परमेश्वर का काम परमेश्वर के तरीक़े से

द्वारा लिखित :   जैक पूनन श्रेणियाँ :   कलीसिया नेता
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अध्याय 0
परिचय

परमेश्वर का काम आज उस तरह से नहीं किया जा रहा है जिस तरह उसे यीशु मसीह और प्रेरितों ने किया था। मसीही काम में आज धन सबसे प्रमुख तथ्य बन गया है। लेकिन प्रभु और प्रेरितों के लिए धन कभी भी एक आवश्यक तथ्य नहीं था। क्या यह सम्भव है कि आज भी परमेश्वर के काम को उस तरह किया जा सके जैसा वह यीशु और प्रेरितों द्वारा किया गया था? इसका जवाब है हाँ। और ज़ैक पूनैन और उनके सहकर्मियों ने पिछले 43 सालों में यह साबित कर दिखाया है।

ज़ैक ने यह पुस्तक लिखने के लिए 43 सालों तक इंतज़ार किया, क्योंकि वे अप्रमाणित परिकल्पनाओं के बारे में नहीं लिखना चाहते थे। इन सालों में, उन्होंने नई वाचा की कलीसियाओं का निर्माण करने के परमेश्वर के तरीक़े के बारे में जो कुछ सीखा है, उसने (उनके कथनानुसार) उन्हें सभी विश्वासियों का कज़र्दार बना दिया है, कि जो कुछ परमेश्वर उन्हें सिखाया है, वे उसे उनके साथ बाँटें। यह पुस्तक उनका इस कर्ज़ को चुकाने का प्रयास है। यह पुस्तक ऐसे सभी लोगों के लिए है जिनमें ऐसी आवेग-भरी लालसा है कि वे यीशु की तरह चलें, ईश्वरीय परिवारों को तैयार करें, और परमेश्वर की महिमा के लिए नई वाचा की कलीसियाओें का निर्माण करें।

अगर मैं नूह के समय में रह रहा होता, तो मेरे जीवन की सबसे बड़ी प्राथमिकता अपना सारा बचा हुआ समय जहाज़ का निर्माण करने में नूह की मदद करना होता - क्योंकि मुझे यह मालूम होता कि उस समयकाल में सिर्फ जहाज़ का निर्माण ही एक ऐसा काम था जो परमेश्वर के न्याय में से बच निकलने वाला था। इसी तरह, इस समय मैं यह देखता हूँ कि मेरे लिए पृथ्वी पर सबसे बड़ी प्राथमिकता यीशु मसीह की कलीसिया का निर्माण करना होना चाहिए। यह इसलिए है कि अंततः जब परमेश्वर इस सँसार का अंत करेगा, तब सिर्फ कलीसिया ही बची रहेगी। अगर आप समझदार हैं, तो आप भी ऐसा ही करेंगे।

अध्याय 1
आज के मसीही काम बनाम नई वाचा का मानक

जब हम पृथ्वी पर हो रहे मसीही काम की तुलना उस काम से करते हैं जो हम नई वाचा में देखते हैं, तो हमें एक बहुत बड़ा फ़र्क नज़र आता है। ऐसे लोग बहुत कम हैं जो नई वाचा के सिद्धान्तों के अनुसार कलीसिया का निर्माण करना चाह रहे हैं। असल में, ज़्यादातर मसीही अगुवों का यह मानना है कि हमारे समय और हमारे युग में इन सिद्धान्तों के अनुसार चलना/काम करना असम्भव और अव्यावहारिक है। और इसलिए, हम यह देखते हैं कि ज़्यादातर मसीही काम बिलकुल उसी तरह किया जा रहा है जिस तरह सांसारिक व्यापारिक प्रतिष्ठान् अपना काम करते हैं - और काम का यह तरीक़ा प्रेरितों के काम करने के तरीक़े से बहुत अलग है। ये इसके कुछ उदाहरण हैंः

l कलीसियाएँ पास्टरों या पासवानों को उसी तरह पदासीन करती हैं जिस तरह व्यापार करने वाली कम्पनियाँ अपने प्रमुख अधिकारियों को पदासीन करती हैं।

l कलीसियाएँ पास्टरों या पासवानों को उसी तरह वेतन देती हैं जिस तरह कम्पनियाँ अपने प्रमुख अधिकारियों को वेतन देती हैं।

l ज़्यादातर पास्टर या पासवान उन्हीं कलीसियाओं को चुनते हैं जहाँ उन्हें सबसे ज़्यादा सम्मान और सबसे ज़्यादा वेतन मिलता है, वैसे ही जैसे व्यापारिक अधिकारी उसी कम्पनी को चुनते हैं जो उन्हें सबसे ज़्यादा सम्मान और वेतन देती हैं।

l धन कलीसियाई-काम में उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि वह सांसारिक कम्पनियों में है।

l मसीही काम के लिए बाइबल कॉलेज की शिक्षा उतनी ही अनिवार्य है जितनी कि कम्पनियों में नौकरी पाने के लिए कॉलेज की शिक्षा अनिवार्य है। (इस मानक के अनुसार, आज यीशु के 11 चेलों में से एक भी मसीही काम के योग्य न माना जाता!)

l ज़्यादातर पास्टर पवित्र आत्मा के अभिषेक और मार्ग-दर्शन की खोज में रहने की बजाय, अपनी कलीसियाएँ चलाने के लिए सांसारिक प्रबंधन (मैनेजमैन्ट) की युक्तियों का इस्तेमाल करते हैं।

l और इस तरह के अन्य उदाहरण।

हम आज मसीही जगत में ये और ऐसी ही और भी बातें देखते हैं जो नई वाचा में कलीसिया के लिए परमेश्वर की योजना से बिलकुल विपरीत है। कलीसिया सँसार की नकल कर रही है - और इस वजह से, ज़्यादातर कलीसियाओं में आत्मिक मृत्यु राज्य कर रही है, हालांकि कुछ कलीसियाएँ विशाल-कलीसियाएँ हैं जिनमें ऐसे हज़ारों सदस्यों हैं जो पूरी तरह से सुसमाचार-प्रचारीय लोग हैं। बेबीलोनी मसीहियत एक विशालकाय तंत्र है। इसकी धार्मिक शिक्षा सुसमाचार प्रचारीय (ईवैन्जैलिकल) हो सकती है, लेकिन उसका जीवन और प्राथमिकताएँ ग़लत हैं। और इसलिए, एक दिन यह परमेश्वर द्वारा पूरी तरह नष्ट कर दी जाएगी (देखें प्रकाशितवाक्य अध्याय 17 व 18)।

अनेक मसीहियों में मत्ती 7:1 (दोष मत लगाओ) की ग़लत समझ है, और वे कहते हैं कि हमें दूसरे मसीहियों और कलीसियाओं में नज़र आने वाली ग़लत बातों की आलोचना नहीं करनी चाहिए। ऐसा लगता है जैसे यह एक “आत्मिक” सलाह है, लेकिन असल में ऐसा नहीं है। प्रकाशितवाक्य अध्याय 2 व 3 में, हम यह देखते हैं कि प्रभु यीशु ने पाँच कलीसियाओं और उनके अगुवों की ऐसी अनेक बातों में आलोचना की थी जो उसकी नज़र में ग़लत थीं, और उसने यूहन्ना से कहा कि वह उन बातों के बारे में उन कलीसियाओं को लिखे। और ये सभी पत्र गुप्त नहीं रखे जाने थे। प्रभु ने यूहन्ना से कहा कि वे पत्र उस क्षेत्र की सभी कलीसियाओं में भेजे जाएँ, कि हरेक व्यक्ति उन कलीसियाओं व उनके अगुवों के विश्वास से भटक जाने के बारे में जाने, और फिर इन बातों को वह अपने लिए एक चेतावनी के रूप में ले ले। प्रभु ने यूहन्ना से एक कलीसिया और उसके अगुवे को यह लिखने के लिए कहा, “मैं तेरे कामों को जानता हूँ कि तू जीवित तो कहलाता है, लेकिन असल में तू आत्मिक रूप में मरा हुआ है” (प्रकाशितवाक्य 3:1)। एक अन्य कलीसिया और उसके अगुवे के लिए यूहन्ना द्वारा प्रभु का यह संदेश थाः “तू आत्मिक रूप में तुच्छ, अभागा, दरिद्र, अंधा और नंगा है” (प्रकाशितवाक्य 3:17)। प्रभु ने कुरिन्थुस और गलातिया के मसीहियों को भी इसी तरह की बातें लिखने के लिए प्रेरित किया, और ऐसी अनेक बातों की तरफ उनका ध्यान आकर्षित किया जो उनकी कलीसियाओं में ग़लत थीं (देखें 1 कुरिन्थियों और 1 गलातियों)। यह परमेश्वर का तरीक़ा है।

प्रभु यीशु आज भी वैसा ही है, और कलीसिया के शीर्ष के रूप में, वह अपने सेवकों द्वारा मसीही अगुवों और कलीसियाओं को उनकी ग़लतियों को सामने लाने वालों के सामने ऐसे ही संदेश भेजना जारी रखता है। लेकिन प्रभु जानता है कि (जैसे पहली शताब्दी में, वैसे ही आज भी) ज़्यादातर अगुवे उसकी सुधारने वाली ताड़ना को स्वीकार नहीं करेंगे, और इसलिए उसके अंतिम शब्द ये हैंः “जिसके कान हों वह सुने कि आत्मा कलीसिया से क्या कहता है” (प्रकाशितवाक्य 2:7,11,17,29; 3:6,13,22)। कुछ लोग तो वह सुनेंगे जो प्रभु कह रहा है, लेकिन ज़्यादातर नहीं सुनेंगे।

मई 1966 में, परमेश्वर की बुलाहट पर जब मैंने पूर्ण-कालिक मसीही सेवकाई करने के लिए अपना नौसेना का अधिकारी-पद छोड़ा, तब मैं यह सोचता था कि मसीही काम में लगे हुए हरेक व्यक्ति का एक स्वर्गीय मनोभाव है, और वह आत्मा से भरपूर है। लेकिन कुछ ही सालों में मुझे यह समझ आ गया कि वह मेरी ग़लतफहमी थी।

मैंने यह पाया कि ऐसे मसीही सेवक बहुत ही कम हैं जो प्रेरित पौलुस की तरह काम कर रहे हैं - जिसने आर्थिक रूप में अपनी देखभाल स्वयं ही की, स्थानीय कलीसियाएँ आरोपित और निर्मित कीं, और अपने लिए कुछ न चाहा। इसकी बजाय मैंने ऐसे प्रचारक देखे जो धन-सम्पत्ति, मान-सम्मान और बड़े नाम की खोज में थे। इनमें से ज़्यादातर पौलुस के समय के देमास जैसे लोग थे, जो अपने ही स्वार्थ की खोज में थे (2 तीमुथियुस 4:10)। पौलुस के समय में तीमुथियुस जैसे निःस्वार्थी लोग बहुत कम थे, और वे आज भी बहुत कम हैं।

जनवरी 1975 में, परमेश्वर ने मेरी सुधि ली (मुझे मिला), और मुझे फिर से पवित्र आत्मा से भर कर तरोताज़ा किया। तब मैं पूरी निष्ठा के साथ परमेश्वर की खोज में लग गया कि मैं भी उस जयवंत जीवन का अनुभव पा सकूँ जिसका अनुभव पौलुस को हुआ था और जिसके बारे में उसने इस तरह के अनेक भागों में लिखा हैः “मसीह के द्वारा हमेशा विजयोत्सव में” और “मसीह में जयवंत से भी बढ़कर” (रोमियों. 8:37)।

सात महीने बाद (अगस्त 1975 में) हमने अपने घर में ऐसे सभी लोगों के लिए एक सभा शुरू की जिनकी दिलचस्पी सहभागिता करने के लिए इकट्ठे होने और एक जयवंत जीवन जीने के लिए परमेश्वर से सामर्थ्य पाने की खोज करने में थी। इसके बाद, अनेक सालों तक, लोग आते और जाते रहे। लेकिन कुछ लोग हमारे साथ बने रहे। दूसरे मसीही हमें अलगाववादी और ईश-निन्दक कहते थे। लेकिन ऐसे वर्गीकरण से हम विचलित नहीं हुए, क्योंकि हम जानते थे कि उनके जीवनकाल में यीशु और पौलुस को भी अलगाववादी और ईश्वर की निन्दा करने वाले कहा गया था। असल में, जिन्हें हम आज नबी और सुधारक मानते हैं, ऐसे अनेक लोग उनके जीवनकाल में अलगाववादी और ईश-निन्दक माने जाते थे।

हम हरेक सप्ताह हमारे घर में सहभागिता करते थे। धीरे-धीरे प्रभु ने हमें सिर्फ “एक विश्वासियों की सहभागिता” में से एक नई-वाचा की कलीसिया में बदल दिया। सात साल तक प्रभु ने हमें भारत में बैंगलोर के एक कोने में छिपाए रखा, जो उसके द्वारा हमें नई वाचा की मसीहियत की वास्तविकता का अनुभव करने के लिए दिया गया समय था।

अध्याय 2
नई वाचा की सेवकाई का नमूना

“यीशु ने पहले किया और फिर सिखाया” (प्रेरितों के काम 1:1)।

पुरानी वाचा में, नबी जिस संदेश का प्रचार करते थे, वह उस जीवन से बहुत ज़्यादा महत्वपूर्ण होता था जो वह निजी तौर पर जीते थे। लेकिन जब यीशु आया, तब उसने पहले वह जीवन बिताया, और फिर सिर्फ उन्हीं बातों का प्रचार किया जो उसने स्वयं की थीं।

पुरानी वाचा के नबियों के “आओ और सुनो कि प्रभु क्या कहता है” के आमंत्रण की जगह, अब नई वाचा के मसीहियों के इस आमंत्रण ने ले ली है कि “आओ और देखो कि प्रभु ने हमारे जीवनों को कैसे बदल दिया है।”

नई वाचा में, यह ज़रूरी है कि इससे पहले कि हम दूसरों को परमेश्वर के तरीक़ों के बारे में सिखाएं, हम पहले उसे हमारे जीवनों में काम करने का अनुभव पाएं। यह बात जय पाने वाला जीवन जीने, और स्थानीय कलीसियाओं के निर्माण में प्रभु की सेवा करने के दोनों ही मामलों में लागू होती है।

यीशु ने कहा कि जिस कलीसिया का निर्माण उसने किया है, वह अंधकार की शक्तियों पर जय पाएगी (मत्ती 16:18)। पौलुस ने अपना जीवन जय पाने वाले विश्वासियों की अगुवाई करने और इस कलीसिया का निर्माण करने के लिए उण्डेल दिया था। तीमुथियुस ने भी ऐसा ही किया था।

प्रभु ने अपने चेलों को जो महान् कार्याधिकार (ग्रेट कमिशन) दिया, उसके दो भाग हैंः

  1. सारे जगत में सुसमाचार का प्रचार करो (मरकुस 16:15)।
  2. चेले बनाओ, और जो कुछ यीशु ने सिखाया है, उन्हें सिखाओ (मत्ती 28:18-20)।

यीशु ने कहा कि पहले भाग (सुसमाचार प्रचार) के साथ अद्भुत चिन्ह्-चमत्कार होंगे; लेकिन दूसरे भाग में, उसने कहा, कि कोई अद्भुत चिन्ह्-चमत्कार नहीं होंगे, बल्कि चेलों को उसकी सभी आज्ञाओं का पालन करना सिखाया जाएगा (मत्ती 28:20)। सुसमाचार प्रचार (लोगों को धर्म-परिवर्तित करना) सारे जगत में अनेक विश्वासियों द्वारा किया जा रहा है। लेकिन दूसरा भाग (चेले बनाना) ज़्यादातर अनदेखा किया जा रहा है।

अनेक सुसमाचार-प्रचारक और मिशनरी एक खोई हुई भेड़ को वापिस झुण्ड में लाने के लिए उसके पीछे जा रहे हैं, जो कि एक अच्छी बात है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस झुण्ड में उस खोई हुई भेड़ को लाया जाता है, वह अक्सर ऐसे “99 धर्मियों का झुण्ड नहीं होता जिन्हें मन-फिराव (पश्चाताप्) की कोई ज़रूरत नहीं है” (जैसा यीशु ने लूका 15:7 में कहा है)। अनेक मसीही “झुण्ड” ऐसे लोगों से भरे हुए हैं जो क्रोध, कामुक वासना, धन के प्रेम, और अनेक प्रकार के सांसारिक कामों से हारे हुए हैं, जिन्हें अक्सर खोई हुई भेड़ से ज़्यादा मन फिराने की ज़रूरत होती है!

इसलिए, सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि झुण्ड के अन्दर मौजूद 99 भेड़ों की अगुवाई सच्चे मन-फिराव और एक धर्मी (सही) जीवन में की जाए कि खोई हुई भेड़ को एक ईश्वरीय झुण्ड में लौटाया जा सके। वर्ना, उस एक भेड़ को भी वही संक्रामक रोग लग जाएँगे जो झुण्ड की 99 भेड़ों को हैं!

इसलिए प्रभु ने हमारी कलीसिया (क्रिश्चियन फैलोशिप सैन्टर – सी.एफ.सी. बैंगलोर, भारत) में हमें बुलाया, कि हम चेले बनाने और यीशु की सभी आज्ञाओं का पालन करने पर ज़ोर दें। हम तब भी सुसमाचार-प्रचार कर रहे थे - और हमारी संख्या 1975 में एक कलीसिया के 10 से भी कम लोगों से बढ़कर, आज अनेक कलीसियाओं में हज़ारों विश्वासियों की हो गई है। लेकिन सुसमाचार प्रचार करने के बाद, हम उन मन फिराए हुए लोगों की अगुवाई चेले बनने में करते हैं। और फिर हम चेलों को यीशु की सभी आज्ञाओं का पालन करना सिखाते हैं।

महान् कार्याधिकार के दूसरे भाग में सात महत्वपूर्ण सत्य हैं जो मत्ती 28:18-20 में दिए गए हैं।

  1. “स्वर्ग और पृथ्वी का सारा अधिकार हमारे प्रभु के पास है।” हमें इसी आधार पर जाकर चेले बनाने हैं। हमें सभी जातियों/देशों में इसलिए नहीं जाना है क्योंकि हमें कहीं ज़रूरतमंद लोग नज़र आते हैं। नहीं। हमें इसलिए जाना है क्योंकि यीशु के पास स्वर्ग और पृथ्वी का सारा अधिकार है; और हम, जो सिर्फ उसके अधिकार के अधीन हैं, वहाँ जाते हैं जहाँ वह हमें जाने के लिए कहता है। तब हम जहाँ भी जाएँगे, वहाँ उसका सारा अधिकार हमारी रक्षा करेगा और हमें बचाए रहेगा। अगर हमारा यह विश्वास नहीं है, तो हमें नहीं जाना चाहिए, क्योंकि तब हम परमेश्वर की इच्छा को पूरा न कर सकेंगे।
  2. “चेले बनाना।” हमें शिष्यता की तीन शर्तों का प्रचार करने में कोई समझौता नही करना चाहिए (जिनके बारे में यीशु ने लूका 14:26,27,33 में बताया है) जो इस प्रकार हैंः यीशु से अपने सम्बंधियों से ज़्यादा, अपने अहम्-के-जीवन से ज़्यादा, और अपनी धन-सम्पत्ति से ज़्यादा प्रेम करना)।
  3. “सभी जातियों/देशों में।” जगत के हरेक हिस्से में हम जहाँ तक पहुँच सकें और जिस किसी तरीक़े से पहुँच सकें, हमें चेले बनाने के इस संदेश के साथ जाना चाहिए। हम सिर्फ अपने ही गाँव/शहर में कुछ चेले बना लेने से संतुष्ट न हो जाएँ।
  4. “उन्हें पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम में बपतिस्मा दो।” हमें कोई संकोच किए बिना परमेश्वर का प्रचार त्रिएकता के रूप में करना चाहिए - और हमें सिर्फ उन्हीं लोगों को बपतिस्मा देना चाहिए जो यीशु के चेले बनना चाहते हों - वे नहीं जो सिर्फ उनके पापों की क्षमा चाहते हों।
  5. “उन्हें वे सभी बातें मानना सिखाएं जो यीशु ने सिखाई थीं।” जिन आज्ञाओं का प्रचार मसीह ने किया था, हम हरेक चेले को उनका पालन करना सिखाएं।
  6. “प्रभु कहता है, ‘मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ।’” यह सेवकाई हमें प्रभु के साथ मिलकर करनी है, और तब हमें यह निश्चय होगा कि हमारी सेवकाई में वह हमें उसकी उपस्थिति और सामर्थ्य से सम्भाले रहेगा।
  7. “इस युग के अंत तक।” हम पूरे यक़ीन के साथ यह जान सकते हैं कि हमारे जीवनों के अंत तक हमें पूरा समर्थन देता रहेगा। लेकिन हमें अपने जीवनों के अंत तक ऊपर लिखी सभी बातों को पूरा करते रहना होगा।

प्रभु आज भी इसी तरह काम करता है।

परमेश्वर का वचन कहता हैः

“अपने अगुवों को याद रखो, जिन्होंने तुम्हें परमेश्वर का वचन सुनाया...

उनके जीवनों में से पैदा हुई भलाई को याद रखो...

उन्हीं की तरह प्रभु में अपना भरोसा बनाए रखो, क्योंकि यीशु कल, आज और युगानुयुग एक सा है...

और विचित्र शिक्षाओं से विचलित न हो...” (इब्रानियों 13:7-9)।

हमने उपरोक्त पदों का अक्षरशः पालन करना चाहा हैः

l हमने मूल प्रेरितों को अपने अगुवों के रूप में स्वीकार किया जिन्होंने हमें परमेश्वर का वचन सिखाया।

l हमने नई वाचा के पृष्ठों में उनके द्वारा किए गए भले कामों को देखा।

l हमने भी प्रभु में वैसा ही भरोसा किया जैसा उन्होंने किया था, और इसलिए_ हमने भी हमारे बीच में एक वैसा ही काम होते देखा, क्योंकि यीशु मसीह आज भी वैसा ही है जैसा वह उस समय था।

l हमने मसीही काम करने के लिए अपने आपको उन “विचित्र शिक्षाओं से विचलित न होने दिया” जिन्हें हमने अपने आसपास के मसीही जगत में देखा।

हमारी आशा है कि आपका विश्वास भी यह भरोसा करने के लिए बलवंत होगा कि परमेश्वर आपके द्वारा भी एक ऐसा ही काम कर सकता है, क्योंकि वह कोई भेदभाव नहीं करता। हरेक जगह और हरेक पीढ़ी में, वह उन सभी को प्रतिफल देता है जो यत्न-पूर्वक उसे खोजते हैं (इब्रानियों 11:6)।

प्रेरितों के उदाहरण का अनुसरण करना

पवित्र-आत्मा ने प्रेरित पौलुस को उसके पत्रों में हमें यह बताने के लिए प्रेरित किया कि कैसे प्रभु ने उसे इस योग्य बनाया कि वह अपने समय के दूसरे प्रचारकों की तुलना में एक ज़्यादा ऊँचे मानक स्तर के अनुसार अपना जीवन जी सके। उसने कहा, “मुझे ऐसा गर्व करने से कोई नहीं रोक सकेगा। जो मैं कर रहा हूँ वह करता रहूँगा कि उन लोगों के पैरों तले की ज़मीन निकल जाए जो यह डींग मारते हैं कि वे भी परमेश्वर का काम उसी तरह कर रहे हैं जिस तरह हम करते हैं। परमेश्वर ने उन लोगों को कभी भेजा ही नहीं था; वे ‘ढोंगी’ हैं जिन्होंने तुम्हें मूर्ख बनाकर ऐसा सोचने वाला बना दिया है कि वे मसीह के प्रेरित हैं” (2 कुरिन्थियों 11:10-13)।

जब पौलुस ने उसके समय के प्रचारकों के साथ उसकी तुलना की, तब उसका ऐसा गर्व करना निरर्थक नहीं था। इसके विपरीत, वह एक ऐसी शक्तिशाली साक्षी थी जिसके द्वारा परमेश्वर की बड़ी महिमा हुई, और इससे उसके समय के विश्वासियों के सामने यह चुनौती रखी गई कि वे उसके उदाहरण का अनुसरण करें।

पवित्र आत्मा की प्रेरणा से पैदा हुए पौलुस के इस आत्मिक गौरव में (जो परमेश्वर का काम कर रहे सभी लोगों में होना चाहिए), और फरीसियों के सांसारिक गर्व में (जो हमें अप्रिय होना चाहिए) ज़मीन और आसमान जितना फ़र्क है (लूका 18:10-14)।

पवित्र आत्मा ने पौलुस को यह कहने के लिए प्रेरित किया, “मेरे पीछे चलो, जैसे मैं मसीह के पीछे चलता हूँ” (1 कुरिन्थियों 11:1)। इस तरह, पौलुस का जीवन और सेवकाई, मसीहियों को एक अनुकरणीय उदाहरण के रूप में दिए गए हैं। पौलुस ने अपनी नई-वाचाई सेवकाई को कैसे पूरा किया?

परमेश्वर की तरफ से पौलुस के लिए एक अनोखी बुलाहट थी। उसकी सेवकाई दोहरी थीः

  1. सबसे पहले, वह एक पथ-प्रदर्शक प्रचारक था जिसने ऐसी जगहों में सुसमाचार-प्रचार किया जहाँ मसीह के बारे में पहले कभी सुना नहीं गया था। उसने कहा, “मेरे मन की आकाँक्षा यह रही है कि जहाँ कहीं मसीह का नाम नहीं लिया गया है, वहाँ सुसमाचार सुनाऊँ, ऐसा न हो मैं दूसरों की नींव पर घर बनाऊँ” (रोमियों 15:20)।
  2. दूसरी बात, पौलुस एक ऐसा प्रेरित था जिसने नई-वाचा की कलीसियाएँ स्थापित कीं - उन जगहों में जहाँ पहले से ही पुरानी-वाचा के लोगों की मण्डलियाँ मौजूद थीं। कुरिन्थिुस की कलीसिया ने उसने कहा, “मैंने तुम्हारी सगाई एक पति अर्थात् मसीह से की है कि तुम्हें एक पवित्र कुँवारी की तरह उसे सौंप दूँ” (2 कुरिन्थियों 11:2)।

पौलुस की सेवकाई के पहले भाग में उसका अनुसरण करनाः अनेक शताब्दियों से, बहुत से ईश्वरीय मिशनरी (परमेश्वर से उनका कार्याधिकार पाए हुए), परमेश्वर द्वारा पथ-प्रदर्शक सुसमाचार-प्रचार करने के लिए बुलाए गए, और उन्होंने पौलुस के उदाहरण का अनुसरण किया और मसीह का वहाँ प्रचार जहाँ उसका नाम कभी नहीं लिया गया था; और यह काम उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर एक बड़ी क़ीमत चुकाते हुए किया। और ऐसे बहुत से मिशनरी हैं (हालांकि वे जाने-माने लोग नहीं हैं), जो आज भी यह काम कर रहे हैं। मैं उन सब के लिए परमेश्वर की स्तुति करता हूँ और मेरे मन में उनके प्रति बहुत आदर है। मैं स्वयं ऐसा नहीं कर सका, क्योंकि परमेश्वर ने मुझे एक पथ-प्रदर्शक सुसमाचार-प्रचारक होने के लिए नहीं बुलाया था। लेकिन, आज के जाने-माने सुसमाचार-प्रचारक पौलुस जैसा पथ-प्रदर्शक सुसमाचार प्रचार नहीं कर रहे हैं। वे ऐसे क्षेत्रों में सुसमाचार प्रचार कर रहे हैं जहाँ पहले से ही हज़ारों मसीही और कलीसियाएँ हैं।

पौलुस की सेवकाई के दूसरे भाग में उसका अनुसरण करनाः परमेश्वर ने मुझे और हमारी कलीसियाओं को पौलुस की सेवकाई का दूसरा भाग पूरा करने के लिए बुलाया है - उन जगहों में नई वाचा की कलीसियाएँ स्थापित करने के लिए जहाँ पुरानी वाचा की कलीसियाएँ हैं। मैं सिर्फ इन्हीं के बारे में लिख सकता हूँ क्योंकि प्रभु ने हमारे द्वारा यही किया है।

नई वाचा की कलीसियाएँ स्थापित करने में पौलुस को दो ख़तरे नज़र आए थे, और उसने अपने आपको उनसे बचाए रखा था।

धन का ख़तराः यीशु ने कहा कि हम परमेश्वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते (लूका 16:13)। इसलिए, सबसे पहले, पौलुस ने उसके जीवन और सेवकाई पर से धन की शक्ति को ख़त्म करने का काम किया, कि फिर वह सिर्फ परमेश्वर की ही सेवा कर सके। हमने इस क्षेत्र में पौलुस के उदाहरण का अनुसरण करना चाहा है।

मानवीय वर्चस्व का ख़तराः दूसरा ख़तरा कलीसिया में मसीह के शीर्ष (सिर) होने की जगह मनुष्य के उसका शीर्ष बन जाने का ख़तरा होता है। जो कलीसियाएँ पौलुस द्वारा स्थापित की गई थीं, उनमें पौलुस के पास परमेश्वर-प्रदत्त प्रेरिताई का अधिकार था। लेकिन वह बहुत सचेत रहते हुए स्वयं को इस अधिकार की सीमाओं के अन्दर ही रखता था जिससे कि वह यह सुनिश्चित कर सके कि कलीसियाओं में प्राचीनों और विश्वासियों का उनके शीर्ष के रूप मसीह के साथ सीधा सम्बंध बना रह सके। हमने यहाँ भी पौलुस के उदाहरण का अनुसरण करना चाहा है।

धन के ख़तरे पर जय पाना:

  1. पौलुस आर्थिक रूप में आत्म-निर्भर था, और अपनी रोज़ी-रोटी के लिए वह किसी मनुष्य पर निर्भर नहीं था (प्रेरितों के काम 20:33,34)। निश्चय ही प्रभु के एक सेवक की उन लोगों द्वारा देखभाल की जा सकती है जिनकी वह सेवा करता है (1 कुरिन्थियों 9:6-14)। लेकिन अपने समय के लालची और धन-के-प्रेमी प्रचारकों से अलग नज़र आने के लिए, पौलुस ने अपनी देखभाल ख़ुद ही करने का फैसला कर लिया था (1 कुरिन्थियों 9:15-19; 2 कुरिन्थियों 11:12,13)। हमने यह पाया कि भारत में भी ज़्यादातर “पास्टर” लालची और धन-के-प्रेमी हैं। और इसलिए कि हम उनसे अलग नज़र आएं, हमारी कलीसिया के सभी प्राचीनों ने भी यह फैसला किया कि हम आर्थिक रूप में आत्म-निर्भर होंगे, और अपनी रोज़ी-रोटी के लिए किसी मनुष्य पर निर्भर नहीं होंगे। और इन बीते सालों में हम इसी तरह से चले हैं।
  2. यीशु की तरह, पौलुस ने भी अपनी आर्थिक ज़रूरतों के बारे में परमेश्वर के अलावा और किसी से कभी कुछ नहीं कहा। इसकी बजाय, उसने विश्वासियों को ग़रीबों को दान देने के लिए उत्साहित किया (1 कुरिन्थियों 16:1,2; 2 कुरिन्थियों 8, 9)। यीशु ने कहा कि हम अपने दान गुप्त रूप में दें (मत्ती 6:4)। इसलिए, पिछले 43 सालों में, हमने एक बार भी अपनी किसी कलीसिया में दान इकट्ठा करने के लिए दान-पात्र को लोगों के बीच में कभी नहीं घुमाया है। हम अपनी सभाओं के निकास-द्वार के पास एक दान-पेटी रखते हैं कि विश्वासी एक गुप्त रूप में उनमें अपने दान दे सकें (जैसा कि हम मरकुस 12:41-44 में पढ़ते हैं)। परमेश्वर सिर्फ हर्ष से देने वालों से प्रसन्न होता है (2 कुरिन्थियों 9:7)। इसलिए हमने दान-पेटी में एक बार भी किसी से धन डालने के लिए नहीं कहा है। हमारी सभी कलीसियाओं में देने का काम स्वेच्छा से हुआ है। भारत में हमने 200 से ज़्यादा सम्मेलन किए हैं जिसमें हज़ारों विश्वासियों ने सहभागिता की है। उन सभी में हमने यीशु के इस उदाहरण का अनुसरण किया है कि किसी से धन की कोई माँग किए बिना, हमने ऐसे बड़े जनसमूहों को खाना खिलाया है।
  3. पौलुस ने सुसमाचार-प्रचार करने के लिए भी किसी से कभी धन नहीं माँगा था। उसने अपने काम के बारे में किसी को भी ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं भेजी थी जिसमें ऐसे संकेत दिए गए हों कि उसके काम के लिए उसे धन की ज़रूरत थी। हमने भी सुसमाचार-प्रचार के लिए कभी किसी से धन नहीं माँगा है। इन 43 सालों में, हमने किसी को और कहीं भी अपने काम की कोई रिपोर्ट नहीं भेजी है। किसी मानवीय पहल के बिना, प्रभु ने स्वयं ही विश्वासियों को हमारे काम का समर्थन करने के लिए प्रोत्साहित किया है। प्रभु का काम करने के लिए जिस तरह से भेंट स्वीकार की जानी चाहिए, उसमें हमने यीशु और पौलुस के उदाहरण का अनुसरण किया है (जैसा कि हम लूका 8:2,3; 2 कुरिन्थियों 11:7-9; और फिलिप्पियों 4:12-19 में पढ़ते हैं)।
  4. अपनी सेवकाई के लिए, पौलुस ने किसी से और हरेक से भेंट स्वीकार नहीं की थीं (फिलिप्पियों 4:15-19)। उसके कुछ ऐसे सिद्धान्त थे जो यह तय करते थे कि उसे किससे भेंट स्वीकार करनी है। एक कलीसिया के रूप में, हमने भी ऐसे ही सिद्धान्तों का अनुसरण किया है। हमने 5 प्रश्नों की एक ऐसी प्रश्नावली तैयार की, जिन्हें हमारी किसी भी कलीसिया में धन देने से पहले हरेक व्यक्ति को अपने आपसे पूछना थाः
  5. क्या आप एक नया जन्म पाए हुए विश्वासी हैं? पृथ्वी पर परमेश्वर के काम में सहयोग देना एक महान् विशेषाधिकार है; लेकिन यह विशेषाधिकार सिर्फ नया जन्म पाए हुए परमेश्वर के बच्चों को ही दिया जाता है (3 यूहन्ना 7)।
  6. क्या आपके परिवार की ज़रूरतें पूरी करने के लिए आपके पर्याप्त धन है? क्या आपको यक़ीन है कि आपके देने द्वारा आपके परिवार पर किसी तरह का कोई आर्थिक बोझ नहीं आ पड़ेगा? आपको पहले अपने परिवार की ज़रूरतों को पूरा करना है (देखें मरकुस 7:9-13; 1 तीमुथियुस 5:8)। हमारा पिता जो स्वर्ग में है वह बहुत धनवान है (और किसी भी धनवान पिता की तरह), वह यह नहीं चाहता कि उसके बच्चे सिर्फ इस वजह से भूखे रहें या कोई और पीड़ा सहें क्योंकि उन्होंने उसके काम के लिए अपना धन दे दिया है।
  7. क्या आपके ऊपर कोई बड़ा कर्ज़ है? अगर ऐसा है, तो पहले उसकी भरपाई कर दें। अपने बच्चों के लिए परमेश्वर की इच्छा है कि हरेक तरह के कर्ज़ से आज़ाद होकर चैन और आराम का जीवन बिताएँ (देखें रोमियों 13:8)। इससे पहले कि हम परमेश्वर को कुछ दें, हम पहले फ्कैसर” को वह दे दें जो उसका है, क्योंकि परमेश्वर यह नहीं चाहता कि हम उसे “कैसर का” या और किसी का भी धन दें। यीशु ने मत्ती 22:21 में इस बात को बिलकुल स्पष्ट कर दिया है। (टिप्पणीः इन पदों के अर्थ में एक घर बनाने के लिए लिया गया ऋण “कर्ज़” में शामिल नहीं है, क्योंकि घर आपकी एक ऐसी सम्पत्ति है जिसकी क़ीमत उसके ऋण के बराबर ही है। और इसी वजह से, अगर एक गाड़ी का भी उसी धनराशि के लिए बीमा हुआ है जितना उसका ऋण है, तो वह भी एक कर्ज़ नहीं है)।
  8. क्या आपका विवेक शुद्ध है? जिनको आपने किसी भी तरह पीड़ा पहुँचाई है, उनसे मेलमिलाप करने के लिए क्या आपने भरसक प्रयास किया है? परमेश्वर ऐसे किसी व्यक्ति से कोई भेंट स्वीकार नहीं करेगा जिसने किसी को पीड़ा पहुँचाई है और उससे अभी तक क्षमा-याचना नहीं की है (मत्ती 5:23)।
  9. क्या आप किसी व्यक्ति या स्वयं अपने विवेक के दबाव में आकर नहीं बल्कि स्वयं अपनी आज़ादी और ख़ुशी से दे रहे हैं? परमेश्वर संकोच से देने वालों से नहीं बल्कि हर्ष से देने वालों से प्रसन्न होता है। वह ऐसे लोगों की भेंट नहीं चाहता जो किसी दबाव में आकर देते हैं, किसी दायित्व को निभाने के लिए देते हैं, सिर्फ अपने विवेक को शांत करने के लिए देते हैं, या बदले में कुछ प्रतिफल पाने की अपेक्षा से देते हैं (2 कुरिन्थियों 9:7)।
  10. पौलुस ने विश्वासियों को कभी किसी तरह के कर्ज़ में न रहने के लिए उत्साहित किया था (रोमियों 13:8)। हमारी सभी कलीसियाओं ने अपना सारा काम-काज कभी किसी का कज़र्दार हुए बिना ही पूरा किया है। हमें भारत के विभिन्न् भागों में कलीसियाओं के लिए भवनों का निर्माण करना पड़ा है क्योंकि उनके सदस्यों के संख्या बहुत बढ़ गई थी। लेकिन उन कलीसियाई भवनों का निर्माण करने के लिए हमने कभी किसी से कोई कर्ज़ नहीं लिया (किसी बैंक से भी नहीं)। हमने उन्हें तभी बनाया जब उन्हें बनाने के लिए हमने पर्याप्त धन की बचत कर ली थी (हमारी उपरोक्त आर्थिक नीति की वजह से, वैसे भी कोई बैंक हमें ऋण देने के लिए तैयार न होता!)।
  11. पौलुस ने कभी अपने लेखन के लिए कोई शुल्क (रॉयल्टी) नहीं लिया_ वह आजकल के उन लेखकों के समान नहीं था जो अपने लेखन से लाखों डॉलर कमाते हैं। हमारी कलीसिया अब तक अनेक भाषाओं में हमारी पुस्तकों (30 शीर्षकों) की 10 लाख से ज़्यादा प्रतियाँ प्रकाशित कर चुकी है, लेकिन हमने अपनी किसी भी पुस्तक की कोई रॉयल्टी नहीं ली है। पौलुस की तरह, हमने भी अपने सभी लेखनों को सबके पढ़ने के लिए निःशुल्क दे दिया है - हमारे मामले में, हमने यह अपनी वैबसाइट के द्वारा किया है (http://www.cfcindia.com)। हमने अपने 1000 से ज़्यादा वीडियो-संदेशों को भी सभी को निःशुल्क देखने और डाऊनलोड करने के लिए हमारी वेबसाइट (और यू-ट्यूब पर) भी उपलब्ध कर दिया है।
  12. यीशु और पौलुस ने दहेज-प्रथा का ज़रूर विरोध किया होता जो भारत में होने वाले विवाहों में प्रबल है, जिसमें दुल्हन के पिता को दूल्हे के पिता को एक बड़ी धनराशि चुकानी पड़ती है। भारत में सभी मसीही मतों में इस दुष्टता-भरी प्रथा का चलन है। लेकिन हमने इस दहेज-प्रथा का पूरा विरोध किया है। हरेक विवाह में, हमने दूल्हे और दुल्हन से लिखित शपथ-पत्र लिए हैं जिसमें उन्होंने यह लिखा है कि उनकी माताओं और पिताओं ने न तो दहेज लिया है और न ही दिया है।

मानवीय वर्चस्व का ख़तरा:

  1. पौलुस ने अपनी स्थापित की हुई हरेक कलीसिया में एक पास्टर नहीं बल्कि प्राचीन (बहुवचन) नियुक्त किए थे (प्रेरितों के काम 14:23; तीतुस 1:5)। इससे एक ही व्यक्ति कलीसिया में अपना वर्चस्व नहीं जमा सकता था। और वे सभी प्राचीन उसी कलीसिया में से नियुक्त किए गए थे। इस वजह से सभी प्राचीन अपने झुण्ड को भली-भांति जानते थे, और इसलिए वे आसानी से उनके आत्मिक “पिता” बन सकते थे। हमने भी अपनी सभी कलीसियाओं में ऐसा ही किया है। हमारी किसी भी कलीसिया में कोई पास्टर नहीं है। हम प्राचीन नियुक्त करते हैं, और हमारे सभी प्राचीन उसी स्थानीय कलीसिया में से नियुक्त किए गए हैं। किसी कलीसिया की अगुवाई करने के लिए किसी को भी बाहर से नहीं लाया गया है।
  2. पौलुस ने उसके द्वारा स्थापित कलीसियाओं के लिए कभी कोई केन्द्रीय मुख्यालय नहीं बनाया था - क्योंकि कलीसियाएँ एक धर्म-मत नहीं हैं। हरेक स्थानीय कलीसिया की अगुवाई सिर्फ मसीह के शीर्षाधीन है। हमने भी इसी उदाहरण का अनुसरण किया है। जैसे ही एक कलीसिया दृढ़ता से स्थापित हो जाती है, हम उसकी अगुवाई को स्थानीय अगुवों को सौंप देते हैं। उस कलीसिया से सम्बंधित हरेक मामले का वे ही फैसला करते हैं और वे ही अपने आर्थिक मामलों का भी प्रबंधन करते हैं। हमारी किसी भी कलीसिया के लिए कोई केन्द्रीय मुख्यालय नहीं है। और जैसा पौलुस ने कलीसियाओं को लिखे अपने पत्रें में किया है, वैसे ही हमने भी लगातार प्राचीनों को परामर्श और दूरदृष्टि प्रदान की है। हमने किसी भी प्राचीन पर कभी कोई आत्मिक अधिकार नहीं थोपा है, बल्कि सिर्फ वही प्रस्तावित किया है जो स्वैच्छिक रूप से माँगा गया, और जिसे हर्ष के साथ स्वीकार किया गया है।

हमने अपने पूरे हृदय से, हमारे काम के सभी क्षेत्रें में, हमारे प्रभु यीशु और प्रेरित पौलुस के उदाहरण का अनुसरण करना चाहा है। और हमने यह पाया है कि हमारे समय और युग में भी नई वाचा के मानकों के अनुसार चलना सम्भव है।

इस तरह हमने अपनी सेवकाई के द्वारा यह प्रदर्शित किया है कि यीशु मसीह वास्तव में कल, आज और युगायुग एक जैसा है।

परमेश्वर के काम का एक छोटा हिस्सा:

हम यह समझते हैं कि जो कुछ हम कर रहे हैं, वह आज मसीह की देह में हो रहे विभिन्न् और विविध कामों का सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा है। 

लेकिन हरेक सेवकाई को फिर भी परमेश्वर के वचन के उन मानकों और सिद्धान्तों के अनुसार ही काम करना होगा, जिसे यीशु और उसके प्रेरितों ने उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया और सिखाया।

हम उन कलीसियाओं और सेवकाइयों का न्याय नहीं करते जो नई वाचा के इन मानकों के अनुसार नहीं चलतीं, क्योंकि अंततः सबको परमेश्वर को ही जवाब देना है। फिर भी, सी-एफ-सी- में हमने इस वास्तविकता की एक जीवित साक्षी होना चाहा है, कि जो मानक हमारे प्रभु और उसके प्रेरितों ने उसके वचन में सिखाए हैं, उनका अनुसरण भारत जैसे ग़रीब देश में आज भी किया जा सकता है जहाँ 98 प्रतिशत लोग ग़ैर-मसीही हैं!

हमारी दिलचस्पी कभी इस बात में नहीं रही कि हम अपनी कलीसियाओं में बड़ी संख्या में लोगों को जोड़ें, क्योंकि हमारे प्रभु ने कहा है कि जीवन का मार्ग संकरा है और थोड़े ही हैं जो इसे पाते हैं (मत्ती 7:14)। इसलिए हमारा लक्ष्य सिर्फ उन थोड़े से लोगों को ही ढूँढना रहा है। हमने ऐसे लोगों को नहीं ढूँढा है जो मरने के बाद स्वर्ग जाना चाहते हैं, क्योंकि मरने के बाद तो सभी स्वर्ग जाना चाहते हैं! हमने सिर्फ ऐसे लोग ढूँढे हैं जो यहीं पृथ्वी पर मरने से पहले पूरे हृदय से यीशु के चेले बनकर उसके पीछे चलना चाहते हैं। इसलिए हमारी कलीसियाएँ महा-कलीसियाएँ नहीं हैं - और न ही वे कभी ऐसी बनेंगी।

पौलुस, पवित्र आत्मा से प्रेरित होकर बोला, कि हम (प्रतीकात्मक रूप में) या तो सोने, चाँदी और मूल्यवान पत्थरों से, या लकड़ी, भूसे और घास-फूस से कलीसियाओं का निर्माण कर सकते हैं (1 कुरिन्थियों 3:12-15)। अगर हम चेले बनने की शर्तों और जीवन की पवित्रता का प्रचार न करें, तो हम महा-कलीसियाओं का निर्माण कर सकते हैं। लेकिन वह लकड़ी, घास-फूस और भूसे से निर्माण करना होगा। जिस दिन परमेश्वर विश्वासियों का न्याय करेगा, उस दिन ऐसा सारा काम आग में पूरी तरह से नष्ट हो जाएगा, जैसा कि ऊपर लिखा पद बताता है। लेकिन एक ऐसा छोटा काम जो चेला बनने के प्रचार और मसीह की सारी आज्ञाओं का पालन करने पर निर्मित किया गया होगा - सोने, चाँदी और मूल्यवान पत्थरों से - वह आग में से सुरक्षित निकल जाएगा और अनन्त में बना रहेगा। इसलिए, एक समझदार मसीही उसके काम में संख्या नहीं पर गुणवत्ता चाहेगा।

हम आसानी से (झूठी नम्रता दिखाते हुए) उन सब बातों के बारे में चुप रह जाते जो परमेश्वर ने हमारे बीच में किए हैं। लेकिन फिरः

  1. हम परमेश्वर की उस महिमा को चुराने वाले होते जिसके वह योग्य है; और
  2. हम दूसरे विश्वासियों के लिए रखी इस चुनौती को चुराने वाले ठहरते जो हमारे समय में नई वाचा के सिद्धान्तों और मानकों के अनुसार जीने और काम करने की चुनौती है।

हमें एक दूसरी वजह से भी इस बात पर ज़ोर देने की ज़रूरत है कि प्रभु यीशु ने हमारे बीच में क्या किया हैः प्रभु के लोगों की अगली पीढ़ी को भी इन सिद्धान्तों को समझने और इनके अनुसार जीने की ज़रूरत है, कि वे भी उनके जीवनकाल में ऐसे नमक हो सकें जिसने अपना स्वाद नहीं खोया है।

पौलुस परमेश्वर की उस कृपा के बारे में चुप नहीं रहा था जो परमेश्वर ने उसके अन्दर और उसके द्वारा उसकी सेवकाई में की थी। और हम भी चुप नहीं रहेंगे। इसलिए, हम भी पौलुस की तरह यह कहेंगेः “ऐसा गर्व करने से हमें कोई नहीं रोक सकता” (2 कुरिन्थियों 11:10)।

हम जो कर रहे हैं वह करना जारी रखेंगे, कि यह साबित कर सकें कि प्रभु का काम आज भी उन्हीं सिद्धान्तों के अनुसार किया जा सकता है जिनका अभ्यास मूल प्रेरितों द्वारा किया गया था।

अध्याय 3
देह-धारण का सिद्धान्त

सारी प्रभावशाली सेवकाई का मूल सिद्धान्त देह-धारण का सिद्धान्त है। इससे मेरा अर्थ स्वयं वह उदाहरण है जो हमारे प्रभु ने स्वर्ग छोड़ने और इस पृथ्वी पर एक मनुष्य के रूप में रहने द्वारा स्वयं ही स्थापित किया था। पौलुस ने कुलुस्सियों के मसीहियों के लिए इस तरह प्रार्थना की थीः “हम परमेश्वर से यह प्रार्थना कर रहे हैं कि तुम स्वयं प्रभु के नज़रिए से सभी बातों को उस तरह देख सको जैसी वे वास्तव में हैं” (कुलुस्सियों 1:9 – जे. बी. फिलिप्स)।

परमेश्वर हमारे मनों को नया करना चाहता है (हमारे सोचने के तरीक़े को बदलना चाहता है) कि हम ज़्यादा-से-ज़्यादा वैसे सोचने वाले बन जाएँ जैसा वह सोचता है, और फिर धीरे-धीरे हरेक व्यक्ति, वस्तु और स्थिति को उसके नज़्रिए से देखने वाले बन जाएँ। मसीह की समानता में बदल जाने और जैसा यीशु चला वैसे चलने का यही अर्थ होता है (1 यूहन्ना 2:6)। मसीह की समानता में हमारा बदलाव हमारे मनों में शुरू होता है (रोमियों 12:2)।

यीशु पृथ्वी पर हमारे जैसा बनकर आया

हम यीशु की तरह चलने की चुनौती को तब तक स्वीकार नहीं कर सकेंगे जब तक कि पहले हम पवित्र शास्त्र द्वारा इस बात से क़ायल नहीं हो जाते कि वह पृृथ्वी पर बिलकुल उसी तरह से आया था जैसे हम हैं।

इब्रानियों 2:17 कहता है, “यह आवश्यक हुआ कि वह (यीशु) सब बातों में अपने भाइयों के समान बने, जिससे कि वह परमेश्वर से सम्बंधित बातों में विश्वास-योग्य महायाजक हो सके और लोगों के पापों का प्रायश्चित्त करे।”

फिलिप्पियों 2:6 कहता है, “जिसने (यीशु ने) परमेश्वर के स्वरूप में होते हुए भी परमेश्वर के समान होने को अपने अधिकार में रखने की वस्तु न समझा। उसने अपने आपको ऐसा शून्य कर दिया कि दास का सा स्वरूप धारण कर मनुष्य की समानता में हो गया।”

अपने व्यक्ति में, यीशु पृथ्वी पर रहते हुए भी परमेश्वर था, और इसका प्रमाण यह है कि उसने मनुष्यों की आराधना को स्वीकार किया (जैसा कि सुसमाचारों में 7 बार दर्ज किया गया है - मत्ती 8:2; 9:18; 14:33; 15:25; मरकुस 5:6 और यूहन्ना 9:38। लेकिन पृथ्वी पर रहने के दिनों में उसने अपनी ईश्वरीय सामर्थ्य को त्याग दिया था और मनुष्य की सीमाओं को स्वीकार कर लिया था।

यूहन्ना 6:38 में यीशु ने कहा, “मैं अपनी इच्छा नहीं बल्कि अपने भेजने वाले की इच्छा पूरी करने के लिए स्वर्ग से उतरा हूँ।”

अनादि से ही यीशु पिता और पवित्र आत्मा के बराबर होते हुए हमेशा उनके साथ मिलकर काम करता रहा है। उनकी सामूहिक इच्छा हमेशा से एक-समान रही है।

लेकिन यीशु जब पृथ्वी पर मनुष्य बनकर आया, तो उसकी एक अपनी इच्छा भी थी, वैसे ही जैसे सभी मनुष्यों की होती है। (जब नई वाचा यह कहती है कि “यीशु देहधारी हुआ”, तब उसका कहने का यही अर्थ है)। अपनी स्वयं की एक इच्छा होना पापमय नहीं है। परमेश्वर ने जब आदम को बनाया था, तब उसकी अपनी एक इच्छा थी, और वह फिर भी निष्पाप था। लेकिन यीशु ने अपनी इच्छा को कभी पूरा नहीं किया; उसने हमेशा पिता की इच्छा को ही पूरा किया। यही वजह थी कि उसने कभी कोई पाप नहीं किया था। हम इस बात को सबसे स्पष्ट रूप में उसके द्वारा गतसमनी के बाग़ में की गई प्रार्थना में पाते जिसमें उसने कहा, “हे पिता, मेरी नहीं, पर तेरी इच्छा पूरी हो” (मत्ती 26:39,42)। जब परमेश्वर ने मन्दिर के पर्दे को फाड़ दिया (मत्ती 27:51), तो एक प्रतीकात्मक रूप में वह यह प्रदर्शित कर रहा था कि यीशु ने अपने पूरे पार्थिव जीवन में अपनी देह के पर्दे को फाड़ा था (अपनी इच्छा पूरी करने की तरफ से मरता रहा था), और इस तरह उसने हमारे लिए “एक नए और जीवित मार्ग को खोल दिया था” (इब्रानियों 10:20)। अपनी मानवीय स्वेच्छा के प्रति मरना ही वह सूली है जो यीशु ने प्रतिदिन उठाई थी, और अब वह हमसे भी इसे उठाने के लिए कहता है (लूका 9:23)।

मसीही जगत में कुछ ऐसे समूह हैं जो यह झूठी शिक्षा देते हैं कि हैं परमेश्वर तीन व्यक्ति नहीं बल्कि तीन शीर्षकों वाला एक ही व्यक्ति है। वे यह सिखाते हैं कि यीशु स्वयं ही पिता, पुत्र और पवित्र-आत्मा है - और इस वजह से वे लोगों को “सिर्फ़ यीशु” के नाम में बपतिस्मा देते हैं - जो कि मत्ती 28:19 में दी गई यीशु की आज्ञा के खिलाफ़ है कि पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम में बपतिस्मा दो। उन्हें यह समझ नहीं आता कि इस तरह वे इनकार कर रहे हैं कि यीशु देह में आया था। अगर यीशु और पिता एक ही व्यक्ति होते, तो गतसमनी के बाग़ में यीशु स्वयं से ही प्रार्थना कर रहा था! यह एक बेतुकी बात है! और फिर यूहन्ना 6:38 “कुछ इस तरह होता” “मैं अपनी इच्छा नहीं बल्कि अपनी इच्छा पूरी करने के लिए स्वर्ग से उतरा हूँ!” यह भी एक बेतुकी बात है! जो त्रिएकता का इनकार करते हैं, असल में, वे इस बात से इनकार कर रहे हैं कि “यीशु देह में होकर आया था”, और यह, यूहन्ना कहता है, मसीह-विरोधी की आत्मा है (2 यूह॰ 1:7)। हमें ऐसी झूठी शिक्षाओं से सावधान रहना चाहिए।

अगर आपकी कलीसिया में कोई ऐसा व्यक्ति आता है जिसका सिर्फ यीशु के नाम में बपतिस्मा हुआ हो, तब आपको उसे यह दिखाना होगा कि उसने अनजाने ही परमेश्वर पिता और पवित्र आत्मा का इनकार कर दिया है। तब उसका सही तरह बपतिस्मा होना चाहिए, जैसी आज्ञा यीशु ने मत्ती 28:19 में दी है।

यीशु हमारी ही तरह परखा गया लेकिन उसने कोई पाप नहीं किया

1 तीमुथियुस 3:16 में बाइबल कहती है कि ईश्वरीय भक्ति का भेद बहुत गंभीर है जो इस बात मे है कि “मसीह देह में होकर प्रकट हुआ, और उसने अपनी आत्मा को शुद्ध रखा।” और वहाँ यह कहा गया है कि फ्कलीसिया को इस सत्य का स्तम्भ तथा आधार होना है” (1 तीमुथियुस 3:15)।

लिविंग बाइबल में इस पद का भावानुवाद यह हैः “यह बात बिलकुल सच है कि एक ईश्वरीय भक्ति का जीवन जीना कोई आसान बात नहीं है। लेकिन इसका जवाब मसीह में है, जो मनुष्य बनकर पृथ्वी पर आया और वह उसकी आत्मा में निष्कलंक और निष्पाप प्रमाणित हुआ।”

इस पद में आगे लिखा है कि प्रेरितों ने फिर इस बात का प्रचार जगत की फ्सब जातियों में” किया। लेकिन आज अनेक मसीही इस सत्य का विरोध करते हैं। वे यह कहते हैं कि यीशु पाप कर ही नहीं सकता था। अगर ऐसा है, तो फिर वह हमारे समान परखा नहीं गया था। लेकिन इब्रानियों 4:15 कहता है कि मसीह सब बातों में हमारे ही समान परखा गया था। और इब्रानियों 2:17 कहता है क्योंकि वह सब बातों में हमारी ही तरह परखा गया था, इसलिए जब हमारी परीक्षा होती है, तब वह तुरन्त हमारी मदद के लिए भी आ सकता है। जब हम परखे जाते हैं, तब शैतान हमारी इस ताक़त और तसल्ली को चुरा लेना चाहता है।

इस विषय पर ईश्वरीय भक्त ए. डबल्यू टोज़र ने इस तरह लिखा थाः

“अगर किसी व्यक्ति को पाप की सम्भावना से दूर हटा दिया जाए, तो वह सिर्फ एक ऐसा यांत्रिक मनुष्य (रोबोट) ही होगा जिसे चरखियों, पहियों और बटनों से ही चलाया जा सकता हो। अगर एक व्यक्ति बुरा करने योग्य नहीं है, तो इसी माप के अनुसार, वह नैतिक रूप में कुछ भला करने योग्य भी नहीं होगा। नैतिकता की अवधारणा के लिए एक मुक्त मानवीय इच्छा का होना अनिवार्य है। अगर हमारी इच्छा बुरा करने के लिए आज़ाद नहीं है, तो वह भला करने के लिए भी आज़ाद नहीं है।”

इस वजह से ही मैं यह विचार स्वीकार नहीं कर सकता कि हमारा प्रभु यीशु मसीह पाप नहीं कर सकता था। अगर वह पाप नहीं कर सकता था, तो जंगल में हुई उसकी परीक्षा एक नाटक था, और परमेश्वर भी उस नाटक में शामिल था। नहीं। मनुष्य होते हुए वह पाप कर सकता था, लेकिन इस हक़ीक़त ने, कि उसने पाप नहीं किया, उसे वह पवित्र मनुष्य बना दिया जो वह था।

पाप करने की अयोग्यता नहीं, बल्कि पाप करने की अनिच्छा एक व्यक्ति को पवित्र बनाती है। एक पवित्र व्यक्ति वह नहीं है जो पाप कर ही नहीं सकता, लेकिन वह है जो पाप नहीं करता।

एक सच्चा व्यक्ति वह नहीं है जो झूठ बोल ही नहीं सकता। एक सच्चा व्यक्ति वह है जो झूठ बोल सकता है, लेकिन वह झूठ नहीं बोलता है।

एक ईमानदार व्यक्ति वह नहीं है जो जेल में है जहाँ वह बेईमानी कर ही नहीं सकता। एक ईमानदार व्यक्ति वह है जो बेईमान होने के लिए आज़ाद है, लेकिन वह बेईमानी नहीं करता।

(ए. डबल्यू टोज़र की पुस्तकः ट्रैजडी इन द चर्च - द मिसिँग गिफ्ट्स - अध्याय 7)

हरेक व्यक्ति जो पवित्र शास्त्रों के प्रति ईमानदार है, और जो उसकी अपनी परम्पराओं से पूर्वग्रस्त नहीं है, और जो दूसरों के मतों से भयभीत नहीं है, इस सत्य को मान लेगा कि वह तो सब बातों में हमारे ही समान परखा गया, फिर भी सब बातों में निष्पाप निकला” (इब्रानियों 4:15)।

हमें प्रलोभन और पाप के बीच के “फ़र्क को जानना ज़रूरी है। यीशु “हमारी तरह ही सब बातों में प्रलोभित हुआ था।” लेकिन वह एक बार भी (उसके मन में भी) किसी प्रलोभन की तरफ आकर्षित होकर उसमें गिरा नहीं था, इसलिए उसने कभी पाप नहीं किया था। दूसरे शब्दों में, उसने एक बार भी स्वयं अपनी इच्छा को पूरा करना या स्वयं अपना भोग-विलास न चाहा था (रोमियों 15:3)।

सारे प्रलोभन/परीक्षा इस बात का आमंत्रण होते हैं कि हम विभिन्न क्षेत्रों में स्वयं अपने आपको प्रसन्न करें, और इस तरह स्वयं अपनी ही इच्छा को पूरा करें। एक व्यक्ति सिर्फ तभी पाप करता है जब वह उस आमंत्रण को स्वीकार कर लेता है और अपनी स्वयं की इच्छा को पूरा करता है। पौलुस के लेखनों में फ्लालसा” शब्द का अर्थ “पापमय अभिलाषा” नहीं बल्कि “दृढ़ अभिलाषा” है। क्योंकि ऐसा लिखा है कि “पवित्र आत्मा भी शरीर के ख़लाफ लालसा करता है” (गलातियों 5:17)- जिसका अर्थ सिर्फ इतना है कि पवित्र आत्मा के अन्दर हमारी अपनी अभिलाषा (स्वेच्छा) के खिलाफ़ एक दृढ़ लालसा है।

जब हम इस अभिलाषा के सामने झुक जाते हैं/हार जाते हैं, तब वह गर्भ धारण करती है और पाप को जनती है (याकूब 1:15)। लेकिन, अगर हम अपनी इच्छा पूरी करने से इनकार कर देंगे, तब हम पाप नहीं करेंगे। एक प्राचीन संत ने एक बार यह कहा, “मैं पक्षियों को मेरे सिर के ऊपर से उड़ने से नहीं रोक सकता, लेकिन मैं उन्हें अपने सिर में घोंसला बनाने से ज़रूर रोक सकता हूँ।” जब हम में एक बुरा विचार आता है, और अगर हम एक पल के लिए भी उसे हमारे मन में मण्डराने देंगे, तो हम उसे अपने सिर में घोंसला बनाने की अनुमति दे देंगे, और फिर हम पाप करेंगे। लेकिन यीशु हमारा उदाहरण है, जो हमारी ही तरह परखा गया, फिर भी निष्पाप निकला।

मसीह के प्रति हमारी स्वामीभक्ति की परख:

अगर परमेश्वर यह देखता है कि एक विश्वासी ईश्वरीय भक्ति के प्रति सच्चा नहीं है, डरपोक है और उस सत्य के लिए (जिसे वह पवित्र शास्त्र में देखता है) खड़ा होने से डरता है क्योंकि उसे दूसरों की आलोचना का डर होता है, तब परमेश्वर इस सत्य को उससे छिपा लेगा - क्योंकि इसे “भक्ति का भेद” कहा गया है (1 तीमुथियुस 3:16)। परमेश्वर अपने भेद उन्हीं पर प्रकट करता है जो उसका भय मानते हैं (भजन संहिता 25:14)। परमेश्वर के मामलों में डरपोक होना ख़तरनाक बात है, क्योंकि “डरपोक” प्रकाशितवाक्य 21:8 की उस सूची में उन सबसे पहले है जो आग की झील में फेंके जाएँगे – “हत्यारों, व्यभिचारियों, जादूगरों और मूर्तिपूजकों” से भी पहले!

मार्टिन लूथर ने कहाः

“अगर मैं ज़ोर-शोर से परमेश्वर के सत्य के हरेक भाग पर मेरे विश्वास का ऐलान करूँ, लेकिन उस ख़ास सत्य के बारे में ख़ामोश रहूँ जिस पर शैतान ठीक इसी समय हमला कर रहा है, तो मैं मसीह का अंगीकार नहीं कर रहा हूँ। जिस मोर्चे पर इस समय सबसे भीषण संघर्ष हो रहा है, वही वह बिन्दु है जहाँ एक योद्धा को परखा जा रहा है। और अगर एक योद्धा संघर्ष के वर्तमान मोर्चे पर दृढ़ता से नहीं खड़ा है, तो युद्ध-क्षेत्र (रणभूमि) के बाक़ी सभी स्थानों में उसका विश्वास-योग्य रहना व्यर्थ है।”

पिछले 43 सालों में, भारत में हमारी कलीसियाओं के खिलाफ़ इस सत्य के मोर्चे पर सबसे भीषण युद्ध होता रहा है कि “मसीह सब बातों में हमारे ही समान परखा गया, लेकिन फिर भी निष्पाप निकला।” लेकिन कलीसिया में हम इस “सत्य का स्तम्भ तथा आधार” बन कर दृढ़ता से खड़े रहे हैं, और हमने साहस के साथ और संकोच-रहित होकर इसका प्रचार किया है। और हमने अनेक बदले हुए जीवनों में इसका परिणाम देखा है।

1 तीमुथियुस 3:16 में इस बात पर ध्यान दें कि ईश्वरीय भक्ति का भेद “मसीह के देह में होकर आने की धार्मिक शिक्षा” में नहीं है, बल्कि “मसीह के व्यक्ति में है जो देह में होकर आया।” अनेक लोग स्वयं मसीह को एक व्यक्ति के रूप में देखने की बजाय इसे एक धार्मिक शिक्षा के रूप में देखने द्वारा फरीसी बन गए हैं। “अक्षर (सही धार्मिक शिक्षा का अक्षर भी) मारता है, लेकिन आत्मा जिलाता है” (2 कुरिन्थियों 3:6)। हमें लोगों का ध्यान एक व्यक्ति के रूप में स्वयं मसीह की तरफ आकर्षित करना है, किसी धर्म-सिद्धान्त की तरफ नहीं।

सिर्फ अपने मन से ही नहीं बल्कि अपनी आत्मा से यह अंगीकार करना (1 यूहन्ना 4:2) कि यीशु देह में होकर आया का अर्थ, सबसे पहले, यही है कि हम अपने पूरे हृदय से यह विश्वास करें कि वह हमारी ही तरह परखा गया था, उसके पास पवित्र आत्मा की उतनी ही सामर्थ्य थी जितनी हमारे पास है, और अगर हम पूरे हृदय से समर्पित होंगे तो हम भी वैसे ही चल सकते हैं जैसे वह चला था (1 यूहन्ना 2:6)।

इसका अर्थ यह भी है कि हमारी आत्मा उसके पद्-चिन्हों पर चलने के लिए लालायित है - हम कभी अपने लिए कुछ नहीं चाहते और कभी स्वयं अपनी इच्छा पूरी करना नहीं चाहते।

अपने पृथ्वी पर रहने के दिनों में, यीशु ने अपनी परीक्षाओं/प्रलोभनों द्वारा (पिता का आज्ञाकारी रहते हुए) जो कुछ सीखा था, वह समझने के लिए हमें पवित्र आत्मा के प्रकाशन की ज़रूरत है। यह लिखा है कि “पुत्र होने पर भी उसने दुःख सह-सहकर आज्ञापालन करना सीखा” (इब्रानियों 5:8)। वह (पाप के खिलाफ) अपने संघर्ष के हरेक मोर्चे पर पूरी तरह विश्वास-योग्य रहा। वह “अपने जैविक-जीवन को मृत्यु के लिए उण्डेल देने में भी विश्वास-योग्य रहा था” (यशायाह 53:12)। इस तरह उसकी देह के द्वारा परमेश्वर के जीवन की भरपूरी प्रकट हो सकी थी। ऐसे लोग बहुत कम होते हैं जो अपने आपको पवित्र करने के लिए अपने जैविक जीवन को मृत्यु के लिए उण्डेल देने को तैयार होते हैं, क्योंकि ऐसे लोग बहुत कम हैं जो सबसे पहले उनके जीवनों में सभी ज्ञात पापों के खिलाफ़ लड़ने में परमेश्वर की नज़र में विश्वास-योग्य हैं।

इस भाग में मैंने इस बिन्दु पर इतना ज़ोर इसलिए दिया है क्योंकि ऐसे बहुत विश्वासी हैं जो उनके जीवनों में परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने से चूक रहे हैं क्योंकि वे इस नए और जीवित मार्ग के सत्य को नहीं समझ सके हैं जो यीशु ने हमारे लिए उसकी देह के द्वारा खोल दिया है (इब्रानियों 10:20)। यीशु ने कहा कि हमें पहले सत्य को जानना होगा और फिर “सत्य हमें मुक्त कर देगा” (यूहन्ना 8:32)।

यीशु हमारा बड़ा भाई है:

यीशु हमारा बड़ा भाई है (रोमियों 8:29) और परमेश्वर हमसे वैसा ही प्रेम करता है जैसा वह यीशु से करता है (यूहन्ना 17:23)। और क्योंकि परमेश्वर कोई पक्षपात/भेदभाव नहीं करता (रोमियों 2:11), इसलिए हमारा यह विश्वास है किः

  1. परमेश्वर ने जो कुछ यीशु के लिए किया था, वही वह हमारे लिए भी करेगा जो यीशु के छोटे भाई-बहन हैं। इसलिए वह हमें पाप की शक्ति से मुक्त कर देगा।
  2. परमेश्वर ने जैसे यीशु की देखभाल की थी, वैसे ही वह हमारी भी देखभाल करेगा। इसलिए वह हमें सारे भय और आशंका से मुक्त कर देगा।

इस पृथ्वी पर हमारी सबसे बड़ी दो समस्याएँ पाप और भय हैं। इन दोनों से हमें यह देखने द्वारा ही मुक्ति मिलती है कि यीशु इन दोनों क्षेत्रें में हमारी ही तरह परखा गया था, लेकिन उसने न तो पाप किया और न ही वह भयभीत और आशंकित हुआ। अब हम वास्तव में यीशु की तरह चल सकते हैं (1 यूहन्ना 2:6)।

जब इस सत्य ने मुझे जकड़ा, तब 1977 में परमेश्वर ने यह स्तुति-गीत लिखने में मेरी मदद कीः

तेरा जीव हताशा से भर गया है,

लेकिन तू क्यों डर रहा है,

परमेश्वर तो तेरे पास आ गया है!

वह तुझे अपने पुत्र की तरह चाहता है,

तेरी भी उसी तरह मदद करना चाहता है,

जब उसकी प्रतिज्ञाओं में तेरा भरोसा बना रहेगा,

सिर्फ तभी वह हमें इन दुःखों से निकाल सकेगा।

समूहगान कोरसः

यही ख़ुश-ख़बरी हैः परमेश्वर सब कर सकता है,

जैसे यीशु के लिए, वैसे तेरे लिए भी कर सकता है।

उसके ज़ोरावर ज़ोर से तुझे ताक़त देता रहेगा,

उन बातों की हद न होगी, जो परमेश्वर करेगा।

हालांकि सँसार पाप व बुराई से भर गया है

और तू भी इनके नीचे पूरा दब गया है,

पर परमेश्वर का वचन सच्चा ठहरता है,

“अब पाप तेरे सामने ठहर नहीं सकता है।”

जब प्रलोभनों की पकड़ तुझे जकड़ने लगेगी,

प्रभु की कृपा ही तेरा लंगर बन तुझे सम्भालेगी,

इसलिए तू यीशु की तरह चलता रहेगा,

हरेक दिन में तू जीत हासिल करता रहेगा।

जब दुःख-बीमारी तेरे डेरे में आएँगे,

तेरे प्रियजनों को भी घेर ले जाएँगे,

तब परमेश्वर तेरे दर्द को महसूस करेगा

और तुझे चंगा करने की ताक़त भेजेगा।

तेरा पिता तेरी ज़रूरत को पूरा करेगा,

वह हमेशा भरोसेमंद और सच्चा ठहरेगा,

जैसे वह यीशु को सम्भालता था,

वैसे ही तुझे भी सम्भाले रहेगा।

यह बड़ी तसल्ली की बात है,

कि तूने यीशु को प्रभु मान लिया है,

और उसे अपना बड़ा भाई जान लिया है,

क्योंकि जो कुछ उसका है अब वह तेरा है।

और अब जबकि परमेश्वर तेरी तरफ हो गया है,

तो तेरे विरोध में तेरा दुश्मन कौन हो सकता है?

