजता है। इस तरह हम यह पाएंगे कि हम अपने प्रभु की समानता में बदलते जा रहे हैं (2 कुरि. 3:18)। अगर हम परमेश्वर के वचन पर प्रतिदिन मनन करना और प्रभु के साथ प्रार्थना संगति छोड़ देंगे, तो परमेश्वर के मन की बात जान पाना हमारे लिए बहुत मुश्किल हो जाएगा। परमेश्वर के वचन पर किया गया चिंतन-मनन हमारे सोचने-समझने के टेढ़े और विकृत तरीक़ों को सीधा कर देगा और हमें आत्मिक मन-मिज़ाज वाला और परमेश्वर की आवाज़ के प्रति संवेदनशील बना देगा।

हम प्रभु की आवाज़ को सुनने की आदत डालने से ही उसकी आवाज़ को पहचानने वाले बन सकेंगे। एक नए मन फिराए हुए व्यक्ति ने परमेश्वर के एक परिपक्व सेवक से पूछा कि हालांकि मसीह ने कहा है, “मेरी भेड़ें मेरी आवाज़ सुनती हैं”, फिर भी उसे प्रभु की आवाज़ क्यों सुनाई नहीं देती? परमेश्वर के दास ने जवाब दिया, “हाँ, यह सच है कि उसकी भेड़ें उसकी आवाज़ सुनती हैं, लेकिन यह भी सच है कि मेमनों को उसकी आवाज़ को पहचानना सीखना चाहिए।”

एक पुत्र अपने पिता की आवाज़ को आसानी से पहचान लेता है क्योंकि वह उस आवाज़ को बहुत बार सुन चुका है। इसी तरह, जब हम परमेश्वर की इच्छा जानना चाहते हैं, तो हमारे मनों में गूँजने वाली दूसरी बहुत सी आवाज़ों के शोर के बीच हम प्रभु की आवाज़ को लगातार सुनने द्वारा उसे पहचान सकेंगे। अगर आपको प्रभु की आवाज़ सुनने की आदत हो चुकी है, तो बड़ी कठिनाइयों के समयों में, उसकी यह प्रतिज्ञा है, “तुम जब कभी दाएं या बाएं मुड़ने लगोगे, तो तुम्हारे कान के पीछे से यह आवाज़ सुनोगे, ‘मार्ग यही है, इसी पर चलो’” (यशा. 30:21)।

लेकिन, दूसरी तरफ, अगर हम सिर्फ कठिनाइयों के समयों में ही प्रभु की ओर फिरेंगे, तो हम उसकी आवाज़ कभी न सुन सकेंगे। परमेश्वर के कुछ बच्चे इतने व्यस्त रहते हैं कि उनके प्रतिदिन के जीवनों में उनके पास प्रभु की आवाज सुनने का समय ही नहीं है, लेकिन फिर भी संकट के समयों में वे तुरन्त ही उसकी इच्छा जान लेना चाहते हैं। ऐसे विश्वासियों के बारे में बात करते हुए जी- क्रिश्चियन वीज़ ने कहा कि संकट के समय उनकी प्रार्थना की आत्मा कुछ इस तरह की होती है - "प्रभु यीशु, मैं बहुत व्यस्त रहा हूँ और तेरे साथ बात करने का मुझे ज़्यादा समय नहीं मिल पाया है। मुझे क्षमा कर। लेकिन प्रभु, इस समय मैं एक बड़ी दुविधा में हूँ, और इस बहुत ज़रूरी मामले में मुझे कल सुबह 10:00 बजे तक तेरी इच्छा जान लेना बहुत ज़रूरी है। इसलिए प्रभु, कृपा कर और अपनी इच्छा को मुझ पर प्रकट करने में जल्दी कर। आमीन।” परमेश्वर की इच्छा इस तरह प्रकट नहीं होती, और ऐसे लोगों पर तो हर्गिज़ नहीं।

अगर हम अपने जीवनों में परमेश्वर से मार्गदर्शन पाना चाहते हैं, तो यह बहुत ज़रूरी है कि प्रतिदिन चिंतन-मनन और प्रार्थना में हमारी परमेश्वर के साथ सहभागिता होती रहे।

सारांश

अगर हम परमेश्वर की इच्छा जानना चाहते हैं, तो पहले हमें निम्न बातों को पूरा करना होगाः

  1. हमें यह विश्वास करना होगा कि परमेश्वर हम पर अपनी इच्छा प्रकट करेगा। ऐसे विश्वास की विशिष्टता गभीर इच्छा और धीरज बन्द होंगे। हमें परमेश्वर के समय का इंतज़ार करने के लिए तैयार रहना होगा।
  2. हमें अपनी चतुराई पर भरोसा करना छोड़ कर नम्र व दीन होकर परमेश्वर का सहारा लेना सीखना होगा। हमें अपनी बौद्धिक क्षमताओं को फेंक नहीं देना है, लेकिन हमारा भरोसा स्वयं हममें नहीं बल्कि परमेश्वर में हो।
  3. अपने जीवनों के कुछ क्षेत्रों में नहीं बल्कि हरेक क्षेत्र में परमेश्वर की इच्छा पूरी करने की इच्छा हममें हो। जो ज्योति हम पहले पा चुके हैं, उसमें हम आज्ञाकारी रहें, और हमेशा अपने विवेक शुद्ध रखें।
  4. हम किसी भी तरह की कोई शर्त रखे बिना अपने आपको परमेश्वर को अर्पित कर दें, और वह जो कुछ भी हमारे लिए तय करे, हम उसे स्वीकार करने के लिए तैयार रहें।
  5. हमें प्रतिदिन परमेश्वर के साथ-साथ चलें और जो वह कहता है वह सुनें। इस तरह, हम उसे यह अनुमति दें कि वह हमारे मनों को नया करे और हमें उन वैचारिक-प्रक्रियाओं से छुड़ाए जो सांसारिक हैं।

अध्याय 3
भीतरी साक्षी द्वारा मार्गदर्शन

जब हम इस विषय पर आते हैं कि परमेश्वर किन माध्यमों द्वारा हमारा मार्गदर्शन करता है, तो हमें यह याद रखना चाहिए कि बाइबल के सिद्धान्त ईश्वरीय पुरुषों व स्त्रियों के अनुभवों से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। परमेश्वर अपने आपको सीमित करते हुए हमारे द्वारा तैयार किए गए किसी नमूने के अनुसार काम नहीं करेगा। वह सर्वशक्तिशाली है, और ऐसे भी समय होंगे जब वह मार्गदर्शन के सामान्य माध्यमों को त्याग कर चमत्कारिक को इस्तेमाल करेगा। उसने जंगल में इस्राएल का मार्गदर्शन बादल और आग के खम्भों द्वारा किया था, लेकिन जब उन्होंने कनान में प्रवेश किया, तब मार्गदर्शन का वह तरीका बंद हो गया।

प्रेरितों के काम में असाधारण मार्गदर्शन के कुछ मामले हैं। एक स्वर्गदूत ने फिलिप्पुस से बात की और उससे कहा कि वह सामरिया छोड़कर (गाज़ा जाने वाले) रेगिस्तानी मार्ग में चला जाए (8:26)। प्रभु ने एक दर्शन में हनन्याह से कहा कि वह जाए और शाऊल से मुलाक़ात करे (9:10-16)। पतरस ने एक दर्शन देखा जिसमें परमेश्वर ने उससे कहा कि वह ग़ैर-यहूदियों के पास सुसमाचार लेकर जाए (10:9-16)। पौलुस ने एक दर्शन देखा जिसमें उससे मैसीडोनिया जाने के लिए कहा गया (16:9)। पौलुस ने ऐसे समय के बारे में बताया जिसमें प्रभु ने उसे यरूशलेम जाने के दिशा-निर्देश दिए (22:17-21)। लेकिन ये कोई नियम न होकर अपवाद हैं।

हम यह नहीं कह सकते कि परमेश्वर आज भी अपने बच्चों की इस तरह अगुवाई नहीं कर सकता। लेकिन जैसा प्रेरितों के काम में था, वैसे ही ऐसा होना दुर्लभ है।

इस पुस्तक में, हम मार्गदर्शन के सिर्फ सामान्य माध्यमों के बारे में ही बात कर रहे हैं।

पुरानी वाचा में, परमेश्वर की इच्छा को जानना एक आसान बात थी। मूसा की व्यवस्था बहुत बातों में बिलकुल स्पष्ट और अचूक थी। इस्राएलियों को जंगल में सिर्फ दिन में बादल के खम्भे को और रात को आग के खम्भे को देखना और उनके पीछे चलना होता था। यह जानने के लिए, कि कब और कहाँ जाना है, उन्हें आत्मिक होने की ज़रूरत नहीं थी। उन्हें सिर्फ देखने वाली आँखों की ज़रूरत थी! जब महायाजक परमेश्वर की इच्छा जानना चाहता था, तो उसे सिर्फ फ्ऊरिम और तुम्मीम” को प्रभु के सामने रख देना होता था और वे “हाँ” या नहीं” की तरफ संकेत कर देते थे। वह सब इतना सहज था, क्योंकि वह सब बाहरी था और आसानी से मनुष्य की शारीरिक अनुभूतियों द्वारा समझा जा सकता था।

पवित्र-आत्मा पर भरोसा रखना

इसके विपरीत, इस समय और युग में, ऐसा लगता है कि हमारे लिए परमेश्वर की इच्छा को जानना कितना ज़्यादा मुश्किल हो गया है। इसका कारण यह है कि परमेश्वर चाहता है कि हम ख़ुद ही अपने अनुभव में यह साबित करके जान लें कि उसकी सिद्ध इच्छा क्या है (रोमियों 12:2)। पवित्र-आत्मा अब एक विश्वासी में इसलिए रहता है कि वह उसका मार्गदर्शक बने, और वह पुरानी वाचा के सारे बाहरी मार्गदर्शन के माध्यमों को हटाकर उनकी जगह ले लेता है। बाहरी मार्गदर्शन अपरिपक्व लोगों के लिए है। भीतरी मार्गदर्शन परिपक्व लोगों के लिए है - और परमेश्वर आज अपने सभी बच्चों का मार्गदर्शन इसी तरह करना चाहता है।

परमेश्वर की इच्छा की खोज करते हुए, हमें यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत होती है कि पवित्र-आत्मा हमारी आत्माओं में क्या कह रहा है। इसलिए हममें यह इच्छा होनी ज़रूरी है कि हम पवित्र-आत्मा द्वारा भरे जाएं। बाइबल कहती है, “धुंधले, विचार-शून्य और निर्बुद्धि न बनो, बल्कि प्रभु की इच्छा को समझो और उसे मज़बूती से थामे रहो... और इसलिए पवित्र-आत्मा से भरते जाओ” (इफि- 5:17,18)। लूका 4:1 …के शब्द भी बहुत महत्वपूर्ण हैं, “तब यीशु, पवित्र-आत्मा से परिपूर्ण होकर... (पवित्र) आत्मा की अगुवाई में चलता रहा।” पृथ्वी पर बिताए अपने पूरे समय के दौरान, प्रभु यीशु कभी किसी मानवीय दबाव या सलाह या भावुकता की बातों द्वारा नहीं बल्कि हमेशा पवित्र-आत्मा की भीतरी साक्षी द्वारा ही शासित और निर्देशित होता रहा था।

पवित्र-आत्मा की आवाज़ के प्रति ऐसी संवेदना आरम्भिक मसीहियों में भी पाई जाती थी। प्रेरितों के काम में, हम फिलिप्पुस को पवित्र-आत्मा के भीतरी आग्रह के अनुसार काम करते हुए और इथियोपियाई राज-पुरूष के रथ के साथ दौड़ता हुआ पाते हैं (प्रेरितों. 8:29); पतरस को कुरनेलियुस के घर जाने के लिए उसे निर्देशित करने वाली पवित्र-आत्मा की भीतरी आवाज़ को सुनता हुआ पाते हैं (प्रेरितों. 10:19,20); और अंताकिया की कलीसिया के अगुवों को पवित्र-आत्मा की उस साक्षी को समझते हुए पाते हैं जिसमें शाऊल और बरनाबास को विदेशी मिशनरी यात्रा पर भेजने की पुष्टि की गई थी (प्रेरितों. 13:2)। आज वही आत्मा हममें से हरेक की हमारे हरेक फैसले में अगुवाई करना चाहता हैं।

पवित्र-आत्मा की आवाज़ को पहचानना

पवित्र-आत्मा एक ऊँची आवाज़ में नहीं बल्कि हमारी आत्माओं में एक भीतरी दबाव बनाने द्वारा हमसे बात करता है। वह भीतरी तौर पर हमसे आग्रह करता है कि हम एक निश्चित दिशा में आगे बढ़ें या न बढ़ें। सामान्य तौर पर, यह एक दिशा में आगे बढ़ने के प्रस्तावित फायदे या नुक़सान का मूल्यांकन करते हुए, प्रार्थना में बिताए गए लम्बे समय का परिणाम होता है। फिर भी कभी-कभी पवित्र-आत्मा कहीं जाने या कुछ करने के लिए हमसे अचानक आग्रह कर सकता है। लेकिन अचानक ही कुछ बेतुका करने का आवेग शैतान या हमारे अन्दर से भी आ सकता है। इसलिए हमें सचेत रहने की ज़रूरत है। लेकिन पवित्र-आत्मा कभी भी बाइबल की शिक्षा के ख़िलाफ हमारी अगुवाई नहीं करेगा।

