परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करना

द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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अध्याय

अध्याय 1
बुलाये हुए, चुने हुए और विश्वास में परखे हुए

परमेश्वर के द्वारा स्वीकार किया जाना एक बात है; परमेश्वर के द्वारा स्वीकृति प्राप्त करना यह अलग ही बात है।

बचे हुए विश्वासी

प्रकाशितवाक्य की पुस्तक परमेश्वर के मेम्ने के विजयी होने के विषय में बताती है। परन्तु हमें यह बताया गया है कि मेम्ने के पास चेलों की एक सेना है जिनके द्वारा वह युद्ध लड़कर विजय प्राप्त करता है। ये चेले बुलाये हुए, चुने हुए और विश्वास में परखे हुए हैं।

''क्योंकि वह प्रभुओं का प्रभु और राजाओं का राजा है, और जो बुलाए हुए, और चुने हुए, और विश्वासी हैं वे उसके साथ हैं।'' (प्र- वा- 17:14)

बहुतों को बुलाया गया, कुछ को चुना गया, परन्तु कम ही अभी भी विश्वासी हैं। ये वे लोग हैं जिनको प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में जयवंत कह कर बुलाया गया और इनका 10 बार वर्णन किया गया है। ये प्रभु यीशु के ऐसे चेले हैं जिनको न केवल परमेश्वर के द्वारा स्वीकार किया गया परन्तु विभिन्न परिस्थितियों में परखा भी गया और जिन्होंने उसके द्वारा स्वीकृति प्राप्त की है।

जब यीशु पृथ्वी पर था तो बहुतों ने उस पर विश्वास किया, परन्तु उसने उन सब के प्रति स्वयं को समर्पित नहीं किया।

''जब वह यरुशलेम में था, तो बहुतों ने उन चिन्हों को जो वह दिखाता था देखकर उसके नाम पर विश्वास किया। परन्तु यीशु ने अपने आप को उनके भरोसे नहीं छोड़ा, क्योंकि वह सब को जानता था।'' (यूहन्ना 2:23,24)

यीशु जानता था कि जो उस पर विश्वास करते हैं उनमें से बहुतेरे अभी भी अपनी अभिलाषाओं की खोज में हैं और व्यक्तिगत आशीषों के लिए उसके पास आए हैं। उनके पाप क्षमा कर दिये गये थे परन्तु उन्होंने जयवंत होना न चाहा। जयवंत होने के लिए व्यक्ति को अपनी अभिलाषाओं को त्यागना पड़ेगा।

जब गिदोन ने इस्राएल के शत्रुओं से युद्ध करने के लिए सेना को एकत्र किया, तब उसके पास 32,000 पुरुष थे। परन्तु परमेश्वर जानता था कि वे सभी संम्पूर्ण हृदय से उसके साथ नहीं थे। इसलिए परमेश्वर ने छांट कर उनकी संख्या को घटा दी।

डरपोकों को सबसे पहले घर भेजा गया। परन्तु 10,000 फिर भी बाकी रह गये थे। इनको सोते के पास ले जाया गया और परखा गया। उनमें से केवल 300 परखे जाने में सफल हुए और परमेश्वर के द्वारा स्वीकृति को प्राप्त किया। (न्यायियों 7:1-8)

अपनी प्यास को बुझाने के लिए जिस प्रकार उन लोगों ने सोते से पानी पिया वह यह जाँचने का परमेश्वर का तरीका था कि कौन गिदोन की सेना में चुने जाने के योग्य है। थोड़े ही इस बात को महसूस कर पाये कि उनकी परीक्षा हो रही है। उनमें से 9700 जिन्होंने घुटने टेक कर अपनी प्यास को बुझाया शत्रु के विषय में असावधान हो गये। उनमें से केवल 300 लोग ही अपने पैरों पर खड़े रह कर सावधानीपूवर्क अपने हाथों से पीएँ।

प्रतिदिन के जीवन में परखा जाना

परमेश्वर हमें जीवन की साधारण बातों में परखता है - जैसे धन के प्रति हमारा व्यवहार, वैभव में, संसार के सम्मान में और आराम आदि विषयों में। गिदोन की सेना के समान बहुत बार हम भी यह समझ नहीं पाते कि परमेश्वर हमें परख रहा है।

यीशु ने हमें ससार की चिन्ताओं के बोझ तले दबने के प्रति सावधान किया है। उसने कहा,

''इसलिए सावधान रहो, ऐसा न हो कि तुम्हारे मन खुमार, और मतवालेपन, और इस जीवन की चिन्ताओं से सुस्त हो जाँए, और वह दिन तुम पर फन्दे के समान अचानक आ पड़े।'' (लूका 21:34)

पौलुस कुरिन्थियों की कलीसिया को यह कहते हुए प्रचार करता है,

''हे भाईयो, मैं यह कहता हूँ कि समय कम किया गया है, इसलिए चाहिए कि जिन के पत्नी हों, वे ऐसे हों, मानो उन के पत्नी नहीं; और रोनेवाले ऐसे हों, मानो रोते नहीं; और आनन्द करनेवाले ऐसे हों, मानो आनन्द नहीं करते; और मोल लेनेवाले ऐसे हों, मानो उनके पास कुछ है ही नहीं। और इस संसार के साथ व्यवहार करनेवाले ऐसे हों, कि संसार ही के न हों लें; क्योंकि इस संसार की रीति और व्यवहार बदलते जाते हैं। मैं यह बात तुम्हारे ही लाभ के लिये कहता हूँ कि तुम एक चित्त होकर प्रभु की सेवा में लगे रहो।'' (1 कुरिन्थियों 7:29-35)

हमें इस संसार की किसी भी वस्तु को परमेश्वर के प्रति हमारे समर्पण को भंग करने नहीं देना चाहिए। संसार की अच्छी दिखने वाली वस्तुएँ पापपूर्ण वस्तुओं के मुकाबले ज्यादा फंसाने वाली होती हैं - क्योंकि अच्छी वस्तुएँ बहुत ही भली और नुकसान न पहुँचाने वाली जैसे नज़र आती हैं!!

हम अपनी प्यास को बुझा सकते हैं - परन्तु हमें अपने हाथों को चुल्लु बना कर कम से कम आवश्यकता के लिए पीना होगा। हमारा ध्यान आत्मिक बातों की ओर हो और न कि संसार की बातों पर। यदि हमें यीशु का चेला बनना है तो हमें सब कुछ त्यागना है।

रबरबैंड जिस प्रकार से ख्चािंता है, हमारा ध्यान भी संसार की हमारी आवश्यक कार्यों पर लग जाता है। परन्तु एक बार जब वह कार्य समाप्त हो जाता है तो जिस प्रकार रबरबैंड के छोड़ने पर वह सिकुड़कर अपनी वास्तविक स्थिति में आ जाता है, हमारा ध्यान भी सिकुड़कर परमेश्वर और अनन्तता की बातों पर वापस आ जाना चाहिए। यही वह बात है जिसका अर्थ है ''पृथ्वी पर की नहीं परन्तु स्वर्गीय वस्तुओं पर ध्यान लगाओ।'' (कुलुस्सियों 3:2)

बहुत से विश्वासियों के साथ रबरबैंड की सी स्थिति विपरीत प्रकार से काम करती है। उनका ध्यान खिंचकर अनन्तता की बातों के विषय में सोचता है और जब उनको छोड़ा जाता है तब वे वापस संसारिकता से भरे अपने समान्य तरीके पर आ जाते हैं!

परमेश्वर द्वारा स्वी—त लोग

पौलुस तीमुथियुस को संबोधित करते हुए कहता है,

''जब कोई योद्धा लड़ाई पर जाता है, तो इसलिए कि अपने भरती करनेवाले को प्रसन्न करे, अपने आप को संसार के कामों में नहीं फँसाता।'' (2 तीमुथियुस 2:4)।

पौलुस यहाँ पर तीमुथियुस को यह नहीं बता रहा कि किस प्रकार बचना है परन्तु यह कि कैसे वह मसीह का प्रभावशाली सिपाही हो सकता है।

''अपने आप को परमेश्वर का ग्रहणयोग्य ठहराने का प्रयत्न कर'' (2 तीमुथियुस 2:15)। तीमुथियुस पहले से ही परमेश्वर के द्वारा बुलाया जा चुका था। अब उसको परमेश्वर की स्वीकृति को प्राप्त करना था।

पौलुस स्वयं भी मसीही सेवकाई में मसीह के द्वारा चुना गया था क्योंकि उसने परमेश्वर की स्वीकृति को प्राप्त किया था।

वह कहता है,

''मैं अपने प्रभु यीशु मसीह का जिसने मुझे सामर्थ्य दी है, धन्यवाद करता हूँ कि उसने मुझे विश्वासयोग्य समझकर अपनी सेवा के लिए ठहराया।'' (1तीमुथियुस 1:12)।

पौलुस बुलाये हुए, चुने हुए और विश्वासयोग्य लोगों में से था -और वह तीमुथियुस के लिए भी यही आशा रखता था कि वह भी उन लोगों की सूची में शामिल हो।

परन्तु पौलुस को भी स्वीकार करने से पूर्व परखा गया था। हम भी परखे जा रहे हैं।

परमेश्वर किसी को भी परखे बिना स्वयं को उसके लिए समर्पित नहीं करता।

पवित्र शास्त्र में बहुत से लोगों के परखे जाने का विवरण दिया गया है - जिनमें से कुछ को स्वीकृति प्राप्त हुई और कुछ को त्याग दिया गया - यह विवरण हमारे लिए बड़ा महत्व रखता है, क्योंकि वे हमारे मार्गदर्शन के लिए लिखे गये हैं।

अध्याय 2
पिता को प्रसन्न करनेवाला

नये नियम में हम एक ऐसे व्यक्ति के विषय में पढ़ते हैं जिससे पिता बहुत प्रसन्न था, और एक ऐसे समूह के विषय में भी पढ़ते हैं जिससे परमेश्वर बहुत अप्रसन्न था। इस असमान विषयों का अध्ययन बहुत ही रोचक है।

परमेश्वर उनसे बहुत प्रसन्न नहीं था

ऐसा लिखा है कि, जो 600,000 इस्राएली अपने अविश्वास के कारण मरुभूमी में नष्ट हो गये थे, ''परमेश्वर उनमें से बहुतों से प्रसन्न न हुआ'' (1 कुरिन्थियों 10:5)।

उन इस्राएलियों को मिस्र में से मेम्ने के लहू के द्वारा छुड़ाया गया था (मसीह के द्वारा हमारे छुटकारे के चिन्हात्मक रुप में), उनका लाल सागर और बादल में बपतिस्मा हुआ (जल और पवित्र आत्मा के चिन्हात्मक बपतिस्में के रुप में) (1 कुरिन्थियों 10:2)। परन्तु परमेश्वर उन से खुश नहीं था।

परमेश्वर उन के लिए बहुत भला था, इसलिए उसने उनकी सभी शारीरिक और सांसारिक आवश्यकताओं को बड़े ही चमत्कारिक रुप से पूरा किया। मूसा ने उन्हें मरुभूमी में चालीस वर्षों के भटकाव के अन्तिम समय पर कहा ''इन चालीस वर्षों में तेरे वस्त्र पुराने न हुए, और तेरे तन से भी नहीं गिरे, और न तेरे पाँव फूले'' (व्यवस्थाविवरण 8:4)।

परमेश्वर ने उनके सभी रोगों को भी चंगा किया। बाईबल इस प्रकार बताती है ''उनमें कोई रोगी और निर्बल न था'' (भ- सं- 105:37)।

परमेश्वर ने उनके लिए अनेक चमत्कारों को किया। सही में, संसार के इतिहास में किसी भी लोगों के समूह ने इतने चमत्कारों को नहीं देखा जितने इन अविश्वासी इस्राएलियों ने, जिनसे ''परमेश्वर चालीस वर्षों तक क्रोधित रहा'' (इब्रनियों 3:17)।

यह हमें सिखाता है कि परमेश्वर बनावटी विश्वासी की प्रार्थनाओं का भी जवाब देता है - और इसलिए वह उनकी संसारिक आवश्यकताओं को उन्हें उपलब्ध करता है, यहां तक कि अगर आवश्यकता पड़े तो चमत्कारिक रुप में भी। यह तथ्य कि परमेश्वर हमारे लिए चमत्कारों को करता है यह हमारी धार्मिकता का सबूत नहीं है। यह केवल इस बात को सिद्ध करता है कि परमेश्वर भला है जो अपने सूर्य को धर्मी और अधर्मी दोनों पर उदय करता है!

यीशु ने भी हमें सावधान किया है कि न्याय के अन्तिम दिनों में, बहुतेरे जिन्होंने उसके नाम में चमत्कारों को किया है अस्वीकार और अयोग्य कर दिये जायेंगे क्योंकि उन्होंने पाप में जीवन यापन किया था। उसने कहा,

''उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, 'हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्द्ववाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए?' तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, 'मैने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे 
पास से चले जाओ'।'' (मत्ती 7:22,23)।

अवश्य ही वह उन मसीही प्रचारकों और चंगा करनेवालों की ओर संकेत कर रहा था जिन्होंने उसके नाम में सही में आश्चर्यकर्मों को किया था। यीशु के शब्दों से, यह बात स्पष्ट हो गई कि बहुत से लोग (न कुछ कम और न सभी, परन्तु बहुत से) जो इन आश्चर्यकर्म की सेवकाई को करते हैं अपने व्यक्तिगत जीवन और अपने विचारों में और व्यवहार में पाप मुक्त नहीं हैं। यह यीशु के न्याय के आसन के सामने स्पष्ट हो जायेगा।

यह हमें बहुत स्पष्ट रुप से सिखाता है कि चमत्कारों को करना ही, अपने आप में, परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने का संकेत नहीं है। क्या हम इस बात को पूर्ण रुप से समझ गये हैं यदि नहीं तो हम धोखा खाएंगे।

परमेश्वर उससे बहुत प्रसन्न था

पुराने नियम में उन इस्राएलियों के विपरीत जिनसे परमेश्वर बहुत प्रसन्न नहीं था, नये नियम में हम यीशु के बारे में पढ़ते हैं जिससे पिता बहुत प्रसन्न था।

जब यीशु तीस बरस का हुआ पिता ने स्वर्ग से उसके लिए इन शब्दों को कहा, ''यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ '' (मत्ती 3:17)। और यह वह समय था जब तक यीशु ने न ही कोई आश्चर्यकर्म न कोई प्रचार किया था!

तब उसे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त होने का क्या रहस्य था? यह वास्तव में उसकी सेवकाई के कारण नहीं था क्योंकि तब तक उसने अपनी लोक सेवा आरंभ ही नहीं कि थी। यह उसके उस जीवन के कारण था जो उसने तीस वर्षों तक जीया था।

हम परमेश्वर के द्वारा अपनी सेवकाई की सफलता के आधार पर स्वीकृत नहीं किये जाते, परन्तु उन परीक्षाओं में विश्वासयोग्यता के आधार पर स्वीकृत किये जाते हैं जिनका सामना हम अपने प्रतिदिन के जीवन में करते हैं।

केवल दो बातें हमें यीशु के छिपे हुए तीस वर्षों के विषय में बताई गई है (मन्दिर की घटना से अलग) वे ये हैं - ''वह सब बातों में हमारे समान परखा तो गया, तौभी निष्पाप निकला।'' (इब्रानियों 4:15), और - ''क्योंकि मसीह ने अपने आप को प्रसन्न नहीं किया'' (रोमियों 15:3)

वह प्रत्येक क्षण परीक्षा में पड़ने से बचता रहा और कभी भी किसी रुप में अपनी इच्छा को पूरा करने का प्रयास नहीं किया। यही वह बात है जो परमेश्वर को प्रसन्न करती है।

हमारी बाह्‌î सफलता संसारिक लोगों और बनावटी विश्वासियों को प्रभावित कर सकती है परन्तु परमेश्वर केवल हमारे चरित्र से प्रभावित होता है। केवल हमारा चरित्र ही परमेश्वर की स्वीकृति को प्राप्त करने में सहायक हो सकता है। और इसलिए यदि हम अपने विषय में परमेश्वर की राय जानना चाहते हैं, तो हमें जानबूझ कर अपने दिमाग से उन सफलताओं को निकालना होगा जो हमने अपनी सेवकाई में पूरी की हैं। अपने जीवन और विचारों में पाप और अपने आप पर केन्द्रित रहने के स्वार्थी व्यवहार का मूल्यांकन करना होगा। और केवल यही हमारी आत्मिक परिस्थिति को मापने का साधन है।

इसलिए, संसार भर यात्रा करने वाले चंगाईकर्त्ता/प्रचारक और वह व्यस्त माँ जो अपने आप को घर में सीमित कर बाहर निकलने के योग्य नहीं हो पाती, दोनों के पास समान अवसर होते हैं परमेश्वर की स्वीकृति को प्राप्त करने के।

इस प्रकार हम मसीह के न्यायासन के सामने पाएंगे कि बहुतेरे जो यहाँ पर मसीही संसार में प्रथम हैं वहाँ पर अन्तिम होंगे और बहुतेरे जिनको यहाँ मसीही संसार में अन्तिम समझा जाता है (क्योंकि उनके पास अच्छी पहचान वाली सेवकाई नहीं है) वहाँ पर प्रथम होंगे!

घर और कार्य में विश्वासयोग्यता

सभी वस्तुओं में मसीह हमारा उदाहरण है। पिता ने यीशु के संसारिक जीवन के लिए यह व्यवस्था की थी कि वह अपने जीवन के तीस वर्ष मूल रुप से दो स्थानों पर व्यतीत करे - उसका घर और उसकी कार्यशाला (बढ़ई की दुकान)। यह इन दोनों स्थानों पर यीशु की विश्वासयोग्यता थी जो आगे चल कर पिता की स्वीकृति को लाई। यह हमारे लिए बड़े ही प्रोत्साहन का कारण है, इसलिए कि हम भी अपने आप को हमेशा इन दो स्थानों पर पाते हैं - हमारा घर और हमारा कार्यस्थल। और मूलरुप से इन दो स्थानों पर ही परमेश्वर हमें परखता है।

यीशु का घर एक गरीब घर था। यूसुफ और मरियम इतने गरीब थे कि वे होमबलि के लिए मेम्ना नहीं चढ़ा सकते थे। व्यवस्था इस प्रकार की आज्ञा देती थी कि ''यदि उसके पास भेड़ या बकरी देने की पूँजी न हो, तो दो पंडुकी या कबूतरी के दो बच्चे दे'' (लैव्य- 12:8)। और युसुफ और मरियम ने ''प्रभु के व्यवस्था के वचन के अनुसार : 'पंडुकों का एक जोड़ा, या कबूतर के दो बच्चे ' (मत्ती 2:24) ला कर चढ़ाये।

यीशु के चार छोटे भाई और दो बहने थीं जो उसी घर में रहते थे। मरकुस हमें यह बताता है कि उस नगर के लोग इस विषय में बोलते हैं, ''क्या यह वही बढ़ई नहीं, जो मरियम का पुत्र, और याकूब योसेस, यहूदा, और शमौन का भाई है? क्या उसकी बहने यहाँ हमारे बीच में नहीं रहतीं?। (मरकुस 6:3)।

कोई भी उस दबाव और संघर्ष की कल्पना कर सकता है जिसका सामना यीशु ने अपने बढ़ने के दौरान उस घर में किया।

और साथ ही उसके छोटे भाई अविश्वासी थे। ऐसा लिखा है कि, ''क्योंकि उसके भाई भी उस पर विश्वास नहीं करते थे।'' (यूहन्ना 7:5)।

उन्होंने अवश्य ही कई रुपों में उसे ताना मारा होगा। उसके पास कोई भी व्यक्तिगत कमरा नहीं था जहाँ पर वह मनन में समय व्यतीत कर सके जब घर के दूसरे सदस्यों से परीक्षा का सामना करना पड़ता। वहाँ पर अवश्य ही झगड़ा, गड़बड़ियाँ, डांटना और स्वर्थीपन (जैसा कि सभी घरों में होता है) हुआ होगा। इन सब परिस्थितियों के मध्य, यीशु की हमारे समान परीक्षा हुई; और उसने एक भी बार पाप नहीं किया, न कर्म में, न वचन में और न विचारों में, न अपने व्यवहार या अभिप्राय में या किसी भी अन्य रुप में।

यदि यीशु किसी और अन्य रुप में आता, ऐसी देह में जो परखे जाने के योग्य न होती, हम से अलग होता, तब इस प्रकार की परिस्थितियों में उसके शुद्ध जीवन जीने का कोई भी महत्व नहीं होता। परन्तु वह सभी बातों में हमारे समान बनाया गया।

परमेश्वर का वचन इस प्रकार कहता है,

''इस कारण उसको चहिए था, कि सब बातों में अपने भाईयों के समान बने; जिससे वह उन बातों में जो परमेश्वर से सम्बन्ध रखती हैं, एक दयालु और विश्वासयोग्य महायाजक बने'' (इब्रानियों 2:17)।

वह हर एक परीक्षा के बोझ से हो कर गुजरा जिनका सामना हम अपने जीवन में करते हैं। यही वह बात है जो हमें उत्साहित करती है जब हमें परख जाता है, कि हम भी जयवंत हो सकते हैं। मसीह हमारे समान देह में आया और ठीक उसी प्रकार परखा गया जिस प्रकार हम परखे जाते हैं। इस महिमावान सत्य को शैतान हम से छिपाने की कोशिश करता है और यही वह आशा है जिसको वह मिटाने की खोज में रहता है।

नासरत में बढ़ई के रुप में, यीशु ने भी अवश्य ही उन सभी परीक्षाओं का सामना किया होगा जिनका सामना वे लोग करते है जो किसी भी प्रकार के व्यापारिक कार्य में तल्लीन होते हैं। परन्तु उसने कभी भी उन लोगों को धोखा नहीं दिया जिन्हें उसने कुछ भी सामान बेचा। उसने किसी भी समान के लिए अधिक मूल्य नहीं लिया होगा, और धार्मिकता के किसी भी क्षेत्र पर उसने समझौता नहीं किया होगा, चाहे इसके लिए उसे कोई भी कीमत क्यों न चुकाना पड़ा होगा। वह नासरत में दूसरे बढ़ईयों से किसी भी प्रकार की प्रतियोगिता में नहीं था। वह अपनी जीविका के लिए कार्य करता था। इस प्रकार खरीदने और बेचने में और धन के व्यवहार में (एक बढ़ई के रुप में), यीशु ने सभी परीक्षाओं को सामना किया जिनका सामना हम धन के क्षेत्र में करते हैं, और इन सब में वह जयवंत हुआ।

