बीती सदियों में, ऐेसे पुरुषों व स्त्रियों की संख्या थोड़ी ही रही है जिन्हें परमेश्वर अंधकार की शक्तियों को हराने के लिए इस्तेमाल कर सका है, कि अपने नाम के निमित्त एक स्थाई प्रभाव डाल सके, और अपनी महिमा के लिए एक साक्षी स्थापित कर सके। परमेश्वर की आशिषें बहुत लोग पाते हैं, लेकिन बाक़ी बचे हुए लोग, जो परमेश्वर के साथ मिल कर काम करते हैं, वह हमेशा से एक छोटा समूह ही रहा है। गिदोन की 32,000 की सेना में से परमेश्वर सिर्फ 300 को ही इस्तेमाल कर सका था। पूरे कलीसियाई इतिहास में इसका अनुपात लगभग यही रहा है। सिर्फ कुछ लोग ही बचे हुए इन लोगों के साथ शामिल होने के लिए क़ीमत चुकाने को तैयार होते हैं।
मेरा मानना है कि प्रभु की आँखें हमारे पूरे देश में ऐसे पुरुषों की खोज करती हुई घूम रही हैं - ऐसे आत्मिक चरित्र-बल वाले पुरुषों को ढूंढ रही हैं, जिन्हें वह अपने बड़े नाम की महिमा के लिए वहाँ इस्तेमाल कर सके जहाँ हाल में वह बदनाम हो रहा है।
2500 साल पहले, ऐसे ही एक दिन में, जब यहोवा का नाम बदनाम हो रहा था, परमेश्वर ने अपने लोगों को यह कहते हुए एक संदेश भेजा था, “जब मैं उनकी दृष्टि में अपने पवित्र नाम को सिद्ध करूँगा, तब जाति-जाति जान लेगी कि मैं यहोवा हूँ” (यहेज़. 36:23)। इस संदेश में एक प्रतिज्ञा का संकेत था, लेकिन ऐसी प्रतिज्ञा जिसके साथ एक शर्त जुड़ी थीः अब अन्य-जातियाँ यह जानें कि यहोवा ही सच्चा परमेश्वर है, लेकिन यह तभी होता है जब उसके लोग अपने जीवनों में उसे पवित्र ठहराते हैं।
परमेश्वर आज ऐसे पुरुषों व स्त्रियों को ढूंढ रहा है जो अपने जीवनों में उसे इस तरह पवित्र होने देंगे कि उनके आसपास के लोग यह जानने लगेंगे, और उसके नाम की महिमा के लिए उन पर एक प्रभाव पड़ेगा। हम इस बात का उदाहरण परमेश्वर के एक ऐसे जन के जीवन में देखते हैं जो 9वीं शताब्दी ई. पू. हुआ था। उसके जीवन को देखते हुए, हम ऐसी तीन बातें देखते हैं जो 20वीं शताब्दी के परमेश्वर के जन की चारित्रिक विशिष्टताएं होनी चाहिए।
एलीशा ऐसा पुरुष था जिसके मनोवेग हमारे ही समान थे, फिर भी उसने अपनी पीढ़ी में परमेश्वर के लिए एक प्रभाव डाला। पवित्र शास्त्रों में उसके जीवन का जो विवरण हमें मिलता है, उसमें ऐेसे तीन मौक़े हैं जहाँ हम दूसरों पर पड़े उसके प्रभाव के बारे में पढ़ते हैं। हम एक एक कर इन्हें देखेंगे।
“एक दिन एलीशा शूनेम को गया। वहाँ एक प्रतिष्ठित् महिला रहती थी। उसने उससे भोजन करने का आग्रह किया। अतः जब कभी वह वहाँ से निकलता था, तो भोजन करने के लिए वहाँ रुक जाता था। उस स्त्री ने अपने पति से कहा, ‘देख, वह जो हमारे यहाँ से होकर अक्सर आता-जाता है, वह मुझे परमेश्वर का पवित्र जन लगता है’” (2 राजा 4:8-9)।
जिस स्त्री ने यह विचार व्यक्त किया था, वह एक “धनवान और प्रभावशाली स्त्री थी” (ऐम्प्लिफाइड बाइबल)। वह कोई ऐसी भोली-भाली स्त्री नहीं थी जो बाहरी दिखावे से प्रभावित हो जाती। एलीशा अनेक बार उसके घर गया था और उस स्त्री ने हर बार उसे ध्यान से वैसे ही देखा था जैसे सभी मूर्तिपूजक लोग हमें ध्यान से देखते हैं। अंततः वह यक़ीन के साथ इस निष्कर्ष पर पहुँच गई कि एलीशा परमेश्वर का एक पवित्र जन था।
भाइयो व बहनों, हमें देखने वाले दूसरे लोग अगर हमारे बारे में इसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचते, तो हम चाहे जो कुछ भी कहें और जो कुछ भी करें, वह किसी काम का न होगा। मैं उस प्रभाव की बात नहीं कर रहा हूँ जो हम ऐसे लोगों पर डालते हैं जो हमारे बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जानते, बल्कि वे जो हमें नियमित मिलते रहते हैं, जिनके साथ हम रहते हैं, जो हमें बहुत अच्छी तरह जानते हैं।
हम दूसरों पर कैसी छाप छोड़ते हैं? क्या वे हमें सिर्फ चतुर, मनोरंजक और वाक्पटु समझते हैं या शायद ऐसे जिनके व्यक्तित्व बहुत जीवंत हैं? एक सेल्ज़मैन के लिए ये गुण मौलिक और बहुत अच्छे होते हैं, लेकिन हमारी बुलाहट सेल्ज़मैन होने की नहीं है। प्रमुख रूप में, हमें परमेश्वर के पवित्र पुरुष और स्त्री होने के लिए बुलाया गया है।
हमारी कलीसियाओं और मसीही संस्थाओं में, बहुत से प्रचारक, आराधक, पवित्र शास्त्रों के ज्ञानी और प्रशासक हैं। उनमें से हरेक के लिए परमेश्वर का धन्यवाद करें। लेकिन हमारे बीच में क्या परमेश्वर के पवित्र जन हैं? यह महत्वपूर्ण सवाल है। हमारे बीच में जब पवित्र स्त्री और पुरुष होंगे, तभी हमारे बीच में कोई वास्तविक नवजागृति आ सकती है।
मैं सोचता हूँ कि यह कहना सही होगा कि हम अंततः अक्सर वैसे ही बन जाते हैं जैसा हमने वास्तव में अपने मन में सोचा था। अगर हमारे अन्दर वास्तव में परमेश्वर के पवित्र जन बनने की लालसा होती - और याद रखें, कि परमेश्वर हमारे हृदय की भीतरी अभिलाषाओं को देखता है और उनका प्रत्युत्तर देता है - तो हम अवश्य ही वह बन गए होते।
