परमेश्वर के मार्गों को जानिए

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अध्याय 1
परमेश्वर के मार्ग जानना

"परमेश्वर ने मूसा पर अपने मार्ग और इस्राएलियों पर अपने कार्य प्रकट किए" (भजन. 103:7)।

"और अनन्त जीवन यह है कि वे तुझे जो एकमात्र सच्चा परमेश्वर है और यीशु मसीह को जानें जिसे तूने भेजा है" (यूहन्ना 17:3)।

परमेश्वर के काम (उसके चमत्कार भी) देखने, और उसके मार्ग समझने में बहुत बड़ा फ़र्क है।

ज़्यादातर मसीही सिर्फ परमेश्वर के काम ही देखते हैं। वे बाहरी चमत्कारों से प्रभावित रहते हैं। वे बड़ी उत्सुकता के साथ चंगाई और भौतिक आशिषों की खोज में रहते हैं। उनकी प्रार्थनाएं भी ज़्यादातर ऐसे ही पार्थिव मामलों से जुड़ी होती हैं जिसमें वे परमेश्वर को उनकी ओर से काम करता हुआ और उन्हें शारीरिक परिमण्डल में आशिष देता हुआ देखना चाहते हैं। इसकी वजह यही है कि वे अभी तक आत्मिक बालपन की ही अवस्था में हैं।

बाइबल कहती है कि अनन्त जीवन "परमेश्वर और मसीह को जानना है" (यूहन्ना 17:3)

अनन्त जीवन अनन्त अस्तित्व नहीं है। अनन्त जीवन परमेश्वर के जीवन और उसके स्वभाव के लिए इस्तेमाल होने वाला एक अन्य वाक्यांश है।

अनन्त अस्तित्व का अनुभव सभी मनुष्यों को होगा - उन्हें भी जो नर्क में जाएंगे। लेकिन अनन्त जीवन का आनन्द बहुत कम लोगों को होगा। हम परमेश्वर और यीशु मसीह को जितना ज़्यादा जानेंगे, हम उतना ही अनन्त जीवन पाएंगे।

मूसा के दिनों में, सिर्फ मूसा ही परमेश्वर के मार्ग समझ सका था। आज, नई वाचा में, यह विशेषाधिकार हम सब के लिए प्रस्तावित किया गया है।

फिर भी, ऐसे लोग बहुत ही कम हैं जो परमेश्वर और उसके मार्ग जानते हैं, क्योंकि ज़्यादातर विश्वासियों की दिलचस्पी परमेश्वर के बाहरी कामों तक ही सीमित रहती है। और जब वे कोई एक नौकरी मिल जाने, ज़्यादा पैसा कमाने, एक नया घर पा लेने, एक पत्नी या पति मिल जाने, या चंगाई पाने जैसे बाहरी चमत्कारों का अनुभव पाते हैं, तो वे उत्तेजना से भर जाते हैं और इन बातों की फौरन साक्षी देते हैं क्योंकि उनके जीवन में ये बातें उनके लिए सबसे बड़ी होती हैं।

अगर ऐसी बातें हमें अभी तक उत्तेजित करती हैं, तो हमने नई वाचा की महिमा को नहीं देखा है।

लेकिन वे लोग जो परिपक्व हैं, उनका एक चिन्ह् यह होता है कि वे परमेश्वर की बाहरी बातों में उतनी दिलचस्पी नहीं लेते जितनी वे परमेश्वर और उसके मार्ग समझने में लेते हैं।

उदाहरण के तौर पर, हम परमेश्वर और उसके मार्ग समझने से ही यह जान सकेंगे कि "सांसारिकता" वास्तव में क्या होती है।

बहुत से विश्वासी सांसारिकता के बारे में यह सोचते हैं कि वह कोई बाहरी बात है जैसे लिपिस्टिक लगाना, गहने पहनना, भड़कीले कपड़े पहनना, या घर में महंगी इलैक्ट्रॉनिक चीज़े लाना आदि।

लेकिन रोमियों 12:2 यह स्पष्ट करता है कि संसार के अनुरूप होना एक व्यक्ति के मन में होता है। एक व्यक्ति को अपने मन में संसार के अनुरूप न होने से संघर्ष करना पड़ता है और मन के नए हो जाने से उसे परमेश्वर की सिद्ध इच्छा को समझना होता है।

यह हो सकता है कि एक व्यक्ति सांसारिकता की सारी बाहरी बातों से अपने आपको मुक्त कर ले और मनुष्यों के बीच अपनी एक अच्छी साक्षी भी तैयार कर ले, लेकिन फिर भी वह अपनी सोच-समझ में पूरी तरह सांसारिक हो सकता है।

सांसारिकता के बारे में ज़्यादातर विश्वासियों की व्याख्या उनकी अपनी जीवन-शैली पर निर्भर होती है! वे ऐसा महसूस करते हैं कि संसार की भली वस्तुओं में से उनके पास जो कुछ है, वह उन्हें सांसारिक नहीं बनाता। लेकिन अगर किसी व्यक्ति के पास उनसे ज़्यादा है तब वह व्यक्ति सांसारिक है! और जब उनकी जीवन-शैली का स्तर और ऊँचा हो जाता है, तब सांसारिकता के बारे में उनका मापदण्ड उसके अनुसार हो जाता है!

लेकिन कोई विश्वासी सिद्ध मापदण्ड नहीं है। हमारा मापदण्ड सिर्फ यीशु है। सांसारिकता को जानने के लिए यह ज़रूरी है कि हम यीशु को जानें। सिर्फ उसके जीवन की ज़्योति में ही हम यह देख सकते हैं कि क्या सांसारिक है और क्या सांसारिक नहीं है।

धार्मिकता की खोज करते-करते फरीसी स्व-धर्मी बन गए थे क्योंकि वे परमेश्वर को नहीं जानते थे। वे स्वयं परमेश्वर के लिए भूखे और प्यासे हुए बिना धार्मिकता के खोजी हो गए थे।

हम सिर्फ फरीसियों के कामों से बचे रहने द्वारा फरीसीवाद से नहीं बच सकते। उदाहरण के लिए, हम एक फरीसी के कुछ चिन्हों के बारे में सुन सकते हैं और अपने जीवनों से उन बातों को दूर कर सकते हैं। लेकिन वह एक बुरे पेड़ में से उसका फल तोड़ कर फेंक देने जैसी बात है। उसका बुरा फल किसी दूसरी डाल में से निकल आएगा।

एक विश्वासी फरीसीवाद के विभिन्न फलों को अपने जीवन में से दूर करने में अपना पूरा जीवन ख़र्च कर सकता है, और फिर भी यह हो सकता है कि जैसा वह अपने मसीही जीवन के आरम्भ में नहीं था, वह उससे भी बड़ा फरीसी बन सकता है!

लेकिन, जब हम परमेश्वर को जानते हैं, तब हम यह समझ लेते हैं कि अपने आपको स्व-धर्मी होने से बचाने का एकमात्र उपाय यही है कि पेड़ को उसकी जड़ से ही काट दिया जाए।

आजकल हर जगह आयोजित होने वाली "चंगाई सभाओं" के बारे में विचार करें। ऐसी सभाएं आयोजित करने के लिए अज्ञानी विश्वासियों से लाखों-करोड़ों रुपए इकट्ठा किए जाते हैं। ऐसा कोई विश्वासी पाना दुर्लभ ही है जो यह परख कर सकता हो कि ऐसी "व्यावसायिक मसीहियत" में मसीह के आत्मा का कोई भाग नहीं होता। लेकिन जब आप यीशु मसीह को जानेंगे, तब परमेश्वर का सेवक होने का दावा करने वाले हरेक व्यक्ति की तुलना आप स्वयं मसीह से करेंगे।

यीशु के जीवन की ज्योति में यह स्पष्ट हो जाएगा कि प्रभु यीशु और इन तथा-कथित "चंगा करने वालों" में कोई समानता नहीं है। लेकिन अगर आप यीशु मसीह को नहीं जानते, तो ऐसी सभाओं में ऐसी बहुत सी बातें होंगी जो आपको बहुत प्रभावशाली लग सकती हैं, और आप भरमाए जा सकते हैं।

पवित्र-आत्मा ने ज़ोर देते हुए स्पष्ट कहा है कि अंत के दिनों में भरमाने वाली आत्माएं संसार में एक बाढ़ की तरह आएंगी, और बहुत लोग विश्वास से भटक जाएंगे। यीशु ने अकसर अपने शिष्यों को यह चेतवनी दी थी कि वे धोखा न खाएं। उसने धोखे को युग के अंत के पहले लक्षण के रूप में प्रकट किया (मत्ती 24:3,4)। ऐसे धोखे से बचने का सिर्फ एक ही उपाय है कि प्रभु को जानें। तब हम यह परख कर पाएंगे कि परमेश्वर की महिमा किन बातों में है और किनमें नहीं है।

मसीही माता-पिता आजकल बहुत उलझन में हैं कि वे अपने बच्चों को किन बातों की अनुमति दें और किनमें नहीं, स्कूल के किन कार्यक्रमों में भाग लेना उनके लिए सही है और किनमें नहीं, और अपनी बेटियों को वे कैसे कपड़े पहनने की अनुमति दें, आदि, इत्यादि।

क्या हमें सिर्फ अन्य ईश्वरीय भाइयों द्वारा अपनाए जा रहे मापदण्ड अपना लेने चाहिए। बाइबल मानो ऐसा संकेत देती है कि सिर्फ दूसरों की नकल करने से हम डूब सकते हैं। अच्छा तो यही है कि हम दूसरों के विश्वास की तो नकल करें लेकिन उनके कामों की नहीं (देखें इब्रानियों 13:7)। एक भाई के कामों की नकल करने की बजाए हमें उन सिद्धान्तों को समझना चाहिए जिनके अनुसार वह भाई अपने फैसले तक पहुँचा है।

मैं एक उदाहरण के साथ यह बात स्पष्ट करना चाहूँगा। मुझे एक ऐसे भाई के बारे में बताया गया जो, यह जानते हुए कि कम ख़र्च करना ईश्वरीयता का मूल तत्व है, अपने ब्रश में आधा पेस्ट ही लगाता था ताकि वह दोगुनी इस्तेमाल हो सके। लेकिन आप ऐसे काम की रोज़ नकल कर सकते हैं और फिर भी आप कभी ईश्वरीय नहीं बन सकेंगे! हमें उस भाई के द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे कम ख़र्च के सिद्धान्त की नकल करने की ज़रूरत है, यह नहीं कि वह अपने ब्रश में कितना पेस्ट ले रहा है! अगर आपके दाँत ख़राब हैं, तो एक ईश्वरीय व्यक्ति होने पर भी आपको अपने ब्रश में पूरा पेस्ट लगाने की ज़रूरत होगी!

हमारा भावावेश परमेश्वर को ज़्यादा, और ज़्यादा अच्छी तरह से जानना होना चाहिए क्योंकि यही अनन्त जीवन है। हमारा अनन्त परमेश्वर को ज़्यादा, और ज़्यादा जानने में ख़र्च होने वाला है। इसलिए जिसमें परमेश्वर को जानने का आवेग है, उसके लिए अनन्त नीरस नहीं होगा। हमारा पार्थिव जीवन भी फिर नीरस नहीं होगा।

आइए, उत्पत्ति के अध्याय 2 में परमेश्वर ने जिस तरह आदम के साथ व्यवहार किया, उसमें से हम परमेश्वर और उसके मार्गों के बारे में कुछ सीखें। वहाँ हम यह पाते हैं कि वह परमेश्वर था जिसने आदम के लिए एक पत्नी की ज़रूरत को देखा, और उसने उसकी उस ज़रूरत को पूरा करते हुए उसके लिए एक पत्नी बनाई। इसमें हम यह देख सकते हैं कि परमेश्वर का स्वभाव कैसा है। परमेश्वर हमेशा लोगों की ज़रूरतों के प्रति सजग रहता है और उन ज़रूरतों को पूरा करने के लिए वह जो कर सकता है वह करता है।

जब हम इस ईश्वरीय स्वभाव में सहभागी हो जाएंगे, तब हम भी ऐसे ही बन जाएंगे - अपने आसपास के लोगों की ज़रूरतों और मुश्किलों के प्रति सजग रहेंगे और उन्हें पूरा करने के लिए जो कुछ हमसे हो सकता है वह करेंगे!

इसमें अकसर हमें बड़ा बलिदान करना होगा। इसलिए हमें अपने आपसे यह सवाल करते रहने की ज़रूरत है कि क्या हम ऐसे ईश्वरीय स्वभाव में सहभागी होने की क़ीमत चुकाने के लिए तैयार हैं?

हमारा आदम का स्वभाव इस स्वभाव से बिलकुल विपरीत है। आदम का जीवन पूरी तरह से स्वार्थी है और वह हमें सिर्फ अपनी और अपने परिवार की ज़रूरतों के प्रति ही सचेत रखता है। असल में वह स्वार्थ और द्वेष से ऐसा भरपूर है कि वह यह भी नहीं चाहता कि कोई दूसरा भी किसी की ज़रूरत को पूरा करे। इसके विपरीत, वह लोगों को पीड़ा में देखकर आनन्दित होता है।

जब मनुष्य ने पाप किया, तब परमेश्वर ने जीवन के वृक्ष की रक्षा करने के लिए करूबों और चारों दिशाओं में घूमने वाली तलवार को नियुक्त कर दिया था। जीवन का वृक्ष अनन्त जीवन का प्रतीक है - परमेश्वर को जानना। जीवन के वृक्ष के आगे इस तलवार को नियुक्त करने द्वारा परमेश्वर प्रतीकात्मक रूप में आदम को यह दिखा रहा था कि अब अगर कोई जीवन के वृक्ष में से खाना चाहेगा, तो पहले उसे उसकी ख़ुदी से भरे स्वार्थी जीवन पर तलवार के वार का अनुभव करना होगा।

उत्पत्ति 3:21 में हम पढ़ते हैं कि जैसे ही आदम और हव्वा ने पाप किया, परमेश्वर ने अदन में एक पशु की बलि चढ़ाई और उन्हें उस पशु के चमड़े के वस्त्र पहनाए। इसमें भी परमेश्वर उन्हें वही पाठ सीखा रहा था - कि बलिदान और मृत्यु ही अब उनके लिए एकमात्र ऐसा उपाय बचा था जिसके द्वारा अब वे अपने आपको ढांप सकते थे। आदम और हव्वा ने अपने आपको पहले "मृत्यु" बिना ही ढांपना चाहा था - अंजीर के पत्तों द्वारा। लेकिन परमेश्वर ने उन पत्तों को उतार फेंका और उन्हें वह सही तरीक़ा दिखाया जिससे अब उन्हें अपने आपको ढांपना था।

इस तरह हम देख सकते हैं कि परमेश्वर ने आरम्भ से इस बात पर ज़ोर दिया है कि बलिदान ही वह तरीक़ा है जिसके द्वारा मनुष्य उसके साथ संगति कर सकता है और उसका स्वभाव धारण कर सकता है।

परमेश्वर ने कैन से कहा कि उसकी मूल समस्या यह थी कि उसके भाई हाबिल के प्रति उसमें "भला करने की इच्छा नहीं थी" (उत्पत्ति 4:7 कोष्ठक)।

यहूदा ऐसे लोगों के बारे में बात करता है जिन्होंने कैन का अनुसरण किया (यहूदा 11)। वे कौन लोग हैं? ये वही हैं जिनमें अपने भाई का भला करने की इच्छा नहीं है।

हम सभी के लिए अच्छा है कि इस मामले में अपनी आत्मिक जाँच-परख कर लें।

क्या आप ईमानदारी से यह कह सकते हैं कि आप अपनी स्थानीय कलीसिया के भाइयों व बहनों व उनके परिवारों के लिए सर्वश्रेष्ठ चाहते हैं? और क्या आप यह कह सकते हैं कि दूसरे धर्म-मतों के जिन विश्वासियों को आप जानते हैं आप उनके लिए भी सर्वश्रेष्ठ चाहते हैं? फिर इस परिधि को और बढ़ाते हुए आप अपने आपसे यह पूछें कि क्या आप उन सभी लोगों के लिए सर्वश्रेष्ठ चाहते हैं जिन्हें आप जानते हैं, जिनमें आपके रिश्तेदार और वे दुश्मन भी शामिल हैं जिन्होंने आपके साथ कुछ बुरा किया है। अगर किसी दूसरे व्यक्ति या उसके बच्चों के साथ कुछ अच्छा होता है और क्या आप (ख़ुश होने की बजाय) अपने दिल में बेचैनी महसूस करते हैं, या जब उसके या उसके परिवार के साथ कुछ बुरा होता है तो आपके दिल में (दुःख होने की बजाय) ख़ुशी का अहसास होता है, तो ऐसी मनोदशाएं क्या दर्शाती हैं? बस यही कि आदम का जीवन आपके अन्दर जीवित और सक्रिय है।

अगर आप अपने प्रति ईमानदार हैं तो आप जल्दी ही यह जान लेंगे कि आप कैन के मार्ग में चल रहे हैं या नहीं। अगर आप यह चाहते हैं कि परमेश्वर की आग और उसका अभिषेक आपके ऊपर लगातार बना रहे, तो जैसे ही आपको अपने अन्दर आदम का दुष्ट जीवन नज़र आए तो आपको उसे फौरन ही मौत के घाट उतार देना होगा।

गेहूँ का दाना जब भूमि में गिर कर पूरी तरह मर जाता है, सिर्फ तभी ऐसा होता है कि वह बहुत फल लाता है। वह जो अपनी ख़ुदी के लिए पूरी तरह मर जाता है, दूसरे चाहे कुछ करें या न करें, वह कभी बुरा नहीं मानता। वह हमेशा दूसरों का भला ही चाहेगा। वह उससे जुड़े किसी भी मामले में क्रोधित नहीं होगा, और वह कभी किसी से झगड़ा नहीं करेगा। वह स्वयं अपनी ही नज़र में दया का पात्र बन कर अपने लिए कभी एक आँसू भी नहीं बहाएगा - क्योंकि यह बात यक़ीनन सही है कि मृतक अपनी कब्र में आँसू नहीं बहाते!

जब कैन का मनोभाव अपने भाई के प्रति अच्छा नहीं था तो उसका मुख क्रोध से भरा और उतरा हुआ था (उत्पत्ति 4:6)। हमें शायद इसका अहसास न होता हो, लेकिन हमारे हृदय के मनोभाव हमारे मुख पर प्रकट हो जाते हैं। अगर आप दूसरों के लिए हमेशा भला चाहेंगे, तो प्रभु का आनन्द हमेशा आपके मुख पर चमकता हुआ नज़र आएगा।

बहुत से विश्वासी कैन के मार्ग में चल रहे हैं। उनकी फीकी सी मुस्कान, और होठों से निकलने वाले "प्रेज़ द लॉर्ड" के नीचे उनके साथी-विश्वासियों के प्रति ग़लत मनोभाव छुपे होते हैं।

जब लोग आपके खिलाफ़ हो जाते हैं और आपके साथ बुराई करते हैं, तो परमेश्वर आपके हृदय की असली दशा जाँचने के लिए उन्हें इस्तेमाल करता है। अगर आप उनसे प्रेम नहीं कर सकते, तो आपके हृदय की जाँच यह दिखा देगी कि आपने अभी तक परमेश्वर का स्वभाव नहीं अपनाया है, क्योंकि परमेश्वर का स्वभाव वह है जो अपने दुश्मनों से भी प्रेम करता है। यहूदा इस्करियोती के लिए भी यीशु ने भला ही चाहा था।

परमेश्वर सभी लोगों के लिए सर्वश्रेष्ठ चाहता है। सुसमाचार का संदेश यह है कि हम भी इस स्वभाव में सहभागी हो सकते हैं। जिन्होंने सुसमाचार को इस तरह नहीं समझा है, उन्होंने सुसमाचार को समझा ही नहीं है।

जब आदम और हव्वा ने पाप किया, तब परमेश्वर ने उन्हें श्राप नहीं दिया था। परमेश्वर ने सर्प को श्राप दिया था। लेकिन आदम और हव्वा से उसने "स्त्री के वंश" के रूप में मसीह के आने की अद्भुत प्रतिज्ञा की थी (उत्पत्ति 3:15), कि वह आकर सर्प के सिर को कुचले। इस प्रक्रिया में, मसीह की एड़ी भी डसी जाने वाली थी। यह वह क़ीमत थी जो उसे आदम के वंश को उनके पापों से बचाने के लिए चुकानी थी।

यह ईश्वरीय प्रेम है - ऐसा प्रेम जो उनके लिए अपना जीवन बलिदान करने के लिए तैयार रहता है जिनसे वह प्रेम करता है।

जब हम परमेश्वर के प्रेम की गहराई देखते हैं, तब हम यह भी देख पाते हैं कि हममें उसकी कितनी कमी है। अगर हम दस लाख साल तक भी कोशिश करते रहें, तब भी परमेश्वर के इस जीवन को हम अपने अन्दर पैदा नहीं कर सकते। वह हमें परमेश्वर द्वारा दिया जाता है। पवित्र-आत्मा हमारे हृदयों में यही प्रेम भरने के लिए आया है (रोमियों 5:5)। जो व्यक्ति ऐसे बलिदानी प्रेम के सिद्धान्त द्वारा अपना जीवन जीने के लिए तैयार होगा, सिर्फ वही इस पृथ्वी पर परमेश्वर द्वारा उसकी कलीसिया का निर्माण करने में इस्तेमाल किया जा सकता है।

2 इति. 3:1 में हम पढ़ते हैं कि "सुलैमान ने यरूशलेम के मोरिय्याह पहाड़ पर यहोवा का भवन बनाना शुरू किया।" मोरिय्याह पहाड़ वह स्थान था जहाँ इब्राहीम ने अपने पुत्र इसहाक को परमेश्वर को भेंट स्वरूप दिया था (उत्पत्ति 22)। उस पहाड़ पर इब्राहीम ने परमेश्वर के मार्ग को बलिदान के मार्ग के रूप में जान लिया था और वह एक बलिदानी जीवन को समर्पित हुआ था। परमेश्वर ने उस जगह को अलग कर पवित्र ठहराया और यह तय किया कि उस जगह पर 1000 साल के बाद उसका घर बनाया जाएगा। और यही वह जगह है जहाँ परमेश्वर आज भी अपना घर (कलीसिया) बनाता है - अर्थात् ऐसे लोग जिनमें वह इब्राहीम का विश्वास और आज्ञापालन पाता है।

मोरिय्याह पहाड़ पर, प्रतीकात्मक रूप में इब्राहीम उस बात की ठीक उलट बात कह रहा था जो आदम और हव्वा ने अदन की वाटिका में कही थी।

अदन में आदम और हव्वा ने वर्जित फल खाने द्वारा असल में परमेश्वर से यह कहा था कि वह सुख जो उन्हें सृजी हुई वस्तुओं से मिल रहा है, वह उनके लिए स्वयं सृजनहार से बढ़ कर था। और यही वह बात है जो आज भी करोड़ों-अरबों लोग परमेश्वर से कह रहे हैं। "उन्होंने सृष्टि की आराधना और सेवा की, न कि उस सृष्टिकर्ता की जो सर्वदा धन्य है" (रोमियों1:25)।

लेकिन मोरिय्याह पहाड़ पर इब्राहीम ने इससे विपरीत बात कहीः कि उसका परमेश्वर और सृजनहार पृथ्वी पर की उसकी सबसे प्रिय वस्तु (इसहाक) से भी बढ़कर है। और इस बात को साबित करने के लिए वह इसहाक की बलि चढ़ाने के लिए भी तैयार था। जो भी बलिदान के इस सिद्धान्त के अनुसार जीएंगे, परमेश्वर उनका आदर करेगा। जो लोग इस तरह से जकड़े गए हैं, आज भी उन्हीं के द्वारा परमेश्वर का सच्चा घर तैयार किया जा रहा है।

कलवरी के पहाड़ी पर, सिर्फ यही बात सच नहीं थी कि यीशु संसार के पाप के लिए मरा था। वहाँ, यीशु ने उस बलिदान का वह सिद्धान्त भी प्रदर्शित किया जिसके द्वारा परमेश्वर अपना सब काम करता है। कोई भी इसके अलावा किसी दूसरे तरीक़े से प्रभु की सेवा नहीं कर सकता।

जो लोग अपने लिए एक सुख-सुविधा से भरा जीवन चाहते हैं, और इसके साथ ही परमेश्वर की सेवा भी करना चाहते हैं, सिर्फ अपने आपको धोखा ही देते हैं। जो लोग दोनों संसारों (प्राकृतिक व आत्मिक) का सर्वश्रेष्ठ चाहते हैं, वे शैतान द्वारा पूरी तरह भरमाए गए हैं। बहुत लोगों ने बलिदान बिना ही परमेश्वर की सेवा करनी चाही है। लेकिन, उनका प्रतिफल एक निष्फलता के बाद दूसरी निष्फलता ही रहा है!

"मसीह ने कलीसिया से प्रेम किया और अपने आपको उसके लिए दे दिया" (इफि. 5:25)।

कलीसिया का निर्माण करने के लिए, हमें भी उससे इसी तरह प्रेम करना होगा। हमारा धन और समय देना ही काफी नहीं है। हमें अपना जीवन बलिदान करना होगा - हमारी ख़ुदी-का-जीवन।

जब परमेश्वर ने मनुष्य के लिए अपने प्रेम का बयान करना चाहा, तो पृथ्वी पर वह अपने प्रेम की तुलना करने के लिए सिर्फ एक ही उदाहरण दे सका - एक नवजात शिशु के लिए उसकी माँ का प्रेम (देखें, यशा. 49:15)।

अगर आप एक माँ को देखें, तो आप यह देखने पाएंगे कि उसके बच्चे के लिए उसका प्रेम बलिदान की आत्मा से भरपूर होता है। भोर से लेकर रात्रि तक, और पूरी रात भर भी, एक माँ अपने बच्चे के लिए बलिदान पर बलिदान और उससे भी ज़्यादा बलिदान करती रहती है। और उसे बदले में कुछ नहीं मिलता। वह अपने बच्चे के लिए ख़ुशी से एक साल के बाद दूसरे साल पीड़ा और कष्ट सहती रहती है और इसके बदले में उसकी कोई अपेक्षा नहीं होती। परमेश्वर भी हमसे इसी तरह प्रेम करता है। और यही वह स्वभाव है जो वह हमें देना चाहता है।

लेकिन पूरे जगत में ऐसी एक भी संगति पाना असम्भव है जिसके बारे में ईमानदारी से यह कहा जा सके कि वे सभी आपस में एक-दूसरे से इस तरह का प्रेम करते हैं।

ज़्यादातर विश्वासी सिर्फ उन्हीं से प्रेम करना जानते हैं जो उनसे सहमत होते हैं और जो उनके समूह के साथ जुड़ते हैं। उनका प्रेम मानवीय होता है और माताओं के बलिदानी प्रेम जैसा नहीं होता!

फिर भी, हमारा लक्ष्य वह ईश्वरीय प्रेम होना चाहिए जिसकी तरफ बढ़ने के लिए हमें संघर्ष करते रहना है। इसलिए हम जब भी उपरोक्त पंक्तियों को गाएं, तब हमें न सिर्फ ईमानदारी से यह स्वीकार करना चाहिए कि हमारा प्रेम अभी तक ऐसा नहीं है, बल्कि यह अंगीकार भी करना चाहिए कि हमारी यह आशा और अभिलाषा है कि एक दिन हमारा प्रेम भी ऐसा हो जाएगा।

एक माँ को इस बात की चिंता नहीं होती कि उसके बच्चे के लिए दूसरे लोग कुछ बलिदान करते हैं या नहीं। वह स्वयं ख़ुशी से अपना सब कुछ बलिदान करती रहती है। इसी तरह, वे लोग जो कलीसिया को अपने बच्चे की तरह देखते हैं, इस बात की परवाह नहीं करेंगे कि उसके आसपास के दूसरे लोग कलीसिया के लिए कोई बलिदान कर रहे हैं या नहीं। वह स्वयं बलिदान करेगा और उसकी किसी दूसरे के खिलाफ़ कोई शिकायत या माँग नहीं होगी।

वे जो यह शिकायत करते हैं कि दूसरे कलीसिया के लिए कोई बलिदान नहीं करते, असल में वे माताएं नहीं बल्कि वेतन के लिए काम करने वाली दाई समान होते हैं। ऐसी दाई/नर्स के काम का निश्चित समय होता है और जब अगली 8 घण्टे की पाली वाली नर्स समय पर नहीं आती, तो वह शिकायत करने लगती है।

लेकिन एक माँ प्रतिदिन 8 घण्टे की पाली नहीं करती। वह प्रतिदिन - साल-दर-साल - 24 घण्टे की पाली करती है, और उसे इसका कोई वेतन भी नहीं मिलता। उसका बच्चा जब 20 साल का भी हो जाता है, तब भी माँ का काम ख़त्म नहीं होता!

अपने बच्चों के लिए सिर्फ माताओं के पास ही प्रतिदिन दूध होता है। एक दाई/नर्स उन बच्चों को दूध नहीं पिला सकतीं जिनकी वे देखभाल करती हैं। इसी तरह, कलीसिया में जो माताओं की तरह होते हैं, उनके पास हमेशा अपने आत्मिक बच्चों के लिए - हरेक सभा में - एक वचन होता है। बहुत से प्राचीनों के पास कलीसिया के लिए कोई वचन नहीं होता क्योंकि वे माताएं नहीं नर्स होते हैं।

एक माँ अपने बच्चों से वेतन पाने की अपेक्षा नहीं करती। कोई बच्चा अपनी माँ को उसकी सेवा के लिए वेतन नहीं चुकाता। असल में, अगर आप एक माँ के लिए 20 रुपए प्रति घण्टे के हिसाब से वेतन तय करें (जो एक नर्स को मिलता है), तो आप पाएंगे कि एक बच्चा 20 साल की उम्र में पहुँचने पर, अपनी माँ का 30 लाख रुपए का कज़र्दार हो गया होगा! ऐसे कितने बच्चे होंगे जो अपनी माँ का ऐसा कर्ज़ चुका सकेंगे?

अब जो सवाल हमारे सामने आता है, वह यह हैः कौन प्रभु और उसकी कलीसिया के लिए इस तरह काम करने के लिए तैयार है - यीशु के आने तक अपने आपको बलिदान करते हुए, दिन-प्रतिदिन और वर्ष-प्रतिवर्ष, बिना कोई वेतन लिए?

अगर परमेश्वर को ऐसी आत्मा वाला एक व्यक्ति भी कहीं मिल जाए, तो वह अपनी कलीसिया का निर्माण करने में उस व्यक्ति को ऐसे 10 हज़ार गुनगुने विश्वासियों से ज़्यादा इस्तेमाल कर सकेगा जो बलिदान की आत्मा के बिना उसकी सेवा करना चाहते हैं?

जब यीशु पृथ्वी पर वापिस लौटेगा और आप उसके सामने खड़े होंगे, तब क्या पृथ्वी पर आपकी जीवन-शैली के बारे में आपके अन्दर कोई पछतावा होगा, या आप पीछे मुड़ कर यह देख सकेंगे कि आपने अपना जीवन एक उपयोगी रूप में परमेश्वर के राज्य के लिए ख़र्च किया है?

पृथ्वी पर बहुत से लोग एक प्रवाह में बहते हुए अपने जीवन बर्बाद कर रहे हैं।

इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, जागें और परमेश्वर से कहें कि वह आपको यह दिखाए कि उसका मार्ग बलिदान का मार्ग हैं।

जिसके सुनने के कान हों वह सुनें।

अध्याय 2
कुछ महत्त्वपूर्ण सत्य जो मैंने सीखे हैं

एक नया जन्म पाया हुआ मसीह होते हुए पिछले 40 वर्षों के दौरान मैंने कुछ ऐसे महत्वपूर्ण सत्य सीखे हैं जिन्होंने मुझे उत्साहित किया है, और मेरे जीवन को निर्देशित और लक्षित किया है। मैं उन्हें इस आशा से यहाँ आपके साथ बाँट रहा हूँ कि वे आपको भी उत्साहित कर सकें।

1.परमेश्वर हमसे वैसा ही प्रेम करता है जैसा उसने यीशु से किया था

"तूने मुझसे प्रेम किया, वैसे ही उनसे भी किया" (यूहन्ना 17:23)।

मैंने बाइबल में जो सबसे बड़ा सत्य पाया, वह यही है। इसने मुझे एक असुरक्षित, दबे हुए विश्वासी से बदल कर ऐसा बना दिया जो परमेश्वर में पूरी तरह सुरक्षित और प्रभु में आनन्दित - सदा आनन्दित रहता है।

बाइबल में ऐसे बहुत से पद हैं जो यह बताते हैं कि परमेश्वर हमसे प्रेम करता है, लेकिन सिर्फ यही वचन ऐसा है जो हमें उस प्रेम के विस्तार के बारे में बताता है - उतना प्रेम जितना उसने यीशु से किया है।

हमारा स्वर्गीय पिता क्योंकि अपने बच्चों से प्रेम करने में कोई पक्षपात नहीं करता, इसलिए वह निश्चय ही हमारे लिए भी वही सब कुछ करना चाहेगा जो उसने अपने पहलौठे पुत्र यीशु के लिए किया है। वह हमारी उसी तरह मदद करेगा जैसे उसने यीशु की मदद की थी। वह हमारी ऐसे ही देखभाल करेगा जैसे उसने यीशु की देखभाल की थी। उसे हमारे प्रतिदिन के जीवन की बातों को एक योजनाबद्ध तरीके़ से सुनिश्चित करने में वैसे ही दिलचस्पी होगी जैसी यीशु के जीवन की बातों में थी। हमारे जीवन में ऐसा कुछ नहीं हो सकता जिससे परमेश्वर हैरान-परेशान हो जाएगा। उसने हरेक बात का अंत पहले ही निश्चित कर दिया है। इसलिए हमें असुरक्षित महसूस करने की ज़रूरत नहीं है। यीशु की तरह हम भी पृथ्वी पर एक निश्चित उद्देश्य पूरा करने के लिए भेजे गए हैं।

यही बात आपके लिए भी सच है - लेकिन सिर्फ तभी जब आप इस पर विश्वास करेंगे।

ऐसे व्यक्ति के लिए कुछ नहीं होता जो परमेश्वर के वचन पर विश्वास नहीं करता।

2.परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्रेम करता है

"अगर हम ज्योति में चलें जैसे वह ज्योति में है, तो हमारी एक दूसरे के साथ सहभागिता है" (1 यूहन्ना 1:7)।

ज्योति में चलने का अर्थ सबसे पहले यही है कि हम परमेश्वर से कुछ नहीं छुपाते। हम उसे सब कुछ ठीक वैसे ही बता देते हैं जैसा वह है। मुझे इस बात का यक़ीन है कि परमेश्वर की तरफ बढ़ने का सबसे पहला क़दम यही है। परमेश्वर ऐसे लोगों को नापसन्द करता है जो बेईमान हैं। यीशु ने सबसे ज़्यादा कपटी लोगों के खिलाफ़ बोला है।

परमेश्वर सबसे पहले हमसे पवित्र या सिद्ध होने के लिए नहीं बल्कि ईमानदार होने के लिए कहता है। यही सच्ची पवित्रता की शुरूआत है। और इस स्रोत् में से ही सब कुछ प्रवाहित होता है। और अगर ऐसी कोई एक बात है जो हम सबके लिए आसान है, तो वह ईमानदार होना है। इसलिए परमेश्वर के सामने पाप का अंगीकार फौरन कर लें। पापमय विचारों को "भद्र" नामों से न पुकारें। जबकि आपने अपनी आँखों से व्यभिचारपूर्ण लालसा की है, तो यह न कहें, "मैं तो सिर्फ परमेश्वर की सृष्टि की सुन्दरता को निहार रहा था।" "क्रोध" को "धार्मिक रोष" न कहें। अगर आप बेईमान होंगे, तो आप पाप पर कभी जय प्राप्त न कर पाएंगे।

और "पाप" को कभी "एक ग़लती" न कहें, क्योंकि यीशु का लहू आपको सारे पापों से तो शुद्ध कर सकता है, लेकिन आपकी ग़लतियों से नहीं!

सिर्फ ईमानदार लोगों के लिए ही आशा है। फ्जो अपना अपराध छिपाता है, वह सफल न होगा" (नीति. 28:13)।

यीशु ने यह क्यों कहा कि परमेश्वर के राज्य में धर्म-गुरुओं की अपेक्षा चोरों और वेश्याओं के प्रवेश करने की आशा ज़्यादा है। इसलिए क्योंकि चोर और वेश्या पवित्र होने का दिखावा नहीं करते।

बहुत से युवा कलीसियाएं छोड़ कर इसलिए चले जाते हैं क्योंकि कलीसिया के सदस्य उनके सामने अपनी ऐसी छवि प्रस्तुत करते हैं मानो उन्हें जीवन में किसी बात में संघर्ष ही नहीं करना पड़ रहा है। इसलिए वे युवा यह सोच लेते हैं, "इन पुण्य-पवित्र लोगों को हमारी समस्याएं कभी समझ नहीं आएंगी।" अगर हमारे बारे में यह बात सही है तो हम यीशु की तरह नहीं हैं जिसने पापियों को अपनी ओर खींचा था।

3.परमेश्वर ऐसे व्यक्ति से आनन्दित होता है जो हर्ष से देता है

"परमेश्वर हर्ष से देने वाले से प्रेम करता है" (2 कुरि. 9:7)।

यही कारण है कि परमेश्वर मनुष्य को पूरी आज़ादी देता है - मन-फिराव से पहले भी और मन-फिराव के बाद भी, और फिर पवित्र-आत्मा से भरे जाने के बाद भी।

अगर हम परमेश्वर के समान हैं, तो हम दूसरों को अपने वश में रखने की या उन पर दबाव डालने की कोशिश नहीं करेंगे। हम उन्हें यह आज़ादी देंगे कि वे हमसे अलग नज़र आ सकें, हमसे अलग सोच सकें, और आत्मिक तौर पर अपनी रफ्रतार से बढ़ सकें।

किसी भी तरह का दबाव बनाकर मजबूर करना शैतान की तरफ से होता है।

पवित्र-आत्मा लोगों को भरता है, जबकि दुष्टात्माएं लोगों को वश में करती हैं। इसमें यह फ़र्क हैः जब पवित्र-आत्मा किसी को भरता है, तब भी वह उसे यह आज़ादी देता है कि वह अपनी मर्ज़ी से जो चाहे कर सके। लेकिन जब दुष्टात्माएं लोगों को अपने वश में कर लेती हैं तो वे उनकी आज़ादी ले लेती हैं और उन पर क़ब्ज़ा जमा लेती हैं। आत्मा से भरे होने का फल आत्म-संयम है (गलातियों 5:22-23)। लेकिन दुष्टात्मा के वश में हो जाने से आत्म-संयम ख़त्म हो जाता है।

हमें यह याद रखना होगा कि हम परमेश्वर के लिए जो भी काम करते हैं, अगर वह ख़ुशी से, आनन्द के साथ, आज़ादी से और अपनी मर्ज़ी से नहीं किया गया है, तो वह काम मरा हुआ काम है। परमेश्वर के लिए किया गया कोई काम अगर पुरस्कार या वेतन पाने के लिए किया गया है, तो वह भी मरा हुआ काम है। जहाँ तक परमेश्वर की बात है, दूसरों के दबाव में आकर उसे दिया गया धन उसके लिए बिलकुल व्यर्थ है!

किसी दबाव में आकर परमेश्वर के लिए बहुत कुछ करने, या सिर्फ अपने अपराध-बोध को दबाने के लिए किए गए बहुत कुछ से उस थोड़े को ज़्यादा मूल्यवान मानता है जो हर्ष से किया गया है।

4.पवित्रता यीशु की ओर देखने से आती है

"वह दौड़ जिसे हमें दौड़ना है... यीशु की ओर दृष्टि लगाए रखते हुए दौड़ें" (इब्रानियों 12:1-2)।

ईश्वरीयता का भेद उस धर्म-सिद्धान्त में नहीं है कि यीशु हमारी जैसी देह में आया, बल्कि ईश्वरीयता का भेद यीशु के उस व्यक्तिपन में है जो हमारी जैसी देह में आया था (जिसे 1 तीमु. 3:16 एकदम स्पष्ट कर देता है)। बाइबल यह कहती है कि सिर्फ परमेश्वर ही हमें (पवित्र) पूरी तरह पाप से अलग कर सकता है (1 थिस्स. 5:23 में यह इतनी स्पष्टता के साथ बयान किया गया है कि इसे समझने में कोई ग़लती नहीं कर सकता)। फिर भी विश्वासियों के बड़े समूह पवित्र होने के लिए आज भी अपनी ख़ुदी से इनकार करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। पवित्र होने की बजाए वे फरीसी बन जाते हैं।

"वह पवित्रता जिसमें कोई भ्रम नहीं होता" (इफि. 4:24) यीशु में विश्वास द्वारा प्राप्त की जाती है - दूसरे शब्दों में, "यीशु की ओर दृष्टि लगाए रखने से मिलती है।"

अगर हम सिर्फ एक धर्म-सिद्धान्त की तरफ देखते रहेंगे, तो हम फरीसी बन जाएंगे। हमारा धर्म-सिद्धान्त जितना ज़्यादा शुद्ध होगा, हम उतने ही बड़े फरीसी बन जाएंगे।

पृथ्वी पर जिन सबसे बड़े फरीसियों से मेरी मुलाक़ात हुई है, वे सभी ऐसे लोग थे जिन्होंने अपने-ख़ुद-के-प्रयासों द्वारा पवित्रता के सर्वोच्च स्तर पर पहुँच जाने के बारे में प्रचार किए थे। हमें इस बात में सचेत रहने की ज़रूरत है कि कहीं हम भी इनमें से एक न बन जाएं!

यीशु की तरफ देखने का क्या अर्थ है, यह इब्रानियों 12:2 में स्पष्ट किया गया है। सबसे पहले तो हम उसे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखते हैं जिसने पृथ्वी पर रहते हुए प्रतिदिन अपना क्रूस उठाया - "सब बातों में हमारे ही समान परखा गया फिर भी निष्पाप निकला" (इब्रानियों 4:15)। वह हमारा अग्रदूत है (इब्रानियों 6:20) जिसके पद्चिन्हों पर हमें दौड़ना है। दूसरी बात यह कि हमें ऐसे देखना है जो अब "पिता के दाहिने हाथ पर बैठा" हमारे लिए मध्यस्थता करता है और हमारी हरेक परीक्षा और प्रलोभन में हमारी मदद के लिए तैयार रहता है।

5.हमें लगातार पवित्र-आत्मा से भरते रहना है

"पवित्र-आत्मा से परिपूर्ण होते जाओ" (इफि. 5:18)।

अगर हम लगातार "पवित्र-आत्मा" से भरे नहीं जाते, तो जैसा परमेश्वर चाहता है, वैसा मसीही जीवन जीना हमारे लिए असम्भव है। पवित्र-आत्मा के अभिषेक के बिना और उसके अलौकिक वरदानों के बिना परमेश्वर की वैसी सेवा नहीं हो सकती जैसी होनी चाहिए। स्वयं यीशु को भी अभिषेक प्राप्त करने की ज़रूरत थी।

पवित्र-आत्मा इसलिए आया है कि वह हमारे व्यक्तिगत जीवन में और हमारी सेवा में, हमें यीशु जैसा बना दे (देखें 2 कुरि. 3:18)। परमेश्वर हमें पवित्र-आत्मा से भरता है कि वह हमारे चरित्र में हमें मसीह की समानता में बदल दे, और हमें उस तरह से सेवा करने के लिए तैयार कर दे जैसी सेवा यीशु ने की थी। हमारी वह सेवकाई नहीं है जो यीशु की थी, इसलिए हम वह नहीं कर सकेंगे जो यीशु ने अपनी सेवकाई में किया था। लेकिन हम परमेश्वर की सेवा के लिए - हमारी अपनी सेवकाई पूरी करने के लिए - बिलकुल उसी तरह साधन-सम्पन्न हो सकते हैं जैसे स्वयं यीशु था।

इसमें हमारी तरफ से सिर्फ पर्याप्त प्यास और विश्वास की ज़रूरत है कि फिर हममें से होकर जीवन के जल की नदियाँ बह निकलें (यूहन्ना 7:37-39)।

अगर हमें पवित्र-आत्मा के दान-वरदान पाने हैं तो हमें पूरी ईमानदारी से उनकी खोज में रहना होगा (1 कुरि. 14:1)। वर्ना हम उन्हें कभी नहीं पाएंगे।

एक कलीसिया जिसमें आत्मा के वरदान नहीं हैं वह ऐसी ही है जैसे बहरा, अंधा, गूंगा और लंगड़ा व्यक्ति जो ज़िंदा है, लेकिन किसी काम का नहीं है।

6.सूली का मार्ग,जीवन का मार्ग है

"अगर हम उसके साथ मर चुके हैं, तो उसके साथ जीएंगे भी" (2 तीमु. 2:11)। यीशु के जीवन का हमारी देह में से प्रकट होने का इसके अलावा और कोई तरीक़ा नहीं है कि हम अपनी ख़ुदी-के-जीवन की मृत्यु को उन सभी परिस्थितियों में स्वीकार करते रहें जिन्हें परमेश्वर हमारी परिस्थितियों में तैयार करता है और हमारे सामने लाता है (2 कुरि. 4:10,11)।

अगर हमें पाप पर जय पानी है, तो सभी परिस्थितियों में हमें अपने आपको फ्पाप के लिए मरा हुआ" समझना होगा (रोमियों. 6:11)। अगर हमें जीना है तो "आत्मा द्वारा शरीर के कामों को नष्ट करते जाना होगा" (रोमियों 8:13)। पवित्र-आत्मा हमारे प्रतिदिन के जीवन में हमें हमेशा सूली के पास पहुँचाएगा।

हम परमेश्वर द्वारा ऐसी परिस्थितियों में भेजे गए हैं जिनमें हम "दिन भर घात किए जाते" रहेंगे (रोमियों 8:36) और "यीशु के कारण सदा मृत्यु के हाथों में सौंपे जाते रहेंगे" (2 कुरि. 4:11)। ऐसी परिस्थितियों में, हमें यीशु की मृत्यु (2 कुरि. 4:11) को स्वीकार करते रहना होगा कि यीशु का जीवन हममें प्रकट हो।

7.मनुष्य के मत सिर्फ कूड़े के डिब्बे में फेंकने योग्य हैं

"मनुष्य, जिसकी श्वांस उसके नथुनों में है, दूर ही रहो क्योंकि उसका मूल्य है ही क्या?" (यशा. 2:22)।

जब एक मनुष्य की श्वांस उसके नथुनों में से निकल जाती है, तो वह उस धूल से ज़्यादा कुछ नहीं है जिस पर हम चलते हैं। तो हमें मनुष्य के मत को मूल्यवान क्यों मानना है।

अगर हमने इस वास्तविकता में जड़ नहीं पकड़ी है कि कुल मिलाकर सभी मनुष्यों के मत कूड़े के डिब्बे में फेंक दिए जाने के अलावा और किसी काम के नहीं हैं, तो हम कभी भी प्रभावशाली रूप में प्रभु की सेवा नहीं कर पाएंगे। अगर हम हरेक मनुष्य को प्रसन्न करने की कोशिश करते रहेंगे, तो हम मसीह के सेवक न होंगे (गलातियों 1:10)।

परमेश्वर के मत की तुलना में हरेक मनुष्य का मत व्यर्थ है। जो इस हक़ीक़त को मान लेगा, वह अपने जीवन और सेवकाई के लिए सिर्फ परमेश्वर के अनुमोदन की खोज में रहेगा। वह कभी मनुष्यों को प्रभावित करने की अपने आपको उनके सामने सही ठहराने की कोशिश नहीं करेगा।

8.परमेश्वर ऐसी हरेक बात से घृणा करता है जिसे यह संसार महान् समझता है

"वह जो मनुष्यों में अति सम्मानित है, परमेश्वर की दृष्टि में तुच्छ है" (लूका 16:15)।

जिन बातों को संसार में महान् माना जाता है, उनकी न सिर्फ परमेश्वर की नज़र में कोई क़ीमत नहीं है, बल्कि, असल में वह उसकी नज़र में घृणित हैं। परमेश्वर की नज़र में क्योंकि सारा सांसारिक आदर एक घृणित बात है, तो वह हमारे लिए भी घृणित होना चाहिए।

धन संसार में एक ऐसी चीज़ है जो सबकी नज़र में बहुत मूल्यवान है। लेकिन परमेश्वर कहता है कि जो धन से प्रेम करते हैं और धनवान होने की लालसा करते हैं, उन्हें देर-सवेर नीचे दिए इन आठ परिणामों को भोगना ही पड़ेगा (1 तीमु. 6:9,10)।

a. वे प्रलोभन में पड़ेंगे।

b. वे फंदे में फसेंगे।

c. वे मूर्खतापूर्ण लालसाओं में गिरेंगे।

d. वे हानिकारक लालसाओं में फसेंगे।

e. वे बर्बादी के गड्ढे में गिरेंगे।

f. वे नाश होने की दशा में पहुँचेंगे।

g. वे विश्वास से भटक जाएंगे।

h. वे अपने आपको अनेक दुःखों से छलनी करेंगे।

मैंने विश्वासियों के साथ बार-बार ऐसा होते देखा है।

प्रभु की तरफ से आने वाले नबूवत के शब्द को इन दिनों हमारे देश में मुश्किल से ही सुने जाने के मुख्य कारणों में से एक यही है कि ज़्यादातर प्रचारक धन से प्रेम करने वाले हैं। यीशु ने कहा कि परमेश्वर द्वारा सच्चा धन (नबूवत का वचन उसमें शामिल है) उन लोगों को नहीं दिया जाएगा जो पार्थिव धन में विश्वासयोग्य नहीं रहते (लूका 16:11)। यही वजह है कि हम कलीसियाई संगतियों और सभाओं में इतने ज़्यादा नीरस प्रचार और साक्षियाँ सुनते हैं।

9.स्वयं हमारे अलावा कोई हमारा नुक़सान नहीं कर सकता

"अगर तुम अपने आपको भलाई के लिए उत्साही प्रमाणित करो तो तुम्हें हानि पहुँचाने वाला कौन है?" (1 पतरस 3:13)।

परमेश्वर ऐसा सामर्थी है कि वह सब बातों द्वारा उनके लिए भलाई उत्पन्न कर सकता है जो उससे प्रेम करते हैं और उसके अभिप्राय के अनुसार बुलाए गए हैं - अर्थात् वे जिनके जीवनों में परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के अलावा दूसरी कोई महत्वकांक्षा नहीं है (रोमियों 8:28)। जिसकी स्वार्थी अभिलाषाएं हैं, वह इस प्रतिज्ञा का उसके लिए पूरा होने का दावा नहीं कर सकता। लेकिन अगर हम पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा को स्वीकार कर लेंगे, तो हम पृथ्वी के अपने जीवन के हरेक क्षण में इस प्रतिज्ञा के पूरा होने का दावा कर सकते हैं। हमें कुछ भी नुक़सान नहीं पहुँचा सकता।

दूसरे लोग हमारे साथ जो कुछ भी करते हैं - भला या बुरा, अनजाने में या जान-बूझ कर - वह सब रोमियों 8:28 की जाली में से होकर गुज़रेगा और हमारे सर्वश्रेष्ठ के लिए काम करेगा - हर बार वह हमें थोड़ा और मसीह-समान बनाएगा (रोमियों 8:29) - और यही वह भलाई है जो परमेश्वर ने हमारे लिए ठहराई है। जो भी इस पद की शर्तों को पूरा करता है, उसके लिए यह पद पल-प्रतिपल सिद्ध रूप में काम करेगा।

इसके अलावा, 1 पतरस 3:13 हमें बताता है कि अगर हम फ्भलाई करने के लिए उत्साही" रहेंगे, तो हमें कोई नुक़सान नहीं पहुँचा सकेगा। यह अफसोस की बात है कि यह वचन रोमियों 8:28 जितना लोकप्रिय नहीं है। लेकिन हमें अब इसे लोकप्रिय बनाना चाहिए। लेकिन, यह प्रतिज्ञा भी सिर्फ उन्हीं के लिए है जो अपने हृदयों को सभी की भलाई करने के लिए उत्साही बनाए रखते हैं। किसी भी दुष्टात्मा या मनुष्य के लिए ऐसे विश्वासी को नुक़सान पहुँचाना असम्भव होगा।

इसलिए जब भी कोई विश्वासी यह शिकायत करता है कि दूसरों ने उसे नुक़सान पहुँचाया है, तो असल में, वह परोक्ष रूप में यह स्वीकार कर रहा होता है कि वह परमेश्वर से प्रेम नहीं करता, परमेश्वर के उद्देश्य के अनुसार बुलाया नहीं गया है, और वह भलाई करने के लिए उत्साही नहीं है। वर्ना, जो कुछ भी दूसरों ने उसके साथ किया है, उसने उसकी भलाई के लिए ही काम किया होगा, और फिर उसके पास शिकायत करने के लिए कुछ नहीं रह जाएगा।

असल में, अगर आपको कोई नुक़सान पहुँचा सकता है तो वह आप स्वयं ही हैं - और यह आपकी अविश्वासयोग्यता और दूसरों के प्रति ग़लत मनोदशा की वजह से होगा।

इस समय मेरी उम्र 60 साल है और मैं ईमानदारी से कह सकता हूँ कि मेरे पूरे जीवन में कोई मुझे नुक़सान नहीं पहुँचा सका है। बहुत लोगों ने ऐसा करने की कोशिश की है, लेकिन उन्होंने जो कुछ भी किया, उसने मेरी और मेरी सेवकाई की भलाई के लिए ही काम किया है। इसलिए मैं इन लोगों के लिए भी परमेश्वर का धन्यवाद देता हूँ। जिन्होंने मेरा विरोध किया है, वे ज़्यादातर ऐसे तथाकथित "विश्वासी" ही रहे हैं जिन्होंने परमेश्वर के मार्गों को नहीं समझा है। अपनी यह साक्षी मैं आपको सिर्फ यह विश्वास दिलाने में उत्साहित करने के लिए दे रहा हूँ कि यही साक्षी आपकी भी हो सकती है - हमेशा।

10.हममें से हरेक के जीवन के लिए परमेश्वर के पास एक सिद्ध योजना है

"हम मसीह यीशु में उन भले कामों के लिए सृजे गए हैं जिन्हें परमेश्वर ने प्रारम्भ ही से तैयार किया कि हम उन्हें करें" (इफि. 2:10)।

बहुत पहले, जब परमेश्वर ने हमें मसीह में चुना, तो उसने यह भी निश्चित किया कि हमें अपने पार्थिव जीवनों का क्या करना है। हमारा काम अब यह है कि हम दिन प्रतिदिन उस योजना की खोज में रहें और उसका अनुसरण करें। हम परमेश्वर से अच्छी योजना नहीं बना सकते।

जो दूसरे कर रहे हैं, हमें उसकी नकल नहीं करनी है, क्योंकि अपने हरेक बच्चे के लिए परमेश्वर के पास एक अलग योजना है। उदाहरण के तौर पर, युसुफ के लिए परमेश्वर की योजना यह थी कि वह उसके जीवन के अंतिम 80 वर्ष मिस्र के महल में बड़े आराम में गुज़ारे। दूसरी तरफ, मूसा के लिए परमेश्वर की योजना यह थी कि वह मिस्र के महल को छोड़े और उसके जीवन के 80 साल बड़ी तकलीफ में - जंगल में गुज़ारे। अगर मूसा ने युसुफ के उदाहरण का अनुसरण करने की कोशिश की होती, तो वह अपने जीवन में परमेश्वर की इच्छा पूरी करने से चूक जाता।

बिलकुल इसी तरह, परमेश्वर आज यह चाह सकता है कि एक भाई उसके पूरे जीवन भर अमरीका में बड़े आराम से रहे, और दूसरा भाई उत्तर भारत की गर्मी और धूल में अपना जीवन बिताए। अपने जीवन की किसी दूसरे भाई से तुलना करने और उससे ईर्ष्या करने और उसकी आलोचना करने की बजाए, हरेक को अपने स्वयं के जीवन के लिए परमेश्वर की योजना के बारे में आश्वस्त होना चाहिए।

मैं जानता हूँ कि परमेश्वर ने मुझे भारत में सेवा करने के लिए बुलाया है। लेकिन मैंने कभी यह अपेक्षा नहीं की है कि अन्य लोगों की बुलाहट भी मेरे जैसी ही हो।

लेकिन, अगर हम अपने लिए सम्मान चाहते हैं, या धन या सुख-विलास से प्रेम करते हैं, या मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहते हैं, तो हम परमेश्वर की इच्छा कभी नहीं जान पाएंगे।

11.परमेश्वर को आत्मीय रूप में जानना ही सामर्थी होने का रहस्य है

"जो लोग परमेश्वर को जानते हैं, वे सामर्थ्य के काम करेंगे" (दानि. 11:32)।

आज, परमेश्वर यह नहीं चाहता कि हम उसे दूसरों के द्वारा परोक्ष रूप में जानें। वह चाहता है कि सबसे छोटी उम्र के विश्वासी भी उसे व्यक्तिगत रूप में जानें (इब्रानियों 8:11)। यीशु ने अनन्त जीवन की व्याख्या करते हुए कहा कि अनन्त जीवन परमेश्वर और यीशु मसीह को व्यक्तिगत रूप से जानना है (यूहन्ना 17:3)। यही पौलुस के जीवन का सबसे बड़ा मनोवेग था और यही हमारे जीवन का भी सबसे बड़ा मनोवेग होना चाहिए (फिलि. 3:10)।

जो व्यक्ति परमेश्वर को आत्मीय रूप में जानने की अभिलाषा रखता है, उसे हमेशा उसकी बात सुनने वाला होना होगा। यीशु ने कहा कि एक व्यक्ति के लिए स्वयं को आत्मिक रूप में जीवित रखने का बस यही तरीक़ा है कि वह परमेश्वर के मुख से निकलने वाले हरेक शब्द से जीवित रहेगा (मत्ती 4:4)। उसने यह भी कहा कि मसीही जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एक व्यक्ति उसके चरणों में बैठकर उसकी सुने (लूका 10:42)।

हमें भी मसीह के समान प्रतिदिन भोर के समय से शुरू करते हुए सारा दिन पिता की बात सुनने की आदत विकसित करनी चाहिए (यशा. 50:4); और फिर रात के पहर में हमारी नींद में भी हमें सुनने की मनोदशा में ही होना चाहिए - कि अगर रात में हम अपनी नींद में से जागें, तब भी यह कह सकें, "बोल प्रभु, तेरा दास सुनता है" (1 शमु. 3:10)।

परमेश्वर को जानना हमें सब परिस्थितियों में जयवंत बनाता है - क्योंकि परमेश्वर के पास हमारे सामने आने वाली हरेक समस्या का समाधान होता है, और अगर हम उसकी सुनेंगे, तो वह हमें उस समाधान के बारे में बताएगा।

12.नई वाचा पुरानी वाचा से बेहतर है

"यीशु एक उत्तम वाचा का मध्यस्थ ठहरा है" (इब्रानियों 8:6)।

बहुत से मसीही यह नहीं जानते कि पुरानी और नई वाचा में एक बुनियादी फर्क़ है (इब्रानियों 8:8-12)। नई वाचा पुरानी वाचा से उतनी ही उत्तम है जितना मसीह मूसा से उत्तम है (2 कुरि. 3 व इब्रानियों 3)।

जबकि पुरानी वाचा दण्ड के भय और आशिष की प्रतिज्ञा की वजह से एक व्यक्ति का सिर्फ बाहरी जीवन ही शुद्ध कर सकती थी, नई वाचा हमें भीतर से नया करती है, भय या प्रतिज्ञाओं द्वारा नहीं बल्कि पवित्र-आत्मा के हमें मसीह का स्वभाव देने द्वारा - ऐसा स्वभाव जो पूरी तरह शुद्ध और प्रेम से भरा है। एक सुअर को ज़जीर से बांध कर नहला-धुला कर साफ रखने में (व्यवस्था के अधीन दण्डित किए जाने के भय में) और एक बिल्ली के उसके भीतरी स्वभाव की वजह से अपने आपको साफ रखने में बड़ा फ़र्क है। यह उदाहरण दोनों वाचाओं के बीच के फ़र्क को भली-भांति दर्शाता है।

13.हमारी बुलाहट तिरस्कृत होने और मुनष्यों द्वारा सताए जाने की है

"और वास्तव में वे सब जो मसीह यीशु में भक्तिपूर्ण जीवन बिताना चाहते हैं, वे सताए जाएंगे" (2 तीमु. 3:12)।

यीशु ने अपने शिष्यों से कहा कि इस संसार में उन्हें क्लेश सहना होगा (यूहन्ना 16:33); और उसने पिता से प्रार्थना की कि वह उसके शिष्यों को संसार में से न उठाए (यूहन्ना 17:15)। प्रेरितों ने विश्वासियों को यह सिखाया कि वे बड़े क्लेश उठाने के बाद ही स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते थे (प्रेरितों. 14:23)।

यीशु ने कहा कि अगर उन्होंने घर के स्वामी को बालज़बूल (शैतान) कहा है, तो उसके घर के सदस्यों को क्या कुछ न कहेंगे (मत्ती 10:25)। इस तरह ही हम जान पाते हैं कि हम उसके घराने के विश्वासयोग्य लोग हैं। दूसरे "विश्वासियों" द्वारा जो कुछ मुझे कहा गया है उसमें ये शामिल हैंः "शैतान", "शैतान की संतान", "दुष्टात्मा", "मसीह-विरोधी", "धोखा देने वाला", "उग्रवादी", "हत्यारा", "दियुत्रिफेस" हैं। यीशु के घराने का होने की इस तरह की पहचान पाना मेरे लिए बड़े आदर की बात रही है। वे सब जो विश्वासयोग्य रहते हुए यीशु की सेवा करते हैं, उनका यही अनुभव होगा।

यीशु ने यह भी कहा कि एक सच्चे नबी का उसके कुटुम्बियों में कोई आदर न होगा (मरकुस 6:4)। स्वयं यीशु को उसके परिवार के लोगों ने स्वीकार नहीं किया था। आज भी, परमेश्वर का हरेक सच्चा नबी उसके अपने सम्बंधियों द्वारा अस्वीकृत व अपमानित किया जाएगा। एक सच्चे नबी को भी इसी तरह "बदनाम किया जाएगा और मानो संसार का मैल और सब वस्तुओं का कूड़ा-करकट" समझा जाएगा (1 कुरि. 4:13)। पीड़ा और तिरस्कार हमेशा ही परमेश्वर के सबसे बड़े सेवकों का भाग रहा है।

यह शिक्षा की कलीसिया "महाक्लेश" के आरम्भ होने से पहले आकाश में उठा ली जाएगी, बहुत लोकप्रिय है क्योंकि यह सुनने वालों की शारीरिक सोच को बहुत तसल्ली देती है। लेकिन यीशु ने मत्ती 24:29-31 में यह स्पष्ट कर दिया है कि उसके चुने हुओं के लिए उसका आना महाक्लेश के बाद होगा। पूरी नई वाचा में एक पद भी यह नहीं सिखाता कि कलीसिया आकाश में उठा लिए जाने द्वारा महाक्लेश से बच जाएगी। यह धर्म-सिद्धान्त मनुष्य द्वारा इंगलैण्ड में 19वीं शताब्दी के बीच में गाढ़ा गया है।

हमें अपने देश में अब कलीसिया को सताव के लिए तैयार करना है।

14.हमें उन सभी को ग्रहण करना है जिन्हें परमेश्वर ने ग्रहण किया है

"परमेश्वर ने सब अंगों को अपनी इच्छानुसार एक-एक कर देह में रखा है, कि देह में कोई फूट न पड़े परन्तु सब अंग अपने समान एक-दूसरे की चिंता करें" (1 कुरि. 12:18,25)।

परमेश्वर ने अलग-अलग समयकालों में और अलग-अलग स्थानों में ऐसे लोग खड़े किए हैं जिन्होंने उसके लिए सच्ची साक्षी को पुनःस्थापित किया है। लेकिन परमेश्वर के उन जनों के मरने के बाद, उनके अनुयायियों ने अपने समूहों को विशिष्ट, साम्प्रदायिक पंथ बना दिए।

लेकिन मसीह की देह किसी एक समूह से बढ़ कर है, और हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए। मसीह की दुल्हन आज बहुत से समूहों में पाई जाती है।

इसलिए हमें उन सबके साथ संगति करने की अभिलाषा रखनी चाहिए जिन्हें प्रभु ने स्वीकार किया है, हालांकि हमारी और उनकी वचन की व्याख्या में अंतर होने की वजह से हम उनमें से बहुतों के साथ मिलकर काम नहीं कर सकते।

15.हमें हरेक मनुष्य के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करना चाहिए

"हम अपनी जीभ से उन मनुष्यों को श्राप देते हैं जो परमेश्वर की समानता में बनाए गए हैं। हे भाइयो, ऐसा नहीं होना चाहिए" (याकूब 3:9,10)।

ऐसा हरेक शब्द या काम जो मनुष्य को तुच्छ बनाता है, परमेश्वर की ओर से नहीं हो सकता। वह हमेशा शैतान की तरफ से होता है जो हर समय लोगों को नीचा दिखाना और अपमानित करना चाहता है।

हमें सभी लोगों से "नम्रता व श्रद्धा से" बोलने की आज्ञा दी गई है (1 पतरस 3:15), चाहे वे हमारी पत्नी हों, हमारे बच्चे हों, जवान हों, भिखारी हों या शत्रु हों। सभी मनुष्यों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर, जब किसी ग़रीब भाई को कोई भेंट दी जाए, तो वह उसके मानवीय सम्मान को ठेस पहुँचाए बिना देनी चाहिए। हमें उसका भाई होना है उस पर मेहरबानी करने वाला नहीं।

16.हमें अपनी आर्थिक ज़रूरतें सिर्फ परमेश्वर के सामने ही प्रकट करनी चाहिए

"परमेश्वर भी अपने उस धन के अनुसार जो महिमा सहित मसीह यीशु में है, तुम्हारी प्रत्येक आवश्यकता पूरी करेगा" (फिलि. 4:19)।

पूर्ण-कालीन मसीही सेवकों को अपनी सभी आर्थिक ज़रूरतें सिर्फ परमेश्वर के सामने रखनी चाहिए। तब परमेश्वर अपने बच्चों को उनकी ज़रूरतें पूरी करने के लिए कहेगा। उन्हें "परमेश्वर में विश्वास और दूसरे विश्वासियों को इशारे" करते हुए नहीं जीना चाहिए, जैसा कि आज बहुत से लोग जीते हैं।

"प्रभु ने यह निर्देश दिया है कि जो लोग सुसमाचार सुनाते हैं वे सुसमाचार से अपनी जीविका चलाएंगे" (1 कुरि. 9:14)। इसलिए जो लोग पूरा समय प्रभु की सेवा में देते हैं, उन्हें दूसरे विश्वासियों से भेंट स्वीकार करने की अनुमति है, लेकिन उन्हें कभी वेतन नहीं लेना चाहिए। भेंटों और वेतन में बहुत बड़ा फर्क़ है। भेंट अधिकारपूर्वक नहीं मांगी जा सकतीं, जबकि वेतन अधिकारपूर्वक मांगा जा सकता है। बहुत सी मसीही कलीसियाओं और संस्थाओं की पीछे हटी हुई दशा का यही कारण है।

लेकिन हमें अपने व्यक्तिगत या पारिवारिक इस्तेमाल के लिए ऐसे लोगों से कभी भेंट स्वीकार नहीं करनी चाहिए जो हमसे ज़्यादा ग़रीब हों। अगर ऐसे लोग हमें भेंट देते हैं तो वह हमें उनसे भी ज़्यादा ग़रीब लोगों को दे देनी चाहिए, या उस पैसे को प्रभु के काम के लिए दान-पात्र में डाल देना चाहिए।

धन के बारे में ये ऐसी "दस आज्ञाएं" हैं जिन पर ध्यान देने से हरेक पूर्णकालीन सेवक का भला होगाः

1. अपनी आर्थिक ज़रूरतें परमेश्वर के अलावा और किसी को न बताएं (फिलि. 4:19)।

2. अविश्वासियों का धन कभी स्वीकार न करें (3 यूहन्ना 7)।

3. किसी से कभी कोई भेंट की आशा न करें (भजन. 62:5)।

4. कभी किसी को यह अनुमति न दें कि वह आपको या आपकी सेवकाई को धन द्वारा नियंत्रित करने की कोशिश करे।

5. जो आपकी सेवकाई को ग्रहण नहीं करते, आपको उनका धन स्वीकार नहीं करना चाहिए।

6. कभी किसी ऐसे व्यक्ति से अपने या अपने परिवार के लिए धन स्वीकार न करें जो आपसे ज़्यादा ग़रीब है।

7. अपनी आर्थिक ज़रूरतों के लिए कभी किसी मनुष्य पर निर्भर न हों।

8. परमेश्वर के धन को कभी इस तरह इस्तेमाल न करें कि दूसरों को उसके दुरुपयोग होने की शंका होने लगे (2 कुरि. 8:20-21)।

9. जब भी आप धन प्राप्त करें तो उत्तेजित न हों।

10. जब आपको धन की हानि हो तो कभी निराश न हों।

समापन

मेरी आशा है कि ये सत्य आपको न सिर्फ उत्साहित करेंगे बल्कि आपको मुक्त भी करेंगे। अगर आप प्रभु के संग-संग चलने और अपनी सेवकाई के बारे में गंभीर हैं, तो आप अपने प्रतिदिन के जीवन में इन सत्यों को गंभीरता से लेंगे।

अध्याय 3
परमेश्वर की सेवा करने के सिद्धान्त

(सुसमाचारीय मसीही अगुवों को कलीसियाई मिशन और अगुवों के प्रशिक्षण के बारे में अखिल-भारतीय महासभा में दिसम्बर 17, 1991 को दिया गया एक संदेश)।

मैं परमेश्वर के वचन में प्रकाशित वाक्य के अध्याय 4 के बारे में बात करना चाहता हूँ। अध्याय 1 में यूहन्ना को स्वयं अपना प्रकाशन देने के बाद, प्रभु ने अध्याय 2 और 3 में उसे विश्व के उस भाग की अनेक कलीसियाओं की वास्तविक दशा देखने की अंतर्दृष्टि प्रदान की। जैसा कि आप जानते हैं, उनमें से बहुत सी कलीसियाएं बहुत पीछे हट चुकी दशा में थीं। फिर अध्याय 4:1 में प्रभु ने यूहन्ना से कहा, "यहाँ, ऊपर आ!" यह कितना सुन्दर शब्द है!

जब हम अपने आसपास की बातों की दशा देखते हैं, और ऐसी समस्याओं का सामना करते हैं जिनका हमारे पास कोई हल नहीं होता, तब प्रभु को हमसे यह कहते हुए सुनना कितना अच्छा है, "यहाँ, ऊपर आ! अपने उस स्तर पर से नहीं जहाँ से तू अब तक देखता रहा है, लेकिन यहाँ आकर मेरे दृष्टिकोण से इन बातों को देख।" मेरा विश्वास है कि यह एक ऐसा शब्द है जो हमें लगातार सुनते रहने की ज़रूरत है - "यहाँ, ऊपर आ!"

पौलुस ने कहा, "मैं एक काम करता हूँ - जो बातें पीछे रह गई हैं, उन्हें भूल कर आगे की बातों की ओर बढ़ता हुआ लक्ष्य की ओर दौड़ा जाता हूँ जिसके लिए मसीह यीशु ने मुझे ऊपर बुलाया है।" उसने ऊपर आने के उस आह्वान को सुन लिया था और वह चाहे कितना भी ऊँचा पहुँच चुका हो, वह कभी संतुष्ट नहीं होता था।

मसीही अगुवाई में ख़तरा यह है कि हमारा बहुत समय लोगों के सामने रहने में गुज़रता है। हमारी प्रशंसा होती है। और अब तो मीडिया भी हमारे बारे में समाचार देने लगा है। हमारे नामों से पहले शीर्षक और नामों के बाद उपाधियाँ लगी होती हैं! हमें और क्या चाहिए! मैं आपको बताता हूँ कि हमें क्या चाहिए - हमें परमेश्वर के हृदय के ज़्यादा पास आने की ज़रूरत है! हमें और ऊपर आने की ज़रूरत है!