यीशु बहुत से वर्षो तक उसका पालन-पोषण करने वाले अपूर्ण माता-पिता के प्रति समर्पित हो कर रहा। यह बात ने अवश्य ही अनेक रुपों में भीतरी परीक्षाओं को प्रकट किया होगा (व्यवहार के क्षेत्र में); और फिर भी उसने पाप नहीं किया। यूसुफ और मरियम अभी भी पुराने नियम की वाचा के बंधन में थे, और वास्तविकता में उन्होंने पाप पर विजय नहीं पाया होगा। वे अवश्य ही आपस में वाद-विवाद और ऊँची आवाज में बातचीत करते होंगे, जिस प्रकार अन्य विवाहित जोड़े करते हैं, जिन्होंने जय को प्राप्त नहीं किया। दूसरी ओर यीशु पूर्ण जयवंत होकर जीवन जी रहा था। तौभी उसने उनका तिरस्कार नहीं किया। यदि वह चाहता तो पाप कर सकता था। उनसे कहीं अधिक पवित्र होने पर भी वह उनका सम्मान करता था। यहाँ पर हम उसकी विनम्रता की सुन्दरता को देखते हैं।

अत: हम देखते हैं, कि नासरत में उन तीस घटनारहित वर्षों को जीने के दौरान, यीशु सभी समयों में परीक्षा के संघर्ष के मध्य रहा - ऐसा संघर्ष जो प्रत्येक बीतते वर्ष के साथ बढ़ता ही जाता था - पिता हमारे छुटकारे के कप्तान को मनुष्य के लिए संभव्य परीक्षा की सम्पूर्ण श्रेणी से हो कर ले जाना चाहता था इससे पहले कि वह हमारा उद्धारकर्त्ता और महायाजक बने।

परमेश्वर का वचन कहता है,

''क्योंकि जिसके लिए सब कुछ है और जिसके द्वारा सब कुछ है, उसे यही अच्छा लगा कि जब वह बहुत से पुत्रों को महिमा में पहुँचाए, तो उनके उद्धार के कर्त्ता को दु:ख उठाने के द्वारा सिद्ध करे।''(इब्रानियों 2:10)।

पर अभी भी कुछ परीक्षाएँ बाकी थीं (जैसा कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धी आदि) जिनको यीशु को अपने अन्तिम साढ़े तीन सालों के पृथ्वी के जीवन में सामना करना था। परन्तु सामान्य परीक्षाएँ जिनका सामना हम सभी अपने घरों और कार्यस्थलों पर करते हैं, उसने उनका सामना अपने आरंभिक तीस वर्षों में किया और जयवंत होकर निकला। और पिता ने यीशु को अपनी स्वीकृति का प्रमाण पत्र उसके बपतिस्मे के समय पर दिया।

यदि हमारी आँखें उस आधार को देखने के लिए खुल जाये जिस पर परमेश्वर अपनी स्वीकृति को देता है, तो यह हमारे जीवनों को पूर्ण रुप से परिवर्तित कर देगा। फिर हम में से कोई भी विश्वव्यापी सेवकाई का लालच नहीं करेगा परन्तु प्रतिदिन के जीवन में आने वाली परीक्षाओं में विश्वासयोग्य रहने का प्रयास करेगा। हम शारीरिक तौर पर किये जाने वाले चमत्कारों की सराहना करना छोड़ कर परिवर्तित जीवन की प्रशंसा करेंगे। तब हमारा मन अपने अधिक महत्वपूर्ण क्षेत्रों को सही करने के लिए ताजा हो जाएगा।

यह जानना प्रोत्साहन की बात है कि परमेश्वर का सबसे बड़ा पुरस्कार और सर्वोच्च प्रशंसा उन लोगों के लिए रहती है जो परीक्षाओं का सामना वैसे ही करते है जिस प्रकार यीशु ने किया। वह ऐसा है,

'' इससे बढ़कर कि मैं पाप करुँ या किसी भी क्षेत्र में पिता के प्रति अनाज्ञाकारी होऊँ मैं मरना पसंद करुँगा ।''

फिलिप्पियों 2:5-8 के उपदेश का यही अर्थ है, जो इस प्रकार कहता है,

''जैसा मसीह यीशु का स्वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी स्वभाव हो; और यहाँ तक आज्ञाकारी रहा कि मृत्यु, हाँ, क्रूस की मृत्यु भी सह ली।''

हमारे वरदानों या सेवकाई का, और हमारे लिंग या आयु का ध्यान किये बिना जयवंत होकर बुलाये, चुने, और विश्वासयोग्य लोगों के साथ होने का हम सभी के पास समान मौका है।

अध्याय 3
आदम और हव्वा का परखा जाना

परमेश्वर ने जब आदम और हव्वा की रचना की तब उसके दिमाग में उनके लिए बहुत योजनाएँ थी। परन्तु यह योजनाएँ उनके परखे जाए बिना पूरी नहीं हो सकती थीं। इसलिए उसने अदन में एक मधुर स्वाद वाला पेड़ लगा दिया जिसको भले और बुरे ज्ञान का वृक्ष कहते थे। और उसने आदम और हव्वा को उसका फल खाने से मना कर दिया।

अदन में आदम और हव्वा का असफल होना मुख्यत: विश्वास का असफल होना था। मनुष्य के व्यक्तित्व के लिए परमेश्वर के सिद्ध ज्ञान, प्रेम और सामर्थ पर पूर्णत: निर्भर हो जाना ही विश्वास है। हव्वा परमेश्वर पर इस प्रकार के विश्वास को रखने में असफल हो गई और परमेश्वर की आज्ञा को तोड़ने के द्वारा शैतान के प्रलोभन में फंस गई।

परमेश्वर की बुद्धि पर भरोसा रखना

शैतान ने हव्वा को सुझाया कि उस पेड़ का फल न खाने देने की आज्ञा देने के कारण परमेश्वर के ज्ञान में दोष है।

परमेश्वर ने आदम को ऐसा कोई भी कारण नहीं सुझाया कि क्यों पेड़ का फल खाना मना है। विश्वास को परमेश्वर का आज्ञाकारी होने के लिए किसी कारण की आवश्यकता नहीं है। यह हमारी बुद्धि है जो पहले कारण खोजती है। परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता सदैव विश्वास की आज्ञाकारिता होनी चाहिए, न की कारण की आज्ञाकारिता।

पौलुस कहता है कि उसको बुलाया गया ''कि उसके नाम के कारण सब जातियों के लोग विश्वास करके उसकी मानें।'' (रोमियों 1:5)। वह यह भी कहता है, ''यीशु मसीह का प्रचार सभी जातियों को सुनाया गया है, कि वे विश्वास से आज्ञा मानने वाले हो जाएँ।'' (रोमियों 16:25-26)

हमारी बुद्धि विश्वास की दुश्मन है, जैसा की नीतिवचन 3:5 में स्पष्ट हो जाता है:

 ''तू अपनी समझ का सहारा न लेना, वरन्‌ सम्पूर्ण मन से (न कि ''दिमाग'' से) यहोवा पर भरोसा रखना।''

परमेश्वर का ज्ञान चतुर और ज्ञानियों से छिपा रहता है और आत्मा के द्वारा उन को प्रकट किया जाता है जो बच्चे के समान उस पर भरोसा रखते हैं। यीशु ने कहा,

''हे पिता, स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु, मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ कि तू ने इन सब बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा रखा, और बालकों पर प्रगट किया है।''
(मत्ती 11:25)

ज्ञान एक अच्छा सेवक है परन्तु बुरा स्वामी है; और इसलिए मनुष्य के आत्मा का सेवक होना ही परमेश्वर की इसके लिए नियुक्त जगह है। मनुष्य में आत्मा का सेवक होने के लिए है - आत्मा भी स्वयं में पवित्र आत्मा के प्रति अधीन है।

परमेश्वर ने आदम को कोई भी ऐसा कारण नहीं दिया कि क्यों वह उस पेड़ का फल नहीं खा सकता है, क्योंकि वह परमेश्वर पर आदम के विश्वास को बढ़ाना चाहता था। और यही वह पहला स्थान है जहाँ परमेश्वर हमें भी परखता है। क्या तब भी हम उसकी आज्ञा मानते हैं जब हम यह नहीं जान पाते कि क्यों वह हमें कुछ करने के लिए बुलाता है? क्या होता है जब परमेश्वर हमें कुछ करने के लिए बुलाता है और हम उसे अनावश्यक समझते हैं?

जब यीशु ने पतरस को नाव से बाहर आने और पानी पर चलने के लिए कहा, तब वह आज्ञा पतरस की समझ के विपरीत थी। परन्तु यदि उसने अपनी समझ का सहारा लिया होता तो, उसने कभी उस चमत्कार का अनुभव नहीं किया होता।

कोई भी व्यक्ती पवित्रशास्त्र में से ऐसे बहुत से उदाहरणों का वर्णन कर सकता है। और बहुत से मसीहों की निर्बलता का यही कारण है और इसकारण बहुत से विश्वासी अपने जीवनों में परमेश्वर के चमत्कारी कार्यों को कभी अनुभव नहीं कर पाते। क्योंकि वे अपने समझ के द्वारा जीवन जीते हैं विश्वास से नहीं।

परमेश्वर के प्रेम में भरोसा

परमेश्वर के प्रेम में सम्पूर्ण भरोसा करना भी विश्वास है। शैतान ने हव्वा को सुझाव दिया कि परमेश्वर उन्हें पर्याप्त प्रेम नहीं करता और ऐसा इसलिए था क्योंकि उसने इस सुन्दर फल को उनकी पहुँच से दूर रखा।

यदि हव्वा विश्वास के द्वारा जीवनयापन कर रही होती न कि समझ के द्वारा, तो वह यह जवाब देती,

''हाँ शैतान, मैं नहीं समझती क्यों परमेश्वर ने हमें उस पेड़ के फल को खाने से मना किया। परन्तु एक बात के विषय में मैं निश्चित हूँ- वह कि परमेश्वर हमें बहुत प्यार करता है; और इसलिए मुझे पक्का यक़ीन है कि वह कोई भी भली वस्तु हमें देने से इन्कार नही करता। इसलिए, यदि उसने इस फल को खाने से मना किया है तो अवश्य ही इसका कोई उचित कारण होगा, जो हमारे भले के लिए होगा।''

विश्वास का यही जवाब होता। परन्तु इसके विपरीत वह शैतान के झूठ में फंस गई।

हमारे लिए परमेश्वर के सिद्ध प्रेम में विश्वास की ढाल ही केवल ''दुष्ट के सब जलते हुए तीरों को बुझा'' (इफिसियों 6:16) सकती है।

सभी प्रकार का निरोगी और उदासीनता समझ के द्वारा जीवनयापन करने के कारण है विश्वास के द्वारा नहीं। सभी प्रकार की चिन्ता और डर की जड़ें भी इसी कारण हैं। परमेश्वर हमें उसके प्रेम पर संदेह करने की परीक्षा में परखता है, जब वह हमारे पास से अपनी प्रगट उपस्थिति की 'भावनाओं' को दूर कर देता है - जिससे हम विश्वास में मजबूत बने और तब परिपक्वता के उस बिन्दु पर पहुँच जाये जहाँ पर वह हमारे द्वारा अपने उद्देश्य को पूरा कर सके।

परमेश्वर ने भले और बुरे के ज्ञान के पेड़ को लुभावना बनाया क्योंकि केवल वह ही था जिसके द्वारा आदम और हव्वा को परखा जा सकता था। क्या वे परमेश्वर के पक्ष में कुछ बहुत आकर्षक वस्तु का इंकार कर सकेंगे? या वे परमेश्वर का इंकार कर उस वस्तु को चुन लेंगे जो उन्हें आनन्द दे?

यही वह चुनाव है जिसका हम भी अपनी परीक्षा के क्षणों में सामना करते हैं। और इस कारण से परमेश्वर ने प्रलोभन को इतना आकर्षक होने के अनुमति दी है। जब हम कुछ मना की हुई वस्तु को जो सच में आकर्षक हो, और जिसके लिए हम जबरदस्त ख्चाािंव को महसूस करते हों और हम यह जानते हों कि वह हमें आनन्द दे सकती है, का इंकार कर देते हैं तब ही हम यह सिद्ध करते हैं कि हम सम्पूर्ण हृदय से परमेश्वर से प्रेम करते हैं।

जब हम यह भरोसा करते हैं कि जो परमेश्वर ने मना किया है वह उसने अपने सिद्ध प्रेम में हमारे भले के लिए किया है, तब हम परमेश्वर के सिद्ध प्रेम में विश्वास करतें हैं। इसलिए पाप में पड़ने की और परमेश्वर के आज्ञा को न मानने की परीक्षा हमारे विश्वास की परख बन जाती है। विश्वास के द्वारा जीवन बिताना यह भरोसा रखना है कि परमेश्वर की प्रत्येक आज्ञा सिद्ध प्रेम भरे हृदय से निकल कर आयी है, और जो हमारे लिए सर्वोत्म की कामना करती है।

जब परमेश्वर ने इस्राएलियों को दस आज्ञाएँ दी, मूसा ने उन्हें कहा,

''परमेश्वर इस लिए आया कि तुम्हारी परीक्षा करे।'' 
(निर्गमन 20:20)।व्यवस्थाविवरण में इस प्रकार कहा गया है,
''उसके दाहिने हाथ से उसके लिए ज्वालामय विधियाँ निकलीं। वह निश्चय देश - देश के लोगों से प्रेम करता है।''

क्या वे इस बात का विश्वास कर पाए कि यह प्रज्वलित विधियाँ उनके लिए परमेश्वर के प्रेम का प्रमाण हैं? वही परीक्षा थी।

जिस बात पर हव्वा परमेश्वर पर विश्वास करने में असफल हो गई, इस्राएली भी असफल हो गये और उन्होंने भी आज्ञाओं को तोड़ डाला।

परन्तु यहाँ पर यीशु सफल हुआ। वह विश्वास के द्वारा जीवित रहा। प्रत्येक परीक्षा जो मरुभूमि में “ाैतान के द्वारा उसके सामने लाई गई एक साधारण से जवाब ''ऐसा लिखा है'' के द्वारा इंकार कर दी गई। यीशु परमेश्वर के प्रत्येक वचन के प्रति आज्ञाकारी रहा।

परमेश्वर का वचन मनुष्य के लिए सिद्ध प्रेम के तहत दिया गया है और यीशु ने विश्वास में होकर उनका पालन किया। इसलिए वह हमारे लिए एक उदाहरण बन गया। यदि हमें परमेश्वर के लोगों की प्रभावशाली रुप से सेवा करनी है, तो यह आवश्यक है कि हम विश्वास के द्वारा जीयें - और अपने विश्वास का प्रगटीकरण परमेश्वर की आज्ञाओं के प्रति सम्पूर्ण आज्ञाकारीता के द्वारा करें। केवल इसी के द्वारा हम दूसरों के लिए उदाहरण बन सकते हैं।

परमेश्वर की सामर्थ में भरोसा

विश्वास परमेश्वर की सामर्थ में पूर्ण भरोसा भी है। यदि हव्वा परीक्षा के ख्चाािंव का विरोध कर पाने के योग्य होती, तो वह परमेश्वर को सहायता के लिए पुकार सकती थी; और परमेश्वर उनकी सुनता। किसी भी परीक्षा से बचने के लिए परमेश्वर की सामर्थ काफी है।

अपने शारीरिक दिनों में यीशु ने इसी सामर्थ के लिए आँसू बहाकर माँग की और यह उसे प्राप्त हुई। यही कारण था कि उसने कभी भी पाप नहीं किया।

यीशु के बारे में हमें बताया गया है कि,

''यीशु ने अपनी देह में रहने के दिनों में ऊँचें शब्द से पुकार - पुकारकर और आँसू बहा-बहाकर उससे जो उसको मृत्यु से बचा सकता था, प्रार्थनाएँ और विनती की, और भक्ति के कारण उसकी सुनी गई।''
हमें यह भी बताया गया,
''पुत्र होने पर भी उसने दुख: उठा-उठाकर आज्ञा माननी सीखी''
(इब्रानियों 5:7,8)।

अब हमें यह आज्ञा मिली हैं कि हम अनुग्रह के सिंहासन के निकट भरोसे के साथ आएं और हमारी आवश्यकता के समय में सहायता के लिए अनुग्रह की माँग करे।

 ''इसलिए आओ, हम अनुग्रह के सिंहासन के निकट हियाव बाँधकर चलें कि हम पर दया हो, और वह अनुग्रह पाएँ जो अवश्यकता के समय हमारी सहायता करे।''
(इब्रानियों 4:16)

परमेश्वर पृथ्वी पर गवाहों की तलाश में है- उसके प्रेम, सत्य, और सामर्थ की सच्ची गवाही।

जब मसीही लोग नये नियम के नियमों को अपने अनुसार बदलते है, तब वे परमेश्वर के ज्ञान में अपने अविश्वास को प्रकट करते है। वे इस बात को मानते हैं कि परमेश्वर की सर्वज्ञता बीसवीं सदी में जीवन के दबाव को झेल पाने के लिए काफी नहीं है!!

यीशु ने कहा,

''इसलिए जो कोई इन छोटी से छोटी आज्ञाओं में से किसी एक को तोड़े, और वैसा ही लोगों को सिखाए, वह स्वर्ग के राज्य में सब से छोटा कहलाएगा; परन्तु जो कोई उन आज्ञाओं का पालन करेगा और उन्हें सिखाएगा, वही स्वर्ग के राज्य में महान कहलाएगा।''
(मत्ती 5:19)

परमेश्वर हमारी आज्ञाकारिता और हमारे विश्वास को उसके वचन की छोटी आज्ञाओं के प्रति हमारे व्यवहार को देख कर परखता है। बड़ी आज्ञाएँ जैसे ''हत्या न करना, व्यभिचार न करना आदि'' तो सभी मसीही लोगों के द्वारा मानी जाती हैं- यहाँ तक कि बहुत से गैर मसीही लोग भी उनका पालन करते हैं। परन्तु हम परमेश्वर के द्वारा स्वीकृत किए जा रहे हैं या नहीं, इस बात को छोटी आज्ञाओं के प्रति हमारे व्यवहार के द्वारा जाँचा जाता है।

यीशु ने कहा,

''जो कोई अपनी पत्नी को त्यागकर दूसरी से विवाह करे तो वह उस पहली के विरोध में व्यभिचार करता है।''
(मरकुस 10:11) इस आज्ञा के प्रति अनाज्ञाकारिता और मसीही लोगों में तलाक और पुर्नविवाह का सांसारिक व्यवहार इस बात का चिन्ह है कि किस तरह मनुष्य को अपनी सुविधा और आनन्द के लिए यीशु के आज्ञाओं को बदलवाने में शैतान सफल हुआ है।

परेमश्वर का वचन कहता है,

''जो स्त्री उघाड़े सिर प्रार्थना या भविष्यवाणी करती है, वह अपने सिर का अपमान करती है, क्योंकि वह मुण्डी (गंजी) होने के बराबर है। यदि स्त्री ओढ़नी न आढ़े तो बाल भी कटा ले;''
(1 कुरि- 11:4-6)। यह एक छोटी बात है। आज की पश्चिमी सम्बन्धी कलीसियाओं के स्त्रियों में सिर को न ढँकना परमेश्वर के वचन के प्रति आदर के भाव में कमी का एक और चिन्ह है।

यहाँ तक की पानी के बपतिस्में को जिसे स्वयं यीशु और चेलों ने ज़ोर दिया, किसी को ठेस न पहुंचे इसलिये अर्न्तकलीसियाई मसीही समाज में प्रचार नहीं किया जाता। आज के मसीही लोग जहाँ तक लोगों को खुश करने की बात है, परमेश्वर को दुखी करने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं हैं।

''क्या सही में परमेश्वर ने ऐसा कहा है----?'' हव्वा के लिए शैतान का यही प्रश्न था। और यही वह प्रश्न है जिसके द्वारा वह परमेश्वर की स्पष्ट आज्ञा के प्रति आज के मसीही समाज में अनाज्ञाकारिता को लाता है।

परमेश्वर ने आदम और हव्वा को परखा और वे असफल हो गये।

आज, मैं और आप परखे जा रहे है।

अध्याय 4
अय्यूब का परखा जाना

परमेश्वर के लोगों और जो असफल हो गये उन लोगों की जीवनियाँ हमें सावधान करने और निर्देश देने के लिए बाईबल में लिखी गई हैं। बहुत कुछ है जो हम सीख सकते हैं, यदि हम आत्मा की आवाज की ओर अपने कानों को लगा कर उन पर चिंतन करे।

जब पुराने नियम में लोगों के विषय में पढ़ते हैं तो, एक बात दिमाग में रखें कि वे सभी प्रभु यीशु मसीह के 'अनुग्रह' के समय से पहले जीवन यापन कर रहे थे।

''इसलिए कि व्यवस्था तो मूसा के द्वारा दी गई, परन्तु अनुग्रह और सच्चाई यीशु मसीह के द्वारा पहुँची।''
(यूहन्ना 1:17)

इसलिए, परमेश्वर ने उन से नये नियम के स्तर के अनुसार बढ़ने की उम्मीद नहीं की।

मत्ती 19:8,9 इसका उदाहरण देता है। यहाँ पर यीशु ने फरीसियों को इस बात का कारण समझाया की क्यों मूसा ने पुरानी वाचा में उन्हें तलाक की आज्ञा दी। उसने कहा, ''मूसा ने तुम्हारे मन की कठोरता के कारण तुम्हें अपनी-अपनी पत्नी छोड़ने की आज्ञा दी''। परन्तु नये नियम के अनुसार, परमेश्वर हमारे कठोर मन को निकाल देगा और उसके बदले में हमें नरम हृदय देगा। और इसलिए अब तलाक की आज्ञा नहीं दी गई है।

परमेश्वर वह ''परमेश्वर है जो धर्मी को परखता है।'' (यिर्मयाह 20:12)

वह किसी भी मनुष्य को बुरा करने के लिए परीक्षा में नहीं डालता।

''क्योंकि न तो बुरी बातों से परमेश्वर की परीक्षा हो सकती है, और न वह किसी की परीक्षा आप करता है।''
(याकूब 1:13)

परन्तु वह धर्मी की परीक्षा करता है।

उदाहरणपूर्ण मनुष्य

अय्यूब परमेश्वर का चुना हुआ सेवक था। परमेश्वर शैतान को उसके बारे में यह कह सकता था कि पृथ्वी पर एक व्यक्ति है जो अपने सभी कार्यों में परमेश्वर का भय मानता है।

''परमेश्वर ने शैतान को कहा, 'क्या तूने मेरे दास अय्यूब पर ध्यान दिया है? क्योंकि उसके तुल्य खरा और सीधा और मेरा भय मानने वाला और बुराई से दूर रहने वाला मनुष्य कोई नहीं है'।'' 
(अय्यूब 1:8)

परमेश्वर ने अय्यूब की बुद्धि या उसकी योग्यता या उसकी सम्पŸा के विषय में कुछ नहीं कहा - क्योंकि परमेश्वर के लिए इनका कोई मूल्य नहीं है। उसने केवल उसकी शुद्धता और उसकी ईमानदारी की ओर ध्यान आकर्षित किया । जैसा की यीशु के विषय में, वह अय्यूब का चरित्र था और न कि उसकी सफलताएँ या उसकी सेवकाई जिन्होंने परमेश्वर के हृदय को आनन्द पहुँचाया।

शैतान के पास भी चमत्कारिक शक्तियाँ और बुद्धिमŸाा है। उसको बाईबल का ज्ञान भी है!! परमेश्वर जिस चीज को देखता है वह है हमारा चरित्र। जब परमेश्वर हमें परखता है तो वह हमारे चरित्र को परखता है- न कि हमारे बाईबल के ज्ञान को।

जब परमेश्वर किसी ऐसे मनुष्य को खोजता है जिसके विषय में वह शैतान के सामने घमण्ड कर सके, तो वह एक अच्छे चरित्र वाले मनुष्य को खोजता है- शुद्ध और खरा व्यक्ति, जो परमेश्वर का भय मानता हो और बुराई से घृणा करता हो।

दूसरे विश्वासियों के बीच में हमारी धार्मिकता के कारण हमारी इज्जत होगी, परन्तु परमेश्वर जो हमें अन्दर और बाहर से जानता है शैतान को हमारी ओर संकेत कर सकता है? परमेश्वर ने अय्यूब को जो प्रमाण पत्र दिया वह इस संसार के किसी भी सम्मान से बढ़ कर था। मसीही समाज के सभी खाली सम्मान भी इसकी तुलना में बेकार हैं।

इसलिए सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह नहीं है ''मेरी धार्मिकता के विषय में लोगों का क्या विचार है?'' परन्तु इससे बढ़कर यह है की ''क्या परमेश्वर मेरे विषय में शैतान के सामने घमण्ड कर सकता है?''