इसलिए, अगर आज हम पवित्र नहीं हैं, तो उसका कारण शायद यही है कि हमारी असली महत्वकांक्षाएं कुछ और ही थीं। यह हो सकता है कि हम शायद सिर्फ चतुर, जीवंत और प्रशासनिक योग्यता वाले होने से ही संतुष्ट हो गए हैं। यह कहना आसान है कि हम सब बातों से बढ़कर पवित्रता के अभिलाषी हैं, क्योंकि यह कहना एक सही बात लगती है। लेकिन यशायाह और यहेज़केल के दिनों के परमेश्वर के जनों की तरह, हमारे हृदयों की सबसे गहरी अभिलाषाओं और हमारे मुँह के अंगीकार में ज़मीन और आसमान का फ़र्क हो सकता है (यशा. 29:13; यहेज़. 33:31)।
हम एक आशिष के एक या दो वचनों का प्रचार कर सकते हैं। लेकिन पवित्रीकरण का कोई भी सिद्धान्त और पिछले अनुभवों की कोई भी साक्षी एक असली पवित्र जीवन की जगह नहीं ले सकते - एक ऐसा जीवन जिसमें “पवित्रता कोई धोखा नहीं है” (इफि. 4:24 – जे. बी. फिलिप्स)।
हम जानते हैं कि भारत में हमारे कुछ ग़ैर-मसीही मित्रों का एक बहुत ऊँचा नैतिक मानक स्तर होता है। अगर वे हममें एक ऐसे निचले स्तर की पवित्रता देखेंगे जो उनके धर्म द्वारा सिखाई जाने वाली पवित्रता से भी कम होगी, तो हम उन्हें प्रभु यीशु मसीह के पास कैसे ला सकेंगे? यह कितने अफसोस की लेकिन सही बात है कि कुछ भक्तिमय ग़ैर-मसीही अक्सर अनेक मसीहियों से ज़्यादा ऊँचे स्तर की ईमानदारी और खराई प्रदर्शित करते हैं। हमें इस वास्तविकता पर लज्जित होने, परमेश्वर के सामने अपने मुँह के बल गिरने और उसकी दया माँगने की ज़रूरत है। हमारी कलीसियाओं में हमें ऐसे स्त्री और पुरुष चाहिए जो वास्तव में पवित्र हों, ख़ास तौर पर हमारे मसीही अगुवों में। उनसे अलग हटकर, मसीह के लिए हमारे देश तक पहुँचने की हमारी सारी कोशिशें बेकार हो जाएंगी।
हम मसीही यह दावा करते हैं कि हम पवित्र-आत्मा से भरे हुए हैं। लेकिन हम यह न भूलें जो हममें बसता है वह पवित्र-आत्मा कहलाता है, और उसका पहला काम हमें दान-वरदान देना नहीं बल्कि पवित्र करना है।
जब यशायाह ने परमेश्वर का दर्शन पाया, तो उसने सिंहासन के आसपास मौजूद सरापों को “सर्वशक्तिशाली, सर्वशक्तिशाली, सर्वशक्तिशाली” या “दयालु, दयालु, दयालु” नहीं, बल्कि “पवित्र, पवित्र पवित्र” कहते हुए सुना था। जिस किसी ने भी यह नज़ारा देख लिया है, वह यह समझ लेगा कि ऐसे परमेश्वर का सेवक होना कोई हल्की बात नहीं है। जो भी उस सर्वोच्च और सर्वश्रेष्ठ प्रभु का प्रतिनिधित्व करने के लिए बुलाया गया है जिसका नाम पवित्र है, उसके जीवन में पवित्रता एक आज्ञासूचक आवश्यकता है।
यह वास्तविकता कि हमारा परमेश्वर एक असीम रूप में अति-पवित्र परमेश्वर है, हमारे जीवनों में पवित्रता को प्रेरित करने वाला सबसे बड़ा तथ्य होना चाहिए। प्रभु कहता है, “पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ।" अगर हम पवित्रता के लिए सिर्फ इसलिए संघर्ष करते हैं क्योंकि हम चाहते हैं कि परमेश्वर हमें इस्तेमाल कर सके, तो हमारा उद्देश्य स्वार्थ-भरा है। हममें पवित्र होने की अभिलाषा इसलिए होनी चाहिए क्योंकि हमारा परमेश्वर पवित्र, और इस बात से हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए कि वह हमें इस्तेमाल करता है या नहीं।
जब एलीशा इधर-उधर आता-जाता था, तब उसके संपर्क में आने वाले लोगों पर वह यह छाप छोड़ता जाता था - कि वह परमेश्वर का एक पवित्र जन था। लोग शायद उसके प्रचार को और उसके संदेश के तीन बिन्दुओं को भी भूल जाते होंगे, लेकिन वे उसके जीवन के प्रभाव को नहीं भूलते होंगे। हमारे लिए यह एक कैसी चुनौती-भरी बात होनी चाहिए! सिर्फ हमारे प्रचारों में प्रभावी होने, पवित्र शास्त्रों की अद्भुत व्याख्या करने, और प्रशासनिक मामलों में योग्य होने से ज़्यादा, हममें यह लालसा कितनी ज़्यादा होनी चाहिए कि हम परमेश्वर के पवित्र जन हों। लोग अपनी स्मृति में से ऐसे पुरुषों की छाप को आसानी से नहीं मिटा सकते।
अपने इस देश में मेरी यात्राओं के दौरान, मुझे ऐसे बहुत से मसीही अगुवे और मिशनरी मिले जिनके पास अद्भुत दान-वरदान और योग्यताएं थीं। मुझे अनेक प्रदर्शनकारी और बहिर्मुखी लोग मिले हैं। लेकिन मुझे ऐसे बहुत कम लोग मिले जिन्हें मैं परमेश्वर के पवित्र जनों के रूप में देख सकता था। मैं आशा करता हूँ कि मेरा यह मूल्यांकन ग़लत हो, लेकिन मेरी आशंका यह है कि शायद मैं सही हूँ।
इस वास्तविकता में, कि परमेश्वर अपनी सेवा में एक व्यक्ति को इस्तेमाल करता है, ऐसा कोई संकेत नहीं होता कि वह व्यक्ति पवित्र है या परमेश्वर उससे प्रसन्न है। परमेश्वर ने अपना संदेश देने के लिए एक बार एक गधे को भी इस्तेमाल किया था; उसने उस गधे के मालिक बिलाम को भी नबूवत करने के लिए इस्तेमाल किया था, हालांकि वह स्वयं एक भ्रष्ट व्यक्ति था। अगर परमेश्वर एक व्यक्ति को उसके वचन का सेवक होने देता है, तो इसकी वजह अक्सर उसकी दया होती है और इसलिए क्योंकि वह उन लोगों से प्रेम करता है जिनकी वह व्यक्ति सेवा करता है, इसलिए नहीं क्योंकि वह उस व्यक्ति के जीवन से प्रसन्न है।