परमेश्वर ने आदम को इसलिए नहीं रचा था कि उसे एक सेवक की ज़रूरत थी। उसने आदम को इसलिए नहीं रचा था कि उसे एक विद्वान की ज़रूरत थी। और उसने मुझे और आपको भी इसलिए नहीं रचा है क्योंकि उसे सेवकों और विद्वानों की ज़रूरत है। उसके पास स्वर्गदूतों के रूप में पहले ही करोड़ों सेवक हैं। आदम को रचने का उसका सबसे पहला कारण यह था कि आदम उसके साथ संगति करे। यही वजह है कि आदम के लिए यह व्यवस्था नहीं थीः "तू 6 दिन काम करेगा और सातवें दिन विश्राम करेगा।" नहीं, वह बाद में मूसा की व्यवस्था के द्वारा आया। आदम को छठे दिन रचा गया था। इसलिए उसका पहला ही दिन - परमेश्वर के लिए सातवां लेकिन आदम के लिए पहला - उसके सृष्टिकर्ता के साथ संगति और विश्राम करने का दिन था। परमेश्वर के साथ संगति के उस दिन से आदम को वाटिका में जाकर अगले 6 दिन तक परमेश्वर की सेवा करनी थी।

और जब हम इस क्रम को भूल जाते हैं - जब हम यह भूल जाते हैं कि उसकी दाख की बारी में उसकी सेवा करने जाने से पहले हमारा उसके साथ संगति करना है - तो हम अपने रचे जाने और छुड़ाए जाने के प्राथमिक उद्देश्य से ही चूक जाते हैं।

हम अपने आसपास की ज़रूरत में इतने उलझ सकते हैं - ख़ास तौर पर भारत जैसे देश में - कि हमारे पास परमेश्वर के साथ संगति करने का समय ही नहीं रहता। हमें ऐसा लग सकता है कि जबकि हमारे आसपास इतनी ज़रूरतें मौजूद हैं जिनका पूरा किया जाना अभी बाक़ी है, तो परमेश्वर के साथ संगति करना समय की बर्बादी होगी। लेकिन ज़रूरत - आधारित काम का क्या परिणाम होता है? शायद और ज्यादा काम तैयार हो जाना - लेकिन ऐसे काम की गुणवत्ता बहुत नीचे स्तर की होगी। आपने शायद यह कथन सुना होगा कि झूठ तीन तरह के होते हैं - काले झूठ, सफेद झूठ और आंकड़े! आंकड़े बहुत भरमाने वाले होते हैं। आजकल सब के पास आंकड़े होते हैं। लेकिन यीशु ने कभी आंकड़ों की परवाह नहीं की थी।

मेरे जीवन में ऐसे समय हुए हैं जब मैं कुछ ख़ास तरह के संकट भरे हालातों में से गुज़रा। एक तो मेरे जीवन के आरम्भ की ही बात है, जब मैं प्रभु की सेवा करना चाह रहा था, और मैं जानता था कि हालांकि मेरे पास वचन था लेकिन मुझमें सामर्थ्य की कमी थी! इसलिए मैंने परमेश्वर से पवित्र-आत्मा का बपतिस्मा पाना चाहा - ऊपर से सामर्थ्य प्राप्त करना चाहा। मुझे मालूम है कि इस बारे में लोगों के मतों में बहुत भिन्नता है - और मैं किसी को बदल के अपने मत के साथ सहमत करना नहीं चाह रहा हूँ। मैं सिर्फ यह कह रहा हूँ कि मेरा नया जन्म हो गया था और मेरा पानी का बपतिस्मा हुआ था, लेकिन मेरे जीवन से "जीवन के जल की नदियाँ" नहीं बह रही थीं। लेकिन मैं जानता था कि यीशु ने कहा है कि जो उस पर विश्वास करेगा उसके अन्दर से जीवन के जल की नदियाँ बह निकलेंगी - वे कभी सूखे हुए नहीं होंगे। लेकिन, बहुत बार, मैं अपने आपको सूखा हुआ पाता था। हालांकि मैं वचन जानता था, और मैं प्रचार भी कर रहा था, फिर भी मैं सूखा हुआ था। बहुत बार प्रभु के लिए मेरी सेवा हैण्ड-पम्प चलाने जैसी बात होती थी। आप शायद इसका मतलब जानते होंगे - आप उसे चलाते रहते हैं और उसमें से कुछ पानी निकलता है। यक़ीनन, वह एक नदी की तरह नहीं होता। फिर भी, मुझे यीशु का शब्द स्पष्ट सुनाई दे रहा थाः "जो मुझमें विश्वास करता है, उसके भीतर से जीवन के जल की नदियाँ बह निकलेंगी।"

मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ, कि मैंने परमेश्वर को खोजा, और वह मुझे मिल गया। और उससे मेरे जीवन की दिशा बदल गई। मैं पैन्ताकुस्तीय कलीसिया का हिस्सा नहीं बना। मैं अपने आपको पैन्ताकुस्तीय या करिश्माई नहीं मानता। लेकिन परमेश्वर मुझे मिला, और उसने मुझे पवित्र-आत्मा से भर दिया।

और फिर वर्षों बाद, मेरे जीवन में एक और संकट आया। वह ऐसा संकट था जिसमें वास्तविकता के मुद्दे के साथ व्यवहार किया गया - कि जो प्रचार मैं कर रहा था, क्या वह वास्तव में मेरे भीतरी जीवन में सच्चा था, और लोगों से बात करते समय जो बोझ मुझ पर नज़र आता था, क्या मैं वास्तव में उसे अपने भीतर उठाए हुए था।

यह लगभग 28 साल पहले की बात है जब देओलाली में पहली ऑल इन्डिया कॉन्फ्रेन्स ऑन ईवैन्जलिज़्म (अखिल भारतीय सुसमाचारीय कॉन्फ्रेन्स) का आयोजन किया गया था। मैंने उसमें एक शोध-पत्र प्रस्तुत किया था। उस समय मैं एक युवा था - सिर्फ 30 वर्ष का था। और जब हम युवा होते हैं तो आप जानते हैं हम कैसे होते हैं। मैं भी सबको प्रभावित करना चाह रहा था। और मेरा शोध-पत्र बहुत प्रभावशाली था, क्योंकि मैंने उसमें बहुत परिश्रम किया था। जीवन से जुड़ी बातों के गहरे विषयों पर बोलने के लिए ऑस्ट्रेलिया व सिंगापुर आदि जगहों में यात्रएं करने द्वारा मेरी सेवकाई आगे बढ़ती रही। और हर जगह, मेरा लक्ष्य लोगों को प्रभावित करना होता था।

तब प्रभु ने मुझसे बात की और मुझसे पूछा, "क्या तू लोगों को प्रभावित करना चाहता है या उनकी मदद करना चाहता है?" मैंने कहा, "प्रभु, मैं उनकी मदद करना चाहता हूँ।" तब प्रभु ने कहा, "तो उन्हें प्रभावित करना बंद कर।" तब मैं अपने जीवन में उस जगह पर पहुँचा जहाँ मुझे प्रभु से यह कहना पड़ा, "प्रभु मेरा भीतरी जीवन मेरे बाहरी प्रचार के साथ सुसंगत नहीं है।" बाहरी तौर पर, मेरी अच्छी साक्षी थी। लेकिन मेरा वैचारिक-जीवन और मेरे मनोभाव - धन के प्रति मेरा मनोभाव - मसीह-समान नहीं थे। मैं अपने मुख से तो मसीह का प्रचार कर रहा था, लेकिन मसीह का आत्मा मेरे विचारों में राज नहीं कर रहा था। और मैंने परमेश्वर के सामने ईमानदारी से यह अंगीकार कर लिया।

मेरा मानना है कि परमेश्वर की तरफ बढ़ने का पहला क़दम ईमानदार होना है।

तब तक मैं काफी ख्याति पा चुका था। मैं पुस्तकें लिख रहा था जिनका व्यापक वितरण हो रहा था। मेरा एक साप्ताहिक रेडियो प्रसारण हो रहा था। और मुझे यहाँ-वहाँ से आमंत्रण मिलते रहते थे। एक दिन प्रभु ने मेरे हृदय से बात की और कहा, "क्या तू इस मण्डली के सामने, जो तेरा बहुत आदर करती है, खड़ा होकर यह कहने के लिए तैयार है कि तू असली नहीं है, कि तू वास्तविक नहीं है।" मैंने कहा, "हाँ, प्रभु! मुझे इसकी परवाह नहीं कि लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं, लेकिन मैं यह चाहता हूँ कि तू मेरा उपचार कर। मैं तुझसे बस यह एक बात चाहता हूँः कि मेरा भीतरी जीवन मेरे बाहरी प्रचार के साथ सुसंगत हो जाए।"

मैंने 23 साल पहले प्रभु से यह माँगा था। परमेश्वर मुझे फिर से मिला था। जो उसे यत्न से खोजते हैं, वह उन्हें आशिष देता है। और प्रभु ने मुझ से कहा, "यहाँ, ऊपर आ जा।"

अब परमेश्वर के साथ संगति - पिछले 22 सालों से - मेरे लिए सबसे मूल्यवान बात है। इसने मेरे जीवन को बदल दिया है और मेरे जीवन से निराशा और तनाव को पूरी तरह से दूर कर दिया है।

मैंने परमेश्वर के संग-संग चलने का भेद जान लिया है। और इस बात ने मेरी सेवा को आनन्द से भर दिया है। अब वह सूखी हुई नहीं है!

आपकी पूरी सेवा आपके व्यक्तिगत रूप में परमेश्वर के संग-संग चलने पर निर्भर होती है। याद करें जब यीशु मरियम और मार्था के घर में था। उसने मार्था से कहा था, "तू बहुत सी बातों की चिंता करती है?" मार्था को किन बातों की चिंता थी? उसे एक ज़रूरत नज़र आ रही थी। और वह प्रभु की सेवा कर रही थी, निःस्वार्थ और बलिदानी भाव से, रसोई में पसीना बहा रही थी - अपने लिए नहीं बल्कि प्रभु और उसके शिष्यों के लिए खाना बना रही थी। अब इससे बढ़ कर वह और क्या सेवा कर सकती थी? उसकी सेवा पूरी तरह निःस्वार्थ थी! और यह सेवा वह पैसों या वेतन के लिए भी नहीं कर रही थी जैसा कि आजकल बहुत से मसीही सेवक कर रहे हैं। नहीं, उसकी सेवा पूरी तरह निःस्वार्थ थी! फिर भी प्रभु ने उससे कहा, "तू बहुत सी बातों की चिंता करती है।" मार्था की सोच में मरियम स्वार्थी थी, जो प्रभु के चरणों में बैठी थी और कोई काम नहीं कर रही थी, सिर्फ बैठ कर सुन रही थी। और प्रभु ने कहा, "यही ज़रूरी काम है। वास्तव में यही सबसे ज़रूरी काम है।"

लिविन्ग बाइबल में 1 कुरि. 4:1 का एक सुन्दर भावार्थ है जो इस तरह हैः "एक सेवक के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह सिर्फ वही करता है जो उसका स्वामी उसे करने के लिए कहता है।" इससे मेरे जीव को बहुत विश्राम मिला है। लेकिन जब मैं अपने आसपास ज़रूरतमंद संसार को देखता हूँ तब मुझे क्या करना चाहिए? मसीही जगत में ऐसे बहुत लोग हैं जो चालबाज़ी से मुझे अपने काम में उलझा देने के लिए तैयार रहते हैं। लेकिन मैं प्रभु से कहता हूँ, "मैं तेरी सुनना चाहता हूँ।" ऐसी बहुत सी मार्थाएं हैं जो मेरी आलोचना करेंगी, और यह कहेंगी, "उससे कहो कि सुनने में अपना समय बर्बाद न करे जबकि एक ज़रूरतमंद जगत पाप में नाश हुआ जा रहा है।"

हमें जगत की ज़रूरत की तरफ ज़रूर ध्यान देना है। यीशु ने कहा, "अपनी नज़रें उठा कर देखो कि फसल तैयार है।" हमें ज़रूरत को देखना है और उसे दूसरों को भी दिखाना है। हाँ, यह होना है, लेकिन इसकी बुलाहट मनुष्यों की ओर से नहीं बल्कि परमेश्वर की ओर से आनी चाहिए। मैंने इस बात को खोज कर जान लिया है।

यह संसार जबकि एक मुक्तिदाता की ज़रूरत महसूस करते हुए मर रहा था, यीशु 4000 साल तक स्वर्ग में बैठा रहा। पिता के ठहराए हुए समय से पहले कोई उसे स्वर्ग छोड़ने के लिए मजबूर नहीं कर सकता था। लेकिन, "जब समय पूरा हुआ", तब वह आया। और पृथ्वी पर आने के बाद भी, वह 30 साल तक मेज़ और कुर्सियाँ बनाता रहा जबकि जगत मर रहा था! सिर्फ ज़रूरत को देखते हुए वह कार्यशील नहीं हो गया था। लेकिन जब समय हुआ, तब पिता ने कहा, "जा!" और वह गया। और उसने साढ़े तीन साल में वह किया जो दूसरे 3000 सालों में भी नहीं कर पाए थे। एक सेवक के लिए सबसे ज़रूरी बात यह नहीं है कि वह परमेश्वर के लिए यह या वह या और कुछ भी करता हुआ घूमें, बल्कि यह कि वह उसकी सुनें। सुनना मुश्किल काम होता है।

अपनी युवावस्था में मैं एक संगति में था जहाँ हम नियमित पवित्र-शास्त्र का अध्ययन, उपवास और प्रार्थना करते थे। प्रत्येक सुबह हमें यह सिखाया जाता था कि हम प्रभु के साथ "शांत समय" व्यतीत करें - जो एक ऐसी अच्छी आदत है जिसकी सलाह मैं सबको देना चाहूँगा। लेकिन परमेश्वर की तथाकथित प्रत्यक्ष उपस्थिति में घण्टों गुज़ारने के बाद भी लोग फिर भी खट्टे, कड़वे, अभद्र, दोष लगाने वाले, आलोचना करने वाले और शंका करने वाले थे... कहीं कुछ तो ग़लत था। मुझे ऐसे समय याद हैं जब एक ईश्वरीय/आत्मिक व्यक्ति के साथ सिर्फ 10-15 मिनट बिताने के बाद ही मेरे विश्वास को चुनौती दी गई थी और मुझे परखा गया था। तो क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि स्वयं परमेश्वर के साथ 10-15 मिनट बिताने पर क्या हो सकता है? तब ऐसा क्यों हो रहा था कि हममें से कोई बदल नहीं रहा था? प्रभु ने मुझे दिखाया कि मैं अपना शान्त समय उसके साथ नहीं बिता रहा था। मैं वह समय अपने साथ बिता रहा था। मैं सिर्फ एक पुस्तक का अध्ययन कर रहा था - और इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था कि मेरे सामने रखी पुस्तक बाइबल थी या रसायन-शास्त्र की एक पाठ्य-पुस्तक। मैं परमेश्वर के साथ समय व्यतीत नहीं कर रहा था - मैं उसकी नहीं सुन रहा था। मैं सिर्फ एक पुस्तक का अध्ययन कर रहा था!

यीशु ने मरियम के बारे में एक बात कही, "असल में, एक ही बात ज़रूरी है... सुनना।" और उसमें से ही सब कुछ प्रवाहित होता है। और यह प्रभु की सेवा करने का बहुत सक्षम तरीक़ा है क्योंकि तब वह आपको बता सकता है कि वह आपसे क्या चाहता है!

पिता ने यीशु को बताया कि उसे क्या करना है। एक बार यीशु को पवित्र-आत्मा ने गलील से सुरूफिनिक्के तक 50 मील जाने के लिए कहा जो इस्राएल की सीमा से बाहर था। मुझे नहीं मालूम कि उसे वहाँ तक पहुँचने में कितना समय लगा होगा - शायद एक पूरा दिन। वहाँ उसे एक ग़ैर-यहूदी स्त्री मिली जिसकी बेटी में एक दुष्टात्मा थी। उसने उस दुष्ट आत्मा को निकाला, और जब उस स्त्री ने बच्चों की मेज़ पर से गिरने वाले चूरे की ही माँग की, तो उसने शिष्यों को उसके बड़े विश्वास पर ध्यान देने के लिए कहा। फिर वह गलील वापिस आ गया। यीशु ने इस तरह अपना जीवन बिताया है। सिर्फ एक आत्मा के लिए वह इतनी दूर तक गया। आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए, तो यह कोई बहुत प्रभावित करने वाली बात नहीं थी! लेकिन यह बात परमेश्वर की इच्छा में थी।

यीशु ने इस तरह से साढ़े तीन साल तक सेवा की। और इस समयकाल के पूरा होने पर उसने कहा, "हे पिता, जो काम तूने मुझे करने के लिए दिया था, उसे पूरा करके मैंने पृथ्वी पर तेरी महिमा की है" (यूहन्ना 17:4)। क्या उसने जगत की सारी ज़रूरत को पूरा कर दिया था - भारत में, अफ्रीका में? नहीं। उसने उस सारी ज़रूरत को पूरा नहीं किया था। लेकिन उसने उस काम को पूरा कर दिया था जो पिता ने उसे करने के लिए दिया था। और उसके बाद उसने पृथ्वी पर एक दिन भी ज़्यादा गुज़ारना न चाहा था। प्रेरित पौलुस भी अपने जीवन के अंत में यह कह सका था, "मैंने अपनी दौड़ पूरी कर ली है।"

मसीह की देह में मेरी अलग बुलाहट है और आपकी अलग बुलाहट है। लेकिन हममें से हरेक को यह समझ आना चाहिए कि परमेश्वर हमसे क्या चाहता है। परमेश्वर की आवाज़ के प्रति हमारे बहरा हो जाने का एक कारण हमारे जीवनों में मौजूद अवास्तविकता है - बेईमानी और दिखावा।

जो कुछ यीशु कह रहा था, फरीसी वह इसलिए नहीं सुन पा रहे थे क्योंकि वे एक दिखावे का जीवन जी रहे थे। वे दूसरों के सामने ऐसी छवि प्रस्तुत कर रहे थे कि वे ईश्वरीय हैं। वे लोगों के सामने अपने समयकाल के अगुवों और विद्वानों के रूप में खड़े होते थे। पतरस या यूहन्ना की यीशु से मुलाक़ात होने से पहले अगर आप उनसे मिले होते और आपने उनसे पूछा होता, "पतरस, यूहन्ना, क्या तुम मुझे किसी ईश्वरीय व्यक्ति का नाम बता सकते हो जिसे तुम जानते हो?", तो उन्होंने आपको अपने स्थानीय आराधनालय के किसी प्राचीन फरीसी का ही नाम बताया होता। क्योंकि उनकी यही समझ थी - कि जो लोग वचन का अध्ययन करते हैं, उपवास करते हैं, अपने मस्तकों को पवित्र-शास्त्र के वचनों को टीके की तरह लगाते हैं, और बहुत पवित्र व पुण्य नज़र आते हैं, वे ही वास्तव में ईश्वरीय लोग होते हैं। तब आप उस आघात की कल्पना कर सकेंगे जो उन्हें तब लगा होगा जब उन्होंने यीशु को आराधनालय के प्राचीनों को ऐसे पाखण्डियों की टोली के रूप में धिक्कारते हुए सुना होगा जो नर्क में फेंके जाने लायक़ थे।

जब यीशु ने अपने शिष्यों को चुना, तो उसने किसी बाइबल स्कूल में से एक भी शिष्य नहीं चुना था। उन दिनों यरूशलेम में गमलीएल द्वारा एक बाइबल स्कूल चलाया जा रहा था। लेकिन अपने शिष्य चुनने के लिए यीशु वहाँ नहीं गया था। उसने गलील की झील के किनारे से अपने शिष्य चुनें - अनपढ़ लोग - और उसने उन्हें अपने प्रेरित बनाया। और उन्होंने वे पुस्तकें लिखीं जो अब बाइबल सेमिनरियाँ लोगों को देती हैं, कि उनका अध्ययन करने के बाद उन्हें धर्म-ज्ञान के निष्णात् (डॉक्ट्रेट) की उपाधि दी जा सके! क्या यह अद्भुत बात नहीं है? मेरा ख़्याल है कि स्वयं पतरस भी हमारी किसी सेमिनरी में से धर्म-ज्ञान के निष्णात् (डॉक्ट्रेट) की उपाधि प्राप्त नहीं कर पाता। शायद एक शिष्य ऐसी उपाधि प्राप्त कर लेता - यहूदा, जो उनमें सबसे से ज़्यादा चतुर और होशियार था।

यीशु ने ऐसे लोग क्यों चुनें? वे सहज-हृदय लोग थे जो उसकी सुनने के लिए तैयार थे। जब ये सामान्य लोग किसी आराधनालय में जाते और प्रचार करते थे, तो कैसी हलचल मच जाती थी। वे ऐसे संदेशों का प्रचार नहीं करते थे जो वहाँ लोग नियमित रूप में सुनते रहते थे। वे नबी थे। और लोगों ने नबियों को कभी पसन्द नहीं किया है। इस्राएल के इतिहास के 1500 सालों में, जैसा कि स्तिफनुस ने कहा था, "तुम्हारे पूर्वजों ने नबियों में से किसे नहीं सताया?"

वे प्रेरित कूटनीतिपूर्ण वक्ता नहीं थे। वे नबी थे। और मेरा मानना है कि इस समय हमारे देश में अगर कुछ नबी हों तो हमें यह सुनने को मिल सकता है कि परमेश्वर क्या कह रहा है। परमेश्वर को उसमें दिलचस्पी नहीं होती जो मनुष्यों की नज़र में बड़ा और महान् होता है।

मैं ऐसी सभाओं के खिलाफ़ नहीं हूँ। लेकिन मैंने 20 साल पहले ऐसी सभाओं में जाना बंद कर दिया था। अब मैं ऐसी सभाओं के आमंत्रण अस्वीकार कर देता हूँ। मैं जानता हूँ कि ऐसी सभाएं एक व्यक्ति को लोकप्रिय बना सकती हैं। आप सुर्ख़ियों में आ सकते हैं। लेकिन अपने देश के गाँवों में घूमने के बाद - जहाँ अब मेरी ज़्यादातर सेवकाई है - कि असली काम करने वाले लोग ऐसी सभाओं का हिस्सा नहीं होते। वे अज्ञात होते हैं और ऐसे दूर के गाँवों में होते हैं। वे अंग्रेज़ी नहीं बोल सकते और उन्हें कोई शोध-पत्र प्रस्तुत करना नहीं आता। लेकिन वे आत्मा से भरे हैं, और वे प्रभु से प्रेम करते हैं, और वे बाहर जाते हैं और खोई हुई आत्माओं को मसीह के पास लाते हैं। ऐसे लोगों के लिए परमेश्वर की स्तुति हो। दूसरे मिशन-कार्यक्रम आयोजित करते हैं और आदर पाते हैं। लेकिन ऐसे बहुत हैं जो आज पहले स्थान पर हैं जो यीशु के आने पर अंतिम स्थान में पाए जाएंगे। इसलिए हमारे लिए नम्र और दीन होना भला है। यह अच्छा है कि हम अपने आपको नीचा समझें। हमारी उपाधियों और शीर्षकों की वजह से दूसरे लोग हमें जितना बड़ा समझते हैं, शायद हम परमेश्वर की नज़र में उतने बड़े नहीं हैं। इनसे मनुष्य तो प्रभावित हो सकते हैं, लेकिन परमेश्वर नहीं। असल में, इनसे शैतान भी प्रभावित नहीं होता। शैतान एक पवित्र जन से डरता है, उससे जो वास्तविक है, ऐसा व्यक्ति जो अन्दर से जैसा है बाहर भी वैसा ही है, ऐसा व्यक्ति जो उन बातों का कभी प्रचार नहीं करता जिनका वह अभ्यास नहीं करता।

लोग मुझसे पूछते हैं, "भाई ज़ैक, आप लोगों से उत्तर भारत में जाने का आग्रह क्यों नहीं करते?" मेरा जवाब होता है, "यीशु ने जो किया, उसने पहले वही सिखाया" (प्रेरितों. 1:1)। मैं उत्तर भारत में नहीं रहा हूँ। इसलिए मैं दूसरों से ऐसा करने के लिए नहीं कह सकता। मैं यह नहीं कह रहा कि ऐसा नहीं होना चाहिए। मैं सिर्फ यही कह रहा हूँ कि जो मैंने नहीं किया, वह मैं सिखा भी नहीं सकता।

और फिर, मैं मसीह की पूरी देह भी नहीं हूँ। मैं सिर्फ उसका एक हिस्सा हूँ। मैं मसीह की देह का एक असंतुलित हिस्सा हूँ। और मैं हमेशा असंतुलित ही रहूँगा। पृथ्वी पर चलने वाला एकमात्र संतुलित व्यक्ति यीशु मसीह था। आप असंतुलित हैं, और मैं भी असंतुलित हूँ। हम में से कोई यह न सोचे कि हम एक भाग से बढ़ कर कुछ हैं। हरेक भाग की ज़रूरत है - प्रचारक, शिक्षक, पालक, नबी व प्रेरित - कि लोग मसीह की देह के अंग बन सकें और उस देह का निर्माण हो सके।

हमारी बुलाहट क्या है? वह यह है कि जो मसीह की देह का अंग नहीं है, उसे मसीह की देह का अंग बनाएं। क्या यही हमारी बुनियादी बुलाहट नहीं है? मेरा ख़्याल है हम सभी इस बात पर सहमत होंगे।

पवित्र-आत्मा ने क्योंकि फ्देह" शब्द का उपयोग किया है, तो मैं शारीरिक देह में से एक उदाहरण देना चाहूँगा। मान लें कि यहाँ एक प्लेट रखी है जिसमें एक आलू है (जो प्रतीकात्मक रूप में एक अविश्वासी है), और जिसे मेरी देह का हिस्सा बनना है। तो यह कैसे होगा? सबसे पहले यह सुसमाचार के संपर्क द्वारा होगा - हाथ का बढ़ना और उस आलू को उठा लेना।

इस सेवकाई में, सुसमाचार प्रचार सबसे पहला काम होता है। यही वजह है कि मैं कभी सुसमाचार संपर्क की क़ीमत को कम करके नहीं आँकता। मैं इसे बहुत मूल्यवान मानता हूँ, ख़ास तौर पर उन्हें जिनके द्वारा यह उत्तर भारत की गर्मी और धूल में किया जा रहा है। मुझे उनकी पत्रिकाएं पढ़ने में दिलचस्पी रहती है - मेरे घर में ऐसी कुछ पत्रिकाएं आती हैं - कि मैं अपने उन प्रिय भाइयों के बारे में पढ़ सकूँ जो वहाँ मज़दूरी कर रहे हैं। मैं कभी-कभी उनमें से किसी किसी से मिलने के लिए जाता भी रहा हूँ।

तो यह मेरा हाथ है जो आलू को ले रहा है। अगर "सुसमाचार प्रचारक" (मेरा हाथ) बाहर जाकर "सुसमाचार संपर्क" नहीं करेगा (उसे मेरे मुँह में नहीं डालेगा), तो आलू कभी मेरी देह का हिस्सा नहीं बन सकेगा।

लेकिन क्या इतना ही होना है? अगर मैं उस आलू को अपने मुँह में रखे रहूँगा तो क्या वह मेरी देह का हिस्सा बन जाएगा? नहीं, ऐसा नहीं होगा। कुछ समय के बाद वह मेरे मुँह में सड़ जाएगा और मैं उसे अपने मुँह में से बाहर थूक दूँगा। हमारी कुछ कलीसियाओं में मन फिराए हुए कुछ लोग इस तरह सड़ते हैं! उन्हें लेकर मुँह में रख दिया जाता है।

लेकिन उस आलू के साथ कुछ और होना बाक़ी है। उसे मेरे दाँतों द्वारा चबाया और मसला जाना है। आलू फिर यह कल्पना कर सकता है कि अब सब पूरा हो गया है। लेकिन सब कुछ पूरा नहीं हुआ है! आलू फिर मेरे पेट में जाता है, और वहाँ उसे पता चलता है कि उस पर निर्दयतापूर्वक अनेक रसायन (तेज़ाब) उण्डेले जा रहे हैं। यह कलीसिया में नबूवत की सेवकाई की तस्वीर है। आप जानते हैं कि अगर हम पर तेज़ाब उण्डेला जाए तो उससे हमें कोई आराम नहीं मिलेगा। प्लेट में से उठाए जाने की सौम्य सेवा बड़ी मनोहर थी। लेकिन जब हम पर तेज़ाब उण्डेला जाता है, तब उसमें कुछ भी मनोहर नहीं होगा। आलू अब पूरी तरह से टूट चुका है और अब वह आलू जैसा नज़र नहीं आ रहा है। और कुछ समय बाद वह मेरे माँस, लहू और हड्डी का हिस्सा बन जाता है - मेरी देह का एक अंग!

अब, इस काम में किसका काम सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण था। हममें से किसकी ऐसी सेवकाई है जिसमें हमने दूसरे से नहीं पाया है? अगर हम नम्र व दीन है, तो हम स्वीकार कर लेंगे कि हम असंतुलित हैं। हाथ पेट से ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। वे एक-दूसरे के पूरक हैं। लेकिन यह एक दुःखद बात है कि मसीहियत में अंगों के बीच निरंतर संघर्ष होता रहता है - हाथ अपना राज स्थापित कर लेता है, पेट अपना राज स्थापित कर लेता है, और मुँह अपना राज स्थापित कर लेता है। तब हम क्या पाते हैं? एक देह नहीं बल्कि एक "दैहिक अवयव-शाला" पाते हैं। एक मुँह यहाँ है, एक पेट वहाँ है, एक हाथ इधर है, और एक पैर उधर है। यह कोई देह नहीं है!

हमें सबसे ज़्यादा किस बात की ज़रूरत है? हाँ, यह सच है कि हमें शिक्षा की ज़रूरत है, लेकिन सब से बढ़कर हमें नम्रता की ज़रूरत है। हमें यह समझने की ज़रूरत है कि हरेक अंग समान रूप से महत्वपूर्ण है - हरेक अंग मसीह की देह में है। इस सेवकाई में एक मिशन का बड़ा अगुवा एक ऐसे ग़रीब भाई से ज़्यादा मूल्यवान नहीं है जो सही तरह अंग्रेज़ी नहीं बोल सकता, लेकिन वह जाता है और मसीह के लिए आत्माएं लेकर आता है। वे सभी एक ही देह के अंग हैं।

"यहाँ, ऊपर आ!" प्रभु कहता है, "और सब बातों को मेरी नज़र से देख।" एक पार्थिव नज़रिए से देखने की बजाय जब बातों को परमेश्वर के नज़रिए से देखा जाता है, तो वे बहुत अलग नज़र आती हैं।

ऐसा क्यों है कि अनेक मसीही सेवक अपने बारे में इतने ऊँचे विचार रखते हैं?

ईमानदार बनें। जब आप अकेले होते हैं, तब आप अपने बारे में क्या सोचते हैं? क्या वे नम्रता के विचार हैं, जिसमें आप यह स्वीकार करते हैं कि आप अपने आप में कुछ भी नहीं हैं?

ऐसे समय होते हैं जब मैं बाहर बैठकर तारों की ओर देखता हूँ। मैं जानता हूँ कि करोड़ों तारे हैं और यह पूरी पृथ्वी सारे ब्रह्माण्ड में एक कण समान है। और मैं कहता हूँ, "हे परमेश्वर, तू कितना महान् है! यह पूरा ब्रह्माण्ड कितना विशाल है! मैं पृथ्वी कहलाए जाने वाले धूल के इस कण में एक मामूली सा कण हूँ। और मैं यहाँ तेरा प्रतिनिधि होने का दावा करता हूँ और बड़ी-बड़ी बातों के प्रचार करता हूँ। मेरी मदद कर कि मैं गंभीरता से अपना मूल्यांकन कर सकूँ।" मैं यह सलाह देना चाहता हूँ कि आप सभी परमेश्वर से यह कहें।

परमेश्वर नम्र लोगों पर कृपा करता है। ज्ञान किसी के पास भी हो सकता है। लेकिन सिर्फ नम्र लोग ही कृपा पा सकते हैं। हमें ज्ञान से कहीं बढ़ कर कृपा की ज़रूरत है।

मैं उन युवाओं के बारे में सोचता हूँ जो प्रभु के पास आए हैं और जो उनके विश्वास के लिए उनके परिवारों द्वारा सताए जाते हैं। जब ऐसा कोई व्यक्ति सबसे पहले हमारी कलीसियाओं में आता है, तो वह क्या देखता है? क्या वहाँ वह यीशु मसीह का आत्मा देखता है? हमारे आसपास के लोगों में मसीहियत की कितनी ग़लत छवि है।

एक लम्बे समय से मेरा यह विश्वास रहा है कि सारी प्रभावी सेवा में - चाहे सुसमाचार प्रचार हो या कुछ भी - सबसे पहला सिद्धान्त यही होता है कि जो इब्रानियों 2:17 में मिलता है और जो यह कहता है कि यीशु "सब बातों में अपने भाईयों के समान बना।" मैं इस बात पर मनन करना चाहता हूँ - वह सब बातों में अपने भाईयों के समान बना।

मैं दूसरों की सेवा कैसे कर सकता हूँ? मुझे सब बातों में उनके समान बनना होगा। मुझे उनके स्तर तक नीचे उतरना होगा।

ऐसा क्यों है कि मैं नीचे ज़मीन पर रेंग रही चींटी के साथ बात नहीं कर सकता? क्योंकि मैं बहुत बड़ा हूँ। अगर मैं अपने मानवीय रूप में उस चींटी के पास जाऊँगा तो वह बहुत डर जाएगी। मेरी उसके साथ सिर्फ एक ही तरीक़े से बातचीत हो सकती है कि मैं पहले उसके जैसा बन जाऊँ। जिस एकमात्र तरीक़े से परमेश्वर हमारे साथ बातचीत कर सकता था वह हमारे जैसा बन जाने द्वारा था। हम सब यह समझ सकते हैं। लेकिन हमें यह याद रखने की ज़रूरत है कि दूसरों के लिए हमारी सेवा में - चाहे वह स्थानीय कलीसिया में हो या किसी सुसमाचार संपर्क रहित क्षेत्र में - सबसे पहला सिद्धान्त यही है - कि हम सब बातों में उनके समान बन जाएं, "जहाँ वे बैठे हैं, वहाँ बैठ जाएं" जैसा यहेज़केल ने कहा (यहेज़केल 3:15)।

इसका अर्थ, उदाहरण के तौर पर, यह होगा कि हम अपने आपको किसी भी तरह दूसरों से ज़्यादा ऊँचा नहीं उठाएंगे। इसी वजह से यीशु ने अपने शिष्यों से कहा कि वे "रब्बी", या "अब्बा", या दूसरा किसी भी तरह का शीर्षक न अपनाएं। क्योंकि एक शीर्षक आपको दूसरों से ऊँचा उठाएगा। आप उनमें से एक होने की बजाय अपनी महानता से उन्हें डरा कर दबा देंगे।

इस चेतावनी के बावजूद मसीहियत में आज ऐसे बहुत से लोग हैं जिनके शीर्षक हैं।

हम सोचते हैं कि हम संसार के तौर-तरीक़े अपना कर परमेश्वर की ज़्यादा बेहतर सेवा कर सकेंगे। लेकिन ऐसा हर्गिज़ नहीं हो सकता।

पुरानी वाचा में हम पढ़ते हैं कि फिलिस्तीनियों ने एक बार परमेश्वर की वाचा का संदूक उनके कब्ज़े में ले लिया था। लेकिन वह उनके लिए एक समस्या बन गया था और उन्होंने उसे एक बैलगाड़ी में रखकर वापिस भेज दिया था। वर्षों बाद जब दाऊद उसे ले जाने की तैयारी कर रहा था, तो उसने सोचा, "अरे, हाँ, यही ठीक रहेगा। व्यवस्था में जिस तरह सिखाया गया है कि लेवी वाचा के संदूक को उनके कंधों पर उठा कर चलें, वह थोड़ी दूरी के लिए ठीक है। लेकिन लम्बी दूरी के लिए तो फिलिस्तीनियों का तरीक़ा ही सही है।" इसलिए उसने वाचा के संदूक को बैलगाड़ी पर ही रख दिया। और आप जानते हैं कि क्या हुआ था। बैलों को ठोकर लगी और उज़्ज़ाह ने हाथ बढ़ाकर वाचा के संदूक को संभालना चाहा। परमेश्वर क्रोधित हुआ और उज़्ज़ाह को उसी समय मार डाला क्योंकि उज़्ज़ाह लेवी नहीं था। परमेश्वर अपने तरीक़े नहीं बदलता। तब दाऊद बहुत डर गया था। लेकिन यह सब शुरू कहाँ से हुआ था? यह दाऊद द्वारा फिलिस्तीनियों की नकल करने से शुरू हुआ था। और तब मृत्यु आ गई।

जब भी हम संसार के तरीक़े इस्तेमाल करते हैं, जब मसीही कलीसियाओं को व्यापारिक उद्यमों की तरह चलाया जाने लगता है, जब पैसा पहली प्राथमिकता बन जाती है, तब मृत्यु आ जाती है।

हम अपने आपसे यह एक अच्छा सवाल पूछ सकते हैं कि अगर हम जो कलीसिया या संगठन चला रहे हैं, अगर उसमें पैसा आना बंद हो जाए तो क्या होगा। तब क्या वह पूरा काम धराशाई हो जाएगा? परमेश्वर का सच्चा काम पैसे का इस्तेमाल करता है, लेकिन वह कभी पैसे पर निर्भर नहीं होगा। वह सिर्फ पवित्र-आत्मा पर निर्भर होगा।

बाइबल कहती है कि पवित्र-आत्मा जलन रखने वाला है (याकूब 4:5) - जब कोई दूसरी बात कलीसिया में उसकी आधिकारिक जगह ले लेता है, तब उसे जलन होती है। वह बात संगीत हो सकती है। मैं संगीत के खिलाफ़ नहीं हूँ। मेरा मानना है कि हमारी कलीसियाओं में संसार की नकल किए बिना सबसे अच्छा संगीत होना चाहिए। लेकिन हमें संगीत पर निर्भर नहीं होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर, एक सभा के समापन के समय, अगर हम यह सोचते हैं कि हम धीमी आवाज़ में बाजा बजाने द्वारा हम प्रभु को स्वीकार करने के लिए लोगों को ज़्यादा प्रेरित कर सकते हैं, तो यह क्या है? यह पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य नहीं, मनोवैज्ञानिक चालबाज़ी है।

अगर परमेश्वर के वचन का प्रचार आत्मा की सामर्थ्य में होगा, जैसा यीशु ने किया था, और जैसा पतरस ने किया था, तो आपको अंत में धीमी आवाज़ में कोई बाजा बजाने की ज़रूरत नहीं होगी। अगर आप चाहें तो उसे बजा सकते हैं, लेकिन उससे कोई मदद नहीं मिलेगी। लेकिन अगर आपके पास पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य नहीं है, तो आपको लोगों के साथ मनोवैज्ञानिक चालबाज़ी करनी पड़ेगी कि वे (प्रभु को स्वीकार करने का) फैसला कर सकें। लेकिन आगे चल कर आपको यह मालूम हो जाएगा कि ऐसे फैसले सिर्फ भावुकतापूर्ण और सतही होते हैं।

पवित्र-आत्मा कलीसिया में अपनी आधिकारिक जगह पाने के लिए जलन से भरा रहता है। आप उसकी जगह धर्म-सिद्धान्त को नहीं दे सकते, आप उसकी जगह संगीत को नहीं दे सकते। आप उसकी जगह धन को नहीं दे सकते। इन सभी चीज़ों के लिए परमेश्वर का धन्यवाद करें। इन सभी को इस्तेमाल करें। यीशु ने धन को इस्तेमाल किया। तो हम उसके खिलाफ़ कैसे हो सकते हैं। ऐसा लिखा कि यीशु ने स्तुति-गीत गाया। इब्रानियों 2:12 में हम पढ़ते हैं कि यीशु स्वयं ही वह है जो पिता की स्तुति करने में कलीसिया की अगुवाई करता है। इसलिए जब हम परमेश्वर की स्तुति करते हैं तो हम अपने अगुवे का ही अनुसरण कर रहे होते हैं। तो हम संगीत के खि़लाफ कैसे हो सकते हैं। हम इनमें से किसी भी बात के खिलाफ़ नहीं हैं। लेकिन सवाल यह है हम किस पर निर्भर हैं।

क्या हम महान् व्यक्तित्वों या महान् प्रचारकों पर निर्भर हैं। नहीं। पवित्र-आत्मा जलन रखने वाला आत्मा है।

यीशु सेवक बना। हरेेक मसीही अगुवा एक सेवक की जीवन-शैली और सेवक होने के बारे में बात करता है और इस विषय पर बहुत सी पुस्तकें भी लिखी गई हैं। लेकिन व्यावहारिक रूप में इसका क्या अर्थ है? मैं आपसे यह पूछना चाहता हूँः अपने अपने सह-कर्मियों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं? आप अपने ऐसे सबसे छोटे सहयोगी के साथ कैसा बर्ताव करते हैं जो एक दिन पहले ही आपकी संगति में जुड़ा है? क्या वह आपके लिए एक भाई है या वह आपके भय में जीता है? अगर ऐसा है, तो आप चाहे विनाश का दिन आ जाने तक सेवक होने के बारे में प्रचार करते रहें, लेकिन मैं यही कहूँगा कि आपको यह समझ नहीं आया है। आपने यीशु को नहीं देखा है।

यीशु कितना सहज था। उसने कभी लोगों को नहीं डराया। उसने कहा, मैं मनुष्य का पुत्र हूँ", जिसका अर्थ है "एक सामान्य व्यक्ति।" वह परमेश्वर का शुद्ध और पवित्र पुत्र था जो अनादि से पिता के साथ था। लेकिन वह पृथ्वी पर आकर एक सामान्य मनुष्य के समान रहा। वह सब बातों में अपने भाइयों के समान हो गया। सब बातों में अपने भाइयों जैसा होने के लिए, हमारे लिए यह ज़रूरी है कि हममें कुछ मरे। यीशु के लिए यह लिखा है, "उसने स्वयं को यहाँ तक दीन किया कि मृत्यु को भी सह लिया।" जब हम अपनी ख़ुदी में मर जाते हैं, तब हम अपनी न्रमता को प्रमाणित करते हैं।

गेहूँ का वह दाना जो भूमि में गिर कर मर जाता है, वह अवश्य ही बहुत सा फल लाता है। 22 साल पहले जब प्रभु के साथ मैंने वास्तविकता के संकट का सामना किया था, तब यह भी एक बात थी जो मैंने जानी थी। मैंने यह समझ लिया था कि भारत में प्रभु के लिए जो सबसे बड़ा काम मैं कर सकता था वह यही था कि मैं इसकी भूमि में गिर कर मर जाऊँ - अपनी इच्छा की तरफ से मर जाऊँ, लोग मेरे बारे में जो सोचते हैं उसकी तरफ से मर जाऊँ, अपनी महत्वकांक्षाओं की तरफ से मर जाऊँ, अपने लक्ष्यों की तरफ से मर जाऊँ, अपने पैसों के प्रेम की तरफ से मर जाऊँ, सब बातों के लिए मर जाऊँ - और सब से बढ़ कर अपनी ख़ुदी के लिए मर जाऊँ - कि फिर उसके बाद सिर्फ यीशु ही मेरे लिए सब कुछ हो, कि उसके बाद मैं प्रतिदिन यीशु के तरफ देख सकूँ और ईमानदारी से यह कह सकूँ (जैसा कि भजनकार ने कहा) "स्वर्ग में मेरा और कौन है? तेरे सिवाय मैं पृथ्वी पर और कुछ नहीं चाहता" (भजन. 73:5)।

ऐसे समय होते हैं जब मैं बिस्तर पर लेटा प्रभु से यह कहता हूँ, "प्रभु मेरी सेवकाई मेरा आराध्य-देव नहीं है। सिर्फ तू ही मेरा परमेश्वर है। तेरी जगह और कोई नहीं ले सकता। तू मेरे लिए सब कुछ है। तू मेरी आवाज़ ख़त्म कर दे, मुझे लकुवा कर दे या मेरे साथ जो चाहे कर दे। मैं फिर भी अपने पूरे हृदय से तुझसे प्रेम करता रहूँगा।" मेरा आनन्द कोई नहीं ले सकता - क्योंकि परमेश्वर की उपस्थिति में आनन्द की भरपूरी होती है। सिर्फ इस स्रोत् से ही हममें से जीवन के जल की नदियाँ बह सकती हैं।

एक अंतिम बातः बहुत साल पहले, जब मैं एक युवा मसीही था, तब प्रभु ने मुझसे 2 शमुएल 24:24 से बात की थी जहाँ दाऊद कहता है, "मैं अपने प्रभु को ऐसा कुछ नहीं चढ़ाऊँगा जिसकी मैंने कोई क़ीमत न चुकाई हो।" उस दिन प्रभु ने मेरे हृदय से जो बात की थी वह यह थी कि उसने वह चढ़ा दिया जिसमें उसका सब कुछ खो गया। और अगर मुझे उसकी सेवा करनी है, तो मुझे भ्ाी उसी आत्मा में सेवा करनी होगी। यह ज़रूरी है कि मेरी हरेक सेवा की मुझे कुछ क़ीमत चुकानी पड़े।

प्रभु की जो सेवा आप कर रहे हैं, उसमें कैसे कर रहे हैं? क्या उसमें कुछ क़ीमत चुका रहे हैं? आज भारत में ऐसे बहुत लोग हैं जो मसीही काम में उस धनराशि से पाँच से दस गुणा ज़्यादा प्राप्त कर रहे हैं जो उन्हें किसी धर्म-निर्पेक्षीय काम करने से प्राप्त होती।

क्या यह बलिदान है?

31 साल पहले जब मैंने अपनी भारतीय नौसेना की नौकरी छोड़ी थी, तब मैंने एक फैसला किया था, कि मैं ऐसी कोई धनराशि स्वीकार नहीं करूँगा जो मेरी मासिक आय को उस धनराशि से ज़्यादा कर देगी जो मेरी धर्म-निर्पेक्षीय नौकरी द्वारा मुझे मिलती। उस फैसले ने 31 साल से मुझे सम्भाला हुआ है।

हमें दूसरों का न्याय नहीं करना है। मैं यहाँ आप पर दोष लगाने के लिए नहीं हूँ। मैं आप में से ज़्यादा लोगों को नहीं जानता इसलिए मेरे लिए यह कहना आसान हैः अपने आपसे यह सवाल पूछें कि अगर आप किसी धर्म-निर्पेक्ष व्यवसाय में होते तो आज आपकी कितनी आय होती?

जॉन वैसली अपने साथियों से कहा करते थे, "आपके बारे में ऐसा कभी न कहा जाए कि आप सुसमाचार-प्रचार से धनवान हो गए हैं।"

क्या आप जानते हैं कि मसीही काम का सबसे ज़्यादा नुक़सान कहाँ होता है? यहीं, इसी जगह में। आप परमेश्वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते। यही वह मामला है जिससे हमें सबसे पहले निबटना होता है। हम चाहे सूर्य के नीचे पृथ्वी पर होने वाले हरेक काम के बारे में चर्चा कर लें, लेकिन अगर हम धन से प्रेम की समस्या से नहीं निबटेंगे, तो हमारी सारी सेवा व्यर्थ होगी।

लोग रहने के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। यीशु ने भी अपना रहने का स्थान बदला था और वह स्वर्ग छोड़ कर पृथ्वी पर रहने के लिए आया था। लेकिन जब वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर गया, तो उसमें वह नीचे की ओर गया। पृथ्वी पर रहने वाले लोगों के प्रति उसकी दिलचस्पी/चिंता वास्तविक थी।

आपने अपने रहने की जगह क्यों बदली है?

मैं फिर कहना चाहता हूँ कि मैं आप पर दोष नहीं लगा रहा हूँ। मैं सिर्फ पूछ रहा हूँ।

क्या आपने अपने रहने का स्थान इसलिए बदला है क्योंकि आपको ऐसा लगा कि अपनी नई जगह से आप भारत में प्रभु की ज़्यादा प्रभावी सेवा कर सकेंगे - ऐसा देश जिसके लिए आपको लगता है कि आप पर बड़ा बोझ है? क्या आपका बोझ असली है?

क्या अमेरिका में रहते हुए आप पर भारत का बोझ हो सकता है? हाँ - लेकिन वह सिर्फ काग़ज पर ही हो सकता है। सिर्फ काग़ज़ों में तो आप पर किसी का भी बोझ हो सकता है!

शैतान बहुत भरमाता है। वह हमें पूरी तरह भरमाता है। वह हमें ऐसा महसूस कराता है कि हम पर किसी बात की जिमेम्मेदारी का बड़ा बोझ है जबकि असल में वह गर्म हवा के अलावा और कुछ नहीं होता!

मैं चाहता हूँ कि आप अपने प्रति सच्चे हों।

मैं यहाँ कोई शोध-पत्र प्रस्तुत नहीं कर रहा हूँ, बल्कि मैं अपने हृदय की बात आपके साथ बाँट रहा हूँ।

और मैं आशा करता हूँ कि यही परमेश्वर के हृदय की भी बात है।

मेरे भाइयो व बहनों, मैं आप पर दोष नहीं लगा रहाँ हूँ। परमेश्वर ने वर्षों पहले मुझसे कहा था, "अगर तू दूसरों पर दोष लगाएगा तो अपने आपको बर्बाद करेगा।"

मैं आज परमेश्वर के आगे खड़ा होकर बोल रहा हूँ कि मैं किसी का न्याय नहीं कर रहा हूँ। मैं सिर्फ अपना न्याय कर रहा हूँ। और मैं अपना मन फिरा रहा हूँ। मेरा जीवन प्रतिदिन मन-फिराव का जीवन है - क्योंकि मैं अपने जीवन में ऐसी बहुत सी बातें देखता हूँ जो मसीह-समान नहीं हैं। मैं अपना मन-फिराता और कहता हूँ, "प्रभु, मैंने उस व्यक्ति के साथ कोमलता से बात नहीं की। प्रभु, तू मुझे बात करना सिखा।"

वह मनुष्य जो अपनी जीभ को अपने वश में नहीं रख सकता, जैसा याकूब ने कहा है, उसकी मसीहियत किसी काम की नहीं है (याकूब 1:26)।

पौलुस ने अपने सहकर्मियों के बारे में एक बार एक बात कही। फिलिप्पी भेजने के लिए जब वह एक व्यक्ति ढूंढ रहा था, तो उसे सिर्फ तीमुथियुस ही मिला क्योंकि बाक़ी सब उनके अपने ही स्वार्थ की खोज में थे (फिलि. 2:19-21)। ध्यान दें कि यह बात पौलुस ने विधर्मी लोगों के लिए नहीं बल्कि अपने सहकर्मियों के लिए कही थी। पौलुस का सहकर्मी बन पाना ही अपने आप में बड़े सम्मान की बात थी क्योंकि पौलुस एक ऐसा व्यक्ति था जिसने यूहन्ना मरकुस को भी उसका सहकर्मी होने योग्य न जाना था क्योंकि उसके अनुसार मरकुस उतना धर्माेत्साही नहीं था। फिर भी पौलुस को ऐसा महसूस हुआ था कि वे सब अपने ही स्वार्थ की खोज में हैं।

आज बहुत लोग सुसमाचार का प्रचार कर रहे हैं और ऐसा लग रहा है जैसे उन पर आत्माओं का बहुत बोझ है, लेकिन वास्तव में वे अपने ही फायदे और आराम की खोज में हैं। वे अपने आपको ही ऊँचा उठा रहे हैं।

वे अपने बच्चों और परिवार के सदस्यों को ही ऊँचा उठा रहे हैं कि जब वे सेवा-निवृत्त हो जाएं, तो वे उनकी जगह ले लें!

शाऊल ने भी योनातन को ऊँचा उठाना चाहा था। लेकिन परमेश्वर ने कहा, फ्योनातन नहीं पर दाऊद अगला राजा होगा।" इससे शाऊल नाराज़ हो गया और अपने पुत्र को ऊँचा उठाने के लिए उसने दाऊद को मार डालना चाहा।

आप क्या सोचते हैं कि क्या मसीहियत में आज ऐसी बातें नहीं हो रही हैं? ऐसी बातें आज भी हो रही हैं।

जब हम प्रभु की सेवा करते हैं और सच बोलते हैं, तो हम लोकप्रिय नहीं होंगे। लेकिन अगर हम मनुष्यों को प्रसन्न करने वाले होंगे तो हम मसीह के दास नहीं होंगे।

मैं हरेक भाई और बहन के लिए परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहता हूँ- ख़ास तौर पर उनके लिए जो मुश्किल हालातों में परिश्रम करते हैं, जिन्होंने बलिदान दिए हैं और जिनके बारे में हम यीशु के दोबारा आने तक हम कभी नहीं जान पाएंगे। ये वे लोग हैं जो मसीही समाज में जाने-माने नहीं हैं, जिनके नामों की कहीं तुरही नहीं बज रही है, जिनके बारे में मीडिया में से कोई समाचार नहीं मिलता, लेकिन जो परमेश्वर का भय मानने वाले, नम्र व दीन लोग हैं, और जो बलिदान करते हुए हमारे देश में यीशु मसीह का सुसमाचार फैला रहे हैं। मैं उन्हें सलाम करना चाहता हूँ। मैं अपने पूरे हृदय से ऐसे सभी लोगों के लिए परमेश्वर की स्तुति करता हूँ। ऐसे लोगों की तुलना में मैं कुछ नहीं हूँ। इनमें से बहुत हमारी कलीसियाओं और संगठनों में काम कर रहे हैं। हमें उनके पद्-चिन्हों पर चलना चाहिए। आमीन।

जिसके सुनने के कान हों, वह सुनें। आमीन।

अध्याय 4
एक आत्मिक आंदोलन का पतन कैसे होता है?

"प्रभु! सहायता कर! भक्त तेज़ी से लुप्त हो रहे हैं। विश्वासयोग्य लोगों को संसार में कहाँ ढूंढने जाएं? सभी धोखा देते, चापलूसी करते, और दोरंगी बातें करते हैं। कहीं ईमानदारी नहीं बची है" (भजन 12:1, लिविंग)।

ऊपर बयान की गई दशा आज की मसीहियत का सटीक वर्णन है। आजकल हम यही पाते हैं कि ऐसे विश्वासी भी एक समय में भक्तिपूर्ण जीवन के खोजी थे अब, अपने स्वार्थ पूरे करने के लिए, धोखा दे रहे हैं, चापलूसी कर रहे हैं, और दोरंगी बातें कर रहे हैं।

परमेश्वर हमसे सबसे पहले ईमानदारी चाहता है। हममें एक हज़ार एक कमियाँ हो सकती हैं और हम उतनी ही गलतियाँ करने वाले भी हो सकते हैं, लेकिन अगर हम ईमानदार हैं तो परमेश्वर हमारे जीवनों में चमत्कार कर सकता है।

मत्ती 16:3 में यीशु ने फरीसियों से एक सवाल पूछते हुए उन्हें धिक्काराः फ्तुम आकाश के लक्षणों को पहचानना तो जानते हो, पर समयों के चिन्हों को नहीं पहचानते?"

जिस समय में हम रह रहे हैं, अगर हम उसके चिन्हों को ही नहीं पहचानेंगे, तो यीशु ने जैसे फरीसियों की ताड़ना की थी, वैसे ही हमारी भी करेगा।

जब लोग बाइबल को तो जानते हैं लेकिन परमेश्वर को नहीं जानते, तो वे आसानी से धोखा खा सकते हैं - क्योंकि संसार का हरेक पंथ बाइबल को ही अपनी पाठ्य-पुस्तक की तरह इस्तेमाल करता है, और अपनी विचित्र शिक्षा को वह बाइबल के पदों द्वारा ही सही ठहराता है। यही वजह है कि इस शताब्दी में इतने सारे पंथ पूरे जगत में चारों तरफ पैदा हो गए हैं, और वे अनेक लोगों को आकर्षक लग रहे हैं और स्वीकार्य हो रहे हैं। विश्वासी भी भरमाए जा रहे हैं और अपना उद्धार खो रहे हैं।

नई वाचा में, परमेश्वर चाहता है कि उसका हरेक बच्चा उसे व्यक्तिगत रूप से जाने (इब्रानियों 8:11), जो पुरानी वाचा के समय में नहीं था, जिसमें सिर्फ नबी (जो कम ही नज़र आता था) परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप में जान सकता था। असल में, नई वाचा का प्रभु का एक बच्चा परमेश्वर को ऐसे बेहतर और व्यक्तिगत तौर पर जान सकता है जैसा कि पुरानी वाचा का सबसे बड़ा नबी भी नहीं जान सकता था। यीशु ने यह बात ख़ास तौर पर कही थी (मत्ती 11:11)।

ऐसे कुछ विश्वासी हैं जिनमें परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से जानने का जुनून होता है। वर्ना ज़्यादातर तो ऐसे ही हैं जो अपना बाइबल का ज्ञान बढ़ाना चाहते हैं और शानदार भावनात्मक अनुभव पाना चाहते हैं।

यह सब इस बात का संकेत है कि हम अंतिम दिनों के अंतिम घण्टों के अंतिम मिनटों में पहुँच चुके हैं जिसमें पौलुस ने कहा था कि हमारे लिए फ्मसीही होना मुश्किल हो जाएगा" (2 तीमु. 3:1)।

अंत के दिनों में मसीही होना मुश्किल हो जाएगा, और यह सताव या विरोध की वजह से नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि फ्लोग भक्ति का वेश तो धारण करेंगे, लेकिन उसकी शक्ति को नहीं मानेंगे" (2 तीमु. 3:5)। दूसरे शब्दों में, वे नई वाचा के नमूनों और धर्म-सिद्धान्तों के सही ठहराने में तो बहुत ज्ञानवान होंगे, लेकिन उनकी मसीह के साथ एक व्यक्तिगत सम्बंध बनाने में, या एक व्यावहारिक ईश्वरीयता में कोई दिलचस्पी नहीं होगी।

हममें से ज़्यादातर जिन्होंने बीते समय में मरे हुए धर्म-मत त्यागे थे, वे इसी वजह से त्यागे थे क्योंकि हम आत्मिक वास्तविकता की खोज में थे। हो सकता है कि हमने अपनी खोज पूरी ईमानदारी से शुरू की हो, लेकिन शैतान बहुत चालाकी से विश्वासियों को झूठी शिक्षाओं में फंसा देता है, जैसा यीशु के समय में फरीसियों की शिक्षा में फंसा रखा था।

पुरानी वाचा में इस्राएल का इतिहास हमें इतने विस्तार से कुछ पाठ सिखाने के लिए दिया गया है। एक समझदार व्यक्ति उसमें से यह सीख सकता है कि कैसे कुछ मनुष्यों ने परमेश्वर को प्रसन्न किया और ज़्यादातर लोगों ने उसे अप्रसन्न किया था।

यिर्मयाह 3:14-15 में प्रभु यह कहते हुए प्रतिज्ञा करता है, फ्मैं नगर में से एक-एक, और परिवार में से दो-दो को लेकर सिय्योन में पहुँचा दूँगा। तब मैं तुम्हें अपने मन के अनुकूल चरवाहे दूँगा जो तुम्हें ज्ञान और समझ रूपी भोजन खिलाएंगें"

"सिय्योन" जीवित परमेश्वर की कलीसिया का प्रतीक है। परमेश्वर एक नगर में से एक-एक और एक परिवार में से दो-दो उसके "सिय्योन" में इकट्ठा करेगा। और जब हम इस सिय्योन में आ जाते हैं - यह कलीसिया जिसे परमेश्वर तैयार कर रहा है - तब वहाँ वह यह प्रतिज्ञा करता है कि हमें अपने मन के अनुकूल ऐसे चरवाहे देगा जो हमें उसका ज्ञान (सिर्फ बाइबल का ज्ञान नहीं) और उसके मार्गों की समझ (सिर्फ धर्म-सिद्धान्त की समझ नहीं) का भोजन खिलाएंगे।

परमेश्वर की सच्ची कलीसिया को पहचानने का एक प्राथमिक चिन्ह् यही हैः उसमें ऐसे चरवाहे होंगे जो परमेश्वर के मन के अनुसार होंगे।

परमेश्वर प्रेम है - और प्रेम की पहली विशिष्टता यही होती है कि वह अपना भला नहीं चाहते। तो परमेश्वर के मन के अनुसार चरवाहे वे होते हैं जो अपना भला नहीं चाहते। ऐसे चरवाहे दूसरे व्यक्ति से धन या आदर पाना नहीं चाहेंगे। वे मनुष्यों को प्रभावित और प्रसन्न करना भी नहीं चाहेंगे। इसकी बजाय वे प्रत्येक विश्वासी को उन्नत करना चाहेंगे कि उसे "मसीह में सिद्ध करके हािज़र कर सकें" (कुलु. 1:28)। जब भी परमेश्वर को ऐसी इच्छा रखने वाला व्यक्ति मिल जाता है - जगत के किसी भी शहर या गाँव में - तो वह अपनी कलीसिया का निर्माण करता है।

दूसरी ओर, हम ऐसे बहुत से मामले देखते हैं जिनमें विश्वासी मुख्यधारा की कलीसियाओं को इसलिए छोड़ देते हैं कि फ्नई वाचा के नमूने" पर निर्मित कलीसियाओं के अनुयायी बन जाएं जिनके धर्म-सिद्धान्त तो पूरी तरह सही होते हैं, लेकिन जो धन से प्रेम करते हैं और अपना भला चाहते हैं, और फिर भी वे यह कल्पना करते हैं कि वे मसीह की कलीसिया का निर्माण कर रहे हैं। उनके काम का फल हमेशा ही उलझन और गड़बड़ होता है जोे अंत में बाबुल ही तैयार करता है।

जब परमेश्वर को एक ऐसा मनुष्य मिल जाता है जो अपना भला नहीं चाहता, सिर्फ तभी वह अपनी कलीसिया का निर्माण कर सकता है। ऐसा एक मनुष्य, जो लोगों के लिए परमेश्वर की दिलचस्पी में सहभागी होता है, परमेश्वर के लिए ऐसे एक हज़ार विश्वासियों से ज़्यादा मूल्यवान है जो सिर्फ अपना भला नहीं चाहते हैं।

ऐसे चरवाहे को जो परमेश्वर के मन के अनुसार है, बलिदान, असुविधा और पीड़ा सहनी पड़ेगी। ऐसा चरवाहा होने का अर्थ होगा कि उसे ग़लत समझे जाने, विरोध किए जाने, ठ्टठा उड़ाए जाने, और बदनाम किए जाने को आनन्द के साथ सहना होगा। और अगर ऐसे चरवाहे की ऐसी पत्नी भी है जो अपना भला नहीं चाहती जिससे प्रभु उनके घर में जो चाहे कर सके, तो फिर इस बात की कोई सीमा नहीं होगी कि प्रभु उनके द्वारा क्या कर सकेगा।

मैं बहुत से लोगों को इकट्ठा कर लेने की बात नहीं कर रहा हूँ। संख्याएं परमेश्वर की आशिष का चिन्ह् नहीं है। अनेक झूठे पंथ दूसरों से ज़्यादा लोग इकट्ठे कर लेते हैं। इससे कुछ साबित नहीं होता

मैं अब गुणवत्ता की बात कर रहा हूँ - मसीह की देह का निर्माण करना, जिसमें प्रत्येक सदस्य को परमेश्वर का व्यक्तिगत ज्ञान प्राप्त होता है।

अगर ऐसा नहीं है, तो कोई भी समूह ऐसा ही है मानो एक अंधा बहुत से अंधों को गड्ढे में गिराने के लिए ले जा रहा है। उनकी सारी प्रार्थना सभाएं गड्ढे में होंगी, उनके बाइबल अध्ययन गड्ढे में होंगे, और उनके सम्मेलन भी गड्ढे में ही होंगे!

यीशु के समय में, उसने अपने चारों तरफ देखा और यह पाया कि लोग बिना चरवाहे की भेड़ों के समान थे। आज भी ऐसा ही है।

चारों तरफ जो सबसे बड़ी ज़रूरत है वह ऐसे चरवाहों की है जो परमेश्वर के मन के अनुसार हों। मैं यहाँ सिर्फ कलीसिया में एक प्राचीन होने की बात नहीं कर रहा हूँ। नहीं। एक बड़े झुण्ड में ऐसे बहुत से चरवाहों की ज़रूरत होती है जो जिनमें परमेश्वर के लोगों की देखभाल करने का हृदय होता है। कुछ लोग प्राचीन भी नहीं होंगे। लेकिन वे भेड़ों को चराते और उनकी देखभाल करेंगे - ख़ुशी से उनकी सेवा करेंगे।

जैसा मैंने पहले कहा, बाइबल में हमें इस्राएल का इतिहास इतने विस्तार से इसलिए दिया गया है कि उसमें हमें अच्छे उदाहरण दिखाए जाएं जिनका हम अनुकरण कर सकें, और जो ग़लतियाँ लोगों ने की हैं, उनसे बच सकें। एक देश के रूप में इस्राएल ने दो महत्वपूर्ण बिन्दुओं से अपनी शुरूआत की थी।

पहला, जब उन्होंने यहोशू की अगुवाई में कनान में एक देश के रूप में अपना आरम्भ किया।

दूसरा, जब राजा दाऊद की अगुवाई में, सदियों तक (प्रभु को छोड़) पीछे हटने के बाद उन्होंने एक नई शुरूआत की।

आइए, हम इन दोनों शुरूआतों पर विचार करें।

यहोशू एक ईश्वरीय पुरुष था जिसने इस्राएल की उत्कृष्ट अगुवाई की। उसने निश्चय किया था कि वह और उसका घराना प्रभु की ही सेवा करेंगे हालांकि इस्राएल के बाक़ी लोगों ने प्रभु को त्याग देने की ठान ली थी (यहो. 24:15)।

सिर्फ एक ऐसा व्यक्ति ही, जो ज़रूरत पड़ने पर अकेला खड़ा रहने को तैयार हो, आज कलीसिया में ईश्वरीय अगुवाई कर सकता है। यहोशू के जीवनकाल में इस्राएल ने एक जीत के बाद दूसरी जीत हासिल की थी।

फिर यहोशू मर गया।

और फिर जो वहाँ हुआ, उसमें हम यह देख सकते हैं कि जिस व्यक्ति को परमेश्वर ने एक ख़ास समय, एक ख़ास उद्देश्य और एक ख़ास देश के लिए खड़ा किया होता है, जब पृथ्वी पर अपना समय पूरा कर गुज़र जाता है तब क्या होता है।

यहोशू के साथी-अगुवों ने इस्राएल की अगुवाई अपने हाथों में ले ली (यहो. 24:31)। ये अगुवे यहोशू से अगली पीढ़ी के थे। जब यहोशू मरा तो वह 110 साल का था और नए अगुवे 60 व 70 के दशकों में थे - क्योंकि यहोशू की पूरी पीढ़ी (कालेब के अलावा) जंगल में भटकने के 40 सालों में नाश हो गई थी।

इस समयकाल में - जब दूसरी पीढ़ी अगुवाई कर रही थी - सब कुछ इतना अच्छा नहीं था जैसा यहोशू के समय में था। हम न्यायियों के पहले अध्याय में पढ़ते हैं कि उन्हें ज़्यादा जीत हासिल नहीं हो रही थीं (पद 1-21), और बहुत जगह वे हार भी रहे थे (पद 22-36)। धीमी गति से उनका पतन होने लगा था।

दूसरी पीढ़ी में अपने आप में कोई बल नहीं था बल्कि वे सिर्फ उस गति के वेग में ही आगे बढ़ रहे थे जो उन्हें पिछली पीढ़ी में यहोशू की अगुवाई में मिली थी।

एक रेलगाड़ी के डिब्बे की तरह जिसे इन्जन ने धकेल दिया है, दूसरी पीढ़ी शुरू में तेज़ी से आगे बढ़ती है, लेकिन फिर धीमी होती जाती है और फिर पूरी तरह रुक जाती है!

न्यायियों के 2:11 तक आते-आते हम पाते हैं कि सब कुछ बुरी तरह बिगड़ गया है। इस्राएल अब खुलकर वह करता है जो परमेश्वर की दृष्टि में बुरा है।

इस तरह, हम देखते हैं कि जो एक पीढ़ी में अच्छा शुरू हुआ था वह तीसरी पीढ़ी के आते-आते बुरा हो गया।

इस्राएल के इतिहास में दूसरा निर्णायक मोड़ तब आया जब दाऊद इस्राएल का राजा बना।

शाऊल इस्राएल का पहला राजा था। उसने बहुत नम्र व दीन होकर शुरूआत की थी, लेकिन बाद में वह (परमेश्वर के मार्ग से) इतना पीछे हट गया कि परमेश्वर ने उसके ऊपर से अपना अभिषेक हटा लिया। शाऊल का जीवन ऐसे आंदोलनों का चित्रण है जिनका पहली पीढ़ी में ही पतन हो जाता है - और आज मसीहियत में भी ऐसे बहुत हैं!

परमेश्वर ने शमुएल के द्वारा शाऊल से कहा कि वह अब राज्य को उसके हाथ में से लेकर एक ऐसे व्यक्ति को देगा जो "परमेश्वर के मन के अनुसार है" (1 शमु. 13:14)। वह दाऊद था। इससे शाऊल दाऊद के प्रति ईर्ष्या से भर गया। शाऊल दाऊद से इतनी घृणा करने लगा था कि वह उसे मार डालना चाहता था।

लेकिन, इस्राएल में जो यह जान रहे थे कि परमेश्वर का अभिषेक कहाँ है, दाऊद के साथी बन गए। इस तरह दाऊद के आसपास एक छोटा झुण्ड तैयार हो गया। लेकिन शाऊल पूरे देश में इस छोटे झुण्ड का पीछा करता रहा, उन्हें सताता रहा और उन्हें मारने के लिए ढूंढता रहा, और वे अपनी जान बचाते हुए भागते रहे। लेकिन परमेश्वर उस छोटे झुण्ड के साथ था।

फिर भी शाऊल बहुत सालों तक इस्राएल के सिंहासन पर बैठा रहा, ठीक उसी तरह जैसे आज बहुत से मसीही "अगुवे" अपने लोगों पर राज करते हैं हालांकि उनके जीवनों में से बहुत पहले ही परमेश्वर का अभिषेक ख़त्म हो चुका है।

फिर भी शाऊल के ऐसे समर्थक थे जो उसकी चापलूसी करते थे - बिलकुल उसी तरह जैसे अनेक मसीही "अगुवों" के समूहों में आज ऐसे लोग मौजूद हैं। ऐसे लोगों के मौजूद रहने का कोई अर्थ नहीं है। बहुत से मरे हुए धर्म-मतों और मूर्तिपूजक धार्मिक अगुवों के भी बहुत अनुयायी हैं। लेकिन परमेश्वर इनमें से किसी के साथ नहीं है।

हमें अपने आपसे जो ज़रूरी सवाल पूछते रहना है, वह यह हैः फ्क्या परमेश्वर की कृपा और अभिषेक मुझ पर अब भी बना हुआ है?"

कलीसिया का इतिहास बार-बार यह साबित करता है कि परमेश्वर ने हरेक पीढ़ी में अपना सबसे बड़ा काम अपने एक ऐसे अल्पसंख्यक समूह द्वारा किया है जो पूरी लगन से उसके साथ खड़े रहते हैं। जैसा कि गिदोन के समय में था, शैतान से जीता जाने वाला युद्ध हमेशा ही पूरे हृदय से प्रभु के पीछे चलने वाले शिष्यों के एक छोटे समूह द्वारा ही जीता जाता है (न्या- अध्याय 7)।

लेकिन ऐसे समूह से (जैसा कि दाऊद का समूह था), मसीहियत की वह स्थापित व्यवस्था जिसे यह समझ नहीं आता कि परमेश्वर उसके समय में क्या कर रहा है, घृणा करती है और उसे सताती है।

लेकिन परमेश्वर ने दाऊद और उसके छोटे से समूह को संभाला। और बाइबल में यह दर्ज है कि फ्दाऊद परमेश्वर के उद्देश्य के अनुसार अपने युग के लोगों की सेवा पूरी करके सो गया" (प्रेरितों. 13:36)। अपनी कमियों के बावजूद दाऊद ऐसा व्यक्ति था जो परमेश्वर के मन के अनुसार था और अपने समय में उसने इस्राएल को एक ईश्वरीय अगुवाई प्रदान की। वह सिद्ध नहीं था। लेकिन जैसे ही एक सामान्य नबी भी आकर उसके पाप के लिए उसे धिक्कारता था, तो वह स्वयं को दीन कर फौरन मन फिरा लेता था (2 शमु. 12)।

लेकिन प्रभु के प्रति दाऊद की अगाध भक्ति, और उसके जीवन पर परमेश्वर के अभिषेक के बावजूद, वह परमेश्वर के उद्देश्य को सिर्फ अपनी पीढ़ी में ही पूरा कर सका था।

उसकी मृत्यु के बाद सब बातें बहुत तेज़ी से बिगड़ीं। उसके पुत्र सुलैमान की शुरूआत अच्छी थी (1 राजा 3:3, 5, 10-14)। नीतिवचन की पुस्तक यह दशार्ती है कि अपने आरम्भ के दिनों में वह कितना बुद्धिमान था। नीतिवचन शायद पुरानी वाचा की शानदार रूप में सबसे व्यावहारिक पुस्तक है। वह पुरानी वाचा के बीच में एक नई वाचा जैसी पुस्तक है और उसे सुलैमान ने लिखा है!

लेकिन सुलैमान (परमेश्वर को त्याग कर) बहुत तेज़ी से और बहुत बुरी तरह से पीछे हटा - और उसका अंत पूरी बर्बादी में हुआ। आरम्भ में, वह उस आवेग में आगे बढ़ा जो उसे उसके ईश्वरीय पिता से मिला था। लेकिन उसमें परमेश्वर के लिए पर्याप्त मनोवेग नहीं था कि वह उस दिशा में ज़्यादा दूर तक आगे बढ़ पाता। वह धन और स्त्रियों द्वारा भरमाया गया (1 राजा 10:23; 11:1-9) - हमारे समय के बहुत से मसीही प्रचारकों की ही तरह!