ऐसे सात क्षेत्र जिनमें हमें यीशु के पीछे चलना है

सबसे पहले, यीशु ने जो कुछ किया, उसमें उसने अपने पिता की महिमा चाही (यूहन्ना 7:18)। उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा मानव-जाति का भला करना नहीं थी (चाहे यह अभिलाषा बहुत अच्छी भी क्यों न थी), बल्कि उसके पिता के नाम की महिमा करने की थी (यूहन्ना 17:4)। वह अपने पिता के सम्मुख रहता था, और वह सब बातों में सिर्फ उसके पिता को ही प्रसन्न करना चाहता था। वह उसके वचनों को सुनने वाले लोगों के सम्मुख नहीं अपने पिता के सम्मुख खड़ा रहकर परमेश्वर का वचन बोलता था। वह लोगों की नहीं, सबसे पहले अपने पिता की सेवा करता था।

हमें भी परमेश्वर की सेवा इसी तरह करनी है। हम प्राथमिक तौर पर कलीसिया की सेवा करने के लिए नहीं बल्कि प्रभु के सेवक होने के लिए बुलाए गए हैं। हमारा प्रभु सबसे पहले हमें जो प्रार्थना करने की आज्ञा देता है वह इस प्रकार हैः “हे पिता, तेरा नाम पवित्र माना जाएँ” अगर हम लोगों की सेवा करना चाहेंगे, तो अंततः हम मनुष्यों को प्रसन्न करने वाले ठहरेंगे और स्वयं अपने लिए नाम कमाएंगे।

दूसरा, यीशु ने कलीसिया की ख़ातिर अपना सब कुछ त्याग दिया था। जब कलीसिया की नींव डालने की बात आई, तो उसने अपने लिए कुछ भी बाक़ी नहीं रख छोड़ा। “मसीह ने कलीसिया से प्रेम किया और अपने आपको उसके लिए दे दिया” (इफिसियों 5:25)।

यशायाह की इस नबूवत में उसकी मौत का बयान इस तरह किया गया हैः “उसकी मृत्यु के समय स्वयं अपने हित का एक विचार भी उसमें नहीं था” (यशायाह 53:8, द मैसेज भावानुवाद)। इस बात पर विचार करेंः उसका जीना और मरना ऐसा था जिसमें उसके स्वयं के हित का एक भी विचार उसके अन्दर नही था! उसने अपने आपको पूरी तरह कलीसिया के लिए दे दिया था। और वह हमें भी इसी तरह चलने के लिए बुलाता है - और जो इस तरह से चलने के लिए तैयार हैं, सिर्फ वही लोग एक नई वाचा की कलीसिया तैयार कर सकते हैं।

एक ऐसी कलीसिया तैयार करने के लिए, हमें अपने जीवन में बहुत तरह के कष्ट सहने के लिए तैयार रहना होगा। हमें इस बात के लिए तैयार रहना होगा कि हमारी प्रतिदिन की दिनचर्या उलट-पलट हो जाए, दूसरे लोग हमसे ग़लत तरह से फायदे उठाएं, हमारी भौतिक/पार्थिव वस्तुओं का सब के द्वारा उपयोग किया जाए, और कोई शिकायत किए बिना हमारे द्वारा हर तरह का दबाव सहा जाए।

तीसरा, यीशु ने हमारी पीड़ाओं में प्रवेश किया। उसने हमारे साथ एक पूरी पहचान बनाई। हालांकि वह परमेश्वर का पुत्र था, फिर भी हमारी मदद करने के लिए, पहले उसने पीड़ा सहने द्वारा आज्ञापालन करना सीखा (इब्रानियों 2:17)। वह इस तरह हमारा अग्रदूत बन सका है (इब्रानियों 6:20)। अगर हम अपनी पीड़ाओं के बीच में रहते हुए पहले दुःख सहना और आज्ञापालन करना नहीं सीखेंगे, तो हम दूसरों की मदद नहीं कर सकेंगे। हमारी कलीसियाओं में हमारी बुलाहट सिर्फ प्रचारक होने के लिए नहीं है, बल्कि हमारे भाइयों व बहनों के लिए अग्रदूत होने की है। और इसमें अनेक पीड़ादायक और मुश्किल परीक्षाओं और हालातों में से गुज़रना शामिल है कि हमें उन सभी हालातों में परमेश्वर द्वारा उत्साहित किए जाने और बल दिए जाने का अनुभव मिल सके, जिससे कि दूसरों को देने के लिए हमारे पास भी कुछ जीवन-देने-वाली बातें हों - सिर्फ एक ऐसा संदेश नहीं जो हमने परमेश्वर के वचन का अध्ययन करने, या एक पुस्तक पढ़ लेने, या कोई प्रचार सुन लेने द्वारा प्राप्त कर लिया हो (देखें 2 कुरिन्थियों 1:4)।

चौथा, यीशु के मन में हमेशा अपने चेलों की चिंता बनी रहती थी। उसने हमेशा उनका भला चाहा था। इस बात के दो पहलू थेः

  1. उसके चेलों के प्रति उसका मनोभाव हर समय एक सेवक का रहा था। उसने उनसे कोई अपेक्षा नहीं रखी थी, बल्कि उसने हमेशा यही सोचा कि वह कैसे उन्हें आशिष दे और उनकी मदद करे;
  2. उसने अपने चेलों को उन बातों के लिए प्रोत्साहित किया जो उनके लिए भला था, चाहे उसे यह ताड़ना के कठोर शब्दों द्वारा भी क्यों न करना पड़ा था - क्योंकि उसने स्वयं अपने लिए एक कोमल व्यक्ति होने का नाम कमाना न चाहा था बल्कि उसने उनकी अनन्त भलाई चाही थी।

जिन सब लोगों के बीच हमने वचन की सेवा की है, उनसे हम भी पौलुस की तरह यह कहने योग्य होने चाहिए, “मैंने किसी से अनुचित लाभ नहीं कमाया, मैंने तुम्हारा धन या उपहार नहीं चाहा, लेकिन सिर्फ तुम्हें चाहा। मैंने तुम्हें परमेश्वर के ऐसे किसी परामर्श से वंचित नहीं रखा जो तुम्हारे लिए लाभदायक था” (2 कुरिन्थियों 7:2; प्रेरितों. 20:33; 1 कुरिन्थियों 9:15; फिलिप्पियों 4:17; 2 कुरिन्थियों 12:14; प्रेरितों. 20:20)।

पुरानी वाचा के नबी, इस्राएल के लोगों से बात करने से पहले, परमेश्वर की उपस्थिति में इस्राएल की दशा के बारे में बहुत विचार करते थे। परमेश्वर सिर्फ ऐसे लोगों को ही एक नबूवत की सेवकाई देता है जो प्रभु की उपस्थिति में दूसरों की ज़रूरत के बारे में बहुत विचार करते हैं, और जो उनकी पीड़ाओं और समस्याओं की चिंता करते हैं।

हमें अपने आपको दूसरे लोगों की जगह रखने की कोशिश करने में, और यह समझने में कि वे किन बातों में से गुज़र रहे हैं, अपने मनों को इस्तेमाल करने की ज़रूरत होगी। हमें उन लोगों के घरों में जाना चाहिए जो हमसे ग़रीब हैं और उनके साथ सहभागिता करनी चाहिए कि हम उनकी परीक्षाओं में प्रवेश कर सकें। वर्ना हमारी सेवकाई उनकी ज़रूरतों और मुश्किलों में प्रासंगिक न होगी।

पाँचवाँ, यीशु ने पहले अपने जीवन में किया और फिर उसके बारे में दूसरों को बताया। फ्पहाड़ी उपदेश” (मत्ती अध्याय 5-7) कोई ऐसा संदेश नहीं था जो उसने पिछली रात में तैयार कर लिया था। नहीं। उस उपदेश में उसने उसी तरह के जीवन के बारे में बातें की थीं, जो उसके पिछले 30 साल के जीने का नतीजा थीं।

इसका एक उदाहरण यह होगा कि अगर हमने वास्तव में एक विश्राम के जीवन में प्रवेश नहीं किया है, तो हम ऐसा प्रचार कभी न करें जो दूसरों को हमारे बारे में ऐसा सोचने वाला बना सकता हो। लेकिन, इसके साथ ही, अगर हममें ऐसे जीवन में प्रवेश करने की भरपूर लालसा न हो, तो हमें अपने ऊपर भरपूर लज्जा महसूस होनी चाहिए। जब तक हममें ऐसे जीवन में प्रवेश करने का तीव्र आवेग न हो, तब तक हमें शोक करना चाहिए और परमेश्वर के मुख के दर्शन का खोजी होना चाहिए। तब हम अधिकार के साथ बोल सकेंगे।

हमें हर समय अपने आपको नम्र व दीन करते रहना चाहिए, और सिर्फ उन्हीं बातों के बारे में बोलना चाहिए जो हमारा जीवन बन चुकी हैं, या कम-से-कम ऐसा हो कि हमने उनकी तरफ अपने पूरे हृदय से बढ़ना शुरू कर दिया हो।

छठवाँ, यीशु ने स्वयं सब कुछ कर लेना न चाहा था। उसने उसके चिन्ह्-चमत्कारों में भी दूसरों को शामिल किया था - जब उसने काना में दाखरस पिलाया, जब उसने पाँच हज़ार लोगों की भीड़ को खिलाया, और तब भी जब उसने लाज़र को मुर्दों में से जिलाया। इस हरेक मामले में, उसने दूसरों को वह काम करने के लिए कहा जो आसान था, और स्वयं वह किया जो मुश्किल (असम्भव) था! अंत में उसने चेलों से कहा था कि वे उसके द्वारा किए गए कामों से भी बड़े काम करेंगे (यूहन्ना 14:12)।

अगर हमें अपनी स्थानीय कलीसियाओं में एक संतुलित देह वाली सेवकाई चाहिए, तो हमें इसी उदाहरण का अनुसरण करना होगा। हमारी कलीसियाओं के द्वारा सिर्फ तभी परमेश्वर के उद्देश्य पूरे हो सकते हैं। परमेश्वर ने मसीह की देह के हरेक सदस्य को जिन बातों/हालातों में से गुज़रने दिया है, उनके द्वारा उसने उन्हें एक ख़ास तरह की परवरिश और आत्मिक शिक्षा दी है। इस तरह, कलीसिया को समृद्ध करने के लिए उनमें से हरेक एक ख़ास तरह का योगदान कर सकता है। प्रभु के प्रति विश्वास-योग्य रहने में एक कलीसिया में भाइयों और बहनों ने जो पीड़ाएं सही हैं, उस कलीसिया की समृद्धि में उनका वही योगदान है। और अगर भाइयों और बहनों को उन बातों को बाँटने के लिए उत्साहित नहीं किया जाएगा जो अपनी परीक्षाओं में उन्होंने प्रभु से सीखी हैं, तो एक कलीसिया उतनी ही ग़रीब होगी। स्वयं अपने या अपनी सेवकाई के बारे में ऐसी बड़ी सोच रखने द्वारा, कि सिर्फ आप ही कलीसिया को आशिष दे सकते हैं, आपको दूसरों की सेवकाई में रुकावट नहीं बनना चाहिए।

सातवाँ, अपने जीवन और सेवकाई में मदद पाने के लिए यीशु ने प्रार्थना में लगातार अपने पिता के मुख का दर्शन पाना चाहा था। अगर हमारी सेवकाई को प्रभावशाली होना है, तो हमें भी प्रभावी प्रार्थना द्वारा प्रभु की खोज में रहना होगा। अगर हमें कलीसिया को उस तरह बनाना है जैसे प्रभु उसे बनाना चाहता है, तो हमें अपनी बुद्धि और योग्यताओं पर निर्भर नहीं रहना है, बल्कि पवित्र आत्मा के दान-वरदान पाने के लिए पूरी निष्ठा से उसकी प्रतीक्षा करनी चाहिए।

पवित्रता और प्रेम:

हम जब पवित्रता और एक जय पाने वाले जीवन की खोज करें, तो हम उस बात को कभी न भूलें जो यीशु ने अपने जीवन के द्वारा प्रदर्शित की थी - कि सच्ची पवित्रता हमेशा दूसरों के प्रति एक सरगर्म प्रेम में ही प्रदर्शित होती है। 

1 थिस्सलुनीकियों 3:12,13 में पौलुस कहता है, “और प्रभु करे कि तुम सब मनुष्यों के लिए एक-दूसरे के लिए प्रेम में उन्नति करते और बढ़ते जाओ... जिससे कि प्रभु तुम्हारे हृदयों को हमारे पिता परमेश्वर के समक्ष पवित्रता में निर्दोष ठहराए।”

हम मसीहियों के रूप में परमेश्वर के सत्य और पवित्रता के लिए जितना ज़्यादा दृढ़ता के साथ कोई समझौता किए बिना खड़े रहेंगे, हम सभी लोगों के प्रति उतना ही ज़्यादा प्रेम करने वाले बनते जाएँगे - ख़ास तौर पर उनके प्रति जो हमसे सहमत नहीं होते। वर्ना हम अपने आपको धोखा देन वाले ठहरेंगे और हमारी मसीहियत एक जालसाज़ी-भरी नकल ही होगी।

“अगर मैं बहुत प्रभावशाली शैली में बोलूँ लेकिन प्रेम न रखूँ तो मैं ठनठनाती घण्टी और झनझनाती झाँझ हूँ।

अगर मैं परमेश्वर के वचन के सभी रहस्यों को प्रकट करते हुए सामर्थ्य के साथ बोलूँ लेकिन प्रेम न रखूँ, तो मैं कुछ भी नहीं हूँ।

मैं चाहे कुछ भी सोचूँ, कुछ भी मानूँ, और कुछ भी करूँ, लेकिन प्रेम के बिना मैं कँगाल हूँ।

प्रेम ऐसा कुछ नहीं चाहता जो स्वयं उसके पास नहीं है।

प्रेम के पास एक घमण्ड से भरा दिल-दिमाग़ नहीं होता।

प्रेम क्रोध करने में तत्परता नहीं दिखाता (अपना संतुलन नहीं खोता)।

प्रेम दूसरों के पापों की एक सूची बना कर नहीं रखता।

प्रेम का पीछे इस तरह से लग जाओ मानो तुम्हारा जीवन उस पर निर्भर है, क्योंकि वह वास्तव में उस पर निर्भर है” (1 कुरिन्थियों 13:1 से 14:1 - मैसेज भावानुवाद)।

अध्याय 4
हर जगह एक शुद्ध साक्षी

नई वाचा के इस युग में, हमारा प्रभु “हरेक जगह एक शुद्ध साक्षी” चाहता है - पूर्व से पश्चिम तक, जैसा कि मलाकी 1:11 में नबूवत की गई है, वह हरेक जाति/देश में ऐसी साक्षी चाहता है। जब हमने 1975 में बैंगलोर में अपनी कलीसिया शुरू की थी, तब इसी पद को प्रभु ने हमें एक लक्ष्य के रूप में पूरा करने के लिए दिया था।

शैतान का प्रमुख लक्ष्य एक आत्मिक मन-मिज़ाज वाली कलीसिया में लोगों की संख्या के बढ़ने को रोकने की बजाय उसकी साक्षी को अशुद्ध करना होता है। असल में, यह हो सकता कि शैतान यह चाहे कि एक अशुद्ध कलीसिया में ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में लोग जुड़ जाएँ, क्योंकि तब वह सांसारिक विश्वासियों के द्वारा उस कलीसिया में ज़्यादा आसानी से घुस सकता है और उसकी साक्षी को ख़राब कर सकता है।

प्रभु के लिए एक कलीसिया को शुद्ध रखना एक संघर्ष है। एक अच्छी शुरूआत करना आसान होता है, लेकिन फिर, कुछ समय के बाद, हम अपने मानक मापदण्डों को नीचा करने द्वारा धीरे-धीरे एक मृतक कलीसिया में बदल सकते हैं। यही बात है जिसमें हमें आत्मिक रूप में सचेत होकर शैतान की युक्तियों से अनजान नहीं रहना है। यह सतर्कता और जागरूकता सिर्फ तब ही धारदार होती है जब सबसे पहले हम स्वयं अपने जीवनों पर ध्यान देते हैं।

हम सांसारिक लोगों को अपनी कलीसियाई सभाओं में आने से नहीं रोक सकते। यीशु की 12 लोगों की “कलीसिया” में भी एक यहूदा इस्करियोती बैठा था। और कुरिन्थिुस में जो कलीसिया पौलुस ने स्थापित की थी, उसमें भी अनेक सांसारिक लोग मौजूद थे। हमारी कलीसियाओं में भी सांसारिक लोग होंगे। हम इससे बच नहीं सकते।

लेकिन हम यह ज़रूर सुनिश्चित कर सकते हैं कि कलीसिया की अगुवाई हमेशा आत्मिक लोगों के हाथ में ही रहे। और हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कलीसिया में सुनाया जा रहा संदेश भी हमेशा शुद्ध हो, नई वाचा का संदेश हो।

पौलुस ने तीमुथियुस से कहा कि सबसे पहले वह स्वयं उसके ऊपर ध्यान दे (1 तीमुथियुस 4:15,16)। जो अपने आपको देह और आत्मा की सारी अशुद्धता से शुद्ध करते रहने में विश्वास-योग्य होते हैं (2 कुरिन्थियों 7:1), फिर वे शैतान की युक्तियों के प्रति एक आत्मिक संवेदना पा लेते हैं। इसके अलावा और कोई उपाय नहीं है। मसीही धर्म-सिद्धान्त का ज्ञान, बोलने की कुशलता, और आत्मिक दान-वरदान भी यहाँ कोई काम नहीं आते, क्योंकि हमारा युद्ध माँस और लहू से नहीं है, न ही बौद्धिक शक्तियों से है, बल्कि दुष्टता की उन आत्मिक सेनाओं से है जो उन लोगों को धोखा देने के इंतज़ार में रहती हैं जिन्हें धोखा दिया जा सकता है।

नम्र व दीन अगुवे जिनके लिए कलीसिया पहली प्राथमिकता है:

यीशु ने कहा कि वह एक ऐसी कलीसिया बनाएगा जिस पर आत्मिक मृत्यु की शक्तियाँ प्रबल न हो सकेंगी (मत्ती 16:18)। सिर्फ प्रभु ही ऐसी कलीसिया का निर्माण कर सकता है। हम यह नहीं कर सकते। हम, ज़्यादा-से-ज़्यादा, ऐसे उपलब्ध पात्र हो सकते हैं जिन्हें वह अपनी इच्छा पूरी करने के लिए इस्तेमाल कर सकता हो। लेकिन, यह ज़रूरी है कि कलीसिया की सरकार सिर्फ उसके काँधों पर ही हो (यशायाह 9:6)। हम यह कभी न भूलें। अगर प्रभु ही कलीसिया को न बनाए, तो हमारा सारा परिश्रम व्यर्थ होगा (भजन संहिता 127:1)। वे लोग जो यह कल्पना करते हैं कि किसी भी जगह में वे स्वयं प्रभु की कलीसिया तैयार कर रहे हैं, तो अनजाने ही वे नबूकदनेस्सर के साथ सहभागिता करने वाले हो जाते हैं जिसने यह कहा था, “क्या यह वह बाबुल नहीं जिसे मैंने स्वयं ही बनाया है?” (दानिय्येल 4:30)। ऐसा घमण्ड सिर्फ एक बेबीलोनी, सांसारिक “कलीसिया” ही पैदा कर सकता है (प्रकाशितवाक्य 17:5)।

परमेश्वर नम्र व दीन अगुवे ढूँढ रहा है। वह ऐसे लोग ढूँढ रहा है जो पहले उसके राज्य की खोज करने वाले होंगे - वे जिनके लिए कलीसिया का निर्माण करना उनके जीवनों की पहली प्राथमिकता है, वैसे ही जैसे नूह के जीवन में जहाज़ का निर्माण करना उसकी पहली प्राथमिकता थी। मसीह ने कलीसिया से प्रेम किया और अपने आपको उसके लिए दे दिया (इफिसियों 5:25)। अगर हम कलीसिया से प्रेम करेंगे, तो हम भी अपने आपको और जो कुछ हमारे पास है, उसके लिए पूरी तरह दे देंगे। वे जो अपने सांसारिक काम-धंधे को स्थानीय कलीसिया का निर्माण करने से ज़्यादा मूल्यवान समझते हैं, कभी यह अपेक्षा न करें कि वे एक और बेबीलोन के अलावा कुछ और बना सकते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपने सांसारिक काम-धंधे छोड़ दें। नहीं। इन दिनों, यही सबसे अच्छा है कि हम आर्थिक रूप में अपनी देखभाल स्वयं करने वाले हों, जैसा प्रेरित पौलुस था, क्योंकि यह ग़ैर-मसीहियों के सम्मुख एक अच्छी साक्षी होगी जो मसीही सेवकों पर यह आरोप लगाते हैं कि वे धन प्राप्त करने के लिए काम करते हैं। लेकिन, चाहे हम साँसारिक काम-धंधे भी क्यों न कर रहे हों, फिर भी हमारे सोच-विचार में परमेश्वर का राज्य सबसे बढ़कर होना चाहिए।

इससे पहले कि परमेश्वर उसकी कलीसिया का निर्माण करने में हमारा समर्थन करे, वह पहले हमें परख कर यह देखेगा कि हमारे सोच-विचार और हमारे जीवनों में उसकी कलीसिया पहली प्राथमिकता है या नहीं।

हम कभी अपनी संख्या बढ़ाने में दिलचस्पी न रखें - न तो विश्वासियों की और न ही कलीसियाओं की। हमारी दिलचस्पी सिर्फ प्रभु के लिए एक शुद्ध साक्षी तैयार करने में ही हो। स्वयं परमेश्वर भी सिर्फ इसमें ही दिलचस्पी रखता है। यीशु ने हमें सिखाया कि सबसे पहले हमारी परमेश्वर से यह प्रार्थना हो, “तेरा नाम पवित्र माना जाए” यह नहीं कि “हमारी संख्या बढ़ जाएँ” किसी जगह में एक अशुद्ध कलीसिया होने से ज़्यादा अच्छा यह है कि उस जगह में कोई कलीसिया ही न हो - और इस तरह मसीह की कोई साक्षी ही न हो।

परमेश्वर के लोगों के चरवाहों की दो सबसे बड़ी ज़रूरतें हैं परमेश्वर के प्रति ज़्यादा आदर-युक्त भय और ज़्यादा नम्रता-दीनता।

एक बलिदानी आत्मा वाले अगुवे:

सच्ची कलीसिया सिर्फ उन्हीं लोगों द्वारा तैयार की जा सकती है जो, यीशु की तरह, अपना सब कुछ दे देने के लिए तैयार हों।

“मसीह ने कलीसिया से प्रेम किया, और अपने आपको उसके लिए दे दिया” (इफिसियों 5:25)।

हम मनुष्य के इतिहास के आरम्भ से ही इस सिद्धान्त को काम करता हुआ देखते हैं।

कैन परमेश्वर के लिए सिर्फ “एक भेंट” लाया, और परमेश्वर ने उसे अस्वीकार कर दिया। लेकिन हाबिल “उसके झुण्ड में से सबसे अच्छी भेंट” लाया, और परमेश्वर ने उसे ग्रहण किया (उत्पत्ति 4:3-5)। कैन धार्मिक मसीहियों का प्रतीक है जो परमेश्वर के लिए ऐसी भेंट लाते हैं जिसकी उन्हें बिलकुल मामूली या कोई क़ीमत नहीं चुकानी पड़ी है। लेकिन हाबिल उन आत्मिक विश्वासियों का प्रतीक है जो परमेश्वर के लिए वे भेंट लाते हैं जिसकी क़ीमत उन्होंने अपना सब कुछ देकर चुकाई है।

जब अब्राहम ने मोरिय्याह पर्वत पर (अरौना के खलिहान में) इसहाक को वेदी पर भेंट के रूप में अर्पित किया, तो वह उसकी सबसे क़ीमती भेंट थी। वह हाबिल के पद्चिन्हों पर चल रहा था (उत्पत्ति 22)।

इसके एक हज़ार साल बाद, दाऊद ने मोरिय्याह पर्वत के उसी स्थान पर (अरौना के खलिहान में) उसके पूरे समर्पण के ये शब्द बोले थे, “मैं अपने परमेश्वर को ऐसी कोई बलि नहीं चढ़ाऊँगा जिसकी मैंने कोई क़ीमत न चुकाई हो” (2 शमूएल 24:24)।

परमेश्वर ने उन मूल्यवान भेंटों को देखा जो अब्राहम और दाऊद ने अर्पित की थीं, और दाऊद ने सुलैमान को ठीक उसी जगह मन्दिर बनाने को निर्देश दिया जहाँ इन दोनों पुरुषों ने उनकी मूल्यवान भेंट चढ़ाई थीं - मोरिय्याह पर्वत पर अरौना के खलिहान में (देखें 2 इतिहास 3:1)।

इस तरह परमेश्वर यह दर्शा रहा था कि उसका घर सिर्फ ऐसे लोगों द्वारा ही बनाया जा सकता है जिनमें पूरे समर्पण की आत्मा होती है। सिर्फ वही मसीह की दुल्हन - यरूशलेम - को तैयार कर सकते हैं (प्रकाशितवाक्य 21:2)। बाक़ी सभी मसीही बेबीलोनी वेश्या का ही निर्माण करेंगे।

कैन और हाबिल ने इन धाराओं को शुरू किया था - धार्मिक लोग और आत्मिक लोग। इन दोनों ही धाराओं को बाद में, इस्राएल के इतिहास में, झूठे नबियों और सच्चे नबियों की दोनों धाराओं में देखा गया; और इसे फिर फरीसियों और यीशु में देखा गया; और अंततः यह बेबीलोन और यरूशलेम में पूरी होगी (प्रकाशितवाक्य अध्याय 17,18 व 21)।

अगुवे जो यीशु की महिमा को देखते हैं:

अनेक विश्वासियों में स्वर्गदूतों के दर्शन देखने और दैहिक रूप में यीशु को देखने की बड़ी जिज्ञासा होती है। लेकिन हमारा मनोवेग यीशु के जीवन की महिमा को देखने के लिए - पृथ्वी पर बिताए गए उसके जीने के तरीक़े को देखने के लिए होना चाहिए। हमारे लिए वही अनुकरणीय उदाहरण है।

पौलुस ने कहा, “मेरे शरीर में कुछ भी भला वास नहीं करता.. ओह, मैं कैसा अभागा मनुष्य हूँ!” (रोमियों 7:18)। इस बात की वजह से ही उसमें अपने आपको पूरी तरह शुद्ध करने का तीव्र मनोवेग पैदा हुआ था। हमें भी अपने शरीर के पूरी तरह भ्रष्ट/अशुद्ध होने का प्रकाशन पाने की ज़रूरत है। सिर्फ तभी हम “...परमेश्वर के भय में अपने आपको शरीर और आत्मा की सारी अशुद्धता से शुद्ध करते जाएँगे” (2 कुरिन्थियों 7:1), और इस तरह कलीसिया में शुद्धता को बनाए रखेंगे।

हम जिन खरे मसीही सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं, अगर उनके बारे में हमारी सोच यह होगी कि वे सिर्फ धार्मिक सिद्धान्त हैं, तो वे जल्दी ही एक ऐसी भक्ति का रूप ले लेंगे जिसमें कोई शक्ति न होगी। हमारे लिए उनका महत्व धार्मिक सिद्धान्तों से बहुत बढ़कर होना चाहिए। वह हमारे लिए प्रकाशन होना चाहिए - ऐसा प्रकाशन जो हमारे जीवन में बढ़ता ही जाएँ हम अपने जीवन के विभिन्न क्षेत्रें में जितने ज़्यादा विश्वास-योग्य रहते हुए प्रलोभनों का सामना करेंगे और उनके खिलाफ लड़ेंगे, हम अपने भीतरी जीवन के उन क्षेत्रों में पवित्र आत्मा का उतना ही ज़्यादा प्रकाशन पाएंगे जिनमें हम मसीह-समान नहीं हैं, और जिनमें हमें अपने आपको शुद्ध करने की ज़रूरत है।

निरंतर जारी रहने वाले ऐसे प्रकाशन के बिना कलीसिया को, जो मसीह की देह है, निर्माण करना असम्भव होगा। हमारे शरीर के पूरी तरह अशुद्ध होने का प्रकाशन पाए बिना जो “पवित्रता” हम पाते हैं, वह (उसके सबसे श्रेष्ठ रूप में) पुरानी वाचा के संतों समान ही होगी - व्यवस्था की बाहरी धार्मिकता। ऐसी पवित्रता द्वारा हम अपने साथी-विश्वासियों के बीच में तो अपने लिए नाम कमा सकते हैं, लेकिन यह परमेश्वर की दृष्टि में सिद्ध” नहीं हो सकती (प्रकाशितवाक्य 3:1)।

अगर हमारी परीक्षा के क्षणों में हम अपने उदाहरण के रूप में यीशु को नहीं देख” रहे हैं, तो हमें अपने आपको विश्वास से भटके हुए लोग मान लेना चाहिए।

वे शिक्षाएं जो एक शुद्ध साक्षी तैयार करती हैं:

यीशु ने हमें सभी जगह चेले बनाने के लिए कहा - सिर्फ धर्म-परिवर्तित लोग नहीं।

इसलिए, एक शुद्ध साक्षी तैयार करने के लिए, सबसे पहले हमें अपनी कलीसिया में शामिल होने के इच्छुक सभी लोगों को एक चेला होने की शर्तों के बारे में स्पष्ट रूप में सिखाने की ज़रूरत होगी, और यह कि चेले बनने से हमारे व्यक्तिगत, पारिवारिक और कलीसियाई जीवन कैसे प्रभावित होंगे।

हमें लूका 14:26-33 में से सिखाना शुरू करना चाहिए जिसमें यीशु ने उसके चेले बनने की तीन मूल शर्तें बताई हैंः

  1. हमें अपने परिवार के सभी सदस्यों, सभी सम्बंधियों और भाइयों व बहनों से बढ़कर यीशु से प्रेम करना होगा। हम इन सभी लोगों में से किसी को भी यह अनुमति न दें कि वे हमारे उन कामों में रुकावट पैदा कर सकें जो प्रभु हमसे चाहता है।
  2. हमें यीशु को स्वयं अपने आपसे भी बढ़कर प्रेम करना होगा (लूका 14:27)। हम जब भी परखे जाएँ/प्रलोभित हों, तो हमें अपने ख़ुद के जीवन का इनकार करना होगा, और दिन में अनेक बार अपने ख़ुद-के-जीवन को सूली पर चढ़ाना होगा (लूका 9:23)।
  3. पृथ्वी पर हमारी जो भी भौतिक वस्तुएँ या सम्पत्ति है, हमें उन सबसे बढ़कर यीशु से प्रेम करना होगा (लूका 14:33)। परमेश्वर ऐसा होने देता है कि पृथ्वी पर हमारे पास बहुत सी वस्तुएँ हों। लेकिन हम उनमें से किसी को पकड़ने वाले न बनें। वे सब वस्तुएँ हमारे खुले हाथों में परमेश्वर की सम्पत्ति के रूप में ही रहे।

दूसरा, यीशु ने पहाड़ी उपदेश में जो कुछ सिखाया और जिन बातों के बारे में चेतावनी दी, हम उन सभी बातों को एक व्यापक और स्पष्ट रूप में सिखाने वाले हों (मत्ती अध्याय 5-7)। यीशु ने उस उपदेश को इन तीन चित्रणों के साथ पूरा किया थाः

  1. इस उपदेश में उसकी शिक्षाएँ उस संकरे मार्ग के बारे में सिखाती हैं जो अनन्त जीवन में पहुँचाता है (मत्ती 7:14)।
  2. सिर्फ इस उपदेश की शिक्षाओं का पालन करने द्वारा ही उसके चेले परमेश्वर की महिमा के लिए फलवंत वृक्ष बन सकते हैं (मत्ती 7:16-20)।
  3. जो कुछ यीशु ने इस उपदेश में सिखाया है, सिर्फ उन सभी बातों का पालन करने द्वारा ही उसके चेले उनके व्यक्तिगत, पारिवारिक और कलीसियाई जीवनों को एक अनन्त रूप में दृढ़ चट्टान पर बना सकते हैं (मत्ती 7:24-27)।

तीसरा, हमें कलीसिया में सभी लोगों को पवित्र आत्मा की भरपूरी से भरने के लिए परमेश्वर की बाट जोहने वाला बनने के लिए उत्साहित करना चाहिए, क्योंकि हमारे लिए यह असम्भव है कि हम अपनी स्वयं की शक्ति से इस उपदेश के स्तर के अनुसार जीवन बिताने वाले बन सकेंगे। लेकिन यह पवित्र आत्मा द्वारा सम्भव है (प्रेरितों के काम 1:8; इफिसियों 5:18)।

चौथा, हमें हरेक विश्वासी की अगुवाई करते हुए उसे परमेश्वर को स्वयं अपने स्वर्गीय पिता के रूप में जानने वाला बनाना चाहिए, जिससे कि एक अनिश्चित् और दुष्ट सँसार में वह परमेश्वर में अपनी सुरक्षा पा सके।

पाँचवाँ, हमें लोगों को यह महान् सत्य सिखाना होगा कि “यीशु सब बातों में हमारे ही समान बन गया था” (इब्रानियों 2:17) और वह “सब बातों में हमारे ही समान परखा गया था” (इब्रानियों 4:15) जिससे कि उनमें यह विश्वास हो कि वे भी वैसे ही चल सकते हैं “जैसे यीशु चलता था” (1 यूहन्ना 2:6)।

जब हमने अपना काम शुरू किया था, तब हमने पवित्र शास्त्र के इन महत्वपूर्ण सत्यों का अध्ययन करने में अनेक महीने बिताए थे। और फिर हमने इसके श्रेष्ठ परिणामों को भी देखा।

हम सिर्फ इस तरह ही प्रभु के लिए एक शुद्ध साक्षी तैयार कर सकते हैं- एक नई वाचा की कलीसिया बना सकते हैं।

अगुवे जो जैविक नहीं आत्मिक हैं:

अगर हमें कलीसिया का निर्माण करना है, तो हमें अपने जीव (हमारे मन और भावनाओं) की सशक्त, “पुण्य” अभिलाषाओं को भी मृत्यु के हवाले करना होगा। हमारे जीवनों में परमेश्वर का वचन हमारे जीव और आत्मा को भी आरपार बेधना चाहता है (इब्रानियों 4:12)। जब हम प्रलोभित होते हैं, तो इन जैविक अभिलाषाओं की तुलना उन अमालेक की अच्छी भेड़ों से की जा सकती है जिन्हें शाऊल ने नहीं मारा था, और जिनकी वजह से उसने अपना राजपाट खोया था (1 शमूएल 15:15)। वे हमारे शरीर की लालसाओं जितनी बुरी नज़र नहीं आतीं (अमालेक की वे बुरी भेड़ें जिन्हें शाऊल ने मार दिया था)। इसलिए ये ज़्यादा ख़तरनाक होती हैं, क्योंकि इनमें ज़्यादा धोखा होता है। शैतान का लक्ष्य कलीसिया को भ्रष्ट करना है, और यह ज़रूरी नहीं कि यह काम वह स्पष्ट नज़र आने वाले पापों द्वारा ही करे, बल्कि यह काम वह मानवीय चतुराई, भावुकतावाद, और अन्य प्रकार के ऐसे तरीक़ों से करता है जिनके दर्बोध जैविक स्वरूप होते हैं। हम अपने आपको ऐसे कामों में उलझा सकते हैं जो “परमेश्वर की ओर से नहीं” बल्कि हमारे चतुर मनों में से पैदा हुए हों, और इस तरह हम भटक कर कहीं और ही पहुँच सकते हैं। यीशु ने कहा कि हरेक पौधा जो फ्पिता ने नहीं लगाया है”, वह एक दिन परमेश्वर द्वारा उखाड़ा और नष्ट किया जाएगा (मत्ती 15:13)। हमारी सेवकाई सिर्फ तभी ज़्यादा समृद्ध और ज़्यादा नबूवत-भरी होगी, जब हम इन क्षेत्रें में अपना न्याय करने में विश्वास-योग्य होंगे। ऐसा सारा प्रचार जो मानवीय चतुराई में से आता है, सिर्फ आत्मिक मृत्यु ही उत्पन्न कर सकता है। लोगों की भावनाओं को उत्तेजित करने वाली बातें भी आत्मिक मृत्यु लाने वाली ही होगी। लेकिन यह एक अफसोस की बात है कि ज़्यादातर लोग मानवीय भावनाओं के कामों और पवित्र आत्मा के कामों के बीच के फ़र्क को नहीं जान पाते हैं। यह ज़रूरी है कि अगर हमारी सेवकाई में कोई भी जैविकता है, तो वह प्रकाश में आनी चाहिए। वर्ना, हम फिर भी अपने अच्छे इरादों से कलीसिया को एक दुर्बोध और नज़र न आने वाले तरीक़ों से अशुद्ध करने वाले ही होंगे।

हम सब क्योंकि एक बुनियादी रूप में चतुर होते हैं - जो कि शरीर की चतुराई होती है - इसलिए यह ख़तरा लगातार बना रहता है कि हम अपने संदेशों में अपनी जैविक शक्ति (हमारी मानवीय चतुराई और चुटकुले) मिलाते रहेंगे। मैं आपको 1 कुरिन्थियों 2:1-5 पढ़ने के लिए उत्साहित करना चाहता हूँ कि आपको यह समझ आ सके कि चतुर पौलुस जब भी वचन की सेवकाई करता था, तो उसे क्यों भय और थरथराहट के साथ यह करना पड़ता था। उसे यह आशँका रहती थी कि कहीं वह उसके चतुर मन पर निर्भर न हो जाएँ इसलिए वह हमसे आग्रह करता है “हम मूर्ख बनें जिससे कि बुद्धिमान बन जाएँ” (1 कुरिन्थियों 3:18)।

“प्रभु के बोझ” और एक “जगमगाते हुए विचार” के बीच में बहुत बड़ा फर्क़ होता है। प्रभु का बोझ एक ऐसी बात होती है जो बहुत प्रार्थना और प्रभु द्वारा हमारे जीवनों को बहुत अनुशासित करने के बाद आती है। और एक जगमगाता हुआ विचार सिर्फ एक ऐसी चतुराई-भरी बात होती है जो हम दूसरों के साथ सिर्फ इसलिए बाँटना चाहते हैं कि उसके द्वारा हम लोगों का आदर प्राप्त कर सकें। हमारे प्रचारों में से आदर पाने की खोज में रहने से हमारा मुक्त हो जाना, एक लम्बी लड़ाई होती है। लेकिन हमें पूरे हृदय से इस लड़ाई को लड़ना चाहिए, और इससे पूरी तरह मुक्त हो जाना चाहिए।

अगर पहले हम ज्ञात पापों से लड़ने में विश्वास-योग्य होंगे, और परमेश्वर के सम्मुख हर समय नम्र व दीन होकर चलेंगे, तो परमेश्वर हमारे जैविक-जीवन के इन कामों पर हमें ज्योति प्रदान करेगा। इनके बारे में जानकारी हासिल करने का दूसरा कोई तरीक़ा नहीं होता। अगर हम प्रभु के प्रति अपनी व्यक्तिगत भक्ति में लगातार आगे नहीं बढ़ेंगे, तो हम धीरे-धीरे विश्वास से भटक जाएँगे, हमारे शब्दों में कोई अभिषेक न होगा, और हम कहीं भी मसीह की देह तैयार न कर सकेंगे।

अगुवे जो अपनी ख़ुदी की मृत्यु के मार्ग पर चलते हैं:

यीशु ने यह सिखाया कि हमारे जीवनों में फलवंत होने का सिर्फ एक ही निश्चित तरीक़ा है - भूमि में गिरकर अपनी ख़ुदी में मर जाने का तरीक़ा, वैसे ही जैसे एक गेहूँ का दाना जब भूमि में गिरकर मर जाता है, तब बहुत फल लाता है (यूहन्ना 12:24)।

परमेश्वर यह देखता है कि क्या हम अपने प्रतिदिन के जीवन में अपनी ख़ुदी में मरने के मामले में विश्वास-योग्य हैं या नहीं। इसे और कोई नहीं देख सकता। अगर परमेश्वर ने आपके आसपास कठोर और कष्ट देने वाले लोग रखे हुए हैं, तो यह याद रखें कि उसने ऐसा आपकी ख़ुदी में मरने के लिए आपको बहुत से मौक़े देने के लिए किया है। इसलिए उन लोगों से प्रेम करें और उन्हें आशिष दें। अगर आप अपने शरीर की अशुद्धता से बचाए जाने के बारे में वास्तव में गंभीर होंगे, तो आपके प्रतिदिन के काम-काज में, आपकी ख़ुदी में मरने के आपको बहुत से मौक़े मिलेंगे।

हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि हम मनुष्यों की अगुवाई करते हुए उन्हें मानवीय धार्मिकता में न पहुँचा दें। हमारी बुलाहट ईश्वरीय स्वभाव में सहभागी होने और दूसरों की अगुवाई करते हुए उन्हें भी उसी स्रोत् के पास पहँचाने के लिए है (2 पतरस 1:3)। ऐसा कर पाने का एकमात्र तरीक़ा “यीशु की मृत्यु को सदा अपनी देह में लिए फिरने” का तरीक़ा है। इस अंतिम लक्ष्य को अपने सामने रखते हुए ही परमेश्वर हमें “निरंतर मृत्यु के हाथों में सौंपता है” (देखें, 2 कुरिन्थियों 4:10-12)।

वे जो सिर्फ एक ऐसे “अच्छे जीवन” से संतुष्ट हैं जो दूसरी कलीसियाओं के मसीहियों के जीवन से बेहतर है, कभी धार्मिकता की व्यवस्था से ऊपर न उठ सकेंगे। और फिर न ही वे दूसरों की अगुवाई करते हुए उन्हें एक ऊँची जगह में पहुँचा सकेंगे। और यही वजह है कि जो मनुष्य हमारी धार्मिकता की प्रशँसा करते हैं, हमें उनकी साक्षी को कोई महत्व नहीं देना चाहिए। स्वयं अपने लिए, और अपनी अच्छाई और धार्मिकता के लिए आदर-सम्मान चाहना ही तो फरीसीवाद का मूल-तत्व है, और यह मसीह की आत्मा से विपरीत बात है। इसलिए यह मसीह-विरोधी की आत्मा है। अगर हमें जयवंत होना है, तो हमें इसे निर्ममता से मृत्यु के हवाले कर देना है। इस मामले में बहुत कम लोग विश्वास-योग्य होते हैं। लेकिन आपको उन गिने-चुने लोगों में से एक होना चाहिए।

अगर हम लगातार सूली के मार्ग (ख़ुदी-की-मृत्यु) के बारे में बात करेंगे, तो अनेक लोग हमसे ठोकर खा सकते हैं - लेकिन इस वजह से हम इसका प्रचार करना न छोड़ दें। वे जो इस संदेश को सुनकर उकता जाते हैं, यह साबित कर देते हैं कि असल में वे धार्मिकता के भूखे और प्यासे नहीं हैं। परमेश्वर ऐसा होने देगा कि वे ठोकर खाएँ और मार्ग से हट जाएँ।

जो प्रचारक स्वयं अपने लिए आदर-सम्मान पाने की खोज में रहते हैं, वे हर बार किसी नई बात पर प्रचार करने के बारे में सोचते हुए लगातार कानों की खुजली मिटाने की लालसा को पूरा करेंगे (2 तीमुथियुस 4:3,4; देखें प्रेरितों के काम 17:21)। लेकिन हम लगातार सूली का संदेश देते रहें, जो प्राकृतिक मन के लिए मूर्खता की बात है, लेकिन उनके लिए यह परमेश्वर की सामर्थ्य है जिनकी यह अभिलाषा है कि वे भी वैसे ही चलें जैसे यीशु चलता था”, और जो अपने आपको “वैसा ही पवित्र करना चाहते हैं जैसा वह पवित्र है” (1 यूहन्ना 2:6; 3:3)।

बेबीलोन से यरूशलेम की तरफ आना

दानिय्येल की पुस्तक में, हम परमेश्वर के लोगों के बेबीलोन से यरूशलेम की तरफ आने की शुरूआत होते हुए देखते हैं। यह इस बात का प्रतिरूप है जो हम आज परमेश्वर का भय मानने वाले उन लोगों में होता हुआ देख रहे हैं जो (पाप से) समझौता कर लेने वाली मसीहियत में से निकल कर परमेश्वर की नई वाचा की कलीसिया की तरफ बढ़ रहे हैं, क्योंकि इन लोगों ने परमेश्वर की इस बुलाहट का जवाब दिया है जो कहती है, “हे मेरे लोगों, उसमें से (बेबीलोन में से) निकल आओ” (प्रकाशितवाक्य 18:4)।

प्राचीन बेबीलोन में वह निकलना एक समझौता-न-करने-वाले मनुष्य, दानिय्येल से शुरू हुआ था। उसकी परमेश्वर के उद्देश्यों में दिलचस्पी थी, और उनके पूरा होने के लिए उसने उपवास और प्रार्थना की थी। किसी भी जगह में परमेश्वर के लिए एक शुद्ध कलीसिया का निर्माण अक्सर एक ऐसे व्यक्ति से शुरू होता है जिसमें परमेश्वर के सम्मुख यह प्रार्थना करने का बोझ होता है, “हे प्रभु, इस जगह में मैं तेरे लिए एक शुद्ध कलीसिया चाहता हूँ, और इसके लिए मैं कुछ भी क़ीमत चुकाने के लिए तैयार हूँ।” यह हो सकता है कि आपको यह बोझ एक लम्बे समय तक उठाना पड़े और तब आप इसको पूरा होता हुआ देखें। हमें इस बोझ को अपने हृदयों में इसी तरह लेकर चलना पड़ता है जैसे एक माँ एक बच्चे को गर्भ में लिए फिरती है। दानिय्येल ने इस बोझ को इसी तरह उठाया था।

दानिय्येल के जीवन का एक विशिष्ट गुण थाः “उसने अपने मन में यह ठान लिया था कि वह अपने आपको अशुद्ध नहीं होने देगा” (दानिय्येल 1:8)। जहाँ परमेश्वर के वचन की छोटी-से-छोटी आज्ञा का पालन करने का मामला आ खड़ा होता था, तो उसमें वह किसी भी तरह से कोई समझौता नहीं करता था। यीशु ने कहा, “जो भी इन छोटी से छोटी आज्ञाओं को तोड़ेगा, और ऐसी ही शिक्षा दूसरों को भी देगा, वह परमेश्वर के राज्य में छोटे से छोटा कहलाएगा, लेकिन जो उनका पालन करेगा और दूसरों को भी सिखाएगा, वह परमेश्वर के राज्य में महान् कहलाएगा” (मत्ती 5:19)। जिन पुरुषों को परमेश्वर नई वाचा की कलीसियाओं का निर्माण करने के लिए इस्तेमाल करेगा, वे ऐसे लोग होंगे जो प्रभु की मुख्य आज्ञाओं का पालन करना सिखाएंगे जैसे क्रोध करना और लैंगिक अशुद्धता को त्याग देना (मत्ती 5:22, 28), और प्रभु की छोटी आज्ञाओं का पालन करना भी सिखाएंगे जैसे स्त्रियों द्वारा कलीसियाई सभाओं में प्रार्थना या नबूवत करते समय उनके सिरों को ढाँपना (1 कुरिन्थियों 11:1-16)।

आरम्भ में, जबकि दूसरे यहूदियों ने समझौता कर लिया था, तब दानिय्येल को अकेला खड़े होना पड़ा था। लेकिन हनन्याह, मिशाएल और अज़र्याह (जिन्हें उनके बेबीलोनी नामों शद्रक, मेशक और अबेद-नगो से ज़्यादा जाना जाता है) ने देखा कि दानिय्येल परमेश्वर के लिए खड़ा हो रहा था, तब उन्होंने भी साहस दिखाया और उसके साथ खड़े हो गए (दानिय्येल 1:11)।

मेरा ऐसा मानना है कि आज भी अनेक जगहों में हनन्याह, मिशाएल और अज़र्याह जैसे बहुत लोग हैं जो अपने क्षेत्र में प्रभु के लिए एक शुद्ध साक्षी खड़ी करना चाहते हैं। लेकिन उनमें स्वयं खड़े होने का साहस नहीं है। उनकी अगुवाई करने के लिए उन्हें एक दानिय्येल की ज़रूरत है। और जब उनके गाँव या शहर में एक दानिय्येल खड़ा हो जाता है, तब वे आकर उसके साथ जुड़ जाते हैं।

परमेश्वर के लिए सम्पूर्ण हृदय से समर्पित होकर खड़े होने वाले चार युवक उन हज़ारों समझौता करने वाले यहूदियों से ज़्यादा शक्तिशाली साक्षी थे जो राजा को प्रसन्न करना चाहते थे। परमेश्वर के लिए खड़े होने वाले दानिय्येल और उसके चार मित्रें का प्रभाव उनके समय के सबसे शक्तिशाली देश (बेबीलोन) और उसके शासक के ऊपर था। अधूरे हृदय से समर्पित (गुनगुने) मसीही - चाहे उनकी संख्या हज़ारों भी क्यों न हो - किसी भी शहर या देश में प्रभु के लिए एक ज्योति नहीं बन सकते। परमेश्वर को पूरे हृदय से समर्पित विश्वासियों की ज़रूरत है - क्योंकि “परमेश्वर मानवीय शक्ति या संख्या के द्वारा नहीं बल्कि अपने आत्मा के द्वारा अपना काम करता है” (देखें ज़कर्याह 4:6)।

परमेश्वर आज ऐसे लोगों को ढूँढ रहा है जिनके ऊपर उनके क्षेत्र में एक नई वाचा की कलीसिया बनाने का बोझ है, और जो किसी भी क़ीमत पर कोई समझौता करने के लिए तैयार नहीं हैं।

अध्याय 5
एक धार्मिक समूह या मसीह की देह

कलीसिया हर सप्ताह आपस में मिलने-जुलने वाले विश्वासियों की एक मण्डली नहीं बल्कि मसीह की देह है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम सिर्फ एक “धार्मिक मसीही समूह” नहीं बल्कि वह देह तैयार कर रहे हैं। लेकिन मसीह की देह का निर्माण करने के लिए परमेश्वर की कृपा और अभिषेक की ज़रूरत होती है, और इसके लिए हमें प्रतिदिन अपनी ख़ुदी का इनकार करना, प्रतिदिन मरना और पवित्र आत्मा से भरना होता है।

पुरानी वाचा में इस्राएली एक देह नहीं एक मण्डली थे। आज अनेक बड़ी संख्या वाली कलीसियाएँ एक देह नहीं बल्कि मण्डलियाँ हैं। कुछ घरेलू कलीसियाएँ उनसे कुछ बेहतर हैं, लेकिन वे भी एक देह नहीं बल्कि सदस्यों की सभा (क्लब) हैं। लेकिन यीशु उसकी देह का निर्माण कर रहा है।

निन्दा का ओढ़ना:

मसीह की पहली देह मनुष्य को एक चरनी (गाय-भैसों के चारे की नाँद) में नज़र आई थी। इस अपमानजनक जन्म की निन्दा ही मसीह की देह का वह चिन्ह् था जिसके द्वारा चरवाहों ने मसीह की देह को पहचाना था (देखें लूका 2:12)। और अंत में मसीह की देह कलवरी पर एक लज्जाजनक रूप में ही अपराधियों की सूली पर लटकाई गई थी। जन्म से लेकर मृत्यु तक, मसीह की पहली देह का लाक्षणिक चिन्ह् धर्मनिर्पेक्ष सँसार और धार्मिक सँसार दोनों द्वारा निन्दा ही रहा था। 

और आज भी जहाँ कहीं मसीह की देह की सच्ची अभिव्यक्ति होगी, वहाँ उसे सँसार और बेबीलोनी मसीही जगत से वही निन्दा सहनी पड़ेगी। अगर हमारी स्थानीय कलीसिया के ऊपर “मसीह की देह की निन्दा” का ओढ़ना नहीं है, तो यह हो सकता है कि हम समझौता करने वाले हो गए हैं, और हम फ्बेबीलोन की छावनी के बाहर” नहीं निकले हैं (इब्रानियों 13:13)। लेकिन मसीह की निन्दा और उस निन्दा में बहुत बड़ा फर्क़ होता है जो हमारे पाप, मूर्खता और गुनगुनेपन के नतीजे के रूप में होती है। हमें इन दोनों के फ़र्क को समझना होगा।

यीशु के बारे में यह लिखा था, “उसमें न रूप था, और न सौन्दर्य कि हम उसे देखते-...वह ऐेसे मनुष्य के समान तुच्छ जाना गया जिससे लोग मुँह फेर लेते हैं, और हमने उसका मूल्य न जाना” (यशायाह 53:2,3)। उसकी महिमा उसके भीतरी जीवन में थी - कृपा और सत्य से भरपूर - जो ज़्यादातर लोगों की नज़रों से छिपी हुई थी (यूहन्ना 1:14)। हमारी स्थानीय कलीसियाएँ भी आकर्षित करने वाली नहीं होना चाहिए - न तो सँसार को और न ही बेबीलोनी मसीहियत को। कलीसिया सिर्फ उनके लिए आकर्षक होना चाहिए जो उसमें एक ईश्वरीय जीवन की खोज में आते हैं। मिलाप वाले तम्बू के अन्दर बहुत सुन्दर पर्दे थे। लेकिन उसका बाहरी आवरण मेढ़ों की खाल था जो धूल और मिट्टी से भरा रहता था। सारी सुन्दरता तम्बू के अन्दर, भीतरी पर्दों में थी। मसीह की दुल्हन भी “उसके भीतरी जीवन में महिमामय है” (भजन संहिता 45:13)। और “उसकी भीतरी महिमा के ऊपर एक (निन्दा) का ओढ़ना होगा” (यशायाह 4:5)।

यहीं कलीसिया के अगुवों के ऊपर एक बड़ी जि़म्मेदारी है। वे जिस तरह से कलीसिया की आगे बढ़ने में अगुवाई करते हैं, वही यह तय करेगा कि कलीसिया या तो यीशु की तरह होगी जिसे लोगों ने तुच्छ जाना था, या वह ऐसी होगी जो सँसार द्वारा प्रशँसा और सम्मान पाएगी। अगर हम सँसार से या सांसारिक और जैविक मसीहियों द्वारा प्रशँसा पाना चाहेंगे, तो हम अंततः बेबीलोन का ही निर्माण करेंगे। जब हम लोकप्रिय हो जाते हैं और मसीही जगत द्वारा एक सामान्य रूप में स्वीकार कर लिए जाते हैं, तो हम निश्चय-पूर्वक यह जान सकते हैं कि हम यीशु के “पदचिन्हों पर चलने से पूरी तरह चूक गए हैं।

यीशु ने कहा, “धन्य हो तुम, जब लोग मेरे कारण तुम्हारी निन्दा करें, तुम्हे यातना दें और झूठ बोल-बोलकर तुम्हारे खिलाफ सब तरह की बातें कहें - आनन्दित और मग्न हो, क्योंकि स्वर्ग में तुम्हारा प्रतिफल महान् है। उन्होंने तो उन नबियों को भी जो तुमसे पहले हुए इसी तरह सताया था” (मत्ती 5:11,12)।

20 शताब्दियों पहले, हेरोद और उसके सैनिक मसीह की पहली देह को, बालक यीशु को मारने के लिए बड़े लालायित थे। और आज भी अनेक जगहों में ऐसे बहुत से लोग हैं जो मसीह की देह को उत्पन्न नहीं होने देना चाहते। युसुपफ़ ने परमेश्वर की वाणी के प्रति संवेदनशील होने द्वारा और जो कुछ परमेश्वर ने उससे कहा उसका तत्काल पालन करने द्वारा उस देह को बचाया था (मत्ती 2:13-15)। हमें भी, जिनके ऊपर मसीह की देह में जि़म्मेदारी है, युसुफ़ की तरह होना होगा। हमें भी “सुनने वाले” होना होगा - पवित्र आत्मा की आवाज़ को सुनने वाले, और जो कुछ हमसे कहा गया हो, उसका तत्काल पालन करने वाले। अगर हम नहीं सुनेंगे और आज्ञापालन नहीं करेंगे, तब हमारे क्षेत्र में मसीह की देह का कुछ-न-कुछ नुक़सान ज़रूर होगा - और अंतिम दिन हम उसके लिए जि़म्मेदार ठहराए जा सकते हैं। इस मामले में हमें अपनी जि़म्मेदारी को गंभीरता से लेना होगा, क्योंकि हमें ऐसे हरेक जीव का लेखा देना होगा जिसे परमेश्वर ने हमारे अधिकार में सौंपा है (इब्रानियों 13:17)।

नम्रता - मसीह की देह का चिन्ह्:

प्रभु कहता है, “स्वर्ग मेरा सिंहासन और पृथ्वी मेरे चरणों की चौकी है। तुम मेरे लिए कहाँ घर बनाओेगे? लेकिन मैं ऐसे व्यक्ति पर दृष्टि करूँगा जो दीन और टूटे मन वाला हो, और जो मेरे वचन के कारण थरथराता हो - और मेरा घर बनाने में मैं उसकी मदद करूँगा” (यशायाह 66:1 - भावानुवाद)।

मसीह की पहली देह यीशु की भौतिक देह थी जिसमें वह पृथ्वी पर साढ़े तैंतीस साल तक रहा था। इसलिए, आज मसीह की आत्मिक देह के रूप में, हमें उसी उदाहरण का अनुसरण करना होगा जो उसने पृथ्वी पर रहते हुए अपनी भौतिक देह में निर्धारित किया था। हमारे जीवन और हमारी सेवकाई के हरेक पहलू में, हमें उन्हीं सिद्धान्तों के अनुसार जीना होगा जिनके अनुसार उसने अपना जीवन बिताया था। मसीह की देह के रूप में हममें से हरेक को हर बात में यीशु को हमारा नमूना बनाना होगा। इसलिए, हमें कभी ऐसा कुछ नहीं बोलना और करना चाहिए जो हम उसके साथ सहभागिता करते हुए नहीं कर सकते।

मानवीय देह में आने के बाद जो सबसे पहला काम यीशु ने किया, वह स्वयं को नम्र व दीन करना था। इसलिए, यीशु के उदाहरण का अनुसरण करते हुए, हमें भी यहीं से शुरू करना होगा।

l नम्रता का पहला क़दमः यीशु ने अपने परमेश्वर होने की जगह को छोड़ने और मनुष्य बनने द्वारा स्वयं को नम्र व दीन किया।

l नम्रता का दूसरा क़दमः यीशु ने (मनुष्य के रूप में) हरेक का सेवक बनने द्वारा अपने आपको और भी ज़्यादा नम्र व दीन किया।

l नम्रता का तीसरा क़दमः यीशु ने अपराधियों की तरह अपमानजनक तरीक़े से मरने का चुनाव करने द्वारा अपने आपको इससे भी ज़्यादा नम्र व दीन किया और (सूली पर) अपने आपको एक सेवक से भी ज़्यादा नीचा किया।

इन सभी क़दमों का बयान फिलिप्पियों 2:5-8 में किया गया है। मसीही जीवन के ये तीन भेद हैंः नम्रता, नम्रता और नम्रता! अगर हमने इन तीनों भेदों को नहीं सीखा है, तो हम अपने जीवनों में परमेश्वर के उद्देश्यों को कभी पूरा न करने पाएँगे!

अगर हम यीशु की ओर देखते रहेंगे, तो कभी घमण्ड करने वाले नहीं बनेंगे। जैसा कि हम इस स्तुति-गीत में गाते हैं,

“जहाँ महिमा का राजा था मरा, जब उस अनोखी सूली को देखता हूँ,

अपनी भरपूरी को नुक़सान मानकर, सारे घमण्ड को धिक्कार देता हूँ”।

जब हम यीशु की तरफ देखना छोड़ देते हैं, और दूसरों की तरफ देखने और उनसे अपनी तुलना करने लगते हैं, सिर्फ तभी हम घमण्ड में डूबते हैं (जैसे पतरस समुद्र में डूबने लगा था - मत्ती 14:30)। घमण्ड लोगों को नर्क में पहुँचाता है। यह परमेश्वर को हमारा शत्रु भी बना देता है (1 पतरस 5:5) और हमें आत्मिक रूप में बर्बाद कर देता है। इसने ऐसे बहुत से बेहतरीन युवाओं को नाश कर दिया है जो अगर वे नम्र व दीन बन रहते, तो अपने देशों में वे परमेश्वर के नबी होते। परमेश्वर सिर्फ दीनों को कृपा देता है।

“...तेरे पास ऐसा क्या है तुझे दिया नहीं गया है? हमारे पास जो कुछ भी है वह परमेश्वर का मुफ्ऱत उपहार है। इसलिए जो कुछ तेरे पास है और तू जो कुछ भी है, उस पर कभी घमण्ड न करना” (1 कुरिन्थियों 4:7 - लिवंग बाइबल)।

“धन्य हैं वे जो मन के दीन हैं (जो अपने आपको मामूली समझते हैं), क्योंकि स्वर्ग का राज्य का उन्हीं का है” (मत्ती 5:3)।

अगर हम अपने दिनों के अंत तक आत्मा की ऐसी ही ग़रीबी में रहेंगे, तो हम इस पृथ्वी पर न सिर्फ एक महिमामय जीवन बिताएँगे, बल्कि परमेश्वर के राज्य में भी हम भरपूरी से प्रवेश पाएँगे।

 परमेश्वर पक्षपात नहीं करता, और वह हमारी उपलब्धियों से प्रभावित नहीं होता। परमेश्वर घमण्डियों का तो विरोध करता है पर दीनों पर कृपा करता है।

यहूदा इस्करियोती, हनन्याह और सफीरा का सबके सामने पर्दाफाश किया गया था, क्योंकि वे एक ऐसे लोगों के समूह के साथ सहभागिता करना चाह रहे थे जिनके बीच में परमेश्वर सामर्थ्य के साथ काम कर रहा था। और आज भी, पाखण्डी और घमण्डी भाई भी देर-सवेर उस समय उघाड़े हो ही जाते हैं जब वे एक सामर्थी कलीसिया में जुड़ जाते हैं, क्योंकि परमेश्वर हमेशा अपनी कलीसिया को शुद्ध करता रहता है। कभी-कभी परमेश्वर एक अगुवे के पाखण्ड और घमण्ड को पर्दाफाश करने के लिए काफी देर तक इंतज़ार करता है, लेकिन वह अंत में ऐसा ज़रूर करेगा।

फिर भी, अगर एक व्यक्ति अपने आपको गुप्त में निरंतर जाँचता रहेगा, और बुरा माने बिना दूसरों द्वारा सुधारे जाने के लिए तैयार रहेगा, तो वह कभी प्रभु से दूर नहीं होगा।

अधिकार के प्रति अधीनता

अगर कोई किसी कलीसिया का हिस्सा होने का चुनाव करता है, तो उसे, कलीसियाई मामलों में, उस कलीसिया के प्राचीनों के अधीन रहना होगा। दूसरे मामलों में उसे उसके प्राचीन से परामर्श करने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन अगर उस प्राचीन ने अपने जीवन और सेवकाई द्वारा उसका भरोसा जीत लिया है, तो वह उससे परामर्श कर सकता है। एक ईश्वरीय अगुवा, एक पिता की तरह, अपने अधिकार को सिर्फ अपने बच्चों को ख़तरों से बचाने और उन्हें सबसे अच्छे रास्ते पर चलाने के लिए ही इस्तेमाल करेगा। अगुवे होते हुए, हमें अपने झुण्ड की मदद करने के लिए हरेक ज़रूरी त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

अगुवों को यह याद रखना चाहिए कि जब तक दूसरी कलीसियाओं के अगुवे उनसे मदद न माँगें, उनकी स्थानीय कलीसिया से बाहर उनकी कोई जि़म्मेदारी नहीं है। इसलिए जब भी आप किसी दूसरी कलीसिया की भेंट करने जाएँ, तो आपको वहाँ के स्थानीय अगुवों के अधिकार को स्वीकार करना चाहिए। जब आपको किसी कलीसिया के मामलों की कोई जानकारी न हो, तो सबसे अच्छा यही है कि आप उन्हें ऐसी कोई सलाह न दें कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं, क्योंकि ऐसी सलाह से सिर्फ गड़बड़ ही पैदा होगी। आपको यह समझना चाहिए कि आपकी हद सिर्फ आपकी स्थानीय कलीसिया तक ही है, जब तक कि परमेश्वर ही आपको किसी दूसरी कलीसिया की जि़म्मेदारी न दे - और जब ऐसा होगा, तब उस दूसरी कलीसिया के प्राचीन आपकी जि़म्मेदारी को स्वीकार करेंगे।

उन कलीसियाओं के प्राचीनों को उस प्रेरित के अधिकार को स्वीकार करना चाहिए जिसने उनकी कलीसिया को स्थापित किया है, और उन्हें प्राचीनों के रूप में नियुक्त किया है। जिस प्रेरित ने एक प्राचीन को नियुक्त किया है, उसे यह अधिकार भी है कि अगर ऐसी ज़रूरत आ पड़े, तो उस प्राचीन को हटा दे।

प्रेरित, नबी, सुसमाचार-प्रचारक, चरवाहे, शिक्षक:

हमारा व्यक्तिगत जीवन सिर्फ मसीह पर आधारित होता है (1 कुरिन्थियों 3:11)। लेकिन कलीसिया की स्थापना “प्रेरितों और नबियों की उस नींव पर की गई है जिसके कोने का पत्थर मसीह यीशु स्वयं है” (इफिसियों 2:19, 20)। मसीह ने स्वर्ग में जाने के बाद भी कलीसिया में प्रेरित नियुक्त किए थे (इफिसियों 4:10,11)।

मसीह ने कलीसिया को दान-वरदान पाए हुए पुरुष दिए हैंः प्रेरित, नबी, सुसमाचार प्रचारक, चरवाहे और शिक्षक (इफिसियों 4:11)। इनमें पहले तीन स्थानों पर प्रेरित, नबी और शिक्षक हैं (1 कुरिन्थियों 12:28)। लेकिन इन सभी वरदान-प्राप्त लोगों कि यह सामूहिक बुलाहट है कि वे उन सारे सामान्य विश्वासियों की मदद करें और उन्हें तैयार करें जो मिलकर कलीसिया बनाते हैं (देखें इफिसियों 4:12)। इस तरह, हम देखते हैं कि मसीह की देह के हरेक सदस्य की यह जि़म्मेदारी है कि वह मसीह की कलीसिया का निर्माण करे।

एक प्रेरित “परमेश्वर का भेजा हुआ” वह पुरुष होता है जो एक ख़ास काम के कार्याधिकार के साथ भेजा जाता है।

एक प्रेरित द्वारा किए जाने वाले काम (जैसा कि हम नई वाचा में देखते हैं), कुछ इस तरह के होते हैंः

  1. वह कलीसियाएँ रोपता और उन्हें दृढ़ करता है (प्रेरितों के काम अध्याय 13-19)।
  2. वह हरेक कलीसिया में प्राचीन नियुक्त करता है (प्रेरितों के काम 14:23; तीतुस 1:5)।
  3. वह प्राचीनों के लिए पिता-समान होता है (1 कुरिन्थियों 4:15)।
  4. वह कलीसियाओं का शिक्षा और अभ्यास के मामलों में मार्ग-दर्शन करता है (प्रेरितों के काम 15:6-29; 6:3)।
  5. जब कलीसिया में समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं, तो वह लोगों को अनुशासित करता है (1 कुरिन्थियों 1:11; 5:4,5,13; 2 कुरिन्थियों 13:2)।
  6. वह विश्वासियों को अधिकार जमाने वाले प्राचीनों से बचाता है (1 तीमुथियुस 5:20; 3 यूहन्ना 9)।
  7. वह कलीसियाओं को चेतावनी देने और उनका मार्ग-दर्शन करने के लिए पत्र लिखता है (जैसा कि पौलुस ने नियमित रूप से किया था)।

प्रभु प्रेरितों को उन कलीसियाओं के ऊपर अधिकार देता है जिन्हें वह उनके द्वारा स्थापित करता है। लेकिन एक प्रेरित किसी विश्वासी पर अपने अधिकार को कभी थोपता नहीं है (2 कुरिन्थियों 1:24)। कलीसियाओं को स्वयं अपनी सुरक्षा के लिए एक प्रेरित के अधिकार को ख़ुशी से और अपनी मज़ीर् से स्वीकार करना चाहिए।

परमेश्वर की मूल योजना यही थी कि हरेक कलीसिया “प्रेरितों और नबियों की नींव” पर ही स्थापित हो (इफिसियों 2:20)।

एक नबी वह व्यक्ति होता है जिसे परमेश्वर उन लोगों की वर्तमान ज़रूरत के बारे में परख देता है जिनसे वह बात कर रहा होता है, और जो परमेश्वर का वचन निडरता और संवेदना के साथ बोलता है और परमेश्वर के लोगों की अगुवाई करते हुए उन्हें मन-फिराव में पहुँचाता है (प्रेरितों के काम 15:32)। एक नबी की सेवकाई चुनौती और उत्साह देने वाली होगी और उससे लोग उन्नत होंगे (1 कुरिन्थियों 14:3)। जब लोग एक सच्चे नबी की बात सुनेंगे, तो उनके हृदय उनके भीतर जलने लगेंगे (लूका 24:32)। इसके परिणाम-स्वरूप, वे अपने गुप्त पापों को देख सकेंगे और यह मान लेंगे कि “उस जगह में निश्चय ही परमेश्वर है” (1 कुरिन्थियों 14:25)।

सुसमाचार प्रचारक पापियों को मसीह के पास और कलीसिया में लाते हैं।

चरवाहे उनकी कलीसिया में विश्वासियों की देखभाल करते हैं, उन्हें सलाह देते हैं और उनका पालन-पोषण करते हैं।

शिक्षक अनेक कलीसियाओं में परमेश्वर के वचन के गहरे सत्यों को सिखाते हैं।

(इन दान-वरदानों की ज़्यादा गहरी समझ पाने के लिए, मेरी बाइबल-टीका पवित्र शास्त्र में से गुज़रते हुए में इफिसियों का अध्याय पढ़ें)।

प्राचीन ही हरेक कलीसिया की अगुवाई करते हैं:

पुरानी वाचा के अंतर्गत, इस्राएल के आत्मिक अधिकारी के रूप में उनके पास सिर्फ एक महायाजक था। लेकिन नई वाचा में, परमेश्वर ने एक ऐसी कलीसिया स्थापित की है जिसकी अगुवाई कम-से-कम दो प्राचीनों द्वारा की जानी चाहिए। एक परिवार में, परमेश्वर एक माता और एक पिता को नियुक्त करता है (सिर्फ एक पिता को ही नहीं), कि परिवार की अगुवाई में एक संतुलन हो। इसी तरह, एक स्थानीय कलीसिया की अगुवाई करने के लिए परमेश्वर उसमें भी एक से ज़्यादा प्राचीन नियुक्त करता है - क्योंकि कलीसिया भी एक स्वर्गीय परिवार है और उसकी अगुवाई भी एक संतुलित रूप में होनी चाहिए।

हालांकि यह नई-वाचा का नमूना है, फिर भी हमारे समय की ज़्यादातर कलीसियाओं में यह नज़र नहीं आता है। हम अक्सर यही देखते हैंः

  1. ऐसे बड़े धार्मिक मत जिनमें एक ऐसे बिशप, या अधीक्षक या पोप द्वारा ऊपर से अधिकार थोपा जाता है जिन्हें एक बहुमत से चुना जाता है)। ये हू-ब-हू व्यापारिक प्रतिष्ठानों द्वारा चुने जाने वाले निदेशकों की ही तरह होते हैं।
  2. स्वतंत्र कलीसियाएँ जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं होतीं, और जो अपने पास्टर स्वयं ही नियुक्त कर लेती हैं। ये कलीसियाएँ हू-ब-हू ऐसी स्वतंत्र कम्पनियों की ही तरह होती हैं जो अपनी पसन्द के प्रबंधकों को चुन लेती हैं।

ये दोनों ही नमूने मानवीय विचार हैं और ये नई वाचा में कहीं नहीं मिलते। अनेक लोग जो नई वाचा के दूसरे क्षेत्रों में प्रवेश करने के लिए बहुत तत्पर नज़र आते हैं, कलीसिया के नई वाचा के नमूने का अनुसरण करने के क्षेत्र में तत्परता नहीं दिखाते हैं। वे नया दाखरस तो चाहते हैं, लेकिन नई मशक नहीं चाहते - इसलिए नया दाखरस गिर कर नष्ट हो जाता है (लूका 5:37,38)। वे परमेश्वर का सर्वश्रेष्ठ पाने से चूक जाते हैं।

नई वाचा ने स्थानीय कलीसियाएँ स्थापित करने का परमेश्वर का आदर्श नमूना दर्शाया है। लेकिन अगर प्राचीनों को नियुक्त करने के लिए कोई प्रेरित नहीं है, तो परमेश्वर का काम करने के लिए विश्वासियों को मानवीय तरीक़ों से ही संतुष्ट रहना पड़ेगा।

हरेक देश में प्रेरितों के दुर्लभ होने की वजह यही है कि प्रभु को ऐसे विश्वासी कम ही मिलते हैं जो इसकी क़ीमत चुकाने के लिए तैयार होते हैं।

हमारी सीमाओं के भीतर रहना:

हरेक प्राचीन और उसकी सेवकाई के चारों तरफ परमेश्वर ने एक सीमा निर्धारित कर रखी है। जब तक वह उसके लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित सीमाओं की परिधि के भीतर रहेगा, तब तक परमेश्वर सामर्थ्य के साथ उसका समर्थन करेगा।

पौलुस ने 2 कुरिन्थियों 10:13-15 में यह बात एक स्पष्ट रूप में कही हैः “जहाँ तक हमारी बात है, तो हम उन्हीं सीमाओं के भीतर रहेंगे जो परमेश्वर ने हमारे लिए तय कर दी हैं, और इसमें तुम्हारे बीच होने वाला हमारा काम भी शामिल है। और क्योंकि तुम भी उन्हीं सीमाओं के दायरों में हो, इसलिए जब हम तुम्हारे पास आए, तब हम उन सीमाओं के भीतर ही थे... हम अपने लिए परमेश्वर द्वारा तय की हुई सीमाओं से आगे बढ़ते हुए, तुम्हारे बीच हुए दूसरे मनुष्यों के कामों पर घमण्ड नहीं करते। इसकी बजाय, हमारी यह आशा है कि तुम्हारा विश्वास बढ़ता जाए कि हम तुम्हारे बीच और भी ज़्यादा काम कर सकें, लेकिन हमेशा उन्हीं सीमाओं के दायरे में रहते हुए जो परमेश्वर ने हमारे लिए तय कर रखी हैं।”

अगर कोई भी प्राचीन अपनी सीमा से बाहर सेवकाई के किसी ऐसे क्षेत्र में प्रवेश करता है जो उसे परमेश्वर ने आवंटित नहीं किया है, तो वह परमेश्वर के काम में हमेशा गड़बड़ी फैलाने वाला ही होगा। अगर वह अपने परमेश्वर द्वारा निर्धारित क्षेत्र से बाहर जाकर कुछ करेगा, तो परमेश्वर उसके काम की कभी साक्षी नहीं देगा। जैसा कि बाइबल कहती है, “जो दीवार में सेंध लगाता है (परमेश्वर की तय की हुई अपनी सीमा को तोड़ता है), वह साँप द्वारा डसा जाएगा” (सभोपदेशक 10:8)।

राजा उजिय्याह की कहानी इस मामले में बहुत शिक्षा-प्रद है। उजिय्याह ने अपनी राजकीय सेवकाई के परिमण्डल में बहुत अच्छे काम किए थे (2 इतिहास 26:3-15)। उसके इस कार्य क्षेत्र में परमेश्वर ने उसे भरपूर आशिष दी। लेकिन राजा के रूप में उसकी सफलता ने उसे घमण्डी बना दिया, और उसने यह मान लिया कि परमेश्वर द्वारा ठहराई हुई उसकी सीमा से आगे बढ़कर अब वह एक याजक की भी सेवकाई कर सकता है। उसने जैसे ही ऐसा किया, परमेश्वर ने उसे कोढ़ से मारा - और अपने जीवन के अंत तक वह एक कोढ़ी ही रहा (2 इतिहास 26:16-21)। यह हममें से हरेक के लिए एक चेतावनी है।

राजा शाऊल ने भी अपने राजा होने की सीमा से बाहर जाने की ग़लती की थी। परमेश्वर ने क्योंकि उसकी राजकीय सेवकाई को आशिष दी थी, इसलिए उसने याजक की सेवकाई करने का भी फैसला कर लिया था। और उसने जैसे ही ऐसा किया, तो शमूएल ने आकर उसे बता दिया कि परमेश्वर तुझसे तेरा राजपद वापिस ले रहा है (इसके बारे में आप 1 शमूएल 13:8-14 में पढ़ सकते हैं)।

इसलिए, परमेश्वर की नज़र में यह बहुत महत्वपूर्ण बात है कि हम अपनी सीमाओं के भीतर रहें। इस आज्ञा में, कि “तू उन वस्तुओं का लालच न करना जो परमेश्वर ने तेरे पड़ौसी को दी हैं”, दूसरे की सेवकाई का लालच करना भी शामिल है। फ्सारा लालच मूर्ति-पूजा है” (कुलुस्सियों 3:5)।

अगर हम परमेश्वर की व्यवस्था को तोड़ेंगे या उसके अधीन नहीं होंगे, तो हम परमेश्वर के काम में गड़बड़ पैदा करने वाले हो जाएँगे। इसलिए, ऐसा हो कि हम परमेश्वर का भय मानने वाले और परमेश्वर-प्रदत्त हमारी सीमाओं के भीतर रहने वाले ही हों, क्योंकि सिर्फ तभी हम परमेश्वर को ढूँढ कर पा सकते हैं (जैसा कि प्रेरितों के काम 17:26,27)।

हरेक स्थानीय कलीसिया की आज़ादी:

किसी कलीसिया को दूसरी कलीसियाओं को मुख्यालय नहीं बनना चाहिए। प्रेरितों द्वारा स्थापित की गई सभी कलीसियाएँ ऐसी स्वतंत्र कलीसियाएँ थीं जो सीधे तौर पर सिर्फ प्रभु यीशु के ही शीर्षाधीन थीं।

पुरानी वाचा में, पार्थिव यरूशलेम नगर धार्मिक गतिविधि का केन्द्र - इस्रालियों का मुख्यालय था। धर्म-मतीय कलीसियाओं के भी पृथ्वी पर कहीं न कहीं मुख्यालय हैं।

लेकिन नई वाचा में, हम स्वर्गीय लोग हैं, इसलिए पृथ्वी पर हमारा कोई मुख्यालय नहीं है (गलातियों 4:26)। एक प्रतीकात्मक रूप में, पुरानी वाचा के सात नालियों वाले यहूदी दीपदान की जगह, अब नई वाचा में सात अलग दीपदानों ने ले ली है - जिनके बीच में मसीह है (प्रकाशितवाक्य 1:11-20)।

और इसलिए, पौलुस ने पृथ्वी की किसी भी कलीसिया को (न तो यरूशलेम में और न ही अंताकिया में) उसके द्वारा स्थापित कलीसियाओं का मुख्यालय बनाने से इनकार कर दिया था। इससे वे आरम्भिक कलीसियाएँ एक मृतक धर्म-मत बनने से बची रही थीं।

वे कलीसियाएँ सीधे तौर पर मसीह के शीर्षाधीन थीं। हरेक कलीसिया का प्रशासन उसके अपने ही अगुवों द्वारा चलाया जाता था और हरेक कलीसिया आर्थिक रूप में स्वतंत्र थी। जैसा कि हम आज की बेबीलोनी मसीहियत में देखते हैं, उनमें कोई डायोसीस (कलीसियाओं का समूह) नहीं था और न ही किसी समूह पर राज्य करने वाले बिशप या आर्चबिशप थे। अगर हम नई वाचा की कलीसिया के नमूने का अनुसरण करेंगे, तो किसी एक कलीसिया में पाई जाने वाली अशुद्धता किसी दूसरी कलीसिया में नहीं फैलेगी (जैसा कि धार्मिक मसीही मतों में होता है)।

अगुवों और कलीसियाओं के बीच होने वाली सहभागिता का आधार कोई सँगठनात्मक एकता नहीं बल्कि आपसी प्रेम और एक-दूसरे के प्रति सम्मान होना चाहिए जिसमें उनका सामान्य लक्ष्य पूरी तरह मसीह-समान बनना होना चाहिए।

परमेश्वर के निर्देशों का पूरी तरह पालन करना:

कलीसिया के निर्माण का ज़बरदस्त काम करने के लिए हमें प्रभु से कृपा और बुद्धि की ज़रूरत होती है - जो कि नूह के द्वारा जहाज़ बनाने जैसा और मूसा के द्वारा मिलाप वाला तम्बू बनाने जैसा ही महत्वपूर्ण काम है।

फ्जब मूसा तम्बू खड़ा करने वाला था, तब उसे परमेश्वर की ओर से चेतावनी मिली थी, ‘देख, जो नमूना तुझे पर्वत पर दिखाया गया था, उसी नमूने के अनुसार सब कुछ बनाना” - क्योंकि ये स्वर्गीय वास्तविकताओं का प्रतिरूप और छाया हैं (इब्रानियों 8:5)।

जहाज़ और मिलाप वाला तम्बू दो ऐसी वस्तुएँ थीं जिन्हें बनाने की आज्ञा परमेश्वर ने मनुष्य को दी थी - और इन दोनों को बनाने के लिए नूह और मूसा को अक्षरशः निर्देश दिए गए थे।

नूह और मूसा दोनों को ही बनाए जाने वाले ढाँचों में चतुर लोगों के सुझाव मानकर कोई बदलाव कर देने के प्रति सचेत रहना था (और यह बदलाव स्वयं उनके मन की चतुराई में से भी आ सकते थे), क्योंकि चाहे एक मामूली रूप में, लेकिन फिर भी वह उन्हें दिए गए परमेश्वर के निर्देशों को बदल देना होता।

और क्योंकि उन्होंने परमेश्वर के निर्देशों का पूरा-पूरा पालन किया था, इसलिए परमेश्वर की आशिष उनके काम पर आ ठहरी थी - और, परमेश्वर की महिमा मिलाप वाले तम्बू पर आकर ठहर गई।

जब हम कलीसिया का निर्माण करें, तब हम भी इस बात को याद रखें।

अध्याय 6
एक अगुवा जिसका दूसरे लोग अनुसरण कर सकते हैं

एक ऊँचे मानक स्तर की कलीसियाएँ बनाने के लिए, हमें ऐसे अगुवों की ज़रूरत होगी जिनका मानक स्तर ऊँचा है।

यीशु ने कहा, फ्मेरे पीछे आओ” (लूका 9:23)।

और पौलुस ने कहा, “तुम मेरा अनुसरण करो, जैसे मैं मसीह का अनुसरण करता हूँ” (1 कुरिन्थियों 11:1; फिलिप्पियों 3:17)।

प्रेरित पौलुस के इन शब्दों में, हम पवित्र आत्मा की उस अपेक्षा को देखते हैं जिसमें वह चाहता है कि हरेक प्राचीन उसकी कलीसिया में हरेक से यह कहने वाला हो सके।

अनेक प्राचीन कहते हैं, “मेरा नहीं, मसीह का अनुसरण करो।” यह बात सुनने में बहुत नम्रता व दीनता-भरी लगती है। लेकिन यह उनके हारे हुए जीवन को ढाँपने के लिए सिर्फ एक बहाना है; और यह बात पूरी तरह पवित्र आत्मा की शिक्षा के खिलाफ है।