नहीं, परमेश्वर के वचन का प्रभावशाली प्रचार करने के लिए हमें पवित्र जन होने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन अगर हमें बचे हुए उन लोगों का हिस्सा होना है जो पर्दे के पीछे परमेश्वर के युद्ध लड़ते हैं, और उसके साथ मिलकर उन बातों की रचना कर रहे हैं जो अनन्त में न तो हिलाई और न जलाई जा सकेंगी, तो हमें पवित्र जन होना पड़ेगा।
मैंने अपने आपसे यह सवाल पूछा है कि हमारी कलीसियाओं में इतने कम पवित्र पुरुष और स्त्रियाँ क्यों हैं, और मुझे इसके तीन कारण मिले हैं। ये ज़्यादा भी हो सकते हैं।
कपट
मुझे यक़ीन है कि इसका पहला कारण एक व्यापक रूप में फैला हुआ कपट है। एक व्यावहारिक पवित्रता का सबसे पहला क़दम हमेशा ही हर प्रकार के कपट और दिखावे से मुक्त होना है। कोई भी पुरुष तब तक परमेश्वर का एक पवित्र जन नहीं हो सकता जब तक कि वह उसके जीवन में से कपट को पूरी तरह नहीं मिटा देता। प्रकाशितवाक्य 14:1-5 में हम जिन बचे हुए लोगों का चित्र देखते हैं, उनका वर्णन ऐेसे लोगों के रूप में किया गया है जिनमें बिलकुल भी कोई कपट (झूठ) नहीं था। अक्सर, हमारे अन्दर पाया जाने वाला झूठ हमारी सोच से ज़्यादा होता है। अगर हम ईमानदार हैं, तो हममें से हरेक को यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हम अक्सर लोगों पर अपनी वह छाप डालना चाहते हैं जो हम वास्तव में नहीं हैं। हमें इस आदत से पीछा छुड़ाना होगा। अगर हमें वास्तव में पवित्र होना है तो हमें इसके खिलाफ़ लगातार युद्ध करते हुए उसे मृत्यु के हवाले करना होगा। हमें पारदर्शी होने, और जैसे हम असल में हैं उसी रूप में पहचाने जाने के लिए संघर्ष करते रहना होगा। मैं जानता हूँ कि यह आसान नहीं है। कपट से हमेशा बचे रहना एक जीवन-भर चलते रहने वाला संघर्ष होता है। लेकिन यह पहला क़दम है, और इसके बिना कहीं कोई नवजागृति नहीं हो सकती। अगर हम अपने जीवनों से कपट को दूर करने का एक दृढ़ प्रयास नहीं करते, तो हम यह सोचकर सिर्फ अपने आपको ही धोखा देते हैं कि एक नवजागृति के लिए परमेश्वर हमारी प्रार्थना का जवाब देगा।
और एक सच्ची मसीही संगति में भी कपट ही रुकावट बनता है। अक्सर मसीही अगुवों और मिशनरियों के हृदयों में छुपी हुई दुर्भावनाएं और एक क्षमा-न-करने वाली आत्मा पलती रहती है। बाहरी तौर पर मनोहर नज़र आने वाली आत्मिकता के दिखावे के नीचे अथाह कुण्ड की मक्कारी से भरी बुराइयाँ मौजूद रहती हैं। अगर हमें परमेश्वर के पवित्र जन होना है, तो इनका पर्दाफाश होना और इन्हें त्यागना ज़रूरी है।
कपट और दिखावा ही वे पाप हैं जिन्हें यीशु मसीह ने सबसे ज़्यादा धिक्कारा था। फ्फरीसियों के कपट-रूपी ख़मीर से सावधान रहो,य् अपने शिष्यों को सचेत करते हुए उसने कहा। जब आरम्भिक कलीसिया में यह पाप प्रकट हुआ तो परमेश्वर ने इसके साथ बहुत कठोरता से व्यवहार किया था। उसने तत्काल उस पति-पत्नी को मार डाला था कि कहीं ऐसा न हो कि उस थोड़े से ख़मीर से पूरा आटा ही ख़मीरा हो जाए (प्रेरितों. 5)।
मैंने अक्सर नतनीएल के बारे में यीशु की साक्षी के बारे में पढ़ा है और उस पर विचार किया है। “देखो, एक पुरुष जिसमें कोई कपट नहीं है।" मैं सोचता हूँ कि क्या इससे बढ़कर भी कोई दूसरी प्रशंसा हो सकती है कि जिसकी हम लालसा करें? हमें यह पूछने की ज़रूरत है कि क्या परमेश्वर हमारे बारे में यही बात बोल सकता है? अफसोस, कि अक्सर वह यह नहीं कह सकता - क्योंकि वह हममें उन पापों को देखता है जिन्हें हम अपने साथियों की नज़रों से छुपाए रखते हैं।
वास्तव में, धन्य वह मनुष्य जिसमें कोई कपट नहीं है।
अनुशासन की कमी
हमारे समयकाल में पवित्रता की कमी होने का दूसरा कारण यह है कि हम अपने आपको कठोरता से अनुशासित नहीं करते। नई वाचा हमारे शरीर के अंगों को अनुशासित करने पर बहुत ज़ोर देती है - ख़ास तौर पर कान, आँख और ज़बान के लिए। रोमियों 8:13 में, पौलुस कहता है कि हम आत्मिक जीवन का इसलिए आनन्द नहीं उठा पाते क्योंकि हम पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य के द्वारा शरीर के कामों का नाश नहीं करते। 1 कुरिन्थियों 9:27 में, उसने हमें बताया कि अपनी देह को उसने कितनी कठोरता से अनुशासित किया था। हमारा पवित्र किए जाने का चाहे जो भी अनुभव रहा हो, हमें फिर भी पवित्र होने के लिए अपनी देह के अंगों को पौलुस की तरह अपने जीवन के अंत तक अनुशासित करना पड़ेगा।
हम अपने कानों को किस तरह की बातचीत सुनने देते हैं, इसमें हमें अनुशासित होना पड़ेगा। हम अपना समय गपशप और दूसरों की बुराई सुनने में ख़र्च करने के बाद, फिर यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि हमारे कान परमेश्वर की आवाज़ सुनने के लिए तैयार रहेंगे।