सुलैमान के मरने के बाद, उसके पुत्र यारोबाम (तीसरी पीढ़ी) ने इस्राएल की अगुवाई संभाली, और यारोबाम ने ज़्यादा बुद्धिमान और प्रौढ़ लोगों की सलाह को तुच्छ जाना (1 राजा 12:6-15)। इससे इस्राएल अस्त-व्यस्त होकर जल्दी ही दो भागों में विभाजित हो गया। अब यारोबाम सिर्फ इसी बात पर गर्व कर सकता था कि दाऊद उसका दादा था। लेकिन उसमें दाऊद की आत्मा का लेशमात्र भी अंश नहीं था।

पिछली 20 शताब्दियों में ईश्वरीय लोगों द्वारा शुरू किए गए मसीहियत के आंदोलनों के पतन में भी हम हू-ब-हू इसी प्रक्रिया का पुनरावर्तन देखते हैं।

मसीहियत के इतिहास में, हम यह देख सकते हैं कि परमेश्वर द्वारा भेजा गया हरेक ईश्वरीय सुधारक जिसे उसने मसीही जगत को अपने पास लौटा ले आने के लिए भेजा, सिर्फ अपनी पीढ़ी में ही परमेश्वर के उद्देश्यों को पूरा कर सका। लगभग हरेक मामले में, सुधारक के मरने के बाद, अगली पीढ़ी के उसके अनुयायियों ने अपने अगुवे के अन्दर रखे जीवन से ज़्यादा उसके द्वारा सिखाए धर्म-सिद्धान्तों पर ज़्यादा ज़ोर दिया। ईश्वरीयता का बाहरी स्वरूप प्रमुख बात बन गई और ईश्वरीयता की सामर्थ्य को अनदेखा कर दिया गया। इस तरह पतन और सड़ाव की शुरूआत हुई।

ऐसे आंदोलन अपनी तीसरी पीढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते पूरी तरह भ्रष्ट और सडे हुए हो जाते थे। उसके बाद उस समूह की फिर अपने मूल अगुवे में पाई जाने वाली ईश्वरीयता और आत्मिकता के साथ कोई समानता नहीं रह जाती थी। उन्होंने उसके धर्म-सिद्धान्त दोहराए और उसके नाम में महिमान्वित होते रहे - लेकिन उन्होंने बाबुल का ही निर्माण किया।

एक समूह एक आत्मिक आंदोलन के रूप में अपनी शुरूआत कर सकता है, और फिर भी अंत में वह जैविक और शारीरिक - बल्कि हैवानी भी बन सकता है।

एक आंदोलन जो परमेश्वर के एक जन द्वारा शुरू किया गया हो, आसानी से एक झूठी शिक्षा वाले पंथ के रूप में बदल सकता है।

पतन की जो कहानी हमने दाऊद, सुलैमान और यारोबाम के इतिहास में देखी, वह मसीहियत में बार-बार दोहराई जाती रही है। परमेश्वर द्वारा शुरू किए गए ऐसे किसी भी आंदोलन को ध्यान से देखें जो उसकी दूसरी या तीसरी पीढ़ी में है - और जो मैंने अभी कहा है, आपको अपनी आँखों के सामने वह एक सत्य के रूप में नज़र आएगा।

ऐसा क्यों होता है? इसका जवाब सहज हैः यह इसलिए होता है क्योंकि विश्वासी यीशु मसीह के व्यक्तित्व से ज़्यादा वचन के शब्द से प्रभावित होते हैं। जब कोई भी धर्म-सिद्धान्त मसीह की व्यक्तिगत भक्ति से बड़ा हो जाता है, तब यक़ीनी तौर पर उसका नतीजा सड़ाव, ख़ुद अपनी ही नज़र में धर्मी होना, और फरीसीवाद ही होता है। हमने ऐसे अनेक उदाहरण देखे हैं जिसमें "अपना क्रूस उठाने" के सिद्धान्त का प्रचार करने वाले भी उसके भीतर से यीशु के जीवन को प्रकट किए बिना, उसे सिर्फ शब्द तक ही सीमित कर देते हैं।

ये सब हमारे लिए एक गंभीर चेतावनी देने वाली बात होनी चाहिए।

इफिसुस की कलीसिया के इतिहास के बारे में विचार करें।

पौलुस वहाँ 3 साल रहा, और उसने वहाँ दिन-रात प्रचार किया (प्रेरितों. 20:31)। इसका अर्थ है कि इफिसियों की कलीसिया ने पौलुस के मुख से सैंकड़ों संदेश सुने थे। उनके बीच प्रभु द्वारा अद्भुत चिन्ह्-चमत्कार किए गए थे (प्रेरितों. 19:11)। उनके बीच में से दो साल के थोड़े से समयकाल में ही, परमेश्वर का वचन एशिया माइनर के आसपास के क्षेत्र में फैल गया था। उन्होंने एक नवजागृति का अनुभव पाया था (प्रेरितों. 19:10,19)। प्रेरिताई के समयकाल की सारी कलीसियाओं में यह कलीसिया सबसे विशिष्ट थी। और निश्चित रूप में उस समय की वह एशिया माइनर की सबसे आत्मिक कलीसिया भी थी। (यह हम पौलुस द्वारा इफिसियों को लिखे पत्र द्वारा देख सकते हैं कि जिसमें उनके बीच उसे किसी ग़लती को सुधारने की ज़रूरत नज़र नहीं आई थी जबकि दूसरी कलीसियाओं को लिखते समय उसे ऐसा करना पड़ा था।)

लेकिन जब पौलुस इफिसुस से रवाना हो रहा था, तो उसने वहाँ के प्राचीनों को यह चेतावनी दी थी कि अगली पीढ़ी में, कलीसिया की नई अगुवाई में, बातें बदल कर बिगड़ सकती हैं। उसने उनसे कहा कि उनके बीच फाड़ खाने वाले भेड़िए आएंगे, और उनके ही बीच में से ऐसे लोग खड़े होंगे जो लोगों को प्रभु के पास लाने की बजाय ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी बातें करेंगे कि लोगों को अपने पीछे खींच ले जाएंगे (प्रेरितों. 20:29-30)।

जब तक पौलुस वहाँ था, तब तक किसी भेड़िए ने इफिसुस के झुण्ड में घुसने की कोशिश नहीं थी। पौलुस एक विश्वासयोग्य द्वारपाल था (देखें मरकुस 13:34), जिसके पास प्रभु का दिया हुआ अधिकार था, क्योंकि उसका अभिषेक हुआ था, क्योंकि वह परमेश्वर का भय मानता था, और क्योंकि वह अपनी नहीं प्रभु की बातों की खोज में रहता था। लेकिन इसके साथ ही उसमें इफिसुस के प्राचीनों की ख़राब आत्मिक दशा जान लेने की पर्याप्त आत्मिक समझ भी थी - और इसलिए वह जानता था कि एक बार जब वे कलीसिया की अगुवाई अपने हाथ में ले लेंगे, तब पतन शुरू हो जाएगा।

पौलुस ने इफिसुस के प्राचीनों के बीच कोई नबूवत करते हुए यह नहीं कहा था इफिसुस में निश्चित रूप में क्या होगा। नहीं। वह सिर्फ एक चेतावनी ही थी। यह ज़रूरी नहीं था कि उनके बीच उसके भविष्यसूचक कथन के अनुसार होता - अगर वे अगुवे अपना न्याय करते और मन फिराते, तो ऐसा नहीं होता।

योना ने नीनवे नगर के विनाश की नबूवत की। लेकिन भविष्य के बारे में जो सूचना उसने दी थी, वैसा नहीं हुआ, क्योंकि नीनवे के लोगों ने मन फिराया था। इफिसुस की कलीसिया भी उस दशा से बच सकती थी जिसकी भावी सूचना पौलुस ने उन्हें दी थी।

लेकिन अफसोस, इफिसुस के अगुवों की नई पीढ़ी ने पौलुस की चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया और वे प्रभु से दूर हट गए।

पहली शताब्दी का अंत होते-होते, तीसरी पीढ़ी ने सत्ता संभाल ली थी। और तब तक सब बातें वास्तव में बहुत बिगड़ चुकी थीं। उनके धर्म-सिद्धान्त अब भी सही थे और उनमें मसीही काम के लिए जोश भी था। उनमें शायद तब भी रात्रि-प्रार्थना सभाएं और अन्य विशेष सभाएं हो रही होंगी, लेकिन उनकी आत्मिक दशा इतनी ख़राब हो चुकी थी कि एक कलीसिया के रूप में प्रभु उनकी पहचान ही ख़त्म करने की तैयारी में था। उन्होंने अपना पहला-सा प्रेम छोड़ दिया था (प्रका. 2:4-5)।

इफिसुस की कलीसिया का इतिहास हमें क्या सिखाता है?

सिर्फ यही - कि कोई भी धर्म-सिद्धान्त स्वयं प्रभु के प्रति सरगर्म भक्ति से ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। सच्ची आत्मिकता का सिर्फ एक ही चिन्ह् होता है, सिर्फ एक - कि हमारे व्यवहार में यीशु के जीवन की अभिव्यक्ति बढ़ती जाती है, और ऐसा सिर्फ इसी तरह हो सकता है कि स्वयं प्रभु के प्रति हमारी व्यक्तिगत भक्ति बढ़ती रहनी चाहिए।

पौलुस एक ईश्वरीय व्यक्ति था - एक उत्साही और विश्वासयोग्य प्रेरित जो अपने जीवन के अंत तक प्रभु यीशु के प्रति भक्तिपूर्वक समर्पित था। और उसने सभी जगह विश्वासियों को यह चेतावनी दी कि शैतान उन्हें "मसीह की भक्ति की सरलता" से बहकाने के लिए हरेक युक्ति करेगा (2 कुरि. 11:3)।

फ्पानी में बपतिस्मा" या "पवित्र-आत्मा में बपतिस्मा" जैसे धर्म-सैद्धान्तिक मामलों में होनी वाली ग़लतियाँ हर्गिज़ इतनी ख़तरनाक नहीं होतीं जितनी मसीह के प्रति अपनी व्यक्तिगत भक्ति को खो देना ख़तरनाक होता है।

हम देखते हैं कि पौलुस भी सिर्फ अपनी ही पीढ़ी में परमेश्वर के उद्देश्यों की सेवा कर सका। जो उसके साथ तीमुथियुस की तरह रहे, वे उसकी आत्मा पा सके और मसीह के प्रति निःस्वार्थ भक्ति का जीवन व्यतीत कर सके (फिलि. 2:19-21)। लेकिन इसके अलावा, पौलुस उसके द्वारा स्थापित की हुई कलीसियाओं की दूसरी पीढ़ी में भी अपनी आत्मिकता नहीं पहुँचा सका था।

परमेश्वर द्वारा शुरू किए गए हरेक आंदोलन में हम इसी उदाहरण के दोहराए जाने को पाते हैं - पहली शताब्दी से, हरेक पीढ़ी में।

परमेश्वर में यह मनोवेग है कि पृथ्वी के हरेक भाग में, हरेक पीढ़ी में उसके नाम की शुद्ध साक्षी हो। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए वह एक देश में, एक ख़ास पीढ़ी में, उस देश की कलीसिया में प्रेरितों द्वारा प्रचार किए गए सत्य को पुनःस्थापित करने के लिए, एक ईश्वरीय पुरुष को खड़ा करता है, और इस तरह लोगों को एक ईश्वरीय जीवन की तरफ बढ़ाता है। उस व्यक्ति के चारों ओर एक जन-आंदोलन शुरू होता है और कुछ ऐसे निष्ठावान विश्वासी उसके आसपास जमा होने लगते हैं जो अपनी पीढ़ी की मसीहियत में फैली अवास्तविकता और दिखावे से तंग आ चुके होते हैं। बहुत जल्दी प्रभु के लिए एक शुद्ध साक्षी तैयार हो जाती है।

ऐसा समूह आरम्भ में बहुत छोटा होता है और पहले से स्थापित पुरानी कलीसियाओं द्वारा उससे बहुत घृणा की जाती है और सताया जाता है। सबसे ज़्यादा उसके संस्थापक से घृणा की जाती है। और उससे सबसे ज़्यादा घृणा करने वाला अकसर वह समूह होता है जिसे परमेश्वर ने पिछली पीढ़ी में खड़ा किया होता है - क्योंकि उस पीढ़ी के वर्तमान अगुवे, यह न जानते हुए कि परमेश्वर उन्हें छोड़ कर चला गया है - नए समूह से ईर्ष्या रखते हैं! इस नए समूह पर हमला करने के लिए शैतान भी शामिल हो जाता है - और वह उसका दोष लगाने का काम ज़्यादातर दूसरे फ्विश्वासियों" द्वारा करता है - ख़ास तौर पर उनके द्वारा जो पिछले समूह के होते हैं।

फिर भी, मनुष्यों और दुष्टात्माओं का सारा सताव और दुष्टता की युक्तियाँ भी इस व्यक्ति के द्वारा, जिसे परमेश्वर ने खड़ा किया है, नई पीढ़ी में उसके नाम की सच्ची साक्षी स्थापित करने से नहीं रोक सकते।

लेकिन जब यह व्यक्ति मर जाता है, तब क्या होता है?

तब आंदोलन का पतन होने लगता है। मसीह के प्रति व्यक्तिगत भक्ति लुप्त हो जाती है और उसकी जगह संस्थापक द्वारा प्रचारित धर्म-सिद्धान्त आ जाते हैं। वे धर्म-सिद्धान्त दूसरी पीढ़ी के लिए स्वयं प्रभु के व्यक्तित्व से बढ़कर हो जाते हैं। और परमेश्वर और उनके बीच एक बादल आ गया - जैसा रूपान्तर के पहाड़ पर प्रभु और शिष्यों के बीच में आ गया था (मत्ती 17:5)।

कोई भी धर्म-सिद्धान्त, चाहे वह कितना भी महत्वपूर्ण और अच्छा क्यों न हो, स्वयं यीशु के प्रति भक्ति का स्थान नहीं ले सकता। संस्थापक प्रभु को जानता है। दूसरी पीढ़ी सिर्फ धर्म-सिद्धान्त जानती है। इसका नतीजा गड़बड़ होता है, और आंदोलन जब तक तीसरी पीढ़ी में पहुँचता है, वह एक खुले रूप में विभाजन और कलह के लिए तैयार हो जाता है।

सामान्य तौर पर एक बात जो हरेक आंदोलन के साथ होती है, वह यह है कि दूसरी या तीसरी पीढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते वह धनवान हो जाता है जिसमें उसके सदस्यों का बहुत सा धन, घर, ज़मीन-जायदाद आदि हो जाता है। और जहाँ धन होता है वहाँ उसके साथ-साथ गर्व, आत्म-निर्भरता और आलस्य भी आ जाते हैं - क्योंकि ऐसे विश्वासी बहुत कम हैं जो धन को संभालना जानते हैं। आंदोलन की पहली पीढ़ी अकसर ग़रीबी में संघर्ष करती है और परमेश्वर के ज़्यादा पास होती है। दूसरी और तीसरी पीढ़ी, अपने अधिक धनवान होने की वजह से, अकसर संसार के ज़्यादा पास होती है - और वह अपनी आत्मिकता खो देती है।

तब परमेश्वर उस समूह से दूर हो जाता है, जो उस समय तक बाबुल का हिस्सा बन चुका होता है - और वह एक दूसरे पुरुष को खड़ा करता है, और उसके द्वारा एक बिलकुल नया काम शुरू कर देता है।

लेकिन यह दुःख की बात है कि फिर से यही बात दोहराई जाती है क्योंकि ऐसा लगता है जैसा अपने से पहले गुज़रे लोगों की ग़लतियों से कोई कुछ नहीं सीखता!

जो समझदार हैं, वे यह अपने आसपास यह जानने के लिए नज़र दौड़ाते हैं कि हाल में - उनकी अपनी पीढ़ी में - परमेश्वर का अभिषेक कहाँ पर ठहरा है, और वे उस कलीसिया के साथ पूरी तरह जुड़ जाते हैं। वे इस बात की परवाह नहीं करेंगे कि पिछली पीढ़ी में अभिषेक कहाँ ठहरा था। वे यह नहीं देखेंगे कि परमेश्वर एक या दो पीढ़ी पहले कहाँ काम कर रहा था, बल्कि वे यह देखेंगे कि परमेश्वर अभी कहाँ काम कर रहा है।

पवित्र-शास्त्र हमें स्पष्ट बताता है कि हमें ऐसे लोगों से बचना है जो सिर्फ भक्ति का वेश धारण करते हैं (2 तीमु. 3:5), लेकिन उनके साथ संगति करने की खोज में रहना है जो शुद्ध हृदय से प्रभु का नाम लेते हैं (2 तीमु. 2:22)। शुद्ध हृदय वाले वे हैं जो उनके पूरे हृदय से प्रभु से प्रेम करते हैं। ऐसे विश्वासियों के हृदय में पैसे के लिए, जायदाद के लिए, संसार की किसी वस्तु के लिए, परिवार के सदस्यों के लिए, या उनकी नौकरी-धंधे के लिए कोई जगह नहीं होती। वे सबसे बढ़कर प्रभु से प्रेेम करते हैं, और इसलिए वे अपने परिवार के सदस्यों से सामान्य से ज़्यादा गहरे स्तर का प्रेम करते हैं। वे किसी धर्म-सिद्धान्त के प्रति नहीं बल्कि भक्तिपूर्वक प्रभु को समर्पित होते हैं। हमसे कहा गया है कि हम हर समय ऐसे विश्वासियों के साथ संगति करने की खोज में रहें।

इस तरह, परमेश्वर का काम पीढ़ी-दर-पीढ़ी, बिना निष्फल हुए चलता रहता है - क्योंकि मनुष्य और शैतान की सारी युक्तियाँ भी परमेश्वर के उद्देश्यों को पूरा होने में रुकावट पैदा नहीं कर सकतीं। हाल्लेलूÕयाह!

अध्याय 5
एक आत्मिक मनुष्य के तीन चिन्ह्

फ्मैं तुमसे ऐसे बात न कर सका जैसे आत्मिक लोगों से, बल्कि जैसे शारीरिक लोगों से" (1 कुरि. 3:1)।

1 कुरिन्थियों 1:5,7 में हम पढ़ते हैं कि कुरिन्थियों के मसीही तीन क्षेत्रें में बड़े कुशल थे - पवित्र-शास्त्रें के ज्ञान में, प्रचार करने में, और पवित्र-आत्मा के दान-वरदानों में। लेकिन, इन सब के बावजूद वे आत्मिक लोग नहीं थे।

ऐसे विश्वासी पाना वास्तव में दुर्लभ है जो यह परख सकते हैं कि एक ऐसे कुशल और निपुण प्रचारक का आत्मिक होना ज़रूरी नहीं है जिसके पास बाइबल का व्यापक ज्ञान और पवित्र-आत्मा के चमत्कारिक वरदान भी हैं। वह पूरी तरह शारीरिक भी हो सकता है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम एक ऐसे समय में रहते हैं जिसमें ज़्यादातर विश्वासी यह सोचते हैं कि एक व्यक्ति अगर अच्छा "सभा-संचालक" है जो एक जीवंत रूप में सभाएं संचालित कर सकता है, लोगों को बहुत से चुटकुले सुना कर उनका अच्छा मन-मिज़ाज बना सकता है, और वाकपटुता के साथ प्रचार भी कर सकता है, तो वह एक आत्मिक व्यक्ति है।

यह दुःखद बात है कि आज प्रचारकों का सम्मान उनके जीवनों में मसीह-समान फलों के लिए नहीं, बल्कि उनके दान-वरदानों के लिए किया जाता है, जबकि यीशु ने स्पष्ट रूप में यह सिखाया था कि झूठे नबियों की यह पहचान होगी कि उनके चरित्र में ईश्वरीय फल की कमी होगी (मत्ती 7:15-20)।

यीशु ने यह भी कहा कि न्याय के दिन बहुत से लोग उसके सामने आकर कहेंगे कि उन्होंने उसके नाम में नबूवतें कीं और चिन्ह् दिखाए। लेकिन वह उनसे कह देगा कि उसने उन्हें कभी नहीं जाना (मत्ती 7:22,23)। वे यीशु को "प्रभु" कह रहे थे और उनके पास अलौकिक सामर्थ्य थी। लेकिन उनके जीवन में पाप था। इससे हम स्पष्ट देख सकते हैं कि बहुत सी फ्मसीही" गतिविधि और अलौकिक दान-वरदान भी एक व्यक्ति को आत्मिक नहीं बनाते। असल में, यह इस बात का भी संकेत नहीं हैं कि ऐसा व्यक्ति नया जन्म पाया हुआ व्यक्ति है क्योंकि प्रभु ने उनसे यह कहा कि उसने उन्हें कभी नहीं जाना!

यह समझने के लिए कि वह क्या है जो एक व्यक्ति को आत्मिक बनाता है, हम सबसे पहले शैतान की योग्यताओं की सूची बना सकते हैं। उससे हम यह स्पष्ट जान सकेंगे कि सच्ची आत्मिकता के चिन्ह् क्या नहीं हैं।

उदाहरण के तौर पर, गतिविधि को देखें। शैतान एक पूरा समय काम करता है जो दिन-रात गतिशील रहता है (प्रका. 12:9,10)। वह कभी अवकाश नहीं लेता। वह हमेशा ऐसे लोग खोजता रहता है जिन पर वह दोष लगा सके - और उसके बहुत से सहायक भी हैं! और उसे बाइबल का भी बहुत ज्ञान है, क्योंकि वह यीशु से भी पवित्र-शास्त्र में से बात कर रहा था। उसके पास अलौकिक दान-वरदान, उत्साह, अनेक सहकर्मी, अनुयायियों का एक बड़ा समूह, और बहुत लोगों के ऊपर अधिकार प्राप्त है। लेकिन वह आत्मिक नहीं है!

जो बातें मनुष्य को वास्तव में आत्मिक बनाती हैं, उन्हें तीन कथनों में समाहित किया जा सकता हैः ऊपर देखना, भीतर देखना, व बाहर देखना।

1. ऊपर - परमेश्वर और मसीह की आराधना और भक्ति में।

2. भीतर - मसीह-समान न होने को स्वीकार करने और मन-फिराने में।

3. बाहर - दूसरे लोगों की मदद करने और उन्हें आशिष देने में।

एक आत्मिक व्यक्ति ऊपर देखता है

परमेश्वर ने सबसे पहले हमें उसके आराधक होने के लिए बुलाया है - उसके लिए भूखे और प्यासे होने के लिए। एक आत्मिक मनुष्य परमेश्वर की आराधना करता है। उसकी एकमात्र अभिलाषा परमेश्वर होता है। स्वर्ग और पृथ्वी में परमेश्वर के अलावा उसे न किसी वस्तु की और न किसी मनुष्य की चाह होती है (भजन. 73:25)। उसके लिए धन परमेश्वर से बढ़कर नहीं होता। जैसे हिरणी पानी के लिए हाँफती है, वैसे ही एक आत्मिक मनुष्य परमेश्वर के लिए हाँफता है। एक प्यासे मनुष्य को जितनी पानी की अभिलाषा होती है, उससे बढ़कर वह परमेश्वर की अभिलाषा करता है।

एक आत्मिक मनुष्य सुख और सुविधा से बढ़ कर परमेश्वर के साथ संगति करने की लालसा करता है। वह प्रतिदिन परमेश्वर का उससे बात करता हुआ सुनने की लालसा करता है।

जो धन, सुख और अपनी सुविधा की आराधना करते हैं, वे हमेशा किसी-न-किसी बात के लिए शिकायत से भरे रहते हैं। लेकिन एक आत्मिक मनुष्य के पास किसी बात की कोई शिकायत नहीं होती, वह सिर्फ परमेश्वर को चाहता है और वह हमेशा उसके पास होता है। वह अपने जीवन की परिस्थितियों से कभी निराश नहीं होता क्योंकि उसे हमेशा उन परिस्थितियों में परमेश्वर का सामर्थी हाथ नज़र आता है, और वह हर समय अपने आपको आनन्दपूर्वक उस हाथ के नीचे दीन बनाए रहता है।

एक आत्मिक मनुष्य क्योंकि परमेश्वर के संपर्क में रहता है इसलिए उसे अपने जीवन को संचालित करने के लिए किसी तरह के क़ानून या नियमों की ज़रूरत नहीं होती। उसने जीवन का वृक्ष पा लिया है (स्वयं परमेश्वर) इसलिए उसकी भले और बुरे के ज्ञान के वृक्ष में कोई दिलचस्पी नहीं रहती। उसके जीवन में क्योंकि मसीह की भक्ति की सरलता है, इसलिए वह दूसरी ग़ैरज़रूरी बातों में नहीं फँसता। यीशु की ओर देखते हुए, वह आत्मिक मनुष्य वर्ष प्रति-वर्ष ज़्यादा और ज़्यादा अपने प्रभु जैसा बनता जाता है।

एक आत्मिक मनुष्य अपने आपको लगातार नम्र व दीन करता रहेगा। और इसलिए परमेश्वर उसे लगातार ऊँचा उठाता रहेगा। उसे परमेश्वर के साथ एक नज़दीकी और नज़दीकी रिश्ते में ऊँचा और ऊँचा उठाया जाता रहेगा। ऐसा मनुष्य जिसने स्वर्गीय वास्तविकताओं को देख लिया है, हमेशा यही चाहेगा कि उसके भले काम मनुष्यों की नज़र से छुपे रहें।

एक आत्मिक मनुष्य भीतर देखता है

ऊपर देखना मनुष्य को भीतर देखने के लिए प्रेरित करता है। जैसे ही यशायाह ने परमेश्वर की महिमा को देखा, उसे तुरन्त अपनी पापमय दशा की जानकारी हुई (यशा. 6:1-5)। अÕयूब, पतरस और यूहन्ना के साथ भी ऐसा ही हुआ था (अÕयूब 42:5-6; लूका 5:8; प्रका- 1:17)। जब हम परमेश्वर की उपस्थिति में रहते हैं, तब हम अपने जीवन के बहुत से क्षेत्रें में अपने मसीह-समान न होने को देख पाते हैं। इस तरह, एक आत्मिक मनुष्य को लगातार उसके जीवन के छुपे हुए पापों को देखने के लिए ज्योति प्राप्त होती रहती है।

हमें यह आज्ञा दी गई है कि हम "पवित्रता (के वस्त्र) से शोभायमान होकर" प्रभु की आराधना करें (भजन. 29:2)। पवित्रता के वस्त्र के बिना, हम परमेश्वर के सामने नंगे हैं। इसलिए एक आत्मिक मनुष्य परमेश्वर के और मनुष्यों के सामने अपने विवेक को शुद्ध रखने के लिए "अपना सर्वश्रेष्ठ" करता रहता है (प्रेरितों. 24:16)। जैसे एक व्यापारी ज़्यादा से ज़्यादा पैसा कमाने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ करता है, और अनुसंधान करने वाला एक वैज्ञानिक नई शोध करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ करता है, वैसे ही आत्मिक मनुष्य हर समय अपने विवेक को शुद्ध रखने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ करता है।

एक आत्मिक मनुष्य लगातार अपना न्याय करता रहता है क्योंकि वह यह पाता है कि उसके जीवन में ऐसी बहुत सी बातें हैं जिनसे उसे शुद्ध होने की ज़रूरत है - ऐसी बातें जिनके होने से दूसरे विश्वासियों को उनके जीवनों में शायद कोई फ़र्क न पड़ता हो।

एक आत्मिक मनुष्य यह समझता है कि उसे भीतरी तौर पर प्रतिदिन ऐसी बहुत सी बातों के लिए मरना है जो परमेश्वर के लिए प्रभावी होने में उसके लिए बाधा बनती हैं। इस तरह प्रतिदिन अपनी सूली उठाकर चलना उसकी जीवन-शैली बन जाती है और वह "यीशु की मृत्यु को सदा अपनी देह में उठाए फिरता है" (2 कुरि. 4:10)।

एक आत्मिक मनुष्य को किसी के भी सामने दीन होने में या किसी से भी क्षमा माँगने में कोई मुश्किल महसूस नहीं होती - चाहे वह व्यक्ति उससे बड़ा हो या छोटा हो। उसे यह समझ आता है कि अगर उसने एक व्यक्ति को भी किसी भी तरह की चोट पहुँचाई होगी - चाहे वह उसकी पत्नी, भाई या पड़ोसी हो - तो उसकी प्रार्थनाएं और सेवा परमेश्वर को कभी ग्रहणयोग्य नहीं होंगी। इसलिए, जैसे ही उसे यह एहसास होता है कि उसने किसी को चोट पहुँचाई है, फ्वह अपनी भेंट वेदी के सामने छोड़ कर अपने भाई से जिससे उसे शिकायत है, जाकर मेल करता है और फिर आकर अपनी भेंट चढ़ाता है" (मत्ती 5:23,24)।

एक आत्मिक मनुष्य बाहर देखता है

ऊपर और भीतर देखना बाहर देखने के लिए प्रेरित करता है।

एक आत्मिक मनुष्य वह है जो यह जानता है कि परमेश्वर ने उसे इसलिए आशिषित किया है कि वह दूसरे लोगों को आशिष दे सके। परमेश्वर ने क्योंकि उसके इतने पाप क्षमा किए हैं, इसलिए वह ख़ुशी से उन सबको क्षमा कर देता है जो उसको हानि पहुँचाते हैं। परमेश्वर क्योंकि उसके लिए ऐसा भला साबित हुआ है, इसलिए वह भी दूसरों के साथ भला करता है। उसने क्योंकि परमेश्वर से सेंतमेंत पाया है, इसलिए वह भी दूसरों को सेंतमेंत देता है।

एक आत्मिक मनुष्य वास्तव में दूसरों की भलाई में दिलचस्पी रखता है। वह खोई और पीड़ा में पड़ी मानव जाति के लिए संवेदना से भरा होता है, और वह ज़रूरत में पड़े किसी भाई को देखकर कभी अनदेखा नही कर सकता - जैसा कि दयालु सामरी के दृष्टान्त में उस लेवी ने और याजक ने किया था (लूका 10:30-37)।

परमेश्वर को पाप में गिरे मनुष्य में दिलचस्पी है - वह उसकी मदद करना चाहता है, उसे आशिष देना चाहता है, उसे शैतान के बंधन से छुड़ा कर ऊँचा उठाना चाहता है। आत्मिक मनुष्य की भी यही दिलचस्पी होती है। अपने स्वामी की तरह आत्मिक मनुष्य सेवा करवाना नहीं सेवा करना चाहता है। यीशु भलाई करता और उन सब को जो दुष्टात्मा द्वारा सताए हुए थे, चंगा करता फिरा (प्रेरितों. 10:38)। आत्मिक मनुष्य भी वही करता है।

एक आत्मिक मनुष्य दूसरों की जो सेवा करता है, उसके बदले वह उनसे कुछ लाभ प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं करता - न धन, और न सम्मान। परमेश्वर की तरह, वह अपने जीवन और काम के द्वारा सिर्फ दूसरों को आशिष देना चाहता है। वह कभी किसी से कुछ भेंट पाने की अपेक्षा नहीं करेगा - क्योंकि अपनी हरेक ज़रूरत के लिए वह सिर्फ परमेश्वर पर ही भरोसा करता है।

दूसरी शताब्दी में से फ्बारह प्रेरितों की शिक्षा" नाम की एक छोटी पुस्तिका हम तक पहुँची है जो हमें बताती है कि आरम्भिक प्रेरित अपने समय में सभी विश्वासियों को यह सिखाते थे कि वे ऐसे हरेक प्रचारक से सावधान रहें जो उनसे पैसा माँगता है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति हमेशा ही एक झूठा नबी होगा। सिर्फ यही बात अगर हमें समझ आ जाए, तो हम आज कितने झूठे नबियों से बच जाएंगे!

एक आत्मिक मनुष्य ऊपर, भीतर, और बाहर देखता है। अगर वह सिर्फ ऊपर देखने वाला होगा तो वह अवास्तविक होगा - "ऐसी स्वर्गीय मनोदशा वाला कि वह फिर पृथ्वी पर किसी काम का ही न रहे।" अगर वह सिर्फ भीतर देखने वाला होगा, तो वह ज़्यादातर दबाव में और निराश रहेगा। अगर वह सिर्फ बाहर देखने वाला होगा, तो उसका काम उथला/सतही होगा।

लेकिन एक आत्मिक मनुष्य लगातार तीनों दिशाओं में देखता है।

परमेश्वर संतुलित व आत्मिक होने में हमारी मदद करे।

अध्याय 6
वे पाँच पाप जिनसे यीशु ने सबसे ज़्यादा घृणा की

हम जैसे-जैसे आत्मिक रूप में बढ़ते हैं, हम यह पाते हैं कि प्राथमिक रूप में परमेश्वर की धार्मिकता बाहरी नहीं है, और पाप भी प्राथमिक रूप में बाहरी नहीं है।

जब हम धार्मिकता की बात करते हैं, तब ज़्यादातर लोग उस मानक/मापदण्ड के बारे में सोचते हैं जो दस आज्ञाओं में है। लेकिन नई वाचा में धार्मिकता का माप किसी लिखित व्यवस्था द्वारा नहीं बल्कि यीशु के जीवन द्वारा नापा जाता है।

जब हम उन पापों के बारे में विचार करते हैं जिनके बारे में यीशु ने सबसे ज़्यादा बात की है, तो हमें यह पता चलेगा कि वह सबसे ज़्यादा किन बातों से घृणा करता है। जब हम ऐसे पाँच पापों के बारे में विचार करते हैं, तो हम पाते हैं कि इनमें से एक भी दस आज्ञाओं में नहीं है!

1.पाखण्ड

पाखण्डी होने का अर्थ है कि हम दूसरों के सामने अपनी पवित्रता की ऐसी छवि बनाते हैं, जितने पवित्र हम वास्तव में नहीं हैं। यह झूठा होने, या झूठ बोलने के समान ही है। यीशु ने मत्ती 23:13-29 में पाखण्डी लोगों को सात बार श्राप दिया है।

हम अपना मुँह खोले बिना ही झूठ बोल सकते हैं। हनन्याह ने एक शब्द बोले बिना ही पवित्र-आत्मा से झूठ बोला - जब उसने पूरे हृदय से यीशु का शिष्य होने का पाखण्ड किया (प्रेरितों. 5:1-5)।

यीशु ने फरीसियों से कहा कि उनके जीवन फ्भीतर से हर प्रकार की लूट और असंयम से भरे हुए" थे (मत्ती 23:25) जिसका अर्थ था कि वे सिर्फ स्वयं को प्रसन्न रखने के लिए ही जीते थे। फिर भी वे दूसरों के सामने अपनी यही छवि दिखाते थे क्योंकि उन्हें पवित्र-शास्त्र का बहुत ज्ञान था, वे उपवास करते और प्रार्थना करते थे, और अपनी आय का दसमांश देते थे, इसलिए वे पवित्र थे। वे बाहरी तौर पर बहुत पुण्य नज़र आते थे। लोगों के बीच में वे बहुत लम्बी-लम्बी प्रार्थनाएं करते थे, लेकिन अकेले में वे लम्बी प्रार्थना नहीं करते थे - जैसे आज बहुत लोग हैं। अगर हम सिर्फ रविवार की सुबह में ही परमेश्वर की स्तुति करते हैं, और हमारे भीतर हर समय स्तुति का आत्मा नहीं है, तो वह पाखण्ड है।

परमेश्वर हमारे हृदय को देखता है। समझदार कुंवारियों के बर्तनों में तेल का छुपा हुआ भण्डार था, जबकि मूर्ख कुंवारियों के पास सिर्फ इतना था कि वे उनके दीपकों को सिर्फ बाहरी तौर पर जलाए रख सकें और इस तरह मनुष्य के बीच अपनी अच्छी साक्षी बनाए रखें (मत्ती 25:1-4)।

जब हम किसी मसीही अगुवे के अचानक व्यभिचार में गिर जाने के बारे में सुनते हैं, तो हमें समझना चाहिए कि वह अचानक नहीं गिर गया है बल्कि वह उसके अविश्वासयोग्य होने के एक लम्बे समय का परिणाम है। वह एक लम्बे समय से पाखण्डी रहा है!

2.आत्मिक गर्व

आत्मिक गर्व पवित्रता के खोजियों में पाया जाने वाला सबसे सामान्य पाप है। हम सभी उस स्व-धर्मी फरीसी का दृष्टान्त जानते हैं जो अपनी प्रार्थना में भी दूसरों से द्वेष कर रहा था (लूका 18:9-14)! इस बात की बड़ी सम्भावना है कि विश्वासियों द्वारा लोगों के बीच में की जाने वाली 90 प्रतिशत प्रार्थनाएं प्राथमिक रूप में परमेश्वर से नहीं की जातीं बल्कि उनका उद्देश्य उन्हें सुन रहे लोगों को प्रभावित करना होता है। दृष्टान्त में दर्शाया गया फरीसी उसके बाहरी जीवन में दूसरे पापियों जैसा दुष्ट नज़र न आता होगा। लेकिन यीशु के लिए वह गर्व घृणित था जिसमें होकर वह अपने आत्मिक कामों के बारे में सोच रहा था और जिसमें वह दूसरों से द्वेष कर रहा था। यह आत्मिक गर्व होता है जिसमें विश्वासी दूसरे विश्वासियों का लगातार न्याय करते रहते हैं।

लेकिन वह चुंगी लेने वाला, जो अपने आपको सबसे घिनौना पापी मान रहा था - परमेश्वर द्वारा स्वीकार किया गया। जिनका भी परमेश्वर से आमना-सामना हुआ है, उन्होंने एक समय में अपने आपको सबसे घिनौने पापी के रूप में देखा है।

यीशु ने यह सिखाया कि स्वर्ग में जो सबसे महान् व्यक्ति होगा वह सबसे दीन व्यक्ति होगा (मत्ती 18:4)। स्वर्ग में पाया जाने वाला सबसे बड़ा गुण दीनता है। हम प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में देखते हैं कि जिन्होंने स्वर्ग में मुकुट पाएं हैं वे सभी प्रभु के सामने अपने मुकुट फेंकते हुए यह स्वीकार करने में देर नहीं करते कि सिर्फ वही हरेक मुकुट का अधिकारी है (प्रका. 4:10,11)।

यीशु ने कहा कि अगर हम किसी तरह परमेश्वर की हरेक आज्ञा का पालन कर लें, तो भी हम निकम्मे दास ही कहलाएंगे क्योंकि हमने सिर्फ वही किया है जो हमें करना चाहिए था (लूका 17:10)। तब हम अपनी उस दशा के बारे में क्या कहें जिसमें हम अकसर गिरे रहते हैं!

3.अशुद्धता

हमारे जीवनों में अशुद्धता का प्रवेश ज़्यादातर हमारी आँखों और कानों के द्वारा होता है। फिर ये अशुद्धता हमारे हृदयों में से बाहर आती है और हमारी देह के विभिन्न अंगों में से अभिव्यक्त होती है - मुख्य रूप में हमारी आँखों और जीभ के द्वारा। इसलिए जो भी अपने आपको शुद्ध रखना चाहता है उसे इस बात का ख़ास ध्यान रखना होगा कि वह क्या देखता है और क्या सुनता है।

यीशु अशुद्धता से इतनी घृणा करता है कि उसने अपने शिष्यों से कहा कि अगर उनकी दाहिनी आँख या दाहिना हाथ अशुद्ध हो जाए तो उन्हें उनसे पाप करते रहने की बजाए काट कर फेंकने के लिए तैयार रहना चाहिए (मत्ती 5:27-29)।

ऐसा कब होता है कि डॉक्टर दाहिने हाथ को या एक आँख को निकाल देने की सलाह देते हैं? सिर्फ तभी जब उनकी दशा इतनी ख़राब हो जाती है कि उनको काटे और निकाले बिना पूरी देह के मर जाने की सम्भावना बन जाती है। यही वह बात है जो हमें पाप के बारे में समझ लेने की ज़रूरत है। पाप इतनी गंभीर बात है कि वह हमारे जीवन के लिए ख़तरा बन जाता है। बहुत से विश्वासियों को अभी तक यह समझ नहीं आया है और इसी वजह से वे अपनी आँखों और जीभ के इस्तेमाल के बारे में इतने लापरवाह होते हैं। जब हमारी आँखों और जीभों द्वारा पाप हमें परखने के लिए आए, तो अंधों और गूंगों जैसा हो जाना चाहिए। यीशु के इन शब्दों का यही अर्थ था।

4.मानवीय ज़रूरतों के प्रति लापरवाही

यीशु आराधनालय के अगुवों पर तब क्रोधित हुआ जब उन्होंने यह न चाहा कि वह एक मनुष्य को चंगा करे क्योंकि वह विश्राम-दिन (सब्त) था। फ्मानवीय ज़रूरत के प्रति उनकी लापरवाही को देख कर वह बहुत दुःखी हुआ" (मरकुस 3:5, लिविंग)।

हमें यह आज्ञा दी गई है कि हम सब मनुष्यों का, ख़ास तौर पर परमेश्वर के बच्चों का भला करें (गलातियों 6:10)। यीशु ने यह सिखाया कि वे जो अपने भाइयों के जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कुछ नहीं करते, वे अंतिम दिन में उसके सामने से निकाल दिए जाएंगे (मत्ती 25:41-46)। यह हो सकता है कि हमारे पास बीमार विश्वासियों को चंगा करने का दान न हो। लेकिन हम बीमार लोगों से मिलने तो ज़रूर जा सकते हैं। यीशु हमसे सिर्फ इतना ही करने के लिए कह रहा है।

वह धनवान व्यक्ति इसलिए नर्क में गया क्योंकि उसने भाई लाज़र की परवाह नहीं की थी, जो एक साथी-यहूदी था और इब्राहीम का साथी-पुत्र था। दयालु सामरी के दृष्टान्त में यीशु द्वारा लेवी और याजक पाखण्डियों के रूप में इसलिए प्रकट किए गए क्यों उन्होंने अपने साथी-भाई-यहूदी के प्रति, जो मार्ग के किनारे घायल दशा में पड़ा था, संवेदना प्रकट नहीं की थी। बाइबल कहती है जो अपने भाई को किसी ज़रूरत में पड़ा देखता है और उसकी मदद नहीं करता तो असल में उसमें उद्धार करने वाला विश्वास नहीं है (याकूब 2:15-17)। जब वे यह कहते हैं कि उनका नया जन्म हो गया है तो वे अपने आपको धोखा दे रहे हैं। उनका नया जन्म नहीं हुआ है। जो ज़रूरत में पड़े अपने भाई को देखकर द्रवित नहीं होते, उनके हृदय में परमेश्वर का प्रेम होना सम्भव नहीं है (1 यूहन्ना 3:17)।

यीशु ने ऐसे मामलों पर बहुत कठोरता से बात की थी क्योंकि वह ऐसी मनोदशा से घृणा करता है जो ऐेसे बहुत से धार्मिक लोगों में होती है जो अपने ज़रूरतमंद भाइयों की मदद करने में नहीं बल्कि सिर्फ धार्मिक गतिविधियों में दिलचस्पी रखते हैं।

5.अविश्वास

जिन चार पापों का हमने उल्लेख किया है, उन्हें आसानी से विश्वासियों के पाप के रूप में पहचाना जा सकता है। लेकिन जब अविश्वास की बात आती है तो लगभग सभी विश्वासी इसे पाप नहीं बल्कि कमज़ोरी समझते हैं। इसलिए वे अविश्वास से ऐसी घृणा करना नहीं सीखते जैसी वे दूसरे पापों से करते हैं। लेकिन बाइबल एक अविश्वासी हृदय के बारे में बात करते हुए उसे एक दुष्ट हृदय कहती है (इब्रानियों 3:12)। यीशु ने अपने शिष्यों को अविश्वास के लिए सात बार डाँटा था (देखें मत्ती 6:30; 8:26; 14:31; 16:8; 17:17-20; मरकुस 16:14; लूका 24:25)। ऐसा लगता है जैसे उसने अपने शिष्यों को दूसरी किसी भी बात के लिए नहीं डाँटा था!

अविश्वास परमेश्वर का अपमान करना है, क्योंकि यह मानो ऐसा कहना है कि परमेश्वर अपने बच्चों की इतनी देखभाल भी नहीं कर सकता और उन्हें उतना भी नहीं दे सकता जितना कि इस पृथ्वी के दुष्ट पिता उनके बच्चों को संभालते और उन्हें देते हैं।

आजकल एक ऐसा झूठा सुसमाचार भी सुनाया जा रहा है जो परमेश्वर से वस्तुएं पाने का माध्यम बना हुआ है। लेकिन यीशु ने इस विश्वास का प्रचार नहीं किया था। वह चाहता था कि हमारा ऐसा विश्वास हो जिससे हम अपने प्रतिदिन का जीवन जी सकें।

दबाव, बुरी मनोदशा, और निराशा पर तभी जय पाई जा सकती है जब हम स्वर्ग में रहने वाले अपने प्रेमी पिता में और उसके वचन में हमें दी गई अद्भुत प्रतिज्ञाओं में विश्वास करते हैं।

हम दो जगह पढ़ते हैं कि यीशु को आश्चर्य हुआ - एक बार जब उसने विश्वास पाया और एक बार जब उसने अविश्वास पाया! (मत्ती 8:10; मरकुस 6:6)। यीशु ने जब भी लोगों में विश्वास देखा तो वह उत्साहित हुआ था। और जब भी उसने यह देखा कि लोग प्रेम करने वाले स्वर्गीय पिता में विश्वास करने के लिए तैयार नहीं हैं, तो वह निराश हुआ।

अब जबकि हम जानते हैं

अब जबकि हमने यह समझ लिया है कि यीशु ने सबसे ज़्यादा घृणा किन पापों से की, तो हमारा भी लक्ष्य यही होना चाहिए कि हम भी इन पाँच पापों से घृणा करें। जब हम इन पापों को अपने जीवन में पाएं, तो हमें निर्ममता के साथ इन्हें सूली पर चढ़ा देना चाहिए।

बहुत से प्रचारक हमारी पुस्तकें नियमित रूप से सिर्फ इसलिए पढ़ते हैं कि उन्हें प्रचार करने के मुद्दे मिल जाएं। मैं ऐसे सब लोगों को यह चेतावनी देना चाहता हूँः शैतान आपको प्रलोभित करेगा कि आप अपने संदेश के लिए इस लेख में से पाँच प्रचारीय-बिन्दु तैयार कर लें! लेकिन आपको जो सबसे पहले करने की ज़रूरत है, वह यह है कि आप अपने जीवन में इन पापों से पूरी तरह घृणा करें। तब आप परमेश्वर के वचन का अधिकार के साथ प्रचार कर पाएंगे। वर्ना संसार के अन्य बहुत से प्रचारकों की तरह आप भी सिर्फ एक फरीसी ही बने रहेंगे।

अध्याय 7
प्रत्येक कलीसिया में एक द्वारपाल होना चाहिए

फ्यह उस मनुष्य के समान है जो अपना घर छोड़कर यात्र पर बाहर गया। अपने दासों को अधिकार देकर उसने प्रत्येक को उसका काम बताया और द्वारपाल को भी जागते रहने की आज्ञा दी" (मरकुस 13:34)।

हम देखते हैं कि प्रभु ने पृथ्वी पर अपने प्रत्येक सेवक को उसका काम सौंपते हुए अपने घर (कलीसिया) का अधिकार दिया है। प्रभु ने घर में एक द्वारपाल भी नियुक्त किया है जिसे उसने ख़ास तौर पर जागते रहने की आज्ञा दी है। यह स्पष्ट है कि द्वारपाल कलीसिया का एक प्राचीन है। उसका काम प्रभु के लिए द्वार खोलना है कि वह अपनी भेड़ों को बाहर ले जा सके, और कठोरता से यह भी सुनिश्चित करना है कि स्वार्थी और भेड़िए कलीसिया में भेड़ों का नाश करने और उन्हें भरमाने के लिए न आ सकें (यूहन्ना 10:3)।

उसे उन सबकी आत्मिक दशा पर भी नज़र रखनी है जो कलीसिया का हिस्सा हैं, और उन्हें चेतावनी देनी हैं जो विश्वास त्याग कर के पीछे हट रहे हैं। बाइबल सभी चरवाहों को यह आज्ञा देती है, "अपनी भेड़-बकरियों की दशा भली-भांति जान और अपने झुण्डों की देखभाल कर" (नीति. 27:23)।

द्वारपाल को हर समय जागते रहना होगा क्योंकि कलीसिया का नाश करने और उसकी साक्षी मिटाने के लिए शैतान द्वारा भेजे हुए सांसारिक लोग भी उसकी स्थानीय कलीसिया का हिस्सा होना चाहेंगे।

यहूदा ने ऐसे लोगों के बारे में लिखा है जो पहली शताब्दी की कलीसिया में भी फ्चुपके से घुस आए" थे (यहूदा 4)।

यह स्पष्ट है कि यह एक ऐसा काम है जो ज़्यादातर प्राचीन करना न चाहेंगे - ख़ास तौर पर तब जब वे प्रभु के नाम के आदर और कलीसिया की साक्षी से बढ़कर अपनी सौम्य छवि से प्रेम करने वाले होंगे!

तो हम देख सकते हैं कि एक द्वारपाल होने की प्राथमिक योग्यता परमेश्वर के नाम की महिमा के लिए कठोर होने के लिए तैयार होना और अपने लिए आदर और सम्मान पाने की खोज में रहने की मनोदशा में से मुक्त रहना है।

पौलुस ने यह क्यों कहा कि उसके इफिसुस से जाने के बाद फ्कलीसिया में फाड़ने वाले भेड़िए घुस जाएंगे जो झुण्ड को न छोड़ेंगे" (प्रेरितों. 20:29)? क्योंकि वह जानता था कि उस कलीसिया के प्राचीनों में ऐसा एक व्यक्ति भी नहीं था जो द्वारपाल होने का अप्रिय काम करने के लिए तैयार होता। सभी एक फ्सौम्य भाई" कहलाए जाने में अपना नाम कमाना चाहते थे, और "अपने लिए ऐसे शिष्य बनाना चाहते थे जो उनकी सराहना करें"।

यही वजह थी कि बाद में इफिसुस की कलीसिया में फाड़ खाने वाले भेड़िए घुस आए थे, और शैतान ने उसे इस हद तक भ्रष्ट कर दिया था कि प्रभु उनके बीच में से अपनी उपस्थिति और उसका अभिषेक (दीपदान) हटा देने पर था (प्रका. 2:5)। आज कलीसियाआें में फाड़ खाने वाले भेड़ियों के घुस आने की भी यही वजह है।

दाऊद ने कहा कि फ्दुष्टता के तम्बुओं में रहने की बजाय परमेश्वर के द्वार पर ही खड़ा रहना अच्छा है" (भजन. 84:10)।

इससे यह संकेत मिलता है कि परमेश्वर के घर के सारे पदों की तुलना में द्वारपाल का पद ही ऐसा है जिसे कोई नहीं चाहता। आज प्रभु यही चाहता है कि जिन भाइयों पर कलीसिया की िज़म्मेदारी है, वे अपने आपको इस काम के लिए प्रस्तुत करें।

एली इस्राएल में महायाजक था और यह िज़म्मेदारी थी कि वह परमेश्वर के मन्दिर की शुद्धता को बनाए रखे। लेकिन उसने अपने ही पुत्रें को परमेश्वर के मन्दिर को उनके व्यभिचार द्वारा अशुद्ध करने की अनुमति दी, और उसने उन्हें कभी वहाँ से बाहर नहीं निकाला। उसने सिर्फ नरमी से उन्हें झिड़का और वे पाप करते रहे (1 शमु. 2:22-25)।

एली के समय में "परमेश्वर से वचन प्राप्त करना दुर्लभ था" (1 शमु. 3:1)। आज भी ऐसा ही है - उन कलीसियाओं में भी जो नई वाचा का प्रचार करती हैं। यह इसलिए है क्योंकि बहुत से प्राचीन एली की तरह अपने बच्चों से इतना प्रेम करते हैं कि उन्हें सुधारते नहीं हैं। अगर एक प्राचीन के बच्चे विश्वासी नहीं हैं, तो उसे प्राचीन के रूप में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है (देखें, 1 तीमु. 3:4,5)।

ऐसे प्राचीन परमेश्वर की बात सुनना नहीं जानते और सिर्फ अपने परिवार के सदस्यों का बचाव करना जानते हैं। उन्होंने परमेश्वर का अभिषेक खो दिया है, हालांकि यह हो सकता है कि वे एली की तरह अपने सिंहासन पर बैठे हों! हमें यह प्रार्थना करनी चाहिए कि वह कलीसिया में हरेक विश्वासी को यह स्पष्ट रूप में दिखाए कि ऐसे प्राचीन उनके जीवनों पर से उसका अभिषेक खो चुके हैं।

जब एक प्राचीन की सेवकाई नीरस, बोझिल, निर्जीव और पहले कही जा चुकी बातों का मन्द रूप में दोहराना ही रह जाए, तो आप निश्चित रूप से जान सकते हैं कि वह प्राचीन एली जैसा बन गया है। चाहे परमेश्वर पहले उसके साथ रहा हो, लेकिन अब वह उसके साथ नहीं है। शायद वह अब परमेश्वर और उसकी कलीसिया से ज़्यादा धन से प्रेम करने लगा है। ऐसा न हो कि विश्वासी ऐसे प्राचीनों को परखे बिना रहने दें और यह मानते रहें कि वे परमेश्वर के जन हैं। वे परमेश्वर के जन नहीं हैं।

नई वाचा की कलीसियाओं में आज बहुत से प्राचीन सिर्फ इस वजह से प्राचीन हैं क्योंकि वे उस कलीसिया में आरम्भ से ही हैं। वे अपनी वरीयता के आधार पर अपने सिंहासनों पर बैठे हैं, इस आधार पर नहीं कि उनके जीवनों पर अभी तक परमेश्वर का अभिषेक जारी है।

"एली के पुत्र तो लुच्चे थे जो प्रभु को नहीं जानते थे" (1 शमु. 2:12)। फिर भी उन्हें प्रभु के घर में जिम्मेदारी के काम सौंपे हुए थे। आज भी ऐसी ही त्रसदीपूर्ण परिस्थिति है। ऐसे पुरुष जो "प्रभु को नहीं जानते" बहुत सी कलीसियाओं में जिम्मेदारी के पदों पर बैठे हैं। इसलिए शैतान ऐसी कलीसियाओं में उसके उद्देश्य पूरे करता रहता है क्योंकि वहाँ कोई द्वारपाल नहीं है। इसलिए अधोलोक के फाटक ऐसी कलीसियाओं पर प्रबल हो गए हैं।

पौलुस ने जब यह सुना कि कुरिन्थियों की कलीसिया में एक व्यक्ति ने लैंगिक पाप किया था, तो उसका व्यवहार कितना कठोर था? हालांकि उस समय पौलुस कुरिन्थिुस में मौजूद नहीं था और उसने यह बात खलोए से जानी थी (1 कुरि. 1:11), फिर भी उसने कहा, फ्जहाँ तक मेरा सम्बंध है, हालांकि मैं शरीर में तो नहीं लेकिन आत्मा में तुम्हारे बीच मौजूद हूँ, और मानो मौजूद रहकर ऐसे घृणित काम करने वाले व्यक्ति के खिलाफ़ अपनी ओर से यह निर्णय दे चुका हूँ कि जब तुम हमारे प्रभु यीशु के नाम में एकत्रित हो, और आत्मा में मैं भी तुम्हारे साथ, तो हमारे प्रभु यीशु की सामर्थ्य से, ऐसा मनुष्य शरीर के विनाश के लिए शैतान को सौंपा जाए, कि उसकी आत्मा प्रभु यीशु के दिन में उद्धार पाए" (1 कुरि. 5:3-5)।

पौलुस द्वारा दृढ़ता से खड़े रहने द्वारा कुरिन्थियों की कलीसिया को दूषित होने से और प्रभु के नाम को बदनाम होने से बचाया जा सका। उसकी कठोरता का परिणाम अंत में उस व्यक्ति का उद्धार हुआ (2 कुरि. 2:5-8)।

सिर्फ पौलुस जैसे द्वारपाल ही एक कलीसिया की शुद्धता को बनाए रख सकते हैं, और पीछे हट जाने वालों को उनकी सच्ची दशा के बारे में बता कर उन्हें वापिस प्रभु के पास ला सकते हैं। दूसरी तरफ, जो अपना नाम और आदर चाहते हैं, वे प्रभु के लिए कुछ भी हासिल न कर सकेंगे।

यह सम्भव है कि कुछ प्राचीन यह पढ़ने के बाद मानवीय उत्साह से भर जाएं कि वे अब से अपनी कलीसियाओं में से हरेक पापी को दूर कर देंगे। इसका नतीजा सिर्फ यह होगा कि उनकी मण्डलियों में से सब चले जाएंगे और उनके भवन खाली हो जाएंगे - क्योंकि फ्मनुष्य का जुनून परमेश्वर की धार्मिकता को पूरा नहीं कर सकता" (याकूब 1:20)। इसमें ज़रूरी है कि पवित्र-आत्मा एक व्यक्ति की अगुवाई करे।

यीशु ने बहुत बार मन्दिर में लेन-देन करने वालों और कबूतर बेचने वालों को देखा था। लेकिन उसने देख कर हर बार मन्दिर में से नहीं निकाला था। उसने उन्हें सिर्फ तभी निकाला जब उसके पिता ने उसे ऐसा करने के लिए कहा - एक बार उसकी सेवकाई के आरम्भ में (यूहन्ना 2:15), और एक बार उसकी सेवकाई के अंत में (मरकुस 11:15)। यीशु अपने पिता के घर का अच्छा द्वारपाल था।

लेकिन, अगर हम मानवीय जोश में काम करेंगे तो हम उज़्ज़ाह की तरह होंगे जिसने अपने हाथ से वाचा के सन्दूक को संभालना चाहा लेकिन परमेश्वर ने "उसके इस अनादर के कारण" उसे मार डाला (2 शमु. 6:7)।

प्रभु के घर के द्वारपाल होते हुए, हमें सचेत रहना है, न सिर्फ उन सांसारिक विश्वासियों की तरफ से जो कलीसिया की साक्षी को ख़राब करने के लिए आते हैं, लेकिन उन युवा उत्साही भाइयों की तरफ से भी जो मानवीय जुनून में काम करते हैं और दूसरे युवाओं को इधर-उधर दूसरी ही दिशाओं में भेज देते हैं।

हमें भावुकतावाद, और ऐसी नई नई फ्सनकों" और "युक्तियों" की तरफ से भी सचेत रहना होगा जिनकी खोज में आजकल अपरिपक्व शिष्य हमेशा ही लगे रहते हैं।

हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि फ्शिष्य बनाने और जो आज्ञाएं प्रभु ने दी हैं उन्हें सिखाने" (मत्ती 28:19-20) के अलावा, हम संगीत या सामाजिक काम को कलीसिया में प्रमुख काम न बनने दें।

जब आदम और हव्वा को अदन की वाटिका में से निकाला गया, तब परमेश्वर ने जीवन के वृक्ष के मार्ग की रक्षा करने के लिए करूबों को किसी को भी जीवन के वृक्ष के पास आने से रोकने के लिए चारों ओर घूमने वाली ज्वालामय तलवार को नियुक्त कर दिया।

यह उस सेवकाई की तस्वीर है जो आज कलीसियाओं में एक द्वारपाल के लिए है। लेकिन ऐसे द्वारपाल को पहले उस तलवार को अपनी शारीरिक सोच पर गिरने देना होगा कि वह उसके जीवन के हरेक ज्ञात पाप को, उसके सारे मानवीय जुनून को, और उसके परिवार के सदस्यों और मित्रें के प्रति उसके पक्षपाती होने, आदि को मार कर ख़त्म कर सके।

तो वह कौन है जो आज भारत की कलीसियाओं के द्वारों पर तलवार लेकर खड़े होने के लिए तैयार है?

ऐसा हो कि प्रभु हमारे देश में बहुत से द्वारपाल तैयार कर सके।

अध्याय 8
पेड़ की जड़ पर रखा कुल्हाड़ा

ज़्यादातर विश्वासी यह सोचते हैं कि शैतान उन्हें परमेश्वर के वचन में से भरमा नहीं सकता। लेकिन शैतान एक "ज्योतिर्मय स्वर्गदूत" बन कर आता है (2 कुरि. 11:14)। इसलिए वह आपको किसी मूर्तिपूजकों के धर्मग्रन्थों में से नहीं बल्कि बाइबल में से ही बात करता है। अगर शैतान पवित्र-शास्त्र में से यीशु को भरमाने की कोशिश कर सकता है, तो वह हमारे साथ भी ज़रूर ऐसा करने की कोशिश करेगा।

किसी ने यह कहा है कि सत्य एक चिड़िया की तरह है जिसके दो पंख हैं - "यह लिखा है" और फ्यह भी लिखा है।" अगर आपका सिर्फ एक ही पंख है तो आप गोल-गोल ही घूमते रहेंगे और शायद भटक कर कहीं और ही पहुँच जाएंगे। लेकिन जब आपके दोनों पंख होंगे तो आप आगे बढ़ सकेंगे।

इस सवाल के जवाब के बारे में विचार करें। "मसीह सूली पर क्यों मरा?" इस सवाल का सामान्य जवाब यही हैः ऐसा लिखा है, "मसीह हमारे पापों के लिए मरा" (1 कुरि. 15:3)। लेकिन यह सिर्फ आधा सच है। पूरा सत्य जानने के लिए हमें एक वचन को और देखना होगा। यह भी लिखा है, "और वह सबके लिए मरा कि जो जीवित हैं आगे को अपने लिए न जीएं परन्तु उसके लिए जीएं, जो उनके लिए मरा और फिर जी उठा" (2 कुरि. 5:15)। जब हम इन दोनों वचनों को एक साथ रखते हैं, सिर्फ तभी हमें सत्य के दोनों पंख मिलते हैं।

जब हम यह पढ़ते हैं कि मसीह हमारे पापों के लिए मरा - तो हमें यह समझने की ज़रूरत है कि पाप क्या होता है? हमें इसकी सही समझ तब मिलती है जब हम दूसरे वचन को देखते हैं। वहाँ हम पाते हैं कि पाप का अर्थ अपने लिए जीना है। पाप के बारे में सामान्य तौर पर ज़्यादातर विश्वासियों में यह समझ नहीं है। जब आप यह कहते हैं कि आपको अब पाप करने की ज़रूरत नहीं है, तो क्या आप यह कह रहे होते हैं कि अब आप अपने लिए जीना नहीं चाहते?

पाप, हमारे विवेक के अनुसार, विभिन्न विश्वासियों के लिए विभिन्न बात हो सकती है। उदाहरण के लिए, किसी का सिर धड़ से अलग करने के बाद भी एक नरभक्षी का विवेक उसको परेशान नहीं करेगा। दूसरे ऐसे भी लोग हैं जिनके लिए झूठ बोलना पाप नहीं होता, बल्कि संसार में जीने के लिए कभी-कभी वह ज़रूरी भी होता है। इसलिए विवेक पाप के बारे में हमारे लिए एक सही पथ-प्रदर्शक नहीं हो सकता।

जब हमें परमेश्वर और पवित्र-शास्त्र की बेहतर समझ मिलने लगती है, तब हमें यह समझ आने लगता है कि पाप सिर्फ हत्या, व्यभिचार या चोरी आदि ही नहीं है। यह अपने लिए जीना है। अगर हम अपने लिए जी रहे हैं तो हमने चाहे अपनी कितनी भी बुरी आदतों को क्यों न त्याग दिया हो, हम फिर भी पाप में जी रहे हैं।

फ्जो कोई मसीह यीशु में है, वह नई सृष्टि है। पुरानी बातें बीत गईं" 2 कुरि. 5:17)। इसका अर्थ है कि पुराने मनोभाव, जीने के पुराने तौर-तरीक़े ख़त्म हो चुके हैं। वह अब अपने लिए नहीं जी रहा है। वह मसीह-समान नहीं हो गया है। लेकिन उसने अपना मन फिरा लिया है, और परमेश्वर की महिमा के लिए जीने की खोज में हैं। यही, सिर्फ यही सच्चा मन-फिराव है।

आपने अपनी जुए, सिग्रेट, और शराब की आदत छोड़ दी होगी, लेकिन आपने अभी तक सारे पाप के मूल कारण से मन नहीं फिराया है - अपने लिए जीना। लेकिन ऐसे बहुत से प्रचारक हैं जो आपके कान की खुजली मिटाएंगे और आपको यह बताएंगे कि आप अभी भी उद्धार पाए हुए हैं! जब तक आप ऐसे प्रचारकों की सभाओं में जाते रहेंगे और उनके दान-पात्रें में डालते रहेंगे, वे ख़ुश रहेंगे!

शैतान का सबसे बड़ा धोखा जिससे उसने विश्वासियों को आज तक सबसे ज़्यादा भरमा कर रखा हुआ है, वह यह हैः उन्हें यह यक़ीन दिलाना कि एक व्यक्ति अपने लिए जी सकता है, और फिर भी उद्धार पाकर स्वर्ग में जा सकता है।

यह हो सकता है कि एक व्यक्ति ने अपनी कुछ ऐसी बुरी आदतें छोड़ दी हों जो उसके जीवन का नाश कर रही थीं। लेकिन यह सिर्फ इसी बात का संकेत हो सकता है कि वह पृथ्वी पर अपने जीवन को बचाए रखना चाह रहा है। हरेक सिग्रेट के पैकेट पर यह अनिवार्य चेतावनी लिखी होती है कि सिग्रेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। इसलिए लोग सिग्रेट नहीं पीते। इसी वजह से लोग जुआ भी नहीं खेलते और शराब भी नहीं पीते। यह हो सकता है कि वे इसलिए व्यभिचार नहीं करते क्योंकि वे एड्स हो जाने से डरते हैं। लेकिन ऐसे लोगों ने बाइबल की समझ के अनुसार मन नहीं फिराया है (पाप से नहीं फिरे हैं)।

हम परमेश्वर द्वारा उसकी महिमा के लिए रचे गए हैं। अगर हम वह नहीं करते बल्कि अपने सुख, सुविधा और गौरव के लिए जीते हैं, तो हमारा उद्धार नहीं हुआ है। हमने मन नहीं फिराया है। यीशु हमें उसी पापमय जीवन से बचाने (छुटकारा देने) के लिए मरा है।

ऐसा व्यक्ति जो कलीसिया में एक बड़ा व्यक्ति बनना चाहता है और उसकी यह अभिलाषा है कि लोग उसका आदर-सम्मान करें, तो स्पष्ट तौर पर वह अपने लिए जी रहा है। यह हो सकता है कि उसने ऊपर कुछ धार्मिक लीपा-पोती कर रखी हो, लेकिन वह मूल रूप में नहीं बदला है। यह हो सकता है कि उसने मसीही भाषा के शब्द सीख लिए हों - जैसे फ्नया जन्म पा लेना" आदि, लेकिन उसका भीतरी मनुष्य वही है।

यह स्पष्ट है कि ज़्यादातर प्रचारक ऐसे संदेश का प्रचार क्यों नहीं करना चाहते, क्योंकि ऐसे प्रचार करने से उनकी मण्डली की संख्या कम हो जाएगी। वे लोकप्रिय नहीं हो सकेंगे और उन्हें उन सम्मानित मसीही सम्मेलनों में प्रचार करने के लिए नहीं बुलाया जाएगा जहाँ उन्हें प्रतिवर्ष बुलाया जाता है। हम ऐेसे प्रचारकों के बारे में जानते हैं जिन्होंने हमारी पुस्तकें पढ़ी हैं, लेकिन उन्होंने वे सिर्फ अपने संदेशों के लिए प्रचार-बिन्दु तैयार करने, और अपने लेखों और पुस्तकों के लिए मुद्दे पाने के लिए ही पढ़ी हैं। लेकिन वे इस बात का ख़्याल रखते हैं कि हमारे संदेशों की उन बातों को छोड़ दें जो दोषी ठहराने वाली (सच्चे मन-फिराव का मौक़ा देने वाली) होती है, क्योंकि वे अपनी लोकप्रियता नहीं खोना चाहते।

मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर कोई प्रचारक अपनी मण्डली में 6 महीने तक परमेश्वर की पूरी इच्छा का प्रचार करे, उन्हें यह बताता रहे कि अपने लिए जीना पाप में जीना है, और यह कि जो धन से प्रेम करते हैं वे परमेश्वर से प्रेम नहीं कर सकते, तो वह या तो अपनी नौकरी से हाथ धो बैठेगा, या अपनी मण्डली के 75 प्रतिशत लोग खो देगा!

परमेश्वर हमारे हृदय को देखता है। अगर हमारे जीवन के बुनियादी उद्देश्य नहीं बदले हैं, तो हमारा उद्धार नहीं हुआ है। बहुत से विश्वासियों के मन फिराव के बाद जो एकमात्र परिवर्तन उनमें नज़र आता है, वह यह होता हैः पहले, वे बिना किसी "धार्मिक लीपा-पोती" किए हुए अपने लिए जीते थे, लेकिन अब, वे बहुत सी "धार्मिक लीपा-पोती" के साथ अपने लिए जीते हैं। असल में, उनकी पहली दशा बेहतर थी - क्योंकि तब उन्हें कम-से-कम यह तो मालूम था कि वे पापी थे। लेकिन अब वे अपने आपको संत समझते हैं और भ्रम में पड़े हैं।

ध्यान दें जब व्यभिचार मे पकड़ी गई वह स्त्री प्रभु के पास लाई गई, तो प्रभु ने उसे दण्ड नहीं दिया। यीशु एक अनोखी तरह का नबी था। उसने व्यभिचार में पकड़ी गई एक स्त्री को ताड़ना का एक शब्द भी कहे बिना उसे यूँ ही जाने दिया था! क्यों? क्योंकि उसने यह देख लिया था कि उसने सच्चा मन फिराव कर लिया है। इसलिए उसने उसे क्षमा कर दिया।

और एक हत्यारा था, जो इतना बुरा अपराधी था कि रोमियों ने उसे सूली पर चढ़ाने का फैसला कर लिया था। लेकिन जब उसने अपने पाप को मान लिया तो यीशु ने न सिर्फ उसे क्षमा किया बल्कि उसे स्वर्ग में भी ले गया। उस व्यक्ति ने अपने जीवन में शायद कभी कोई अच्छा काम नहीं किया होगा। उसने बुरा ही किया था, लोगों को मारा और उन्हें लूटा था। फिर भी, जब वह मरा, तो उसका स्वर्ग में स्वयं यीशु द्वारा स्वागत किया गया। यह तो बहुत अद्भुत बात है, है ना?

लेकिन जहाँ तक उन धार्मिक लोगों की बात थी जो अपनी-अपनी बाइबल लेकर हर शनिवार को आराधनालय मे पहुँच जाते थे, यीशु ने उन्हें कहा कि वे "सांपों व करैतों के बच्चे थे जो नर्क के दण्ड से नहीं बच सकते थे।"

यीशु का प्रचार सामान्य प्रचारों से बिलुकल अलग था! जबकि उसके समय के ज़्यादातर प्रचारक हत्यारों और व्यभिचारिणी स्त्रियों से यही कहते थे कि वे नर्क में जा रहे हैं, यीशु ने यह बात सबसे ज़्यादा धार्मिक और बाहरी तौर पर सही नज़र आने वाले लोगों से कही!

क्यों? क्योंकि वह जानता था कि पाखण्ड और आत्मिक गर्व (जिसमें दूसरों को नीचा समझा जाता है), परमेश्वर की नज़र में हत्या और व्यभिचार से भी लाखों गुणा ज़्यादा बुरे पाप थे। यीशु लोगों के हृदयों को देखता था और उसे बाहरी धार्मिक लीपा-पोती से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। प्रभु हमारी धार्मिक भाषा से प्रभावित नहीं होता, तब भी जब हम फ्पाप पर जय पाने" और सिद्धिता की ओर बढ़ते जाने" के बारे में बात करते हैं। अगर एक व्यक्ति अपने ही स्वार्थ की खोज में है और वह फिर भी नया जन्म पाया हुआ होने का दावा करता हो, तो आज भी प्रभु उसे एक "पुती हुई कब्र और साँप/करैत" ही कहता है। वह ऐसे लोगों को नहीं ढूंढ रहा है जो अपनी आत्मिकता के बड़े दावे करने वाले लोग हैं, बल्कि वह ऐसे लोग ढूंढ रहा है जो अपने पापों के दुःख से टूटे हुए हैं, जो अपने आपको संसार के सबसे बड़े पापी मानते हैं- जैसा कि पौलुस ने पृथ्वी पर अपने अंत के दिनों में माना, और यह उसने एक शुद्ध जीवन बिताने और प्रभु के लिए बहुत कुछ हासिल करने के बाद माना था!

प्रभु के पास ऐसे हरेक व्यक्ति के लिए हमेशा भरपूर दया और क्षमा होती है जो ईमानदारी से अपने स्वार्थी जीवन से मन फिराने के लिए तैयार रहता है, जो अपनी निष्फलताओं को सच्चाई से मान लेता है, और जो अपने पापों के लिए किसी दूसरे को नहीं बल्कि स्वयं को ही दोषी ठहराता है। व्यभिचार में पकड़ी गई उस स्त्री के बारे में फिर से विचार करें। उसमें कौन सी योग्यताएं थीं? क्या उसकी नगर में एक अच्छी साक्षी थी। नहीं। लेकिन वह ईमानदार थी। उसने यह पाखण्ड नहीं किया कि वह निर्दोष थी और दूसरे उस पर झूठा आरोप लगा रहे हैं। अपना मुँह न खोलने द्वारा, उसने यह साबित कर दिया था कि उसने अपना अपराध मान लिया है। इस वजह से उसके लिए आशा थी।

जो अपनी नज़र में धर्मी हैं, उनके लिए उद्धार पाना बहुत मुश्किल है। वे फरीसी व्यभिचार में पकड़ी गई उस स्त्री का पथराव करने के लिए तैयार थे, लेकिन उस पल में उन्हें उनके स्वयं के हृदयों का पाप बिलकुल भी नज़र नहीं आ रहा था। जब वे दान-पेटी में बड़ी-बड़ी रकम डालते और यह चाहते थे कि हरेक उस रकम को देखे, तो परमेश्वर की नज़र में वे व्यभिचार से भी बुरा पाप कर रहे थे, क्योंकि ऐसा करते हुए, वे लोगों को परमेश्वर की आराधना करने वाले होने की बजाए, स्वयं उनकी आराधना (स्तुति) करने वाले होने के लिए प्रेरित कर रहे थे।

मन-फिराव का अर्थ फ्विपरीत दिशा में घूम जाना" है, कि अब से हम अपने स्वार्थ में जीने वाली हरेक बात की तरफ से पीठ मोड़ कर विपरीत दिशा में घूम जाएं और सिर्फ परमेश्वर के लिए जीने का फैसला करें। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें पूर्ण-कालिक मसीही सेवक बन जाना है। नहीं। परमेश्वर 1000 विश्वासियों में से सिर्फ 1 को पूर्णकालिक सेवक होने के लिए बुलाता है। वह चाहता है कि उसके बाक़ी सभी बच्चे धर्म-निर्पेक्ष जगहों में सेवा करें - अपनी रोज़ी कमाएं लेकिन अपने लिए नहीं बल्कि परमेश्वर की महिमा के लिए जीएं।

मन-फिराव का बयान 1 थिस्सलुनीकियों 1:9 में फ्मूर्तियों की तरफ से सच्चे परमेश्वर की ओर फिरने" के रूप में किया गया है। बहुत से तथा-कथित विश्वासी अभी तक मूर्तियों की ओर से सच्चे परमेश्वर की तरफ नहीं फिरे हैं। भारत में, बहुत से मूर्तिपूजक लोग मसीह को अपने ईश्वर के रूप में स्वीकार करने को तैयार हैं - लेकिन वे उसे उन बहुत से ईश्वरों में एक और ईश्वर के रूप में स्वीकार करते हैं जिनकी वे पहले से आराधना कर रहे हैं। हम जानते हैं कि यह असम्भव है। जो मसीह को स्वीकार करता है, यह ज़रूरी है कि वह बाक़ी सभी ईश्वरों व मूर्तियों को त्याग दे।

याद रखें कि पवित्र-आत्मा विश्वासियों से यह कहता है, "बच्चों, अपने आपको मूर्तियों से बचाए रखो" (1 यूहन्ना 5:21)। एक ऐसे मूर्तिपूजक व्यक्ति में जो अपने देवी-देवताओं के रहते हुए भी मसीह को स्वीकार करना चाहता है, और एक ऐसे तथा-कथित विश्वासी में कोई फ़र्क नहीं है जो मसीह को स्वीकार करना चाहता है लेकिन फिर भी पैसे (उसके वर्तमान ईश्वर) के पीछे भागना चाहता है।

यह बात एक ऐसी स्त्री के समान है जिसका एक पति है और वह एक दूसरे पति से विवाह करना चाहती है। यह विचित्र है कि विश्वासी कैसे अपने आपको मूर्ख बनाते हुए यह सोच सकते हैं कि यीशु मसीह उनके साथ इस तरह के विवाह के लिए तैयार हो जाएगा। हममें से कितने किसी ऐसी लड़की के साथ विवाह करने के लिए तैयार होंगे जिसका पहले ही किसी व्यक्ति से विवाह हो चुका है। फिर भी आप यह अपेक्षा करते हैं कि आपके द्वारा इस संसार और इसके आदर, और इसके भोग-विलास और धन को त्यागे बिना मसीह आपसे विवाह करेगा।

लकड़ी व पत्थर की बनी मूर्तियाँ इतनी भरमाने वाली नहीं होतीं जितनी कि छुपी हुई मूर्तियाँ (धन व सम्मान जैसी) क्योंकि जब कोई किसी भौतिक मूर्ति के आगे झुकता है तो साफ नज़र आ जाता है। अगर आप यह देखें कि एक व्यक्ति एक कमरे में जाकर एक मूर्ति की पूजा करता है, और फिर दूसरे कमरे में जाकर यीशु मसीह से प्रार्थना करता है, तो आप उसे एक विश्वासी नहीं मानेंगे। लेकिन उसमें और एक ऐसे व्यक्ति में क्या फ़र्क है जो अपना पूरा सप्ताह धन, मनुष्यों से मिलने वाले सम्मान और सांसारिक महत्वकांक्षाओं के पीछे भागता है, और फिर रविवार की सभाआें में आकर मसीह की आराधना करने की कोशिश करता है। मैं सोचता हूँ कि जो बुद्ध की आराधना करता है, उसके लिए ऐसे फ्विश्वासी" से ज़्यादा आशा है।

फ्न सोना मांगूँ, न चांदी मांगूँ, तेरा चेहरा मैं तकता रहूँ..."