जब हम किसी बात के लिए प्रार्थना कर रहे होते हैं, तब हम पवित्र-आत्मा की आवाज़ को हमारी आत्माओं पर बढ़ते हुए उस दबाव में से, और हमारे मनों में बढ़ती हुई उस शांति में से सुन सकते हैं जो वह हमारी आत्माओं में देता है। “आत्मा पर मन लगाना जीवन और शांति है” (रोमियों 8:6 – एन.ए.एस.बी.)। शैतान की आवाज़ आम तौर पर सताने वाली होती और तत्काल उसका आज्ञापालन न करने पर, अक्सर दण्डित किए जाने की धमकियों के साथ आती है। लेकिन परमेश्वर हमेशा ही हमें उसकी इच्छा पर विचार करने और उसे निश्चित तौर जान लेने के लिए समय देता है।

कुछ अवसरों पर पवित्र-आत्मा हमारी अगुवाई कुछ ऐसा काम करने में कर सकता है जो पूरी तरह हमारी में समझ न आएं। एक बार पवित्र-आत्मा ने एक अमरीकी प्रचारक स्टीफन ग्रैलैट की अगुवाई करते हुए, उसे जंगल में लकड़ियाँ काटने वाले लोगों के एक शिविर में पहुँचा दिया। लेकिन सब लोग उस शिविर को छोड़ कर कहीं और जा चुके थे। लेकिन वह पवित्र-आत्मा की अगुवाई के बारे में इतना निश्चित था कि उसने भोजन करने वाले ख़ाली हॉल में खड़े रहकर सुसमाचार प्रचार किया। अनेक वर्षों बाद, एक व्यक्ति लंदन में ग्रैलैट के पास आया और उसने उसे बताया कि वह उस शिविर में रसोइया था, और उस दिन वहाँ वह अकेला व्यक्ति था। उसने खिड़की के पीछे छुपे रहकर ग्रैलैट का प्रचार सुना था। बाद में, उसने मन फिरा कर प्रभु के लिए काम करना शुरू कर दिया था। लेकिन पवित्र-आत्मा की ऐसी अगुवाई बहुत दुर्लभ होती है।

अक्सर हमारे अपने मन की आवाज़ और पवित्र-आत्मा की आवाज़ के बीच का फ़र्क समझ पाना हमारे लिए आसान नहीं होता, क्योंकि हमारा मन बहुत धोखा देने वाला होता है। उदाहरण के तौर पर, जब हम अपने लिए एक जीवन-साथी के बारे में सोच रहे होते हैं, तब हम भावनात्मक दबाव और “हरेक प्रस्तावित क़दम पर विचार करने से बढ़ती रहने वाली शांति और आनन्द को” आसानी से पवित्र-आत्मा की साक्षी समझ लेने की ग़लती कर सकते हैं। लेकिन अगर हम अपने उद्देश्यों को परखें और यह सुनिश्चित कर लें कि हम सिर्फ परमेश्वर की महिमा चाहते हैं और जो भी चुनाव वह हमारे लिए करता है हम वह स्वीकार करने के लिए तैयार हैं, तो हमारे भरमाए जाने की सम्भावनाएं बहुत हद तक कम हो जाती हैं। जहाँ ऐसे टूटेपन की कमी होती है, या जहाँ उद्देश्यों में स्वार्थ होता है, आम तौर पर हम वहीं मार्ग से भटकते हैं।

परमेश्वर की इच्छा कभी-कभी कोई ऐसी बात भी हो सकती है जो स्वयं हमें भी पसन्द हो, लेकिन वह कुछ ऐसा भी हो सकती है जो हमें स्वाभाविक रूप में पसन्द न हो। हम यह न सोचें कि परमेश्वर की इच्छा हमेशा हमारे सामने रखा सबसे मुश्किल काम होता है। और न ही यह ज़रूरी है कि वह सबसे आसान काम हो। जब एक कठिन काम में हम एक मुश्किल भरे हालात में फंस जाते हैं, तो हम उस जगह से भाग जाने की परीक्षा में पड़ सकते हैं। इसे हम आसानी से पवित्र-आत्मा की अगुवाई समझने की ग़लती कर सकते हैं। ऐसे अवसरों पर, अगर हमें कोई शक हो तो हम जहाँ हैं वहीं रहना और परमेश्वर में यह भरोसा रखना अच्छा है कि वह हमारे उस हालात में मसीह की जय प्रकट करने के लिए कृपा प्रदान करेगा।

जब आप अपने काम की तैयारी कर रहे हों, तो उसमें एक व्यावहारिक क़दम यह हो सकता है कि आप उसका एक “लेखा” बना लें। एक कागज़ पर एक रेखा खींचकर उसके एक तरफ वे कारण लिखें जो उस काम के किए जाने के पक्ष में हैं, और उसके दूसरी तरफ वे कारण लिखें जो उसके विपक्ष में हैं। इस सूची पर प्रतिदिन प्रार्थना करें और जैसी ज़रूरत महसूस हो, उसमें फेर-बदल करते रहें। उस काम की दोनों में से हरेक दिशा में आगे बढ़ने के लिए तैयार रहें। अगर उस काम को करने के एक तरीक़े में आपको अपनी आत्मा में शांति के बढ़ने का अहसास होता है, तो आम तौर पर यही वह रास्ता/तरीक़ा होगा जो परमेश्वर आपके लिए चाहता है। बाइबल कहती है, “वह शांति जो (पवित्र-आत्मा द्वारा) मसीह में (से आती) है, तुम्हारे हृदयों में (एक निर्णय देने वाले अम्पायर की तरह लगातार) राज करे - तुम्हारे मनों में उठने वाले सभी सवालों को एक निर्णायक तौर पर शांत करती रहे” (कुल. 3:15 - ऐम्प्लिफाइड)। जैसा कि एक फुटबॉल के खेल में रैफरी के सीटी बजाते ही पूरा खेल रुक जाता है (जो एक नियम के टूटने का संकेत होता है), वैसे ही जब हम अपने मन की शांति खो देते हैं तो हमें भी अपने आपको जाँचना चाहिए। हम सिर्फ तभी आगे बढ़ें जब हमारी आत्माओं में पूरी शांति हो।

पवित्र-आत्मा के महत्व को समझना

यह एक मूल बात है कि हमने पवित्र-आत्मा की जिस भीतरी साक्षी की बात की है, हम उसके महत्व को समझें, क्योंकि यही वह प्रमुख माध्यम है जिसके द्वारा परमेश्वर आज अपने बच्चों की अगुवाई करता है। हमें पवित्र-आत्मा की उस भीतरी आवाज़ को हमेशा सुनते रहना चाहिए जिसमें वह हमें आगे बढ़ने और रुकने के लिए भी कहता है। एक विश्वासी के लिए सिर्फ सही और ग़लत के सिद्धान्त के मार्गदर्शन के अनुसार चलना काफी नहीं होता। वह तो पुरानी वाचा का स्तर है। हमें परमेश्वर की नई वाचा के नीचे रहते हुए एक ज़्यादा ऊँचे स्तर पर जीने के लिए बुलाया गया है - जिसमें हम स्वयं परमेश्वर के जीवन में सहभागी होते और उस जीवन के द्वारा शासित होते हैं। इदन की वाटिका के दो वृक्ष जीवन के इन दोनों स्तरों के प्रतीक हैं - भले-बुरे के ज्ञान का वृक्ष और जीवन का वृक्ष। एक ऐसी नैतिक आचार-संहिता का होना और उसके अनुसार जीना अच्छा है जो हमें यह बताती हो कि क्या सही है और क्या ग़लत है। लेकिन यह वापिस लौटकर “व्यवस्था के अधीन” हो जाना है। मसीही स्तर इससे ऊँचा है (मत्ती 5:17-48)।

अपनी पुस्तिका टू प्रिसिपल्ज़ ऑफ कन्डक्ट (आचरण के दो सिद्धान्त) में वॉचमैन नी ने कहा है, “यह एक बहुत हैरानी की बात है कि ज़्यादातर मसीहियों का उद्देश्य सिर्फ बाहरी मापदण्डों के अनुरूप ढल जाना है, जबकि नए जन्म द्वारा परमेश्वर ने हमें कोई ऐसे नए नियम और अधिनियम नहीं दिए हैं जिनके अनुरूप ढल जाने की अपेक्षा हमसे की जा रही हो। वह हमें एक नए सिनै पर्वत के पास नहीं ले आया है जहाँ उसने हमें कुछ और ऐसी नई आज्ञाएं दी हों जिनमें “तुम्हें... करना है” और “तुम्हें... नहीं करना है” ...एक मसीही के रूप में, अब आपके अन्दर मसीह का जीवन है, और अब आपको उसके जीवन की प्रतिक्रियाओं के बारे में सोच-विचार करना है। जब आप कुछ करना चाहें, और वह करने के लिए अगर आपके अन्दर जीवन जागृत हो उठता हो; आपके भीतरी जीवन में से एक सकारात्मक जवाब मिलता हो; अगर भीतर एक “अभिषेक” मौजूद हो (1 यूह. 2:20,27); तब आप यक़ीन के साथ उस काम को करने के लिए आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन अगर कुछ करने का विचार करते हुए, आपका भीतरी जीवन मुर्झाने लगे, तब आपको जान लेना चाहिए कि जो आप करने जा रहे हैं, चाहे वह कितना भी प्रशंसनीय क्यों न नज़र आ रहा हो, आपको उससे बचना है।

क्या आप जानते हैं कि अनेक ग़ैर-मसीहियों का आचरण सही-ग़लत के सिद्धान्त के आधार पर चलता है। तब मसीही जीवन उससे अलग कैसे हुआ अगर दोनों का संचालन सही-ग़लत के एक ही सिद्धान्त द्वारा हो रहा है? परमेश्वर का वचन हमें स्पष्ट रूप में बताता है कि एक मसीही किसी बाहरी आचार-संहिता द्वारा नहीं बल्कि मसीह के जीवन द्वारा नियंत्रित किया जाता है। एक मसीही में कुछ ऐसा जीवंत होता है जो उस बात के तो पक्ष में रहता है जो परमेश्वर की होती है, लेकिन उस बात का विरोध करता है जो परमेश्वर की नहीं होती; इसलिए हमें अपनी प्रतिक्रियाओं पर ध्यान देने की ज़रूरत होती है ... हम बाहरी बातों द्वारा संचालित न हों - न तो अपनी स्वयं की और न ही दूसरों की सोच-समझ द्वारा चलाए जाएं। दूसरे लोग किसी बात का समर्थन कर सकते हैं, और उस बात का फायदा-नुक़सान समझने के बाद वह बात हमें भी सही लग सकती है; लेकिन उसके बारे में भीतरी जीवन क्या कह रहा है?

“जब आप एक बार यह समझ लेते हैं कि पूरे मसीही आचरण को तय करने वाला परिबल जीवन है, तब आप यह जान लेते हैं कि आपको न सिर्फ हरेक बुराई से दूर रहना है, बल्कि उससे भी जो सिर्फ बाहरी तौर पर भली नज़र आती है। जो मसीही जीवन में से आता है, वही मसीही आचरण को तय करता है; इसलिए हम ऐसे किसी भी काम में अपनी सहमति नहीं दे सकते जो जीवन में से नहीं आता है... मानवीय मापदण्डों के अनुसार बहुत सी बातें सही होती हैं, लेकिन ईश्वरीय मापदण्ड उन्हें ग़लत ठहरा देते हैं, क्योंकि उनमें ईश्वरीय जीवन नहीं होता... हम परमेश्वर का मार्ग बाहरी संकेतों द्वारा बल्कि भीतरी लेखारोपण द्वारा जान पाते हैं। आत्मा में शांति और आनन्द मसीही मार्ग का संकेत होते हैं। यह एक वास्तविकता है कि प्रभु यीशु मसीह विश्वासी के अन्दर रहता है, और वह लगातार अपने आपको हम पर व्यक्त करता रहता है, इसलिए हमें उसके जीवन के प्रति संवेदनशील होना चाहिए और यह परखने वाले बनना चाहिए कि वह जीवन क्या कह रहा है।”

परमेश्वर यह पाठ सीखने में हमारी मदद करे।

अध्याय 4
बाहरी माध्यमों द्वारा मार्ग-दर्शन

जब हम परमेश्वर से दिशा-निर्देश पाने की खोज कर रहे होते हैं, तो पवित्र-आत्मा निम्न बाहरी माध्यमों द्वारा भी हमसे बात करता हैः

  1. बाइबल की शिक्षा
  2. परिस्थितियों की साक्षी
  3. दूसरे विश्वासियों का परामर्श

अगर हमने परमेश्वर की इच्छा को सही तौर पर जान लिया है, तो इन बाहरी माध्यमों की साक्षी हमारी अपनी आत्माओं में पवित्र-आत्मा की भीतरी साक्षी के साथ पूरे तालमेल में होगी।

बाइबल की शिक्षा

बाइबल हमें इसलिए दी गई है कि हमें सही मसीही सिद्धान्त सिखाए जाएं और धार्मिकता के मार्ग में हमारी अगुवाई हो सके (2 तीमु. 3:16,17)। अनेक मामलों में, उसमें परमेश्वर की इच्छा पहले ही स्पष्ट रूप में प्रकट कर दी गई हैं।

उदाहरण के तौर पर, अगर आप एक अविश्वासी से विवाह करने के बारे में सोच रहे हैं (चाहे वह एक धार्मिक मसीही और नियमित कलीसियाई सभा में संगति करने वाला भी क्यों न हो), तो इस विषय में परमेश्वर का वचन बिलकुल स्पष्ट हैः “अविश्वासी के साथ असमान जुए (विवाह का एक प्रतीक) में मत जुतो - उनके साथ बेमेल गठजोड़ न करो” (2 कुरि. 2:14)।  