शैतान का पहला कदम

जब परमेश्वर ने शैतान को अय्यूब के विषय में बताया तो, शैतान ने कहा कि अय्यूब परमेश्वर की सेवा इस लिए करता है क्योंकि उसको इससे लाभ है।

''शैतान ने यहोवा को यह कहा कि ''क्या अय्यूब परमेश्वर का भय बिना लाभ के मानता है?'' क्या तूने उसकी, और उसके घर की, और जो कुछ उसका है उसके चारों ओर बाड़ा नहीं बाँधा? तू ने तो उसके काम पर आशीष दी है, और उसकी सम्पŸा देश भर में फैल गई है। परन्तु अब अपना हाथ बढ़ाकर जो कुछ उसका है, उसे छू; तब वह तेरी निन्दा करेगा।''
(अय्यूब 1:9-11)

परमेश्वर ने उसके आरोप का खण्डन किया और शैतान को अय्यूब की परीक्षा लेने की आज्ञा दे दी, यह बताने के लिए कि उसके आरोप सही नहीं है। परमेश्वर ने ऐसा किया क्योंकि वह अय्यूब की खराई को जानता था।

हमारे विषय में क्या? क्या हम परमेश्वर की सेवा भौतिक वस्तुओं के लाभ के लिए करते है? यदि शैतान हम में से किसी की ओर संकेत करे जो परमेश्वर की सेवा व्यक्तिगत लाभ के लिए करते हैं, तो क्या परमेश्वर को यह मानना पड़ेगा कि शैतान सही है।

भारत मसीही कार्यकŸाार्ओं और पास्टरों से भरा पड़ा है जो मसीही सेवकाई में व्यक्तिगत लाभ के लिए करते हैं- कुछ वेतन के लिए, कुछ सम्मान और पद के लिए, और कुछ पश्चिमी देशों में मुफ्त यात्रा के लिए। कोई भी जो व्यक्तिगत लाभ के लिए मसीही सेवा करता है वह धन सम्पŸा की सेवा करता है और परमेश्वर की नहीं। प्रभु की सच्ची सेवा सदैव हमसे कुछ बलिदान चाहती है।

दाऊद के वचनों को ध्यान करें, जब वह परमेश्वर को बलिदान चढ़ाने को था। उसने कहा,

''मैं अपने परमेश्वर को सेंतमेंत के होमबलि नहीं चढ़ाने का।'' 
(2 शमुएल 24:24)

कितने कम हैं वह जो ऐसी आत्मा रखते हैं!

परमेश्वर की सच्ची सेवा भौतिक हानि को लाती है न की लाभ को। लाभ केवल आत्मिक होगा। वह जो भौतिक लाभ को लाता है, दूसरी ओर बेबीलोन से संबन्ध रखता है न कि स्वर्गीय यरुशलेम से।

आत्मिक बेबीलोन के विषय में बाईबल इस प्रकार कहती है, ''इन वस्तुओं के व्यापारी जो उसके द्वारा धनवान हो गये थे'' (प्र- वा- 18:15)

स्वार्थखोजी मसीही सेवकों के मध्य, पौलुस तीमुथियुस को एक अलग रुप में इंगित कर सका। उसने उसके विषय में कहा,

''मेरे पास ऐसे स्वभाव का कोई नहीं जो शुद्ध मन से तुम्हारी चिन्ता करे। क्योंकि सब अपने स्वार्थ की खोज में रहते हैं, न की यीशु मसीह की।'' 
(फिलिप्पिया 2:19-21)

पौलुस धोखे में नहीं था। वह अपने सहयोगियों की आत्मिक दशा को जानता था। हमारे विषय में भी परमेश्वर धोखे में नहीं है।

परमेश्वर को अय्यूब पर भरोसा था इसलिए उसने शैतान को उसको परखने की आज्ञा दे दी।

यद्यपि अय्यूब ने एक दिन में ही अपने सभी बच्चों और सम्पŸा को खो दिया, तौभी वह लगातार परमेश्वर की आराधना और सेवा करता रहा। उसने कहा, ''मैं अपनी माँ के पेट से नंगा निकला और वहीं नंगा लौट जाऊँगा; यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने ले लिया; यहोवा का नाम धन्य है।'' (अय्यूब 1:20-22)

वह यह जानता था कि जो कुछ उसका है - बच्चे, सम्पŸा और यहां तक की सेहत भी - परमेश्वर का उसके लिए यह मुफ्त वरदान है और परमेश्वर के पास जब उन्हें उसकी इच्छा हो उसको वापस लेने के सभी अधिकार भी है। कोई भी उसकी सच्ची सेवा नहीं कर सकता जब तक उसने सब त्याग न दिया हो - जैसे अपना कहे जाने वाली सभी वस्तुओं पर से कब्जे का अधिकार को त्याग देगा।

शैतान का दूसरा चरण

परमेश्वर ने शैतान को एक कदम और आगे जाने की और अय्यूब को सिर से पाँव तक फोड़ों से पीड़ित करने की अनुमति दी।

बिमारी शैतान की ओर से आती है। परन्तु वह भी उसके दासों को पवित्र और परिशुद्ध करने के लिए प्रयोग की जाती है।

पौलुस अपनी देह में एक कांटे से पीड़ित था, जिसके विषय में वह स्पष्टता से कहता है कि वह शैतान की ओर से था। वह पीड़ा परमेश्वर का दूत नहीं परन्तु शैतान का दूत था। फिर भी परमेश्वर ने उसे रहने दिया और हटाना न चाहा (बदले में पौलुस लगातार प्रार्थनाएँ करता रहा), क्योंकि वह पीड़ा पौलुस को विनम्र बनाये रखने में सहायक था।

पौलुस कहता है,

''इसलिए कि मैं प्रकाशनों की बहुतायत से फूल न जाऊँ, मेरे शरीर में एक काँटा चुभाया गया, इसके विषय में मैंने प्रभु से तीन बार विनती की कि वह मुझ से दूर हो जाए। पर उसने मुझ से कहा, ''मेरा अनुग्रह तेरे लिए बहुत है; क्योंकि मेरी सामर्थ निर्बलता में सिद्ध होती है।'' 
(2 कुरि- 12:7-9)।

शैतान का तीसरा चरण

शैतान का तीसरा कदम अय्यूब को उसकी पत्नी द्वारा पीड़ित करना था।

''तब अय्यूब की पत्नी उससे कहने लगी, ''क्या तू अब भी अपनी खराई पर बना है? परमेश्वर की निन्दा कर, चाहे मर जाए तो मर जा।'' (अय्यूब 2:9)

यह आप की पवित्रता की निश्चय ही परीक्षा हो सकती है, जब आप की पत्नी आप के विरुद्ध हो जाए और आप की निन्दा करे।

परमेश्वर का वचन आज्ञा देता है :

''हे पतियो, अपनी अपनी पत्नी से प्रेम रखो, और उनसे कठोरता न करो----------अपनी अपनी पत्नी से प्रेम रखो जैसा मसीह ने भी कलीसिया से प्रेम करके अपने आप को उसके लिये दे दिया।''
(कुलु- 3:19; इफि- 5:25)

पति को कभी भी किसी भी परिस्थिति में अपनी पत्नी के प्रति कठोर नहीं होना है, और सभी समयों पर वह अवश्य ही उससे प्रेम करे।

यदि आप की पत्नी कठोर है, शिकायत करने के बदले और उनसे जिनकी

धार्मिक पत्नियाँ है जलन रखने के बदले आप अपनी स्वयं की पवित्रता के विषय में नज़र डाल सकते हैं। परमेश्वर आप को उन परिस्थितियों में भी परखता है कि क्या आप उसकी स्वीकृति को प्राप्त करने के योग्य हो। जब आप की पत्नी आप पर चिल्लाये और आप को ताने मारे तब वह यह परखता है कि क्या आप यीशु के प्रतिनिधि बनने की योग्यता रखते हैं, जो अपने ही रिश्तेदारों के द्वारा पागल कहा गया।

सुसमाचार का वृतांत कहता है, ''जब उसके कुटुम्बियों ने यह सुना, तो वे उसे पकड़ने के लिए निकले; क्योंकि वे कहते थे कि उसका चित ठिकाने नहीं है।'' (मरकुस 3:21)

यीशु ने उस अपमान को धीरज के साथ सह लिया। हमें उसका अनुसरण करने के लिए और उसका प्रतिनिधि बनने के लिए बुलाया गया है।

शैतान का चौथा चरण

शैतान का चौथा कदम अय्यूब की निन्दा उसके प्रचारक-मित्रों के द्वारा कराना था। (अय्यूब 4-25 अध्याय)

अय्यूब के लिए यह सहन करना कठिन था - क्योंकि ये प्रचारक उसके पास परमेश्वर के भविष्यद्वक्ता के समान दर्शाने लगे और यह कहने लगे कि उसकी सभी बिमारियाँ उसके गुप्त पापों के कारण हैं। इन प्रचारकों को यह महसूस नहीं हुआ कि वे अनजाने में 'भाईयों पर दोष लगाने वाले' के प्रतिनिधि के रुप में कार्य कर रहे है। (प्र- वा-12:10)

परन्तु परमेश्वर ने उन्हें ऐसा करने की आज्ञा दी इसलिए कि अय्यूब शुद्ध किया जाए।

अनुग्रह के द्वारा जयवंत होना

अय्यूब अनुग्रह से पहले के समय में रह रहा था और इसलिए निरन्तर जय में नहीं रह सकता था, जैसे की हम आज रह सकते हैं।

आज परमेश्वर का वायदा है कि

''तुम पर पाप की प्रभुता न होगी, क्योंकि तुम व्यवस्था के अधीन नहीं वरन्‌ अनुग्रह के अधीन हो।''
(रोमियों 6:14) परन्तु अय्यूब उस युग में रह रहा था जब पाप पर जय संभव नहीं थी। और वह दया, स्वयं पर न्याय, मानसिक तनाव और उदासी का शिकार हो गया। समय समय पर उसका विश्वास

अंधकार द्वारा घेर लिया गया। परन्तु यह उसका उतार- चढ़ाव का अनुभव था।

अब यह अनुग्रह हमें यीशु मसीह के द्वारा मिला है, और यदि हम उसी प्रकार से परखे जाते है, तब मानसिक तनाव और उदासी के क्षण की आवश्यकता नहीं होगी। नये नियम में आज्ञा इस प्रकार है

''किसी भी बात की चिन्ता मत करो-------प्रभु में सदा आनन्दित रहो----हर एक बात में धन्यवाद दो---।
(फिलि- 4:6,4)

इस प्रकार की आज्ञा पुराने नियम ने नहीं दी गई है। क्योंकि अनुग्रह का समय तब नहीं था। परन्तु अब हम परमेश्वर के हाथ को सभी बातों में देख सकते हैं और अब अनुग्रह प्रत्येक पल हमें जयवंत रखने के लिए उपलब्ध है।

पौलुस का जयघोष यह था,

''परमेश्वर का धन्यवाद हो जो मसीह में सदा हम को जय के उत्सव में लिये फिरता है।''
(2 कुरि- 2:14)

यदि हमें अपनी संपŸा और अपने बच्चों को खोना पड़े, या हमारी पत्नियाँ हमें कोसें (निन्दा करें), या हमारे साथी विश्वासी हमें गलत समझें और हमारी आलोचना करें, या कुछ ऐसा हो जो परमेश्वर हमारे जीवनों में लाना उचित समझे तब ही हम जयवंत हो सकते हैं।

परमेश्वर शैतान को दिखाता है कि पृथ्वी पर उसके पास ऐसे लोग हेै, जो न केवल उसके साथ उसकी सभी बातों के प्रति समर्पित होंगे, बल्कि जो प्रत्येक परीक्षा का सामना आनन्द के साथ करेंगे और यह मानते हुए कि ये छोटी परेशानियाँ परमेश्वर के द्वारा उनकी अनन्त महिमा को बढ़ाने के लिए बनाई गयी हैं।

बाईबल कहती है, ''क्योंकि हमारा पल भर का हल्का सा क्लेश हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण और अनन्त महिमा उत्पन्न करता जाता है। हम तो देखी हुई वस्तुओं को नहीं परन्तु अनदेखी वस्तुओं को देखते रहते हैं।'' (2 कुरि- 4:17-18)

शैतान और उसके सेवकों के लिए गवाही

नया नियम हमें यह बताता है कि परमेश्वर कि इच्छा यह है कि कलीसिया के द्वारा वह स्वर्गीय प्रधानों और अधिकारियों को अपना ज्ञान दर्शाए।

इफिसियों 3:10 कहती है,

''अब कलीसिया के द्वारा, परमेश्वर का विभिन्न प्रकार का ज्ञान उन प्रधानों और अधिकारियों पर जो स्वर्गीय स्थानों में हैं, प्रगट किया जाए।''

इफिसियों 6:12 हमें बताती है कि वे प्रधान स्वर्गीय स्थानों में रहने वाली दुष्ट आत्माएँ हैं।

वे बातें जो हमें गिराती हैं आकस्मक नहीं हैं, उन्हें विशेष रुप से हमारे लिए आयोजित किया और तौला गया है (इसलिए ये हमारे सहने की क्षमता से अधिक नहीं होंगी) ''जो परमेश्वर की ठहराई हुई योजना और पूर्व ज्ञान के अनुसार है'' (प्रेरितों के काम 2:23) - इसका पहला उद्देश्य यह है कि हम मसीह के समान परिवर्तित हो जाएँ, और दूसरा यह कि स्वर्गीय दुष्ट आत्मिक प्रधानों को यह प्रकट करें कि परमेश्वर के पास अभी भी पृथ्वी पर ऐसे लोग हैं जो सभी परिस्थितियो में, उस पर अपना प्रेम, विश्वास, आज्ञापालन और स्तुति दर्शाते हैं।

प्रत्येक परीक्षा जिसमें से होकर हम जाते हैं हमारे विश्वास की परीक्षा है। यहाँ तक कि अय्यूब के समय में भी, वह कह सका,

''परमेश्वर जानता है कि मेरे साथ क्या हो रहा है।'' 
(अय्यूब 23:10 अन्य अनुवाद से)

आज हम एक कदम और आगे जा सकते हैं और कह सकते है (रोमियों 8:28) के आधार पर) कि

''परमेश्वर मेरे लिए प्रत्येेक विस्तृत पहलू की योजना बनाता है।''

क्या वास्तव में हम प्रत्येक उस बात के लिए जो हमारे मार्ग में आती हैं यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर ने अपने सिद्ध प्रेम और ज्ञान में उसे आयोजित किया है, और जब सही समय आयेगा, हमें सभी परीक्षा से निकालने के लिए उसका सामर्थ काफी है।

क्या परमेश्वर हम में उन लोगों को पाएगा जिनके विषय में वह शैतान से घमण्ड कर सके जो कभी किसी भी परिस्थिति में शिकायत न करे या न कुड़कुड़ाए, परन्तु सभी बातों में और सभी समयों पर केवल धन्यवाद दे?

अध्याय 5
अब्राहम का परखा जाना

लगभग पचास सालों के बाद अब्राहम के जीवन में ऐसा दिन आया जब परमेश्वर ने उसे बुलाया और स्वयं उसे स्वीकृति का यह प्रमाण पत्र दिया, ''मैं अब जान गया कि तू परमेश्वर का भय मानता है।'' (उत्पŸा 22:12)

वह कोई सस्ती बाईबल कॉलेज की डिग्री या लोगों के सम्मान में दी जाने वाली डाक्टर की उपाधी नही थी! अब्राहम ने दो पैसे भी उस सस्ते कागज के लिए खर्च नहीं किये होंगे जिसके लिए आजकल के बहुत से मसीही पीछे लगे रहते हैं। वह तो केवल वास्तविक चीज को चाहता था - जो उसके जीवन के लिए परमेश्वर की स्वीकृति का प्रमाण पत्र था - और वह उसको प्राप्त हो गया।

मौरिय्याह पर्वत पर स्नातक का वह दिन कोई आसान रास्ता नहीं था! परन्तु जिस शब्द को परमेश्वर से सुनने के लिए अब्राहम वहाँ गया, वह सब से बढ़़कर मूल्यवान था।

परमेश्वर अपने प्रमाण पत्र को सरलता से नहीं देता। उसने अब्राहम को वह प्रमाण पत्र पचास वर्षों तक परखे जाने के बाद दिया।

पिता ने यीशु के विषय में अपनी प्रसन्नता की घोषणा केवल नासरत के तीस सालों के जीवन में उसे परखे जाने के बाद की।

पहली परीक्षा

अब्राहम जब 75 वर्ष का था, परमेश्वर ने उसे कसदियों के ऊर नगर के उसके घर और लोगों को छोड़कर अनजाने देश में जाने के लिए बुलाया। वह पहली परीक्षा थी जिसमें वह सफल हुआ। अपने माता, पिता, भाई-बहनों आदि के साथ सम्बन्ध को तोड़ना सरल नहीं है। परन्तु जब तक वह अवनाल (माता से शिशु को जोड़ने वाली नाल) जो हमें इन बन्धनों में बांधे रखती है, काटी नहीं जाती हम यीशु के चेले नहीं हो सकते!