एक अगुवे के रूप में, आपका जीवन और बोली ऐसी अनुकरणीय होनी चाहिए कि आप अपनी कलीसिया में हरेक से यह कह सकें, “मेरा अनुसरण करो, जैसे मैं मसीह का अनुसरण करता हूँ।”

अपने हृदय-परिवर्तन से पहले, पौलुस पूरी तरह से निष्फल व्यक्ति था। लेकिन परमेश्वर ने उसे बदल दिया, और हालांकि वह सिद्ध नहीं हो गया था, फिर भी प्रभु ने उसे एक ऐसा उदाहरण बना दिया जिसका दूसरे लोग अनुसरण कर सकते थे (फिलिप्पियों 3:12-14)। जगत का सबसे अच्छा मसीही भी सिद्ध नहीं है, लेकिन वह सिद्धता की तरफ बढ़ रहा है। इसलिए, अगर बीते समय में आप अपने जीवन में चाहे बहुत नाकाम रहे हैं, तब भी परमेश्वर आपको एक ऐसा ईश्वरीय अगुवा बना सकता है जिसका दूसरे लोग अनुसरण कर सकें।

परमेश्वर के लोगों के अगुवे होते हुए, आपको इन सात लाक्षणिक गुणों की खोज में रहना चाहिएः

  1. आपको नम्र व दीन और मिलनसार होना चाहिएः यीशु नम्र व मन में दीन और मिलनसार था (मत्ती 11:29)। उसके पास सभी लोग कभी भी और कहीं भी आ सकते था, कोई भी किसी भी जगह और किसी भी समय उससे बात कर सकता था। यीशु की नम्रता ने उसे कंगालों को सुसमाचार सुनाने के लिए उत्सुक बना दिया था (जैसा कि हम लूका 4:18 में पढ़ते हैं)। पौलुस एक नम्र व दीन मनुष्य था जो अपनी ग़लतियों को स्वीकार करके तुरन्त क्षमा माँग लेता था (प्रेरितों के काम 23:1-5)। एक प्राचीन के रूप में, आपको भी अपनी कलीसिया में धनवान और निर्धन के बीच पक्षपात करने वाला नहीं होना चाहिए। आप अपनी ऐसी छवि न बनाएं जिसमें “आप दूसरों से बेहतर नज़र आने लग जाएँ;” आप अपनी ग़लतियों के लिए क्षमा माँगने में देर न करने वाले बनें। और आप हमेशा ही एक सामान्य भाई बने रहें।
  2. आप कभी किसी से धन की माँग न करेंः न तो स्वयं अपने लिए और न ही अपनी सेवकाई के लिए - और आपकी जीवन-शैली सामान्य हो। अगर आपको स्वेच्छा से कोई भेंट दे (जैसे पौलुस को भी कभी-कभी मिलती थीं), तो आप वह सिर्फ ऐसे लोगों से ही स्वीकार करें जो आपसे ज़्यादा सम्पन्न हों; कभी किसी ऐसे व्यक्ति से कोई भेंट ग्रहण न करें जो आपसे ज़्यादा ग़रीब हो। यीशु ने कभी किसी से धन की माँग नहीं की - न तो अपने लिए और न ही अपनी सेवकाई के लिए। और उसने सिर्फ ऐसे लोगों से ही भेंट स्वीकार की जो उससे ज़्यादा धनवान थे (लूका 8:3)। यीशु और पौलुस की जीवन-शैली बहुत साधारण थी। आपका भी धन और भौतिक वस्तुओं के प्रति वही मनोभाव होना चाहिए जो यीशु और पौलुस का था।
  3. एक ईश्वरीय व्यक्ति के रूप में आपकी एक अच्छी साक्षी होः आप अपनी कलीसिया में एक ऐसे खरे व्यक्ति के रूप में जाने जाएँ जिसमें पवित्रता के लिए एक मनोवेग हो - जो किसी भी बात में अपने स्वार्थ की खोज में नहीं रहते। लोग आपको एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जानें जिसकी जीभ उसके वश में रहती है (याकूब 1:26; इफिसियों 4:26-31), और ऐसा जो उन लोगों के प्रति दयावंत है जो नाकाम हो जाते हैं (इब्रानियों 5:2)। आपकी सभी स्त्रियों के बारे में - चाहे वे बड़ी उम्र की हों या छोटी उम्र की - एक पूर्ण रूप से शुद्ध साक्षी हो (1 तीमुथियुस 5:2)। यही ईश्वरीयता की वह सुगन्ध है जो आपके जीवन के चारों तरफ होनी चाहिए।
  4. आप अपने बच्चों की परवरिश इस तरह करें कि वे प्रभु से प्रेम करने वाले होंः पवित्र आत्मा ने कहा है कि सिर्फ ऐसे लोग ही प्राचीन के रूप में नियुक्त किए जाएँ जिनके बच्चे विश्वासी और आज्ञाकारी हों (1 तीमुथियुस 3:4,5; तीतुस 1:6)। हमारे बच्चे हमें दूसरों से बेहतर जानते हैं, क्योंकि वे हमें घर में हर समय देखते रहते हैं। और अगर वे हमें घर में एक ईश्वरीय तरीक़े से रहते हुए देखेंगे, तो वे भी प्रभु के पीछे चलने वाले हो जाएँगे (नीतिवचन 22:6)। यह आसान काम नहीं है। लेकिन आपकी मदद करने के लिए आप प्रभु पर भरोसा कर सकते हैं। इसलिए, अपने बच्चों को प्रभु से प्रेम करने वाले और सभी लोगों का आदर करने वाले बनाने के लिए प्रभु की मदद माँगें।
  5. आप निर्भयता से परमेश्वर के पूरे परामर्श का प्रचार करने वाले होंः आप किसी मनुष्य को प्रसन्न करने की कोशिश किए बिना, नई वाचा में लिखी हरेक बात का प्रचार करें - हरेक आज्ञा और हरेक प्रतिज्ञा के बारे में (प्रेरितों. 20:27; गलातियों 1:10)। आपको लगातार पवित्र आत्मा के अभिषेक की खोज में रहना चाहिए जिससे कि आपके संदेश चुनौतीपूर्ण और उत्साह-जनक हो सकें।
  6. आपके अन्दर यह तीव्र अभिलाषा हो कि आप अपनी कलीसिया को मसीह की देह की एक सच्ची अभिव्यक्ति बनाना चाहते हैंः यीशु लोगों को सारे पाप से बचाने के लिए और फिर उन्हें एक ऐसी देह बनाने के लिए पृथ्वी पर आया था जो उसके जीवन को प्रदर्शित करे (मत्ती 16:18)। पौलुस की यह तीव्र अभिलाषा थी कि वह सभी जगहों में ऐसी कलीसियाएँ स्थापित करे जो मसीह की देह के रूप में काम कर सकें (इफिसियों 4:15,16)। आपके अन्दर भी ऐसी तीव्र अभिलाषा होनी चाहिए। ऐसी कलीसियाओं का निर्माण करने के लिए पौलुस ने कठोर परिश्रम किया था - और यह करने के लिए आपको भी कठोर परिश्रम करना होगा (कुलुस्सियों 1:28,29)।
  7. आपको अपनी कलीसिया में ऐसे कुछ लोग ज़रूर तैयार करने चाहिए जो आपके दर्शन और आत्मा में सहभागी होंः एक प्राचीन के रूप में, आपके अन्दर यह दिलचस्पी होनी चाहिए कि आपकी कलीसिया में अगली पीढ़ी के लिए प्रभु की साक्षी की शुद्धता को बचा कर रखा जाएँ यीशु ने ऐसे 11 चेले तैयार किए थे जिन्होंने उसकी आत्मा को आत्मसात कर लिया था, और उसके काम को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपने जीवन उसके मानक स्तरों के अनुसार बिताए थे। पौलुस ने तीमुथियुस और तीतुस को तैयार किया था जो उसके काम को आगे बढ़ाने के लिए उसकी नम्र व दीन आत्मा और उसके आत्म-त्यागी जीवन के अनुसार जीए थे (फिलिप्पियों 2:19-21; 2 कुरिन्थियों 7:13-15)। आपको भी अपनी कलीसिया में कुछ ऐसे लोग तैयार करने के लिए प्रभु की मदद माँगनी चाहिए जो आपके दर्शन और मनोवेग में सहभागी हो सकें।

इसलिए, प्रभु से प्रार्थना करें कि वह आपको लगातार उसके पवित्र आत्मा का अभिषेक प्रदान करे और आपको ऊपर दर्शाई गई योग्यताएँ पाने योग्य बनाए, कि फिर आप भी अपनी कलीसिया में हरेक के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण बन सकें।

अध्याय 7
अच्छे अगुवों के कुछ गुण

नीचे कुछ ऐसे गुणों की सूची है जिन्हें प्राप्त करने की अभिलाषा आपके अन्दर होनी चाहिए कि दूसरे लोग आप में भरोसा कर सकें। वे यह देखने पाएँ किः

l आप मनुष्यों का नहीं परमेश्वर का समर्थन चाहते हैं (प्रभु के सच्चे भक्तों का भी नहीं);

l परमेश्वर का राज्य और उसकी धार्मिकता आपकी पहली प्राथमिकता है;

l आप पूरी तरह से प्रभु यीशु को समर्पित उसके चेले हैं;

l आपके अन्दर परमेश्वर के लिए एक ज्वलंत प्रेम है;

l आपकी परमेश्वर की महिमा और प्रभु यीशु के नाम में एक निष्ठापूर्ण दिलचस्पी है;

l आप आत्मा में नम्र व टूटे हुए व्यक्ति हैं;

l आप ईश्वरीयता को आकर्षक बनाते हैं;

l आपके अन्दर कलीसिया को शुद्ध बनाए रखने की उत्तेजना है;

l आप सत्य के लिए साहस से भरे हैं;

l आप अपनी आस्थाओं के अनुसार जीते हैंए और आपकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं होता;

l आप अपने क्रोध को अपने वश में रखते हैंए और आप कभी कटुता से भरे हुए नहीं होते;

l आप शब्दों और कामों दोनों में प्रेम करते हैं;

l आपका व्यवहार स्वाभाविक होता है; आप कोई फ्दिखावा” नहीं करते;

l आप किसी को अपने से नीचा महसूस करने वाला नहीं बनने देते;

l आपका आचरण एक फ्बड़े भाई” की तरह नहीं बल्कि एक सामान्य भाई की तरह होता है;

l आपसे मिलने के लिए कोई भी आसानी से आ सकता है; 

l आप एक मिलनसार और मित्रतापूर्ण व्यक्ति हैंए और आपकी मौजूदगी में लोग एक सामान्य मनोभाव में रहते हैं;

l आप अपने घर में अतिथि-सत्कार करने वाले व्यक्ति हैं;

l आप न सिर्फ ईश्वरीय हैं बल्कि पिता-समान भी हैं;

l आप हर समय अपने भाइयों व बहनों का अनन्त भला चाहते हैं;

l आप कलीसिया में हरेक के प्रति अपने मनोभाव में पूरी तरह निष्पक्ष रहते हैं;

l आप परिवार या समाज के सम्बंधों या दूसरी किसी बात की वजह सेए किसी के पक्ष या विपक्ष में पूर्वाग्रहों से ग्रस्त नहीं रहते;

l आप लोगों की मान-मर्यादा बनाए रखते हैं - चाहे वे जवान हों या बूढ़ेए कोई बच्चा हो या एक सेवक;

l आप सभी लोगों के साथ सम्मानपूर्वक बात करते हैं - ख़ास तौर पर अपने से बड़ी उम्र के लोगों से;

l आप ग़रीबोंए युवाओं और बच्चों की चिंता करते हैं;

l आप अपने भाइयों और बहनों को अपने हृदय में लिए रहते हैं;

l आप अपने अधिकार का आधार अपने अनुभव नहीं बल्कि परमेश्वर के वचन को बनाते हैं;

l आप अपनी बातचीत में सचेत रहते हैंए और अपने विचारों को प्रकट करने में जल्दबाज़ी नहीं दिखाते;

l आप एक प्रत्यक्ष रूप में मसीह-समान बनते जाते है;

l आप फैसले लेने में अपने तर्क पर नहीं पवित्र आत्मा पर निर्भर रहते हैं;

l जो बातें आपके साथ गुप्त में बाँटी जाती हैंए उन्हें गुप्त रखने में आप भरोसेमंद हैं (उन्हें अपनी पत्नी को भी नहीं बताते हैं);

l आपके वचन का पालन करने के मामले में आप पूरे भरोसेमंद हैं;

l आप अपनी जि़म्मेदारियों को पूरी तरह से पूरा करते हैं;

l आप प्रेम में एक स्पष्ट रूप में लोगों को सत्य बताते हैं;

l आप कभी किसी को धोखा नहीं देते हैं;

l आप सभी मनुष्यों के प्रति धीरज रखते हैं;

l आप इस सच्चाई को नहीं छुपाते कि आप मानवीय निर्बलताओं वाले मिट्टी के एक पात्र ही हैं;

l आप सख़्त नहीं बल्कि लचीले बने रहते हुए दूसरों को जगह देते हैं;

l आप यह सुनिश्चित करते हैं कि दूसरों पर कोई दबाव न डाला जाएए न तो आपके व्यक्तित्व और न ही आपके दान-वरदानों द्वारा;

l आप किसी पर अपनी सलाह को नहीं थोपते हैंए बल्कि लोगों को आपसे असहमत होने की आज़ादी देते हैं;

l आप अपने तौर-तरीक़ों को दूसरों के लिए एक नियम के रूप में मानने के लिए नहीं ठहराते;

l आप व्यक्तियों में तो दिलचस्पी रखते हैंए लेकिन भीड़ में नहीं;

l आप एक सहानुभूति-भरे हृदय और वास्तविक दिलचस्पी के साथ दूसरों की समस्याओं के साथ जुड़ते हैं;

l आप लोगों को बार-बार उनकी पिछली नाकामियों को याद नहीं दिलाते;

l आप दूसरे लोगों की कमियों और ग़लतियों को सह सकते हैं;

l आप भाइयों और बहनों को ऐसे देखने की कोशिश करते हैं जैसे परमेश्वर उन्हें देखता हैए इसलिए आप उनसे निराश नहीं होते हैं;

l लोगों के नाकाम हो जाने के बाद भी आप उन्हें भविष्य में आशा बनाए रखने वाला बनाते हैं;

l आप कमज़ोर लोगों के सच्चे मित्र होते हैं;

l आपके अन्दर कोई दुर्भावना नहीं होतीए अपने शत्रुओं के बारे में बात करते समय भी;

l आप सार्वजनिक और निजी तौर पर भीए पाप के खिलाफ सशक्त उपदेश देते हैं;

l आप अपनी सेवकाई में सिर्फ उन्हीं बातों पर ज़ोर देते हैं जिन पर परमेश्वर का वचन ज़ोर देता है;

l दूसरे लोगों की परिपक्वता का स्तर कम होने पर भी आप उनके साथ अपनी जि़म्मदारियाँ बाँटने के लिए तैयार रहते हैं;

l आप अपनी पत्नी को कलीसिया के मामलों में आपको प्रभावित करने की अनुमति नहीं देते;

l आप जीवन के प्रति गंभीर रहते हैंए और यह नहीं चाहते कि आप एक मज़ाक-मसखरी करने वाले व्यक्ति के रूप में जाने जाएँ;

l आपमें हास्य-रस हैए लेकिन उससे आप किसी को चोट नहीं पहुँचाते;

l आप लोगों को अपने साथ नहीं बल्कि मसीह जो सिर हैए उसके साथ जोड़ते हैं;

भरोसा कैसे टूट जाता है

दूसरों का भरोसा आप में तब नहीं होगा (या टूट जाएगा) जबः

l आप ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करेंगे जिनका आपसे कोई सम्बंध नहीं है;

l आप आत्मिक होने का दिखावा करते हुए एक अजीब और अप्राकृतिक तरीक़े से व्यवहार करने लगेंगे;

l आप एक झूठी नम्रता में दीन-हीन होने का दिखावा करेंगे;

l आप अपने नाम और अपनी दिलचस्पियों को आगे बढ़ाएँगे;

l आप भाइयों व बहनों से ग़लत फायदा उठाएंगेए और उन्हें कोई मज़दूरी दिए बिना उनसे अपने या अपने परिवार के लिए मामूली काम कराएँगे;

l आप अपने मित्रों और सम्बंधियों को कलीसिया के भाई-बहनों से ज़्यादा मूल्यवान समझेंगे;

l आप अपने तौर-तरीक़ों में बेईमानए चालाक और धोखेबाज़ होंगे;

l आप दूसरों की सलाह मानने के लिए तैयार नहीं होंगे;

l आप अपने आपको सही ठहराने की कोशिश करेंगे;

l आप स्वयं को श्रेष्ठ समझते हुएए अपने और भाइयों के बीच एक दूरी बनाए रखेंगे;

l आप पुष्टि किए बिना ही दूसरे के बारे में कही-सुनी बातों को मान लेंगे;

l आप न्याय करने में तो जल्दबाज़ी दिखाते हैंए लेकिन दया दिखाने में नहीं;

l आप झूठे होंगे;

l आप सिर्फ उन्हीं से प्रेम करेंगे जो आपसे प्रेम करते हैं;

l आप लोगों से कुछ लाभ पाने के लिए उनकी चापलूसी करेंगे;

l आप नासमझी से किसी भाई की अनुचित प्रशँसा करते हुए उसे बर्बाद करते हैं;

l आप सिर्फ धनवान लोगों के घरों में भेंट करने जाते हैं और ग़रीब विश्वासियों को अनदेखा करते हैं;

l आप आत्मिक मामलों में समझौता कर लेते है;

l आप दूसरों को नीचा दिखाने वाले चुटकुले सुनाते हैं;

l आप क्षमा नहीं करते और दूसरों के प्रति शिकायतों से भरे रहते हैं;

l आप अपने या अपने परिवार की सुविधानुसार कलीसियाई मामलों में फैसले करते हैं;

l आप दूसरों की ग़लतियों को अनदेखा नहीं करते बल्कि उन्हें एक बड़ा मुद्दा बना देते हैं;

l आप लोगों से बात करते समय उनकी आँखों में आँखें डालकर उनसे बात नहीं करते;

l आपके संदेश नीरस होते हैं और आपको इसका अहसास भी नहीं होता है!

अगर आपके अन्दर वे सभी ईश्वरीय गुण होंगे जिनका बयान इस अध्याय में किया गया हैए तो आपका झुण्ड आपको परमेश्वर द्वारा उन्हें दिए गए एक बड़े भाई के रूप में जान लेगा।

अगर आपको ऊपर लिखे क्षेत्रों में अपने अन्दर कोई कमी नज़र आती हैए तो आपको मदद पाने के लिए परमेश्वर को खोजना चाहिए जिससे कि आप उस कमी को दूर सकेंए और परमेश्वर के भय में अपनी बुलाहट को विश्वास-योग्यता के साथ पूरा कर सकें।

अध्याय 8
अगुवों के रूप में हमारी जि़म्मेदारी

प्रकाशितवाक्य अध्याय 2 व 3 में, हम वे संदेश पढ़ते हैं जो प्रभु ने अखाया के क्षेत्र में सात कलीसियाओं के अगुवों को भेजे थे। ये वे अगुवे थे जिन्हें लगभग 40 साल पहले प्रेरितों ने नियुक्त किया था। लेकिन अब, इनमें से 5 अगुवे एक भटकी हुई दशा में थे और उनकी कलीसियाओं की बुरी दशा थी। लेकिन इसमें उन प्रेरितों का कोई दोष नहीं था जिन्होंने उन कलीसियाओं को स्थापित किया था।

पौलुस ने इफिसुस के प्राचीनों को यह चेतावनी दे दी थी, कि उसके जाने के बाद फाड़ खाने वाले भेड़िए उनके बीच में आ घुसेंगे, और वे झुण्ड का नाश कर देंगे (प्रेरितों का काम 20:29,30)। लेकिन उन प्राचीनों ने पौलुस की चेतावनी को गंभीरता से न लेते हुए अपने मन नहीं फिराए थे। और इस वजह से ही इफिसुस की कलीसिया और उसके प्राचीनों ने प्रभु के प्रति अपना प्रेम खो दिया था और विश्वास से भटक गए थे (प्रकाशितवाक्य 2:4)। इस तरह, नमक ने उसका स्वाद खो दिया था, और ज्योति बुझ गई थी।

एक कलीसिया उसके प्राचीन जैसी ही बन जाती है

उन पाँच कलीसियाओं के भटके हुए अगुवे शायद इस बात में गौरव महसूस करते होंगे कि प्रेरित पौलुस या प्रेरित यूहन्ना ने उनकी कलीसिया को स्थापित किया था, और उन्हें उसका प्राचीन नियुक्त किया था। लेकिन यह एक ऐसी ही मूर्खता की बात थी जैसे यहूदियों द्वारा इस हक़ीक़त में घमण्ड करना कि अब्राहम उनका पिता था (मत्ती 3:9; यूहन्ना 8:39)। आज भी अनेक कलीसियाओं के अगुवे इस बात में गौरान्वित होते हैं कि उनका सम्बंध एक ऐसी कलीसिया से है जिसे परमेश्वर के किसी एक जन ने स्थापित किया था। अगर कलीसिया का वर्तमान अगुवा आत्मिक नहीं है, तो ऐसा गर्व मूर्खतापूर्ण है।

एक सामान्य रूप में कहें, तो प्रत्येक कलीसिया का उभरना और गिरना उसके अगुवों के साथ ही होता है। इसकी वजह यही है कि ज़्यादातर विश्वासी, भेड़ों की तरह, कोई सवाल किए बिना अपने चरवाहे के पीछे चलते रहते हैं। इस वजह से, परमेश्वर के सम्मुख हमारी बहुत बड़ी जि़म्मेदारी है। अगर हम इस बात को हमेशा याद रखेंगे, तो हम प्रभु के सम्मुख अपने मुख धूल में रखते हुए उसकी कृपा के खोजी बने रहेंगे।

उन भटकी हुई 5 कलीसियाओं में, हम यह देखते हैं कि जब उनके अगुवे ने प्रभु के लिए अपना प्रेम खो दिया, तो कलीसिया ने उस प्रेम को खो दिया था। जब अगुवे ने “बालाम की शिक्षा” का अनुसरण किया (पाप से समझौता कर लिया और आदर-सम्मान और धन-सम्पत्ति के लिए परमेश्वर की सेवा की), तब कलीसिया के विश्वासी भी बालाम जैसे बन गए थे। जब अगुवा आत्मिक तौर पर मरा हुआ और घमण्ड से भरा हुआ बन गया, तो उसकी सुनने वाले भी उसकी तरह हो गए (प्रकाशितवाक्य अध्याय 2 व 3)।

लेकिन उनमें कुछ अपवाद भी थे। प्रकशितवाक्य 3:4 में, हम देखते हैं कि सरदीस की कलीसिया में ऐसे भी कुछ लोग थे जो उनके अगुवे की तरह भटके नहीं थे। अपने अगुवे की मृतक दशा के बावजूद वे पूरे हृदय से समर्पण किए हुए थे। इसी तरह, कुछ अपवाद एक दूसरे रूप में रहे होंगे - कुछ ऐसे लोग भी होंगे जो आत्मिक रूप में मरे हुए होंगे, हालांकि वे आत्मिक रूप में जीवित कलीसियाओं में थे (जैसे स्मुरना और सरदीस की कलीसिया)।

लेकिन, अगर एक सामान्य रूप में कहें, तो हम यह कह सकते हैं कि कलीसियाएँ उनके अगुवों के साथ ही उबरती और उनके साथ ही गिरती हैं। इस वजह से ही अगुवों के रूप में परमेश्वर के सम्मख हमारी जि़म्मेदारी गंभीर है।

जब अगुवे आत्मिक रूप में बहरे हो जाते हैं

ये भटके हुए अगुवे उनकी (पाप में) गिरी हुई दशा की तरफ से पूरे अनजान थे। परमेश्वर को प्रेरित यूहन्ना के द्वारा उनकी आत्मिक दशा को उन पर प्रकट करना पड़ा था। ऐसा क्यों था कि वे उनकी आत्मिक दशा के बारे में परमेश्वर को उनसे सीधे तौर पर बोलता हुआ नहीं सुन पा रहे थे, और उन्हें यह यूहन्ना के द्वारा बताया गया था? क्योंकि, नई वाचा में परमेश्वर हरेक विश्वासी से प्रत्यक्ष बात करना चाहता है। इसकी वजह यह थी कि उनका ज़्यादा ध्यान इस बात पर लगा हुआ था कि कलीसियाई सभाओं में उन्हें दूसरों को क्या प्रचार करना है। जब हमारा ध्यान “दूसरों के लिए एक प्रचारक बनने” पर लग जाता है, तब हमारे लिए स्वयं अपनी आत्मिक दशा के बारे में अनजान बने रहना आसान हो जाता है।

इस बात पर भी ध्यान दें कि उन अगुवों को भेजे गए संदेश उन्हें व्यक्तिगत तौर पर भेजा गया कोई निजी पत्र-व्यवहार नहीं था। नहीं। वे संदेश सभी कलीसियाओं में सार्वजनिक तौर पर पढ़े जाने के लिए थे (प्रकाशितवाक्य 1:11)। इस तरह, सभी कलीसियाओं को बाक़ी सभी कलीसियाओं के अगुवों की आत्मिक दशा की जानकारी मिल गई थी। असल में, इन संदेशों पर ध्यान देने वाले सभी लोगों के लिए एक आशिष का भी ऐलान किया गया था (प्रकाशितवाक्य 1:3)।

पौलुस ने तीमुथियुस को यह कहते हुए लिखा, “ लोग पाप करते रहते हैं, उन्हें सबके सामने डाँट जिससे अन्य लोग भी पाप करने से डरें” (1 तीमुथियुस 5:20)।

और इसलिए पौलुस ने अपने सहकर्मी देमास का उल्लेख किया जो विश्वास से भटक गया था, और उसने वजह भी बताई - क्योंकि वह “इस सँसार के मोह में पड़ गया था” (2 तीमुथियुस 4:10)। पौलुस ने उसका विरोध करने वाले दूसरे लोगों के नामों का भी उल्लेख किया था - फुगिलुस, हिरमुगिनेस, हुमिनयुस और सिकन्दर (2 तीमुथियुस 1:15; 4:14; 1 तीमुथियुस 1:20)। पौलुस ने गलातिया की कलीसिया को पतरस और बरनाबास के दिखावे के कामों के बारे में भी बता दिया था (गलातियों 2:11-16)।

परमेश्वर सभी विश्वासियों को उनके अगुवों के बारे में इस तरह से बोलने की अनुमति नहीं देता है। लेकिन, एक प्रेरित जब पवित्र-आत्मा से ऐसा कहने की प्रेरणा पाता है, तब वह ऐसी बातें बोल सकता है। साँसारिक विश्वासी परमेश्वर के मार्गों (तरीक़ों) को नहीं समझते, इसलिए वे पौलुस पर इस बात में दोष लगा सकते हैं कि उसने अगुवों के नामों और उनकी नाकामियों को प्रकट कर दिया था। लेकिन एक प्रेरित पवित्र आत्मा की प्रेरणा की अगुवाई में चलता है।

अगर आप एक प्रेरित द्वारा दी गई ऐसी ताड़ना और धिक्कार को ग्रहण करेंगे, और उनके अधीन होकर अपने आपको नम्र व दीन करेंगे, तो आप आशिषित होंगे।

अगुवे जो परमेश्वर का भय मानते हैं

पुरानी वाचा में, इस्राएली जब भी विश्वास से भटकते थे, तब परमेश्वर हमेशा उनके अगुवों (प्रधानों, याजकों और झूठे नबियों) को उसके नबियों द्वारा धिक्कारता था। इस्राएल के लोग इसलिए भटक जाते थे क्योंकि उनके अगुवे ढीले और लापरवाह हो जाते थे। लोगों के अन्दर से परमेश्वर का भय इसलिए जाता रहा था क्योंकि उनके अगुवों में परमेश्वर का कोई भय नहीं था।

नई वाचा में, हमें यह आज्ञा दी गई है कि हम परमेश्वर के भय में पवित्रता को सिद्ध करें (2 कुरिन्थियों 7:1)। अगुवों के रूप में, अगर परमेश्वर के भय में चलते हुए हमारी पवित्रता आज उस पवित्रता से ज़्यादा सिद्ध अवस्था में नहीं पहुँची है जितनी वह पिछले साल थी, तो हम परमेश्वर के लोगों की अगुवाई करने योग्य नहीं हैं। यह हो सकता है कि हम दूसरों के चालचलन की निगरानी करने में बहुत चौकन्ने हों, लेकिन हमारे चाल-चलन की चौकसी करने वाला कोई न हो। तब, इससे पहले कि कोई हमें सुधारे, हमारा भटकना ऐसी गंभीर अवस्था में पहुँच सकता है जहाँ उसके बारे में कुछ कर पाने में बहुत देर हो चुकी हो।

तब हम क्या कर सकते हैं? हमें परमेश्वर से यह कह देना होगा कि वह हमें उसके हाथों में लेकर हमारे साथ कठोरता से व्यवहार करे, वर्ना कहीं ऐसा न हो कि हम पूरी तरह भटक जाएँ। परमेश्वर के आत्मा ने यीशु को “परमेश्वर के भय की अनुभूति के प्रति बहुत उत्तेजना से भर रखा था” (यशायाह 11:3 – के.जे.वी. कोष्ठक)। अगर हम पवित्र आत्मा को यह अनुमति देंगे, तो वह हमें भी परमेश्वर का ऐसा भय मानने वाला बना सकता है। यह ऐसा भय नहीं है कि परमेश्वर हमें आहत करेगा, बल्कि यह इस बात का भय होगा कि हम परमेश्वर को चोट पहुँचाने वाले हो सकते हैं। 

सबसे पहले, हमें अपने व्यक्तिगत जीवनों में परमेश्वर के इस भय की नवजागृति की ज़रूरत है। हमें परमेश्वर से यह कह देने की ज़रूरत है कि जब तक हम उसके सम्मुख आकर व्यक्तिगत तौर पर उससे आपना-सामना नहीं करते, तब तक वह हमें सप्ताह-दर-सप्ताह कलीसियाई सभाओं में बोलते रहने की दिनचर्या से बचाए रखे। हमें परमेश्वर के भय में चलने की ज़रूरत है, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि हम दूसरों को तो प्रचार करें लेकिन अंतिम दिन हम स्वयं परमेश्वर द्वारा अस्वीकार कर दिए जाएँ, वैसे ही जैसे पौलुस की यह आशंका थी कि अगर उसने स्वयं को अनुशासित नहीं किया, तो वह भी अस्वीकार किया जा सकता है (1 कुरिन्थियों 9:27)।

पवित्र आत्मा में बपतिस्मा और उसके दान-वरदान

हमारे समय में, जिस तरह से पवित्र आत्मा में बपतिस्मा पाने (डुबोए जाने) को एक तुच्छ रूप दिया जा रहा है, उसके प्रति हमें गंभीर रूप से विचार करने की ज़रूरत है। आज मसीही जगत में हम दो अतिवादी दशाएँ पाते हैंः वे जो पूरी तरह से पवित्र आत्मा के बपतिस्मे का इनकार करते हैं, और वे जो उसकी तुच्छ, भावुकता-भरी नकल को महिमान्वित करते हैं (जिससे न तो सेवकाई के लिए सामर्थ्य और न ही जीवन में पवित्रता ही मिल सकी है)। हमें इन दोनों ही दशाओं से दूर रहने की और आत्मा का सामर्थ्य पाने के लिए परमेश्वर की खोज करने की ज़रूरत है कि हम एक ऐसा जीवन बिता सकें और एक ऐसी सेवा कर सकें जैसी हमें करनी चाहिए।

हम जिस ऊँचाई तक स्वयं पहुँचे हैं, हम कलीसिया को उससे ज़्यादा ऊँचा नहीं ले जा सकते। अगर स्वयं हमारा अनुभव ही नकली है, तो हम दूसरों की अगुवाई भी नकली अनुभवों में ही करेंगे। हमें असल में पवित्र-आत्मा में डुबोए जाने की ज़रूरत है। लेकिन वह काफ़ी नहीं होता है। अगर हमें प्रभु के लिए उपयोगी होना है, तो हमें लगातार पवित्र-आत्मा की भरपूरी में रहने की ज़रूरत होती है। हमें हर समय “आत्मा से परिपूर्ण होते रहने” की ज़रूरत होती है (इफिसियों 5:18)।

अगर हमारी कलीसिया में हमें एक प्रभावशाली सेवकाई करनी है, तब हमारी कलीसिया के भाइयों व बहनों की आत्मिक उन्नति के प्रति हममें एक असली दिलचस्पी होनी चाहिए। यह बात हमारा मार्ग-दर्शन करते हुए हमें नबूवत का दान पाने की तरफ ले जाएगी कि हम अपने साथी-विश्वासियों के साथ एक प्रभावशाली रूप में सहभागिता कर सकें। पवित्र आत्मा के इस दान के बिना वचन की सेवकाई में परमेश्वर की सेवा करना असम्भव है। इसलिए हमें पूरे हृदय से इस दान की खोज में रहना चाहिए। यीशु का वह दृष्टान्त जिसमें एक मनुष्य आधी रात को अपने पड़ौसी के घर इसलिए गया कि उसके घर आए एक मित्र के लिए कुछ खाने को मिल सके, हमें यह सिखाता है हमारी कलीसिया में जो लोग ज़रूरतमंद हैं, हमें उनकी देखभाल करने की चिंता होनी चाहिए। यह बात हमें परमेश्वर के द्वार को तब तक खटखटाते रहने वाला बना देगी “जब तक कि वह हमें पवित्र आत्मा की उतनी सामर्थ्य नहीं दे देता जितनी हमारी ज़रूरत है” (लूका 11:8 को 11:13 के साथ पढ़ें)।

नई वाचा में, नबूवत का अर्थ पवित्र आत्मा के अभिषेक से भरकर परमेश्वर का वचन इस तरह बोलना है जिससे कलीसिया की आत्मिक उन्नति हो, और उसे उपदेश और सान्त्वना मिले (1 कुरिन्थियों 14:4,24,25)। 1 कुरिन्थियों 14 में, पौलुस स्थानीय कलीसिया की सभाओं में नबूवत के महत्व पर ज़ोर देता है। अगर कलीसिया का ऐसी अभिषिक्त नबूवत के बिना उन्नत होना सम्भव है, तब हमें यही कहना पड़ेगा कि परमेश्वर ने कलीसिया को यह दान व्यर्थ ही दिया है। तब “नबूवत करने की धुन” में रहने का उपदेश एक अनावश्यक उपदेश है (1 कुरिन्थियों 14:1, 39)। लेकिन यह एक हक़ीक़त है कि कलीसिया की उन्नति के लिए यह एक अनिवार्य वरदान है। एक कलीसिया जिसमें पवित्र आत्मा के अभिषेक में नबूवत करने वाला एक भाई भी न हो, उस कलीसिया की जल्दी ही आत्मिक मृत्यु हो जाएगी।

पवित्र आत्मा के अभिषेक को अनदेखा करना मानो यह कहना होगा कि पैन्तेकुस्त के दिन उसका आना व्यर्थ था, और यह कि हम उसके द्वारा योग्यता प्रदान किए जाने के बिना ही प्रभु का काम करने योग्य हैं! यह कहना ऐसा कहने जैसी ही गंभीर भूल होगी कि प्रभु यीशु का पृथ्वी पर आना व्यर्थ था, और यह कि हम उसके बिना ही स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं! त्रिएकता के तीसरे व्यक्ति को अनदेखा करना पवित्र आत्मा को तुच्छ समझने के बराबर है, और यह ऐसा ही गंभीर पाप है जैसा त्रिएकता के दूसरे व्यक्ति के आने को अनदेखा करना है।

हम पवित्र आत्मा के अभिषेक का सिर्फ इस वजह से अवमूल्यन न करें क्योंकि कुछ विश्वासियों द्वारा इसकी निंदा की गई है। अगर आपके पास पवित्र आत्मा की सामर्थ्य नहीं है, तो आप प्रभु का काम करने के लिए अपने स्वयं की मानवीय योग्यता और अनुभव पर निर्भर हो जाएँगे। और इससे परमेश्वर के उद्देश्य कभी हासिल न किए जा सकेंगे।

हमें एक ओर तो लोगों को फरीसीवाद और विधिवाद से मुक्त करने की ज़रूरत है, और दूसरी ओर पाप से समझौता कर लेने और साँसारिकता से मुक्त करने की ज़रूरत है। ऐसी सेवकाई के लिए कौन पर्याप्त है? सिर्फ वही जिसे पवित्र आत्मा ने इस योग्य बनाया हो। इस वजह से ही हमें पवित्र आत्मा की बुद्धि और सामर्थ्य पाने के लिए लगातार परमेश्वर की खोज करते रहने की ज़रूरत होती है (इफिसियों 1:17; 3:16)। इन्हें पाने के लिए, हमें भी प्रार्थना करने की भी ज़रूरत है।

विधिवाद और सांसारिकता के ख़तरे

हमें सारे विधिवाद से मुक्त होने के लिए अपने पूरे हृदय से प्रार्थना करने की ज़रूरत है। हम सिर्फ इसी तरह नई वाचा की कलीसियाएँ तैयार कर सकते हैं।

विधिवाद हमेशा न्यायवाद की तरफ ले जाता है और यह परमेश्वर के काम को उतना ही नाश कर सकता है जितना कि सांसारिकता कर सकती है। विधिवाद और सांसारिकता दो अतिवादी बिन्दु हैं - और दोनों का परिणाम बेबीलोनी कलीसियाओं का निर्माण हो सकता है। लेकिन इन दोनों में, विधिवाद ज़्यादा बड़ा ख़तरा होता है, क्योंकि यह “आत्मिक” नज़र आता है जबकि सांसारिकता में ऐसा कोई धोखा नहीं होता। विधिवादी कलीसियाएँ सांसारिक कलीसियाओं से ज़्यादा आत्मिक नज़र आती हैं लेकिन उनमें सांसारिक कलीसियाओं की तुलना में ज़्यादा पाखण्ड और कृत्रिमता होते हैं।

फरीसी विधिवादी थे और हेरोदी सांसारिक थे। लेकिन हेरोदियों ने नहीं फरीसियों ने ही इस बात पर ज़ोर दिया था कि यीशु को सूली चढ़ाया जाएँ हम यहाँ विधिवाद के ख़तरे को स्पष्ट देख सकते हैं।

रोमियों अध्याय 6 पाप से मुक्ति के बारे में है। और रोमियों 7 विधिवाद से मुक्ति के बारे में है। हमें दोनों से मुक्ति पाने की ज़रूरत है।

सिर्फ इस एक उदाहरण पर विचार करें जिसमें प्राचीन विधिवादी हो सकते हैंः यह शिक्षा कि गहने पहनना सांसारिक होना है।

यहाँ हमें एक स्पष्ट रूप में दो बातें समझ लेने की ज़रूरत हैः

सबसे पहलेः सांसारिकता प्राथमिक रूप में मन में होती है - यह एक मनोदशा है। रोमियों 12:2 कहता है, “सँसार के अनुरूप न बनो... बल्कि अपने मन में नए हो जाने...।” सांसारिकता स्वयं को अनेक स्वरूपों में प्रकट कर सकती है, जैसे - गपशप, पीठ-पीछे बुराई, धन का प्रेम, मनुष्यों से सम्मान पाना (सँसार में या कलीसिया में), और स्वयं को महँगे कपड़ों और गहनों में सजा कर प्रदर्शित करना। लेकिन गपशप करना गहने पहनने से हज़ारों गुणा ज़्यादा बुरा है, क्योंकि गपशप करने से दूसरों को चोट पहुँचती है। सांसारिकता मन में शुरू होती है, और इसलिए उसे सबसे पहले मन में से उखाड़ना होता है। तब प्याला बाहर से अपने आप साफ हो जाएगा (जैसा कि यीशु ने मत्ती 23:26 में कहा है)।

दूसराः एक विश्वासी से जब ज़बदस्ती कोई काम कराया जाता है, तो वह एक ऐसा मरा हुआ काम होता है जिसका परमेश्वर के सम्मुख कोई मूल्य नहीं होता है। हमें “मरे हुए कामों से मन फिराने” के लिए कहा गया है (इब्रानियों 6:1)। इसलिए हमें अपनी कलीसियाओं में किसी को भी कोई ऐसा काम करने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए जो नैतिक रूप में पापमय न हो। जैसेः हम लोगों का गपशप न करने के लिए मजबूर कर सकते हैं (क्योंकि वह पाप है)। लेकिन हमें किसी को उसके गहने उतार देने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए (क्योंकि यह पाप नहीं है बल्कि इसका सम्बंध सादगी से है)। सादगी से जुड़े मामलों में, हमें लोगों को हमारी नहीं बल्कि उनकी आस्थाओं के अनुसार जीने और पहनने की आज़ादी देनी चाहिए।

मैं यहाँ एक बात जोड़ते हुए यह बताना चाहता हूँ कि मैंने और मेरी पत्नी ने कभी कोई गहना नहीं पहना है - क्योंकि हमने 1 तीमुथियुस 2:9 (“सोने व मोतियों से न सजने”) और 1 पतरस 3:3 (तुम्हारा श्रृंगार दिखावटी न हो जैसे सोने के आभूषण...) को परमेश्वर के वचन में हमारे लिए स्पष्ट आज्ञाओं के रूप में देखा है। लेकिन जो गहने पहनते हैं, हम उनका न्याय नहीं करते। हम यह मान लेते हैं कि वे इन पदों को इस तरह नहीं समझते जैसे हमने समझा है।

पौलुस व पतरस 1 तीमुथियुस 2:9 में और 1 पतरस 3:3 में (भोग-विलासिता और प्रदर्शन का विरोध करते हुए) सहजता और शालीनता पर ज़ोर दे रहे थे।

वे बहनों (और सभी लोगों) को नए चलन के कपड़ों के प्रदर्शन और अनावश्यक भोग-विलासिता पर धन ख़र्च करने की तरफ से हतोत्साहित कर रहे थे। वहाँ सोना, मोती, महँगे कपड़ों और बालों के गूँथने का उल्लेख किया गया है, लेकिन इसमें ऐसी और भी बहुत सी वस्तुओं को शामिल किया जा सकता है जो अनेक विश्वासियों के घरों में होती हैं। 

यीशु ने हमें यह कहते हुए आज्ञा दी है, “बाहरी वेशभूषा देखकर किसी पर दोष न लगाओ, लेकिन सच्चा न्याय करो” (यूहन्ना 7:24)।

इसलिए, इससे पहले कि गहने पहनने के लिए आप किसी बहन की आलोचना करें, पहले आपको अपने आपसे यह सवाल पूछना ज़्यादा अच्छा होगा कि क्या स्वयं आपके घर में कोई अनावश्यक भोग-विलासिता की चीज़ तो नहीं है। अगर है, तो फिर मैं यही कहूँगाः अपने पाखण्ड, विधिवाद, स्व-धार्मिकता, दोष लगाने वाली आत्मा को दूर करें और पहले अपना न्याय करें। सस्ते और नकली गहने पहनने के लिए आप एक बहन की आलोचना कैसे कर सकती हैं जबकि स्वयं आपके घर में एक महँगी, अनावश्यक भोग-विलासिता की वस्तु रखी हुई है?

बाइबल कहती है, “दूसरों की तरफ अंगुली उठाने से पहले सोच लो। जब भी तुम किसी की आलोचना करते हो, तब अपने आपको भी दोषी ठहराते हो। दूसरों का न्याय करने वाली आलोचना स्वयं अपनी कमियों/बुराइयों का पर्दाफाश हो जाने से बच निकलने का जाना-पहचाना तरीक़ा है। लेकिन परमेश्वर को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। वह तुम्हारे सारे ढोंग-दिखावे को आरपार देख सकता है, और जो कुछ तुमने किया है, उसके लिए वह तुम्हें जि़म्मेदार ठहराएगा। यह मत सोचो कि दूसरों की तरफ अंगुली उठाने द्वारा तुम परमेश्वर के ध्यान को अपने ऊपर से हटा दोगे और उसकी कड़ी सज़ा से बच निकलोगे? क्या तुम यह सोचते हो कि क्योंकि वह इतना भला परमेश्वर है इसलिए वह तुम्हें छोड़ देगा? नहीं। तुम बच नहीं सकते। इसलिए अपना मन फिराओ...” (रोमियों 2:1-5, मैसेज भावानुवाद)।

उपरोक्त सिद्धान्त गहने पहनने की बात के अलावा और भी बहुत सी बातों पर लागू होता है, क्योंकि विधिवाद बहुत से आकारों और रंगों में आता है, और हमें उन सबसे सचेत रहना है। आप एक भाई पर उसकी कार के मॉडल के लिए, उसकी जीन्ज़ के लिए, या उसकी रंग-बिरंगी कमीज़ के लिए उस पर दोष लगाने वाले हो सकते हैं।

इस सारे मामले का निष्कर्ष यह हैः “हरेक व्यक्ति इन बातों के बारे में अपने मन में पूरी तरह निश्चित हो जाए” (रोमियों 14:5) - कि उसे कितने बड़े घर में रहना चाहिए, उसे किस बनावट की कार (या स्कूटर) ख़रीदना चाहिए, उसे और उसके परिवार को किस शैली के कपड़े पहनने चाहिए, कैसा खाना चाहिए, अपने परिवार मे होने वाले किसी विवाह में कितना ख़र्च करना चाहिए, आदि। यक़ीनन इन सभी मामलों में सांसारिकता हो सकती है। लेकिन इन मामलों में हमें किसी का न्याय नहीं करना है। हमें सिर्फ अपना ही न्याय करना है।

बेबीलोन उन लोगों द्वारा तैयार नहीं किया जाता जो आभूषण पहनते हैं या जिनके पास कुछ भोग-विलास की चीजें हैं। यह उन पाखण्डियों द्वारा तैयार किया जाता है जो उन बातों का स्वयं ही अभ्यास नहीं करते जिनका वे प्रचार करते हैं और जो दूसरों को दोषी ठहराते हैं।

न्याय करना पर दोषी न ठहराना:

मसीहियों में इस बात के बारे में बहुत ग़लतफहमी है कि क्या दूसरों का न्याय करना सही है या नहीं; इसकी वजह “न्याय” शब्द के बारे में एक ग़लत सोच-समझ है।

विश्वासियों के रूप में, हमें दूसरों का इस भावार्थ से न्याय करना है कि हमें लोगों को परखना है। परमेश्वर का वचन कहता है, कि जब हम किसी को प्रचार करते सुनें, तो हमें “सन्देश का न्याय करना है” (1 कुरिन्थियों 14:29)। इस तरह, असल में, पवित्र आत्मा हमें आज्ञा देता है कि हम हरेक प्रचारक के प्रचार को परखें/न्याय करें। मसीही जगत में धोखा देने वाले प्रचारकों से बचने का आज सिर्फ यही तरीक़ा है। 

परमेश्वर का वचन यह भी कहता है, “हरेक आत्मा का विश्वास मत करो, लेकिन आत्माओं को परखो कि वे परमेश्वर की तरफ से हैं या नहीं; क्योंकि सँसार में अनेक झूठे नबी निकल पड़े हैं” (1 यूहन्ना 4:1)।

यीशु ने भी हमें बताया हमें दूसरों का न्याय कैसे करना है। उसने कहा, “अपने न्याय में ईमानदार हो, और सतही तौर पर या किसी बाहरी दिखावे के आधार पर कोई फैसला न करो, बल्कि ईमानदारी और सच्चाई से न्याय करो” (यूहन्ना 7:24, ऐम्प्लिफाइड बाइबल)। 

तो जब यीशु ने यह भी कहा, “दोष मत लगाओ”, तो उसके कहने का क्या अर्थ था (मत्ती 7:1)?

“न्याय/दोष” शब्द का अर्थ (मूल यूनानी में) “दोषी ठहराना” भी है। इसलिए ऐम्प्लिफाइड बाइबल में इस पद का अनुवाद इस तरह किया गया हैः “दूसरों को दोषी न ठहराओ कि कहीं ऐसा न हो तुम स्वयं भी दोषी ठहराए जाओ” (मत्ती 7:1 - ऐम्प्लिफाइड)।

जैसे यीशु ने स्वयं अपने बारे में कहा था, “मैं किसी को दोषी नहीं ठहराता या किसी को सज़ा नहीं सुनाता” (यूहन्ना 8:15 - ऐम्प्लिफाइड)।

तो दूसरों को दोषी ठहराना और उन्हें सज़ा सुनाना वर्जित किया गया है (चाहे वह हमारे शब्दों में हो या विचारों में)। यह अधिकार सिर्फ परमेश्वर के पास है।

लेकिन हमें जाँचना है और परखना है:

यीशु के बारे में यह नबूवत की गई थी कि वह किसी का भी “न तो मुँह देखा न्याय करेगा, औैर न कानों से सुनकर फैसला करेगा, बल्कि लोगों का न्याय धार्मिकता से करेगा” (यशायाह 11:3,4)। हमें भी उसके उदाहरण का अनुसरण चाहिए और सिर्फ देखी और सुनी हुई बातों के अनुसार कभी किसी का न्याय नहीं करना चाहिए। हमें एक मामले की पहले पूरी छानबीन कर लेनी चाहिए और इसके बाद कोई पक्षपात किए बिना ईमानदारी से धार्मिकता में न्याय करना चाहिए।

हमें यह भी बताया गया है कि परमेश्वर का परिवार होते हुए, हमें पहले स्वयं का न्याय करना चाहिए (1 पतरस 4:17)। लेकिन हमें अपना न्याय अपने भीतर देखते हुए नहीं करना है। नहीं। हमें यीशु के उदाहरण को देखना है, और उसके जीवन की ज्योति में, हमें अपनी कमियों को देखना है - और फिर अपना न्याय करना है। जैसा कि लिखा है, “प्रभु, तेरे ही प्रकाश से हमें प्रकाश मिलता है” (भजन संहिता 36:9)।

हमारे मसीही जीवन के सबसे प्रमुख पाठों में से एक पाठ यह है कि हमें परमेश्वर की ज्योति में अपना न्याय करना सीखना है। अनेक लोग इस पाठ को कभी नहीं सीखते, और यही वजह है कि वे उनके आत्मिक जीवन में कोई उन्नति नहीं करते।

यहाँ हम एक अद्भुत प्रतिज्ञा पाते हैं, कि वे जो विश्वास-योग्य रहते हुए अपना न्याय करेंगे, अंतिम दिन उनका परमेश्वर द्वारा न्याय नहीं किया जाएगाः “अगर हम अपना न्याय सही तरह करते तो दण्ड न पाते” (1 कुरिन्थियों 11:13)।

हालांकि हम दूसरों का न्याय नहीं करते, लेकिन हमें दृढ़ता के साथ पाप के खिलाफ प्रचार करना चाहिए। यीशु ने कुछ ऐसे ख़ास पापों के “खिलाफ कठोरता से बोला था जैसे क्रोध करना, आँखों द्वारा कामुक लालसा करना, धन से प्रेम करना, चिंता, भय, बुरे विचार, झूठ बोलना, मनुष्यों का आदर चाहना, अपने शत्रुओं से घृणा करना, आदि” (मत्ती अध्याय 5-7)। हमें आधुनिक पापों के खिलाफ भी बोलना चाहिए जैसे इन्टरनेट पर अश्लील चलचित्र (मूवीज़) देखना - लेकिन यह हमें लोगों का दोषी ठहराते हुए नहीं करना है। यीशु जगत को दोषी ठहराने नहीं बल्कि जगत का उद्धार करने के लिए आया था (यूहन्ना 3:17)। सिर्फ परमेश्वर ही सारे मनुष्यों का न्याय करके उन्हें दण्ड दे सकता है (याकूब 4:12)।

परमेश्वर घमण्डी और अहंकारी लोगों को कलीसिया में से निकाल देता है:

कलीसिया में घमण्डी और अहंकारी विश्वासियों का खुले रूप में सामना किया जाना चाहिए। एक प्राचीन को ऐसे लोगों के साथ अपने शब्दों में शालीन और सभ्य होने की नहीं बल्कि साहसी और नबी के अधिकार में बोलने वाला होने की ज़रूरत होती है - क्योंकि घमण्डी लोग प्रभु के नाम को बदनाम करते हैं। प्रभु ऐसी स्थितियों में प्राचीनों को यह देखने के लिए परखेगा कि वे मनुष्यों को प्रसन्न करने वाले होंगे या कलीसिया में उसकी महिमा में दिलचस्पी रखने वाले होंगे।

अगर हमारी ताड़ना से कोई बुरा मानता है और कलीसिया को छोड़ कर चला जाता है तो इसमें हमें चिंतित होने की कोई ज़रूरत नहीं है - क्योंकि परमेश्वर स्वयं सभी घमण्डियों को कलीसिया में से निकालने के लिए संकल्पबद्ध रहता है।

परमेश्वर कहता है, “मैं तेरे बीच में से सब घमण्ड से फूले हुओं को निकाल दूँगा। मेरे पवित्र पर्वत (कलीसिया) में कोई घमण्ड और अहंकार नहीं होगा। सिर्फ नम्र व दीन लोग बचेंगे, और वे प्रभु के नाम में शरण लेंगे। उनमें कुटिलता न होगी, न उनके मुख से कोई छल की बात निकलेगी। वे शांति और सुरक्षा में रहेंगे और विश्राम करेंगे, और कोई उन्हें डराने वाला न होगा। हर्ष से पुकारो और सम्पूर्ण हृदय से आनन्दित और हर्षित हो क्योंकि प्रभु स्वयं तुम्हारे बीच में है! तुम्हें भयभीत होने की कोई ज़रूरत नहीं है। मत डरो, क्योंकि तुम्हारा प्रभु परमेश्वर तुम्हारे मध्य आ बसा है। वह बचाने वाला पराक्रमी योद्धा है। वह तुम्हें जयवंत करेगा। वह हर्ष से जयजयकार करता हुआ तुम्हारे कारण आनन्दित होगा। वह तुमसे प्रेम करेगा और तुम्हें दोषी नहीं ठहराएगा” (सपन्याह 3:11-18)।

यीशु ने कहा, “वह सब जो पिता मुझे देता है, मेरे पास आएगा” (यूहन्ना 6:37)। हम भी यह कह सकते हैंः पिता की इच्छा से हमें जिनकी सेवा करनी है, वे हमारे साथ रहेंगे।” और हम भी यही चाहते हैं कि सिर्फ वही विश्वासी हमारे साथ रहें। बाक़ी सब चले जाएँ - क्योंकि वे बाक़ी लोग अगर हमारे साथ रहे तो वे सिर्फ समस्याएँ ही पैदा करेंगे।

इसलिए अगर दूसरी कलीसियाएँ या पास्टर आपकी कलीसिया में से कुछ लोगों को खींच ले जाएँ, तो आपको उन्हें जाने देना चाहिए। परमेश्वर उसकी सर्वसत्ता में ऐसा भी किसी वजह से होने देता है। यूहन्ना ने कहा, “वे निकले तो हम ही में से, लेकिन वास्तव में हममें से नहीं थे, क्योंकि अगर वे हममें होते तो हमारे साथ रहते, लेकिन वे निकल इसलिए गए कि यह प्रकट हो जाए कि वे सब हममें से नहीं हैं” (1 यूहन्ना 2:19)।

लेकिन हम फिर भी एक बात को निश्चित रूप में जान सकते हैं, कि जब परमेश्वर इस तरह से फटके जाने की अनुमति देता है, तो सबसे कमज़ोर सच्चा विश्वासी भी नहीं खोएगा। प्रभु कहता है, “मैंने तुम्हें ऐसे छाने जाने की आज्ञा दी है जैसे अनाज छननी में छाना जाता है, लेकिन एक भी पुष्ट दाना भूमि पर नहीं गिरेगा” (आमोस 9:9)।

कलीसिया को गेहूँ की तरह छाना जाएगा। वर्ना परमेश्वर कलीसिया में जो फ्रोटी” बना रहा है, उसमें कंकर आ जाएँगे। इसलिए हमारी दिलचस्पी अपनी कलीसिया की गुणवत्ता में होनी चाहिए उसकी सँख्या में नहीं - वैसे ही जैसे परमेश्वर की दिलचस्पी भी सिर्फ इसमें ही होती है।

कलीसिया में अनुशासन:

यह अति आवश्यक है कि हम कलीसिया में परमेश्वर के सबसे ऊँचे मानक स्तर बनाए रखें। इसलिए, कभी-कभी ऐसा ज़रूरी हो जाएगा कि हम पाप करने वाले किसी भाई का बहिष्कार कर दें - उसे कलीसिया में से निकाल दें। पौलुस ने अपनी प्रेरिताई के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए, एक बार “एक विश्वासी को शैतान के हाथों में सौंप दिया था कि उसकी आत्मा प्रभु के दिन उद्धार पा सके” (1 कुरिन्थियों 5:5)। कलीसिया को सिर्फ इस तरह ही शुद्ध रखा जा सकता है।

पवित्र आत्मा ने यह आज्ञा दी है कि अगर प्राचीन भी पाप करता रहे तो उसे भी सार्वजनिक रूप में धिक्कारा जाना चाहिए। प्राचीनों को दो गुणा सम्मान देने और पाप करने पर उन्हें अनुशासित करने की आज्ञा पवित्र शास्त्र के एक ही भाग में दी गई है (1 तीमुथियुस 5:17, 20)। प्रभु ने मूसा और पतरस को सबके सामने सम्मानित किया था। लेकिन उसने उन्हें सबके सामने ताड़ना भी दी थी। उसने प्रकाशितवाक्य के अध्याय 2 व 3 के विश्वास से भटकने वाले प्राचीनों के साथ भी यही किया था।

जब किसी को अनुशासित करने की योजना बनाई जा रही हो, तो हमें यह देखना चाहिए कि हम “प्रेम में सच्चाई से बोलें” (इफिसियों 4:15)। 1 यूहन्ना 3:16 कहता है, “हमें अपने भाइयों के लिए अपनी जान देनी चाहिए।” इसलिए हमें अपने आपसे यह सवाल करना चाहिए कि क्या हम किसी व्यक्ति को पाप से बचाने के लिए अपनी ख़ुदी-के-जीवन को बलि करने के लिए तैयार होंगे या हम सिर्फ उसके पाप की तरफ अँगुली उठाने वाले होंगे।

भजन 12:6 कहता है, “प्रभु के वचन तो पवित्र वचन हैं - वे ऐसी चाँदी के समान हैं जो भट्ठी में मिट्टी पर ताई जाकर सात बार शुद्ध की गई हो।” इसलिए, हमें अपने शब्द “प्रभु की भट्ठी में” सात बार डालकर प्रभु को उन्हें शुद्ध करने और फिर उन्हें बाहर निकालने (बोलने) में हमें निर्देशित करने देना चाहिए। तब हममें यह बुद्धि होगी कि हम अपने शब्दों को, ज़रूरत के अनुसार, कोमल और सशक्त बना सकेंगे - क्योंकि ईश्वरीय प्रेम हरेक स्थिति के अनुसार कोमल या सशक्त हो सकता है।

परमेश्वर का वचन हमें एक स्पष्ट रूप में उन लोगों से निपटने के बारे में बताता है जिन्हें एक स्थानीय कलीसिया में से निकाला गया है या जिन्होंने एक विद्रोह की आत्मा के वश में होकर एक कलीसिया को त्याग दिया है। पवित्र आत्मा कहता है, “उनसे मेलजोल न रखो” (1 कुरिन्थियों 5:1 और 2 थिस्सलुनीकियों 3:14), और “उनसे दूर रहो” (रोमियों 16:17 पढ़ें)।

कुछ विश्वासी ऐसा सोच सकते हैं कि पवित्र-आत्मा ने वहाँ जो लिखा है कुछ ज़्यादा ही कठोर है, और वे जाकर मूर्खतापूर्वक ऐसे विद्रोहियों को सान्त्वना देने लगते हैं। लेकिन इसका नतीजा यह होगा कि फिर वे विद्रोही फ्सुअरों के साथ खाना” नहीं छोड़ेगे और मन फिरा कर कभी अपने पिता के घर नहीं आएंगे (लूका 15:16,17)। इस तरह वे अनन्त रूप में नाश हो जाएँगे। ऐसे मामलों में समझदारी यही होगी कि उन विद्रोहियों से यह आग्रह किया जाए कि वे उनके पाप से मन फिराएं और उसका अंगीकार करें, और प्रभु और उसके लोगों के साथ सहभागिता को पुनःस्थापित करें।

कलीसिया में, हमें किसी के प्रति वपफ़ादार रहने के झूठे मनोभाव की वजह से धार्मिकता (सही बात) के विरोध में नहीं होना चाहिए। परमेश्वर के नैतिक मानक किसी भाई का समर्थन करने के लिए बलि नहीं चढ़ाए जा सकते। ईश्वरीय प्रेम हमेशा सत्य से आनन्दित होता है, और उसकी अधर्म के साथ कोई सहभागिता नहीं हो सकती (1 कुरिन्थियों 13:6)। झूठे मसीही पंथों और हममें इसी बात पर मतभेद होता है। ऐसे पंथों के सदस्य अपने पंथ के एक सदस्य द्वारा अधर्म का कोई काम करने पर भी उसका समर्थन करते हैं। हमने ऐसे अनेक उदाहरण देखे हैं जिसमें इस तरह के पंथों ने उन लोगों का भी अपने बीच में स्वागत किया है जिन्हें दूसरी कलीसियाओं में से प्रत्यक्ष पापों की वजह से निकाल दिया गया था - और उन्होंने तब भी ऐसा किया था जब उन लोगों ने न तो मन फिराया था और न ही उसकी भरपाई की थी।

हमारे लिए एक व्यक्ति का अनन्त कल्याण हमारी कलीसिया की संख्या बढ़ाने से ज़्यादा महत्वपूर्ण होना चाहिए।

अगर आपकी कलीसिया की एक ख़राब साक्षी है, तो यह स्वीकार कर लेना इससे अच्छा है कि बातों को छिपाया और यह दिखावा किया जाए कि सब कुछ अच्छा है। यीशु ने अपनी पाँच कलीसियाओं की कमियों को छिपाने की कोशिश नहीं की (प्रकाशिवाक्य अध्याय 2 व 3 में), बल्कि उसने उन पर से पर्दा हटा दिया कि सभी लोग उन बातों को पढ़ सकें! वह स्व-धर्मी लोगों के लिए नहीं बल्कि उन लोगों के लिए आया था जो अपने पापों को मान लेते हैं। जो अपनी नाकामियों को छिपाते हैं, उन्हें शुद्ध करने के लिए धोया नहीं जा सकता।

नई वाचा की कलीसिया में प्राचीन होना बहुत गौरव की बात है। लेकिन यह अपने साथ एक भयजनक जि़म्मेदारी भी लाती है - एक ऐसी जि़म्मेदारी जो हमें प्रभु के सम्मुख भय और थरथराहट में बनाए रखती है। हमें अपना ध्यान एक प्राचीन होने के आदर और विशेषाधिकार पर कभी केन्द्रित नहीं करना चाहिए। इसकी बजाय हमें अपने प्राचीन होने की जि़म्मेदारी पर ज़्यादा ध्यान देना चाहिए। अगर हम नम्रता में बन रहेंगे, तो प्रभु हमें अंत तक विश्वास-योग्य बने रहने के लिए कृपा देगा।

कलीसिया का एकता में निर्माण करना:

प्राचीनों में यह बोझ होना चाहिए कि वे उनकी कलीसियाओं में एक सिद्ध एकता के साक्षी हो सकें। लेकिन सबसे पहले उस एकता की शुरूआत उनसे ही होनी चाहिए।

यूहन्ना 17:21 में, हम एकता के उस अनोखे मानक को देखते हैं जो प्रभु ने हमारे सम्मुख रखा हैः वह चाहता है कि उसके चेलों में वही एकता हो जो उसके पृथ्वी पर रहने के दिनों में उसकी पिता के साथ थी। यीशु पिता के साथ अपनी इस एकता को सिर्फ इस तरह बनाए रख सका था कि वह हर समय अपनी स्वयं की इच्छा (स्वेच्छा) का इनकार करते रहा था (यूहन्ना 6:38; मत्ती 26:39)। इस वजह से ही हर समय सूली हमारे जीवनों का केन्द्र होना चाहिए। शैतान ऐसी कलीसिया में कभी न घुस सकेगा जिसमें अगुवे स्वयं अपने स्वार्थ की खोज में नहीं रहते, बल्कि अपनी ख़ुदी का इनकार करते हैं और एक-दूसरे के साथ एकता में चलते हैं।

पुरानी वाचा के पवित्र शास्त्रें में से यह एक चुनौती-भरा भाग है जिसमें हाग्गै ने लोगों को चुनौती दी कि वे अपने स्वार्थ की खोज में न रहें बल्कि अपनी ख़ुदी का इनकार करें और परमेश्वर के घर का निर्माण करें।

“प्रभु कहता है, ‘क्या यह तुम्हारे लिए सुख-सुविधाओं के घरों में रहने का समय है जबकि परमेश्वर का भवन खण्डहर पड़ा है? इसका नतीजा देखोः तुम बहुत बोते हो, लेकिन थोड़ा ही काटते हो, तुम्हारी आमदनी इस तरह ग़ायब हो जाती है मानो तुम उसे एक ऐसी जेब में डालते हो जिसमें छेद ही छेद हैं... तुम ज़्यादा की आशा तो करते हो पर पाते बहुत कम हो। और जब तुम उसे अपने घरों में लाते हो, तो वह ज़्यादा समय तक नहीं टिकता। क्यों? क्योंकि मेरा घर खण्डहर पड़ा है और तुम्हें इसकी कोई परवाह नहीं है। तुम्हारी दिलचस्पी सिर्फ तुम्हारे सजाए हुए घरों में है। इस वजह से ही मैंने वर्षा को भेजना बंद कर दिया है, और तुम्हारी फसल थोड़ी ही होती है’ ...तब प्रभु ने लोगों के मनों को उभारा और वे आकर प्रभु के भवन को बनाने में लग गए” (हाग्गै 1:3-14)।

प्रभु हमारे मनों को भी इसी तरह उभारना चाहता है कि हम पूरे समर्पण के साथ उसकी कलीसिया का निर्माण करें।

“मसीह ने कलीसिया से प्रेम किया और अपने आपको उसके लिए ले दिया” (इफिसियों 5:25)।

चरित्र में और सेवा में बढ़ना:

हमारे जीवनों में एक-तरफा हो जाना आसान होता है - सिर्फ चरित्र में बढ़ना, लेकिन प्रभु के लिए सेवा में न बढ़ना। यीशु की समानता में बदलने का अर्थ है कि हम अपने चरित्र में और अपनी सेवा में भी उसके समान हो जाते हैं। वर्ना हम ऐसे पुरुषों की तरह नज़र आएँगे जिनकी आधी देह की माँस-पेशियाँ तो सुदृढ़ हैं (सिर्फ चरित्र या सिर्फ सेवा), लेकिन दूसरे अर्ध-भाग में सिर्फ हड्डियाँ और खाल ही है!