इसी तरह, अगर हम एक भाई को किसी भौतिक ज़रूरत में देखें, तो बाइबल स्पष्ट सिखाती है कि हमें उसकी मदद करनी चाहिए (याकूब 2:15,16; 1 यूह. 3:17)। या अगर आपका एक विश्वासी के साथ विवाद है, और अगर आप यह जानना चाहते हैं कि उसे निबटाने के लिए आपको अदालत में जाना चाहिए या नहीं, तो बाइबल स्पष्ट रूप में ज़ोर देकर कहती है, “नहीं” (1 कुरि. 6:1-8)। बाइबल यह भी सिखाती है कि झूठ बोलना और चोरी करना हमेशा ही ग़लत होते हैं (इफि. 4:25,28)। अगर आपमें और एक दूसरे विश्वासी के बीच कुछ मन-मुटाव हो गया है क्योंकि आपने उसे कोई चोट पहुँचाई है, तो फिर से बाइबल इसमें कोई शक नहीं छोड़ती कि आपको क्या करना चाहिए। आपको पहल करते हुए, जाकर उसके साथ मेलमिलाप करना चाहिए (मत्ती 5:21-24)।

अगर हमने किसी संस्थान या संगठन के साथ एक क़रार या अनुबंध पर हस्ताक्षर किया है, तो हमें इसमें परमेश्वर की यह इच्छा जानने की ज़रूरत नहीं है कि हम उस क़रार को तोड़ सकते हैं या नहीं, या किसी दूसरी जगह एक ज़्यादा आकर्षक वेतन वाली नौकरी मिल रही है तो उस अनुबंध को “रद्द” कर सकते हैं या नहीं। बाइबल हमें बताती है कि जो परमेश्वर के संग-संग रहता है, “उसे अपनी प्रतिज्ञा पूरी करनी चाहिए फिर चाहे उसे पूरा करने में वह बर्बाद भी क्यों न हो जाए” (सभो. 5:4 – टी.एल.बी.), और यह भी, कि परमेश्वर “उनसे प्रसन्न रहता है जो अपनी प्रतिज्ञा पूरी करते हैं और उनसे घृणा करते है जो उसे तोड़ देते हैं” (नीति. 12:22 – टी.एल.बी.)। एक विश्वासी जब अपनी प्रतिज्ञा को पूरा नहीं करता, तो यह एक लज्जा और अपमान की बात होती है।

इसी तरह, बाइबल यह भी सिखाती है कि हमें किसी का कज़र्दार नहीं रहना चाहिए (रोमि. 13:8)।

स्पष्ट आज्ञाओं के अलावा, परमेश्वर का वचन मार्ग-दर्शक सिद्धान्त भी प्रस्तुत करता है। जैसे, एक युवक विवाह करते समय यह सोच-विचार कर सकता है कि समाज के बाक़ी सभी लोगों की तरह क्या उसे भी दहेज की माँग करनी चाहिए या नहीं। परमेश्वर का वचन हमें स्पष्ट चेतावनी देता है कि हमें लालच और धन के प्रेम से सावधान रहना है। पवित्र-शास्त्र की एक सामान्य शिक्षा यह भी है कि लेने से देना अच्छा है - अधिकार के साथ माँगना तो हर्गिज़ नहीं हो सकता (देखें प्रेरितों- 20:33-35)। यह स्पष्ट है कि परमेश्वर किसी ऐसे व्यक्ति का समर्थन नहीं कर सकता जो दहेज माँगता (या उसे पाने की आशा करता) है।

और किस्मत के खेल द्वारा धनवान होने के बारे में क्या कहा जाए? नीतिवचन 28:22 (टी.एल.बी.)। कहता है, “शीघ्र धनवान होने की कोशिश करना दुष्टता है और निर्धनता की तरफ ले जाती है” (देखें नीति. 13:11; 28:20; और 1 तीमु. 6:9-11)। इन भागों द्वारा यह स्पष्ट है कि परमेश्वर इस बात का समर्थन नहीं करता कि एक विश्वासी किसी भी तरह कि लॉटरी, शर्त या जुए में भाग ले।

परमेश्वर का वचन वास्तव में “एक ऐसी टॉर्च-बत्ती है जो हमारे मार्ग को हमारे आगे प्रकाशित करती है और हमें ठोकर खाने से बचाती है” (भजन. 119:105 – टी.एल.बी.)।

ऐसे बहुत ही कम होता है, लेकिन कभी-कभी जब हम अपनी प्रतिदिन की बाइबल पढ़ रहे होते हैं, तब उसके किसी ख़ास भाग द्वारा परमेश्वर हमारे जीवन में उसके मार्गदर्शन की पुष्टि कर सकता है। लेकिन इसमें बहुत ध्यान रखना होता है क्यों अक्सर हम एक भाग में वह भी पढ़ सकते हैं जो मूल रूप में उसमें है ही नहीं। अक्सर ऐसे भागों पर हमारा ध्यान तब जाता है जब हम उनकी खोज नहीं कर रहे होते। हमारे प्रतिदिन के बाइबल पठन में सुझाव देने वाले ऐसे पद खोजने में कोई समझदारी नहीं है क्योंकि हमारे एकान्त के समय का यह उद्देश्य नहीं है, और हम इसमें आसानी से भरमाए जा सकते हैं।

एक युवा विश्वासी अमेरिका जाने के लिए बहुत उत्सुक हो सकता है जबकि परमेश्वर की यह इच्छा हो सकती है कि वह भारत में ही रहे। लेकिन पश्चिम की भौतिक समृद्धि के आकर्षण की उस पर एक मज़बूत पकड़ होने की वजह से जब वह एक ऐसा पद पाता है, "वे पश्चिम की ओर... उड़ जाएंगे” (यशा. 11:14), तो वह फौरन यह निष्कर्ष निकाल लेगा कि परमेश्वर उसे जाने के लिए उत्साहित कर रहा है। हमारे मन बहुत धोखेबाज़ हैं और शैतान एक चालाक शत्रु है। हमें दोनों की तरफ से सचेत रहने की ज़रूरत है।

यह हो सकता है कि परमेश्वर अपनी अलौकिक बुद्धि द्वारा हमारी अगुवाई एक ऐसे वचन के द्वारा भी करे जिसे उसके संदर्भ से बाहर ले जाकर देखा जा रहा हो, लेकिन यह एक नियम न होकर एक अपवाद ही होगा। और परमेश्वर जब किसी ऐसे तरीक़े का इस्तेमाल करता है, तो अक्सर यह सिर्फ उस मार्गदर्शन की पुष्टि करने के लिए ही होगा जो हमें सामान्य माध्यमों द्वारा मिल रहा होगा। महत्वपूर्ण मामलों में हमें ऐसे पदों को अपने मार्गदर्शन का एकमात्र आधार नहीं बना लेना चाहिए।

परिस्थितियों की साक्षी

परमेश्वर पूर्व प्रबन्ध का परमेश्वर है। वह हमारी परिस्थितियों को नियंत्रित करने द्वारा अपनी इच्छा को हम पर प्रकट कर सकता है। वह कुछ बातों को हम पर आने देता है, जो या तो इसलिए होती हैं कि वे उस मार्गदर्शन की पुष्टि करें जो पवित्र-आत्मा की साक्षी द्वारा हम पहले ही प्राप्त कर चुके हैं, या हमें एक ग़लत क़दम उठाने से रोकने के लिए हो सकती हैं। जैसा कि ज्योर्ज मूलर ने कहा है, “एक भले व्यक्ति का रुकना, और उसका चलना, दोनों ही प्रभु द्वारा तय किया जाता है” (तुलना करें भजन. 37:23)।

लेकिन हमें यह याद रखने की भी ज़रूरत है कि किसी हद तक शैतान भी हमें भरमाने के लिए हमारी परिस्थितियों को नियंत्रित कर सकता है। शैतान अनेक लोगों को अपने फंदे में फँसाने के लिए उन्हें ऐसी परिस्थितियों में से लेकर चला है जिसमें उसने उन्हें एक ग़लत जीवन-साथी चुनने के लिए भरमाया है! ऐसे धोखे से बचने का रास्ता मार्गदर्शन की उन शर्तों को पूरा करने द्वारा मिल सकता है जिनका उल्लेख अध्याय 2 में किया गया है।

जिन परिस्थितियों को परमेश्वर ने तैयार किया है, हमें उनके अधीन होकर उन्हें स्वीकार करना चाहिए, लेकिन शैतान द्वारा तैयार किए गए हालातों का सामना करना चाहिए। अगर हमें शक हो, तो हम कुछ ऐसी प्रार्थना कर सकते हैं, “प्रभु, मुझे नहीं मालूम कि यह परिस्थिति तेरी ओर से है या शैतान द्वारा तैयार की हुई है। लेकिन मैं किसी भी क़ीमत पर तेरी सिद्ध इच्छा पूरी करना चाहता हूँ। मुझे भरमाए जाने और तेरे सर्वश्रेष्ठ से चूक जाने से बचा। अगर यह तेरी ओर से है, तो सहर्ष इसे स्वीकार करता हूँ। अगर यह शैतान की तरफ से है, तो मैं इसका सामना करता हूँ और तेरे नाम में इसे बाँधता हूँ।” अगर हम प्रभु के सम्मुख ईमानदार हैं और अपने जीवन उसकी आज्ञाओं के अनुसार जीते हैं, तो वह हमारे मार्गों की रक्षा करेगा और सब बातों को मिलाकर हमारे लिए उनमें से भलाई को उत्पन्न करेगा (नीति. 2:8; रोमि. 8:28)। शैतान ने पौलुस को थिस्सलूनीकिया जाने से रोका था, लेकिन उसकी जगह तीमुथियुस वहाँ गया और परमेश्वर के उद्देश्य पूरे हुए (1 थिस्स. 2:18; 3:1,2)। हम प्रेरितों के काम में परिस्थिति-जनक मार्गदर्शन के अनेक उदाहरण पाते हैं। परमेश्वर ने सुसमाचार के प्रचार के लिए कलीसिया को यरूशलेम से तितर-बितर करने में सताव का इस्तेमाल किया था (प्रेरितों. 8:1)। जब उन्हें सताया जा रहा था, तब पौलुस और बरनाबास एक जगह छोड़कर दूसरी जगह चले जाते थे, और फिर सताव इस हद तक बढ़ गया था कि वे जगह पर ज़्यादा रुक ही नहीं पाते थे (प्रेरितों. 13:50,51; 14:5,6,19,20)। यह प्रभु के अपने नियम और उदाहरण के अनुसार ही था (मत्ती 10:23; यूह. 7:1)। परमेश्वर ने शाऊल और बरनाबास को यरूशलेम भेजने के लिए एक अकाल को इस्तेमाल किया था (प्रेरितों. 11:28-30), जहाँ उन्होंने आग्रहपूर्ण प्रार्थना की सामर्थ्य के बारे में सीखा था (प्रेरितों. 12:5)। फिर अंताकिया लौटने पर, उन्होंने प्रार्थना की इस आत्मा को अपने साथी-विश्वासियों के साथ भी बाँटा, और इसका परिणाम यह हुआ कि (सुसमाचार प्रचार का) काम दूर-दूर के क्षेत्रों तक बढ़ता गया (प्रेरितों. 12:25-13:3)।

परमेश्वर ने फिलिप्पी की विपरीत परिस्थितियों को इस्तेमाल करते हुए पौलुस और सीलास को एक जेलर के पास पहुँचाया जिसे सुसमाचार सुनने की ज़रूरत थी (प्रेरितों. 16:19-34)। प्रेरितों के काम के अंतिम 8 अध्याय यह दर्शाते हैं कि परमेश्वर ने कैसे हालातों का इस्तेमाल करते हुए पौलुस को ऐसे लोगों के बीच सुसमसचार प्रचार करने के लिए भेजा जिनसे वह सामान्य हालातों में न मिल पाता (देखें फिलि. 1:12)।

विश्व के कुछ सबसे बड़े मिशनरी उनकी परिस्थितियों की वजह से ही उनके मसीही काम की जगहों पर पहुँच सके थे। डेविड लिविन्गस्टोन को पहले ऐसा महसूस हुआ कि उसे चीन जाने के लिए अगुवाई हो रही है और उस देश में सेवा करने की तैयारी में उसने चिकित्सा-शास्त्र का अध्ययन भी किया था। जब वह चीन जाने के लिए तैयार हुआ, तो अफीम की वजह से छिड़े युद्ध (ओपियम वॉर) ने चीन का द्वार “बंद” कर दिया था। लंदन मिशनरी सोसाएटी ने उसे वैस्ट-इन्डीज़ का नाम सुझाया। उसने वह प्रस्ताव यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि वहाँ पहले से ही बहुत डॉक्टर थे। अंततः, पथ-प्रदर्शक मिशनरी रॉबर्ट मोफाट के संपर्क में आने के बाद वह अफ्रीका चला गया था।

अदोनिराम जडसन को यह महसूस हुआ कि उसे भारत में एक मिशनरी के रूप में जाने के लिए चुनौती मिल रही है, इसलिए वह अमेरिका से भारत के लिए समुद्री मार्ग से रवाना हो गया। भारत पहुँचने पर, प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा उसे रहने की अनुमति नहीं दी गई। जब वह मद्रास में रुका हुआ था, तो एक निश्चित तिथि तक उसे भारत छोड़ देने के लिए कहा गया। इसलिए उस तिथि से पहले विवश होकर उसे मद्रास से रवाना हो रहे एकमात्र जहाज़ में सवार हो जाना पड़ा। वह जहाज़ बर्मा जा रहा था और जडसन ने वहीं अपना बाक़ी का जीवन व्यतीत किया।