यीशु ने कहा,

''यदि कोई मेरे पास आए, और अपने पिता और माता और पत्नी और अपने बच्चों और भाईयों और बहनों वरन्‌ अपने प्राण को भी अप्रिय न जाने, तो वह मेरा चेला नहीं हो सकता।'' (लूका 14:26)

अब्राहम ने परमेश्वर की आज्ञा तुरन्त ही मान ली।

मैं यह सोचता हूँ, कि यदि अब्राहम परमेश्वर की बुलाहट से फिर गया होता तो क्या होता। निश्चय ही परमेश्वर ने उस पर ज़ोर नहीं दिया होगा। परमेश्वर को कोई और मिल गया होता; और हम अब्राहम के विषय में फिर कभी न सुनते। वह कोई और होता जो परमेश्वर की बुलाहट का प्रतिउŸार देता और विश्वास का पिता और मसीह का पूर्वज बन गया होता! कितना कुछ अब्राहम खो देता यदि वह पहली ही परीक्षा में असफल हो गया होता! जब वह अपने रिश्तेदारों की विनती की ओर ध्यान न देते हुए ऊर नगर से निकला, शायद ही उसने महसूस किया कि परमेश्वर ने उसके लिए कितना उत्तम भविष्य तैयार किया था।

जैसे उसने अब्राहम को बुलाया, आज भी परमेश्वर लोगों को बुलाता है। जो बुलाए जाते हैं वे शायद ही यह महसूस करते हैं कि भविष्य में कितना उत्तम परिणाम परमेश्वर ने उनके लिए रखा है। इन 20 शताब्दियों में मसीही इतिहास उन स्त्री पुरुषों की कहानियों से भरा पड़ा है जिन्होंने परमेश्वर की बुलाहट को अब्राहम के समान तुरन्त, सहर्ष और सम्पूर्ण हृदय से स्वीकार किया और परमेश्वर के उद्देश्य को पूरा किया।

अनन्तता ही केवल इस बात को प्रगट करेगी कि, कितने दूसरे लोगों को भी बुलाया गया, जिन्होंने प्रतिउŸार नहीं दिया और अपने जीवनों को बर्बाद किया। वह अमीर जवान व्यक्ति जो अपने धन को अधिक प्रिय जानकर यीशु के पास से चला गया, उनमें से एक था जिनको बुलाया गया था, परन्तु जब उसकी परीक्षा हुई उसने गलत निर्णय लिया।

जिनको परमेश्वर के द्वारा बुलाया गया उनमें अधिकतर यह पाया गया कि उनकी पहली और बड़ी बाधा उनके अपरिवर्तित और शारीरिक रिश्तेनाते हैं। इसलिए यीशु ने 'माता और पिता को अप्रिय जानना चेलेपन की पहली शर्त के रुप में रखा है।

अब्राहम परीक्षा में सफल हुआ - पर पहले चरण में नहीं। उसके पिता भी उसके साथ ऊर नगर से निकल कर यात्रा आरंभ की परन्तु अब्राहम को हारान में रुकने के लिए मना लिया (कनान के आधे ही मार्ग में)।

''तेरह अपने पुत्र अब्राम, और अपने पोते लूत, और अपनी बहू सारै, जो उसके पुत्र अब्राम की पत्नी थी, इन सभों को लेकर कसदियों के ऊर नगर से निकल कनान देश जाने को चला; पर हारान नामक देश में पहुँचकर वहीं रहने लगा।'' (उत्पŸा 11:31)

परमेश्वर ने, अपनी दया के अर्न्तगत, अब्राहम के पिता को मृत्यु के द्वारा बुला लिया, जिससे अब्राहम अधिक समय तक अटका न रहे। तब अब्राहम कनान की ओर चल पड़ा।

हमें निकट सम्बंधियों के प्रति हमारे प्रेम को, परमेश्वर की योजना की पूर्ती के लिए बाधा नहीं बनने देना चाहिए।

चार सौ वर्ष से अधिक पूर्व, लेवी के पुत्रों को अपने रिश्ते नाते के विरुद्ध इसी प्रकार के निर्णय को लेना पड़ा जब इस्राएल के लोगों ने सोने के बछड़े की आराधना आरंभ की थी।

मूसा पर्वत पर से नीचे आया और पुकारा, ''जो कोई यहोवा की ओर का है मेरे पास आए'' (निर्गमन 32:26) लेवी के पुत्र तुरन्त उसके पास आए। उनको आज्ञा दी गई की अन्दर जाएँ और मूर्तीपूजकों को मार डालें - यहाँ तक की अपने रिश्तेदारों को भी न छोड़ें। लेवी के पुत्रों ने बिना किसी हिचकिचाहट के वैसा ही किया।

बाद में मूसा ने उनके कार्य का इस प्रकार वर्णन करते हुए, कहा,

''उसने (लेवी) तेरी (परमेश्वर) आज्ञाओं को माना और बहुत से पापियों को, यहाँ तक की अपने बच्चों, भाईयों, पिताओं और माताओं को भी नाश कर डाला। इसलिए वे याकूब को तेरे नियम, और इस्राएल को तेरी व्यवस्था सिखाएँगे।'' (व्य- वि- 33:9-10)

उस दिन इस्राएलियों को एहसास हुआ कि किस प्रकार परमेश्वर उनको परख रहा था कि कौन उनका याजक हो सकता है। लेवियों ने इस बात में योग्यता को हासिल किया। और इस प्रकार परमेश्वर ने उन्हें अपना याजक बना लिया। यह कोई पक्षपात नहीं था। परमेश्वर ने उस समय पर सभी बारह जातियों को परखा था। केवल लेवियों के गोत्र ही इस परीक्षा में सफल हुए।

दूसरी परीक्षा

जब अब्राहम अपने रिश्तेनातों से मुक्त हो गया, तब परमेश्वर ने उसे भौतिक वस्तुओं के संबन्ध में परखा। शिष्यता के लिए इस बात की भी आवश्यकता है।

यीशु ने कहा,

''जो कोई अपना सब कुछ त्याग न दे, मेरा चेला नहीं हो सकता।'' (लूका 14:33)

उत्पŸा 13 और 14 अध्यायों में, हम दो ऐसी घटनाओं के विषय में पढ़ते हैं जहाँ पर अब्राहम को धन-सम्पŸा के विषय में परखा गया। पहला मौका तब था जब लूत और उसे अलग होना पड़ा, क्योंकि उनके झुण्ड इतने बढ़ गये थे कि एक साथ नहीं रह सकते थे। बड़ा होने और कनान देश में जाने के लिए बुलाये जाने के नाते यह अब्राहम के लिए आसान और सही भी होता, कि वह पहले अपने लिए भूमि का चुनाव करे। परन्तु निस्वार्थभाव और हृदय की विशालता के कारण, उसने लूत को पहले चुनने के लिए कहा। लूत ने मानवीय दृष्टि में सबसे उŸाम दिखाई देने वाली, सदोम की भूमि को चुन लिया।

परन्तु न तो अब्राहम न ही लूत यह महसूस कर सके कि परमेश्वर इस लेन-देन का मूक गवाह था - ऐसे ही वह हमारे सभी आर्थिक लेन-देन का भी गवाह होता है। अब्राहम के द्वारा दिखाई जाने वाली निस्वार्थ भावना से परमेश्वर बहुत आनन्दित हुआ, और तुरन्त ही वह उससे बताया कि उसका वंश उस सारी भूमि पर, जहाँ तक अब्राहम देख सकता है चारों दिशाओं में फैल जाएगा। इसमें वह हिस्सा भी शामिल था जो लूत ने चुना था।

''जब लूत अब्राम से अलग हो गया तब उसके पश्चात्‌ यहोवा ने अब्राम से कहा, ''आँख उठाकर जिस स्थान पर तू है वहाँ से उŸार-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम, चारों ओर दृष्टि कर। क्योंकि जितनी भूमि तुझे दिखाई देती है उस सब को मैं तुझे और तेरे वंश को युग युग के लिए दूँगा।'' (उत्पŸा 13-14-15)

आज, लगभग 4000 वर्षों के पश्चात, हम यह पाते हैं कि परमेश्वर ने अपने वचन को निभाया। अब्राहम के वंशज (यहूदी) उस भूमि में रह रहे है जो परमेश्वर ने अब्राहम को दी। लूत के वंशजों (अरबी) ने वह खो दिया जो उनके पूर्वजों ने हथिया लिया था। यही परमेश्वर का तरीका है। नम्र लोग पृथ्वी के अधिकारी होंगे।

उत्पŸा 14में हम पाते हैं, परमेश्वर का सच्चा दास होने के नाते अब्राहम दुबारा भौतिक वस्तुओं के विषय में खराई के साथ व्यवहार करता है। अब्राहम ने सदोम के राजा के लोगों और सम्पति को शत्रुओं से छुड़ाया। इसके बदले में पुरस्कार के रुप में सदोम का राजा अब्राहम को अपनी सारी सम्पति देता है। परन्तु अब्राहम कुछ भी लेने से इंकार कर देता है।

अब्राम ने सदोम के राजा से कहा,

''परमप्रधान ईश्वर यहोवा, जो आकाश और पृथ्वी का अधिकारी है, उसकी मैं यह शपथ खाता हूँ, कि जो कुछ तेरा है उसमें से न तो मैं एक सूत, और न जूती का बन्धन, न कोई और वस्तु लूँगा कि तू ऐसा न कहने पाए कि अब्राम मेरे ही कारण धनी हुआ।'' (उत्पŸा 14:22-23)

इसके प्रभाव में, अब्राहम जो कह रहा था वह यह था,

''जैसा की मेरा परमेश्वर स्वर्ग और पृथ्वी का अधिकारी है मुझे किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं है।

एक बार फिर परमेश्वर इस वार्तालाप का मूक गवाह था। वह तुरन्त ही अब्राहम के समक्ष उपस्थित हुआ और उसे बताया कि वह स्वयं ही उसे पुरस्कार देगा।

''इन बातों के पश्चात यहोवा का यह वचन दर्शन के द्वारा अब्राम के पास पहुँचा : ''हे अब्राम, मत डर; तेरी ढाल और तेरा अत्यन्त बड़ा प्रतिफल मैं हूँ?'' (उत्पŸा 15:1)

यदि हम परमेश्वर को आदर देते हैं तो निश्चय ही वह हमको आदर देता है।

आदम की संतान दूसरों से चीज़ों को हथिया लेने में पक्के हैं - यदि बल से नहीं तो कम से कम तब जब वे मुफ्त में मिलें। हम यह महसूस नहीं कर पाते कि परमेश्वर हमें हमारे आर्थिक लेनदेन और आर्थिक कामों में परख रहा है। ऐसे परिस्थितियों में हम कैसे व्यवहार करते हैं, इसके आधार पर परमेश्वर यह निर्णय करता है कि उसके राज्य में और उसके पृथ्वी पर की सेना में हमारा क्या स्थान है।

तीसरी परीक्षा

अब्राहम की परीक्षा उसके माता-पिता के साथ उसके रिश्तों और भौतिक संपŸा के

संबन्ध में हुई थी। अब उसकी परीक्षा उसके पुत्र के साथ उसके संबन्ध में भी होनी थी।

परमेश्वर की स्वीकृति के प्रमाण पत्र को प्राप्त करने से पूर्व यह उसकी अन्तिम्‌ परीक्षा थी।

जब उस रात परमेश्वर ने उसे अपने पुत्र इसहाक को बलिदान करने के लिए कहा, उसकी आयु 125 वर्ष की थी और लोगों के बीच में उसने परमेश्वर का मनुष्य यह नाम भी कमा लिया था। उत्पŸा 21:22 हमें यह बताता है, ''उन दिनों में ऐसा हुआ कि अबीमेलेक अपने सेनापति पीकोल को संग लेकर अब्राहम से कहने लगा, ''जो कुछ तू करता है उसमें परमेश्वर तेरे संग रहता है।''

परन्तु परमेश्वर हमारे विषय में दूसरों के विचारों की परवाह नहीं करता। परमेश्वर अब्राहम की परीक्षा स्वयं करना चाहता था। और इसलिए उसने उस रात अब्राहम से अकेले में बात की; और किसी ने नहीं सुना परमेश्वर ने अब्राहम से क्या बात की।उत्पŸा 22:1 बताती है,

''उन बातों के पश्चात्‌ (राजा अबीमेलेक के अब्राहम को परमेश्वर का जन होने का प्रमाण पत्र देने के बाद) ऐसा हुआ कि परमेश्वर ने अब्राहम से यह कहकर उसकी परीक्षा की, ''हे अब्राहम!'' उसने कहा, ''मैं यहाँ हूँ।''

वह बहुत ही अमूल्य चीज़ थी जो परमेश्वर ने उस रात उससे मांगी। अब्राहम अगला दिन बिन कुछ किए ऐसे ही बिता सकता था, और किसी को भी यह पता नहीं चलता कि अब्राहम ने परमेश्वर की आज्ञा नहीं मानी। इस प्रकार परमेश्वर अब्राहम को परख रहा था कि वह उसका भय मानता है या नहीं।

और इसी प्रकार हमें भी परमेश्वर परखता है। वह हम से गुप्त में हमारे हृदय में बात करता है - इतना धीमें कि वे भी जो हमारे साथ रहते हैं सुन नहीं पाते कि परमेश्वर ने हम से क्या कहा। हमारे जीवनों में, विचारों में हम उसका भय मानते है कि नहीं यह परखने के लिए परमेश्वर ने हम सभी को एक व्यक्तिगत क्षेत्र दिया है।
यदि हम विचारों को भी शब्दों की तरह सुन पाते तो निश्चय ही हम हमारे विचारों को भी शुद्ध रखते। इसलिए कि लोग हमें तुच्छ न मानें। परन्तु हमारे विचार इतने गुप्त हैं कि केवल परमेश्वर ही उन्हें देख सकते हैं। इससे यह पता लगाना आसान है कि हम परमेश्वर का भय मानते हैं या नहीं। यदि हम अपवित्र और प्रेमरहित विचारों को स्थान देते हैं जिनको हम नहीं चाहते कि हमारे सहयोगी विश्वासी जान पाएँ, यह स्पष्ट रुप से इस बात को सिद्ध करता है कि हम मनुष्यों का भय मानते हैं परमेश्वर का नहीं। दुर्भाग्यवश विश्वासियों की एक बड़ी संख्या की स्थिति यही है। परमेश्वर ने उनको परखा और वे उसमें असफल हो गये।

कितने यूसुफ के समान हैं, जिनको जब गुप्त में काम भावना के द्वारा परखा गया, उन्होंने कहा,

''मैं ऐसी दुष्टता करके परमेश्वर का अपराधी क्यों बनूँ? (उत्पŸा 39:9)"
इस प्रकार के जवान वे लोग हैं जो परमेश्वर की स्वीकृति के प्रमाण पत्र को पाते हैं।

बहुत-बहुत कम विश्वासी कामुक शुद्धता के क्षेत्र में अपने विचार - जीवन में पूर्ण रुप से विश्वासयोग्य हैं। परन्तु इन कुछ के द्वारा परमेश्वर शैतान को दिखाता है कि अभी भी पृथ्वी पर उसके पास कुछ पुत्र हैं जो अपनी दायी आँख को निकालना ज्यादा पसंद करेंगे इससे बढ़कर कि वे उससे पाप करें और अपने विचारों में वासना को लाने से, मरना

अधिक पसंद करेंगे। जीवन का मार्ग सकरा है और थोड़े हैं जो उस पर चलते हैं। परन्तु अच्छी बात यह है कि कुछ तो हैं!

अब्राहम ने परीक्षा में सफलता को प्राप्त किया। उसने लोगों के मध्य केवल अच्छी गवाही नहीं चाही। वह गुप्त में परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी रहना चाहता था। और इसलिए अगली सुबह ही उसने इसहाक को लिया और मोरिय्याह पर्वत की ओर अपने प्रिय पुत्र को परमेश्वर के लिए बलि करने के लिए निकल पड़ा, यह कहते हुए,

''प्रभु, मैं आप से इस पृथ्वी पर किसी से भी और किसी भी वस्तु से बढ़ कर प्रेम करता हूँ।''

यही वह बात थी जिस पर परमेश्वर ने अब्राहम को अपनी स्वीकृति का प्रमाण पत्र दिया और उसे अनगिनत आशीषों का वायदा किया :

''मैं अपनी ही यह शपथ खाता हूँ कि तू ने जो यह काम किया है कि अपने पुत्र, वरन्‌ अपने इकलौते पुत्र को भी नहीं रख छोड़ा; इस कारण मैं निश्चय तुझे आशीष दूँगा; और निश्चय तेरे वंश को आकाश के तारागण, और समुद्र के तीर की बालू के किनकों के समान अनगिनत करुँगा, और तेरा वंश अपने शत्रुओं के नगरों का अधिकारी होगा; और पृथ्वी की सारी जातियाँ अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेंगी : क्योंकि तू ने मेरी बात मानी है।'' (उत्पŸा 22:16-18)

बलिदानी आज्ञाकारिता के अलावा कुछ भी परमेश्वर को आनन्दित नहीं करता है।

'हृदय में शुद्ध' होना जीवन-विचारों में साफ होने से बढ़कर है (मŸाी 5:8)। यह ऐसा है जैसे किसी के हृदय में परमेश्वर के अतिरिक्त कुछ नहीं है। बहुतेरे जो साफ और खरे जीवन को जीते हैं अपने कार्य या अपनी सेवकाई से जो परमेश्वर ने उन्हें दी है मूर्तीपूजक के समान प्रेम करने लगते हैं। उन्होंने परमेश्वर द्वारा दिये गये इसहाक को वापस परमेश्वर को देना नहीं सीखा है।

क्या आप चाहते हैं कि आपको परमेश्वर और उसके कुछ वरदान मिले? या परमेश्वर और उसके सेवकाई मिले? या परमेश्वर और मनुष्य की अच्छी राय मिले? या परमेश्वर और अच्छी सेहत मिले? या परमेश्वर और इसहाक जैसा कोई मिले? या आपके लिये परमेश्वर अकेले ही काफी है?

कोई भी जो इस संसार में परीक्षा में सफल नहीं हो जाता परमेश्वर के द्वारा स्वीकृत नहीं हो सकता। केवल जब हम उस स्थान पर आ जाते हैं जहाँ पर हम गंभीरता से परमेश्वर से कह सकते हैं, ''स्वर्ग में मेरा और कौन है? तेरे संग रहते हुए मैं पृथ्वी पर और कुछ नहीं चाहता।'' (भ- सं- 73:25) जहाँ तक परमेश्वर का संबन्ध है क्या हम इस काबिल हैं।

यह मोरिय्याह पर्वत है जिस पर हम में से प्रत्येक को चढ़ना है, जहाँ हमें उन सभी चीजों को जो हमें प्रिय हैं परमेश्वर के लिए वेदी पर चढ़ाना है और अकेले परमेश्वर के साथ रह जाना है।

यदि हमारी तनख्वाह में बढ़ोŸारी होने से या नौकरी में तरक्की मिलने से, या उस भेंट से जो हमें प्राप्त हुई है हमरा आनन्द बढ़ता है, या जब हमारी उम्मीद के अनुसार हमें तरक्की या भेंट नहीं मिलती तो आनन्द घटता है इससे स्पष्ट रुप से यह संकेत मिलता है कि जब परमेश्वर संसारिकता में हमारे लिए कुछ बढ़ाता है तो उसमें हमें आनन्द मिलता है। तब निश्चय ही हमें अपने आनन्द को शुद्ध करने की आवश्यकता है जब तक हम 'केवल परमेश्वर में आनन्दित' होना नहीं सीख जाते। यदि हमारा आनन्द केवल परमेश्वर में मिलता है, तब यह किसी भी संसारिक बढ़ोŸारी से बढ़ेगा नहीं और न घटेगा जब कुछ खो जाएगा।

फिलिप्पियों 4:4 हमें ''सदा प्रभु में आनन्दित'' रहने की आज्ञा देता है।

बहुत से विश्वासी सदा आनन्दित नहीं रह पाते क्योंकि उन्हें उनका आनन्द केवल प्रभु में नहीं मिलता। उनका आनन्द उन्हें प्रभू और कुछ और बढ़ौतरी में ही मिलता है।

जब हमारा हृदय शुद्ध हो - और उसमें केवल परमेश्वर के लिए ही स्थान हो - तब हमारा आनन्द भी शुद्ध होगा।

एक एक करके परमेश्वर ने इस सम्पूर्ण समर्पण के स्थान तक पहुँचने में, अब्राहम की अगुवाई की - और अब परमेश्वर उसके द्वारा संसार की सभी जातियों को आशीषित करता है। अब्राहम जब मौरियाह पर्वत से नीचे आया, तब आशीषों की नदी भी उसके द्वारा बहने लगी थी।

परमेश्वर का उद्देश्य यह है कि अब्राहम की आशीषें हमारे लिए भी हों।

गलातियों 3:14 कहता है,

 ''यह इसलिये हुआ कि अब्राहम की आशीष मसीह यीशु में अन्यजातियों तक पहुँचे, और हम विश्वास के द्वारा उस आत्मा को प्राप्त करें जिसकी प्रतिज्ञा हुई है।''

परमेश्वर की इच्छा यह है कि जीवन के जल की नदियाँ (आत्मा की आशीषें) अब हम में से प्रत्येक के द्वारा भी बहे।

परन्तु कितने लोग मूल्य चुकाने को तैयार हैं?

और कितने योग्य होते हैं, जब परमेश्वर उन्हें परखता है?

अध्याय 6
मूसा का परखा जाना

एक और व्यक्ति था, मूसा, जिसे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त हुई। परमेश्वर ने उसके विषय में कहा,

''मेरा दास मूसा ऐसा नहीं है; वह तो मेरे सब घरानों में विश्वासयोग्य है।''
(गिनती 12:7)

मूसा के विषय में उसकी मृत्यु के समय यह विवरण मिलता है कि, ''मूसा के तुल्य इस्राएल में ऐसा कोई नबी नहीं उठा, जिससे यहोवा ने आमने-सामने बातें की।''

(व्यवस्थाविवरण 34:10)

मनुष्य की बुद्धिमानी को निर्मूल्य करना

पहले चालीस वर्षों का मिस्र देश का शाही और सैनिक प्रशिक्षण ने मूसा को एक

धार्मिक अगुवा नहीं बनाया। बल्कि अगले चालीस वर्ष जब वह मरूभूमि में भेड़ों को चराया करता था, तब परमेश्वर के द्वारा उसकी आत्मनिर्भरता को तोड़ने के कारण यह हुआ।

अस्सी वर्ष की आयु मेंं, उसके आत्मविश्वास के बिखरने के बाद, मूसा परमेश्वर पर निर्भर हुआ और परमेश्वर के लोगों को छुड़ानेवाला बना।

मरुभूमि में तम्बू के निर्माण में, निर्गमन 39 और 40 अध्यायों में हम एक उपवाक्य को 18 बार दोहराते हुए पढ़ते हैं - वह उपवाक्य है, ''जिस प्रकार से यहोवा ने मूसा को आज्ञा दी थी।'' तम्बू का प्रकार जो परमेश्वर के द्वारा दिया गया था बहुत साधारण और शालीन दिखने वाला था। वह मूसा के द्वारा मिस्र में देखे गये विलक्षण पिरामिडों से बहुत अलग था।

यदि मूसा को 40 वर्ष की आयु में जब उसकी स्वयं की क्षमता अपने चरम पर थी तम्बू के निर्माण की योजना दी गई होती तो, पक्की तौर पर उसने उसे परिवर्तित कर और आकर्षक बना दिया होता। परन्तु 80 वर्ष की आयु में, उसका ''स्वयं'' मर चुका था, तब उसने सही में वही किया जो परमेश्वर ने उसे निर्देश दिया था। और यह ही वह बात थी जो उस तम्बू में परमेश्वर की महिमा को ले कर आई।

यदि हम दिव्य बुद्धि को प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें अपने मानवीय ज्ञान का पतन करना होगा।

बाईबल इस प्रकार कहती है,

''कोई अपने आप को धोखा न दे। यदि तुम में से कोई इस संसार में अपने आप को ज्ञानी समझे, तो मूर्ख बने कि ज्ञानी हो जाए।''
(1 कुरि- 3:18)

परमेश्वर मूसा को तभी स्वीकृति दे सका जब मिस्र का ज्ञान उसमें से भूसी के समान निकल गया था।

प्रेरित पौलुस 3 वर्षों तक गमालिएल के चरणों में बैठ कर पढ़ा था, जो यरुशलेम बाईबल विद्यालय का सबसे बड़ा प्रवक्ता था। इसलिए उसे अपने परिर्वतन के बाद अरब के रेगिस्तान में गमालिएल के ज्ञान को निकाल कर दिव्य ज्ञान को प्राप्त करने के लिए तीन वर्षों तक भटकना पड़ा। पौलुस इस समय को गलातियों 1:17,18 में व्यक्त करता है, ''और न यरुशलेम को उनके पास गया जो मुझ से पहले प्रेरित थे, पर तुरन्त अरब को चला गया और फिर वहाँ से दमिश्क को लौट आया। फिर तीन वर्ष के बाद मैं कैफा से भेंट करने लिए यरुशलेम गया।''