हमारी आँखों को क्या देखने और क्या पढ़ने की अनुमति दी जाती हैं - ख़ास तौर पर इन दिनों में - इसमें हमें अपने आपको अनुशासित करना होगा। अनेक मिशनरी और परमेश्वर के सेवक इसलिए अनैतिकता में गिर गए क्योंकि वे अपनी आखों को अनुशासित नहीं कर सके थे। और भी ऐसे कितने लोग हैं जो इस क्षेत्र में अनुशासन-हीनता की वजह से अपने वैचारिक-जीवन में लगातार गिरते रहते हैं। “मेरी आँखों को व्यर्थ वस्तुओं की ओर से फेर दे” - (भजन. 119:37) यह हमारी निरन्तर प्रार्थना होनी चाहिए।
हमारी जीभ को पवित्र-आत्मा के वश में रहना चाहिए। मसीही कलीसिया में जीभ से बढ़कर आत्मिक मृत्यु फैलाने वाली दूसरी और कोई चीज़ नहीं है। जब यशायाह ने परमेश्वर की पवित्रता को देखा, तो सबसे ज़्यादा वह इस बात के लिए दोषी ठहरा था कि वह अपनी जीभ को किस तरह इस्तेमाल करता रहा था। यह स्पष्ट है कि जब तक उसने अपने आपको परमेश्वर की ज्योति में नहीं देखा था, तब तक उसे इस बात का अहसास ही नहीं हुआ था। यिर्मयाह से प्रभु ने कहा कि अगर वह अपनी जीभ के इस्तेमाल के प्रति सचेत रहेगा, सिर्फ तभी वह परमेश्वर का प्रवक्ता बन सकेगा - जब वह अपनी बातचीत में निकम्मों में से अनमोल को निकाल लाएगा (यिर्म. 15:19)।
ये नबी अपनी जीभ के इस्तेमाल में लापरवाह नहीं हो सकते थे, वर्ना वे परमेश्वर के प्रवक्ता होने के अपने विशेषाधिकार को खो सकते थे। वे हल्की बातचीत, व्यर्थ गपशप, दूसरों के मामलों में हस्तक्षेप, पीठ-पीछे बुराई, और आलोचना में रस लेने के बाद, उसकी जि़म्मेदारी से बच कर नहीं निकल सकते थे। ऐसा करने पर वे अपनी बुलाहट खो देते। आज हमारे बीच में ज़्यादा नबी न होने की यह भी एक वजह हो सकती है।
द नॉर्मल क्रिश्चियन वर्कर (सामान्य मसीही सेवक) में वॉचमैन नी ने कहा, “अगर एक मसीही सेवक बिना सोचे-समझे हर तरह की बातें करेगा, तो वह यह अपेक्षा कैसे कर सकेगा कि वह परमेश्वर का वचन बोलने के लिए प्रभु द्वारा इस्तेमाल किया जा सकेगा? अगर परमेश्वर ने कभी भी अपना वचन हमारे मुख में रखा है, तो हमारी यह गंभीर जि़म्मेदारी बन जाती है कि फिर हम अपने मुख की इस तरह चौकसी करें कि फिर वह सिर्फ उसकी सेवा में ही इस्तेमाल हो सके। हम ऐसा नहीं कर सकते कि अपनी देह के किसी अंग को एक दिन उसके इस्तेमाल के लिए दे दें और अगले दिन उसे अपने तरीक़े से इस्तेमाल करने के लिए वापिस ले लें। जो कुछ भी एक बार उसे अर्पित कर दिया जाता है, फिर वह एक अनन्त रूप में उसका होता है।"
जैसा कि मानवीय देह में होता है, एक डॉक्टर अक्सर हमारी जीभ को देखकर हमारी देह के स्वास्थ्य की दशा जान लेता है, वैसे ही, याकूब हमें बताता है कि आत्मिक परिमण्डल में भी एक व्यक्ति की जीभ उसकी आत्मिकता की परख होती है (याकूब 1:26)। वह बड़े साहस के साथ यह कहता है कि जो व्यक्ति अपनी जीभ को वश में रख सकता है, वह एक सिद्ध पुरुष है (याकूब 3:2)।
परमेश्वर के लिए कोई समय नहीं है
हमारे समय में, सामान्य तौर पर पवित्रता की कमी का तीसरा कारण यह सच्चाई है कि हम परमेश्वर के साथ अकेले में समय नहीं बिताते। कोई भी मनुष्य तब तक पवित्र नहीं हो सकता जब तक कि वह यह तय नहीं करता कि उसके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम महापवित्र स्थान में परमेश्वर के साथ समय बिताना है। यह हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता है।
मूसा का मुख चमक रहा था, लेकिन यह पर्वत पर परमेश्वर के साथ 40 दिन बिताने के बाद ही हुआ था। वह परमेश्वर का पवित्र जन था क्योंकि वह अपने परमेश्वर को आमने-सामने जानता था। ऐसा ही एलीशा के साथ था। वह परमेश्वर के बारे में यह कह सका था, “यहोवा, जिसके सम्मुख मैं खड़ा रहता हूँ” (2 राजा 3:14; 5:16)। वह यह जानता था कि परमेश्वर के साथ अक्सर आमने-सामने मुलाक़ात करना क्या होता है, और इसी बात ने उसे पवित्र बनाया था।
हमारे समयकाल में, हमारे आसपास सब कुछ ऐसी तेज़ रफ्रतार से हो रहा है कि हम भाग-दौड़ की इस गतिविधि में आसानी से फँस सकते हैं, और फिर हमारे पास परमेश्वर के साथ समय बिताने के लिए कोई समय न होगा। शैतान इसी तरह हमारी आत्मिक शक्ति को ख़त्म करता है। वह गतिविधियों और समितियों की सभाओं को हमारे लिए इतना महत्वपूर्ण बना देता है कि फिर महापवित्र स्थान को अनदेखा कर दिया जाता है।
उन समयों के बारे में पढ़ना हमेशा मेरे लिए एक चुनौती रहा है जब यीशु लोगों से दूर होकर अपने पिता के साथ समय बिताने के लिए अकेला चला जाता था। एक बार हज़ारों लोगों के बीच में प्रचार करने और उनकी भौतिक ज़रूरतों को पूरा करने के एक व्यस्त दिन के बाद, वह अपने पिता के साथ एकान्त-वास में एक पर्वत पर चला गया था (मत्ती 14:23)। एक दूसरे मौक़े पर, बीमारों के बीच में देर रात तक काम करने के बाद, वह सुबह जल्दी उठकर एकान्त में प्रार्थना करने चला गया था (मरकुस 1:35)। परमेश्वर के पुत्र ने, जो शायद हममें से हरेक से ज़्यादा व्यस्त रहा होगा, हमें ऐसा उदाहरण दिया है। इन सब बातों की रौशनी में, हममें से कौन यह कहने का दुस्साहस कर सकता है कि हम परमेश्वर की बाट जोहने के बिना काम कर सकते हैं?