इन दोनों पुरुषों ने उस स्थानों में परमेश्वर के लिए जो कुछ हासिल किया, उससे यह स्पष्ट रूप में प्रमाणित हो जाता है कि वह परमेश्वर ही था जिसने उनके हालातों को तैयार करते हुए उन्हें वहाँ पहुँचाया था।

जो रास्ते परमेश्वर ने हमारे लिए तैयार नहीं किए हैं, उनमें आगे बढ़ने से रोकने के लिए वह हमें एक बीमारी के बिस्तर पर पहुँचाने द्वारा, या एक रेलगाड़ी, एक मुलाक़ात, या एक साक्षात्कार में से चूक जाने द्वारा रोक सकता है। अगर हम उसके प्रभुत्व की अधीनता में रहते हैं, तो हमारी निराशाएं हमारे लिए उसकी नियुक्तियाँ हो सकती हैं। जब हमें वह नहीं मिलता जिसकी हमें बहुत लालसा होती है, या जिसके लिए हमने बहुत प्रार्थना की होती है, तो हम  यक़ीन कर सकते हैं कि परमेश्वर ने हमारे लिए उससे भी कुछ बेहतर रखा हुआ है।

एक बार एक रेलगाड़ी के छूट जाने और एक नाव के देर से पहुँचने की वजह से मुझे एक ऐसी ज़रूरतमंद आत्मा के साथ बात करने का मौक़ा मिला जिसने अपना हृदय प्रभु के लिए खोलकर बपतिस्मा लिया था। परमेश्वर कोई ग़लती नहीं करता। वह पूर्व-प्रबन्ध का परमेश्वर है। हम उस पर यह भरोसा कर सकते हैं कि वह अपनी महिमा और हमारी भलाई के लिए हमारे हालातों को तैयार करता है।

कभी-कभी जब हम अपने मार्ग में बाधाएं पाते हैं, तो हम परमेश्वर से यह कह सकते हैं कि वह हमारे हालातों को बदलने द्वारा अपनी इच्छा को हम पर प्रकट करे। जब मई 1964 में प्रभु ने मुझे भारतीय नौसेना में मेरे अधिकारी पद को छोड़ने के लिए त्याग-पत्र देने के लिए कहा, और मैंने मेरा त्याग-पत्र दे दिया, तो भारतीय नौसेना मुख्यालय में से मेरा त्याग-पत्र तुरन्त अस्वीकार कर दिया गया था। पवित्र-आत्मा की जो साक्षी मैं अपने भीतर महसूस कर रहा था, हालात उसके बिलकुल विपरीत थे। मैंने प्रार्थना की कि प्रभु मेरे हालातों को बदले और मुझे नौसेना में से छुड़ाने द्वारा मेरे जीवन के लिए उसकी बुलाहट की पुष्टि करे। मैंने अपने आधिकारिक पद का त्यागने की अनुमति पाने के लिए तीन बार आवेदन किया। अंततः, दो साल के बाद मुझे छोड़ा गया। तब मुझे यह नज़र आया कि शुरू में आई रुकावट शैतान द्वारा तैयार किए गए हालातों की वजह से थी। लेकिन परमेश्वर ने उन रुकावटों को इसलिए दूर कर दिया कि वह सरकारों और पार्थिव शक्तियों पर उसके पूरे अधिकार के बारे में मेरे विश्वास को मज़बूत करे और मुझे उसके मार्गों के बारे में और ज़्यादा सिखा सके।

वास्तव में, वही है जिसके हाथ में हरेक दरवाज़े की चाबी है। जब वह किसी द्वार को खोल देता है तो उसे कोई बंद नहीं कर सकता, और जिसे वह बंद कर देता है उसे कोई खोल नहीं सकता (प्रका. 3:7)। हमारा परमेश्वर राजाओं के हृदयों को भी नालियों की तरह जहाँ चाहे वहाँ मोड़ सकता है (नीति. 21:1; देखें एज़्रा 6:22)।

परमेश्वर हमारी अगुवाई हमारी परिस्थितियों के िख़लाफ भी कर सकता है। जब यरूशलेम में सताव की पहली लहर आई, तो प्रेरित वहाँ से भागे नहीं बल्कि उन्होंने साहस के लिए प्रार्थना की। परमेश्वर ने उन्हें अपने पवित्र-आत्मा से भर दिया और अपनी सामर्थ्य को प्रकट करते हुए सारे यरूशलेम को थरथरा दिया क्योंकि शिष्यों को तितर-बितर करने का उसके द्वारा तय किया गया समय अभी नहीं हुआ था (प्रेरितों. 4:29-33; 5:11-14)।

फिलिप्पुस जब सामरिया को छोड़ कर सूनसान रेगिस्तानी मार्ग की तरफ चल दिया, तो वह परिस्थितियों के खिलाफ़ बात थी, क्योंकि उसके हालातों के अनुसार तो उसे सामरिया में ही रहना चाहिए था जहाँ वह भरपूरी से इस्तेमाल हो रहा था (प्रेरितों. 8:26)।

इस प्रकार, हालात हमेशा ही परमेश्वर की इच्छा का संकेत नहीं होते। पवित्र-आत्मा की जो साक्षी हमें अपनी आत्माओं के भीतर और बाइबल के द्वारा मिल रही होती है, हमें अपने हालातों को उनके साथ जोड़ कर, बल्कि उनकी अधीनता में लाकर देखना चाहिए। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि उसके बच्चे ऐसे मोहरे बन जाएं जिन्हें उनके हालातों इधर-उधर घुमाते रहें। वह सारे हालातों का प्रभु है और वह चाहता है कि उसके बच्चे भी उनके हालातों पर उसकी प्रभुता में सहभागी हों।

क्या यह उचित है कि परमेश्वर की इच्छा जानने के लिए उससे एक चिन्ह् की माँग करें? पुरानी वाचा में कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनमें लोगों ने परमेश्वर की इच्छा जानने के लिए उससे चिन्ह् की माँग की थी। अब्राहम के सेवक ने एक चिन्ह् माँगा था और इस तरह वह उस दुल्हन को पा सका जो परमेश्वर ने इसहाक के लिए चुन रखी थी (उत्पत्ति 24:10-27)। गिदोन ने एक चिन्ह् द्वारा परमेश्वर को अपनी इच्छा की पुष्टि करने के लिए कहा था। अगली रात को उसने उस चिन्ह् को उलट देने के लिए कहा। परमेश्वर ने दोनों ही अवसरों पर उसे जवाब दिया और अपनी इच्छा की पुष्टि की (न्या. 6:36-40)। जिस जहाज़ में योना था, उसके नाविकों ने चिट्ठी डालकर यह जानना चाहा था कि किसकी वजह से तूफान आया था। परमेश्वर ने उन्हें जवाब दिया था (1:7)। पहले भी कुछ अवसरों पर चिट्ठी डाली गई थी (यहोशू 7:14; 1 शमू. 10:20; 14:41-44; देखें नीति. 16:33)। नई वाचा में, सिर्फ एक बार ही ऐेसा हुआ है कि लोगों ने परमेश्वर की इच्छा जानने के लिए उससे एक चिन्ह् माँगा है, लेकिन वह पैन्तेकुस्त के दिन से पहले हुआ था (प्रेरितों. 1:23-26)। यह ध्यान दें कि पवित्र-आत्मा के आने के बाद, नई वाचा में ऐसा एक भी अवसर नहीं है जिसमें विश्वासियों ने एक चिन्ह् माँगने द्वारा परमेश्वर की इच्छा जाननी चाही हो। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि अब यह परमेश्वर द्वारा मार्गदर्शन देने का सामान्य तरीक़ा नहीं है। यह तरीक़ा पहले पुरानी वाचा के समय में तब इस्तेमाल किया जाता था जब पवित्र-आत्मा मनुष्य के भीतर वास नहीं करता था।

फिर भी, परमेश्वर हमारी निढाल होती हुई आत्माओं को उत्साहित करने के लिए कभी-कभी अपनी एक चिन्ह् द्वारा अपनी इच्छा की पुष्टि कर सकता है। जब मार्गदर्शन के बाक़ी सारे तरीक़ों द्वारा कोई स्पष्ट निष्कर्ष नहीं निकलता, सिर्फ तभी हम परमेश्वर से एक चिन्ह् माँगने का साहस कर सकते हैं। लेकिन हम किस तरह का चिन्ह् माँगते हैं, हमें इस विषय में भी प्रार्थना करनी चाहिए। हम चिन्हों को अपनी बात ऊँची रखने के लिए इस्तेमाल न करें। उदाहरण के तौर पर, हमें परमेश्वर से चिन्ह् के रूप में एक चमत्कार करने के लिए तब नहीं कहना चाहिए जब हमारा वास्तविक उद्देश्य उस मार्ग में न चलने के लिए एक बहाना ढूंढना हो जिस पर हम जानते हैं कि परमेश्वर हमें ले जाना चाहता है। इसके साथ ही, हमें परमेश्वर से किसी ऐसी सामान्य बात के लिए भी नहीं कहना चाहिए जो असल में इतनी मामूली हो कि वह एक चिन्ह् न होकर सिर्फ हमारे अपने चुने हुए मार्ग में आगे बढ़ जाने का मात्र एक बहाना हो।

हमें कुछ मसीहियों द्वारा अपनाए जाने वाले ऐसे तरीक़ों से भी सचेत रहना चाहिए जो परमेश्वर से चिन्ह् के रूप में एक पद माँगते हैं, फिर अपनी आँखें बंद करते हैं, और अपनी बाइबल खोलकर सामने खुले पन्ने पर अपनी अंगुली रखते हैं। यह तरीक़ा हमें भटका सकता है और वैसे भी यह मूर्खतापूर्ण है। बाइबल कोई जादूई पुस्तक नहीं है! उसे एक ऐसी जादूई पुस्तक न बनाएं। परमेश्वर ऐसे तरीक़े द्वारा हमें उत्साहित कर सकता है। लेकिन महत्वपूर्ण मामलों में हमें इसे अपने मार्गदर्शन का एकमात्र तरीक़ा नहीं बना लेना चाहिए।

एक चिन्ह् को अपने मार्गदर्शन का मुख्य या एकमात्र माध्यम बना लेना बिलकुल भी पवित्र-शास्त्र के अनुसार नहीं है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि हमेशा एक चिन्ह् की खोज में रहना आत्मिक अपरिपक्वता का संकेत होता है।

दूसरे विश्वासियों का परामर्श

नया नियम विश्वासियों के एक देह के अंगों के रूप में मिलकर काम करने की ज़रूरत पर बहुत ज़ोर देता है। कोई अंग अपने आप में अकेला काम नहीं कर सकता। हरेक अपने अस्तित्व और जीवित रहने के लिए दूसरे पर निर्भर होता है। इसलिए यह उचित ही है कि मार्गदर्शन के मामले में भी, परमेश्वर विश्वासियों की सहभागिता को बहुत मूल्यवान जानता है। परमेश्वर ने यह इंतज़ाम एक रक्षण के रूप में इसलिए किया है कि हम उसकी सिद्ध इच्छा जानने से चूक न जाएं।

एक क़दम उठाने के फायदे या नुक़सान के बारे में शायद हम अपने आप में पूरी बात न जान पाएं। जो फैसला हम कर रहे हैं, उसके अलग-अलग पहलुओं से उसे देखने में हमारी मदद करने के लिए दूसरे ईश्वरीय लोगों का परामर्श बहुत अनमोल होगा। एक महत्वपूर्ण फैसला करते समय यह और भी ज़्यादा ज़रूरी होगा। अगर हम गर्व से भरी अपनी आत्म-निर्भरता में, परमेश्वर द्वारा ठहराए गए मार्गदर्शन पाने के इस माध्यम को अनदेखा करते हैं, तो हमें अवश्य ही नुक़सान उठाना पड़ेगा।

बाइबल कहती है, “अनेक सलाहकारों के बीच में सुरक्षा होती है... दूसरों से सलाह लिए बिना अपनी योजनाओं में आगे न बढ़ना... एक बुद्धिमान मनुष्य की सलाह एक पहाड़ी झरने की तरह तरोताज़ा करती है। जो उसे मान लेते हैं, वे उनके आगे मौजूद फंदों में गिरने से बच जाते हैं... मूर्ख यह समझता है कि उसे किसी परामर्श की ज़रूरत नहीं है, लेकिन एक बुद्धिमान दूसरों की सलाह मानता है... भला मनुष्य अपने मित्रों की सलाह लेता है; लेकिन दुष्ट आगे बढ़ते और गिरते हैं” (नीति- 24:6; 20:18; 13:14; 12:15,26 – टी.एल.बी.)। 

फिर भी, ऐसी दो अतिवादी मनोदशाएं हैं जिनसे हमें बचने की ज़रूरत है। एक तो यह कि हम पूरी तरह से ईश्वरीय लोगों के परामर्श को अनदेखा कर दें। और दूसरी यह कि हम उनके परामर्श पर इतने निर्भर हों कि हम उसे कोई सवाल किए बिना परमेश्वर की सिद्ध इच्छा के रूप स्वीकार कर लें। अगर हम इनमें से एक भी अतिवादी मनोदशा को अपना लेंगे, तो हम या तो भटक जाएंगे या अपने जीवन-भर आत्मिक बौने ही रहेंगे। हालांकि परमेश्वर की यह बड़ी इच्छा है कि हम अपने साथी-विश्वासियों से परामर्श लें, फिर भी, चाहे वे कितने भी ईश्वरीय लोग क्यों न हों, वह यह नहीं चाहता कि उनकी सलाह के प्रति हमारी मानसिकता गुलामों जैसी बन जाए।

बाइबल सत्य को एक सिद्ध संतुलन में प्रस्तुत करती है। लेकिन, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मनुष्य की प्रवृत्ति अतिवाद के एक छोर से दूसरे छोर तक जाने की होती है। इस तरह ही मसीही जगत में अनेक अनधिकृत मत पैदा हुए हैं।