अगर आप पाप पर जय पा रहे हैं, लेकिन हममें प्रभु की कलीसिया का निर्माण करने में कोई दिलचस्पी नहीं है, तो हम यीशु की तरह नहीं हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि हालांकि स्वर्ग में परमेश्वर की आराधना करने के लिए हमारे पास अनन्त होगा, लेकिन हमारा पास सिर्फ यह एक जीवन ही है जिसमें हम उसकी त्यागपूर्ण सेवा कर सकते हैं।

जब मामला हमारे चरित्र के निर्माण का होता है, तब जो भी बलिदान हम करते हैं वे भीतरी होते हैं - हमारी स्वेच्छा-में-मरना। लेकिन अगर हम कलीसिया का निर्माण करना चाहते हैं, तब हमें बाहरी बलिदान भी करने होंगे - जैसे नींद, विश्राम, सुविधा, स्वास्थ्य, धन, आदि की हानि उठानी पड़ेगी। नासरत में रहने के अपने 30 सालों के दौरान, यीशु को बहुत ज़्यादा बाहरी बलिदान नहीं करने पड़े थे। लेकिन एक बार जब उसने अपनी सेवकाई शुरू कर दी, तब उसे अनेक थकाने वाली यात्रएँ करनी पड़ीं जिनमें उसके लिए सोने की जगह नहीं होती थी, अक्सर खाने का समय नहीं मिलता था, और लोगों और शैतान के विरोध का भी सामना करना पड़ता था।

तो हम त्याग-पूर्वक यीशु के उदाहरण का अनुसरण करें, हमारे जीवन और हमारी सेवा के दोनों ही क्षेत्रें में। 

अध्याय 9
एक अगुवे का आत्मिक अधिकार

सिर्फ परमेश्वर ही एक व्यक्ति को आत्मिक अगुवा होने के लिए नियुक्त कर सकता है। अगर सेवकाई में या कलीसिया में किसी कार्यभार को उठाने के लिए आपकी नियुक्ति सिर्फ मनुष्य द्वारा ही हुई है, तो आप कभी भी मसीह के अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकेंगे।

मसीह के पीछे चलने के पहले क़दम को हम इन शब्दों में देख सकते हैंः “अपने अन्दर वही स्वभाव रखो जो मसीह यीशु का था, जिसने परमेश्वर के स्वरूप में होते हुए भी परमेश्वर के समान होने को अपने अधिकार में रखने की वस्तु नहीं समझा। उसने अपने आपको ऐसा शून्य कर दिया कि दास का स्वरूप धारण कर मनुष्य की समानता में हो गया” (फिलिप्पियों 2:5-7)।

हमारे प्रभु द्वारा उठाया गया यह पहला क़दम था - सभी मनुष्यों का दास बनना। और हमें भी अगुवे होते हुए सबसे पहले यही क़दम उठाना चाहिए। जिस पल आप यह सोच लेते हैं कि आपका प्राचीन होने का कार्यभार आपको दूसरों से ऊँचा उठा देता है, आप उसी पल एक प्राचीन होने के लिए अयोग्य हो जाते हैं।

प्राचीन “पाँव धोने वाले सेवक” और “आत्मिक सफाई-कर्मचारी होने चाहिए जो कलीसिया की सफाई करते हों।” उन्हें हमेशा ऐसे सामान्य भाई ही बने रहना चाहिए जो किसी भी समय उनके प्राचीन होने के कार्यभार को त्याग कर एक सामान्य भाई बनने के लिए तैयार रहते हों। एक घर के ऐसे किसी सेवक को जो शौचालय की सफाई करने का काम करता हो, अगर एक दिन यह कहा जाए कि वह उसका सफाई का काम छोड़ कर अब से परिवार के सदस्य की तरह आकर मेज़ पर बैठा करेगा, तो निश्चय ही इसमें उसे बुरा नहीं लगेगा। और किसी भी प्राचीन से अगर एक दिन यह कहा जाए कि वह उसके प्राचीन होने के कार्यभार को छोड़ कर कलीसिया में एक सामान्य भाई की तरह बैठा करे, तो उसे भी बुरा नहीं मानना चाहिए।

आपको अपनी प्राचीनता का कार्यभार एक मज़बूत गिरफ्त में पकड़ कर नहीं रखना चाहिए, बल्कि उसे अपनी हथेली पर हमेशा खुला ही रखें - इस तरह कि जिसे परमेश्वर आपसे जब भी लेना चाहे आप उसे दे देने के लिए तैयार रहें। अगर आपका प्राचीन होने का कार्यभार कभी भी एक ऐसी बात बन जाएगा जिसे आप थामे रखते हैं या उसके मालिक बन बैठे हैं, तो आपका प्राचीन-पद आपकी मूर्ति बन गया है, और फिर आप यीशु मसीह के चेले नहीं हैं (देखें लूका 14:33)।

एक ऐसा अगुवा जो एक भाई है:

एक आत्मिक अगुवे को अपने झुण्ड की अगुवाई सूली के मार्ग में करनी चाहिए। इसके लिए उसे स्वयं विश्वास-योग्य होकर अपनी ख़ुदी-से-इनकार करने के मार्ग में चलने वाला होना होगा। मसीह की देह में ऐसा कोई भी व्यक्ति एक अगुवा नहीं हो सकता जो दूसरों का सेवक होने की लालसा नहीं करता - वैसे ही जैसे मसीह था। यीशु ने कहा, “पृथ्वी के राजा और अधिकारी लोगों पर प्रभुता करते हैं; लेकिन तुममें इससे अलग होगा। तुममें से जो कोई बड़ा बनना चाहे, वह तुम्हारा सेवक बने। और तुममे जो सबसे बड़ा बनना चाहे वह सबका दास बने। क्योंकि मैं भी, जो मसीह हूँ, सेवा कराने नहीं वरन् सेवा करने और दूसरों की मदद करने आया हूँ” (मरकुस 10:42-45 - लिविंग)। पौलुस, जो एक महान् प्रेरित था, जिसका अधिकार बाक़ी सबसे ज़्यादा था, वह दूसरों का दास था (2 कुरिन्थियों 4:5; 1 कुरिन्थियों 9:19)।

एक आत्मिक अगुवे की यह बुलाहट है कि वह उन सभी लोगों पर अधिकार रखे जिन्हें परमेश्वर ने उसके अधीन किया है, और इसके साथ ही वह उनके लिए एक भाई हो और उसी देह में एक साथी-सदस्य भी हो। अगुवा-भाई के सम्बंध के इस नाज़ुक संतुलन को बनाए रखना अक्सर एक मुश्किल काम होता है। हम या तो एक तरफ या दूसरी तरफ झुक जाने से असंतुलित हो जाते हैं। सामान्य भाई बने रहने के लिए हमें प्रभु से लगातार बहुत सी कृपा पाते रहने की ज़रूरत होती है। अगर हमें इस संतुलन को बनाए रखना है, तो हमें परमेश्वर के “मुख के सम्मुख” उसके साथ एक नज़दीकी सम्बंध में रहना होगा। यही मूसा की उस प्रभावी सेवकाई का रहस्य था जिसमें उसने बहुत ही विषम परिस्थितियों में 40 साल तक परमेश्वर के 20 लाख लोगों की अगुवाई की थी (व्यवस्थाविवरण 34:10; गिनती 12:8)।

आत्मिक अधिकार, क्योंकि वह परमेश्वर-प्रदत्त है, इसलिए वह कोई ऐसी बात नहीं होती जिसे हमें दूसरों के ऊपर दृढ़ करने की या फिर जिसके अधीन होने के लिए उन्हें मजबूर करने की भी ज़रूरत होती है। हम कभी दूसरों को हमारी बात सुनने या हमारा आज्ञापालन करने के लिए मजबूर न करें। परमेश्वर स्वयं ही उनसे निपटेगा जो उसके प्रतिनिधियों का विरोध करते हैं। परमेश्वर के सेवक को कभी किसी के साथ झगड़ा नहीं करना चाहिए (2 तीमुथियुस 2:24,25)। अगर परमेश्वर आपका समर्थन कर रहा है, तो आपको अपना बचाव करने की क्या ज़रूरत है? परमेश्वर स्वयं आपका बचाव करेगा और आपके अधिकार को स्थापित करेगा। लेकिन, अगर आप स्वयं अपने अधिकार को स्थापित करना चाहेंगे, तो यह इस बात का संकेत होगा कि आपका अधिकार हर्गिज़ परमेश्वर का दिया हुआ नहीं है।

हम कभी भी “अगुवा” शीर्षक ग्रहण न करें (मत्ती 23:10)। हम “पास्टर या पासवान” भी न कहलाएं, क्योंकि इफिसियों 4:11 कहता है कि “पास्टर या पासवान” प्रभु द्वारा उसकी कलीसिया को दिया गया एक दान है - वैसे ही जैसे प्रेरित, नबी, शिक्षक और सुसमाचार-प्रचारक हैं। कलीसिया में इनमें से कोई भी पद नहीं हैं और इनमें से कोई भी ऐसे शीर्षक नहीं हैं जिन्हें हम अपने लिए ले सकते हैं।

निंदा की प्रतिक्रिया:

एक आत्मिक अगुवे के ऊपर जब हमला हो, या उसकी निंदा हो, तो उसे अपना बचाव नहीं करना चाहिए, और न ही अपने आपको सही ठहराने या अपनी सफाई देने की कोशिश करने चाहिए। बाइबल कहती है, “मसीह तुम्हारा उदाहरण है। उसके पद्-चिन्हों पर चलो... जब उसका अपमान किया गया तो उसने पलट कर जवाब नहीं दिया; दुःख सहते हुए उसने धमकी नहीं दी; लेकिन उसने अपने मामले को परमेश्वर के हाथों में सौंप दिया जो हमेशा धार्मिकता से न्याय करता है” (1 पतरस 2:21,23 – लिविंग)।

परमेश्वर का पुत्र, जो सबसे बड़ा अधिकारी है, उसने मनुष्यों से झगड़ा करने और उनके ऊपर अपने अधिकार को दृढ़ता से स्थापित करने से इनकार कर दिया। कलीसिया में सभी अधीनस्थ-चरवाहों को भी इसी मार्ग से होकर गुज़रना चाहिए। एक आत्मिक अगुवे के रूप में, अगर आप स्वयं परमेश्वर के अधिकार की अधीनता में रहते हैं, तो आप सब कुछ आसानी से उसके हाथों में सौंप सकते हैं। तब आपके खिलाफ़ हो रही निंदा, आलोचना और पीठ-पीछे बुराई को आप अनदेखा कर सकेंगे, क्योंकि परमेश्वर ने ऐसे हमलों से अपने सेवकों को बचाने की प्रतिज्ञा की है (यशायाह 54:17)। जब कोई हम पर कीचड़ उछालेगा, तो समय बीतने पर सूख कर अपने आप गिर जाएगा; और उसका कोई धब्बा भी नहीं रहेगा। निंदा से निपटने का सबसे अच्छा यही तरीक़ा होता है।

आज कलीसिया बड़ा कष्ट सह रही है क्योंकि उसमें आत्मिक मन-मिज़ाज के अगुवों की बहुत कमी है। ऐसे बहुत हैं जिनके शीर्षक हैं और जो एक आधिकारिक रूप में अपना अधिकार जताते हैं। लेकिन सच्ची आत्मिक अगुवाई की बहुत कमी है और दुर्लभ ही मिलती है। यीशु ने एक बार उसके पास आने वाली भीड़ को देखा तो उसे बहुत तरस आया, “क्योंकि उनकी सम्स्याएँ इतनी बड़ी थीं कि वे नहीं जानते थे कि उनका क्या करें और मदद पाने के लिए कहाँ जाएँ। वे बिना चरवाहे की भेड़ों जैसे थे” (मत्ती 9:36)। आज भी ऐसा ही है।

हमें कलीसिया में आज ऐसे अगुवों की सख़्त ज़रूरत है जिनका चरवाहे का हृदय और एक सेवक की आत्मा हो, ऐसे पुरुष जो परमेश्वर से डरते हों और उसके वचन के सामने थरथराते हों।

अधीनता – थोपी नहीं बल्कि आनन्दपूर्वक स्वीकार की जाती है:

हम दूसरों को कभी अपने आपको “परमेश्वर के महान् जन” या एक पूजनीय व्यक्ति के रूप में देखने वाला न बनने दें। हम लोगों को यह अनुमति न दें कि वे हमारे प्रशंसक बन जाएँ। वे हमारे भाई ही बने रहें। वर्ना वे कभी नहीं बढ़ेंगे और उनका मसीह के साथ उनके शीर्ष के रूप में कोई व्यक्तिगत सम्बंध न बन पाएगा।

हम किसी को अपने साथ न जोड़ें। इसकी बजाय, हम सभी से यही आग्रह करें कि वे सिर्फ परमेश्वर के सम्मुख रहें। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें वे हमारा समर्थन/सराहना चाहने वाले न हों। अगर हम यह देखें कि कोई हमारे साथ जुड़ रहा है, तो हमें उसे तुरन्त अपने से अलग कर देना चाहिए। जब हम दूसरों को परामर्श दें, तो हम उसे यह अनुमति भी दें कि वह हमसे मतभेद रख सके, हमारी सलाह को अनदेखा कर सके, और उसके कामों को उस तरह कर सके जिन्हें वह स्वयं उसके तरीक़े से करना चाहता है। अगर वह ग़लती करता है, तो हम उसकी मदद करने में देर न करें। उससे कभी यह न कहें, “देखो, मैंने तुम्हें पहले ही बता दिया था।”

एक बड़े भाई के लिए यह सम्भव है कि वह “कलीसिया में परमेश्वर द्वारा नियुक्त किए गए अधिकार के अधीन होने” के महत्व को इस नज़रिए से एक कुशाग्र रूप में सीखा सके कि उसकी कलीसिया में सभी उसके अधीन हो जाएँ। इससे लोगों के हृदयों में एक ऐसा भय समा जाएगा कि फिर वे उससे असहमत होने से डरने लगेंगे। यह दुष्टता है। अधीनता का आधार सिर्फ उस भरोसे के माप के अनुसार ही होगा जो दूसरों को हममें है - क्योंकि वे हमारे जीवन में परमेश्वर की कृपा को देखते हैं, हमारे पारिवारिक जीवन की ईश्वरीय भक्ति को देखते हैं, और हमारे बोले गए शब्द पर उस अभिषेक को देखते हैं जो उनकी ज़रूरत के समय में उनकी मदद करता है।

दूसरों से हमारे अधीन हो जाने की सिर्फ इसलिए माँग करना कि हम प्राचीन हैं, इस बात का संकेत होगा कि हम असुरक्षित हैं और असल में परमेश्वर को नहीं जानते - क्योंकि परमेश्वर लोगों को यह आज़ादी देता है कि वे या तो उसके अधीन हों या उससे विद्रोह करें - और हम परमेश्वर से ज़्यादा बड़े नहीं हैं। इसलिए प्राचीनों के रूप में हमें किसी से भी हमारे अधीन हो जाने की माँग करने का कोई अधिकार नहीं है। हमारी बुलाहट सेवा की है, अधीनता की माँग करने की नहीं।

हमें यह ध्यान रखने की भी ज़रूरत है कि हम अपनी जैविक शक्ति (हमारे व्यक्तित्व की ताक़त) के द्वारा किसी को हमारे अधीन न करें। एक शक्तिशाली सोच-समझ वाले प्राचीन के लिए यह बहुत आसान होता है कि वह उसके व्यक्तित्व की शक्ति से कलीसिया में दूसरे लोगों पर उसकी मंत्र-मुग्ध कर देने वाली पकड़ बना ले! यह एक जैविक और दुष्टता-भरी बात है। ऐसी सभी जैविक-शक्ति को मृत्यु के हवाले कर देना चाहिए। कलीसिया में सभी लोगों का हमारे प्रति एक मुक्त मनोभाव होना चाहिए और किसी को हमारे भय में नहीं रहना चाहिए।

विधिवादी तानाशाही और मरे हुए काम:

हम कलीसिया को कभी एक तानाशाही की तरह न चलाएँ, जिसमें सभी भाई और बहनें बहुत से क़ायदे-क़ानूनों के बोझ तले दबे रहते हों। इससे कलीसिया एक विधिवादी सदस्यों-की-सभा (क्लब) बन कर रह जाएगी जिसमें सच्चे ईश्वरीय भाई और बहनें बेचैन ही रहेंगे। और सांसारिक तौर पर “जी-हुज़ूरी” करने वाले (जो एक स्वाभाविक रूप में हमारा आज्ञापालन करेंगे) शक्तिशाली हो जाएँगे।

हम बहुत से क़ायदे-क़ानून बनाने द्वारा दूसरे लोगों में पवित्रता पैदा नहीं कर सकते। हमें वचन का प्रचार करना है, लेकिन लोगों को एक ख़ास तरह के ढाँचे के अनुसार ढलने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए। अगर लोग सिर्फ हमें प्रसन्न करने के लिए ही काम करेंगे जिसमें उनकी कोई व्यक्तिगत आस्था नहीं होगी, तो उनकी गतिविधियाँ सिर्फ मरे हुए काम होंगे, फिर चाहे वे काम मनुष्यों की नज़रों में “धर्मी” और अच्छे काम भी क्यों न हों।

एक पिता का हृदय होना:

हमें अपने “प्राचीन” पद या शीर्षक से कभी प्रेम नहीं करना चाहिए। हम कभी यह कल्पना न करें कि हम दूसरे भाइयों या बहनों से किसी भी तरह श्रेष्ठ हैं। असल में, हमें यह आज्ञा दी गई है कि हम कलीसिया में सभी को अपने से बढ़कर जानें (फिलिप्पियों 2:3)।

अगर परमेश्वर दूसरों को सेवकाई की एक ऐसी जगह में खड़ा कर देता है जहाँ भाइयों को हमसे ज़्यादा उनमें भरोसा हो, तो हमें यह मान लेना चाहिए कि यह परमेश्वर का काम है, और हमें नम्रता के साथ पीछे हटते हुए ऐसे अभिषिक्त भाइयों को कलीसिया में हमसे ज़्यादा ऊँचा स्थान दे देना चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे, तो हम स्वयं परमेश्वर के खिलाफ़ लड़ने वाले साबित होंगे।

एक सच्चा आत्मिक पिता यही लालसा करता है कि उसके आत्मिक बच्चे आत्मिक रूप में उससे भी आगे बढ़ जाएँ। अगर हममें दूसरों के लिए ऐसी लालसा नहीं है, तो हम आत्मिक पिता नहीं हैं। तब हम प्राचीन होने योग्य नहीं हैं। तब अपने क्षेत्र में हम मसीह की देह के निर्माण में एक रुकावट बन जाएँगे।

परमेश्वर वह सब कुछ हिलाएगा जो हिलाया जा सकता है:

हमारा बाइबल का ज्ञान, हमारे प्रचारों की प्रभावशाली बोली, और दूसरों के ऊपर काम करने वाली हमारी जैविक-शक्ति इस बात का चिन्ह् नहीं होते कि परमेश्वर हमसे प्रसन्न है। परमेश्वर धीरज से सहने वाला है और न्याय करने के लिए सक्रिय होने से पहले, वह एक लम्बे समय तक इंतज़ार करता है।

कुछ प्राचीन यह कल्पना कर सकते हैं कि वे उनके तानाशाही के मनोभावों और कलीसिया में उन्होंने अपने मित्रों के हित में जो पक्षपात आदि किया है, वे उसमें सफलता के साथ बच निकले हैं। लेकिन प्रभु ने सब कुछ ध्यान से देखा है और उसने हरेक मामले एक सही लेखा रखा हुआ है। और जब समय पूरा हो जाएगा, तो वह बहुत फुर्ती से न्याय करेगा। तब आप यह देखेंगे कि वह ऐसे किसी प्राचीन को नहीं छोड़ेगा जो पाखण्डी होगा, और जो उसके झुण्ड के ऊपर हुक्म चलाता है, या जो कठोरता के साथ उस पर राज्य करता है। उस दिन हम देखेंगे कि परमेश्वर कोई पक्षपात नहीं करता! इसलिए, “जो यह कहता है कि वह स्थिर है, ध्यान रखे कि कहीं गिर न पड़े” (1 कुरिन्थियों 10:12)।

इब्रानियों 12:26-28 हमें बताता है कि “परमेश्वर ऐसी हरेक वस्तु को हिलाएगा और उसे हटा देगा जो हिलाई जा सकती है, कि वे वस्तुएँ जो हिलाई नहीं जा सकतीं, वे बनी रहें।”

हम अपने आस-पास मसीही जगत में बड़े महान् प्रचारकों को पाप में गिरते हुए देखते हैं, और ऐसी कलीसियाएँ जो मानो नई वाचा के नमूने के अनुसार चल रही थीं, उन्हें टूटते और जड़ से हिलाए जाते हुए देखते हैं। आज चल रहे हिलाए जाने के इस सारे काम के बीच में अगर हमें मसीह की अटल देह का निर्माण करना है, जहाँ एक तरफ मसीही जगत में सांसारिकता और पाप से किया जा रहा समझौता है, और दूसरी तरफ इसमें पाया जाने वाला सारा विधिवाद और फरीसीवाद है, तो हमें परमेश्वर की सेवा उसी तरह करनी होगी जैसा इब्रानियों के ये उपरोक्त पद हमें बताते हैं, “कृतज्ञ होकर और आदर और भय सहित... क्योंकि हमारा परमेश्वर भस्म करने वाली आग है।”

पूर्वानुमान का पाप:

परमेश्वर ऐसा नहीं होने देगा कि एक विश्वासी एक कलीसिया में बैठकर उसकी आलोचना करे, चाहे उसका इरादा भला भी क्यों न हो। अगर वह एक कलीसिया में ख़ुश नहीं है (किसी भी कारण से), तो उसे वह कलीसिया छोड़कर दूसरी कलीसिया के साथ जुड़ जाना चाहिए।

इस उदाहरण पर विचार करेंः मिलाप वाले तम्बू में, सिर्फ कहातियों (लेवी के वंशजों) को ही परमेश्वर के वाचा के सन्दूक को हाथ लगाने की अनुमति थी। जब उज्जा ने (जो कहाती नहीं था) उसे गिरने से बचाने के भले उद्देश्य से हाथ लगाया क्योंकि वह गिरने ही वाला था, तो परमेश्वर ने उसे मार गिराया (2 शमूएल 6:6,7)। हम इस घटना से क्या सीख सकते हैं?

कलीसिया परमेश्वर की है और उसकी आलोचना करने का अधिकार उसके अभिषिक्त सेवकों के द्वारा सिर्फ उसके ही पास है। प्रकाशितवाक्य अध्याय 2 व 3 में, हम देखते हैं कि प्रभु ने प्राचीनों और कलीसियाओं के लिए अपनी शिक्षाप्रद ताड़ना का प्रेरितों के द्वारा भेजा था।

इसलिए, अगर प्रभु द्वारा किसी को एक कलीसिया को सुधारने और उसकी आलोचना करने का अधिकार नहीं दिया गया है - चाहे उसके विचार से वह कलीसिया गिरने के कगार पर भी क्यों न हो, तो भी उसके लिए आलोचना करना उचित न होगा। परमेश्वर ऐसे उज्जाओं की मदद के बिना ही अपनी कलीसिया को बचा सकता है!

एक विश्वासी किसी ऐसे व्यक्ति को डाँट सकता है जिसने स्वयं उसके खिलाफ़ व्यक्तिगत रूप में पाप किया हो (जैसा कि हम लूका 17:3 और मत्ती 18:15 में पढ़ते हैं)। लेकिन अगर एक स्थानीय कलीसिया में उसके पास परमेश्वर का दिया अधिकार नहीं है, तो उसे एक स्थानीय कलीसिया की आलोचना करने का अधिकार नहीं है। इस मामले में हमारी कलीसियाओं में हरेक को उसकी सीमाओं का पता होना चाहिए। जब विश्वासी उनकी स्थानीय कलीसिया की आलोचना करते हुए उसमें कमियाँ ढूँढने लगते हैं, तब इससे यह साबित हो जाता है कि वे परमेश्वर का भय नहीं मानते। वे उज्जा हैं, और परमेश्वर किसी न किसी तरीक़े से उन्हें ज़रूर दण्ड देगा। उनके लिए सबसे सुरक्षित तरीक़ा यही है कि वे उसे कलीसिया को छोड़ कर चले जाएँ।

बहुमत अक्सर ग़लत होता है:

हम ऐसे लोगों के साथ कोई सँगति नहीं कर सकते जो परमेश्वर के वचन और उन बातों के खिलाफ़ शिक्षा देते हों जो यीशु ने सिखाई थीं। परमेश्वर के साथ अकेले खड़े रहना, परमेश्वर बिना एक भीड़ के साथ खड़े रहने से ज़्यादा अच्छा है।

यह बात याद रखें, कि आम तौर पर मसीही जगत में बहुमत अक्सर ग़लत ही होता है।

परमेश्वर के वचन में ऐसे पाँच उदाहरण हैं जिनमें हम यह देख सकते हैंः

  1. जब बहुमत बछड़े की पूजा कर रहा था, तब मूसा ने पूछा कि वे कौन हैं जो परमेश्वर के पक्ष में हैं। तब सिर्फ एक गोत्र (लेवी) उसके साथ आकर खड़ा हुआ। इस वजह से ही उन्हें याजकीय पद दिया गया था (निर्गमन अध्याय 32,33)। बहुमत (11 गोत्र) ग़लत थे।
  2. जब 12 जासूसों का दल कनान देश की जासूसी करने के लिए भेजा गया, तो उसमें से 10 (बहुमत) अविश्वासी थे (गिनती 13,14)। लेकिन परमेश्वर अल्पमत - यहोशू व कालेब के साथ था। उस दिन, बहुमत द्वारा लिए गए उस फैसले ने 6 लाख लोगों की नियति को मुहरबंद कर दिया था, और वे सभी आज्ञा न मानने की वजह से जंगल में ही मर मिटे थे।
  3. शाऊल द्वारा परमेश्वर के अभिषिक्त दाऊद पर हमला करने के फैसले की वजह से बड़ी बर्बादी हुई। इस्राएल का बहुमत उसके साथ था। लेकिन परमेश्वर दाऊद के साथ (1 शमूएल 16)। बाद में, जब अबशालोम ने अपने पिता दाऊद को देश से बाहर खदेड़ा, तब उसके साथ भी इस्राएल का बहुमत था। लेकिन परमेश्वर दाऊद के साथ था (2 शमूएल 15)।
  4. जब यीशु पृथ्वी पर आया, तब यहूदियों द्वारा उसे अस्वीकार करने के फैसले की वजह से वे लगभग 1900 सालों तक तितर-बितर होकर रहे थे। लेकिन परमेश्वर यीशु के साथ था, और उसने उसे मृतकों मे से जिला उठाया।
  5. पौलुस के जीवन के अंत में, उसके अधिकाँश मित्रों ने उसे त्याग दिया था। लेकिन प्रभु अंत तक पौलुस के साथ रहा था (2 तीमुथियुस 1:15; 4:16-18)।

अध्याय 10
परमेश्वर पर निर्भर होकर उसकी सेवा करना

जिस तरह धार्मिक मसीही जगत दुष्टता और धार्मिकता की अवधारणा को देखता है, और जिस तरह परमेश्वर का वचन उसे देखता है, इन दोनों नज़रियों में बहुत बड़ा फ़र्क है। धार्मिक मसीही जगत उन लोगों को दुष्ट मानता है जो पापमय काम करते हैं_ और उन लोगों का धार्मिक मानता है जो अच्छे काम करते हैं, सभाओं में जाते हैं, बाइबल पढ़ते हैं और प्रार्थना करते हैं।

लेकिन परमेश्वर का वचन कहता है, “दुष्ट वे हैं जो सिर्फ अपने आप में भरोसा रखते हैं और नाकाम होते हैं, धर्मीजन वे हैं जो परमेश्वर में भरोसा रखते हैं और जीवित रहते हैं” (हबक्कूक 2:4 - लिविंग बाइबल)। एक दुष्ट मनुष्य का चिन्ह् यह है कि वह अपना भरोसा अपने आप में ही रखता है, और एक धर्मीजन का चिन्ह् यह है कि वह अपना भरोसा परमेश्वर में रखता है।

परमेश्वर ने अदन की वाटिका में आदम और हव्वा के सामने यही चुनाव रखा था जिसका प्रतीकात्मक स्वरूप उन दोनों पेड़ों में था - भले और बुरे के ज्ञान का पेड़ और जीवन का पेड़। आप या तो भले का ज्ञान और बुराई का अपने भीतर वास पाएंगे, कि फिर आप ही यह फैसला करें कि क्या भला है और क्या बुरा है। यह स्वयं अपने आप में भरोसा रखने वाला जीवन है। या आप में परमेश्वर का जीवन हो कि फिर परमेश्वर आपको यह बताए कि क्या भला और क्या बुरा है। यह परमेश्वर में भरोसा रखने वाला जीवन है।

 यीशु ने कहा कि मनुष्य उस “हरेक शब्द से जीवित रहेगा जो परमेश्वर के मुख से निकलता है” (मत्ती 4:4)। यही नई वाचा के जीवन का पूरा आधार है - हमेशा परमेश्वर की सुनते रहना और जो कुछ वह कहता है उसके अनुसार जीवन जीना। इसका विकल्प अपने तर्क के अनुसार जीवन जीना है - जिसका प्रतीकात्मक रूप भले और बुरे के ज्ञान का वृक्ष है। इस वृक्ष से, एक व्यक्ति मनुष्यों की नज़र में एक बाहरी तौर पर खरा जीवन हासिल कर सकता है। लेकिन यह “परमेश्वर की नज़र में सिद्ध” नहीं होगा (प्रकाशितवाक्य 3:2), क्योंकि यह विश्वास का जीवन नहीं होगा - अर्थात् एक ऐसा जीवन जो हर पल परमेश्वर पर निर्भर रहता हो - जिसका प्रतीक जीवन का वृक्ष है।

हृदय का ख़तना

पुरानी वाचा की अनेक विधियाँ नई वाचा में पूरी हुई हैं। पुरानी वाचा में ख़तना एक बहुत महत्वपूर्ण विधि थी। निश्चय ही, एक ऐसी महत्वपूर्ण विधि का नई वाचा में एक आत्मिक सार्थकता होनी चाहिए - और वह इसमें है।

हमारे लिए इसके अर्थ का बयान फिलिप्पियों 3:3,4 में किया गया हैः “सच्ची ख़तना वाले तो हम हम ही हैं जो परमेश्वर की आत्मा में आराधना करते हैं, मसीह यीशु में महिमान्वित होते हैं, और शरीर पर भरोसा नहीं रखते।” ये तीनों अभिव्यक्तियाँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। आत्मा में आराधना करना सिर्फ मसीह को महिमान्वित करना है जो एक जीवन में प्रदर्शित होता है, और जिसका शरीर में कोई भरोसा नहीं होता।

दैहिक ख़तना में, पुरुष अपनी देह के एक हिस्से को काट देते हैं। आत्मिक ख़तना में हम अपने शरीर (स्वेच्छा-के-जीवन) में हमारे भरोसे को काट देते हैं और उसे मृत्यु के हवाले कर देते हैं। पुरानी वाचा में जिनका ख़तना नहीं होता था, वे इस्राएल का हिस्सा नहीं हो सकते थे (उत्पत्ति 17:14)। नई वाचा में, जिनका भरोसा स्वयं उनमें ही है, वे यीशु मसीह की सच्ची कलीसिया का हिस्सा नहीं हो सकते। वे लोग ही सच्ची कलीसिया का हिस्सा हैं जो सिर्फ यीशु में महिमान्वित होते हैं और जिनका अपनी ख़ुदी में कोई भरोसा नहीं है। अगर हमारा गर्व इस बात में होगा कि हमने अपनी कलीसिया को दूसरों द्वारा बनाई गई कलीसिया से बेहतर बना दिया है, तब परमेश्वर उसके द्वारा बनाई गई सच्ची कलीसिया में हमें कोई जगह न देगा।

प्रेरितों के काम 7:41 उन लोगों के बारे में बात करता है जो स्वयं उनके हाथों के कामों पर गर्व करते हैं। अगर हम उन बातों की बड़ाई करेंगे जो हमने हासिल की हैं, तो हम आत्मिक रूप में ख़तना-रहित होंगे। अगर आपको ऐसा लगता है कि स्वयं आपने कुछ हासिल किया है, तब आपका विश्वास निकम्मा हो गया है। तब परमेश्वर अपने प्रेम में ऐसा होने देगा कि आप “सारी रात मछली पकड़ने की कोशिश करते रहें फिर भी आपको कुछ न मिले” (यूहन्ना 21:3), कि वह आपको यह सिखा सके कि सच्चे विश्वास का अर्थ पूरी तरह उस पर निर्भर होना है।

एक दिन नबूकदनेस्सर ने अपने महल की छत पर खड़े होकर अपने उस महान् बाबुल राज्य पर गर्व किया जो उसने बनाया था (दानिय्येल 4:29,30)। उसके अन्दर जैसे ही यह विचार आया, परमेश्वर ने उसे राज्य में से निकाल दिया और उसे पशु-समान बना दिया। इसके बाद उसे अपना मानसिक संतुलन वापिस हासिल करने में अनेक साल लग गए थे। उसकी तरह, अनेक विश्वासी भी उनके भीतर उस पर गर्व करते हैं जो उन्होंने परमेश्वर के लिए हासिल किया है। लेकिन नबूकदनेस्सर ने आिख़र में अपनी भूल से मन फिरा कर परमेश्वर को महिमान्वित किया था (दानिय्येल 4:34-36)। उसके हृदय का अंततः ख़तना हो गया था। यह एक दुःखद बात है कि अनेक मसीही अगुवों ने इस आत्मिक ख़तना का अनुभव नहीं पाया है।

परमेश्वर चाहता है कि हमारे हृदय का ख़तना हो कि फिर हम उससे अपने सारे हृदय से प्रेम कर सकें (व्यवस्थाविवरण 30:6)। यही हृदय के ख़तना का चिन्ह् होता है। अगर हम स्वयं से प्रेम करते हैं और स्वयं अपने आप में गर्व करते हैं, तो हमारा ख़तना नहीं हुआ है।

मनुष्य की नहीं, परमेश्वर की ज़रूरत:

अगर आप प्रभु के लिए किए गए अपने काम में गर्व करने लगेंगे, तो चाहे परमेश्वर के दिए हुए दान-वरदान आपके पास ही रहें, फिर भी पवित्र आत्मा आपको छोड़ कर चला जाएगा। शैतान के पास परमेश्वर के दिए हुए वे दान-वरदान अब भी हैं जो एक सिद्ध स्वर्गदूत के रूप में उसकी रचना करते समय परमेश्वर ने उसे दिए थे। लेकिन उसने परमेश्वर का अभिषेक खो दिया है। एक समय में वह “एक अभिषिक्त करूब” था, लेकिन अब नहीं है (यहेज़केल 28:14)।

तब आपकी तथा-कथित “मसीही सेवकाई” परमेश्वर की ओर लक्षित सेवकाई नहीं पर लोगों की ओर लक्षित सेवकाई होगी। आपको इन दोनों सेवकाईयों के बीच फ़र्क जानने की ज़रूरत है। अनेक अगुवे लोगों के बीच में एक ज़रूरत को देखते हैं और उस ज़रूरत को पूरा करना चाहते हैं - और इस तरह वे यह कल्पना करने वाले हो जाते हैं कि वे परमेश्वर के लिए एक महान् काम कर रहे हैं। लेकिन उनके मनोभाव परमेश्वर की ज़रूरत की तरफ नहीं बल्कि मनुष्य की ज़रूरत की तरफ लक्षित होते हैं। मनुष्य की ज़रूरत उद्धार पाना, चँगाई पाना, छुटकारा पाना, आदि हो सकती हैं, लेकिन परमेश्वर की ज़रूरत उसके नाम का महिमान्वित होना, उसके राज्य का स्थापित होना, और जैसा हमें यीशु ने प्रार्थना करना सिखाया - उसकी इच्छा का पृथ्वी पर उसी तरह पूरा होना है जैसे वह स्वर्ग में पूरी होती है (मत्ती 6:9,10)। आपकी प्राथमिकताओं में “हमारी रोज़ की रोटी आज हमें दे” एक अच्छी प्रार्थना है, अगर वह “परमेश्वर का नाम पवित्र माना जाए” के बाद की जाती है। अगर आपकी सेवकाई एक प्राथमिक रूप में मनुष्यों की ज़रूरत को पूरी करने वाली होगी, तो वह सिर्फ एक सतही, खोखली और मनुष्य-केन्द्रित सेवकाई होगी।

हमारी प्राथमिक प्रार्थना यही होनी चाहिए कि कलीसिया में प्रभु यीशु का नाम महिमान्वित हो, यह नहीं कि लोगों की ज़रूरतें पूरी हों। यीशु ने कहा कि हमारी ज्योति इस तरह चमके कि जब लोग हमारे भले कामों को देखें तो वे परमेश्वर की महिमा करें (मत्ती 5:16)। जब हमारे हृदय का ख़तना हो जाता है, तब हमारी दिलचस्पी सिर्फ परमेश्वर को महिमान्वित करने में होती है। आत्मिक रूप में ख़तना-रहित मनुष्य की दिलचस्पी मनुष्य से महिमा पाने में होती है। जब लोग उससे कहते हैं जो वचन उसने बाँटा है उससे उन्हें आशिष मिली है, तो वह इस बात में गर्व करने लगता है।

इस्राएल ने उन कामों को देखा जो परमेश्वर ने किए थे, लेकिन मूसा ने परमेश्वर के मार्गों (तरीक़ों) को भी देखा था (भजन संहिता 103:7)। आज भी, अनेक मसीही जो परमेश्वर को नहीं जानते, सिर्फ उसके कामों से ही प्रभावित होते हैं। वे इस बात से ख़ुश होते हैं कि लोग उद्धार और चँगाई पा रहे हैं, आदि। लेकिन वे परमेश्वर के नाम को महिमान्वित करने की खोज में नहीं हैं।

हमारे हृदय की पहली विनती यह होनी चाहिए कि परमेश्वर का नाम पवित्र माना जाएँ हमारी पहली प्रार्थना हमारी बीमारियों, हमारी आर्थिक परेशानियों, हमारे परिवार की ज़रूरतों आदि के बारे में न हों, बल्कि यह कि हममें और हमारे द्वारा प्रभु का नाम महिमान्वित हो। यह हो सकता है कि दूसरे लोग हमें बहुत तकलीपफ़ दे रहे हों, लेकिन उन्हें हल करना हमारी पहली प्राथमिकता न हो। हमारी एकमात्र दिलचस्पी परमेश्वर की महिमा ही हो (1 कुरिन्थियों 10:31)। तब परमेश्वर हमारी बाक़ी सभी मुश्किलों से निपट लेगा। लेकिन इस तरह से विचारशील होने के लिए हमारे हृदय का ख़तना होना ज़रूरी है।

अनेक लोग यह सोचते हैं कि यीशु स्वर्ग से इसलिए नीचे उतर आया था क्योंकि उसने मनुष्यों की ज़रूरत को देखा था। लेकिन वह तभी आया था जब पिता ने उसे भेजा। आदम के पाप करने के 4000 साल तक उसने स्वर्ग में प्रतीक्षा की थी। हम यह सोच सकते हैं कि आदम के पाप करते ही यीशु को शीघ्र ही पृथ्वी पर आ जाना चाहिए था। लेकिन परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले हरेक काम का एक सही समय होता है।

जब यीशु ने लोगों की भीड़ को बिना चरवाहे की भेड़ों के रूप में देखा, तब उसने अपने चेलों से यह नहीं कहा कि वे जाकर उनकी ज़रूरत को पूरा करें। नहीं। उसने उनसे पिता से मज़दूर भेजने के लिए प्रार्थना करने को कहा (मत्ती 9:36-38)। सिर्फ पिता ही सच्चे चरवाहे भेज सकता है। आज हम मसीही जगत में जिस तरह से “मिशनरी चुनौतियों” को सुना जाता है, यह बात उससे बहुत अलग है, क्योंकि उन चुनौतियों में लोगों को एक ज़रूरत के बारे में बताया जाता है, और उनसे यह कहा जाता है कि वे परमेश्वर की बुलाहट का इंतज़ार किए बिना ही तुरन्त जाएँ और उस ज़रूरत को पूरा करें। आज परमेश्वर के काम में इतनी ज़्यादा उलझन और गड़बड़ के प्राथमिक कारणों में से यह एक कारण है।

पवित्र आत्मा की अगुवाई में:

अगर हम परमेश्वर के ऐसे जनों की सेवकाई का अध्ययन करें जिन्होंने कलीसियाएँ स्थापित कीं और उनके एक ही जीवन में बहुत सी उपलब्धियाँ हासिल कीं, तो हम यह पाएँगे परमेश्वर ने उनकी अगुवाई करते हुए उन्हें ठीक उस जगह में पहुँचाया था जहाँ वह उन्हें ले जाना चाहता था - या तो बीच बोने के लिए या फसल काटने के लिए। इस तरह अपने जीवनों के लिए उन्होंने परमेश्वर की योजना को एक अचूक रूप में पूरा किया था।

हमें तरह-तरह की सेवकाइयाँ आज़माने और कुछ समय बीतने पर यह जान लेने में अपने जीवन बर्बाद नहीं करना चाहिए कि वे हमारे लिए परमेश्वर की सिद्ध योजना नहीं थीं। ऐसी नाकामियों से बचने के लिए, हमें परमेश्वर की वाणी को सुनने की आदत को विकसित करना चाहिए कि हमारी सेवकाई के लिए हम उसकी योजनाओं को जान सकें - और फिर वही करें जो उसने करने के लिए कहा है, और वहीं जाएँ जहाँ उसने जाने के लिए कहा है। हम मनुष्यों द्वारा नहीं सिर्फ परमेश्वर द्वारा चलाए जाएँ।

परमेश्वर उनसे बात करता है जिनके पास उसके सम्मुख प्रतीक्षा करने और उसकी सुनने का धीरज होता है। बाइबल का पहला ही अध्याय हमें बताता है कि परमेश्वर हरेक दिन बात करता है - और जब वह बोलता है, तब चमत्कार होते हैं। आज भी, परमेश्वर यह चाहता है कि हम अपने दिन की शुरूआत उसकी आवाज़ को सुनते हुए करें और फिर दिन-भर उसकी सुनते रहें। “प्रतिभोर को वह मुझे जगाता है और मेरा कान खोलता है कि मैं शिष्य की तरह सुनूँ” (यशायाह 50:4)। हम सिर्फ तभी एक भरपूर जीवन जी सकते हैं जब हम “उस हरेक शब्द को निरंतर सुनते रहेंगे जो परमेश्वर के मुख से निकलता है” (मत्ती 4:4)। 

जब पौलुस गलातिया में से गुज़रते हुए एशिया माइनर को जा रहा था, तब पवित्र आत्मा ने उसे एशिया में वचन सुनाने से मना किया (प्रेरितों के काम 16:6)। हम देखते हैं कि पौलुस निरंतर यह मार्गदर्शन पाने के लिए परमेश्वर की सुनता रहता था कि वह कहाँ जाएँ इस तरह ही वह परमेश्वर की इच्छा में एक जगह से दूसरी जगह में जाता था - और इस तरह ही उसने उसके एक जीवन में इतना कुछ हासिल कर लिया था। और तब ऐसा हुआ कि उसे कुछ समय के लिए गलातियों के क्षेत्र में ठहरने का मौक़ा मिला। और तब गलातिया में कुछ कलीसियाएँ स्थापित हो सकी थीं। “एक धर्मीजन का चलना (और रुकना भी) प्रभु ही तय करता है” (भजन संहिता 37:23)।

जब हम गलातियों को लिखे पौलुस के पत्र को पढ़ते हैं, तो हम यह पाते हैं कि जिस तरह से पवित्र आत्मा ने पौलुस को गलातिया में रोका था, वह उसे बीमार पड़ जाने की अनुमति देने द्वारा किया था (गलातियों 4:13)। परमेश्वर के मार्ग अद्भुत हैं। तब गलातियों ने उसे परमेश्वर के एक दूत की तरह ग्रहण किया था हालांकि उस समय वह एक बीमार मनुष्य था (गलातियों 4:14)। गर्व से भरे अनेक मसीही परमेश्वर के एक बीमार सेवक का यह कहते हुए न्याय कर देंगे कि ज़रूर उसके जीवन में ऐसा कोई पाप होगा जिससे उसने अब तक मन नहीं फिराया है, और इसलिए उसमें चँगाई पाने योग्य विश्वास नहीं है। लेकिन गलातिया के लोग नम्र व दीन थे और उन्होंने पौलुस का इस तरह न्याय नहीं किया था। पौलुस ने भी अपनी बीमारी के बारे में कोई शिकायत नहीं की थी। इस तरह उसने परमेश्वर की सिद्ध योजना को पूरा किया था। अगर हम भी पौलुस की तरह पूरी तरह परमेश्वर को समर्पित होंगे, तब परमेश्वर हमारी बीमारियों को भी हमारे जीवनों के लिए उसकी सिद्ध योजनाओं को पूरा करने के लिए इस्तेमाल कर लेगा।

प्रेरितों के काम 16:10 में, कथानक एकाएक “उन्हें” से “हमें” हो जाता है। यही वह बिन्दु था जब वैद्य लूका (जिसने प्रेरितों के काम की पुस्तक लिखी है) आकर पौलुस के साथ जुड़ जाता है। पौलुस बीमार था, लेकिन ग़रीब होने की वजह से वह वैद्य के पास नहीं जा सकता था। इसलिए परमेश्वर ने वैद्य लूका को भेजा कि फिर उसकी यात्रओं में वह उसके साथ रहे। इस तरह प्रभु अपने ऐसे सभी सेवकों की हरेक ज़रूरत पूरी करता है जो उसमें भरोसा करते हैं, और जो उनके शरीर में कोई भरोसा नहीं रखते।

सेवकाई का प्रवाह हमारे भीतरी जीवन में से होना चाहिए:

अगर हम प्रकाशन की खोज में रहेंगे तो पवित्र शास्त्रों में ऐसा बहुत कुछ है जो हमें उत्साहित कर सकता है। पवित्र शास्त्र के मूल्यवान खज़ाने उसकी सतह पर नहीं हैं। अगर हमें उन्हें पाना है, तो हमें गहरा खोदना होगा और पवित्र आत्मा के प्रकाशन पाने के लिए ऊँचे स्वर से पुकारना होगा (नीतिवचन 25:2)।

पवित्र आत्मा इसलिए आया है कि वह यीशु की बातों को लेकर हम पर प्रकट करे (यूहन्ना 16:14)। यह यीशु द्वारा बीमारों को चंगा करने या दुष्टात्माओं को निकालने से जुड़ी बातें नहीं हैं। ये सब देखने के लिए आपको पवित्र आत्मा के प्रकाशन की ज़रूरत नहीं है। पवित्र आत्मा हम पर यीशु के भीतरी जीवन और उसके मनोभावों को प्रकट करने के लिए आया है। जैसे, प्रेरितों को यह नहीं मालूम था कि साढ़े तीन साल की जिस अवधि में वे यीशु के सँग-सँग चले थे, उसमें हर समय वह बिलकुल उन्हीं की तरह परखा जा रहा था, लेकिन फिर भी उसने कभी पाप नहीं किया था। उन्हें यह प्रकाशन तभी मिला जब वे पवित्र आत्मा से भर गए थे।

यीशु की पूरी सेवकाई उसके भीतरी जीवन में से प्रवाहित होती थी। हमारी सेवकाई भी हमारे भीतरी तौर पर परमेश्वर के सँग-सँग चलने में से आनी चाहिए। वर्ना हमारी सेवकाई सतही/उथली होगी। अनेक विश्वासी बाहरी तौर पर अच्छे नज़र आते हैं - जैसे प्लाईवुड पर किया गया साग का लेप। अगर कोई उन्हें छेड़ देता है, तो जो भीतर होता है वह बाहर आ जाता है - जैसे लेप को खुरच देने से प्लाईवुड बाहर आ जाता है। लेकिन जब परमेश्वर हममें एक काम करता है, तो वह हमारे अस्तित्व की गहराइयों में उतर जाता है। परमेश्वर हमारे हृदयों का ख़तना कर देता है। तब हम एक पूरे और गहरे तौर पर असली बन जाएँगे।

परमेश्वर के सम्मुख छिपा हुआ जीवन:

नई वाचा में, विश्वास का अर्थ है परमेश्वर में भरोसा रखना, उसे महिमा देना, और अपने आप में कोई भरोसा न रखना। यीशु ने कहा कि कुछ लोगों में विश्वास न होने की वजह यह है कि वे मनुष्यों का आदर पाना चाहते हैं (यूहन्ना 5:44)।

कलीसिया में दो भाई ऐसे हो सकते हैं जो बाहरी और प्रत्यक्ष रूप में नम्र व दीन नज़र आते हैं, और जो बहुत सा “भला” काम भी करते हैं। लेकिन यह हो सकता है कि उनमें से सिर्फ एक ही परमेश्वर के सम्मुख रहता हो, सिर्फ यीशु की ओर देखता हो और अपना न्याय करता हो; वह जानता है कि वह स्वयं कुछ नहीं कर सकता इसलिए पूरी तरह से प्रभु का सहारा लिए रहता है। दूसरा भाई जो नम्र व दीन नज़र आता है, आत्म-निर्भर और भीतरी तौर पर यह कल्पना करने वाला हो सकता है कि वह दूसरों से बेहतर है! पहले भाई का काम विश्वास का काम होगा जो अनन्त में बना रहेगा। दूसरे भाई का काम इसी पृथ्वी पर नाश हो जाएगा।

इसलिए, सिर्फ परमेश्वर के सम्मुख रहें। और अपनी तुलना सिर्फ यीशु से ही करें - और अपनी तुलना कभी किसी दूसरे से न करें। “जो अपनी तुलना से करते है वे आत्मिक रूप में मूर्ख होते हैं” (2 कुरिन्थियों 10:12)।

एलिय्याह परमेश्वर के सम्मुख खड़ा रहकर बोलता था (1 राजा 17:1)। अगर हम भी सिर्फ प्रभु के सम्मुख खड़े रहकर बोलेंगे, तब हम लोगों को प्रभावित करने के लिए नहीं बोलेंगे।

जब इस्राएल मार्ग से भटक गया था, तब परमेश्वर ने कहा कि क्योंकि लेवीयों ने ख़तना-रहित लोगों को मन्दिर में आने की अनुमति दी थी, इसलिए उस समय के बाद से वे उसकी नहीं सिर्फ लोगों की सेवा करेंगे (यहेज़केल 44:6-14)। उनकी यह सज़ा थीः अब वे प्रभु की सेवा नहीं कर सकते थे।

लेकिन सादोक के पुत्रें को, जो लोगों की तरह भटके नहीं थे, प्रभु की सेवा करने की अनुमति दी गई (यहेज़केल 44:15)। लोगों की सेवा करने और प्रभु की सेवा करने में बहुत बड़ा फ़र्क है।

सादोक के पुत्र जब भीतरी पवित्र-स्थान में प्रभु की सेवा करने के बाद, बाहर लोगों के पास जाते थे, तब प्रभु ने उनसे कहा कि वे उनके मलमल के (पवित्र) वस्त्र पवित्र स्थान में ही छोड़ कर जाएँ (यहेज़केल 44:19)। वे उन्हें लोगों को नहीं दिखाने थे। हमारे भीतरी जीवन में हमारा प्रभु के साथ जो गुप्त व्यवहार होता है, उसे हमें लोगों के सामने प्रदर्शित नहीं करना होता। जब हम उपवास करें, तो हम किसी को यह न बताएँ कि हम उपवास कर रहे हैं (मत्ती 6:17,18)। हमारी परमेश्वर के साथ हुई निजी बातचीत के बारे में दूसरों को बताने से हम उन्हें पवित्र नहीं बना सकते। सिर्फ वे लोग ही पवित्र हो सकते हैं जिनके हृदय का ख़तना हो गया है।

वे जो विश्वास से जीते हैं, उनका परमेश्वर के साथ गुप्त में चलना होता है। अगर कोई उनकी सराहना करता है, तो वे तुरन्त परमेश्वर को महिमा देते हैं - बाहरी तौर पर लोगों के सुनते हुए नहीं (उनका आदर पाने के लिए), बल्कि गुप्त रूप में, भीतरी तौर पर।

आत्मिक घमण्ड से अपने आपको बचाए रखना मुश्किल होता है, लेकिन अगर परमेश्वर यह देखेगा कि असल में हम यही चाहते हैं, तो वह हमारी मदद करेगा। अगर वह यह देखेगा कि हमारी लालसा यह है कि हम नम्रता-पूर्वक उसके सम्मुख चलें, तो हम जब भी अपनी नज़रों में बड़े होने लगेंगे, वह ऐसे हालात तैयार कर देगा कि हम नम्र व दीन हो जाएँगे। उसने पौलुस की देह में एक काँटा चुभाने द्वारा उसकी मदद की थी। और वह हमारी भी इसी तरह मदद करेगा।

अगर हममें विश्वास होगा, तो हमारे लिए सब कुछ सम्भव होगा (मरकुस 9:23)। अनेक लोग परमेश्वर का वचन पढ़ते हैं, लेकिन उनमें से वे उसकी वाणी को नहीं सुनते। विश्वास पढ़ने से नहीं बल्कि मसीह के शब्दों को सुनने से होता है (रोमियों 10:17)। ऐसा नहीं लिखा है कि उनके लिए सब कुछ सम्भव है जो पाप पर जय पाते हैं, बल्कि उनके लिए जिनमें विश्वास है। अगर हम अपने जीवनों में पवित्र हैं लेकिन हममें विश्वास नहीं है, तो हम परमेश्वर से ज़्यादा कुछ नहीं पा सकते।

मसीह की देह द्वारा अनुशासित किया जाना:

हमें अपनी चुनी हुई किसी भी जगह में नहीं, बल्कि वहीं जाना चाहिए जहाँ परमेश्वर चाहता हो। अगर हम स्वयं अपने जीवनों की योजना बनाएंगे, तो हम अनन्त रूप में मूल्यवान कुछ भी हासिल नहीं कर पाएंगे। मानवीय रीति से कहें, तो हममें भिन्नताएं होती हैं। कुछ लोग चतुर होते हैं, जबकि दूसरे ऐसे नहीं होते। लेकिन पवित्र आत्मा का अभिषेक है जो हमें परमेश्वर के काम के लिए प्रभावी बनाता है, और यह हमारी मानवीय योग्यताओं पर नहीं बल्कि विश्वास और नम्रता पर निर्भर होता है।

मनुष्य के मुख में से वही बाहर आता है जो उसके हृदय में भरा होता है (मत्ती 12:34)। अगर आप अपने शब्दों के प्रति सचेत रहेंगे, तो भी आपकी बोली का स्वर आपके हृदय के कुछ घमण्ड को ज़रूर प्रकट कर देगा। अगर आप ऐसे घमण्ड को जान लेते हैं और अपने आपको नम्र व दीन कर लेते हैं, तो आप एक आशिषित व्यक्ति हैं।

पवित्र आत्मा भी किसी दूसरे भाई में मसीह-समान नम्रता दिखा कर हमें दोषी ठहरा सकता है। हम न सिर्फ उन संदेशों में से जो हम सुनते हैं, बल्कि ईश्वरीय भाइयों के जीवनों में से भी परमेश्वर की महिमा को देख सकते हैं।

जब हम कलीसिया में प्रवेश करते हैं, तब हमारे आकार और नाप अलग-अलग होते हैं - बौद्धिक, व्यावसायिक, आदि भिन्नता। लेकिन प्रभु हम सभी को उसके अनुशासन के द्वारा एक ही स्तर पर नीचे ले आना चाहता है। जो इस तरह से शुद्ध होने में दिलचस्पी रखते हैं, उनके लिए सच्ची कलीसिया में होना ही सबसे अच्छा है। अगर हम अपने हृदयों का ख़तना चाहते हैं, तो हमें ऐसे हरेक हालात को गले लगाना होना जिसे परमेश्वर हमें तोड़ने और नम्र व दीन करने के लिए इस्तेमाल करता है।

परमेश्वर जवाब देने में देर क्यों करता है

हमें यह समझ सकते कि परमेश्वर हमारी कुछ प्रार्थनाओं का जवाब देने में क्यों देर करता है। लेकिन उसके मार्ग सिद्ध हैं और वह हमारे मार्गों को भी सिद्ध बनाता है (भजन संहिता 18:30, 32)।

यीशु ने (प्रेरितों के काम 1:7 में) कहा, कि हमें होने वाली घटनाओं के समयों को जान लेने की अनुमति नहीं है, क्योंकि परमेश्वर ने इस बात को अपने अधिकार में रखा है।

कुछ मामले सिर्फ परमेश्वर के अधिकार में ही रहते हैं। जैसे, मनुष्यों को यह अनुमति नहीं हैः

  1. कि वे आराधना ग्रहण करें (मत्ती 4:10)_
  2. कि वे महिमा ग्रहण करें (यशायाह 42:10)_
  3. कि वे अपना बदला लें (रोमियों 12:19)_
  4. घटनाओं के समयों को जानें (प्रेरितों के काम 1:7)।

ये चारों बातें परमेश्वर के अधिकार-क्षेत्र में हैं। सभी मसीही पहले और दूसरे अधिकार को तो मान लेते हैं। और अनेक तीसरी बात को भी मान लेते हैं। लेकिन आत्मिक मनुष्य चौथी बात को भी सहर्ष उसी तरह मान लेते हैं जैसे वे पहली तीन बातों को मान लेते हैं। इसलिए जब प्रभु हमारी कुछ प्रार्थनाओं का जवाब देने में देर करता है, तो हमें नम्र होकर उसकी इच्छा को स्वीकार कर लेना चाहिए।

परमेश्वर अब भी सिंहासन पर विराजमान है, और वह हमेशा अपने लोगों को याद रखता है, और वह सब बातों को मिलाकर उनके लिए भलाई पैदा करता है।

“जो प्रभु की ओर में है, उसका कोई मौक़ा नहीं चूकता, वह हमेशा ही जीतता है,

जो प्रभु की मज़ीर् की क़ीमत अपनी ख़ुदी से चुकाता है, वही उसकी ज़्यादा मिठास पाता है।”

इसलिए, “हम प्रार्थना और वचन की सेवा में लगे रहें” (प्रेरितों के काम 6:4)। तब हम बिना कोई रुकावट परमेश्वर के राज्य का प्रचार करते रहेंगे और प्रभु यीशु की बातें सिखाते रहेंगे (प्रेरितों के काम 28:31)।

हममें से जीवन के जल की नदियाँ बह निकलती हैं:

सारे जगत में ऐसे ज़रूरतमंद विश्वासी हैं जिन्हें नई वाचा का सुसमाचार सुनने की ज़रूरत है। इन दिनों अनेक देशों में विश्वासियों का ऐसे प्रचारकों द्वारा शोषण किया जा रहा है जो उनका धन लूटना चाहते हैं, और ऐसे झूठे मसीही पंथों के अगुवे भी हैं जो उन पर अपना प्रभुत्व जमाना चाहते हैं। हमारी बुलाहट बंधनों में जकड़े ऐसे सभी विश्वासियों की आज़ादी का ऐलान करने के लिए है।

हम कहाँ जाएँ, यह जानने के लिए हमें पवित्र आत्मा की अगुवाई के प्रति संवेदनशील होने की ज़रूरत है (यशायाह 30:21)। वह समय अब नज़दीक ही है जब अनेक विश्वासी सत्य सुनना न चाहेंगे। इसलिए हम हर समय वचन का प्रचार करने के लिए तैयार रहें - हमारी सुविधा में, और हमारी असुविधा में भी (2 तीमुथियुस 4:2,3)।

इसलिए, हम परमेश्वर की प्रतिज्ञा पर अपना आधिकारिक दावा करें और यह विश्वास करें किः

“हमारी कलीसिया में से हरेक दिशा में जीवन के जल की नदियाँ बह निकलेंगी -पूरे साल- पूर्व की ओर, और पश्चिम की ओर” (ज़कर्याह 14:8)।

लेकिन जीवन का यह जल हममें से होता हुआ दूसरों की ओर कैसे प्रवाहित होगा?

भजन संहिता 23:5 में, हम पढ़ते हैं कि “हमारा प्याला उमड़ रहा है।”

“उमड़ रहा है” के लिए मूल इब्रानी शब्द “रैवय्याह” इस्तेमाल किया गया है। बाइबल में यही शब्द (इब्रानी में) सिर्फ एक ही जगह और इस्तेमाल किया गया है - भजन संहिता 66:12 में, जहाँ उसका अनुवाद “भरपूरी की जगह” किया गया है।

इसलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उस जगह में पहुँचने के लिए जहाँ जीवन के जल से “हमारा प्याला उमड़ने” लगता है, हमें भजन 66:12 से पहले के पदों के अनुभव में से होकर गुज़रना पड़ेगा - मतलब पद 10-12, जिनमें हम यह पढ़ते हैंः

l परमेश्वर हमें चाँदी की तरह शुद्ध करेगा

l परमेश्वर हमें जाल में (मुश्किल हालातों में) फँसाएगा

l परमेश्वर दूसरों को हम पर भारी बोझ डालने की अनुमति देगा

l परमेश्वर दूसरे लोगों को हमें रौंदने देगा

l परमेश्वर हमें धधकती “आग” (अग्निमय परीक्षाओं) में डालेगा

l परमेश्वर हमें “बर्फीले ठण्डे पानी” में डालेगा जहाँ हमें उसके मौजूद होने की कोई ‘अनुभति’ नहीं होगी।

वे जो उनके जीवनों में परमेश्वर के ऐसे अनुशासनों को स्वीकार करते हैं, अंततः हम यह पाएँगे कि उनके प्यालों में से आशिषें उमड़ कर दूसरों के पास पहुँच रही हैं। प्रभु की स्तुति हो!

अध्याय 11
आत्मिक घमण्ड और परमेश्वर का समर्थन/सराहना

अगर कोई ऐसी दो बातें हैं जो प्रभु के लिए घृणित हैं, तो वे पाखण्ड और आत्मिक घमण्ड हैं।

अगर हम इन दोनों को सबसे बड़ी बुराइयों के रूप में नहीं जानेंगे, तो हम बड़े ख़तरे में पड़ जाएँगे। जब यीशु पृथ्वी पर था, तब उसने फरीसियों में इन्हीं दो बुराइयों को देखा था, और इस वजह से ही उसने ऐसी ताड़ना के शब्दों से उनकी धज्जियाँ उड़ाईं थीं जैसे शब्द उसने कभी किसी के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किए थे (मत्ती अध्याय 23)। वह आज भी वैसा ही है, और उसे जहाँ भी फरीसीवाद नज़र आएगा, वह वहाँ उसकी वैसी ही ताड़ना करेगा, और अगर वह उसे कलीसियाओं के प्राचीनों में नज़र आएगी, तो उनकी और भी ज़्यादा ताड़ना करेगा।

परमेश्वर हरेक घमण्डी व्यक्ति से घृणा करता है - चाहे विश्वासी हो या अविश्वासी, प्राचीन हो या युवा। वह सिर्फ दीनों को कृपा देता है - और वह कोई पक्षपात नहीं करता (1 पतरस 5:5)। इसका एक सजीव चित्रण इस तरह होगाः अगर हम नम्र व दीन होंगे, तो परमेश्वर हमारे पीछे आकर हमारे मसीही जीवन में लगातार आगे धकेलता रहेगा। लेकिन अगर हम घमण्डी होंगे, तो वह हमारे आगे आकर हमें लगातार पीछे धकेलता रहेगा। शैतान, सँसार और शरीर हमें पहले ही पीछे धकेल रहे हैं। इसलिए, अगर परमेश्वर भी हमें पीछे धकेलने लगेगा तो हमारे पास कोई आशा न होगी। अनेक प्राचीन कभी आत्मिक उन्नति नहीं करते और उनके संदेशों में क्यों अभिषेक नहीं होता, इसकी पहली और सबसे बड़ी वजह घमण्ड है।

इसलिए, अगर हमें प्रभावशाली अगुवे होना है, तो हमें नम्रता व दीनता की खोज में लगे रहना होगा।

यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले का उदाहरण:

नम्रता व दीनता के मामले में, यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला हमारे लिए एक बड़ा उदाहरण है। वह परमेश्वर द्वारा भेजा गया था कि वह लोगों को मसीह के पहले आगमन के लिए तैयार करे। और अब हमारी बुलाहट लोगों को मसीह के दूसरे आगमन के लिए तैयार करने की है।

ये कुछ ऐसे महत्वपूर्ण पाठ हैं जो हम यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले से सीख सकते हैं, जिसे यीशु ने सबसे बड़ा नबी कहा थाः

  1. यूहन्ना ने कहा कि वह सिर्फ एक आवाज़ है (यूहन्ना 1:19-23)। वह अपनी पहचान एक नबी या परमेश्वर के जन के रूप में नहीं चाहता था। वह परमेश्वर के लिए सिर्फ एक आवाज़ होने में ही संतुष्ट था।
  2. वह घटना और ज़्यादा घटते रहना चाहता था, कि यीशु दूसरों की नज़र में बढ़े और ज़्यादा बढ़ता रहे (यूहन्ना 3:30)।
  3. उसने कहा कि वह यीशु के जूती उठाने के लायक़ भी नहीं है (मत्ती 3:11)। यीशु के साथ हमारी चाहे कितनी भी नज़दीकी हो, लेकिन हम उस आदर-युक्त भय को कभी न खो दें जो उसके परमेश्वर होने का हममें है।
  4. यूहन्ना ने अपने विद्यापन नहीं दिए थे, फिर भी बहुत से लोग उसकी बात सुनने के लिए आए (मत्ती 3:5)। अगर आप परमेश्वर के एक अभिषिक्त जन होंगे जिसके पास परमेश्वर का संदेश होगा, तो परमेश्वर का भय मानने वाले आपकी सुनने के लिए मीलों दूर से भी आएँगे, चाहे आपकी कलीसिया एक ऐसे बाहरी क्षेत्र में भी क्यों न हो जैसे यूहन्ना एक रेगिस्तानी क्षेत्र में प्रचार कर रहा था।

यह एक सुन्दर कविता है जो हमें बताती है कि हम जब भी परमेश्वर के वचन का प्रचार करें, तो हमें कैसे स्वयं को छिपाते हुए मसीह को ऊँचा उठाना चाहिएः

उस दिन उसने सत्य के दीपक को बहुत नीचा रखा,

इतना नीचा कि ऐसा कोई न बचा जिसने वह न देखा;

फिर भी इतना ऊँचा कि सबने अपनी नज़रें वहाँ लगाईं,

वह सुन्दर नज़ारा, जहाँ जगत की बड़ी ज्योति जगमगाई;

दीपक के बीच में से ऊपर देखा जा रहा था, लेकिन

उसे थामे हुआ हाथ, मुश्किल ही नज़र आ रहा था;

उसने नीचे झुक कर सुराही को थामा हुआ था,

छोटे-छोटे बच्चों के होठों से उसे लगाया हुआ था;

फिर उसने उसे थके-मांदे संत की तरफ बढ़ाया,

जो रोगी और निढाल था, उसे पीने को बुलाया;

इस तरह, उस सुराही में से तो हरेक पी रहा था, लेकिन

उसे थामे हुआ हाथ, मुश्किल ही नज़र आ रहा था;

उसने तुरही बजाई, उसकी सापफ़ और मीठी आवाज़ आई,

डरते-थरथराते पापियों ने इससे बड़ी तसल्ली पाई;

फिर बुलन्द और ऊँची आवाज़ में उसका स्वर फूटा,

तब शैतान की दीवार ढह गई, उसका शिकँजा टूटा,

तुरही का हर्षनाद अब ऐसा सुनाई दे रहा था, लेकिन

उसे थामे हुआ हाथ, मुश्किल ही नज़र आ रहा था;

लेकिन जब सेनानायक ने पुकारा और कहा, ‘शाबाश,

मेरे अच्छे और विश्वास-योग्य दास, आ, अब ऊपर आ,

अपनी सुराही छोड़ दे, अपना दीपक भी रख दे,

तेरी तुरही नीचे रख दे, अपने डेरे को भी छोड़ दे,’

तब, वह थका-माँदा हाथ, सबकी नज़र के सामने होगा

उसमें अब कुछ न होगा, बस, वह छिदे हुए हाथों होगा।

अगर हम ऐसे होने के लिए वास्तव में उत्सुक होंगे, तब मसीह हममें नज़र आएगा, और हमारे जीवनों के द्वारा परमेश्वर की महिमा होगी। लेकिन शैतान हमें नाश करने के लिए अनेक बातों में हमें घमण्ड करने वाला बनाएगा। इसलिए हमें सचेत रहना होगा।

हम जिस क्षण प्राचीन होने को किसी ऐसे काम से बड़ा समझने लगेंगे जो एक सेवक घर में करता है, और जैसे लोगों के पाँव धोना होता है (जैसे यीशु ने धोए थे), तो हम यह निश्चित रूप में जान लें कि घमण्ड ने प्रवेश कर लिया है, और हमारा विश्वास से भटकना शुरू हो गया है। तब फिर परमेश्वर की कृपा-दृष्टि से दूर से दूर हो जाने में हमें ज़्यादा समय नहीं लगेगा। अगर हम अपने प्राचीन पद से प्रेम करने लगेंगे, तो हम यक़ीनन जान लें कि हम पहले ही भटक चुके हैं।

पाप जो द्वार पर दुबका बैठा है

आत्मिक घमण्ड वह पाप है जो ऐसे सभी लोगों के द्वार पर दुबका बैठा रहता है जिनकी कलीसिया में कुछ सेवकाई है। पौलुस ने भी यह स्वीकार किया था कि वह भी स्वयं को ऊँचा उठाने के ख़तरे में पड़ा रहता है (2 कुरिन्थियों 12:7)। लेकिन वह उससे इसलिए बच सका क्योंकि उसने उस ख़तरे को जान लिया था। अगर हम भी लगातार आत्मिक घमण्ड के ख़तरे के प्रति सचेत रहेंगे, तो वह कभी हमारे हृदय में प्रवेश न करने पाएगा।

हर समय, हमें पवित्र आत्मा को यह अनुमति देते रहना चाहिए कि वह हमें यीशु की नम्र्रता की महिमा को दिखाता रहे जिसने यह चुनाव किया कि पृथ्वी पर बिताए गए उसके पूरी जीवनकाल में “मनुष्य उसे तुच्छ समझें और उसे त्याग दें” (देखें यशायाह 53:3)। हमें अपने लिए एक नाम कमा लेने के विचार से भी घृणा करनी चाहिए - हम न तो अपनी आत्मिकता के लिए, और न ही अपनी सेवकाई के लिए कोई नाम कमाने के बारे में सोचें।

हमें अपनी कलीसिया में पाप की ताड़ना साहस के साथ करनी चाहिए। लेकिन हमारे पास यह करने का ईश्वरीय अधिकार तभी हो सकता है जब पहले हम अपने आपको शुद्ध करने में विश्वास-योग्य रहे होंगे। हम कलीसिया में सिर्फ उस बात का ही न्याय कर सकेंगे जिसका न्याय हमने शरीर में कर लिया है - बस, इससे ज़्यादा हम कुछ न कर सकेंगे। जो कुछ हमने स्वयं अपने शरीर में देख लिया है, और जिसका हमने न्याय कर लिया है, उससे आगे बढ़ कर किया जाने वाला सारा प्रचार सिर्फ एक पाखण्ड ही होगा।

आत्मिक घमण्ड जो परमेश्वर द्वारा आशिष देने से आता है

आत्मिक घमण्ड एक ऐसा बड़ा ख़तरा है जिसका सामना हममें से हरेक को हर समय करना पड़ता है - और ख़ास तौर पर उस समय जब प्रभु हमारे काम को आशिष देता है। तब हमारे लिए यह कल्पना कर लेना आसान हो जाता है कि “हम कुछ हैं”, जबकि हम हमेशा ही कुछ भी नहीं” ही रहते हैं। तब परमेश्वर स्वयं हमारा विरोध करेगा और हमारे खिलाफ लड़ेगा - क्योंकि कोई चाहे कुछ भी हो, परमेश्वर सभी घमण्डी लोगों का विरोध करता है। जब हम दान-वरदान पाए हुए होते हैं, या जब हमारे व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में सब कुछ अच्छा चल रहा होता है, या जब हमारी कलीसिया उन्नत हो रही होती है, या जब हम भौतिक रूप में सम्पन्न् हो जाते हैं, तब हमारे लिए घमण्ड से भर जाना बहुत आसान हो जाता है।

हमें बाक़ी किसी भी पाप से ज़्यादा, हमारे आत्मिक घमण्ड और स्वार्थ पर ज्योति (समझ) पाने की ज़रूरत होती है। इन क्षेत्रों में हमें अपने आपको धोखा देना बहुत आसान होता है। हम यह कल्पना कर सकते हैं कि हम बहुत नम्र व निःस्वार्थी हैं जबकि असल में हम बहुत घमण्डी और स्वःकेन्द्रित हो सकते हैं। शैतान बहुत बड़ा धोखेबाज़ है।

आत्मिक घमण्ड के ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनके द्वारा आप अपने आपको जाँच कर परख सकते हैं कि आपकी दशा असल में क्या हैः बुरा मानना, क्रोधित हो जाना, लैंगिक अशुद्धता के विचार, अपनी ग़लती न मानना, क्षमा-याचना में देर करना, कलीसिया में अपने साथी-विश्वासियों के साथ सहभागिता में देर करना, आदि।

ऐसा क्यों है कि एक बड़ा भाई अपनी पत्नी के साथ तो अपनी सहभागिता को शीघ्र ही पुनःस्थापित कर लेता है, लेकिन दूसरे विश्वासियों और प्राचीनों के साथ सहभागता स्थापित करने में विलम्ब करता है, हालांकि यीशु ने हमें यह आज्ञा दी है कि हम अपने भाइयों को बिलकुल वैसा ही प्रेम करें जैसा हम अपनी पत्नियों से प्रेम करते हैं? (इफिसियों 5:25 और यूहन्ना 13:34 बिलकुल एक जैसी आज्ञाएं हैं)। ऐसा इसलिए है क्योंकि उसे अपने घर में शांति बनाए रखने की बड़ी ज़रूरत होती है। लेकिन कलीसिया में वह अपने भाइयों के साथ शांति की वैसी ही बड़ी ज़रूरत महसूस नहीं करता है! उसके स्वार्थ और आत्मिक घमण्ड ने उसे पवित्र आत्मा की उस धीमी आवाज़ को सुनने की तरफ से अंधा/बहरा कर दिया है जो उसे उसके भाइयों के सम्मुख दीन होने और उनसे क्षमा-याचना करने के लिए कहती है।

आत्मिक घमण्ड बेबीलोन तैयार करता है

एक घमण्डी प्राचीन उसकी कलीसिया को एक तानाशाह की तरह और एक कम्पनी के प्रमुख अधिकारी की तरह ही चलाएगा। ऐसा पुरुष कभी मसीह की देह तैयार नहीं कर सकता।

आत्मिक घमण्ड देह और मुख में से आने वाली दुर्गन्ध की तरह होता है। हम स्वयं उसे नहीं सूंघ पाते लेकिन दूसरे उसे सूंध सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, जब एक अगुवा अपनी सेवकाई की बड़ाई करता है, तो उस समय उसे यह अहसास नहीं होता कि उसके अन्दर से आत्मिक घमण्ड की दुगन्ध आ रही है। लेकिन एक ईश्वरीय व्यक्ति तुरन्त ही उसके आत्मिक घमण्ड को महसूस कर लेगा।

एक प्राचीन का आत्मिक मनोभाव उसकी कलीसिया को एक बेबीलोनी कलीसिया बना देगा - वही मनोभाव जो हमने नबूकदनेस्सर में देखा था (दानिय्येल 4:3)। परमेश्वर ने उसे तुरन्त ही अस्वीकार करते हुए एक दीन अवस्था में पहुँचा दिया था।

यीशु ने एक बार एक ऐसे फरीसी के बारे में बताया जो यह कहते हुए प्रार्थना कर रहा था, "हे परमेश्वर, मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ कि मैं दूसरे लोगों की तरह नहीं हूँ...” (लूका 18:11)। परमेश्वर ने उसे भी तुरन्त ही अस्वीकार कर दिया था। 

प्राचीन जो राजनैतिक नेताओं की तरह बर्ताव करते हैं

यह बहुत आसान है कि एक प्राचीन एक राजनेता की तरह बर्ताव करना शुरू कर दे - ऐसी बातें बोलना और ऐसे काम करना शुरू कर दे जिसमें सिर्फ प्रभु की सराहना पाने की खोज में रहने की बजाय, वह अपनी कलीसिया के लोगों का समर्थन पाने की खोज में लग जाएँ अगर आप ऐसा करेंगे तो आप न सिर्फ विश्वास के मार्ग से भटकने वाले बन जाएँगे, बल्कि किराए के मज़दूर बन जाएँगे। ऐसा कोई भी व्यक्ति जो मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहता है, वह मसीह का सेवक नहीं हो सकता (गलातियों 1:10)।

हम सभी की ज़रूरत यह नहीं है कि हमारी कलीसियाओं के भाइयों और बहनों या किसी प्रेरित का भी समर्थन या सम्मान पाएं, बल्कि यह कि हम परमेश्वर की सराहना/समर्थन पाएँ। अगर आप सही मनोविज्ञान और प्रबंधन (मैनेजमैन्ट) के तरीक़े इस्तेमाल करें, तो मनुष्य का समर्थन पाना आसान होता है! सभी को प्रसन्न रखने द्वारा, आप कलीसिया में अपनी प्राचीन होने की जगह को बनाए रख सकते हैं। लेकिन तब परमेश्वर न तो आपसे और न आपकी कलीसिया से प्रसन्न होगा।

पौलुस ने यह समझ लिया था कि उसे अपना सारा काम एक भेंट के रूप में परमेश्वर को अर्पित करना था, इसलिए यह ज़रूरी था कि वे परमेश्वर की नज़र में ग्रहणयोग्य हों (रोमियों 15:16)। परमेश्वर की सराहना पाना आसान बात नहीं है - क्योंकि वह हमारे विचारों, इरादों, मनोभावों और उद्देश्यों को परखता है। अगर हम अपनी स्वेच्छा के जीवन को एक गुप्त रूप में मौत के हवाले नहीं करते रहेंगे, तो हमारे काम के नतीजे परमेश्वर की नज़र में कभी स्वीकार्य नहीं होंगे।

हम सभी ग़लतियाँ करते हैं, और जब तक हम परिपक्व नहीं होते तब तक अनेक मूर्खता-भरे काम करते हैं। लेकिन अगर हम ऐसी आदत बना लें कि हम अपनी हरेक ग़लती और मूर्खता-भरे काम से सीखते रहेंगे, तो हम बड़ी प्रगति कर सकते हैं। लेकिन एक ग़लती को दोहराना, एक ऐसे कुत्ते के समान होना है जो अपनी छांट (उलटी) को फिर चाटता है (नीतिवचन 26:11)।

आत्मिक घमण्ड पर जय पाना

आत्मिक घमण्ड बड़े भाइयों के प्रति, और जिनकी साक्षी स्वयं परमेश्वर ने दी है उनके प्रति, आदर-सम्मान की कमी पैदा करता है। ऐसा प्राचीन अपनी कलीसिया में दूसरों से यह अपेक्षा करेगा कि वे उसके अधीन हों, लेकिन वह स्वयं ऐसे किसी अधिकार के अधीन होने के लिए तैयार नहीं होगा जो परमेश्वर ने उसके ऊपर नियुक्त किया है। आदर-सम्मान की यह कमी अंत के इन दिनों में मसीहियों में बढ़ती जाएगी। आज हम अपने आसपास बहुत से बच्चों और युवाओं में इस आदर-सम्मान की कमी को तब देख सकते हैं जब वे अपने से बड़े, ईश्वरीय भाइयों के साथ बातचीत करते हैं।

दियुत्रिफेस (3 यूहन्ना 9), और यूहन्ना ने विश्वास से भटक जाने वाले जिन पाँच प्राचीनों को लिखा था (प्रकाशितवाक्य अध्याय 2), वे हम सब के लिए एक चेतावनी हैं। जैसा कि हमने पहले विचार किया था, अगर उन पाँच प्राचीनों ने स्वयं अपना न्याय किया होता, तो परमेश्वर ने उनकी नाकामी को स्वयं उन्हें ही दिखाया होता। तब प्रेरित यूहन्ना के द्वारा उसे उनकी कमियाँ दिखाने की ज़रूरत न पड़ती।

जब हम स्वयं अपना न्याय करना छोड़ देते हैं, तब हम ऐसे प्रचार करने लगते हैं मानो हम एक निष्णात् हैं। और तब प्रभु हमारा समर्थन नहीं करेगा। इसलिए, हम प्रतिदिन अपना न्याय करें, और हर समय स्वयं अपना और अपनी सेवकाई के मूल्य को छोटा करके ही आँकें। हम अपने आपको लगातार यह देखने के लिए जाँचते रहें कि क्या परमेश्वर हमारे जीवन और कामों की साक्षी दे रहा है या नहीं (गलातियों 6:4)। अगर नहीं, तो एक गंभीर रूप में कहीं कुछ ग़लत है।

मैं सभी प्राचीनों को यह तीन-स्तरीय उपदेश देना चाहूँगाः

  1. हमेशा अपने मुख को धूल रखते हुए, सिर्फ परमेश्वर की आराधना करने वाले हों।
  2. हमेशा यह याद रखें कि आप सिर्फ एक मामूली भाई हैं।
  3. हमेशा प्रभु के उस प्रेम पर मनन करें जो उसने आपसे किया है; यह कल्पना करने वाले न बन जाएँ कि आप उससे बहुत प्रेम करते हैं।

“नम्र व मन में न दीन” होने का अर्थ है कि आप “स्वयं का मूल्याँकन एक बिलकुल मामूली व्यक्ति के रूप में करें” - ऐम्प्लिफाइड बाइबल) और लगातार एक व्यक्तिगत, आत्मिक ज़रूरत के मनोभाव में रहें।

प्राचीनों के लिए परमेश्वर का समर्थन पाना ज़रूरी है

इस वास्तविकता का, कि प्रभु ने हमारी स्थानीय कलीसिया में हमें भाइयों व बहनों की अगुवाई करने का विशेषाधिकार दिया है, यह अर्थ नहीं है कि हमें परमेश्वर का समर्थन भी प्राप्त हो गया है। वह समर्थन हमें परखे जाने के एक समय में से गुज़रने के बाद ही मिलता है। हम सभी परिवीक्षाधीन हैं - और इससे पहले कि प्रभु स्वयं को हमारे साथ प्रतिज्ञाबद्ध करे, वह अलग-अलग हालातों में हमें परखता है (देखें यूहन्ना 2:24)। हालांकि तीमुथियुस परमेश्वर की 25 साल तक सेवा कर चुका था, फिर भी पौलुस ने उसे परमेश्वर का समर्थन पाने के लिए उत्साहित किया था (2 तीमुथियुस 2:15)। तीमुथियुस पूरे हृदय से परमेश्वर को समर्पित था, फिर भी उसे परमेश्वर का समर्थन हासिल करने की ज़रूरत थी। और तीमुथियुस के प्रति पौलुस के श्रेष्ठ विचार (फिलिप्पियों 2:19-21), इस बात में उसकी कोई मदद नहीं कर सकते थे।

पाँच कलीसियाओं के दूतों/संदेश देने वालों से कहे गए प्रभु के शब्द (प्रकाशितवाक्य 2 व 3 में), यह दर्शाते हैं कि उन दिनों में भी कलीसियाओं के अगुवों का एक बड़ा बहुमत बहुत जल्दी विश्वास के मार्ग से भटक गया था। प्रभु ने उन प्राचीनों का बिलकुल कोई समर्थन नहीं किया था। फिर भी वे उनके प्राचीन होने की सेवकाई में बने हुए थे और उन्हें तब भी कलीसियाओं के “दूत” माना जा रहा था। इस बात से हमारे मनों में एक भय समा जाना चाहिए - ऐसा भय जो हमेशा बना रह सके। यह याद रखें कि राजा शाऊल परमेश्वर का अभिषेक खो देने के बाद भी 10 साल तक सिंहासन पर बैठा रहा था - और इसके बाद ही उसे अंततः हटाया गया था।

प्रभु ने प्रकाशितवाक्य अध्याय 2 व 3 में सातों अगुवों से जो हरेक से कहा था, वही वह हमसे भी कहता है, “मैं तेरे कामों को जानता हूँ...”, और प्रभु कोई पक्षपात नहीं करता।

अनेक “पास्टर” उनकी कलीसियाओं में विश्वासियों और मसीह के बीच मध्यस्थ होने जैसा काम करते हैं। लोगों को ऐसी मनोदशा में पहुँचाने के प्रति सावधान रहें। जब आप एक दृढ़ प्रयास करेंगे, सिर्फ तभी आप सामान्य सोच-समझ वाले लोगों के मनों में इस विचार को दूर कर सकेंगे जो एक ऐसे “पास्टर” के अधीन रहने वाली कलीसियाओं में से निकल कर आते हैं। अगर आपकी कलीसिया में लोग आपको उनका “पालक-मध्यस्थ” समझते हैं, तो इसमें ग़लती यक़ीनन आपकी ही है। यह ज़रूरी है कि वे आपको उनके सेवक, और उनके ही जैसे एक भाई - एक सामान्य भाई के रूप में ही देखें।

एक प्राचीन के रूप में आपको यह भी ध्यान रखना होगा कि आप चाहे यह शीर्षक इस्तेमाल न करते हों, तब भी आप एक अधिकार जताने वाले “पास्टर” न बन जाएँ! आप अपने साथ किसी को कभी न जोड़ें, और न ही किसी को आत्मिक रूप में आपके ऊपर निर्भर हो जाने वाला बना दें। अगर कोई आपकी सलाह नहीं मानता, तो वह पाप नहीं करता है। वह आपकी आज्ञा न मानने द्वारा नहीं, बल्कि सिर्फ परमेश्वर की आज्ञा न मानने द्वारा ही पाप करता है - और यह बात सब को मालूम रहनी चाहिए।

हमें अपनी कलीसिया में हरेक की अगुवाई करते हुए उसे परिपक्वता में पहुँचाने के लिए कड़ा परिश्रम करना चाहिए। हमारे आसपास हम ऐसे भाइयों को न रखें जो हमसे सिर्फ “हाँ भाई, हाँ भाई” ही कहते हों। हमारी कलीसिया के भाइयों को हमेशा हम पर ही निर्भर नहीं रहना है, बल्कि परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से जानने के लिए परिपक्व होना है। हममें से जो ऐसे लोग हैं जिनका व्यक्तित्व बहुत सशक्त है, उन्हें अपनी जैविक-शक्ति को मृत्यु के हवाले कर देना चाहिए, कि फिर हमारे आसपास के लोग हम पर निर्भर हुए बिना परिपक्व हो सकें। हम अपने व्यक्तित्व से लोगों को डराने वाले न हों। अगर हमारी सेवकाई परमेश्वर को भाएगी, तो वह हमें ऐसी कृपा देगा कि हम कलीसिया को एक परिवार की तरह बना सकेंगे, जहाँ दूसरे लोग वैसे ही परिपक्व हो सकेंगे जैसे हमारे अपने परिवारों में हमारे बच्चे परिपक्व होते हैं।

अपने जीवन और अपनी सेवकाई के बारे में एक ईमानदार मूल्याँकन पाने के लिए, किसी ऐसे व्यक्ति से बात करना अच्छा रहता है जो आपसे ज़्यादा परिपक्व हो - जो इतना निर्भीक हो कि वह आपको सच बता सके। अगर आपकी पत्नी इतनी आत्मिक है कि वह ऐसा कर सकती हो, तो यह सबसे अच्छा है। अगर नहीं, तो एक ऐसे ईश्वरीय भाई से जिस पर आपको भरोसा हो, यह पूछें कि वह आपके और आपकी सेवकाई के बारे में वास्तव में क्या सोचता है। और उससे कह दें कि वह एक निर्मम स्पष्टता और ईमानदारी के साथ आपके साथ बात करे। फिर उन बातों के अनुसार अपना न्याय करें और अपने आपको सुधारें। ईश्वरीय लोग आपकी आत्मिक दशा को आपसे ज़्यादा स्पष्ट रूप में देख सकते हैं।