एलीशा क्योंकि यह जानता था कि अक्सर परमेश्वर की उपस्थिति में खड़ा रहना क्या होता है, इसलिए वह यह भी जानता था कि निडरता के साथ पाप को कैसे धिक्कारा जाता है। उसने निर्भयता के साथ इस्राएल के राजा से यह कह दिया था कि परमेश्वर उसके बारे में क्या सोचता है। जब उसका सहकर्मी गेहजी लालच के पाप में पड़ गया था, तो उसने उसको भी आमने-सामने धिक्कारा था। और एलीशा ने यह सब किसी तरह की कोई युक्ति या कूटनीति से, या बात को घुमा-फिरा कर नहीं किया था।
इसमें कोई शक नहीं कि कूटनीति और युक्ति के लिए एक जगह होती है, लेकिन ऐसे भी समय होते हैं जब पाप को एक विश्वासयोग्य और निर्भय रूप में धिक्कारने की ज़रूरत होती है। ऐसा क्यों है कि हमारे बीच में ऐसे थोड़े ही लोग हैं जो हमारे समय के मसीही जगत में व्यापक रूप से फैले पाप, सांसारिकता और बुराई के साथ समझौता करने वालों के ख़िलाफ बोलते हैं? मेरा ऐसा मानना है कि हम मनुष्यों की प्रशंसा चाहते हैं इसलिए हम किसी को नाराज़ करना नहीं चाहते। और ऐसी शारीरिक अभिलाषा का स्रोत् यक़ीनन यह हक़ीक़त है कि हम परमेश्वर की उपस्थिति में बहुत कम समय बिताते हैं, जिसका नतीजा यह होता है कि हम उसका भय मानना नहीं सीख पाते।
अगर हमें परमेश्वर के नबी होना है, तो यह ज़रूरी है कि हम बुराई के साथ किए जा रहे ऐसे हरेक समझौते के ख़िलाफ बोलें जो परमेश्वर के वचन में ठहराए गए मापदण्डों के ख़िलाफ हैं, और हम उन बातों के ख़िलाफ खड़े हों जिनके ख़िलाफ स्वयं परमेश्वर है। हमें सिर्फ व्यक्तिगत रूप में ही नहीं, बल्कि विश्वासियों की एक देह के रूप में सामूहिक तौर पर भी इस तरह खड़े रहना होगा। अगर हम इन दिनों में भारत में सुसमाचार-प्रचार करने वाली एक देह के रूप में एक नबूवत की वाणी में नहीं बोलेंगे, तो परमेश्वर के सामने हम अपनी जि़म्मेदारी पूरी करने से चूक जाएंगे।
परमेश्वर का उसकी कलीसिया के लिए जो सर्वोच्च उद्देश्य है, अगर हम उस मानक स्तर से कम किसी भी बात के ख़िलाफ बोलेंगे, तो शायद हमारी संख्या कम हो जाएगी, लेकिन परमेश्वर की दिलचस्पी हमेशा गुणवत्ता में रही है, मात्र/संख्या में नहीं। स्वयं परमेश्वर ने संकरे मार्ग की जितनी चौड़ाई रखी है, उसे हमें उससे ज़्यादा चौड़ा नहीं करना है।
प्राचीन काल के नबियों को उनके समय के लोगों ने हमेशा ग़लत समझा था और उन्हें अस्वीकार किया था, और आज के नबियों के साथ भी यही होने वाला है। लेकिन हम परमेश्वर के उस महान् जन ए. बी. सिम्पसन के बुद्धिमानी भरे शब्दों में से साहस पा सकते हैं जिसने क्रिश्चियन एण्ड मिशनरी अलायंस की स्थापना की थी, “कई बार एक व्यक्ति की असली क़ीमत उसके मित्रों की नहीं उसके शत्रुओं की संख्या से आंकी जा सकती है। हरेक व्यक्ति जो अपने युग से आगे की बातों में जीता है, उसे यक़ीनन गलत समझा जाता है और अक्सर उसे सताया जाता है। इसलिए हमें यह अपेक्षा रखनी चाहिए कि हमें पसन्द नहीं किया जाएगा, अक्सर हमें अकेले खड़ा रहना पड़ेगा, हमारी बुराई भी की जाएगी, और धार्मिक जगत में से हमें बुरी तरह से, और झूठे आरोप लगाकर ‘छावनी के बाहर’ खदेड़ दिया जाएगा।"
परमेश्वर आज सिर्फ प्रचारकों को ही नहीं बल्कि ऐसे नबियों को ढूंढ रहा है जो पुराने नबियों की तरह उसके वचन का विश्वासयोग्यता के साथ प्रचार कर सकें - एलीशा जैसे पुरुष जिनके बारे में यह कहा जा सका, “प्रभु का वचन उसके पास है” (2 राजा 3:12)।
लेकिन ऐसी सेवकाई का कोई छोटा रास्ता नहीं है। नबी कुछ ही क्षणों में कॉफी की तरह तैयार नहीं हो जाते। और न ही वे सैमिनरी के प्रशिक्षण द्वारा तैयार होते हैं। हमें यह पता होना चाहिए कि घण्टों तक परमेश्वर की उपस्थिति में रहना, उसकी महिमा को देखना, उसकी आवाज़ को सुनना, और उसकी समानता में ढलना क्या होता है।
हाँ, इससे पहले कि हम नबी हों, हमें पवित्र होना होगा।
नवजागृति के लिए प्रार्थना करना
भाइयो और बहनों, इससे पहले कि हम नवजागृति के लिए प्रार्थना करें, हमें स्वयं से यह सवाल पूछने की ज़रूरत है कि क्या हम परमेश्वर के पवित्र पुरुष व स्त्री होने की क़ीमत चुकाने के लिए तैयार हैं?
अक्सर, जब हम प्रार्थना करते हैं, तो मुझे लगता है कि परमेश्वर को हमें प्रार्थना बंद कर देने के लिए कहना पड़ जाता है। हाँ, ऐसे समय होते हैं जब परमेश्वर यह नहीं चाहता कि उसके बच्चे प्रार्थना करें। उसने एक बार यहोशू से कहा था, “यहोशू, तू प्रार्थना करना बंद कर। तू अपना समय बर्बाद कर रहा है।" और जब तक यहोशू ने खड़े होकर आकान के पाप का सबसे सामने पर्दाफाश नहीं किया और इस्राएल की छावनी में सब कुछ ठीक नहीं कर दिया, तब तक परमेश्वर ने उसकी प्रार्थना सुनने से इनकार कर दिया था (यहोशू 7:10-13)।
इसलिए, जब हम कृपा के सिंहासन के पास आएं, तो हमें अपने आपसे यह सवाल पूछने की ज़रूरत होती है कि क्या परमेश्वर सुन रहा है? शायद वह न सुन रहा हो। हमने अभी तक उस भाई के साथ मेल-मिलाप न किया हो जिसके साथ हमारी संगति टूटी हुई है। शायद हम अपनी मण्डलियों के धनवान लोगों का पक्ष लेते हैं और उनके पापों में उनका सामना नहीं करते। यह सम्भव है कि हमने अपने आपको अभी तक नम्र व दीन नहीं किया है, और अपने जीवनों के ढोंग और दिखावे का अंगीकार नहीं किया है। यह हो सकता है कि हमारी जीभ अभी तक हमारे वश में नहीं है। हम शायद ही कभी महापवित्र स्थान में पाए जाते हैं। हमारे हृदय अभी तक उस जगह पर नहीं पहुँचे हैं जहाँ हम किसी भी क़ीमत पर परमेश्वर के पवित्र पुरुष या स्त्री होने की लालसा करते हैं। फिर हमारी प्रार्थनाएं किस काम की होंगी? क्योंकि एक पवित्र जन की प्रभावशाली प्रार्थना ही परमेश्वर के सम्मुख बहुत कुछ हासिल करती है (याकूब 5:16)।
ऐसा हो कि प्रभु हमारे हृदयों को जाँच कर परख ले।