- वह परमेश्वर से झूठ बोल रहा है।

मसीही लोग परमेश्वर से रविवार को सप्ताह के अन्य किसी भी दिन से ज़्यादा झूठ बोलते हैं, क्योंकि रविवार को वे प्रभु के आगे समर्पित होने और उसके लिए अलग होने के गीत गाते हैं, अपना सब कुछ उसे दे देने और उसके पीछे चलने जैसी बातों के दावे करते हैं, और परमेश्वर सब सुनता है, लेकिन उसे इन सब बातों द्वारा धोखा नहीं दिया जा सकता। वह कहता है, "अपने मुख से तो वे बहुत प्रेम दर्शाते हैं, लेकिन उनके हृदय में लालच है" (यहेजकेल 33:31)।

बहुत से विश्वासियों द्वारा गाए जाने वाले इस गीत को सुनकर कोई यही सोचेगा कि वे बहुत बड़े संत हैं। लेकिन असल में, बहुत बड़े पाखण्डी हैं, और परमेश्वर धोखा नहीं खाता।

अपने लिए जीना एक पशु की तरह जीना है - क्योंकि सभी पशु सिर्फ अपने व अपने बच्चों के लिए ही जीते हैं। वे अपने ही स्वार्थ की खोज में रहते हैं और हमेशा यही सोचते हैं कि उन्हें सबसे ज़्यादा किस बात से फायदा हो सकता है। जंगल में एक शेर इसी तरह सोचता है, फ्मैं उस हिरण को अपने खाने के लिए मार सकता हूँ, इसलिए मैं उसे मार लेता हूँ।" इस तरह, पशुओं में सिर्फ सबसे शक्तिशाली ही जीवित रह सकता है। लेकिन हम पशु नहीं हैं। परमेश्वर ने हमें कुत्तों व सुअरों की तरह जीने के लिए नहीं रचा है जो सिर्फ खाते हैं, सोते हैं, बच्चे पैदा करते हैं और फिर मर जाते हैं। मनुष्य इसलिए रचा गया है कि वह अपने जीवन भर परमेश्वर की महिमा करे।

मुझे कभी-कभी किसी काम में से सेवा-निवृत्त हो चुके लोगों के पत्र मिलते हैं जो यह जानना चाहते हैं कि क्या हम उन्हें अपने पास काम पर रख सकते हैं क्योंकि वे अपने निवृत्ति के साल "परमेश्वर की सेवा" में बिताना चाहते हैं। एक ऐसे दृश्य की कल्पना करें जिसमें आपके घर में एक बहुत इज़्ज़तदार मेहमान आता है और आप उसके सामने एक प्याला चाय पीते हैं और फिर प्याले में बची तलछट उसके आगे रख देते हैं! लोग परमेश्वर के साथ यह करते हैं। अपना पूरा जीवन संसार में धन कमाने में बिताने के बाद, अब वे परमेश्वर को अपने जीवनों का तलछझ देना चाहते हैं। यह कैसा अपमान है!

हमें अपने जीवन परमेश्वर को तब देने चाहिए जब हम युवा होते हैं। हमारे पूरे जीवन उसके लिए निर्देशित करने के लिए हों कि वह जैसा चाहे उसे वैसा तैयार कर सके। क्या आपने अपने स्वार्थ की खोज में रहने वाले ऐसे जीवन से मन फिरा लिया है? यीशु के लौटने पर बहुत से विश्वासियों को इस बात का बहुत पछतावा होगा कि पृथ्वी पर जो इतना सारा धन उन्होंने कमाया है, वह बच्चों के व्यापार खेल में इस्तेमाल होने वाले खेलने वाले रुपयों से ज़्यादा कुछ नहीं हैं - उसका कोई मूल्य नहीं है! और तब जीवन का खेल पूरा हो चुका होगा और उन्होंने ऐसी व्यर्थ चीज़ें इकट्ठी करने के अलावा कुछ न किया होगा जिनका कोई अनन्त मूल्य नहीं है। उन्होने एक व्यर्थ जीवन बिताया है। और उन्हें तब भी बहुत पछतावा होगा जब उन्होंने सम्मान पाने के लिए सब कुछ किया होगा और वे यह पाएंगे कि अनन्त की ज्योति में वह सम्मान लुप्त हो गया है।

लेकिन जिन्होने परमेश्वर की इच्छा पूरी करने और परमेश्वर की महिमा के लिए जीवन बिताएं हैं, उन्हें उस दिन भरपूर आनन्द होगा। इस पृथ्वी पर भौतिक वस्तुएं सिर्फ हमारे इस्तेमाल के लिए हैं। हम जब तक उन्हें इस्तेमाल करते हैं, तब तक सब ठीक है। लेकिन वे कभी हमारे स्वामी न बन जाएं। पैसे को इस्तेमाल करना एक बात है, लेकिन पैसे को अपना स्वामी बना लेना दूसरी बात है। पैसा एक अच्छा सेवक है लेकिन बहुत बुरा मालिक है।

एक ऐसी स्त्री के बारे में सोचें जिसका एक उत्तम पुरुष से विवाह हुआ है लेकिन वह अपने पति से ज़्यादा अपने कार-चालक से प्रेम करती है, और अपना ज़्यादा समय कार-चालक के साथ बिताती है। आप एक ऐसी स्त्री के बारे में क्या कहेंगे? यह एक ऐसे विश्वासी का वास्तविक चित्रण है जो प्रभु के लिए ज़्यादा प्रभावी होने में ज़्यादा समय बिताने की जगह ज़्यादा से ज़्यादा (अपनी उचित जरूरतों को पूरा करने से भी ज़्यादा) पैसा कमाने के पीछे भागता रहता है।

जब परमेश्वर ने आदम को रचा तो उसने उससे कहा कि वह पूरी पृथ्वी को अपने वश में कर ले। लेकिन आदम दास बन गया। मसीह अब हमें फिर से राजा बनाने आया है। परमेश्वर ने इस संसार में हमारे आनन्द के लिए बहुत सी चीज़ें दी हैं। लेकिन जब उनमें कुछ भी हमारा स्वामी बन जाता है, तो हम दास बन जाते हैं। फिर हम वे राजा नहीं रहते जैसा परमेश्वर ने हमारे लिए चाहा था।

परमेश्वर ने सर्प से कहा कि वह धूल चाटा करेगा। क्या आप जानते हैं कि सोना क्या होता है? वह भी इस पृथ्वी पर परमेश्वर द्वारा रची गई धूल का ही हिस्सा है - शायद सामान्य धूल से थोड़ी ज़्यादा सख़्त और थोड़ी ज़्यादा दुर्लभ, लेकिन फिर भी धूल। और हम यह अफसोसजनक दृश्य देखते हैं जिसमें मनुष्य उसके पीछे भाग रहा है जिसे शैतान चाटता है। सभी जगह मनुष्य धूल-रूपी सोने का दास बना हुआ है।

जब शैतान यह देखता है कि वह एक व्यक्ति को किसी बुरी आदत द्वारा गुलाम नहीं बना पा रहा है, तो वह किसी सामान्य नज़र आने वाली बात से उसे गुलाम बनाएगा - कि फिर वह व्यक्ति परमेश्वर के साथ समय व्यतीत न कर सके, न बाइबल पढ़ सके, और न ही संगति कर सके। वह सामान्य बात एक साफ-सुथरा टी.वी. कार्यक्रम हो सकता है जो उस व्यक्ति को गुलाम बना लेता है। शैतान ऐसे विश्वासियों को खोज रहा है जो उनके अपने ही स्वार्थ की खोज में हैं - उनका अपना मनोरंजन, उनका अपना फायदा, आदि। शैतान के पास मनुष्य को परमेश्वर से दूर रखने के 101 तरीक़े हैं। यही वजह है कि हमें पाप को सिर्फ इस तरह नहीं देखना है कि वह शराब पीना, जुआ खेलना, व्यभिचार करना या हत्या करना ही है। हमें पाप को "अपने लिए जीने" के रूप में देखना होगा। पाप करने का अर्थ वह करना है जो हमारी अपनी इच्छा है - जिसमें हमें ख़ुशी मिलती है। इस जड़ में से, पाप के बहुत से फल पैदा होते हैं। यीशु हमें उस सब से बचाने के लिए मरा।

यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने कहा कि यीशु के आने पर कुल्हाड़ा हरेक पेड़ की जड़ पर रखा जाएगा। वह जड़ यही है जिस पर यीशु कुल्हाड़ा रखने के लिए आया है - अपने लिए जीना और अपनी इच्छा पूरी करना।

हम पेड़ में से समय-समय पर कुछ ख़राब फलों को हटा सकते हैं, लेकिन उससे समस्या हल नहीं होती। जिन बुरे फलों को दूसरे लोग देख सकते हों, उन्हें काट देने के बाद यह हो सकता है कि हमारा जीवन बहुत अच्छा नज़र आने लगे। लेकिन पेड़ नहीं बदला है। यीशु ने कहा कि जब तक पेड़ ही न बदल दिया जाए तब तक एक पेड़ कभी अच्छा फल नहीं दे सकता। पेड़ बदलने के लिए, पहले आपको पुराने पेड़ की जड़ पर कुल्हाड़ा चलाना पड़ेगा।

ऐसा क्यों है कि आजकल ज़्यादातर घर जंग के मैदान बने हुए हैं? क्योंकि पति और पत्नी दोनों ही अपने लिए जीना चाहते हैं। इसलिए हम आज जगत में यह अनोखी बात होती हुई देख रहे हैं। तथा-कथित फ्नया जन्म पाए हुए मसीही" अपने साथी को तलाक देकर दूसरे विवाह कर रहे हैं! यह बात 20वीं शताब्दी में ही हो रही है। पास्टर और प्रचारक भी अपनी पत्नियों को तलाक देकर दूसरे विवाह कर रहे हैं। कुछ प्रचारकों ने अपनी पत्नियों को तलाक नहीं दिया है लेकिन वे दूसरी स्त्रियों के साथ एक गुप्त व्यभिचारी सम्बंध में रह रहे हैं। सांसारिक जोड़ों में तो सदियों से तलाक होते रहे हैं। लेकिन जब मसीही ऐसा करने लगें तो हम यक़ीन से कह सकते हैं कि वह बड़ा अधर्म (विश्वास से भटक जाना) हम पर आ पड़ा है और हम अंत के दिनों में हैं।

इसका कारण यही है कि विश्वासियों ने अब तक यह नहीं देखा है कि पाप अपने लिए जीना होता है। उन्होंने यह अब तक इसलिए नहीं देखा है क्योंकि उन्हें यह अब तक सिखाया नहीं गया है। यह दोष उनके अगुवे का हैं और उनका लहू उनके अगुवों के हाथों में लगा है जिन्हें इसका परमेश्वर को जवाब देना है।

यीशु ने कहा कि वे फ्थोड़े ही हैं जो जीवन का मार्ग पाते हैं।" क्यों?

क्योंकि उसमें प्रवेश करने का द्वार बहुत संकरा है।

सांसारिक दृष्टिकोण से यीशु के पास आए धनवान युवक के पास कलीसिया का सदस्य होने के लिए उत्तम योग्यताएं थीं - वह जवान था, धनवान था, प्रभावशाली (एक शासक) था, और नैतिक रूप में सही था। सभी कलीसियाएं ऐसा सदस्य पाने के लिए बड़ी लालायित रहेंगी। आज के ज़्यादातर सुसमाचारीय धर्म-मतों में तो वे उनकी महासभा का सदस्य बनने की भी योग्यता रखता था। लेकिन यीशु ने उसे अगुवा तो क्या उसका शिष्य होने लायक़ भी नहीं जाना। क्या यह विस्मित करने वाली बात नहीं है?

यीशु उसके धन और उसके प्रभावशाली होने से प्रभावित नहीं हुआ था। अगर वह व्यक्ति अब भी धन से प्रेम करता था, तो वह यीशु का शिष्य होने योग्य नहीं था। संकरे मार्ग से प्रवेश करने से पहले उसे धन के प्रति अपने प्रेम को छोड़ना ज़रूरी था। वह मनुष्य उदास होकर लौट गया। यीशु ने उसे वापिस नहीं बुलाया और उसे यह सुझाव नहीं दिया कि वह उसके धन को धीरे-धीरे 10 प्रतिशत अभी 10 प्रतिशत एक महीने बाद त्याग दे। नहीं। जब बात शिष्य बनने की होती है तो उसमें कोई सौदेबाज़ी नहीं होती। उसमें या तो सब कुछ बलिदान करना है, या कुछ भी नहीं। वह धन और परमेश्वर दोनों से एक साथ प्रेम नहीं कर सकता था। उसे एक को चुनना था। उसे अपनी मूर्ति (धन) से मन फिराना था और सिर्फ मसीह के साथ जुड़ना था।

अगर आप अपने लिए जीना चाहते हैं, तो जाएं, और अपने लिए जीएं। और जैसा कि इस धनवान व्यक्ति के मामले में पाते हैं, प्रभु आपको वैसा करने के लिए जाने देगा। अगर आपको कोई ऐसी अनुकूल कलीसिया मिल जाए जहाँ आपको यह बताया जाए कि आप अब भी स्वर्ग की ओर ही बढ़ रहे हैं, तो परमेश्वर भी आपको नहीं रोेकेगा। वह ऐसा होने देगा कि आप जीवन भर अपने आपको धोखा देते रहें। अंत में जब आप की आँख खुलेगी, तो आप नर्क में होंगे। परमेश्वर द्वारा लोगों को स्वयं को ही धोखा देते रहने की अनुमति देने की वजह यह है कि उन्होंने अपनी सच्चाई ही जाननी नहीं चाही। और जब कोई नबी उन्हें उनकी सच्चाई बताता है, तो वे नबी से क्रोधित हो जाते हैं।

यिर्मयाह ने राजा यहोयाकीम के राज्यकाल में नबूवत की थी। जब यहूदा के लोगों ने यिर्मयाह द्वारा चर्मपत्र पर लिखे शब्द पढ़े तो वे डर गए क्योंकि यिर्मयाह पुरानी वाचा में सबसे कठोर नबी था जिसने कभी कोई मनोहर संदेश नहीं दिया था। उसके संदेश सिर्फ न्याय, न्याय और ज़्यादा न्याय थे (यिर्म. 20:8, लिविंग)। जब राजा ने यिर्मयाह का चर्मपत्र पढ़ा तो वह इतना क्रोधित हो गया कि उसने उसे फाड़ कर आग में फेंक दिया (यिर्म. अध्याय 36)। लेकिन परमेश्वर ने यिर्मयाह से कहा कि वह दोबारा से वही संदेश लिखे। हमें यिर्मयाह की पुस्तक इस तरह मिल सकी है। लेकिन जब वह पहली बार लिखी गई थी, तब वह एक क्रोध से भरे राजा द्वारा फाड़ दी गई थी जो अपने ही विषय का सत्य सुनना नहीं चाहता था। ऐसे लोग हमेशा से रहे हैं।

लेकिन हरेक युग में थोड़े से लोग ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने सत्य से प्रेम किया है। यह बहुत महान् कृपा है कि परमेश्वर ने हमें वह कान दिए हैं जो सत्य को सुन सकते हैं। हमारे जन्म से भी पहले परमेश्वर ने हमसे प्रेम किया है और हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ चाहा है। उसने यह नहीं चाहा कि हम अपने जीवन बर्बाद करें और अनन्त में जाग उठने के बाद अपने आपको एक कंगाल दशा में पाएं। वह चाहता है कि हम बुद्धिमान हों और उन बातों के लिए जीएं जो अनन्तकालीन हैं।

जो कुछ भी रचा गया है (जिसमें धन, घर, ज़मीन-जायदाद) एक दिन हिलाया और मिटाया जाएगा। सिर्फ वही जो रचा नहीं गया है बना रहेगा। इसलिए हमें समझदार होकर अपना समय और ऊर्जा उसके लिए ख़र्च करना है जो हमेशा बना रहेगा। और मैं फिर कहना चाहता हूँ कि इसका अर्थ यह नहीं आप सभी को पूर्णकालिक मसीही सेवक बन जाना चाहिए। लेकिन इसका अर्थ यह ज़रूर है कि आप अब से अपने लिए नहीं बल्कि सिर्फ परमेश्वर की महिमा के लिए जीएंगे। आप काम कर सकते हैं और अच्छे से अच्छा वेतन ले सकते हैं - कि आप अपना जीवन-यापन कर सकें और प्रभु के काम को भी आगे बढ़ा सकें। लेकिन आपके जीवन का लक्ष्य परमेश्वर की महिमा होना चाहिए। आपके जीवन की महत्वकांक्षा उसे प्रसन्न करना होनी चाहिए।

मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि हम कहीं बाग़ में घूमने नहीं जा सकते या किसी तरह का मनोरंजन नहीं कर सकते। यक़ीनन हम ऐसा कर सकते हैं। मनुष्य होते हुए, हमें उसकी ज़रूरत होती है - चाहे कोई खेल खेलना, संगीत सुनना, या और कुछ। वह सब अगर स्वच्छ और स्वस्थ मनोरंजन है, तो बिलकुल ठीक है। लेकिन जब इनमें से कोई बात हमारी स्वामी बन जाती है, हमारे जीवन में राज करने वाली दिलचस्पी बन जाती है, तब हम लाल रेखा पार कर ख़तरे के क्षेत्र में पहुँच जाते हैं। बहुत आसानी से ऐसा हो सकता है कि एक नौकरी या एक खेल या एक हानिरहित मनोरंजन एक व्यक्ति के जीवन का इतना बड़ा हिस्सा बन सकता है कि वह उसके जीवन का मुख्य केन्द्र बन जाए। और फिर उसकी पत्नी और बच्चों पर से भी उसका ध्यान हट जाता है। और सबसे पहले तो परमेश्वर को ही अनदेखा किया जाता है। जब ऐसा होता है तब आप जान सकते हैं कि वह बात (वह जो भी है) उस व्यक्ति की स्वामी बन चुकी है।

अगर ऐसा होना है कि प्रभु हमारे द्वारा अपनी कलीसिया तैयार करे - वैसी कलीसिया जिसकी योजना अनन्त युगों से बना रखी है, तो हमें अपने लिए जीना छोड़ना होगा। वह सिर्फ उन्हीं मनुष्यों के द्वारा उसे बना सकता है जो अपने स्वार्थ की खोज मे नहीं हैं बल्कि उसके लिए अपना सब कुछ वेदी पर रखने के लिए तैयार हैं।

पुरानी वाचा का मन्दिर मोरिय्याह पहाड़ पर बनाया गया था - जहाँ इब्राहीम ने अपने पुत्र इसहाक़ को परमेश्वर को अर्पित किया था (2 इति. 3:1)। उस समय इब्राहीम के पास सिर्फ एक ही पुत्र बचा था, जो उसके दिल का टुकड़ा था।

परमेश्वर ने उस दिन इब्राहीम की भक्ति को यह देखने के लिए परखा कि इसहाक़ उसके जीवन में कहीं एक मूर्ति तो नहीं बन गया है। इसके द्वारा परमेश्वर ने उसे यह बताया कि अगर उसे प्रभु की सेवा करनी थी तो उसे हर तरह की मूर्तिपूजा से मन फिराना होगा। इसलिए उसे अपने पुत्र को वेदी पर परमेश्वर को अर्पित करना पड़ा था। परमेश्वर ने इसहाक़ को ले नहीं लिया। वह इब्राहीम को सिर्फ इसहाक़ के प्रति उस अस्वाभाविक लगाव से दूर कर रहा था जो परमेश्वर के साथ उसके चलने में बाधा पैदा कर सकती थी। परमेश्वर को हमारे साथ भी यही करना पड़ता है। हमें उसे वह दे देना होता है जो हमें सबसे प्रिय होता है।

उस धनवान युवा शासक के मामले में वह बात उसका धन था। जैसे परमेश्वर ने इब्राहीम से उसका पुत्र देने के लिए कहा, वैसे ही परमेश्वर ने उस धनवान युवा शासक से उसका धन देने के लिए कहा। कौन जानता है, कि अगर उस धनवान ने यह कह दिया होता, " हाँ, प्रभु, ले, मैं सब दे रहा हूँ," तो परमेश्वर ने उससे कह देता कि वह अपना धन अपने पास ही रखे रहे, जैसे उसने इब्राहीम से इसहाक़ को उसके पास रखे रहने के लिए कह दिया था। लेकिन पहले उसे वह देना था।

इसलिए, हममें से हरेक पर कृपा हो और हम यह कह सकें, मेरे जीवन में जो भी इसहाक़ है, मैं उन सबको तेरी वेदी पर अर्पित कर रहा हूँ। मैं अपने जीवन में ऐसी कोई मूतियाँ नहीं चाहता जो तेरे और मेरे बीच में आ सकें। मैं अपने लिए जीना नहीं चाहता। मैं वास्तव में सिर्फ तेरे लिए ही जीना चाहता हूँ। मैं परमेश्वर की महिमा के लिए जीना चाहता हूँ। मैं अपना जीवन बर्बाद करना नहीं चाहता।"

यह संसार का सबसे बड़ा समाचार हैः अब से हमें अपनी अभिलाषाओं और महत्वकांक्षाओं के गुलाम बने रहने की, और ऐसा करते हुए अपने पार्थिव जीवन बर्बाद करने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि हम परमेश्वर की महिमा के लिए जीने की आज़ादी पा सकते हैं और इस तरह उपयोगी जीवन जी सकते हैं। अपने लिए जीना गुलामी में और जंजीरों में जीना है, और परमेश्वर की महिमा के लिए जीना उकाबों की तरह होना है जो पंख फैला कर आकाश में उड़ते हैं। अच्छी ख़बर यह है कि यीशु हरेक ज़जीर को तोड़ कर हमें आज़ाद कर सकता है - आज ही!

अभी क्योंकि हमारे पास समय है, इसलिए हम सभी को प्रभु से यह कहना चाहिएः "प्रभु, मेरे जीवन के जो साल गुज़र गए हैं मैं उनके बारे में तो कुछ नहीं कर सकता, लेकिन मैं अपना बाक़ी का जीवन सिर्फ तेरे लिए जीना चाहता हूँ। मेरे जीवन की छानबीन कर कि मैं किसी मूर्ति की आराधना कर रहा हूँ या नहीं। मैं अपने जीवन में से हरेक मूर्ति की तरफ से अपना मन फिराना चाहता हूँ और सिर्फ तेरी सेवा करना चाहता हूँ। प्रभु यीशु, मैं ख़ास तौर पर अनजाने में अपने स्वार्थ की खोज में रहने की मूर्तिपूजा से मन फिराता हूँ।"

प्रभु हम सब की मदद करे।

अध्याय 9
नई वाचा के सेवक और नई वाचा की कलीसियाएं

नई वाचा के सेवक

पवित्र-शास्त्र के ऐसे तीन लेखांश हैं जो हमें यह बताते हैं कि नई वाचा में एक सच्चा परमेश्वर का सेवक कौन होता है। जब हम उन तीन लेखांश को बिना किसी पूर्वाग्रहों के पढ़ते हैं, तो हम पाएंगे कि अगर हम चाहें, तो इस समय और इस युग में, हममें से हरेक परमेश्वर का सेवक हो सकता है।

पुरानी वाचा में, सिर्फ लेवी परमेश्वर के सेवक हो सकते थे। उन्हें कोई पार्थिव काम करने की अनुमति नहीं थी और उनकी देखभाल इस्राएल के बाक़ी गोत्रें के दशमांशों से होती थी। आज बाबुलवादी मसीहियत यह सिखाती है कि नई वाचा में भी, जो अपने सांसारिक काम छोड़ देते हैं, सिर्फ वही परमेश्वर के सेवक हो सकते हैं - और यह कि उनका भी पालन-पोषण दूसरे मसीहियों के दशमांशों से होना चाहिए। लेकिन यह मनुष्यों की परम्परा की शिक्षा है, परमेश्वर के वचन की नहीं!

1.पाप से मुक्त

फ्पाप से मुक्त होकर परमेश्वर के दास बने" (रोमियों 6:22)।

यह पहली शर्त है - पाप से मुक्त होना। यक़ीनन अपने पार्थिव व्यवसाय से मुक्त हो जाना पाप से मुक्त होने से आसान है। यीशु एक धर्म-निर्पेक्षीय काम में जुड़ा हुआ था। फिर भी वह परमेश्वर का सेवक था।

एक व्यक्ति जो क्रोधित होकर अपना मानसिक संतुलन खो देता है, वह परमेश्वर का दास नहीं हो सकता। वह एक प्रचारक या मुख्य पास्टर हो सकता है, लेकिन परमेश्वर का सेवक नहीं हो सकता। बहुत से पास्टर रविवार की सुबह "अन्य भाषा" में ज़ोर-ज़ोर से परमेश्वर की स्तुति करते हुए चिल्लाते हैं, और उसी दोपहर को अपनी फ्मातृ-भाषा" में अपनी पत्नी पर क्रोधित होकर चिल्लाते है। क्या पवित्र-आत्मा हम पर सिर्फ तभी कब्ज़ा लेता है जब हम "अन्य भाषा" में बोलते हैं और तब नहीं जब हम अपनी "मातृ-भाषा" में बोलते हैं? यह एक धोखा है। मैं परमेश्वर का धन्यवाद करता हूँ कि मैं 22 साल से अन्य भाषा में बोलता रहा हूँ। इससे मेरी उन्नति हुई है और इन वर्षों में मैं विषाद, हताशा और निरुत्साह से पूरी तरह मुक्त बना रहा हूँ। लेकिन मैं परमेश्वर का इसलिए भी धन्यवाद करता हूँ कि जब मैं अपनी मातृ भाषा में अपनी पत्नी, अपने भाइयों, अजनबियों या भिखारियों से भी बात करता हूँ, तब भी पवित्र-आत्मा मुझ पर कब्ज़ा बनाए रखता है।

एक व्यक्ति जो अपनी आँखों से स्त्रियों की लालसा करता रहता है, सुसमाचार का प्रचारक या परमेश्वर के वचन का सेवक नहीं हो सकता। सिर्फ एक ऐसा व्यक्ति परमेश्वर का सेवक हो सकता है जो इतना कट्टर हो कि पाप से बचने के लिए अपनी आँख भी निकाल कर फेंकने को तैयार हो। ऐसा पिछली बार कब हुआ था कि आपकी आँखों के भटक जाने की वजह से आपके आँसुओं से रात को तकिया भीग गया था? अगर आप इस मामले में लापरवाह होंगे तो भीतर ही भीतर थोड़ा-थोड़ा विश्वास से पीछे हटते रहेंगे, और एक दिन सबके सामने गिरेंगे।

एक व्यक्ति जो थोड़ा ज़्यादा पैसा कमाने के लिए या अपने लिए थोड़ा ज़्यादा आदर पाने के लिए झूठ बोलता है, तो वह असल में शैतान का सेवक है - क्योंकि शैतान सारे झूठ का पिता है। वह परमेश्वर का सेवक नहीं हो सकता।

एक व्यक्ति जो अपने सभी शत्रुओं से प्रेम नहीं कर सकता, या उन सभी का भला नहीं कर सकता जो उसका बुरा करते हैं, वह सुसमाचार का प्रचार करने में पूरी तरह अयोग्य है। अगर आपके मन में किसी के खिलाफ़ ज़रा सी भी कड़वाहट या अक्षम्यता (क्षमा न करना) है, तो आपके लिए सबसे अच्छा यही है कि आप अपना मुँह बंद रखें, घर जाएं और उन सारी बुराइयों से मन फिरा कर अपना हृदय शुद्ध करें। आप परमेश्वर के सेवक नहीं हो सकते।

2.मामोन (धन) से मुक्त

"आप परमेश्वर और धन दोनों के सेवक नहीं हो सकते। वह या तो एक से घृणा और दूसरे से प्रेम करेगा, या एक से लिपटे रहेंगे और दूसरे को तुच्छ जानेंगे" (लूका 16:13)।

यह दूसरी शर्त है - मामोन से मुक्त होना (धन और सभी भौतिक वस्तुएं)। फिर से, एक धर्म-निर्पेक्ष काम-धंधे से आज़ाद हो जाना धन से आज़ाद होने की तुलना में ज़्यादा आसान है।

यह चुनाव आपको करना होगा कि आप किसकी सेवा करेंगे - परमेश्वर की या धन की। बहुत से पूर्णकालिक सेवक परमेश्वर और धन दोनों की सेवा करने की कोशिश कर रहे हैं। जितनी कमाई वे किसी धर्म-निर्पेक्ष काम-धंधे में कर पाते, उससे बहुत ज़्यादा वे आज तथाकथित रूप में "परमेश्वर के सेवक" होने द्वारा कर रहे हैं। ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसे परमेश्वर की सेवा करने में सांसारिक सुख-सुविधा, धन और भौतिक वस्तुओं का बलिदान नहीं करना पड़ा है, असल में परमेश्वर की सेवा कर ही नहीं रहा है।

कोई भी विश्वासी परमेश्वर का सेवक हो सकता है - लेकिन वह धन के मोह से मुक्त होना चाहिए। वास्तव में, अगर आप इस पद को ध्यान से पढ़ेंगे, तो आप जान सकेंगे कि यीशु ने यह कहा है कि अगर हमें परमेश्वर का सेवक होना है तो हमें धन से द्वेष और घृणा करनी होगी।

अगर आप परमेश्वर के सम्मुख जाकर उससे यह कह सकते हों कि धन के प्रति आपका यह मनोभाव है, या आप कम-से-कम ऐसा मनोभाव चाहते हैं, तो आप परमेश्वर के सेवक होने की योग्यता पा सकते हैं - वर्ना आप इस येाग्य नहीं हैं। यीशु ने जो मानक यहाँ स्थापित किया है, उसके अनुसार कितने लोग परमेश्वर के सेवक होने की योेग्यता रखते हैं? बहुत ही थोड़े!

हम परमेश्वर की सेवा करते हैं या मामोन (धन) की, इसकी परख इस बात में होती है कि हम किसकी आज्ञा मानते हैं - परमेश्वर की या मामोन की? कोई भी दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता। जब धन आपको बुलाए और आप उसकी बात सुनकर उसे फौरन जवाब दें तो आप उसके सेवक हैं।

ऐसा क्यों है कि ज़्यादातर प्रचारक ऐसी आरामदायक जगहों में ही जाना और प्रचार करना चाहते हैं जहाँ धनवान विश्वासी होते हैं? ऐसे कितने हैं जो भारत के गाँवों के ग़रीब विश्वासियों के बीच नियमित रूप से जाना और उन्हें विश्वास में दृढ़ करने में दिलचस्पी रखते हैं? भारत में वही परमेश्वर के सच्चे सेवक हैं।

बहुत से पूर्णकालिक भारतीय मसीही सेवक अमरीका में रहते हैं और वहाँ रहते हुए यह दावा करते हैं कि उन भारत का बोझ है। यह साफ नज़र आने वाला पाखण्ड है। फिर भी विश्वासियों के झुण्ड के झुण्ड उनके द्वारा भरमाए जा रहे हैं। अगर उन्हें वास्तव में भारत का बोझ होता तो वे भारत में रह कर उस बोझ को उठाते। एक विश्वासी के उसका रहने का स्थान बदलने और दूसरे देश में चले जाने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन अपना स्थान बदलने के पीछे उसका उद्देश्य क्या है, वह ज़रूरी बात है। यीशु ने अपना रहने का स्थान बदला और वह स्वर्ग से धरती पर रहने के लिए आया। लेकिन इसमें उसका उद्देश्य क्या था? क्या वह उद्देश्य सुख, सुविधा और धन-सम्पत्ति पाना था? या वह यह था कि परमेश्वर की महिमा हो सके और ज़रूरतमंद लोगों की ज़रूरतें पूरी हों सकें? आप भी जब एक जगह से दूसरी जगह जाने का फैसला करें, तो आपको स्पष्ट होना चाहिए। उससे आप जान सकेंगे कि आप परमेश्वर के सेवक हैं या मामोन के सेवक हैं।

शैतान यह जानता है कि जो मामोन की सेवा करता है वह परमेश्वर के किसी काम का नहीं है। इसलिए वह ऐसे प्रचारकों को उनके हाल पर छोड़ देता है। शैतान आपका सबसे ज़्यादा अपमान तब करता है जब वह आपको आपके हाल पर छोड़ देता है कि आप सांसारिक लोगों से और सत्य को त्यागने वाली मसीहियत के सांसारिक अगुवों से सम्मान प्राप्त करते रहें।

परमेश्वर का एक सेवक लगातार यह सोचता है कि वह आत्माओं को कैसे जीते और कलीसिया को तैयार करे। उसे रात में इसी बात के सपने आते हैं। लेकिन मामोन (धन) का सेवक दिन-रात यह सपने देखता है कि वह ज़्यादा से ज़्यादा धन कहाँ से पा सकता है। हम अपने "अर्धचेतन मन" को मूर्ख नहीं बना सकते - क्योंकि सबसे बढ़कर, वह जानता है कि हमारी अभिलाषा क्या है। अगर हम धन से प्रेम करते हैं, तो हमें ईमानदार होकर परमेश्वर से यह कह देना चाहिए, और उससे यह माँगना चाहिए कि वह हमें उससे मुक्त कर दे। ईमानदार विश्वासियों के लिए बड़ी आशा है - लेकिन बेईमान पाखण्डियों के लिए कोई आशा नहीं है।

इन दिनों हम बहुत से फ्चमत्कारी धर्म-युद्ध (क्रूसेड)" आयोजित होते हुए देखते हैं। लेकिन मैं अभी तक एक ऐसी क्रूसेड (सभा) का इंतज़ार कर रहा हूँ जिसमें फ्लोगों से पैसा न लेने का चमत्कार" देखा गया हो! यीशु और उसके शिष्यों ने उनकी किसी भी सभा में लोगों से दान इकट्ठा नहीं किया था। फिर भी अंधे और मूर्ख विश्वासी ऐसे प्रचारकों के बड़े प्रशंसक हैं जो बेशर्मी से पैसा माँगते हैं और यह भी सोचते हैं कि वे परमेश्वर के महान् सेवक हैं। मसीह के न्यायासन की स्पष्ट ज्योति यह प्रकट कर देगी कि वे ऐसे प्रचारक परमेश्वर की नहीं सिर्फ अपनी ख़ुद की ही सेवा कर रहे थे। विश्वासी धर्म-सिद्धान्त के आधार पर ऐसे लोगों के बीच एक भेद-रेखा खींचते हैं जो सुसमाचारीय (ईवैन्जैलिकल) हैं, और जो उदारवादी (लिबरल) हैं। लेकिन अगर इस तरह परख की जाएगी, तो शैतान और उसकी सारी दुष्टात्माएं भी फ्सुसमाचारीय" पक्ष में पाए जाएंगे, क्योंकि धर्म-सैद्धान्तिक रूप में वे सभी सुसमाचारीय हैं (याकूब 2:19)! लेकिन परमेश्वर की भेद-रेखा के अनुसार एक वे हैं जो धन से प्रेम करते हैं और एक वे हैं जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं। तब हम शैतान और उसकी दुष्टात्माओं को धन से प्रेम करने वालों के पक्ष में पाएंगे।

अगर हम पहले परमेश्वर के राज्य की खोज करेंगे, तो जिन वस्तुओं की हमें ज़रूरत है, उनकी खोज किए बिना ही परमेश्वर हमें पृथ्वी पर वह सब कुछ दे देगा। मेरे मसीही अनुभव के पूरे 40 सालों में मैंने इस बात को एक सत्य के रूप में जाना है। आकाश और पृथ्वी टल जाएंगे, लेकिन परमेश्वर का वचन नहीं टलेगा। हम सभी को इस वास्तविकता का जीवित उदाहरण होना है कि जो पहले परमेश्वर के राज्य की खोज में रहते हैं, परमेश्वर उनकी सारी ज़रूरतें पूरी करता है। हालांकि हममें से कोई भी यह नहीं कह सकता कि हम अपने मसीही जीवन में निरंतर परमेश्वर और उसके राज्य की खोज में लगे रहे हैं, लेकिन हम निश्चित रूप में यह साक्षी तो दे सकते हैं कि पैसे के पीछे नहीं लगे रहे हैं। अगर हम प्रचारक हैं, तो हमारी यह साक्षी भी होनी चाहिए कि हम किसी जगह सिर्फ इसलिए प्रचार करने नहीं गए थे क्योंकि हम जानते थे कि वहाँ हमें बहुत पैसा मिल सकता है, कि हमने धनवानों को प्रसन्न करना चाहा था, कि हमने ग़रीबों को अनदेखा नहीं किया था, कि हम अपनी सभाओं में दान इकट्ठा करने में दिलचस्पी नहीं रखते, कि हम अपनी आर्थिक ज़रूरतें लेकर लोगों के पास नहीं जाते, और यह कि हम लोगों से यह अपेक्षा नहीं करते कि वे हमें धन दें। पौलुस एक ऐसा जीवन जीने की साक्षी दे सका था। उसने कहा कि वह इसलिए इस तरह से जीया है कि वह उसके समयकाल के सभी धन-के-प्रेमी प्रचारकों का पर्दाफाश कर सके जो यह दावा कर रहे थे कि वे भी उसी की तरह परमेश्वर की सेवा कर रहे थे (2 कुरि. 11:10-13 लिविंग बाइबल)।

हमारे समय में भी, भारत की यह बड़ी ज़रूरत है कि इसमें पौलुस जैसी जीवंत साक्षियाँ हों जो ऐसे प्रचारकों का पर्दाफाश कर सकें जो भारतीय मसीहियत में धन-के-प्रेमी प्रचारकों के रूप में पाए जाते हैं। हम बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि शैतान हमसे और हमारी सेवकाई से इतनी घृणा क्यों करता है कि वह विश्वासियों द्वारा (जो कभी हमारी सभाओं में नहीं आते या हमें बोलता हुआ सुनते) हमें विधर्मी, मसीह-विरोधी, उग्रवादी, झूठे नबी आदि, कहलवाता रहता है। यह इसलिए है क्योंकि हम इस वास्तविकता को प्रकट करने द्वारा उसके राज का पर्दाफाश करते रहते हैं कि ऐसे पूर्णकालिक सेवक जो धन से प्रेम करते हैं और यीशु मसीह के सुसमाचार का प्रचार भी करते हैं असल में शैतान के सेवक हैं (पद 10-13 के संदर्भ में देखें 2 कुरि. 1:15)।

यीशु ने कहा कि अगर हम धन के उपयोग में विश्वासयोग्य नहीं रहेंगे, तो परमेश्वर हमें उसके राज्य का सच्चा धन नहीं सौंपेगा (लूका 16:11)। जब हम भारतीय मसीहियों द्वारा पश्चिमी मसीहियत का अंधा अनुसरण, परमेश्वर के वचन के प्रकाशन की बड़ी कमी, और आज के प्रचारकों के नीरस प्रचार सुनते हैं, तो हम साफ तौर पर समझ सकते हैं कि ये प्रचारक धन के प्रति विश्वासयोग्य नहीं रहे हैं।

3.मनुष्यों को प्रसन्न करने से मुक्त

"अगर मैं मनुष्यों को प्रसन्न करने वाला होता, तो परमेश्वर का दास न होता" (फिलि. 1:10)।

यह तीसरी शर्त है - मनुष्यों को प्रसन्न करने वाला होने से मुक्त होना।

एक बार फिर, एक धर्म-निर्पेक्ष काम-धंधे से आज़ाद हो जाना मनुष्यों को प्रसन्न करने से आज़ाद होने की तुलना में ज़्यादा आसान है।

अगर हम मनुष्यों को प्रसन्न करने के लिए परमेश्वर के वचन का प्रचार करेंगे, तो हम परमेश्वर के नहीं मनुष्य के सेवक हैं। जब एक प्रचारक यह चाहता है कि उसे एक सम्मानित सभा में फिर से आमंत्रित किया जाए जहाँ उसे अगले वर्ष ज़्यादा धन और सम्मान मिल सके, तो वह अपने संदेश को इस तरह बदलने के प्रलोभन में पड़ सकता है कि किसी को बुरा न लगे। इस तरह वह मनुष्यों का सेवक हो जाता है।

जब आप लोगों के बीच इस तरह प्रार्थना करते हैं कि लोगों को प्रभावित किया जा सके, तो आप जीवित परमेश्वर को नहीं बल्कि मनुष्यों के मत की आराधना कर रहे हैं। परमेश्वर ऐसी प्रार्थना नहीं सुनता, क्योंकि वे उसे नहीं मनुष्यों को अर्पित की गई हैं।

इसी तरह, हम अपने आपको वस्त्र धारण करने, लोगों से बात करने, और चलने के तरीक़ में भी परख सकते हैं। अगर इनमें से कुछ भी हमारी "पवित्रता" या शायद हमारी फ्दीनता" को दिखाते हुए मनुष्य को प्रसन्न करने के लिए किया गया है, तो हम परमेश्वर के नहीं मनुष्यों के सेवक हैं।

आप अगर चाहे अपनी पत्नी/पति को भी प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं, तो भी आप परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते।

आप परमेश्वर को जितना ज़्यादा प्रसन्न करेंगे, उतना ही आपकी उन लोगों द्वारा बुराई की जाएगी जो परमेश्वर को नहीं जानते - मसीही जगत के धार्मिक अगुवों द्वारा भी। यीशु को फ्दुष्टात्माओं का सरदार" कहा गया था। तो उसके शिष्यों को और भी बढ़ कर ऐसे नामों से क्यों न पुकारा जाएगा -क्योंकि वे किसी पोप, आर्चबिशप, वरिष्ठ पास्टर या पृथ्वी के किसी भी मनुष्य को प्रसन्न नहीं करना चाहते।

नई वाचा की कलीसियाएं

आजकल बहुत से विश्वासी अपने धर्ममतों से तंग आए हुए हैं और उन्हें त्याग कर नई वाचा की कलीसियाओं की खोज में निकले हुए हैं। ऐसे बहुत से समूह भी हैं जो फ्नई वाचा की कलीसिया" होने का दावा कर रहे हैं।

लेकिन हम एक नई वाचा की कलीसिया की पहचान कैसे कर सकते हैं? यक़ीनन, सभाओं के नमूनों द्वारा हम ऐसा नहीं कर सकते। यह सम्भव है कि हमारी मण्डली में सामर्थी कलीसियाओं के नमूने की बहुत सी बातों की नकल की जा रही हो, लेकिन फिर भी हम स्वयं कभी एक सामर्थी कलीसिया नहीं बन पाते।

फिलिस्तीनियों के लिए यह सम्भव था कि जैसा मिलाप वाला तम्बू मूसा ने बनाया था, वे भी हूबहू वैसा ही एक तम्बू बना लेते, क्योंकि उसका पूरा विवरण निर्गमन की पुस्तक में दिया गया था। लेकिन मिलाप वाले तम्बू में एक बात ऐसी थी जिसकी नकल कोई नहीं कर सकता था - और वह थी परमेश्वर की महिमा की वह आग जो तम्बू पर ठहरी रहती थी। जंगल के मैदानी विस्तारों में वही एक ऐसी बात थी जिससे यह पता चलता था कि परमेश्वर की उपस्थिति कहाँ है। उसके बिना वह तम्बू एक ख़ाली खोल की तरह था। जब सुलैमान के समय में मिलाप वाले तम्बू की जगह मन्दिर बन गया, तो परमेश्वर की महिमा ने उसे भर दिया था। लेकिन बाद में जब इस्राएल अपने विश्वास से भटक कर पीछे हट गया, तो महिमा धीरे-धीरे हटने लगी (यहेजकेल 10:4,18,19)। फिर वह मन्दिर सिर्फ एक ख़ाली खोल के रूप में रह गया। ज़्यादातर कलीसियाओं के साथ भी आज ऐसा ही है।

एक नई वाचा की कलीसिया की पहचान का चिन्ह् उसके बीच परमेश्वर का मौजूद होना है। जब किसी कलीसियाई सभा में नबूवत का आत्मा सामर्थ्य के साथ हाज़िर रहता है, तो जो वहाँ प्रवेश करेंगे, वे मुँह के बल गिर कर यह स्वीकार करेंगे कि "परमेश्वर उनके बीच में है" (1 कुरि. 14:24,25)। जब यीशु कलीसिया में नबूवत करता है, तो हमारे हृदय जलते हैं, वैसे ही जैसे इम्माउस के मार्ग में उन दो शिष्यों के हृदय जल रहे थे जब यीशु उनसे बात कर रहा था (लूका 24:32)।

परमेश्वर एक भस्म करने वाली आग है। जब परमेश्वर उस झाड़ी में उतर आया जिसमें से उसने मूसा से बात की थी, और झाड़ी जल रही थी, तो उस झाड़ी में कोई कीटाणु नहीं बचा था। ठीक इसी तरह, आज भी जहाँ परमेश्वर की सामर्थी, ज्वलंत उपस्थिति पाई जाती है, वहाँ कोई पाप छुपा और ढंका हुआ नहीं रह सकता। सिर्फ ऐसी कलीसिया ही नई-वाचा की कलीसिया है। यीशु की आँखें आग की ज्वाला हैं (प्रका. 1:14), और वह लगातार उन कलीसियाओं में से पाप, मनुष्यों की परम्पराओं, और फरीसीवाद का पर्दाफाश कर रहा है जिन्हें वह तैयार कर रहा है।

स्वर्ग के राज्य की असली चाबी आत्मा की दीनता है (मत्ती 5:3)। इसके बिना हम एक नई वाचा की कलीसिया नहीं बना सकेंगे। आत्मा में दीन होने का अर्थ परमेश्वर के सामने हमारी ज़रूरत की समझ में होकर लगातार टूटते रहना है, क्योंकि हममें उसी तरह सिद्ध होने की तीव्र लालसा है जैसा हमारा स्वर्गीय पिता सिद्ध है। फ्यहोवा टूटे मन वालों के निकट रहता है" (भजन. 34:18)। और जब वह निकट होता है, तो उसकी उपस्थिति हमारे हृदयों में स्वर्ग की आग लाती है और जहाँ भी हम जाते हैं, वह वहाँ पहुँचती है।

हनन्याह और सफीरा (प्रेरितों. 5) जब यरूशलेम में उस सामर्थी कलीसिया का हिस्सा बने जहाँ परमेश्वर की सामर्थी उपस्थिति आग की तरह जल रही थी, तो उन्होंने एक गंभीर ग़लती की। अगर वे कुरिन्थियों की कलीसिया में होते (वर्षों बाद) तो वे एक लम्बी आयु तक जी लेते। हनन्याह शायद वहाँ एक प्राचीन भी बन गया होता - क्योंकि कुरिन्थियों की कलीसिया एक शारीरिक और मृत कलीसिया थी। लेकिन आग से भरी यरूशलेम की नई वाचा की कलीसिया में, ये पति-पत्नी टिक न पाए। किसी भी नई वाचा की कलीसिया में परमेश्वर उन सभी का पर्दाफाश करेगा और उन्हें हटा देगा जो एक पाखण्डी जीवन जीते हैं।

अगर हमारे जीवन में, घर में, या काम की जगह में ऐसा कुछ भी है जो परमेश्वर का अनादर करता है, और अगर फिर भी हम नई वाचा की एक कलीसिया का हिस्सा बने रहते हैं, तो वह हमारे लिए बहुत ख़तरनाक हो सकता है। अगर आपके जीवन के प्राथमिक लक्ष्य परमेश्वर की महिमा की खोज में रहना है, बल्कि अपने लिए या अपने परिवार के लिए कुछ पाना है, तो अच्छा है कि आप ऐसी नई वाचा की कलीसिया को त्याग दें जहाँ परमेश्वर ऐसे सामर्थी रूप में मौजूद है और जहाँ उसका वचन ऐसी सामर्थ्य के साथ प्रचारित किया जाता है। आपके लिए अच्छा होगा कि आप किसी मृत कलीसिया के साथ जुड़ जाएं। वहाँ आपके साथ हनन्याह और सफीरा की तरह नहीं होगा, और आप कम-से-कम एक लम्बी आयु तो जी सकेंगे!

आज बहुत सी ऐसी कलीसियाएं हैं जो अपने आपको नई वाचा की कलीसिया कहती हैं। लेकिन वे ऐसी ही मृतक हैं जैसे एक मिट्टी की चिड़िया! नाम रख लेने से कुछ नहीं होता। सवाल यह है कि क्या वहाँ फरीसियों और सदूकियों का पर्दाफाश होगा और वे क्रोधित होकर कलीसिया से निकल जाएंगे या वे वहाँ आराम से रहेंगे। एक नई वाचा की कलीसिया में बहुत से लोग वचन के प्रचार से क्रोधित हो जाएंगे और कलीसिया छोड़कर चले जाएंगे। यरूशलेम की कलीसिया के लिए यह लिखा है कि बहुत से लोगों को उसमें शामिल होने का साहस नहीं हुआ (प्रेरितों. 5:13)।

अगर कलीसिया के प्राचीन होते हुए हमारी लालसा यीशु के शिष्य बनाने की बजाय संख्या बढ़ाना है, तो हम अपनी कलीसियाओं में फरीसी और सदूकी भर लेंगे। जब एक कलीसिया में यीशु की उपस्थिति सामर्थ्य के साथ मौजूद रहती है, तो शिष्य उसकी महिमा को देखकर आनन्द मनाएंगे। हमने वास्तव में जी-उठे परमेश्वर की महिमा को देख लिया है, इसका प्रमाण यह होगा कि फिर पृथ्वी की बातें (जैसे सुख-सुविधा, आदर-सम्मान और धन-सम्पत्ति) हमारे लिए धुंधली पड़ती जाएंगी और हममें उनके प्रति वैसा आकर्षण नहीं रहेगा जैसे पहले रहता था।

नई वाचा की एक कलीसिया में, सिर्फ वचन का सामर्थी प्रचार ही नहीं होगा, बल्कि वचन के जीवित उदाहरण भी होंगे। परमेश्वर के लिए लोगों को नए धर्म-सिद्धान्तों द्वारा नहीं पवित्र जीवनों द्वारा प्रभावित किया जाता है। नई वाचा के सेवक सिर्फ दूसरों को प्रचार ही नहीं करते, बल्कि उन्हें अपने उदाहरण का अनुसरण करने के लिए भी कहते हैं (1 कुरि. 11:1)। जब हमारा उदाहरण अनुकरण करने योग्य न हो तो हमें विलाप करना चाहिए। जब लोग हमारे सूखे और अभिषेक-रहित संदेशों से ऊब जाते हैं, तो हमारे सिर शर्म से झुक जाने चाहिए। अगर हम यीशु के पीछे चलेंगे, तो यह असम्भव है कि हम फरीसियों व सदूकियों की तरह ठण्डे हो जाएं। अगर हमारे पास सिर्फ सपनों व दर्शनों की बातें ही हैं, और लोगों को खिलाने के लिए प्रभु के पास से मिला कोई वचन नहीं है, तो हम यीशु से बहुत दूर हैं। जब हम स्वयं यीशु के लिए जल रहे होते हैं, तो लोग हमसे ऊबते नहीं हैं।

यीशु मृतकों में से इसलिए जी उठा कि उसका सब बातों में पहला स्थान हो (कुलु. 1:18)। जिनकी यही महत्वकांक्षा है, परमेश्वर उनको पूरा समर्थन देता है। इसका अर्थ यह है कि हम अपनी योजनाएं अधि्कार छोड़ देते हैं और यीशु को हमें यह बताने देते हैं कि हमें क्या करना है, अपना धन और समय कैसे ख़र्च करना है आदि। अगर जीवन में आपकी सिर्फ यही महत्वकांक्षा है, तो आप इस बात को निश्चित मान सकते हैं कि परमेश्वर आपके क्षेत्र में आपको एक नई वाचा की कलीसिया बनाने में इस्तेमाल करेगा।

बहुत लोग यह दावा करते हैं कि यीशु उनके बीच में है क्योंकि वे उसका नाम लेते हैं (मत्ती 18:20)। लेकिन वे अपने आपको धोखा दे रहे हैं। अगर वह वास्तव में उनके बीच में माजूद है, तो उनकी सभाएं इतनी उबाऊ क्यों होती हैं? ऐसा क्यों है कि उनके जीवन परिवर्तित नहीं हो रहे हैं? एक वास्तव में ईश्वरीय व्यक्ति के साथ बिताया थोड़ा सा समय भी हमारे जीवनों को इस तरह प्रभावित कर देता है कि हमारे जीवन की दिशा बदल जाती है। तो अगर हम स्वयं यीशु के साथ थोड़ा सा भी समय बिताएंगे तो उसका हमारे जीवनों पर कितना प्रभाव होना चाहिए। तो अगर कलीसियाई सभाओं द्वारा जीवन नहीं बदल रहे हैं, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारी सभाओं में प्रभु की उपस्थिति नहीं है। तब हम एक नई वाचा की कलीसिया नहीं हैं।

हम पृथ्वी पर कभी एक सिद्ध कलीसिया तैयार नहीं कर सकेंगे। यीशु द्वारा तैयार की गई पहली कलीसिया में - उसके बारह शिष्यों में - एक विश्वासघाती था। तो हमारी अपेक्षा इससे बढ़कर नहीं हो सकती। लेकिन आज जहाँ यीशु अपनी कलीसिया तैयार करता है, उस कलीसिया के केन्द्रीय मर्म-स्थान में, ऐसे लोगों का एक समूह होगा जिन्होंने उसकी महिमा को देख लिया होगा और उसमें जकड़े हुए होंगे। उनके हृदयों में एक ऐसी आग होगी जिसे शैतान बुझा नहीं सकेगा। उनके द्वारा परमेश्वर की महिमा के लिए प्रभु एक नई वाचा की कलीसिया तैयार करेगा।

अध्याय 10
कैन व हाबिल से सीखने वाले पाठ

पठनः उत्पत्ति4: 1-12

आदम और हव्वा के अदन की वाटिका से निकाले जाने के बाद यह बाइबल में दर्ज की गई पहली घटना है।

यहाँ हम ऐसे दो बच्चे देखते हैं जो एक ही घर में, हूबहू एक ही तरह की परिस्थितियों में, एक ही पृष्ठभूमि और सच्चे परमेश्वर के बारे में दिए गए एक ही प्रकार की शिक्षा में पले-बढ़े हैं। फिर भी उनके जीवन एक-दूसरे से कितने अलग रूप में तैयार हुए थे। यीशु ने कहा कि जब वह अपनी दुल्हन के लिए आएगा, तब एक बिस्तर में दो होंगे, फिर भी एक को ले लिया जाएगा और दूसरे को छोड़ दिया जाएगा। एक ही कलीसिया में दो लोग संगति कर रहे होंगे, उनमें से एक को ले लिया जाएगा और दूसरे को छोड़ दिया जाएगा।

कैन और हाबिल के साथ यही हुआ था; एक को स्वीकार किया गया, और दूसरे को अस्वीकार किया गया। दोनों ही धार्मिक व्यक्ति थे। दोनों ही परमेश्वर के लिए भेंट लेकर आए, लेकिन उनकी मनोदशाएं भिन्न थीं और वही निर्णायक बात थी। मनुष्य बाहरी रूप देखता है, लेकिन परमेश्वर हमारे हृदय को देखता है।

कैन और हाबिल में, जैसा कि हमने सामान्य रूप में सुना है, यह फ़र्क नहीं था कि एक मेमना लाया था (और उसने उसका लहू चढ़ाया था) और दूसरा भूमि की उपज लेकर आया था। वे अपने पापों के लिए बलि नहीं चढ़ा रहे थे बल्कि प्रभु के लिए भेंट लाए थे। और इस बात की अनुमति थी (मूसा की व्यवस्था में भी), कि प्रभु को फ्भूमि की उपज" की भेंट चढ़ाई जा सके (व्य. 26:2,10)। नीतिवचन 3:9 में यह निर्देश है कि "अपनी सारी उपज के प्रथम फल से प्रभु का आदर करना।" हाबिल के मामले में वह उसके झुण्ड का एक पशु था क्योंकि वह एक चरवाहा था। और कैन के मामले में प्रथम फल भूमि की उपज थी क्योंकि वह भूमि जोतने वाला किसान था (4:2)। हरेक अपनी उपज का प्रथम फल लाया था। इसमें कैन किसी भी तरह दोषी नहीं था।

बलिदान जो स्वीकार किए जाते हैं

लेकिन परमेश्वर द्वारा स्वीकार किए जाने वाले बलिदान टूटा मन और पिसा हुआ हृदय हैं, अर्थात् अपने निकम्मेपन और लाचारी का अहसास (भजन. 51:17)। हाबिल के पास यह भेंट थी जो कैन के पास नहीं थी। और यही वजह है कि यह लिखा है, "प्रभु ने हाबिल और उसकी भेंट को तो ग्रहण किया, लेकिन (इस वजह से) कैन और उसकी भेंट को ग्रहण नहीं किया" (उत्पत्ति 4:4,6)।

विश्वास का अर्थ परमेश्वर के ऊपर हमारे जीव की लाचारी भरी निर्भरता है और इसी के द्वारा फ्हाबिल ने परमेश्वर के लिए कैन से उत्तम बलिदान चढ़ाया" (इब्रानियों 11:4)। इसलिए हाबिल की भेंट परमेश्वर को स्वीकार्य हुई।

यह विचार बड़ा भ्रामक है कि हाबिल और कैन की भेंटों में यह फ़र्क था कि हाबिल ने लहू की भेंट चढ़ाई थी और कैन ने लहू नहीं चढ़ाया था। इस विचार में यह शिक्षा है कि एक व्यक्ति को परमेश्वर के सम्मुख जो बात स्वीकार्य बनाती है, वह उसके सामने यीशु का लहू प्रस्तुत करना है। यह ऐसा कहना है कि मानो उस व्यक्ति के हृदय की दशा (कि वह टूटा हुआ है या नहीं, उसमें विश्वास है या नहीं) कोई फ़र्क नहीं पड़ता। वह सिर्फ यीशु के लहू की दुहाई देता है मानो वह कोई जादूई ताबीज़ है, और परमेश्वर उसे ग्रहण कर लेता है। यह एक झूठ है और बहुत लोग इससे भरमाए जा रहे हैं

यीशु के लहू पर सभी या कोई भी दावा नहीं कर सकता। बाइबल यह नहीं कहती कि यीशु का लहू किसी के भी या सभी के पाप धो सकता है। नहीं, यह वचन को चालाकी से तोड़ना-मरोड़ना है। पवित्र-शास्त्र जो कहता है वह यह है कि यीशु का लहू उन सबको शुद्ध करता है जो "उसी तरह ज्योति में चलते हैं जैसे परमेश्वर स्वयं ज्योति में है" (1 यूहन्ना 1:7)। परमेश्वर की ज्योति में चलने के लिए यह ज़रूरी है कि एक व्यक्ति का ऐसा टूटा और पिसा हुआ हृदय हो जैसा हाबिल का था। सिर्फ तभी एक व्यक्ति की भेंट स्वीकार की जाएगी।

अगर एक व्यक्ति कहता है कि वह यीशु के लहू में विश्वास करता है, लेकिन उसमें एक घमण्डी और अहंकारी आत्मा है, तो परमेश्वर उससे दूर रहेगा और उसका विरोध करेगा (1 पतरस 5:6), जैसे उसने कैन का किया। सिर्फ दीन व्यक्ति ही कृपा पाता है (याकूब 4:6)।

हमारी आराधना, प्रार्थना और सेवा परमेश्वर को सिर्फ तभी स्वीकार्य होती हैं जब वे एक टूटे और पिसे हुए विश्वासी हृदय (परमेश्वर पर दीनता से भरी निर्भरता) में से आती हैं। यह हमारा धाराप्रवाह बोलना या सेवा में कुशलता नहीं है जिसे परमेश्वर देखता है, बल्कि वह हमारे हृदय की दशा को देखता है। यह पहला पाठ है जो हम उत्पत्ति 4 से सीख सकते हैं।

कैन और हाबिल के समय से लेकर समय के अंत तक, परमेश्वर को ग्रहणयोग्य बलिदान हमेशा से एक टूटा और पिसा हुआ हृदय ही रहे हैं। परमेश्वर बदलता नहीं है। उसके क़ानून वही रहते हैं।

परमेश्वर ने कैन को तब भी स्वीकार न किया होता अगर कैन एक मेमना लाकर उसके लहू की भेंट चढ़ा देता क्योंकि उसका हृदय घमण्ड से भरा और फूला हुआ था।

मन की दीनता उद्धार का पहला क़दम है। तब फिर हम ज्योति में आ सकते हैं और मसीह के लहू को हमें सब पापों से शुद्ध करने के लिए कह सकते हैं। जो मन के दीन हैं सिर्फ वही पौलुस का जयघोष कर सकते हैं, "अगर परमेश्वर हमारी ओर है, तो हमारे विरोध में कौन हो सकता है" (रोमि. 8:31) क्योंकि परमेश्वर हमेशा उनकी ओर रहता है जो मन के दीन हैं। घमण्डी यह नहीं कह सकते क्योंकि परमेश्वर उनके विरोध में होता है। जिस किसी में भी उसके स्वयं के बारे में ऊँचे विचार हैं, जैसे कैन में थे, उसका अंत भी कैन जैसा ही होगा, चाहे वह यीशु के लहू की कितनी भी दुहाई देता रहे। फ्धोखा न खाओ, परमेश्वर ठट्ठों में नहीं उड़ाया जाता, क्याेंकि जैसा बोओगे, वैसा काटोगे" (गलातियों 6:7)। और यह क़ानून वैश्विक स्तर पर सब पर लागू होता है, इसमें कोई भेदभाव नहीं होता।

इस घटना में से हम एक पाठ और सीखते हैं। कैन को हाबिल से ईर्ष्या हुई और वह उस पर क्रोधित हुआ था क्योंकि उसके साथ सब कुछ बहुत अच्छा हुआ था (क्योंकि उसे परमेश्वर ने स्वीकार किया था)।

जब आपके किसी नज़दीकी व्यक्ति के साथ आप सब कुछ अच्छा होता हुआ देखते हैं, तो आपको कैसा लगता है? जब आप अपने एक विश्वासी भाई को पाप के ऊपर जय पाने पर प्रचार करते हुए सुनते हैं, और आप यह पाते हैं कि उसका जीवन उसके प्रचार के साथ सुसंगत है - कि उसके जीवन में कहीं कोई चिंता, क्रोध या अधीरता नज़र नहीं आते, बल्कि लगातार जय, आनन्द और शांति की आत्मा बनी रहती है; और इसके विपरीत रूप में, आपका जीवन अशांत, अंधकारमय और पराजित है (क्योंकि आप यह विश्वास नहीं करते कि आप जय पा सकते हैं) - तब क्या आपको अपने अन्दर ईर्ष्या और इस अभिलाषा की जड़ फूटती हुई नज़र आती है कि कहीं पर गिरे और आपको उसकी निष्फलता पर ख़ुश होने का और उसे दूसरों की नज़रों में गिराने का मौक़ा मिले? कैन में भी यही आत्मा थी।

जब उस भाई पर कोई मुसीबत आती है तो क्या आपको ख़ुशी होती है? उसके जीवन में निरंतर जय की अवस्था से आपको चिढ़ होती है और आप क्रोधित होते हैं? आपके उस मनोभाव में मसीह का नहीं कैन का आत्मा है, और आप जितनी जल्दी उसे एक घिनौने और रेंगते हुए कीड़े के रूप में जान लेंगे, आपके लिए उतना ही अच्छा रहेगा।

जब परमेश्वर ने कैन को चेतावनी देनी चाही तक पाप कैन के हृदय के द्वार पर दुबका बैठा था। पाप कोई सौ मील दूर नहीं बल्कि उसके हृदय के द्वार पर प्रवेश करने के लिए तैयार बैठा था।

कैन कुछ भला करने का विचार नहीं कर रहा था। उस समय तक उसने कुछ बुरा करने का निर्णय नहीं किया था क्योंकि तब तो पाप उसके अन्दर प्रवेश कर चुका होता। उसने सिर्फ अपने हृदय को ख़ाली छोड़ रखा था, झाड़ा-बुहारा और किसी भी भली बात से ख़ाली। इस वजह से, उन आठ दुष्टात्माओं के प्रवेश करने का मार्ग तैयार हो गया जिनके बारे में यीशु ने बात की थी (मत्ती 12:43-45)।

कैन के जीवन में कोई आनन्द नहीं था, क्योंकि ऐसा व्यक्ति वास्तव में कभी आनन्दित नहीं रह सकता। उसका चेहरा लटका हुआ था और उस पर उदासी, तनाव और गुस्सा साफ नज़र आ रहे थे। किसी दूसरे के साथ इतना सब कुछ अच्छा होता हुआ देखकर वह सह नहीं पा रहा था।

कैन परमेश्वर और हाबिल दोनों से नाराज़ था। उसके ग़्ुस्से की एक वजह यह भी थी कि जो उससे छोटा था उसके साथ सब कुछ अच्छा हो रहा था। जो उम्र में बड़ा हो, उसके साथ कुछ भला होते हुए देखना फिर भी सहनीय हो सकता, लेकिन किसी छोटी उम्र वाले के साथ इतना सब कुछ अच्छा होते हुए देखना असहनीय था।

इससे पहले कि आप कैन पर पत्थर मारें, इस बात पर विचार करेंः जब आप अपने से छोटे भाइयों को आत्मिक रीति से आपसे आगे बढ़ता हुआ देखते हैं, तो क्या आप वास्तव में आनन्द मना सकते हैं? क्या आप ऐसे उत्साह से भर कर उनका भला चाह सकते हैं कि आप उन्हें अपने से आगे निकलता हुआ देखने के लिए उत्सुक हो उठें? अगर ऐसा है, तो आपमें मसीह का मन है जो इस बात से आनन्दित हुआ कि उसके शिष्य उससे भी बड़े-बड़े काम करेंगे (यूहन्ना 14:12)।

लेकिन जहाँ "ईर्ष्या और स्वार्थी आकांक्षा होती हैं, वहाँ हर प्रकार का बखेड़ा और बुराई होती है" (याकूब 3:16)। हाँ, जहाँ कैन की आत्मा होती है, वहाँ देर-सवेर हर प्रकार की बुराई पाई जाएगी।

परमेश्वर की चेतावनी

फिर भी, यह एक अद्भुत बात है कि परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को भी चेतावनी दिए बिना नहीं छोड़ता। उड़ाऊ पुत्र के पिता को देखें जो बाहर जाकर अपने बड़े बेटे को भीतर लाने के लिए तैयार था। इसलिए परमेश्वर कैन के पास आया। जैसे कि बाद में यीशु ने यहूदा इस्करयोती को अंत तक प्रेम किया, इसी तरह परमेश्वर ने कैन से प्रेम किया और यह न चाहा कि उसका विनाश हो।

"तू क्रोधित क्यों है?" परमेश्वर ने उससे पूछा, "अगर तू भला करे, तो क्या तू स्वीकार न किया जाएगा?" (उत्पत्ति 4:7, कोष्ठक)। अगर कैन एक टूटे और पिसे हुए हृदय के साथ आता, तो वह भी स्वीकार किया जाता। परमेश्वर कोई पक्षपात/भेदभाव नहीं करता।

परमेश्वर का कोई ख़ास चहेता नहीं है। उसकी व्यवस्था नहीं बदलती, और जो अपने आपको नीचा करते हैं, वे ऊँचे किए जाएंगे, और जो अपने आपको ऊँचा करते हैं, वे नीचे किए जाएंगे। यीशु के साथ भी, जो उसका अपना पुत्र है, पिता द्वारा किसी तरह का ख़ास व्यवहार नहीं किया गया था। यह साफ लिखा है कि यीशु को ऊँचा उठाए जाकर परमेश्वर के दाहिने हाथ पर इसलिए बैठाया गया, क्योंकि उसने अपने आपको दीन किया (फिलि. 2:8-9)। यह इसलिए नहीं हुआ क्योंकि वह परमेश्वर का पुत्र था, बल्कि इसलिए क्योंकि उसने मनुष्य के पुत्र के रूप में अपने आपको दीन किया था। एक मनुष्य के रूप में वह भी परमेश्वर के उन्हीं नियमों के अधीन होकर रहा जो मनुष्य होते हुए हम पर लागू रहते हैं। परमेश्वर ने स्वयं अपने पुत्र के साथ वैसा ही व्यवहार किया जैसा वह हरेक मनुष्य के साथ करता है। इसलिए हम यह विश्वास करने का साहस कर सकते हैं कि जैसा उसने यीशु के साथ किया, वैसा वह हमारे साथ भी करेगा। अगर हम अपने आपको दीन करेंगे, तो हम भी ऊँचे उठाए जाएंगे - वर्ना ऐसा नहीं होगा। अगर हम भला करेंगे, तो हम भी सिर उठा कर चल सकेंगे और हमारे मुख आनन्द से ज्योतिर्मय होंगे।

फ्लेकिन," परमेश्वर ने कैन को चेतावनी दी, "अगर तू भला न करे, तो पाप द्वार पर दुबका बैठा है।" एक फाड़ खाने वाले सिंह की तरह, पाप कैन के हृदय के पास ही था। कैन को स्वयं शायद इस बात का एहसास नहीं था, लेकिन परमेश्वर ने उसे चेतावनी दी थी। कैन पहले ही ईर्ष्या व क्रोध से भरा था, लेकिन उससे भी ज़्यादा बड़ी बुराई उसके द्वार पर थी। हत्या की आत्मा उसे दबोचने के लिए द्वार पर मौजूद थी। लेकिन परमेश्वर ने कैन से कहा कि उसे पाप पर जय पानी होगी। मनुष्य के लिए परमेश्वर की हमेशा से यही इच्छा रही है, और मनुष्य की जीवन के आरम्भ में ही इसका उल्लेख कर दिया गया है - कि मनुष्य को पाप पर जय प्राप्त करनी है।

लेकिन परमेश्वर की उस चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया गया - ठीक उसी तरह जैसे आज भी बहुत लोग पवित्र-शास्त्र की चेतावनियों पर ध्यान नहीं देते। कैन ने परमेश्वर की बुलाहट का जवाब नहीं दिया। परमेश्वर के सामर्थी हाथ के नीचे उसने अपने आपको दीन नहीं किया, बल्कि उसने अपने आपको ऊँचा उठाया और अपने शरीर की लालसा के वश में हो गया। इस तरह, परमेश्वर उसका शत्रु बन गया।

परमेश्वर हमारे जीवन के हालात इस तरह तैयार करता है कि उनमें हम उस भ्रष्टता को देखना शुरू कर दें जो हमारे शरीर में है। अगर कैन अपने माता-पिता का एक ही पुत्र होता, तो वह अपने शरीर में मौजूद भ्रष्टता को न देख पाता। लेकिन हाबिल की मौजूदगी, और यह हक़ीक़त कि परमेश्वर ने हाबिल को स्वीकार किया, कैन के शरीर में मौजूद बुराई को बाहर ला सकी - कि अगर वह चाहे, तो उसे स्पष्ट रूप में देख सके। अपने भाई पर क्रोधित होने की बजाए कैन को अपना न्याय करना चाहिए था। तब वह बच गया होता।

हमें धन्यवाद देना चाहिए कि परमेश्वर दूसरे लोगों के साथ हमें ऐसी परिस्थितियों में पहुँचाता है जहाँ हमारे शरीर में मौजूद बुराई को बाहर ले आती हैं कि हम उन्हें साफ-साफ देख सकें। अगर हम परमेश्वर द्वारा दी जाने वाली इन चेतावनियों पर ध्यान देंगे और स्वयं को दीन कर अपना न्याय करेंगे, हमारे बारे में उस सत्य को स्वीकार करेंगे जिसे परमेश्वर ने अपनी ज्योति में प्रकट किया है, तो हमारे साथ भी भला होगा। वर्ना हमारे हृदय के द्वार पर पाप हमें खा जाने के लिए तैयार बैठा है।

हमें इसके लिए भी धन्यवाद देना चाहिए कि हम एक ऐसी मण्डली का हिस्सा हो सकते हैं जहाँ परमेश्वर की ज्योति एक ख़ास तरह से चमकती है कि जो शारीरिक और जैविक है, वह बाहर लाया जाता है कि फिर हम उसे साफ-साफ देख सकें। ऐसी मण्डली का सदस्य होना कितनी भयंकर बात होगी कि जहाँ हम वर्षों तक बैठे रहने के बाद भी हम उस बुराई को कभी नहीं देख पाते जो हमारे शरीर में छुप कर बैठी है। जो आपस में संगति नहीं करना चाहते, वे कभी अपने ख़ुदी-के-जीवन पर ज्योति चमकते हुए नहीं देख पाते, और इस वजह से कभी आगे न बढ़ते हुए वे अपनी मनोदशा के प्रति एक अज्ञानता से भरी ख़ुशफहमी में ही रहते हैं। जब परमेश्वर हमारे बारे में किसी बात पर अपनी ज्योति डालता है, तो हमें उस ज्योति के लिए धन्यवाद देना चाहिए।

जब मण्डली के भाइयों व बहनों के सिखाने-समझाने द्वारा परमेश्वर हमें चेतावनी देता है, तो हमें उन बातों को गंभीरता से लेना चाहिए, वर्ना हमारा हाल भी कैन की तरह हो सकता है जिसने परमेश्वर की चेतावनी को अनसुना किया था।

संदेह से मुक्त

हाबिल में, हम कैन की दुष्टता का विपरीत मनोभाव पाते हैं।

जब कैन ने हाबिल को मैदान में चलने के लिए आमंत्रित किया (उत्पत्ति 4:8), तो वह उस पर संदेह किए बिना उसके साथ चला गया। हाबिल के अन्दर यह संदेह नहीं था कि कैन के अन्दर ईर्ष्या है - वर्ना वह उसके साथ मैदान में नहीं जाता। हाबिल कितना सहज था! उसमें एक टूटा और पिसा हुआ हृदय था जिसने अपने भाई का न्याय नहीं किया/उस पर दोष नहीं लगाया। हमारे अनुसरण करने के लिए यह कितना सुन्दर उदाहरण है!