पुरानी वाचा में, पहला राजा के अध्याय 12 व 13 में यह संतुलित दृष्टिकोण एक स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया गया है। अध्याय 12 में, युवा राजा रहूबियाम को अपने जैसे युवाओं की जगह बड़ी उम्र के ईश्वरीय अगुवों की सलाह लेनी चाहिए थी। उसने क्योंकि ऐसा नहीं किया था, इसलिए उसके राज्य का बँटवारा हो गया था। अध्याय 13 में, युवा को बड़ी उम्र की सलाह नहीं माननी चाहिए थी (सिर्फ बड़ी उम्र वाले ही बुद्धिमान नहीं होते - अय्यूब 32:8 – टी.एल.बी.)। क्योंकि उसने ऐसा किया, इसलिए उसे अपनी जान गँवानी पड़ी।

नई वाचा में, हम प्रेरित पौलुस के जीवन में इस संतुलन को देखते हैं। प्रेरितों के काम 13:1-3 में, हम परमेश्वर द्वारा पौलुस को विदेशी मिशनरी सेवा के लिए बुलाता हुआ पाते हैं। लेकिन परमेश्वर ने उसी अपनी इच्छा को पौलुस के साथी-सेवकों पर भी प्रकट किया। इस तरह, परमेश्वर ने पौलुस से जो व्यक्तिगत रूप में कहा था, उसकी पुष्टि उसने दूसरों द्वारा भी की। दूसरी तरफ, प्रेरितों के काम 21:1-15 में, हम पौलुस को उसके सभी साथी-विश्वासियों की सलाह को नामंज़ूर करते हुए (उनमें से कुछ की नबूवतों को भी) और उस दिशा में आगे बढ़ता हुआ पाते हैं जिसमें उसे अपने लिए परमेश्वर की इच्छा के मौजूद होने का अहसास हो रहा था। परमेश्वर ने बाद में पौलुस पर यह प्रकट किया कि उसका यरूशलेम जाने का फैसला सही था (प्रेरितों. 23:11)।

एक अन्य अवसर पर, अपने मसीही जीवन के आरम्भ में, पौलुस बिना किसी से कोई परामर्श किए, स्वयं ही परमेश्वर की इच्छा को जानकर अरब चला गया था (गला. 1:5-17)।

परमेश्वर के वचन में से ये उदाहरण यह सुझाते हैं कि कुछ ऐसे मौक़े होते हैं जिनमें हमें ईश्वरीय भक्तों की सलाह पर ध्यान देना चाहिए, और ऐसे भी मौक़े होते हैं जब हमें इन्हीं ईश्वरीय लोगों की सलाह को नामंज़ूर कर देना चाहिए, और फिर ऐसे भी मौक़े होंगे जब हमें किसी से भी सलाह करने की कोई ज़रूरत नहीं होगी। जो भी हो, चाहे हम दूसरों की सलाह मानें, या न मानें, या न लेना चाहें, लेकिन अंतिम फैसला हमेशा हमारा अपना ही होना चाहिए, क्योंकि अपने फैसलों के लिए हम व्यक्तिगत रूप में परमेश्वर के प्रति जवाबदार हैं। परमेश्वर के एक जन की सलाह अनमोल होती है, लेकिन वह कभी भी अचूक नहीं हो सकती।

माइकल हार्पर ने, अपनी पुस्तक ‘प्रौफैसी - अ गिफ्रट फॉर द बॉडी ऑफ क्राइस्ट’ में यह लिखा हैः “ऐसी नबूवतों को, जो लोगों को यह बताती हों कि उन्हें क्या करना चाहिए, बड़ी शंका की दृष्टि से देखना चाहिए। ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि ‘मार्गदर्शन’ देना नबूवत द्वारा किया जाने वाला एक काम है। पौलुस को यह बताया गया था कि अगर वह यरूशलेम गया तो उसके साथ वहाँ क्या होने वाला था, लेकिन उससे यह नहीं कहा गया था कि उसे वहाँ जाना चाहिए था या नहीं जाना चाहिए था। उसके मित्रों ने इस बारे में उसे कुछ सलाह दी होगी, लेकिन वह सलाह नबूवत में से नहीं आई थी। अगाबुस ने एक अकाल की नबूवत की थी, लेकिन उसकी नबूवत में ऐसा कोई निर्देश नहीं था कि उसके बारे में क्या किया जाए। कुल मिलाकर यह है कि नई वाचा में दिया गया मार्गदर्शन सीधा एक व्यक्ति को व्यक्तिगत तौर पर दिया जाता है, यह पुरानी वाचा की तरह नहीं है जो सामान्यतः किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा दिया जाता था। जैसे, कुरनेलियुस से स्वर्गदूत ने यह कहा था कि वह पतरस को बुलवा ले (प्रेरितों. 10:5), लेकिन स्वयं पतरस को एक स्वतंत्र माध्यम द्वारा उनके साथ जाने के लिए कहा गया था (प्रेरितों. 10:20)”।

अपनी पुस्तिका गाइडैन्स में, जेम्स मैक्कॉन्की ने लिखा, “माँस और लहू पतरस पर मसीह को प्रकट न कर सके थे” (मत्ती 16:17)। और न ही मसीह की बातों को वे हम पर प्रकट कर सकते हैं। और इससे भी कोई फ़र्क पड़ता है कि वह माँस और लहू हमारा अपना है या किसी दूसरे का है। क्योंकि दूसरे मनुष्य का माँस और लहू भी उन्हीं निर्बलताओं से घिरा हुआ है और वह भी उन्हीं भूल-चूकों के वश में है जिनके अधीन हमारा माँस व लहू है। इसके अलावा, वह व्यक्ति जो मार्गदर्शन पाने के लिए अपने मित्रों की सलाह पर निर्भर रहता है, जल्दी ही यह पाता है कि उनके द्वारा दी गई तरह-तरह की सलाह उसकी उलझन और ज़्यादा बढ़ा देती है। यह भी एक ईश्वरीय सिद्धान्त है कि परमेश्वर आपके जीवन के बारे में उसकी योजनाओं को किसी दूसरे व्यक्ति पर प्रकट नहीं करेगा। मसीह द्वारा पतरस को इस बात के लिए डाँटना, कि उसने यूहन्ना के बारे में उसकी इच्छा को जानना चाहा था, इस बात का सबसे स्पष्ट प्रमाण हो सकता है (यूह. 21:22)। एक छोटा बच्चा जब चलना सीख रहा होता है, तब आप चलने की कला सीखने में उसकी कुछ मदद कर सकते हैं। लेकिन अगर उसे अकेले चलना सीखना है, तो एक समय ऐसा आएगा जब उसे आपका हाथ पूरी तरह से छोड़ देना होगा और आप पर निर्भर होना पूरी तरह से छोड़ देना होगा।

एक विश्वासी जिसे परमेश्वर के साथ चलना सीखना है, उसे यह पाठ इसी तरह सीखना होगा। और जैसे कि एक बच्चे को यह सीखने की क़ीमत चुकाते हुए गिरना-सम्भलना पड़ता है, वैसे ही एक विश्वासी को कुछ ग़लतियाँ करने द्वारा इसकी क़ीमत चुकानी पड़ती है। बिलकुल न सीखने से तो इस तरह सीख लेना अच्छा है। परमेश्वर के साथ अकेले उस स्थान में चलना जहाँ उसने हमें स्वयं उसके मार्गदर्शन में पहुँचाया हो, ऐसा ख़ज़ाना है कि जिसकी क़ीमत कुछ ग़लतियों द्वारा चुकाना कोई बड़ी क़ीमत नहीं होगी। तब क्या मार्गदर्शन के मामले में क्या परमेश्वर की नज़र में मसीही मित्रों का कोई स्थान नहीं है? यक़ीनन है। सब तरह की मदद हासिल करें; परमेश्वर के वचन पर हर प्रकार से ज्योति पाएं; वह सारा अनुभव पाएं जो दूसरों के पास है। मतलब, आप दूसरों के पास से सारे तथ्य प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन आपके फैसले आपको स्वयं करने होंगे। क्योंकि जब हम फैसले की जगह पर पहुँचते हैं, तब हम व्यक्तिगत तौर पर धीरज के साथ परमेश्वर की बाट जोहने से नहीं बच सकते, जिसके द्वारा हम उसके मार्गदर्शन के सबसे मूल्यवान पाठ सीखते हैं।”

फिर भी, हमें जब परिपक्व विश्वासियों की सलाह के खिलाफ़ जाना होता है, तब हम स्वयं अपने मार्गदर्शन को बार-बार यह सुनिश्चित करने के लिए जाँचते रहें कि हमारी अगुवाई करने वाला और कोई नहीं परमेश्वर ही है। यह बात ज़रूरी फैसले लेते समय ख़ास तौर पर याद रखनी चाहिए।

प्रभु की आवाज़

रूपान्तर के पहाड़ पर, परमेश्वर द्वारा पतरस की ताड़ना की गई थी क्योंकि उसने मूसा और एलिय्याह को उसी स्तर पर रखने की कोशिश की गई थी जो प्रभु यीशु का है। ये पुरुष पुरानी वाचा के समयकाल में वास्तव में परमेश्वर के प्रवक्ता थे, लेकिन अब एक नया युग शुरू हो रहा था और पतरस को यह समझना था। इस नए युग में, सिर्फ एक ही प्रवक्ता हो सकता है – “यह मेरा प्रिय पुत्र है; इसकी लगातार सुनते रहो और आज्ञापालन करते रहो” (मरकुस 9:7)। और इसलिए, जब शिष्यों ने दोबारा ऊपर देखा, तो “सहसा चारों ओर दृष्टि की तो अपने साथ यीशु को छोड़ अन्य किसी को नहीं देखा।” परमेश्वर हमसे बात करने के लिए चाहे जो भी बाहरी माध्यम इस्तेमाल करे, लेकिन अंततः हमें प्रभु की ही आवाज़ सुनाई देनी चाहिए।

वॉचमैन नी ने “वॉट शैल दिस मैन डू?” में कहा, “मसीहियत में परमेश्वर की इच्छा को सिर्फ किसी मनुष्य या किसी पुस्तक के माध्यम द्वारा ही जानना नहीं होता, बल्कि इसमें हमेशा परमेश्वर के आत्मा द्वारा उसे व्यक्तिगत रूप में जानना शामिल होता है... इसलिए एक व्यावहारिक रूप में, आज हमारे पास लिखित पवित्र-शास्त्र है जो मूसा का प्रतिनिधित्व करता है, और हमारे पास एक जीवित संदेशावाहक है, जो एलिय्याह का प्रतिनिधित्व करता है जिसने मृत्यु का स्वाद नहीं चखा था।" हरेक विश्वासी को परमेश्वर द्वारा दिए ये दो उपहार हमारे मसीही जीवन में योगदान देने वाले सबसे मूल्यवान घटक हैंः हमें सिखाने के लिए हमारे हाथ में परमेश्वर की पुस्तक है, और एक मित्र है जो प्रभु के पास रहता है और जो अक्सर हमें वह बता सकता है जो उसे प्रभु द्वारा दिखाया गया है। पुस्तक हमेशा सही होती है; और एक मित्र का परामर्श भी अक्सर सही होता है। हमें परमेश्वर की पुस्तक की ज़रूरत है, और हमें परमेश्वर के नबियों की भी ज़रूरत है। वह ऐसा नहीं चाहेगा कि हम दोनों में से एक को भी अलग हटा दें। लेकिन रुपान्तर के पहाड़ की इस घटना का पाठ यही है कि इनमें से एक भी हमारे हृदयों में परमेश्वर की जीवित आवाज़ की जगह नहीं ले सकता है।

हम परमेश्वर के नबियों को तुच्छ समझने का हर्गिज़ दुस्साहस न करें। हमें नबूवत के बोले गए उस सच्चे शब्द की, जो हमें दबोच कर चुनौती देता है, या एक परिपक्व आत्मिक निर्देश के शान्त शब्द की बार-बार ज़रूरत होती है। लेकिन चाहे वह कितना भी सही क्यों न प्रतीत हो रहा हो, हम अपने आपको पूरी तरह उस प्रकाशन के अधीन नहीं कर सकते जो परमेश्वर के पवित्र जनों द्वारा हमें मिलता है। हम प्रभु की आवाज़ को सुनने और उसके पीछे चलने के कर्तव्य से बंधे हुए हैं।

“और परमेश्वर के लिखित शब्द को तुच्छ जानने का दुस्साहस तो और भी नहीं कर सकते। सत्य का प्रेरित-शास्त्र हमारे जीवन और उन्नति के लिए जीवनदायक है, और ऐसा न हो - बल्कि हम कभी ऐसा साहस न करें - कि हम उसके बिना पाए जाएं। फिर भी, हममें ऐसे लोग हैं जो इस ख़तरे में हो सकते हैं कि हमारे अंतिम अधिकार के रूप में वे स्वयं यीशु मसीह की ओर देखने से ज़्यादा वचन के अक्षर की ओर देखने वाले बन जाएं। जो कुछ बाइबल कहती है हम वह करने के लिए अपने आपको तैयार करते है, एक धार्मिक और अनुशासित रूप में, और परमेश्वर ऐसा करने के लिए हमें सम्मानित कर सकता है। फिर भी, अगर ऐसा करते हुए, हम ज़्यादा आगे बढ़ते और बाइबल को एक इतनी ऊँची जगह दे देते हैं जहाँ हमारे द्वारा उसका इस्तेमाल प्रभु यीशु मसीह के प्रभुत्व को भी चुनौती देने लगे, तो एक दुःखद रूप में, हमारा प्रभु के साथ संपर्क टूटा रहेगा... (मसीहियत) परमेश्वर की इच्छा की एक ऐसी व्यक्तिगत और सीधी जानकारी की माँग करती है जो परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए इन दूसरे सहायक माध्यमों को स्वीकार करते हैं, लेकिन सिर्फ उन्हीं पर निर्भर नहीं रहते।”