“यहोशापात ने कहा, ‘क्या यहाँ परमेश्वर का कोई नबी नहीं जिसके द्वारा हम परमेश्वर से पूछें?” तब इस्राएल के राजा एक सेवक ने उत्तर देते हुए कहा, ‘हाँ, शापात का पुत्र एलीशा यहाँ है, जो एलिय्याह के हाथ धुलाया करता था’” (2 राजा 3:11)।
एलीशा का उल्लेख यहाँ एक ऐसे व्यक्ति के रूप मे किया गया है जो एलिय्याह के हाथ धुलाता था - या दूसरे शब्दों में, वह जो एक सेवक का काम करता था।
20वीं शताब्दी के मापदण्डों के अनुसार, निश्चय ही एक नबी का परिचय कराने का यह कोई सराहनीय तरीक़ा नहीं हो सकता। आज के अनेक प्रचारक उनका इस तरह से परिचय कराए जाने पर नाराज़ हो जाएंगे।
एलीशा ने लोगों के हाथ धुलाने के लिए पानी डालने के अलावा और भी बहुत से काम किए थे। उसने यर्दन नदी के पानी को दो भागों में बाँट दिया था, और उसने यरीहो में पानी से फैली महामारी को रोका और लोगों को चंगा किया था। ये वास्तव में अद्भुत चमत्कार थे। फिर भी यहाँ उसका परिचय एक सेवक के रूप में किया गया था। और मेरा विचार है कि उसे भी यह शीर्षक बुरा न लगा होगा। एलिय्याह के प्रति उसकी सेवकाई इस तरह से सबकी नज़र में थी कि लोगों के मन में उसकी बस यही छवि बस गई थी। इसलिए राजा के सेवक ने यहाँ एलीशा का उल्लेख हाथों पर पानी डालने वाले के रूप में किया था।
भाइयो व बहनों, हमें भी यही होने के लिए बुलाया गया है - दूसरों के सेवक। यीशु स्वयं ऐसा था जिसने अपने शिष्यों के पाँवों पर पानी डाला था। उसने कहा, मैं सेवा करवाने नहीं सेवा करने के लिए आया हूँ (मत्ती 20:28)। जो लोग पृथ्वी और स्वर्ग के राज्यों में अपने लिए अगुवाई के प्रतिष्ठित पद चाहते थे, उनसे उसने कह दिया कि उसका राज्य संसार के राज्यों से अलग होगा, और जो भी उसके राज्य में बड़ा होना चाहता है उसे दूसरों का सेवक बनना होगा।
प्रभु के हरेक सेवक को मनुष्यों का सेवक होना चाहिए, वर्ना वह परमेश्वर का सेवक होने का अपना सम्मान खो देता है।
मेरे विचार में ऐसी दो बातें हैं जो परमेश्वर के सेवक के स्वभाव के विपरीत हैं। एक वह अभिलाषा है जिसमें वह जाना-माना और मशहूर होना चाहता है। दूसरा वह मनोभाव है जिसमें वह दूसरों को अपने अधिकार के वश में रखना चाहता है। हम अपने प्रभु यीशु में इन दोनों ही बातों की विपरीत बात देखते हैंः
“उसने अपने आपको शून्य कर दिया... और दास का सा रूप धारण कर लिया” (फिलि. 2:7)।
आइए, हम इन दोनों ही बातों पर विचार करते हैं।
मशहूर होने की अभिलाषा
हम शायद संसार में एक जाने-माने और मशहूर व्यक्ति होने की अपनी अभिलाषा से मुक्त हो गए होंगे, लेकिन यह हो सकता है कि हममें यह छुपी हुई अभिलाषा हो कि हम सुसमाचार प्रचार करने वालों के बीच में हम अपने लिए एक बड़ा नाम कमा लें और इस रूप में स्वीकार किए जाएं। शायद हमारे अन्दर यह अभिलाषा हो कि हम एक नवजागृति लाने वाले के रूप में या एक अद्भुत बाइबल शिक्षक के रूप में मशहूर होना चाहते हों। या हमारी यह अभिलाषा हो सकती है कि दूसरे लोग यह जानें कि हमारे प्रचार से लोग हमेशा आशिष पाते हैं। या यह भी हो सकता है कि हम एक प्रगतिशील मत या एक मिशन के अधीक्षक या निदेशक के रूप में प्रख्यात् होना चाहते हों। वह चाहे जो भी हो, ऐसी अभिलाषाएं यीशु की आत्मा के विपरीत हैं। और अक्सर क्योंकि हमारे हृदयों में ऐसी शारीरिक लालसाएं मण्डराती रहती हैं, इसलिए ये ऐसी बाधाएं बन जाती हैं जिनकी वजह से फिर परमेश्वर हममें से होकर उसकी भरपूरी को दूसरों तक नहीं पहुँचा पाता।
वास्तव में, आज यह एक दुःखद हक़ीकत है कि मसीही लोगों के बीच में मशहूर होने की एक अस्वस्थ होड़ लगी हुई है। और इसकी वजह से जो भी आत्मिकता हममें बची हुई थी, उस पर भी एक घातक प्रहार हुआ है। यह बीमारी ऐसी व्यापक महामारी बन गई है कि अगर हम हर समय सचेत रहकर इससे संघर्ष नहीं करेंगे, तो हम भी अनजाने ही इस रोग से ग्रस्त हो जाएंगे।
हमारे समय के अगुवे और प्रचारक अब पौलुस की तरह संसार का मैल और कुड़ा-करकट नहीं हैं (1 कुरि. 4:13)। वे अक्सर फिल्मी सितारों और अति-विशिष्ट व्यक्तियों की तरह होते हैं। उनके बारे में लिखा जाता है, उनकी तस्वीरें ली जाती हैं, उन्हें आसमानों तक ऊँचा उठाया जाता है और उन्हें महिमान्वित किया जाता है। और सबसे बुरी बात यह है कि ये लोग (जिन्हें सब कुछ कृपा द्वारा मिला है), स्वयं भी यही चाहते हैं! उन्हें यह बहुत अच्छा लगता है कि मसीही जगत में वे अगुवों के रूप में जाने-माने जाएं। यह सच है कि हमारे बारे में और हमारे काम के बारे में बात करने से हम लोगों को रोक नहीं सकते। लेकिन इस तरह नाम कमाने की किसी भी गुप्त अभिलाषा से परमेश्वर हमें छुटकारा दिलाए। हममें ऐसी दूसरी कोई अभिलाषा न हो कि हम सेवकों के रूप में - दूसरों के हाथों पर पानी डालने वालों के अलावा, और किसी भी रूप में जाने जाएं।
यीशु ने लोकप्रिय होना न चाहा था। उसके समय के लोग जब उसे राजा बनाना चाहते थे, तो वह उनसे दूर होकर अपने पिता के साथ एकान्तवास में चला गया था। वह पृथ्वी पर एक अति-विशिष्ट व्यक्ति नहीं होना चाहता था (यूहन्ना 6:15)। उसने, जो यहाँ पिता की महिमा की सिद्ध अभिव्यक्ति था, अपने आपको छुपा लिया था, और अपने आपको पृथ्वी की सारी लोकप्रियता औैर मान-सम्मान से दूर कर लिया था, तो हम नश्वर मनुष्यों को यह करने की और भी कितनी ज़्यादा ज़रूरत होनी चाहिए? प्रभु का सच्चा सेवक इस पृथ्वी पर अपने स्वामी के पदचिन्हों पर चलता है।
लोकप्रियता के पीछे दौड़ने के अलावा, मैं मसीही जगत में प्रभावशाली आंकड़े दर्शाने की भी लालसा को देखता हूँ। प्राचीनकाल में जैसे नरभक्षी लोग कटे हुए सिरों की गिनती रखते थे, वर्तमान समय के सुसमाचार प्रचारक भी सिरों, उठे हुए हाथों और संकल्प-पत्रों को गिनने की शारीरिक लालसा के गुलाम बन गए हैं, और फिर वे इन संख्याओं के बारे में (बड़ी चालाकी से) अहंकार भरी बातें करते हैं। शैतान हममें इस अभिलाषा को देखता है, और फिर इसे उत्तेजित करके हमें मार्ग से भटका देता है।