अकसर ऐसा होता है कि ऐसे लोग भी, जिनके साथ दूसरी बातों में सब अच्छा ही हो रहा होता है, दूसरों पर यह संदेह करते हैं कि उन्हें उनसे ईर्ष्या है, या वे उनके बारे में कुछ ग़लत सोच रहे हैं या उन्हें नीचा गिराने की कोई युक्ति कर रहे हैं, आदि। यह हो सकता है कि हमें किसी से कोई शिकायत न हो, फिर हमें यह संदेह हो सकता है कि दूसरे हमारे खिलाफ़ कुछ युक्ति कर रहे हैं। इस तरह हम भी दूषित हो जाते हैं।

हाबिल ने तो उस पर भी संदेह नहीं किया जो उसकी हत्या करने वाला था। उसका हृदय कितना अच्छा था! हमें भी ऐसे ही हृदय की ज़रूरत है। संकरे मार्ग के दोनों ओर दो पहाड़ी चोटियाँ हैं। एक ईर्ष्या की चोटी है, एक संदेह की चोटी है- और हम इनमें से किसी भी चोटी से नीचे गिराए जा सकते हैं। हाबिल के अन्दर कैन के प्रति न तो कोई ईर्ष्या थी और न ही संदेह था। अपने साथी-विश्वासियों के साथ हमें इस मार्ग में चलना है। संदेह से दूषित हृदय होने की बजाय, हमारे लिए यही अच्छा है कि हम हाबिल की तरह एक संदेह-रहित हृदय रखते हुए मर जाएं।

ऐसा व्यक्ति जो दूसरों पर ईर्ष्या करने और क्रोधित होने का दोष लगाता और उनका न्याय करता है, वह दूसरों के मामलों में हस्तक्षेप करने वाला व्यक्ति है, और इस तरह यह साबित करता है कि उसका भी हृदय उससे ईर्ष्या करने वाले और उससे क्रोधित होने वाले की तरह ही टूटा और पिसा हुआ नहीं है।

अगर हम अपने आपको अपने मन में छोटा करते रहेंगे, जैसा हाबिल ने किया था, तो हमारे अन्दर यह विचार भी नहीं आएगा कि कोई हमसे ईर्ष्या करता है। हम अपनी नज़र में तब इतने छोटे हो जाएंगे कि हम यह सोच ही नहीं सकेंगे कि कोई हमसे ईर्ष्या भी कर सकता है।

हाबिल ने परमेश्वर द्वारा स्वीकार किए जाने पर आनन्द मनाया। लेकिन इससे उसका हृदय कैन के खिलाफ़ घमण्ड से ऊँचा नहीं हुआ। नहीं, उसने अपनी कैन से तुलना नहीं की और न ही कैन के जीवन में हस्तक्षेप करने के लिए अपने आपको लगाया।

कैन का अंत

कैन इतने घमण्ड से भरा था कि वह परमेश्वर की चेतावनी स्वीकार करने योग्य नहीं रह गया था, और इसलिए उस पाप ने जो उसके हृदय के द्वार पर दुबका बैठा था, उसका नाश कर दिया। अंततः नाश होने वाला हाबिल नहीं कैन था - क्योंकि हाबिल तो सीधा परमेश्वर की उपस्थिति में पहुँच गया, लेकिन कैन परमेश्वर की उपस्थिति से हमेशा के लिए निकल गया (उत्पत्ति 4:16)।

जब परमेश्वर किसी सभा में दिए गए संदेश या किसी पत्रिका में लिखे हुए लेख द्वारा हमें चेतावनी देता है, और हम यह सोचते हैं, फ्मुझे ऐसे संदेश की कोई ज़रूरत नहीं है," तब हम कैन के मार्ग में चलने लगते हैं (यहूदा 11)। तब हमारे फ्मन के घमण्ड ने हमें धोखा दिया है" (ओबद्याह 3)।

और अगर वह संदेश एक ऐसे भाई में से आता है जो प्रभु में हमसे बहुत छोटा है, तब उसे अनदेखा करने का प्रलोभन और भी ज़्यादा बड़ा होता है। तब परमेश्वर हमें यह दिखाता है, अगर हमारे सुनने के कान हैं, कि सत्य से ज़्यादा हम अपने आपसे प्रेम करते हैं। और अगर हम उस मार्ग में आगे बढ़ेंगे, तो परमेश्वर एक दिन हमारे जीवन में ऐसी भरमाने वाली सामर्थ भेजेगा, कि हम सत्य के प्रेम को फिर कभी ग्रहण नहीं कर पाएंगे (2 थिस्स. 2:10,11)। शिक्षा देने वाले संदेश को अनदेखा करना ख़तरनाक है। निश्चित तौर पर, यह पाप द्वारा भरमाए जाकर कठोर हो जाने और, कैन की तरह परमेश्वर से दूर हो जाने की दिशा में ले जाने वाला रास्ता है (इब्रानियों 3:12,13)।

यह हो सकता है कि हम कैन की तरह किसी को पत्थर से न मारें, लेकिन हम अपनी जीभ से ऐसा कर सकते हैं। बाइबल हमें बताती है जीभ के वश में मृत्यु और जीवन दोनों होते हैं (नीति. 18:21)। हम एक व्यक्ति के शरीर को छुए बिना ही उसके अच्छे नाम को, उसके चरित्र को, और बहुत सी अन्य बातों को ख़त्म कर सकते हैं। और यह बड़े दुःख की बात है कि जो अपने आपको विश्वासी कहते हैं वे एक सप्ताह के बाद दूसरे सप्ताह यही करते रहते हैं। और सप्ताह के अंत में वे बड़े आराम से रविवारीय सभा में चले जाते हैं मानो पूरे सप्ताह में उनसे कुछ ग़लत हुआ ही नहीं है। लेकिन परमेश्वर उनसे कहता है, फ्तेरे भाई का चरित्र (जिसे तूने मार डाला है) चिल्लाकर मेरी दुहाई दे रहा है।" लेकिन वे उस आवाज़ को नहीं सुनते क्योंकि उनके विवेक कैन की तरह कठोर हो गए हैं। वे आत्मिक आवारागर्द और भगोड़े बन जाते हैं, मसीह की समानता की तरफ कभी नहीं बढ़ पाते हैं, और कभी मसीह की देह के अंग नहीं बन पाते हैं (उत्पत्ति 4:10,12)।

सचमुच, पाप हमारे हृदय के द्वार के बहुत नज़दीक दुबका बैठा होता है।

इससे बचने का सिर्फ एक ही रास्ता है कि हम अपने मनों को अपने साथी-विश्वासियों की कमी और कमज़ोरियों से नहीं बल्कि उनके लिए मनभावनी और प्रशंसनीय बातों से भरते रहें (फिलि. 4:8)।

हाबिल और कैन उन दो व्यवस्थाओं के अग्रघोषक हैं जिनका वर्णन बाइबल के अंत के पृष्ठों में दिया गया है - यरूशलेम व बाबुल, दुल्हन और वेश्या। एक व्यवस्था आत्मिक है, दूसरी धार्मिक है (कैन की तरह)। एक यीशु के पीछे चलती है, और दूसरी फरीसियों के पीछे चलती है।

जिसके पास मसीह के आने, और उसके आने पर उसके साथ जाने की आशा है, वह दिन-प्रतिदिन अपने आपको शुद्ध करता है, और घुटने टिका कर स्वयं ज़्यादा और ज़्यादा दीन करता है (1 यूहन्ना 3:3)। बाक़ी के सभी लोग फ्धोखा देते रहेंगे और धोखा खाते रहेंगे" (2 तीमु. 3:13)।

जिसके कान हों वह सुने कि पवित्र-आत्मा कलीसिया से क्या कह रहा है।

अध्याय 11
किसी मनुष्य के कज़र्दार न हों

परमेश्वर कभी किसी व्यक्ति का कज़र्दार नहीं रहता। नई वाचा में, हमें परमेश्वर के स्वभाव में सहभागी होने के लिए बुलाया गया है। इसलिए हमें भी यह आज्ञा दी गई है, फ्किसी बात में किसी के कज़र्दार न बनो" (रोमियों 13:8)। दूसरों से उधार लेना पुरानी वाचा में श्राप का हिस्सा था - ऐसा श्राप कि जिसके बारे में परमेश्वर ने कहा था कि वह इस्र्राएल पर तब आएगा जब वह व्यवस्था का पालन नहीं करेंगे (पढें व्य. 28:43-48)। परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन न करने पर इस्राएल को फ्सब वस्तुओं की घटी" की पीड़ा सहनी थी (पद 48)।

परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करने पर एक आशिष जिसकी परमेश्वर ने उनसे प्रतिज्ञा की वह यह थी, "तू अनेक जातियों को कज़र् देगा पर लेगा नहीं" (व्य. 28:15; 15:6 भी देखें)। परमेश्वर द्वारा अपने लोगों को इतनी आशिष देना कि वे दूसरों को भी आशिष दे सकें, उसके द्वारा आशिषित होने के तरीक़ों में से एक था।

इसलिए अगर आप लगातार आर्थिक ज़रूरतमंदी की दशा में रहते हैं, तो आपको यह जानने के लिए एक आत्मिक जाँच की ज़रूरत है कि कहाँ क्या बिगड़ा हुआ है। हमारे विश्वास को परखने के लिए परमेश्वर हमें कभी-कभी आर्थिक ज़रूरत में से गुज़रने दे सकता है। लेकिन परमेश्वर की अपने किसी भी बच्चे के लिए ऐसी इच्छा नहीं है कि वह लगातार ऐसी आर्थिक दशा में बना रहे जिसमें उसे कज़र्दार होना पड़े।

बाइबल कहती है कि "उधार लेने वाला उधार देने वाले का दास बन जाता है" (नीति. 22:7)। "उधार" के लिए इब्रानी शब्द यह संकेत देता है कि इसमें लेने वाला देने वाले के साथ बंध जाता है। आप अपने देनदार के साथ एक ज़ंजीर से बंध जाते हैं और उसका आप पर अधिकार हो जाता है।

अपने किसी भी बच्चे के लिए परमेश्वर की यह इच्छा नहीं है कि उस पर किसी का ऐसा अधिकार हो। हम क्योंकि मसीह के लहू से ख़रीदे गए हैं, इसलिए हमें यह आज्ञा दी गई है कि हम मनुष्यों के दास न बनें (1 कुरि. 7:23)।

यीशु स्वयं श्रापित हुआ कि वह हमें व्यवस्था के हरेक श्राप से मुक्त करे (गल. 3:13)। वह सभी बंदियों को रिहा करने के लिए भी आया (लूका 4:18)। इसलिए अगर आप कज़र् के श्राप से बंधे हुए हैं, तो आप अपने जीवन के निम्न क्षेत्रें की आत्मिक परख कर सकते हैंः

1. ग़लत प्राथमिकताएं

यीशु ने कहा कि जो पहले स्वर्ग के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज करते हैं, वे यह पाएंगे कि उनके जीवन के लिए ज़रूरी सभी भौतिक वस्तुएं उनके साथ जुड़ गई हैं (मत्ती 6:33)। यह एक ऐसी प्रतिज्ञा है जो हरेक देश में और हरेक समय में मान्य है। परमेश्वर अपनी प्रतिज्ञा के प्रति सच्चा रहता है और उसे पूरा करने में निष्फल नहीं होता। इसलिए, अगर कुछ आर्थिक कमी-घटी है, तो इसमें मनुष्य की ही निष्फलता होनी चाहिए।

दाऊद ने कहा कि उसने कभी किसी धर्मीजन को त्यागा हुआ और उसके बच्चों को भीख माँगते हुए नहीं देखा (उधार माँगना भी भीख माँगने जैसा ही होता है)। बल्कि, धर्मीजन दूसरों को देता है और वह सबके लिए एक आशिष होता है (भजन. 37:25,26)।

क्यों हमने अपने जीवन के हरेक क्षेत्र में पहले परमेश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज की है? क्या परमेश्वर का काम और उसकी दिलचस्पियाँ हमारा भी काम और दिलचस्पियाँ हैं?

अगर नहीं, तो हमारी प्राथमिकताएं ग़लत हैं, और हमारी आर्थिक समस्याओं का यह एक कारण हो सकता है।

धन के मामले में धर्मी होने का अर्थ है जिससे हमने ग़लत तरीक़े से जो लिया है, वह उसे लौटा देना। बहुत से विश्वासियों ने ऐसे मामले नहीं निबटाए हैं, इसलिए वे अपने जीवन में परमेश्वर की आशिष पाने से चूक रहे हैं।

जैसे ही यीशु ज़क्कई के घर में आया, उसने यह फैसला किया कि वह अपनी सारी पिछली आर्थिक भूलों को सुधार लेगा (लूका 19:1-10)। इसलिए, हालांकि वह एक बहुत धनवान व्यक्ति था, वह सूई के छेद में से पार हो गया। उसने जो कुछ जिससे ग़लत ढंग से लिया था, उसने वह (ब्याज सहित) पूरा-पूरा लौटा दिया। यह सुनिश्चित करने के लिए कि ब्याज कम न पड़े, इसलिए उसने जो लिया था, उसका चौगुना लौटा दिया। जिनके साथ उसने बेईमानी की थी, उनमें से ऐसे भी बहुत लोग होंगे जो मर गए थे या शहर छोड़ कर कहीं चले गए थे, और जिनके बारे में ज़क्कई को कोई जानकारी नहीं थी। उस रक़म के बारे में जक्कई को क्या करना चाहिए था? क्या वह उसे सहज रूप में भूल सकता था? उस धन को वह अपने पास नहीं रख सकता था। इसलिए उसने उस धन को ग़रीबों में बाँट देने का फैसला किया। वही उसकी कुल सम्पत्ति का आधा हिस्सा था। इस मामले में वह बहुत कट्टर व्यक्ति साबित हुआ इसलिए यीशु ने कहा कि आज इस घर में उद्धार (धन के प्रेम से छुटकारा) आया है (लूका 19:9)। क्या यीशु हमारे बारे में भी यही बात कह सकता है?

हमें अपने आपसे यह भी पूछने की ज़रूरत है कि क्या हम अपना पैसा पूरी ईमानदारी से कमा रहे हैं? वह धन जो बेईमानी से कमाया गया हो, परमेश्वर द्वारा कभी आशिषित नहीं हो सकता। इसके विपरीत, फ्बेईमानी से कमाया हुआ धन, घर-परिवार पर कष्ट लाता है" (नीति. 15:27, लिविंग)। प्रभु पाँच रोटियों व दो मछलियों से पाँच हज़ार लोगों को खिला सकता है लेकिन यह ज़रूरी है कि वे रोटियाँ और मछलियाँ ईमानदारी से कमाई गई हों (नीति. 13:11)।

हमारे पास या हमारे बैंक के खाते में एक पैसा भी ऐसा नहीं होना चाहिए जो हमारा अपना न हो या जिसे हमने ईमानदारी से प्राप्त न किया हो। ऐसा पैसा जो हमने सरकारी कर की चोरी करके या धोखा देकर कमाया है, वह घिनौना धन है और हम पर और हमारे बच्चों पर सिर्फ श्राप ही लाएगा।

2. लेकर न देना

जो कुछ हमने परमेश्वर से पाया है, और जब हम उसे स्वार्थी होकर थामें रहते हैं, तो हम आत्मिक तौर पर मर जाते हैं। भींच कर बंद की हुई मुट्ठी - जो कुछ पकड़ में आ चुका है, फिर उसे दबोचे रखना - आदम की नस्ल का एक उपयुक्त प्रतीकात्मक चिन्ह् हो सकती है। कलवरी पर यीशु का हाथ खुला हुआ था, और इसलिए हमारा भी हाथ खुला होना चाहिए। इस्राएलियों से यह कहा गया था फ्दसमांश तुम्हें यह सिखाने के लिए है कि तुम अपने जीवनों की प्रत्येक बात में परमेश्वर को पहला स्थान देना" (व्य.वि. 14:23, एल.बी.)।

नई वाचा में दसमांश देने की कोई आज्ञा नहीं है, क्योंकि यीशु ने कहा कि उसका शिष्य होने के लिए एक व्यक्ति को अपना सब कुछ (सिर्फ 10 प्रतिशत नहीं) त्याग देना है (लूका 14:33)। हमारा कोई धन अब हमारा अपना नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें अपना सारा धन परमेश्वर के काम के लिए दे देना है। लेकिन हमें यह समझना चाहिए कि सब कुछ परमेश्वर का है। जो कुछ हम अपने ऊपर भी ख़र्च करते हैं, वह भी परमेश्वर की महिमा के लिए होना चाहिए (1 कुरि. 10:31)। लेकिन हमें फिर भी परमेश्वर और उसके काम के लिए देना चाहिए। हमें कितना देना चाहिए? हम जितना भी आनन्दित होकर दे सकते हैं (2 कुरि. 9:7)। पुरानी वाचा में देने की मात्र पर ज़ोर दिया गया था लेकिन नई वाचा में देने की गुणवत्ता पर ज़ोर दिया गया है।

लेकिन इस भाग में हमसे यह भी कहा गया है कि हम जो बोएंगे वही काटेंगे (2 कुरि. 9:6)। जो कुछ हम प्रभु को देते हैं, वह बोए हुए बीज के समान है। अगर हम थोड़ा बोएंगे, तो थोड़ा ही काटेंगे। विश्वासियों के निरंतर आर्थिक मुश्किलों में फँसे रहने का यह कारण भी हो सकता है। वे परमेश्वर के प्रति फ्धनवान" नहीं रहे हैं (लूका 12:21)। यह असम्भव है कि मनुष्य परमेश्वर के प्रति धनवान हुआ हो और उसकी ज़रूरत के समय में परमेश्वर उसका कज़र्दार बना रहे।

यीशु ने कहा फ्लेने से देना धन्य है" (प्रेरितों- 20:35)। क्या आपको दूसरों से भेंट लेना अच्छा लगता है? तो हम आदम की बाक़ी सभी संतानों की तरह हैं। जो सचमुच ईश्वरीय हैं, उनकी एक विशिष्टता यह है कि वे लेने की बजाए देना ज़्यादा पसन्द करते हैं। फ्धर्मी देता रहता है" (नीति. 21:26)।

बाइबल कहती है कि फ्जो उपहार लेने से घृणा करता है, वह जीवित रहेगा" (नीति. 15:27)। हमारा मन इस तरह से नया हो जाना चाहिए कि वह भेंट लेने से घृणा करे लेकिन देने से आनन्दित हो।

आपकी आर्थिक मुश्किलों की एक वजह यह हो सकती है कि आपके साथी-विश्वासियों की ज़रूरत के समय आपकी उनको देने की इच्छा नहीं थी। फ्जो कंगाल की पुकार सुन कर कान बंद कर लेता है, वह स्वयं पुकारेगा पर उसकी सुनी नहीं जाएगी" (नीति. 21:13)। दूसरी ओर, फ्जो निर्धन पर दया दिखाता है, वह असल में प्रभु को उधार देता है - और प्रभु इस उधार का अद्भुत ब्याज देता है" (नीति. 19:17, एल.बी.)। निश्चय ही, एक व्यक्ति को यह समझदारी से करना चाहिए। अगर आपके पास यह करने के लिए समझ नहीं है, तो यही अच्छा है कि आप वह धन कलीसिया के प्राचीनों को दे दें (जिनमें आपको भरोसा है) और उनसे उसे समझदारी से बाँट देने के लिए कहें। आरम्भिक कलीसिया में इसी तरह किया जाता था (प्रेरितों. 4:34,35)।

फ्दो तो तुम्हें भी दिया जाएगा... जिस नाप से तुम दूसरों के लिए नापते हो, उसी नाप से तुम्हारे लिए भी नापा जाएगा" (लूका 6:38) यह परमेश्वर का एक ऐसा क़ानून है जो यह निश्चित करेगा कि आपके पास कमी-घटी होगी या भरपूरी होगी। अगर हम दूसरों के प्रति उदार होंगे, तो परमेश्वर हमारे प्रति उदार होगा। अगर हम दूसरों के प्रति कंजूस होंगे, तो परमेश्वर हमारे प्रति कंजूस होगा।

धन से प्रेम करना एक ऐसी बात है जिसकी वजह से अनेक मसीही आवश्यकता में रहते हैं। सब लोग धन से प्रेम करते हैं। हमारा नया जन्म होने के बाद भी हमारा वह प्रेम ग़ायब नहीं हो जाता। लेकिन अगर हम अपना न्याय करने और उससे अपने आपको शुद्ध करने में विश्वासयोग्य होंगे, तो यह प्रेम हमारे जीवनों में से धीरे-धीरे पूरी तरह लुप्त हो सकता है।

3. फिज़ूलख़र्च होना

धन के मामले में धर्मी (ईमानदार) होना पहला क़दम है। उसके बाद हमें भरोसेमंद (विश्वासयोग्य) होना सीखना पड़ता है। बहुत लोग इस वजह से कज़र् में हैं क्योंकि उन्होंने अपनी मासिक आय के अनुसार ख़र्च करने का अनुशासन नहीं सीखा है। उन्होंने चींटी से हर महीने थोड़ा-थोड़ा बचाना नहीं सीखा है (नीति. 6:6-11) कि ज़रूरत पड़ने पर उन्हें भीख या उधार न माँगना पड़े (नीति. 21:20)।

एक व्यक्ति को प्रतिमाह कितनी बचत करनी चाहिए? यह पूरी तरह से उस विश्वास के परिमाण पर निर्भर होता है जो परमेश्वर ने उसे दिया है (रोमियों 12:3)। कुछ लोगों (जैसे पिछली शताब्दी में ब्रिस्टल के ज्योर्ज म्यूलर) का ऐसा विश्वास हो सकता है कि उनके पास जो कुछ बचे वह प्रभु और उसकी सेवा के लिए दे दें और उनके पास कुछ न बचे। अपनी ज़रूरत के समय में, परमेश्वर उन्हें निराश नहीं करेगा बल्कि चमत्कारिक ढंग से उनकी ज़रूरत पूरी करेगा। लेकिन अगर हममें विश्वास का एक निश्चित परिमाण नहीं है (और हममें से एक विशाल बहुमत का नहीं होता), तब हमें नम्रता के साथ यह स्वीकार कर लेना चाहिए। और तब हमारी ज़रूरत के लिए कुछ बचा कर रखना ही अच्छा है कि हमें अपने भाई-बहनों से मदद पाने की आशा में न जीना पड़े।

जब यीशु ने इतनी बड़ी मात्र में रोटियों और मछलियों को बढ़ा दिया था, तब भी उसने अपने शिष्यों को बचे हुए टुकड़े उठाने के लिए कहा था कि कुछ भी बर्बाद न हो (यूहन्ना 6:12)। प्रभु बर्बादी से घृणा करता है। बहुत से लोग अपने घरों में बहुत फिज़ूलख़र्च करते हैं। जिन लोगों की यह समस्या है, उन्हें अपनी आमदनी और ख़र्च का एक हिसाब रखना चाहिए कि उन्हें यह मालूम हो सके कि वे कहाँ फिज़ूलख़र्च कर रहे हैं। अगर हम इस मामले में गंभीर नहीं होंगे, तो हम हमेशा कज़र् में ही डूबे रहेंगे।

विश्वासियों द्वारा किया जाने वाला बहुत सा फिज़ूलख़र्च मनुष्यों से आदर पाने के लिए किया जाता है। यह ख़ास तौर पर विवाह के समय होता है। बहुत से लोग एक भव्य विवाह समारोह आयोजित करने के लिए कज़र् लेते हैं। यह मूर्खता है। इसी प्रकार, बहुत लोग सिर्फ आदर पाने के लिए अपने घरों में भव्य वस्तुएं लाते हैं, और दूसरों को भव्य भोजों पर आमंत्रित करते हैं। यह सब ग़लत है। अगर हमें परमेश्वर के सम्मुख आज़ादी से जीना है, तो हमें मनुष्यों से आदर पाने की तरफ से मरे हुए होना चाहिए। इस तरह हम कज़र् में से भी आज़ाद हो सकते हैं। अगर हम अपने धन के प्रति विश्वासयोग्य नहीं हैं, तो यीशु ने कहा है कि फिर परमेश्वर हमें उसके राज्य का सच्चा धन कभी नहीं सौंपेगा (लूका 16:11)। जब एक व्यक्ति वे सूखे संदेश सुनता है जिनका प्रचार आजकल ज़्यादातर प्रचारक कर रहे हैं, तो यह स्पष्ट है कि उनके पास परमेश्वर के वचन का सच्चा धन नहीं है। यह इसलिए है क्योंकि वे धन के प्रति ईमानदार नहीं रहे हैं। अगर परमेश्वर हमें उसके वचन में से प्रकाशन नहीं दे रहा है, तो हमें यह जाँचने की ज़रूरत है कि हम अपने धन के प्रति विश्वासयोग्य रहे हैं या नहीं। यह हो सकता है हम बेईमान न हुए हों, लेकिन हो सकता हमने फिज़ूलख़र्च किया हो।

4. दूसरों पर दोष लगाना

हम जो बोते हैं, वही काटते हैं। अगर हमने दूसरों की आलोचना की है और उन पर दोष लगाया है, तो हमें इसमें हैरान नहीं होना चाहिए कि हम क़र्ज में डूबे हैं।

क्या हमने परमेश्वर के अभिषिक्त दासों की आलोचना की है? किसी भी व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला यह सबसे ख़तरनाक काम हो सकता है। परमेश्वर ने अपने वचन में कहा है, फ्मेरे अभिषिक्तों को मत छूओ, और मेरे नबियों की हानि मत करो" (भजन. 105:15)। परमेश्वर उनके साथ कठोरता से व्यवहार करता है जो उसके सेवकों की आलोचना करते और उन पर दोष लगाते हैं। अगर हमने बीते समय में ऐसा किया है (शायद बहुत पहले ऐसा किया हो), या उनके कामों का न्याय किया हो (अपने आपको उनके कामों का मूल्यांकन करने की जगह स्थापित किया हो), तो हमारी आर्थिक मुश्किल की यह वजह भी हो सकती है कि हमने उन कामों का अंगीकार न किया हो और अपने उन पापों को स्वीकार न किया हो। हरेक मनुष्य अपने आपको इस बात में जाँचे।

परमेश्वर के लोगों में बहुत से रोगों के होने की यही वजह है। परमेश्वर बीमारियों और आर्थिक परेशानियों को इस्तेमाल करता है कि उनके द्वारा वह हमारे लापरवाही से भरे शब्दों के बारे में हमसे बात करे। वे शब्द जो हमने परमेश्वर के अभिषिक्त जनों के खिलाफ़ अपने घरों में बोले हैं, अब वे तीरों की तरह हमें घायल करने के लिए हमारी तरफ लौट आए हैं। जब तक हम कठोरता से स्वयं अपना न्याय नहीं करेंगे, नम्र व दीन नहीं होंगे और उन लोगों से क्षमा नहीं माँगेंगे, तब तक इस समस्या का कोई हल नहीं हो सकता।

यह हो सकता है कि हमने दूसरे विश्वासियों की आलोचना की हो जिनके लिए हमें ऐसा लगता है कि वे फिज़ूलख़र्च कर रहे हैं। इस तरह हम दूसरों का हस्तक्षेप करने वाले हो गए हैं। अब हो सकता है कि परमेश्वर ने न्याय करते हुए हमें आर्थिक मुश्किलों में डाला है कि हमें दूसरों के मामलों के निरीक्षक होना बंद करें। हमारे लिए इतना शारीरिक हो जाना भी सम्भव है कि हम सभाओं में भी ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करने लगें जिनसे हम किसी मामले में किसी का न्याय करते हुए उससे उन्हें चोट पहुँचाना चाहते हों। परमेश्वर ऐसे शब्दों पर ध्यान देता है और सालों बाद यह हो सकता है कि शरीर में बोने के नतीजे के रूप में इस प्रकार की बुराई की कटनी काटें।

5. अविश्वास

कज़र् में होने का एक अंतिम कारण अविश्वास हो सकता है।

जब एक निरीश्वरवादी के सामने आर्थिक मुश्किल आती है तो वह दूसरों के पास मदद के लिए भागता है क्योंकि वह परमेश्वर में विश्वास नहीं करता। हमारे मामले में कैसा है? जब हम ज़रूरतमंद होते हैं तो हम क्या करते हैं? परमेश्वर आर्थिक ज़रूरतों द्वारा हमें परखता है। प्रेरित अकसर आर्थिक ज़रूरत में रहते थे (देखें 1 कुरि. 4:11)। लेकिन उन्हें कभी माँगना या उधार नहीं लेना पड़ा था। उन्होंने परमेश्वर में यह भरोसा रखा कि वह उनकी ज़रूरत पूरी करेगा और उसने वैसा ही किया।

परमेश्वर कभी अपने विश्वासयोग्य बच्चों को नहीं त्यागेगा, और अगर ज़रूरत होगी तो जैसा एलिÕयाह के साथ हुआ, वह कौवों को भी उनकी ज़रूरत पूरी करने के लिए भेजेगा। क्या हम प्रार्थना में - विश्वास से, अपनी आर्थिक ज़रूरतें लेकर परमेश्वर के पास गए हैं? या हमने भी निरीश्वरवादी लोगों की तरह ही किया है? इस संदर्भ में (यशा. 30:7-21 व भजन. 121 पढें)।

जो भी वर्तमान समय में कज़र् में डूबा है, यह ज़रूरी है कि वह अपने आपको इन सभी क्षेत्रें में परखे और अपने मामलों को सही करे। अगर आप एक मसीही अगुवे या प्राचीन हैं और कज़र् में डूबे हैं, तो आपको अपने आपको दस गुणा ज़्यादा परखने की ज़रूरत है। जो भी कज़र् में है, उसे परमेश्वर के लोगों का अगुवा होने का कोई अधिकार नहीं है।

हमें कट्टर होना चाहिए। हमें यह स्पष्ट रूप में देख लेना चाहिए कि कज़र् में होने का अर्थ है कि हमने रोमियों 13:8 में दिया परमेश्वर का वचन तोड़ा है। कज़र् में होने का अर्थ पाप में जीवन बिताना है। कट्टर होने का अर्थ है कि पाप से बचने के लिए अगर अपना दाहिना हाथ काटने या दाहिनी आँख निकालने की ज़रूरत पड़े तो हम ऐसा करने के लिए तैयार रहें। इसका अर्थ है कि हमें कज़र् से मुक्त होने के लिए फौरन क़दम उठाने की ज़रूरत है।

सबसे पहले तो हमें अपना बैंक का खाता ख़ाली कर देना चाहिए (उसमें सिर्फ उतना ही रखना चाहिए कि जितनी हमारी कम-से-कम मासिक ज़रूरत है) और अपना कज़र् उतारना शुरू कर देना चाहिए। तब हमारे घर में जो भी सोना या चाँदी है उसे बेचकर अपना क़र्ज चुकाना चाहिए। हमें अपना मासिक ख़र्च भी कम करना चाहिए कि हम जल्दी-से-जल्दी अपना कज़र् उतार सकें। हमे अपना कज़र् चुकाने के लिए कभी यह इंतज़ार नहीं करना चाहिए कि हम एक साथ पूरी रक़म चुका दें। हमसे जितना हो सके हमें हर महीने अपना थोड़ा-थोड़ा कज़र् चुकाना चाहिए। अगर परमेश्वर यह देखेगा कि हम इस मामले में कट्टर हैं, तो वह हमारी मदद करेगा। बहुत लोग अपने कज़र् के मामले में इतने लापरवाह होते हैं कि परमेश्वर भी उनकी कोई मदद नहीं करता। परमेश्वर सिर्फ उनकी मदद करता है जो पूरी निष्ठा से उसका आज्ञापालन करते हैं (यिर्म. 29:11-13)।

अगर हम अपना कज़र् चुकाने के लिए ये क़दम उठाने के लिए तैयार नहीं हैं, तो हम कट्टर मसीही नहीं हैं और हम प्रभु यीशु मसीह के शिष्य नहीं हैं। तब परमेश्वर हमारे पूरे जीवन भर के लिए हमें शारीरिक विश्वासी बने रहने के लिए, और उसके नतीजे भुगतने के लिए छोड़ देगा।

परमेश्वर उनका आदर करता है जो उसका आदर करते हैं।

यह इसलिए नहीं लिखा गया है कि किसी को उसकी बीते समय की निष्फलताओं के लिए दोषी ठहराया जाए। परमेश्वर हमसे भूतकाल के बारे में सिर्फ तभी बात करता है जब वह भविष्य के संदर्भ में ही होती है। परमेश्वर बीते समय की बातों के प्रति क्षमाशील रहता है। लेकिन परमेश्वर हमें इसलिए क्षमा करता है कि हम भविष्य में उसका भय मानें - जैसा भजन संहिता 130:4 स्पष्ट करता है।

अध्याय 12
क्या आप दोष लगाते हैं या मध्यस्थता करते हैं?

क्या आप शैतान के सहकर्मी हैं या प्रभु यीशु के?

प्रकाशितवाक्य 12:10 में हम पढ़ते हैं कि शैतान भाइयों पर दोष लगाने वाला है, और यह कि वह दिन-रात उन पर दोष लगाता रहता है। शैतान के लिए यह पूर्णकालिक काम है जिसमें वह हर समय व्यस्त रहता है। और इस काम में उसके बहुत से सहयोगी हैं - उसकी दुष्टात्माएं और मनुष्य दोनों इसमें शामिल हैं। एक दुःखद वास्तविकता यह है कि बहुत से विश्वासी भी दोष लगाने के इस काम में शैतान के सहयोगी हैं।

आदम ने जैसे ही अदन में पाप किया, उसी समय शैतान ने अपना स्वभाव उसके हस्तांतरित कर दिया था। इसका प्रमाण हम इस बात में देखते हैं कि जब परमेश्वर ने आदम से पूछा कि क्या उसने वर्जित वृक्ष का फल खाया था, तो सबसे पहला काम जो आदम ने किया वह हव्वा की ओर अंगुली उठाते हुए कहा, "उसने मुझे दिया और मैंने खाया" (उत्पत्ति 3:12)।

आदम की वह मुद्रा - अपने एक मानवीय-साथी की ओर उठी हुई अंगुली- एक जानी-पहचानी मुद्रा है जो आदम के सब बच्चों में पाई जाती है। हमारे बचपन से ही, हम सभी में दूसरों पर आरोप लगाने और उन्हें दोषी ठहराने का स्वभाव विकसित किया है। हम जैसे-जैसे बड़े हुए, आरोप लगाने और दूसरों को दोषी ठहराने वाली यह आत्मा अपने काम में ज्यादा चतुर, ज़्यादा प्रखर, व ज़्यादा दुष्ट होती गई है। अफसोस की बात यह है कि नया जन्म हो जाने के वर्षों बाद भी यह ज़्यादातर विश्वासियों के जीवनों में से दूर नहीं हुई है!

बाइबल कहती है, "अगर कोई मसीह में है तो वह नई सृष्टि है। पुरानी बातें बीत गईं, देखो नई बातें आ गईं" 2 कुरि. 5:17)। लोगों के प्रति हमारा मनोभाव नया होना चाहिए - वही मनोभाव जो सबके प्रति यीशु का है। लेकिन हममें मनोदशा का यह परिवर्तन परमेश्वर के साथ सहयोग किए बिना नहीं हो सकता। इसमें कोई शक नहीं, कि वह परमेश्वर ही है जो हमारे हृदयों में इन मनोभावों को तैयार करता है। लेकिन वह हमें यंत्र या रोबोट की तरह इस्तेमाल नहीं करता। हमें अपने ग़लत मनोभावों से अलग होकर "अपने उद्धार का काम पूरा करते जाना है" (फिलि- 2:12,13)। हम सिर्फ तभी परिवर्तित हो सकते हैं।

विश्वासियों ने क्योंकि इस आज्ञा को, कि "अपने उद्धार का काम पूरा करते जाओ," गंभीरता से नहीं लिया है, इसलिए वे अपने जीवन के अंत तक आदम की संतानों की तरह ही व्यवहार करते रहते हैं। और प्रभु के बच्चों के व्यवहार द्वारा उसका नाम बदनाम होता है। एक झूठी शिक्षा ने बहुत से विश्वासियों को ऐसी कल्पना करने वाला बना दिया है कि उद्धार पाने के लिए उन्हें कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है, बस बौद्धिक रूप में पवित्र-शास्त्र की वास्तविकताओं पर फ्सिर्फ विश्वास" करना है। अगर यह सच होता है तो स्वयं शैतान भी उद्धार पा लेता क्योंकि वह भी पवित्र-शास्त्र की सब वास्तविकताओं को मानता है! लेकिन वह फिर भी भाइयों पर दोष लगाने वाला है - और यही बहुत से तथाकथित विश्वासी भी करते हैं!

यीशु के समय के फरीसियों के बारे में विचार करें। वे अपने धर्म-सिद्धान्तों में कट्टर थे और बहुत ही धार्मिक थे। वे अपनी पीढ़ी के "उदारवादी" सदूकियों से परमेश्वर के वचन के सत्यों के लिए लड़ते थे - जैसे आज के सुसमाचारीय मसीही लोग करते हैं। फिर भी यीशु ने उन्हें सदूकियों से ज़्यादा दोषी ठहराया था।

उन फरीसियों के मनोभाव को हम उस घटना में स्पष्ट देख सकते हैं जिसमें उन्होंने व्यभिचार में पकड़ी एक ग़रीब स्त्री पर दोष लगाया था। उस स्त्री को पाप के जीवन से बचाने में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं थी। उनका उद्देश्य सिर्फ अपनी फ्धार्मिकता का प्रदर्शन" करना था। वहाँ खड़े होकर वे उस अभागी स्त्री की तरफ (अपने पिता आदम की तरह) दोष लगाने वाली अंगुली उठाए खड़े थे। अपने उस कृत्य से वे यह दर्शा रहे थे कि वे असल में किसकी संतान थे। लेकिन यीशु, ऐसी ही स्त्रियों को उनके पापों से बचाने के लिए आया था। और उसने उन फरीसियों से कह दिया था कि उनका पिता न सिर्फ आदम था बल्कि स्वयं दोष लगाने वाला - शैतान उनका पिता था (यूहन्ना 8:1-11 व 44)।

यीशु की पूरी सेवकाई फरीसियों के साथ संघर्ष करने की थी, क्योंकि वह पृथ्वी पर शैतान और उसके दूतों से लड़ने के लिए आया था - उन दूतों से भी जो धार्मिक वस्त्र पहने घूमते फिरते हैं। जब हम प्रभु के पीछे चलेंगे तो हम पाएंगे कि हमारा भी फ्रूढ़िवादियों/अतिवादियों" से है जिनका ध्यान मुख्य रूप से उद्धार पर नहीं धर्म-सिद्धान्त पर होता है, और जो पापियों को बचाने की बजाय दोष लगाने में ज़्यादा दिलचस्पी रखते हैं! ऐसे बहुत से लोग जो सतही तौर पर खोए हुए विधर्मी लोगों को बचाने का बोझ उठाए हुए नज़र आते हैं, अपने विश्वासी-भाइयों पर भी दोष लगाते हुए नज़र आते हैं, और उन्हें बचाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती!

परमेश्वर ने अपने पुत्र को जगत में इसलिए नहीं भेजा कि वह उसे दोषी ठहराए बल्कि इसलिए भेजा कि जगत उसके द्वारा उद्धार पाए (यूहन्ना 3:17)। और हमारा प्रभु हमें इस तरह से बचाता है कि वह हमारे लिए मध्यस्थता करने के लिए सर्वदा जीवित है (इब्रानियों 7:25)।

आरोप लगाने और दोषी ठहराने की सेवकाई शैतान की है और हमारा इसमें कोई भाग नहीं होना चाहिए। दूसरी ओर, हमारे प्रभु की उद्धार और मध्सस्थता की पूर्णकालिक सेवकाई है। हमारी भी यही सेवकाई होनी चाहिए।

परमेश्वर ने हमें यीशु को उसकी दुल्हन व उसके फ्सहायक" के रूप मे दिया है। इसलिए इस मध्यस्थता की सेवकाई में हमें अपने प्रभु के सहकर्मी होना है। जैसे पिता ने यीशु को संसार में भेजा - उसे दोषी ठहराने (न्याय करने या उसकी तरफ अंगुली उठाने) के लिए नहीं, बल्कि उसे बचाने के लिए। (यूहन्ना 20:21)। इसलिए, संसार में परमेश्वर के काम के लिए हम उसके हाथों में आज एक उपयोगी पात्र बन सकते हैं, लेकिन यह तभी होगा जब हम अपने जीवनों में से फ्दोष लगाने वाली आत्मा" (शैतान की आत्मा) को पूरी तरह से दूर हटाकर फ्मध्यस्थता की आत्मा" (मसीह की आत्मा) को रख देंगे।

ज़कर्याह 3:1-5 में, इन दोनों सेवकाइयों का एक सुन्दर चित्रण है। वहाँ यहोशू है (जो एक विश्वासी का प्रतीक है) जो प्रभु के सिंहासन के सामने खड़ा है। वह मैले-कुचैले वस्त्र पहने खड़ा है - यह दर्शाता है कि पृथ्वी पर हममें से सबसे श्रेष्ठ लोगों के जीवन का अंत होने तक हममें पाप (जाने व अनजाने दोनों) होंगे - याद रखें कि यहोशू महायाजक था, यहूदियों का अगुवा (1 यूहन्ना 1:8)। हम देखते हैं कि शैतान यहोशू के पास खड़ा उन पर दोष लगा रहा था। दूसरी ओर, हम प्रभु को देखते हैं जो यहोशू का पक्ष लेता है और शैतान को डाँटता है। प्रभु ने यहोशू के मैले-कुचले वस्त्र ले लिए और उनके बदले उसे साफ कपड़े दिए। ज़कर्याह, जो यह देख रहा था, अपने भाई को प्रभु द्वारा फ्सही ठहराए जाने" से इतना उत्साहित था कि वह भी "अपने भाई को महिमामयी" बनाने में प्रभु का सहकर्मी बन गया और बोला, "उसके सिर पर साफ पगड़ी भी रखें।" प्रभु ने ज़कर्याह की प्रार्थना का जवाब दिया और यहोशू के सिर पर एक पगड़ी भी रखी गई। परमेश्वर का सहकर्मी होने का यह अर्थ होता है।

बाइबल कहती है, "अगर कोई अपने भाई को ऐसा पाप करता देखे जिसका परिणाम मृत्यु न हो, तो वह प्रार्थना करे और परमेश्वर उसके कारण उन्हें जिन्होंने ऐसा पाप किया हो जिसका परिणाम मृत्यु नहीं है, जीवन देगा" (1 यूहन्ना 5:16)। यह परमेश्वर की एक अद्भुत प्रतिज्ञा है। जब हम अपने किसी भाई को पाप में गिरते हुए देखते हैं, तब क्या हमने कभी इस प्रतिज्ञा को इस्तेमाल करने के बारे में सोचा है? या हमने शैतान के लोगों के साथ मिलकर अपने असहाय भाई पर दोष लगाया है?

प्रभु के सिंहासन के सामने, ये दोनों सेवकाइयाँ - दोष लगाना और मध्यस्थता करना - निरंतर होती रहती हैं। यह हम पर निर्भर होता है कि हम कौन सी सेवकाई में हिस्सा लेने का फैसला करते हैं।

सबसे पहले हमें साफ तौर पर यह देख लेने की ज़रूरत है कि शैतान और दुष्टात्माएं हमें लगातार हमारे साथी विश्वासियों पर दोष लगाने के लिए उकसाते रहते हैंं, और ऐसा करने के लिए शैतान हमें हमेशा ही एक "अच्छा और धर्ममय" कारण देगा! लेकिन हम जितना ज़्यादा यह करेंगे, हम अपने जीवनों को दुष्टात्माओं द्वारा उतना ही प्रभावित होने के लिए खोलते जाएंगे। दूसरों पर दोष लगाने की इस एक ही दुष्टता भरी आदत बहुत से विश्वासियों के उनके शरीर और मन में असाध्य रोगों से ग्रस्त होने की वजह बन चुकी है। हमें अपने जीवनों में दोष लगाने वाली दुष्टात्मा को पूरी तरह से दूर करने के लिए उग्र सुधारवादी बनना पड़ेगा - ठीक वैसे ही जैसे एक शल्य चिकित्सक (सर्जन) एक असाध्य कैंसर को दूर करने के लिए एक "उग्र शल्य क्रिया (सर्जरी)" करता है। लेकिन इसमें सवाल यह है कि क्या हमने यह देख लिया है कि फ्दोष लगाने वाली आत्मा" किसी भी कैंसर से ज़्यादा बुरी होती है।

हममें से हरेक में बचपन से ही दूसरों पर दोष लगाने की यह बुरी आदत होती है। हमने अपने पूरे जीवन दूसरों पर अंगुली उठाते हुए किसी न किसी बात में दोष लगाने में और उनके पीठ-पीछे उनकी बुराई करने में ही बिताए हैं। फरीसियों की तरह हम अपने पापों के बारे में भूल गए है और हमें यह समझ में ही नहीं आता कि हमारे पाप हमें इस बात के लिए अयोग्य ठहराते हैं कि हम दूसरों पर पत्थर फेंक सकें!

हमें इस बात पर शोक करने की ज़रूरत है कि पिछले सालों में दोष लगाने वाली इस दुष्टात्मा को हमारे जीवनों में इतनी ज़्यादा जगह मिल गई है। प्रभु की मध्यस्थता की छुटकारा देने वाली सेवकाई में उसके सहकर्मी होने की जगह हम अनजाने में ही शैतान की दोष लगाने वाली सेवकाई में उसके सहकर्मी बन गए हैं। हमें कम से कम अब तो इसमें से मन फिरा कर पश्चाताप् करना चाहिए।

दोष लगाने वाली दुष्टात्मा को अपने जीवन से दूर करना उद्धार के काम को पूरा करने का पहला क़दम है। अगर हम अपने हृदय की उस ख़ाली हुई जगह को मध्यस्थता से नहीं भरते, तो दोष लगाने वाली दुष्टात्मा अपने से भी बुरी सात और दुष्टात्माएं लेकर वापिस आएगी और, जैसी यीशु ने चेतावनी दी थी, हमारी हालत पहले से भी बुरी हो जाएगी (लूका 11:24-26)। इसलिए यह ज़रूरी है कि हम पवित्र-आत्मा द्वारा भरे जाएं जो फ्मध्यस्थता का आत्मा" (देखें जक़र्याह 12:10 व रोमियों 8:26,27)। दोष लगाने वाली दुष्टात्मा को स्थाई रूप से अपने जीवन से अलग करने के लिए हमें मध्यस्थता के आत्मा से भरते रहना है।

जिस व्यक्ति के लिए आप लगातार प्रार्थना कर रहे हैं, उसके बारे में बुरा बोलना या उस पर दोष लगाना असम्भव होता है। यह बात सही है या ग़लत, इसकी स्वयं जाँच कर देख लेंः आप जिन पर दोष लगाते हैं, उनके लिए आप प्रार्थना नहीं करते। सही है न? यही वजह है कि यह फ्दोष लगाने वाली कैंसरनुमा दुष्टात्मा" एक कैंसर की ही तरह, हमें छोड़ती नहीं है बल्कि प्रतिवर्ष और घिनौनी होती जाती है!

आज शैतान को मसीहियत में एक खुला मैदान मिला हुआ है क्योंकि उसकी दोष लगाने वाली दुष्टात्माओं को अनेक विश्वासियों के जीवनाे और हृदयों में आसानी से आने और जाने का रास्ता मिला हुआ है।

लेकिन प्रभु ने हमें सभी दुष्टात्माओं पर अधिकार दिया है, जिसमें दोष लगाने वाली दुष्टात्मा भी शामिल है (लूका 10:19)। जिन लोगों पर दोष लगाने के लिए हमें प्रलोभित किया जाता है, उनके लिए मध्यस्थता करने द्वारा हमें इन दुष्टात्माओं पर प्रबल होना चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो हम अपने जीवन के अंत तक वैसे ही घटिया और निकम्मे मसीही बने रहेंगे जैसे हम आज तक रहे हैं। तब हम अपने प्रभु के सहकर्मी नहीं हो सकेंगे।

मध्यस्थता की सेवकाई एक ऐसी सेवकाई है जिसे हममें से हरेक को गंभीरता से लेना चाहिए। कलीसिया में शैतान पर जय पाने का और कोई तरीक़ा नहीं है। जो हमें सताते हैं, हमारे प्रभु ने न सिर्फ उन्हें क्षमा करने के लिए ही कहा है, बल्कि उनके लिए प्रार्थना करने के लिए भी कहा है (मत्ती 5:44)। अगर हम उन्हें सिर्फ क्षमा करेंगे और उनके लिए प्रार्थना नहीं करेंगे, तो दोष लगाने वाली आत्मा फिर से हममें प्रवेश कर सकती है। इसलिए सबसे पहले हमें एक-दूसरे के लिए परमेश्वर को धन्यवाद देना शुरू करना चाहिए क्योंकि यहीं से मध्यस्थता की शुरूआत होती है। फ्तुम्हें एक देह होने के लिए बुलाया गया है, इसलिए (एक-दूसरे के लिए) धन्यवादी बने रहो" (कुलु. 3:15)।

पौलुस के पत्रें में, हम देख सकते हैं कि उसकी यह आदत थीः वह हमेशा ही परमेश्वर को मसीहियों के लिए - जो रोम, कुरिन्थुस, इफिसुस, फिलिप्पी, कुलुस्सै व थिस्सलुनीके में रहते थे - धन्यवाद देते हुए अपने पत्र शुरू करता था (रोमियों 1:8; 1 कुरि. 1:4; इफि. 1:15,16; फिलि. 1:3; कुलु 1:3; 1 थिस्स. 1:2; 2 थिस्स. 1:3; 2 तीमु. 1:3; फिलेमोन 4)। इसमें कोई शक नहीं कि उन मसीहियों में ऐसी बहुत सी कमियाँ थीं जिन्हें पौलुस जैसा ईश्वरीय व्यक्ति आसानी से देख सकता था। लेकिन उन पर दोष लगाने के लिए उसने दोष लगाने वाले के साथ हाथ मिलाने से इनकार कर दिया। परमेश्वर ने उसे उनकी मदद करने व उन्हें बचाने के लिए भेजा था, उन पर आरोप लगाने और उन्हें दोषी ठहराने के लिए नहीं।

कुरिन्थियों के लोगों को लिखते समय भी, जिनके बीच गंभीर समस्याएं थीं, पौलुस ने अपने पत्रें की शुरूआत उस अच्छाई से की जो वह उनके बीच में देख सकता था। यह कहने के बाद ही वह उनकी ग़लतियों को उन पर प्रकट करता था। शायद यही वजह रही होगी कि कुरिन्थियों के मसीहियों ने उसकी ताड़ना को सहर्ष स्वीकार कर लिया था (2 कुरि. 7:8-9)। शायद इसी वजह से दूसरे हमारी ताड़ना स्वीकार नहीं करते - क्योंकि हमने कभी उस अच्छाई की सराहना नहीं की है जो हमने उनमें देखी है!

आप जो माता-पिता हैं, इस बात पर विचार करेंः क्या आप अपने बच्चों में नज़र आने वाली अच्छाई की बजाए उनकी ग़लतियों और कमियों की तरफ इशारा करने में ज़्यादा जल्दी नहीं करते? क्या आपने कभी अपने बच्चों को उत्साहित करने और उनकी सराहना करने वाले शब्द बोले हैं? क्या आपने कभी उनके साथ घुटनों पर आकर उनके लिए परमेश्वर को धन्यवाद दिया है? अगर आपने सिर्फ आलोचना ही की है और सराहना नहीं की, तो इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि आपके बच्चो में कोई सुधार नहीं हो रहा है! तो हम क्यों न एक ज़्यादा ईश्वरीय तरीक़ा इस्तेमाल करें? जब आप अपना मनोभाव बदलेंगे, तो आप पाएंगे कि आपके बच्चे भी बदलेंगे। ऐसा करें और देखें कि इसमें आप सफल होते हैं या नहीं।

हम जो विश्वासी हैं, अपने आपसे यह सवाल पूछ सकते हैंः जो बात शैतान हमसे बार-बार कहता रहता है, क्या वह वास्तव में सच है कि उन सभी विश्वासियों में कुछ भी अच्छाई नहीं है जिन पर हम इतने वर्षों से दोष लगाते रहे हैं?

जबकि बीते समय में दूसरों के खिलाफ़ दोष लगाने, शिकायत करने व पीठ-पीछे बुराई करने की आत्मा ने हममें इतनी ज़्यादा जगह पा ली है, इसलिए अब परमेश्वर इसी परिमाण में, बल्कि इससे से भी बढ़कर - हमें एक-दूसरे के लिए धन्यवाद और मध्यस्थता की आत्मा प्रदान करने की कृपा करे। इस तरह शत्रु को हममें फिर कोई जगह नहीं मिलेगी। दोष लगाने वाला और उसकी दुष्टात्माओं पर फिर जय पाई जाएगी और वे मध्यस्थता की आत्मा द्वारा निकाल दिए जाएंगे। क्या अब आप ऐसे अति-सुधारवादी बनेंगे, और - एक बार हमेशा के लिए - दूसरों पर दोष लगाने की आदत छोड़ देंगे? ऐसा करने के लिए प्रभु हम सब की मदद करे। फ्जो पवित्र है, वह पवित्र ही बना रहे, लेकिन जो अशुद्ध है, वह अशुद्ध ही रहे" (प्रका. 22:11)।

अध्याय 13
कलीसिया के बीच में एक भस्म करने वाली आग

फ्हमारा परमेश्वर भस्म करने वाली आग है" (इब्रानियों 12:29)।

हमने अकसर बहुत से घरों की दीवारों पर "परमेश्वर प्रेम है," ये शब्द लिखेे देखे हैं। लेकिन क्या आपने कहीं "परमेश्वर भस्म करने वाली आग है" लिखा हुआ देखा है? ये दोनों ही पद नए नियम में हैं। लेकिन हम परमेश्वर को एक भस्म करने वाली आग के रूप में नहीं देखना चाहते। इसलिए परमेश्वर के बारे में हमारी कल्पना असंतुलित है। और जब परमेश्वर के बारे में हमारी परिकल्पना असंतुलित होती है, तो हमारा मसीही जीवन भी असंतुलित और शारीरिक होता है!

यशायाह की नबूवत में हम ये शब्द पढ़ते हैंः

सिय्योन में पापी भयभीत हैं; भक्तिहीनों (पाखण्डियों - के.जे.वी.) को थरथराहट ने आ दबोचा है; हममें से कौन भस्म करने वाली आग के सामने ठहर सकता है? हममें से कौन अनन्त आग के सामने जीवित रह सकता है? वह जो धार्मिकता से चलता और सीधी बातें बोलता, जो अंधेर के लाभ से घृणा करता तथा घूस थामने से अपने हाथ झटक देता है, जो हत्या की बातें सुनने से कान फेर लेता है, तथा बुराई देखने से अपनी आँखें बंद कर लेता है" (यशा. 33:14-15)।

यहाँ हम यह पढ़ते हैं कि सिय्योन (कलीसिया) में पापी और पाखण्डी दोनों हैं! और फिर यह सवाल किया गया है कि भस्म करने वाली आग के सामने कौन ठहर सकता है? अगर प्रभु किसी कलीसिया में वास्तव में मौजूद है, तो वहाँ हर समय एक भस्म करने वाली आग, और निरंतर जलना होगा।

आज बहुत सी कलीसियाएं कुछ विशिष्ट बातों जैसे फ्विश्वासियों का बपतिस्मा," "अन्य भाषा में बोलना," फ्स्तुति-आराधना," फ्साप्ताहिक प्रभु-भोज" आदि, की वजह से फ्नई वाचा की कलीसिया" होने का दावा करती हैं। लेकिन इनमें से कुछ भी नई वाचा की कलीसिया की पहचान के चिन्ह् नहीं हैं। एक नई वाचा की सच्ची कलीसिया की पहचान यह है कि परमेश्वर उनके बीच एक भस्म करने वाली आग के रूप में मौजूद रहता है - एक ऐसी आग जिससे पापी भयभीत होते हैं और पाखण्डी थरथराते हैं।

जब शारीरिक लोग हमारी कलीसिया को छोड़ देते हैं, या विश्वास से भटक कर पीछे लौट जाते हैं, तो मुझे कोई हैरानी नहीं होती - क्योंकि यह इस बात का सबूत होता है कि हमारे बीच में अभी भी एक भस्म करने वाली आग जल रही है। जब शारीरिक और पाखण्डी लोग एक कलीसिया को छोड़ कर चले जाते हैं, तो यह एक अच्छा चिन्ह् होता है। यह इस बात का चिन्ह् होता है कि परमेश्वर ऐसी कलीसिया के बीच में सामर्थ्य के साथ काम कर रहा है। लेकिन जब ऐसा होता है कि आत्मिक मनोभाव वाले और परमेश्वर का भय मानने वाले लोग कलीसिया को छोड़ कर जाने लगें, तब कलीसिया को बैठकर अपने आपको जाँचना चाहिए। यह ऐसा है जैसे किसी स्कूल के सबसे अच्छे छात्र अपना स्कूल छोड़ कर नज़दीक के दूसरे स्कूल में चले जाएं। तब पहले स्कूल को अपने आपसे यह सवाल करना चाहिए, फ्वे हमें क्यों छोड़ गए?"

अगर हमारे बीच में आग नहीं जल रही होगी, तब बहुत से लोग हमारे बीच में बने रहेंगे। यह सम्भव है कि आज भी हमारी कलीसियाओं में बेईमान और पाखण्डी लोग मौजूद हों। मुझे नहीं मालूम, क्योंकि मैं परमेश्वर नहीं हूँ! लेकिन मुझे एक बात का पूरा यक़ीन है। जब तक परमेश्वर हमारे बीच में एक भस्म करने वाली आग के रूप में मौजूद होगा, तब अगर वे मन नहीं फिराएंगे और सब सही नहीं करेंगे, तो एक-न-एक दिन ऐसे सब पाखण्डियों का पर्दाफाश हो जाएगा। परमेश्वर पक्षपात नहीं करता - वह पाखण्डी प्राचीनों का भी पर्दाफाश करता है, जैसा हम प्रकाशितवाक्य 2 व 3 में देखते हैं।

परमेश्वर धीरज से सहने वाला है, लेकिन एक दिन उसके धीरज का अंत आ जाएगा। जो परमेश्वर की कलीसिया को चुनौती देगा, वह स्वयं परमेश्वर द्वारा नाश किया जाएगा - यह एक निश्चित बात है (1 कुरि. 3:17)। परमेश्वर उन्हें नहीं हटाता जो सिद्ध नहीं हैं, या जो पाप के सामने हार जाते हैं, लेकिन वह बेईमान लोगों को हटा देता है।

इस भस्म करने वाली आग के साथ रहने की पहली योग्यता यह हैः फ्वह जो धार्मिकता (ईमानदारी) से चलता और सीधी बातें बोलता है" (यशा. 33:15)। यह उन लोगों के बारे में बताता है जो अपने निजी जीवन में ईमानदारी से उस ज्योति के अनुसार चलते हैं जो उनमें है। यह ज़रूरी नहीं कि वे सिद्ध होंगे, लेकिन वे ईमानदार है। वे पाखण्डी नहीं हैं।

कलीसिया में ऐसी एक बात जिसके प्रति हमें सबसे ज़्यादा सचेत रहना चाहिए, वह यही है कि हम लोगों के सामने अपनी आत्मिकता की ऐसी छवि प्रस्तुत न करें जो सच्ची न हो। क्या आप दूसरों के सामने ऐसी छवि प्रस्तुत करते हैं कि आप बहुत प्रार्थना करने वाले व्यक्ति हैं, जबकि आप बिलकुल प्रार्थना नहीं करते? क्या आप उनके सामने ऐसा दर्शाते हैं मानो आप बहुत उपवास करते हैं जबकि असल में आप उतना उपवास नहीं करते? क्या आप यह चाहते हैं लोग आपको एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जानें कि आप एक सच्चे हृदय से सब कुछ करने वाले व्यक्ति हैं? तब आप विश्वास से भटक जाने के ख़तरे में हैं - इसलिए नहीं क्योंकि आप सिद्ध नहीं हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि आप ईमानदार नहीं हैं। परमेश्वर हमारे भीतरी स्थानों में ईमानदारी चाहता है। सिय्योन के पाखण्डी थरथराते हैं, क्योंकि वे उनका पर्दाफाश होने से डरते हैं।

भस्म करने वाली आग के साथ रहने की दूसरी योग्यता हैः फ्वह जो अन्याय के लाभ से घृणा करता है" (यशा. 33:15)। दूसरे शब्दों में, बहुत से धर्मी लोग भी धन के मामले में ईमानदार नहीं होते। हम यह सोचते होंगे कि परमेश्वर के स्थान पर वैकल्पिक स्वामी शैतान है। लेकिन स्वयं यीशु ने लूका 16:11 में यह कहा है कि परमेश्वर के स्थान पर हमारा स्वामी बन जाने वाला मामोन (धन और भौतिक भरपूरी) है! कोई सच्चा विश्वासी यह कल्पना नहीं करता कि वह परमेश्वर और धन दोनों से एक साथ प्रेम कर सकता है। लेकिन ऐसे बहुत से विश्वासी हैं जो यह सोचते हैं कि वे परमेश्वर और धन दोनों से एक ही समय में प्रेम कर सकते हैं। कोई विश्वासी गिर कर शैतान की आराधना नहीं करेगा। लेकिन आज करोड़ों विश्वासी हैं जो मामोन की आराधना करते हैं और साथ-साथ परमेश्वर की आराधना करने की कल्पना भी करते हैं। लेकिन अगर वे धन के मामले में विश्वासयोग्य नहीं हैं, तो वे परमेश्वर की आराधना नहीं कर सकते। उन्हें यह समझ नहीं आता कि धन एक व्यक्ति को सच्चे व जीवित परमेश्वर से दूर खींच ले जाता है।

भस्म करने वाली आग के साथ रहने की तीसरी योग्यता है कि हम हत्या की बातें सुनने से अपने कान फेर लें (यशा. 33:15)। यह चुगली करने से दूर रहने से बढ़कर है। इसका अर्थ है कि हम दूसरों को चुगली करते हुए सुनना भी नहीं चाहते। परमेश्वर का भय मानने वाला व्यक्ति न सिर्फ भाइयों पर दोष लगाने वालों कि मुखिया की बात सुनने की तरफ से अपने कान बंद कर लेगा (प्रका. 12:10), बल्कि उसके प्रतिनिधियों की बातों की तरफ से भी अपने कान फेर लेगा!

अगर हम स्वर्गीय नज़रिए से इस पृथ्वी को देख सकें, तो हम प्रतिदिन सुबह से लेकर रात तक पूरे संसार में करोड़ों लोगों को दूसरे लोगों को अपनी जीभ (तलवार) से काट कर टुकड़े करते हुए देख सकेंगे। लेकिन अगर आप परमेश्वर के साथ रहना चाहते हैं, वही जो एक भस्म करने वाली आग है, तो आपको स्वयं को इस बात में अनुशासित करना होगा कि आप ऐसी दोष लगाने वाली बातों को न सुनें। अगर आपको वे ऐसी परिस्थितियों में सुननी पड़ रही हों जिसमें उन्हें सुनने से बचने के लिए उठकर बाहर निकल जाना आपके लिए सम्भव न हो, तो आप उन्हें न सुनने के लिए अपने मन को भीतर से निष्क्रिय कर सकते हैं। आपके आसपास के लोग अगर भ्रष्टता की दशा में रहना चाहते हैं तो रहें, लेकिन आप अपने जीवन में से परमेश्वर की कृपा क्यों खोना चाहते हैं? अगर आप भस्म करने वाली आग के साथ रहने के लिए तैयार हैं, तो दोष लगाने वाली सारी बातों को सुनना बंद कर दें। परमेश्वर ने हमें यह योग्यता दी है कि हम अपने मन को भीतरी तौर पर निष्क्रिय कर लें। तो आप ऐसा करें। अपने कानों को ख़ून बहाने से रोक लें।

भस्म करने वाली आग के साथ रहने की एक चौथी योग्यता, जिसका यहाँ बयान किया गया है, वह है बुराई को देखने की तरफ से अपनी आँखों को फेर लेना। शरीर की ये दोनों अनुभूतियाँ - सुनना और देखना - वह मुख्य रास्ते हैं जिनसे भला और बुरा हमारे मनों में प्रवेश करता है। यह फैसला हमें करना है कि हमें किसे प्रवेश करने की अनुमति देनी है। जो भस्म करने वाली आग के साथ रहता है, उन बातों पर दृष्टि नहीं डालता जो उसे भ्रष्ट करने वाली बातें हैं।

जब आप परमेश्वर को यह अनुमति देंगे कि वह आपके जीवन में से उन सब बातों को भस्म कर दे जो सांसारिक हैं और जो भस्म की जा सकती हैं, सिर्फ तभी ऐसा होगा कि आप उसके साथ रह सकेंगे जो एक भस्म करने वाली आग है। फिर आपके अन्दर जो बाक़ी रह जाएगा, वह वही होगा जो भस्म नहीं हो सकता! परमेश्वर स्वर्ग को ऐसे ही लोगों द्वारा आबाद करेगा - वे जिनमें भस्म करने के लिए कुछ बाक़ी ही नहीं बचा है।

परमेश्वर हमें स्वर्ग के लिए तैयार कर रहा है। जब हम यह गीत गाते हैं, फ्स्वर्ग नीचे उतर आया, महिमा ने मेरी आत्मा को भर दिया," तो हम क्या बात कर रहे हैं? हम उस भस्म करने वाली आग के हमारी आत्मा में उतर आने के बारे में बात कर रहे हैं, जो ऐसी हरेक बात को भस्म कर देती है जो भस्म हो सकती है। क्या हम अपनी इच्छा में होकर प्रभु से यह कह सकते हैं, "प्रभु, मैं अपने जीवन में सिर्फ उन्हीं बातों को रहने देना चाहता हूँ जिन्हें भस्म नहीं किया जा सकता, कि फिर तू और मैं एक-दूसरे के साथ संगति में हमेशा के लिए रह सकें।"

1 कुरि. 3:11-15 हमें बताता है कि अंतिम दिन प्रभु सब कुछ अपनी आग से परखेगा। जो कुछ भी भस्म होने लायक़ होगा - लकड़ी, भूसा, घास-फूंस भस्म हो जाएंगे। सिर्फ वही चीज़ें जो भस्म नहीं हो सकतीं - सोना, चाँदी, बहुमूल्य पत्थर - बचे रहेंगे।

अब क्योंकि यह इस तरह होने वाला है, तो यह कितना अद्भुत विशेषाधिकार है कि हम अभी पवित्र-आत्मा की आग पा सकते हैं, कि उस दिन से पहले ही हममें वह सब कुछ भस्म हो जाए जो भस्म हो सकता है।

यीशु हमें पवित्र-आत्मा की आग से बपतिस्मा देने आया है (यूहन्ना 1:29), कि पवित्र-आत्मा अपनी भस्म करने वाली आग के साथ आए और हमारे जीवनों के हरेक क्षेत्र में से वह सब कुछ भस्म कर दे जो सांसारिक है - सारा भूसा, लकड़ी और घास-फूस।

परमेश्वर का वचन एक आग है जो हमारे जीवनों में से बहुत सी बातों को भस्म और ख़त्म कर सकता है (यिर्म. 23:29)। लेकिन ऐसी बहुत सी बातें हैं जिनके बारे में परमेश्वर का वचन बात नहीं करता और फिर जिन्हें हमारे जीवन में से भस्म होने की ज़रूरत है। ये वे बातें हैं जो पवित्र-आत्मा हमें दिखाएगा, और हमसे उन्हें भस्म करने की अनुमति माँगेगा। परमेश्वर का वचन हमें ऐसी बहुत सी बातों के बारे में कुछ नहीं बताता जिनका सामना हम आज के आधुनिक जगत में करते हैं, क्योंकि पहली शताब्दी में उनका अस्तित्व नहीं था। लेकिन पवित्र-आत्मा हमें बताता है कि हमें मसीह के साथ मिलकर उन बातों को करना है या नहीं।

इसलिए हमें प्रतिदिन पवित्र-आत्माा द्वारा बताई जाने वाली हरेक बात के प्रति संवेदनशील रहने के लिए सचेत रहना है। सिर्फ ऐसा व्यक्ति जो भस्म करने वाले परमेश्वर के साथ रह सकता है, वह व्यक्ति है जो पवित्र-आत्मा की सुनता है और परमेश्वर के भय में काम करता है।

जब ऐसा व्यक्ति दूसरों को लड़खड़ाते और गिरते देखता है, तो वह अपने लिए डरता है। वह उन दूसरे लोगों पर दोष नहीं लगाता बल्कि यह कहता है, "प्रभु, मैं भी उन्हीं की तरह शरीर में हूँ। मेरे साथ भी यही हो सकता है। मैं तेरे भय में रहना चाहता हूँ। ईमानदार बने रहने में मेरी मदद कर। जो ज्योति तूने मुझे दी है, उसके अनुसार मैं धन के मामले में विश्वासयोग्य रहना चाहता हूँ। मैं दूसरों पर लगाए जाने वाले "आरोप" के बारे में सुनना नहीं चाहता। प्रभु, मुझे सब तरह की फ्हत्या/ख़ून-ख़राबे" से बचाए रख। मैं किसी बुराई को भी देखना नहीं चाहता। प्रभु, मैं ऐसी कल्पना नहीं करना चाहता कि अब मैं चाहे जैसे भी रहूँ लेकिन मैं पूरी तरह सुरक्षित हूँ क्योंकि मैंने तुझे ग्रहण कर लिया है। मैं भय में रहना चाहता हूँ।" परमेश्वर का भय मानने वाला एक व्यक्ति जो भस्म करने वाली आग के साथ रहना चाहता है, इस प्रकार प्रार्थना करता है।

2 थिस्स- 2:11 में यह लिखा है कि परमेश्वर उन पर एक भरमाने वाली सामर्थ्य को भेजेगा जो (अपने विषय के) सत्य से प्रेम नहीं करते, कि फिर उनका उद्धार न हो सके। यह पद हमें यह बताता है कि परमेश्वर दुष्टात्माओं को भी यह अनुमति देगा कि जो सत्य से प्रेम नहीं करते, वे भरमाए जाएं और झूठ पर विश्वास करें - (एन.ए.एस.बी. कोष्ठक)।

यह कौन सा "झूठ" है? झूठ तो बहुत तरह के होते हैं, लेकिन पवित्र-शास्त्र में एक झूठ ऐसा है जिसे फ्झूठ" कहा गया है। यह "झूठ" वह पहला झूठ है जो मनुष्य ने सबसे पहले सुना था! यह शैतान का वह झूठ है जो उसने सबसे पहले हव्वा से यह कहते हुए बोला था, फ्तुम कभी नहीं मरोगे" (उत्पत्ति 3:4)। हव्वा ने उस झूठ पर विश्वास कर लिया था कि क्योंकि वह परमेश्वर के स्वरूप मे रची गई थी, इसलिए वह परमेश्वर की आज्ञा न मानने व पाप करने पर भी आत्मिक तौर पर कभी नहीं मरोगी। और शैतान आज भी लोगों को यही बता रहा है कि क्योंकि उन्होंने प्रभु को ग्रहण कर लिया है, या क्योंकि उन्होंने पानी का बपतिस्मा ले लिया है या वे अन्य-भाषा में बोलते हैं, या क्योंकि वे नियमित सभाओं में हािज़र रहते हैं, आदि, आदि, इसलिए वे कभी नहीं करेंगे।

जो लोग अपने विषय के सत्य से प्रेम नहीं करेंगे, परमेश्वर ऐसा होने देगा कि वे इस "झूठ" पर विश्वास करें। और आज ऐसे लाखों-करोड़ों तथा-कथित फ्विश्वासी" हैं जो इस झूठ पर विश्वास कर रहे हैं। वे यह विश्वास करते हैं कि पाप में जीवन बिताने के बाद भी वे कभी आत्मिक रीति से नहीं मरेंगे। इसलिए, वे पाप के प्रति लापरवाह हैं। वे परमेश्वर का भय नहीं मानते। वे पाप से घृणा नहीं करते। वे अपने जीवन का वह सब कुछ उस भस्म करने वाली आग में नहीं डालते जिसे भस्म होने की ज़रूरत है। वे सच्चे व ईमानदार नहीं बल्कि पाखण्डी हैं। वे पाप के साथ मूर्खतापूर्ण व्यवहार करते हैं। वे दूसरों पर दोष लगाते हैं और दोष लगाने वाली बातें सुनते हैं। वे अपनी आँखों से बुराई देखते हैं, और फिर भी यह कल्पना करते हैं कि वे फ्भस्म करने वाली आग" के साथ स्वर्ग में हमेशा रह सकेंगे। ऐसा कैसे हुआ कि वे ऐसे झूठ पर विश्वास करने लगे? यह शैतान की उस बड़ी-योजना के द्वारा हुआ है जिसने उन्हें ऐसा विश्वास करने वाला बना दिया है कि अगर उनके धर्म-सिद्धान्त सही हैं, तो इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वे अपने जीवन कैसे व्यतीत करते हैं?

परमेश्वर अपने वचन में कहता है, फ्मैं उन्हें मन-फिराव का समय देता हूँ।" परमेश्वर कितना अच्छा है! वह तुरन्त न्याय नहीं करता। वह हमें मन फिराने का मौक़ा देता है। लेकिन अगर हम अपने विषय के सत्य से प्रेम नहीं करते कि हम पाप से बचाए जाएं, तो स्वयं परमेश्वर भी हमारी मदद नहीं कर सकता। इसलिए, भाइयों व बहनों, मैं आपसे विनती करता हूँ कि आप अपने विषय के सत्य से प्रेम करें और आपके जीवन में ऐसी हरेक बात से बचाए जाने की खोज में रहें जो मसीह-समान नहीं है।

आज ऐसे बहुत से समूह हैं, धर्म-मत और झूठे पंथ हैं जो सभी यह दावा कर रहे हैं कि सत्य सिर्फ उनके पास है। हम कैसे जान सकते हैं कि सत्य क्या है? हम अपने आपको धोखा खाने से कैसे बचा सकते हैं?

इसका जवाब यह हैः अगर आप हर समय अपने विषय के सत्य से प्रेम करेंगे, और उत्सुकतापूर्वक सारे पाप से बचने की अभिलाषा करेंगे, तो परमेश्वर आपके जीवन के अंत तक आपको भरमाने की कभी अनुमति नहीं देगा। वर्ना, आप दूसरों को प्रचार करते हुए न सिर्फ स्वयं नर्क में जाएंगे बल्कि दूसरों को भी ले जाएंगे।

अगर हम सत्य से इस तरह प्रेम करेंगे कि हम अपने आपको बचाए रख सकें, तो हम किसी भी प्रचारक, तथा-कथित गुरू, झूठे शिक्षक, कट्टरपंथी धार्मिक अगुवे, या विधिवादी द्वारा कभी भ्रमित नहीं किए जा सकेंगे। हमें कोई भी धोखा नहीं दे सकेेगा और विश्वास से भटका नहीं सकेगा।

जब परमेश्वर हमसे बात करता है - प्रत्यक्ष रूप में अपने वचन से या पवित्र-आत्मा द्वारा, या किसी भाई के माध्यम से, या किसी शत्रु के भी द्वारा - और हम अपने विषय का सत्य सुनते हैं, तब हम क्या करते हैं? तब क्या हम अपने आपको सही ठहराते हैं या अपने आपको दोषी पाते हुए न्याय करते हैं?