केवल तभी पौलुस परमेश्वर का सेवक बन सका।

जो कोई परमेश्वर की सेवा करे उसके लिए मानवीय चतुराई का नष्ट होना एक

आधारभूत नियम है। इस पाठ को पूर्णरुप से सीखने वाले बहुत थोड़े लोग हैं।

परमेश्वर ने मूसा को परखा कि क्या वह तम्बू को वैसे ही बना सकता है जैसा ढाँचा उसने पर्वत पर प्राप्त किया था। उस तम्बू पर परमेश्वर की महिमा का आना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण था कि परमेश्वर मूसा के काम से संतुष्ट था।

हम हमारे बारे में क्या करते हैं जब हम परमेश्वर के लिए कुछ करते या बनाते हैं? क्या हम सही में वैसा ही करते हैं जैसा पवित्र शास्त्र लिखा है? या हम इस संसार के थोड़े ज्ञान के साथ उसे परिवर्तित कर देते हैं? यदि ऐसा है, तो सही में वह एक कारण है कि परमेश्वर की महिमा हमारे जीवनों में नहीं मिलती।

अपने उद्देश्य की खोज में न रहना

परमेश्वर ने मूसा की परीक्षा अन्य क्षेत्र में भी की। दो बार परमेश्वर ने उसे यह देखने के लिए परखा कि क्या वह इस्राएलियों के बदले अपने आत्मसम्मान को पाने की खोज में है। इन दोनों घटनाओं में मूसा अच्छे अंकों से उतीर्ण हुआ।

पहली घटना यह थी जब इस्राएलियों ने परमेश्वर के विरुद्ध बलवा करते हुए अपने लिए एक सोने का बछड़ा बना लिया था। तब परमेश्वर ने मूसा से कहा,

''अब मुझे मत रोक, मेरा कोप उन पर भड़क उठा है जिससे मैं उन्हें भस्म करुँ; परन्तु तुझ से एक बड़ी जाति 
उपजाऊँगा।'' 
(निर्गमन 32:10)

दूसरी घटना जब इस्राएलियों ने कनान में प्रवेश करने से मना कर दिया था, तब परमेश्वर ने मूसा से कहा,

''मैं उन्हें मरी से 
मारुँगा, और उनके निज भाग से उन्हें निकाल दूँगा, और तुझ से एक जाति उत्पन्न करुँगा जो उनसे बड़ी और बलवन्त होगी।'' 
(गिनती 14:12)

इन दोनों घटनाओं में, परमेश्वर ने मूसा से कहा कि वह इस्राएलियों को नष्ट कर देगा और मूसा को और उसके वंशजों को एक बड़ी जाति के रुप में बढ़ाएगा। मूसा के पास मौका था कि जो वाचा अब्राहम और इस्राएल के बारह गोत्रों के साथ बांधी गई थी उसका

उत्तराधिकारी बन जाए।

साधारण मनुष्य शायद इस परीक्षा में असफल हो जाता, परन्तु मूसा नहीं हुआ। इस दोनों घटनाओं में मूसा ने परमेश्वर से इस्राएलियों को क्षमा करने का निवेदन किया। इस्राएलियों को बचाने के लिए एक मौके पर तो उसने मरने और अपने आप को अनन्तकाल के लिए नरक में डालने की इच्छा भी जाहिर कर दी।

''तब मूसा यहोवा के पास जाकर कहने लगा, ''हाय, हाय, उन लोगों ने सोने का देवता बनवाकर बड़ा ही पाप किया है। तौभी 
अब तू उनका पाप क्षमा कर - नहीं तो अपनी लिखी हुई पुस्तक में से मेरे नाम को काट दे।'' 
(निर्गमन 32:31,32)

सही में मूसा में मसीह की आत्मा थी - जिसने क्रूस पर स्वयं को देकर पिता द्वारा छोड़े जाने के लिए तैयार थी ताकि हम बच जाएँ।

परमेश्वर मूसा की निर्स्वाथता से इतना आनन्दित हुआ कि उसके बाद वह उससे और निकट से बातें करने लगा।

''और यहोवा 
मूसा से इस प्रकार आमने-सामने बातें करता था, जिस प्रकार कोई अपने भाई से बातें करे।'' 
(निर्गमन 33:11)

यहाँ तक की परमेश्वर ने उसे अपनी महिमा देखने का सौभाग्य भी प्रदान किया।

जब मूसा ने यह कहते हुए प्रार्थना की,

''मुझे अपना तेज दिखा दे।
---।'' यहोवा ने कहा,
''सुन मेरे पास 
एक स्थान है, यहाँ तू उस चट्टान पर खड़ा हो; और जब तक मेरा तेज तेरे सामने हो के चलता रहे, तब तक मैं तुझे चट्टान की दरार में रखूँगा और 
जब तक मैं तेरे सामने से होकर न निकल जाऊँ तब तक अपने हाथ से तुझे ढाँपे रहूँगा; फिर मैं अपना हाथ उठा लूँगा, तब तू मेरी पीठ का तो दर्शन 
पाएगा; परन्तु मेरे मुख का दर्शन नहीं मिलेगा।''
(निर्गमन 33:18-23)

परमेश्वर के सेवक की सबसे महत्वपूर्ण योग्यता यह है कि वह कभी अपने लाभ की खोज में नहीं रहता।

अपने हित या सम्मान की खोज हम सभी में बहुत गहराई तक बसी है, और इसलिए परमेश्वर को इसे हम से दूर कर पाना थोड़ा कठिन है। वह हमारे लिए परिस्थितियों को बनाता है जिससे हम अपनी स्वार्थ की आत्मा को देख सकें, जिससे हम अपने आप का न्याय कर सकें और अपने को उस से शुद्ध कर सकें। वह अपने वचनों के द्वारा हम से बातें करता है और अपनी आत्मा के द्वारा लगातार हम से बोलता है (यदि हमारे पास सुनने के लिए कान हैं) निवेदन करता है कि इस स्वार्थी आत्मा से अपने आप को शुद्ध कर लें।

और इन सब के बदले, बहुत कम ही उस स्तर को बना पाते हैं और परमेश्वर की स्वीकृति के प्रमाण पत्र के योग्य बन पाते हैं। मूसा ऐसे लोगों में से एक था। पौलुस और तीमुथियुस ऐसे अन्य थे।

अधिक लोग नहीं हैं, परन्तु कुछ ही हैं।

दूसरों के लिए मध्यस्थता करने की आत्मा का कमी होना, जैसा पुरानी व्यवस्था में मूसा का था, केवल इस कारण से है, कि लगभग सभी, अपने हृदय की गहराई से, किसी भी रुप में केवल अपने ही हित की खोज में रहते हैं। जब हम गुप्त में दूसरों के लिए प्रार्थना करते हैं तब कोई आदर नहीं पाते। इसीलिए बहुत कम विश्वासी ऐसा करते हैं।

यही वह स्थान है जहाँ परमेश्वर हमें परखता है - क्योंकि वह अपने आप को ऐसों के लिए समर्पित नहीं करता जो केवल अपने ही हित की खोज में रहें।

आलोचना और विरोध पर अपनी प्रतिक्रिया

दूसरी सुन्दर बात जो हम मूसा में देखते है वह यह थी - आलोचना और

विरोध के प्रति उसकी प्रतिक्रिया।

जब लोग बलवा 
करने लगे और कहने लगे, ''आओ दूसरे अगुवे को अपने लिए चुन लें,'' मूसा बस अपने मुँह के बल बैठ गया और शान्त रहा।

हम पढ़ते हैं कि,

''तब मूसा और हारून इस्राएलियों की सारी मण्डली के सामने मँुह के बल गिरे।'' 
(गिनती 14:5)

उसने स्वयं को निर्दोष साबित करना न चाहा।

जब कोरह और इस्राएलियों के 250 अन्य अगुवों ने मूसा की अगुवाई के विरुद्ध बगावत कर दिया, तब दोबारा हम पढ़ते हैं कि,

''जब मूसा ने यह सुना, वह अपने मँुह के बल गिरा।
(गिनती 16:4)

उसने अपना बचाव नहीं किया, न अपने पद को थामे रहा, या अपने अधिकार का प्रयोग किया।

जब उसके बहन और भाई ने पीठ पीछे उसकी आलोचना की और परमेश्वर ने इसके लिए उन्हें दण्ड दिया तब मूसा परमेश्वर के चेहरे के सम्मुख अपने मँुह के बल परमेश्वर से उनके लिये दया की प्रार्थना करता रहा।

''अत: मूसा ने यह कहकर यहोवा की दोहाई दी, ''हे ईश्वर कृपा कर, और उसको चंगा कर।''
(गिनती 12:13)

सही में अपने जीवनकाल में वह पृथ्वी पर सबसे विनम्र व्यक्ति था। बाईबल यह वर्णन करती है, ''मूसा पृथ्वी भर के रहने वाले सब मनुष्यों से बहुत अधिक नम्र स्वभाव का था।'' (गिनती 12:3)

केवल इस प्रकार के लोगों के लिए परमेश्वर स्वयं को समर्पित करता है।

दूसरों पर अपना सामर्थ और अधिकार दिखाने से लोग भ्रष्ट होते है। संसार में एक कहावत है कि

''सामर्थ भ्रष्ट करती है, और अधिक सामर्थ अधिक भ्रष्ट करती 
है!''

परन्तु अधिक सामर्थ ने मूसा को जरा भी भ्रष्ट नहीं किया। परमेश्वर उसे बार-बार उसके लोगों के बगावत के द्वारा परखता रहा। प्रत्येक बार मूसा परीक्षा में उतीर्ण हुआ।

आत्मिक अगुवाईपन में बड़े खतरे होते हैं। परन्तु धन्य हैं वे लोग जो बार-बार अपने मँुह के बल जमीन पर गिरना, और अपनी जुबान को नियंत्रण करना जानते हैं और स्वयं को सही ठहराने और अपने दावों से दूर रहना जानते हैं।

परमेश्वर का अपने सेवकों के लिए यह वायदा है कि वह स्वयं उन्हें निर्दोष ठहराएगा। उसने कहा है,

''जितने हथियार तेरी हानि के लिए बनाए जाएँ, उन में से कोई सफल न होगा, जितने लोग मुद्दई होकर तुझ पर नालिश करें उन सभों से तू जीत जाएगा। यहोवा के दासों का यही भाग होगा, और वे मेरे ही कारण धर्मी ठहरेंगे, यहोवा की यही वाणी है।''
(यशायाह 54:17)

यह अच्छा है कि हम इस प्रकार की बातों को परमेश्वर पर छोड़ देंं इससे बढ़कर की हम स्वयं उन्हें अपने आप हल करें। हमारा केवल यह काम होना चाहिए कि हम अपने आप को परमेश्वर के हाथों में सौंप दें, जो धार्मिकता के अनुसार न्याय करता है जैसे प्रभु यीशु ने किया।

''वह गाली सुनकर गाली नहीं देता था, और दु:ख उठाकर किसी को भी धमकी नहीं देता था, पर अपने आप को सच्चे न्यायी 
के हाथ में सौंपता था।'' 
(1 पतरस 2:23)

यशायाह 53:7 में तीन बार, विवर्णित है कि यीशु शान्त रहा - जब वह सताया गया, जब भेड़ के समान कतरा गया और वध करने के लिए ले जाया गया।

''वह सताया गया, तौभी वह सहता रहा और अपना मुँह न खोला; जिस प्रकार भेड़ वध हाने के समय, भेड़ी ऊन कतरने के 
समय चुपचाप शान्त रहती है, वैसे ही उसने भी अपना मुँह न खोला।'' 
(यशायाह 53:7)

वह जो ऐसे समयों पर अपने आपको शान्त रखना नहीं जानता वह कभी भी आत्मिक अगुवा होने की उम्मीद न करे।

सताव जो हम सहते हैं एक प्रकार से परमेश्वर की ओर से हमारे विश्वास की परीक्षा है, कि हम परिस्थिति को संभालने के लिए परमेश्वर पर भरोसा कर सकते है या नहीं।

परमेश्वर के दास की गलतियाँ

बाईबल में परमेश्वर के लोगों की जीवनियाँ हमारे उत्साहावर्धन के लिए हैं, क्योंकि वे आज की जीवनियों से अलग, हमें उन लोगों की कमजोरियों को भी दिखाती हैं। वह व्यक्ति जो अपने जीवन भर कोई गलती नहीं करता वह हमारे लिए जो बहुत गलतियाँ करते हैं कोई उत्साह का कारण नहीं हो सकता।

परन्तु बाईबल में विवर्णित परमेश्वर के लोगों की गलतियाँ न केवल हमारे

उत्साहावर्धन के लिए बल्कि हमें सावधान करने के लिए भी लिखा गया हैं।

परमेश्वर अपने अभिषिक्त सेवकों से जो स्तर की कामना करता है वह अन्य विश्वासियों के स्तर से अधिक ऊँचा है। जिनको ज्यादा दिया गया है उनसे ज्यादा की कामना की जाती है।

कनान में प्रवेश निषेध करने से पहले परमेश्वर ने इस्राएलियों को दस मौके दिये थे। उसने उनके विषय में कहा, ''उन सब लोगों ने जिन्होंने मेरी महिमा मिस्र देश और जंगल में देखी, और मेरे किए हुए आश्चर्यकर्मों को देखने पर भी दस बार मेरी परीक्षा की, और मेरी बातें नहीं मानी, इसलिए जिस देश के विषय मैं ने उनके पूर्वजों से शपथ खाई, उसको वे कभी देखने न पाएँगे।'' (गिनती 14:22,23)

परन्तु उसने मूसा को केवल एक ही मौका दिया। जब मूसा ने केवल एक बार अविश्वास और अनाज्ञाकारिता में व्यवहार किया - और वो भी बहुत छोटे रुप में - परमेश्वर ने बहुत जल्दी वाचा की भूमि में उसका प्रवेश निषेध कर दिया। हमारी

चेतावनी के लिए यह वृतान्त गिनती 20:7-12 में अंकित है।

''तब यहोवा ने मूसा से कहा, ''उस लाठी को ले, और तू अपने भाई हारून समेत मण्डली को इकट्ठा करके उनके देखते उस 
चट्टान से बातें कर, तब वह अपना जल देगी; इस प्रकार से तू चट्टान में से उनके लिए जल निकाल कर मण्डली के लोगों और उनके पशुओं को 
पिला।'' यहोवा की इस आज्ञा के अनुसार मूसा ने उसके सामने से लाठी को ले लिया। मूसा और हारून ने मण्डली को उस चट्टान के सामने इकट्ठा 
किया, तब मूसा ने उस से कहा, ''हे दंगा करने वालो, सुनो; क्या हम को इस चट्टान में से तुम्हारे लिये जल निकालना होगा?'' तब मूसा ने हाथ 
उठाकर लाठी चट्टान पर दो बार मारी; और उसमें से बहुत पानी फूट निकला, और मण्डली के लोग अपने पशुओं समेत पीने लगे। परन्तु मूसा और 
हारून से यहोवा ने कहा, ''तुम ने जो मुझ पर विश्वास नहीं किया, और मुझे इस्राएलियों की दृष्टि में पवित्र नहीं ठहराया, इसलिये तुम इस मण्डली 
को उस देश में पहुँचाने न पाओगे जिसे मैं ने उन्हें दिया है।''

इस बार परमेश्वर ने मूसा को चट्टान से बात करने के लिए कहा था। जैसा कि हम निर्गमन 17:6 में पढ़ते हैं कि पहले भी एक बार चट्टान को मारा गया था,

''देख मैं तेरे आगे चलकर होरेब पर्वत की एक चट्टान पर खड़ा रहूँगा; और तू उस चट्टान पर 
मारना, तब उसमें से पानी निकलेगा, जिससे ये लोग पीएँ।'' तब मूसा ने इस्राएल के वृद्ध लोगों के देखते वैसा ही किया।''

वह इस बात का चिन्ह है कि मसीह एक बार और केवल एक बार ही क्रूसीकृत हुआ। दूसरी बार चट्टान पर मारने की आवश्यकता नहीं थी।

परन्तु मूसा ने अपने धैर्य को खो दिया (गिनती 20:10)। परमेश्वर के दास की अनाज्ञाकारिता के बाद भी - पानी निकला। यह तथ्य कि पानी बहा, केवल इस बात को सिद्ध करता है कि परमेश्वर उन लोगों को जो प्यासे थे प्रेम करता था। यह परमेश्वर के दास की अनाज्ञाकारिता को समर्थन नहीं करता।

यह इस कारण को स्पष्ट करता है कि क्यों उन लोगों की सेवकाई में फिर भी आशीष बनी रहती है जो अपने व्यक्तिगत जीवनों में परमेश्वर की आज्ञाओं के प्रति अनाज्ञाकारी होते हैं।

चट्टान से पानी तो बहा, पर मूसा अपनी आनाज्ञाकारिता के साथ आगे नहीं जा सका। परमेश्वर ने उसे बुरी तरह सजा दी। और वह सभी अनाज्ञाकारी दासों को एक दिन सजा देगा।

चालीस वर्षों तक मूसा उस दिन की प्रतिक्षा करता रहा जिस दिन वह कनान में प्रवेश कर सकेगा; और अब कनान की सीमा पर आकर वह अयोग्य घोषित हो गया। यह संभव है, दूसरों को प्रचार करते करते हम स्वयं अयोग्य घोषित हो जाएँ - यहाँ तक कि अपने जीवन के अन्तिम समय में भी।

पौलुस ने इस बात को पहचाना और कहा,

''मैं अपनी देह को मारता कूटता और वश में लाता हूँ, ऐसा न हो औरों को प्रचार करके मैं आप ही किसी रीति से निकम्मा ठहरुँ।'' 
(1 कुरि- 9:27)

बाईबल इस प्रकार कहती है,

''उसने मूसा को अपनी गति, और इस्राएलियों पर अपने काम प्रगट किए।''
(भजन संहिता 103:7)

इस्राएलियों ने केवल परमेश्वर के बाहरी कार्यों को देखा था, परन्तु मूसा को परमेश्वर के रास्ते जानने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। इसलिए अन्य इस्राएलियों के बदले मूसा से ज्यादा आशा की गई।

परमेश्वर के दासों के विशेषाधिकार अधिक हैं परन्तु उनकी जवाबदेही और भी अधिक है।

मरीबा में मूसा यह महसूस ही नहीं कर पाया कि परमेश्वर उसकी परीक्षा कर रहा है। यदि उसको मालूम होता, तो वह शायद अधिक सावधान होता। प्रति दिन के जीवन की परिस्थितियों में, हमारे कार्यो और विचारों को जाँचते हुए, थोड़ा हम भी महसूस करे कि परमेश्वर हमारी भी परीक्षा करता है। यहाँ तक कि यदि लोग हमारी सेवकाई के द्वारा आशीष पाते हैं, तब भी हमें अपने व्यक्तिगत जीवनों के लिए एक दिन मसीह के न्यायासन के सामने जवाब देना होगा।

मूसा के आरंभिक जीवन में परमेश्वर ने उसे अपने दासों के जीवन में किये हुए सख्त मांगों का संकेत दिया था ।

मूसा को इस्राएलियों का छुड़ानेवाले के रुप में बुलाए जाने के तुरन्त बाद ही, अपने पुत्र का खतना न करने की अनाज्ञाकारिता के लिए परमेश्वर ने लगभग उसके जीवन को ले ही लिया था। उसकी पत्नी सिप्पोरा जो अन्य जाति की थी, उसके कहने पर मूसा ने अपने पुत्र का खतना नहीं कराया। परन्तु परमेश्वर किसी भी कीमत पर मूसा में किसी भी प्रकार की अनाज्ञाकारिता को बर्दाशत करने पर नहीं था।

हमारी सावधानी के लिए यह घटना निर्गमन 4:24-26 में विवर्णित है,

''तब ऐसा हुआ कि मार्ग पर सराय में यहोवा ने मूसा से भेंट करके उसे मार डालना चाहा। तब सिप्पोरा ने एक तेज चकमक पत्थर लेकर अपने बेटे की खलड़ी को काट डाला, और मूसा के पाँवों पर यह कहकर फेंक दिया, 'निश्चय तू मेरे लिए लहू बहानेवाला मेरा पति है।' तब यहोवा ने उसको छोड़ दिया।''

पृथ्वी पर उस समय परमेश्वर के उद्देश्य को पूरा करने वाला सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति वह था, यह बात भी परमेश्वर के लिए कोई मायनेे नहीं रखती थी। वह मूसा में यदि किसी अनाज्ञाकारिता को देखता तो उसके जीवन को भी ले लेता। परमेश्वर पक्षपात नहीं करता।

यद्यपि परमेश्वर ने मूसा की अगुवाई में इस्राएलियों के कनान में प्रवेश करने के विशेषाधिकार को मना कर दिया, तौभी, वह परमेश्वर का एक विश्वासयोग्य सेवक था, इसलिए परमेश्वर ने महिमावंत रुप में, 1500 वर्षों के बाद उसको वाचा की भूमि में प्रवेश की और रुपान्तरण के पर्वत पर यीशु के साथ खड़े होने की अनुमति प्रदान की, जैसा की मत्ती 17:2,3 में हमें बताया गया, ''और वहां उनके (पतरस, याकूब और यूहन्ना) सामने उसका (यीशु) रुपान्तरण हुआ-------- और मूसा और एलिय्याह उसके साथ बातें करते हुए उन्हें दिखाई दिए।''

परमेश्वर बहुत सहनशील और दयालु है और वह प्रेम के बलिदान स्वरुप कार्य करने वाले किसी भी सेवक के कार्यों को भूलने में अधर्मी नहीं है।

"क्योंकि परमेश्वर अन्यायी नहीं कि तुम्हारे काम, और उस प्रेम को भूल जाए, जो तुम ने उसके नाम के लिए इस रीति से 
दिखाया, कि पवित्र लोगों की सेवा की और कर भी रहे हो।'' 
(इब्रानियों 6:10)

परन्तु परमेश्वर साथ ही साथ बहुत सख्त भी है।

इसलिए परमेश्वर की कृपा और कड़ाई को देख'' (रोमियों 11:22)

परमेश्वर को स्वीकार्य सेवा देने के लिए, हमें अवश्य ही परमेश्वर के भय में चलना होगा।