हमारी कलीसियाओं में ऐसे “तानाशाह” बन जाना आसान होता है जो अपने भाइयों व बहनों के ऊपर अपना राज चलाते हैं। यीशु ने कहा, “ऐसे अगुवे कलीसिया के भोज-समारोहों में सबसे मुख्य आसन चाहते हैं, सम्मानित स्थानों में बैठकर स्वयं को गौरान्वित करते हैं, लोगों की चापलूसी-भरी बातों में इतराते हैं, अपने लिए मानक पदवियाँ हासिल करते हैं, और “डॉक्टर” और “रेवरैंड” कहलाते हैं। लोगों को यह न करने दो कि वे तुम्हें प्रदर्शन के ऐसे ऊँचे स्थान में बैठा दें। तुम सभी का एक ही शिक्षक है और तुम सब विद्यार्थी हो। लोग ऐसा न करने पाएँ कि वे तुम्हें घुमा-फिरा कर स्वयं उनके जीवनों को चलाने वाला बना दें। तुम्हारा और उनका सिर्फ एक ही जीवन-चालक है - मसीह। क्या तुम अलग नज़र आना चाहते हो? तो नीचे उतर आओ; एक सेवक बन जाओ। अगर तुम अपने आपको घमण्ड से भर लोगे, तो तुम्हारी सारी हवा निकाल दी जाएगी। लेकिन अगर तुम सिर्फ वही बने रहने से संतुष्ट रहोगे जो तुम हो, तो तुम्हारा जीवन भरपूर माना जाएगा” (मत्ती 23:6-12, मैसेज भावानुवाद)।

प्राचीन उनके निजी जीवनों में किसी भी तरह से उनके झुण्ड को वश में करना न चाहें। हमें “कलीसियाई मामलों और निजी मामलों” के बीच फ़र्क मालूम होना चाहिए। प्राचीन होते हुए, हमारी बुलाहट यह नहीं है कि हम एक व्यक्ति के जीवन के हरेक पहलू का संचालन करें। और विश्वासियों को उनके जीवनों में जिन बातों से निपटना होता है, उनमें से 90% उनके निजी मामले होते हैं। ऐसे सभी मामलों में, उन्हें स्वयं अपने फैसले लेने के लिए आज़ाद रहना चाहिए। एक प्राचीन को ऐसे किसी मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह तानाशाही होगी। ऐसी कलीसियाएँ जिनके अगुवे तानाशाही मनोभावों वाले होंगे, वे मसीह की देह नहीं पर अंततः झूठे मसीही-पंथ बन जाएँगे। 

अंतिम प्रथम होंगे

परमेश्वर के नज़रिए से, इस जगत में जो अंतिम हैं, उसकी नज़र में वे प्रथम हैं।

यह एक अद्भुत सत्य है जो यीशु के दृष्टान्तों में से सात दृष्टान्तों में स्पष्ट नज़र आता हैः

  1. मत्ती 20:1 मेंः वे मज़दूर जो ग्यारवें घण्टे में आए थे (12 में से 11वें घण्टे में), उन्हें पहले प्रतिफल दिया गया था।
  2. लूका 15:22 मेंः छोटा पुत्र जिसने अपने पिता की सम्पत्ति का आधा भाग (अपना हिस्सा) बर्बाद कर दिया था और अपने पिता के नाम को बदनाम किया था, फिर भी “सबसे अच्छा” वस्त्र और “अँगूठी” पाता है - ऐसी दो वस्तुएँ जो बड़े भाई को नहीं मिलीं।
  3. लूका 7:41 मेंः वह जिसने ज़्यादा पाप किए थे (और जिसके ज़्यादा पाप क्षमा हुए थे) अंततः उसने ज़्यादा प्रेम किया (और इस तरह प्रभु की ज़्यादा नज़दीकी हासिल की)।
  4. मत्ती 21:28 मेंः वह पुत्र जिसने पहले विद्रोह किया था, उसने ही अंततः अपने पिता की इच्छा पूरी की, जो उसके भाई नहीं की थी।
  5. लूका 15:3 मेंः खोई हुई भेड़ दूसरी भेड़ों की तुलना में चरवाहे के ज़्यादा नज़दीक पाई गई - जिसे चरवाहा उसके कंधों पर उठाए हुए था।
  6. लूका 14:10 मेंः विवाह के भोज में जो सबसे पीछे जा बैठा था, उसे आगे सबसे मुख्य जगह में बैठाया गया।
  7. लूका 18:9 मेंः बेईमान चुँगी लेने वाला जो बाहरी तौर पर उस फरीसी से बहुत ज़्यादा बुरा था, उससे बेहतर साबित हुआ - क्योंकि परमेश्वर ने उसे धर्मी घोषित किया था।

ये सभी दृष्टान्त एक ही संदेश प्रस्तुत करते हैंः कि अनेक लोग जिनकी शुरूआत ख़राब होती है अंत में वही पुरस्कार पाते हैं।

यह महत्वपूर्ण नहीं होता कि हम दौड़ शुरू कैसे करते हैं, बल्कि यह कि हम दौड़ पूरी कैसे करते हैं। वे लोग जो हतोत्साहित नहीं होते, और जो अपने जीवनों की ख़राब शुरूआत के लिए स्वयं को दोषी नहीं ठहराते (जैसे पौलुस), उन लोगों से आगे निकल जाएँगे जिनकी शुरूआत अच्छी हुई थी। इस बात से ऐसे सभी लोग उत्साहित हो सकते हैं जिन्होंने अपने जीवनों को बर्बाद कर लिया है, कि वे निराश होकर हार न मान लें बल्कि दौड़ में आगे बढ़ते रहें।

पौलुस ने यीशु से मिलने से पहले, अपने जीवन के शुरूआती 30 साल बर्बाद कर दिए थे। लेकिन बाद में उसने सिर्फ “एक काम” करने का फैसला कर लिया थाः अपनी पिछली सभी नाकामियों को भूलकर यीशु की तरह बनने के लिए आगे बढ़ते जाना, और पृथ्वी पर उसका जो थोड़ा समय बचा था, उसमें यीशु की तरह बनने के लिए सिर्फ आगे देखते रहना। इसमें उस सेवकाई को पूरा करना भी शामिल था जिसमें परमेश्वर ने उसे बुलाया था। और उसके जीवन के अंत में, उसने कहा था, “मैंने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, और स्वर्ग में मेरे लिए मुकुट रखा हुआ है” (1 तीमुथियुस 4:7)।

पौलुस ने कुरिन्थुस के सांसारिक मसीहियों से यही कहा था कि “इस तरह दौड़ो कि पहला पुरस्कार पाओ” (1 कुरिन्थियों 9:24)। वे सांसारिक मसीही भी अगर मन फिरा कर दृढ़ता और अनुशासन के साथ दौड़ते, तो वे मसीही दौड़ में प्रथम स्थान पा सकते थे। यही वह आशा है जो प्राचीनों के रूप में हमें नाकाम होने वाले हरेक मसीही को देनी चाहिए कि अगर वे सिर्फ उनके मन फिरा लें, और किसी भी क़ीमत पर मसीह-समान बनने के निशाने की तरफ बढ़ते रहने का दृढ़ निश्चय कर लें, तो वे भी दौड़ में जीत सकते हैं।

अध्याय 12
कलीसिया में आर्थिक मामले

वह धन जो प्रभु के काम के लिए दिया जाता है, वह सँसार के सारे धन से ज़्यादा पुण्य धन होता है। जो भी उस धन में बेईमान होगा, वह निश्चय ही स्वयं अपने और अपने परिवार के ऊपर एक श्राप ले आएगा। वे जो धन के मामले में ग़लत होंगे, बाक़ी हरेक मामले में भी ग़लत ही होंगे।

यीशु ने कहा कि परमेश्वर अपना सच्चा धन सिर्फ उन्हें ही देता है जो धन में विश्वास-योग्य रहते हैं (लूका 16:11)। अगर हम धन के मामले में लापरवाह होंगे, तो हम अपने जीवनों में परमेश्वर का सच्चा धन पाने से चूक जाएँगे।

धन और बेबीलोन

मसीही जगत में बेबीलोनी मिशन (कार्याधिकार) के तीन लाक्षणिक चिन्ह् होते हैंः

  1. उनका प्रचार चेले बनाने के लिए नहीं होता, इसलिए वे थोड़े से चेले भी नहीं बनाते। वे धर्म-परिवर्तित लोग बनाते हैं - और उनमें भी ज़्यादातर लोगों का परिवर्तन सही तरह नहीं होता।
  2. वे नई वाचा की कलीसिया के सिद्धान्तों का प्रचार नहीं करते, इसलिए वे स्वयं को मृतक मसीही मतों से अलग नहीं करते। वे मसीह की देह की एक स्थानीय अभिव्यक्ति तैयार करने का प्रयास भी नहीं करते। वे सिर्फ पुरानी वाचा की मण्डलियाँ और मसीही सदस्यों की सभा (क्लब) बनाते हैं।
  3. वे यीशु और पौलुस की आर्थिक नीतियों का न तो प्रचार और न ही अभ्यास करते हैं। वे अपने काम का व्यापक प्रचार करते हैं, और मृतक मसीही मतों के धार्मिक “मसीहियों” से भी धन की भीख माँगने से नहीं लजाते। वे अपने पास्टरों को मासिक वेतन देते हैं (वैसे ही जैसे सांसारिक व्यापारिक संस्थाएं अपने कर्मचारियों को वेतन देती हैं)।

यीशु ने कहा कि ऐसे सिर्फ दो स्वामी हैं जिनकी हम सेवा कर सकते हैं - परमेश्वर या धन। इस वजह से, आर्थिक मामलों में सही तरह काम करना हरेक प्राचीन और कलीसिया के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण मामला है।

गेहजी पर उस समय एक श्राप आ पड़ा था जब उसने नामान से परमेश्वर के काम के लिए धन माँगा था और फिर उसे स्वयं अपने लिए रख लिया था (2 राजा 5:21-27)। यहूदा इस्करियोती पर श्राप आ पड़ा था क्योंकि उसने ग़रीबों के लिए रखे धन को स्वयं अपने लिए इस्तेमाल किया था।

आज मसीही जगत में हरेक जगह में अनेक गेहजी और यहूदा इस्करियोती पाए जाते हैं। अगर यीशु की कलीसिया में भी एक यहूदा इस्करियोती मौजूद था, तो आप एक निश्चित रूप से यह जान लें कि आपकी कलीसिया में भी अनेक यहूदा मौजूद होंगे। शैतान के प्रतिनिधि हर जगह मौजूद रहते हैं। इसलिए प्राचीनों को कलीसिया के धन के मामले में बहुत सावधान रहने की ज़रूरत होती है - स्वयं अपने धन से भी ज़्यादा।

हम जिस तरह से परमेश्वर का धन इस्तेमाल करते हैं, वही उस काम के प्रति हमारे मनोभाव को प्रकट करेगा जो परमेश्वर ने हमें करने के लिए सौंपा है। प्राचीन परमेश्वर के सम्मुख इस बात के लिए जवाबदेह हैं कि उनकी कलीसिया की सेवकाई के लिए जो धन परमेश्वर के लोगों ने उदारता और त्याग-भरी भेंट के रूप में दिया है, वह कैसे इस्तेमाल किया जा रहा है।

बेबीलोन और धन का आपस में एक नज़दीकी सम्बंध है। हम प्रकाशितवाक्य 18 में यह साफ़ तौर पर देख सकते हैं। जगत के लगभग हरेक देश में जिस तरह से मसीही मिशन चलाए जा रहे हैं, उन तरीक़ों में हम बेबीलोनी सिद्धान्तों को देख सकते हैं। ऐसे मिशनों में जितने विश्वासी हैं, उनके लिए हमारे पास सिर्फ एक ही संदेश हैः "हे मेरे लोगों, बेबीलोन में से निकल आओ” (प्रका. 18:4)।

कर्ज़ से मुक्ति

धन के मामले में जो सबसे पहला क़दम हमें उठाने की ज़रूरत है, वह यही है कि हम ईमानदार हों। और ऐसा होने के लिए, सबसे पहले हमें सारे कर्ज़ से मुक्ति पाने की और हमारे सभी विश्वासियों को भी यह सिखाने की ज़रूरत होती है।

अनेक प्राचीन कर्ज़ से मुक्ति पाने की नई वाचा की इस आज्ञा को सशक्त रूप में नहीं सिखाते। पवित्र आत्मा हमें स्पष्ट आज्ञा देता है कि हम किसी भी बात में किसी के कज़र्दार न रहें (रोमियों 13:8)। पवित्र आत्मा ने यह नहीं कहा कि विश्वासियों को कभी किसी से उधार नहीं लेना चाहिए। परमेश्वर जानता है कि ऐसे आपातकालीन हालात होते हैं, जैसे अचानक आ पड़े दवा/इलाज के ख़र्च, या बच्चों की पढ़ाई की बड़ी फीस की भरपाई, आदि जिसमें विश्वासियों को उधार माँगना पड़ जाता है। लेकिन अगर वे ऐसा करते हैं, तो उन्हें उतने धन से ज़्यादा उधार नहीं लेना चाहिए जिसे वे एक मर्यादित समय में लौटा न सकें। और उन्हें यह सिखाया जाना चाहिए कि वे उस कर्ज़ को जल्दी से जल्दी चुकाने की हर सम्भव कोशिश करें - चाहे हर महीने वे सिर्फ एक छोटी रकम ही चुका पाने की स्थिति में हों।

एक भाई जिसे एक बड़ा कर्ज़ चुकाने में मुश्किल महसूस हो रही हो, उसे अपना कर्ज़ चुकाने के लिए अपने घर का कुछ मूल्यवान सामान भी बेच देने के बारे में विचार करना चाहिए। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अनेक प्राचीन परमेश्वर की ऐसी आज्ञाओं को गंभीरता से नहीं लेते - और इस वजह से ही परमेश्वर उनके काम को अपने अधिकार द्वारा समर्थन नहीं देता है।

विश्वासियों को उनके प्राचीनों द्वारा ऐसी बातों के बारे में व्यावहारिक निर्देश देने चाहिए, जैसे (1) एक सहज जीवन-शैली अपना कर कैसे रहा जाए और (2) हर महीने में कैसे कुछ धन बचा कर रखा जाएँ इस तरह, जब उन्हें किसी आपातकालीन ज़रूरत को पूरा करना होगा, तो वे कर्ज़ में फँसने से बच सकते हैं। मैंने कर्ज़ से मुक्त होने में अनेक विश्वासियों की मदद की है (जो हमारी कलीसिया के साथ जुड़ने के लिए आए थे), उन्हें धन देने द्वारा नहीं, लेकिन उन्हें यह सिखाने द्वारा कि वे एक साधारण जीवन-शैली अपना कर कैसे जी सकते हैं और कैसे एक आर्थिक अनुशासन का अभ्यास कर सकते हैं।

“उधार लेने वाला उधार देने वाले का दास हो जाता है” (नीति॰ 22:7) - और परमेश्वर की एक संतान के लिए यह अच्छा नहीं है कि वह किसी का दास हो जाएँ इसलिए हरेक को जितनी जल्दी हो सके उसका कर्ज़ चुका देना चाहिए, चाहे वह थोड़ा-थोड़ा ही चुकाया जाएँ परमेश्वर यह देखता है कि चाहे हमारे पास थोड़ा ही है, फिर भी हममें उसके वचन का पालन करने वाला हृदय है या नहीं है (2 कुरिन्थियों 8:12)। अगर एक कर्ज़ को 6 महीने से ज़्यादा हो गए हैं, तब कज़र्दार को कर्ज़ चुकाते समय उस राशि में बैंक की वर्तमान ब्याज दर के अनुसार जोड़कर उसे लौटा देना चाहिए (जैसा जक्कई ने किया था - लूका 19:8)।

प्राचीन होते हुए, हम परमेश्वर के सम्मुख इस बात के लिए जि़म्मेदार हैं कि हमारी कलीसिया के सदस्यों को कर्ज़-मुक्त जीवन जीना सिखाएँ। हम अपने विश्वासियों को जैसे व्यभिचार के पाप में जीवन बिताने की अनुमति नहीं देंगे, वैसे ही हमें उन्हें कर्ज़ के पाप में भी रहने की अनुमति नहीं देनी चाहिए!

टिप्पणीः एक घर बनाने के लिए गया ऋण और एक गाड़ी के लिए लिया गया ऋण कर्ज़ नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसके बदले में दिखाने के लिए एक घर (या गाड़ी) है। व्यापार के लिए लिया गया ऋण भी कुछ मामलों में स्वीकार्य हो सकता है - अगर वह ऐसा ऋण है जो लाभ अर्जित करने के लिए लिया गया हो। लेकिन ऐसे अनेक विश्वासी हैं जिनमें कोई व्यापारिक योग्यताएँ नहीं हैं, और वे बहुत सालों से कर्ज़ में डूबे हुए हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी व्यापारिक अयोग्यता और बाज़ार के हाल के बारे में सोचे-समझे बिना ही एक व्यापार शुरू करने की कोशिश की थी। ऐसे विश्वासी जो व्यापार के लिए एक बड़ा व्यापारिक ऋण लेना चाह रहे हैं, उन्हें पहले उनके प्राचीनों से बात करने की सलाह दी जानी चाहिए।

क्रैडिट-कार्ड का ऋण एक बहुत गंभीर ऋण होता है, क्योंकि यह बहुत जल्दी बढ़ जाता है। सभी विश्वासियों को यह सलाह देनी चाहिए कि जहाँ सम्भव हो वहाँ वे क्रैडिट-कार्ड की जगह डेबिड-कार्ड ही इस्तेमाल करें। लेकिन अगर अपनी सुविधा के लिए वे एक क्रैडिट-कार्ड इस्तेमाल करते हैं, तो उसका भुगतान उन्हें हर महीने कर देना चाहिए। अगर वे सिर्फ एक महीने के लिए भी उसका भुगतान करने से चूक जाएँ, तो फिर जब तक वे उसका भुगतान न कर दें, उन्हें उसका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। जो अपने कर्ज़ के साथ ऐसी दृढ़ता से निपटेंगे, परमेश्वर उनका आदर करेगा। विश्वासियों को यह भी सिखाना चाहिए कि वे कर्ज़ लेकर महँगी चीज़ें न ख़रीदें। वे पहले उस वस्तु के लिए ज़रूरी बचत करें, और फिर उसे ख़रीदें। यीशु ने भी इसी तरह किया होता। अधिकाँश कर्ज़ लालच और अनुशासनहीन जीवन जीने और ख़र्च करने का ही नतीजा होता है।

एक मामूली चींटी से सीखें

प्राचीनों को विश्वासियों को हर महीने कुछ धन की बचत करना भी सिखाना चाहिए। ऐसा करने के लिए, एक परिवार को उनका महीने का ख़र्च कम कर देना चाहिए, और ऐसे ऊँचे स्तर का जीवन जीने की कोशिश नहीं करनी चाहिए जिसका ख़र्च वे नहीं उठा सकते - अपने आसपास के उन लोगों की नकल करते हुए जो उनसे ज़्यादा ऊँचे स्तर का जीवन जीते हैं। उन्हें ग़ैर-ज़रूरी चीजों ख़रीद कर अपना धन बर्बाद नहीं करना चाहिए, और न ही फिज़ूल-ख़र्च करने वाली पार्टियाँ देनी चाहिए। बहुत से पार्टियाँ सिर्फ दूसरों से सम्मान पाने के लिए ही आयोजित की जाती हैं - जो एक तरह की मूर्तिपूजा ही होती है। अतिथि-सत्कार एक परिवार की आर्थिक क्षमता की सीमाओं के अन्दर रहते हुए ही हो सकता है। एक परिवार की भावी ज़रूरतों के लिए धन की बचत करना अतिथि-सत्कार करने में अपना नाम कमाने से ज़्यादा अच्छा है।

बाइबल कहती है कि माता-पिता को अपने बच्चों के लिए धन बचाना चाहिए (2 कुरिन्थियों 12:14बी)। परमेश्वर में भरोसा रखना अपने परिवार के लिए धन की बचत करने के विरोध में नहीं है। बाइबल हमें आज्ञा देती है कि हम पृथ्वी के सबसे छोटे जीव - चींटी के पास जाएँ और उससे बुद्धि सीखें। चींटी यह जानती है कि सर्दी के मौसम में कष्ट के दिन आएँगे, इसलिए वह गर्मी में ही अपने लिए खाना जमा कर लेती है (नीतिवचन 6:6-11)। हमें एक चींटी से ऐसे अनापेक्षित भावी ख़र्चों के लिए बचत करना सीख लेना चाहिए। यह वास्तव में एक अनोखी बात है कि एक चींटी के छोटे से मस्तिष्क में अनेक मनुष्यों के बड़े मस्तिष्कों से ज़्यादा बुद्धि होती है!

अपने बच्चों को पढ़ाना और एक परिवार के सदस्यों के इलाज का ख़र्च बहुत ज़्यादा हो सकता है - और विश्वासियों को इन ख़र्चों के लिए बचत करना सिखाना चाहिए। पवित्र आत्मा कहता है कि ऐसा कोई भी विश्वासी जो उसके परिवार की ज़रूरतें पूरी नहीं करता, वह एक अविश्वासी से ज़्यादा बुरा है (1 तीमुथियुस 5:8)।

बहुत से घरों में, एक पत्नी जो घर में रहती है (क्योंकि वह रोज़ी-रोटी कमाने नहीं जाती), ज़्यादा खुले हाथों से ख़र्च करने वाली हो सकती है, क्योंकि उसे परिवार की आर्थिक स्थिति के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं होती। ऐसे मामलों में, पतियों को यह सिखाना चाहिए कि वे अपनी पत्नियों को अपने परिवार की आर्थिक स्थिति के बारे में बताएँ, और ऐसे किसी भी ख़र्च के लिए उसे “नहीं” कह दें जिसका बोझ वे नहीं उठा सकते। प्राचीनों के रूप में, हमें सभी पतियों को उनकी पत्नियों को इस तरह “नहीं” कह देने के लिए उत्साहित करना चाहिए, कि उनके परिवार के लिए उनके पास कुछ बचत हो।

अगर एक परिवार आर्थिक अनुशासन का अभ्यास करने के प्रति गंभीर हो, और हर महीने अपना ख़र्च कम करने के लिए तैयार हो, तो ऐसी बचत हरेक घर में की जा सकती है। प्राचीनों के रूप में यह हमारी जि़म्मेदारी है कि हम सभी पतियों को ऐसा करने के लिए उत्साहित करें।

हम जैसे-जैसे समय के अंत की तरफ बढ़ेगे, विश्वासियों को धन ख़र्च करने के मामले में सचेत होते जाना होगा। हम “अनिश्चित धन-सम्पत्ति” में भरोसा नहीं रखते। हमारा भरोसा सिर्फ हमारे स्वर्गीय पिता में है (1 तीमुथियुस 6:17)। लेकिन विश्वासियों को यह सिखाना चाहिए कि यह प्रतिज्ञा कि “परमेश्वर हमारी सारी ज़रूरत को पूरा करेगा” (फिलिप्पियों 4:19) सिर्फ तभी पूरी होती है जब हमने परमेश्वर के वचन का पालन किया हो, एक चींटी से सीख लिया हो (जैसा ऊपर लिखा है) और पहले पूरी ईमानदारी से परमेश्वर के राज्य की खोज की हो - इसके अलावा नहीं (मत्ती 6:33)।

एक विश्वासी के रूप में मेरे 59 सालों में (जिसमें मेरे विवाहित जीवन के 50 साल भी शामिल हैं), मेरी पत्नी और मैंने किसी से एक रुपया भी उधार नहीं लिया है, या हम एक दिन के लिए भी किसी के कज़र्दार नहीं रहे हैं - तब भी नहीं जब एक परिवार के रूप में हम बहुत ग़रीब थे। परमेश्वर के वचन का आज्ञापालन करते हुए, हमने अपने घर में एक कड़े आर्थिक अनुशासन का पालन किया है। हमने कभी ऐसा कुछ नहीं ख़रीदा जिसका ख़र्च हम नहीं उठा सकते थे - जब तक पुराने और “दूसरों के दिए हुए” कपड़ों से काम चल सकता था, तब तक हमारे बच्चों के लिए हमने नए कपड़े भी नहीं ख़रीदे। इसका परिणाम यह हुआ कि आज परमेश्वर ने हमें और हमारे बच्चों को आशिष दी है। इससे हमें दूसरों को आर्थिक अनुशासन के बारे में सिखाने में भी मदद मिली है। मैंने अपने घर में दृढ़ता से रोमियों 13:8 का पालन करना और मत्ती 6:33 के अनुसार जीना चाहा है - और परमेश्वर ने न सिर्फ हमारी पार्थिव ज़रूरतों को पूरा किया है, बल्कि मुझे अद्भुत आत्मिक भरपूरी भी दी है। इसलिए अब मैं साहस के साथ हरेक विश्वासी से कह सकता है, “अपनी आमदनी की सीमाओं में रहने और कर्ज़ से मुक्त होने के क्षेत्र में, जैसी परमेश्वर के वचन में आज्ञा दी गई है, मेरा अनुसरण करो।”

इसमें सवाल यह है कि हम किस बात को मूल्यवान समझते हैं - परमेश्वर के वचन के मानक स्तरों को या हमारे आसपास के सांसारिक मसीहियों के मानक स्तरों को। परमेश्वर के वचन का सीधा उल्लंघन करते हुए, परमेश्वर की एक संतान के लिए यह बहुत ही शर्म की बात है कि वह कर्ज़ में रहे, और इस तरह, शैतान को यह मौक़ा दे कि वह परमेश्वर के सिंहासन के सम्मुख उस पर रात-दिन दोष लगाता रहे (प्रकाशितवाक्य 12:10)।

अगर आप एक प्राचीन हैं, और आपके ऊपर एक बड़ा कर्ज़ है, और आप उस कर्ज़ को चुकाने के लिए हर महीने कोशिश नहीं कर रहे हैं, तो आपको तुरन्त अपनी प्राचीनता को छोड़ देना चाहिए और प्रचार करना बंद करके अपना कर्ज़ चुकाना शुरू कर देना चाहिए क्योंकि एक लम्बे समय तक बना रहने वाला कर्ज़ हरेक विश्वासी की एक ख़राब साक्षी होती है - ख़ास तौर पर एक प्राचीन की।

बुद्धिमानी से धन देना और उधार देना

विश्वासियों से कहना चाहिए कि वे अपने प्राचीनों से सलाह किए बिना किसी को कभी बड़ी धनराशियों को कर्ज़ के रूप में न दें। वर्ना एक कलीसिया में सम्बंध बर्बाद हो सकते हैं।

फिर यीशु की उस आज्ञा का पालन करें कि “जो कोई तुमसे माँगे तो उसे दे दो...और उधार दो... और उससे वापिस पाने की अपेक्षा मत रखो” (लूका 6:30)?

जब हम पवित्र शास्त्र का कोई वचन समझना चाहें, तो हमें उसके एक वचन की तुलना उसके दूसरे वचन से करनी चाहिए। वर्ना ऐसा हो सकता है कि एक वचन के बारे में हमारे अन्दर एक ग़लत सोच-समझ तैयार हो जाएँ जब शैतान ने यीशु को मन्दिर की चोटी पर से कूद जाने की परीक्षा में डाला, तब उसने एक वचन का उल्लेख करते हुए कहा था, “ऐसा लिखा है...।” लेकिन यीशु ने उसके सुझाव को अस्वीकार करते हुए कहा था, “ऐसा भी लिखा है...” (मत्ती 4:6,7)। इस तरह, पवित्र शास्त्र का पूरा सत्य सिर्फ इसमें ही नहीं रखा है कि “ऐसा लिखा है”, लेकिन इसमें कि “ऐसा लिखा है” और “ऐसा भी लिखा है।”

इसलिए जब हम लूका 6:30 में यह पढ़ते हैं कि “जो तुमसे माँगता है उसे दो... जो कोई उधार ले जाता है, तो उससे लौटाने की अपेक्षा मत रखो”, तो हमें यह भी देखना होगा कि 1 कुरिन्थियों 10:26 में यह लिखा है कि फ्पृथ्वी और जो कुछ इसमें है सब प्रभु का है।” इसलिए हमें सबसे पहले यह समझना चाहिए कि सारा धन, सम्पत्ति और हमारी सारी बचत सब प्रभु की है। इसलिए, इससे पहले कि हम इस आज्ञा का पालन करें कि जो भी हमसे धन की माँग कर रहा है हम उसे दे दें, हमें पहले हमारे धन के स्वामी से, प्रभु से अनुमति ले लेनी चाहिए। और जब हम इस तरह से प्रभु की इच्छा जानना चाहेंगे, तो वह हमें कभी-कभी कुछ लोगों को कुछ धन देने के लिए कहेगा; और कभी-कभी वह हमें कुछ लोगों को धन न देने के लिए कहेगा - और यह इस बात पर निर्भर होगा कि वह उन लोगों के हृदयों में क्या देख रहा है जो हमसे धन की माँग कर रहे हैं। इस तरह प्रभु हमें धोखा देने वालों से बचाए रखेगा।

अगर विश्वासी ऐसे मामलों में सचेत और बुद्धिमान नहीं होंगे, तो वे अपने धन के प्रति एक मूर्खतापूर्ण रीति से उदार बन सकते हैं! सभी विश्वासियों को यह बताना चाहिए कि किसी को भी उधार देने से पहले वे अपने प्राचीन से सलाह करें - ख़ास तौर पर तब जब वह एक बड़ी धनराशि हो। यह सिर्फ इसलिए है नहीं कि उनका धन उधार लेने वाले से उन्हें वापिस नहीं मिलेगा। बल्कि इसमें बड़ा ख़तरा यह है कि कलीसिया ऐसे लोगों के आकर जुड़ जाने से अशुद्ध हो जाएगी जिनकी दिलचस्पी चेले बनने में नहीं बल्कि उदार विश्वासियों से सिर्फ धन प्राप्त करने में ही होगी!

धन के मामले में ऐसी समस्याएँ सिर्फ ऐसी कलीसियाओं में ही पैदा होती हैं जहाँ “चेले बनने” पर नहीं बल्कि सिर्फ “प्रेम और भलाई” पर ही प्रचार किया जाता है। अगर चेले बनने के उन दृढ़ मानकों का प्रचार किया जाएगा जो यीशु ने सिखाए और जिनका उसने नियमित प्रचार किया, और अगर (एक अगुवे के रूप में) आपकी दिलचस्पी अपनी कलीसिया की “सख्या के बढ़ने” से मिलने वाले आदर-सम्मान में नहीं है, और आप अपनी कलीसिया को वास्तव में एक ईश्वरीय परिवार बनाना चाहते हैं, तब आप ऐसे धोखेबाज़ों से बचाए जाएँगे।

हमारी कलीसियाओं में, हमने इस अभ्यास का पालन किया है कि हम सिर्फ एक ऐसे ग़रीब व्यक्ति की ही आर्थिक मदद करते हैं जिसने कम-से-कम दो साल तक एक चेला बनने में अपनी दिलचस्पी दिखाने द्वारा स्वयं को प्रमाणित किया है।

धन के प्रति ईमानदार और भरोसेमंद

धन से जुड़े मामलों में ईमानदार रहने के बाद (यह पहला क़दम है), हमें धन में भरोसेमंद होना चाहिए। यह हो सकता है कि हम धन के मामले में ईमानदार हों - उसमें बेईमानी न कर रहे हों, चोरी न कर रहे हों, और कर्ज़ में डूबे हुए न हों। लेकिन यह हो सकता है कि धन के इस्तेमाल में हम फिर भी भरोसेमंद न हों।

धन के मामले में भरोसेमंद न होने का अर्थ स्वयं अपने धन को अपने ऊपर खुले हाथों से धन को उड़ाना है, और कलीसिया के धन को भी खुले हाथों से उड़ाना है - और परमेश्वर के लोगों से यह अपेक्षा करना है कि वे ज़्यादा से ज़्यादा देते रहें।

हमारी कलीसियाओं में ऐसे बहुत से ग़रीब भाई होते हैं जो उनका धन अर्जित करने के लिए बहुत कड़ी मेहनत करते हैं। वे स्वयं अपने घरों में भोग-विलास की ज़्यादा चीज़ें नहीं ला सकते। इसलिए हम उनके द्वारा कलीसिया को दिए गए धन को खुले हाथों से ख़र्च नहीं कर सकते - कलीसिया के ख़र्च में भी। हमारे उद्देश्य भले हो सकते हैं। लेकिन लूका 10:38-42 में, प्रभु और उसके साथियों के लिए जो काम मार्था ने किया, उसमें उसका उद्देश्य भी भला ही था। फिर भी प्रभु ने उसके काम के लिए उसे डाँटा था। इसलिए हमारे लिए यही भला होगा कि हम भी मरियम की तरह बैठ जाएँ, और यीशु के चरणों में बैठ कर उसकी शिक्षा और ताड़ना को सुनें।

यीशु हमारा उदाहरण और हमारा अग्रदूत है। परमेश्वर के लोगों से उसे भेंट के रूप में बहुत सा धन मिलता था। लेकिन उसे ख़र्च करने में वह सचेत, कम-ख़र्चीला और भरोसेमंद था। जिस तरह से वह धन को ख़र्च करता था, यह यूहन्ना 13:29 के उसके शब्दों में से प्रकट होता हैः “वही ख़रीदो जिसकी तुम्हें वास्तव में ज़रूरत है। और हमेशा ग़रीबों के बारे में सोचो और उन्हें कुछ दिया करो” (भावानुवाद)। हमारे सभी ख़र्चों में यह हमारे अनुसरण के लिए यह एक अच्छा दिशा-निर्देश है - घर और कलीसिया दोनों में ही।

अगर आप धन के मामले में लापरवाह और फिज़ूल-ख़र्च करने वाले होंगे, तो आप पवित्र आत्मा का अभिषेक खो देंगे। यीशु ने कहा, “अगर तुम धन के मामले में भरोसेमंद न रहोगे, तो तुम्हें सच्चा धन कौन सौंपेगा” (लूका 16:11)? अनेक प्राचीन जो परमेश्वर के लिए उनकी कलीसिया को आग से भर सकते थे, इस मामले में निष्फल होने की वजह से उन पर कोई अभिषेक नहीं रहा है।

धन के प्रति भरोसेमंद होने का अर्थ उसके इस्तेमाल में कम-ख़र्च और समझदार होना है - घर और कलीसिया दोनों ही जगहों में।

ग़रीबों की मदद करना

कलीसियाओं का निर्माण एक परिवार के रूप में होना चाहिए - इनमें भाषा, जात या नस्ल का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए - क्योंकि हमें मसीह की देह की वास्तविकता का प्रदर्शन करना है - जिसमें विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों या समुदायों के बीच कोई फर्क़ न किया जाता हो।

प्राचीनों के रूप में यह हमारी जि़म्मेदारी है कि हम यह पता लगाएं कि हमारे कलीसियाई परिवार के सदस्यों में कौन ग़रीब और ज़रूरतमंद है - और फिर उसकी मदद करें।

आरम्भिक कलीसिया में, जब विश्वासी ग़रीब विश्वासियों की मदद करने के लिए धन देना चाहते थे, तो उन्होंने अपने अगुवे प्रेरितों को वह धन दे दिया। उनमें यह स्वीकार कर लेने योग्य नम्रता थी कि उनके अगुवों को विश्वासियों की ज़रूरत के बारे में उनसे ज़्यादा जानकारी थी (प्रेरितों के काम 4:34,35)। विश्वासियों के लिए ग़रीबों की मदद करने का यही सबसे अच्छा तरीक़ा होता है - वे प्राचीनों को धन दे दें और वे ज़रूरतमंद लोगों में उसे कोई पक्षपात किए बिना बाँट दें।

लेकिन अगर विश्वासी ग़रीबों को स्वयं ही धन देते हैं, तो यह सम्भावना है कि फिर वे ग़रीब अपनी ज़रूरत को ऐसे दुर्बोध रूप में प्रस्तुत करेंगे कि उन्हें ही ज़्यादा मिल जाएगा और जो वास्तव में ज़रूरतमंद हैं उन्हें कुछ न मिल सकेगा।

जो धन परमेश्वर के लिए दिया गया हो, प्राचीन उसका उपयोग ज़रूरत के अनुसार समझदारी से करें। अगर एक ग़रीब कलीसिया के लिए धन भेजा जा रहा है, तो वह सिर्फ दृढ़ता से स्थापित हो चुकी ऐसी कलीसियाओं को ही भेजा जाए जहाँ एक से ज़्यादा प्राचीन हैं और जहाँ सही लेखा-जोखा रखा जाता है। ऐसी कलीसिया को किसी काम के लिए धन देने के बाद भी, प्राचीनों को यह पुष्टि करनी चाहिए कि वह धन समझदारी के साथ ख़र्च किया गया है।

मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि हमें अविश्वासियों की मदद नहीं करनी चाहिए। लेकिन हमारा पहली जि़म्मेदारी हमारे अपने कलीसियाई परिवार के प्रति है। उदाहरण के तौर परः अगर आप अपने नगर के भिखारियों की मदद करने के लिए धन देते हैं, तो यह वास्तव में एक भला काम है। लेकिन अगर इस भले काम की वजह से आपके अपने बच्चों को भूखा रहना पड़े, तो यही भला काम फिर एक मूर्खता का काम बन जाता है। लेकिन हम स्वयं अपने धन से ऐसी मूर्खता का काम कभी नहीं करेंगे। हम परमेश्वर के धन से भी ऐसी मूर्खता न करें।

बाइबल कहती है, “अगर कोई अपने परिवार की अच्छी देखभाल नहीं करता, तो वह अपने विश्वास से भटक गया है और वह एक अविश्वासी से भी ज़्यादा बुरा है” (1 तीमुथियुस 5:8)। “इसलिए, जहाँ तक मौक़ा मिले सबके साथ भलाई करें, ख़ास तौर पर विश्वासी भाइयों के साथ” (गलातियों 6:10)।

एक पिता अपने बच्चों से माँग सकता है

पौलुस ने कुरिन्थुस के विश्वासियों से आग्रह किया कि वे दान इकट्ठा करके यरूशलेम के उन ग़रीब संतों को भेज दें जो ज़रूरतमंद थे (2 कुरिन्थियों 8,9, 1 कुरिन्थियों 16:2)।

लेकिन यह ध्यान दें कि ऐसा उसने सिर्फ उन लोगों से कहा जो उसके अपने आत्मिक बच्चे थे - कुरिन्थिुस के मसीही। उसने रोम और कुलुस्सै के मसीहियों से कभी यह नहीं कहा कि वे किसी जगह के ग़रीब विश्वासियों के लिए धन भेजें, क्योंकि उसने उन कलीसियाओं को स्थापित नहीं किया था - और इसलिए उसका उन पर कोई अधिकार नहीं था। एक आत्मिक पिता स्वयं अपने बच्चों से ग़रीब विश्वासियों को धन देने के लिए कह सकता है, लेकिन वह दूसरों के बच्चों को ऐसा करने के लिए नहीं कह सकता।

अगर आप इन सिद्धान्तों का पालन करेंगे, तो आप सुरक्षित रहेंगे। अगर हमें उन आर्थिक गड्ढों में गिरने से बचना है जिसमें सारी बेबीलोनी कलीसियाएँ गिर चुकी हैं, तो हमें इन आत्मिक मूल्यों को बचाए रखना होगा।

हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि जो “पहले स्वर्ग के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज करते हैं, यह पाएँगे कि उनकी सारी पार्थिव ज़रूरतें उनके स्वर्गीय पिता द्वारा पूरी की जा रही हैं” (मत्ती 6:33)। हम यह भी मानते हैं कि अगर हम नई वाचा के सिद्धान्तों के अनुसार उसका काम करेंगे, तो परमेश्वर उसके काम के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध कराता है।

धन के प्रति पौलुस का मनोभाव

नीचे दिए पदों में, धन के प्रति प्रेरित पौलुस के मनोभाव पर विचार करेंः

1 कुरिन्थियों 9:16-19: “अगर मैं सुसमाचार प्रचार करूँ तेा यह मेरे लिए कोई घमण्ड की बात नहीं, क्योंकि इसके लिए तो मैं विवश हूँ... तो मेरा प्रतिफल क्या है? यह कि जब मैं सुसमाचार प्रचार करूँ तो मुफ्त में करूँ, और सुसमाचार में जो मेरा अधिकार है, उसे पूरी रीति से उपयोग में न लाऊँ। हालांकि मैं सब मनुष्यों से स्वतंत्र हूँ, मैंने अपने आपको सबका दास बना लिया है कि और भी ज़्यादा लोगों को जीत सकूँ।”

यहाँ यह ध्यान दें कि सभी लोगों को जीत लाने के लिए उनका सेवक बनने का एक तरीक़ा यह है कि उन्हें मुफ्त में – “कोई क़ीमत लिए बिना” - सुसमाचार सुनाया जाए।

2 कुरिन्थियों 11:7-12: (एन.ए.एस.बी., लिविंग) “क्या मैंने तुम्हें ऊँचा उठाने के लिए अपने आपको दीन करके और मुफ्त में सुसमाचार सुनाकर पाप किया? …जब मैं तुम्हारे साथ और ज़रूरतमंद था, तब भी मैं किसी पर भार न बना... मैंने हरेक बात में अपने आपको अलग रखा कि तुम पर बोझ न बनूँ, और मैं ऐसा ही करता रहूँगा। अगर मसीह की सच्चाई मुझ में है, तो अखाया के क्षेत्र में मुझे गर्व करने से कोई नहीं रोक सकेगा। क्यों? …यह मैं इसलिए करूँगा कि मैं उन लोगों के पैरों के नीचे से ज़मीन निकाल सकूँ जो यह कहते हैं कि वे परमेश्वर का काम हमारे ही समान कर रहे हैं।”

यह ध्यान दें कि यहाँ पौलुस कहता है कि एक तरीक़ा जिसके द्वारा हम अपने आपको दीन कर सकते हैं और हमारी कलीसिया में विश्वासियों की सेवा कर सकते हैं, वह उन्हें “मुफ़्त में” सुसमाचार सुनाना है।

प्रेरितों के काम 20:33-35: “मैंने किसी के सोना, चाँदी या वस्त्रें का लोभ नहीं किया। तुम स्वयं जानते हो कि मेरे इन्हीं हाथों ने मेरी और मेरे साथियों की ज़रूरतें पूरी की हैं। मैंने तुम्हें हर बात से यह दिखाया है कि तुम भी इसी तरह कड़ी मेहनत करके निर्बलों को संभालो और प्रभु यीशु मसीह के इस वचन को याद रखो जो उसने स्वयं कहे, ‘लेने से देना धन्य है।’”

2 थिस्सलुनीकियों 3:7-9: “तुम स्वयं जानते हो कि तुम्हें किस तरह हमारा अनुकरण करना चाहिए, क्योंकि हमने मुफ्त में किसी की रोटी नहीं खाई, लेकिन रात-दिन मेहनत व तकलीफ़ों के साथ काम करते रहे कि हम तुम मे से किसी पर बोझ न बनें; ऐसा नहीं कि हमको इसका अधिकार नहीं है, पर इसलिए कि तुम्हारे लिए अपने आपको आदर्श बनाएं जिससे कि तुम हमारा अनुकरण करो।”

ऐसे प्रचारक बहुत ही कम हैं जो पौलुस के उदाहरण का अनुसरण करते हैं (जैसा कि पवित्र शास्त्र के इन भागों में लिखा है)। लेकिन हमारी बुलाहट उसके उदाहरण का अनुकरण करना है और आज के मसीही जगत के बेबीलोनी प्रचारकों से अलग नज़र आना है।

पौलुस जब बूढ़ा हो गया और मेहनत का काम नहीं कर सकता था, तब परमेश्वर ने उसकी ज़रूरतें पूरी करने के लिए एक अद्भुत रीति से इंतज़ाम किया था।

जब पौलुस यरूशलेम में बंदी था, तब कुछ यहूदियों ने उसे मार डालने की प्रतिज्ञा ली (प्रेरितों के काम 23:12-15)। लेकिन परमेश्वर की सर्वसत्ता में, पौलुस की बहन के पुत्र ने इसके बारे में सुन लिया और उसने बंदीगृह में आकर पौलुस को यह समाचार दे दिया (प्रेरितों के काम 23:16)। इस तरह पौलुस का जीवन बच गया। इसके बाद उसे कैसरिया ले जाया गया कि वह राज्यपाल फैलिक्स के आगे प्रस्तुत किया जाएँ फैलिक्स की यह अपेक्षा थी कि पौलुस अपनी आज़ादी हासिल करने के लिए उसे रिश्वत देगा, लेकिन पौलुस ने उसे कोई रिश्वत नहीं दी (प्रेरितों के काम 24:26)। एक राज्यपाल जिस रिश्वत की अपेक्षा करेगा, उसकी राशि निश्चय ही बहुत बड़ी होगी। फैलिक्स को यह कैसे मालूम हुआ कि पौलुस जैसे एक ग़रीब प्रचारक के पास इतना धन हो सकता है?

हम एक अनुमान लगा सकते हैं!

पौलुस तरसुस के धनवान यहूदी परिवार से था। उसके परिवार ने ज़रूर उसके मसीही बन जाने की वजह से उसकी विरासत से उसे वंचित कर दिया होगा। लेकिन जब उन्होंने सुना कि पौलुस को बंदीगृह में डाल दिया गया था, तब उन्हें उस पर दया आई होगी, और उन्होंने उसकी बहन के पुत्र के साथ उसकी बड़ी विरासत भेज दी होगी। इस तरह पौलुस को उसका बाक़ी बचा जीवन गुज़ारने के लिए पर्याप्त धन मिल गया होगा। बाद में, जब पौलुस रोम गया (जो उस समय का सबसे महँगा नगर था), तब उसने वहाँ एक घर किराए पर लिया और वहाँ वह दो साल तक रहा था (प्रेरितों के काम 28:30,31)। यह इस बात का एक और संकेत है कि पौलुस को उसकी विरासत में एक बड़ी धनराशि मिली थी।

पौलुस उसके जीवन के आर्थिक क्षेत्र में अनेक दशकों तक परमेश्वर का आदर करने में विश्वास-योग्य रहा था।

जब पौलुस अपनी देखभाल करने के लिए काम करने लायक़ नहीं रहा था, तब परमेश्वर ने उसकी पारिवारिक विरासत में से उसकी ज़रूरतें पूरी करने द्वारा उसका सम्मान किया था। परमेश्वर हमेशा उनका आदर करता है जो उसका आदर करते हैं। यह जानना हमारे लिए कितनी उत्साह-वर्धक बात है!

सभी प्राचीनों में पौलुस की तरह ही परमेश्वर का आदर करने की इच्छा होनी चाहिए, और अपने जीवन के अंत में उन्हें भी अपनी वही साक्षी तैयार करनी चाहिए जो पौलुस की थीः

“मैंने किसी के साथ अन्याय नहीं किया, किसी को भ्रष्ट नहीं किया, और किसी से कोई अनुचित लाभ नहीं उठाया” (2 कुरिन्थियों 7:2)।

अध्याय 13
सच्चे नबी और झूठे नबी

सभी विश्वासियों को नबी होने के लिए नहीं बुलाया गया है। लेकिन सभी विश्वासियों को यह आज्ञा दी गई है कि वे नबूवत के वरदान की खोज में रहें (1 कुरिन्थियों 14:1)। यह नई वाचा के युग में पवित्र आत्मा के उण्डेले जाने का एक परिणाम है (प्रेरितों के काम 2:17,18)।

नबूवत करना (नई वाचा में जो इसका अर्थ है), लोगों को उत्साहित करना, उन्हें चुनौती देना और उनकी आत्मिक उन्नति करना है (1 कुरिन्थियों 14:3)। पवित्र आत्मा से भरे हुए सभी विश्वासी कुछ देर के लिए नबूवत कर सकते हैं (1 कुरिन्थियों 14:31)। तब जो बोला गया है, दूसरे विश्वासियों को उसे परखना चाहिए, और यह जान लेना चाहिए कि उसमें से कितना परमेश्वर की तरफ से था और कितना मनुष्य की तरफ से था - हरेक बात को पवित्र शास्त्र के अनुसार परखा जाए (1 कुरिन्थियों 14:29)।

परमेश्वर ने कुछ लोगों को कलीसिया में नबी नियुक्त किया है। ये वे पुरुष हैं जिन्हें परमेश्वर ने एक दान के रूप में मसीह की देह को तैयार करने के लिए कलीसिया को दिया है। नबी विश्वासियों को चुनौती देने और सशक्त करने के लिए लम्बा उपदेश देते हैं। हम पढ़ते हैं, “यहूदा और सीलास ने, नबी होते हुए, भाइयों को लम्बा उपदेश देकर प्रोत्साहित और दृढ़ किया” (प्रेरितों के काम 15:32)। लेकिन बहुत कम विश्वासियों को कलीसिया में नबी होने के लिए बुलाया जाता है (1 कुरिन्थियों 12:28; 4:11)- और यह बात हरेक को याद रखनी चाहिए।

एक कलीसियाई सभा में किसी को नबूवत करते हुए सुनना एक संतरा खाने की तरह होता है। हमें छिलके को फेंक कर (जो मनुष्य का है) सिर्फ वही खाना चाहिए जो अन्दर है (जो परमेश्वर का है)। एक नए विश्वासी में छिलका बहुत मोटा होगा, और उसमें उसकी मात्र बहुत कम होगी जो परमेश्वर की तरफ से होगा। लेकिन हम उस थोड़े से भी ख़ुश रहेंगे। लेकिन एक ज़्यादा परिपक्व विश्वासी में, छिलका पतला होगा और जो परमेश्वर की तरफ होगा वह ज़्याद होगा।

बहनें भी नबूवत कर सकती हैं (प्रेरितों के काम 2:17,18)। लेकिन पैन्तेकुस्त के बाद, जब से नई वाचा का आरम्भ हुआ है, हम उसमें किसी स्त्री नबिया को नहीं पाते हैं। कोई स्त्री प्रेरित भी नहीं है।

प्रेरितों के काम 2:19 में हम फिलिप्पुस की पुत्रियों के बारे में पढ़ते हैं जो नबूवत करती थीं। लेकिन वे प्रेरित नहीं थीं (बाइबल के किंग जेम्स और ऐमप्लिफाइड अनुवाद यहाँ इस्तेमाल हुए मूल यूनानी शब्द के अर्थ को बिलकुल स्पष्ट कर देते हैं)। हम यह बाद में एक स्पष्ट रूप में देखते हैं - कि जब परमेश्वर ने फिलिप्पुस के घर में पौलुस को एक नबूवत-भरा संदेश देना चाहा, तो उसने फिलिप्पुस की चार पुत्रियों में से किसी पुत्री को इस्तेमाल नहीं किया। इसकी बजाय, वह दूर से नबी अगबुस को ले आया कि वह पौलुस को संदेश दे सके (देखें प्रेरितों के काम 21:10,11)।

आज जो भी स्त्री नबिया बनने की कोशिश करेगी, वह अंत में ईज़ेबेल - एक झूठी नबिया ही बनेगी - जो आख़िर में एक स्थानीय कलीसिया का नाश कर देगी (प्रकाशितवाक्य 2:20-26; 1 राजा 19:1,2)। अगर इस कथन से किसी बहन को ठोकर लगती है, तो मैं उससे यही निवेदन करूँगा कि वह अपने आपको दीन करके स्वयं ही नई वाचा का ध्यान-पूर्वक अध्ययन करे और यह देखे कि प्रभु ने नई वाचा में एक भी स्त्री को नबिया के रूप में नियुक्त नहीं किया है। परमेश्वर का काम परमेश्वर के तरीक़े से ही किया जाना चाहिए, किसी की अपनी दिलचस्पियों और कल्पनाओं के अनुसार नहीं!

जो भी नबूवत करता है, वह उसके विश्वास के परिमाण के अनुसार ही करे (रोमियों 12:6)। इस वजह से ही, नबूवत करते समय पौलुस इन शब्दों का इस्तेमाल करने से डरता था, “प्रभु यूँ कहता है...।” इसकी बजाय, वह यह कहना ज़्यादा उचित समझता था, फ्मेरा मानना है कि मुझमें भी परमेश्वर का आत्मा है” (1 कुरिन्थियों 7:40)। जब हम नबूवत करें, तो अगर हम पवित्र शास्त्र का ही कोई वचन न बोल रहे हों, हम कभी इन शब्दों का इस्तेमाल न करें, “प्रभु यूँ कहता है...।” यिर्मयाह हमें इन शब्दों का इस्तेमाल करने के लिए चेतावनी देता है (यिर्मयाह 23:21)। इसके अलावा, हम जब भी नबूवत करें, हम दूसरे विश्वासियों को यह अनुमति दें कि वे परख कर यह फैसला करें कि हमारा संदेश प्रभु की तरफ से है या नहीं।

निर्देशात्मक नबूवत से सचेत रहें

हमें अपने मनों में यह भी याद रखने की ज़रूरत है कि नई वाचा के किसी भी नबी ने दूसरों को कभी ऐसे निर्देश नहीं दिए कि उन्हें किसी ख़ास स्थिति में क्या करना चाहिए (जैसा कि पुरानी वाचा के नबी किया करते थे)। प्रेरितों के काम 11:28 में, हम देखते हैं कि अगबुस ने आने वाले एक अकाल के बारे में नबूवत की थी, लेकिन उसने इस बारें में एक शब्द भी नहीं कहा कि उसके बारे में किसी को क्या करना चाहिए। इसी तरह, प्रेरितों के काम 21:11 में, उसने पौलुस को यह बताया कि उसे यरूशलेम में बंदी बना कर ले जाया जाएगा, लेकिन उसने पौलुस से यह नहीं कहा कि उसे वहाँ जाना चाहिए या नहीं।

इसकी वजह यह है कि अब हरेक विश्वासी के पास पवित्र आत्मा है - और पवित्र आत्मा ही है जिसे अब हरेक विश्वासी को यह बताना है कि उसे क्या करना है। लेकिन पुरानी वाचा में, लोगों के अन्दर पवित्र आत्मा का वास नहीं था कि वह उनका मार्ग-दर्शन करता। इस वजह से ही जिस नबी में पवित्र आत्मा आता था, उसे लोगों को यह बताना पड़ता था कि प्रभु उनसे क्या चाहता है कि वे करें।

लेकिन ऐसी चेतावनियों के बावजूद ऐसे बहुत से अपरिपक्व विश्वासी हैं जो पुरानी वाचा के नबियों की तरह बर्ताव करते हुए विश्वासियों को यह बताते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए। सूर में कुछ ऐसे ही अपरिपक्व विश्वासी थे जो पौलुस से भी “स्वयं अपनी आत्मा में से” यह “नबूवत” करते हुए कहने लगे कि वह “यरूशलेम को न जाए” (प्रेरितों के काम 21:4)। लेकिन पौलुस ने एक उचित रूप में उनकी सलाह को न माना और चला गया (प्रेरितों के काम 21:13)। बाद में, प्रभु ने पुष्टि करते हुए पौलुस को एक निश्चित रूप में बता दिया कि उसका यरूशलेम जाना प्रभु की ही इच्छा में था (प्रेरितों के काम 23:11)। इसलिए सूर के वे विश्वासी उनकी तथा-कथित “नबूवत” में पूरी तरह ग़लत थे। वह प्रभु की ओर से नहीं थी। हमें अपनी कलीसियाओं में विश्वासियों को इस बात के प्रति सचेत कर देना चाहिए कि वे ऐसी किसी (तथा-कथित) “निर्देशात्मक नबूवत” को न मानें जिसमें उन्हें यह बताया जाता हो कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना है - वर्ना वे धोखे में पड़ जाएँगे।

नई वाचा की नबूवत

नई वाचा की नबूवत का सबसे प्रमुख उद्देश्य (1) परमेश्वर के लोगों को उनके पापों से बचाना, और (2) कलीसिया का निर्माण करना है। हमें अपनी सभी कलीसियाई सभाओं में यही प्रचार करना चाहिए - क्योंकि यीशु इन्हीं दो उद्देश्यों के लिए आया थाः (1) उसके लोगों को सारे पाप से बचाने के लिए (नई वाचा में यह पहली प्रतिज्ञा है - मत्ती 1:21); और (2) अपनी कलीसिया का निर्माण करने (मत्ती 16:18)।

दूसरी तरफ, अगर आप पाप से मुक्ति पाने और मसीह की देह में सम्बंध बनाने से ज़्यादा पवित्र आत्मा के दान वरदानों के इस्तेमाल के बारे में प्रचार करेंगे, तो आपकी कलीसिया जल्दी ही कुरिन्थिुस की कलीसिया जैसी बन जाएगी - जो पवित्र आत्मा के सारे दान-वरदानों का इस्तेमाल कर रही थी (1 कुरिन्थियों 1:7), लेकिन भीतरी लड़ाई-झगड़ों से भरी, और सांसारिक व अपरिपक्व थी। और यह हो सकता है कि अंत में आपकी कलीसिया लौदीकिया की कलीसिया जैसी बन जाए - अभागी, तुच्छ, दरिद्र, अंधी और नंगी - लेकिन जिसे इस बारे में कोई जानकारी ही न हो (प्रकाशितवाक्य 3:17)! यह एक विपत्ति होगी।

अगर आप नई वाचा की कलीसिया बनाएँगे, तो आपके प्रचार में जिन बातों पर ज़ोर दिया जा रहा हो, वे वही हों जिन पर यीशु और प्रेरितों ने ज़ोर दिया था - उन बातों पर नहीं जो हम आजकल ज़्यादातर कलीसियाओं में सुनते हैं।

उपदेशक या प्रभु के संदेश-वाहक

अगर आप एक नियमित रूप में प्रभु की सुनेंगे, तो आप उसे हर समय आपको डाँटता और सुधारता हुआ ही सुनेंगे। यहाँ हबक्कूक का उदाहरण अनुकरणीय है। उसने कहा, “मैं अपने पहरे पर खड़ा रहूँगा, और प्रतीक्षा करूँगा कि प्रभु मुझसे क्या कहेगा, और मैं ताड़ना के समय क्या जवाब दूँगा” (हबक्कूक 2:1)।

पौलुस ने कहा कि वह “हरेक मनुष्य को चेताते हुए और सारे ज्ञान से सिखाते हुए” मसीह का ऐसा प्रचार करता है कि “हरेक मनुष्य को मसीह में सिद्ध करके उपस्थित कर सके।” इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए, वह “मसीह की उस शक्ति के अनुसार परिश्रम करता था जो उसमें सामर्थ्य के साथ काम करती थी” (कुलुस्सियों 1:28,29)।

पौलुस दूसरों को तभी सिद्ध और पूर्ण करके प्रस्तुत कर सकता था, जब वह पहले प्रभु को स्वयं अपनी ख़ुदी में रखे अपने भरोसे और अपने जैविक बल को तोड़ने की अनुमति देने द्वारा, प्रभु की सामर्थ्य को अपने अन्दर काम करने देता था। प्रभु हममें से हरेक के अन्दर भी यही करना चाहता है। पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से, प्रभु ने पौलुस को एक प्रभावी रूप में उसकी सेवा की योग्यता प्रदान की। और प्रभु हमें भी उसी सामर्थ्य से सुसज्जित करना चाहता है कि हम भी एक प्रभावी रूप में उसकी सेवा कर सकें।

हमारी बुलाहट यह है कि हम कलीसिया के लिए प्रभु के अभिषिक्त संदेश-वाहक हों, लोगों को प्रभावित करने वाले उपदेशक नहीं। वे प्राचीन जो इसलिए प्रचार करते हैं कि वे लोगों को प्रभावित कर सकें, सिर्फ बेबीलोन ही तैयार करते हैं; जो मनुष्यों का आदर पाने के लिए प्रचार करते हैं, वे उन लोगों जितने ही बुरे हैं जो लोगों का धन पाने के लिए प्रचार करते हैं।

पौलुस ने कहा, “हम परमेश्वर के संदेश-वाहक दूतों की तरह बोलते हैं, क्योंकि उसने हम पर यह भरोसा किया कि हम सत्य बताएं। हम सुनने वालों के स्वाद के अनुसार उसके संदेश को रत्ती भर भी नहीं बदलते, क्योंकि हम सिर्फ परमेश्वर की सेवा करते हैं, जो हमारे हृदयों के गहरे विचारों को परखता है। जैसा कि तुम अच्छी तरह जानते हो, हमने एक बार भी चापलूसी द्वारा तुम्हें जीतने की कोशिश नहीं की, और परमेश्वर जानता है हमने सिर्फ इस वजह से तुम्हारे मित्र होने का दिखावा नहीं किया कि तुम हमें अपना धन दो” (1 थिस्सलुनीकियों 2:4,5)।

यह हम प्राचीनों के अनुसरण के लिए कितना ज़बरदस्त उदाहरण है!

मसीह की देह में अलग-अलग सेवकाइयों को जानना:

जब पौलुस और बरनाबास पाफोस में सेवकाई कर रहे थे, तो हम उन दोनों की सेवा के तरीक़े में एक स्पष्ट अन्तर देखते हैं (देखें प्रेरितों के काम 13:7-10)। पौलुस ने फ्पवित्र आत्मा से भरकर” इलीमास जादूगर की ताड़ना की। लेकिन बरनाबास ने (जो एक भला मनुष्य था और पवित्र आत्मा और विश्वास से परिपूर्ण था), कभी लोगों को इस तरह नहीं डाँटा था। परमेश्वर ने बरनाबास को एक अलग सेवकाई दी थी। इस बात को देखते हुए, पौलुस ने बरनाबास को अपनी तरह बोलने के लिए कभी नहीं कहा। और बरनबास ने उस कृपा को देखा जो पौलुस को दी गई थी, इसलिए उसने भी पौलुस को उस तरह से बोलने से नहीं रोका जैसे पौलुस बोलता था।

पवित्र आत्मा हरेक प्रचारक को लोगों को पौलुस की तरह, या स्तिफनुस की तरह (प्रेरितों के काम 7:51,52) ताड़ना देने के लिए नहीं कहता - क्योंकि कुछ लोगों को बरनाबास की तरह सेवा करने के लिए बुलाया गया है। लेकिन जिनकी पौलुस जैसी सेवकाई हो, आपको उन्हें उनकी सेवकाई पूरी करने की अनुमति देनी चाहिए - और उनसे यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि वे आपकी तरह बोलें।

जैसे एक मानवीय देह में, वैसे ही परमेश्वर ने मसीह की देह में सभी के लिए एक-जैसी सेवकाई नहीं रखी है। गला धीरे से उसमें डाले गए खाने को निगलता है। लेकिन पेट उसी खाने पर उत्तेजना के साथ रासायनिक तत्व उण्डेलता है। गले को शायद यह समझ न आए कि पेट खाने पर रासायनिक तत्व क्यों उण्डेलता है, लेकिन वह पेट को उसका काम करने से नहीं रोकता है। परमेश्वर ने ही पेट की “सेवकाई” तय की है, जिससे कि खाना अच्छी तरह पचाया जा सके और वह उलटी द्वारा बाहर न फेंक दिया जाएँ मसीह की देह में भी, सभी सेवकाईयाँ हालांकि एक-दूसरे से भिन्न हैं, फिर भी उनका मूल्य एक-समान है। पौलुस वह नहीं कर सकता जो बरनाबास कर सकता है, और बरनाबास वह नहीं कर सकता जो पौलुस कर सकता है। इसलिए हम ऐसे हरेक व्यक्ति को वह करने दें जिसके लिए उसे परमेश्वर ने बुलाया है।

लेकिन अगर कोई पवित्र शास्त्र के किसी वचन को तोड़ता है, तो हमें उसके साथ पहले अकेले में बात करनी चाहिए, और उसे पवित्र शास्त्रों में से उसकी भूल दिखानी चाहिए। लेकिन हम उस सेवकाई द्वारा दूसरों का न्याय न करें जो परमेश्वर ने हमें दी है।

मसीह की देह में हम सभी की विभिन्न सेवकाईयाँ होती हैं। लेकिन हमारा झुकाव अक्सर इस सोच की तरफ रहता है कि हमारी सेवकाई बाक़ी सब से ज़्यादा महत्वपूर्ण है। लेकिन परमेश्वर का वचन हमें उपदेश देता है कि हम “नम्रतापूर्वक अपनी अपेक्षा दूसरे को उत्तम जानें” (फिलिप्पियों 2:3)।

आत्माओं को परखें

पवित्र शास्त्रों में हमें यह चेतावनी दी गई हैः “प्रियों, हरेक आत्मा पर भरोसा न करो, बल्कि आत्माओं को परखो कि वे परमेश्वर की ओर से हैं या नहीं, क्योंकि सँसार में अनेक झूठे नबी निकल पड़े हैं” (1 यूहन्ना 4:1)। सभी तथा-कथित “नबूवतें” परखी जाएँ और उन पर आँखें मूँद कर विश्वास न कर लिया जाए (देखें 1 कुरिन्थियों 14:29)। “सब बातों को सावधानी से परखो; जो अच्छी है उसे दृढ़ता पूर्वक थामे रहो” (1 थिस्सलुनीकियों 5:21)।

पुरानी वाचा में, परमेश्वर ने अपने लोगों को झूठे नबियों के बारे में इस तरह चेतावनी दी थीः “अगर तू अपने मन में कहे, ‘जो वचन प्रभु ने नहीं कहा है, उसे हम कैसे पहचानें?’ तो पहचान यह हैः ‘जब कोई नबी प्रभु के नाम से बोले, और वह पूरा न हो, या सच न निकले, तो यही वह बात है जो परमेश्वर ने नहीं कही है; उस बात को नबी ने घमण्ड में आकर कहा है; तू उससे न डरना” (व्यवस्थाविवरण 18:21,22)।

धोखे से बचने के लिए सबसे पहले हमें अपने विषय के सत्य से प्रेम करने वाले और अपना न्याय करने वाले बनना होगा (2 थिस्सलुनीकियों 10,11) - ख़ास तौर पर धन के प्रेम, लैंगिक अशुद्धता और मनुष्यों से आदर पाने के क्षेत्रें में। वे लोग जो इन पापों से संघर्ष नहीं करते, धोखा खाएँगे। और यह किसी भी प्राचीन के साथ हो सकता है - उसके बाइबल के सारे ज्ञान के बावजूद।

“इसलिए, जो यह समझता है कि मैं स्थिर हूँ, वह सावधान रहे कि कहीं गिर न पड़े” (1 कुरिन्थियों 10:12)।

यह याद रखें कि यीशु और पौलुस दोनों ने ही यह कहा था कि अंत के दिनों का सबसे बड़ा लाक्षणिक चिन्ह् “धोखा” होगा (मत्ती 24:4-5; 11:23-25; 1 तीमुथियुस 4:1; 2 थिस्सलुनीकियों 2:9-11)। अगर हमें धोखे से बचना है और एक पूरे उद्धार का अनुभव पाना है, तो हमें लगातार स्वयं अपना न्याय करते रहने की मनोदशा में रहना होगा, क्योंकि “धर्मी जन भी मुश्किल से ही उद्धार पाएगा” (1 पतरस 4:17,18)। अगर हमें परमेश्वर का राज्य पाना है और दूसरों को उसमें पहुँचाना है, और कलीसिया का निर्माण करना है, तो हमें हर तरह की पापमय विचार-धारा के खिलाफ़ “हिंसात्मक लोग” बनना होगा (मत्ती 11:12)।

झूठे नबियों से सावधान रहें

आरम्भिक प्रेरितों ने एक झूठे नबी को पहचानने के बारे में जो सिखाया, वह इस प्रकार थाः “जो भी धन की माँग करता है, वह एक झूठा नबी है। तुम उसकी न सुनना।” (“द डाइडैक - द टीचिन्ग्ज़ ऑफ द ट्वैल्व अपोस्टल्ज़” में से।) यह पुस्तक पहली शताब्दी ईसवीं में सबसे पहले लिखी गई मसीही पुस्तकों में से एक थी)। इस मानक के अनुसार, हम यह देख सकते हैं कि आज मसीही जगत में झूठे नबियों की भरमार है।

आजकल टी.वी. पर दिखाए जा रहे मसीही कार्यक्रमों और उनकी “तथा-कथित चँगाई सभाओं” का (जो एक जादूगर के कारनामे से ज़्यादा मिलती-जुलती हैं), पूरे जगत में एक व्यापक प्रभाव पड़ रहा है। इन प्रचारकों के निजी जीवन के बारे में हमें ज़्यादा कुछ मालूम नहीं होता, हमें उनके घरेलू जीवन के बारे में पता नहीं होता, हमें यह भी मालूम नहीं होता कि उनका तलाक़ हो गया है या नहीं, या यह कि वे एक स्थानीय कलीसिया का हिस्सा हैं या नहीं। लेकिन धन के प्रति उनके मनोभाव, और उनकी सार्वजनिक सेवकाई के तरीक़ों से, हम यह स्पष्ट देख सकते हैं कि वे मसीह के सेवक नहीं हैं।

एक प्रचारक का मूल्याँकन उसकी लोकप्रियता, अच्छे प्रदर्शन, या “सामने नज़र आ रहे नतीजों” के आधार पर कभी न किया जाएँ मैं “सामने नज़र आ रहे नतीजे” इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जो नतीजे हमें आज बहुत प्रभावशाली नज़र आ रहे हैं, अंतिम दिन उनका मूल्याँकन परमेश्वर द्वारा “लकड़ी, घास-फूस और भूसे” के रूप में किया जाएगा।

यीशु ने कहा कि ऐसे अनेक प्रचारक जिन्होंने वास्तव में उसके नाम में असली चमत्कार किए होंगे, वे भी अंतिम दिन में ऐसे लोग होने की वजह से निकाल दिए जाएँगे जिन्होंने अपनी जीवन “पाप में बिताए” थे (मत्ती 7:22-23)। तब वह ऐसे लोगों का न्याय और भी कितनी कठोरता से करेगा जिन्होंने झूठे “चिन्ह-चमत्कार” दिखाए होंगे!

हरेक प्रचारक का मूल्याँकन नीचे दिए गए मापदण्डों के अनुसार करना अच्छा रहेगाः

  1. क्या उसके तरीक़े प्रभु यीशु मसीह द्वारा उसकी सेवकाई में अपनाए गए तरीक़ों के साथ और नई वाचा में दिए गए सिद्धान्तों के साथ सुसँगत हैं - ख़ास तौर पर धन के क्षेत्र में?
  2. क्या प्रचारक उसके प्रचार द्वारा हमें सिर्फ भावनात्मक रूप में उत्तेजित करता है या वह परमेश्वर के वचन से हमारे मन को भी क़ायल करता है और हमें मसीह की आज्ञाओं का पालन करने के लिए उत्तेजना से भरता है? हमें मानवीय बोली की कुशलता (जो राजनेताओं और टी.वी. के सांसारिक प्रस्तुतकर्ताओं में भी होती है) और पवित्र आत्मा के अभिषेक के बीच फ़र्क करना होगा।
  3. क्या वह प्रचार हमारा मनोरंजन करता है और हमें हँसी-मज़ाक में ले जाता है, या वह हमें पाप के लिए दोषी ठहराता है और हमें मन-फिराव में पहुँचाता है?
  4. क्या वह प्रचार हमें प्रचारक का प्रशँसक बना रहा है या हमें मसीह के पास पहुँचा रहा है?

आप एक ऐसी छोटी-सी सूची द्वारा भी यह जान सकते हैं कि आपने अनेक प्रचारकों का मूल्याँकन अब तक एक कमज़ोर मानक द्वारा किया था, और उसका नतीजा यह रहा था कि आपने अपने आत्मिक और आर्थिक जीवन में दोहरा नुक़सान उठाया था (क्योंकि आपने ऐसे बेईमान प्रचारकों को अपना धन भी दिया था)! इसलिए यह ध्यान रखें कि भविष्य में आप अपने धन की हानि न उठाएँ।

अनेक प्रचारक प्रभु के नाम में दान लेते हैं। लेकिन यह प्रभु का नाम व्यर्थ लेना है और प्रभु यीशु का एक ग़लत ढंग से प्रतिनिधित्व करना है, क्योंकि प्रभु ने उसके पृथ्वी पर रहने के दिनों में स्वयं कभी किसी से धन की माँग नहीं की थी। तो हम उसके नाम में कैसे किसी से धन की माँग कर सकते हैं? प्रभु ने स्वर्ग में जाने के बाद धन के बारे में उसका विचार नहीं बदल लिया है। यह एक और ऐसा तरीक़ा है जिसमें प्रचारक ऐसे भोले-भाले विश्वासियों को धोखा देते हैं जिन्होंने ध्यान-पूर्वक नई वाचा को नहीं पढ़ा है।

अनेक तथा-कथित “चंगा-करने-वाले सुसमाचार-प्रचारक” (सार्वजनिक सभाओं, टी.वी. और पत्रिकाओं के लेखों में) यह प्रचार करते हैं कि परमेश्वर कुछ भी कर सकता है - अंधी आँखें खोल सकता है, लंगड़ों को चलता कर सकता है, कैंसर ठीक कर सकता है, और मुर्दों को भी जिला सकता है - और फिर वे अपने श्रोताओं से कहते हैं कि वे “इन चमत्कारों को अधिकार के साथ हासिल करने के लिए अपने विश्वास को सक्रिय करें”। और ये सब कहने के बाद, वे अपने श्रोताओं से भीख माँगते हुए बहुत आग्रह के साथ कहते हैं कि वे उन्हें बड़ी धनराशियाँ भेजें! इस तरह, इन प्रचारकों के अनुसार, सिर्फ एक ऐसा काम है जो सर्वशक्तिशाली परमेश्वर नहीं कर सकता, वह यह है कि अपने काम के लिए वह उन्हें धन नहीं दे सकता! क्या आपको इस बात का बेतुकापन नज़र आ रहा है? धन की भीख माँगने द्वारा वे प्रभु यीशु के नाम का अपमान करते हैं। और इस तरह धन की भीख माँगने वाले लगभग ऐसे सभी लोग यह दावा करते हैं कि वे “पवित्र-आत्मा में बपतिस्मा पाए हुए हैं औरे अन्य-भाषाएँ बोलते हैं”! यह स्पष्ट है कि उन्हें किसी दुष्टात्मा ने ज्योतिर्मय स्वर्गदूत के रूप में आकर धोखा दिया है और उन्हें कोई नकली अनुभव दे दिया है (2 कुरिन्थियों 11:13-15)। लेकिन ऐसे लाखों विश्वासी हैं जो इस धोखे को नहीं देख पाते और वे मूर्खता-पूर्वक उन्हें अपना धन भेज देते हैं।

प्रचारक कुछ अजीब काम करने द्वारा भी विश्वासियों को धोखा दे रहे हैं (जैसे वे उन्हें धकेल कर नीचे गिरा देते हैं और उन्हें अनियंत्रित रूप में हँसने वाला बना देते हैं), और फिर कहते हैं कि ये पवित्र आत्मा का प्रकटीकरण है। अगर आप ऐसे प्रचारकों से धोखा खाने से बचना चाहते हैं, तो सब बातों को इस चार-स्तरीय छानबीन द्वारा परखेंः

  1. क्या यीशु ने ऐसा किया था?
  2. क्या यीशु ने ऐसा सिखाया था?
  3. क्या प्रेरितों ने ऐसा किया था?
  4. क्या प्रेरितों ने ऐसा सिखाया था?

अगर प्रचारक के काम छानबीन के इन सभी चारों तरीक़ों में नाकाम हो जाते हैं, तब आप उसे और उसके कामों को जालसाज़ी-भरी नकल के रूप में अस्वीकार कर सकते हैं - फिर चाहे वह कितना भी विख्यात् या लोकप्रिय प्रचारक भी क्यों न हो।

प्रचारक जो ग़रीबों का शोषण करते हैं

एक बात जिसके खिलाफ़ मेरी प्रतिक्रिया बहुत तीव्र होती है, वही बात है जिसके खिलाफ़ यीशु ने भी बहुत तीव्र प्रतिक्रिया की थी। यीशु ने जब यह देखा कि परमेश्वर की सेवा करने का दावा करने वाले लोग ही परमेश्वर के नाम में ग़रीब लोगों का धन लूट रहे थे, तो उसने उनके खिलाफ़ एक कोड़े का इस्तेमाल किया (यूहन्ना 2:14-17)।

ऐसे प्रचारक जब अज्ञानी विश्वासियों को परमेश्वर की दण्डाज्ञा की इसलिए धमकी देते हैं क्योंकि वे परमेश्वर के काम के लिए धन नहीं देते, तब वे प्रभु यीशु को एक धन-लोलुप ईश्वर के रूप में दर्शाते हैं। जब वे प्रभु को इस तरह बदनाम करते हैं, तब यह देखकर मेरे अन्दर एक पवित्र रोष भड़कने लगता है - और यही वजह है कि मैंने पिछले 40 सालों से इस बुराई के खिलाफ़ इतनी दृढ़ता से प्रचार किया है।

मलाकी 3:8,9 बाइबल के ऐसे पद हैं जिन्हें एक सबसे ज़्यादा ग़लत रूप में प्रस्तुत किया गया है, और एक सबसे ज़्यादा ग़लत रूप में समझा गया है। वहाँ परमेश्वर कहता है, “क्या मनुष्य परमेश्वर को लूट सकता है? फिर भी तुम मुझे लूटते हो! लेकिन तुम पूछते हो, ‘हमने किस बात में तुझे लूटा है?’ दसवाँश और भेंटों में। तुम पर भारी श्राप आ पड़ा है, क्योंकि तुम मुझे लूटते हो, वरन् सारी जाति ऐसा करती है!” लेकिन वह पद इस्राएल के लोगों के लिए था जो पुरानी वाचा के अधीन थे। इस्राएल एक ऐसा देश था जिसकी सरकार का परमेश्वर प्रमुख था; और उन्हें 10 प्रतिशत आयकर देना पड़ता था (जिसे दसवांश कहा जाता था) जिससे सरकारी कर्मचारियों (लेवीयों) की देखभाल की जाती थी। और, जैसा कि हरेक देश में होता है, जो आयकर नहीं भरते, उन्हें दण्ड दिया जाता है।

लेकिन नई वाचा में यह हम पर लागू नहीं होता है। पैन्तेकुस्त के दिन पुरानी वाचा रद्द कर दी गई थी। अब कलीसिया एक परिवार है जिसमें परमेश्वर हमारा पिता है। और कोई पिता अपनी संतान से आयकर नहीं माँगता है! हमारे लिए, जो परमेश्वर की संतानें हैं, 2 कुरिन्थियों 9:7 में यह वचन दिया गया हैः “हरेक जन जैसा उसने अपने मन में निश्चित किया है वैसा ही करे, न कुढ़-कुढ़ कर और न दबाव से, क्योंकि परमेश्वर हर्ष से देने वालों से प्रसन्न होता है।”

यह एक शर्मनाक बात है कि इतने सारे प्रचारक हमारे प्रभु को ऐसा प्रदर्शित करते हैं मानो वह लोगों का धन चाहता है - और ख़ास तौर वे भारत जैसे एक ग़ैर-मसीही देश में ऐसा करते हैं!