मैंने अपने जीवन में मुझ पर दोष लगाने वाले बहुत से पत्र प्राप्त किए हैं। (प्रभु के सब सेवकों का यह पहले से ठहराया हुआ भाग है)। मैं अकसर उनमें से ज़्यादातर कूड़े के डिब्बे में फेंक देता हूँ। लेकिन उन्हें फेंकने से पहले मैं प्रभु से यह पूछता हूँ, "प्रभु, मेरा दुश्मन जो कुछ कह रहा है, क्या उसमे कुछ सच्चाई है? शायद कुछ सच्चाई हो सकती है। तू कृपा कर और उसे मुझे दिखा।" हमारे शत्रु अकसर हमारे मित्रें से भी ज़्यादा हमारे विषय का सत्य हमें बताते हैं।

लेकिन मैं कभी पत्र को यह अनुमति नहीं देता कि वह मुझे दोषी ठहराए, क्याेंंकि मैं जानता हूँ कि मैं दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि मैं मसीह में हूँ। लेकिन ऐसे समयों में मैं प्रभु को मुझसे बात करने देता हूँ। यह हमारे शरीर की मुफ्रत जाँच कराने जैसा है। अगर आज हम अपने शरीर का मैग्नैटिक रैज़ोनैन्स स्क्ैन कराने जाएंगे, तो उसमें हमारे हज़ारों रुपए ख़र्च हो सकते हैं। तो क्या यह अच्छा नहीं कि कोई हमारे हृदय की मुफ्रत जाँच कर रहा है! और यह हमारा शत्रु ही है जो ऐसा स्कैन प्रस्तावित करता है, इसलिए हम प्रभु की स्तुति करें और अपना ऐसा स्कैन होने दें। अगर हमारे हृदय में कोई बीमारी नहीं है, तो हमारे शत्रु द्वारा लिखे गए पत्र के स्कैन करने द्वारा भी हमारी कोई हानि नहीं होगी।

याद रखें कि वह एक अधर्मी, मूर्तिपूजक अबीमेलेक था जिसने एक बार इब्राहीम को उसके झूठ के लिए डाँटा था (उत्पत्ति 20:9)। इब्राहीम परमेश्वर द्वारा चुना हुआ नबी था। लेकिन उसके पाप के लिए एक अधर्मी व्यक्ति द्वारा उसे ताड़ना सहनी पड़ी! आज, इब्राहीम स्वर्ग में है और अबीमेलेक नर्क में हो सकता है। लेकिन उस दिन अबीमेलेक ने इब्राहीम की मदद की कि वह अपने पाप को देख सके।

इसलिए अपने आपको दीन करें। यह हो सकता है कि कोई मूर्तिपूजक व्यक्ति आपके जीवन में किसी ऐसी बात को देखने में आपकी मदद करे जिससे आप अपने जीवन में से किसी बुरी आदत को दूर कर सकें।

अंतिम विश्लेषण में हम यही पाते हैं कि परमेश्वर के सम्मुख सिर्फ दो प्रकार के लोग हैं - वे नहीं जो सही करते या ग़लत करते हैं, बल्कि वे जो दीन हैं और वे जो गर्व से भरे हैं, या दूसरे शब्दों में कहें तो वे जिन्होंने यीशु की दीनता में उसका अनुसरण किया है, और वे जिन्होंने शैतान के गर्व में उसका अनुसरण किया है।

परमेश्वर लगातार यह चाहता है कि सबसे पहले वह हमारे हृदय में भरे गर्व को अपनी भस्म करने वाली आग से ख़त्म करता रहे। यह गर्व से भरे अहंकारी लोग ही हैं जिन्हें परमेश्वर सिय्योन में से हटाना चाहता है। प्रभु कहता है, फ्मैं तेरे बीच में से घमण्ड से फूले हुओं को निकाल दूँगा, और तुम मेरे पवित्र पर्वत पर फिर कभी अहंकारी नहीं होगे" (सपन्याह 3:11)। और फिर कलीसिया में सिर्फ फ्नम्र व दीन" लोग ही बचेंगे (सपन्याह 3:12)। यह वह कलीसिया है जो शैतान पर प्रबल होगी।

अंतिम दिन में हम पाएंगे कि जिन लोगों ने सही किया था, वे परमेश्वर द्वारा अस्वीकार किए गए क्योंकि वे गर्व से भरे थे। और, अद्भुत रीति से, हम यह भी पाएंगे कि कुछ ऐसे लोग जिन्होंने अपने जीवन में गंभीर पाप किए थे, परमेश्वर द्वारा स्वीकार किए गए क्योंकि वे नम्र व दीन और ईमानदार थे।

यह विचार करें कि कैसे परमेश्वर ने ऐसे व्यक्तियों को अस्वीकार किया जिन्होेंने हमारी सोच के अनुसार एक फ्मामूली पाप" किया था, और कैसे उसने उनके जीवनों में फ्गंभीर पाप" करने वालों को भी स्वीकार किया क्योंकि वे नम्र व दीन और ईमानदार थे।

पहले हम राजा शाऊल के मामले की छानबीन करते हैं। हमारी सोच के अनुसार उसने एक फ्मामूली पाप" किया थाः उसने अमालेकियों की सारी भेड़ें मार डालने की बजाए, जैसा कि परमेश्वर ने उसे आज्ञा दी थी, उसने कुछ अच्छी भेड़ें परमेश्वर के लिए बलिदान चढ़ाने को रख ली थीं। क्या आप ऐसे पाप के लिए शाऊल को दोषी ठहराते? शायद नहीं। लेकिन परमेश्वर ने उसे दण्डित किया - और बहुत कठोर दण्ड दिया! उसने उसका राज्य उससे ले लिया।

दूसरी ओर, यह सोचें कि राजा दाऊद ने क्या किया था। उसने एक व्यक्ति की पत्नी के साथ व्यभिचार किया जबकि वह व्यक्ति नगर से बाहर था (दाऊद की ही सेना में युद्ध करने गया था)। और फिर, अपने पाप को छुपाने के लिए दाऊद ने उस व्यक्ति को युद्ध के मैदान में मरवा दिया और उस स्त्री से विवाह कर लिया। आप दाऊद जैसे व्यक्ति के साथ क्या करते? आप शायद दाऊद को फौरन नर्क में डाल देते। लेकिन परमेश्वर ने ऐसा नहीं किया। उसके मार्ग और हमारे मार्ग एक-जैसे नहीं हैं। परमेश्वर के मार्ग हमारे मानवीय तर्क के अनुसार नहीं समझे जा सकते। हम लोगोें का वर्गीकरण इस तरह करते हैं कि उन्होंने सही किया है या ग़लत किया है। लेकिन परमेश्वर उनका वर्गीकरण घमण्डी (बेईमान) हैं या नम्र व दीन (ईमानदार) होने के रूप में करता है। इसलिए परमेश्वर ने दाऊद को उसके पाप के लिए दण्ड देने के बाद स्वीकार कर लिया।

परमेश्वर दाऊद के बारे में यहाँ तक कहता है कि यह मनुष्य मेरे मन के अनुसार है, जिसने अपनी पीढ़ी में परमेश्वर की इच्छा को पूरा किया था (प्रेरितों. 13:22, 36)। दाऊद का अंत शाऊल की तरह सिर्फ इस वजह से नहीं हुआ क्योंकि वह नम्र व दीन था।

पाप में गिरने वाले मसीही लोगों और मसीही अगुवों को ध्यान से देखने के बाद, मैंने एक बात का फ़र्क देखा है। परमेश्वर कुछ लोगों का पर्दाफाश होने देता है और कुछ का नहीं। ऐसे कुछ लोग जिनके अपराध (मनुष्यों की नज़र में) बहुत मामूली होते हैं, सामने आ जाते हैं और वे सब के सामने नंगे और लज्ज्ति होते हैं। जबकि दूसरे (जिन्होंने मेरी गुप्त जानकारी में उससे कहीं ज़्यादा बड़े अपराध किए हैं), कभी उघाड़े नहीं होते! और परमेश्वर उनकी नाकामियों को न सिर्फ ढाँपे रहता है बल्कि उन्हें आशिष भी देता है, और सामर्थ्य के साथ इस्तेमाल भी करता है!

हमें यह अन्यायपूर्ण लग सकता है। लेकिन यह अन्यायपूर्ण नहीं है। परमेश्वर ऐेसे काम क्यों करता है? क्योंकि वह धार्मिक लोगों की तरह फरीसीनुमा नहीं है! वह लोगों को फ्दीन" व फ्घमण्डी" रूपी दो श्रेणियों में बाँटता है, ऐसे नहीं कि एक फ्जिन्होंने सही किया", और दूसरे फ्जिन्होंने गलत किया।"

इससे ही हममें से हरेक को बड़ी आशा होती है। अगर परमेश्वर ने मनुष्यों को इस तरह श्रेणीबद्ध किया होता जैसे मनुष्य करते हैं, तो हमें लगातार एक भय की दशा में रहना पड़ता कि कहीं हम ग़लत श्रेणी में शामिल न हो जाएं- क्याेंकि हममें से हरेक ग़लतियाँ करते हैं और सभी लोग बुरे काम करते हैं- अगर जान कर नहीं तो अनजाने में करते हैं।

अगर हम एक ग़लत काम भी करते हैं, तो मनुष्य हमारे साथ बहुत कठोरता से व्यवहार करते हैं। लेकिन परमेश्वर का धन्यवाद हो कि हमें निर्दयी मनुष्यों के साथ व्यवहार नहीं करना है। हमें सिर्फ अपने परमेश्वर, अपने दयालु सृष्टिकर्ता के साथ ही व्यवहार करना है (इब्रानियों 4:13)।

अगर हम हमेशा ही परमेश्वर के सामने एक टूटी हुई और दीनहीन दशा में रहेंगे, अपने आपको दूसरों से बेहतर नहीं जानेंगे, बल्कि अपने आपको सबसे बड़ा पापी मानते रहेंगे; अगर हम कभी दूसरों पर प्रभुता करने की नहीं सोचेंगे और पृथ्वी पर कुछ दबोचने की कोशिश नहीं करेंगे (कोई सेवकाई भी नहीं); अगर हम फ्दूसरा मील" चलने के लिए तैयार होंगे; अगर हम उनको क्षमा करने के लिए तैयार होंगे जिन्होंने हमारा सबसे ज़्यादा बुरा किया है, तो मनुष्य हमारे बारे में कुछ भी सोचते रहें और करते रहें, लेकिन परमेश्वर हमारी निष्फलताओं को ढांप देगा और हमें आशिष देता रहेगा।

1 पतरस 2:18-19 सेवकों से यह कहता है कि वे अपने निर्दयी स्वामियों के भी अधीन रहें। हम जब तक इस संसार में रहते हैं, हमारा ऐसे लोगों से सामना होता रहेगा जो ग़लत होंगे। अगर हम सिर्फ सही लोगों के साथ ही रह सकते हैं, तो हम यीशु के शिष्य होने के योग्य नहीं हैं। ग़लत लोगों के बीच में रहने द्वारा ही परमेश्वर हमारे गर्व को ख़त्म कर सकता है। और जब हम ग़लत लोगों के साथ व्यवहार करते हैं, और हमें उनके हाथों से पीड़ा सहनी पड़ती है, और हम अपने आपको दीन करते और धीरज से सारी पीड़ा सहते हैं, तो परमेश्वर हमसे प्रसन्न होगा, क्योंकि यीशु ने भी इसी तरह पीड़ा सही थी।

अगर आपने कोई ग़लत काम किया है आपको धीरज से उसके परिणाम सहने पड़ते हैं, तो इसमें आपको कोई श्रेय नहीं मिलेगा। इसमें आपको शून्य मिलेगा! ऐसी दशा में परमेश्वर आपको कोई अंक कैसे दे सकता है? लेकिन अगर आप वह करते हैं जो सही है और उसके लिए आपको पीड़ा सहनी पड़ती है - आपके काम की जगह में, कलीसिया में, या कहीं भी - और जब आप उसे धीरज से सहते हैं, तो परमेश्वर आपसे अत्यंत प्रसन्न होता है (1 पतरस 2:20)। "अत्यंत प्रसन्न" बहुत अद्भुत शब्द है। यह वही शब्द है जो परमेश्वर ने यीशु के बारे में बोलते हुए कहा, फ्यह मेरा प्रिय पुत्र है जिससे मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ।"

परमेश्वर की नज़र में नम्रता की बहुत क़ीमत है। 1 पतरस 3:4 में लिखा है कि एक नम्र व शान्त आत्मा - चाहे वह एक स्त्री में हो या पुरुष में - परमेश्वर की नज़र में बहुत मूल्यवान है। स्वयं यीशु नम्र व मन में दीन था और उसने यह कहा कि हम इन गुणों को उससे सीखें (मत्ती 11:28)।

एक नम्र व शान्त आत्मा वह होती है जो व्याकुल या अशांत नहीं रहती। कुछ वॉशिन्ग मशीनों में एक "ऐजीटेटर (इधर-उधर घूमने वाला यंत्र)" होता है। वह कभी शान्त नहीं रहता, हमेशा "इधर से उधर" और "उधर से इधर" घूमता रहता है! वे सब जो आदम से जन्में हैं, उनके हृदय में भी एक "ऐजीटेटर" होता है। अगर कोई उन्हें ग़लत तरह से छू लेता है, तो वे भी व्याकुल हो जाते हैं। लेकिन जिनमें एक नम्र व शान्त आत्मा होती है, वे इस "ऐजीटेटर" से मुक्त हो गए हैं। जब कोई उन्हें कुछ कहता और करता है, या जब वह नहीं कहते और करते जो उनसे अपेक्षित होता है, तो वे अपमानित और दुःखी नहीं होते। उन्होंने अपने "ऐजीटेटर" को सूली पर चढ़ा दिया है।

पतरस ने कहा कि एक नम्र व शान्त आत्मा का सौन्दर्य "अविनाशी" होता है! यह अनन्त सौन्दर्य का रहस्य है। आज यह संसार ऐसी स्त्रियों से भरा पड़ा है जो जवान नज़र आना चाहती हैं। लेकिन ऐसा सौन्दर्य कौन सा है जो वास्तव में अविनाशी है? वही जो एक नम्र व शान्त आत्मा है।

और यह पुरुषों के लिए भी है। यही बात आपको परमेश्वर के लिए मूल्यवान बनाएगी - अगर आपकी एक ऐसी नम्र व शान्त आत्मा है जो व्याकुल नहीं होती और जिसे बुरा नहीं लगता, जो चिढ़ती नहीं है, और जो कुढ़ने और गुस्सा करने वाली नहीं है। आपको भी कभी अपना नियंत्रण खोने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए, क्योंकि संयम आत्मा का फल है।

यह संसार चाहे ऐसे लोगों से भरा रहे जिनमें "ऐजीटेटर" लगे हैं, लेकिन वे अब हमारे लिए नहीं हैं। प्रभु की स्तुति हो, हम अपने ऐजीटेटर से हमेशा के लिए मुक्त हो सकते हैं।

जब प्रभु ने अपने शिष्यों से कहा कि यह अवश्य है कि उनकी धार्मिकता फरीसियो व सदूकियों से बढ़कर हो, तो उसका कहने का क्या अर्थ था? उसका कहने का अर्थ यही था जिसकी मैं अभी बात कर रहा था। फरीसियों की धार्मिकता का अर्थ फ्सही" और फ्ग़लत" का ही मामला था। यीशु अपने शिष्यों की धार्मिकता उससे बढ़कर चाहता था। उसमें नम्रता, टूटापन, सौम्यता, और मन की शांति शामिल होनी थी। उसने कहा कि ऐसा न होने पर वे कभी स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करने पाएंगे। मुझे नहीं मालूम कि हममें से कितने वास्तव में यीशु की कही बात पर विश्वास करते हैं।

इब्रानियों 4:1 में, हमसे सतर्क रहने के लिए कहा गया है कि कहीं ऐसा न हो कि हम उस फ्विश्राम" में प्रवेश न कर पाएं जो हमारे लिए यीशु ने प्रस्तावित किया है - फ्व्याकुल" होने से मुक्त होना। फिर पद 11 में हमसे कहा गया है कि इसलिए हमें उस विश्राम में प्रवेश करने के लिए प्रयत्नशील रहना है। क्या आप स्वयं उस विश्राम में प्रवेश कर चुके हैं?

क्या आपने उन सबको, जिन्होंने आपके साथ धोखा किया है और आपके साथ ग़लत किया है? क्या आपने अपने हृदय को सारी कड़वाहट, घृणा, चिंता और स्वार्थ से शुद्ध कर लिया है? यही हमें इस योग्य बनाएगा कि हम परमेश्वर के उस विश्राम में प्रवेश कर सकें।

अगर आप यीशु के शिष्य हैं, तो इस पृथ्वी पर ऐसी कोई परिस्थिति और ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो रोमियों 8:28 को आपके जीवन में पूरा होने से रोक सकते हों (फ्जो लोग परमेश्वर से प्रेम रखते हैं, उनके लिए सब बातें मिलकर भलाई उत्पन्न करती हैं...") और 1 कुरिन्थियों 10:13 कहता है ("परमेश्वर हमें किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़ने देगा जो हमारे सहने से बाहर हो...")। हमारी सहनशक्ति से ज़्यादा हमें नहीं परखा जाएगा। यह असम्भव है, क्योंकि परमेश्वर अपनी प्रतिज्ञाओं का सच्चा है। और सब कुछ - हाँ, सब कुछ- मिलकर हमारे लिए भलाई ही उत्पन्न करेगा।

एक नम्र व दीन व्यक्ति कभी नहीं गिर सकता क्योंकि वह पहले ही ज़मीनी स्तर पर है! फिर वह कैसे गिर सकता है! जब परमेश्वर का वचन यह कहता है कि फ्वह ठोकर खाने से हमारी रक्षा कर सकता है" (यहूदा 24), तो प्रभु उस वचन को इस तरह पूरा करता है - उसके सम्मुख हमारे मुख धूल में रखने द्वारा। फिर गिरना असम्भव हो जाता है।

बच निकलने के जिस मार्ग की प्रतिज्ञा 1 कुरिन्थियों 10:13 में की गई है, वह हमें नम्र व दीन करने का मार्ग है। हम अपने आपको नम्र व दीन करते हैं, क्योंकि हम यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर हम पर कृपा करेगा और हमें ऊँचा उठाएगा। जैसा कि पानी के बपतिस्मे में होता है, हम उस व्यक्ति के हाथों में अपने आपको सहर्ष सौंप देते हैं जो हमें पानी में डुबाता है, क्योंकि हमें विश्वास होता है कि वह फिर से उठा कर खड़ा करेगा। इसी तरह, हम यह विश्वास भी करते हैं कि जब परमेश्वर कुछ परिस्थितियों को हमें दबाने की अनुमति देता है, तो वह हमें ऊँचा भी उठाएगा ओैर हमारे जीवन में पुनरुत्थान आएगा।

परमेश्वर ऐसी भस्म करने वाली आग है कि अगर हम उसे ऐसा करने देंगे, तो वह हमारे हृदयों के हरेक कोने में से घमण्ड और पाखण्ड के आि़खरी अंश को भी भस्म कर देगा। वह लोगों और परिस्थितियों को इस तरह आयोजित करेगा कि घमण्ड का हरेक अंश मिट जाएगा। आइए, हम उसके साथ सहयोग करें और हमारे भीतर पवित्र-आत्मा को एक सिद्ध काम करने दें।

जिसके सुनने के कान हों, वह सुने।

अध्याय 14
कलीसिया का मूल्यांकन करना

"मसीह ने कलीसिया से प्रेम किया और अपने आपको उसके लिए दे दिया" (इफि. 5:25)।

हम अपने जीवन किसी को और हरेक को नहीं दे सकते। लेकिन कुछ ख़ास लोगों के लिए हम अपनी जान भी दे सकते हैं।

उदाहरण के तौर पर, अगर आपका बच्चा मर रहा है, और उसे आपके गुर्दे की ज़रूरत है, तो हालांकि इसमें आपकी जान को ख़तरा हो सकता है लेकिन फिर भी आप उसे अपना गुर्दा ज़रूर दे देंगे। लेकिन आप किसी अजनबी के लिए ऐसा नहीं करेंगे - अपने पड़ौसी के लिए भी नहीं। हम जिसके लिए जो कुछ भी करते हैं, यह इस पर निर्भर होता है कि हम उसका क्या मूल्यांकन करते हैं।

ऊपर दिए गए पद में, हम पढ़ते हैं कि मसीह ने कलीसिया से प्रेम किया - वह आप और मैं हैं - और उसने हमारे लिए अपनी जान दे दी। उसने यह महसूस किया कि हम उसके लिए इतने मूल्यवान हैं कि उसने हमारे लिए सिर्फ अपने गुर्दे ही नहीं, बल्कि हमारे लिए अपना पूरा जीवन ही दे दिया।

हम सब यह कहते हैं कि हम यीशु के पीछे चलना चाहते हैं। लेकिन हम उसके पीछे कैसे चलेंगे? क्या हम उसके साथ सिर्फ स्वर्ग जाने और उसके साथ वहाँ अनन्त युगों तक रहने के बारे में सोचते हैं? या सबसे पहले हम इसी पृथ्वी पर इस एक क्षेत्र में उसके पीछे चलेंगे - उसकी कलीसिया में सबसे इतना प्रेम करेंगे कि उनके लिए अपनी जान भी देने के लिए तैयार रहेंगे?

उन भाइयों व बहनों से प्रेम करना आसान होता है जो दूर होते हैं - दक्षिण अमरीका में, और रूस में - क्योंकि हम उनसे कभी नहीं मिलते और उनमें से कोई कभी हमारे धीरज की परीक्षा लेने नहीं आता! लेकिन हम उनके लिए अपने जीवन नहीं दे सकते क्योंकि हम उन्हें देख नहीं पाते।

यीशु ने स्वर्ग में बैठकर हमें यह संदेश नहीं भेजा कि वह हम सबसे बहुत प्रेम करता है। वह पृथ्वी पर उतरा और उसने हम पर अपना प्रेम प्रकट किया, हमारे लिए अपनी जान देने द्वारा। हम भी कलीसिया के लिए अपना प्रेम प्रदर्शित कर सकते हैं, शब्दों के द्वारा नहीं बल्कि उनके लिए अपने जीवन न्यौछावर करने द्वारा जिनके साथ उसने हमें रखा है।

क्या हम अपने उन भाइयों व बहनों के लिए, जिनके बीच में परमेश्वर ने हमें स्थानीय कलीसिया में रखा है, अपना आदर, सम्मान, अधिकार और अपेक्षाएं - अपना सब कुछ छोड़ने के लिए तैयार हैं? प्रभु यीशु हमारे साथ सिर्फ तभी संगति और आत्मा की एकता में आ सकता है, जब हम ऐसा करने के लिए तैयार होंगे।

मैंने एक युवक के बारे में पढ़ा जिसने अपना मन तो फिराया लेकिन प्रभु के प्रति अपने सम्पूर्ण हृदय से समर्पित नहीं हुआ। एक दिन उसने एक स्वप्न देखा जिसमें उसने अपने आपको मरते और स्वर्ग में प्रवेश करते देखा। तब उसने अपने जीवन के लेखे के ऊपर यह शब्द लिखे हुए देखे - क्षमा किया हुआ। उसने आनन्द मनाया कि उसे क्षमा किया गया था और वह स्वर्ग में पहुँच गया था।

लेकिन स्वर्ग में उसने ऐसे लोग देखे जो एक ख़ास तरह के तेज से जगमगा रहे थे। ये वे साक्षी थे जिन्होंने पृथ्वी पर अपने जीवन प्रभु के लिए अर्पित किए थे। उन्होंने प्रभु और उसकी कलीसिया के लिए अपना सब कुछ अर्पित कर दिया था। उन्होंने अपना धन, पद, सम्मान, और वह सब कुछ कुर्बान कर दिया था जिसे संसार मूल्यवान जानता है।

ये व्यक्ति स्वर्ग में उनकी महिमा देख कर द्वेष से भर गया। तब उसके स्वप्न में यीशु ने उसके पास आकर कहा कि उसने जिन लोगों को देखा था, उन महिमामय लोगों के साथ उसका कोई तालमेल न हो सकेगा क्योंकि उसने पृथ्वी पर सिर्फ अपने स्वार्थ में अपना जीवन बिताया था जबकि उन्होंने ऐसा नहीं किया था। जब उसने यह सुना तो उसका दिल टूट गया क्योंकि उसे यह समझ आया कि अब पूरे अनन्त में उसे अपने स्वार्थी जीवन की स्मृति के साथ जीना पड़ेगा। उसने प्रभु से विनती की कि उसे एक मौक़ा और दे दिया जाए। लेकिन प्रभु ने उससे कहा कि मृत्यु के बाद फिर दूसरा मौक़ा नहीं है।

फिर वह जाग उठा, और उसने जीवित होने के लिए धन्यवाद दिया और इस बात के लिए भी कि जो कुछ उसने देखा था वह एक स्वप्न ही था। उसके बाद उसने यह फैसला कर लिया कि वह अपना बाक़ी का जीवन परमेश्वर के लिए बिताएगा और बाद में वह परमेश्वर का एक बड़ा दास हुआ। मरने के बाद हम यीशु के पूरे हृदय से समर्पित शिष्य नहीं बन सकते क्योंकि परमेश्वर किसी की इच्छा के विरुद्ध उसे नहीं बदलता। वह हमें सिर्फ तभी बदलेगा जब हम उसके पवित्र-आत्मा के काम को अभी हमारे हृदय में काम करने की अनुमति देंगे। पवित्र-आत्मा इसलिए आया है कि वह हमें ईश्वरीय स्वभाव में ज़्यादा, और ज़्यादा सहभागी होने वाला बनाए।

हमें यह याद रखना चाहिए कि जिन बातों को पृथ्वी पर बहुत मूल्यवान जाना जाता है, उनका स्वर्ग में कोई मूल्य नहीं है। ऐसा कुछ खो जाने पर जिसे पृथ्वी पर मूल्यवान समझा जाता है, आपको अनन्त में कोई फर्क़ नहीं पड़ेगा। इसी प्रकार, अगर हम ऐसा कुछ पा लेते हैं जिसे इस पृथ्वी पर बहुत मूल्यवान माना जाता है, तो उससे हमें स्वर्ग में कोई लाभ नहीं होगा।

मैं आप युवाओं से ख़ास तौर पर यह कहना चाहता हूँ कि आपके मित्रें के बीच आपकी लोकप्रियता का स्वर्ग में कोई मूल्य नहीं है।

आपको अपनी परीक्षाओं के लिए बहुत अच्छी तरह पढ़ना चाहिए। लेकिन आपके अच्छे अंक आपकी स्वर्गीय महिमा को नहीं बढ़ा सकते। अगर आपके हृदय भरपूर हैं और आप परमेश्वर के लिए जीना चाहते हैं, तो आपको चाहे जितने भी अंक मिलें या आपके अन्दर बाक़ी जो भी अयोग्यताएं हों, परमेश्वर आपके रोज़गार की जगह में द्वार खोलेगा।

आपके सिर्फ गणित में अच्छा न होने की वजह से आप परमेश्वर की इच्छा के आपके जीवन में पूरा होने से नहीं चूक जाएंगे! लेकिन अगर आप दूसरों को क्षमा कर सकते हैं, जो आपके साथ बुराई करते हैं उनके साथ भलाई कर सकते हैं, आपको श्राप देने वाले को आशिष दे सकते हैं, तो आप यीशु के पीछे चलते हुए उसकी कलीसिया का निर्माण कर सकते हैं। और आप पाएंगे कि पृथ्वी पर आपके जीवन के लिए ज़रूरी सभी चीज़ें आपके साथ जुड़ती जाएंगी।

अगर आप उस आत्मिक भोजन का मूल्य जानेंगे जो आपको इतने सालों तक कलीसिया में मिलता रहा है, तो आप कलीसिया को बहुत मूल्यवान जानेंगे। ज़रा सोचें कि जो आपको एक समय के खाने पर आमंत्रित करते हैं तो आप उनके प्रति कितनी कृतज्ञता से भर जाते हैं। तो आपको उस भोजन के लिए कितना कृतज्ञ होना चाहिए जो आपको नियमित रूप से कलीसिया में साल-दर-साल मिलता रहा है।

या इस बात को एक दूसरी तरह देखें। मान ले कोई व्यक्ति आपके बच्चों की देखभाल करता है, उन्हें ख़तरे से बचाता है, उनके निरुत्साहित होने पर उन्हें उत्साहित करता है, और उनकी पढ़ाई-लिखाई में मदद करता है कि उनके अच्छे अंक आएं। और अगर वह व्यक्ति ऐसा एक-दो दिन के लिए नहीं बल्कि अनेक वर्षों तक करता है। तब क्या आप उसके आभारी न होंगे?

आपके बच्चों की रक्षा करने के लिए क्या आप कलीसिया के कम-से-कम इतने आभारी हैं? अनेक विश्वासियों के आत्मिक रीति से न बढ़ पाने की एक वजह यह है कि उन्होंने जो कुछ कलीसिया से पाया है, वे उसके प्रति आभारी नहीं हुए हैं। जो विश्वास से भटक कर कलीसिया से अलग हो गए हैं, वे हैं जिन्होंने कभी उन बातों का बिलकुल भी आभार नहीं माना है जो इतने सालों से उन्होंने कलीसिया में बिलकुल मुफ्रत पाई हैं।

लूका 17:15 में, हम उन 10 कोढ़ियों के बारे में पढ़ते हैं जो चंगे हुए थे। लेकिन उनमें से सिर्फ एक ही प्र्रभु को धन्यवाद देने और परमेश्वर की महिमा करने के लिए वापिस आया। जब वे ज़रूरत में थे, तो सभी ने अपनी आवाज़ें ऊँची कर दया की भीख माँगी थी। लेकिन चंगा होने के बाद, उनमें से नौ उन्हें मिली चंगाई (लाभ) के प्रति पूरे कृतघ्न साबित हुए। उनमें से सिर्फ एक ने ही धन्यवाद देने के लिए अपना मुँह खोला।

फिलिस्तीन में चंगाई पाने वाले ऐसे और हज़ारों लोग होंगे जिन्होंने प्रभु को धन्यवाद देने के लिए कभी अपना मुँह नहीं खोला होगा। लेकिन यह सामरी व्यक्ति प्रभु को धन्यवाद देने के लिए वापिस लौटा था। उसने शायद प्रभु से ऐसा कुछ कहा होगा, "प्रभु, अब जबकि तूने मुझे छू लिया है, तो आज से मेरा जीवन कितना बदल जाएगा। अब मैं अपने परिवार के पास लौट सकूँगा। तूने मेरे जीवन को आनन्द से भर दिया है। मैं इन आशिषों का मूल्यांकन कम नहीं कर सकता। अब से मेरा सब कुछ तेरा है और मेरे जीवन की सभी आशिषों के लिए मैं अपने हृदय की गहराई से तेरा आभारी हूँ।"

यीशु ने उस व्यक्ति द्वारा प्रदर्शित की गई कृतज्ञता की सराहना की।

फिर यीशु ने उसे कुछ और भी दिया। उसने उससे कहा कि उसके विश्वास ने उसे बचा लिया है। शुद्ध हो चुके उस कोढ़ी को प्रभु से चंगाई से भी बढ़कर कुछ और मिला। उसने चंगाई तो पहले ही पा ली थी। लेकिन क्योंकि वह आभारी हुआ, इसलिए उसे उद्धार भी मिला। मुझे यक़ीन है कि वह सामरी पुरुष मुझे स्वर्ग में मिलेगा। लेकिन मुझे यह यक़ीन नहीं है कि उन बाक़ी नौ लोगों में से मुझे कोई स्वर्ग में मिलेेगा। जब आप प्रभु को धन्यवाद देने के लिए वापिस आते हैं, तो आपको उससे कुछ ज़्यादा मिलता है जो दूसरे पाते हैं।

प्रभु अपनी कलीसिया के बीच में है, जो कि पृथ्वी पर उसकी देह है। हम प्रभु की देह को मूल्यवान जानने द्वारा प्रभु की सराहना करते हैं। अगर आप कलीसिया की सराहना नहीं करते और उसका मूल्य नहीं जानते, तो इसमें कलीसिया का नहीं आपका नुक़सान होगा। जिन्होंने कलीसिया को मूल्यवान जाना है, परमेश्वर ने ऐसे सभी लोगों को भरपूरी से आशिष दी है जिन्होंने कलीसिया को मूल्यवान जाना है, और जो उन सब बातों के आभारी हुए हैं जो उन्होंने कलीसिया से पाई हैं।

यह सोचें कि हमारे बच्चों को संसार से बचाए रखने के लिए हमें कलीसिया का कितना आभारी होना चाहिए। मैं व्यक्तिगत रूप से इस बात की साक्षी दे सकता हूँ। मेरा बड़ा बेटा जब 6 साल का था, तब से मेरे चारों बेटे कलीसिया के युवा भाइयों के बीच में ही बड़े हुए हैं। उन सभी युवा भाइयों में से कोई भी सिद्ध नहीं था। उन सब में बहुत सी कमज़ोरियाँ थीं। लेकिन उन सब बातों के बावजूद, मेरे बेटों को उनके द्वारा मदद मिली, क्योंकि ये भाई ईमानदार थे। सिर्फ माता-पिता अकेले सब कुछ नहीं कर सकते। हमें अपने बच्चों की परवरिश करने के लिए कलीसिया के भाई-बहनों की मदद की ज़रूरत होती है।

लेकिन यह एक दुःखद बात है कि बहुत से लोग अपनी घरेलू कलीसिया के मूल्य को तभी जान पाते हैं जब वे उसे छोड़कर कहीं दूसरी कलीसिया का हिस्सा बनते हैं। एक बार दाऊद को अपने गाँव बैतलहम के कुएं का पानी पीने की बड़ी लालसा हुई। उसके पानी का स्वाद बाक़ी किसी भी जगह के पानी से अलग था (2 शमु. 23:15)। इसी तरह से, बहुत से लोग कलीसिया की सभा की सिर्फ तभी लालसा करते हैं जबकि उनका स्थानांतरण हो जाता है या वे शहर से बाहर कहीं दूर होते हैं। लेकिन कलीसिया का मूल्य जानने और अपने कलीसियाई भाई-बहनों की सराहना करने के लिए आपको कहीं बाहर जाने तक इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। यह आप अभी कर सकते हैं।

ऐसा क्यों है कि आपको अपनी स्थानीय कलीसिया में अपने भाइयों व बहनों को मूल्यवान समझने में मुश्किल होती है? शायद इसलिए क्योंकि आपको उनमें बहुत सी कमियाँ नज़र आती हैं।

जब लोगों की आँख में कोई तकलीफ हो जाती है तो उन्हें अपनी आँखों के सामने हर समय धुंधले धब्बे नज़र आते रहते हैं। यही हमारी आत्मिक आँख की भी मुश्किल हो सकती है। कुछ लोगों की आँखों में, हरेक भाई और बहन के मुख पर धब्बे नज़र आते हैं। अगर आपके साथ ऐसा है, तो हो सकता है कि फिर समस्या उन भाइयों व बहनों की नहीं बल्कि आपकी हो। आपकी आँखों में कुछ बीमारी हो गई है। आपको दूसरों में धब्बे नज़र आ रहे हैं, क्योंकि वे धब्बे आपकी आँख में हैं। आपकी नज़र कभी साफ नहीं हो सकती जब तक यीशु आपकी आँखों को चंगा नहीं करता।

यीशु अपने शिष्यों की स्वामीभक्ति को बहुत मूल्यवान जानता था। एक बार उसने उनसे कहा कि हालांकि अब वे सब उसे छोड़ कर चले जाएंगे, लेकिन फिर भी वह अकेला नहीं होगा क्योंकि उसका पिता उसके साथ था (यूहन्ना 16:32)। उसे उन शिष्यों की ज़रूरत नहीं थी। फिर भी लूका 22:28 में उसने कहा कि वह इस बात के लिए उनका आभारी है कि वे उसकी परीक्षाओं में उसके साथ रहे थे। वह महिमा का प्रभु था। उसे इस बात की कोई ज़रूरत नहीं थी कि कोई उसके साथ खड़ा रहे। और हालांकि उसे किसी समर्थन की ज़रूरत नहीं थी, फिर भी वह उनकी स्वामीभक्ति की सराहना कर रहा था। वह उनसे मानो यह कह रहा था, फ्तुम यहूदियों की पुरानी व्यवस्था में से बाहर निकल आए हो और तुमने पुरानी मश्कें छोड़ दी हैं। तुमने दुल्हन की आत्मा और वेश्या की आत्मा के बीच के फ़र्क को जान लिया है, और तुम बाहर निकल कर मेरे साथ खड़े हुए हो और इसकी क़ीमत चुकाने के लिए भी तैयार हो।"

मेरी आशा है कि प्रभु अंतिम दिन हमसे भी यही कह सकेगा कि हम उसके साथ खड़े रहे और उससे लज्जित नहीं हुए, कि उसने जिस कलीसिया में हमें रखा था, हमने उससे प्रेम किया और उसके लिए अपने आपको दे दिया, और दूसरे लोगों की तरह हमने कलीसिया की आलोचना नहीं की।

भाइयों व बहनों, हमें स्वयं व हमारे बच्चों को मिली उस ज़बरदस्त सुरक्षा के लिए कलीसिया का आभारी होना चाहिए जो हमें उससे मिली है।

आप, जो युवा हो, शायद कभी यह समझ नहीं पाओगे कि कलीसिया ने आपको कितनी दुर्घटनाओं, ख़तरों, व पापों से बचाया है। जब आप प्रभु के सामने खड़े होगे, सिर्फ तभी आप यह जान सकोगे कि कलीसिया के कठोर मापदण्ड/मानकों ने आपको संसार में भटक जाने और अपना नाश करने से कैसे बचाए रखा था।

उस दिन आप यह समझ पाओगे कि जो आपने कलीसिया में सुना था, उसने कैसे वर्षों बाद आपको किसी ख़तरे से बचाया था। प्रभु आपको यह भी दिखाएगा कि आपके बच्चों को भी उन बातों द्वारा, जो उन्होंने कलीसिया में सुनी थीं, कितने ख़तरों से बचा कर रखा गया था।

फिर भी, इन सब बातों और अन्य बहुत सी आशिषों के बावजूद, हम सभी कलीसिया की उचित सराहना नहीं करते और उसे मूल्यवान नहीं जानते।

क्या आप उस बिन्दु तक उन्नत होना चाहते हैं जहाँ आप दूसरों के लिए एक आशिष बन जाएं? तो सबसे पहले, उन सब बातों के लिए कृतज्ञ होकर धन्यवाद देना सीखें जो प्रभु ने आपके लिए और उस कलीसिया के लिए किया है जिसे प्रभु ने आपको दिया है। कलीसिया का मूल्य जाने बिना उसकी अवमानना न करें।

हममें से बहुत से लोग ऐसे बच्चों की तरह हैं जिन्हें अपने माता-पिता का असली मूल्य उनके मरने के बाद ही समझ आता है। ऐसा हो कि देर हो जाने से पहले ही, प्रभु अभी हमें एक-दूसरे के लिए और कलीसिया के लिए कृतज्ञ होकर धन्यवाद देना सिखाए।

अध्याय 15
मसीह की महिमा देखना और उसमें सहभागी होना

"और हम सब खुले चेहरे से, प्रभु का तेज मानो दर्पण में देखते हुए, प्रभु अर्थात् पवित्र-आत्मा के द्वारा उसी तेजस्वी रूप में अंश-अंश करके बदलते जाते हैं। इसलिए जब हम पर ऐसी दया हुई कि हमें ऐसी सेवा मिली, तो हम साहस नहीं खोते" (2 कुरि. 3:18; 4:1)।

ज़्यादातर विश्वासी जब एक सेवकाई के बारे में विचार करते हैं, तो वे सिर्फ किसी बाहरी सेवकाई के बारे में सोचते हैं। लेकिन पौलुस यहाँ महिमा के एक स्तर से दूसरे स्तर पर पहुँचते हुए मसीह की समानता में बदलते जाने की सेवकाई की बात करता है। उसके पास क्योंकि ऐसी सेवकाई थी, इसलिए वह कभी निरुत्साहित नहीं होता था।

जो प्रभु की सेवा करता है, उसके जीवन में "पवित्रता का फल" होगा (रोमियों 6:22)। वह प्रभु की जितनी ज़्यादा सेवा करेगा, वह उतना ज़्यादा मसीह की समानता में बदलता जाएगा।

दूसरे शब्दों में, वह प्रभु की जितनी ज़्यादा सेवा करेगा, वह उतना सब सिर्फ प्र्रभु की महिमा के लिए ही करेगा, वह उतना ही ज़्यादा स्वयं को पीछे हटाएगा, वह दूसरों के प्रति अपनी मनोदशा को उतना ही ज़्यादा नम्र व दीन करेगा, वह उतना ही ज़्यादा धन से घृणा करेगा, वह उतना ही ज़्यादा अपने वैचारिक-जीवन में शुद्ध होता जाएगा, वह उतना ही ज़्यादा अपने शत्रुओं से प्रेम करेगा आदि, आदि। वह जिसके भीतरी जीवन और मनोभावों में पवित्रता के ये फल नहीं हैं, अनेक मसीही धार्मिक गतिविधियों में व्यस्त होते हुए और एक विश्व-विख्यात् प्रचारक या चंगा करने वाला होते हुए भी वास्तव में प्रभु की सेवा नहीं कर रहा है।

मसीहियों में ऐसे अनेक ईमानदार व धर्मी लोग हैं जो आत्मिक नहीं सिर्फ धार्मिक हैं। क्या आप जानते हैं कि ईमानदार होने व मसीह-समान होने में एक बहुत बड़ा अन्तर है?

हम क्योंकि धार्मिकता का प्रचार करते हैं, इसलिए बहुत से धार्मिक व ईमानदार मसीही हमारी तरफ आकर्षित होते हैं। लेकिन यह हो सकता है कि उनकी मसीह-समान होने में कोई दिलचस्पी न हो! वे लोग जो पवित्र-शास्त्र के अक्षर के साथ व्यवहार करते हैं, वे सिर्फ सच्चे/ईमानदार होने में ही दिलचस्पी रखते हैं। लेकिन जो नई वाचा की आत्मा के साथ व्यवहार करते हैं, वे मसीह-समान होना चाहते हैं। सिर्फ वही वास्तव में आत्मिक बन सकते हैं।

हम 2 कुरिन्थियों 11:3 में पढ़ते हैं कि हमारे सामने लगातार यह ख़तरा बना रहता है कि हम मसीह की भक्ति की सरलता से भटक कर - जैसा कि सर्प ने हव्वा को बहकाया था, सिर्फ धार्मिक कामों में ही लग जाएं। शैतान ने हव्वा को डराकर उससे पाप नहीं कराया था। नहीं, उसने अपनी धूर्तता से उसे भरमाया था। इसलिए इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि आज शैतान के सेवक भी फ्धार्मिकता" का प्रचार करते हुए आते हैं (2 कुरि. 11:15)।

शैतान के सेवक धार्मिकता का तो प्रचार करते हैं, लेकिन वे मसीह-समान होने का प्रचार नहीं करेंगे। वे स्त्रियों के लम्बे व पुरुषों के छोटे बाल होने, स्त्रियों के सिर ढाँकने, गहने उतार देने, पास्टर/प्राचीन की आज्ञापालन करने, दसवांश देने, प्रति-सप्ताह प्रभु-भोज देने, कलीसियाई सभाओं में नई वाचा के नमूने के अनुसरण करने, आदि, मामलों पर बहुत ज़ोर देंगे। ऐसी बाहरी बातों पर प्रचार करने द्वारा वे बहुत से लोगों को भरमा कर उनकी नज़र में परमेश्वर के सेवक बन जाते हैं।

लेकिन शैतान के इन सेवकों को आसानी से उस बात में पहचाना जा सकता है जिस पर वे ज़़ोर नहीं देते। वे मसीही जीवन की सबसे महत्वपूर्ण बातें जैसे नम्रता, हृदय की शुद्धता, एक-दूसरे के लिए उत्साही प्रेम, प्रतिदिन सूली उठाना, आत्मा से भरते जाना, प्रतिदिन के जीवन में यीशु के पीछे चलना आदि, जैसी बातों को छोड़ देते हैं।

एक प्राचीन जो व्यभिचार करता है या कलीसिया के धन की चोरी करता है कभी कलीसिया को विश्वास से नहीं भटका सकता, क्योंकि अविश्वासी भी ऐसे व्यक्ति को देखकर यह जान लेंगे कि वह एक ईश्वरीय व्यक्ति नहीं है। लेकिन एक धार्मिक भाई बड़ी आसानी से बहुत से विश्वासियों को विश्वास से भटका सकता है, क्योंकि ज़्यादातर विश्वासी (आत्मिकता और धार्मिकता का फ़र्क न जानते हुए) उसके जीवन की बाहरी धार्मिकता, उसके धार्मिक उत्साह, और उसकी धार्मिक गतिविधियों से बहुत प्रभावित हो जाएंगे। अगर आप समझते हैं कि "प्रभु की सेवा करना" (जैसे मार्था कर रही थी), उसकी आवाज़ को सुनने से ज़्यादा ज़रूरी है (जो मरियम कर रही थी), तो आप निश्चित रूप में यह जान सकते हैं कि आप आत्मिक नहीं धार्मिक हैं (लूका 10:38-42)।

आजकल भारत में पश्चिमी देशों से बहुत से प्रचारक आते रहते हैं। कोई यह नहीं जानता कि ये प्रचारक अपने घरों में अपनी पत्नियों के साथ कैसे रहते हैं, उन्होंने अपने बच्चों की परवरिश कैसे की है, या अपने नगरों में उन्होंने किस तरह का भाईचारा तैयार किया है। लोग सिर्फ उनकी वाकपटुता (बोली की कुशलता) और (ज़्यादातर) उनके धन से प्रभावित हो जाते हैं! लेकिन एक व्यक्ति की सेवकाई का सही मूल्यांकन करने के लिए, आपको यह मालूम होना ज़रूरी है कि वह अपने घर में कैसे रहता है! एक व्यक्ति ने अपने बच्चों की परवरिश कैसे की है, यह देखे बिना उसे एक आत्मिक मनुष्य न मान लें। अगर उसके बच्चे सांसारिक हैं, तो यह बात अकसर यही दर्शाएगी कि वह व्यक्ति स्वयं एक पाखण्डी है - क्योंकि एक व्यक्ति अपनी आत्मिकता के बारे में अपने बच्चों को मूर्ख नहीं बना सकता। अगर उसकी स्थानीय मण्डली समान भाइयों व बहनों की संगति नहीं बल्कि उसके प्रशंसकों का मात्र एक झुण्ड ही है, तो यह स्पष्ट है कि मसीह की देह तैयार करने के बारे में वह कुछ नहीं जानता।

मसीही जगत ऐेसे बहुत से धार्मिक लोगों से भरा हुआ है जिनका अकसर एक-दूसरे के साथ भी अच्छा रिश्ता नहीं होता! वे जितने ज़्यादा फ्धार्मिक" होते हैं, उनके साथ संगति करना लोगों के लिए अकसर उतना ही ज़्यादा मुश्किल हो जाता है! लेकिन जो लोग मसीह-समान होने के खोजी होते हैं, उनके साथ मेल-मिलाप करना और एक महिमामयी संगति करना आसान होता है।

शैतान ने आकर हव्वा से कहा था कि वह परमेश्वर के समान बन सकती है। यीशु भी पृथ्वी पर इसी प्रकार के एक संदेश के साथ आया था कि हम परमेश्वर के समान बन सकते हैं। दोनों संदेश एक जैसे लगते हैं। लेकिन दोनों कथनों के अर्थ में बहुत बड़ा अन्तर है - इतना ही अन्तर जितना कि स्वर्ग और नर्क में है। शैतान ने हव्वा को ज्ञान, शक्ति और अधिकार में परमेश्वर जैसा बनने के लिए भरमाया था। लेकिन यीशु हमें चरित्र में - नम्रता, शुद्धता, प्रेम और अच्छाई में परमेश्वर जैसा बनाने के लिए आया था।

परखने की क्षमता न होने की वजह से आज ज़्यादातर मसीही कलीसियाएं ऐसे फरीसियों से भरी हैं जो उनकी बड़ी फ्संख्याओं", उनकी फ्धार्मिकता", उनके फ्नए नियम के कलीसियाई नमूनों", व उनकी फ्गतिविधियों" पर बड़ा गर्व करते हैं। वे अपनी कलीसियाओं में अपने बहुत धर्मी होने की साक्षी के साथ बैठते हैं। लेकिन अपने निजी जीवन में, वे मूर्तिपूजकों से भी ज़्यादा बुरे व्यवहार करते हैं। अपने मसीही जीवन शुरू करने से पहले शायद वे ऐसे नहीं थे। वे धीरे-धीरे फरीसी बने हैं। उनकी शुरूआत शायद सच्ची धार्मिकता से हुई होगी। लेकिन आज वे प्रथम दर्जे के पाखण्डी हैं। परमेश्वर ने उनके जीवन में यह होने दिया क्योंकि उसने देखा कि वे मूल रूप में बेईमान हैं।

लेकिन परमेश्वर के बचाए/बचे हुए लोग बहुत स्थानों में हैं - ऐसे नम्र व दीन भाई व बहनें जो भीतरी शुद्धता की खोज में हैं, और जो टूटे और पिसे हुए हृदय वाले हैं, ऐसे लोग जो अपने लिए कुछ नहीं चाह रहे हैं लेकिन जिनकी दिलचस्पी परमेश्वर के नाम की महिमा में है, और जिन्हें प्राथमिक रूप में सिर्फ यीशु से मतलब है किसी धर्म-सिद्धान्त, शिक्षा या बाहरी बात से नहीं।

हम अपने आपको धोखा खाने से कैसे बचा सकते हैं? इसका जवाब 2 कुरि. 11:3 में दिया गया है - मसीह के प्रति सहज व सरल भक्ति द्वारा।

जो कुछ हमें स्वयं यीशु के व्यक्तिपन की भक्ति से दूर ले जाता है - वह चाहे कोई धर्म-सिद्धान्त हो, किसी सेवकाई पर ज़ोर देना हो या कुछ भी - वह शैतान की उस योजना का हिस्सा है जिसमें वह हमें भरमा कर विश्वास से भटका देता है और हमारा नाश करता है।

ए- बी- सिम्प्सन 19वीं शताब्दी में परमेश्वर का एक महान् जन हुआ; उसने अपने समय का सबसे बड़ा मिशनरी आंदोलन शुरू किया था। पहले वह एक बीमार रहने वाला प्रचारक था। लेकिन फिर उसका पवित्र-आत्मा में एक दिन उसने किसी को ये शब्द गाते हुए सुनाः मेरे यीशु जैसा काम करे ऐसा कोई नहीं, ऐसा कोई नहीं---। उन शब्दों ने उसके हृदय को जकड़ लिया और उसे यह समझ आया कि उसकी समस्या यह थी कि वह अपनी शक्ति में काम कर रहा था और थक रहा था। तब उसने यीशु को न सिर्फ एक चंगा करने वाले के रूप में, बल्कि अपने शारीरिक स्वास्थ्य व जीवन के मूल स्र्रोत् के रूप में देखा। तब उसने एक आराधना गीत लिखा जिसमें उसने अपने अनुभव का बयान कियाः

फ्पहले आशिष हुआ करती थी, अब प्रभु है,

पहले भावना हुआ करती थी, अब वचन है,

पहले उसके दान चाहे, अब स्वयं दाता है,

पहले चंगाई माँगी, अब ख़ुद उसे माँगा है,

पहले मैं कर रहा था, अब वह कर रहा है,

पहले मैंने उसे इस्तेमाल करना चाहा, अब वह मुझे करता है,

पहले मैंने सामर्थ्य चाही थी, अब वही सामर्थी है,

पहले अपने लिए करता था, अब सब उसके लिए है।"

कलीसिया के इतिहास में परमेश्वर के हरेक महान् सेवक का यही भेद रहा है - वे मसीह के व्यक्ति के साथ जुड़े, उसकी आशिषों व वरदानों के साथ नहीं। इस तरह, एक हलचल और उथल-पुथल भरे संसार में, वे एक विश्राम के जीवन में प्रवेश कर लेते हैं।

"परमेश्वर के दिल के पास एक ख़ामोश जगह है,

जहाँ पाप नहीं सताता, उस दिल के पास वह जगह है"

यही वह जगह है जहाँ पवित्र-आत्मा हमें प्रतिदिन ले जाना चाहता है। इस तरह, हम ऐसे तपस्वी नहीं बन जाते जो एकल दशा में रहता हो। नहीं, हम दूसरों की सेवा और उनकी मदद करते हैं। लेकिन हमारा व्यक्तिगत जीवन, हमारा वैवाहिक जीवन, और हमारी सेवकाई, सब बदल जाएंगे।

दूसरे पद में (2 कुरि. 4:2), हम पौलुस को यह कहते हुए पढ़ते हैं, फ्हमने लज्जा के गुप्त कामों को त्याग दिया है और धूर्तता से नहीं चलते, न ही परमेश्वर के वचन में मिलावट करते हैं।"

अगर हममें कुछ भी बेईमानी और मक्कारी होगी, तो हम परमेश्वर के इस विश्राम में नहीं आ सकते। बीते समय में, हमारे साथ एक-दो भाई ऐसे आकर जुड़े थे (अब वे पीछे हट गए हैं) जिनके पास बहुत दान-वरदान थे और वे बहुत बुद्धिमान भी थे। लेकिन वे बहुत धूर्त भी थे। अगर दान-वरदान पाए बुद्धिमान लोग सच्चे, ईमानदार व नम्र हों, तो परमेश्वर उन्हें इस्तेमाल कर सकता है। लेकिन परमेश्वर चतुर लोगों को उनकी चतुराई में ही फंसा देता है (1 कुरि. 3:19)। उसने उन भाइयों के साथ भी वही किया। हामान की तरह अंत में वे उसी फंदे में फंस गए जो उन्होंने दूसरों के लिए तैयार किया था।

परमेश्वर के दयालु व धीरज से सहने वाला होने की वजह से धूर्त भाई या बहनें एक लम्बे समय तक कलीसिया में बने रह सकते हैं, और वह उन्हें मन फिराने का बहुत समय दे सकता है। लेकिन अगर वे अपने आपको शुद्ध नहीं करते, तो वे एक आत्मिक कलीसिया में नहीं रह पाएंगे। फ्पापी धर्मियों की सभा में स्थिर न रह सकेंगे" (भजन. 1:5)।

अगर आप मसीह की देह में एक उपयोगी अंग होना चाहते हैं, तो आप यहाँ से शुरू कर सकते हैंः सारी धूर्तता और बेईमानी को त्याग दें, लज्जा की गुप्त बातों को त्याग दें, और अपनी सुविधा के अनुसार परमेश्वर के वचन में मिलावट करना त्याग दें।

परमेश्वर के वचन में लोग दो तरह से मिलावट कर सकते हैं।

एक तरीक़ा यह है कि जब बात उनके अपने जीवन से, किसी नज़दीकी मित्र से, या किसी वफादार साथी से जुड़ी हो, तो वे परमेश्वर के वचन के मानकों/मापदण्डों में समझौता कर सकते हैं। जब पतरस ने एक ऐसा सुझाव दिया जो परमेश्वर की इच्छा के विरोध में था, तो यीशु ने उसके जैसे अपने नज़दीकी साथी को भी डाँटते हुए यह कह दिया था, फ्दूर हट, शैतान।" हमें अपनी पत्नियों की कमज़ोरियों को छुपाने, या किसी धनवान व्यक्ति या नज़दीकी मित्र को प्रसन्न करने के लिए परमेश्वर के मानकों के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहिए। हमारे कभी ऐसे मित्र न हों जो परमेश्वर के वचन से भी ज़्यादा हमारे नज़दीक हों - क्योंकि ऐसी मित्रता कभी आत्मिक संगति नहीं बन सकती।

परमेश्वर के वचन में मिलावट करने का दूसरा तरीक़ा वह है जिसमें लोग एक पद की व्याख्या को अपने किसी पूर्वाग्रही धर्म-सिद्धान्त या विचार के अनुसार तोड़-मरोड़ लेते हैं। सिर्फ इस एक उदाहरण पर विचार करेंः पवित्र-आत्मा में बपतिस्मा पाने का धर्म-सिद्धान्त। यह सत्य सहज और साफ तौर पर नए नियम की पहली पाँच पुस्तकों में दिया गया है। (देखें मत्ती 3:11; मरकुस 1:8; लूका 3:16; यूहन्ना 1:33; प्रेरितों. 1:5)। लेकिन फिर भी बैपटिस्ट या ब्रैदरैन समूहों को यह विश्वास दिलाना लगभग असम्भव ही है कि यीशु उन्हें आज भी पवित्र-आत्मा से बपतिस्मा दे सकता है - क्योंकि बचपन से ही उनके मस्तिष्क में यह भर दिया गया है कि वे जैसे ही मन फिराते हैं, उन्हें सब मिल गया है। अगर वे सच्चे हैं तो उन्हें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उनके अन्दर से जीवन के जल की नदियाँ नहीं बह रही हैं, जैसा कि यीशु ने कहा था कि उस पर विश्वास करने वालों के जीवन में से होगा। लेकिन वे इस वास्तविकता का सामना नहीं करते। जब वे पवित्र-आत्मा में बपतिस्मा पाने के बारे में पवित्र-शास्त्र पढ़ते हैं, तो वे उसे अपने धर्म-मत के धर्म-सिद्धान्त के अनुकूल बना लेते हैं। यह एक बौद्धिक बेईमानी है, और परमेश्वर के वचन में मिलावट करना है।

लेकिन एक ईमानदार विश्वासी यही कहेगा, कि जब वह किसी ऐसे धर्म-सिद्धान्त पर पहुँचता है जो उस मत के अनुसार नहीं है जिस पर वह आज तक विश्वास करता आया है, तो शायद उसे इस बारे में परमेश्वर से और ज्योति पाने की ज़रूरत है। ऐसे ईमानदार विश्वासियों के लिए बड़ी आशा है।

ईमानदारी और नम्रता दो जुड़वाँ बच्चों की तरह हैं। एक व्यक्ति में वे दोनों एक साथ होते हैं। वे मानो एक सिक्के के दो पहलू हैं। आप एक पहलू के बिना दूसरा नहीं ले सकते। अगर आप वास्तव में नम्र हैं तो आप ईमानदार भी होंगे। अपनी धूर्तता को ईमानदारी से स्वीकार करना अपने आपको नम्र करना है। जब आप बेईमानी को छोड़ते हैं, तो असल में आप आंशिक तौर पर अपने घमण्ड को भी छोड़ रहे हैं। पौलुस इस भाग में आगे यह कहता है कि जिस सुसमाचार का वह प्रचार करता है, वह बहुत से लोगों की आँखों से छुपा हुआ है। वह किस सुसमाचार की बात कर रहा है? सिर्फ पापों की क्षमा का सुसमाचार नहीं, बल्कि "परमेश्वर के प्रतिरूप अर्थात् मसीह के तेजोमय सुसमाचार" की बात कर रहा है (2 कुरि. 4:4)। यक़ीनन, मसीह का तेज पापों की क्षमा में नहीं पाया जाता - क्योंकि मसीह में क्षमा किए जाने के लिए कोई पाप ही नहीं है!

"मसीह का तेजोमय सुसमाचार" कौन सा है? इसका जवाब इस पद में मिलता है। इसमें मसीह को परमेश्वर का प्रतिरूप कहा गया है। सुसमाचार यह है कि हमारे पाप क्षमा होने के बाद, हमें परमेश्वर के प्रतिरूप में बदल सकते हैं।

सृष्टि के आरम्भ में, परमेश्वर ने कहा, "अंधकार में से ज्योति चमके" (2 कुरि. 4:6)। यह परमेश्वर द्वारा पहला शब्द था। यही वह पहला शब्द है जो परमेश्वर हमारे हृदय में भी बोलता है। हमारे अन्दर अंधकार है, क्योंकि हमारे शरीर में आदम का स्वभाव है - सिर्फ आदम की लालसा या क्रोध नहीं, बल्कि आदम की धूर्तता और चालाकी भी। इस सारे अंधेरे को दूर किया जाना है। परमेश्वर ने अमालेकियों की बुरी भेड़ों को ही नहीं अच्छी भेड़ों को भी मार डालने के लिए कहा था (1 शमु. 15)।

ज्योति क्या है? यूहन्ना 1:4 हमें स्पष्ट बताता है कि वह ज्योति मसीह का जीवन है। यह वह ज्योति है जिससे परमेश्वर हमारे अंधकारमय हृदयों को तेजोमय करना चाहता है। परमेश्वर की महिमा फ्कृपा और सत्य से भरपूर" यीशु के पार्थिव जीवन में देखी गई थी। ऐसा व्यक्ति जिसकी दिलचस्पी इस ज्योति में है, वह सिर्फ धर्मी होने की बजाए मसीह-समान होने में ज़्यादा दिलचस्पी रखेगा।

बाहरी धार्मिकता से हमें सिर्फ मनुष्यों से सम्मान मिलता है। लेकिन परमेश्वर हमें भीतरी तौर पर उसके पुत्र के समान बनाता है।

लगभग 350 साल पहले फ्राँस में मैडम गूयोन नाम की एक स्त्री रहती थी। परमेश्वर के मार्गों के बारे में उसके पास बहुत ज्योति थी हालांकि उन दिनों बहुत मसीही साहित्य भी उपलब्ध नहीं था। इसका कारण यह था कि अपनी पीड़ाओं के बीच में उसने स्वयं में परमेश्वर को खोजा था। बहुत से विश्वासी पीड़ा सहते हैं लेकिन उन सारी पीड़ाओं के बीच वे परमेश्वर को नहीं जान पाते क्योंकि वे उसे उसके उस रूप में नहीं खोजते जिसमें वह स्वयं में है। वे सिर्फ अपनी पीड़ाओं में अपने लिए राहत चाहते हैं। लेकिन मैडम गूयोन ने स्वयं परमेश्वर को खोजा, जिसका परिणाम यह हुआ कि उसने परमेश्वर को इस तरह जान लिया जैसा बहुत कम लोग जान पाएं हैं। जिन पीड़ाआें को परमेश्वर हमारी तरफ भेजता है, जब हम उन्हें आनन्द के साथ स्वीकार कर लेते हैं तब हम परमेश्वर को जान लेते हैं - न सिर्फ तब जब हम उनके अधीन होते हैं, बल्कि तब जब हम उन्हें सहर्ष स्वीकार करते हैं।

मैडम गूयोन ने अपने कुछ लेखों में लिखा है कि ज्योतियों, वरदानों और कृपाओं को प्राप्त करने का एक मार्ग है - एक पवित्र जीवन - जिससे हम उन लोगों की प्रशंसा पाते हैं जिनके पास सबसे निर्मल ज्योति नहीं है। लेकिन अगर हम ऐसे जीवन से आगे बढ़ जाते हैं, अपने जीवन के सभी क्षेत्रें में प्रभु के पूरे आज्ञापालन के क्षेत्र में पहुँच जाते हैं, तो हम पाएंगे कि हमारी प्रशंसा करने वाले वही लोग फिर हमसे घृणा करेंगे और हमें अस्वीकार करेंगे। तब हम यीशु के साथ उसकी पीड़ाओं में सहभागी हो जाएंगे - क्योंकि यीशु के साथ भी बिलकुल ऐसा ही हुआ था।

दूसरों के मतानुसार एक ईश्वरीय व्यक्ति होने का सम्मान पाने का आप आनन्द मना सकते हैं। बहुत लोग सिर्फ इससे ही संतुष्ट हो जाते हैं। लेकिन अगर आप वास्तव में यीशु के पीछे चलेंगे, तो आप इससे आगे जाएंगे। ऐसा क्यों था कि जिन्होंने नासरत में यीशु के जीवन को देखा था - उसके अपने रिश्तेदार भी जिन्होंने उसे बाक़ी सब लोगों से ज़्यादा नज़दीक से जाना था - उन्होंने उसकी प्रशंसा करने की बजाए उसका तिरस्कार किया। क्या आपके कार्यालय में या आपके पड़ोस में एक खरे व्यक्ति की सराहना नहीं की जाती? लेकिन लोग यीशु की सराहना नहीं करते थे। क्यों? क्योंकि इस संसार का आत्मा परमेश्वर के आत्मा का इतना विरोधी है कि जो भी सच्चे परमेश्वर का विश्वासयोग्य साक्षी होगा, उसे अस्वीकार किया जाएगा। यीशु सच्चे परमेश्वर का ऐसा ही विश्वासयोग्य साक्षी था।

तब ऐसा क्यों है कि लोग आपकी इतनी ज़्यादा प्रशंसा करते हैं?

शायद मरे हुए धर्म-मत भी आपके प्रशंसक हैं! और शायद आपके बारे में उनकी साक्षी में आप स्वयं को बहुत महिमान्वित भी महसूस करते हैं!

हम आजकल यह भी पढ़ते हैं कि फ्मसीहियों" को नोबेल शांति पुरस्कार भी मिल रहे हैं। लेकिन संसार ने यह पुरस्कार यीशु को - शांति के राजकुमार को - कभी न दिया होता। संसार ने उसे सूली दी, कोई पुरस्कार या पदक नहीं दिया। और याद रखें कि इस संसार की आत्मा बदली नहीं है। असल में, वह और बुरी हो गई है। यीशु ने कहा कि जिनकी मनुष्य प्रशंसा करते हैं, वे झूठे नबी होते हैं। उसने कहा, फ्हाय तुम पर जब सब मनुष्य तुम्हारी प्रशंसा करें" (लूका 6:26)।

जब आप परमेश्वर की महिमा देख लेंगे, तब मनुष्यों की प्रशंसा का आपके लिए कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।

जब हम मसीह की महिमा के सुसमाचार की निर्मल ज्योति में चलेंगे, तो हमें ग़लत समझा जाएगा, अस्वीकार किया जाएगा, और धार्मिक मसीहियों द्वारा ख़ास तौर पर बुरा-भला कहा जाएगा। यीशु को ऐसे नामों से पुकारा गया था जैसे फ्पागल," फ्पापियों का मित्र," फ्दुष्टात्माओं का सरदार" आदि। अगर आप भी आिख़र यीशु के पीछे चलेंगे, तो आपको भी ऐसे नामों से पुकारा जाएगा। लेकिन अगर आप अपनी बोली द्वारा मनुष्यों को प्रसन्न करने वाले और कूटनीति करने वाले होंगे, तो आप मसीह के हुए अपमान से बच जाएंगे। लेकिन इससे यह संकेत भी मिलता है कि शैतान ने आपकी आँखों को मसीह की महिमा देखने से अंधा कर दिया है।

2 कुरिन्थियों 3:15 में, यह लिखा है कि अगर आप परमेश्वर के वचन को सिर्फ अक्षर-ज्ञान के अनुसार पढ़ेंगे, तो आप अपनी आँखों पर एक पर्दा पड़ा हुआ पाएंगे - एक ऐसा पर्दा जो पवित्र-शास्त्र के सही अर्थ को समझने और मसीह की महिमा को देखने में बाधा बन जाता है। और फिर जब आप नई वाचा ऐसी आज्ञाओं का भी पालन करना चाहेंगे जैसे, "अपने शत्रुओं से प्रेम करो, जो तुम्हें श्राप देते हैं उन्हें आशिष दो, जो तुम्हारा बुरा करते हैं उनका भला करो" आदि, तो वह आप सिर्फ उसके अक्षर-ज्ञान के अनुसार ही करेंगे। यह सम्भव है कि आप इन सभी आज्ञाओं का पालन अपनी स्वयं की धार्मिकता वाली फरीसी आत्मा में होकर करें - इसलिए, क्योंकि आपकी आँखों पर पर्दा पड़ा है। लेकिन जब आप प्रभु की ओर फिरेंगे, तो वह पीछे हट जाएगा, और आप प्रभु की महिमा को देखेंगे (पद 16)।

यह हो सकता है कि आप एक सभा में संदेश सुनने जाएं और वहाँ प्रभु से न मिल पाएं। लेकिन कोई भी संदेश आपकी समस्या का हल नहीं कर सकता। सिर्फ यीशु कर सकता है। उदाहरण के तौर पर, ऐसे बहुत से विश्वासियों में, जिन्होंने बहुत बार यह सुना है कि एक सच्चा मसीही विवाह कैसा होता है, उनके वैवाहिक-साथी के प्रति मसीह-समान मनोभाव नहीं होता। क्यों? क्योंकि वे सिर्फ वचन के अक्षर-ज्ञान पर मन लगाए हुए हैं। तब आपको जिसकी ज़रूरत है वह और ज़्यादा संदेश नहीं, बल्कि मसीह की महिमा देखने की ज़रूरत है।

जब आपकी दिलचस्पी धार्मिक गतिविधि, चंगाई, या भावुक अनुभवों में (जैसे गिर जाना, हँसना, या नाचना आदि) में नहीं बल्कि स्वयं यीशु में होती है, तो आप आत्मिक होना शुरू हो जाते हैं।

हमें धार्मिकता की भी ज़रूरत नहीं है, बल्कि स्वयं यीशु की ज़रूरत है।

1 कुरिन्थियों 1:30 में हमें बताया गया है कि "मसीह स्वयं हमारा छुटकारा - अर्थात् हमारी बुद्धि, धार्मिकता और पवित्रता ठहरा है।" ऐसा नहीं है कि वह हमें बुद्धि देता है। वह स्वयं हमारी बुद्धि है। वह हमारी पवित्रता है, हमारी चंगाई है, हमारी सेवकाई है, हमारा सब कुछ है। जब हम मसीह को छोड़ देते हैं, और उसकी जगह किसी धर्म-सिद्धान्त पर ध्यान केन्द्रित कर देते हैं, तो हम भरमाए जाते हैं।

ईश्वरीयता का भेद क्या है? (1 तीमु. 3:16)। क्या यह कोई धर्म-सिद्धान्त है कि मसीह हमारी देह में आया? नहीं, यह कोई धर्म-सिद्धान्त नहीं है। ईश्वरीयता का भेद स्वयं यीशु है जो हमारी देह में आया। जिन्हें सिर्फ इस अक्षर-ज्ञान के धर्म-सिद्धान्त में दिलचस्पी है, मैंने यह देखा है कि वे मसीही जगत के सबसे बड़े फरीसी हैं। लेकिन जो स्वयं यीशु में दिलचस्पी रखते हैं, वे कभी फरीसी नहीं बनते।

आज मसीही जगत को विभाजित करने वाली एक बड़ी भेद-रेखा हैः यह उनके बीच में खिंची है जो पवित्र-शास्त्र के अक्षर-ज्ञान में दिलचस्पी रखते हैं और जो उसके आत्मा में दिलचस्पी रखते हैं - या, दूसरे शब्दों में, वे जो पवित्रता के धर्म-सिद्धान्तों में दिलचस्पी रखती हैं, या स्वयं यीशु में दिलचस्पी रखते हैं।

विश्वासी जितना ज़्यादा अक्षर की तरफ देखेंगे, उनकी आँखों पर उतना ही मोटा पर्दा पड़ा रहेगा, कि वे प्रभु को न देख सकें। परमेश्वर चाहता है कि हमारे प्रभु यीशु मसीह के मुख में हमें उसकी महिमा का तेज नज़र आए।

उसकी नम्रता की महिमा के बारे में विचार करें। फिलि. 2:8-11 में, हम पढ़ते हैं कि परमेश्वर ने यीशु नाम को सब नामों से ज़्यादा ऊँचा किया है कि उसके नाम के आगे हर जगह हरेक घुटना टिके। हरेक दुष्टात्मा को भी उसके आगे घुटना टिकाना पड़ता है। क्यों? इसलिए नहीं क्योंकि वह परमेश्वर का पुत्र है या उसने एक पवित्र जीवन व्यतीत किया। बल्कि इसलिए क्योंकि उसने अपने आपको नम्र व दीन किया।

अगर आप अपने आपको नम्र व दीन करने के लिए तैयार नहीं हैं, और फिर भी यीशु के नाम को इस्तेमाल करना चाहते हैं, तो आप उसे किसी जादूई शब्द की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगे। और वह काम नहीं करेगा। लेकिन वह जो अपने आपको नम्र व दीन करता है, और अपनी ख़ुदी से इनकार करता है और यीशु का नाम इस्तेमाल करता है, वह उसके इस्तेमाल में सामर्थ्य पाएगा।

जब यीशु के नाम में आप परमेश्वर के वचन का प्रचार करते हैं, और अगर आपको यह समझ नहीं आया है कि यीशु नाम को परमेश्वर ने सब नामों से ऊँचा क्यों किया है, तो आपके प्रचार को पवित्र-आत्मा का समर्थन नहीं मिलेगा। जिस संदेश का प्रचार एक व्यक्ति ने किया है, आप भी उसी संदेश का प्रचार कर सकते हैं, या वही किताब पढ़ सकते हैं। लेकिन आपके प्रचार में वही अभिषेक नहीं होगा। एक व्यक्ति अपने लिए आदर पाने के लिए प्रचार कर सकता है। लेकिन पवित्र-आत्मा ऐसे प्रचार में नहीं होगा - और उसकी सेवकाई में नज़र आने वाला कोई भी फल अनन्त में नहीं पाया जाएगा।

क्या आपने यीशु की नम्रता को देखा है?

हम जो कुछ भी करें, हमें यह आज्ञा दी गई है कि वह हम यीशु के नाम में करें। इसलिए वह सब कुछ हमें उसी आत्मा में होकर करना पड़ेगा जो यीशु की है; जिसने अपने आपको नम्र व दीन किया, एक दास बना, और मर गया। पृथ्वी पर अपनी पूरी सेवकाई के दौरान उसने एक सेवक के अलावा और कुछ भी होने से इनकार किया। यही हमारी भी बुलाहट है। हमें एक-दूसरे के सिर्फ भाई ही नहीं होना है, बल्कि एक-दूसरे के सेवक भी होना है।

ऐसा हो कि हम उसकी नम्रता की महिमा में जकड़े जाएं। तब हमारे चेहरों पर कोई पर्दा पड़ा हुआ नहीं होगा, बल्कि लगातार सिर्फ एक सामर्थी अभिषेक होगा। 2कुुरिन्थियों 3:13 में हम पढ़ते हैं कि मूसा अपने चेहरे पर एक पर्दा डाले रहता था कि लोग यह न देख सकें कि उसके चेहरे का तेज घट रहा है। आप भी अपने चेहरे पर एक पर्दा डाल सकते हैं - उस महिमा को छुपाने के लिए जिसे आप खो चुके हैं। आप ऐसा चाह सकते हैं कि दूसरे लोग यही सोचें कि आपका भीतरी जीवन या आपका विवाहित जीवन अब तक वैसा ही तेजोमय है जैसा वर्षोंं पहले था - हालांकि वह अब वैसा नहीं है।

लेकिन पौलुस कहता है, फ्हमने लज्जा की इन सब गुप्त बातों को त्याग दिया है। अब हम एक खुले, उघाड़े चेहरे से प्रभु की महिमा को देखते हैं।"

गिनती 6:23-25 में हम पढ़ते हैं कि परमेश्वर ने हारून से कहा कि वह इस्राएल की प्रजा को इस तरह आशिष दिया करेः "प्रभु अपने मुख का प्रकाश तुम पर चमकाए।" यह वह सबसे बड़ी आशिष थी जो वे प्रभु से पा सकते थे - उसकी महिमा में उसका उन पर चमकना। नई वाचा में भी यही वह सबसे बड़ी आशिष है जो हम पा सकते हैं।

जब सूर्य चन्द्रमा पर चमकता है, तब चन्द्रमा सूर्य की ज्योति को प्रतिबिम्बित करता है। लेकिन जब पृथ्वी सूर्य व चन्द्रमा के बीच में आ जाती है, तब चन्द्रमा धीरे-धीरे छुपने लगता है। बहुत से विश्वासियों के साथ भी ऐसा ही होता है। पृथ्वी की बातें हमारे और प्रभु के बीच में आ जाती हैं। और जो बात एक पूर्ण चन्द्रमा से शुरू हुई थी, वह फिर आधा चन्द्रमा रह जाती है, और फिर चन्द्रमा ही नहीं होता!