''इसलिए हम इस राज्य को पाकर जो हिलने का नहीं कृतज्ञ हों, और भक्ति, और भय सहित परमेश्वर की ऐसी आराधना करें 
जिससे वह प्रसन्न होता है; क्योंकि हमारा परमेश्वर भस्म करनेवाली आग है।'' 
(इब्रानियों 12:28,29)

तीमुथियुस के समान हम भी अवश्य ही अपने आप को ''परमेश्वर का ग्रहणयोग्य'' सेवक ठहराने का प्रयत्न करें। (2 तीमुथियुस 2:15)

अध्याय 7
दाऊद का परखा जाना

परमेश्वर ने दाऊद के विषय में गवाही देते हुए कहा,

''मुझे एक मनुष्य, यिशै का पुत्र दाऊद, मेरे मन के अनुसार मिल गया है; वही 
मेरी सारी इच्छा पूरी करेगा।''
(प्रेरितों के काम 13:22)

इस्राएल के राजा के रुप में शाऊल परमेश्वर का पहला पसंद था। परन्तु शाऊल उन दोनों परीक्षाओं में अपना धीरज खो देने के द्वारा (2शमूएल 13) और अपनी अनाज्ञाकारिता के द्वारा (1 शमूएल 15) असफल हो गया। इसलिए परमेश्वर ने उससे राज्य ले लिया और दाऊद को दे दिया।

राजा के रुप में अभिषेक होने से लेकर वास्तविकता में इस्राएल के राजसिंहासन पर बैठना यह दाऊद के लिए एक लम्बी और कठिन राह थी। इन सभी वर्षों में परमेश्वर उसे अनेक रुपों में परखता रहा - और वह उसमें सफल हुआ।

घर और कार्यस्थल पर विश्वासयोग्यता

पहली बात जो हम दाऊद के विषय में ध्यान देते है वह यह है कि परमेश्वर ने उसे तब बुलाया जब वह अपनी संसारिक जिम्मेदारियों को विश्वासयोग्यता के साथ अपने घर और अपने कार्यस्थल पर एक गड़रिये के रुप में निभा रहा था।

''तब शमूएल ने यिशै से कहा (जब वह यिशै के एक पुत्र का अभिषेक करने के लिए आया था), 'क्या सब लड़के आ गए?' वह बोला, 'नहीं, छोटा तो रह गया, और वह भेड़-बकरियों को चरा रहा है।''' (1 शमूएल 16:11)

यदि परमेश्वर को हमारे जीवनों के लिए अपनी स्वीकृति देनी है तो घर और हमारे कार्य स्थल पर विश्वासयोग्यता की आधारभूत आवश्यकता है।

जब हम देखते हैं कि किस प्रकार यीशु ने परमेश्वर की स्वीकृति को प्राप्त किया तो हम इस बात पर ध्यान देते हैं। इसको दोहराना यहाँ लाभदायक होगा, क्योंकि यह बहुत ही महत्वपूर्ण है।

अपने वचन की सेवकाई के लिए यीशु कभी भी किसी बेकार व्यक्ति को नहीं बुलाता। प्रत्येक प्रेरित को जिसको बुलाये जाने का वर्णन हम सुसमाचारों में पाते है उसे उसके कार्यस्थल सेही बुलाया गया था।

वर्तमान भारत में मसीही कार्य में दुख की बात यह है कि बड़ी संख्या उन लोगों की है जिन्होंने कभी भी किसी संसारिक नौकरी को नहीं किया है। इसी से यह प्रश्न खड़ा होता है कि क्या परमेश्वर ने इन्हें अपनी सेवकाई के लिए बुलाया है! परमेश्वर हमारे पृथ्वी पर के जीवन के साधारण कार्यों में विश्वासयोग्यता को बहुत महत्वपूर्ण स्थान देता है। यही वह बात है जो हमें उसकी सेवकाई के योग्य बनाती है।

परमेश्वर के नाम की चिन्ता

दूसरी बात जो हम दाऊद में देखते हैं वह परमेश्वर के नाम की महिमा के लिए उसकी चिन्ता है। जब गोलियत इस्राएल की सेना को ललकार रहा था, तब दाऊद कोई साहसी काम करने की तुच्छ इच्छा से उस बड़े वीर को चुनौती नहीं दे रहा था - परन्तु उसे तो परमेश्वर के नाम के सम्मान की चिन्ता थी।

हम पढ़ते हैं कि

''तब दाऊद ने उन पुरूषों से जो उसके आस-पास खड़े थे पूछा, 'जो उस पलिश्ती को मार के इस्राएलियों की नाम 
धराई दूर करेगा उसके लिये क्या किया जाएगा? वह खतनारहित पलिश्ती क्या है कि जीवित परमेश्वर की सेना को ललकारे?'' 
(1 शमूएल 17:26)

परमेश्वर के सच्चे सेवक का आरंभिक चिन्ह यह है कि उसकी सोच में सबसे ऊपर परमेश्वर के नाम की महिमा की चिन्ता होती है। प्रार्थना में ''तेरा नाम महिमा पाए'' उसका पहला और तत्काल निवेदन होता है। (मत्ती 6:9)

बाकी सब - व्यक्तिगत आराम और सुरक्षा - बाद में आता है। यही वह बिन्दु है जिसमें परमेश्वर हम सभी को विभिन्न परिस्थितियों में परखता है। कुछ ही परीक्षा में सफल हो पाते हैं। दाऊद उनमें से एक था जिसने ऐसा किया।

परमेश्वर के नाम के सम्मान की चिन्ता दाऊद में इतनी गहराई तक थी, कि उसने उसके हृदय में इतना पक्का विश्वास किया कि निश्चय ही गोलियत पर विजय पाने में परमेश्वर उसकी सहायता करेगा। इस विश्वास ने उसके सारे भय को दूर कर दिया। इस विश्वास के अस्त्र-शस्त्रों को धारण करके वह आगे बढ़ा और उस बड़े वीर को निगल गया और इस्राएल के शत्रुओं को मार भगाया।

जैसा दाऊद को परमेश्वर के नाम की महिमा की चिन्ता थी यदि हमें भी हो, तो हम भी पाएँगे कि परमेश्वर में विश्वास हमारे हृदयों में से सभी डर को निकाल देगा और हमारे भी गोलियत नष्ट हो जाएँगे। ऐसा अक्सर होता है, कि हम हियाव के साथ विश्वास में आगे बढ़ने के बदले अपने डर में बने रहते हैं, क्योंकि परमेश्वर के नाम की महिमा की चिन्ता बहुत कम होती है।

बदला लेने से इंकार कर देना

गोलियत को मार देने के साथ ही दाऊद की परीक्षा समाप्त नहीं हो गई। वे तो केवल आरंभ था। दाऊद की प्रसिद्धी के प्रति शाऊल की जलन ने, उसे दाऊद के पीछे सारे इस्राएल में उसे मारने के लिए दौड़ाया। दाऊद एक नगर से दूसरे और एक गुफा से दूसरी गुफा में भागता रहा।

दो मौकों पर जब शाऊल अकेला था और दाऊद की दया पर निर्भर था तब दाऊद उसे सरलता से मार सकता था। यहाँ तक की दाऊद के मित्रों ने उसे ऐसा करने की सलाह भी दी। परन्तु दाऊद ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। उसने परमेश्वर के अभिषिक्त राजा को छुआ नहीं। यदि वह सही पथ से सरक जाए तब भी नहीं। दाऊद शाऊल से राजगद्दी छीनना नहीं चाहता था। वह यह विश्वास करता था की परमेश्वर अपने सही समय में उसे सिंहासन पर बैठाने में योग्य है।

परमेश्वर की सर्वज्ञयता में दाऊद का विश्वास उससे कहीं अधिक था जो विश्वास उसने गोलियत को मारने में परमेश्वर की सहायता पर किया था।

दाऊद परमेश्वर के द्वारा परखा गया जब शाऊल को दाऊद की दया पर निर्भर होना पड़ा। न केवल एक बार परन्तु दो बार। पहला मौका 1 शमूएल 24:3-7 में विवर्णित है :

''जब वह मार्ग पर के भेड़शालों के पास पहुँचा जहाँ एक गुफा थी, तब शाऊल दिशा फिरने को उसके भीतर गया। उसी गुफा के 
कोनों में दाऊद और उसके जन बैठे हुए थे। तब दाऊद के जनों ने उससे कहा, 'सुन, आज वही दिन है जिसके विषय यहोवा ने तुझ से कहा था, ''मैं 
तेरे शत्रु को तेरे हाथ में सौंप दूँगा, कि तू उससे मनमाना बर्ताव कर ले।'' तब दाऊद ने उठकर शाऊल के बागे के छोर को छिपकर काट लिया इसके 
बाद दाऊद शाऊल के बागे की छोर काटने से पछताया। वह अपने जनों से कहने लगा, ''यहोवा न करे कि मैं अपने प्रभु से जो यहोवा का अभिषिक्त 
है, ऐसा काम करुँ कि उस पर हाथ उठाऊँ, क्योंकि वह यहोवा का अभिषिक्त है।'' ऐसी बातें कहकर दाऊद ने अपने जनों को समझाया, और उन्हें 
शाऊल पर आक्रमण करने को उठने न दिया। फिर शाऊल उठकर गुफा से निकला और अपना मार्ग लिया।''

दूसरा मौका 1 शमूएल 26:6-12 में विवर्णित है :

''तब दाऊद ने हित्ती अहीमेलेक और सरूयाह के पुत्र योआब के भाई अबीशै से कहा, 'मेरे साथ उस छावनी में शाऊल के पास 
कौन चलेगा?' बीशै ने कहा, 'तेरे साथ मैं चलूँगा।' अत: दाऊद और अबीशै रातों रात उन लोगों के पास गए, और क्या देखते हैं कि शाऊल गाड़ियों की 
आड़ में पड़ा सो रहा है, और उसका भाला उसके सिरहाने भूमि में गड़ा है; और अब्नेर और योद्धा लोग उसके चारों ओर पड़े हुए हैं। तब अबीशै ने 
दाऊद से कहा, 'परमेश्वर ने आज तेरे शत्रु को तेरे हाथ में कर दिया है; इसलिये अब मैं उसको एक बार ऐसा मारुँ कि भाला उसे बेधता हुआ भूमि 
में धँस जाए, और मुझ को उसे दूसरी बार मारना न पड़ेगा।' दाऊद ने अबीशै से कहा, 'उसे नष्ट न कर; क्योंकि यहोवा के अभिषिक्त पर हाथ 
चलाकर कौन निर्दोष ठहर सकता है?' फिर दाऊद ने कहा, 'यहोवा के जीवन की शपथ यहोवा ही उसको मारेगा; या वह अपनी मृत्यु से मरेगा; या वह 
लड़ाई में जाकर मर जाएगा। यहोवा न करे कि मैं अपना हाथ यहोवा के अभिषिक्त पर उठाऊँ; अब उसके सिरहाने से भाला और पानी की सुराही उठा 
ले, और हम यहाँ से चले जाएँ।' तब दाऊद ने भाले और पानी की सुराही को उठा लिया; और वे चले गए। किसी ने इसे न देखा, और न जाना, और 
न कोई जागा; क्योंकि वे सब इस कारण सोए हुए थे कि यहोवा की ओर से उनमें भारी नींद समा गई थी।''

प्रत्येक समय पर दाऊद ने परीक्षा में सफलता प्राप्त की। उसने बदला नहीं लिया - क्योंकि वह जानता था कि बदला लेना परमेश्वर का काम है। उसने भलाई से बुराई पर जय पाना तय कर लिया था।

बाईबल इस प्रकार कहती है,

 ''हे प्रियों, बदला न लेना, परन्तु परमेश्वर के क्रोध को अवसर दो, क्योंकि लिखा है, ''बदला लेना मेरा 
काम है, प्रभु कहता है मैं ही बदला दूँगा।'' परन्तु ''यदि तेरा बैरी भूखा हो तो उसे खाना खिला, यदि प्यासा हो तो उसे पानी पिला; क्योंकि ऐसा करने 
से तू उसके सिर पर आग के अंगारों का ढेर लगाएगा।'' बुराई से न हारो, परन्तु भलाई से बुराई को जीत लो।'' 
(रोमियों 12:19-21)

परमेश्वर की सर्वज्ञयता में विश्वास रखना

परमेश्वर ने दाऊद से राज्य देने का वायदा किया था। और दाऊद स्वयं परमेश्वर से ही उसे पाने की प्रतिक्षा में था।

परमेश्वर ने हमें जो देने का वायदा किया हो उस चीज के लिए प्रतिक्षा करना यह हमारे विश्वास और धैर्य के लिए परीक्षा है।

परमेश्वर पर विश्वास करने और प्रतिक्षा करने में दाऊद ने कुछ भी नहीं खोया। परमेश्वर ने दाऊद के लिए योजना बनायी थी कि जब वह अपने तीसवें जन्मदिन को पूरा करेगा तब वह राजा बनेगा; और परिस्थितियों ने भी ठीक उसी प्रकार जैसे परमेश्वर की इस योजना का साथ दिया।

''दाऊद तीस साल का था जब वह राजा बना।'' (2 शमूएल 5:4)

दाऊद यूसुफ की जीवनी से संदेह न करने के बारे में सीखा था और यह भी कि व्यक्ति को अपने निर्धारित समय पर राजसिंहासन पर बैठाने के लिए परमेश्वर योग्य है।

परमेश्वर का वचन यूसुफ को भी बहुत वर्षों तक बहुत ही विचित्र परिस्थितियों में परखता रहा।

''लोगों ने उसके (यूसुफ) पैरों में बेड़ियाँ डालकर उसे दु:ख दिया; वह लोहे की साँकलों से जकड़ा गया। जब तक कि उसकी बात 
पूरी न हुई तब तक यहोवा का वचन उसे कसौटी पर कसता रहा।'' 
(भ-सं- 105:18,19)

परन्तु जैसे की यूसुफ ने अपने तीसवें वर्ष को पूरा किया, परमेश्वर का समय आया और यूसुफ मिस्र में दूसरा शासक बन गया।

''जब यूसुफ मिस्र के राजा फिरौन के सम्मुख खड़ा हुआ, तब वह तीस वर्ष का था।'' (उत्पत्ति 41:46)

न तो यूसुफ के भाईयों की जलन और न ही पोतीफर की पत्नी के झूठे आरोप यूसुफ के जीवन के लिए परमेश्वर की योजना को पूरा होने से रोक पाये। और दाऊद समझ गया कि जो वह यूसुफ के लिए कर सकता है वह उसके लिए भी करेगा।

अब प्रश्न यह उठता है क्या हम में विश्वास है कि जो परमेश्वर ने यूसुफ और दाऊद और अन्य दूसरों के सेवकों के लिए किया, वह हमारे लिए भी करेगा। यह वह स्थान है जहाँ हमारा विश्वास परखा जाता है।

उदाहरण के लिए, क्या आप यह विश्वास करते हैं, कि आपके जीवन साथी को जिसे परमेश्वर ने आपके लिए चुना है वह आपके पास लाएगा, आप के उसे प्राप्त करने के प्रयास या अविश्वासी के रुप में व्यवहार करने के बिना और उसी प्रकार, आपकी नौकरी या घर जिसकी परमेश्वर ने आपके लिए योजना बनाई है - और वे सभी चीजें जो आप को पृथ्वी पर के जीवन के लिए आवश्यक है - परमेश्वर के नियुक्त समय पर आप को मिलेगी? जब हम इस प्रकार की आवश्यकता का सामना करते हैं तब हमारे विश्वास की परीक्षा होती है।

''मेरी बाट जोहने वाले (जो उसके लिए कार्य करते हैं) कभी लज्जित न होंगे।''
(यशायाह 9:23)

''क्योंकि प्राचीनकाल ही से तुझे छोड़ कोई और ऐसा परमेश्वर न तो कभी देखा गया और न कान से उसकी चर्चा सुनी गई जो 
अपनी बाट जोहनेवालों के लिए काम करे।'' 
(यशायाह 64:4)

विश्वास के लोगों को सदैव अच्छा ही मिलता है - उन्हें छीनने की जरुरत नहीं होती।

याकूब के लिए यह कितना ही भिन्न था जिसने पहलौठे का अधिकार प्राप्त करने के लिए अपने पिता को धोखा दिया! यदि याकूब ने अपनी बात को परमेश्वर के सम्मुख रखा होता और उस पर विश्वास किया होता तो उसे झूठ बोलकर पहलौठे के अधिकार को प्राप्त नहीं करना पड़ता (उत्पत्ति 27)। परन्तु याकूब ने इसे गलत प्रकार से प्राप्त किया इसलिए उसे अपने घर से भागना पड़ा और अगले बीस वर्षों तक बहुत कष्ट सहना पड़ा।

यह सभी वृतान्त पवित्र शास्त्र में हमारे निर्देशन और सावधानी के लिए लिखे गये हैं, जिससे हम किसी भी समय अविश्वासी और अधैर्यवान व्यक्ति के समान व्यवहार न करें।

जब अपने दफ्तर में मुश्किल घड़ी से बचने के लिए हमें झूठ का सहारा लेना पड़े, हम उस बुराई का इन्कार कर सकते हैं और परमेश्वर को सम्मान देकर हमारी सहायता करने के लिए उस पर विश्वास कर सकते हैं। आप सच बोलकर और परमेश्वर को सम्मान देकर कभी कुछ भी खोएँगे नहीं, क्योंकि निश्चय ही परमेश्वर सभी प्रकार के झूठ से बढ़कर सामर्थी है। और यदि झूठ आप को बचा सकता है तो सोचिए परमेश्वर कितना आप को बचा सकता है!

''क्योंकि बढ़ती न तो पूर्व से न पश्चिम से, और न जंगल की ओर से आती है; परन्तु परमेश्वर ही न्यायी है, वह एक को घटाता 
और दूसरे को बढ़ाता है।'' 
(भ-सं- 75:6-7)

यह केवल परमेश्वर ही है जो एक अनजान यूसुफ और अनजान दाऊद को एक महत्वपूर्ण सेवकाई पर ऊँचा उठा सकता है, उनके परखे जाने और विश्वसायोग्य सिद्ध होने के बाद।

परखे जाने से बहुतायत की ओर

अपने अनुभव को याद करते हुए दाऊद कहता है,

 ''क्योंकि हे परमेश्वर तूने हमको जाँचा; तूने हमें चांदी के समान ताया था। तू ने 
हम को जाल में फँसाया; और हमारी कटि पर भारी बोझ बाँधा था; तूने घुड़चढ़ों को हमारे सिरों के ऊपर से चलाया, हम आग और जल से होकर 
गए; परन्तु तू ने हम को उबार के सुख से भर दिया है।''
(भ-सं- 66:10-12)

इस प्रकार दाऊद का प्याला उमड़ पड़ा और बहने लगा (भ-सं- 23:5, दाऊद ने उसी इब्रानी शब्द का यहाँ पर प्रयोग किया है जिसका उसने भ-सं- 66:12 में 'सुख से भर दिया है' के लिए किया है।)

परमेश्वर का एकमात्र उद्देश्य हमें महिमावान स्वतंत्रता के उस स्थान पर ले आना है जहाँ से जीवन के जल की नदियाँ लगातार हम में से होकर बहती रहें। परन्तु वह हमें वहाँ पर बिना परखे नहीं ले जा सकता।

वह हमें आग और पानी में से होकर ले जाएगा। वह मनुष्यों को हमें गाली देने और हमारा प्र्रयोग करने की आज्ञा देगा। वह हमें जाल में फंसाएगा - हमारी

गतिविधियों और सेवकाई को सीमित कर देगा। इन सभी परिस्थितियों में, वह हमारी प्रतिक्रियाओं को देखेगा। यदि हम उन सभी बातों को जो वह हमारे जीवन में लाता है विनम्रता और आनन्द के साथ ग्रहण कर लेते हैं, तो निश्चय ही वह हमें छलकने वाली बहुतायत के स्थान पर ले आएगा।

ईमानदारी से पाप को कबूलना

दाऊद के चरित्र का अन्तिम पहलू यह है कि राजा होने पर भी अपने आप को न्याय के लिए प्रस्तुत किया। जब वह बतशेबा के साथ पाप में पड़ा, उसने उस समय अपने पाप की गंभीरता को महसूस नहीं किया। बाद में, जब नातान नबी उस पर पाप का दोष लगाया, हम पाते हैं कि दाऊद ने विनम्रता से अपने पाप को कबूल लिया।

''मैंने यहोवा के विरुद्ध पाप किया है।'' उसने नातान नबी के सामने मान लिया। (2 शमूएल 12:13)

हमें अपने आप की तुलना दाऊद से नहीं करनी है, जो व्यभिचार में पड़ गया, वह तो पुरानी व्यवस्था के अन्तर्गत जीया। वह अनुग्रह के अन्तर्गत नहीं था। परमेश्वर जिस स्तर की कामना हम से करता है वह बहुत ऊँचा है।

वह स्तर जो यीशु ने हमारे लिए इस क्षेत्र में निर्धारित किया है वह मत्ती 5:28,29 में बताया है :

''परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ, कि जो कोई किसी स्त्री पर कुदृष्टि डाले वह अपने मन में उस से व्यभिचार कर चुका। यदि तेरी 
दाहिनी आँख तुझे ठोकर खिलाए, तो उसे निकालकर फेंक दे; क्योंकि तरे लिये यही भला है कि तेरे अंगों में से एक नष्ट हो जाए और तेरा सारा 
शरीर नरक में न डाला जाए।''

पाप के स्वीकार के विषय में दाऊद से हम एक लाभकारी पाठ सीख सकते हैं।

ऐसा क्यों था कि परमेश्वर ने शाऊल से राज्य वापस ले लिया, उस बात के लिए, जो मानवीय रुप में अगर कहा जाए, नजरअंदाज कर दिए जाने वाला अपराध था? और क्यों परमेश्वर ने दाऊद को राज्य करते रहने के अनुमति दी थी, जबकि उसने व्यभिचार के साथ हत्या का अपराध भी किया था, जो बहुत बड़ा था? इसका जवाब इन दोनों व्यक्तियों की उनके पाप से उनका सामना होने पर उनकी प्रतिक्रिया में मिलता है। शाऊल ने अपने पाप को अकेले में शमूएल के सामने स्वीकारा, परन्तु लोगों के सामने सम्मान को पाना चाहा।

''उसने कहा, 'मैं ने तो पाप किया है; तौभी मेरी प्रजा और पुरनियों के सामने मेरा आदर कर, और मेरे साथ लौट कि मैं परमेश्वर यहोवा को दंडवत्‌ करूँ।'' (1 शमूएल 15:30)