ऐसी बातें न सिर्फ मुझे क्रोधित करती हैं, बल्कि मुझे विलाप करने वाला भी बनाती हैं, क्योंकि इससे प्रभु के नाम की बदनामी होती है।

पौलुस ने कहा, फ्तुम सब मिलकर मेरा अनुकरण करो, और ध्यान से देखो जो इस रीति से चलते हैं जिसका नमूना तुम हममें देखते हो। क्योंकि मैं तुमसे पहले अनेक बार कह चुका हूँ और अब भी रो-रोकर कहता हूँ कि ऐसे बहुत हैं जो अपने आचरण से मसीह की सूली के शत्रु हैं” (फिलिप्पियों 3:17-19)।

पौलुस ने पाप और धन-लोलुप मनोभाव के खिलाफ़ इतनी दृढ़ता से प्रचार किया था कि देमास जैसे लोग उसे छोड़ कर चले गए थे। अपने अंतिम पत्र में पौलुस कहता है, “तू जानता है कि वे सब जो एशिया में हैं, मुझसे विमुख हो गए हैं, जिनमें फुगिलुस और हिरमुगिनेस हैं।” लेकिन कुछ लोग अंत तक उसके साथ खड़े रहे थे। “उनेसिफुरुस के कुटुम्ब पर प्रभु की कृपा हो, क्योंकि वह मुझसे लज्जित नहीं हुआ था।” और पौलुस ने तीमुथियुस से आग्रह किया, “जो खरे वचन तूने मुझसे सुने हैं, उन्हें दृढ़ता से थामे रहना” (2 तीमुथियुस 1:13-16)।

पहली शताब्दी में भी “परमेश्वर के वचन की फेरी लगाने वाले (गली-गली सस्ते में बेचने वाले) लोग थे” (2 कुरिन्थियों 2:17)।

परमेश्वर और धन (मामोन) आज भी ऐसे दो स्वामी हैं जो मनुष्य पर राज करना चाहते हैं (जैसा कि यीशु ने कहा था)। अगर आप परमेश्वर को अपने ऊपर पूरा राज नहीं करने देंगे, तो धन आपके ऊपर राज करेगा - और तब आप धोखेबाज़ों और धन-के-प्रेमी प्रचारकों से धोखा खाएँगे।

अगर अंत के इन दिनों में आप धोखे से बचना चाहते हैं, तो “धन-के-प्रेम” से पूरी तरह मुक्त होने की अभिलाषा रखें।

नई वाचा के अनुसार चलें, और उन्हीं सिद्धान्तों को अपना मार्ग-दर्शक बनाएँ जिनके अनुसार हमारे प्रभु यीशु ने अपना जीवन बिताया और सेवकाई की थी, तब आप कोई ग़लती नहीं करेंगे।

अंत के इन दिनों का धोखा

2 थिस्सलुनीकियों अध्याय 2 हमें अंत के उन दिनों के बारे में चेतावनी देता हैः “मसीह-विरोधी स्वयं को ऊँचा उठाएगा और अपने आपको ईश्वर घोषित करेगा... चिन्ह् और झूठे आश्चर्य-कर्म दिखाएगा” (पद 4,9)। “मसीह-विरोधी” की यह आत्मा अब भी मसीही जगत में पाई जा सकती है (देखें 1यूहन्ना 2:18-20)। ये ऐसे प्रचारकों में पाई जाती है जो अपने आपको ऊँचा उठाते हैं, और अपने झुण्ड को प्रति परमेश्वर-जैसा व्यवहार करते हैं - ऐसा वे उन्हें अपने वश में रखने, “नकली नबूवतें” करने, झूठे चिन्ह्-चमत्कार दिखाने, उन्हें अपने साथ जोड़ने, उनसे भेंट/दान माँगने (एली के पुत्रें की तरह 1 शमूएल 2:12-17), औैर दूसरे बहुत से तरीक़ों द्वारा करते हैं।

उपरोक्त अध्याय के पद 10 और 11 (2 थिस्सलुनीकियों 2) हमें चेतावनी देते हैं कि स्वयं परमेश्वर कुछ लोगों पर भरमाने वाली सामर्थ्य भेजेगा। ये पद हमें बताते हैं कि हम धोखा खाने से बच सकते हैं, अगर हम “सत्य से प्रेम करेंगे और उद्धार पाना चाहेंगे”, अर्थात्ः

  1. अगर हम अपने उस पाप, स्वार्थ और घमण्ड के सत्य से प्रेम करेंगे जो परमेश्वर हमें दिखाता है;
  2. अगर हम उस सत्य से प्रेम करेंगे जो परमेश्वर हमें उसके वचन में दिखाता है; और
  3. अगर हम “पाप से बचाए जाने” के लिए उत्सुक होंगे (उदाहरण के तौर पर, स्वार्थ, घमण्ड, लैंगिक अशुद्धता, क्रोध और धन का प्रेम जैसे पापों से)।

इन दिनों में, परमेश्वर विश्वासियों को जगत की अनेक तथा-कथित फ्मसीही” सेवकाइयों द्वारा परख रहा है। हरेक विश्वासी बस उन्हीं सेवकाइयों की तरफ खींचा जाएगा जो उसकी गहरी लालसाओं को संतुष्ट करती होंगी। वे जो ईश्वरीय जीवन के भूखे और प्यासे हैं, वे उन्हीं सेवकाइयों की तरफ खींचे जाएँगे जो इसका प्रचार करती हैं।

लेकिन प्रभु ने अनेक झूठी सेवकाइयों को भी फलने-फूलने दिया है – “स्वास्थ्य-सम्पन्नता का सुसमाचार”, “अन्य-भाषाओं की नकल”, “आत्मा में मार गिराना”, “झूठे चिन्ह्-चमत्कार”, “झूठी नबूवत की सेवकाइयाँ”, “बार-बार दोहराई जाने वाली भावात्मक स्तुति जिसे एक ग़लत ढंग से ‘आराधना’ कहा जाता है”, “मनोवैज्ञानिक प्रचार जो लोगो को उनके पाप में तसल्ली देते हैं”, “मसीही(!) रॉक-सँगीत”, “चेले-बनाए-बिना सुसमाचार-प्रचार”, आदि। परमेश्वर ने इन अंत के दिनों में इन्हें फलने-फूलने दिया है कि वह उसके बच्चों को परखे। अनेक विश्वासी इस परख में नाकाम हो जाएँगे, क्योंकि वे प्राथमिक तौर पर ईश्वरीयता के खोजी नहीं हैं।

लेकिन परमेश्वर के सच्चे आराधक, इस धोखे से बच जाएँगे, क्योंकि अपने अनुकरणीय उदाहरण के रूप में वे यीशु की तरफ देखते हैं, और शिष्यता के मार्ग में चलते हैं। ऐसे विश्वासी अपने अन्दर मौजूद पाप को तुरन्त मान लेंगे, और मनुष्यों की परम्पराओं और स्वयं अपनी चतुराई से भरे तर्कों के आगे नहीं, बल्कि हमेशा पवित्र-शास्त्र के अधिकार के आगे अपने सिर झुकाएंगे, और इसलिए, वे कभी धोखा नहीं खाएंगे।

अध्याय 14
परमेश्वर के वचन का प्रचार ईश्वरीय तरीक़े से करना

“जो भी उपदेश दे, वह ऐसे दे मानो परमेश्वर ही का वचन देता हो” (1 पतरस 4:11)।

अगर हमें परमेश्वर के वचन का प्रचार एक प्रभावशाली रूप में करना है, तो हमें अपना जीवन परमेश्वर के सम्मुख बिताना होगा। प्रभु ने यशायाह, यहेज़केल और यूहन्ना को इसी तरह प्रचार करने के लिए तैयार किया था।

l यशायाह 6:1 में, यशायाह ने परमेश्वर की महिमा को देखा, और फिर परमेश्वर ने अपने लोगों के लिए उसे एक संदेश दिया (यशायाह 6:9)।

l यहेज़केल 1:26 में, यहेज़केल ने परमेश्वर की महिमा को देखा, और फिर परमेश्वर ने अपने लोगो के लिए उसे एक संदेश दिया (यहेज़केल 2:3)।

l प्रकाशिवाक्य 1:17 में, प्रेरित यूहन्ना ने यीशु की महिमा को देखा - और फिर प्रभु ने उससे कहा कि वह सातों कलीसियाओं के लिए उसके संदेश को लिख ले (प्रकाशित 1:19)।

अगर हम हर समय पवित्र आत्मा के अभिषेक में रहेंगे, तो हम हर समय प्रभु के सम्मुख रहेंगे। पवित्र आत्मा हमें परमेश्वर के वचन को एक संतुलित और नबूवत के तरीक़े से प्रचार करना सिखाएगा जो परमेश्वर के लोगों को चुनौती और उत्साह दोनों ही देगा और इस तरह उन्हें उन्नत करेगा (1 कुरिन्थियों 14:3)।

एक संदेश में चुनौती और ताड़ना देने वाले हमारे कठोर वचन हमेशा दूसरे संदेश में सान्त्वना और उत्साह के वचनों द्वारा संतुलित किए जाने चाहिए।

धन और बोली में विश्वास-योग्य

प्रचार सिर्फ अभिषिक्त ही न हो, बल्कि वह पवित्र आत्मा के प्रकाशन पर आधारित होना चाहिए। जब हम प्रचार करते हैं, तब हमारी बुलाहट दूसरों के साथ परमेश्वर के वचन की भरपूरी को बाँटने की बुलाहट होती है। लेकिन हम उस भरपूरी को परमेश्वर से कैसे प्राप्त कर सकते हैं?

परमेश्वर के वचन का अध्ययन महत्वपूर्ण है। लेकिन हमें कुछ और बातों की भी ज़रूरत होती है। यीशु ने कहा कि “इससे पहले कि एक शास्त्री (वचन का अध्ययन करने वाला) परमेश्वर के वचन के भण्डार की भरपूरी में से नए और पुराने प्रकाशन निकाल सके, उसका चेला बनना ज़रूरी है (जो परमेश्वर के वचन का पालन करता हो)” (मत्ती 13:52 - मैसेज भावानुवाद)।

परमेश्वर के वचन का एक प्रभावशाली प्रचारक होने के लिए, एक व्यक्ति को जिन दो क्षेत्रें में प्राथमिक रूप में विश्वास-योग्य होने की ज़रूरत है, वे उसके धन और उसकी जीभ के इस्तेमाल के क्षेत्र हैं।

हमारा धनः यीशु ने कहा, “अगर तुम अधर्म के धन में विश्वास-योग्य नहीं रहे, तो तुम्हें सच्चा धन कौन सौंपेगा” (लूका 16:11)। सच्चा धन मसीह-समान होना, और पवित्र आत्मा का अभिषेक पाना और पवित्र शास्त्र में दिए गए परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन पाना है। हम इस धन को तभी पा सकते हैं अगर हम अपने व्यक्तिगत जीवन में धन के इस्तेमाल में विश्वास-योग्य रहेंगे। इस क्षेत्र में नाकाम रहना ही वह मुख्य कारण है कि आज मसीही जगत में प्रकाशित-प्रचारों की कमी है। अनेक प्रचारक धन के मामले में बेईमान हैं। अनेक उसमें ईमानदार हो सकते हैं लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि वे उसके इस्तेमाल में भरोसमंद भी हों। इसलिए हमें इस बारे में यहाँ इससे ज़्यादा और कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है।

हमारी बोलीः हमारी बोली में हमारा विश्वास-योग्य होना वह दूसरी बात है जो यह तय करेगी कि परमेश्वर हमारे द्वारा बात कर सकता है या नहीं। प्रभु ने यिर्मयाह से कहा, “अगर तू निकम्मे में से मूल्यवान को निकाल लाए (अपनी बातचीत में), तब तू मेरा मुख (मेरा प्रवक्ता) बन जाएगा” (यिर्मयाह 15:9)। अगर हम अपने घर में और बाहर अपनी सारी बोली में से निकम्मी बातों को दूर कर दें, और सिर्फ वही बोलें जो भला और मूल्यवान है, तब परमेश्वर का वचन बोलते समय वह हमारे साथ रहेगा। असल में, परमेश्वर तो यहाँ तक कहता है कि तब हम उसका “मुख बन जाएँगे”। यह कितना बड़ा सम्मान है!

अगर आप अपनी जीभ को बाक़ी समय शैतान के इस्तेमाल के लिए उसे सौंपे रहते हैं, तो आप परमेश्वर से यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि प्रचार करते समय वह आपकी जीभ को इस्तेमाल कर सकेगा। अनेक लोगों ने अपनी जीभ के ग़लत इस्तेमाल द्वारा अपनी सेवकाई का नाश कर दिया है।

बाइबल कहती है, “जीवन और मृत्यु जीभ के वश में हैं” (नीतिवचन 18:21; 15:4)। इसलिए, आपकी जीभ में से या तो जीवन प्रवाहित होगा, या आप उससे (आत्मिक रूप में) लोगों को मार डालेंगे।

नई वाचा में, जीभ से जुड़ी दो प्रकार की अग्नियों की बात की गई है। एक वह “आग की जीभ” है जो उस समय चेलों पर आ ठहरी थी जब उनका पवित्र आत्मा और आग से बपतिस्मा हुआ था (प्रेरितों के काम 2:3)। और दूसरी वह “जीभ है जो नर्क की आग से जलती रहती है” (याकूब 3:6)। यह चुनाव हमें करना होगा कि हमें कौन सी आग चाहिए।

हमारी जीभ को वश में रखने के लिए, हमें पहले अपने हृदय को वश में रखना होगा। यीशु ने कहा, “जो कुछ हृदय में भरा होता है, वही मुख पर आता है। भला मनुष्य अपने भले भण्डार से भली बातें निकालता है, और बुरा मनुष्य अपने बुरे भण्डार से बुरी बातें निकालता है” (मत्ती 12:34,35)। इसलिए हमें पहले अपने हृदय को वश में करने की ज़रूरत है। अगर नल में से गंदा पानी आ रहा है तो उसकी वजह यह है कि वह टंकी ही गंदे पानी से भरी है जिसमें से वह पानी आ रहा है। इसलिए पहले टंकी को साफ करने की ज़रूरत है। और फिर नल में से सिर्फ साफ़ पानी ही आएगा।

हम उन्हीं विचारों में से बोलते हैं जो हमारे हृदय में भरे होते हैं। इसलिए अगर आप परमेश्वर के वचन पर विचार करेंगे, तो वे आपके अन्दर से स्वतः ही बाहर निकलेंगे। लेकिन अगर आपके हृदय के अन्दर लोगों के खिलाफ़ कड़वाहट ही भरी होगी, तो फिर वही बाहर आएगी।

अगर हम अपने हृदय में किसी भी तरह की बेचैनी महसूस करें, तो हमें बोलना (या लिखना) नहीं चाहिए। “तुम्हारे हृदय में मसीह की शांति ही तुम्हारा रैफरी हो, जिसके लिए तुम वास्तव में एक देह में बुलाए गए हो” (कुलुस्सियों 3:15)। जब हम अपनी शांति खो देते हैं, तो यह एक रैफरी द्वारा सीटी बजाने जैसा होता है, जो यह संकेत होता है कि कहीं कुछ ग़लत हो गया है। तब, आगे बढ़ने से पहले, हमें उस ग़लत बात को सही कर लेना होगा।

भजन संहिता 12:6 कहता है, “प्रभु के वचन तो पवित्र वचन हैं; वे ऐसी चाँदी के समान हैं जो भट्ठी में मिट्टी पर ताई जाकर सात बार शुद्ध की गई है।” आपके मन में से जब भी कोई बेचैन करने वाले विचार गुज़रें, तो उन्हें प्रभु के पास ले जाएँ - बार-बार औैर सात बार ले जाएँ; उसकी भट्ठी सारी मानवीय कुड़कुड़ाहट और क्रोध को दूर कर देगी। इसकें बाद आप जो भी बोलेंगे, वे वही शुद्ध वचन होंगे जो परमेश्वर चाहता है कि आप बोलें - चाहे वे ताड़ना के शब्द भी क्यों न हों। तब परमेश्वर आपकी सेवकाई का समर्थन करेगा। आपको तब भी यही करना है जब आप किसी को सुधारने के लिए एक ई-मेल या पत्र लिखें।

परमेश्वर का वचन बाँटनासहज और स्पष्ट

हमें बड़े परिश्रम के साथ गहराई में जाकर परमेश्वर के वचन का अध्ययन करना चाहिए, वचन की तुलना वचन से करनी चाहिए, और जबकि हम परमेश्वर की ओर से संदेश पाने की खोज में लगे हों, तो हमें परमेश्वर से उसके वचन का प्रकाशन माँगना चाहिए, और उससे कहना चाहिए कि जब हम उस संदेश का प्रचार दूसरे के आगे करें, तो वह हमें विचार की स्पष्टता और बोली की स्वतंत्रता दे।

हम परमेश्वर के लोगों के साथ जो कुछ भी बाँटें, उसका लाक्षणिक गुण सहजता और स्पष्टता होना चाहिए। हमें ऐसी उदात्त विषय-वस्तुओं पर प्रचार करने के प्रलोभन से बचना चाहिए जो दूसरों को प्रभावित करने के लिए होती हैं। जो हम अपने मस्तिष्कों में से बोलेंगे, वह सिर्फ दूसरों के मस्तिष्कों (मनों) तक ही जाएगा, लेकिन जो कुछ हम अपने हृदयों में से बोलेंगे, वह सहज होगा - ऐसे सामान्य शब्द जो दूसरों के हृदयों में उतर कर उन्हें छूएँगे।

ऐसी कुछ बातों को लिख लेना अच्छा रहता है जो परमेश्वर ने हमसे बोली हों। प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में हम यह देखते हैं कि परमेश्वर ने 12 बार यूहन्ना से उन बातों को लिख लेने के लिए कहा जो उसने उससे बोली थीं (प्रकाशितवाक्य 1:11,19; 2:1,8,12,18; 3:1,7,14; 14:13; 19:9; 21:5)। वर्ना, जो कुछ परमेश्वर ने यूहन्ना को बताया था, वह उसे भूल सकता था। परमेश्वर क्योंकि हमसे दिन के किसी भी समय बात करता है, इसलिए ऐसा करना अच्छा है कि हम अपने साथ हमेशा एक पैन और नोटबुक रखें कि जो कुछ प्रभु हमारे मन में डाले, इससे पहले कि हम उसे भूल जाएँ, हम उसे लिख लें। या, अगर आपके पास एक मोबाईल फोन है, तो आप उसके नोट्स-ऐप पर भी लिख सकते हैं।

एकाग्रचित्त और अभिषिक्त

जब आप परमेश्वर के वचन का प्रचार कर रहे हों, तो लक्ष्यहीन होकर भटक जाने और एक बात को बार-बार एक नीरस ढंग से दोहराने की वृत्ति के प्रति सचेत रहें। इसे पाप तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इससे लोगों का समय ज़रूर बर्बाद होता है और एक सभा में नीरसता आ जाती है। लोगो को जो कुछ बाँटने का बोझ आपके ऊपर है, अगर आप उसके मुख्य बिन्दुओं को पहले से लिख लेंगे, तो आपका संदेश न सिर्फ संक्षिप्त होगा, लेकिन उसे सुनना भी आसान होगा - और इस वजह से वह ज़्यादा प्रभावी होगा। कुछ भाइयों में यह योग्यता होती है कि वे बिना कुछ लिखे, एक प्रभावी रूप में बोल सकते हैं, क्योंकि उनकी स्मरण-शक्ति अच्छी होती है। लेकिन दूसरे भाइयों को लोगों के बीच में जाकर ऐसा सम्मान पाने को छोड़कर अपने संदेश की मुख्य बातों को लिख कर ले जाना चाहिए।

पौलुस का प्रचार “बहुत सहज था, जिसमें न तो कोई प्रभावशाली शैली थी, और न ही कोई मानवीय सोच-समझ; लेकिन उसके शब्दों में पवित्र आत्मा की सामर्थ्य थी” (1 कुरिन्थियों 2:4 - लिविंग)।

हमारी अभिलाषा हमेशा यही हो कि हम परमेश्वर के वचन का प्रचार इस तरह करें कि परमेश्वर “हमारे शब्दों को नीचे न गिरने दे” (1 शमूएल 3:19), बल्कि वे हमेशा ही पवित्र-आत्मा की क़ायल करने वाली सामर्थ्य के साथ उनके हृदय की गहराई में जा सकें। जैसा कि यीशु ने कहा था, “जब सहायक, अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो वह मेरी साक्षी देगा, और तुम भी मेरी साक्षी दोगे” (यूहन्ना 15:26,27)। दूसरे शब्दों में, हम जो भी प्रचार करेंगे, पवित्र आत्मा उसका समर्थन करेगा। इसलिए, हम परमेश्वर के आत्मा का भरपूर अभिषेक पाने के लिए निरंतर परमेश्वर के खोजी बने रहें, कि हम परमेश्वर के वचन का प्रभावशाली प्रचार कर सकें।

खरा और स्वच्छ

जिसके बारे में पौलुस ने अपने अंतिम पत्र में चेतावनी दी थी, हम उसी समयकाल में रह रहे हैंः “क्योंकि समय आएगा जब वे खरी शिक्षा को सहन नहीं करेंगे, लेकिन अपने कानों की खुजलाहट के कारण अपनी अभिलाषाओं के अनुसार ही अपने लिए बहुत से गुरु बटोर लेंगे। वे सत्य की ओर से अपने कान फेर लेगे” (2 तीमुथियुस 4:3,4)।

इसलिए, वह हमसे आग्रह करता है कि हम “वचन कर प्रचार करें, और समय-असमय तैयार रहें, और बड़े धैर्य से शिक्षा देते हुए ताड़ना दें, डाँटें और समझाएँ” (2 तीमुथियुस 4:2)।

पद 3 की “खरी शिक्षा” का अर्थ “स्वच्छ और स्वस्थ शिक्षा” है। जैसे एक अच्छा अस्पताल अपने फ़र्श को कीटाणु-नाशक रसायनों से साफ़ और स्वच्छ रखता है, कि उसमें से छोटे-छोटे से कीटाणु भी ख़त्म कर देता है, वैसे ही हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हम जो प्रचार करते हैं, उससे लोगों की अगुवाई करते हुए हम उन्हें वहाँ पहुँचा सकें जहाँ उनमें से छोटे-से-छोटे पाप भी ख़त्म किए जा सकें।

दिलचस्प और समझने योग्य

हमारे संदेश दिलचस्प भी होने चाहिए। अगर लोग हमारी कलीसिया छोड़ कर चले जाते हैं, तो हम लोगों पर दोष न लगाएँ, क्योंकि वे हमारी नीरस बातों से उकता जाते हैं, और क्योंकि हम अपने प्रचार का ज़्यादातर समय सिर्फ उन्हें डाँटने में ही ख़र्च करते हैं।

सभोपदेशक 12:9-11 (लिविंग) में हम यह पढ़ते हैं, “बुद्धिमान पुरुष होने के साथ-साथ उपदेशक लोगों को ज्ञान भी सिखाता था। उसने चिंतन और खोजबीन की, और बहुत से नीतिवचनों को क्रमबद्ध किया। उपदेशक न सिर्फ एक बुद्धिमान पुरुष था बल्कि वह एक अच्छा शिक्षक भी था; जो कुछ वह जानता था, उसने लोगों को न सिर्फ वह सिखाया, बल्कि एक दिलचस्प तरीक़े से सिखाया। इस बुद्धिमान पुरुष के शब्द गतिमान होने की उत्तेजना से भर देने वाले अंकुश के समान थे। वे महत्वपूर्ण सत्यों को कीलों से जड़ने वाले थे।”

इन पदों में से अनेक पाठ सीखे जा सकते हैं। इन पदों को धीरे-धीरे पढ़ें और हरेक वाक्याँश पर चिंतन-मनन करें। जब लोग हमें सुनें, तो यह उन्हें गतिमान होने की उत्तेजना दे। ऐसा होने के लिए हमें अपने विचारों को संयोजित और क्रमबद्ध करना होगा। जैसे, एक घरेलू स्त्री जब स्वादिष्ट भोजन बनाती है, तो वह उस भोजन को खाने की मेज़ पर एक आकर्षक तरीक़े से लगाती है, वैसे ही, जब हम भी परमेश्वर की ओर से अपने मन में एक स्पष्ट संदेश प्राप्त करें, तो हम भी उसे एक दिलचस्प और आसानी-से-समझ-आने-वाले तरीक़े से संयोजित करें। इसमें समय और श्रम लगेगा - और हमारे संदेश को आकर्षक बनाने के लिए, हमें यह समय ख़र्च करने के लिए तैयार रहना होगा। यीशु ने इसी तरह प्रचार किया था।

नायक-प्रचारक का अनुसरण

हमें यीशु के प्रचार करने का तरीक़ा हासिल करने की दिशा में बढ़ते रहना चाहिए - चाहे हमें वहाँ पहुँचने में अनेक वर्ष भी क्यों न लग जाएँ।

पश्चिमी देशों के प्रचारकों की शैलियों और युक्तियों की नकल न करें, जैसा कि आजकल अनेक भारतीय प्रचारक कर रहे हैं। एक प्रचारक के रूप में, सिर्फ यीशु को ही अपना उदाहरण बनाएँ।

मसीह का लहू हमारे लिए क्या करता है

अनेक विश्वासी उनके भूतकाल के पापमय जीवन की वजह से निरंतर दोष और निराशा तले जीते हैं। वे मानो इस बंधन में से कभी नहीं छूट पाते या वे शैतान द्वारा दोषी ठहराए जाने पर जय नहीं पाते। प्रभु के सेवकों के रूप में, हमें इसमें से मुक्त होने में उनकी मदद करनी चाहिए।

ऐसे विश्वासी हमेशा ही रहे हैं जो परमेश्वर की मुफ्त क्षमा का ग़लत फ़ायदा उठाते हैं, और जो मसीह के लहू को नल का सस्ता पानी समझते हुए अपने जीवन पाप में बिताते रहते हैं (इब्रानियों 10:26-29)। लेकिन सिर्फ इस वजह से हमें उन ईमानदार विश्वासियों के सम्मुख मसीह के लहू द्वारा दोष-मुक्त ठहराए जाने के संदेश का प्रचार करना नहीं छोड़ देना है जो व्यर्थ ही स्वयं को दोषी मानते हुए जी रहे हैं (रोमियों 5:9)।

पिलग्रिम्ज़ प्रोग्रैस (तीर्थ-यात्री की आगे कूच)

पिलग्रिम्ज़ प्रोग्रैस एक ऐसी पुस्तक है जिसे जॉन बनियन ने 350 साल पहले लिखा था, और वह अनेक शताब्दियों से परमेश्वर की संतानों के लिए एक आशिष बनी हुई है। यह पुस्तक यह समझने में आपकी मदद कर सकती है कि आप कैसे यीशु के एक बेहतर चेले बन सकते हैं।

प्रचार करते समय एक सही मनोभाव

रोमियों 12:3,6 में पौलुस कहता है, “मैं उस कृपा के द्वारा जो मुझे दी गई है, तुममें से हरेक से कहता हूँ कि कोई भी अपने आपको जितना समझना चाहिए उससे बढ़कर न समझे, लेकिन परमेश्वर के द्वारा दिए गए विश्वास के नाप के अनुसार ही सुबुद्धि से अपने आपको समझे... और उस नाप के अनुसार ही नबूवत करे।”

प्रचारकों में जो एक सामान्य कमी पाई जाती है, वह यही है कि वे “उन्हें दिए गए कृपा और विश्वास के नाप” से ज़्यादा समय तक बोलते हैं, क्योंकि उन्हें “अपने आपको जितना समझना चाहिए, वे उससे बढ़कर समझते हैं।”

जितना समझना चाहिए, अपने आपको उससे कम समझने के लिए पवित्र शास्त्र में कोई चेतावनी नहीं दी गई है - क्योंकि ऐसा कोई ख़तरा नहीं होता है। अपने आपसे यह सवाल पूछ कर देखें, “इसमें किस बात की सम्भावना ज़्यादा हैः कि जब आप प्रचार करेंगे तो अपने आपको जितना समझना चाहिए, उससे कम समझेंगे या बढ़कर समझेंगे?” इसका जवाब हम जानते हैं। हम पर हमेशा यही ख़तरा बना रहता है कि हम अपने आपको बढ़कर समझेंगे।

अपने बारे में एक छोटी सोच रखने का अर्थ यह नहीं है हम असुरक्षा के मनोभाव से ग्रस्त हैं। नहीं। हमें अपने परमेश्वर पिता के प्रेम में हमेशा सुरक्षित रहना चाहिए। हमारे स्वर्गीय पिता के प्रति हमारा मनोभाव हमेशा पूरे भरोसे का हो। शैतान के प्रति हमारा मनोभाव यीशु के नाम में पूरा सामना करने का हो।

“हम उसमें आनन्दित न हों जो हम परमेश्वर के लिए करते हैं, बल्कि उसमें जो परमेश्वर हमारे लिए करता है” (लूका 10:20 - मैसेज भावानुवाद)। इस बात में हमारी सोच छोटी रहे कि हम कौन हैं और हम परमेश्वर के लिए क्या कर सकते हैं। इसकी बजाय, हमें इस पर ज़्यादा मनन करने की ज़रूरत है कि परमेश्वर कौन है और उसने हमारे लिए क्या किया है और कर सकता है। तब हम अपना एक सही मूल्याँकन करने वाले हो जाएँगे, और हममें यह विश्वास होगा कि परमेश्वर ने जो हमारे लिए किया है, वही वह दूसरों के लिए भी करेगा।

यही वह सही मनोभाव है जो हरेक प्रचारक में होना चाहिए।

रोमियों 12:4-8 में, पौलुस आगे कहता हैः

“क्योंकि हमें दी गई कृपा के अनुसार हम सभी को विभिन्न वरदान मिले हैं, इसलिए हममें से हरेक को इसी तरह उनका इस्तेमाल करना चाहिएः

जो शिक्षा देता है, वह सिखाने में;

जो उपदेशक है, वह उपदेश देने में...” 

हम यहाँ देखते हैं कि शिक्षा देना और उपदेश देना दो अलग वरदान हैं।

एक प्रेरणादायक रूप में पवित्र-शास्त्र को सिखाने की योग्यता एक आत्मिक वरदान है जो परमेश्वर कुछ लोगों को ही देता है। लेकिन ऐसे वरदान-प्राप्त शिक्षक बहुत कम होते हैं (याकूब 3:1)।

लेकिन दूसरों को उपदेशों द्वारा प्रबोधित करना ऐसा वरदान है जिसकी खोज में सभी भाइयों को रहना चाहिए। लेकिन हाँ, इसका उपयोग भी एक व्यक्ति को दिए गए कृपा और विश्वास के नाप के अनुसार ही होना चाहिए।

हमें कलीसियाई सभाओं में क्या प्रचार करना है, प्रभु से यह सुनने के लिए हमारे लिए यह ज़रूरी है कि हम प्रभु के सम्मुख प्रतीक्षा करने वाले हों। वर्ना आप अपने सुनने वालों का समय बर्बाद करेंगे। लोगों का समय बर्बाद करना ऐसे देखा जाना चाहिए कि यह उनका धन चुराने जैसी बात है। अगर आप इस बात को इस रौशनी में देखेंगे, तब आप अपने प्रचार के समय के प्रति ज़्यादा सावधान रहेंगे। अगर आप एक असाधारण वरदान पाए हुए व्यक्ति नहीं हैं, तो आपको अपना प्रचार 20 मिनट तक सीमित रखना चाहिए (यह एक कठोर नियम नहीं बल्कि एक सामान्य दिशा-निर्देश है)। इस समय-सीमा से आगे, ज़्यादातर प्रचारक बातों को दोहराने लगते हैं, बोझिल हो जाते हैं, और नीरस लगने लगते हैं।

आपके संदेश के अंत में, आपके श्रोताओं के अन्दर यह अहसास होना चाहिए कि उनकी प्रभु से भेंट हुई है (1 कुरिन्थियों 14:24,25)। हरेक कलीसियाई सभा का अंत इसी तरह होना चाहिए। लेकिन ऐसा होने के लिए, हमें ज़्यादा प्रार्थना करनी होगी, परमेश्वर के वचन का श्रमपूर्वक अध्ययन करना होगा, और ज़्यादा गंभीरता से पवित्र आत्मा के अभिषेक और नबूवत के वरदान की खोज में रहना होगा।

दोषारोपण की नहीं उत्साहवर्धन की सेवकाई

आपकी सेवकाई हमेशा उत्साहित करने वाली हो, दोषी ठहराने वाली नहीं।

इब्रानियों 3:13 बहुत स्पष्ट हैः “तुम दिन-प्रतिदिन एक-दूसरे को प्रोत्साहित करो, कहीं ऐसा न हो कि तुम में से कोई व्यक्ति पाप के छल में पड़कर कठोर हो जाएँ” यह हरेक भाई और बहन की बुलाहट है - कि हरेक सभा में उत्साह-वर्धक शब्द बोलें।

जब आप प्रचार करें तो कभी दोष लगाने वाले न हों - क्योंकि तक आपने उस बड़े दोष लगाने वाला शैतान का हाथ थामा हुआ होगा। इसकी बजाय, आप जब भी बोलें, तब अपनी कलीसिया के हरेक सदस्य को उत्साहित करने का दृढ़ संकल्प बनाए रखें।

पाप धोखेबाज़ होता है। आपका प्रचार ऐसा हो कि वह आपके श्रोताओं को उनके जीवनों में पाप के धोखे से बचने के लिए प्रोत्साहित करे।

दूसरी तरफ, अगर आप अपने संदेशों में लोगों को ताड़ना देंगे और उन्हें फ्दोषी ठहराने” लगेंगे, तो आपका झुण्ड दोष के मनोभाव से ग्रस्त हो जाएगा, और एक प्राचीन के रूप में, उनके अन्दर आपका एक अस्वस्थ भय समा जाएगा। यह याद रखें कि आपकी बुलाहट एक ऐसा सेवक होने की है जो अपने प्रचार द्वारा अपने साथी-विश्वासियों के पाँव धोता है। इसलिए, जब आप बोलें, तो पवित्र आत्मा को अपने मनोभावों को उसके वश में रखने की अनुमति दें कि आप कभी क्रोधित न हों। अपने आपको एक स्व-नियुक्त नबी न बनाएं!

इस्राएल में 3000 साल पहले, परमेश्वर ने शाऊल को उसके घमण्ड की वजह से उसके राजपद से हटा दिया था (जिसका सिर सबसे ऊँचा था और सब लोग उसके कंधे तक ही आते थे - 1 शमूएल 10:23), और उसकी जगह दाऊद का अभिषेक कर दिया था (जिसका हृदय सबसे अच्छा था - प्रेरितों के काम 13:22; 1 शमूएल 13:14)। सांसारिक विश्वासी सिर की योग्यता (चतुराई, ज्ञान, दान-वरदान) की सराहना करते हैं। लेकिन परमेश्वर हृदय की योग्यता की सराहना करता है (नम्रता, भलाई और प्रेम)।

हमारे हृदय ऐसे हों कि परमेश्वर हमारी सराहना कर सके - चाहे हमारा “सिर” कमज़ोर भी क्यों न हो! इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि हममें चतुराई नहीं है, प्रचार करने की कोई योग्यता नहीं है, या पवित्र शास्त्र का ज्ञान भी नहीं है। कलीसिया ऐसे लोगों द्वारा तैयार नहीं की जाती जिनके पास मस्तिष्क-का-ज्ञान है, बल्कि ऐसे लोगों द्वारा जिनमें परमेश्वर का हृदय है, और जो परमेश्वर की तरह ही उसके लोगों के बारे में महसूस करते हैं।

मारने के लिए नहीं, बल्कि लोगों को तृप्त करने के लिए बुलाए गए हैं

लूका 12:42 में, प्रभु कहता है, “ऐसा विश्वास-योग्य और समझदार भण्डारी कौन है जिसे उसका स्वामी सेवकों के ऊपर अधिकारी नियुक्त करे कि वह उन्हें ठीक समय पर भोजन-सामग्री दे? धन्य है वह दास जिसे उसका स्वामी जब आए तो ऐसा ही करता पाए।”

हम जब प्रभु के लोगों के बीच में प्रचार करने के लिए संदेश तैयार करते हैं, तो यह हमें विश्वास-योग्य और बुद्धिमान सेवकों की तरह करना चाहिए। अगर हमारे घर में खाने के लिए महत्वपूर्ण मेहमान आने वाले हों, तो हम उनके लिए अच्छा खाना बनाने में समय लगाएँगे। अगर हम उन्हें सस्ता और स्वादहीन खाना परोस देंगे, तो यह उनका अपमान होगा। इसी तरह, हम जो प्रचार करते हैं, अगर उसमें लापरवाह होंगे और उसे अच्छी तरह तैयार नहीं करेंगे, तो हम परमेश्वर के लोगों का अपमान करने वाले ठहरेंगे। हम जब भी प्रचार करें, तो अपने भाई बहनों का सम्मान करने के लिए जहाँ तक सम्भव हो, सबसे आत्मिक भोजन तैयार करने की पूरी कोशिश करें। निस्संदेह, इसमें समय लगेगा और त्याग करना पड़ेगा। लेकिन, इसमें “वह भला और विश्वास-योग्य भण्डारी कौन है?” (लूका 12:42)।

प्रभु (लूका 12:45 में) आगे हमें परमेश्वर के वचन से भाईयों व बहनों का मारने के ख़तरे के बारे में चेतावनी देता है। इस बात का ध्यान रखें कि आप परमेश्वर के लोगों की नाकामियों के लिए उनकी बार-बार आलोचना न करें। सुधार की सारी बात प्रेम के साथ हो। वर्ना, सबसे अच्छा यही होगा कि सुधार की कोई बात ही न की जाएँ बच्चों को छड़ी से मारने की ज़रूरत कभी-कभी ही होती है। लेकिन उन्हें पौष्टिक भोजन की ज़रूरत हर समय होती है। आप ऐसे माता-पिता के बारे में क्या सोचेंगे जो अपने बच्चों को खाना देने से ज़्यादा पीटते हैं? यह एक मूर्खता का काम होगा, और हमें ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन अनेक प्रचारक ऐसे ही होते हैं।

एक प्राचीन के रूप में, आपके लिए यह आसान होगा कि आप लोगों पर एक शारीरिक रीति से अधिकार जमाए रखें और अपने प्रचारों में उनके प्रति कठोर बन रहें। एक अभिषिक्त नबी के पास परमेश्वर की सख़्ती में बोलने की और उसके संदेशों में ताड़ना देने और सुधारने की कृपा हो सकती है।

लेकिन अगर आप नबी नहीं हैं और एक नबी होने की सिर्फ नकल करते हैं, तो आपके द्वारा प्रदर्शित होने वाली सख़्ती सिर्फ शरीर की ही कठोरता होगी।

जिन लोगों का आपके साथ मर्तभेद है, आप उनके प्रति कठोर होने की परीक्षा में पड़ सकते हैं। तब परमेश्वर आपके प्रति बहुत कठोर हो जाएगाः “दयालु के प्रति परमेश्वर स्वयं को दयालु दिखाता है, लेकिन टेढ़ों के प्रति कठोर बन जाता है। वह दीनों को बचाता है, लेकिन घमण्डी को गिराता है” (भजन संहिता 18:25,26)।

ऐसे प्राचीन बहुत कम हैं जो परमेश्वर की कठोरता को एक ईश्वरीय भक्ति के साथ प्रदर्शित कर सकते हैं। इसलिए सबसे अच्छा यही है कि हम फटकार और सुधार की सेवकाई नहीं बल्कि उत्साहित करने की सेवकाई की खोज में रहें।

फटकार और सुधार की सेवकाई अभिषिक्त नबियों के लिए छोड़ दें, जो परमेश्वर की कठोरता को एक ईश्वरीय रूप में दर्शा सकते हैं।

हम कलीसिया में दूसरों के प्रति कठोर हुए बिना भी एक ऊँचा मापदण्ड बनाए रख सकते हैं। वही संदेश जो एक कठोर और ताड़ना-भरे तरीक़े से दिया गया हो, एक दया और कोमलता-भरे तरीक़े से भी दिया जा सकता है - और उसके नतीजे भी बेहतर होंगे।

ऐसा कभी न हो कि कलीसिया में लोग इस वजह से हमारे भय में रहने वाले या ऐसा महसूस करने वाले हों कि हमारे द्वारा स्वीकार किए जाने के लिए उन्हें हमारी आज्ञा का पालन करने वाला होना होगा। जैसा कि लिखा है, “मेरे कारण तू किसी प्रकार भयभीत न होना, मेरा दबाव तुझ पर भारी न होगा” (अय्यूब 33:7)।

जिनका हमसे मतभेद हो, उनके प्रति हम रूखे/ठण्डे न हो जाएँ - क्योंकि यह तो झूठे पंथों के अगुवों और नेताओं का तरीक़ा होता है। इसके विपरीत, हमें सबके प्रति नम्रता व सेवकाई का एक ख़ास नमूना होना चाहिए। जब प्रभु लोगों को हमारा विरोध करने की अनुमति देता है, तो हमें दीन करने के लिए ऐसा होने देता है, कि फिर वह हमें उसकी कृपा दे सके।

अंत में, यह याद रखें कि “जो परमेश्वर के लोगों पर तरस खाते हैं, वे ही उनकी अगुवाई कर सकते हैं” (यशायाह 49:10)।

अगर आप एक हल्के तौर पर अपनी कलीसिया के विश्वासियों को “मूर्ख या गुनगुने लोग” कह सकते हैं, तो यह इस बात का संकेत होगा कि आप उनके प्राचीन होने लायक़ नहीं है। एक ईश्वरीय अगुवा स्वयं अपनी निर्बलताओं को जानेगा - और यह उसे दूसरों के प्रति दयालु बनाएगा। हम परमेश्वर के जितना पास आएंगे, हमें अपनी कमज़ोरियों का उतना ही ज़्यादा अहसास होगा। हम जितने ज़्यादा पवित्र बनते जाएँगे, हम लोगों के प्रति उतने ही कोमल होते जाएँगे।

अनेक प्राचीनों की नज़र में यीशु की एक ग़लत तस्वीर है। वे उसे एक व्यक्ति के रूप में देखते हैं जो हर समय अपने हाथ में एक कोड़ा लिए रहता है और उससे परमेश्वर के घर में लोगों को मारता रहता है! लेकिन असली यीशु ने उसकी साढ़े तीन साल की सेवकाई में सिर्फ दो दिन ही कोड़े का इस्तेमाल किया था। लेकिन, अगर आप हर रविवार को कोड़ा इस्तेमाल करते रहेंगे, तो आप एक “दूसरे यीशु” के पीछे चलने वाले हो जाएँगे। एक अगुवे को “नासमझ और भूले-भटकों के प्रति कोमलता का व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि वह स्वयं भी निर्बलताओं से घिरा रहता है” (इब्रानियों 5:2)।

हम सुसमाचारों में अनेक जगहों में पढ़ते हैं कि यीशु को लोगों पर बड़ा तरस आया। “जब यीशु ने लोगों की भीड़ को देखा, तो उसका हृदय टूट गया, क्योंकि वे ऐसी भेड़ों के समान थे जो उलझे और भटके हुए थे” (मत्ती 9:36)।

उदाहरणः वह हमें यह कहते हुए आमंत्रित करता है, “मुझसे सीखो क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूँ” (मत्ती 11:29)। कोमलता और नम्रता दो ऐसे गुण हैं जिनकी मसीही अगुवों को सबसे ज़्यादा ज़रूरत है – लेकिन जिनकी उनमें सबसे ज़्यादा कमी है।

मूसा के बारे में एक सुन्दर कहानी है (बाइबल में नहीं, यहूदी परम्परा में) जिसमें ऐसा कहा जाता है कि जब वह यित्रे के झुण्ड चराता था, तो उसने एक छोटे से मेमने को कुछ दूर निकलकर एक जल-स्रोत् के पास पानी पीने के लिए जाते हुए देखा। तब मूसा ने दौड़ कर उसे उठा लिया, और कहा, “अगर मुझे मालूम होता कि तू प्यासा है तो मैं ख़ुद तुझे यहाँ तक उठा ले आता।” उसी पल स्वर्ग से एक वाणी हुई, “तू वास्तव में इस्राएल की अगुवाई करने योग्य है।”

यह एक काल्पनिक कहानी हो सकती है। लेकिन मैं इस पर एक सच्ची कहानी के रूप में विश्वास करना चाहूँगा, क्योंकि परमेश्वर का हृदय ऐसा ही है। और परमेश्वर जब भी एक ऐसे पुरुष को देखता है जिसमें कमज़ोर, असहाय और भटके हुए लोगों के प्रति ऐसी संवेदना होती है, तब वह उससे यही कहेगा, “तू वास्तव में एक प्राचीन बनने के योग्य है।”

प्रार्थना और परमेश्वर के वचन की सेवा

“हम तो (पहले) प्रार्थना और (फिर) वचन की सेवा में ही लगे रहेंगे” (प्रेरितों के काम 6:4)।

यीशु सिर्फ प्रचार करने से पहले प्रार्थना नहीं करता था, बल्कि प्रचार पूरा करने के बाद भी प्रार्थना करता था - कि वह सारी महिमा उसके पिता को दे सके (देखें लूका 5:15,16)।

हमें प्रचार करने के बाद भी प्रार्थना करनी चाहिए - कि (1) हम सारी महिमा (यीशु की तरह) पिता को दे सकें; और, हमारे मामले में, अपना न्याय भी कर सकें। मैनें अपने प्रचारों में हमेशा यही करना चाहा है, कि मैं सिद्धता की ओर बढ़ता जाऊँ।

प्राचीनों के रूप में, हमारी कलीसियाओं में हमारी पहली जि़म्मेदारी परमेश्वर के लोगों को तैयार करना है। ऐसा करने के लिए, हमें प्रभावशाली रूप में नबूवत करने के लिए परमेश्वर की अलौकिक सामर्थ्य की ज़रूरत है - और इसके लिए हमें ईमानदारी से प्रार्थना करने की ज़रूरत है।

कलीसियाओं के लिए पौलुस का यह बोझ थाः “हम सभी मनुष्यों को सचेत करते हैं और उन्हें सिखाते हैं। हम हरेक व्यक्ति को मसीह में सिद्ध करके उपस्थित करना चाहते हैं। और यह मैं सिर्फ इस वजह से ही कर सकता हूँ क्योंकि मसीह की सामर्थ्य मुझमें काम करती है। मैं चाहता हूँ कि तुम जान लो कि मैंने प्रार्थना में तुम्हारे लिए कितना संघर्ष किया है” (कुलुस्सियों 1:28-2:1 - लिविंग बाइबल)।

पौलुस में प्रभु और उसके लोगों के प्रति एक गहरा प्रेम था - और इस वजह से ही उसके पास हमेशा उनके लिए एक सही शब्द होता था।

आज हम आत्मिक अकाल के उस समयकाल में रह रहे हैं जिसकी नबूवत आमोस के द्वारा की गई थीः

“प्रभु यहोवा की यह वाणी है, ‘देखो, ऐेसे दिन आने वाले हैं जब मैं इस देश में एक अकाल भेजूँगा। यह अकाल रोटी या पानी का नहीं वरन् यहोवा के वचन सुनने का होगा। और लोग समुद्र से समुद्र तक और उत्तर से पूर्व तक मारे-मारे फिरेंगे। वे इधर-उधर यहोवा का वचन खोजेंगे, लेकिन उसे न पाएँगे” (आमोस 8:11)।

लेकिन यह अकाल हमारी कलीसियाओं में न पाया जाएँ जो हमारी कलीसियाओं में आते हैं, ऐसा होना चाहिए कि वे प्रति सप्ताह सामर्थ्य के साथ प्रभु के वचन को सुनें। इसलिए जब भी आप प्रचार करें तो नबूवत के दान और पवित्र आत्मा के अभिषेक के लिए गंभीरता के साथ परमेश्वर के खोजी बनें (1 कुरिन्थियों 14:1)।

आपके पास परमेश्वर के वचन का अच्छा ज्ञान भी होना चाहिए, और यह तभी हो सकता है जब आप प्रतिदिन यत्नपूर्वक परमेश्वर के वचन का अध्ययन करेंगे। पौलुस ने तीमुथियुस से कहाः “अपने आपको परमेश्वर के ग्रहणयोग्य ऐसा काम करने वाला ठहराने की कोशिश कर जिससे लज्जित न होना पड़े, और जो सत्य के वचन को ठीक-ठीक काम में लाए” (2 तीमुथियुस 2:15)।

पौलुस ने तीमुथियुस से यह भी कहा कि वह “सांसारिक और व्यर्थ बकवाद से दूर रहे, क्योंकि इससे लोग अभक्ति में और भी बढ़ते जाएँगे” (2 तीमुथियुस 2:16)। अगर आप प्रार्थना को अपने जीवन में एक प्राथमिकता बनाना चाहते हैं, तो आपको ऐसी “सांसारिक और व्यर्थ बकवाद से दूर रहना होगा” जिसमें अनेक विश्वासी उनकी व्यक्तिगत बातचीत और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया आदि में अपना समय बर्बाद करते हैं। जिन लोगों को इस समय के गंभीर महत्व का अहसास नहीं है, उन्हें ऐसी खोखली बातों में उनका समय बर्बाद करने दें। लेकिन हम जो प्रभु द्वारा उसकी कलीसिया का निर्माण करने के बुलाए हुए हैं, मूल रूप में महत्वपूर्ण बातों पर ही ध्यान दें - परमेश्वर के वचन पर चिंतन-मनन और प्रार्थना में प्रभु की बाट जोहना।

“सब वस्तुएँ उचित तो हैं, पर सब वस्तुएँ लाभदायक नहीं हैं” (1 कुरिन्थियों 12:6)। इसलिए अपने जीवन में से कुछ “अच्छी” बातों को भी दूर कर दें कि आपके पास “सबसे अच्छी” बातों पर ध्यान देने के लिए समय हो।

पीछे छूटी बातों को भूला कर आगे बढ़ना

हमें प्रतिदिन “जो बातें पीछे रह गई हैं, उन्हें भूलकर आगे की बातों की तरफ बढ़ते रहना चाहिए” (फिलिप्पियों 3:13)। इसका अर्थ है कि हमें प्रतिदिन इस तरह जीना चाहिए मानो हमने अब तक प्रभु के लिए कुछ नहीं किया है; और हमें प्रतिदिन ऐसे जीना चाहिए कि आज का दिन ही हमारा वह पहला दिन है जिसमें हम प्रभु के लिए कुछ करेंगे।

हरेक दिन हमें एक सार्थक रूप में यह अंगीकार करना चाहिए कि “मसीह के बिना मैं कुछ नहीं कर सकता” और “मसीह के साथ, मैं सब कुछ कर सकता हूँ” (यूहन्ना 15:5; फिलिप्पियों 4:13)।

“कुछ भी नहीं” का अर्थ है “ऐसा कुछ भी नहीं जिसका अनन्त मूल्य है”; और “सब कुछ” का अर्थ है “वह सब कुछ जो मेरे जीवन के लिए परमेश्वर की इच्छा में है।”

इसलिए, “अपने आपको परमेश्वर के ग्रहणयोग्य ऐसा काम करने वाला ठहराओ जिससे लज्जित न होना पड़े” (2 तीमुथियुस 2:15)।

अध्याय 15
अगुवे क्यों नाकाम हो जाते हैं?

हरेक अगुवे में सिर्फ “भक्ति का बाहरी रूप होने” का ख़तरा ही उसके सामने रखा सबसे बड़ा ख़तरा होता है, क्योंकि तब उसे सिर्फ धार्मिक होने और आत्मिक होने के बीच का फ़र्क मालूम नहीं हो पाता है। परमेश्वर के घर का चिन्ह् यही है कि हम स्वयं ही अपना न्याय करने वाले हों (1 पतरस 4:17)। जब हम अपना न्याय करते हैं, तब हमें स्वयं अपने बारे में शीघ्र ही प्रकाश मिलता है। प्राचीनों के रूप में, हमारे लिए अपना न्याय करना छोड़ देना बहुत आसान होता है, और तब हम स्वयं अपने बारे में ही कोई प्रकाश नहीं पाते - फिर चाहे दूसरे क्षेत्रें के बारे में हम बहुत उत्साही भी क्यों न बने रहें और बहुत सामर्थ्य के साथ प्रचार करने वाले भी क्यों न हों।

“तू जीवित तो कहलाता है, पर है मरा हुआ” (प्रकाशितवाक्य 3:1) वे शब्द हैं जो प्रभु ने एक प्राचीन के लिए बोले जो यह सोचता था कि उसका सब कुछ सही है, क्योंकि दूसरे लोग उसकी प्रशँसा करते रहते थे।

जहाँ चरवाहा विश्वास-योग्य नहीं रहता, वहाँ प्रजा को पीड़ा सहनी पड़ती है (2 शमूएल 24:17)। अंतिम दिन अविश्वास-योग्य चरवाहों के खिलाफ़ परमेश्वर का न्याय बहुत कठोर होगा। इस वजह से ही हम सभी को भयभीत रहने की ज़रूरत होती है।

इसलिए, सभी को चेतावनी देने के लिए, मैं कलीसियाओं में अगुवे के नाकाम होने के कुछ कारणों का उल्लेख करना चाहता हूँः

अपना सब कुछ एक गुप्त रूप में नहीं त्यागते

कुछ प्राचीन, हालांकि वे मसीह की देह का निर्माण करना चाहते हैं, फिर भी उसकी क़ीमत चुकाने को तैयार नहीं होते। वे परमेश्वर का राज्य पाने के लिए “अपना सब कुछ बेच देने” के लिए तैयार नहीं होते (मत्ती 13:44,46)। वे कलीसिया का निर्माण करना चाहते हैं, लेकिन वे कम-से-कम त्याग करना चाहते हैं। वे अपने काम-धंधे से, अच्छे खाने से, बहुत से धन से, और सभी सांसारिक लोगों की तरह पृथ्वी पर एक आरामदेह जीवन से प्रेम करते हैं। इसके साथ ही वे कलीसिया का निर्माण करने का आदर भी चाहते हैं। वे मानो “आम के आम और गुठलियों के दाम” चाहते हैं। परमेश्वर उनके हृदय में इस बात को देखता है इसलिए उनके काम में वह गड़बड़ और नाकामी ले आता है।

परमेश्वर कोई पक्षपात नहीं करता। वह इस बात से प्रभावित नहीं होता कि एक व्यक्ति किसी शक्तिशाली कलीसिया के साथ जुड़ा हुआ है, या वह प्रभु के किसी विशिष्ट सेवक के साथ नज़दीकी से जुड़ा हुआ है। ज्ञान, मसीही धर्म-सिद्धान्तों के लिए उत्साह, और सभाओं में “नई वाचा की कलीसिया” के नमूने के अनुसार किया जाने वाला काम भी परमेश्वर को प्रभावित नहीं करते।

परमेश्वर जिन बातों को देखता है और जिनका प्रतिफल देता है, वह एक व्यक्ति का मौलिक रूप में चेला होना और उसके छिपे हुए जीवन में उसका विश्वास-योग्य होना है। उसके प्रतिफल एक अगुवे की विश्वास-योग्यता के अनुपात के अनुसार ही होते हैं। विश्वासघात का प्रतिफल भी उसी अनुपात में दिया जाता है।

हरेक वही काटता है जो वह बोता है - और परमेश्वर को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। हरेक अगुवा जो भूमि में गिरता और मरता है, निश्चय ही बहुत सा फल लाएगा। हमारे प्रभु ने स्वयं ही यह सुनिश्चित किया है (यूहन्ना 12:24)। और फल से उसका अर्थ कलीसिया में ज़्यादा लोगों के जुड़ने से नहीं है। उसका अर्थ वे बदले हुए जीवन था जो स्वयं परमेश्वर के अपने स्वभाव में से सहभागी हो गए हैं, फिर चाहे उनकी संख्या कम भी क्यों न हो।

परमेश्वर संख्या (मात्र) नहीं हमेशा गुणवत्ता चाहता है।

धन के मामले में ईमानदार नहीं होते

कुछ अगुवों के नाकाम होने की वजह धन से सम्बंधित मामलों में उनकी बेईमानी है। हम एक पिछले अध्याय में इस विषय पर विस्तार से चर्चा कर चुके हैं। फिर भी हमें इसके बारे में बार-बार सचेत किए जाने की ज़रूरत होती है, क्योंकि ऐसे बहुत से अगुवे हैं जो परजीवियों की तरह जीते हैं, और आर्थिक रूप में अपनी कलीसिया के सदस्यों पर निर्भर रहते हैं। और इसके साथ ही, वे मसीह की देह का निर्माण करने वाले होने का सम्मान भी चाहते हैं। यह एक धोखा है।

धन का प्रेम सारी बुराईयों की जड़ होता है। इस मामले में परमेश्वर के मानक स्तर को नीचा नहीं किया जा सकता। हालांकि प्रेरितों ने कुछ अवसरों पर भेंट स्वीकार की थीं, फिर भी उन्होंने किसी कलीसिया या व्यक्ति-विशेष से भेंट प्राप्त करते रहने की अपेक्षा नहीं रखी थी।

पौलुस ने तीमुथियुस से कहा, “धन के प्रेम और धनवान होने की लालसा से दूर भाग, और प्रेम और लोगों के प्रति नम्र व दीन होने का पीछा कर” (1 तीमुथियुस 6:9-11)।

धन-दौलत और सम्पत्ति बहुत ख़तरनाक चीज़ें हैं। जब हम आर्थिक रूप में कष्ट सह रहे होते हैं, तब हम ज़्यादा सुरक्षित होते हैं। लेकिन जब हम धनवान हो जाते हैं, तब हमारा सामना एक बड़े ख़तरे से होता है - क्योंकि धन-सम्पत्ति के साथ अक्सर घमण्ड और अहंकार भी आता है। इसलिए हमें सचेत और सतर्क रहने की ज़रूरत होती है। 

धन के प्रति हमारा जो मनोभाव हमारे मसीही जीवन के शुरूआत में था, उससे ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उसके अंत में उसके प्रति हमारा मनोभाव कैसा रहता है। बाइबल हमसे कहती है, “अपने अगुवों को याद रखो, और ध्यान से उनके चालचलन के परिणाम देखकर उनका अनुकरण करो” (इब्रानियों 13:7)।

नैतिक रूप में अशुद्ध हैं

कुछ अगुवे लैंगिक क्षेत्र में विश्वासघाती होने की वजह से नाकाम हो जाते हैं। ऐसा कोई भी व्यक्ति जो स्त्रियों के मामले में स्वयं को शुद्ध नहीं बनाए रख सकता, वह मसीह की देह का हिस्सा होने के लायक़ नहीं है, फिर उसमें एक अगुवा होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। ऐसा व्यक्ति जिसने लैंगिक क्षेत्र में जय नहीं पाई है, उसके लिए दूसरों का चरवाहा होने की कल्पना करना अपने आपको पूरी तरह धोखा देने के अलावा और कुछ नहीं है। इस क्षेत्र में अविश्वास-योग्य होना हमेशा ही वैचारिक-जीवन में लापरवाही से होता है, जिसकी वजह कामुक वासना के प्रति एक ऐसा हल्का मनोभाव है जो परमेश्वर का भय न होने से होता है।

यह एक दिलचस्प बात है कि जब बाइबल में पहली बार “परमेश्वर का भय” वाक्याँश इस्तेमाल किया गया, तो वह एक “लैंगिक अशुद्धता के पाप” के बारे में ही किया गया था (उत्पत्ति 20:11)। बाइबल कहती है कि सिर्फ “वे ही वैश्या-वृत्ति के गहरे गड्ढे गिरते हैं जो प्रभु की तरफ से श्रापित होते हैं” (नीतिवचन 22:14 – एन.एल.टी.)।

अगर कोई व्यक्ति अपने वैचारिक-जीवन में लगातार अपनी जवानी की अभिलाषाओं से नहीं भागेगा, तो वह लैंगिक अशुद्धता का शिकार हो जाएगा। जो लोग इस क्षेत्र में उनके विचारों और आदतों में हारे हुए हैं, उन्हें अपने बारे में बढ़-चढ़कर सोचने की नहीं बल्कि भय में चलने की ज़रूरत है। यह सच न होने पर भी, कि आपने इस क्षेत्र में जय पा ली है, दूसरों के सम्मुख अपनी ऐसी छवि बनाकर उन्हें धोखा न दें, क्योंकि तब परमेश्वर आपको एक दिन सबके सामने उघाड़ा कर देगा।

पौलुस ने तीमुथियुस को, जो उसका सबसे नज़दीकी और पूरे हृदय से समर्पित सहकर्मी था, यह उपदेश दिया, “ऐसी हरेक बात से भाग जो तुझमें बुरे कामुक विचार पैदा करती है और जिससे सभी पुरुष प्रलोभित होते हैं। इसकी बजाय प्रेम और शांति का पीछा कर और उन लोगों के साथ सहभागिता कर जो हृदय की शुद्धता चाहते हैं” (2 तीमु॰ 2:22 - मैसेज भावानुवाद)। यह विचार करें कि क्या एक अगुवे के रूप में आपने इस आज्ञा को गंभीरता से माना है?

क्या आपको ऐसा लगता है कि आपको ऐसे उपदेश की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि आप अब परिपक्व हो गए हैं, और आप अनेक वर्षों से प्रभु की सेवा कर रहे हैं? तीमुथियुस उस समय तक प्रभु की सेवा में 25 साल बिता चुका था। फिर भी प्रेरित पौलुस को यह उचित लगा कि वह उसे लैंगिकता के इस क्षेत्र में सचेत रहने के लिए चेतावनी दे। हम सभी को भी इसमें चेतावनी दिए जाने की ज़रूरत है।

अगर हम ऐसी चेतावनियों पर ध्यान देंगे, तो इसका परिणाम हमारा उद्धार होगा। तब हमारी कलीसियाएँ भी शुद्धता में बढ़ सकेंगी और हमारे पास हमारे झुण्ड के लिए हमेशा ही एक नबूवत का शब्द होगा। किसी भी तरह की नाकामी के बाद यह ज़रूरी हो जाता है कि हम गहरे पश्चात्ताप (मन-फिराव) और स्वयं अपना न्याय करने की बुलाहट को सुनें। परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्रेम करता है। हमें अपने जीवन के अंत तक इस क्षेत्र में सचेत और सतर्क रहने की ज़रूरत होती है।

नम्रता में गहरी जड़ न पकड़े हुए

प्राचीन होने के अपने पद पर घमण्ड करना एक और ऐसा तथ्य है जो कुछ लोगों के पतन का कारण होता है। हमने एक पिछले अध्याय में इस बारे में बात की है, लेकिन इसे दोहराए जाने की ज़रूरत है। एक अगुवा जो अपने विचार में एक सामान्य भाई बना रहता है, वह आख़िर तक बचा रहेगा, क्योंकि ऐसे पुरुष को परमेश्वर हमेशा अपनी कृपा प्रदान करता है।

लेकिन कुछ ऐसे लोग होते हैं जो प्राचीन नियुक्त जाने पर घमण्ड से फूल जाते हैं। जिस क्षण से एक भाई अपने बारे में यह सोचने वाला बन जाता है कि वह एक विशेष भाई है, उसी पल से उसका पतन शुरू हो जाता है। सामान्य भाई उनके जीवन के अंत तक आत्मिक रूप में फलते-फूलते रहेंगे। लेकिन जो अपने आपको ‘विशेष’ भाई समझते हैं, वे आसानी से भटक जाएँगे। 

और अगर आपको परमेश्वर के वचन के प्रभावशाली प्रचार का वरदान मिला हुआ है और आपके झुण्ड के लोग आपकी ओर देखते रहते हैं, तब आपको और भी ज़्यादा सचेत रहना होगा। ऐसा कोई भी विश्वासी जिसे दूसरों का नायक बनना अच्छा लगता है, वह मसीह-विरोधी की आत्मा से ग्रस्त है, और वह शैतान के लिए एक आसान शिकार है। हमारी बुलाहट सिर्फ सेवक होने के लिए है। हमारी सुरक्षा इसी में है।

परमेश्वर के लिए यह आसान है कि वह आपको पवित्र आत्मा की हर सम्भव आशिष दे। लेकिन, ये आशिषें देने के बाद, उसके लिए आपको नम्र व दीन बनाए रखना मुश्किल होता है। यह इसलिए है क्योंकि प्रभु आपके सहयोग के बिना आपको नम्र व दीन नहीं बना सकता। आपको उसके जुए का दूसरा किनारा अपने ऊपर लेकर और उससे नम्रता सीखनी होगी (मत्ती 11:29)। ऐसा कर पाने में नाकाम रहना ही अनेक प्राचीनों के भटक जाने की वजह रही है।

ईमानदार नहीं हैं

ईमानदारी, नम्रता की जुड़वा बहन है। ये दोनों हमेशा साथ-साथ रहती हैं। अनेक प्राचीनों में ऐसी नम्रता और ईमानदारी नहीं होती कि जब तक वे किसी पाप में एक सक्रिय रूप में नहीं पाए जाते, तब तक वे किसी बड़े भाई से मदद नहीं माँगते। वे एक नग्नावस्था में पकड़े जाने तक पाखण्डी ही बने रहते हैं। और फिर उनमें से कुछ अपने पाप को छिपाने के लिए झूठ भी बोलते हैं। यह एक आघातजनक बात है कि जिन्हें दूसरों की अगुवाई एक ईश्वरीय जीवन में करनी है, उनमें ही ईमानदारी और सच्चाई की ऐसी कमी पाई जाती है।

अनेक अगुवे पाप में पकड़े जाने पर अपने आपको सही ठहराने की कोशिश करते हैं। और जब वे अंततः अपना पाप स्वीकार करते हैं, तब भी वे उसे राजा शाऊल की ही तरह करते हैं - फिर भी अपने लिए वे लोगों का आदर-सम्मान बनाए रखना चाहते हैं (देखें 1 शमूएल 15:30)।

परमेश्वर अंत में सब पाखण्डियों का पर्दाफाश कर देता है। अगर हनन्नयाह और सफीरा कुरिन्थियों की कलीसिया जैसी किसी सांसारिक कलीसिया का हिस्सा होते, तो वे शायद पकड़े नहीं जाते और वे ज़्यादा समय तक जीवित रहे होते। लेकिन एक शुद्ध कलीसिया में (जैसी कि उन दिनों में यरूशलेम की कलीसिया थी), वे छिपे न रह सके थे।

परमेश्वर कलीसियाओं के किसी समूह और उनके अगुवों का समर्थन करता है, इसका एक स्पष्ट चिन्ह् यह होता है वह देर-सवेर उनके बीच में मौजूद पाखण्डियों के जीवनों के पाप उजगर करता रहता है - और ख़ास तौर पर ऐसे लोगों के पाप जो अगुवे होना चाहते हैं।

अपने साथी-प्राचीनों पर अधिकार जताना

यह हो सकता है कि एक सशक्त प्राचीन, अपने साथी-प्राचीनों के मत को स्वीकार करने के प्रति नम्र व दीन हुए बिना, अपने मत को उनके ऊपर थोप दे। आपको अपने साथी-प्राचीनों को यह पूरी आज़ादी देनी चाहिए कि वे अपने मत व्यक्त कर सकें और आपके साथ मतभेद कर सकें। इस तरह परमेश्वर आपको बहुत सी ग़लतियों और भूलों से बचाता रहेगा।

हरेक प्राचीन ऐसी आज़ादी महसूस करने वाला होना चाहिए कि अपने वरिष्ठ प्राचीन द्वारा पहले से व्यक्त किए जा चुके मत से डरे बिना, ईमानदारी और हिम्मत के साथ अपने विचार को व्यक्त कर सके। अगर आप अपने वरिष्ठ प्राचीन से सहमत नहीं हैं, तो आपको प्रेमपूर्वक उसके साथ अपना मतभेद व्यक्त करना चाहिए, चाहे आप अंत में उसके मत के साथ सहमत भी क्यों न हो जाएँ। सहमत-न-होने का अर्थ एकता-न-होना नहीं होता है।

अगर एक कलीसिया में आप ही सिर्फ एक प्राचीन हैं और पाँच-छः साल बीत जाने के बाद भी अगर आपने अगुवाई करने के लिए आपकी जि़म्मेदारी में सहभागी होने के लिए एक और भाई को तैयार नहीं किया है, तो आपको स्वयं से यह सवाल करना चाहिए कि कहीं आप एक बड़े-भाई की जगह एक छोटे-तानाशाह तो नहीं बन गए हैं। यह हो सकता है कि शायद आपका सशक्त व्यक्तित्व (जो अभी तक मरने के लिए उण्डेला नहीं गया है), आपकी कलीसिया में अगुवाई को बढ़ने न दे रहा हो।

अगर एक प्राचीन दान-वरदान पाया हुआ एक सशक्त व्यक्तित्व वाला व्यक्ति हो, तो उसे “अपने जीव को मरने के लिए उण्डेलना” सीखना चाहिए, और उसे अपने भाइयों और बहनों की अगुवाई इस तरह करनी चाहिए कि वे स्वयं उसके ऊपर निर्भर न रहें बल्कि उनका प्रभु के साथ सीधा सम्बंध हो। ऐसा न हो कि उसके भाई व बहनें हमेशा उसके प्रति एक आदरयुक्त भय से भरे रहें, बल्कि उसे स्वयं को नीचे लाते हुए, अपने आपको भाइयों व बहनों के स्तर पर ही रखना चाहिए। उसे कलीसिया में उन भाइयों के साथ भी अपनी सहभागिता बनानी चाहिए जो उससे भिन्न लेकिन ईमानदार हैं; वह एक ऐसे राजनेता जैसा न हो जो सिर्फ उन्हें ही बड़े मंत्री-पद देते हैं जो उसके सामने झुकते हैं।

एक प्राचीन के रूप में, आपको यह सुनिश्चित करने में ध्यान रखना होगा कि आप अनेक दाख की बारियों (दूसरे स्थानों की कलीसियाओं) की देखभाल करने और स्वयं अपनी दाख की बारी (अपनी स्थानीय कलीसिया) को अनदेखा करने के दोषी न पाए जाएँ (श्रेष्ठगीत 1:6बी)। अपनी मूल कलीसिया को अनदेखा करना और यहाँ-वहाँ यात्रएँ करते हुए अनेक कलीसियाओं में प्रचार करना आसान होता है।

अगर आप अपनी स्थानीय कलीसिया में एक भाईचारा तैयार नहीं करते, अगर दूसरे भाइयों को एक जि़म्मेदारी के मनोभाव के साथ अपनी स्थानीय कलीसिया में तैयार नहीं किया जा रहा है, तो आपको यह मान लेना चाहिए कि प्राचीन होने की आपकी सेवकाई नाकाम हो गई है - फिर चाहे आप दूसरा कुछ भी क्यों न कर रहे हों। तब आप दूसरी कलीसियाओं को क्या सिखा सकेंगे? तब इस बात पर भी एक प्रश्न-चिन्ह् लग जाएगा कि क्या परमेश्वर आपकी सेवकाई के लिए आपको कृपा प्रदान कर रहा है या नहीं। जब परमेश्वर एक प्राचीन को उसकी सेवकाई के लिए कृपा देता है, तो उसका एक चिन्ह् यह होता है कि धीरे-धीरे एक स्थानीय भाईचारा बढ़ता जाता है - एक ऐसा भाईचारा जो किसी एक व्यक्ति पर निर्भर नहीं रहता।

कुछ दबंग प्राचीन उनकी फ्हाँ-में-हाँ” मिलाने वाले एक ऐसे व्यक्ति को सिर्फ इसलिए एक दूसरे प्राचीन के रूप में नियुक्त कर देते हैं, कि वे प्रभु के इस वचन को एक सतही रूप में पूरा कर दें कि हरेक कलीसिया में एक-से-ज़्यादा प्राचीन होने चाहिए। यह उचित ही है कि नियुक्त किया गया नया प्राचीन यह माने कि एक पुराना और बड़ी उम्र का प्राचीन आत्मिक रूप में उससे ज़्यादा परिपक्व है। लेकिन नया प्राचीन “हाँ-में-हाँ” मिलाने वाला एक ऐसा व्यक्ति न हो जो बिना सोचे-समझे उससे वरिष्ठ प्राचीन के पीछे चलने लगे - क्योंकि तब वह अपने साथी-प्राचीन को संतुलित करने की अपनी जि़म्मेदारी निभाने वाला नहीं होगा। यह वरिष्ठ प्राचीन की जि़म्मेदारी है कि वह नए प्राचीन को इस जि़म्मेदारी को पूरा करने में प्रोत्साहित करे।

पतरस ने अपनी साथी-प्राचीनों को चेतावनी दीः “अपने झुण्ड के ऊपर प्रभुता न जताओ। तानाशाह न बनो। दूसरों को दबाते हुए उनका मार्ग-दर्शक न बनो। उनके लिए एक आदर्श बनो और विनम्रता से उन्हें सही मार्ग दिखाओ” (पतरस 5:3 - विभिन्न अनुवाद)।

यह हो सकता है कि प्राचीन ताक़त के नशे में चूर हो जाएँ और फिर सीखाए-जाने-लायक़ न रहें, और वे यह कल्पना करने लगें कि वे अपने क्षेत्र में निष्णात् हो गए हैं। अगर वे उस बिन्दु से भी आगे जा चुके हैं जहाँ उन्हें सुधारा जा सकता हो, तो वे बड़े ख़तरे में पड़ गए हैं। “एक बुद्धिमान लड़का उस वृद्ध और मूर्ख राजा से अच्छा है जो अब सम्मति ग्रहण करना नहीं जानता” (सभो॰ 4:13)।

एक व्यक्ति के प्राचीन होने की सबसे पहली योग्यता यही है कि उसमें दूसरों पर राज करने की लालसा न हो, बल्कि, लोगों की सेवा करने की और नम्रता के साथ उनके पाँव धोने की मनोवेग-भरी अभिलाषा हो।

अपनी कलीसिया में आपको परिपक्व छोटे भाइयों का भरोसा जीतना चाहिए और फिर उन्हें कलीसिया में और वचन की सेवकाई में ज़्यादा से ज़्यादा जि़म्मेदारी लेने वाला बनाना चाहिए। एक प्राचीन को ऐसे युवा भाइयों को वचन बाँटने के लिए उत्साहित करना चाहिए जो कलीसिया प्रामाणिक पाए गए हैं। एक बड़ा भाई कभी सेवा-निवृत्त नहीं होता है। लेकिन उसे दूसरों को ज़्यादा-से-ज़्यादा जि़म्मेदारी देना सीखना चाहिए। इस तरह वह दूसरी कलीसियाओं की मदद करने के लिए ज़्यादा आज़ादी पा सकेगा।

इसलिए, परमेश्वर के सम्मुख भय में अपना जीवन बिताएं, और हर समय अपने बारे में छोटी सोच बनाए रखें। दूसरे लोगों को कभी यह अनुमति न दें कि वे आपको इतना ऊँचा देखने लगें मानो उनके लिए आप एक “गौण-देवता” समान हैं। अगर आप परमेश्वर के सम्मुख नम्रता से चलेंगे, तो परमेश्वर आपको कृपा प्रदान करेगा - और वह कोई पक्षपात नहीं करता है।

आपको बार-बार उन पत्रों को पढ़ना और उन पर मनन करना चाहिए जो नई वाचा में ख़ास तौर पर कलीसिया के प्राचीनों को लिखे गए हैंः 1 तीमुथियुस, 2 तीमुथियुस, तीतुस और प्रकाशितवाक्य के अध्याय 2 व 3- इनसे आपको बहुत मदद मिलेगी।

पक्षपात

एक बड़े भाई/प्राचीन के लिए उसके ख़ास दोस्तों और सम्बंधियों के पक्ष में रहना/उनका पक्ष लेना दुष्टता है।

परमेश्वर का वचन कहता है, “न्याय चुकाने में अन्याय न करना। न तो दरिद्र का पक्ष लेना और न ही बड़े मनुष्य का मुँह-देखा विचार करना, लेकिन सच्चाई के साथ अपने पड़ौसी का न्याय चुकाना” (लैव्यव्यवस्था 19:15)।

इस बात में प्राचीनों के लिए इतना बड़ा ख़तरा रखा है कि पौलुस को अपने सबसे नज़दीकी और पूरे हृदय से समर्पित सहकर्मी तीमुथियुस को यह सुनिश्चित करने के लिए चेतावनी देनी पड़ी कि वह पक्षपात से कुछ न करे (1 तीमुथियुस 5:21) - और उसने यह चेतावनी बहुत गंभीर शब्दों में दी थी, “मैं तुझे परमेश्वर, मसीह यीशु और उसके चुने हुए स्वर्गदूतों की उपस्थिति में दृढ़तापूर्वक यह चेतावनी देता हूँ कि इन सिद्धान्तों का पालन निष्पक्ष होकर कर और पक्षपात की आत्मा में कुछ न कर।” 

यह दर्शाता है कि पूरे हृदय से समर्पित 45 साल का भाई तीमुथियुस जो 25 साल से पौलुस के साथ काम कर चुका था, अब भी पक्षपात करने के ख़तरे में पड़ा था। वर्ना उसे ऐसी चेतावनी देने की कोई ज़रूरत ही न होती।

इसलिए, ऐसा कोई भी प्राचीन जो इस चेतावनी को अनदेखा करते हुए यह कहता है, “मैं कभी पक्षपात नहीं करता”, उसी के इस पाप में दोषी पाए जाने की सबसे ज़्यादा सम्भावना होगी।

जब जंगल में इस्राएलियों ने सोने के बछड़े की आराधना की थी, तब मूसा ने पहाड़ से उतर कर उन लोगों को उसकी तरफ आ जाने के लिए कहा था जो परमेश्वर के पक्ष में थे। तब सिर्फ लेवी का गोत्र उसके साथ आकर खड़ा हुआ था। उसने उनसे कहा कि वे छावनी में जाएँ और सभी मूर्ति-पूजकों पर परमेश्वर की ओर से दण्ड दें, और ऐसा करते समय वे कोई पक्षपात न करें - और पाप करने वाले अपने नज़दीकी सम्बंधी को भी मार गिराएं। और उन्होंने वही किया - और परमेश्वर ने उन्हें इस्राएल में याजक-पद प्रदान करके पुरस्कृत किया (निर्गमन 32:27-29)।

जब मूसा ने अपना उत्तराधिकारी चुना, तब उसने भी कोई पक्षपात नहीं किया। उसके दे पुत्र थे। लेकिन उसने इस्राएल की अगुवाई उनमें से किसी को नहीं दी थी। उसने यहोशू को चुना। वह परमेश्वर के सम्मुख रहता था, उसने परमेश्वर की वाणी को सुना, और जिसे परमेश्वर ने चुना था उसने उसे ही चुना। एक सच्चा अगुवा इस तरह काम करता है। और हम सबको भी इसी तरह काम करना चाहिए।

लेकिन इस मामले में नबी शमूएल नाकाम हुआ था। उसने अपने पुत्रों का पक्ष लिया और अपनी जगह अपने पुत्रों को न्यायी नियुक्त किया। लेकिन “उसके पुत्र उसके मार्गों में नहीं चले और वरन् उनसे हटकर बेईमानी से लाभ कमाने, घूस लेने तथा न्याय बिगाड़ने में लग गए” (1 शमूएल 8:3)। इस तरह, ऐसे महान् लोग भी, अगर वे अपना न्याय स्वयं ही नहीं करेंगे, तो वे भी इस क्षेत्र में नाकाम हो सकते हैं। यह हम सभी के लिए एक चेतावनी है।

मैंने इसी तरह और भी घटनाएं देखी हैं जहाँ एक कलीसिया में प्राचीनों ने अपने पुत्रों, पुत्रियों और नज़दीकी मित्रें का पक्ष लिया है। इससे अक्सर अन्याय हुआ है। और मनुष्यों के हृदयों की छानबीन करने वाला परमेश्वर, फिर ऐसे प्राचीनों को अपनी कृपा नहीं देता। ये प्राचीन अपना उद्धार या अपना प्राचीन होने का दायित्व नहीं खो देते। लेकिन वे अपना अभिषेक और आत्मिक परख ज़रूर खो देते हैं। और फिर धीरे-धीरे लोग उनमें अपना भरोसा खो देते हैं।

“परमेश्वर का ज्ञान जो स्वर्ग से आता है, किसी के प्रति कोई पक्षपात नहीं करता है” (याकूब 3:17 – के.जे.वी.)।

हम सभी के लिए यह अच्छा होगा कि हम मुड़कर अपने बीते हुए जीवन में किए गए कामों और फैसलों को देखें, और परमेश्वर से कहें कि वह हमें उन पर ज्योति दे। वर्ना हम इस क्षेत्र में हमारे शरीर की भ्रष्टता को कभी नहीं देख पाएंगे - और तब हम स्थाई रूप में पक्षपात से अशुद्ध हुए रहेंगे।

ऐसा मान लेना ही सबसे अच्छा है कि बीते समय में आपने अपने कुछ कामों और फैसलों में पक्षपात किया है, और फिर परमेश्वर से कहें कि वह आपको उन मामलों पर ज्योति प्रदान करे। तब वह आपको ज्योति देगा।

इसलिए अपने आपसे ऐसे सवाल पूछें: क्या आपने किसी के द्वारा किए गए एक ग़लत काम को इसलिए ढाँपा था क्योंकि वह आपका मित्र था? क्या आपने एक व्यक्ति को ज़रूरत से ज़्यादा बुरी तरह सिर्फ इसलिए डाँटा था क्योंकि वह आपको पसन्द नहीं था? अपने आपसे ऐसे सवाल पूछें जो आपको ज्योति देंगे। और जब परमेश्वर आपको किसी क्षेत्र में ज्योति दे, तो गहराई में जाकर पश्चात्ताप करें।

परमेश्वर की नज़र में सब लोग बराबर हैं - और वे हमारी नज़र में भी बराबर होने चाहिए। पक्षपात से शुद्ध किए जाने से आपके आत्मिक अहसास ज़्यादा धारदार हो जाएँगे और इसके बाद आप एक ज़्यादा प्रभावशाली प्राचीन हो जाएँगे।

हमें यह ध्यान भी रखना है कि हम एक निर्धन का भी पक्ष सिर्फ इस वजह से न लें क्योंकि वह निर्धन है (निर्गमन 23:3)। इसमें भी एक धनवान का पक्ष लेने जितनी ही बुराई है!