इस महिमा को धीरे-धीरे लुप्त होने से बचाने का सिर्फ एक ही तरीक़ा है कि हम पूरी तरह ईमानदार रहें और हर पर्दे को हटा दें। ईमानदार होने का अर्थ यह नहीं है कि हमें सबके सामने जाकर अपने सारे पापों का अंगीकार करना है। नहीं। लेकिन इसका अर्थ यह ज़रूर है कि हमें सारी बेईमानी और दिखावे को त्याग देना है।

जब लोग किसी को ऐसे अनोखे सत्यों का प्रचार करते सुनते हैं जिन्हें एक नम्रता से भरे व पवित्र जीवन द्वारा समर्थित नहीं किया गया है, तो वे इस महिमामय सुसमाचार की ओर नहीं देख पाते। अगर आप एक ऐसा बैज लगा लेते हैं जिस पर यह लिखा हो, "यीशु बचाता है," तो आपको उस पर यह लिखना चाहिए कि "यीशु हमें नर्क से बचाता है लेकिन क्रोध से नहीं।" यह तो ऐसा ही होगा, वर्ना आपको वह बिल्ला (बैज) हटा देना चाहिए। तब कम-से-कम प्रभु का नाम तो बदनाम नहीं होगा।

ऐसा हो कि हम प्रभु की नम्रता व दीनता द्वारा जकड़े जाएं। कोई भी उसे सबका दास होने से न रोक सका। लोग उसे राजा बनाना चाहते थे, लेकिन उसने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया। उसने कभी ऐसा नहीं चाहा कि उसका नाम एक महान् व्यक्ति, एक ज्ञानवान व्यक्ति, या ऐसे किसी भी तरह के व्यक्ति के रूप में स्थापित हो। वह अपने जीवन के द्वारा हमें यह दिखाने के लिए आया था कि परमेश्वर कैसा था। अब हमारी भी यही बुलाहट है - सेवकों के समान होना, अपनी ख़ुदी-के-जीवन के लिए मरना, और दूसरों को यह दिखाना कि परमेश्वर कैसा है।

सबसे पहले हमें पवित्र-आत्मा को यह अनुमति देनी चाहिए कि वह हमें मसीह की महिमा दिखाए।

तब पवित्र-आत्मा हमें उस महिमा में लगातार पाते रहने वाला बनाएगा।

अध्याय 16
एक स्वच्छ हृदय व एक शुद्ध जीवन

परमेश्वर के जीवन को प्रदर्शित करना

हमारे प्रभु ने कहा कि जब तक वह जगत में है, जगत की ज्योति है (यूहन्ना 9:5)। जब यीशु ने जगत को छोड़ा, तो उसने जगत की ज्योति होने के लिए हमारा अभिषेक किया (मत्ती 5:16)।

वह ज्योति जो यीशु लाया, वह कोई धर्म-सिद्धान्त या शिक्षा नहीं थी। वह नए नियम का सत्य भी नहीं है। यह ज्योति स्वयं उसका जीवन था - ऐसा जीवन जो ईश्वरीय स्वभाव प्रदर्शित करता है।

हम अकसर इस अभिव्यक्ति का उपयोग करते हैं, फ्मेरी बत्ती जली..." हम इस बात में आनन्द मना सकते हैं कि हममें पवित्र-आत्मा में बपतिस्मे के बारे में बत्ती जली है, पाप पर जय पाने के बारे में बत्ती जली है, आदि। लेकिन जिस ज्योति को हमें प्रदर्शित करना है वह यीशु का जीवन है।

नई वाचा में यह दो बार लिखा है, फ्किसी मनुष्य ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा।" यीशु ने आकर पहले हमें दिखाया कि परमेश्वर कैसा है (यूहन्ना 1:18)। जब यीशु ने एक कोढ़ी को अपनी बाहों में लिया, तब वह हमें यह दिखा रहा था कि परमेश्वर कैसा है। उसने जब पैसे का लेन-देन करने वालों को मन्दिर में से निकाला, तब उसने हमें दोबारा दिखाया कि परमेश्वर कैसा है। उसने अपने शिष्यों से कहा कि जिसने उसे देखा है उसने पिता को देखा है। लेकिन यीशु अब स्वर्ग में चला गया है।

अब अगर हम एक-दूसरे से प्रेम करेंगे, तो परमेश्वर हममें रहता है और लोग जैसे यीशु में परमेश्वर को देख सके, वैसे ही वे उसे कलीसिया में देख सकेंगे (1 यूहन्ना 4:12)।

जो हमें कलीसिया में देखते हैं, उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि मसीह कैसा है। अगर हम अपने जीवनों में से इस ज्योति - यीशु के जीवन - को प्रतिबिम्बित करने में नाकाम हुए हैं, तो हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हम अपनी प्राथमिक बुलाहट में निष्फल हुए हैं।

हममें से कोई अपने एकल रूप में परमेश्वर की ज्योति (जीवन) के सभी पहलुओं को उसकी परिपूर्णता में कभी प्रतिबिम्बित नहीं कर सकता। लेकिन सामूहिक कलीसिया के रूप में हम दूसरों के सामने परमेश्वर की सब प्रकार की बुद्धि को प्रकट कर सकते हैं। जब हम मसीह की मृत्यु को अपनी देह में लिए फिरते हैं, तब हम यीशु के जीवन को भी प्रकट कर सकते हैं। एक घर में, अगर पति और पत्नी दोनों ही अपने आदमीय जीवन को ख़त्म करने के लिए तैयार हो जाएं, तो उनके घर में शांति का कैसा राज होगा! हम चाहे कितने भी भारी तनाव, पीड़ा या सताव या फिर प्रलोभन में भी क्यों न हों, हम यह कहने योग्य होने चाहिए, फ्मृत्यु हममें काम करती है, और जीवन तुममें।" यह हमारी बुलाहट है।

हृदय की शुद्धता

उत्पत्ति 20 में, हम यह पढ़ते हैं कि राजा अबीमेलेक ने इब्राहीम की पत्नी सारा को अपनी पत्नी होने के लिए अपने हरम का हिस्सा बना लिया था। फिर भी, यह एक अनहोनी बात हुई कि वह विधर्मी राजा उसे हाथ लगाए बिना ही रात को सो गया। तब परमेश्वर ने रात को स्वप्न में उससे बात की और कहा कि क्योंकि तूने एक व्यक्ति की पत्नी को अपनी पत्नी होने के लिए ले लिया है, इसलिए तू अवश्य मर जाएगा। अबीमेलेक ने साहस के साथ परमेश्वर से कह दिया कि उसने फ्हृदय की शुद्धता" से ऐसा किया था क्योंकि स्वयं इब्राहीम ने यह कहा था कि वह मेरी बहन है। परमेश्वर ने यह स्वीकार किया और उसे बताया कि क्योंकि "अबीमेलेक का हृदय शुद्ध" था, इसलिए परमेश्वर ने ही उसे अपने विरुद्ध पाप करने से बचाए रखा था। जब परमेश्वर एक विधर्मी राजा को सिर्फ इस वजह से सुला कर उसे अपने विरुद्ध पाप करने से रोक सकता है क्योंकि उसने उसके हृदय में शुद्धता देखी, तो नई वाचा में वह हमें और कितना ज़्यादा बचाकर रखेगा। लेकिन वह हमारे हृदय में शुद्धता देखना चाहता है। अगर एक विधर्मी राजा के हृदय में इतनी शुद्धता हो सकती है कि परमेश्वर को भी यह स्वीकार करना पड़े, तो हममें भी हृदय की ऐसी शुद्धता का होना मुश्किल नहीं होना चाहिए।

इसलिए हम हृदय की शुद्धता के खोजी बनें। जब परमेश्वर बहुत से विश्वासियों में यह नहीं देखता, तब वह उन्हें गिरने से नहीं बचाता।

बार-बार परखा जाना

परमेश्वर ने इब्राहीम को बार-बार परखा और उसे हर बार विश्वासयोग्य पाया। ऐसी बहुत सी परीक्षाओं में उसे परखने के बाद, जिनमें वह विश्वासयोग्य रहा, परमेश्वर ने उसे ऊर में से बुलाने के 50 साल बाद फिर परखा और उससे कहा कि वह उसके बेटे इसहाक़ को बलिदान कर दे।

परमेश्वर हमें सिर्फ इसलिए परखना बंद नहीं कर देता क्योंकि हम बहुत सालों तक विश्वासयोग्य रहे हैं। सिर्फ वही, जो अंत तक धीरज से प्रेम में सब सहता रहेगा, जीवन पाएगा।

परमेश्वर हमारे साथी-विश्वासियों द्वारा अस्वीकार किए जाने में परख सकता है। यीशु के बारे में यह लिखा है कि वह अपनों के बीच आया लेकिन उसके अपनों ने उसे स्वीकार नहीं किया (यूहन्ना 1:11)। अगर हमें भी वही शिक्षा मिलनी है जो पृथ्वी पर यीशु को मिली थी, तो हमें उस तिरस्कार का भी अनुभव होना चाहिए जो उसे हुआ था, और हमें भी उसकी ही तरह उसका जवाब प्रेम से ही देना होगा।

एक युवक ने, जिसके पास वचन के प्रचार का दान था, यह जाना कि उसकी स्थानीय मण्डली में एक प्राचीन को उसकी सेवकाई से ईर्ष्या हो रही थी (वह उससे 20 साल बड़ा था)। वह उसे प्रचार नहीं करने देता था और सभाओं में उसे चुपचाप बैठने पर मजबूर करता था। यह अस्वीकार किया जाने की परीक्षा थी। वह युवक बिन विद्रोह किए प्राचीन के अधिकार के अधीन रहा और उसने उससे अच्छा सम्बंध बनाए रखा। तीस साल बाद, जब वह एक बड़ी उम्र का व्यक्ति हो गया, परमेश्वर ने उसी क्षेत्र में उसे फिर से परखा। परमेश्वर ने फिर एक ऐसी परिस्थिति बनाई जिसमें एक सभा में उसे बोलने नहीं दिया गया। वह फिर सभा में शान्त रहा और प्राचीनों के अधिकार के अधीन रहा। उसने उनसे अच्छे सम्बंध बनाए रखे हालांकि इस बार वे उससे 20 साल छोटे थे!

परमेश्वर हमारे जीवन के अंत तक हमें बहुत तरह से परखता रहेगा।

पवित्र-आत्मा की आवाज़ को सुनना

हमारे जीवनों में ऐसे बहुत से समय आते हैं जब हमें फैसले करने होते हैं और हमें निश्चित तौर पर यह मालूम नहीं होता कि हम क्या करें। ऐसे बहुत से मामले हैं जिनके बारे में पवित्र-शास्त्र ख़ामोश है। और, हमें कोई ऐसा ईश्वरीय भाई भी नहीं मिलता कि जिसके पास हम सलाह के लिए जा सकें।

जब भी हम अपने कामों को यह कहते हुए सही ठहराते हैं कि एक ईश्वरीय भाई भी ऐसा करता है या उसने हमें कहा था कि ऐसा करना ठीक है तो यही बात यह साबित करती है कि हमने जो किया है वह एक अशुद्ध विवेक से किया है।

परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से हमारी अगुवाई करने के लिए हमें पवित्र-आत्मा दिया है।

उदाहरण के तौर पर, एक बहन किसी सभा में यह उपदेश सुन सकती है कि संसार से प्रेम नहीं करना चाहिए। यह एक बहुत ही सामान्य उपदेश है जो किसी विशेष बात के बारे में नहीं बताता। नया नियम हमें ऐसे ही सामान्य उपदेश देता है। तो वह स्त्री तब क्या करे जब उसके सामने यह फैसला करने का चुनाव आए कि एक शादी के उत्सव में उसे एक बहुत भड़कीली और महँगी साड़ी पहननी चाहिए या नहीं। उसके मन में ऐसे बहुत से कारण आएंगे कि उसे वह साड़ी क्यों पहननी चाहिए। लेकिन पवित्र-आत्मा उसके उद्देश्य को जाँचेगा और वह उसे बता सकता है कि वह उस साड़ी को सिर्फ अपने सांसारिक मित्रें और सम्बंधियों की प्रशंसा पाने के लिए ही पहनना चाह रही है। पवित्र-आत्मा उसे सत्य बताने में विश्वासयोग्य रहेगा। लेकिन वह उसे आज्ञापालन करने के लिए मजबूर नहीं करेगा। अंतिम फैसला उसका होगा। पवित्र-आत्मा का अभिषेक हमें ऐसी बातें सिखाएगा जो कलीसिया का कोई भी भाई या बहन हमें कभी नहीं सिखा सकता। लेकिन हमें पवित्र-आत्मा की बात सुनने के लिए सचेत रहना होगा। अगर हम उसकी आवाज़ को सुनने से इनकार करते रहेंगे, तो वह एक समय के बाद हमसे बात करना बंद कर सकता है। तब हम विश्वास से पीछे हटेंगे और सांसारिक और शारीरिक हो जाएंगे।

आत्मिक अधिकार के अधीन होना

कलीसिया ज्ञान (धर्म-सिद्धान्त) से नहीं बुद्धि से तैयार होती है (नीति. 24:3)।

बुद्धि एक भाई को उनके अधीन रहना सिखाएगी जिन्हें परमेश्वर ने उसके ऊपर नियुक्त किया है - वह चाहे घर में हो, कलीसिया में हो, या समाज में हो।

यीशु ने नासरत में बिताए अपने सारे वर्षों में उसके दोषपूर्ण पालक माता-पिता (मरियम व युसुफ) के अधीन रहा - सिर्फ इस वजह से क्योंकि उसके स्वर्गीय पिता की उसके लिए यही इच्छा थी। इसमें सवाल यह नहीं था मरियम और युसुफ सिद्ध थे या नहीं, बल्कि यह कि पिता ने यीशु के लिए क्या ठहराया था। इसमें कोई संदेह नहीं कि मरियम और युसुफ परमेश्वर का भय मानने वाले लोग थे। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि वे पुरानी वाचा के अधीन थे इसलिए उनके पास कृपा की वह भरपूरी नहीं थी जिसमें वे पाप पर जय पा सकते। वे घर में ज़रूर एक-दूसरे से झगड़ते भी होंगे और उनके बीच में आपसी तनाव भी रहता होगा - जैसा कि आज भी उनके जोड़ों के बीच में रहता है जिन्होंने नई वाचा में प्रवेश नहीं किया है। फिर भी परमेश्वर के सिद्ध पुत्र ने अपने आपको उन दो दोषपूर्ण लोगों के अधीन कर दिया। उसके पहले कदम दोषपूर्ण लोगों की अधीनता में जाने के लिए बढ़े थे।

अब अगर हमें भी इसी तरह बढ़ना है, तो हमें भी उन लोगों की अधीनता में रहने के लिए तैयार रहना होगा जिन्हें परमेश्वर ने कलीसिया में हमारे ऊपर नियुक्त किया है - फिर चाहे वे कितने भी दोषपूर्ण क्यों न हों। इसी वजह से हम बच्चों को उनके माता-पिता के अधीन रहना सिखाते हैं। बच्चों के लिए यह पहली आज्ञा है; और जो भी इसका पालन करेंगे, उनके लिए परमेश्वर की प्रतिज्ञा है कि "उनके साथ सब भला ही होगा।" परमेश्वर अधिकार के अधीन रहने पर बहुत ज़ोर देता है। इसलिए अगर हम चाहते हैं कि हमारे बच्चों के साथ उनके जीवन में सब भला ही हो, तो हमें उन्हें आज्ञापालन सिखाना चाहिए।

इसी तरह, अगर हम चाहते हैं कि हमारे साथ भी सब कुछ भला ही हो, तो हमें भी कलीसिया में हम पर परमेश्वर द्वारा नियुक्त किए गए दोषपूर्ण अधिकारियों के अधीन रहना चाहिए। प्रभु में जो प्राचीन हम पर नियुक्त हैं, यक़ीनन वे सिद्ध नहीं हैं। लेकिन अगर हमें यक़ीन है कि हम एक सही स्थानीय कलीसिया में हैं, तो हमें अपने आपको उन प्राचीनों के अधीन कर देना चाहिए जिन्हें परमेश्वर ने हम पर नियुक्त किया है। लेकिन, अगर आपको यह यक़ीन नहीं है कि जिस स्थानीय कलीसिया में आप इस समय हैं, वह सही कलीसिया है, तो आप उससे अलग होने के लिए परमेश्वर से पूछ सकते हैं।

लेकिन परमेश्वर कभी अधिकार के खिलाफ़ विद्रोह नहीं सहेगा।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी कलीसियाओं के अगुवे प्रभु के लिए एक सच्ची साक्षी बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह काम हर्गिज़ एक आसान काम नहीं है। लेकिन कलीसिया में भाइयों व बहनों के लिए यह काम आसान होता है कि अपने प्राचीनों में कमियाँ देखें, उनकी आलोचना करें, और विद्रोह करें।

जिनके कोई बच्चे नहीं होते, वे उन तरीक़ों में कमियाँ निकाल सकते हैं जिनके द्वारा दूसरे अपने बच्चों की देखभाल करते हैं! लेकिन, जो समझदार होते हैं, वे शान्त रहते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि बच्चों को ईश्वरीय तौर-तरीक़ों से बड़ा करना आसान नहीं है।

आपके लिए सबसे पहले यह विचार कर लेना भी अच्छा हैः क्या परमेश्वर ने आपको कहीं किसी कलीसिया का अगुवा होने के लिए चुना है?

अगर परमेश्वर ने ही आपको इस योग्य नहीं जाना है कि आप कहीं आत्मिक अधिकार में काम कर सकें, तो आप उन लोगों का न्याय कैसे कर सकते हैं जिन्हें परमेश्वर ने ऐसा आत्मिक अधिकार सौंपा है? आप परमेश्वर की नियुक्ति के खिलाफ़ विद्रोह कर रहे हैं। वे प्राचीन बहुत सी बातों में दोषपूर्ण हो सकते हैं। फिर भी परमेश्वर ने उन्हें आपसे बेहतर पाया है! इसी वजह से उसने उन्हें प्राचीन नियुक्त किया है। आपके वहाँ पहुँचने से बहुत पहले, उस क्षेत्र में परमेश्वर ने पहले उन्हें चुना है। हो सकता है कि अभी आप सिर्फ एक अपरिपक्व विद्रोही ही हैं जिसके अन्दर बहुत से रंग-बिरंगे विचार हैं जिन्हें कभी व्यावहारिक रूप में परखा नहीं गया है। अगर परमेश्वर ने आपको एक स्थानीय कलीसिया बनाने योग्य कृपा भी नहीं दी है, तो आपके लिए सबसे समझदारी का काम यही है कि आप अपने प्राचीनों के अधीन रहें और ख़ामोश रहें।

लेकिन, एक कलीसिया के प्राचीनों में गंभीर समस्याएं भी हो सकती हैं। अगर ऐसा है, तो कलीसिया में यहाँ-वहाँ बुराई करने की बजाय आपको कलीसिया के एक परिपक्व भाई के साथ कहीं बाहर जाकर उन बातों पर चर्चा करनी चाहिए कि उस स्थिति को संभाला जा सके। परमेश्वर उन लोगों को कभी आशिष नहीं देगा जो फूट डालते और कलीसिया में गड़बड़ फैलाते हैं। हमें उन अधिकारियों के अधीन रहना सीखना चाहिए जिन्हें परमेश्वर ने नियुक्त किया है।

आत्मिक अधिकार का उपयोग करना

जैसे एक ईश्वरीय रूप में आत्मिक अधिकार के अधीन रहना महत्वपूर्ण है, वैसे ही एक ईश्वरीय रूप में आत्मिक अधिकार का इस्तेमाल करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। लेकिन यह एक दुःखद बात है कि बहुत से प्राचीन अपने झुण्ड पर आत्मिक अधिकार नहीं धार्मिक अधिकार जताते हैं।

हम दो पुत्रें के दृष्टान्त में (लूका 15:11-32), उड़ाऊ पुत्र के प्रति पिता के व्यवहार में और बड़े भाई के व्यवहार में इन दोनों मनोभावों को स्पष्ट देख सकते हैं।

जब छोटे पुत्र ने अपने बुरे जीवन से मन फिराया और घर लौट आया, तो पिता उसका स्वागत करने के लिए दौड़ कर गया। यह मन फिराने वाले पापियों के प्रति परमेश्वर के हृदय और ईश्वरीय बड़े भाइयों के हृदय का चित्रण है।

जब बड़े भाई ने यह देखा कि उसके पिता ने उसके छोटे भाई का स्वागत किया है, तो वह इतना क्रोधित हुआ (ऐसा क्रोध जो ईर्ष्या में से पैदा हुआ था) कि उसने घर के अन्दर भी न जाना चाहा। उसकी ख़ुद की धार्मिकता उसके क्रिया-कलापों और शब्दों में स्पष्ट नज़र आई। वह अपने भाई को अपना भाई कहने के लिए भी तैयार नहीं था। उसने अपने पिता से कहा, फ्तेरा ये पुत्र।" उसने अपने भाई से द्वेष किया और उसके बारे में सब बुरी बातें सोचते हुए कहा कि वह वेश्याओं के साथ रहा था (उसने वास्तव में ऐसा किया भी था या नहीं, यह पुष्टि किए बिना ही उसने ऐसा कह दिया)। इस बड़े भाई ने अपने पिता की सारी आज्ञाओं का पालन किया होगा और अपने पिता के घर (फ्कलीसिया") में विश्वासयोग्य रहते हुए उसे छोड़ कर कहीं नहीं गया होगा। लेकिन उसका हृदय बहुत कठोर और ईश्वर-रहित था। वह आत्मिक नहीं धार्मिक था। वह उसकी अपनी नज़र में बड़ा धर्मी और फरीसीनुमा था। और इसका एक प्रमाण यह था कि वह अपने पिता के आनन्द में सहभागी न हो सका था।

फरीसियों की धार्मिकता आनन्द-रहित और कठोर होती है - जिसमें पवित्र-आत्मा का कोई आनन्द नहीं होता। बाइबल स्पष्ट कहती है कि परमेश्वर के राज्य की धार्मिकता फ्वह मेल और आनन्द है जो पवित्र-आत्मा में है" (रोमियों 14:17)।

लेकिन हम देखते हैं कि पिता अपने फरीसीनुमा पुत्र को भी मनाने के लिए गया। ईश्वरीय अगुवे (जैसा इस दृष्टान्त में पिता है) मन फिराए पापियों और फरीसियों दोनों के प्रति भले होते हैं। सभी प्राचीनों को ऐसा ही बड़ा हृदय होना चाहिए। वे सिर्फ तभी आत्मिक अधिकार का उपयोग कर सकते हैं।

जैसा एक ऊँची इमारत बनाने में समय लगता है, वैसे ही एक स्थानीय कलीसिया को मसीह की देह के रूप में तैयार करने में समय, परिश्रम, पसीना और आँसू लगते हैं। और जैसे वह ऊँची इमारत कुछ ही क्षणों में एक बॉम्ब द्वारा नष्ट हो सकती है, वैसे ही उस काम की आलोचना करना आसान होता है जो दूसरों ने किया है, ख़ास तौर पर तब जब हमने उसे बनाने में कोई पसीना और आँसू न बहाए हों।

छुपे हुए मनोभावों का पर्दाफाश हो जाएगा

अगर हम अपने भीतर से पाप को मिटाने का पूरा काम नहीं करेंगे - ख़ास तौर पर वे मनोभाव जो हममें दूसरों के खिलाफ़ हैं - तो ऐसे मनोभाव हमें एक दिन ऐसे ही नाश कर देंगे जैसे एक कैंसर भीतर-ही-भीतर नाश कर देता है।

पुरानी वाचा में, हम एक शिमी नाम के आदमी के बारे में पढ़ते हैं जो शाऊल का सम्बंधी था। जब शाऊल मर गया और दाऊद राजा बन गया तो इस व्यक्ति के हृदय की गहराई में दाऊद के लिए बहुत घृणा भरी हुई थी। वह इस बात से ख़ुश नहीं था कि दाऊद परमेश्वर के लोगों पर राज कर रहा था हालांकि स्वयं परमेश्वर ने दाऊद का अभिषेक किया था। शिमी की घृणा और असंतोष उसके हृदय में एक लम्बे समय से छुपे हुए थे, और फिर उसे एक दिन पता चला कि अबशालोम ने अपने पिता से विद्रोह कर दिया था, और दाऊद को यरूशलेम छोड़ कर भागना पड़ रहा था (2 शमु- 16:5-14)। फिर वह, जो शिमी के अन्दर छुपा हुआ था, बाहर निकल आया। जब दाऊद अपनी जान बचा कर भाग रहा था, तब शिमी दाऊद के पास आया और उसने न सिर्फ उसको अपशब्द ही कहे, बल्कि उसे श्राप भी दिया। उसने कहा कि वह ख़ूनी है जिससे परमेश्वर अब बदला ले रहा था, और यह कहते हुए उस पर पत्थर फेंके।

लेकिन दाऊद ने उस पर कृपा की और उसके अपशब्दों का बुरा नहीं माना। बाद में जब अबशालोम को मार डाला गया और दाऊद फिर से राजा के रूप में लौट आया, तो शिमी डर गया और दाऊद के पास आकर उससे क्षमा-याचना करने लगा। दाऊद ने फिर उस पर कृपा की और उसे क्षमा करते हुए उससे शपथ खाई कि वह उसे नहीं मारेगा।

लेकिन ये स्पष्ट है कि दाऊद ने शिमी के प्रति अपनी कड़वाहट को अपने अन्दर से साफ नहीं किया था। उसने मरने से पहले, अपने पुत्र सुलैमान से यह कहा, फ्मैंने शिमी को क्षमा कर दिया था और उसे न मारने की शपथ खाई थी। लेकिन तू उस शपथ से बंधा हुआ नहीं है। तू तो बुद्धिमान व्यक्ति है, और तुझे मालूम होना चाहिए कि शिमी को मार कर कैसे अधोलोक में भेजना है" (1 राजा 2:8-10)। इस तरह उसने शिमी से बदला लिया और मर गया। इतने वर्षों तक परमेश्वर का जन होने के बाद, मरने का यह कितना दुःखद तरीक़ा है।

हम अपने मानक मापदण्डों के अनुसार दाऊद का न्याय नहीं कर सकते क्योंकि वह पुरानी वाचा के अधीन था। लेकिन अब हमें यह कहा गया है कि बुराई का बदला बुराई से न दें, क्यों बदला लेना परमेश्वर का काम है (रोमियों 12:17-21)।

इसलिए ये ज़रूरी है कि हम परमेश्वर के सामने अपने हृदयों को यह देखने के लिए हर समय जाँचते रहें कि उनमें किसी से बदला लेने की कोई दबी हुई इच्छा तो नहीं है।

अध्याय 17
बुद्धि के सात स्तम्भ

बाइबल के अंत में, उसके समापन पृष्ठों में, हम बाबुल - जो वेश्या है (प्रका. 17 व 18), और यरूशलेम - जो मसीह की दुल्हन है (प्रका. 21 व 22), के बीच के बड़े फर्क़ को देखते हैं।

बाइबल कहती है कि संसार से मित्रता करना व्यभिचारिणी (वेश्या) बन जाना है (याकूब 4:4)। इसके विपरीत, दुल्हन वह है जिसने अपने आपको संसार से अलग कर लिया है, और अपने स्वर्गीय दुल्हे के लिए अपने आपको शुद्ध और पवित्र रखा है (पढ़ें 2 कुरि. 11:1-3)।

नीतिवचन 8:1,27 में, दुल्हे को फ्बुद्धि" कहा गया है। और फिर अगले अध्याय में दुल्हन को भी बुद्धि कहा गया है (नीति- 9:1), क्योंकि वह अपने दूल्हे के साथ हर तरह से एक है और दूल्हे का नाम (फ्बुद्धि") उसके मस्तक पर लिखा है - क्योंकि वह दूल्हे की तरह ही जय पाती है (देखें प्रका, 3:12,21; 14:1)।

नीतिवचन अध्याय 9 में, हम दुल्हन और वेश्या के बीच का फ़र्क स्पष्ट देख सकते हैं। उस अध्याय के पहले 12 पदों में, दुल्हन सभी लोगों को आमंत्रित करती है कि वे अपनी मूर्खता छोड़ें, समझ के मार्ग में बढ़ें (पद 6), और परमेश्वर का भय मानना सीखें जो कि बुद्धि का आरम्भ होता है (पद 10)। उस अध्याय के अंतिम 6 पदों में, हम वेश्या की पुकार को सुनते हैं। ऐसे बहुत हैं जो वेश्या की पुकार को सुनते हैं, और उनका अंत आत्मिक मृत्यु होता है (पद 18)।

दुल्हन (बुद्धि), हम उसमें पढ़ते हैं, अपना घर सात स्तम्भों पर बनाती है। ये सात स्तम्भ याकूब 3:17 में दर्शाए गए हैं, और सच्ची कलीसिया इन सात स्तम्भों पर ही खड़ी होती है। इन विशिष्टताओं द्वारा हम मसीह की दुल्हन को कहीं भी पहचान सकते हैं।

1, शुद्धता

सच्ची कलीसिया का सबसे पहला और ज़रूरी स्तम्भ शुद्धता है। यह बाहरी शुद्धता का कोई खोखला स्तम्भ नहीं है। नहीं, वह अन्दर से बाहर तक पूरा का पूरा ठोस है। यह हृदय की शुद्धता है, और यह परमेश्वर के भय रूपी बीज में से हृदय की गहराई में शुरू होती है। मसीह की कलीसिया चतुर मस्तिष्क से नहीं शुद्ध हृदय से तैयार होती है। अगर हमारे पास परमेश्वर और उसके मार्गों का आत्मिक प्रकाशन नहीं है, तो हम कलीसिया का निर्माण नहीं कर सकते - और सिर्फ उन्हें, जिनके हृदय शुद्ध हैं, यह अनुमति दी जाएगी कि वे अपने हृदयों में परमेश्वर का दर्शन पा सकें (मत्ती 5:8)।

2, शांतिपूर्ण मेल-मिलाप

मेल-मिलाप और सहीपन दोनों हमेशा साथ-साथ रहते हैं - वे जुड़वा हैं। परमेश्वर का राज्य सही होना और मेल-मिलाप करना है। परमेश्वर का राज्य सहीपन (धार्मिकता) और मेल-मिलाप है (रोमियों 14:17)। सच्ची बुद्धि कभी तर्क-वितर्क और वाद-विवाद नहीं करती। वह संघर्ष नहीं करती। जहाँ तक हो सकता है, वह सबके साथ शांतिपूर्ण सम्बंध बनाए रखती है। ईश्वरीय बुद्धि से भरे मनुष्य के साथ वाद-विवाद करना असम्भव होता है क्योंकि ऐसा व्यक्ति शांतिपूर्ण मेल-मिलाप वाला होता है। यह हो सकता है कि वह दृढ़ रूप में कठोर हो और बुराई से समझौता करने वाले उससे घृणा करते हों। लेकिन वह हमेशा शांतिपूर्ण मेल-मिलाप वाला होगा। यीशु ने अपने शिष्यों से कहा कि वे जब भी प्रचार के लिए जाएं, तो वे सिर्फ फ्शांतिपूर्ण मेल-मिलाप" वाले व्यक्ति के घर में ही रहें (लूका 10:5-7)। अगर हमें परमेश्वर के राज्य का निर्माण करना है, तो हमें शांतिपूर्ण मेल-मिलाप वाले व्यक्ति होना होगा।

3, दूसरे का भला चाहना

मसीह की दुल्हन हमेशा शान्त, सौम्य, धीरजवंत, शिष्ट और दूसरों के साथ ईमानदारी से व्यवहार करने वाली होती है। वह कभी कर्कश या कठोर नहीं होती बल्कि हमेशा दूसरों का भला चाहने वाली होती है। जब कलीसिया को इस स्तम्भ का समर्थन मिल जाता है, तो एक-दूसरे का बोझ उठाना आसान हो जाता है - चाहे कुछ लोग समझने में मतिमंद या व्यवहार में कर्कश भी क्यों न हों। हमें यह समझ आने लगता है, कि समस्या हमारे भाई या बहन की कर्कशता नहीं, लेकिन हममे बसने वाली अधीरता है। और इस तरह, हम अपने भाई या बहन से नहीं बल्कि सही दुश्मन से लड़ते हैं - हमारी अपनी ख़ुदी-के-जीवन से।

4, टूटने/मरने की तैयारी रखना

वह जो ताड़ना और उपदेश ग्रहण नहीं कर सकता, वह जो यह सोचता है कि वह ऐसे स्तर को पार कर गया है, वास्तव में मूर्ख है - फिर चाहे वह एक प्राचीन या बड़ी उम्र का व्यक्ति भी क्यों न हो (देखें सभो- 4:13)। यह विचार भारत के विधर्मी लोगों में विशेष रूप से प्रबल रहता है कि फ्जिसकी ज़्यादा उम्र है, उसमें ज़्यादा बुद्धि है।" यह विचार पृथ्वी की बातों के लिए सही हो सकता है, लेकिन आत्मिक बातों के लिए सही नहीं होता। यीशु ने आराधनालयों में से अपने शिष्य होने के लिए बड़ी उम्र के लोग नहीं चुने, बल्कि उसने युवाओं को चुना। कलीसिया में बड़ी उम्र के लोगों को अकसर एक युवा भाई से, जो प्राचीन भी है और बहुत ईश्वरीय भी, उपदेश ग्रहण करने में मुश्किल होती है। लेकिन यह उनके घमण्ड की वजह से होता है। जो सम्मति पाने के लिए तैयार रहते हैं, वे बुद्धि प्राप्त करते हैं (नीति, 13:10)। इसलिए जिस मण्डली में भाई व बहन उपदेश व ताड़ना भरी सम्मति पाने के लिए तैयार रहते हैं, वहाँ वास्तव में एक महिमामय कलीसिया तैयार हो सकेगी। समझदार मनुष्य उन लोगों से प्रेम करता है जो विश्वासयोग्य रहते हुए उसे उपदेश देते हैं, और वह बड़ी उत्सुकता से उनके साथ संगति करना चाहता है। इस स्तम्भ पर ये शब्द लिखे हैंः "एक-दूसरे के अधीन रहो" (इफि. 5:21)।

5, दया की भरपूरी और उसके अच्छे फल

मसीह की दुल्हन सिर्फ कभी-कभी दया नहीं करती, वह दया से भरपूर रहती है। उसे दिल से किसी को भी आसानी से और ख़ुशी से क्षमा करने में कोई मुश्किल नहीं होती। वह किसी का न्याय नहीं करती और किसी को दोषी नहीं ठहराती बल्कि अपने दूल्हे की तरह सबके प्रति संवेदना से भरी रहती है। यह दया सिर्फ एक मनोदशा नहीं होती बल्कि उसके कार्यों में प्रकट होने वाले अच्छे फलों में अभिव्यक्त होती है। जिस तरह भी हो सके, जितने लोगों के लिए भी हो सके, और जिस समय भी हो सके, वह भला ही करती रहती है।

6, स्थिर रहना

एक भाई जिसमें ईश्वरीय बुद्धि होगी, सब टेढ़ी-मेढ़ी बातों से मुक्त होगा। वह निष्ठावान् और सीधी बात बोलने वाला, साफ-साफ देखने वाला, और संदेह व झिझक से मुक्त होगा। वह दुचित्ता नहीं होगा बल्कि उसका परमेश्वर में मज़बूत विश्वास होगा, और वह अपनी निर्बलताओं की ओर नहीं परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं की ओर देखेगा। ऐसा भाई यह जानेगा कि सचेत स्तर पर होने वाले हरेक पाप पर यहीं और अभी जय पाई जा सकती है। वह एक भरोसेमंद व्यक्ति होता है जिस पर यह भरोसा किया जा सकता है कि वह अपने शब्द को पूरा करेगा। वह स्थिर और दृढ़ रहता है। वह किसी भी मामले में अपनी आस्थाओं में डगमगाता नहीं है और कोई समझौता नहीं करता। वह सीधा और अडिग रहता है।

7, पाखण्ड से मुक्त होना

लोगों को बाहरी तौर पर जितना नज़र आता है, दुल्हन में भीतरी तौर पर उससे ज़्यादा आत्मिक बल होता है। उसके बाहरी जीवन के बारे में दूसरों का जो मत होता है, उसका छुपा हुआ भीतरी जीवन उससे बेहतर होता है। यह बात उस "आत्मिक व्यभिचारीणी" या फ्वेश्या" से बिलकुल विपरीत है जिसकी तथा-कथित आत्मिकता सिर्फ लोगों से आदर पाने के लिए ही होती है। उसके पास सच्ची आत्मिकता नहीं फ्धार्मिकता" होती है। दुल्हन अपने बाहरी शब्दों और कामों से कहीं बढ़कर अपने भीतरी विचारों, उद्देश्यों और मनोभावों पर नज़र रखती है। वह अपने भीतरी जीवन में परमेश्वर की सराहना के लिए लालायित रहती है, और अपने बाहरी जीवन के बारे में उसे मनुष्यों के मत की कोई परवाह नहीं होती। इस परख द्वारा, हम यह जान सकते हैं कि हम दुल्हन का हिस्सा हैं या वेश्या का हिस्सा हैं।

बुद्धि पाने के लिए परमेश्वर के खोजी होना

मसीह की दुल्हन के हृदय में बुद्धि का बीज बोया गया है, इसलिए उसमें साल-दर-साल ये सातों गुण बढ़ते जाएंगे। हालांकि वह सिद्धता से बहुत दूर है, फिर भी वह आगे बढ़ रही है और सिद्ध हो रही है। लेकिन जहाँ ये विशिष्टताएं बिलकुल भी नहीं पाई जातीं, तो किसी भी व्यक्ति या तथाकथित फ्कलीसिया" के लिए यह अपने आपको धोखा देने के अलावा और कुछ नहीं है कि वह मसीह की दुल्हन का हिस्सा है। जहाँ कलह और ईर्ष्या, अशुद्धता, अविश्वास और घमण्ड हैं, वहाँ निश्चित रूप से फ्वेश्या" है, दुल्हन नहीं।

बाइबल कहती है कि हमें ईश्वरीय बुद्धि सिर्फ तभी प्राप्त होती है जब हम उसे इस तरह खोजते हैं जैसे किसी छुपे हुए ख़ज़ाने को ढूंढा जाता है

(नीति. 2:4)। यीशु ने कहा कि स्वर्ग का राज्य एक ऐसे छिपे हुए धन की तरह है कि जब एक मनुष्य ने उसे पा लिया, तो उसने जाकर अपना सब कुछ बेच दिया कि वह उसे प्राप्त कर सके (मत्ती 13:44)। सिर्फ वही लोग बुद्धि पाते हैं और इन सातों स्तम्भों का निर्माण करते हैं जो अपना सब कुछ त्याग देते हैं, अपना सब कुछ परमेश्वर को दे देते हैं, और पृथ्वी की सब बातों को कूड़ा-करकट समझते हैं (जैसा पौलुस ने समझा था - फिलि. 3:8)। सिर्फ ऐसे लोगों के द्वारा ही यीशु मसीह की सच्ची कलीसिया तैयार की जाएगी।

ज्ञान का संग्रह कर लेना या एक कुशल वक्ता बन जाना आसान है। लेकिन इससे आप सिर्फ एक शास्त्री ही बनेंगे। यीशु ने कहा कि हरेक शास्त्री को शिष्य बनना है (मत्ती 13:52)। और इसके लिए एक शास्त्री को अपना सब कुछ त्यागना होगा - जिसमें उसका आदमीय जीवन, और अपना मार्ग स्वयं निश्चित करने की आज़ादी भी शामिल है (लूका 14: 26,33)। सिर्फ इसी तरह वह उस धन को पा सकता है (ईश्वरीय जीवन व बुद्धि) जो परमेश्वर देता है।

तब वह अपने धन में से दूसरों को दे सकेगा - अपने मस्तिष्क में से नहीं अपने हृदय में से। वह दूसरों के साथ वह बाँट सकेगा जो नया है (वचन में से ताज़ी बुद्धि और प्रकाशन) और वह जो पुराना है (वे प्र्राचीन सत्य जो बासी नहीं हुए, उस मन्ना की तरह जो चालीस साल तक वाचा के संदूक में रखे रहने के बाद भी सड़ा नहीं था (मत्ती 13:52)।

जब हम इस ऊँची बुलाहट को और उस मानक को देखते हैं जिसके अनुरूप परमेश्वर हमसे अपेक्षा करता है, तो हम अभीभूत हो सकते हैं। इसलिए पवित्र-आत्मा हमें याकूब 1:5 में एक उत्साहित करने वाला वचन भी देता है। अगर हममें इस बुद्धि की कमी हो (और हममें से कौन यह कह सकता है कि हमें और बुद्धि की ज़रूरत नहीं है?), तो हमें यह आज्ञा दी गई है कि हम परमेश्वर से माँगें। यह प्रभु है जो हमें बुद्धि देता है (नीति. 2:6)। लेकिन हमें विश्वास से माँगना है। अगर हम विश्वास से माँगते हैं, तो हम अपने जीवनों में ये सात स्तम्भ पाएंगे, और परमेश्वर का घर हममें और हमारे द्वारा तैयार होगा।

जिसके सुनने के कान हैं, वह सुने।

अध्याय 18
परमेश्वर की सच्ची कृपा

यही परमेश्वर की सच्ची कृपा है। इसमें दृढ़ बने रहो (1 पतरस 5:12)।

पतरस अपने पत्र के अंत में, यह कहता है कि जो कुछ उसने लिखा है, वह सब परमेश्वर की सच्ची कृपा के बारे में है। इन दिनों, जबकि झूठी कृपा का बहुत प्रचार हो रहा है, यह अच्छा है कि हम पीछे लौटकर पतरस के पहले पत्र में देखें कि परमेश्वर की सच्ची कृपा क्या है, कि फिर हम उसमें दृढ़ बने रह सकें।

यह हक़ीक़त की पतरस ने पहली शताब्दी में ही "परमेश्वर की सच्ची कृपा" जैसा वाक्यांश इस्तेमाल किया है, यह संकेत देता है कि उन दिनों भी शैतान के ऐसे प्रतिनिधियों द्वारा एक झूठी कृपा का प्रचार किया जा रहा था फ्जिन्होंने परमेश्वर की कृपा को लुचपन (पाप करने की अनुमति) में बदल डाला था" (यहूदा 4)।

शुरू में ही पतरस हमें बताता है कि सभी विश्वासी "परमेश्वर के पूर्वज्ञान के अनुसार, और आत्मा के पवित्र करने द्वारा, यीशु मसीह की आज्ञा पालन करने और उसके लहू के झिड़के जाने के लिए चुने गए हैं" (पतरस 1:2)।

परमेश्वर ने हमें चुना कि वह हमें पवित्र करे, और प्रभु यीशु मसीह के आज्ञापालन में हमारी अगुवाई करे। परमेश्वर की सच्ची कृपा की अगुवाई का उद्देश्य हमें इसमें (आज्ञापालन में) पहुँचाना है; और इसलिए पतरस यह प्रार्थना करता है कि जो अपने जीवनों में यह करने की अभिलाषा करते हैं, वे परमेश्वर की कृपा का अपने जीवनों में पूरा अनुभव पाएं।

फिर पतरस कहता है, "इसी उद्धार के बारे में उन नबियों ने सावधानीपूर्वक खोजबीन और जाँच-पड़ताल की, जिन्होंने उस कृपा की, जो तुम पर होने वाली थी, नबूवत की" (1 पतरस 1:10)। जिस कृपा का अनुभव हम नई वाचा में पाते हैं, उसका अनुभव पुरानी वाचा में किसी को भी नहीं हुआ था। इस कृपा के बारे में नबी भी सिर्फ इस तरह नबूवत कर सके कि यह भविष्य में होने वाली एक बात थी। वे स्वयं इसका अनुभव नहीं कर सके थे।

पतरस फिर सभी विश्वासियों से आग्रह करता है कि वे "अपनी पूरी आशा उस कृपा पर रखें जो यीशु मसीह के प्रकट होने पर दी जाने वाली है" (1 पतरस 1:13)।

मसीह जब महिमा में लौटेगा, तब हम पर ऐसी विशेष कृपा होगी जो हमें पूरी तरह उसकी समानता में बदल देगी। हमारे मसीही जीवन के आरम्भ से उसके अंत तक, हममें हुआ परमेश्वर का काम सिर्फ उसकी कृपा ही है।

पतरस एक ख़ुशियों से भरे वैवाहिक जीवन के लिए भी कृपा पाने के बारे में बात करता है।

"इसी प्रकार, हे पतियो, तुम में से हरेक अपनी पत्नी के साथ समझदारी से रहे, उसे निर्बल पात्र जानें, क्योंकि वह स्त्री है। उसे जीवन की कृपा में संगी-वारिस जानकर उसका आदर करें, जिससे तुम्हारी प्रार्थना में बाधा न पहुँचे" (1 पतरस 3:7)।

परमेश्वर यह चाहता है कि विवाहित जोड़े आपस में शांति और सद्भाव से रहें। उनका घर एक संघर्षरत संसार के बीच में शांति का द्वीप होना चाहिए। और ऐसा होने के लिए, बहुत कृपा की ज़रूरत है।

पतरस फिर आत्मिक दानों की बात करता हैः फ्जबकि प्रत्येक को एक विशेष वरदान मिला है, तो उसे परमेश्वर की विविध कृपा के उत्तम भण्डारियों के समान एक-दूसरे की सेवा में लगाओ" (1 पतरस 4:10)।

हरेक आत्मिक वरदान सिर्फ दूसरों की सेवा के लिए ही है, और वह सेवा ही परमेश्वर की सच्ची कृपा को दूसरों तक पहुँचाने का माध्यम है। परमेश्वर की कृपा के बहुत से पहलू हैं। इसलिए परमेश्वर ने विभिन्न पृष्ठभूमियाें वाले, और विभिन्न व्यक्तित्वों और मनोभावों वाले लोगों को लेकर मसीह के देह में एक-साथ जोड़ दिया है कि उनमें से हरेक उनके जीवन और सेवकाई द्वारा परमेश्वर की कृपा के एक अनोखे पहलू को प्रदर्शित कर सके।

नम्र व दीन लोग कृपा व प्रकाशन पाते हैं

"हे नवयुवकों, तुम भी प्राचीनों के अधीन रहो, और तुम सब एक-दूसरे के प्रति विनम्रता धारण करो, क्योंकि परमेश्वर घमण्डियों का तो विरोध करता है, पर दीनों पर कृपा करता है" (1 पतरस 5:5)।

यहाँ पतरस हमारी युवावस्था से ही आत्मिक अधिकार के अधीन होने की बात सीखने का महत्व बता रहा है।

अगर एक युवा 20 साल की आयु में उद्धार पा लेता है, तो आम तौर पर परमेश्वर का यह उद्देश्य होता है कि 35 साल का होने तक उसकी एक प्रभावशाली सेवकाई हो। लेकिन यह होने के लिए यह ज़रूरी है कि 35 साल का होते-होते यह व्यक्ति टूटेपन और नम्रता व दीनता का सबसे महत्वपूर्ण पाठ सीख ले। और यह सिर्फ आत्मिक अधिकार के अधीन होने द्वारा ही सीखा जा सकता है। सिर्फ तभी ऐसा होगा कि वह बाद में अपने घर और सेवकाई में आत्मिक अधिकार इस्तेमाल करने के लिए कृपा पा सकता है। ऐसे युवा जो आत्मिक अधिकार के अधीन नहीं होते, निश्चय ही उस सेवकाई से वंचित रह जाते हैं जो उनके लिए परमेश्वर के मन में होती है।

इसका अर्थ यह नहीं है कि हमारी उम्र हो जाने के बाद हमें नम्र व दीन होने की ज़रूरत नहीं रहती! हमें अपनी छोटी उम्र से बड़ी उम्र वालों के अधीन रहना सीखना चाहिए। लेकिन नम्रता व दीनता के मार्ग में यीशु के पीछे चलते रहना ऐसी बात है जो हमें अपने मरने के दिन तक करते रहना होगा। हमारे जीवन के अंत तक कृपा पाते रहने का सिर्फ यही तरीक़ा है।

बाइबल का ज्ञान हमें कृपा नहीं दे सकता। यह एक अद्भुत सत्य है कि हमारे प्रभु को परमेश्वर से अनजान मूर्तिपूजक रोमियों या यूनानियों ने नहीं बल्कि बाइबल पर विश्वास करने वाले कट्टरपंथी यहूदियों ने सूली पर चढ़ाया था।

यीशु के समय में पृथ्वी के एकमात्र सच्चे धर्म (यहूदीवाद) और एकमात्र सच्चे शास्त्र (उत्पत्ति से मलाकी तक) के ज्ञानियों ने ही यीशु को धोखेबाज़, विधर्मी, और दुष्टात्माओं का सरदार कहा था। वे शास्त्री और फरीसी ज्ञानवान, बाइबल पर विश्वास करने वाले, सुशिक्षित, और पवित्र-शास्त्र के लिए सत्यों के लिए बहुत उत्साही थे। फिर भी, आत्मिक रीति से पूरी तरह अंधे थे। उन्हें कृपा प्राप्त नहीं हुई थी। क्यों?

इस सवाल का जवाब महत्वपूर्ण है, क्योंकि मसीहियत में इतिहास अपने आपको बार-बार दोहराता रहा है।

बाइबल के बहुत जोशीले ज्ञाता आज भी पवित्र-शास्त्र के सच्चे यीशु और परमेश्वर की सच्ची कृपा की तरफ से पूरे अंधे हैं। प्राचीनकाल के फरीसियों की तरह, वे भी परमेश्वर का गुप्त ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते हैं (1 कुरि. 2:7-10)। दोनों ही मामलों में, कारण एक ही हैः वे घमण्डी हैं और मनुष्य से आदर पाना चाहते हैं।

यीशु ने उनसे कहा, फ्तुम कैसे विश्वास कर सकते हो? जबकि तुम स्वयं एक-दूसरे से आदर चाहते हो, और जो आदर अद्वैत परमेश्वर की ओर से है, पाना नहीं चाहते?" (यूहन्ना 5:44)।

जो मनुष्यों के सम्मुख रहना चाहते हैं, और अपना आदर चाहते हैं, वे पवित्र-शास्त्र के सच्चे अर्थ का कभी प्रकाशन नहीं पा सकते, क्योंकि परमेश्वर उन्हें सत्य की ओर से अंधा कर देता है (मत्ती 11:25)।

परमेश्वर ने पवित्र-शास्त्र को इस तरह से लिखा है कि ज्ञानी और चतुर लोग, अगर अपने आपको नम्र व दीन नहीं करेंगे, तो वे उसे नहीं समझ पाएंगे। यह बात पृथ्वी की किसी दूसरी पुस्तक के बारे में नहीं कही जा सकती। बाइबल के अलावा संसार में ऐसी कोई पुस्तक नहीं है जिसे समझने की मूल योग्यता नम्रता है।

एक प्राकृतिक मन (चाहे कितना भी चतुर क्यों न हो), एक नम्र व दीन भाई के अन्दर से आने वाले पवित्र-आत्मा के प्रकाशन को मूर्खता ही समझेगा (1कुरि. 2:14)। परमेश्वर का वचन समझने के लिए कृपा की ज़रूरत होती है।

घमण्डी धर्म-ज्ञानी आज पवित्र-शास्त्र की विभिन्न व्याख्याएं करते हैं। लेकिन वे अपने अंधेपन से पूरी तरह अनजान हैं।

हमें परमेश्वर के सम्मुख अपने आपको दीन करना होगा, और मनुष्यों से आदर और समर्थन पाने की खोज में रहना बंद करना होगा। तब परमेश्वर हम पर वह प्रकट करेगा जो वह दूसरों से छुपा कर रखता है।

परमेश्वर घमण्डियों का विरोध करता है लेकिन दीनों पर कृपा करता है।

अगर हम घमण्डी हैं, तो हमारे धर्म-सिद्धान्त सही होने पर भी हम अंततः फरीसियों जैसे ही बन जाएंगे और आत्मिक सच्चाइयों के प्रति भ्रमित और अंधे बने रहेंगे। तब हम अपने समय में परमेश्वर के सच्चे नबियों को नहीं पहचान सकेंगे, वैसे ही जैसे फरीसी अपने समय में परमेश्वर के सच्चे नबी यीशु को नहीं पहचान सके थे।

हरेक पाप का मूल घमण्ड और स्वार्थ में होता है। इसी प्रकार, मसीह के सारे गुण नम्रता व निःस्वार्थता में होते हैं। हम अपने आपको जितना नम्र व दीन करेंगे, हम परमेश्वर से उतनी ही कृपा पाएंगे। तब हम जयवंत दशा में रहेंगे और अपने जीवन में मसीह के चरित्र को ज़्यादा से ज़्यादा प्रदर्शित करते रहेंगे। अगर कोई पाप पर जय नहीं पाता है, तो इससे यह स्पष्ट होता है कि उसने अपने आपको नम्र व दीन नहीं किया है - क्योंकि वे सब जो अपने आपको दीन करते हैं, वे कृपा पाते हैं (1 पतरस 5:6), और जो भी परमेश्वर की कृपा के अधीन रहता है, वह अवश्य जय पाता है (रोमियों 6:14)।

मसीहियत में नम्रता व दीनता के बारे में बहुत से झूठे विचार भरे हैं।

लेकिन यह एक ऐसी परख है जिसमें अपना मूल्यांकन करने में हम कभी निष्फल नहीं हो सकतेः क्या हमने पाप पर जय पा ली है, और क्या मसीह का स्वभाव हममें ज़्यादा से ज़्यादा प्रदर्शित होता जा रहा है?

पीड़ित होने द्वारा सिद्ध होना

फ्तुम्हारे थोड़ी देर यातना सहने के बाद सारी कृपा का परमेश्वर जिसने तुम्हें मसीह में अनन्त महिमा के लिए बुलाया है, स्वयं ही तुम्हें सिद्ध, दृढ़, बलवंत और स्थिर करेगा" (2 पतरस 5:10)।

यहाँ परमेश्वर को सारी कृपा का परमेश्वर कहा गया है। वह अपने लोगों को पीड़ा में से लेकर चलता है कि वह उन पर कृपा कर सके और उन्हें फ्सिद्ध और दृढ़" करे। पौलुस ने परमेश्वर की सारी कृपा को उसकी देह में एक काँटा चुभाए जाने द्वारा प्राप्त की (कुरि. 12:7-10)।

पतरस के पहले पत्र में भी पीड़ा के ऐसा माध्यम होने के बारे में बहुत कुछ लिखा है जिसके द्वारा परमेश्वर अपनी कृपा हम तक पहुँचाता है।

हम पढ़ते हैं, "मसीह ने भी तुम्हारे लिए दुःख सहा और तुम्हारे लिए एक आदर्श रखा कि तुम भी उसके पद-चिन्हों पर चलो जिसने कोई पाप नहीं किया... इसलिए जबकि मसीह ने शरीर में दुःख उठाया, तो तुम भी इसी अभिप्राय से हथियार धारण करो, क्योंकि जिसने शरीर में दुःख उठाया है, वह पाप से छूट गया है" (1 पतरस 2:21,22; 4:1)।

हमें यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि हम मसीह के पद-चिन्हों पर चलें जिसने दुःख उठाया, कि कभी कोई पाप न करें। कृपा का उद्देश्य हमें पवित्र करना है, "उसी तरह जैसा हमें बुलाने वाला पवित्र है" (1 पतरस 1:16)। पतरस हमें याद दिलाता है कि अगर हम शरीर में दुःख उठाएंगे, तो हम पाप से छूट कर अपना बाक़ी का जीवन परमेश्वर की इच्छा को पूरा करते हुए बिताएंगे (1 पतरस 4:1,2)।

फ्शरीर में दुःख उठाने" का अर्थ देह में बीमार हो जाना नहीं है, क्योंकि इस तरह किसी ने कभी पाप करना नहीं छोड़ा है। इसका अर्थ मसीह के लिए मारे-कूटे जाना और घायल होना भी नहीं है, क्योंकि इस तरह भी किसी ने पाप करना नहीं छोड़ा है। बल्कि इसका अर्थ अपनी ख़ुद की उन लालसाओं को पूरा करने से इनकार करते रहना है जो परमेश्वर की इच्छा के विरोध में हैं। पाप एक ख़ास तरह का आनन्द देता है। पीड़ा सहने का अर्थ उस आनन्द में आनन्द न मनाना है। अगर हम हरेक और सभी परिस्थितियों में पीड़ा सहने को तैयार हैं, तो हम पाप करने से रुक सकते हैं। अगर हममें यह इच्छा होगी, तो परमेश्वर हमारी मदद करेगा। असल में, वह हमें इच्छा करने में भी मदद करता है (फिलि. 2:12,13)। लेकिन हम अकसर हममें होने वाले उसके इस काम का विरोध करते हैं। इसी वजह से हम एक हारी हुई दशा में रहते हैं।

मसीह ने शरीर में दुःख उठाया, और हमें अपने आपको एक ऐसे ही मन द्वारा सुसज्जित करना है। यीशु अपने जीवन भर ख़ुदी-से-इनकार के इसी मन-मिज़ाज में रहा। वह शरीर में पृथ्वी पर आया, और उसने कभी अपनी नहीं हमेशा पिता की इच्छा को पूरा किया, चाहे उसमें उसके लिए कितनी भी पीड़ा सहनी को क्यों न रखी थी (यूहन्ना 6:38)। इसलिए उसने कभी कोई पाप नहीं किया। अब हमारे पास भी यह मौक़ा है कि फ्हम उसके पद्-चिन्हों पर चलें जिसने कभी कोई पाप नहीं किया था" (1 पतरस 2:21, 22)।

यह परमेश्वर की कृपा का सुसमाचार (ख़ुश-ख़बरी) है।

अपने दूसरे पत्र में पतरस हमें याद दिलाता है कि ख़ुश-ख़बरी यह है कि "परमेश्वर ने अपनी ईश्वरीय सामर्थ्य में हमें वह सब कुछ प्रदान किया है जो जीवन और भक्ति से सम्बंध रखता है" (2 पतरस 1:3,4)। और अगर हमने भी वही फ्बहुमूल्य विश्वास" पाया है (2 पतरस 1:1 कोष्ठक) जैसा पतरस का था, तो हम भी वही कृपा और परमेश्वर के उसी स्वभाव में से पाएंगे, जिसमें से उसने पाया था।

तब मसीह का चरित्र - फ्नैतिक गुण, ज्ञान, संयम, धीरज, भक्ति, भाईचारा, और प्रेम हममें बढ़ता रहेगा (2 पतरस 1:5-11) - हमें फलवंत करेगा, और हमारे सारे अंधेपन और अदूरदर्शिता को दूर करेगा" (पद 8,9)।

हरेक जो मसीह में बना रहता है बहुत फल फलता है (यूहन्ना 15:5)। इसलिए, अगर मसीह के ये गुण हममें निरंतर बढ़ते हुए प्रकट नहीं हो रहे हैं, तो यह इस बात का संकेत होगा कि हम यीशु में बने हुए नहीं हैं और हम परमेश्वर की सच्ची कृपा की अधीनता में नहीं जी रहे हैं।

कृपा हमें एक करती है

जो अपने आपको नम्र व दीन करते हैं, वे न सिर्फ जयवंत होने, बल्कि एक-दूसरे के साथ एक होने के लिए भी कृपा प्राप्त करते हैं। जैसे हमने पहले देखा कि पति-पत्नी फ्जीवन की कृपा पाने में संगी वारिस" हो सकते हैं, वैसे ही विश्वासी भी वह कृपा पा सकते हैं जो उन्हें मसीह की देह में दूसरे विश्वासियों के साथ संगी वारिस बना सकती है।

पृथ्वी पर अपने जीवन की आिख़री रात में यीशु ने यह प्रार्थना की थी कि हम आपस में वैसे ही एक हों जैसे पिता और वह एक हैं (यूहन्ना 17:22)। और उसने यह प्रार्थना की कि हम उस एकता का अनुभव इसी संसार में पाएं (यूहन्ना 17:21,23)।

यह कोई समझ की एकता नहीं है, बल्कि आत्मा की एकता है। हमारे अपने स्वभाव के पापमय होने, और हमारी सोच-समझ (मन) के पाप से विकृत होकर सीमित होने की वजह से यह हो सकता है कि हम पृथ्वी पर अपने भाइयों के साथ हरेक बात में एकमत न हों सकें। लेकिन इसका हमारी आत्मिक एकता से कोई सम्बंध नहीं है। अपने हृदय में हम फिर भी एक हो सकते हैं।

एकता की कमी की सारी वजह यह है कि हम अपनी इच्छा पूरी करना चाहते हैं, अपने शीर्ष (सिर) की नहीं। इसका धर्म-सिद्धान्त के बारे में हमारी समझ से कोई सम्बंध नहीं है। इसका सम्बंध सिर्फ इस बात से है कि क्या हम अपनी इच्छा को पूरा करने से इनकार करते हुए सिर्फ पिता की इच्छा को पूरा करना चाहते हैं या नहीं।

यीशु ने हमेशा उसका पालन किया जो उसने अपने पिता को कहते सुना। पिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारी होना उसका भोजन था (यूहन्ना 4:34)।

यीशु पिता के साथ एक था। परमेश्वर की सच्ची कृपा द्वारा हमें भी इसी एकता में बुलाया गया है।

यीशु ने हमेशा बुराई पर अच्छाई से जय पाई। बुराई का उस पर कोई ज़ोर नहीं चल सका था क्योंकि वह हमेशा भला करने में लगा रहता था। अगर हम भी फ्भलाई से बुराई को जीतते रहेंगे", तो हमारे साथ भी ऐसा ही होगा (रोमि 12:21)। जब दूसरे लोग हमसे घृणा करते औंर हमारे बारे में बुरी बातें करते हैं, तो उनके साथ भला करने द्वारा हम उस बुराई को जीत सकते हैं। यह तभी सम्भव होता है जब हम परमेश्वर की सच्ची कृपा पाते हैं।

तब, जैसी यीशु ने प्रार्थना की थी, हम उस बुराई से बचे रह सकेंगे जो संसार में है (यूहन्ना 17:15), और इसी मार्ग पर चलने वाले दूसरे लोगों के साथ एक हो सकेंगे।

वह कलीसिया जिसका निर्माण यीशु कर रहा है, वह कलीसिया है जिसने कृपा प्राप्त की है - परमेश्वर की सच्ची कृपा - कि वे सिर अर्थात् मसीह में एक हो सकें। सिर्फ ऐसी कलीसिया ही अधोलोक के फाटकों पर जय पा सकती है (मत्ती 16:18)।

अध्याय 19
अन्य भाषाओं में बोलने का सत्य

फ्प्रत्येक अच्छी वस्तु और उत्तम दान तो ऊपर ही से है और ज्योतियों के पिता की ओर से मिलता है जो कभी बदलता नहीं और न छाया के समान परिवर्तनशील है" (याकूब 1:17)।

परमेश्वर कभी कोई ग़लती नहीं करता। वह कभी नहीं बदलता और वह हमेशा सिर्फ सिद्ध दान-वरदान ही देता है। इसलिए जब उसने पिन्तेकुस्त के दिन कलीसिया को अनजानी भाषाओं (बोलियों) का दान दिया, तब वह जानता था कि वह क्या कर रहा है। "अन्य भाषाओं" का वरदान एक सिद्ध वरदान था। परमेश्वर ने अपने वरदान के बारे में अपना विचार नहीं बदला है। वह कभी नहीं बदलता।

इस वरदान के बारे में 20वीं शताब्दी में जो विवाद खड़े होने वाले थे, परमेश्वर उन्हें जानता था। फिर भी उसे मालूम था कि कलीसिया को उसकी सेवकाई पूरी करने के लिए इस वरदान की ज़रूरत है।

मसीहियत के इतिहास में ऐसे प्रमुख सत्यों का भी विरोध हुआ और वे विवादास्पद रहे हैं जैसे त्रिएकता, मसीह का आराध्य देव होना, मसीह की मानवीयता और पवित्र-आत्मा का व्यक्तिपन। इसलिए इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि "अन्य भाषाओं" के वरदान भी विवादास्पद रहे हैं।

धर्म-सैद्धान्तिक मामलों में हमेशा वही थामे रहना अच्छा होता है जो पवित्र-शास्त्र उनके बारे में कहता है। इसलिए हम, किसी भी विचार से पूर्व-ग्रसित हुए बिना, बाइबल के हरेक उस वचन की ओर देखें जो "अन्य भाषाओं" के बारे में है।

पहला सत्यः

मरकुस 16:17,18: (यीशु ने कहा,) फ्विश्वास करने वालों के ये चिन्ह् होंगेः 'मेरे नाम से वे दुष्टात्माओं को निकालेंगे, और नई-नई भाषाएं बोलेंगे...

वे बीमारों पर हाथ रखेंगे, और वे चंगे हो जाएंगे।"

यीशु ने कहा कि फ्विश्वास करने वालों" की मण्डली में ये चिन्ह् पाए जाएंगे कि वे नई-नई भाषा बोलेंगे, दुष्टात्माओं को निकालेंगे, और बीमारों को चंगा करेंगे। उसने यह नहीं कहा था कि ये चिन्ह् हरेक विश्वासी में होंगे। लेकिन उसने यह कहा था कि ये चिन्ह् फ्विश्वास करने वालों" की मण्डली में होंगे।

इसलिए हरेक विश्वासी में ये सभी चिन्ह् होने ज़रूरी नहीं हैं, और न ही हरेक मण्डली में ये सभी चिन्ह् होने ज़रूरी हैं। लेकिन ये पूरे विश्व में फैली कलीसिया में पाए जाएंगे। यह फैसला करना पवित्र-आत्मा की प्रभुसत्ता में है कि वह किसे कौन सा दान-वरदान देता है।

दूसरा सत्यः

प्रेरितों 2,4,7,11: फ्वे सब पवित्र-आत्मा से भर गए और जैसे पवित्र-आत्मा ने उन्हें बोलने की सामर्थ्य दी, वे अन्य-अन्य भाषाओं में बोलने लगे... और प्रत्येक देश से आए यहूदी आश्चर्य-चकित और विस्मित होकर कहने लगे... हम अपनी-अपनी भाषा में इनसे परमेश्वर के सामर्थी कामों की चर्चा सुन रहे हैं।"

पहली बार जब विश्वासी पवित्र-आत्मा से भरे गए, तो उन सभी ने अन्य-भाषाओं में बात की थी। वे फ्भाषाएं" ऐसी बोलियाँ थीं जो सभी फौरन समझ गए थे। इसलिए अनुवाद के वरदान की कोई ज़रूरत नहीं थी।

पद 4 में इस बात पर भी ध्यान दें कि वह पवित्र-आत्मा नहीं बल्कि लोग थे जिन्होंने बोलना शुरू किया था। पवित्र-आत्मा ने उनकी जीभ नहीं चलाई थी। पवित्र-आत्मा ने उन्हें सिर्फ बोली दी थी। वे अपने आप बोले थे।

किसी भी वरदान में, पवित्र-आत्मा हमारी चुनाव की आज़ादी हमसे नहीं ले लेता है। असल में, "आत्म-संयम" पवित्र-आत्मा का फल है (गलातियों 5:23)। सिर्फ दुष्टात्माओं के वश में पड़े लोग ही अपना आत्म-संयम खो देते हैं। जो पवित्र-आत्मा से भरा होता है, वह दूसरे लोगों से ज़्यादा संयम में रहता है। फ्नबियों की आत्मा नबियाें के वश में रहती हैं" (1 कुरि.14:32)।

तीसरा सत्यः

प्रेरितों. 10:46: फ्वे उन्हें अन्य-अन्य भाषाओं में बोलते और परमेश्वर की महिमा करते हुए सुन रहे थे।"

यहाँ, कुरनेलियुस के घर में, जो भी उसके घर में मौजूद थे, उन सबके मसीह की तरफ मन-फिराने के क्षण में ही उनका पवित्र-आत्मा में भी बपतिस्मा हुआ था। वे "अन्य भाषाओं" में बोलते हुए परमेश्वर की बड़ाई (उसकी स्तुति) कर रहे थे - वे लोगों से बात नहीं कर रहे थे, जैसा कि पैन्तेकुस्त के दिन हुआ था।

चौथा सत्यः

प्रेरितों- 19:6: फ्जब पौलुस ने उन पर अपने हाथ रखे, तो पवित्र-आत्मा उन पर उतरा और वे अन्य-अन्य भाषाएं बोलने लगे और नबूवत करने लगे।"

इफिसुस में जब पौलुस ने विश्वासियों पर हाथ रखे, तब पवित्र-आत्मा उन पर उतरा। यहाँ जो "अन्य-अन्य भाषाएं" हैं, वे नबूवत प्रतीत होती हैं।

ख्फ्प्रेेरितों के कामों" की इन घटनाआें के बारे में इन वास्तविकताओं पर ध्यान देंः

ं- प्रेरितों के काम अध्याय 2 में उन्होंने पानी के बपतिस्मे के बाद पवित्र-आत्मा पाया था, जबकि प्रेरितों के काम 10 में उन्होंने पानी के बपतिस्मे से पहले पवित्र-आत्मा का बपतिस्मा पाया था।

इ- प्रेरितों के काम 2 व 10 में उन्होंने बिना हाथ रखे पवित्र-आत्मा पाया था। प्रेरितों के काम 19 में उन्होंने पौलुस के हाथ रखने के बाद पवित्र-आत्मा पाया था।

(इससे यह साबित होता है कि पवित्र-आत्मा पाने का कोई निश्चित तरीक़ा/नमूना नहीं है। वह पानी के बपतिस्मे के पहले हो सकता है, या पानी के बपतिस्मे के बाद हो सकता है, या हाथ रखे बिना हो सकता है, या हाथ रखने से हो सकता है।)

ब- प्रेरितों के काम 8:14-18 में, जब सामरिया में शिष्य पवित्र-आत्मा पा रहे थे, तो वहाँ इस बात का उल्लेख नहीं है कि वे अन्य-भाषा में बोल रहे थे। लेकिन शिमौन जादूगर ने कुछ चिन्ह् देखा था (हमें यह नहीं बताया कि वह क्या था) कि उसने भी वही क्षमता प्राप्त करनी चाही जो पतरस के पास थी।,

पाँचवाँ सत्य

1 कुरि.12:7,8,10: फ्क्योंकि प्रत्येक को सबकी भलाई के लिए एक आत्मिक वरदान दिया जाता है। क्योंकि एक को आत्मा के द्वारा बुद्धि का वचन, और दूसरे को उसी आत्मा के द्वारा ज्ञान का वचन दिया जाता हैं... किसी को अन्य-अन्य भाषाएं बोलने, और किसी को भाषाओं का अर्थ बताने का दान दिया जाता है।"

अन्य भाषाओं का वरदान फ्सबकी भलाई" - कलीसिया की भलाई के लिए है। यह पैन्तेकुस्त के 25 साल बाद लिखा गया था, और तब भी पवित्र-आत्मा द्वारा फ्सबकी भलाई के लिए" अन्य भाषाओं का वरदान दिया जा रहा था।

छठा सत्यः

1 कुरिन्थियों 12:11: फ्परन्तु वही एक आत्मा ये सब काम करवाता है, और अपनी इच्छानुसार जिसे जो चाहता है, बाँट देता है।"

यह शायद सबसे स्पष्ट शब्द है जो यह सिखाता है कि यह पवित्र-आत्मा है जो अपनी सर्वसत्ता में यह तय करता है कि किसे क्या वरदान देना है (जिसमें अन्य भाषा का दान भी शामिल है)। किसे क्या वरदान देना है, इस बारे में हम उसे कोई निर्देश नहीं दे सकते।

सातवाँ सत्यः

1 कुरिन्थियों 12:28: "परमेश्वर ने कलीसिया में पहले प्रेरित, दूसरे नबी, तीसरे शिक्षक, फिर... अन्य-अन्य भाषाएं बोलने वालों को नियुक्त किया है।" यह परमेश्वर है जिसने कलीसिया में अन्य-अन्य भाषाएं ठहराई हैं। इसलिए हमें इस वरदान का कभी विरोध नहीं करना चाहिए, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि हम परमेश्वर का विरोध करने वाले ठहरें। याद रखें कि उसमें हमसे ज़्यादा बुद्धि है।

आठवाँ सत्यः

1 कुरिन्थियों 12:30: फ्क्या सबको चंगा करने का वरदान मिला है? क्या सब अन्य भाषाएं बोलते हैं? क्या सब उनका अर्थ बताते हैं?"

सभी विश्वासी अन्य-भाषाओं में नहीं बोलते, जैसे सभी विश्वासियों के पास चंगाई का वरदान नहीं है।

इसलिए, यह स्पष्ट है कि परमेश्वर की सोच में "अन्य-भाषाएं" सभी विश्वासियों के लिए एक अनिवार्य वरदान नहीं है - न तो पवित्र होने के लिए, और न ही उसकी सेवा में प्रभावी होने के लिए। अगर ऐसा होता, तो वह ये दान सबको देता।

नौवां सत्यः

1 कुरिन्थियों 13:1: "अगर मैं मनुष्यों और स्वर्गदूताें की भाषाएं बोलूँ, और प्रेम न करूँ, तो मैं ठनठनाती घण्टी और झनझनाती झाँझ हूँ।"

प्रेम किए बिना अन्य-भाषाओं में बोलना व्यर्थ है। अन्य-भाषाएं बोलने वालों का गर्व से भरा होना, और उनका अन्य-भाषाएं न बोलने वालों को फ्तुच्छ जानना", सिर्फ प्रेम न करने की वजह से होता है। ऐसे प्रेम-रहित अन्य-भाषा बोलने वाले विश्वासी, परमेश्वर के लिए उतने ही अरुचिकर हैं जितनी हमारे लिए एक शोर मचाने वाली घण्टी होती है।

दसवाँ सत्य

1 कुरिन्थियों 13:8: फ्प्रेम कभी निष्फल नहीं होता; नबूवतें हों तो समाप्त हो जाएंगी, भाषाएं हों तो जाती रहेंगी, और ज्ञान हो तो लुप्त हो जाएगा। क्योंकि हमारा ज्ञान अधूरा है, और हमारी नबूवतें अधूरी हैं। लेकिन जब सर्वसिद्ध आएगा, तो अधूरापन मिट जाएगा।"

मसीह के आने पर जब सर्वसिद्धता आएगी, तब अन्य भाषा में बोलने की कोई ज़रूरत नहीं रहेगी।

स्वर्ग में "अन्य-भाषा" की कोई ज़रूरत नहीं होगी - वैसे ही, जैसे बाइबल के ज्ञान और नबूवत की कोई ज़रूरत नहीं रहेगी।

इसलिए अन्य-भाषा एक अस्थाई दान है जिसकी सिर्फ पृथ्वी की अधूरी बातों में ही ज़रूरत है।

इससे यह समझ आ जाता है कि यीशु को अन्य-भाषाओं में बोलने की क्यों ज़रूरत नहीं पड़ी। इसलिए क्योंकि उसका मन पूरी तरह से शुद्ध था और इसलिए भी क्योंकि वह हर समय पिता के साथ एक सिद्ध एकता में बना रहता था।

ग्यारहवाँ सत्यः

1 कुरिन्थियों 14:2: फ्जो अन्य भाषा में बोलता है, वह मनुष्यों से नहीं परमेश्वर से बोलता है; क्योंकि उसकी कोई नहीं समझता और वह आत्मा में भेद की बातें बोलता है।"

जिस अन्य-भाषा के वरदान की यहाँ बात की जा रही है, वह स्पष्ट रूप में उस वरदान से अलग है जो पिन्तेकुस्त के दिन प्रदर्शित हुआ था - क्योंकि यह वरदान फ्मनुष्यों से नहीं परन्तु परमेश्वर" से बात करने वाला है, और कोई यह समझ नहीं सकता कि बोलने वाला क्या कह रहा है।

बारहवाँ सत्यः

1 कुरिन्थियों 14:4: फ्जो अन्य-भाषा में बोलता है, वह अपनी ही उन्नति करता है।"

अन्य-भाषा का वरदान एक विश्वासी को आत्मिक रीति से उन्नत करने के लिए है।

तेरहवाँ सत्यः

"अब मैं चाहता तो हूँ कि सब अन्य-भाषाएं बोलते, लेकिन इससे भी बढ़कर यह कि तुम भविष्यवाणी करो; क्योंकि जो भविष्यवाणी करता है वह उससे भी बढ़कर है जो अन्य-भाषा बोलता तो है, लेकिन अनुवाद नहीं करता कि कलीसिया की उन्नति हो। भाइयो, अगर मैं तुम्हारे पास आकर अन्य-भाषाओं में बोलूँ तो मुझ से तुम्हें क्या लाभ होगा जब तक कि मैं प्रकाशन, या ज्ञान, या नबूवत या शिक्षा की बात न बोलूँ।"

पौलुस की इच्छा थी कि सभी अन्य-भाषाओं में बात करते। यह एक और ऐसा पद है जो स्पष्ट रूप में यह बताता है कि सभी विश्वासी अन्य-भाषाओं में नहीं बोलते।

यहाँ पौलुस की यह इच्छा उसी इच्छा की तरह है जिसमें उसने यह चाहा था कि सभी उसकी तरह अविवाहित रहते (जैसा उसने इसी पत्री में पहले चाहा था - 1 कुरि. 7:7)। पौलुस को अकेले रहने में कुछ लाभ नज़र आए थे। उसे अन्य-भाषाओं में बोलने में भी कुछ लाभ नज़र आए थे। लेकिन उसने यह भी समझा था कि जैसे परमेश्वर "अविवाहित रहने का वरदान" सिर्फ कुछ विश्वासियों को ही देने के लिए सर्वसत्ता-सम्पन्न है, वैसे ही वह "अन्य-भाषा में बोलने का वरदान" भी सिर्फ कुछ विश्वासियों को ही देने के लिए सर्वसत्ता-सम्पन्न है।

इसलिए ऐसी अपेक्षा करना कि सभी विश्वासी अन्य-भाषाआें में बोलें, उतनी ही मूर्खतापूर्ण अपेक्षा है कि सभी विश्वासी अविवाहित रहें!