उसने पाप किया था परन्तु अभी भी वह लोगों का सम्मान पाना चाहता था। दूसरी ओर दाऊद ने अपने पापों को छुपाने का प्रयास नहीं किया, परन्तु भजन 51 लिखकर उसे लोगों के सामने मान लिया।

इन दो व्यक्तियों से हम यह सीखते हैं कि जो लोग मनुष्यों के सम्मान को पाना चाहते हैं उनके लिए उपयुक्त टूटेपन और मनफिराव के साथ परमेश्वर की ओर मुड़ना उन से

अधिक कठिन है जो हत्या या व्यभिचार करते हैं। यीशु ने दोनों को, जो हत्यारा क्रूस पर उसके साथ और उस स्त्री को जो व्यभिचार में पकड़ी गई थी क्षमा किया था क्योंकि उन्होंने मन फिराया था। परन्तु फरीसी जो सदैव मनुष्यों का आदर पाना चाहते थे उनके लिए मन फिराना कठिन था। और इसलिए उनके पाप क्षमा नहीं किये गये।

मनुष्यों का आदर पाने की खोज में रहना मूर्तीपूजा के समान है। और यही एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर परमेश्वर हम सभी को सबसे ज्यादा परखता है।

धन्य है वे जो दाऊद के समान सफल हो जाते हैं।

हमारी पिछली असफलताएँ हमें परमेश्वर का उद्देश्य पूरा करने से नहीं रोक सकतीं, यदि हम उन्हें विनम्रता के साथ मान लेते हैं - क्योंकि परमेश्वर नम्र व्यक्तियों को अपना अनुग्रह प्रदान करता है।

अध्याय 8
एलीशा और गेहजी का परखा जाना

इस्राएल के इतिहास के एक मुश्किल समय में, परमेश्वर ने इस्राएलियों को उसकी गवाही देने के लिए एलिय्याह भविष्यद्वक्ता को खड़ा किया। एलिय्याह के पास एक सेवक था जिसका नाम एलीशा था जिसको परमेश्वर ने जातियों पर अगला भविष्यद्वक्ता होने के लिए चुना था।

और एलीशा के पास भी एक सेवक था जिसका नाम गेहजी था।

एलीशा और गेहजी के बीच की भिन्नता यह बड़ा ही रोचक अध्ययन है।

एलीशा की विश्वासयोग्यता

परमेश्वर ने एलीशा को एलिय्याह से दोगुना अभिषेक दिया। यह परमेश्वर की एलीशा के जीवन के लिए स्वीकृति की मोहर थी। परन्तु इससे पहले की परमेश्वर उसे चुने, उसको परखना भी था।

जैसा की परमेश्वर के सभी सच्चे दासों के साथ होता है, एलीशा को भी सेवकाई के लिए तब बुलाया गया जब वह ईमानदारी के साथ अपनी संसारिक जिम्मेदारियों को पूरा कर रहा था।

''तब वह वहाँ से चल दिया, और शापात का पुत्र एलीशा उसे मिला जो बारह जोड़ी बैल अपने आगे किए हुए स्वयं बारहवीं के साथ होकर हल जोत रहा था। उसके पास जाकर एलिय्याह ने अपनी चाद्दर उस पर डाल दी।'' (1 राजा 19:19)

इसलिए, एलीशा ने बहुत से वर्षों तक एलिय्याह भविष्यद्वक्ता के लिए एक नौकर की तरह कार्य करने में अपना समय व्यतीत किया। ''एलीशा जो एलिय्याह के हाथों को धुलाया करता था'' के रुप में जाना जाता था। (2राजा 3:11ब)

उसने परमेश्वर से अपने लिए बड़ी चीजों की कामना नहीं की, परन्तु परमेश्वर के पास उस जवान के लिए बहुत महान योजनाएँ थीं।

एलिय्याह के स्वर्गारोहण के पहले, एलीशा को परखा जाना था, और इस लिए एलिय्याह ने एलीशा को गिलगाल में रुकने के लिए कहा जबकी वह स्वयं बेतेल को जा रहा था। एलीशा ने रुकने से इंकार कर दिया क्योंकि वह एलिय्याह के साथ जाना चाहता था। बेतेल में भी, एलिय्याह ने एलीशा को यह कहकर मना करना चाहा कि वह यरीहो की ओर जा रहा है। परन्तु एलीशा जोंक के समान चिपका रहा। अन्तत:, यरीहो में, एक बार फिर एलीशा को उसी प्रकार परखा गया। एक बार फिर, एलीशा ने डटे रहने की परीक्षा में सफलता प्राप्त की और एलिय्याह के साथ यर्दन तक गया। इस कारण से ही उसे दोगुना अभिषेक प्राप्त हुआ - यह परमेश्वर का उसके जीवन के लिए सबसे उŸाम भाग था।

(2 राजा 2:1-14)

यहाँ हमारे लिए क्या संदेश है? हमारे आत्मिक विकास में अलग-अलग स्तर होते हैं, जहाँ पर परमेश्वर हमें यह देखने के लिए परखता है कि क्या हम उस से जो हमें प्राप्त हुआ है संतुष्ट हैं या हम परमेश्वर का उŸाम भाग प्राप्त करने के लिए और जोर देते हैं।

गिलगाल उस स्थान का नाम है जहाँ पर हमारे पाप क्षमा होते हैं।

(यहोशू 5:8,9)

बहुत से मसीही वहाँ तक पहुँचे और वहीं ठहर गये।

कुछ बेतेल तक पहुँचते हैं (जिसका अर्थ 'परमेश्वर का घर' है) - जो विश्वासियों के साथ परमेश्वर के परिवार में संगति को दर्शाता है।

 ''भोर को याकूब उठा,----उस स्थान का नाम बेतेल रखा;-----और यह पत्थर, जिसका मैं ने खम्भा खड़ा किया है, परमेश्वर का भवन 
ठहरेगा।''
(उत्पŸा 28:19,22)

कुछ यहीं पर रुक जाते हैं।

परन्तु कुछ अभी भी यरीहो तक जाते हैं - जो परमेश्वर की दिव्य सार्मथ के लिए जाना जाता है।

''---फिर बड़ी ही ध्वनि से उन्होंने जयजयकार किया, तब शहरपनाह नींव से गिर पड़ी, और लोग अपने अपने समान से उस 
नगर में चढ़ गए, और नगर को ले लिया।''
(यहोशू 6:20)

यह वह दूर तक का स्थान है जहाँ तक बहुत से मसीही शायद ही कभी जाते हो।

बहुत ही कम यर्दन तक जाते हैं - जो यीशु के साथ उसकी मृत्यु में अपनी पहचान को पाते हैं, जैसा की बपतिस्मे में दर्शाया गया है।

''उस समय यीशु गलील से यर्दन के किनारे यूहन्ना के पास उससे बपतिस्मा लेने आया।'' 

और बहुत ही कम क्रूस के मार्ग पर चलने की इच्छा रखते हैं -

''जो उसने परदे अर्थात्‌ अपने शरीर में से होकर, हमारे लिये 
अभिषेक किया है।'' 
(इब्रानियों 10:20)

ये वे लोग है, जो अपने स्वयं को मारने के लिए सम्पूर्ण हृदय से तैयार रहते हैं, और परमेश्वर के उŸाम भाग का दोगुना पाते हैं।

आज भी हम सभी की परीक्षा होती है, कि किस स्तर पर आकर हम रुक।

गेहजी की अविश्वासयोग्यता

एलीशा ने भविष्यद्वक्ता के रुप में एलिय्याह के पद को ले लिया था, गेहजी भी एलीशा के स्थान पर अगला भविष्यद्वक्ता हो सकता था, यदि वह विश्वासयोग्य होता तो। परन्तु गेहजी की पहले परीक्षा होनी थी।

यह परीक्षा तब हुई जब नामान, सीरीया का सेनापति कोढ़ से अपनी चंगाई को प्राप्त करने के बाद एलीशा के पास वापस लौटकर आया। अपनी चंगाई के बदले में आभार व्यक्त करते हुए, नामान एलीशा को चाँदी और सोने के सिक्के जिनका मुल्य लगभग लाखों रूपये था और दस कीमती सीरीयाई कपड़े की पोशाकें भेंट स्वरुप देना चाहता था। एलीशा से कम व्यक्ति के लिए यह कितनी बडी परीक्षा थी! परन्तु बिना किसी पल की हिचकिचाहट के एलीशा ने कुछ भी लेने से इंकार कर दिया। नामान एक अविश्वासी और समझौता करने वाला व्यक्ति था और एलीशा उस से कुछ नहीं ले सकता था।

इस सत्य को कि नामान एक समझौता करने वाला व्यक्ति था स्पष्ट रुप से इस बात में देखा जा सकता है जो उसने अपनी चंगाई के तुरन्त बाद एलीशा से कही। उसने कहा कि अपने पद के कारण वह मूर्तिपूजा करने के लिए विवश है। नामान जानता था कि मूर्तिपूजा गलत है, परन्तु वह सत्य के करण अपने पद को बलिदान नहीं करना चाहता था और ऐसा ही आज भी बहुत से लोग करते हैं।

नामान ने एलीशा को बताया,

''एक बात यहोवा तेरे दास की क्षमा करे, कि जब मेरा स्वामी रिम्मोन के भवन में दण्डवत्‌ करने को 
जाए, और वह मेरे हाथ का सहारा ले, और यो मुझे भी रिम्मोन के भवन में दण्डवत्‌ करनी पड़े, तब यहोवा तेरे दास का यह काम क्षमा करे कि मैं 
रिम्मोन के भवन में दण्डवत्‌ करूँ।'' 
(2 राजा 5:18)

एलीशा ऐसे व्यक्ति से कुछ नहीं लेता।

आरंभिक प्रेरितों ने भी इसी प्रकार के तरीके को अपनाया।

''क्योंकि वे उस नाम के लिए निकले हैं, और अन्यजातियों से कुछ नहीं 
लेते।'' 
(3 यूहन्ना 7)

गेहजी ने नामान के पैसे के प्रति एलीशा के स्वभाव को देखा था। परन्तु उसे लगा कि एलीशा मूर्ख है जिसने उसे इंकार कर दिया जो नामान उसे मुफ्त में दे रहा था। इसलिए वो नामान के पीछे भागा (जैसा कि आजकल बहुत से भारतीय मसीही लोग पश्चिमी मसीहों के पीछे भागते हैं) और उसने कुछ झूठ बोलकर चालीस हजार रूपये की चाँदी के सिक्के और दो सीरीयाई पोशाकें ले लीं।

एलीशा जो कि एक बेइमान व्यक्ति को आसानी से पहचान सकता था, एकदम से गेहजी की दुष्टता को खोल दिया। उसने गेहजी से कहा जैसा कि तू ने नामान का धन लिया है, उसी प्रकार उसके कोढ़ को भी लेगा।

उसने उस से कहा,

''इस कारण से नामान का कोढ़ तुझे और तेरे वंश को सदा लगा रहेगा।' तब वह हिम-सा श्वेत कोढ़ी होकर 
उसके सामने से चला गया।''
(2 राजा 5:27)

एलीशा के अभिषेक का दोगुना पाने के बदले में गेहजी को कोढ़ प्राप्त हुआ।

गेहजी को उस दिन थोड़ा सोचना था कि वह परमेश्वर के द्वारा परखा जा रहा था। यदि केवल उसे यह पता होता कि बदले में क्या विशाल चीज मिलनी थी, वह शायद

अधिक सावधान होता।

परन्तु जैसा की हमने बार बार देखा है, बहुत बार हम यह महसूस नहीं कर पाते कि कब परमेश्वर हमें परख रहा है - खासकर धन-सम्पŸा के मामले में।

राजा हिजकिय्याह के विषय में लिखा है,

''परमेश्वर ने उसको इसलिये छोड़ दिया, कि उसको परखकर उसके मन का सारा भेद 
जान ले।'' 
(2 इति- 32:31)

यह गेहजी के लिए भी सत्य था। परमेश्वर में होने दिया कि वह ऐसी परिस्थिति में हो जहाँ कोई भी उसे देख न रहा हो। केवल इसी प्रकार उसकी परीक्षा होनी थी।

लालच का परिणाम

बहुत वर्ष पूर्व, यरीहो में आकान के साथ भी ऐसा ही हुआ था। परमेश्वर ने होने दिया कि आकान भी घर में अकेला था यह परखने के लिए कि क्या वह उस चीज को लेता जिसको लेने के लिए परमेश्वर ने उसे मना किया था। और इसमें आकान असफल हो गया।

आकान ने अपने असफल होने को इस प्रकार बताया है :

''मैं ने देखा----- मैं ने लालच किया---- मैं ने उसे रख लिया---- मैं ने भूमि में गाढ़ दिया---(यहोशू 7:21)

गेहजी के मामले में भी यही क्रम दोहराया गया था।

आकान और उसके परिवार ने कनान में अपने अधिकार को खो दिया; गेहजी ने भी इसी प्रकार अपनी बुलाहट को खो दिया जो परमेश्वर के दिमाग में उसके लिए था।

दोनों आकान और गेहजी ने एसाव के पद चिन्हों का अनुसरण किया जिसने ''एक वक्त के भोजन के लिए अपने पहलौठे के अधिकार को बेच दिया।'' (इब्रा- 12:16)

एलीशा और गेहजी के बीच का अंतर चौंकाने वाला है। जहाँ एलीशा ने एलिय्याह का पीछा करते हुए उसके अभिषेक का दोगुना ले लिया, थोड़ी सी संपत्ति के लिए गेहजी ने नामान का पीछा किया। वे दोनों आज के मसीही कार्यकर्त्ता के दो रुपों का प्रतिनिधित्व करते हैं - और हम में से प्रत्येक को यह पता है कि हम किस श्रेणी में आते हैं!!

इसमें कोई संदेह नहीं है कि गेहजी को बिलाम की कहानी मालूम था। तौभी उसने ऐसा नहीं सोचा कि बिलाम जैसा अन्त उसका भी होगा। बिलाम एक भविष्यद्वक्ता था जिस पर एक समय परमेश्वर का आत्मा उतरता था।

हम पढ़ते हैं कि एक समय पर, ''और बिलाम ने आँखें उठाइर्ं, और इस्राएलियों को अपने गोत्र के अनुसार बसे हुए देखा और परमेश्वर का आत्मा उस पर उतरा।'' (गिनती 24:2)

वह भटक गया, इसलिए नहीं कि वह आर्थिक मामलों में अधर्मी था, परन्तु इसलिए कि वह धन से प्रेम रखता था। धन से प्रेम और पृथ्वी के राजा से मिलने वाले सम्मान के प्रेम ने उसे इतना अंधा बना दिया कि वह यह नहीं देख सका कि वह परमेश्वर की आज्ञा के विरुद्ध जा रहा है। परमेश्वर ने बिलाम के हृदय में क्या है यह देखने के लिये उसकी परीक्षा ली।

जब बिलाम ने पहले परमेश्वर की इच्छा को जानना चाहा, कि उसे राजा बालाक के दूतों के साथ राजा से मिलने जाना चाहिए या नहीं, परमेश्वर ने उसे स्पष्ट उत्तर दिया था : ''तू इनके संग मत जा।'' (गिनती 22:12) वह उत्तर इस से ज्याद स्पष्ट नहीं हो सकता था।

परन्तु जब बालाक ने ज्यादा धन और सम्मान दिया, तब बिलाम दोबारा प्रश्न पूछने की परीक्षा में पड़ा। जब परमेश्वर ने देखा कि बिलाम सही में जाना चाहता था, उसने उसे जाने को कहा। परन्तु बिलाम को इसका परिणाम भुगतना पड़ा।

कभी कभी परमेश्वर की इच्छा न होते हुए भी वह हमारी विनतियों को पूरा कर देता है, इसलिए कि वह देखता है हम उस चीज के लिए बहुत ललायित है। परन्तु आत्मिक परिणाम ऐसे ही होंगे जैसे इस्राएलियों के विषय में भजन 106:15 में लिखे हुए हैं:

''तब उसने उन्हें मुँह माँगा वर 
तो दिया, परन्तु उनके प्राण को सुखा दिया।'' (एक अन्य अनुवाद के अनुसार 'उनकी आत्मा को कम कर दिया।')

बिलाम ने यह महसूस नही किया कि उसकी परीक्षा हो रही थी और कि धन के प्रति उसके प्रेम ने उसे भटका दिया था। वह लगातार भविष्यद्वाणी तो करता रहा, परन्तु उसने संसारिक लाभ के लिए अपने पहले ही कदम को चिकने और फिसलन भरे मार्ग पर रख दिया था जिससे उसको धरातल पर पहुँचने में कुछ ही क्षण लगे। वह जो एक वक्त परमेश्वर के साथ इतनी गहराई तक बात करता था एक जादूगर हो गया और इस्राएलियों ने उसे मार डाला।

विवरण इस प्रकार कहते हैं, ''इस्राएलियों ने----बोर के पुत्र भावी कहनेवाले बिलाम को भी तलवार से मार डाला।'' (यहोशू 13:22)

गेहजी इस प्रकार की चेतावनी को स्वयं के लिए समझने में असफल हो गया।

परन्तु हम उन वर्तमान मसीही लोगों की भीड़ को क्या कहें जिनके पास बिलाम और गेहजी दोनों के उदाहरण अपने आप को सावधान करने के लिए हैं और जो अभी भी भ्रम में जी रहे हैं।

धन के प्रति प्रेम सभी प्रकार की बुराई की जड़ है। परमेश्वर ने भौतिक वस्तुओं को हमें आकर्शित करने के लिए रखा है जिससे हमारी विश्वासयोग्यता और उसके प्रति हमारे समर्पण को परखा जाये।

यीशु ने कभी नहीं चाहा कि उसके चेले भौतिक वस्तुओं के पीछे भाग कर उनको प्राप्त करें। हमें उसके राज्य और उसकी धार्मिकता को पहले खोजना है। सभी भौतिक वस्तुएँ जिनकी हमें आवश्यकता होगी तब हमारी गोद में आकर गिरेंगी, ऐसे ही और जब हमें उनकी आवश्यकता होगी।

परमेश्वर नहीं चाहता कि उसके बच्चे अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तुओं को एकत्र करें। न ही वह चाहता कि हम में से कोई सम्पत्ति के पीछे भागे। यदि हम परमेश्वर पर भरोसा रखेंगे तो वह हमें वह देगा जिसे वह हमारे लिए सर्वोत्तम समझता है - तब हम

धन के द्वारा नष्ट नहीं होंगे।

जब परमेश्वर हमें आशीषित करता है तो जो भी हमें आवश्कता होती है हमें प्राप्त होती है, और उसके साथ कोई दु:ख नहीं आता।

''धन यहोवा की आशीष से ही मिलता है, और वह उसके साथ दु:ख नहीं मिलाता।'' 
(नीतिवचन 10:22)
''मेरा परमेश्वर भी अपने उस धन के अनुसार जो महिमा सहित मसीह यीशु में है, तुम्हारी हर एक घटी को पूरी 
करेगा।'' 
(फिलिप्पियों 4:19)

तथापि, वह सम्पत्ति जो हम पीछा करके प्राप्त करते हैं हमारे पास बहुत से दु:खों के साथ आती है।

पौलुस तीमुथियुस को यह कहते हुए सावधान करता है,

''क्योंकि रुपये का लोभ सब प्रकार की बुराइयों की जड़ है, जिसे प्राप्त 
करने का प्रयत्न करते हुए बहुतों ने विश्वास से भटककर अपने आप को नाना प्रकार के दु:खों से छलनी बना लिया है।''
(1 तीमुथियुस 6:10)

हम धन और परमेश्वर दोनों की सेवा नहीं कर सकते। क्योंकि मनुष्य ''एक से बैर और दूसरे से प्रेम रखेगा; या एक से मिला रहेगा और दूसरे को तुच्छ जानेगा।'' (लूका 16:13)

जिसके कान हों वह सुन ले।

अध्याय 9
पतरस और यहूदा का परखा जाना

जो बारह चेले यीशु ने चुने थे उनमें से, वास्तविकता में जिनके व्यक्तित्व में बहुत बड़ा अंतर था, वे थ,े पतरस और यहूदा। पतरस साधरण, अशिक्षित और गर्मजोश था। यहूदा इस्करियोती बुद्धिमान, चतुर और अभिलाषी था।

धन के प्रति पतरस का व्यवहार

शमौन पतरस के लिए परमेश्वर की एक बड़ी बुलाहट थी। परन्तु यह तब तक पूरी नहीं होनी थी जब तक उसे परख नहीं लिया जाता और उसे स्वीकृती नहीं मिल जाती।

यद्यपि, उस समय पर जब यीशु ने पतरस को बुलाया उसे परमेश्वर की अद्भुत योजना की जानकारी नहीं थी। परमेश्वर अपनी योजना के एक चरण को एक ही समय पर हमारे लिए प्रगट करता है।

एक दिन यीशु पतरस की नाव पर आया और उसे अपनी नाव गहरे में ले चलने के लिए और मछली पकड़ने के लिए जाल को डालने को कहा। पतरस ने वैसा ही किया और अपने जीवन भर के लिए पकड़ लिया। (लूका 5:1-11)

यदि पतरस आज के कुछ मसीही व्यापारियों के समान होता, तो वह यीशु को कुछ इस प्रकार कहता,

''प्रभु यह तो बहुत बढ़ियाँ है। आओ - आप और मैं - साझेदार हो जाएँ। आप 
प्रचार करना और मैं आप को आर्थिक रुप से मदद करुँगा। यदि मेरा मछली का व्यापार इस प्रकार चलता रहा, तो जल्द ही मैं इस्राएल का 
सबसे बड़ा व्यापारी बन जाऊँगा; और 
मेरा दशवांश न केवल आप को बल्कि अन्य मसीही कार्यकर्त्ताओं को भी जो इस जगह के बहुत से भाग में और साथ ही साथ विदेशों में भी 
सेवा करते है मदद करेगा।''

पतरस तब संसार भर में विभिन्न सभाओं में व्यापारियों के लिए अपनी गवाही देने के लिए जा सकता था और व्यापारियों को मसीह के बारे में बताता जो अपने व्यापार को सही कर सकते थे।

एक अविश्वासी के दिमाग में ऐसा ही चलता है।

परन्तु पतरस ने ऐसा नहीं किया। जब यीशु ने उसे अपने जाल छोड़ने के लिए कहा, उसने तुरन्त अपने मछली पकड़ने के काम को छोड़ दिया और यीशु के पीछे चलने लगा। उसने परीक्षा को उतीर्ण कर लिया था।