लेकिन ज़्यादातर कलीसियाओं में, धनवान और शिक्षित लोगों का ही पक्ष लिया जाता है और उन्हें सम्मानित किया जाता है (याकूब 2:1-4)। इस मामले में अपनी छानबीन कर लेना अच्छा है। एक प्राचीन होते हुए उन भाईयों को देखें जो आपके सबसे नज़दीक हैं और जिन्हें आप जि़म्मेदारी देते हैं - और यह देखें कि क्या उनमें से ज़्यादातर धनवान और शिक्षित हैं या नहीं। अगर ऐसा है, तो आपने (शायद जानबूझ कर नहीं) शिक्षा और सम्पन्नता को ज़्यादा मूल्यवान मान लिया है, और अनजाने ही एक ग़रीब और कम पढ़े-लिखे भाई को अनदेखा कर दिया है। इससे यही प्रदर्शित होता है कि आपके अचेत मन में, आप अब भी शिक्षा और धन-सम्पत्ति को आत्मिकता से ज़्यादा मूल्यवान समझते हैं। ऐसा मनोभाव आगे जाकर आपकी कलीसिया का नाश कर देगा। शैतान आपके साक्षी के शब्द को बहुत तरह से निष्प्रभावी करने के लिए काम करता रहता है।

यह कभी न भूलें कि यीशु ने मछुआरों को उसके चेले होने के लिए चुना था।

अध्याय 16
ताड़ना पाना और टूटना

अगर हमसे ज़्यादा परिपक्व भाइयों को हम यह अनुमति नहीं देंगे कि वे हमारी ग़लतियों के लिए हमें सुधारें/ताड़ना दें, तो प्राचीनों के रूप में हमें अपनी ग़लतियाँ कभी नज़र ही नहीं आएँगी।

प्राचीन होते हुए, हममें परिपक्वता और आपसी भरोसे का एक चिन्ह् यह होता है कि हम बिलकुल भी बुरा माने बिना एक-दूसरे के साथ विभिन्न मामलों पर दृढ़ता के साथ बातचीत कर सकते हैं।

अपने विवाह के आरम्भिक वर्षों में, एक पति और पत्नी को इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि वे एक-दूसरे से क्या कहता हैं, और कैसे कहते हैं, क्योंकि उनका आपसी सम्बंध इतना मज़बूत नहीं होता कि किसी तरह का तनाव सह सके। लेकिन जब वे एक-दूसरे के प्रेम में ज़्यादा दृढ़ हो जाते हैं, तब अपने साथी के बुरा मान जाने के बारे में चिंता किए बिना, वे ज़्यादा आज़ादी के साथ अपनी बातें एक-दूसरे के साथ बाँट सकते हैं।

प्राचीनों के बीच में भी ऐसा ही होना चाहिए। अगर प्राचीन एक-दूसरे के प्रति एक ईश्वरीय प्रेम के सम्बंध में दृढ़ होंगे, तो वे मतभेद होने पर या उनमें से एक ग़लत होने पर भी एक-दूसरे के साथ प्रेम में बातचीत कर सकेंगे, और इससे कलीसिया को बहुत फ़ायदा होगा। यह बड़ा दुर्भाग्य है कि ज़्यादातर प्राचीन उनके पूरे जीवन में भी इस जगह पर नहीं पहुँच पाते - और मामूली सी ताड़ना दिए जाने से भी वे बुरा मान जाते हैं।

यीशु ने पतरस को सबके बीच में डाँटा था, और एक बार उसे “शैतान” भी कहा था। लेकिन उस ताड़ना का पतरस ने बुरा नहीं माना था (मत्ती 16:23)। पौलुस ने भी पतरस को एक बार सबके बीच में डाँटा था (गलातियों 2:11), लेकिन उसने तब भी बुरा नहीं माना था। यह स्पष्ट है कि पतरस एक आत्मिक मनुष्य था। लेकिन यहूदा इस्करियोती उसे सुधारने के लिए यीशु द्वारा कही गई एक हल्की सी झिड़की का भी बुरा मान गया था, और उसने तुरन्त जाकर प्रभु को पकड़वा दिया था (मत्ती 26:10-16)।

लेकिन पतरस और पौलुस परमेश्वर के साथ अपने सम्बंध में इतने दृढ़ थे और वे एक-दूसरे को इतना प्रेम करते थे कि उन्होंने एक-दूसरे की बात का बुरा नहीं माना था। प्राचीनों के रूप में ऐसी ऊँचाइयों पर पहुँचने के लिए हमें भी संघर्ष करते रहना चाहिए। लेकिन, वहाँ पहुँचने के लिए, मैं यह कहना चाहूँगाः हम दूसरों को सुधारने के लिए ताड़ना दें, इससे पहले हमारे लिए यह सीखना ज़्यादा अच्छा रहेगा कि हम बुरा माने बिना, ताड़ना ग्रहण करने वाले बनें।

पहला व दूसरा तीमुथियुस में से कुछ पाठ:

1 तीमुथियुस 4:16 में पौलुस ने तीमुथियुस से कहाः “अपने ऊपर और अपनी शिक्षा पर विशेष ध्यान दे और उन बातों पर स्थिर रह, क्योंकि ऐसा करने से तू अपना और अपने सुनने वालों के भी उद्धार का कारण होगा।”

तीमुथियुस पौलुस का सबसे अच्छा सहकर्मी था। फिर भी, पौलुस को बहुत से मामलों में उसे उपदेश और शिक्षा देनी पड़ी थी। ये पौलुस द्वारा उसे दिए गए 14 उपदेश हैंः

1 तीमुथियुस मेंः

  1. 4:7: भक्ति के लिए अपने आपको अनुशासित कर।
  2. 4:12: अपने वचन, व्यवहार, प्रेम, विश्वास और पवित्रता में विश्वासियों के लिए आदर्श बन।
  3. 5:21: पक्षपात की आत्मा में कुछ न कर।
  4. 5:23: अपने दैहिक स्वास्थ्य का ध्यान रख। यह बहुत महत्वपूर्ण है। अगर सांसारिक लोग लम्बे और स्वस्थ जीवन जी सकते हैं, तो हम जो परमेश्वर के सेवक हैं, परमेश्वर की महिमा के लिए लम्बे और स्वस्थ जीवन क्यों नहीं जी सकते?
  5. 6:5-11: अपनी भौतिक वस्तुओं/स्थितियों से संतुष्ट रह और धन के प्रेम से भाग। यह ध्यान रख कि तेरे प्रचार स्वयं तेरे लिए धन-सँग्रह का माध्यम न बनें (तीमुथियुस जैसे ईश्वरीय भक्त को भी ऐसे उपदेश दिए जाने की ज़रूरत थी)।
  6. 6:20: सारी सांसारिक और खोखली बातचीत से दूर रह (यह बात पौलुस के दूसरे पत्र में दोहराई गई है)।

2 तीमुथियुस मेंः

  1. 1:6,7: परमेश्वर की आग से भरा रह, और भयभीत न हो
  2. 2:3: सुसमाचार की ख़ातिर दुःख उठा।
  3. 2:4: सांसारिक मामलों में ज़्यादा न उलझना।
  4. 2:7,15: प्रभु के वचन को समझने के लिए प्रभु की खोज में रह, कि फिर दूसरों को भी ठीक-ठीक सिखा सके।
  5. 2:22: अपनी जवानी की लालसाओं से भाग।
  6. 2:24,25: तू दया करने वाला और सहनशील हो, लेकिन कभी झगड़ालू न हो।
  7. 4:2: परमेश्वर के वचन का प्रचार करने के लिए हर समय तैयार रह (दूसरे शब्दों में, हरेक सभा में तेरे पास बाँटने के लिए कुछ हो)।
  8. 4:2: ताड़ना दे, डाँट और समझा, और कभी किसी को प्रसन्न करने के लिए कुछ न कर।

तीमुथियुस को ये उपदेश तब दिए गए जब वह 45 साल का था, और उस समय तक वह पहले ही पौलुस के साथ परमेश्वर की 25 साल तक पूरे हृदय से सेवा कर चुका था।

इन उपदेशों को पढ़ें और अपने आपसे यह सवाल करें कि क्या आपने इन सभी को गंभीरता से लिया है।

ताड़ना स्वीकार करने के लिए नम्रता

अगर आज आपको किसी बड़े भाई द्वारा ये उपदेश सुनने पड़ें, तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? क्या आप यह सोचते हैं कि आप इतने परिपक्व हैं कि आपको ऐसे सुधार और डाँट की ज़रूरत नहीं है? अगर परमेश्वर आप में ऐसा मनोभाव देखेगा, तो वह आपको सुधारने के लिए कभी किसी को नहीं भेजेगा - और तब आप हानि उठाएँगे और हार जाएँगे। तब आपका अंत एक “अभागे, तुच्छ, दरिद्र, अंधे और नंगे” रूप में होगा, और आपको अपनी सही दशा का कभी पता भी नहीं चलेगा (प्रकाशितवाक्य 3:17)।

“बुद्धिमान की डाँट सुनना, मूर्खों के गीत सुनने से उत्तम है” (सभोपदेशक 7:5)। “मूर्खों के गीत” ऐसे भाइयों और बहनों की खोखली प्रशँसा है जिनमें परख नहीं है और जो अपरिपक्व हैं। ऐसे “गीत” सुनने और उन पर मनन करने से आप का सिर ऐसा घूम जाएगा कि आप स्वयं को बहुत श्रेष्ठ समझने लगेंगे, और फिर धीरे-धीरे आपको किसी तरह के सुधार की ज़रूरत ही महसूस नहीं होगी।

देमास पौलुस का एक सहकर्मी था (कुलुस्सियों 4:14), और तीमुथियुस की तरह पौलुस द्वारा उसे भी ताड़ना दी गई होगी। लेकिन उसने उसकी बातों का बुरा माना और पौलुस को छोड़ कर सँसार में लौट गया (2 तीमुथियुस 4:10)।

याकूब 1:21 कहता है कि हमारा उद्धार तभी हो सकता है जब हम परमेश्वर के वचन को नम्रता से ग्रहण करते हैं - और इसमें ताड़ना के वचन भी शामिल हैं।

यह याद रखें कि जब इस्राएली मार्ग से भटक गए थे, तब परमेश्वर ने उनके नबियों के द्वारा उनके अगुवों को डाँटा था। लोगों के अन्दर से परमेश्वर का भय इसलिए मिट गया था क्योंकि उनके अगुवों के अन्दर से परमेश्वर का भय जाता रहा था।

परमेश्वर का भय मानना और ताड़ना स्वीकार करना

2 कुरिन्थियों 7:1 में हमें आज्ञा दी गई है कि हम परमेश्वर के भय में पवित्रता को सिद्ध करें। इसलिए अगर आज हमारी पवित्रता इतनी सिद्ध नहीं है जितनी वह पिछले साल थी, तो इसका अर्थ यही है कि हमने पर्याप्त रूप में परमेश्वर का भय नहीं माना है। हमें इस मामले में एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए, क्योंकि हम अपने भाई के रखवाले हैं। इस वजह से ही परमेश्वर एक कलीसिया में एक से ज़्यादा चरवाहे नियुक्त करता है। लेकिन इब्रानियों 3:13 हमें बताता है कि हम एक-दूसरे को प्रतिदिन उत्साहित करें, कि ऐसा न हो कि पाप के धोखे के द्वारा हमारे हृदय कठोर हो जाएँ। इस तरह हम धोखा खाने से एक-दूसरे को बचा सकते हैं।

यशायाह 11:3 में हम पढ़ते हैं कि परमेश्वर के आत्मा ने यीशु को “परमेश्वर के भय के प्रति संवेदनशील” बना दिया था। अगर हम उसे अनुमति दें, तो पवित्र आत्मा हमें भी परमेश्वर के भय के प्रति संवेदनशील बनाता है। अगर हम वास्तव में पवित्र आत्मा से भरे हुए होंगे, तो हम परमेश्वर के भय से भरे हुए होंगे।

परमेश्वर हमेशा हमारे पक्ष में रहता है, और जितना हम पवित्र आत्मा से भरे जाने के लिए उत्सुक नहीं होते, उससे ज़्यादा वह हमें पवित्र आत्मा से भरने के लिए उत्सुक रहता है। वह हमारी निर्बलताओं के बावजूद, हममें से किसी के भी द्वारा एक महान् काम कर सकता है। हमें बस इतना करने की ज़रूरत है कि हम अपने आपको नम्र व दीन करें और लगातार उसके मुख के दर्शन के खोजी बने रहें। हमारे शरीर और शैतान के खिलाफ़ परमेश्वर हमेशा हमारे ही पक्ष में रहता है।

 हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं जबकि मसीहियों के बीच में एक “दूसरे यीशु” का (जो चेले बनने की माँग नहीं करता) प्रचार किया जा रहा है, एक दूसरी आत्मा ग्रहण की जा रही है (जो नकली दान-वरदान देती है लेकिन लोगों को पवित्र नहीं बनाती), और एक (स्वास्थ्य और सम्पन्नता) का दूसरा सुसमाचार सुनाया जा रहा है (2 कुरिन्थियों 11:4)। इसलिए हमें अपने समयकाल में असली यीशु को, पवित्र आत्मा को और परमेश्वर की कृपा के सुसमाचार को ऊँचा उठाने में विश्वास-योग्य रहना चाहिए।

अपनी सफ़ाई दिए बिना खेद प्रकट करना/क्षमा-याचना करना

अगर हम मन में दीन और आत्मा में टूटे और पिसे हुए नहीं होंगे, तो अपनी ग़लती का अहसास होते ही, हम पूरी दीनता के साथ क्षमा माँगने में संकोच करेंगे (या झिझकेंगे)।

ज़्यादातर मनुष्यों के लिए ये शब्द बोलना सबसे मुश्किल काम होता हैः “मैं क्षमा चाहता हूँ। यह मेरी ग़लती थी। कृपया मुझे क्षमा कर दें।”

एक ऐसी आत्मा जो टूटी-हुई नहीं है, वह क्षमा-याचना करते समय अपने आपको सही ठहराने की कोशिश करेगी। लेकिन एक क्षमा-याचना में अगर स्वयं को सही ठहराने का मनोभाव है, तो वह कोई क्षमा-याचना नहीं है। अगर हमारी क्षमा-याचना में स्वयं को सही ठहराने की मामूली सी गंध भी होगी, तो हम एक निश्चित रूप जान लें कि हम टूटे हुए नहीं हैं। अपने आपको सही ठहराना, यीशु ने कहा, एक फरीसी होने का चिन्ह् होता है (लूका 16:15)।

जब हमें यह अहसास हो जाए कि हमारे द्वारा किया गया कोई काम ग़लत है, तो हमें तुरन्त ही उसे स्वीकार करते हुए उसे सही कर लेना चाहिए। एक टूटे हुए व्यक्ति को ऐसा कर पाने में कोई मुश्किल न होगी। लेकिन एक व्यक्ति जो टूटा हुआ नहीं है, वह ये दोनों ही काम करने में देर करेगा। और अंततः जब वह क्षमा-याचना करेगा, तो वह किसी दूसरे व्यक्ति पर भी दोष लगाएगा। जब आदम ने पाप किया, तब उसने यह मान लिया था कि उसने वर्जित फल खाया था, लेकिन उसने यह कहते हुए स्वयं को सही ठहराया था कि जिस स्त्री को परमेश्वर ने उसे दिया था, उसी ने वह उसे दिया था। इस तरह, उसने अपनी पत्नी पर दोष लगाया; और उसने परमेश्वर पर भी दोष लगाया कि उसने उसे ऐसी पत्नी दी थी! यह पाप या भूल स्वीकार करने का कोई तरीक़ा नहीं है।

लेकिन, यह देखें कि दाऊद ने भजन संहिता 51 में उसका पाप कैसे स्वीकार किया था। उसमें स्वयं को सही ठहराने की गंध भी नहीं आती है। यह एक वास्तव में टूटे हुए व्यक्ति का चिन्ह् है। मैं यह सिफ़ारिश करना चाहूँगा कि प्रभु से यह समझने के लिए कि टूटेपन का अर्थ वास्तव में क्या होता है और आपको अपने पापों का अंगीकार कैसे करना चाहिए, आप भजन 51 पर गंभीरता से उसकी गहराई में जाकर चिंतन-मनन करें।

इसके अलावा, आप अपने आपको सही ठहराने के लिए, एक झूठ भी बोल सकते हैं। यह झूठ मामूली/छोटा हो सकता है - अपने आपको अच्छा दिखाने के लिए किसी बात को बढ़ा-चढ़ा कर बताना या कुछ बातों को छिपा लेना हो सकता है। एक झूठ बोलना आसान होता है, लेकिन सिर्फ एक ही झूठ बोलना मुश्किल होता है - क्योंकि एक बार जब हम एक झूठ बोल देते हैं, तब उस पहले झूठ का समर्थन करने के लिए हमें दूसरे झूठ भी बोलने पड़ते हैं। हमें झूठी बातों से घृणा और सही बातों से पूरे हृदय से प्रेम करना चाहिए। वर्ना हमारे जीवनों पर से हम परमेश्वर के अभिषेक और भलाई को खो देंगे - और इससे बढ़कर हमारा और दूसरा कोई नुक़सान नहीं हो सकता।

परमेश्वर जब हममें कुछ ऐसा घमण्ड देखता है जिसका पर्दाफाश करने और उसे ख़त्म करने की ज़रूरत होती है, तो वह हमारे जीवनों में ऐसी एक घटना के होने की अनुमति दे देगा जिससे हम किसी-न-किसी रूप में ठोकर खाएंगे और गिर जाएँगे (देखें यहेज़केल 3:20: ‘...जब मैं उसके मार्गों में रुकावट डालूँ...’)।

और जब हम गिरेंगे, तब प्रभु यह देखने के लिए हमें परखेगा कि क्या हम (1) अपने घमण्ड को स्वीकार करते हैं जिसकी वजह से हमने ठोकर खाई थी, (2) अपने पाप का अंगीकार करते हैं, (3) उसके सम्मुख अपने आपको दीन करते हैं, और (4) मनुष्यों के साथ अपने मामलों को सही करते हैं। अगर हम ये सब करेंगे, तो हमारा न्याय न किया जाएगा। लेकिन अगर हम अपने आपको सही ठहराएंगे की कोशिश करेंगे, तो हम अटूटे रहेंगे, और एक दिन सँसार के साथ दोषी ठहराए जाएँगे (1 कुरिन्थियों 11:31, 32)।

अपनी भूलों को स्वीकार करना

परमेश्वर चाहता है कि हम अपनी भूलें स्वीकार करने के मामले में ईमानदार हों।

लेकिन अनेक प्राचीन अपनी भूलें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते। यह एक बहुत ही गंभीर बात है और इसकी वजह सिर्फ घमण्ड है। उनकी सेवकाई पर कोई कृपा नहीं होगी, क्योंकि परमेश्वर घमण्डियों का विरोध करता है।

परमेश्वर ऐसे लोगों को बहुत मूल्यवान जानता है जो अपना न्याय स्वयं करते रहते हैं और जो अपनी ग़लतियों को तुरन्त ही स्वीकार करते हुए उनके लिए क्षमा माँग लेते हैं। मुझे जब भी यह पता चला है कि एक भाई ने मुझसे झूठ बोला है, या जब भी मैंने यह देखा है कि वह उसकी ग़लतियों को स्वीकार करने और क्षमा माँगने में झिझक रहा है, तो उसमें से मेरा भरोसा ख़त्म हो गया है।

हम सभी ग़लतियाँ करते हैं। सिर्फ परमेश्वर ही ऐसा है जो कभी कोई ग़लती नहीं करता। लेकिन हम जब भी ग़लती करें, तो हमें उसे तुरन्त स्वीकार करते हुए उसका परमेश्वर के सम्मुख और उन सबके सम्मुख अंगीकार कर लेना चाहिए जो हमारी उस ग़लती से प्रभावित हुए हों। एक प्राचीन के रूप में हमारी नम्रता की परख इस बात में होती है कि हम अपने उस पाप को उन सभी साथी-विश्वासियों के सम्मुख मान लेते हैं या नहीं जिससे वे प्रभावित हुए हैं।

यह एक अच्छा सवाल है जो सभी प्राचीनों को अपने आपसे पूछना चाहिएः “आख़िरी बार ऐसा कब हुआ था जब मैंने एक भूल (पाप) का अंगीकार किया था और एक भाई से उसके लिए क्षमा माँग ली थी?”

जब हम पूरी ईमानदारी से परमेश्वर और मनुष्यों के सम्मुख हमारे पापों को मान लेते हैं, तब परमेश्वर हमसे कह सकता है कि अब वह हमारे पापों को फिर कभी याद नहीं करेगा (इब्रानियों 8:12)।

इसमें मैं एक बात यह भी जोड़ना चाहूँगा कि हमें अपनी पिछली ग़लतियों से सीखना चाहिए। वर्ना हम अपनी उन ग़लतियों को दोहराते रहेंगे।

परमेश्वर को हमें तोड़ने की अनुमति देना

यीशु ने एक बार एक भीड़ को खिलाने के लिए 5 रोटियों का इस्तेमाल किया था। उसने पहले उन रोटियों को आशिष दी थी। लेकिन तब भी वे 5 रोटियाँ 5 रोटियाँ बनी रही थीं - और उनसे वह भीड़ खाकर तृप्त नहीं हुई थी। लेकिन जब उन रोटियों को तोड़ा गया, तब वह भीड़ खाकर तृप्त हो सकती थी। इसलिए, पवित्र आत्मा की आशिष पाना (अभिषिक्त होना) ही कापफ़ी नहीं होता। हमें प्रभु द्वारा तोड़ा जाना भी ज़रूरी है। तब हम अपना मुख धूल में रखेंगे, और परमेश्वर की सामर्थ्य हममें से कोई रोक-टोक बिना प्रवाहित हो सकेगी।

निर्गमन अध्याय 4 में, मूसा और हारून को एक ही समय में परमेश्वर के लोगों के अगुवे होने का कार्याधिकार सौंपा गया था। हारून बोलने में निपुण था, लेकिन मूसा बोलने में भद्दा था (निर्गमन 4:10,14)। फिर भी, परमेश्वर ने हारून को नहीं मूसा को ही इस्तेमाल किया क्योंकि मूसा एक टूटा हुआ व्यक्ति था, जबकि हारून टूटा हुआ नहीं था।

परमेश्वर ने मूसा को जंगल में टूटने के एक 40 साल के समयकाल में से गुज़ारा था। परमेश्वर ने उसे नम्र व दीन किया, और उसे राजमहल का एक शासक होने से नीचे उतार कर रेगिस्तान में एक चरवाहा बना दिया था। और उसने उसके ससुर के घर में 40 साल तक रखा, और उसके ससुर का सेवक भी बनाया! यह उसे पूरी तरह तोड़ने के लिए काफी था। हारून कभी इस तरह नहीं तोड़ा गया था। इन दोनों के बीच में इस बात का ही फर्क़ था।

हम निर्गमन 32 में इन दोनों पुरुषों की प्रभावोत्पादकता के बीच में एक फ़र्क देखते हैं। इस्राएल के लोग सिर्फ तब तक ही प्रभु के पीछे चले जब तक टूटा हुआ मूसा उनके बीच में था। लेकिन जब मूसा सिर्फ 40 दिनों के लिए उनके बीच में से चला गया, तब कुछ समय के लिए हारून उनका अगुवा बन गया था, और वे लोग तुरन्त ही भटक कर मूर्तिपूजा में लग गए और एक सोने के बछड़े की आराधना करने लगे। हारून बोलने में निपुण था। लेकिन वह परमेश्वर के लोगों को एक शुद्धता की दशा में नहीं रख सका था क्योंकि वह मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहता था।

जो प्राचीन टूटे हुए नहीं होते, वे हमेशा अपने स्वार्थ की खोज में रहते हैं और उनकी कलीसिया में लोगों को प्रसन्न करना चाहते हैं। इस वजह से ही उनके लोग प्रभु से दूर हो जाते हैं।

वह टूटा हुआ मनुष्य मूसा ही था जिसने 20 लाख लोगों को 40 साल तक जंगल में परमेश्वर के प्रति विश्वास-योग्य बनाए रखा था। कलीसिया के इतिहास में भी पिछली सभी शताब्दियों ऐसा ही होता रहा है। परमेश्वर ने उसकी कलीसिया को उसके मार्गों में बनाए/बचाए रखने के लिए टूटे हुए पुरुषों को ही इस्तेमाल किया है।

अधीनता हमें टूटेपन में पहुँचाती है

परमेश्वर हमें इस तरह तोड़ता है कि वह हमें हमारे प्राचीनों के अधीन हो जाने के लिए कहता है। यह उद्धरण मेरी पुस्तक “एक आत्मिक अगुवा” में से है।

एक ईश्वरीय व्यक्ति के अधीन होने से हम न सिर्फ बहुत से मूर्खतापूर्ण काम करने से बचे रहते हैं, बल्कि वह हमें इस योग्य भी बनाता है कि हम उससे बहुत सी बुद्धि की बातें भी सीखें। वह हमें उन ख़तरों के बारे में बता सकता है जिनसे हम तो अनजान होते हैं, लेकिन जिनका सामना उसने किया होता है। इसलिए हमारे लिए आत्मिक अधिकार के अधीन होना ऐसा ही सुरक्षित है जैसे बच्चे माता-पिता की अधीनता में सुरक्षित होते हैं।

1 पतरस 5:5 में, हम यह पढ़ते हैं कि युवाओं को अपने वृद्धों की अधीनता में रहना चाहिए क्योंकि परमेश्वर घमण्डी का तो विरोध करता है लेकिन नम्र व दीनों पर दया करता है। यहाँ हमें परमेश्वर से आत्मिक अधिकार पाने के बड़े भेद का पता चलता है। मैं ऐसे बहुत से बड़े योग्य भाइयों को जानता हूँ जिन्हें परमेश्वर से सिर्फ इस एक वजह से कभी आत्मिक अधिकार नहीं दियाः उन्होंने अपने जीवन भर कभी किसी के अधीन होना नहीं सीखा था। इसलिए उनकी इच्छा की मज़बूत शक्ति कभी नहीं टूटी थी।

एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में अधिकार एक ख़तरनाक वस्तु होती है जो कभी टूटा नहीं है। अगर आप पहले टूटे नहीं हैं, और आप जाकर दूसरे लोगों को अपने अधिकार में करने की कोशिश करते हैं, तो आप उनका नाश कर देंगे और इस प्रक्रिया में आप स्वयं अपना भी नाश करेंगे। इससे पहले कि परमेश्वर हममें से किसी को भी आत्मिक अधिकार दे, उसे पहले हमारे गर्व की ताक़त को तोड़ना पड़ता है।

मैं संक्षिप्त में आपको अपने अनुभव के बारे में बताता हूँ। मेरे जीवन में 20 व 30 साल की उम्र के दौरान, परमेश्वर ने ऐसा होने दिया कि एक से ज़्यादा मण्डलियों में, ऐसे प्राचीनों द्वारा मुझे दबाया व अपमानित किया जाए जो मेरी सेवकाई से ईर्ष्या करते थे। उन सभी मौक़ों पर परमेश्वर ने मुझसे यही कहा कि मैं अपना मुँह बंद रखूँ और बिना कोई सवाल किए कि उन प्राचीनों के अधीन रहूँ। और मैंने ऐसा ही किया। जब तक मैं उनकी मण्डलियों में रहा, और उन मण्डलियों को छोड़ने के बाद भी, मैंने उनसे अपने सम्बंध अच्छे बनाए रखे। उन वर्षों में मैं यह नहीं जानता था कि परमेश्वर ने भविष्य में मेरे लिए कौन सी सेवकाई रखी हुई थी। लेकिन अनेक वर्षों तक मुझे तोड़ने द्वारा परमेश्वर मुझे आत्मिक अधिकार का उपयोग करने के लिए तैयार कर रहा था। उसने मुझे बार-बार तोड़ा और उन वर्षों में उसने मुझे सिखाया कि जो कुछ दूसरे मेरे साथ कर रहे थे, वह सब कुछ पूरी तरह उसके वश में था। इसका परिणाम यह हुआ कि वर्षों बाद जब परमेश्वर ने मुझे लोगों के ऊपर आत्मिक अधिकार दिया, तो मैं उसका इस्तेमाल कभी एक तानाशाह की तरह नहीं कर सका बल्कि मैंने हमेशा उसे संवेदना के साथ ही इस्तेमाल किया।

परमेश्वर का मुझे तोड़ने का काम अभी पूरा नहीं हुआ है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान, परमेश्वर मुझे ऐसी नई और अनोखी परीक्षाओं में से लेकर चला है जिनका मुझे पहले कोई अनुभव नहीं था। लेकिन मेरे जीवन में उसका उद्देश्य वही है - कि वह मुझे और तोड़े, कि फिर वह मुझे अपना ज़्यादा जीवन और ज़्यादा अधिकार सौंप सके।

अंतिम बार ऐसा कब हुआ था जब आपने सार्वजनिक ताड़ना को आनन्द-पूर्वक स्वीकार किया था? क्या आपने अपने जीवन में उसे एक बार भी स्वीकार किया है? अगर नहीं, तो इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि आपके अन्दर आत्मिक अधिकार की कमी है।

जो लोग टूटे नहीं होते वे एकाकी होते हैं - एकाकी अगुवे और एकाकी विश्वासी। वे कभी किसी के अधीन नहीं होते। वे वहीं जाते हैं जहाँ वे जाना चाहते हैं, और वही करते हैं जो वे करना चाहते हैं। ऐसे अटूटे विश्वासी सिर्फ उनके साथ ही काम कर सकते हैं जो उनकी आज्ञापालन करते हैं और उसे स्वीकार करते हैं जो वे कहते हैं। परमेश्वर ऐसे ‘एकाकी’ लोगों को कभी आत्मिक अधिकार नहीं दे सकता, क्योंकि वह एक देह तैयार कर रहा है, व्यक्तिवादी विश्वासियों का एक झुण्ड नहीं!

अध्याय 17
शैतान पर जय पाना

कलीसिया के बारे में जब यीशु ने पहली बार बात की थी, तब उसने कलीसिया द्वारा शैतानी शक्तियों के साथ एक आत्मिक युद्ध के बारे में बताया था। उसने कहा था, “मैं अपनी कलीसिया बनाऊँगा और अधोलोक के फाटक उस पर प्रबल न होंगे” (मत्ती 16:18)।

जो उसने कहा, उस पर ध्यान दें। यह कलीसिया के फाटक नहीं हैं जिन पर अंधकार की शक्तियों द्वारा हमला किया जा रहा है, बल्कि यह अधोलोक के फाटक हैं जिन पर कलीसिया द्वारा हमला किया जा रहा है। कलीसिया के सभी अगुवों को यह भली-भांति समझ लेना चाहिए - कि कलीसिया की बुलाहट यह नहीं है कि वह शैतानी हमलों का सामना एक रक्षात्मक रूप में करे, बल्कि यह उसे एक आक्रामक रूप में करना है - वैसे ही जैसे स्वयं यीशु ने किया था (जो मसीह की पहली देह था)। हमारी बुलाहट शैतान के गढ़ों को ढाने की है।

शैतान सूली पर हराया जा चुका है

परमेश्वर हमेशा हमारे पक्ष में रहता है, और जितना हम पवित्र आत्मा से भरे जाने के लिए उत्सुक नहीं होते, उससे ज़्यादा वह हमें पवित्र आत्मा से भरने के लिए उत्सुक रहता है। वह हमारी निर्बलताओं के बावजूद, हममें से किसी के भी द्वारा एक महान् काम कर सकता है। हमें बस इतना करने की ज़रूरत है कि हम अपने आपको नम्र व दीन करें और लगातार उसके मुख के दर्शन के खोजी बने रहें। हमारे शरीर और शैतान के खिलाफ़ परमेश्वर हमेशा हमारे ही पक्ष में रहता है।

हमें सबसे पहले यह जान लेने की ज़रूरत है कि शैतान सूली पर हराया जा चुका है।

सूली पर चार बातें पूरी हुई थींः

  1. मसीह सूली पर हमारे पापों के कारण मर गया (1 कुरिन्थियों 15:3)। इसलिए हमारे सभी पापों को क्षमा किया जा सकता है।
  2. मसीह सूली पर हमारे लिए श्राप बन गया था (गलातियों 3:13)। इसलिए कोई भी श्राप (पूर्वजों का या कोई भी) हम पर कभी नहीं आ सकता।
  3. हमारा पुराना मनुष्य मसीह के साथ सूली पर मर चुका है (रोमियों 6:6)। इसलिए हमें अपने बाक़ी बचे जीवन में कभी पाप करने की ज़रूरत नहीं है।
  4. शैतान को सूली पर हराया गया है और उसके सभी अस्त्र-शस्त्र छीन लिए गए हैं (कुलुस्सियों 2:15; इब्रानियों 2:14)। इसलिए हमें उससे अब डरने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि अब हमारे खिलाफ़ उसके पास कोई शक्ति नहीं है।

लेकिन ज़्यादातर विश्वासी इस चौथे सत्य से अनजान हैं - शैतान की हार से।

यीशु ने कहा, “किसी बलवान पुरुष (शैतान) के घर में घुस कर कोई उसकी सम्पत्ति कैसे उठा सकता है जब तक कि वह पहले उस बलवान पुरुष को बाँध न ले? और तब वह उसका घर लूटेगा। जो (इस युद्ध में) मेरे साथ नहीं, वह मेरे विरुद्ध में है” (मत्ती 12:29 – एन.ए.एस.बी., लिविंग)।

इसलिए हमें शैतान की हार का यक़ीन होना चाहिए।

पुरानी वाचा के समयकाल में, परमेश्वर ने इस्राएल को शैतान का सामना नहीं करने दिया था क्योंकि तब तक शैतान हराया नहीं गया था, और इसलिए वह इस्राएल पर प्रबल हो जाता। लेकिन अब जबकि शैतान सूली पर से हराया जा चुका है, तो कलीसिया शैतान का लगातार सामना कर सकती है और उसे हरा सकती है। अगर हम उसका सामना करेंगे, तो वह हमारे सामने से भाग जाएगा (याकूब 4:7)।

अब हमें शैतान से लड़ना नहीं है, सिर्फ उसका सामना करना है। अगर हम अपने हृदय में यह विश्वास करें और अपने मुँह से यह अंगीकार करें कि शैतान सूली पर हराया जा चुका है और अब उसका हम पर कोई अधिकार नहीं है, और फिर यीशु के नाम में उसका सामना करें, तो वह भाग जाएगा। जब तक हम इस अंगीकार को थामे रहेंगे, तब तक शैतान न तो हमें सता सकेगा और न ही हरा सकेगा। हम अपनी साक्षी के इस शब्द से शैतान पर प्रबल होते हैं (प्रकाशितवाक्य 12:11)।

शैतान के हमले और दुष्टात्माओं की शिक्षाएँ

कलीसिया पर हमला करने का शैतान के पास 2000 साल का अनुभव है। इसलिए उसने कुछ पाठ सीख लिए हैंः

  1. शैतान यह जानता है कि कलीसिया पर बाहर तौर पर (सताव) द्वारा हमला करने की बजाय भीतरी तौर पर हमला करना ज़्यादा अच्छा रहता है, क्योंकि अब उसने यह जान लिया है कि जब हमला बाहरी होता है, तब कलीसिया के सभी सदस्य एक होकर उसके खिलाफ़ खड़े हो जाते हैं।
  2. शैतान यह जानता है कि कलीसिया पर एक अच्छा जीवन जी रहे व्यक्ति द्वारा झूठे मसीही सिद्धान्तों से हमला करना इससे भी अच्छा है कि वह एक अगुवे को लैंगिक पाप में गिराए - क्योंकि विश्वासी लैंगिक पाप में गिरने वाले अगुवे पर भरोसा करना छोड़ देंगे। लेकिन क्योंकि ज़्यादातर विश्वासियों में परख नहीं होती, इसलिए शैतान जानता है कि वह ऐसे धोखेबाज़ों द्वारा उन्हें आसानी से भटका सकता है जो एक अच्छा जीवन जीते हैं।
  3. शैतान जानता है कि अंधकार की एक दुष्टात्मा बन कर किसी दूसरे पवित्र ग्रंथ की बातें करते हुए या “घृणा” का प्रचार करते हुए आने की बजाय, अगर वह एक ज्योतिर्मय स्वर्गदूत बन कर आएगा और बाइबल की बातें करते हुए “प्रेम” का प्रचार करेगा (ऐसा झूठा प्रेम जो सत्य में समझौता कर लेता है), तो वह ज़्यादा विश्वासियों को भटका सकेगा।

अनेक विश्वासी क्योंकि पवित्र शास्त्र को अच्छी तरह नहीं जानते, इसलिए वे ऐसे लोगों द्वारा आसानी से भ्रमित हो जाते हैं जो सत्य के सिर्फ एक पक्ष को प्रस्तुत करते हैं। जब शैतान ने सत्य के सिर्फ एक पक्ष का उल्लेख किया था तब यीशु का जवाब सत्य के दूसरे पक्ष का उल्लेख करते हुए दिया गया था (मत्ती 4:6,7)। मसीही जगत में ज़्यादातार झूठी शिक्षाएँ और झूठे मसीही पंथ ऐसे लोगों से ही शुरू हुए हैं जो पवित्र शास्त्र के एक वचन पर ज़ोर देते हुए उसे संतुलित करने वाले दूसरे वचनों को अनदेखा करते हैं।

जैसा कि पवित्र शास्त्र में अग्रघोषणा की गई है (1 तीमुथियुस 4:1-3 में), फ्दुष्टात्माओं की शिक्षाओं” की एक बाढ़ ने पहले से ही मसीही जगत पर हमला बोला हुआ है। ये शिक्षाएँ पुस्तकों और इन्टरनेट द्वारा सभी जगह फैल रही हैं और ये अश्लील साहित्य और चित्रें/चलचित्रों से भी ज़्यादा ख़तरनाक हैं क्योंकि अश्लीलता को तो सभी आसानी से एक बुराई के रूप में पहचान सकते हैं, जबकि इनमें से कुछ शिक्षाओं को दुष्टात्माओं की बुरी शिक्षाओं के रूप में नहीं पहचाना नहीं जा सकता है।

पृथ्वी पर फैलाई गई “दुष्टात्माओं की शिक्षाओं” में सबसे पहली ये दो शिक्षाएँ हैंः

  1. शैतान ने हव्वा से कहा था कि अगर उसने परमेश्वर की आज्ञा को तोड़ा तो भी वे निश्चय नहीं मरेगी (उत्पत्ति 3:4)। शैतान ऐसा दर्शा रहा था कि “एक प्रेम करने वाला परमेश्वर” ऐसा कभी न होने देगा कि उसके किसी भी प्राणी को उसके पाप के लिए दण्डित होना पड़ेगा। आज भी शैतान इसी झूठ को फैलाता है - कि इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम पाप करते हो, क्योंकि एक प्रेमी परमेश्वर किसी को भी नर्क के अनन्त दण्ड में कभी नहीं भेज सकता।
  2. शैतान ने हव्वा से कहा कि वह परमेश्वर के समान बन सकती है और इस तरह वह परमेश्वर से स्वतंत्र होकर अपने फैसले स्वयं कर सकती है। उसने हव्वा को अधिकार के खिलाफ़ उसी तरह विद्रोह करना सिखाया जैसे उसने स्वयं बीते समय में विद्रोह किया था। यही आज अनेक मसीहियों का विशिष्ट लक्षण हैः वे अपने ऊपर किसी अधिकार के अधीन नहीं हैं। वे इस तरह ही झूठी शिक्षाओं के शिकार हो जाते हैं। परमेश्वर ने कलीसिया में आत्मिक पिताओं को घरों के पिताओं की तरह ही नियुक्त किया है - कि वे “बच्चों” की रक्षा करें। जो भी इन “पिताओं” की सुरक्षा को स्वीकार नहीं करता, वह ख़तरे में पड़ जाता है।

हव्वा शैतान द्वारा भरमाई गई थी और आज वैसे ही बहुत से लोग भरमाए जाते हैं। हव्वा को परमेश्वर की उपस्थिति से निकाल दिया गया था, और जो भी शैतान की शिक्षाओं पर विश्वास करेंगे, वे भी एक दिन हमेशा के लिए परमेश्वर की उपस्थिति से निकाल दिए जाएँगे।

परमेश्वर ने स्वर्गदूतों के प्रधान (जो बाद में शैतान बन गया था) को स्वर्ग में यह अनुमति दी थी कि वह ऐसे हरेक स्वर्गदूत को उसके साथ मिला ले जिनमें विद्रोह की आत्मा का एक मामूली सा भी अंश था। तब परमेश्वर ने एक पल में उन्हें स्वर्ग से बाहर फेंक दिया। इस तरह स्वर्ग को शुद्ध किया गया था। इसी तरह, परमेश्वर ऐसे लोगों को यह अनुमति देता है कि जिन लोगों में उन्हीं की तरह एक विद्र्रोह की वही आत्मा है, वे उन्हें इकट्ठा करें। वह उन्हें यह अनुमति देता है कि वे एक कलीसिया को विभाजित कर दें। इस तरह एक कलीसिया शुद्ध की जाती है। आज यही लूसीफरी-सेवकाई अनेक कलीसियाओं में चल रही है, और परमेश्वर ऐसा होने देता है कि वह कलीसिया को शुद्ध करे।

दोषारोपण

शैतान ही मुख्य रूप में सभी विश्वासियों पर दोष लगाता है (प्रकाशितवाक्य 12:10)। लेकिन इस काम में उसकी मदद करने के लिए वह विश्वासियों में से हमेशा ही अपने लिए सहकर्मी ढूँढता रहता है। और पूरे जगत में उसे ऐसे अनेक सहकर्मी मिल जाते हैं।

शैतान हमसे झूठ बोलता है। लेकिन जब वह परमेश्वर के सम्मुख हम पर दोष लगाता है, तो यह ज़रूरी है कि जो भी दोष वह हम पर लगाए वे सभी सच हों, क्योंकि शैतान परमेश्वर के सम्मुख झूठ बोलने का दुस्साहस नहीं कर सकता है। लेकिन सच बोलते समय भी वह वही आत्मा होता है - दोष लगाने वाली आत्मा। हमें इस बात में से कुछ सीखने की ज़रूरत है - और वह यह हैः अगर हम एक भाई के पापों के बारे में सीधे उससे बात करने की बजाय उसकी पीठ-पीछे बात करते हैं, तो हम दोष लगाने वाली इस सेवकाई में शैतान के सहकर्मी हो जाते हैं, हालांकि हमारे द्वारा बोला गया हरेक शब्द सच हो सकता है।

हम दोष लगाने वाले के साथ कभी ऐसी सहभागिता न करें। अगर एक भाई ने पाप किया है, तो हमें यह आज्ञा दी गई है कि हम उसे एक दीनता की आत्मा में पुनःप्राप्त करने की कोशिश करें (गलातियों 6:1)। हमें उससे सीधी बात करनी चाहिए। अगर वह हमारी सुनने से इनकार करे, तब हमें उसके बारे में प्राचीनों से बात करनी चाहिए। अगर वह प्राचीनों की भी न सुनें, तब सारी कलीसिया को यह बता देना चाहिए कि वह किसी भी आत्मिक अधिकार के अधीन होने को तैयार नहीं है। तब उसे कलीसिया में से निकाल देना चाहिए। मत्ती 18:15-20 में प्रभु यीशु ने एक स्पष्ट रूप में इस प्रक्रिया को स्थापित किया है। यीशु ने फिर आगे बढ़ते हुए कहा कि इस तरह कलीसिया में शैतान के दोष लगाने के काम को बाँधा जा सकता है। 

अगर एक प्राचीन के खिलाफ़ दोष लगाया गया हो, और यह दोष दो या तीन भरोसेमंद लोगों द्वारा लगाया गया हो, तो उस बात को बहुत गंभीर माना जाए (1 तीमुथियुस 5:19)। दूसरे वरिष्ठ प्राचीनों द्वारा उस मामले की गहरी छानबीन की जानी चाहिए। पुरानी वाचा में, परमेश्वर ने यह कहते हुए स्पष्ट आज्ञा दी थी, “तू पहले पूछताछ करना, और खोजबीन करके यह सुनिश्चित करना कि वह बात सच और प्रमाणित हो गई है” (व्यवस्थाविवरण 13:14)। अगर यह साबित हो जाता है कि वह प्राचीन लगातार वह पाप कर रहा है, तब उसे कलीसिया में सबके सामने एक वरिष्ठ प्राचीन द्वारा ताड़ना दी जाए (1 तीमुथियुस 5:20)।

अगर एक वरिष्ठ प्राचीन संवेदना के एक झूठे मनोभाव की वजह से ऐसा नहीं करता है, तब वह यही दावा कर रहा होगा कि उसकी समझ पवित्र आत्मा से भी बढ़कर है! हमारे लिए यही अच्छा है कि हम नम्रता में चलें और जो कुछ परमेश्वर का वचन हमें कहता है, हम उसका पालन करें।

और अब, ये उन लोगों को उत्साहित करने के लिए दो ऐसी प्रतिज्ञाएँ जिन पर दूसरों द्वारा झूठे दोष लगाए जा रहे हैंः

“क्योंकि सर्व-शक्तिशाली प्रभु परमेश्वर मेरी सहायता करता है इसलिए मैं अपमानित नहीं होता, और मैंने अपना माथा चकमक के समान कड़ा कर लिया है। मुझे यक़ीन है कि मुझे लज्जित न होना पड़ेगा क्योंकि जो मुझे निर्दोष ठहराता है, वह पास ही है। मुझ पर कौन आरोप लगा सकता है? आओ, हम न्यायालय में चलें! वह मुझ पर आरोप लगाए! प्रभु ही मेरा सहायक है - कौन है जो मुझे दोषी ठहराएगा? मुझ पर दोष लगाने वाले ग़ायब हो जाएँगे; वे सब कीड़ों द्वारा खाए हुए वस्त्र के समान लुप्त हो जाएँगे...। तुम सब जो दूसरों को नाश करने की युक्तियाँ करते हो, तुम स्वयं ही अपनी युक्तियों से नाश हो जाओगे। प्रभु स्वयं ही ऐसा होने देगा” (यशायाह 50:7-11)।

“तेरी हानि के लिए बनाया गया कोई भी हथियार सफल न होगा, और तुझ पर न्यायालयों में जो भी दोष लगाया जाएगा, उनमें तेरे साथ न्याय होगा। यह प्रभु के सेवकों की धरोहर है। प्रभु कहता है कि मैंने तुझे यही आशिष दी है” (यशायाह 54:17 - लिविंग बाइबल)।

परमेश्वर शैतान को यह अनुमति देता है कि वह उसके लोगों को परखे, कि वे जो उसके नाम के कहलाते हैं, उनके हृदय की सच्ची दशा प्रकट हो जाएँ एक झूठ और घृणा-भरे सँसार में, प्रभु यह छानबीन करने के लिए हमें बहुत सी ऐसी स्थितियों में परखा जाने देगा कि हम अंत तक सत्य और प्रेम में बने रहते या नहीं।

जिनके पास देखने वाली आँखें हैं, वे यह परख कर सकते हैं कि सच्चे भक्त कौन हैं और कौन नहीं, और वे कौन हैं जो भलाई से प्रेरित होते हैं और वे कौन हैं जो ईर्ष्या और घृणा से प्रेरित होते हैं। लेकिन कुछ लोग (फरीसियों की तरह) अंत तक अंधे और परखहीन ही बने रहेंगे। सोना आग में और ज़्यादा शुद्ध हो जाता है, लेकिन भूसा जल कर भस्म हो जाता है।

यीशु ने शैतान पर जय पाई

जब यीशु ने सूली पर कहा, “पूरा हुआ”, तब शैतान का राज्य ख़त्म हो गया। इसलिए आज, हम एक ऐसे शत्रु का सामना करते हैं जो पहले ही हराया जा चुका है।

जब हम अपने जीवन में परीक्षाओं का सामना करें, तब यही बात है हमेशा हमारे मन में बनी रहनी चाहिए। आप जब भी अपने घर में, अपनी आर्थिक स्थिति में, अपने कारख़ाने में, या एक सताने वाली संतान के मामले में किसी मुश्किल हालात का सामना करते हैं, तो यह याद रखें कि सूली पर शैतान की सारी शक्ति पूरी हो चुकी है। वह हार चुका है और वह आपके खिलाफ़ युद्ध में अब जीत नहीं सकता है, फिर चाहे वह आपके खिलाफ़ कितनी भी मुश्किल परीक्षा क्यों न तैयार कर दे। हमेशा यीशु के शब्द याद रखें, “पूरा हुआ”, और शैतान से कह दें कि वह हारा हुआ है और अब उसकी शक्ति का आपके ऊपर कोई अधिकार नहीं है।

एक बार कोई मेरे घर पर प्रार्थना के लिए एक मन-न-फिराई हुई स्त्री को लाया, और मैं और मेरी पत्नी बैठकर उससे बात कर रहे थे। उससे बात करने और प्रार्थना करने के बाद, मैंने उससे शैतान से बात करने और यह कहने के लिए कहा, “शैतान, मैं तेरी नहीं हूँ। यीशु मसीह ने तुझे सूली पर हरा दिया है।” उसने एकाएक अपनी आवाज़ बदल कर कहा, “मैं सूली पर नहीं हराया गया हूँ!” मैं समझ गया कि उसमें एक दुष्टात्मा थी। तब मैंने शांत लेकिन अधिकारपूर्ण स्वर में कहा, “ऐ दुष्टात्मा, तू झूठी है। तू सूली पर हराई जा चुकी है। यीशु के नाम में, इसमें से तुरन्त निकल जा।” दुष्टात्मा तुरन्त उसमें से निकल गई। और तब वह स्त्री साहस के साथ शैतान से यह कह सकी कि यीशु मसीह ने उसे सूली पर हरा दिया है।

अगर आपका विवेक शुद्ध है और आपके अन्दर विश्वास है, तो किसी दुष्टात्मा को निकालने के लिए आपको कभी अपनी आवाज़ ऊँची करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, और उन्हें निकल जाने के लिए एक बार से ज़्यादा नहीं बोलना पड़ेगा। “यीशु ने अपने एक ही शब्द से दुष्टात्माओं को निकाला था” (मत्ती 8:16)। और उसने यह एक शांत रूप में किया था। और उसके नाम में, हम भी वही करते हैं।

उस दिन मैंने एक बात सीखी - कि शैतान को यह बताया जाना पसन्द नहीं है कि उसे सूली पर हराया जा चुका है।

अगर आपकी परीक्षाएँ कठोर और लम्बे समय तक चलने वाली हैं, तब भी आप हार न मानें। आप शैतान के हरेक हमले पर निश्चय ही जय पाएँगे। बस डटे रहें और हार न मानें। परमेश्वर आपको जयवंत करके उनमें से निकालेगा।

वे जो परमेश्वर में भरोसा रखते हैं कभी निराश न होंगे। इसलिए कभी निरुत्साहित न हों। शैतान के खिलाफ़ परमेश्वर हमेशा आपके पक्ष में रहता है। और वह आपको कभी धोखा नहीं देगा।

भय से मुक्ति

शैतान ही भय का मूल है। यीशु जितना पाप के खिलाफ़ था, उतना ही वह भय के भी खिलाफ़ था। उसने लोगों से बहुत बार यह कहा, “मत डरो” (भयभीत न हो), वैसे ही जैसे उसने यह कहा, “पाप न करो।” यीशु जितना इस बात के खिलाफ़ था कि लोग उनके जीवन भय में बिताएं, उतना ही वह इस बात के भी खिलाफ़ था कि वे उनके जीवन पाप में बिताएं।

हम क्योंकि प्रभु में भरोसा रखते हैं, इसलिए हमें कभी भयभीत नहीं होना चाहिए। अगर हम भूल से इसमें चूक जाएँ और किसी बात में भयभीत और चिंतित हो जाएँ, तो हमें तुरन्त उसमें से बाहर निकल आना चाहिए, परमेश्वर के सम्मुख अपने भय को स्वीकार कर लेना चाहिए, और यह भरोसा रखना चाहिए कि वह हमारी देखभाल करेगा।

शैतान परमेश्वर के काम पर बहुत तरह से हमला करता है। लेकिन परमेश्वर अपने बच्चों की प्रार्थनाओं का जवाब देता है। यीशु ने एक बार कहा था कि कुछ दुष्टात्माओं को सिर्फ प्रार्थना और उपवास द्वारा ही निकाला जा सकता है। इसका अर्थ है कि अगर हम प्रार्थना और उपवास नहीं करेंगे, तो वे दुष्टात्माएँ अपनी जगह में बनी रहेंगी और परमेश्वर के काम में रुकावट डालेंगी। परमेश्वर ने पृथ्वी पर उसके काम को हम पर आश्रित कर दिया है - मसीह की देह पर। यह एक बड़ा विशेषाधिकार है लेकिन एक बड़ी जि़म्मेदारी भी है। प्रभु ने यह प्रतिज्ञा की है कि अधोलोक के फाटक उसकी कलीसिया पर प्रबल न होंगे।

जगत में ऐसी बहुत सी शक्तियाँ हैं जो मसीहियों के विरोध में हैं। लेकिन परमेश्वर ने हमें भय की आत्मा नहीं दी है। वे लोग जो परमेश्वर का आदर करते हैं, परमेश्वर उनका आदर करेगा। इसलिए हम भयभीत होकर कभी कोई काम न करें। जैसे दाऊद ने शाऊल के अस्त्र-शस्त्र धारण करने से इनकार कर दिया था, वैसे ही, ऐसा समय आने पर, हम भी न तो मनुष्यों पर और न ही शारीरिक मदद पर निर्भर रहेंगे। दाऊद ने आत्मिक अस्त्र-शस्त्रें से - प्रभु के नाम में - गोलियत का सामना किया था। हमारे अस्त्र-शस्त्र भी आत्मिक हैं (2 कुरिन्थियों 10:4)। और हम निश्चय ही जय पाएंगे - हमेशा।

यीशु ने हमसे कहा कि वह हमें एक दुष्टता-भरे सँसार में भेज रहा है, “जैसे भेड़ियों के बीच में भेड़।” लेकिन उसी पद में उसने यह भी कहा कि हमें “साँप की तरह चतुर” भी होना है (मत्ती 10:16)।

स्वर्ग और पृथ्वी का सारा अधिकार प्रभु के पास है, और उसने हमसे प्रतिज्ञा की है कि वह हर समय हमारे साथ रहेगा, और अगर हम सभी जातियों में उसके चेले बनाने के लिए जाएँगे, तो हमारी तरफ से वह उस अधिकार का इस्तेमाल करेगा (मत्ती 28:19,20)। अगर वह हमारे साथ है, तो हमारे लिए यह काफी है। जब वह हमारी ओर होता है, तब हम पूरे सँसार के विरोध का सामना कर सकते हैं।

यीशु ने कहा, “अपने आपको व्याकुल और चिंतित होने की अनुमति न दो; और न ही ऐसा होने दो कि तुम भयभीत और घबराए हुए और डरपोक और उलझन में पड़े हुए हो” (यूहन्ना 14:27 - ऐम्प्लिफाइड बाइबल)।

परमेश्वर का वचन यह कहते हुए हमें आज्ञा देता है, “जैसे दूसरे लोग डर और घबराहट से भरे हुए हैं, तू इस तरह मत डर। तू स्वर्ग के परमेश्वर के अलावा और किसी का भय न मान! अगर तू परमेश्वर का भय मानेगा, तो तुझे और किसी का भय मानने की ज़रूरत न होगी। वह स्वयं तेरी सुरक्षा होगा” (यशायाह 8:12-14)।

“परमेश्वर कहता है, ‘मैं न तुझे कभी छोड़ूँगा और न ही कभी त्यागूँगा।’ इसलिए हम पूरे भरोसे के साथ कह सकते हैं, ‘प्रभु मेरा सहायक है। मैं न डरूँगा। मनुष्य मेरा क्या कर सकता है?’ यीशु मसीह आज कल और युगानुयुग एक-जैसा है (इब्रानियों 13:5-8)।

“भय” के मामले में हमें दो बातें याद रखनी चाहिएः

  1. हम कभी ऐसा कोई फैसला न लें जो भय पर आधारित हो, बल्कि हमारा हरेक फैसला परमेश्वर पर विश्वास के आधार पर ही लिया जाएँ
  2. भय शैतान का हथियार है। वे लोग जो किसी भी तरह से दूसरों को डराते और धमकाते हैं, असल में वे (चाहे अनजाने में ही) शैतान के सहभागी हो जाते हैं। इसलिए हम इस हथियार को किसी के भी खिलाफ़ इस्तेमाल न करें (देखें इफिसियों 6:10; 2 तीमुथियुस 1:7)।

जो बुराई दूसरे हमारे खिलाफ़ करते हैं, परमेश्वर उसे इस्तेमाल करते हुए हमें उसके वचन पर ऐसे नए प्रकाशन, और उसकी कृपा के ऐसे नए अनुभव देता है जो हमें दूसरे और किसी तरीक़े से कभी नहीं मिल सकते थे।

परमेश्वर का वचन कहता है, फ्हमारा युद्ध मनुष्यों से नहीं है, बल्कि स्वर्गीय स्थानों में दुष्टता की आत्मिक शक्तियों से है, और इस अंधकारमय युग के शासकों, प्रधानों और वैश्विक शक्तियों से है” (इफिसियों 6:12)। प्रभु ने इस वचन से मुझे यह सिखाया कि अगर मैं शैतानी शक्तियों से प्रभावशाली रूप में लड़ना है, तो मुझे कभी भी मनुष्यों से नहीं लड़ना है। 

पुरानी वाचा में, इस्राएली मनुष्यों से लड़ते थे। लेकिन नई वाचा में, हमें मनुष्यों से कभी नहीं लड़ना है बल्कि सिर्फ शैतान और दुष्टात्माओं से लड़ना है। यीशु ने स्वयं अपने उदाहरण द्वारा हमारे सामने यह प्रदर्शित किया है। अनेक विश्वासी शैतान पर जय नहीं पा सकते क्योंकि वे उनकी पत्नियों, उनके पतियों, उनके पड़ौसियों और दूसरे मनुष्यों से लड़ते हैं।

ऐसा दृढ़ संकल्प कर लें कि भविष्य में आप कभी किसी मनुष्य के साथ झगड़ा नहीं करेंगे, और तब आप शैतान के खिलाफ़ अपने युद्ध में प्रभावशाली हो सकेंगे।

अगर हम एक भीतरी तौर पर परमेश्वर के मार्गों में चलें, तो हम हर समय शैतान और उसकी युक्तियों पर जय पाएंगे और हमेशा एक जयवंत जीवन बिताएंगे।

अध्याय 18
जब सताव आता है

मसीही जगत के पहले 300 सालों में, लगभग सभी मसीही लोग ऐसे मसीह-विरोधी शासकों के राज्य में रहे जिन्होंने उन्हें अक्सर सताया और उनमें से बहुतों को जान से भी मार डाला। अपने असीम बुद्धि/ज्ञान में, परमेश्वर ने अपनी महिमा के लिए ऐसे लोगों को उसके बच्चों को सताने की अनुमति दी। आज भी, परमेश्वर अपने सबसे अच्छे बच्चों को ऐसी सरकारों के अधीन रहने की अनुमति दे रहा है जो उन्हें सताती हैं।

कलीसिया को सताव का सामना करना पड़ेगा

कलीसिया हमेशा सताव के समय में ही सबसे ज़्यादा फली-फूली है। लेकिन जहाँ भी कलीसिया चैन-आराम, सुख-सुविधा और भौतिक सम्पन्नता में रही है, वहाँ ज़्यादातर मामलों में वह सांसारिक बन गई है। 

जब तक हम इस सँसार में हैं, तब तक हम क्लेश, सताव और परीक्षाओं का सामना करेंगे। इसलिए, जैसे-जैसे हम इस युग के अंत की ओर बढ़ रहे हैं, हम एक आसान समय की अपेक्षा न रखें - न तो अपने काम-धंधों की जगह में, और न ही अपने व्यक्तिगत जीवन में।

आर्थिक मुश्किलों के समय आएंगे। इसलिए हम अभी से ही एक साधारण जीवन जीना सीखें। जो लोग बड़ी भोग-विलासिता में रहते हैं, उन्हें आने वाले दिनों में बहुत तकलीपफ़ उठानी पड़ेगी। इसलिए हमें भविष्य के लिए कुछ धन की बचत कर लेनी चाहिए कि हमें दूसरों पर निर्भर न रहना पड़े। लेकिन हमारा भरोसा हमारी बचत में नहीं बल्कि सिर्फ प्रभु में ही हो। परमेश्वर एक जलन रखने वाला परमेश्वर है, इसलिए जिनका भरोसा रची हुई वस्तुओं में है, वे हिलाए जाएँगे। जैसा यीशु ने कहा, हम भाई को भाई के साथ विश्वासघात करते हुए और अपने ही परिवार के लोगों को अपना शत्रु बनते हुए देखेंगे (मत्ती 10:21)। कार्यालयों और कारख़ानों में विश्वासियों के साथ एक सक्रिय रूप में सताव होगा और यह सताव हमें शुद्ध करेगा और हमें बेहतर मसीही बनाएगा।

1 पतरस 3:13 कहता है कि अगर हम हमेशा ही भला करना चाहेंगे, तो कोई हमें हानि न पहुँचा सकेगा। इसलिए, परमेश्वर की कृपा से, हम यह दृढ़ संकल्प करें कि हम सभी के साथ भला ही करेंगे। हम उनसे प्रेम करें जो हमसे घृणा करते हैं, उन्हें आशिष दें जो हमें श्राप देते हैं, और जो हमें सताएँ, उनकी क्षमा के लिए प्रार्थना करें। तब कोई भी हमें हानि न पहुँचा सकेगा। शैतान और उसके प्रतिनिधि हमारे साथ बेईमानी कर सकते हैं, परेशान कर सकते हैं, सता सकते हैं, लूट सकते हैं, घायल कर सकते हैं, जेल में डाल सकते हैं, और हमारी देह को भी मार सकते हैं। लेकिन वे आत्मिक रूप में हमें कभी नुक़सान नहीं पहुँचा सकेंगे।

प्रभु हमेशा हमारा समर्थन करेगा

प्रभु हमें कभी नहीं छोड़ेगा और न कभी त्यागेगा। अगर हम अपने आपको नम्र व दीन करें, तब सताव के समय अगर हमसे कोई भूल भी हो जाएगी और हम प्रभु को निराश भी कर देंगे, तब भी वह हमें नहीं छोड़ेगा। प्रभु टूटे मन वालों के पास रहता है। “अगर हम गिरें, तब भी हमारा गिरना घातक न होगा, क्योंकि प्रभु हमें अपने हाथों में सम्भाल लेगा” (भजन संहिता 37:24 - लिविंग)।

परमेश्वर का सर्व-सत्ताधिकार इतना महान् है कि वह न सिर्फ हमारे प्रति दूसरों द्वारा की गई बुराई को हमारी भलाई के लिए इस्तेमाल कर सकता है, बल्कि वह हमारी अपनी नाकामियों को भी हमारी भलाई के लिए काम करने वाला बना सकता है। वह सब बातों को मिलाकर हमारे लिए एक सर्वश्रेष्ठ रूप में काम करने वाला बना देता है (रोमियों 8:28)। प्रभु हमें हरेक बुराई से छुड़ाएगा और हमें उसमें से एक जयवंत रूप में लेकर चलेगा। हमारा भरोसा यह नहीं है कि हम अंत तक सब बातों को अपनी योग्यता से धीरज से सह लेंगे, बल्कि हमारा भरोसा प्रभु की उस योग्यता में है जो हमें अंत तक बचाए रहेगी। इसलिए, हम किसी आशँका से भर कर नहीं, बल्कि बड़े भरोसे के साथ भविष्य की ओर देखते हैं।

हम जीवन की दौड़ में अपनी पिछली नाकामियों, हमारी वर्तमान कमज़ोरियों, या भावी आशँकाओं की तरफ कभी नहीं देखते, बल्कि सब तरफ से अपनी नज़रों को हटाकर सिर्फ यीशु की तरफ देखते हुए दौड़ते हैं (इब्रानियों 12:2)। हम चाहे कितने भी कमज़ोर हों, और बीते समय में हम चाहे कितनी बार भी नाकाम क्यों न हुए हों, प्रभु हमें जयवंत बनाएगा।

हमें पूरे जगत में मसीहियों को उनके विश्वास के लिए सताव सहने को तैयार करना चाहिए। ऐसे दिनों के लिए हमारे प्रभु ने हमें चार आज्ञाएँ दी हैंः

  1. सांप की तरह चतुर और कबूतर की तरह भोले बनो” (मत्ती 10:16)

हमारी साक्षी में हमें मूर्ख नहीं बल्कि बुद्धिमान होना है। हम जहाँ रहते और काम करते हैं, ऐसा हो कि वहीं अपने जीवित मसीह की साक्षी दें। प्रभु की हमारी साक्षी में, हमें यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि हम एक व्यक्ति - यीशु मसीह - के बारे में बात कर रहे हैं, मसीही धर्म के किसी दूसरे धर्म से बेहतर होने की बात नहीं कर रहे हैं। जब हम यीशु को ऊँचा उठाएंगे, तब वह स्वयं ही लोगों को अपनी ओर खींचेगा (यूहन्ना 12:32)।

हमें सचेत रहते हुए ऐसे ग़ैर-मसीही जासूसों को भी परखना होगा जो मसीहियत में दिलचस्पी होने का दिखावा करते हुए आते हैं, लेकिन उनका असली उद्देश्य हमारे द्वारा इस्तेमाल किए गए किसी शब्द में हमें दोषी ठहराना होता है कि वे हमें यह कहते हुए न्यायालय में ले जा सकें कि हम उन्हें “बलपूर्वक धर्म-परिवर्तन करने के लिए मजबूर करने” की कोशिश कर रहे थे।

इसलिए, जैसा यीशु था, हमें भी वैसा ही बुद्धिमान और साथ-ही-साथ प्रेम करने वाला होना चाहिएः

(a) “यीशु ने अपने आपको लोगों के भरोसे पर नहीं छोड़ा, क्योंकि वह जानता था कि उनमें क्या है” (यूहन्ना 2:23-25)। सभी लोगों को परखें।

(b) “यीशु यहूदिया में नहीं जाना चाहता था क्योंकि वहाँ यहूदी उसे मार डालना चाह रहे थे” (यूहन्ना 7:1)। ग़ैर-ज़रूरी ख़तरा न उठाएं।

(c) “जो तुम्हें सताते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो” (मत्ती 5:44)। भले बनो - सिर्फ इस वजह से बुरे न बन जाओ क्योंकि दूसरे बुरे हैं।

  1. हरेक उस शब्द के अनुसार जीवन बिताओ जो परमेश्वर के मुख से निकला है” (मत्ती 4:4):

सताव के समयकाल में, हमारी सबसे बड़ी ज़रूरत यह होती है कि हम उस शब्द के प्रति संवेदनशील रहें जो परमेश्वर हमारे हृदय में बोलता है। हमें सुनने वाले एक ऐसे मनोभाव की आदत विकसित करनी होगी जिसमें हम पूरा दिन परमेश्वर की बात सुन सकें। और जो शब्द हम परमेश्वर से पाएँ, हमें उस पर विश्वास और उसका पालन करना चाहिए। वर्ना उसका कोई मूल्य न होगा। इसलिए हमें परमेश्वर के वचन (विशेषकर नई वाचा) पर मनन करना होगा - और तब सिर्फ इस तरह से ही हम परमेश्वर की आवाज़ को परख सकेंगे। और फिर हमें उसका “भरोसा और पालन” करना चाहिए।

  1. “आपस में एक-दूसरे से वैसा ही प्रेम रखो जैसा मैंने तुमसे रखा है। अगर तुम आपस में प्रेम रखोगे, तो इसी से सब जानेंगे कि तुम मेरे चेले हो” (यूहन्ना 13:34,35):

हमारे घरों में और हमारी कलीसियाओं में, हमें एक-दूसरे का न्याय, एक-दूसरे की पीठ-पीछे बुराई, एक-दूसरे के साथ लड़ाई-झगड़े, और एक-दूसरे पर संदेह करने का सारा काम बंद कर देना चाहिए। परख एक ईश्वरीय गुण है, लेकिन संदेह एक शैतानी लक्षण है। यह ऐसा समय है जिसमें हमें अपने जीवन में पाप और शैतान से युद्ध करना है। यही वह समय है जिसमें हमें अपने वैवाहिक साथी और अपने साथी-विश्वासी से प्रेम करने के लिए सरगर्म रहना है।

  1. सँसार में तुम्हें क्लेश होगा। लेकिन साहस रखो, मैंने सँसार को जीत लिया है” (यूहन्ना 16:33):

परमेश्वर सिंहासन पर विराजमान है और वह अपने लोगों को कभी नहीं त्यागेगा। शैतान 2000 साल पहले हार गया था। हम परमेश्वर की आँखों के तारे हैं, इसलिए वह हमारे चारों ओर एक आग की दीवार बना देगा (ज़कर्याह 2:5,8)। हमारे खिलाफ़ बनाया गया कोई भी शस्त्र हम पर सफल न होगा (यशायाह 54:17)। इसलिए जो कुछ हमारे पास है, हम उससे संतुष्ट रहें, क्योंकि स्वयं परमेश्वर ने यह कहा है, “मैं न कभी तुम्हें छोडूँगा, और न कभी त्यागूँगा।” इसलिए हम साहस के साथ यह बोल सकते हैं, “प्रभु मेरा सहायक है। मैं न डरूँगा। मनुष्य मेरा क्या कर सकता है?” (इब्रानियों 13:5,6)।

हम भी यह प्रार्थना करें, “हे प्रभु यीशु, जल्दी आ” (प्रका॰ 22:20)।

सताव के समय बुद्धिमानी से चलना

भारत में बदल रहे हालातों की वजह से, कलीसियाओं के प्राचीनों को यह जानने के लिए बड़ी बुद्धि की ज़रूरत है कि उन्हें किन बातों के लिए खड़ा होना है और किन बातों के लिए खड़ा नहीं होना है। इन बातों में हमारे साथी विश्वासियों को सलाह देने के लिए भी हमें बुद्धि की ज़रूरत होगी।

सताव और विरोध में फ़र्क होता है। जब हम नई वाचा के सिद्धान्तों के लिए खड़े होंगे, तब हमें कम-या-ज़्यादा रूप में विरोध का सामना तो ज़रूर करना पड़ेगा। लेकिन सताव का अर्थ हमारी दैहिक हानि से जुड़ी वे बातें हैं जो ज़्यादातर ग़ैर-मसीहियों की तरफ से होंगी।

जब यीशु ने उसके चेलों को सुसमाचार के प्रचार के लिए भेजा, तब उसने उनसे कहा कि अगर तुम्हें एक नगर में सताया जाए तो तुम दूसरे नगर को भाग जाना (मत्ती 10:23)। अगर हम किसी ज़रूरतमंद जगह में जाकर ज़्यादा आज़ादी से सुसमाचार प्रचार कर सकते हैं, तो ऐसी जगह में प्रचार करते रहने में कोई भलाई नहीं है जहाँ सताव है। “जो लड़ता है और लड़ते हुए भाग जाता है, वह एक और दिन लड़ने के लिए जीवित बचा रहता है”!