कलीसियाई सभा में, नबूवत करना (अर्थात् "आत्मिक उन्नति, उपदेश व सान्त्वना देने" के लिए परमेश्वर का वचन बोलना - 1 कुरि. 14:3) अन्य-भाषा में बोलने से ज़्यादा अच्छा है। लेकिन अगर अन्य-भाषा का अनुवाद किया जा रहा है, तो वह नबूवत के समान है।

चौदहवाँ सत्यः

1 कुरिन्थियों 14:9,13: "इसी तरह तुम भी, अगर जीभ से साफ-साफ न बोलो, तो जो बोला गया है वह कैसे समझा जाएगा? …इसलिए जो अन्य-भाषा बोलने वाला हो, वह प्रार्थना करे कि वो उसका अनुवाद करने की सामर्थ मांगे।"

अगर कलीसियाई सभा में "अन्य-भाषाओं" में बोला जाता है, तो उनका अनुवाद भी होना चाहिए।

पन्द्रहवाँ सत्यः

1 कुरिन्थियों 14:14: फ्क्योंकि अगर मैं अन्य-भाषा में प्रार्थना करूँ तो मेरी आत्मा तो प्रार्थना करती है, लेकिन मेरी बुद्धि काम नहीं देती। मैं आत्मा से गाऊँगा और बुद्धि से भी गाऊँगा।"

आत्मा में प्रार्थना करते समय, एक व्यक्ति यह नहीं समझ पाता कि वह क्या प्रार्थना कर रहा है। फिर भी पौलुस को ऐसा लगा कि उसे "आत्मा में" (अन्य-भाषा मेंं) भी उसी तरह प्रार्थना करना और गाना चाहिए जैसा वह अपनी बुद्धि से (एक ज्ञात-भाषा में) प्रार्थना करता व गाता है।

सोलहवाँ सत्यः

1 कुरिन्थियों 14:18: फ्मैं परमेश्वर का धन्यवाद करता हूँ कि मैं तुम सब से बढ़कर अन्य-अन्य भाषाओं में बोलता हूँ।"

पौलुस ने इस वरदान के लिए परमेश्वर को धन्यवाद दिया, इसलिए इस वरदान से उसे ज़रूर कुछ मदद मिली होगी।

सत्रहवाँ सत्यः

1 कुरिन्थियों 14:19: फ्फिर भी कलीसिया में अन्य-भाषा में दस हज़ार शब्द बोलने की अपेक्षा अपनी बुद्धि से पाँच शब्द बोलना ही अच्छा समझता हूँ कि दूसरों को भी शिक्षा दे सकूँ।"

कलीसिया में ऐसी भाषा बोलना ही सबसे अच्छा है जो सबको समझ आती है।

अट्ठारवाँ सत्यः

1 कुरिन्थियों 14:22: "अन्य-भाषाएं विश्वासियों के लिए अविश्वासियों के लिए चिन्ह् हैं।"

अन्य-भाषाएं अविश्वासियों के लिए एक चिन्ह् हैं - जैसा कि पिन्तेकुस्त के दिन हुआ था।

b

1 कुरिन्थियों 14:23: "अगर सारी कलीसिया एक जगह इकट्ठी हो, और अगर सारे अन्य-भाषा में बोलें, और कोई अनजान या अविश्वासी मनुष्य भीतर आएं, तो क्या वे यह न कहेंगे कि तुम पागल हो?"

एक कलीसियाई सभा में अन्य-भाषा में बोलना पागलपन है - क्योंकि किसी को यह समझ नहीं आएगा कि क्या कहा जा रहा है। (यह ज़रूर व्यक्तिगत तौर पर अन्य-भाषा में बोलने के बारे में है, क्योंकि सामूहिक रूप में प्रार्थना करते हुए तो हम उनकी प्रार्थना भी नहीं सुनते जो एक जानी-पहचानी भाषा में प्रार्थना करते हैं।)

बीसवाँ सत्यः

1 कुरिन्थियों 14:26,27: फ्भाइयो, फिर क्या करना चाहिए? जब तुम एकत्रित होते हो प्रत्येक के मन में भजन, या उपदेश, या प्रकाशन, या अन्य-भाषा या अन्य-भाषा का अनुवाद होता है। सब कुछ आत्मिक उन्नति के लिए होना चाहिए। अगर कोई अन्य-भाषा में बोले, तो या ज़्यादा-से-ज़्यादा तीन जन क्रम में बोलें, और एक व्यक्ति व्याख्या करे।"

किसी भी कलीसियाई सभा में, दो या तीन से ज़्यादा लोग अन्य-भाषा में न बोलें, लेकिन हरेक "अन्य-भाषा" की व्याख्या होनी चाहिए। फ्व्याख्या" "अनुवाद" नहीं होता। अनुवाद फ्शाब्दिक" होता है, जबकि व्याख्या "एक विचार को अपने शब्दों में व्यक्त करना होता है।"

इक्कीसवाँ सत्य

1 कुरिन्थियों 14:39: "इसलिए मेरे भाइयो, नबूवत करने की धुन में रहो, लेकिन अन्य-भाषाएं बोलने वालों को मत रोको।"

यह निष्कर्ष है। अन्य-भाषाओं के बोले जाने को मत रोको। लेकिन अगर आपके अन्दर एक दान पाने की अभिलाषा है, तो अन्य-भाषा से बढ़कर नबूवत का दान पाने की खोज में रहें।

सच्ची अन्य-भाषा व उसकी जालसाज़ी भरी नकल

अन्य-भाषा के वरदान में कुछ रहस्यमयी बात है, जैसा कि हरेक अन्य-भाषा बोलने वाले को ईमानदारी से स्वीकार करना पड़ेगा। हमें उसके बारे में सब कुछ मालूम नहीं है। हमें सिर्फ आंशिक रूप में ही मालूम है। (1 कुरि. 13:12)।

एक ऐसा व्यक्ति होते हुए जो पिछले 24 सालों से अन्य-भाषा में बोल रहा है, मैं अपनी ओर से यहाँ कुछ शब्द जोड़ना चाहता हूँ जो इस दान के बारे में मैंने अपने अनुभव से सीखा है।

जब एक व्यक्ति अन्य-भाषा में बोलता है, तो उसकी आत्मा (हृदय) ऐसे शब्द बोलती है (उसके मन में से न गुज़रते हुए, सीधे उसके हृदय में से उसके मुख में पहुँचते हैं) और इस तरह जो कुछ उसके हृदय में होता है वह सीधा परमेश्वर के आगे उण्डेल देता है - फिर चाहे वह आनन्द की भरपूरी हो, या पीड़ा या निराशा से पैदा हुआ भारी बोझ हो। इस तरह उसके हृदय पर बना दबाव उतर जाता है। वह इस तरह "उन्नत" होता है।

जैसा हमने पहले प्रेरितों के काम 2:4 में देखा था, जब कोई अन्य-भाषा में बोलता है, तो वह पवित्र-आत्मा नहीं, बल्कि स्वयं व्यक्ति बोलता है। विश्वासी उन शब्दों को स्वयं बनाता है, ठीक उसी तरह जैसे वह एक जानी-पहचानी भाषा के शब्दों को बनाता है। इसमें सिर्फ इतना फर्क़ होता है कि अब वह प्रार्थना में एक जानी-पहचानी भाषा का इस्तेमाल नहीं करता है, बल्कि प्रभु पर ध्यान लगाए हुए, सीधे अपने हृदय से आने वाले उन शब्दों को अपने मुख से बोलता है जो उसके मन में से नहीं गुज़रते; वह यह जानता है कि चाहे उसके बोले हुए शब्द स्वयं उसे समझ नहीं आ रहे हैं, फिर भी परमेश्वर तो उसके हृदय की लालसाओं और वेदनाओं को जानता ही है।

तनाव के पलों में, एक विश्वासी अपने बोझ को इस तरह उतार सकता है, ख़ास तौर पर तब जब उसका मन एक ज्ञात भाषा में प्रार्थना करने के लिए बहुत थका हुआ होता है। हम यह नहीं बता सकते कि यह कैसे होता है, लेकिन यह इसी तरह होता है।

अब हम व्याख्या के वरदान पर ध्यान देते हैं। जैसा हमने देखा है, अन्य-भाषा की व्याख्या नबूवत के बराबर ही है। इसलिए यह वरदान पवित्र-आत्मा सामान्य रूप में उसे ही देगा जिसके पास नबूवत का भी वरदान है।

एक कलीसियाई सभा में, अगर कोई अन्य-भाषा में बोलता है, तो जिसके पास नबूवत का दान है (अकसर प्राचीनों में से एक), और अगर वह परमेश्वर की ज्योति में चल रहा होगा, तो वह अपने मन में एक विचार का दबाव महसूस करेगा, और यह तभी होगा जब वह "अन्य-भाषा" असल में परमेश्वर की ओर से होगी। फिर वह उस विचार को अपने शब्दों में बोलेगा - क्योंकि वह अनुवाद नहीं, व्याख्या है।

अगर एक अन्य प्राचीन ने भी (जिसके पास व्याख्या का दान है) उस "अन्य-भाषा" की व्याख्या की होती, तो उसकी व्याख्या भी वही होती (हालांकि वह उस प्राचीन के अपने शब्दों में होती)। यह तभी होगा अगर वे दोनों प्राचीन प्रभु के साथ एक सिद्ध संपर्क में होंगे।

परमेश्वर की ओर से आने वाला कोई भी प्रकाशन क्योंकि बाइबल में लिखी किसी बात का विरोध नहीं कर सकता, इसलिए वह व्याख्या पवित्र-शास्त्र के अनुसार ही होगी - वैसे ही जैसे एक नबूवत हमेशा ही वचन के अनुसार होती है।

जो आत्मिक वरदानों पर संदेह करते हैं, यह सवाल करते हैंः एक ऐसी "अन्य-भाषा" को जिसकी एक सभा में व्याख्या की गई है, टेप में रिकॉर्ड कर लिए जाए और किसी दूसरी जगह में एक दूसरे व्यक्ति से (जिसके पास व्याख्या का दान है) उसकी व्याख्या करने के लिए कहा जाए, तो क्या उसकी व्याख्या पहली व्याख्या जैसी ही होगी? इसका जवाब हैः अगर दोनों व्याख्याकर्ताओं को प्रभु के मन की सही समझ है तो वह पहली व्याख्या जैसी ही होनी चाहिए। अगर व्याख्याओं में फ़र्क है, (और सिर्फ शब्दों में ही नहीं), तो यह इस बात का संकेत है कि एक या फिर दोनों ही व्याख्याकर्ता प्रभु के साथ ऐसी सिद्ध एकता में नहीं हैं कि वे प्रभु के मन को एक सिद्ध रूप में समझ सकें।

नीचे दिया गया उदाहरण इस वास्तविकता को एक निर्विवाद रूप से प्रमाणित कर देगा। मान लें कि आपको किसी सभा में बोलना है, और आपके हृदय पर एक ऐसा संदेश रखा हुआ है जिसके लिए आपको ऐसा महसूस हो रहा है कि उस सभा के लिए वही प्रभु का बोझ है। फिर, अगर आप उस सभा में किसी कारणवश नहीं जा पाते हैं, और आपकी जगह कोई दूसरा व्यक्ति वहाँ आकर बोलता है, तो ऐसा होना चाहिए उस भाई का संदेश (चाहे वह उसे अपने शब्दों में बोल रहा है) वही होना चाहिए जो आपके हृदय पर था। अगर वह भाई वह संदेश नहीं देता जो आपके हृदय पर था, तो यह इस बात का संकेत है कि उस सभा के लिए आप में से एक व्यक्ति को प्रभु के मन की सही समझ नहीं थी। तो हम देखते हैं कि विश्वासी इस तरह परखे जाने पर भी निष्फल हो सकते हैं जबकि उनके द्वारा दिया गया संदेश एक जानी-पहचानी भाषा में है।

यही वजह है कि बाइबल हमें एक नबी के संदेश को भी परखने के लिए कहती है (1 कुरि. 14:29)। इसी तरह, हमें "अन्य-भाषाओं" व उनकी फ्व्याख्याओय्ं को परखना चाहिए। ऐसे मामलों में हम क्या फैसला कर सकते हैं? बस यहीः क्या हमारी आत्मओं की साक्षी यह है कि वह बोली (नबूवत, अन्य-भाषा या व्याख्या) पवित्र-शास्त्र के अनुसार (और प्रभु की ओर से) है या नहीं।

हमें यह चेतावनी दी गई है (1 यूहन्ना 4:1) कि हम हरेक आत्मा पर भरोसा न करें बल्कि "आत्माओं को परखें कि वे परमेश्वर की ओर से हैं या नहीं।" इसलिए जब भी हम सार्वजनिक रूप में "अन्य-भाषाएं" या व्याख्याएं सुनें, तो हमें अपनी आत्माओं में उन्हें परखना है। जो हम सुनते हैं, हो सकता है कि उनमें से बहुत सी "अलौकिक बोलियाँ" परमेश्वर की तरफ से न हों। अगर किसी भी कारण से हमें अपनी आत्मा में एक "अन्य-भाषा" या उसकी व्याख्या से बेचैनी महसूस होती है, तो हमें उसे अस्वीकार कर देना चाहिए।

इस शताब्दी में, मसीही जगत में सबसे ज़बरदस्त गड़बड़ मचाने वाली, और प्रभु के नाम को बदनाम करने वाली भी, यही बात रही है कि सभी अलौकिक और असामान्य बातों को बिना सवाल किए स्वीकार कर लिया गया है।

फ्प्रेरितों के कामों" में अन्य-भाषा में बोलने वाली घटनाओं की इन वास्तविकताओं के बारे में विचार करेंः

ं- हरेक मामले में, अन्य-भाषाओं में बोलना तात्कालिक था।

इ- हरेक मामले में, सभी अन्य-भाषाओं में बोले थे - उनमें कोई अपवाद नहीं था।

ब- हरेक मामले में, किसी ने किसी को अन्य-भाषाओं में बोलने के लिए सिखाया नहीं था, उकसाया नहीं था, निदेर्शित नहीं किया था।

लेकिन आज, ज़्यादातर जगहों में, उपरोक्त में से एक विशिष्टता भी नहीं पाई जाती। सिर्फ ऐसी जगह में, जहाँ अन्य-भाषा का दान बिना सिखाए तत्काल रूप में ग्रहण किया है, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि वह असली हो सकता है।

मैंने जितनी जगह भी "अन्य-भाषा में बोलना" सुना है, मेरी आत्मा ने उनमें से सिर्फ कुछ प्रतिशत के ही असली होने की साक्षी दी है। बाक़ी सभी के बारे में मैंने यही महसूस किया है कि वह असली वरदान की सिर्फ नकल करने की कोशिश ही थी - या तो एक समूह में दूसरों द्वारा स्वीकार किए जाने के लिए, या उन्हें प्रभावित करने के लिए। उनमें से कुछ प्रतिशत का मूल शैतानी भी हो सकता है। मेरे इन विचारों का आधार वह फल और परिणाम हैं जो मैंने देश-विदेश में बहुत सी जगहों में और बहुत से लोगों के जीवनों में देखें हैं। बहुत सी कलीसियाओं में अन्य-भाषाओं में बोलना व गाना अकसर एक प्रकार के फ्दिखावे" के रूप में होता है - और दिखावा छोटे बच्चों का लक्षण होता है।

वर्तमान समय का यह भी एक स्थापित सत्य है कि विश्वासियों का सबसे ज़्यादा आर्थिक शोषण ऐसे ही पास्टरों व प्रचारकों द्वारा किया जाता है जो "अन्य-भाषाओं" में बोलने का दावा करते हैं। 20वीं शताब्दी में झूठी शिक्षा देने वाले पंथ भी अन्य-भाषा बोलने वाले ऐसे समूहों में से ही पैदा हुए हैं।

इसलिए सभी विश्वासियों को मैं यही सलाह दे सकता हूँः ऐसी कलीसियाओं से बच कर रहें जो मुख्य रूप में अन्य-भाषाओं व चंगाई के वरदान पर ही ज़ोर देते हैं - क्योंकि इनमें से ज़्यादातर ख़तरनाक ढंग से अतिवादी हो जाते हैं और अकसर इनमें आत्मिक मन-मिज़ाज वाले अगुवे नहीं होते। इसकी बजाय, एक ऐसी कलीसिया में संगति करने की खोज में रहें जो मुख्य रूप में पवित्रता और शिष्यता पर ज़ोर देती है, जो अन्य-भाषाओं की असली बोली को स्वीकार करती है, जो आपके धन का लालच नहीं करती या आपके जीवन को अपने वश में नहीं करना चाहती।

मैं यह बात ज़ोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर हमें परमेश्वर की इच्छा और उसके वचन को सही तरह समझना है, तो हमें अपने मनों से (जिन्हें पवित्र-आत्मा ने नया कर दिया है), काम लेना होगा (रोमियों 12:2)। बहुत से विश्वासी अपने मन में द्वेष रखते हैं। हमारा मन एक पत्नी की तरह होना चाहिए। उसका घर पर राज नहीं होना चाहिए। लेकिन उसे मार भी नहीं डालना चाहिए। यीशु हमारा पति और सिर है। हमारा मन हमारे हृदय के द्वारा उसके अधीन रहना चाहिए।

अब, इन सब बातों का निचोड़ निकालते हुए, मैं "अन्य-भाषाओं" के बारे में कुछ समझदारी भरी सलाह देना चाहता हूँ।

"अगर परमेश्वर आपको अन्य-भाषाओं का वरदान देता है, तो उसे ग्रहण करें और उसका इस्तेमाल करें। जब आप अकेले हों - जहाँ भी हों - तो परमेश्वर के साथ अपने हृदय में से आने वाले शब्द बोलें, ख़ास तौर पर तब जब आपके हृदयों का बोझ (निराशा से) बहुत बढ़ गया हो या जब वह आनन्द से उमड़ रहा हो। अगर यह दान आपके पास नहीं है, तो कोई चिंता की बात नहीं है। लेकिन प्रभु से इसे पाने के लिए हर समय तैयार रहें। इसके विरोधी न बनें, और इसे पाने के लिए अधीर न हों। इसे पाने के लिए आपके व्याकुल हुए बिना, अगर परमेश्वर चाहेगा तो वह आपको यह दान दे देगा। लेकिन इसके साथ ही, यह न मान लें कि मसीही जगत में आप जो कुछ देख और सुन रहे हैं, वह पवित्र-आत्मा की प्रेरणा द्वारा हो रहा है। हरेक बात को परखें। परमेश्वर द्वारा आपको दी गई परखने की क्षमता का उपयोग करें। अगर आपके पास अन्य-भाषाएं बोलने का वरदान नहीं है, तो अपने आपको उनसे तुच्छ न समझें जिनके पास यह वरदान है। और अगर आपके पास यह वरदान है, तो यह न मान लें कि इससे आप उन लोगों से ज़्यादा आत्मिक या श्रेष्ठ हैं जिनके पास यह नहीं है। (पौलुस और कुरिन्थियों के मसीहियों दोनों अन्य-भाषााओं में बोलते थे। लेकिन पौलुस एक विराट आत्मिक पुरुष था जबकि कुरिन्थियों के मसीही शारीरिक थे!)।"

वह जो अनिवार्य रूप में अत्यावश्यक है

एक बात जो हममें से हरेक के लिए अनिवार्य रूप में अत्यावश्यक है, यह है कि हमें पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य पानी है। पवित्र-आत्मा में बपतिस्मे का प्रमाण अन्य-भाषाओं में बोलना नहीं, बल्कि सामर्थ्य का होना है (प्रेरितों 1:8)।

पवित्र-आत्मा को विश्वास से ग्रहण किया जाना है (यूहन्ना 7:37-39), बिलकुल वैसे ही जैसे हम पापों की क्षमा ग्रहण करते हैं - हमारी नहीं सिर्फ मसीह की योग्यता के आधार पर। हम पवित्र-आत्मा का वरदान उपवास, प्रार्थना या अन्य किसी काम से नहीं पाते। वह एक वरदान है (प्रेरितों. 2:38)।

हम माँगते हैं और पाते हैं - विश्वास से तुरन्त पाते हैं - परमेश्वर की इस प्रतिज्ञा में भरोसा रखते हुए आगे बढ़ते हैं कि जितनी प्रसन्नता पृथ्वी के एक पिता को अपने भूखे पुत्र को रोटी देने में होती है, उससे ज़्यादा प्रसन्नता परमेश्वर को उससे माँगने वालों को पवित्र-आत्मा देने में होती है (लूका 11:13)। अगर हमें पवित्र-आत्मा प्राप्त करने के बारे में कोई अनिश्चितता है, तो हम परमेश्वर से हमें आश्वस्त करने के लिए कह सकते हैं। वह हमें ऐसा आश्वासन देने से इनकार नहीं करेगा।

लेकिन हमें लगातार पवित्र-आत्मा से भरते रहने की ज़रूरत होती है (क्योंकि हम रिसने वाले पात्र हैं - इफि. 5:18), बिलकुल वैसे ही जैसे हमें लगातार पापों से क्षमा पाते रहने की ज़रूरत होती है (क्योंकि हम पाप करते रहते हैं - अकसर अनजाने ही - मत्ती 6:12)।

मसीह के प्रति हमारे हृदय की भक्ति अन्य-भाषाएं बोलने से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है। फ्क्या तू इन सब से बढ़कर मुझसे प्रेम करता है?" पतरस को उसकी सेवा का कार्याधिकार सौंपने से पहले, हमारे प्रभु ने उससे यह सवाल पूछा था। इसलिए "अन्य-भाषाओं में बोलने" के बारे में सारे तर्क-वितर्क और कुछ नहीं सिर्फ विश्वासियों को मसीह के प्रति पूरी भक्ति से समर्पित होने से रोकने के लिए शैतान द्वारा लगाए गए फन्दे हैं।

जगत में सबसे बड़े मसीही वही हुए हैं जिन्होंने प्रभु यीशु को सबसे बढ़कर प्रेम किया है - चाहे वे अन्य भाषाओं में बोले हों या न बोले हों। कुछ लोग जैसे पतरस, याकूब, यूहन्ना और पौलुस अन्य-भाषाओं में बोलते थे। दूसरे जैसे जॉन वैज़ली, चार्ल्स फिन्नी, डी. एल. मूडी, ए. बी. सिम्पसन, विलियम बूथ, सी. टी. स्टड और वॉचमैन नी कभी अन्य-भाषाओं में नहीं बोले (जहाँ तक हमें मालूम है)। लेकिन उन सबने पवित्र-आत्मा में बपतिस्मा पाया था, उन सबने अपने पूरे हृदय से प्रभु से प्यार किया था, और उन सबने सूली का सफर तय किया था। ये सत्य उनके जीवन के केन्द्र में थे। बाक़ी बातें गौण थीं।

हम उनके उदाहरण का अनुसरण करें, तो हमसे ग़लती नहीं होगी।

जिसके सुनने के कान हों, वह सुने।

अध्याय 20
विश्वासियों के पूर्वाग्रह

इस्राएल में न्यायियों के समयकाल में, गिलादवंशियों ने यह परखने के लिए कि कौन उनके शिविर का है और कौन नहीं, एक अनोखी युक्ति ढूंढ निकाली थी। वे हरेक से फ्शिब्बोलेथ" शब्द बोलने के लिए कहते थे, और इसमें उनकी जीवन/मृत्यु का फैसला हो जाता था। उनके अपने भाइयों द्वारा 42,000 इस्राएली सिर्फ इस वजह से मार डाले गए क्योंकि वे एक शब्द का उच्चारण सही तरह नहीं कर पाए थे (न्या. 12:6)!

पिछली 20 शताब्दियों में विभिन्न मसीही समूहों ने, यह जानने के लिए कि कौन उनके समूह का है और कौन नहीं, अपने-अपने फ्शिब्बोलेथ" तैयार कर लिए हैं। वे जो उनके द्वारा ठहराए गए शिब्बोलेथों का (उस समूह की स्वीकार्य धर्म-सैद्धान्तिक शब्दावली का) सही "उच्चारण" नहीं करते, उन्हें काट डाला जाता है - (मध्यकालीन युग में) तलवार से, (वर्तमान सभ्यकालीन युग में) ज़बान से।

इन दिनों में अच्छे विश्वासियों को सिर्फ इस वजह से मनोविज्ञान से और धमकियों से नाश कर दिया गया है, क्योंकि वे किसी समूह के स्वीकार्य शिब्बोलेेथों का सही उच्चारण नहीं कर सके थे, और क्योंकि वे उन समूहों के अगुवों के शक्तिशाली जैविक बल का सामना नहीं कर सके थे।

यक़ीनन, किसी ख़ास वाक्यांश के इस्तेमाल करने या न करने से हम यह नहीं जान सकते कि लोगों के धर्म-सिद्धान्त सही हैं या नहीं।

वाक्यांश "यीशु के मरने" के बारे में सोचें (2 कुरि. 4:10)। यह ज़रूरी नहीं है कि इस वाक्यांश द्वारा अभिव्यक्त सत्य सिर्फ इस तरह ही व्यक्त हो सकता है। यीशु ने इसे फ्प्रतिदिन अपने सूली उठाने" के रूप में व्यक्त किया है (लूका 9:23)।

मसीह के बंधुआ-मज़दूर होने की बजाए हम सब एक ख़ास तरह की शब्दावली के गुलाम बन जाने के ख़तरे में पड़े हुए हैं।

आप उस प्रेरित के बारे में क्या कहेंगे जिसने अपने किसी भी लेख में एक बार भी "अपनी प्रतिदिन की सूली उठाने" की बात नहीं की है? क्या आप उस पर सूली की केन्द्रीयता को अनदेखा करने का आरोप लगाएंगे? अगर ऐसा है, तो आपको पतरस, यूहन्ना, याकूब और यहूदा पर इस मार्ग से भटक जाने का आरोप लगाना पड़ेगा क्योंकि उन्होंने अपने किसी भी लेख में इस वाक्यांश का इस्तेमाल नहीं किया है।

पौलुस ने भी अपनी सारी पत्रियों में सिर्फ एक ही बार "यीशु के मरने" की बात की है। यह क्या इसलिए हुआ क्योंकि पौलुस ने अपनी सेवकाई में सूली की केन्द्रीयता पर ज़ोर नहीं दिया था? ऐसा सोचना परमेश्वर की निन्दा करना होगा - क्योंकि पवित्र-शास्त्र में पौलुस के सारे पत्र पवित्र-आत्मा की प्रेरणा से लिखे गए हैं!

यूहन्ना अवश्य ही प्रतिदिन अपनी सूली उठाता था। लेकिन अपनी पत्री में वह मसीही जीवन की बात करता है, तो वह उसके बारे में एक सकारात्मक रूप में बोलता है - अनन्त जीवन में सहभागी होना और उसे प्रकट करना। वह कहता है, फ्हम तुम्हें उस अनन्त जीवन का सुसमाचार सुनाते हैं जो पिता के पास था और हम पर प्रकट हुआ" (1 यूहन्ना 1:2)।

अनन्त जीवन - यीशु का जीवन - उसकी सारी पत्रियों की, बल्कि पूरी नई वाचा की विषय-वस्तु है। और हमें भी अपनी सभी कलीसियाई सभाओं में इसका ही प्रचार करना चाहिए।

याद रखें कि यीशु ने, उस आनन्द के लिए जो उसके सामने रखा था, सूली की पीड़ा को भी सह लिया था (इब्रानियों 12:2)। वह सूली पर आनन्दित नहीं हुआ था; उसने उसे सह लिया था। और वह उसने इसलिए सह ली थी क्योंकि उसके सामने आनन्द रखा हुआ था - पिता के साथ संगति का वह आनन्द जिसकी उपस्थिति में आनन्द और जीवन की भरपूरी है (भजन. 16:11)।

पिता महापवित्र स्थान में वास करता है (पुरानी वाचा का मन्दिर) और फटा हुए पर्दा (सूली पर चढ़ाई गए देह) उसमें प्रवेश करने का एकमात्र मार्ग है।

यीशु अपनी इच्छा की तरफ से प्रतिदिन मरता था, और इस तरह वह प्रतिदिन पिता के साथ संगति करता था। लेकिन यीशु का ध्यान अपनी इच्छा को सूली पर चढ़ाने पर नहीं रहता था। उसका लक्ष्य पिता के साथ संगति करना था। उसका लक्ष्य मृत्यु नहीं, जीवन था।

हमारा लक्ष्य भी जीवन होना चाहिए - वैसा ही जीवन जैसा यीशु का था। हम सूली के मार्ग का अनुसरण नहीं करते। वह तो एक पद्धति का अनुसरण करना होगा! हम यीशु का अनुसरण करते हैं - जो सूली के मार्ग पर चला। हम अपनी दौड़ किसी धर्म-सिद्धान्त या मार्ग की ओर नहीं, बल्कि एक व्यक्ति- स्वयं यीशु की ओर देखते हुए दौड़ता है (इब्रानियों 12:2)।

जिन लोगों का झुकाव सिर्फ अपनी फ्ख़ुदी में मरने" के ही बारे में सोचने और बात करने की तरफ रहता है, वे बहुत सी बातों में नकारात्मक हो जाते हैं, और अंततः वे दूसरे मनुष्यों के प्रति भी नकारात्मक हो जाते हैं। हमने ऐसे बहुत से उदाहरण देखे हैं।

तब इसका अर्थ क्या यह है कि हम अपनी सूली उठाने का प्रचार करना बंद कर दें? लेकिन अपनी सूली उठाने के सत्य का प्रचार करने के लिए हमें हर बार इसी वाक्यांश का इस्तेमाल करने की ज़रूरत नहीं है। अक्षर मारता है, लेकिन आत्मा जिलाता है।

एक भाई अगर अपने संदेश में एक बार भी उस वाक्यांश (अक्षर) का इस्तेमाल नहीं करता है, फिर भी उसके संदेश में सूली का आत्मा हो सकता है (जैसा कि पूरी नई वाचा में है)। अगर हम आत्मिक सोच-समझ वाले होंगे, तो हम सिर्फ उसके शब्द ही नहीं, उसकी आत्मा की बात सुनेंगे। एक भाई ने अगर आपके ख़ास फ्शिब्बोलेथ" का इस्तेमाल नहीं किया है, तो ऐसा मान लेना पूरी तरह ग़लत होगा कि उसे सूली की केन्द्रीयता की समझ नहीं है।

प्रेरितों ने यह फैसला करने के लिए, कि किस वाक्यांश या शब्द का इस्तेमाल करें और किसका इस्तेमाल न करें, किसी नियमावली (भले और बुरे के ज्ञान के वृक्ष) के अनुसार काम नहीं किया था। वे अपने हृदयों व अपने जीवनों की भरपूरी में से बोले, और उन्होंने आत्मिक सत्यों का उन शब्दों में व्यक्त किया जो स्वाभाविक रूप में उनमें आए थे। पवित्र-आत्मा ने उन शब्दों को एक ही साँचे में ढाल कर उनसे एक ही तरह की अभिव्यक्तियाँ व वाक्यांश इस्तेमाल नहीं करवाए।

फ्हवा जिधर चाहती है उधर चलती है... और जो आत्मा से जन्मा है (परमेश्वर की हरेक संतान), वह भी ऐसा ही है" (यूहन्ना 3:8)।

गुलामी मानवीय नियमों व नियंत्रणों को मानने द्वारा आई है। प्रेरित ईश्वरीय सत्य को भी अपनी भाषा में व्यक्त करने के लिए मुक्त थे। सिर्फ एक कट्टर पंथ के अनुयायी ही उन्हीं वाक्यांशों को दोहराने पर ज़ोर देते हैं जो उनके अगुवों द्वारा इस्तेमाल किए जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि पंथों के अनुयायी पूर्व-नियोजित यंत्रें (रोबोट) जैसे बन जाते हैं जिनका परमेश्वर से कोई व्यक्तिगत संपर्क नहीं होता, और वे साहस के साथ वह भाषा इस्तेमाल नहीं कर सकते जो उनमें स्वाभाविक रूप में आती है। वे अंधे और गूंगे होकर अपने अगुवों के पीछे चलते रहते हैं।

हमें निश्चित तौर पर ऐसी सभी अपवित्र-शास्त्रीय अभिव्यक्तियों के इस्तेमाल से बचना चाहिए जो आज मसीही जगत में आम तौर पर इस्तेमाल हो रही हैं। और हमें पवित्र-शास्त्र की अभिव्यक्तियों को इस्तेमाल करने में भी उतना ही चौकस रहने की ज़रूरत है।

कुछ विश्वासी फ्पर्दा फाड़ने" की बात करते हैं, और वे यह समझ ही नहीं पाते कि मसीह ने वह पहले ही एक बार सबके लिए फाड़ दिया है। उसे दोबारा फाड़ने की ज़रूरत नहीं है!

दूसरे पाप को अपने शरीर में दोषी ठहराने की बात करते हैं, औैर वे यह समझ ही नहीं पाते कि परमेश्वर ने शरीर में पाप को एक बार सबके लिए दोषी ठहरा दिया है (रोमियों 8:3)।

पवित्र-शास्त्र का ऐसा लापरवाही भरा इस्तेमाल अकसर उसी फ्शिब्बोलेथ" को इस्तेमाल करने की अभिलाषा की वजह से होता है जो एक समूह के अगुवे इस्तेमाल कर रहे हैं।

प्राचीनों को कभी इस बात का आग्रह नहीं करना चाहिए दूसरे लोग उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले वाक्यांशों/शब्दावलियों का इस्तेमाल करें। हरेक को उसके अन्दर मौजूद मसीह के जीवन को शास्त्रेचित शब्दों में व्यक्त करने की आज़ादी होनी चाहिए जिनमें वह स्वयं को मुक्त अनुभव करता है।

हमें गुलामाें की तरह अपने समूह की पसन्द के वाक्यांशों को नहीं दोहराना चाहिए कि हम दूसरों द्वारा स्वीकार किए जाएं। हमें ईश्वरीयता की सामर्थ्य की खोज में रहना है, उसके बाहरी स्वरूप की नहीं।

हमें अतिवादी रूप में ऐसे धर्मान्ध होने के प्रति भी सचेत रहना है कि एक भाई सिर्फ तभी मसीह की दुल्हन में शामिल हो सकता है अगर वह हमारे समूह में शामिल हो और हमारे शिब्बोलेथ इस्तेमाल करे! मनुष्यों के मत सिर्फ कूड़े के डिब्बे में फेंकने लायक़ होते हैं! हमें इस मामले में हस्तक्षेप किए बिना और उसके लिए दुल्हन का चुनाव करने की कोशिश किए बिना मसीह को ही उसकी दुल्हन का चुनाव करने देना है!

हमें यह चेतावनी दी गई है कि हम शब्दों पर तर्क न करें (1 तीमु- 6:4)। इसलिए हमें ध्यान रखना होगा कि दूसरों का मूल्यांकन करने, उनका न्याय करने, और उन्हें दोषी ठहराने के लिए हम अपने पसन्द किए हुए शिब्बोलेथ इस्तेमाल न करें।

"परमेश्वर (और उसका वचन) सच्चा ठहरे, और हरेक मनुष्य (चाहे कितना भी ईश्वरीय हो), झूठा ठहरे" (रोमियों 3:4)।

"अगर लोग परमेश्वर के वचन के अनुसार नहीं बोलते, तो उसका कारण यह है कि उनमें ज्योति नहीं है" (यशा. 8:20)।

अध्याय 21
सत्य को सही तरह समझना

हमें पवित्र-शास्त्र में यह आज्ञा दी गई है कि हम अपने आप पर और अपनी शिक्षा पर ख़ास ध्यान दें, क्योंकि इसी तरह हम अपना और अपने सुनने वालों का उद्धार सुनिश्चित करते हैं (1 तीमु. 4:16)।

हमारा जीवन और हमारा धर्म-सिद्धान्त ऐसे दो पैरों के समान हैं जो हमारे मसीही जीवन को स्थिर करते हैं। जैसा कि सभी साधारण मनुष्यों में होता है, हमारे दोनों पैरों की लम्बाई एक जैसी होनी चाहिए। लेकिन अगर हम सामान्य मसीही जगत की बात करें, तो उसमें ज़्यादातर विश्वासी इनमें से एक फ्पैर" पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं।

जब धर्म-सिद्धान्त की बात आती है, तो हमें फ्सत्य के वचन को ठीक-ठीक काम में लाने" की आज्ञा दी गई है (2 तीमु. 2:15)। बहुत लोग पवित्र-शास्त्र के अध्ययन में लापरवाह होते हैं, इसलिए धर्म-सिद्धान्त के बारे में उनकी समझ भी असंतुलित होती है।

परमेश्वर का सत्य मानव देह की तरह है। वह तभी सही होती है जब उसके हरेक अंग का आकार सही होता है। पवित्र-शास्त्र के सभी सत्य समान रूप में महत्वपूर्ण नहीं हैं। सिर्फ एक ही उदाहरण देते हैंः अन्य-भाषाओं में बोलना भाइयों से प्रेम करने जितना महत्वपूर्ण नहीं है। अगर किसी एक धर्म-सिद्धान्त पर दूसरे की क़ीमत पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाएगा, तो जिस सत्य का हम प्रचार करेंगे वह ऐसा ही कुरूप होगा जैसे एक देह में एक सामान्य से बड़ी आँख या कान! इसके अलावा, एक धर्म-सिद्धान्त पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर देना, हमें विधर्मी बना देगा। इसलिए यह ज़रूरी है कि हम परमेश्वर के सत्य को ठीक-ठीक काम में लाएं।

अगर हम सिर्फ इतना कह सकते कि हम सत्य पर विश्वास करते हैं और वह परमेश्वर के वचन में है (उन 66 पुस्तकाें में जिनसे बाइबल बनी है) तो यह बहुत सहज हो जाता। यह सत्य है। लेकिन क्योंकि परमेश्वर के सत्य को शैतान औेर मनुष्य की धूर्तता ने तोड़ा-मरोड़ा और भ्रष्ट किया है, इसलिए यह ज़रूरी हो गया है कि बाइबल जो सिखाती है, उसकी विस्तार से व्याख्या की जाए।

पवित्र-आत्मा के प्रकाशन के बिना परमेश्वर का वचन गणित या विज्ञान की तरह सिर्फ बौद्धिक अध्ययन द्वारा नहीं समझा जा सकता। यह प्रकाशन, यीशु ने कहा, घमण्डी बुद्धिमानों को नहीं बल्कि बच्चों (नम्र व दीन लोगों) को दिया जाता है (मत्ती 11:25)। यही वजह थी यीशु के समय में बाइबल के विद्वान यीशु की शिक्षा को नहीं समझ सके थे। आज के बाइबल के ज्ञानी भी उसी नाव में सवार हैं - और इसका कारण भी वही है।

लेकिन इसके साथ ही, हमें अपने मनों को भी इस्तेमाल करना है, क्योंकि हमें "अपनी समझ में सयाने" होने के लिए भी कहा गया है (1 कुरि. 14:20)।

इस वजह से, सिर्फ एक ऐसा मन ही परमेश्वर के वचन को सही तरह समझ सकता है जो पूरी तरह से पवित्र-आत्मा के अधीन होता है।

परमेश्वर चाहता है कि उसके बच्चे सब बातों में पूरी तरह मुक्त हों। लेकिन बहुत से विश्वासी बहुत सी पापमय आदतों औैर मानवीय परम्पराओं के गुलाम होते हैं। इसकी एक वजह यह है कि वे परमेश्वर के वचन को पढ़ने में लापरवाह होते हैं।

हम परमेश्वर के वचन को समझने के लिए जितना परिश्रम करेंगे, उसका सत्य हमारे जीवन के क्षेत्रें में हमें उतना ही मुक्त करता जाएगा (देखें, यूहन्ना 8:32)।

जब उनके धन को एक पूंजी के रूप में निवेश करने की बात आती है, तो ज़्यादातर विश्वासी इसमें बहुत समझदारी दिखाते हैं। लेकिन पवित्र-शास्त्र के अध्ययन के मामले में वे बहुत लापरवाही दिखाते हैं। इससे यह प्रकट होता है कि वे परमेश्वर से ज़्यादा अपने धन को मूल्यवान मानते हैं। यह स्पष्ट है कि ऐसे विश्वासी परमेश्वर के वचन को सही तरह नहीं समझ सकेंगे।

हमें यह स्पष्ट बताया गया है कि पवित्र-शास्त्र हमें फ्सिद्ध" करने के लिए दिया गया है (2 तीमु. 3:16,17, के.जे.वी.)। इसलिए, हम यह कह सकते हैं कि जिन लोगों की दिलचस्पी मसीही सिद्धता पाने में नहीं है, वे परमेश्वर के वचन को भी सही तरह नहीं समझ सकेंगे (देखें, यूहन्ना 7:17)।

परमेश्वर का भय बुद्धि का आरम्भ है; और परमेश्वर सिर्फ उन पर ही अपने भेद खोलता है जो उसका भय मानते हैं (भजन- 25:14)।

परमेश्वर के विषय का सत्य

बाइबल यह सिखाती है कि परमेश्वर एक है और यह कि इस एक परमेश्वर में तीन व्यक्ति हैं।

संख्याएं क्योंकि भौतिक संसार की बात है, और परमेश्वर क्योंकि आत्मा है, इसलिए हमारे सीमित मन (मानवीय सोच-समझ) इस सत्य को पूरी तरह ग्रहण नहीं कर पाएंगे, वैसे ही जेैसे एक प्याले में समुद्र का पानी नहीं समा सकता।

एक कुत्ता गुणा करने की बात नहीं समझ सकता - कि कैसे एक को एक से तीन बार गुणा करने पर फिर भी वह एक ही रहता हैः 1 ग् 1 ग् 1 = 1 न ही हम यह समझ सकते हैं कि परमेश्वर कैसे तीन व्यक्ति होते हुए भी एक परमेश्वर हो सकता है। एक कुत्ता सिर्फ दूसरे कुत्ते को ही सही तरह समझ सकता है। वह पूरी तरह से एक मनुष्य को कभी नहीं समझ सकता। इसी तरह एक ऐसा ईश्वर जिसे मानवीय तर्क से समझा जा सकता है, सिर्फ हमारे जैसा एक मनुष्य ही होता। यह वास्तविकता कि बाइबल का परमेश्वर हमारे तर्क-वितर्क (सोच-समझ) की सीमा से बाहर है, यही इस बात का प्रमाण है कि यही सत्य है।

त्रिएकता का सत्य बाइबल के पहले पद से ही स्पष्ट हो जाता है जहाँ "परमेश्वर" के लिए इब्रानी शब्द "इलोहीम" बहुवचन में है। हम उत्पत्ति 1:26 के फ्हम" व फ्हमारे" के इस्तेमाल में भी यह देखते हैं। यह ज्योति मसीह के बपतिस्मे के समय ज़्यादा स्पष्ट रूप में केन्द्रित होती नज़र आती है जहाँ पिता (स्वर्ग से आई आवाज़), पुत्र (यीशु मसीह) और पवित्र-आत्मा (कबूतर का स्वरूप) सभी मौजूद हैं (मत्ती 3:16,17)।

जो यह कहते हैं कि यीशु स्वयं ही पिता, पुत्र और पवित्र-आत्मा है, यह नहीं बता सकते कि वह पृथ्वी पर अपनी इच्छा को नकारते हुए पिता की इच्छा को कैसे पूरी कर सकता है (यूहन्ना 6:38)। एकत्व के समर्थक - जो यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर सिर्फ एक व्यक्ति है, और इसलिए जो फ्सिर्फ यीशु के नाम में" ही बपतिस्मा देते हैं, असल में यीशु के मनुष्यत्व का इनकार करते हैं।

बाइबल कहती है कि जिसके पास खरी शिक्षा है, उसके पास पिता व पुत्र दोनों हैं, और जो पिता या पुत्र का इनकार करते हैं, उनमें मसीह-विरोधी का आत्मा है (2 यूहन्ना 9; 1 यूहन्ना 2:22)।

मसीही बपतिस्मे में, यीशु ने ख़ास तौर पर यह आज्ञा दी थी कि हमें पिता, पुत्र और पवित्र-आत्मा के नाम में बपतिस्मा देना है (मत्ती 28:19), जिसमें प्रभु यीशु मसीह को पुत्र के रूप में जाना गया है (प्रेरितों. 2:38))।

मसीह के विषय का सत्य

पवित्र-शास्त्र यह सिखाता है कि यीशु मसीह अनन्त परमेश्वर है, और अनादि से उसका परमेश्वर के साथ सह-अस्तित्व है (यूहन्ना 1:1), और जब वह पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में आया, तो उसने स्वयं अपनी ऐसी बहुत सी सामर्थ्य का इस्तेमाल न करने का चुनाव किया जो परमेश्वर के रूप में उसके अन्दर थी। इस अभिव्यक्ति का, कि "उसने अपने आपको शून्य कर दिया," यही अर्थ है।

ऐसे कुछ उदाहरणों पर हम विचार करें जो इस बात को प्रमाणित करते हैंः बुरी बातों में परमेश्वर की परीक्षा नहीं हो सकती (याकूब 1:13)। लेकिन यीशु ने अपनी परीक्षा होने दी थी (मत्ती 4:1-10)। परमेश्वर सब कुछ जानता है। लेकिन पृथ्वी पर रहते हुए यीशु ने कहा कि वह स्वयं अपने आने की तिथि नहीं जानता (मत्ती 24:36)। उसे यह देखने के लिए एक अंजीर के पेड़ के पास भी जाना पड़ा कि उसमें कोई फल है या नहीं (मत्ती 21:19)। अगर वह परमेश्वर के रूप में अपनी सामर्थ्य का इस्तेमाल करता तो वह दूर से ही जान लेता कि उस पेड़ में फल नहीं है! परमेश्वर की बुद्धि अपरिवर्तनीय और अनन्त है। फिर भी, हमारे प्रभु यीशु के लिए यह लिखा है कि वह फ्बुद्धि से परिपूर्ण होता गया" (लूका 2:40,52)।

ये सभी पद यह संकेत देते हैं कि पृथ्वी पर आने के बाद यीशु ने "अपने आपको" परमेश्वर की बहुत सी सामर्थ्य से ख़ाली कर लिया था।

लेकिन, हालांकि यीशु ने पृथ्वी पर आने के बाद अपने आपको बहुत सी सामर्थ्य से स्वयं को ख़ाली कर लिया था, फिर भी अपने व्यक्तित्व में वह परमेश्वर ही था। यह स्पष्ट है कि परमेश्वर अगर चाहे तो भी उसके लिए यह असम्भव है कि वह परमेश्वर होना छोड़ दे। एक राजा अपने राजा होने के अधिकार को त्याग कर झोंपड़-पट्टी में रहने के लिए जा सकता है, लेकिन वह फिर भी राजा ही रहेगा। ऐसा ही यीशु के साथ हुआ था।

पृथ्वी पर रहते हुए, यीशु के आराध्य-देव होने का सबसे बड़ा प्रमाण उन सात घटनाओं में देखा जा सकता है जिसमें उसने लोगों की आराधना स्वीकार की (मत्ती 8:2; 9:18; 14:33; 15:25; 20:20; मरकुस 5:6; यूहन्ना 9:38)। स्वर्गदूत और परमेश्वर का भय मानने वाले लोग आराधना स्वीकार नहीं करते (प्रेरित. 10:25,26; प्रका. 22:8,9)। लेकिन यीशु ने आराधना स्वीकार की - क्योंकि वह परमेश्वर का पुत्र था। पिता ने पतरस पर यह प्रकट किया था कि पृथ्वी पर रहते हुए भी यीशु परमेश्वर का पुत्र था (मत्ती 16:16,17)।

जहाँ तक यीशु की मानवता की बात है, तो इब्रानियों 2:17 यीशु के बारे में यह बताने में एकदम स्पष्ट है कि फ्वह सब बातों में अपने भाइयों के समान बना।" वह आदम के बच्चों के समान नहीं बना, क्योंकि फिर तो उसमें बाक़ी मानवता की तरह पुराना मनुष्य होता। (पवित्र-शास्त्र में जिसे फ्पुराना मनुष्य" कहा गया है, यह अफसोस की बात है कि लोग उस वाक्यांश की जगह फ्पापमय स्वभाव" जैसा ग़ैर-पवित्र-शास्त्रीय वाक्यांश इस्तेमाल करते हैं।)

यीशु का पापमय स्वभाव नहीं था, क्योंकि उसका मानवीय पिता नहीं था। यीशु का जन्म पवित्र-आत्मा द्वारा हुआ था, और वह उसके मूल से ही पवित्र था (लूका 1:35)।

यीशु के आत्मिक भाई वे हैं जो परमेश्वर की इच्छा पूरी करते हैं (मत्ती 12:49,50) - जो पवित्र-आत्मा से जन्मे हैं (यूहन्ना 3:5) जिन्होंने अपने पुराने मनुष्य को उतार कर नया मनुष्य पहन लिया है (इफि. 4:22,24)। लेकिन हमारी, जो यीशु के भाई हैं, अपनी एक इच्छा भी है और यीशु फ्सब बातों में" हमारे ही समान बन गया था। उसकी भी अपनी इच्छा थी, जिसका उसने इनकार किया (यूहन्ना 6:38)।

जब हमारा जन्म हुआ, तो आदम के बच्चे होते हुए, हम सब पुराने मनुष्य के साथ पैदा हुए थे। पुराने मनुष्य को एक ऐसा विश्वासघाती सेवक माना जा सकता है जो हमारे हृदय के द्वार को बुरी लालसाओं के लिए खोल देता है (जो डाकुओं के एक गिरोह की तरह है) जो उसमें प्रवेश करना चाहता है। जब हमारा नया जन्म होता है, तो परमेश्वर इस पुराने मनुष्य को मार डालता है (रोमियों 6:6)। लेकिन हमारा शरीर अब भी मौजूद है जिसके द्वारा हमारी परीक्षा होती है (याकूब 1:14,15)। पुराने मनुष्य की जगह अब एक ऐसा नया मनुष्य आ गया है जो शरीर की लालसाओं का विरोध करता है और फ्डाकुओं के इस गिरोह" को रोकने के लिए हृदय के द्वार को बंद रखना चाहता है।

यीशु सब बातों में हमारी ही तरह परखा गया, फिर भी निष्पाप निकला (इब्रानियों 4:15)। लेकिन वह फ्पापमय शरीर" में नहीं बल्कि सिर्फ फ्पापमय शरीर की समानता में" आया था (रोमियों 8:3)। हम बहुत सालों तक पाप में रहे हैं। पाप करते रहने द्वारा जो पापमय आदतें हमने पाल ली हैं, उनकी वजह से नया जन्म पाने के बाद भी हमसे अचेत रूप में पाप होता रहता है।

उदाहरण के तौर पर, जिन्होंने बीते समय में बहुत अपशब्द बोले हैं, हो सकता है तनाव के समय अचेत रूप में उनके मुख से वही अपशब्द फिर निकल आएं; जबकि मन-फिराव से पहले जिन्होंने कभी अपशब्द नहीं बोले, वे अचेत रूप में भी अपशब्द नहीं बोलेंगे। इसी तरह, जिन्होंने बहुत सा अश्लील साहित्य पढ़ा है, वे यह पाएंगे कि उन्हें गन्दे विचार और बुरे सपने इस हद तक सताते हैं जितना उन्हें नहीं सताते जिन्होंने ऐसा साहित्य ज़्यादा नहीं पढ़ा है।

यीशु ने कभी कोई पाप नहीं किया था, और उसके जीवन में कोई अचेत पाप भी नहीं था। अगर उसने एक बार भी अचेत पाप किया होता, तो उसके लिए उसे बलिदान चढ़ाना पड़ता (जैसा हम लैव्य. 4:27,28 में देखते हैं)। तब वह हमारे लिए एक सिद्ध बलिदान नहीं हो सकता था।

यीशु के व्यक्तिपन का धर्म-सिद्धान्त पूरे कलीसियाई इतिहास में एक विवादास्पद मुद्दा रहा है, और इसके बारे में अनेक झूठी बातें फैलाई गई हैं। कुछ लोगों ने उसके आराध्य-देव होने को इतना बढ़ा-चढ़ा दिया कि वे अब यह देख ही नहीं पाते कि वह एक मनुष्य के रूप में हमारे ही समान परखा गया था। दूसरों ने उसकी मानवीयता को इतना बढ़ाया-चढ़ाया है, जहाँ उन्होंने उसके आराध्य-देव होने को ही नकार दिया है।

इन दोनों ही झूठी शिक्षाओं से बचने के लिए हमारे पास एकमात्र उपाय यही है कि हम पवित्र-शास्त्र में परमेश्वर के पूरे प्रकाशन के साथ रहें, और जहाँ वह रुकता है, वहाँ हम भी रुक जाएं कि ऐसा न हो कि हम फ्बहुत दूर भटक जाएं" (2 यूहन्ना 7,9)।

यीशु का पृथ्वी पर आना एक रहस्य है। जो कुछ हमें बाइबल में बताया गया है, उससे दूर जाकर इस सत्य का विश्लेषण करना हमारे लिए मूर्खता की बात है। ऐसा करना वैसा ही मूर्खतापूर्ण और अपमानजनक होगा जितना कि इस्राएलियों द्वारा जिज्ञासावश वाचा के संदूक में झाँकना था (जो मसीह का एक प्रतिरूप था) - एक ऐसा काम जिसके लिए परमेश्वर ने उन्हें मार डाला (1 शमु. 6:19)।

यीशु ने कहा वह पृथ्वी पर अपनी नहीं पिता की इच्छा पूरी करने के लिए आया था (यूहन्ना 6:38)। यह दर्शाता है कि उसकी एक ऐसी मानवीय इच्छा थी जो पिता की इच्छा के विरोध में थी (मत्ती 26:39), वर्ना उसे उस इच्छा का इनकार नहीं करना पड़ता।

यीशु भी हरेक बात में हमारी ही तरह परखा गया था (इब्रानियों 4:15)। लेकिन क्योंकि उसने अपने मन के विचारों को कभी उन प्रलोभनों में नहीं नहीं फँसने दिया था इसलिए उसने कभी कोई पाप नहीं किया था (याकूब 1:15)। हमारे जीवन में हम जिस परीक्षा का भी सामना करते हैं, उसका सामना हमारे प्रभु यीशु ने अपने पार्थिव जीवन में किया था और उसने उस पर जय पाई थी।

हम सब जानते हैं कि बिना पाप किए एक दिन काटना भी कितना मुश्किल हो जाता है! तो हम यह कह सकते हैं कि जो सबसे बड़ा चमत्कार यीशु ने किया, वह यही था कि सब बातों में हमारी ही तरह परखे जाने के बाद भी, उसने 33 साल से ज़्यादा समय बिना पाप किए बिताया। उसने मृत्यु सहने तक पाप का विरोध किया और उसे पिता से इसलिए कृपा मिली क्योंकि उसने ऊँचे स्वर से पुकार कर और आँसू बहा-बहा कर माँगा था (इब्रानियों 5:7; 12:3,4)

हमारा अग्रदूत होते हुए, अब वह हमें बुलाता है कि हम उसके उदाहरण्ा का अनुसरण करें और अपनी सूली उठा लें - अपनी ख़ुद की इच्छा को मार डालें (लूका 9:23)।

हम पाप में इसलिए गिर जाते हैं, क्योंकि हम जय पाने के लिए पिता से कृपा नहीं माँगते। आज, हमसे यह अपेक्षित नहीं है कि हम यीशु के जीवन की बाहरी बातों में उसका अनुसरण करें - उसका एक बढ़ई होना, या उसका अविवाहित होना - न ही उसकी सेवकाई का - पानी पर चलना या मृतकों को जीवित करना - बल्कि जैसे वह पाप पर जय पाने में विश्वासयोग्य रहा, वैसे ही हमें भी इसमें विश्वासयोग्य रहना है।

पवित्र-आत्मा हमें यीशु मसीह के बारे में दो अंगीकार करने के लिए प्रेरित करता है - एक, कि वह प्रभु है, और दूसरा, कि वह देहधारी हुआ (1 कुरि. 12:3; 1 यूहन्ना 4:2,3)। दोनों अंगीकार समान रूप से महत्वपूर्ण हैं, लेकिन दूसरा और भी ज़्यादा, क्योंकि हमें यह बताया गया है कि मसीह-विरोधी को पहचानने का यही चिन्ह् है, कि वह यह अंगीकार नहीं करता कि मसीह देह-धारी हुआ (2 यूहन्ना 7)।

आज, मनुष्य यीशु मसीह (1 तीमु. 2:5) फ्बहुत से भाइयों में पहलौठा" (हमारा बड़ा भाई है), और उसका पिता हमारा भी पिता है (रोमियों 8:29; यूहन्ना 20:17; इफि.1:3; इब्रानियों 2:11)।

पृथ्वी पर आने के बाद भी यीशु ने परमेश्वर होना नहीं छोड़ दिया था (यूहन्ना 10:33)। और स्वर्ग में जाने के बाद उसने मनुष्य होना नहीं छोड़ दिया है (1 तीमु. 2:5)।

उद्धार के विषय का सत्य

परमेश्वर का वचन "उद्धार" के बारे में तीन कालों में बात करता है - भूत (इफि. 2:8), वर्तमान (फिलि, 2:12), और भविष्य (रोमियों 13:11) - या दूसरे शब्दों में, धर्मी (सही) ठहराया जाना, पवित्र करना, महिमान्वित करना।

उद्धार की एक बुनियाद और एक ढांचा है। इसकी बुनियाद पापों की क्षमा और धर्मी (सही) ठहराया जाना है। इसका अर्थ यह भी है कि हम मसीह के मरने, जी-उठने, व स्वर्ग में उठाए जाने द्वारा परमेश्वर की नज़र में सही घोषित कर दिए हैं। यह हमारे कामों के आधार पर नहीं है (इफि. 2:8-9), क्योंकि हमारे सही (धर्मी) काम भी परमेश्वर की नज़र में मैले चिथड़ों के समान हैं (यशा- 64:6)। हम मसीह की धार्मिकता को धारण किए हुए हैं (गलातियों 3:27)। मन-फिराव और विश्वास क्षमा पाने और धर्मी ठहराए जाने की दशाएं हैं (प्रेरितों, 20:21)।

सच्चा मन-फिराव हमारे भीतर भरपाई का फल पैदा करेगा - उधार लिया हुआ पैसा, वस्तुएं व सरकारी कर चुकाना जो हम पर बक़ाया है, और जो वस्तुएं हमने ग़लत तरीक़े से अपने पास रखी हुई हैं (जो दूसरों की हैं) उन्हें जहाँ तक सम्भव हो, लौटा देना है (लूका 19:8,9)। जब परमेश्वर हमें क्षमा करता है, तो वह यह भी चाहता है कि हम दूसरों को उसी तरह क्षमा कर दें। अगर हम ऐसा नहीं करते, तो परमेश्वर अपनी क्षमा वापिस ले लेता है (मत्ती 18:23-25)।

मन-फिराव और विश्वास के बाद पानी में डुबकी द्वारा बपतिस्मा होना चाहिए जिसमें हम सबके सामने यह साक्षी देते हैं, मनुष्यों और दुष्टात्माओं को, कि हमारा पुराना मनुष्य वास्तव में दफन हो चुका है (रोमियों 6:4,6)।

फिर हम पवित्र-आत्मा में बपतिस्मा पा सकते हैं, जिसमें हमें अपने जीवन व वचन द्वारा मसीह के साक्षी होने की सामर्थ्य मिलती है (प्रेरितों, 1:8)। पवित्र-आत्मा का बपतिस्मा एक ऐसी प्रतिज्ञा है जिसे परमेश्वर के सभी बच्चों को विश्वास से प्राप्त करना है (मत्ती 3:11; लूका 11:13)।

यह हरेक शिष्य का विशेषाधिकार है कि उसके अन्दर पवित्र-आत्मा की यह साक्षी हो कि वह परमेश्वर की संतान है (र्प्रेरितों, 19:2)।

पवित्र होना इमारत का मुख्य ढांचा है। पवित्रीकरण (अर्थात् "अलग किया जाना" - पाप से, और संसार से) एक ऐसी प्रक्रिया है जो नए जन्म से शुरू होती है (1 कुरि. 1:2), और पृथ्वी पर हमारे पूरे जीवन भर चलती रहनी चाहिए (1 थिस्स, 5:23,24)। यह वह काम है जिसकी शुरूआत परमेश्वर हमारे जीवन में पवित्र-आत्मा द्वारा करता है और अपनी विधियों को हमारे मनों व हृदयों में लिख देता है; लेकिन हमें अपने हिस्से का काम करना है, डरते-काँपते अपने उद्धार के काम को पूरा करते जाना है (फिलि, 2:12-13)। हमें शरीर के कामों का उस सामर्थ्य के द्वारा नाश करते जाना है जो पवित्र-आत्मा हमें देता है (रोमियों, 8:13)। हमें अपनी देह और आत्मा की सारी गंदगी से अपने आपको शुद्ध करना है, और परमेश्वर के भय में पवित्रता को सिद्ध करना है (2 कुरि. 7:1)।

इस काम में जब एक शिष्य कट्टर होेकर पूरे हृदय से पवित्र-आत्मा के साथ सहयोग करता है, तो उसके जीवन में पवित्रीकरण का काम बहुत तेज़ी से बढ़ेगा। और जो पवित्र-आत्मा की अगुवाई में चलने में आलसी होंगे, उनके जीवन में यह काम धीमा और ठहरा रहेगा।

परीक्षाओं/प्रलोभनों के समय में ही हमारी यह परख होगी कि हममें सच्चे हृदय से पवित्र होने की अभिलाषा है या नहीं है।

पवित्र होने का अर्थ पुरानी वाचा की तरह सिर्फ बाहरी तौर पर नहीं है, बल्कि व्यवस्था की धार्मिकता का हमारे हृदय के भीतर पूरा होना है (रोमियों 8:4)। यीशु ने मत्ती 5:17-48 में इस पर ज़ोर दिया था।

यीशु ने कहा कि परमेश्वर से पूरे हृदय से प्रेम करने व अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम करने में व्यवस्था की माँग पूरी हो जाती है (मत्ती 22:36-40)।

परमेश्वर अब इस प्रेम की व्यवस्था को हमारे हृदयों में लिखना चाहता है क्योंकि यह उसका अपना स्वभाव है (इब्रानियों 8:10; 2 पतरस 1:4)। इस इच्छा का बाहरी प्रकटीकरण सचेत स्तर पर सारे पाप पर जय पाने और यीशु की सभी आज्ञाओं का पालन करने के रूप में होगा (यूहन्ना 14:15)।

इस जीवन में प्रवेश करना तब तक असम्भव होगा जब तक कि शिष्य बनने की वे सारी शर्तें पूरी न हो जाएं जो यीशु ने निश्चित की हैं (लूका 14:26-33)। मूल रूप में इनका काम यह है कि ये हमारे जीवनों में हमारे सम्बंधियों और हमारे ख़ुद-के-जीवनों से भी बढ़कर प्रभु को प्रथम स्थान दें और अपनी भौतिक सम्पत्ति और वस्तुओं से दूर हो जाएं।

यह वह संकरा फाटक है जिसमें से हमें पहले प्रवेश करना है। तब पवित्र होने का संकरा मार्ग आता है। जो पवित्रता के खोजी नहीं हैं, वे कभी प्रभु को नहीं देख पाएंगे (इब्रानियों 12:14)।

जबकि यह सम्भव है कि हम यहाँ और अभी हमारे विवेक में सिद्ध हो जाएं (इब्रानियों 7:19; 9:9,14), फिर भी हमारे लिए निष्पाप रूप में सिद्ध होना तब तक सम्भव नहीं जब तक यीशु के आने पर हमें एक महिमान्वित देह नहीं मिल जाती (1 यूहन्ना 3:2)। हम सिर्फ तभी उसके जैसे हो सकते हैं। लेकिन हमें उसी तरह चलने की कोशिश करते रहना है, जैसा वह चला है (1 यूहन्ना 2:6)।

जब तक हम अपनी इस भ्रष्ट देह में हैं, तब तक हम चाहे कितने भी पवित्र हो जाएं, हममें अचेत पाप पाया जाएगा (1 यूहन्ना 1:8)। लेकिन हम अपने विवेक में सिद्ध हो सकते हैं (प्रेरितों. 24:16), और अगर हमारे हृदय सच्चे हैं (1 कुरि. 4:4), तो हम अभी, सचेत स्तर पर होने वाले पाप से मुक्त हो सकते हैं (1 यूहन्ना 2:1 ¹कह्)।

इसलिए हम मसीह के दूसरे आगमन का और हमारे महिमान्वित होने का इंतज़ार करते हैं - जो हमारे उद्धार के पूरा होने का अंतिम भाग है, जब हम निष्पाप रूप में सिद्ध हो जाएंगे (रोमियों 8:23; फिलि. 3:21)।

कलीसिया के विषय का सत्य

कलीसिया मसीह की देह है। उसका सिर्फ एक सिर है - मसीह; और सिर्फ एक मुख्यालय है - तीसरा स्वर्ग। मसीह की देह में, हरेक अंग का काम है (इफि. 4:16)। हालांकि कुछ अंगों का काम ज़्यादा ज़रूरी और साफ नज़र आने वाला हो सकता है, फिर भी हरेक अंग का योगदान मूल्यवान है।

मसीह ने अपनी कलीसिया में प्रेरित, नबी, सुसमाचार-प्रचारक, चरवाहे व शिक्षक दिए हैं कि वे उसकी देह को उन्नत करें (इफि. 4:11)। ये पदवियाँ नहीं सेवकाइयाँ हैं। प्रेरित वे हैं जिन्हें परमेश्वर ने स्थानीय कलीसियाएं स्थापित करने के लिए भेजा है। कलीसिया में उनका पहला स्थान है (1 कुरि. 12:28), और इस तरह वे उन कलीसियाओं के प्राचीनों के लिए प्राचीन हैं जो उनके कार्यक्षेत्र में आते हैं (2 कुरि. 10:13)। नबी वे हैं जो परमेश्वर के लोगों की छुपी हुई ज़रूरतों को सामने लाते हैं और उनमें उनकी सेवकाई करते हैं। सुसमाचार-प्रचारक वे हैं जिनके पास ये वरदान है कि वे विधर्मियों को मसीह के पास ले आएं। फिर उन्हें इन मन फिराए हुए लोगों को स्थानीय कलीसिया में लाना होता है जो मसीह की देह है। (ज़्यादातर आधुनिक सुसमाचार-प्रचार इसमें निष्फल हो रहा है)। चरवाहे वे हैं जो छोटे मेमनों व भेड़ों की देखभाल और उनका मार्गदर्शन करते हैं। शिक्षक वे हैं जो पवित्र-शास्त्र और उसके धर्म-सिद्धान्तों की व्याख्या कर सकते हैं। ये पाँच वरदान पूरी वैश्विक कलीसिया के लिए है; इनमें चरवाहे हरेक स्थानीय कलीसिया का मुख्य आधार होते हैं। अन्य वरदानों वाले सेवक दूसरी जगहों (अन्य स्थानीय कलीसियाओं) में से आ-जा सकते हैं।

एक स्थानीय कलीसिया की अगुवाई प्राचीनों के हाथ में होनी चाहिए। नया नियम यह शिक्षा स्पष्ट रूप में देता है (तीत. 1:5; प्रेरितों. 14:23)। फ्प्राचीन" जो बहुवचन में है, यह संकेत देता है कि हरेक कलीसिया में कम-से-कम दो होने चाहिए। स्थानीय कलीसिया की अगुवाई में संतुलन बनाए रखने के लिए, और प्रभु की उपस्थिति द्वारा शैतान के कामों को बांधने के लिए भी प्राचीनों का बहुसंख्यक होना ज़रूरी है (मत्ती 18:18-20)।

एक व्यक्ति द्वारा मण्डली की अगुवाई नई वाचा की शिक्षा के विरोध में है। लेकिन प्राचीनों में से एक, अगर उसके पास वचन का वरदान है, तो वह फ्कलीसिया का दूत" हो सकता (प्रका- 2:1)।

यीशु ने अपने शिष्यों को किसी भी प्रकार का शीर्षक/पद अपनाने के लिए मना किया था (मत्ती 23:7:12)। इसलिए यह परमेश्वर के वचन के खिलाफ़ है कि हम रब्बी, पादरी, पास्टर, रैवरैन्ड, या अगुवे कहलाएं। असल में, फ्रैवरैन्ड" ऐसा शीर्षक है जो बाइबल में सिर्फ परमेश्वर के लिए इस्तेमाल हुआ है (भजन. 111:9 के-जे-वी-); और जो इसे इस्तेमाल करता है वह लूसीफर की तरह दोषी पाया जा सकता है, जिसने परमेश्वर जैसा बनना चाहा था (यशा. 14:14)। कलीसिया में छोटे या बड़े सभी को सिर्फ एक भाई या सेवक ही होना है।

एक स्थानीय कलीसिया की सभाएं, अगर वे शिक्षा देने (प्रेरितों. 20:9,11), प्रार्थना करने (प्रेरितों. 12:5,12), या सुसमाचार-प्रचार (प्रेरितों. 2:14-20) के लिए नहीं हैं, तो वे सब शिष्यों के लिए नबूवत करने के लिए खुली होनी चाहिए (1 कुरि. 14:26-40)। जो भी सभाओं में नबूवत करना चाहते हैं, उन्हें इस वरदान की अभिलाषा करनी चाहिए (1 कुरि. 14:1,39)। अन्य-भाषा का वरदान, हालांकि वह मुख्य रूप में व्यक्तिगत उन्नति के लिए है (1 कुरि. 14:4,18,19), कलीसिया में इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन उसके बाद हमेशा ही उसकी व्याख्या होनी चाहिए (1 कुरि. 14:27)। अन्य-भाषा की व्याख्या एक प्रकाशन, एक ज्ञान का शब्द, एक नबूवत, एक शिक्षा, या परमेश्वर से प्रार्थना हो सकती है (1 कुरि. 14:2-6)। 1 कुरिन्थियों 12:8-10,28 व रोमियों 12:6-8 में दर्शाए गए सभी दान-वरदान मसीह की देह को तैयार करने के लिए ज़रूरी हैं। एक कलीसिया जो पवित्र-आत्मा के दान-वरदानों को तुच्छ जानती है, उन्हें कभी न पा सकेगी।

स्त्रियों को सभाओं में अपने सिर ढांप कर प्रार्थना करने व नबूवत करने की अनुमति है, लेकिन उन्हें पुरुषों पर अधिकार रखने या उन्हें सिखाने की अनुमति नहीं है (1 कुरि. 11:5; 1 तीमु. 2:12)।

कलीसिया पर यह िज़म्मेदारी भी है कि उसे सभी जातियों में मसीह के शिष्य बनाने का लक्ष्य पूरा करने के लिए, सभी सम्भव तरीक़ों से उनके बीच सुसमाचार प्रचार करना चाहिए जिनके साथ वह सुसमाचार-संपर्क कर सकती है (मरकुस 16:15; मत्ती 28:19)। लेकिन, ऐसा सुसमाचार-प्रचार जिसके साथ शिष्य बनाने का काम नहीं हो रहा है, वह पृथ्वी पर मसीह की साक्षी में रुकावट पैदा करता है।

हरेक स्थानीय कलीसिया को फ्रोटी तोड़ने" द्वारा (1 कुरि. 11:22-34) प्रभु की मृत्यु का प्रचार करना चाहिए। यह साक्षी कितने अंतराल में हो, इसके लिए परमेश्वर का वचन हरेक कलीसिया को आज़ादी देता है। लेकिन यह कभी भी एक खोखली विधि न बन जाए।

दान के विषय में, परमेश्वर का वचन यह स्पष्ट कहता है कि परमेश्वर के काम के लिए अविश्वासियों से पैसा लेना ग़लत है (3 यूहन्ना 7)। इसलिए ऐसी सभाओं में दान इकट्ठा नहीं करना चाहिए जहाँ अविश्वासी मौजूद हों। विश्वासियों द्वारा दिया गया धन भी स्वेच्छा से और गुप्त होना चाहिए (2 कुरि 9:7)। दूसरों से धन प्राप्त करने के उद्देश्य से उन्हें अपने काम का लेखा देना ग़लत है (चाहे ऐसा लेखा फ्प्रार्थना-निवेदन" के रूप में भी क्यों न हो)।

कलीसिया तभी अडिग रह सकती है जब वह शिष्यों को विश्वास की आज्ञाकारिता में अगुवाई करने वाली होगी - यीशु की सभी आज्ञाओं में आज्ञाकारी, ख़ास तौर पर मत्ती के अध्याय 5-7 की सभी आज्ञाएं। नई वाचा की छोटी-से-छोटी आज्ञा का भी पालन होना चाहिए और उसका उत्साह के साथ प्रचार होना चाहिए। यही बात एक व्यक्ति को परमेश्वर की दृष्टि में बड़ा बनाती है (मत्ती 5:19)।

ऐसे बहुत से मामले हैं जिनमें नया नियम ख़ामोश है। ऐसे मामलों में हमें परम्परावादी नहीं होना चाहिए बल्कि दूसरे विश्वासियों को उनकी आस्थाओं को मानने की आज़ादी देनी चाहिए, और हमें अपनी आस्थाओं को मज़बूती से थामें रहना चाहिए (रोमियों 14:5)।

जो लोग हमारे साथ सब बातों में सहमत होते हैं, उनसे प्रेम करना हमारे लिए आसान होता है। लेकिन जो हमसे सहमत नहीं होते, उनके प्रति हमारे मनोभाव द्वारा हमारा प्रेम परखा जाता है। परमेश्वर ने ऐसा नहीं चाहा है कि उसके बच्चे हरेक मामूली बात में भी एक-दूसरे के साथ सहमत हो। न ही उसने ऐसा चाहा है हरेक स्थानीय कलीसिया का बाहरी स्वरूप उन बातों में एक सा हो जो पवित्र-शास्त्र की परिधि से बाहर हैं। परमेश्वर की महिमा उस एकता में प्रकट होती है जो विविधता के बीच में है। एकरूपता मनुष्यों द्वारा निर्मित होती है और वह आत्मिक मृत्यु का कारण बनती है। परमेश्वर एकरूपता नहीं एकता चाहता है।

अंततः हमें याद रखना चाहिए कि यीशु के शिष्य होने का सबसे स्पष्ट चिन्ह् वह प्रेम है जो उनमें एक-दूसरे के लिए होना चाहिए (यूहन्ना 13:35)। इसलिए कलीसिया को भी इसी तरह एक होने की खोज में रहना चाहिए जैसे पिता और पुत्र एक हैं (यूहन्ना 17:21)।

यह सब, एक सारांश में, वह सत्य है जिस पर हमें दृढ़ता से खड़े रहना है। हम जानते हैं कि यह सत्य है, क्योंकि जिन्होंने इसे सच्चे हृदय से स्वीकार किया है, इसने उन्हें मुक्त कर दिया है (यूहन्ना 8:32)।