सभी मसीह लोग यह महसूस नहीं कर पाते हैं कि उनकी परीक्षा हो रही है जब परमेश्वर उन्हें उनके कामों में संपन्नता प्रदान करता है कि वे अधिक धन कमाएँ।

अधिकतर मसीही लोग यहाँ परीक्षा में असफल हो जाते हैं। वे स्वयं को सिर्फ धनवान बनाने में लग जाते हैं जबकि संभवत: वे प्रेरित बन सकते थे।

बहुत वर्ष पहले, पतरस, एक सफल धनवान व्यापारी बनने से अलग केवल इतना ही कह सका, ''चाँदी और सोना तो मेरे पास है नहीं,''। ( प्रेरितों के काम 3:6) परन्तु उसके पास चाँदी और सोने से कहीं अधिक मूल्यवान वस्तु थी। उसने मसीह के अनन्त राज्य के लिए संसार के तुच्छ धन को छोड़ दिया था।

आजकल मसीही साहित्य की दुकानें इस प्रकार की पुस्तकों से भरी पड़ी हैं जो मसीही लोगों को मसीह को अपने जीवन में भागीदार बनाने के द्वारा किस प्रकार भौतिक रुप से संपन्न बनना और धन कमाने के तरीके सिखाने का दावा करती हैं! मसीही लोग इन पुस्तकों से प्रोत्साहित होते है कि किस प्रकर महंगी कारों, और घरों और जमीनों को मसीह में विश्वास के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

यहाँ तक कि एक बच्चा भी इन लेखकों की संसारिक बेवकूफी को देख सकता है, तौभी बहुत से विश्वासी इन से धोखा खा जाते हैं। लोगों की गवाहियाँ जिन्होंने भौतिक वस्तुओं को प्राप्त किया है जो इनमें दी गई हैं संभवत: सत्य भी होंगी - परन्तु उनमें से कितनों ने यह महसूस किया कि जब परमेश्वर ने उन्हें संपत्ति दी तब वह उन्हें परख रहा था? जब वे अमीर हुए तब उनकी परीक्षा हो रही थी यह देखने के लिए कि क्या वे अपनी संपत्ति को त्यागना और परमेश्वर के लिए धनवान बनना सीखेंगे (लूका 12:21)। पतरस को छोड़कर - वे सभी परीक्षा में असफल हो गये।

स्वार्थापन ही आदम के प्रत्येक बच्चे का केन्द्र बिन्दू है। जब हम परिवर्तित होते हैं तब भी हमारा स्वर्थ नहीं मरता, परन्तु बड़े ही निपुण तरीके से परमेश्वर से अपनी इच्छाओं को पूरा कराने की खोज में रहता है। यही शारीरिक मसीहत का स्रोत है जो अधिकतर भौतिक और शारीरिक आशीषों को परमेश्वर से प्राप्त करने के लिए आजकल की पुस्तकों के रुप में हम तक पहुँचता है और जिसको 'विश्वास' का रुप दिया हुआ होता है।

तथापि यह पुुस्तकें अपने उद्देश्य को पूरा भी करती हैं, इस रुप में वे इस बात को प्रगट करती हैं कि उनके पाठक क्या चाहते हैं - पृथ्वी की या स्वर्गीय वस्तुओं को। इस प्रकार से मसीहत में भी गेहूँ को भूंसी से अलग किया जाता है।

सुधार के प्रति पतरस का व्यवहार

हम देखते हैं कि किस प्रकार यीशु पतरस को दूसरे तरीके से परखता है जब वह पतरस को लोगों के सामने ऐसे तीखे वचनों से डांटता है जैसा उसने पहले किसी भी अन्य व्यक्ति के लिए प्रयोग नहीं किये थे।

जब यीशु ने अपने चेलों को बताया कि वह तिरस्कृत होने और क्रूस पर मरने के लिए जाता है, पतरस, प्रभु के लिए अपने गहरे मानवीय प्रेम के तहत,

''उसे अलग ले जाकर 
झिड़कने लगा, 'हे प्रभु, परमेश्वर न करे! तेरे साथ ऐसा कभी होगा'।'' 
(मत्ती 16:22)

यीशु मुड़ा और लोगों के सामने पतरस से कहा (दूसरे सभी चेलों के सामने),

''हे शैतान, मेरे सामने से दूर हो! तू मेरे लिए ठोकर 
का करण है'' 
(मत्ती 16:23)।

लोगों के मध्य झिड़का जाना हमारे अहम के लिए बहुत ही बेईज्जती की बात होती है। और 'शैतान' कहलाया जाना तो और भी बुरी बात है।

तौभी पतरस गुस्सा नहीं हुआ।

जब यीशु के बहुत से चेले उसके द्वारा अपनी मृत्यु का प्रचार किये जाने पर उसे छोड़ कर चले गये थे, यीशु ने बारहों से पूछा था क्या तुम भी मुझे छोड़ कर चले जाना चाहते हो। यह पतरस ही था जिसने उस वक्त कहा था,

''हे प्रभु हम किसके पास जाएँ? अनन्त जीवन की बातें तो तेरे ही पास 
हैं।''
(यूहन्ना 6:68)

यह शब्द पतरस के मुँह से निकले थे तुरन्त उसके बाद जब उसने यीशु के होंठो से उन कठोर वचनों को सुना था। यही वह बात थी जिसने पतरस के वचनों को और अधिक सुन्दर बना दिया था। उसने महसूस किया कि यीशु के मुँह से निकलने वाले कठोर वचन केवल अनन्त जीवन के वचन हैं!

बड़े भाई के कठोर वचनों को स्वीकार करने की हमारी योग्यता हमारी विनम्रता की परीक्षा है।

पतरस ने परीक्षा को अच्छे अंकों से उतीर्ण किया था।

धन के विषय में यहूदा का व्यवहार

उन बारह प्रेरितों में से जिसको यीशु ने चुना था, यहूदा इस्करियोती के पास भी 'परमेश्वर की स्वीकृति' के प्रमाण पत्र प्राप्त करने का उतना ही उत्तम मौका था जितना दूसरों के पास था।

परन्तु दूसरों के समान उसकी भी परीक्षा होनी थी।

सुसमाचार का वृतान्त इस प्रकार वर्णन करता है, ''यहूदा इस्करियोती जो यीशु का पकड़वानेवाला बना।'' (लूका 6:16) यह इस बात को प्रगट करता है कि वह उतना ही सच्चा था जितने दूसरे जब यीशु ने उसे चुना था। परन्तु वह अपनी स्वार्थी अभिलाषा के कारण बुरी तरह से गिर गया।

बाईबल हमें सचेत करती है,

''क्योंकि जहाँ डाह और विरोध होता है, वहाँ बखेड़ा और हर प्रकार का दुष्कर्म भी होता है।'' 
(याकूब 3:16)

यहूदा का जीवन हम सभी के लिए चेतावनी है, क्योंकि यह संभव है कि हम भी यदि सावधान नहीं होंगे तो उसके समान बन जाएंगे।

वह यीशु के समूह का कोषाध्यक्ष था और उसके पास संपत्ति के विषय में अपने आप को विश्वासयोग्य सिद्ध करने के पर्याप्त मौके थे। यदि वह विश्वासयोग्य होता तो वह नये नियम की पत्रियों में से किसी एक का लेखक बन सकता था। उसका नाम निश्चय ही नये यरुशलेम की दीवार के नींव के पत्थरों में से एक पर खुदा होता।

बाईबल इस प्रकार कहती है,

''नगर की शहरपनाह की बारह नींवे थीं, और उन पर मेम्ने के बारह प्रेरितों के नाम लिखे थे।'' 
(प्रकाशितवाक्य 21:14)

परन्तु यहूदा इस्करियोती असफल हो गया जब उसको परखा गया।

धन की थैली का एक प्रयोग यह था कि दान एकत्र कर गरीब और जरुरतमंदों को दिया जाए (जैसा कि हम यूहन्ना 13:29 में देखते हैं)। ''यहूदा के पास थैली रहती थी, इसलिये दूसरों ने यह समझा कि यीशु उससे कह रहा है कि जो कुछ हमें पर्व के लिए चाहिए वह मोल ले, या यह कि कंगालों को कुछ दे।''

यहूदा ने इस कार्य में अपनी रुची दिखाने का दावा किया परन्तु उसने वह सभी धन जो कंगालों के लिए दान दिया गया था चुरा लिया।

इस प्रकार लिखा है कि ''यहूद इस्करियोती-------उसने यह बात इसलिए नहीं कही थी कि उसे कंगालों की चिन्ता थी परन्तु वह इसलिये कि वह चोर था, और उसके पास उनकी थैली रहती थी और उसमें से जो कुछ डाला जाता था, वह निकाल लेता था।'' (यूहन्ना 12:4-6)

हम यह प्रश्न पूछ सकते हैं कि यीशु ने उसे सब के सामने सीधे ही प्रगट क्यों नहीं किया?

इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें एक और प्रश्न पूछना होगा, ''क्यों यीशु उन सभी लोगों की पोल नहीं खोल देता जो आज मसीहत के नाम पर अपने लिए धन एकत्र करने में लगे हुए हैं? ऐसे हजारों लोग हैं जो आज भी धन के लिए परमेश्वर की सेवा करते हैं, और ऐसे भी है जो परमेश्वर के कार्य के लिए दिये गये धन के प्रति 100: ईमानदार नहीं है।

परन्तु परमेश्वर धीरजवंत है। वह सभी को परखे जाने का समय देता है।

यदि यहूदा को केवल इतना ही मालूम होता कि वह धन को चुनने के द्वारा क्या खोने जा रहा है, तो शायद वह ऐसा नहीं करता! और यदि आज के मसीही कार्यकर्त्ता केवल इतना ही जान पाते कि वे धन को चुनने के द्वारा क्या खो रहे हैं तो वे भी धन के संबन्ध में कितना अलग व्यवहार करते!!

यहूदा की समस्या यह थी कि वह लेने से प्रेम करता था और देने से घृणा करता था।

यीशु ने अपने चेलों को देने की आशीषों के विषय में सिखाया था।

''प्रभु यीशु----आप ही कहता है : 'लेने से देना धन्य है'।'' 
(प्रेरितों के काम 20:35)

पतरस यह समझ गया था। परन्तु यहूदा नहीं। यहूदा यह समझता था कि खुशी ज्यादा से ज्यादा प्राप्त करने से आती है।

प्रत्येक मसीह इन दोनों में से एक श्रेणी में आता है : वे जो पतरस के समान है, जिसने अपना सब कुछ त्याग दिया और जो परमेश्वर को और आवश्यकता के समय दूसरों को देने से प्रेम करता है; और वे जो यहूदा के समान, लेने से और अपने लिए संचय करने से प्रेम करता है। यदि इन यहूदाओं को कभी कुछ देना पड़े, तो वह बहुत ही कंजूसी के साथ देंगे, बस अपने विवेक को सही ठहराने के लिए - और वह भी बड़ी अनिच्छा से! परन्तु जब लेने की बारी होती है तब कोई अनिच्छा नहीं होती!!

परमेश्वर हमें लेन-देन के मामले में परखता है यह देखने के लिए कि हम संसार के या उसके राज्य के सिद्धान्तों के अधार पर जीने की इच्छा रखते हैं।

यदि हमें परमेश्वर से स्वीकृति को प्राप्त करना है, तो हमें तुरन्त ही भेंट लेने के प्रेम को क्रूसीकृत करना होगा जो हमारी देह में पाया जाता है। हमें अपनी पुरानी आदतों को भूलना होगा और नई आदतें सीखना होगा। जितने निपुण हम पहले भेंट लेने में थे उनता ही निपुर्ण अब हमें देने में होना होगा।

परन्तु हम रातों रात निपुर्ण होने की आशा नहीं कर सकते हैं। यह केवल लगातार अभ्यास ही है जो हमें किसी भी काम में निपुर्ण बना सकता है। हमें देना आरंभ करना होगा और इसे लगातार बनाए रखना होगा जब तक कि हमारा स्वभाव पूर्णत: परिवर्तित न हो जाए, तब अन्त में परमेश्वर हमें स्वयं यह कह सकेगा कि हम लेने से ज्यादा देते है।

यीशु का सच्चा चेला वह है जिसने सीखा हो कि परमेश्वर के प्रति गंभीर कैसे बनना है और किस प्रकार जरूरतमंदो को देना है। अपनी आवश्यकता के समय में, वह पाएगा कि परमेश्वर उसे उसी नाप में देता है जिस नाप से उसने दूसरों को दिया था।

यीशु ने अपने चेलों से कहा था,

''दिया करो, तो तुम्हें भी दिया जाएगा। लोग पूरा नाप दबा दबाकर और हिला हिलाकर और 
उभरता हुआ तुम्हारी गोद में डालेंगे, क्योंकि 
जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिये भी नापा जाएगा।'' 
(लूका 6:38)

यीशु ने सिखाया कि यदि हम पृथ्वी पर की चीजों के प्रति वफादार नहीं है तो हम कभी भी स्वर्गीय आशीषों के वारिस होने की आशा नहीं कर सकते है। उसने कहा,

''इसलिए जब 
तुम अधर्म के धन में सच्चे न ठहरे, तो सच्चा धन तुम्हें कौन सौंपेगा?''
(लूका 16:11)

प्रभु ने यहूदा इस्करियोती को धन की थैली के साथ परीक्षण पर रखा और वह उसमें असफल हो गया। उसकी हानि अनन्त की थी।

आज मैं और आप अपने धन के थैले के साथ परीक्षण पर हैं।

सुधार के प्रति यहूदा का बर्ताव

हमने देखा कि पतरस यीशु के द्वारा अपने बर्ताव में परखा गया जब उसे लोगों के सामने सुधारा गया। यहूदा को भी इस क्षेत्र में परखा गया। परन्तु वह उसमें असफल हो गया।

जब उस स्त्री ने यीशु के द्वारा उसके जीवन में किये गये कार्य के प्रति आभार प्रगट करते हुए जटामांसी के मुल्यवान इत्र की शीशी को उसके पाँवों पर उँडेल दिया था, तब यहूदा का यह विचार था कि यह पैसे की बरबादी है। परंतु यीशु ने उस स्त्री का पक्ष लेकर कहा,

''उसे रहने दो। उसे यह मेरे 
गाड़े जाने के दिन के लिए किया है। 
क्योंकि कंगाल तो तुम्हारे साथ सदा रहते हैं, परन्तु मैं तुम्हारे साथ सदा नहीं रहूँगा।''
(यूहन्ना 12:7,8)

कोई भी शायद ही कह सकता है कि यीशु ने यहूदा इस्करियोती को यहाँ कठोर वचन कहा। सही में, पतरस को कहे गये कठोर वचनों की तुलना में तो यह कुछ भी नहीं था!

तौभी यहूदा इस्करियोती बुरा मान गया।

इसी पद्यांश के समानान्तर मत्ती के सुसमाचार में, हम पढ़ते हैं कि इस घटना के तुरन्त बाद यहूदा ने क्या किया :

''तब यहूदा 
इस्करियोती ने जो बारह चेलों में से एक 
था प्रधान याजकों के पास जा कर कहा, 'यदि मैं उसे तुम्हारे हाथ पकड़वा दूँ तो मुझे क्या दोगे?''
(मत्ती 26:14,15)

'तब' यह शब्द यहाँ पर महत्वपूर्ण है। वह उत्तेजना जिसने यहूदा को याजकों के पास जाने के लिए उक्साया और यीशु को धोखे से पकड़वाकर सौंपने का सौदा किया प्रभु के द्वारा यहूदा को सही किये जाने के बाद हुआ।

पतरस ने परीक्षा को विजयी होकर उतीर्ण किया। परन्तु यहूदा उसमें बुरी तरह से असफल हो गया।

आज हम भी उनके द्वारा जिनको परमेश्वर ने अधिकार में हमारे ऊपर नियुक्त किया है सही किये जाने के द्वारा परखे जाते हैं।

 बच्चों की परीक्षा होती है जब उनको उनके 
माता-पिता के द्वारा सही किया जाता है। पत्नियों की परख होती है जब उन्हें उनके पतियों के द्वारा सही किया जाता है। 
कर्मचारियों की परख होती है जब उन्हें उनके स्वामियों द्वारा सही किया जाता है। और कलीसिया में हम सभी परखे जाते हैं जब हमें प्रचीनों के 
द्वारा सही किया जाता 
है।

सही किये जाने के प्रति हमारी प्रतिक्रिया हमारी विनम्रता की स्पष्ट परीक्षा है। यदि हम बुरा मानते हैं तो हम यहूदा इस्करियोती के समूह में गिने जाते हैं।

यदि हमें ऐसा लगता है कि जब हमें सही किये जाने पर बुरा लगता है, तो हमें सहायता के लिए परमेश्वर की ओर पुकारने की आवश्यकता है कि हम अपने अहम को मार सकें, जिससे हम अपने अनन्त इनाम को खो न दें।

अनन्तता पतरस और यहूदा के सही किये जाने की प्रतिक्रिया पर निर्भर करती थी। उन्होंने महसूस नहीं किया कि वे परखे जा रहे थे।

कई बार हम यह महसूस नहीं कर पाते हैं कि परमेश्वर सही किये जाने के प्रति हमारी प्रतिक्रिया को देख रहा है।

आप यदि सही किये जाने के लिए तैयार नहीं है या आप सही किये जाने पर बुरा मानते हैं तब आप परमेश्वर की स्वीकृति को प्राप्त नहीं कर सकते।

अध्याय 10
परमेश्वर द्वारा स्वीकृत लोगों की संगति

प्रकाशितवाक्य 14:1-5 में, हम चेलों के एक छोटे समूह के विषय में पढ़ते हैं जिन्होंने अपने पृथ्वी पर के जीवन में सम्पूर्ण हृदय से प्रभु का अनुसरण किया। वे जयवंतों के समान यीशु के साथ अन्तिम दिन में खड़े होंगे। क्योंकि परमेश्वर उनके जीवन में अपने समपूर्ण उद्देश्य को पूरा कर सका।

जैसा कि हम प्रकाशितवाक्य 7:9,10 में पढ़ते हैं : वे जिनके पाप क्षमा किये गये एक बहुत बड़ी भीड़ है जिसको कोई नहीं गिन सकता।

''इसके बाद मैं ने दृष्टि की, और देखो, हर एक जाति और कुल और लोग और भाषा में से एक ऐसी बड़ी भीड़, जिसे कोई नहीं 
गिन सकता था, श्वेत वस्त्र पहिने और अपने हाथों 
में खजूर की डालियाँ लिये हुए सिंहासन के सामने और मेम्ने के सामने खड़ी है, और बड़े शब्द से पुकार कर कहती है, 'उद्धार के लिये हमारे 
परमेश्वर का, जो सिंहासन पर 
बैठा है, और मेम्ने का जय-जयकार हो।''

परन्तु प्रकाशितवाक्य 14 में विवर्णित चेलों का समूह बहुत छोटा है, उसको गिना जा सकता है - 144,000। संख्या चाहे सही हो या चिन्हात्म्‌क (जैसा की प्रकाशितवाक्य की पुस्तक है) कोई मायने नहीं रखता। महत्वपूर्ण बात यह कि यह बहुत ही छोटा है उस बड़े समूह की तुलना में।

यह वे बचे हुए लोग हैं जो पृथ्वी पर परमेश्वर के प्रति सच्चे और विश्वासयोग्य रहे। उनकी परीक्षा हुई और उन्होंने परमेश्वर की स्वीकृति के प्रमाणपत्र को प्राप्त किया। उनके विषय में परमेश्वर स्वयं यह प्रमाण देता है कि ''इन्होंने अपने आप को अशुद्ध नहीं किया--जहाँ कहीं मेमना जाता ये उसके पीछे हो लेते------मनुष्यों में

 
से मोल लिए गये हैं--इनके मुँह से कभी झूठ न निकला---ये निर्दोष हैं।'' 
(प्र-वा- 14:4,5)

ये परमेश्वर के प्रथम फल हैं। ये मसीह की दुल्हन के रुप में समाविष्ट किये गये हैं। मेम्ने के विवाह के समय, यह सभी के सामने स्पष्ट हो जाएगा कि परमेश्वर के लिए - बड़ी और छोटी, सभी बातों में सच्चा और विश्वासयोग्य होना कितना लाभकारी था।

उस दिन स्वर्ग की ध्वनि होगी,

''आओ, हम आनन्दित और मगन हों, और उसकी स्तुति करें, क्योंकि मेम्ने का विवाह आ पहुँचा 
है, और उसकी दुल्हिन ने अपने आप को तैयार कर 
लिया है।'' 
(प्र-वा- 19:7)

वे लोग जो पृथ्वी पर अपना स्वार्थ और सम्मान खोजते रहे, उस दिन पूर्ण रुप से यह महसूस करेंगे कि उनका कितना बड़ा नुकसान हुआ है। जिन्होंने अपने माता या पिता, या भाई या बहन, बच्चे या पत्नी, या अपने जीवन को या भौतिक वस्तुओं को प्रभु से अधिक प्रेम किया होगा, अपने अनन्त नुकसान को उस दिन जानेंगे।

तब यह प्रमाणित हो जाएगा कि पृथ्वी पर सबसे बुद्धिमान व्यक्ति वह लोग थे जिन्होंने पूर्ण रुप से यीशु की आज्ञाओं को माना और जो सम्पूर्ण हृदय से इस प्रकार चलने की खोज में रहे जिस प्रकार यीशु चला। तब मसीहत का खोखला सम्मान बेकार दिखेगा जैसा कि वह है। तब हम देखेंगे कि धन और भौतिक वस्तुएँ तो केवल परमेश्वर के द्वारा यह देखने के लिए थी कि क्या हम मसीह की दुल्हिन में शामिल होने की योग्यता रखते है या नहीं।

आह! काश हमारी आँखें अब भी उन वास्तविकताओं को देखने के लिए खुल जायें जो हम उस दिन स्पष्ट रुप से देखेंगे!

सबसे बड़ा सम्मान जो किसी भी व्यक्ति के लिए हो सकता है वह है कि उस दिन मसीह की दुल्हिन में वह एक स्थान पाए। उन के समान जो परखे गये और परमेश्वर के द्वारा स्वीकृति को प्राप्त कर पाए!

वह जिसके कान हों, सुन ले। आमीन।