इस एक उदाहरण से मेरी बात का अर्थ स्पष्ट हो जाएगा। भारत के एक भाग में, एक बार सुसमचार प्रचार के लिए सभाएं आयोजित की गईं और एक जाने-माने प्रचारक को प्रचार करने के लिए आमंत्रित किया गया। अनेक लोगों ने अपने हाथ ऊँचे किए और संकल्प-पत्र भर दिए। देश के अनेक भागों में इन आंकड़ों को व्यापक रूप में फैलाया गया और लोगों ने एक “नवजागृति” के शुरू हो जाने के लिए परमेश्वर की स्तुति की। एक साल के बाद, मेरी मुलाक़ात उस व्यक्ति से हुई जिसे इन “परिवर्तित” लोगों के बीच में आगे की कार्यवाही करने की जि़म्मेदारी सौंपी गई थी, और मैंने उससे पूछा कि सब कैसा चल रहा था। उसने कहा कि कलीसियाओं की सामान्य दशाओं में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है और जिन कलीसियाओं की उसने भेंट की थी, वहाँ सब लोग पहले जैसे ही थे। इसमें कोई शक नहीं कि सभाओं में एक भावनात्मक उत्तेजना का संचार हुआ था, लेकिन कोई स्थाई बदलाव नहीं आया था। कुछ लोगों ने प्रचारक को निराश न करने की वजह से अपने हाथ उठाए थे, क्योंकि वह बहुत दूर से उनके बीच में प्रचार करने आया था! कुछ लोगों ने अपने हाथ इसलिए उठाए थे क्योंकि वे बाद में उस “जाने-माने” प्रचारक के साथ यह कहने द्वारा व्यक्तिगत सम्बंध बनाना चाहते थे कि उन्होंने उसकी सभाओं में उद्धार पाया था! दूसरे सिर्फ इस वजह से आगे आए थे क्योंकि वे सुसमाचार प्रचारक को नज़दीक से देखना चाहते थे! उस अद्भुत “नवजागृति” की यह कहानी थी, और यह काल्पनिक नहीं वास्तविक बात है।
भाइयो व बहनों, जिसे मैं एक “बाहरी सफलता” कहूँगा, यह उसका एक अच्छा उदाहरण है। शैतान ने अनेक लोगों को मूर्ख बनाने के लिए इसे इस्तेमाल किया था। शायद ही किसी का उद्धार हुआ था, शायद ही कोई और ज़्यादा पवित्र हुआ था, और फिर भी उस सुसमाचार प्रचारक और उन सभाओं की आयोजन-समिति ने उस क्षेत्र में “परमेश्वर के लिए एक अद्भुत द्वार खुल जाने” के लिए बड़ा आनन्द मनाया था! सभाओं की उस श्रंखला में, अगर लोगों ने अपने हाथ न उठाए होते और संकल्प-पत्र न भरे होते, तो प्रचारक और वह आयोजन-समिति शायद ऐसे नम्र व दीन हो जाते कि वे प्रार्थना और उपवास द्वारा परमेश्वर के मुख के खोजी हो जाते, और उसके बाद असली आत्मिक मूल्य की कोई बात हासिल हो पाती। लेकिन शैतान ने एक बाहरी सफलता द्वारा सबको प्रसन्न करने द्वारा ऐसा नहीं होने दिया। उसने सबको ऐसा सोचने वाला बना दिया कि उसकी गिरफ़्त में से हज़ारों लोग छूट गए हैं, जबकि हक़ीक़त में ऐसा नहीं हुआ था।
शैतान अनेक विश्वासियों को भी ऐसी ही सतही नवजागृतियों द्वारा मूर्ख बना रहा है। लोग वेदी के पास आते और रोते-बिलखते हैं, लेकिन अपनी इच्छा और अपने जीवन परमेश्वर को नहीं सौंपते। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो प्रचारक के पास आकर उसे यह बताते हैं कि उसके संदेश उनके लिए कितनी बड़ी आशिष रहे हैं। प्रचारक भी मन-ही-मन यह सोचकर प्रसन्न होता हुआ लौटता है कि वह भी वैज़ली और फिन्नी की तरह एक नवजागृति लाने वाला व्यक्ति है! वह दूसरे लोगों को भी इस “नवजागृति” की सूचना यह बहाना बनाते हुए देता है कि वह परमेश्वर की महिमा करना चाहता है, जबकि वास्तव में उसकी दिलचस्पी सिर्फ दूसरों को यह बताने में होती है कि परमेश्वर ने उसे कैसे इस्तेमाल किया है। क्या वह परमेश्वर के पास एक गुप्त स्थान में जाता है, और जिनके बीच में उसने प्रचार किया है उन आत्माओं के लिए छुटकारे की माँग करता है? नहीं। वह सोचता है कि उन्हें पहले ही छुटकारा मिल चुका है। इसलिए सभाओं के पूरा हो जाने के बाद वह प्रार्थना करने की ज़रूरत महसूस नहीं करता। उसे तो “नवजागृति” के प्रचार करने से ही फुर्सत नहीं मिलती।
आज अनेक मसीही सेवक शत्रु द्वारा इसी तरह मूर्ख बनाए जा रहे हैं - इसलिए नहीं क्योंकि वे अपने मसीही सिद्धान्तों में उदार होते हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि वे प्रचार और आंकड़ों से प्रेम करते हैं। शैतान ऐसी स्थितियों में इसलिए सफल होता है क्योंकि वह प्रचारकों और समिति के सदस्यों दोनों के ही हृदयों में लोकप्रियता और नाम कमाने की अभिलाषा को देखता है। वह जानता है कि सुसमाचार प्रचारक लोगों के बीच में अपनी ऐसी लोकप्रियता बनाए रखना चाहते हैं कि वे आत्माओं को जीतने वाले महान् प्रचारक हैं और यह कि आयोजन समिति के सदस्य यह चाहते हैं कि लोग यह समझें कि उनके परिश्रम के द्वारा बहुत सा फल पैदा हुआ है। और इस तरह वह अपनी शैतानी योजना को सफल बनाता है।
ऊपर लिखी ये बातें उन मिशनों और मसीही मतों में भी लागू होती हैं जो आंकड़ों में बड़ा गौरव महसूस करते हैं।
कितना भला हो अगर ऐसे मामलों में हम भी दाऊद की तरह अपनी सांसारिकता के लिए वैसे ही दोषी ठहराए जाएं जैसे वह लोगों की गिनती करने और उसमें गौरान्वित महसूस करने के लिए दोषी ठहराया गया था (2 शमू. 24)। जो बातें सिर्फ सतही हैं, ऐसा हो कि प्रभु हमें उनके आर-पार देख पाने की अंतर्दृष्टि प्रदान करे। वह हमें विज्ञापन के संसार की आत्मा से छुटकारा दे क्योंकि यह हमेशा परमेश्वर के काम को ख़त्म करने का ही काम करती है। अगर हम ऐसी शारीरिक अभिलाषाओं और लालसाओं से मुक्त नहीं होंगे, तो शैतान किसी-न-किसी तरीक़े से हमें मूर्ख बनाने में सफल हो ही जाएगा।
अपने जीवन में मुझे एक सबसे मुश्किल काम सबके सामने साक्षी देना लगता है। एक संदेश का प्रचार करना मुझे सबके बीच में साक्षी देने से ज़्यादा आसान काम लगता है। यह इसलिए मुश्किल है क्योंकि सबके सामने अपने जीवन या अपने काम की साक्षी देते समय थोड़ी महिमा ख़ुद ले लेने से बचा नहीं जा सकता।
मुझे यक़ीन है कि हममें से कोई भी सारी या ज़्यादा महिमा और श्रेय स्वयं लेने का दुस्साहस नहीं कर सकेगा। शायद हम 5: या 10: ही लेते होंगे। हम यह सोच सकते हैं कि जितना काम हम करते हैं, उसमें से अपना इतना हिस्सा ले लेना कोई ज़्यादा नहीं है!