मार्गदर्शन का भेद प्रभु की आवाज़ को सुनने में रखा है।

सारांश

  1. जब हम परमेश्वर से मार्गदर्शन पाने की खोज में होते हैं, तब पवित्र-आत्मा हमें बाइबल की शिक्षा में से लेकर चलता है।

   क) अनेक क्षेत्रों में बाइबल पहले ही परमेश्वर की इच्छा को प्रकट कर चुकी है।

   ख) हमारे प्रतिदिन के बाइबल पढ़ने में परमेश्वर बाइबल के किसी भाग में से हमें दिए जा रहे मार्गदर्शन की पुष्टि कर सकता है। लेकिन इसे किसी मामले के मार्गदर्शन पाने का एकमात्र आधार नहीं बना लेना चाहिए।

  1. पवित्र-आत्मा अक्सर हालातों की गवाही में से हमसे बात करता है।

   क) परमेश्वर हालातों को या तो हमें दिए जा रहे दिशा-निर्देश की पुष्टि करने के लिए, या कोई ग़लत क़दम उठाने से रोकने के लिए इस्तेमाल कर सकता है।

   ख) लेकिन शैतान भी एक हद तक हमारे हालातों को तैयार कर सकता है। इसलिए वे हमेशा ही परमेश्वर की इच्छा का संकेत नहीं होते।

   ग) परमेश्वर कभी-कभी हमें हालातों के खिलाफ़ भी ले जा सकता है। हम परमेश्वर से हमारे हालातों को बदलने द्वारा अपनी इच्छा प्रकट करने के लिए कह सकते हैं।

   घ) परमेश्वर कभी-कभी एक चिन्ह् दिखाने द्वारा उसके मार्गदर्शन की पुष्टि कर सकता है। फिर भी, चिन्ह् देखने की इच्छा रखना हमेशा ही आत्मिक अपरिपक्वता का चिन्ह् होता है।

  1. पवित्र-आत्मा दूसरे विश्वासियों के परामर्श द्वारा हमारे साथ बात कर सकता है।

   क) परमेश्वर ने यह इंतज़ाम एक रोकथाम के रूप में किया है कि कहीं ऐसा न हो कि हम उसकी इच्छा जानने से चूक जाएं।

   ख) ईश्वरीय भक्तों का परामर्श हमें एक मामले के किसी ऐसे पहलू को देखने योग्य बनाएगा, जिन पर शायद हमने विचार न किया हो।

   ग) कुछ ऐसे अवसर होते हैं जिनमें हमें इश्वरीय लोगों की सलाह पर ध्यान देना चाहिए, और फिर कुछ ऐसे मौक़े भी होते हैं जिनमें हमें उनकी सलाह को अनदेखा कर देना होता है।

अध्याय 5
व्यावसायिक बुलाहट

जिस प्रमुख समस्या का सामना युवाओं को अक्सर मार्गदर्शन के मामले में करना पड़ता है, वह यह जानना होता है कि परमेश्वर उनके लिए कौन सा व्यवसाय चाहता है और यह कि वे कहाँ काम करें।

एक काम-धंधे की ज़रूरत के बारे में परमेश्वर की सिद्ध इच्छा जानना न सिर्फ पूर्ण-कालिक मसीही सेवा की इच्छा रखने वालों के लिए बल्कि हरेक विश्वासी के लिए ज़रूरी है। जैसा कि अध्याय 1 में उल्लेख किया गया है, परमेश्वर ने अपने हरेक बच्चे के लिए एक काम रखा हुआ है। यह ज़रूरी है कि हम यह जानना चाहें कि वह क्या है। अगर आपके लिए परमेश्वर की बुलाहट यह है कि आप एक स्कूल में शिक्षक बनें, तो एक पास्टर बन जाने द्वारा आप उसकी आज्ञा का उल्लंघन करेंगे। अगर परमेश्वर आपको एक डॉक्टर बनाना चाहता है, तो आप एक सुसमाचार-प्रचारक न बन जाएं। इसी तरह, अगर परमेश्वर आपको सिर्फ मसीही सेवा में चाहता है, तो आप एक सांसारिक काम-धंधा न करें।

परमेश्वर का चुना हुआ काम-धंधा

हरेक विश्वासी को, चाहे वह पूर्ण-कालिक मसीही सेवा में न हो, फिर भी उसे प्रभु यीशु मसीह का एक पूर्ण-कालिक साक्षी होना चाहिए। एक मसीही डॉक्टर से जब यह पूछा गया कि उसका व्यवसाय क्या है, तो उसने जवाब देते हुए यह कहा, “मेरा व्यवसाय प्रभु यीशु मसीह का साक्षी होना और आत्माओं को उद्धार पाने के लिए उसके पास लाना है। इस काम का ख़र्च उठाने के लिए मैं डॉक्टर का काम करता हूँ।” वास्तव में, उसका एक बिलकुल सही नज़रिया था।

एक काम-धंधे को अगर हम इस नज़रिए से देखेंगे, तब हमें परमेश्वर की इच्छा जानने से चूक जाने की सम्भावना का डर नहीं होगा। हम तभी भटकते हैं जब हमारा व्यक्तिगत विकास और मान-मर्यादा हमारे चुनाव को प्रभावित करते हैं।

एक युवा विश्वासी इस परिमण्डल में परमेश्वर की इच्छा जानने के मामले में कैसे आगे बढ़े? जब तक उसके सामने एक व्यवसाय चुनने का विकल्प खुला हुआ हो, तो वह अपनी बौद्धिक क्षमताओं पर विचार करने के बाद, अपने लिए सबसे उपयुक्त व्यवसाय के लिए पढ़ाई-लिखाई करे। फिर भी, उसे बहुत प्रार्थना के बाद अपना व्यवसाय तय करना चाहिए। प्रार्थना के बाद, अगर उसकी आत्मा में किसी तरह का अवरोध न हो, तो उसे आगे बढ़ते हुए एक अनुकूल व्यवसाय स्वीकार कर लेना चाहिए। फिर भी, उसे कभी मजबूर होकर ऐसा कोई व्यवसाय स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए जिसका चुनाव किसी दूसरे ने उसके लिए किया हो।

जो लोग विश्व-विद्यालयों में पहले से ही कुछ ख़ास पढ़ाई कर रहे हैं, तो व्यवसाय के मामले में उनके पास चुनाव सीमित होते हैं। ऐसे लोगों को इस बात में डरने की कोई ज़रूरत नहीं है कि वे शायद परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने से चूक गए हैं। परमेश्वर सर्वशक्तिशाली है और जब हम उसके मार्गों से अनजान होते हैं, तब वह हमारी उन बातों को अनदेखा कर देता है। जहाँ हम उसके सामने अपना समर्पण करते हैं, उस जगह पर पहुँचने से बहुत पहले उसका हाथ हम पर होता है, और हमारी जानकारी के बिना ही, वह हमारी दिशा निर्धारित कर रहा होता है। वह हमें सिर्फ तभी जि़म्मेदार ठहराता है जब वह हमसे बात करने लगता है।

परमेश्वर की चुनी हुई जगह

एक विश्वासी को उसके पढ़ाई-लिखाई के पूरे समयकाल में इस बात के लिए बहुत प्रार्थना करनी चाहिए कि व्यवसायिक अवसरों के बारे में परमेश्वर उसे सही जानकारी दे और सही लोगों और संस्थाओं के संपर्क में लाए, कि अपनी पढ़ाई के बाद, वह उसके लिए परमेश्वर द्वारा चुनी हुई जगह में काम करने जा सके। उसे प्रभु के उन शब्दों को लगातार याद रखना चाहिए जो उसने मत्ती 9:37 में कहे हैं – “पकी फसल तो बहुत है, लेकिन मज़दूर थोड़े हैं।” यूहन्ना 4:35 में प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए, उसे देश और संसार के विभिन्न भागों में प्रभु के काम के बारे में विस्तार से जानना चाहिए। उसे वहाँ जाने के लिए तैयार रहना चाहिए जहाँ प्रभु को उसे भेजने की ज़रूरत हो - चाहे एक शिक्षक के रूप में, एक नर्स के रूप में, या एक इंजीनियर के रूप में उसका काम जहाँ भी हो। यह बहुत शर्म की बात है कि बहुत से लोग अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधा चाहते हैं लेकिन उन्हें सुसमाचार फैलाने या आत्माओं को बचाने की कोई चिंता नहीं होती।

तब उसे ऐसे परिपक्व विश्वासियों की सलाह और प्रार्थना-में-संगति की खोज करनी चाहिए (अपने स्थानीय क्षेत्र में और दूसरी जगहों में) जिनकी उसमें दिलचस्पी है और जिन्हें उस कार्य क्षेत्रों के बारे में जानकारी है जिसमें वह अपना रोज़गार ढूंढ रहा है। उसे यह भी समझने की कोशिश करनी चाहिए कि परमेश्वर उसके हालातों के द्वारा उससे क्या कह रहा है। यह सारी जानकारी हासिल करने के बाद, जब फैसला करने का समय नज़दीक आ जाए, तब उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पवित्र-आत्मा उसकी आत्मा में क्या कह रहा है। अंत में, उसे अपना फैसला उसके अन्दर पवित्र-आत्मा द्वारा दी जाने वाली साक्षी पर आधारित करना चाहिए, लेकिन इसके साथ उसका परमेश्वर पर ऐसा भरोसा भी हो कि अगर उससे ग़लती हो गई हो तो परमेश्वर उसकी दिशा को बदल सकता है।

पूर्ण-कालिक मसीही सेवा

यहाँ पूर्ण-कालिक मसीही सेवा के बारे में कुछ शब्द कहने की ज़रूरत है - अर्थात् उस बुलाहट के बारे में जिसमें एक व्यक्ति को मिशनरी, सुसमाचार-प्रचारक, बाइबल-शिक्षक, या पास्टर के रूप में सिर्फ वचन की ही सेवा करनी हो।

परमेश्वर ऐसी सेवकाई में ज़्यादा विश्वासियों को नहीं बुलाता, वैसे ही जैसे उसने इस्राएल के 12 गोत्रें में से सिर्फ एक गोत्र को मन्दिर की सेवा के लिए बुलाया था। लेकिन परमेश्वर चाहता है कि अगर वह बुलाए, तो उसके सब बच्चे ऐसी सेवा के लिए तैयार रहने चाहिए। इसलिए हरेक विश्वासी को इस बुलाहट के बारे में विचार करना चाहिए और अपने पूरे हृदय से यह जानने की इच्छा करनी चाहिए कि परमेश्वर उसे इसमें चाहता है या नहीं। पूर्ण-कालिक मसीही सेवा में प्रवेश करने वाले व्यक्ति को यह पूरा यक़ीन होना चाहिए कि परमेश्वर ने उस सेवा में उसे बुलाया है। जो सांसारिक काम-धंधे में है, उसे भी यह पूरा यक़ीन होना चाहिए कि परमेश्वर उसे वहाँ चाहता है। एक सुसमाचार-प्रचारक या एक मिशनरी होने की बुलाहट एक इंजीनियर या लेखाकार (अकाउन्टैन्ट) होने की बुलाहट से ज़्यादा आत्मिक नहीं होती। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि आप वह हों जो परमेश्वर चाहता है कि आप हों।

एक पूर्ण-कालिक मसीही सेवकाई में प्रवेश करने का फैसला बहुत धीरज के साथ लेना चाहिए; यह फैसला न तो किसी सभा के भावुकता भरे तनावपूर्ण वातावरण में लिया जाए, और न ही किसी मनुष्य के दबाव में आकर लिया जाए। जल्दबाज़ी में लिए गए फैसलों पर अक्सर बाद में पछताना पड़ता है। परमेश्वर हमेशा हमें पर्याप्त समय देता है कि हम अपना फैसला करने से पहले उसकी इच्छा के बारे में पूरी तरह निश्चित हो जाएं।

पूर्ण-कालिक मसीही सेवकाई की बुलाहट की व्याख्या आसानी से नहीं की जा सकती। मार्गदर्शन के दूसरे तरीक़ों की तरह, यह भी विभिन्न् लोगों के लिए विभिन्न् रूपों में आती है। कुछ दुर्लभ मामलों में, यह एक दर्शन या एक स्पष्ट आवाज़ द्वारा आ सकती है। एस्तेर बटलर ने, जो बीसवीं सदी के आरम्भ में चीन में एक पथ-प्रदर्शक मिशनरी हुईं, यह कहा कि जब परमेश्वर ने उसे बुलाया तो उसने दर्शन में एक भीड़-भरी चीनी सड़क का दृश्य देखा। बाद में, नानकिन्ग आने के बाद उसने स्पष्ट रूप में दर्शन में देखे चेहरों और जगहों को पहचान लिया था।

दूसरों के लिए वह बुलाहट एक ऐसे भीतरी आग्रह के रूप में आई जो पूरी तरह से एक पवित्रीकृत तर्क पर आधारित थी। जॉन जी. पेटन स्कॉटलैण्ड से दक्षिण प्रशान्त महासागर के द्वीपों में इसलिए गया क्योंकि उसने यह महसूस किया कि स्कॉटलैण्ड की तुलना में वहाँ के लोगों के पास सुसमाचार सुनने का अवसर कम था। जेम्स मिलमोर मंगोलिया गया क्योंकि, उसने कहा, कि उसे अपने देश में ही रहने की कोई बुलाहट नहीं मिली थी। इन लोगों ने उन जगहों में परमेश्वर के लिए जो हासिल किया, वह यह दर्शाता है कि उनके जीवनों के लिए परमेश्वर की वही सिद्ध इच्छा थी।