यहाँ ध्यान देने लायक़ दो बातें हैं।

पहली बात, जब यहूदिया में यीशु को उसकी जान का ख़तरा नज़र आ गया, तब वह वहाँ नहीं गया (यूहन्ना 7:1; 11:53,54)। लेकिन जब उसे पिता की तरफ से वहाँ जाने का स्पष्ट दिशा-निर्देश मिल गया, तब वह वहाँ गया। और तब उसे कोई न रोक सका था (लूका 9:51)। पौलुस के साथ भी ऐसा ही था (प्रेरितों के काम 21:11-13)। इसलिए अगर हमें प्रभु की तरफ से एक स्पष्ट और विशेष दिशा-निर्देश मिला हो, तो हम एक ख़तरनाक जगह में भी जा सकते हैं, लेकिन उससे पहले नहीं।

दूसरी बात, कलीसिया का निर्माण करना सुसमचार प्रचार करने से अलग है। अगर हमारे ऊपर प्रभु के झुण्ड की देखभाल करने की जि़म्मेदारी है, तो हम सताव के समय उन्हें छोड़कर नहीं भाग सकते। यीशु ने कहा कि भेड़िए के आने पर सिर्फ किराए का मज़दूर ही उन्हें छोड़ कर भागेगा (यूहन्ना 10:12)। इसलिए जब यीशु ने मत्ती 10:23 में अपने चेलों से यह कहा कि वे किसी दूसरे नगर में भाग जाएँ, तो यह इसलिए कहा था क्योंकि वे कलीसिया के निर्माण में नहीं बल्कि सिर्फ सुसमाचार-प्रचार के काम में लग थे। लेकिन अगर हम एक कलीसिया में चरवाहे हैं, और हमारी जान का ख़तरा है, तब भी हमें बुद्धिमानी से फैसला करने की ज़रूरत है। ऐसे भी समय हो सकते हैं जब एक अगुवे को कुछ समय के लिए किसी दूसरे स्थान पर चले जाने की ज़रूरत हो (जैसे प्रेरितों के काम 17:10 में पौलुस ने किया था)। विश्वास से जीने का अर्थ यह नहीं है कि हम अपना सामान्य ज्ञान भी इस्तेमाल न करें। विश्वास परमेश्वर के ख़ास शब्द पर होता है (रोमियों. 10:17)। अगर परमेश्वर की तरफ से हमारे पास ऐसा ख़ास शब्द न हो, तो हमें हमेशा अपना सामान्य ज्ञान इस्तेमाल करना चाहिए। वर्ना हम मूर्खता-पूर्वक काम करते हुए वीरता के एक झूठे मनोभाव में काम करने वाले ठहरेंगे, उन्हीं लोगों की तरह जो बीमार होने पर दवा लेने से इनकार करते हैं!

जैसा यीशु ने कहा था, आने वाले दिनों में, मसीही ज़्यादा से ज़्यादा “भेड़िओं के बीच में भेड़ों” की तरह नज़र आने लगेंगे (मत्ती 10:16)। लेकिन हमारा स्वर्गीय पिता हमारे सिर के बालों की भी फिक्र करता है; और उसके लिए हमारा मूल्य जगत के सारे पक्षियों से ज़्यादा है (मत्ती 10:29,30)। इसलिए हम न तो मनुष्यों से और न ही शैतान से डरते हैं। हम मसीहियों की विरोधी किसी संस्था या सरकार से भी नहीं डरते हैं। हम सारे सरकारी नियमों का पालन करेंगे, लेकिन सिर्फ तभी तक जब तक कि मसीह और बाइबल की शिक्षा के अनुसार हमारा विवेक हमें अनुमति देगा। हम उन बातों में कभी कोई समझौता नहीं करेंगे जिन्हें हम सत्य मानते हैं।

जब भी सरकार द्वारा कोई क़ानून पारित किया जाए, तो जहाँ तक सम्भव हो और जहाँ वे परमेश्वर के वचन में दी गई उसकी आज्ञाओं का विरोध न करते हों, तो हम उन्हें मानें। हम सांसारिक अधिकारियों का आज्ञा-उल्लंघन सिर्फ तभी कर सकते हैं जब वे हमें ऐसा कुछ करने के लिए कहें जो परमेश्वर के वचन में वर्जित है (देखें, प्रेरितों के काम 5:29)।

इसके साथ ही, यीशु ने हमें यह भी कहा है, “साँप की तरह चतुर और कबूतर की तरह भोले बनो” (मत्ती 10:16)। इसलिए हम अपने शब्दों और अपने कामों से किसी को कोई नुक़सान न पहुँचाएं।

अंत में, ये दो ऐसी महत्वपूर्ण बातें हैं जिन्हें हमें हमेशा करते रहना हैः

  1. हमेशा एक अच्छे विवेक के साथ नम्रता व दीनता में रहें। तब परमेश्वर हमारे साथ होगा। और “अगर परमेश्वर हमारे साथ है तो हमारा विरोधी कौन होगा” (रोमियों. 8:31)।
  2. अपने सभी फैसले विश्वास में से लें। अपने हरेक काम में सचेत और समझदार हों, लेकिन डर की वजह से कभी कोई फैसला न लें।

यह ध्यान रखें कि आप आलोचना करने वाले न हों:

हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हम नामांकित करते हुए, दूसरे धर्मों और उनकी मूर्तियों के खिलाफ़ न बोलें। हम उनका ठट्ठा भी न उड़ाएँ। यीशु ने कभी इन बातों के विषय में कोई बातचीत नहीं की थी। उसने ज़्यादातर उन लोगों के पाखण्ड की ही बात की जो सच्चे परमेश्वर को जानने का दावा करते थे।

प्रेरित पौलुस के उदाहरण पर विचार करेंः जब वह इफिसुस में था और उसने कोई समझौता किए बिना सत्य का प्रचार किया, तब नगर में एक हलचल पैदा हो गई। अंत में, मन्दिर के मंत्री ने लोगों को बुलाकर कहा, “इस मनुष्य ने हमारी देवी की कोई निन्दा नहीं की है” (प्रेरितों के काम 19:37)। पौलुस ने मसीह का प्रचार किया, लेकिन उसने उन झूठे देवी-देवताओं की निन्दा नहीं की जिनकी इफिसुस के लोग आराधना कर रहे थे। उसका संदेश एक सकारात्मक संदेश था - कि मसीह उनके पापों से उन्हें बचा सकता था। यह एक ऐसा नकारात्मक संदेश नहीं था जिसमें उनके झूठे देवताओं और मूर्तियों की बुराई की गई हो। यह ईश्वरीय बुद्धि का काम था। एक बार जब लोग प्रभु के पास आ जाते हैं, तब स्वयं प्रभु ही उनकी मूर्तियों से उन्हें छुटकारा दिलाने का काम करता है।

हममें भी ऐसी ही बुद्धि होनी चाहिए। हम किसी धर्म, उसकी आस्थाओं या उसकी रीतियों/विधियों की आलोचना न करें। यह हमारा संदेश नहीं है। हम सिर्फ मसीह का प्रचार करते हैं - यीशु मसीह जो हमारे पापों के लिए मरा, मर के जी उठा, आज वह स्वर्ग में जीवित है, और जल्दी ही सँसार का न्याय करने आने वाला है। यह हमारा संदेश है - और हम सभी लोगों को उनके पापों से मन फिराने और मसीह को उनके प्रभु और मुक्तिदाता के रूप में ग्रहण करने के लिए बुलाते हैं। लेकिन हम किसी से बलपूर्वक ऐसा करने के लिए नहीं कहते। हमें यही प्रचार करना चाहिए - छोटे बच्चों को भी। हमें उन्हें भी मसीह को ग्रहण करने के लिए मजबूर नहीं आमंत्रित करना चाहिए। परमेश्वर सभी को आज़ादी देता है। हमें भी लोगों को आज़ादी देनी चाहिए। जब लोग वास्तव में उनके जीवनों में मसीह को ग्रहण कर लेते हैं, तब, समय के चलते, दूसरी झूठी बातें धीरे-धीरे पीछे छूटती जाएँगी, क्योंकि पवित्र आत्मा उन्हें पाप के लिए दोषी ठहराता रहेगा।

हमारी बुलाहट यह है कि जगत के एकमात्र उद्धारकर्ता के रूप में हम मसीह का प्रचार करें। और हमें पाप के खिलाफ़ भी बोलना है, अपना न्याय स्वयं करते रहना है, और सबसे पहले तो अपने बीच में से ही ढोंग/दिखावे का पर्दाफाश करना है। अनेक उत्साही लेकिन नासमझ भाई और बहनें कभी-कभी एक ग़ैर-ज़रूरी रूप में अपने शब्दों और प्रार्थनाओं में दूसरे धर्मों को नामांकित करते हैं। हमें ऐसे लोगों को चेतावनी देते हुए उनके शब्दों के प्रति उन्हें सचेत करना चाहिए। किसी ख़ास धर्म का उल्लेख करने की बजाय “ग़ैर-मसीहियों” की बात करना ही अच्छा है। परमेश्वर ने अपने पुत्र को जगत में इसलिए नहीं भेजा कि जगत को दोषी ठहराए, लेकिन इसलिए कि जगत उसके द्वारा उद्धार पाए (यूहन्ना 3:17)। हमारी बुलाहट यह है कि यीशु का अनुसरण करें, इसलिए हमारी इच्छा दूसरों को दोषी ठहराने की नहीं बल्कि उन्हें बचाने की होनी चाहिए।

वकीलों और प्रभावशाली लोगों की मदद हासिल करना:

अगर हमें पुलिस-स्टेशन या न्यायालय में ले जाया जाता है, तो हमारे बचाव के लिए एक वकील की सेवाएँ प्राप्त करने में कोई बुराई नहीं है।

यीशु ने अपने चेलों से कहा कि जब वे उनके शत्रुओं का सामना करना जाएँ तो एक तलवार लेते जाएँ (लूका 22:36-38)। यह तलवार शत्रुओं पर हमला करने के लिए नहीं है। जब पतरस ने उससे हमला किया तब यीशु ने यह कहते हुए उससे तुरन्त तलवार को म्यान में रख लेने के लिए कि जो तलवार उठाते हैं वे सब तलवार से ही नाश किए जाएँगे (मत्ती 26:52)। अगर शत्रु पहले हमला कर देता है, तो तलवार सिर्फ आत्म-रक्षा के लिए थी। इसलिए, हरेक क़ानूनी तरीक़े से हमें अपनी आत्म-रक्षा करने का अधिकार है, जिसमें एक वकील की सेवाएं लेना या पुलिस-स्टेशन में अपनी शिकायत दर्ज करना शामिल हैं। पौलुस ने अदालत में अपना बचाव किया, और उसने रोम के सर्वोच्च न्यायालय (कैसर) से भी अपील की थी (प्रेरितों के काम 25:11)।

हमारी मदद करने के लिए हम अपनी जान-पहचान के किसी प्रभावशाली व्यक्ति के प्रभाव को भी इस्तेमाल कर सकते हैं। अरिमतिया के युसुफ ने मसीह की देह को सूली से उतारने और उसे दफ़नाने के लिए पिलातुस से अपनी जान-पहचान का इस्तेमाल किया था। इसलिए, अगर प्रभावशाली लोग परमेश्वर के काम को आगे बढ़ाने में हमारी मदद करने को तैयार हों, तो हम उनकी मदद ले सकते हैं।

लेकिन, हम चाहे वकीलों का या प्रभावशाली लोगों का इस्तेमाल करें, फिर भी हमारा भरोसा मनुष्यों में नहीं, सिर्फ प्रभु में ही हो। जैसे, जब हम अपने इलाज के लिए किसी डॉक्टर के पास जाते हैं, तब हम उसमें या उसके द्वारा दी गई दवाइयों में नहीं, बल्कि अपनी चँगाई के लिए सिर्फ प्रभु में ही भरोसा रखते हैं (देखें यिर्मयाह 17:5-8)।

हम यह भी याद रखें कि हमारे प्रभु ने हमें बताया है कि जब हमें सांसारिक अधिकारियों के सम्मुख ले जाया जाएगा, तब जो हमें बोलना है, उसके लिए वही हमें बुद्धि देगा (लूका 12:11,12_ 21:12-15)।

जबकि हम एक अंधकार-भरे दुष्ट सँसार में उसके साक्षी होना चाहते हैं, तो हमारा भरोसा सिर्फ हमारे स्वर्गीय पिता में ही हो कि वह हर समय हमारी मदद करेगा। यह याद रखें कि उसने हमारी सेवा और मदद करने के लिए अपने स्वर्गदूतों को भी भेजा हुआ है (इब्रानियों 1:14)।

जिनके हृदय शुद्ध हैं, वे परमेश्वर को देखेंगे

यूहन्ना 18:10,11 में हम पढ़ते हैं, कि गतसमनी में “शमौन पतरस ने, जो तलवार लिए हुए था, उसे खींचकर महायाजक के दास पर चलाई और उसका दाहिना कान काट डाला। तब यीशु ने पतरस से कहा, ‘तलवार म्यान में रख! जो प्याला पिता ने मुझे दिया, क्या मैं उसे न पीऊँ?’”

पतरस ने सिर्फ यहूदा इस्करियोती और रोमी सैनिकों को ही देखा। लेकिन यीशु ने यह देखा कि यह प्याला उसके पिता ने उसे पीने के लिए दिया था। यहूदा तो सिर्फ ऐसा डाकिया था जो उसे लेकर आया था।

मत्ती 5:8 में, हम पढ़ते हैं कि धन्य हैं वे जिनके हृदय शुद्ध हैं, क्योंकि वे परमेश्वर को देखेंगे। इसलिए, अगर हम अपने सारे हृदय से परमेश्वर से प्रेम करेंगे, तो हमें हरेक हालात में सिर्फ परमेश्वर ही नज़र आएगा। लेकिन अगर हमारा मन हमारे शत्रुओं और हमारे मुश्किल हालातों पर लगा होगा, तो इससे यही साबित होगा कि हमारे हृदय शुद्ध नहीं हैं।

यशायाह 6:3 में हम यह पढ़ते हैं स्वर्ग में दूत (सराप) यह घोषणा करते हैं, “सारी पृथ्वी परमेश्वर की महिमा से भरपूर है।” वे परमेश्वर की महिमा को न सिर्फ स्वर्ग में बल्कि पृथ्वी में देख रहे थे। इसका अर्थ है कि वे यह देख रहे थे कि पृथ्वी की सारी घटनाएं परमेश्वर के वश में थीं। दानिय्येल 4:35 में नबूकदनेस्सर ने कहा, “पृथ्वी पर रहने वाले उसके सामने कुछ भी नहीं है; वह स्वर्ग की सेना और पृथ्वी के निवासियों के बीच अपनी इच्छानुसार काम करता है, और न तो कोई उसका हाथ रोक सकता है, और न ही यह कहते हुए उससे पूछ सकता है, ‘तू ने यह क्या किया?’” परमेश्वर सिंहासन पर विराजमान है - और वह अपने सबसे कमज़ोर बच्चों के बारे में भी कभी नहीं भूलेगा।

2 कुरिन्थियों 11:3 हमें चेतावनी देते हुए उस ख़तरे के बारे में बताता है जिसमें शैतान हमें “मसीह की सहज भक्ति” की तरफ से भटका रहा है। वहाँ यह लिखा है कि कैसे शैतान ने हव्वा को भले और बुरे के ज्ञान के वृक्ष द्वारा भरमाया था। वह वृक्ष ध्यान हटा देने वाली एक ऐसी वस्तु थी जिसने हव्वा को परमेश्वर की उपस्थिति से दूर कर दिया था। हमारे जीवन में ऐसी ध्यान भटकाने वाली बहुत सी बातें हो सकती हैं जो हमें प्रभु से दूर कर देती हैं। हमें ध्यान भटकाने वाली ऐसी हरेक बात से आशंकित होना चाहिए। इन दिनों में, हमें पौलुस द्वारा 1 कुरिन्थियों 7:35 में कही गई बात की ज़रूरत है, “...तुम्हारा मन प्रभु की सेवा में निर्विघ्न लगा रहे।”

अध्याय 19
ईश्वरीय लोगों के पचास चिन्ह्

हरेक प्राचीन एक ईश्वरीय लोग होना चाहिए। ये सच्चे ईश्वरीय पुरुषों के पचास चिल्ह् हैंः

1. ईश्वरीय लोग परमेश्वर के सम्मुख खड़े रहते हैं और प्रतिदिन उसकी आवाज़ सुनते हैं।

2. ईश्वरीय लोगों के हृदय में स्वयं परमेश्वर के अलावा और किसी व्यक्ति या वस्तु की अभिलाषा नहीं होती है।

3. ईश्वरीय लोग परमेश्वर का ऐसा भय मानते हैं कि वे पाप के हरेक रूप उससे घृणा करते हैं, और अपने सब मार्गों में धार्मिकता और सत्य से प्रेम करते हैं।

4. ईश्वरीय लोग क्रोध और पापमय कामुक विचारों पर जय पा लेते हैं, और अपने विचार या मनोभाव में पाप करने की बजाय मर जाना ज़्यादा पसन्द करते हैं।

5. ईश्वरीय लोगों की यह प्रतिदिन की जीवन-शैली होती है कि वे अपनी सूली उठाकर सिद्धता की ओर बढ़ते जाते हैं, और भय और थरथराहट के साथ अपने उद्धार का काम पूरा करते जाते हैं (इब्रानियों 6:1; फिलि॰ 2:12,13)।

6. ईश्वरीय लोग पवित्र आत्मा से भरे हुए होते हैं, और प्रेम में इतनी गहरी जड़ पकड़े होते हैं कि चाहे कोई बात कितनी भी उकसाने वाली क्यों न हो, वह उन्हें दूसरे मनुष्यों के प्रति एक अप्रियता के मनोभाव में नहीं पहुँचा सकती।

7. ईश्वरीय लोग नम्रता में ऐसी गहरी जड़ पकड़े होते हैं कि न तो प्रशँसा, न आत्मिक उन्नति, न एक ईश्वरीय समर्थन-प्राप्त सेवकाई या बाक़ी और कुछ उन्हें इस अहसास में से दूर कर सकती है कि वे सबसे छोटे संत से भी ज़्यादा छोटे हैं।

8. ईश्वरीय लोगों में परमेश्वर के वचन द्वारा परमेश्वर के स्वभाव और उद्देश्य की समझ होती है, और वे उस वचन के आगे इस तरह थरथराते हैं कि वे एक छोटी-से-छोटी आज्ञा को न तोड़ेंगे और न ही उसे दूसरों को सिखाने में लापरवाही करेंगे (यशायाह 66:2; मत्ती 5:19)।

9. ईश्वरीय लोग परमेश्वर के पूरे परामर्श का प्रचार करते हैं, और धार्मिक वेश्यावृत्ति और ऐसी मानवीय परम्पराओं का पर्दाफाश़ करते हैं जो वचन के विरोध में हैं।

10. ईश्वरीय लोगों के पास ईश्वरीय भक्ति के बारे में पवित्र आत्मा का प्रकाशन होता हैः कि मसीह देह में आया और उसने अपनी देह के द्वारा एक नया और जीवित मार्ग खोल दिया है (1 तीमुथियुस 3:16; इब्रानियों 10:20)।

11. ईश्वरीय लोग श्रमजीवी और कड़ी मेहनत करने वाले होते हैं, लेकिन उनमें हास्यरस भी होता है, और वे अपने मनों को हल्का करना और बच्चों के साथ खेलना, और सृष्टि में परमेश्वर की भली आशिषों का आनन्द मनाना जानते हैं।

12. ईश्वरीय लोग बैरागी/तपस्वी नहीं होते, फिर भी, वे एक अनुशासित जीवन बिताते हैं और कठिनाइयों से नहीं डरते (1 कुरिन्थियों 9:27)।

13. ईश्वरीय लोगों को महँगे कपड़े पहनने या सैर-सपाटों में कोई दिलचस्पी नहीं होती, और वे ग़ैर-फायदेमंद कामों और ख़रीदारियों में अपना पैसा बर्बाद नहीं करते।

14. ईश्वरीय लोग स्वादिष्ट खानों के लिए अपनी लालसा पर जय पा लेते हैं, और सँगीत, खेल-कूद या इसी तरह के किसी दूसरे वैध काम के प्रति आसक्त नहीं होते।

15. ईश्वरीय लोग पीड़ा, ताड़ना, सताव, झूठे इल्ज़ामों, दैहिक रोगों, आर्थिक कष्टों, और सम्बंधियों और धार्मिक अगुवों के विरोध की भट्ठियों में परमेश्वर द्वारा सफलतापूर्वक अनुशासित कर दिए जाते हैं।

16. ईश्वरीय लोग दया से भरे रहते हैं और वे बुरे-से-बुरे पापी और बुरे-से-बुरे विश्वासी के प्रति भी संवेदना रख सकते हैं और उनके प्रति आशान्वित रह सकते हैं क्योंकि वे स्वयं को सबसे बड़ा पापी मानते हैं (1 तीमुथियुस 1:15)।

17. ईश्वरीय लोग अपने स्वर्गीय पिता के प्रेम की सुरक्षा में इतनी गहरी जड़ पकड़े होते हैं कि वे कभी किसी बात के प्रति चिंतित नहीं होते, और न ही शैतान, दुष्ट मनुष्यों, मुश्किल हालातों या और किसी बात से डरते हैं।

18. ईश्वरीय लोग परमेश्वर के विश्राम में यह विश्वास करते हुए प्रवेश पा लेते हैं कि परमेश्वर सभी बातों में एक सर्वशक्तिशाली रूप में उनकी भलाई के लिए ही काम करता है, और इसलिए वे सभी मनुष्यों के लिए, सभी बातों में हमेशा धन्यवाद दे सकते हैं (रोमियों 8:28; इफिसियों 5:20; 1 थिस्सलुनीकियों 5:18; 1 तीमुथियुस 2:1)।

19. ईश्वरीय लोग अपना आनन्द सिर्फ परमेश्वर में पाते हैं, और इस वजह से वे हर तरह के बुरे मनोभावों पर जय पाकर हमेशा प्रभु के आनन्द से भरे रहते हैं।

20. ईश्वरीय लोगों में एक जीवित विश्वास होता है, और वे स्वयं अपने आप में या अपनी प्राकृतिक योग्यताओं में कोई भरोसा नहीं करते बल्कि हरेक परिस्थिति में उनका यही भरोसा होता है कि परमेश्वर उनका अचूक/अटल सहायक है (फिलिप्पियों 3:3)।

21. ईश्वरीय लोग स्वयं अपनी तर्क-भरी सोच-समझ से नहीं बल्कि पवित्र आत्मा की अगुवाई में चलते हैं।

22. ईश्वरीय लोग स्वयं मसीह द्वारा पवित्र आत्मा और आग से असली बपतिस्मा पाए हुए होते हैं (वे किसी नकली भावनात्मक उत्तेजना से भरे हुए या किसी धर्म-सिद्धान्त से आश्वस्त हुए लोग नहीं होते) (मत्ती 3:11)।

23. ईश्वरीय लोग हमेशा पवित्र आत्मा के अभिषेक तले रहते हैं, और उनमें प्रभु द्वारा दिए गए अलौकिक दान-वरदान होते हैं (इफिसियों 5:18; 1 कुरिन्थियों 14:1)।

24. ईश्वरीय लोगों के पास यह प्रकाशन होता है कि कलीसिया मसीह की देह है (एक मण्डली या धर्म-मत नहीं), और वे कलीसिया के निर्माण के लिए अपनी सारी शक्ति, भौतिक सम्पत्ति और आत्मिक दान-वरदान लगा देते हैं।

25. ईश्वरीय लोगों ने पवित्र आत्मा की मदद से अपनी ज़बान पर लगाम लगाना सीख लिया है, और अब उनकी ज़बानें पवित्र आत्मा की आग से भरी हैं।

26. ईश्वरीय लोगों ने अपना सब कुछ छोड़ दिया है, और वे अब धन या भौतिक वस्तुओं से आकर्षित नहीं होते, और वे दूसरों से किसी तरह की भेंट या उपहार की अपेक्षा नहीं करते (लूका 14:33)।

27. ईश्वरीय लोग अपनी सभी पार्थिव ज़रूरतों के लिए परमेश्वर में भरोसा रखते हैं और अपनी भौतिक ज़रूरतों की तरफ किसी का ध्यान नहीं खींचते, न ही अपने काम की बड़ाई करते हैं - न तो अपनी बातचीत में, और न ही अपने पत्रों या रिपोर्ट आदि में।

28. ईश्वरीय लोग हठीले नहीं बल्कि शालीन/सौम्य होते हैं, अपनी आलोचना सुनने के लिए तैयार रहते हैं, और अपने से बड़े और ज़्यादा समझदार भाइयों द्वारा सुधारे जाने के लिए तत्पर रहते हैं।

29. ईश्वरीय लोगों में दूसरों पर राज करने या उन्हें सलाह देने की कोई लालसा नहीं होती (लेकिन सलाह माँगे जाने पर हमेशा सलाह देने के लिए तैयार रहते हैं), और उनकी ऐसी अभिलाषा भी नहीं होती कि उन्हें "बड़े" भाई या अगुवे समझे जाएँ, लेकिन उनकी इच्छा यही होती है कि वे सामान्य भाई और सबके सेवक ही माने जाएँ।

30. ईश्वरीय लोग आसानी से सबके साथ घुलमिल जाते हैं, इस बात के लिए भी तैयार रहते हैं कि अपने चैन-आराम को कुर्बान कर दें, और कोई उनसे ग़लत फ़ायदा भी उठा ले।

31. ईश्वरीय लोग एक भिखारी और एक करोड़पति में, एक गोरे और एक काले में, एक बुद्धिमान और एक मूर्ख में, और एक सभ्य व असभ्य व्यक्ति में को भेदभाव नहीं करते।

32. ईश्वरीय लोग कभी उनकी पत्नी, बच्चों, सम्बंधियों, मित्रों या दूसरे विश्वासियों द्वारा प्रभावित किए जाकर मसीह की भक्ति में या परमेश्वर की आज्ञाओं के पालन में से ज़रा भी पीछे नहीं हटते।

33. ईश्वरीय लोग ऐसा कभी कोई समझौता नहीं करते जिसमें शैतान उन्हें किसी भी तरह के प्रलोभन द्वारा (चाहे वह सम्मान, धन या कुछ भी हो) घूस दे सके।

34. ईश्वरीय लोग मसीह के निर्भय साक्षी होते हैं जो न तो धार्मिक अगुवों से और न ही सांसारिक प्रधानों/अधिकारियों से डरते हैं।

35. ईश्वरीय लोग पृथ्वी पर कभी किसी मनुष्य को प्रसन्न करना नहीं चाहते, और अगर सिर्फ परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए ऐसा ज़रूरी हो जाए तो वे सभी मनुष्यों के लिए ठोकर का पत्थर बनने के लिए भी तैयार रहते हैं।

36. ईश्वरीय लोग हमेशा मानवीय ज़रूरत और अपनी सुख-सुविधा से पहले परमेश्वर की महिमा, परमेश्वर की इच्छा और परमेश्वर के राज्य को रखते हैं।

37. ईश्वरीय लोगों पर न तो दूसरे लोग, और न ही स्वयं उनके अपने तर्क ऐसा दबाव बना सकते हैं कि वे परमेश्वर के लिए "मरे हुए काम" करें, बल्कि वे उनके जीवनों के लिए सिर्फ परमेश्वर की प्रकाशित इच्छा हो ही पूरी करना चाहते हैं।

38. ईश्वरीय लोगों में पवित्र आत्मा की यह परख होती है कि मसीही काम में वे जैविक और आत्मिक के बीच का फ़र्क जान सकें।

39. ईश्वरीय लोग बातों को पार्थिव नहीं बल्कि एक स्वर्गीय दृष्टिकोण से देखते हैं।

40. ईश्वरीय लोग परमेश्वर के लिए किए गए अपने कामों के लिए पृथ्वी के सभी सम्मानों और पदों/शीर्षकों को स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं।

41. ईश्वरीय लोग निरंतर प्रार्थना करना और जब ज़रूरत हो तो उपवास के साथ प्रार्थना करना जानते हैं।

42. ईश्वरीय लोग यह सीख लेते हैं कि उदार होकर, हर्ष से, गुप्त रूप में, और बुद्धिमानी से कैसे दिया जाता है।

43. ईश्वरीय लोग सब मनुष्यों के लिए सब कुछ बन जाने के लिए तैयार हो जाते हैं कि किसी-न-किसी तरह कुछ लोगों का उद्धार करा सकें।

44. ईश्वरीय लोगों में न सिर्फ लोगों को उद्धार पाते हुए देखने की बल्कि उन्हें मसीह की चेले बनते हुए देखने की भी लालसा होती है, और यह कि वे सत्य के ज्ञान में और परमेश्वर की सभी आज्ञाओं के पालन में पहुँचाए जाएँ।

45. ईश्वरीय लोगों में सभी जगहों में परमेश्वर की शुद्ध साक्षी स्थापित करने की बड़ी लालसा होती है।

46. ईश्वरीय लोगों में एक ज्वलंत लालसा होती है कि वे कलीसिया में मसीह को महिमान्वित होता हुआ देखें।

47. ईश्वरीय लोग किसी भी बात में अपनी इच्छा पूरी करना नहीं चाहते।

48. ईश्वरीय लोगों के पास आत्मिक अधिकार और आत्मिक प्रतिष्ठा होती है।

49. ईश्वरीय लोग, ज़रूरत पड़ने पर, पूरे जगत में परमेश्वर के लिए अकेले खड़े रहेंगे।

50. ईश्वरीय लोग प्राचीनकाल के प्रेरितों और नबियों की तरह कभी कोई समझौता करने वाले नहीं होते।

अपने हृदय में ऐसा दृढ़ संकल्प करें कि एक पापमय और व्यभिचारी पीढ़ी, और एक समझौता करने वाले मसीही जगत में आप परमेश्वर के एक ऐसे जन होंगे।

परमेश्वर कोई पक्षपात नहीं करता। इसलिए, वह आपकी कलीसिया में आपको एक ऐसा ईश्वरीय प्राचीन बनने की योग्यता देने के लिए उत्सुक और इच्छुक दोनों रहता है।

फरीसीवाद के ख़तरे

ऐसा कोई भी विश्वासी जो ईश्वरीय बनना चाहता है, उसके सामने सबसे बड़ा ख़तरा एक फरीसी बन जाने का ही होता है। इसलिए हरेक प्राचीन को एक फरीसी के उन चिन्हों से सावधान रहना चाहिए जिनका उल्लेख सुसमाचारों में किया गया है। तब वह स्वयं को फरीसीवाद से बचा सकेगा, और अपनी कलीसिया के सदस्यों को भी उसके ख़तरों से ख़बरदार कर सकेगा।

फरीसियों के कुछ प्रमुख चिन्ह् मेरी पुस्तिका "फरीसियों के पचास चिन्हों" में दिए गए हैं, जिसे मसीही साहित्य संस्था नई दिल्ली से या नीचे दी गई इस वेबसाइट पर निःशुल्क पढ़ा जा सकता हैः

http://www.cfcindia.com/books/fifty-marks-of-phariseesbooklet

फरीसियों के इन चिन्हों को एक ज़्यादा विस्तृत रूप में इसी शीर्षक से प्रकाशित मेरी बड़ी पुस्तक में बयान किया गया है, जिसे इस वेबसाइट पर निःशुल्क पढ़ा जा सकता हैः

http://www.cfcindia.com/books/fifty-marks-of-pharisees

अध्याय 20
आत्मिक आंदोलनों का उत्थान और पतन

आत्मिक आंदोलनों का उत्थान और पतन

“हे प्रभु! मदद कर! ईश्वरीय पुरुष बहुत तेज़ी से लुप्त होते जा रहे हैं। इस जगत में भरोसेमंद लोग भला कहाँ मिलेंगे? सभी धोखा देते और झूठ बोलते हैं। कहीं सच्चाई और ईमानदारी नहीं बची है” (भजन संहिता 12:1 - लिविंग)।

उपरोक्त पद में जैसी परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है, वह आज के मसीही जगत की एक सटीक व्याख्या है। आजकल हम यह पाते हैं कि ऐसे विश्वासी भी, जो एक समय में ईश्वरीय भक्ति की खोज में थे, अपने ही उद्देश्यों को पूरा करने के लिए धोखा दे रहे हैं, चापलूसी कर रहे हैं और झूठ बोल रहे हैं।

जब लोग बाइबल तो जानते हैं लेकिन स्वयं परमेश्वर को नहीं जानते, तब वे आसानी से धोखा खा जाते हैं - क्योंकि जगत में हरेक मसीही समूह अपनी मूल पाठ्य-पुस्तक के रूप में बाइबल को ही इस्तेमाल करता है, और वे अपनी विशिष्ट शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अपने प्रामाणिक पाठ तैयार कर लेते हैं। यही वजह है कि पिछले 150 सालों में पूरे जगत में झूठे मसीही पंथों की भी भरमार हो गई है, और वे भी लोगों के लिए स्वीकार्य हो गए हैं। इस तरह, अनेक विश्वासी भी भटक रहे हैं और अपना उद्धार खो रहे हैं।

नई वाचा में, परमेश्वर चाहता है कि उसका हरेक बच्चा व्यक्तिगत रूप में उसे जाने (इब्रानियों 8:11), ऐसा पुरानी वाचा में नहीं था क्योंकि उसमें सिर्फ नबी (जो दुर्लभ ही प्रकट होता था) परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप में जान सकता था। असल में, परमेश्वर की नई वाचा की सँतान पुरानी वाचा के सबसे महान् नबियों से भी ज़्यादा बेहतर और गहरे रूप में जान सकती है। यीशु ने मत्ती 11:11 में यह बात एक स्पष्ट रूप में कही है।

ऐसे विश्वासी बहुत कम हैं जिनमें स्वयं परमेश्वर को जानने का एक मनोवेग होता है। ज़्यादातर विश्वासियों की दिलचस्पी सिर्फ उनका बाइबल का ज्ञान बढ़ाने और भावनात्मक अनुभव पाने में होती है। इस वजह से ही उनमें से ज़्यादातर धोखा खाते हैं और उनके पास नई वाचा का और मसीह की देह के निर्माण करने का कोई प्रकाशन नहीं होता।

विश्वास से भटकना और नवनिर्माण

हमें बताया गया है, कि अंतिम दिनों में “एक मसीही होना मुश्किल होगा” (2 तीमुथियुस 3:1 - लिविंग)। यह सताव की वजह से नहीं होगा, लेकिन इसलिए क्योंकि अनेक “मसीहियों” में सिर्फ़ भक्ति की बाहरी बातें होंगी लेकिन उसकी भीतरी शक्ति नहीं होगी। दूसरे शब्दों में, उनकी मुख्य शिक्षा सिर्फ सही मसीही धर्म-सिद्धान्त होंगे - मसीह के प्रति व्यक्तिगत भक्ति या व्यावहारिक ईश्वरीयता नहीं।

अनेक लोगों ने मृतक मसीही-मत इसलिए छोड़े थे क्योंकि वे आत्मिक वास्तविकता की खोज में थे। लेकिन अक्सर ऐसा ज़्यादा हुआ है कि कुछ समय के बाद शैतान ने उन्हें मार्ग से भटका कर भावुकतावादी, विधिवादी या समझौता करने वाला बना दिया।

हमने देखा है कि कैसे, पहली शताब्दी में ही, प्रेरितों द्वारा स्थापित कलीसियाएँ उनके स्थापित किए जाने के 50 सालों के अन्दर ही सांसारिकता और (पाप से) समझौता कर लेने वाली हो गई थीं।

उसके बाद की सभी शताब्दियों में, मसीही कलीसियाएँ और भी भटकती चली गईं हैं। लेकिन बीच-बीच में, ऐसे समयकाल भी हुए हैं जिनमें परमेश्वर ने पूरे/सच्चे हृदय से समर्पित एक ऐसा पुरुष पाया है जिसमें यह बोझ था कि वह कलीसियाओं को उनके मूल मानक स्तर पर पुनःस्थापित करे। और तब, उसके द्वारा परमेश्वर ने एक नवनिर्माण का आंदोलन शुरू किया है।

कलीसिया के इतिहास में, एक अचूक रूप में ऐसा हुआ है कि हरेक नवनिर्माण आंदोलन एक अति-सुधारवादी व्यक्ति से शुरू हुआ है, जिसके इर्द-गिर्द परमेश्वर ने समान-विचारों वाले थोड़े से लोगों का एक समूह तैयार किया, जो अपनी मरी हुई कलीसिया में से निकल गए। ऐसे आंदोलन थोड़े समय तक बढ़ते रहते थे।

पवित्र आत्मा ने कहा है कि मसीहियों में ऐसी दलबंदी होनी ज़रूरी हैः “तुम्हारे बीच दलबंदी भी अवश्य होगी, कि तुम में जो खरे हैं, प्रकट हो जाएँ” (1 कुरिन्थियों 11:19)।

परमेश्वर स्वयं ऐसे विभाजनों का प्रबन्ध करता है, कि उसके नाम के लिए एक शुद्ध साक्षी तैयार हो सके। आरम्भ में जब परमेश्वर ने ज्योति बनाई, तब उसने तुरन्त ही ज्योति को अंधकार से दूर कर दिया (उत्पत्ति 1:4)। और कलीसिया के इतिहास में वह लगातार ऐसा करता रहा है।

मनुष्य के समर्थन के ख़तरे और सम्पन्नता

परमेश्वर के एक नए आंदोलन के शुरूआती दौर में, उसे दूसरे मसीहियों द्वारा तुच्छ समझा जाएगा और अस्वीकार किया जाएगा, और आंदोलन में शामिल हुए लोग भी अक्सर ग़रीब लोग ही होते हैं। असल में, ये बातें आंदोलन को सुरक्षित रखती हैं, क्योंकि इसमें शामिल लोग एक तीव्र मनोवेग के साथ सिर्फ परमेश्वर को ही प्रसन्न करना चाहेंगे।

ऐसे आंदोलन के ऊपर परमेश्वर की आशिष एक भरपूर रूप में उतरेगी - और फिर दूसरे मसीही उसका आदर करने लगेंगे। और यहीं से उस पर ख़तरा मण्डराने लगता है, क्योंकि फिर आंदोलन का उत्साह इस बात में कम हो जाएगा कि वह सिर्फ परमेश्वर का ही समर्थन प्राप्त करे।

फिर, समय गुज़रने के साथ-साथ, आंदोलन में ज़्यादा और ज़्यादा लोग जुड़ने लगते हैं, और आंदोलन का आकार बढ़ने लगता है और यह एक और बड़ा ख़तरा हो जाता है। धन एक अच्छा सेवक है, लेकिन एक बहुत ही बुरा स्वामी है। अगर एक आंदोलन के अगुवे धन और उसके इस्तेमाल के मामले में लगातार सचेत नहीं रहेंगे, तो वह उनके आंदोलन को बर्बाद कर देगा। शैतान ने धन की भरपूरी को मसीही जगत में से अनेक अच्छे आंदोलनों को ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल किया है।

कुछ मामलों में, आंदोलन का संस्थापक इस पतन को रोकने के लिए संघर्ष करता है। लेकिन उसके सभी सहकर्मी ख़तरों को वैसे स्पष्ट रूप में नहीं देख पाते जैसे वह देखता है। और इसलिए, उसके मरने के बाद, आंदोलन भटक जाता है और अपने मूल दर्शन को खो देता है। और फिर परमेश्वर को तब तक इंतज़ार करना पड़ता है जब तक कि उसे दोबारा कोई सच्चे/पूरे हृदय से समर्पित व्यक्ति नहीं मिलता।

एक आंदोलन की आत्मिकता उसके अगुवों की मसीह के प्रति भक्ति, उनकी नम्रता व दीनता, पाप के प्रति उनकी संवेदनशीलता, पवित्र आत्मा के अभिषेक तले बने रहने की उनकी तत्परता, धन के प्रेम से उनका मुक्त रहना, उनके साथी-प्राचीनों को मूल्यवान मानना, झुण्ड के प्रति उनके प्रेम और परमेश्वर के साथ उनके प्रतिदिन चलने पर निर्भर होती है।

परमेश्वर के मन (हृदय) के अनुकूल चरवाहे

यिर्मयाह 3:14,15, प्रभु यह कहते हुए अपने लोगों से प्रतिज्ञा करता है, “मैं तुम्हें नगर में से एक-एक और परिवारों में से दो-दो को लेकर सिय्योन में पहुँचा दूँगा, तब मैं तुम्हें अपने मन के अनुकूल ऐसे चरवाहे दूँगा जो तुम्हें ज्ञान और समझ रूपी भोजन खिलाएंगे।”

यहाँ “सिय्योन” परमेश्वर की सच्ची कलीसिया का प्रतीक है। परमेश्वर एक नगर में से एक और एक परिवार में से दो को उसके “सिय्योन” में ले आएगा। और जब ये लोग उस कलीसिया में आएंगे जिसका निर्माण प्रभु करता है, तब वह उन्हें “अपने मन के अनुकूल चरवाहे” देता है।

परमेश्वर की सच्ची कलीसिया को पहचानने का एक चिन्ह् यह है कि उसमें परमेश्वर के मन के अनुकूल चरवाहे होते हैं।

परमेश्वर का हृदय प्रेम का हृदय है - ऐसा प्रेम जो कभी अपने स्वार्थ की खोज में नहीं रहता। इसलिए, परमेश्वर के मन के अनुकूल चरवाहे वे ही होते हैं जो किसी बात में अपने स्वार्थ की खोज में नहीं रहते। ऐसे चरवाहे न तो किसी का धन चाहते हैं और न किसी का सम्मान। वे न तो मनुष्यों को प्रसन्न और न ही उन्हें प्रभावित करना चाहेंगे। इसकी बजाय, वे विश्वासियों को उन्नत करना चाहेंगे कि उन्हें “मसीह में सिद्ध करके प्रस्तुत कर सकें” (कुलुस्सियों 1:28)। परमेश्वर को जहाँ भी एक ऐसी अभिलाषा रखने वाला पुरुष मिलेगा - किसी भी पीढ़ी में, जगत के किसी भी शहर या गाँव में - तब वह उसके द्वारा अपनी कलीसिया का निर्माण करेगा।

दूसरी ओर, हमने अनेक विश्वासियों में मामले ऐसा होते हुए देखा है कि वे मुख्य धारा के धर्म-मतों को नई वाचा के नमूने” पर चलने के लिए छोड़ते हैं, लेकिन उनका अंत इस तरह से होता है कि वे अपने मसीही सिद्धान्तों में तो सही पाए जाते हैं, लेकिन धन से प्रेम करने वाले और अपने ही स्वार्थ की खोज में रहने वाले बन जाते हैं, और फिर भी यह कल्पना करते हैं कि वे मसीह की देह का निर्माण कर रहे हैं! उनके काम का नतीजा गड़बड़ और उलझन ही होता है - और अंततः वे सिर्फ बेबीलोन का ही एक और नमूना तैयार करते हैं।

परमेश्वर को जब एक ऐसा मनुष्य मिलेगा जो अपने स्वार्थ की खोज में नहीं होगा, सिर्फ तभी वह उसकी सच्ची कलीसिया का निर्माण कर सकेगा। ऐसा एक पुरुष, जो लोगों के लिए परमेश्वर के मन की बातों में सहभागी हो जाएगा, वह परमेश्वर के लिए ऐसे एक हज़ार गुनगुने विश्वासियों से ज़्यादा मूल्यवान होगा जो सिर्फ “एक नई वाचा के नमूने” का ही अनुसरण करते हैं। 

परमेश्वर के मन के अनुकूल चरवाहे होने में बलिदान, असुविधा और पीड़ा होगी। इसका अर्थ होगा कि आप ग़लतफहमियों, विरोध, तिरस्कार और पीठ-पीछे की जाने वाली बुराई को आनन्दपूर्वक सहने के लिए तैयार होंगे। और ऐसे चरवाहे को अगर एक ऐसी पत्नी की भी आशिष मिली हो जो उसकी तरह ही अपने स्वार्थ की खोज में रहने वाली न हो, कि उनका घर प्रभु के लिए इस तरह से खुला रहे कि वह जो चाहे वहाँ कर सके, तब इसकी कोई सीमा नहीं होगी कि परमेश्वर उस जोड़े के द्वारा क्या कुछ कर देगा।

मैं बहुत से लोगों की भीड़ जमा करने की बात नहीं कर रहा हूँ। अब मैं जमा हुए लोगों की गुणवत्ता की बात कर रहा हूँ। बड़ी संख्या कभी परमेश्वर की आशिष का चिन्ह् नहीं होती। अनेक मसीही पंथों और झूठे धर्मों के लाखों सदस्य होते हैं। इससे कुछ साबित नहीं होता है।

यीशु के समय में, उसने अपने चारों तरफ देखा और यह पाया कि लोग ऐसी भेड़ों की तरह थे जिनका कोई चरवाहा नहीं था। आज भी ऐसा ही है। सभी जगहों की एक बड़ी ज़रूरत यही है कि वहाँ परमेश्वर के मन के अनुकूल चरवाहे हों।

पुरानी वाचा में हमें इस्राएल के इतिहास की इतनी विस्तृत जानकारी इसलिए दी गई है कि वह हमें उनके द्वारा की गई ग़लतियों को दिखाए - कि हम उन ग़लतियों से बच सकें। एक समझदार मनुष्य इस्राएल के इतिहास से यह सीख लेगा कि परमेश्वर से दूर हो जाने से कैसे बचा जा सकता है।

यहोशू और दाऊद के समयकाल:

यहोशू एक ईश्वरीय पुरुष था जिसने इस्राएल की उस समय ज़बरदस्त अगुवाई की थी जब उन्होंने कनान में प्रवेश किया था। उसने तब भी अपने पूरे घराने सहित परमेश्वर के पीछे चलने का फैसला किया था जब पूरा इस्राएल परमेश्वर को त्यागने पर था (यहोशू 24:15)। सिर्फ एक ऐसा पुरुष ही, जो ज़रूरत पड़ने पर अकेला खड़ा रहने के लिए तैयार हो, आज किसी कलीसिया को ईश्वरीय अगुवाई प्रदान कर सकता है। यहोशू के जीवनकाल में, इस्राएल ने एक के बाद दूसरी जीत हासिल की थी।

फिर यहोशू की मृत्यु हो गई। उसके बाद जो हुआ, उसमें हम उन बातों को देख सकते हैं कि एक ऐसे पुरुष के पृथ्वी पर उसका काम पूरा करके गुज़र जाने के बाद क्या होता है जिसे परमेश्वर ने एक ख़ास समय में, एक ख़ास काम के लिए और एक ख़ास देश में खड़ा किया होता है।

न्यायियों की पुस्तक में हम पढ़ते हैं कि इस्राएल का पतन कैसे हुआ था। यहोशू की अगुवाई द्वारा जो वेग प्रदान किया गया था, उसकी अगली पीढ़ी कुछ समय तक उसके आवेग में आगे बढ़ी थी। लेकिन फिर वे मूर्तिपूजा में पड़ गए थे। यहोशू के समयकाल में, इस्राएल एक ऐसी रेलगाड़ी की तरह थी जिसे एक शक्तिशाली इंजन द्वारा पहाड़ी पर ऊपर की तरफ ले जाया जा रहा था। जब यहोशू मर गया, तब इंजन गाड़ी से अलग हो गया। उसके बाद दूसरा कोई इंजन नहीं था। इसलिए गाड़ी धीमी होते हुए अंत में रुक गई, और फिर ढलान पर तेज़ी से नीचे की तरफ गई और दुर्घटना-ग्रस्त हो गई!

दाऊद के समयकाल में भी ऐसा ही हुआ था।

शाऊल इस्राएल का पहला राजा था। उसकी शुरूआत बड़ी नम्रता व दीनता में हुई थी, लेकिन वह इस हद तक भटक गया था कि परमेश्वर ने उसके ऊपर से अपना अभिषेक हटा दिया था। शाऊल का जीवन ऐसे आंदोलनों का चित्र है जिनका पतन पहली पीढ़ी में ही हो जाता है - और मसीही जगत में भी ऐसे अनेक लोग हैं!

शमूएल के द्वारा परमेश्वर ने शाऊल को बताया कि अब वह एक ऐसे पुरुष को राज्य देने वाला है “जो परमेश्वर के मन के अनुसार है” (1 शमूएल 13:14)। वह दाऊद था। इस वजह से शाऊल को दाऊद से बहुत ईर्ष्या हो गई। शाऊल को दाऊद से ऐसी घृणा हो गई कि उसने उसे मार डालना चाहा।

फिर भी, इस्राएल के जिन लोगों ने यह जान लिया कि परमेश्वर का अभिषेक अब कहाँ आ ठहरा था, वे दाऊद के साथ जुड़ गए। इस तरह, दाऊद के इर्द-गिर्द लोगों का एक छोटा झुण्ड तैयार हो गया। लेकिन शाऊल पूरे देश में उनका पीछा करते हुए उन्हें सताता रहा, और वे अपनी जान बचाकर उससे भागते फिरते रहे। लेकिन परमेश्वर इस छोटे झुण्ड के साथ था।

लेकिन शाऊल फिर भी बहुत सालों तक इस्राएल के सिंहासन पर बैठा रहा - वैसे ही जैसे आज विश्वास से भटके हुए अनेक मसीही “अगुवे” सालों पहले परमेश्वर के अभिषेक को खो देने के बाद भी अपने झुण्ड पर राज करते रहते हैं। शाऊल के आसपास ऐसे अनेक लोग थे जो उसके बड़े प्रशंसक थे, वैसे ही जैसे अनेक मसीही “अगुवों” के अपने चापलूस समूह होते हैं। ऐसी बड़ी भीड़ का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि परमेश्वर उनके साथ नहीं होता। अनेक ग़ैर-मसीही धार्मिक अगुवों के प्रशंसकों की भी एक बड़ी भीड़ होती है।

कलीसिया के इतिहास ने यह बार-बार प्रमाणित किया है कि परमेश्वर ने हरेक पीढ़ी में उसका सबसे बड़ा काम एक ऐसे छोटे झुण्ड (अल्पमत) के द्वारा ही किया है जो सच्चे/पूरे हृदय से उसके लिए खड़े हुए हैं। ऐसे झुण्ड से घृणा की जाती है, उसे ग़लत समझा जाता है, और मसीही जगत के ऐसे संस्थापित सँगठनों/संस्थाओं द्वारा उन्हें सताया जाता है जिन्हें इस बात की कोई समझ नहीं होती कि उनके समय में परमेश्वर क्या कर रहा है (वैसे ही जैसे शाऊल दाऊद को सता रहा था)।

परमेश्वर ने दाऊद और उसके छोटे झुण्ड को बचाया, और उसने 40 साल तक इस्राएल पर राज्य किया। उसके शासन के बारे में यह लिखा है कि “दाऊद ने परमेश्वर के उद्देश्य के अनुसार अपने युग के लोगों की सेवा की” (प्रेरितों के काम 13:36)।

वहाँ हमारा ध्यान इस बात पर जाता है कि दाऊद सिर्फ उसकी अपनी पीढ़ी में ही परमेश्वर के उद्देश्यों को पूरा कर सका था।

उसकी मृत्यु के बाद, सब बातों का बहुत तेज़ी से पतन हुआ था। उसका पुत्र सुलैमान बहुत बुरी तरह भटक गया था, और उसका अंत एक विनाशक रूप में हुआ था। शुरू में वह उसके ईश्वरीय पिता द्वारा दिए गए वेग के आवेग में आगे बढ़ा था। लेकिन उसमें परमेश्वर के लिए पर्याप्त धुन नहीं थी कि वह उसी दिशा में एक लम्बी दूरी तय कर पाता। धन-सम्पत्ति और स्त्रियों ने उसे भटका दिया (1 राजा 10:23_ 11:1-9) - वैसे ही जैसे हमारे समय के अनेक मसीही प्रचारक भटक गए हैं!

दाऊद और सुलैमान के इतिहास में हम जो पतन देखते हैं, वही कहानी मसीही जगत में बार-बार दोहराई जाती रही है। ऐसे किसी भी आंदोलन या मसीही मत को ध्यान से देखें जो परमेश्वर के साथ शुरू हुआ था, और जो अब अपनी दूसरी या बाद की किसी पीढ़ी में है, तो आपको मेरे कथन का सत्य नज़र आ जाएगा।

ऐसा क्यों होता है? इसका जवाब सहज हैः ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे विश्वासी एक व्यक्ति के रूप में यीशु मसीह से ज़्यादा पवित्र शास्त्र के अक्षर ज्ञान में लिप्त हो जाते हैं। जब कोई मसीही धर्म-सिद्धान्त, मसीह के प्रति व्यक्तिगत भक्ति से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है, तब इसका अचूक परिणाम आत्मिक पतन, स्व-धार्मिकता (स्वयं अपनी बातों में सही) और फरीसीवाद ही होता है।

इफिसुस की कलीसिया:

अब इफिसुस की कलीसिया के इतिहास पर विचार करें। प्रेरित पौलुस वहाँ तीन साल तक रहा था और उसने रात-दिन उन्हें सिखाया था (प्रेरितों 20:27-31)। इस तरह, इफिसुस के मसीहियों ने पौलुस के मुख से सैंकड़ों उपदेश सुने थे। उन्होंने अपने बीच प्रभु द्वारा किए गए अनेक असाधारण चिन्ह्-चमत्कार भी देखे थे (प्रेरितों- 19:11)। उनके बीच में से दो साल के एक छोटे समयकाल में ही परमेश्वर का वचन एशिया माइनर के आसपास के सारे प्रदेशों में फैल गया था (प्रेरितों. 19:10)। उन्होंने नवजागृति का अनुभव पाया था। प्रेरितों के समयकाल की कलीसियाओं में, वे सबसे ज़्यादा सौभाग्यशाली लोग थे; औैर उस समय के एशिया माइनर क्षेत्र की सबसे आत्मिक कलीसिया थी। हम पौलुस द्वारा लिखी गई इफिसियों की पत्री में यह देख सकते हैं कि पौलुस को उनके बीच में ऐसी कोई भूल नज़र नहीं आई थी जिसे सुधारने की उसे ज़रूरत महसूस होती; दूसरी कलीसियाओं को लिखे पत्रें में उसे यह करना पड़ा था।

लेकिन जब पौलुस इफिसुस को छोड़ कर जा रहा था, तब उसने कलीसिया के प्राचीनों को यह कहकर चेतावनी दी थी, “मैं जानता हूँ कि मेरे जाने के बाद फाड़ने वाले भेड़िए तुम्हारे बीच में आएंगे, और झुण्ड को न छोड़ेंगे। और तुम्हारे ही बीच में से ऐसे लोग उठ खड़े होंगे जो चेलों को अपने पीछे खींच लेने के लिए टेढ़ी-मेढ़ी बातें करेंगे” (प्रेरितों. 20:29,30)।

जब तक पौलुस वहाँ था, तब तक किसी भेड़िए ने इफिसुस के झुण्ड में घुसने का दुस्साहस नहीं किया था, क्योंकि पौलुस एक चुस्त द्वारपाल था जिसके पास प्रभु का दिया हुआ अधिकार था (देखें मरकुस 13:34)। लेकिन उसने परख कर यह भी देख लिया था कि वहाँ के अगुवे (प्रभु को) उसकी तरह समर्पित नहीं थे। और इसलिए वह जानता था कि उसके जाते ही जब वे कलीसिया की अगुवाई उनके अपने हाथों में ले लेंगे, तो सब कुछ बहुत जल्दी बिगड़/बिखर जाएगा।

पौलुस ने जब भेड़ियों के घुस आने के बारे में उन्हें सचेत किया था, तब वह इफिसुस में होने वाली बातों की नबूवत नहीं कर रहा था। नहीं। वह सिर्फ एक चेतावनी थी। अगर प्राचीन सिर्फ अपना न्याय स्वयं करने वाले होते, तो यह ज़रूरी नहीं था कि सब कुछ उसकी अग्रघोषणा के अनुसार ही होता। योना ने नीनवे के विनाश की अग्रघोषणा की थी। लेकिन उसकी अग्रघोषणा के अनुसार नहीं हुआ, क्योंकि नीनवे के लोगों ने पश्चात्ताप करते हुए उनके मन फिरा लिए थे। इफिसुस की कलीसिया भी अगर मन फिरा लेती, तो उसे भी पौलुस द्वारा अग्रघोषित बातों का सामना न करना पड़ता। लेकिन उन प्राचीनों ने पौलुस की चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया, और इसलिए वे प्रभु से दूर होते चले गए।

पचास साल बाद, इफिसुस की कलीसिया में सब बातें वास्तव में बहुत बिगड़ चुकी थीं। उनके मसीही धर्म-सिद्धान्त अब भी सही थे और वे अपने मसीही काम की गतिविधियों के प्रति बहुत उत्साहित भी थे। उनके बीच में शायद पूरी-रात की प्रार्थना सभाएं और विशेष सभाएं भी आयोजित हो रही थीं। लेकिन उनकी आत्मिक दशा इतनी ख़राब हो गई थी कि एक कलीसिया के रूप में प्रभु उनकी मान्यता को रद्द करने के लिए तैयार हो गया था। उनका अपराध क्या था? उन्होंने प्रभु के प्रति अपनी भक्ति खो दी थी (प्रकाशितवाक्य 2:4,5)।

इफिसुस की कलीसिया का यह इतिहास हमें क्या सिखाता है? सिर्फ यही - कि कोई मसीही धर्म-सिद्धान्त या धार्मिक गतिविधि स्वयं प्रभु के प्रति एक सरगर्म भक्ति से ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं हो सकते। सच्ची आत्मिकता का सिर्फ एक ही चिन्ह् हैः यीशु के जीवन का हमारे जीवन में एक बढ़ते हुए रूप में प्रकट होते रहना। और यह सिर्फ स्वयं प्रभु के प्रति बढ़ने वाली व्यक्तिगत भक्ति से ही हो सकता है।

पौलुस एक ईश्वरीय व्यक्ति था - एक उत्साही और विश्वास-योग्य प्रेरित जो उसके जीवन के अंत तक प्रभु के प्रति भक्तिपूर्वक समर्पित रहा था। और वह सभी जगह के विश्वासियों को यह चेतावनी देता रहता था कि शैतान उन्हें मसीह की सहज भक्ति से भरमाने की हर सम्भव कोशिश करता रहेगा (2 कुरिन्थियों 11:3)।

पहली पीढ़ी और दूसरी पीढ़ी:

हम देखते हैं कि पौलुस भी सिर्फ उसकी पीढ़ी में ही परमेश्वर के उद्देश्यों को पूरा कर सका था। उसके साथ रहे तीमुथियुस जैसे कुछ लोगों ने उसकी आत्मा को आत्मसात कर लिया था और उन्होंने भी मसीह के प्रति एक निःस्वार्थ भक्ति में अपने जीवन बिताए थे। इसके अलावा, पौलुस उसके द्वारा स्थापित कलीसियों की दूसरी पीढ़ी के विश्वासियों में अपनी आत्मिकता को आगे नहीं बढ़ा सका था। उन्हें परमेश्वर को स्वयं जानना था।

मसीही जगत के इतिहास में, हम यह देखते हैं कि मसीही जगत को अपने पास वापिस लौटा ले आने के लिए परमेश्वर द्वारा भेजा गया हरेक ईश्वरीय सुधारक परमेश्वर के उद्देश्यों को सिर्फ उसकी अपनी पीढ़ी में ही पूरा कर सका था।

परमेश्वर एक देश में, एक ख़ास पीढ़ी में, एक ईश्वरीय भक्त को खड़ा करता है कि वह प्रेरितों द्वारा प्रचार किए गए सत्य से उस देश की कलीसिया को पुनः प्राप्त करे, और इस तरह वहाँ के लोगों को एक ईश्वरीय भक्ति के जीवन में पहुँचाए। धीरे-धीरे उस व्यक्ति के चारों तरफ एक आंदोलन तैयार होने लगता है, और पूरे हृदय से समर्पित कुछ ऐसे लोग जो अपनी पीढ़ी के मसीही जगत की अवास्तविकता और ढोंग-दिखावे से तंग आ चुके होते हैं, उसके आसपास जमा हो जाते हैं। फिर जल्दी ही प्रभु के लिए एक शुद्ध साक्षी तैयार हो जाती है।

ऐसा समूह शुरू में हमेशा छोटा ही होता है, ज़्यादातर मामलों में ग़रीब होता है, और पुरानी कलीसियाएँ उससे बहुत घृणा करती हैं और उसे सताती हैं। और उसका संस्थापक सबसे ज़्यादा घृणित होता है। और यह घृणा उस समूह में से सबसे ज़्यादा तीव्र रूप में आती है जिसे परमेश्वर ने पिछली पीढ़ी में खड़ा किया होता है - क्योंकि उस समूह के वर्तमान अगुवे यह न समझते हुए कि प्रभु उन्हें छोड़ कर जा चुका है, इस नए समूह से ईर्ष्या करते हैं! शैतान भी इस नए समूह पर हमला करने के लिए उनके साथ मिल जाता है - और वह अपना दोष लगाने का काम ज़्यादातर पुराने समूह के “विश्वासियों” द्वारा ही करता है।

लेकिन मनुष्यों और दुष्टात्माओं का सताव और युक्तियाँ परमेश्वर के उस काम को नहीं रोक सकते जिसमें वह नई पीढ़ी में उस मनुष्य के द्वारा अपने नाम के लिए एक शुद्ध साक्षी स्थापित करना चाहता है जिसे उसने खड़ा किया है।

लेकिन संस्थापक के मरने के बाद क्या होता है? लगभग हरेक मामले में, अगली पीढ़ी के अनुयायी अपने अगवे द्वारा सिखाए गए धर्म-सिद्धान्तों पर तो बहुत ज़ोर देते हैं, लेकिन मसीह के प्रति उसकी भक्ति पर उतना ज़ोर नहीं देते। भक्ति का बाहरी रूप तब अति-महत्वपूर्ण हो जाता है, लेकिन उसकी ईश्वरीय शक्ति को अनदेखा कर दिया जाता है। और इस तरह गिरना और सड़ना शुरू हो जाता है।

ऐसे आंदोलन जब उनकी तीसरी पीढ़ी में पहुँचते हैं, तब तक उस समूह के भीतर भ्रष्टता और सड़ाव पूरी तरह फैल चुका होता है। इसके बाद, उस समूह में उस ईश्वरीय भक्ति और आत्मिकता की लेशमात्र पहचान भी नहीं बचती जो उनके संस्थापक की पहचान थी। वे उसके द्वारा प्रचारित धर्म-सिद्धान्तों का ही प्रचार करते हैं और उसके नाम में गौरवान्वित होते हैं - लेकिन वे सिर्फ बेबीलोन ही बनाते हैं।

एक समूह एक आत्मिक आंदोलन के रूप में शुरू हो सकता है, लेकिन फिर भी उसका अंत जैविक और सांसारिक रूप में हो सकता है। असल में, परमेश्वर के एक जन द्वारा शुरू किए गए आंदोलन का अंत एक दिन एक झूठे पंथ के रूप में भी हो सकता है!

कोई भी धर्म-सिद्धान्त, चाहे वह कितना भी महत्वपूर्ण या अच्छा क्यों न हो, वह स्वयं यीशु के प्रति भक्ति की जगह नहीं ले सकता।

इन सभी आत्मिक आंदोलनों के संस्थापक प्रभु को जानते थे। दूसरी पीढ़ी सिर्फ संस्थापक और उसके द्वारा प्रचारित मसीही धर्म-सिद्धान्तों को ही जानती है।

सभी आंदोलनों में एक सबसे आम बात यही होती है, कि जब तक वह उसकी दूसरी पीढ़ी में पहुँचता है, वह धनवान और साधन-सम्पन्न हो जाता है, और उसके सदस्यों के पास बहुत सा धन, अच्छे घर-मकान और भूमि/सम्पत्ति आदि जमा हो जाती है। वह अक्सर सँसार के ज़्यादा नज़दीक होती है, और अपनी इस सारी धन-सम्पत्ति की वजह से वह अपनी आत्मिकता खो देती है। और तब परमेश्वर उस समूह से दूर हट जाता है, और वह बेबीलोन का हिस्सा बन जाती है।

कलीसिया के इतिहास में हरेक सुधारक आंदोलन में यही हुआ है। और हर बार, पहले सुधार के पीछे हट जाने के बाद, परमेश्वर को किसी दूसरी जगह में एक और पुरुष को खड़ा करना पड़ा है, कि वह सुधार का एक और काम कर सके। मसीही इतिहास में “मरने और मर के जी-उठने” की यह प्रक्रिया बार-बार होती रही है। और इस तरह ही परमेश्वर ने पृथ्वी पर अपने नाम के लिए एक छोटी लेकिन शुद्ध साक्षी बनाए रखी है।

इसलिए, जो अपनी पीढ़ी में समझदार हैं, वे यह देखने के लिए अपने आसपास देखेंगे कि हाल में परमेश्वर का अभिषेक कहाँ ठहरा हुआ है - और अपने आपको पूरी तरह ऐसी कलीसिया के साथ जोड़ लेंगे। वे इस बात की परवाह नहीं करेंगे कि पिछली पीढ़ियों में परमेश्वर का अभिषेक कहाँ ठहरा हुआ था। वे यह देखेंगे कि परमेश्वर अभी कहाँ काम कर रहा है, यह नहीं कि वह पिछली या उससे पहले की पीढ़ियों में कहाँ काम कर रहा था।

पवित्र शास्त्र हमें एक स्पष्ट रूप में बताता है कि हम ऐसे लोगों से “दूर रहें जो सिर्फ भक्ति का वेश धारण करते हैं” (2 तीमुथियुस 3:5) और ऐसे लोगों के साथ सहभागिता करें जो “शुद्ध हृदय से प्रभु का नाम लेते हैं” (2 तीमुथियुस 2:22)। वे जिनका हृदय शुद्ध है, वही हैं जो उनके पूरे हृदय से प्रभु से प्रेम करते हैं। ऐसे विश्वासी ज़्यादा धन, या सुख-सुविधा, या आदर-सम्मान की खोज में नहीं रहते। वे किसी धर्म-सिद्धान्त के प्रति नहीं बल्कि स्वयं प्रभु के प्रति भक्तिपूर्वक समर्पित रहते हैं। हमसे आग्रहपूर्वक कहा गया है कि हम हर समय ऐसे विश्वासियों के साथ सहभागिता करने की खोज में रहें।

इस तरह, परमेश्वर का काम, निष्फल हुए बिना, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में बढ़ता है, क्योंकि तब हरेक पीढ़ी में प्रभु ऐसे पुरुषों को तैयार करता रहता है जो भक्ति-पूर्वक उसे समर्पित रहते हैं। और इस तरह, परमेश्वर के उद्देश्यों को रोकने की शैतान की सारी युक्तियाँ नाकाम हो जाती हैं।

अध्याय 21
हृदय के छिपे हुए विचारों का प्रकट हो जाना

शमौन ने यीशु के बारे में नबूवत करते हुए कहा, “यह एक ऐसा मानक स्थापित कर देगा जिसका सब विरोध करेंगे। और इस तरह यह बहुत से हृदयों के विचार प्रकट कर देगा” (लूका 2:34,35 – जे.बी. फिलिप्स भावानुवाद)। इस पुस्तक में हमारे द्वारा कही गई ज़्यादातर बातें और वे मानक जिनका हमने प्रचार किया है, कुछ लोगों को हमारी आलोचना और विरोध करने के लिए उकसाएंगे। इसलिए, समापन में मैं यही कहना चाहूँगाः जब लोगों ने यीशु की इसलिए आलोचना की और उस पर हमला किया क्योंकि उसने जीवन के एक ऊँचे उच्च मानक स्तर का प्रचार किया, तब उन्हें यह समझ नहीं आया था कि अपने कामों और शब्दों द्वारा असल में वे अपने स्वयं के भ्रष्ट हृदय की भीतरी दशा को एक ऐसे रूप में प्रकट कर रहे थे कि अगर यीशु उनके बीच में न आया होता, तो ऐसा कभी न हो पाता।

एक बार जब यीशु कफरनहूम के एक आराधनालय में सिखा रहा था, तब एक दुष्टात्मा-ग्रस्त व्यक्ति चिल्लाने लगा था। अनेक वर्षों तक फरीसी उस आराधनालय में प्रचार करते रहे थे, लेकिन उस व्यक्ति के अन्दर मौजूद दुष्टात्मा शान्त रही थी। लेकिन जैसे ही यीशु ने आकर प्रचार किया, तब उन मनुष्य की भीतरी दशा प्रकट हो गई थी (मरकुस 1:21-27)।

जब-जब यीशु लोगों के बीच में आया, तब-तब उनके हृदयों की दशा प्रकट हो गई थी।

लोगों की नज़र में आराधनालयों के सभी धार्मिक शासक पवित्र नज़र आते थे। लेकिन जब यीशु उनके बीच में आया, तब उनका धोखा देने वाला मुखौटा उतर गया और वे पाखण्डियों और कपटियों के रूप में प्रकट हो गए।

एक बार जब यीशु ऐसे फरीसियों के झुण्ड के बीच था जहाँ वे व्यभिचार में पकड़ी गई एक स्त्री का पथराव करने वाले थे, तब तुरन्त ही उनके हृदय के भीतरी मनोभाव प्रकट हो गए थे - और उन सभी को वहाँ से चले जाना पड़ा था (यूहन्ना 8:3-11)। वे यीशु पर दोष लगाने के लिए कुछ आधार चाह रहे थे (यूहन्ना 8:6)। लेकिन यीशु ने उनसे कहा कि जिसने पाप न किया हो, वही उस स्त्री को पहला पत्थर मारे। और तुरन्त ही उनके हृदय की भीतरी दशा इस तरह प्रकट हुई कि “पहले वृद्ध और फिर एक-एक कर सब जाने लगे!” वरिष्ठ फरीसी हमेशा ही सबसे बड़े पाखण्डी होते हैं!

इस तरह हम देखते हैं, जैसे ही यीशु उनके बीच में आया, परमेश्वर ने एक स्त्री के पाप को भी उन लोगों की दुष्टता का पर्दाफाश़ करने के लिए इस्तेमाल किया जो उस पर दोष लगा रहे थे।

अगर आज हम यीशु के उस शब्द पर ध्यान नहीं देंगे जो हमारे हृदयों से यह कह रहा है, “दूसरों को दोषी न ठहराओ। तुम में से जिसने पाप न किया हो, वही पहला पत्थर मारे,” तो हम भी अंत में फरीसियों की एक ऐसी ही भीड़ में नज़र आ सकते हैं, और फिर अनन्त के लिए यीशु की उपस्थिति में से दूर फेंक दिए जाएँगे। हमारे लिए यही अच्छा है कि हम न्याय का सारा काम, परमेश्वर पर ही छोड़ दें जो एकमात्र सच्चा न्यायी है।

पिलातुस एक ऐसा सर्वशक्तिशाली शासक नज़र आता था जो किसी से न डरता हो और जिसे किसी की राय की कोई परवाह न हो। लेकिन जब यीशु उसके सामने खड़ा हुआ और उससे बातें की, तब फौरन ही पिलातुस की असली दशा प्रकट हो गई। हालांकि वह जानता था कि यीशु निर्दोष है, फिर भी उसने सूली पर चढ़ाने के लिए उसे लोगों को सौंप दिया था। इस तरह, पिलातुस एक ऐसे डरपोक के रूप में प्रकट हो गया जो लोगों की राय से डरता था।

इन सभी मामलों में, हम यह देखते हैं कि लोगों द्वारा यीशु का विरोध करने से स्वयं उनकी भीतरी दशा ही प्रकट हुई थी - और इस तरह शमौन की (ऊपर बताई गई) नबूवत पूरी हुई थी।

आज हम मसीह की देह के अंग हैं, और हमें भी मसीह की देह (स्वयं यीशु) की इसी सेवकाई को पूरा करना है।

आज जब सांसारिक मसीही हमारी इस वजह से आलोचना करते हैं क्योंकि हम भी जीवन के उसी ऊँचे मानक का प्रचार करते हैं जिसका प्रचार यीशु ने किया था, तो वे आलोचक ये नहीं जानते कि ऐसा करने द्वारा असल में वे अपने हृदयों की सांसारिकता को ही प्रकट कर रहे हैं - और ऐसा कभी न हो पाता अगर हम उनके बीच में नई वाचा के मानक का प्रचार करते हुए न आते।

मैं इसका सिर्फ एक ही उदाहरण देना चाहूँगाः हम यह प्रचार करते हैं कि “आर्थिक मामलों में यीशु और प्रेरित हमारे नमूने हैं। उनके काम में एक स्वर्गीय मर्यादा थी इसलिए उन्होंने कभी अपनी या अपनी सेवकाई की ज़रूरतों के लिए कभी किसी से रुपया नहीं माँगा। उन्होंने विश्वासियों से सिर्फ ग़रीबों की मदद करने के लिए कहा।”

सांसारिक प्रचारक और पास्टर (पालक) हमारे द्वारा प्रचार किए जाने वाले परमेश्वर के वचन के इस मानक पर सवाल उठाते हैं, और पुरानी वाचा के लेवीयों का उदाहरण देते हैं। और इस तरह उनके हृदय के निम्न विचार प्रकट हो जाते हैंः

  1. आर्थिक मामलों में वे नई वाचा के इस मानक को अनदेखा करते हैं।
  2. उनका यह अविश्वास कि परमेश्वर उनकी ज़रूरतों को पूरा कर सकता है।
  3. वे इस वास्तविकता से अनजान हैं कि पुरानी वाचा रद्द हो चुकी है, और यह कि अब लेवीय नहीं बल्कि यीशु और उसके प्रेरित हमारा नमूना हैं (इब्रानियों 8:7-13; 12:1,2; 1 कुरिन्थियों 11:1; फिलिप्पियों 3:17)।

यह तो सिर्फ एक उदाहरण है। ऐसे और भी बहुत हैं।

इसलिए, अगर हमारे समय के धार्मिक अगुवे और प्रचारक हमारा विरोध करते हैं (जैसे वे स्वयं यीशु का विरोध करते थे), तो हमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। 20 शताब्दियों पहले जो सेवकाई मसीह की देह (यीशु) ने पूरी की थी, हम वही सेवकाई करते हैं। और इसका नतीजा भी वही होगाः हमारे संदेश के प्रति लोगों का विरोध उनके हृदयों की सांसारिकता को प्रकट कर देगा।

कभी-कभी परमेश्वर उसके लोगों की पीड़ाओं को भी दूसरों के हृदयों की भीतरी दशा प्रकट करने के लिए इस्तेमाल कर लेता है। परमेश्वर ने उन पीड़ाओं के द्वारा जिनमें से अय्यूब गुज़रा था, उसके सम्मुख प्रचार करने आए तीन प्रचारकों की स्व-धार्मिकता और कठोर-हृदयता का पर्दापफ़ाश किया था (अय्यूब 1-42)।

यीशु जब सूली पर लटके हुए पीड़ा सह रहा था, तब अनेक लोगों के भीतरी मनोभाव प्रकट हो गए थे। वहाँ से गुज़रने वाले उसका ठट्ठा उड़ा रहे थे - और इस तरह वे उनके हृदयों की दुष्टता को प्रकट कर रहे थे। दूसरी तरफ, एक रोमी सैनिक की भीतरी निष्ठा भी प्रकट हुई थी, जिसने यह घोषित किया कि निश्चय यीशु परमेश्वर का पुत्र था। सूली पर लटके एक डाकू के हृदय के भीतरी विचार प्रकट हुए, और वह नर्क में गया; लेकिन सूली पर लटकाए गए दूसरे डाकू के मन के विचार प्रकट हुए कि उसने वास्तव में मन फिराया था, और वह स्वर्ग में गया।

मरकुस 3:2 में, हम पढ़ते हैं कि एक दिन यीशु जब एक आराधनालय में आया तो उसके शत्रु उस पर इतने ज़्यादा क्रोधित थे कि वे उसकी आलोचना करने का मौक़ा पाने के लिए “उसकी ताक में थे।” आधुनिक युग के फरीसी भी खरे विश्वासियों की ताक में लगे रहते हैं कि वे उनकी आलोचना करने के लिए उनमें कोई कमी पा सकें।

आप एक व्यक्ति से जितना ज़्यादा क्रोधित होंगे या ईष्या से भरे होंगे, आप उसमें कोई कमी पाने के लिए उस पर उतनी ही ज़्यादा नज़र रखेंगे। और यह हो सकता है कि उसके जीवन में, या उसके घर में, या परिवार में कोई मामूली सी कमी हो (जैसी सभी लोगों में होती है)। लेकिन परमेश्वर उसके सेवकों की मामूली कमियों को उन लोगों की दुष्टता को प्रकट करने के लिए इस्तेमाल करता है जो उन पर दोष लगाते हुए उनका न्याय करते हैं।

प्रभु कहता है, “मेरी प्रजा में दुष्ट लोग पाए जाते हैं। वे चिड़ीमार की तरह ताक में रहते हैं। वे फंदा लगाते हैं और मनुष्यों को फँसाते हैं। उनके घर भी छल से भरे हुए हैं... क्या मैं बैठकर देखता रहूँ और ऐसा दर्शाता रहूँ मानो कुछ नहीं हो रहा है?” (यिर्मयाह 5:26,29)।

आज मसीही जगत में उन फरीसियों के वंशजों की भरमार है जो “दूसरों की ताक में लगे रहते हैं” और परमेश्वर के सेवकों से (उन्हें फँसाने के लिए) सवाल पर सवाल करते हैं। इसलिए, जब हम इनके बीच में “भेड़ियों के बीच में भेड़ों की तरह” आते-जाते हैं, तो हमें “साँप की तरह चतुर” होना है (मत्ती 10:16)।

अगर कोई व्यक्ति बहुत जल्दी पहले दर्जे का एक फरीसी बनना चाहता हो, तो वह “दूसरे विश्वासियों की ताक में रहने द्वारा” ऐसा बन सकता है। अगर आप एक फरीसी बनने से बचना चाहते हैं, तो इस आदत को हमेशा के लिए दूर कर दें - क्योंकि जो भी यह करता है वह एक अच्छे उद्देश्य से, लोगों की मदद करने के लिए ऐसा नहीं करता, बल्कि ऐसा वह सिर्फ उनमें कोई कमी पाने के लिए ही करता है।

फरीसीवाद के ज़हर का तोड़ दया है। इसलिए हम दूसरों के प्रति वैसे ही दयावंत होना सीखें जैसे परमेश्वर ने हम पर दया की है।

जब यीशु इस पृथ्वी पर चलता-फिरता था, तब उसके जीवन के द्वारा परमेश्वर का प्रेम, दया और भलाई प्रदर्शित होते थे। आज, हम भी पवित्र आत्मा (मसीह की आत्मा) से भर सकते हैं, कि हमारे जीवनों के द्वारा भी वही प्रेम, दया और भलाई प्रकट हो सके (जिसकी प्रतिज्ञा रोमियों 5:5 में की गई है)।

हम सभी के जीवनों में ऐसा ही हो।

आमीन।