बुलाहट किस रूप में आती है यह महत्व की बात नहीं है, लेकिन जो भी पूर्ण-कालिक मसीही सेवकाई करने जाता है, वह अपनी बुलाहट के बारे में एक अनिश्चित मनोदशा में नहीं रह सकता। वह इस सेवकाई में न तो स्वयं सेवारत हो सकता है और न ही कोई दूसरा उसक नियुक्त कर सकता है। यह विशेषाधिकार पूरी तरह से सिर्फ परमेश्वर के ही हाथ में रहता है।

ज़्यादातर मामलों में, पूर्णकालिक मसीही सेवकाई में बुलाया गया व्यक्ति यह पाएगा कि परमेश्वर उसके हालातों द्वारा और आत्मा से भरपूर विश्वासियों द्वारा उसकी बुलाहट की पुष्टि करता है। फिर भी, इस नियम के अपवाद हो सकते हैं और है - क्योंकि परमेश्वर किसी नियत नमूने में बंधा हुआ नहीं है। फिर भी दिशा-निर्देश तय किए जा सकते हैं। परमेश्वर उन्हें बुलाता है जो पहले से अपने सांसारिक काम-धंधे में सक्रिय होते हैं। वह सिर्फ उन्हीं से बात करता है जो उनके वर्तमान हालातों में उसके साक्षी होना चाहते हैं। वह उन्हें प्रतिफल देता है जो उसे यत्न से खोजते हैं।

हमें यह भी याद रखने की ज़रूरत है कि परमेश्वर की बुलाहट कोई निश्चल बात नहीं है। परमेश्वर आपको पूरी तरह से एक मसीही काम के लिए कुछ समय तक अलग कर सकता है, और फिर उसका साक्षी होने के लिए आपको वह कोई सांसारिक काम करने के लिए भी भेज सकता है। हम परम्पराओं और मनुष्यों के मतों के गुलाम न बनें बल्कि जैसे-जैसे दशाएं और परिस्थितियाँ बदलें, वैसे-वैसे हम परमेश्वर के साथ चलने के लिए तैयार रहें।

हम चाहे किसी सांसारिक काम में हों या पूरी तरह से मसीही काम के लिए अलग किए गए हों, हमारी बुलाहट परमेश्वर के एक जैसे सेवक होने की है। हमें हमारे काम की वृत्ति और परिमण्डल अलग हो सकते हैं, लेकिन हम सभी की बुलाहट यही है कि हम दूसरों के सामने प्रभु का एक योग्य तरीक़े से प्रतिनिधित्व करें और उन्हें उसके उस ज्ञान में ला सकें जिसमें उनका उद्धार हो जाए। परमेश्वर की विशाल दाख की बारी में आपकी एक ख़ास जगह है। जैसा कि एक आराधना गीत में है, “यीशु का एक ऐसा है काम, तुम्हें छोड़ जिसे कोई देगा नहीं अंजाम।” वह काम क्या है वह जानने और उसे करने की जि़म्मेदारी आपकी है। “जो काम तुम्हारे लिए परमेश्वर ने ठहराया है, उसमें उसे नाकाम न करने की जि़म्मेदारी तुम्हारी है” (कुलु. 4:17 – जे. बी. पी.)।

सारांश

  1. परमेश्वर के पास आपके लिए एक ख़ास काम-धंधा रखा है। यह आपकी जि़म्मेदारी है कि आप उसे पूरा करें।
  2. हरेक विश्वासी, चाहे उसका काम-धंधा कुछ भी हो, प्रभु यीशु का पूर्ण-कालिक साक्षी होने के लिए बुलाया गया है।
  3. अपने भावी काम-धंधे के लिए जो भी युवा व्यक्ति परमेश्वर से मार्गदर्शन पाना चाह रहा है, अगर उसे परमेश्वर की तरफ से कोई दूसरा संकेत नहीं मिल रहा है, तो वह उसी काम की तैयारी करे जिसके लिए वह अपने आपको सबसे ज़्यादा उपयुक्त समझ रहा हो।
  4. जब वह काम की तलाश कर रहा हो, तब उस विभिन्न् जगहों में चल रहे प्रभु के काम विभिन्न ज़रूरतों की जानकारी हासिल करनी चाहिए। उसे बहुत प्रार्थना करनी चाहिए और परिपक्व विश्वासियों से सलाह करने और अपने हालातों पर विचार करने के बाद अंततः उसे अपने भीतर पवित्र-आत्मा की साक्षी के अनुसार चलना चाहिए।
  5. किसी व्यक्ति को परमेश्वर की तरफ से एक स्पष्ट बुलाहट प्राप्त हुए बिना पूर्ण-कालिक मसीही सेवकाई नहीं करनी चाहिए।
  6. परमेश्वर की बुलाहट एक गतिशील बात है। वह जब भी हमें पुकारे, हमें उसके साथ काम एक नए परिमण्डल में प्रवेश करने लिए तैयार रहना चाहिए।

अध्याय 6
अंतिम विचार

अब यह बात पाठक के सामने स्पष्ट हो गई होगी कि अचूक मार्गदर्शन पाने का कोई सिद्ध नुस्ख़ा नहीं होता। परमेश्वर की इच्छा जानने के मार्ग में हमें अक्सर उलझन का सामना करना पड़ जाएगा। परमेश्वर यह होने देता है कि हम उसके और ज़्यादा नज़दीक आएं, और ज़्यादा से ज़्यादा उसके मन की बात को जानें और फिर ज़्यादा से ज़्यादा उसका जीवन पाएं।

परमेश्वर अनिश्चितता के समयों को हमारे उद्देश्यों को छानने के लिए भी इस्तेमाल करता है। जब हम परमेश्वर की इच्छा के बारे में अनिश्चित हों, तो हमें अपने आपको जाँचते हुए यह देखना चाहिए कि क्या हमने उसका मार्गदर्शन पाने की पूर्वापेक्षित बातों को पूरा किया है या नहीं (जिनका उल्लेख अध्याय 2 में किया गया है।

हमारे विश्वास को सक्रिय और सशक्त करने के लिए परमेश्वर हमारी उलझन को भी इस्तेमाल करता है। “तुम में से ऐसे कौन हैं जो परमेश्वर का भय मानते हैं और उसके दास (प्रभु यीशु) की बातों का पालन करते हैं? अगर ऐसे लोग अंधेरे में चल रहे हैं, और अगर उनके पास ज्योति की एक किरण भी नहीं है, तो वे प्रभु में भरोसा रखें और परमेश्वर का सहारा लें” (यशा. 50:10 – टी. एल. बी.)। इसलिए, जब हमारा उलझन से सामना हो, तो हमें चकित या निराश होने की कोई ज़रूरत नहीं होती। प्रेरित पौलुस भी अक्सर उलझन में आ जाता था, लेकिन वह कभी हताश होकर हार नहीं मान लेता था (2 कुरि. 4:8)। यह हो सकता है कि हमारे फैसला करने से बस कुछ ही समय पहले परमेश्वर अपनी इच्छा को हम पर प्रकट करे, या फिर हमें एक लम्बे समय तक प्रतीक्षा भी करनी पड़े।

जो भी हो, लेकिन वह हमारे एक स्तर पर पहुँचने के बाद ही हमें अगला क़दम दिखाएगा। वह हमारी एक-एक क़दम पर अगुवाई करता है, क्योंकि वह यह चाहता है कि हम दिन-प्रतिदिन उस पर निर्भर रहें, और रूप देखकर नहीं बल्कि विश्वास से चलें। जब वह हमें सिर्फ एक क़दम ही दिखाता है, तो हम उसका सहारा लेकर चलने के लिए मजबूर हो जाते हैं। इसके अलावा, अगर परमेश्वर हमें भविष्य की सारी बात देगा, तो हो सकता है कि फिर हम उसका पूरी तरह से आज्ञापालन करना न चाहें। इसलिए, वह हमें एक समय में सिर्फ एक क़दम ही दिखाता है और धीरे धीरे हमें उसकी इच्छा को पूरा करने के लिए तैयार करता है। इसलिए, हमारे जीवनों के लिए परमेश्वर की इच्छा जानने के लिए हमें सिर्फ इतना करना होता है कि हम उस अगले क़दम को उठाएं जो उसने हमें दिखाया है। और जब हम ऐसा करते हैं, तब हम परमेश्वर की योजना को धीरे-धीरे अपने सामने खुलते हुए देखते हैं।

एक पुराना चीनी मुहावरा है, “एक हज़ार मील के सफर की शुरूआत सिर्फ एक क़दम उठाने से हो जाती है।” अब्राहम, यह न जानते हुए कि वह अंततः कहाँ जा रहा था, अपने घर/देश छोड़ कर चल पड़ा था। वह सिर्फ इतना जानता था कि परमेश्वर उसकी अगुवाई कर रहा था (इब्रा. 11:8)। उसने हरेक क़दम पर परमेश्वर की आज्ञा का पालन किया, और परमेश्वर ने भी उसे निराश नहीं किया। जो लोग अब्राहम की तरह परमेश्वर के पीछे चलते हैं, उनमें कभी भी निराश होने का भय नहीं होना चाहिए।

अनिश्चितता से छुटकारा

अनेक बार ऐसा होता है कि परमेश्वर की इच्छा के बारे में पूरी तरह निश्चित न होने पर भी हमें आगे क़दम बढ़ाना पड़ता है। यह भी विश्वास से चलने के अनुशासन का एक हिस्सा होता है क्योंकि निश्चितता भी कभी-कभी रूप देखकर चलने के बराबर हो सकती है। हम थक कर हार न जाएं, इसलिए हमें उत्साहित करते रहने के लिए परमेश्वर हमें कभी-कभी स्पष्ट आश्वासन देता है। लेकिन बहुत बार वह हमसे यह अपेक्षा करता है कि हम उसके समर्थन के किसी प्रत्यक्ष प्रमाण के बिना ही आगे बढ़ें। हमारी सर्वश्रेष्ठ जानकारी में पवित्र-आत्मा के मन की बात का यक़ीन हो जाने के बाद, हमें अनिश्चित समय तक इंतज़ार किए बिना आगे बढ़ जाना चाहिए। बाइबल कहती है, “हम अपने मन में योजनाएं बनाएं, लेकिन यह भरोसा रखें कि परमेश्वर हमारा मार्गदर्शन करेगा” (नीति. 16:9 – टी.एल.बी.)। बाद में हम जब ऐसे फैसलों के बारे में पीछे मुड़कर देखते हैं, तो हम यह पाते हैं कि हमारी नज़र के धुंधलेपन के बावजूद, परमेश्वर ने हमें भटकने नहीं दिया। दूसरे शब्दों में, हालांकि उन बातों के पूरा होने में बड़ी अनिश्चितता थी, फिर भी, उनके पूरा होने के बाद बड़ी निश्चितता और आनन्द होगा।

“मेरी नज़र का धुंधलापन,

वही तो मेरी मज़बूती है

क्योंकि जब मैं अपने धुंधलकों में टटोलता हूँ

तो उसका हाथ मुझे छूता, उसकी आवाज़ यह कहती है,

‘तेरे लिए, मेरी मदद यक़ीनी है’”

जे. ऑस्वल्ड सैन्डज़र् ने फ्स्पिरिचुअल लीडरशिप” में कहा है, “अभी तक जो लोग एक अगुवाई की जगह में नहीं पहुँचे हैं, वे यह सोच सकते हैं कि ज़्यादा अनुभव का और परमेश्वर के संग देर तक चलने का यह परिणाम होगा कि उलझन भरे हालातों में ज़्यादा आसानी से परमेश्वर की इच्छा को जाना जा सकेगा। लेकिन अक्सर इसका उलट होता है। परमेश्वर एक अगुवे के साथ एक परिपक्व वयस्क जैसा व्यवहार करेगा, और वह ज़्यादा से ज़्यादा बातों को आत्मिक रूप में परखने की जि़म्मेदारी उस पर डालेगा, और समझ में आने वाले और दिखाई देने वाले जैसे स्पष्ट प्रमाण गुज़रे सालों में उसके मार्गदर्शन के लिए उसे मिलते थे, अब परमेश्वर उनकी संख्या को कम कर देगा।”

चायना इंग्लैण्ड मिशन के संस्थापक हडसन टेलर ने मार्गदर्शन के बारे में एक बार यह कहा कि उसकी युवावस्था में वह साफ तौर पर और शीघ्र ही (आत्मिक) बातों को देख लेता था। “लेकिन”, उसने कहा, “आगे बढ़ते हुए, और जैसे-जैसे परमेश्वर ने मुझे इस्तेमाल किया है, मैंने अक्सर एक धुंध में चल रहे व्यक्ति जैसा महसूस किया है मुझे यह पता नहीं होता कि मुझे क्या करना है” (फिलिस थॉमसन का ‘डी- ई- होस्ते’ में किया गया उद्धरण)। फिर भी, जब भी कोई फैसला लिया जाता था, परमेश्वर हमेशा हडसन टेलर के भरोसे को सम्मानित करता था।

अगर हम अनिश्चतता में बढ़ते हुए परमेश्वर की सिद्ध इच्छा से चूक जाते हैं, तो हम यह भरोसा कर सकते हैं कि वह हमें छुड़ा लेगा। यशायाह 30:21 में यह प्रतिज्ञा की गई है, “जब कभी तुम इधर-उधर भटकने लगोगे, तब अपने पीछे से एक आवाज़ को यह कहता हुआ सुनोगे, ‘मार्ग यही है, इसी पर चल।’” जब हम रास्ते से भटक जाते हैं, तो परमेश्वर हमारे रास्ते को मोड़ देने के लिए हमारे हालात बदल सकता है। एक रुके हुए जहाज़ की तुलना में एक धारा के प्रवाह में चल रहे जहाज़ को ज़्यादा आसानी से मोड़ा जा सकता है; वैसे ही हम भी मोड़े जा सकते हैं।

प्रेरितों के काम 16:6-10 में, पौलुस और सिलास ने आखिया जाना चाहा था, जो हालांकि प्रभु की तरफ से किसी स्पष्ट अगुवाई की वजह से नहीं था लेकिन फिर भी वे उसकी इच्छा पूरी करना चाह रहे थे। उनके मार्ग में बाधा आई - शायद वे हालात परमेश्वर की आज्ञानुसार थे। फिर, उन्होंने बितूनिया जाना चाहा, लेकिन उन्हें भी नहीं जाने दिया गया। लेकिन क्योंकि वे एक सक्रिय रूप में परमेश्वर की इच्छा की खोज कर रहे थे, और निश्चल रहते हुए मार्गदर्शन पाने का इंतज़ार नहीं कर रहे थे, इसलिए परमेश्वर ने उनकी अगुवाई करते हुए उन्हें अंततः अपनी पसन्द की जगह - मैसीडोनिया में पहुँचाया।

प्रतिदिन के जीवन की मामूली बातों में, सवाल यह नहीं होता कि हमें लगातार एक सचेत स्तर पर मार्गदर्शन मिल रहा है या नहीं। यह आत्मा में चलने का मामला है। प्रभु के साथ हमारे सही रिश्ते का नतीजा हमारा सही काम करना होगा। प्रतिदिन की ऐसी बातों में, यह ज़रूरी है हम हर समय परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत रूप में जागरूक रहें। हम उसके प्रति अचेत हो सकते हैं। मार्गदर्शन क्योंकि कोई यान्त्रिक युक्ति नहीं बल्कि एक आत्मिक मामला है, इसलिए इसमें प्रमुख बात प्रभु के साथ हमारा बुनियादी रिश्ता होता है।

पछतावे से छुटकारा

यह हो सकता है कि हमारी पिछली नाकामियों का पछतावा हममें से कुछ लोगों के मनों को सता रहा हो। यह हो सकता है कि हम किसी बात में शायद परमेश्वर की इच्छा से चूक गए थे, और अब उसे सही करना हमारे लिए सम्भव नहीं है। लेकिन पछतावा व्यर्थ है, क्योंकि वह हमारी आत्मिक शक्ति को ख़त्म कर देगा और हमें पूरी तरह से परमेश्वर की सेवा के लिए अयोग्य बना देगा। निरूफलता का परमेश्वर के सम्मुख अंगीकार कर लेना चाहिए, जो हमें क्षमा करने और उससे शुद्ध कर देने में विश्वासयोग्य है (1 यूह. 1:7,9)। उसने हमारे पिछले पापों को याद न रखने की भी प्रतिज्ञा की है (इब्रा. 8:12)। अगर परमेश्वर हमारी बीती बातों का ढिंढोरा नहीं पीटता, तो हमें भी उनके बारे में सोच-सोचकर चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। इसलिए, हमें भी उन नाकामियों की तरफ देखना बंद कर देना चाहिए। उन बड़ी ग़लतियों को सुधार पाना शायद सम्भव न होगा, लेकिन हम प्रभु से यह कह सकते हैं कि वह हमारे बाक़ी के जीवन उसकी महिमा के लिए इस्तेमाल करे।

जब दाऊद ने बतशेबा के साथ पाप किया और उसके पति ऊरिय्याह की हत्या करा दी, तब वह बहुत नीचे गिर गया था। फिर भी, अपने जीवन-भर पछतावा करते रहने की बजाय वह अपने टूटेपन और मन-फिराव में परमेश्वर के पास लौट आया। परमेश्वर की क्षमा ग्रहण करने के बाद, वह दोबारा परमेश्वर की महिमा के लिए अपना जीवन व्यतीत कर सका था। पवित्र-आत्मा ने बाद में वचन में यह दर्ज किया कि ऊरिय्याह के मामले को छोड़ दाऊद ने उसके पूरे जीवन वही किया जो परमेश्वर की दृष्टि में सही था (1 राजा 15:5)। अगर दाऊद पछतावे को उसके मन में घर करने देता, तो वह प्रभु और भी ज़्यादा शोकित करता। जो लोग उनके मनों में पछतावे को एक स्थाई जगह देकर उसके बोझ तले दबे जाते हैं, फिर वे एक नाकामी के बाद दूसरी नाकामी की तरफ बढ़ते जाते हैं। हमें अपनी नाकामियों को पीछे छोड़ते हुए परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए आगे बढ़ जाना चाहिए (देखें फिलि. 3:13,14)। हमारे जो साल बर्बाद हो गए हैं, परमेश्वर उनकी भरपाई कर सकता है (योएल 2:25)।

एक और ऐसी परीक्षा है जिसका हमें सामना करना पड़ता है। हम बीते समय में लिए गए किसी ऐेसे फैसले की चिंता करने लगते हैं जिसके बारे में उस समय तो यक़ीन था कि वह परमेश्वर की इच्छा थी, लेकिन अब हमें उसके बारे में शंका होने लगी है। शायद उस फैसले ने हमें किसी मुश्किल में डाल दिया है। या शायद हमें अब ऐसी हक़ीक़तों का पता चला है जिन्हें हम उस समय नहीं जानते थे। अगर हम उन्हें पहले जानते, तो हमने कुछ और फैसला किया होता। इसमें हमें यह सिद्धान्त याद रखने की ज़रूरत हैः अंधेरे में उस बात पर शक न करें जिसे परमेश्वर आपको ज्योति में दिखाया है। अगर उस समय हमने ईमानदारी से परमेश्वर की इच्छा को उस ज्योति के अनुसार पूरा करना चाहा था जो उस समय हमारे पास थी, तो अब मुड़कर उसे देखने और पछताने की कोई ज़रूरत नहीं है। परमेश्वर कोई ऐसा क्रूर तानाशाह नहीं है जिसे हमें मूर्ख बनाने में बहुत आनन्द होता है। वह एक प्रेमी पिता है और वह हमारे रोटी माँगने पर हमें पत्थर नहीं देगा। अगर हमने ईमानदारी से उसकी इच्छा पूरी करनी चाही थी, तो हम यक़ीन कर सकते हैं कि परमेश्वर ने बाक़ी सब बातों को दूर हटाते हुए हमें सही फैसला लेने दिया था। उस समय हम जिन हक़ीक़तों से अनजान थे, उन्हें हमसे छुपाए रखने में भी परमेश्वर का कुछ उद्देश्य होगा।

त्रेआस में परमेश्वर ने पौलुस और सीलास को मैसीडोनिया जाने के लिए स्पष्ट निर्देश दिए थे, और वे तुरन्त वहाँ चले गए थे। लेकिन उनके वहाँ पहुँचने के कुछ दिनों के अन्दर ही उनके पैरों को बेड़ियों में जकड़ कर उन्हें कारावास में डाल दिया गया था। वे उस समय यह सोच सकते थे कि क्या उन्हें मिला मार्गदर्शन ग़लत तो नहीं था। उनके साथ क्या होने वाला है, अगर यह उन्हें पहले से पता होता तो वह कभी त्रेआस नहीं छोड़ते। लेकिन परमेश्वर ने उन्हें कोई चेतावनी नहीं दी थी। हालांकि वे कारागार में डाल दिए गए थे, फिर भी पौलुस और सीलास ने परमेश्वर में भरोसा रखा। जो परमेश्वर ने उन्हें ज्योति में दिखाया था, उस पर अंधेरे में शक करने से इनकार करने द्वारा, वे उसकी स्तुति करते रहे (प्रेरितों. 16:8-26)। फिर, बाद की घटनाओं से यह स्पष्ट हो गया कि वे वास्तव में परमेश्वर की इच्छा में थे। किसी मुसीबत में घिर जाना, अपने आप में इस बात का संकेत नहीं होता कि हम परमेश्वर की इच्छा में नहीं हैं। अगर हमारा परमेश्वर में भरोसा होगा तो हम घोर अंधकार में बिना पछताए उसकी स्तुति करते रहेंगे।

भय से छुटकारा

मनुष्यों के भय और परिस्थितियों की वजह से हम परमेश्वर की इच्छा जानने से चूक सकते हैं। अनेक विश्वासी जब परमेश्वर का मार्गदर्शन पाने की खोज में होते हैं, तो उनकी सुरक्षा के बारे में उनके सोच-विचार उन्हें निर्देशित कर रहे होते हैं। वे यह महसूस करते हैं कि कुछ जगहें और काम असुरक्षित और ख़तरनाक होते हैं इसलिए वे उन्हें अपने मन में से पूरी तरह निकाल देते हैं। लेकिन इस जगत में ऐसी कोई जगह और काम नहीं है जिसमें बिलकुल कोई ख़तरा न हो। जगत में सबसे सुरक्षित जगह परमेश्वर की सिद्ध इच्छा के केन्द्र में होना है। जब हम परमेश्वर की योजना में से बाहर क़दम रखते हैं, हम सिर्फ तभी ख़तरे में पड़ते हैं। जो व्यक्ति परमेश्वर के मार्गदर्शन की खोज किए बिना ही अपने फैसले करता है, उस पर शैतान हमला कर सकता है। लेकिन फ्जो सर्वोच्च प्रभु की तय की हुई जगह में रहेगा और वहीं काम करेगा वह परमप्रधान की छाया में सुरक्षित रहने पाएगा” (भजन. 91:1 - भावानुवाद)।

हमें भी ग़लतियाँ करने के डर से छुटकारा पाने की ज़रूरत है। सिर्फ ऐसी व्यक्ति ही कभी कोई ग़लती नहीं करता जो कुछ नहीं करता। हम परमेश्वर के विद्यालय में एक छात्र हैं और इसमें कोई शक नहीं कि हम कभी-न-कभी ज़रूर ग़लती करेंगे। लेकिन प्रभु सब ठीक कर देने के लिए हमेशा हमारे पास रहता है। स्वयं प्रभु यीशु के अलावा, ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जिसने बहुत सी ग़लतियाँ किए बिना ही परमेश्वर की सिद्ध इच्छा में चलना सीख लिया हो। सबसे बड़े संतों ने भी परमेश्वर की इच्छा में इसी तरह चलना सीखा है जैसे एक बच्चा चलना सीखता है - बहुत बार गिरने द्वारा। वह बच्चा जो गिरने से डरता है, शायद कभी चलना ही न सीखे! हम ऐसे किसी डर को हमें आगे बढ़ने से न रोकने दें। परमेश्वर की इच्छा में चलना शायद आसान नहीं होता, लेकिन उसके साथ चलना बहुत रोमांचकारी होता है, और उसने यह वादा किया है कि जब हम गिरेंगे तो वह हमें संभाले रहेगा – “एक (भले) मनुष्य के क़दमों को प्रभु दृढ़ करता है... अगर वह गिरता है, तब भी वह पछाड़ा नही जाएगा क्योंकि प्रभु उसे अपने हाथों में सम्भाले रहेगा” (भजन. 37:23,24 – टी.एल.बी.)।

अंत में, यह याद रखें कि मार्गदर्शन का मामला, मूल रूप में, परमेश्वर और आपके बीच में एक व्यक्तिगत मामला है। परमेश्वर ने जिस तरह किसी दूसरे व्यक्ति की अगुवाई की है, यह कोई ज़रूरी नहीं है कि वह आपकी अगुवाई भी उसी तरह करना चाहता है। सभी विश्वासियों के लिए सामान्य सिद्धान्त वही रहते हैं, लेकिन हरेक व्यक्ति के मार्गदर्शन के ख़ास तरीक़ों में फक़र् हो सकता है। अगर आप अपने लिए वैसा ही मार्गदर्शन पाना चाहेंगे जो आपने किसी की साक्षी में सुना है, तो आप उलझन में पड़ जाएंगे। परमेश्वर आपका मार्गदर्शन कैसे करता है, यह आप उस पर छोड़ दें। आपकी दिलचस्पी सिर्फ उसके लिए हर समय उपलब्ध रहने में और वह जो चाहे वह करने में हो। फिर वह यह सुनिश्चित करने में दिलचस्पी लेगा कि आप उसकी इच्छा की जानकारी हो, और यह कि उसे पूरा करने के लिए आपको पर्याप्त बल मिलता रहे।

सारांश

  1. परमेश्वर हमें उलझन में पड़ने की अनुमति देता है कि हम उसे और अच्छी तरह जानें। इस तरह, वह हमारे उद्देश्यों को परख लेता है और हमारे विश्वास को भी मज़बूत करता है।
  2. ज़्यादातर मामलों में, परमेश्वर की इच्छा के बारे में स्पष्ट न होने पर भी हमें उनमें आगे बढ़ते रहना चाहिए, लेकिन उससे पहले, जहाँ तक हो सके, हम यह सुनिश्चित कर लें कि पवित्र-आत्मा के मन की क्या बात है। हम अनिश्चित समय तक इंतज़ार न करते रहें।
  3. हम अपनी पिछली नाकामियों या फ़ैसलों पर न पछताएं।
  4. हम ख़तरों के भय या ग़लती करने के भय को कभी यह अनुमति न दें कि वह हमें निरंतर एक गतिहीन अवस्था में ही बनाए रखे।
  5. हम यह परमेश्वर पर छोड़ दें कि वह हमारा मार्गदर्शन कैसे करता है।