तो क्या अब इस बात से हमें हैरानी होनी चाहिए कि परमेश्वर की महिमा हमसे दूर हो गई है और हमारी अनेक कलीसियाओं पर ‘ईकाबोत’ लिखना पड़ रहा है?
हमें परमेश्वर की महिमा को हाथ लगाने से डरना चाहिए। हमारा परमेश्वर जलन रखने वाला परमेश्वर है और वह अपनी महिमा किसी दूसरे के साथ नहीं बाँटेगा - उसका थोड़ा सा प्रतिशत भी नहीं (यशा. 42:8)।
पौलुस को एक बार तीसरे स्वर्ग तक ऊँचा उठाया गया था, और उसने 14 साल तक इस बारे में किसी को कुछ नहीं बताया। उसने इसका उल्लेख सिर्फ तभी किया जब उसे अपनी प्रेरिताई का बचाव करने की ज़रूरत पड़ी थी - और उस समय भी उसने विस्तृत रूप में कुछ नहीं कहा था (2 कुरि. 12:2)।
जिसने परमेश्वर की महिमा को देख लिया है, वह हमेशा अपना मुख इसी तरह छुपाए रखेगा जैसे मूसा ने जलती हुई झाड़ी को देखकर छुपा लिया था, और जैसे सिंहासन के पास रहने वाले साराप छुपाए रहते हैं (निर्ग. 3:6; यशायाह 6:2)। वह यह नहीं चाहेगा कि वह लोगों द्वारा देखा या जाना जाए। परमेश्वर को उसकी महिमा में देख लेने के बाद, वह उसकी महिमा को छूने से डरेगा। वह हमेशा अपना मुँह छुपाए रहेगा। जब तक बहुत ही ज़रूरी न हो, तब तक वह अपने या अपने काम के बारे में कोई बात नहीं करेगा, और अगर करेगा भी, तो दबी ज़बान से ही करेगा कि ऐसा न हो कि उसका कुछ श्रेय वह अपने लिए भी ले ले। वह परमेश्वर के प्रति अपनी भक्ति, अपने अद्भुत अनुभव, और अपने बड़े बलिदानों के बारे में (जो अक्सर साक्षी का ओढ़ना ओढ़े रहते हैं) एक सार्वजनिक सभा में या एक मसीही पत्रिका में बात करने की अपनी शारीरिक अभिलाषा को दूर रखेगा।
मसीही जगत में एक और बीमारी जो मैंने पाई है वह अगुवाई के पदों के लिए किया जाने वाला लालच है। जब मैं नौसेना में था, तो मैंने कुछ ऐसे लोग देखे कि अगर उन्हें सबसे ऊपर पहुँचने का मौक़ा मिल रहा हो, तो उन्हें दूसरों के कंधों पर चढ़ने और उन्हें कुचलने में कोई आपत्ति नहीं थी। जब मैंने सेना को छोड़ा तब मैंने यह सोचा था कि अब मुझे ऐसे लोग नहीं मिलेंगे। लेकिन जब मैं अपने देश में मसीही लोगों के बीच में आने-जाने लगा तो मुझे यह देखकर हैरानी और दुःख दोनों हुए क्योंकि मैंने वही बात सुसमाचार प्रचार करने वाले मसीहियों में भी देखी - एक पद का लालच और उसे पाने की होड़। मैंने मसीहियों को अधीक्षक, प्राचीन और कोषाध्यक्ष बनने के लिए, और मसीही संगठनों की कार्यकारी समितियों के सदस्य बनने के लिए युक्तियाँ करते और प्रचार अभियान चलाते देखा है।
यह सब यीशु की आत्मा के ख़िलाफ है। जिस मनुष्य ने परमेश्वर की महिमा को देख लिया है, वह नाम कमाने की दौड़ में शामिल नहीं होता - न तो संसार में और न ही सुसमाचार प्रचार करने वालों के दायरों में। उसका पूरा ध्यान उस लक्ष्य को पाने करने पर लगा होता है कि वह मसीह यीशु में परमेश्वर की ऊँची बुलाहट का ईनाम पा सके। वह सिर्फ दूसरों के लिए पानी डालना चाहता है, ज़मीन पर झाड़ू लगाना चाहता है, और पृथ्वी पर अपने परमेश्वर की महिमा करना चाहता है।
हमें यह हमेशा याद रहे कि मनुष्यों की नज़र में महान् होने का अर्थ हमेशा परमेश्वर की नज़र में भी महान् होना नहीं होता। डॉक्टर ए. डब्ल्यू. टोज़र ने एक बार कहा था कि 30 सालों तक सारा धार्मिक दृश्य देखने के बाद, वह इस नतीजे पर पहुँचने पर मजबूर हो गए हैं कि संत की भक्ति का जीवन और कलीसियाई अगुवाई एक ही बात नहीं है। यह बात भारत में भी सही है। हमारे देश में जो बड़े पुलपिटों में खड़े होते हैं, और जो मसीही दायरों में ऊँचे पदों पर हैं, अक्सर परमेश्वर के सबसे बड़े संत नहीं होते। परमेश्वर के ज़्यादातर दुर्लभ मूल्यवान पत्थर हमारी कलीसियाओं के निर्धन और अनजान लोग होते हैं। हमें परमेश्वर की कृपा मिले और जैसे यूहन्ना बपतिस्मा था, वैसे ही हम भी सिर्फ उसकी नज़र में बड़ा होना चाहें (लूका 1:15)। परमेश्वर की नज़र में यूहन्ना बपतिस्मा के महान् होने का एक कारण था। यूहन्ना के जीवन का आवेग, जैसा उसने स्वयं व्यक्त किया, यह था कि मसीह बढ़ता रहे और वह घटता रहे (यूहन्ना 3:30)। वह लगातार पीछे हटते रहना चाहता था कि यीशु का स्थान प्रमुख हो।
परमेश्वर का हृदय इस एक बात पर लगा रहता है, कि मसीह को सब बातों में प्रथम स्थान मिले (कुलु- 1:18)। अगर हमारे हृदय भी इस एक बात पर केन्द्रित रहेंगे, तो स्वयं हम पृष्ठभूमि में चले जाएंगे जिससे कि सिर्फ मसीह को ऊँचा उठाया जा सके, और फिर यक़ीनन परमेश्वर की सामर्थ्य और अधिकार लगातार हमारे साथ रहेगा।
जब हमारे अपने स्वार्थी लक्ष्य और उद्देश्य होते हैं, जो परमेश्वर के अलावा शायद दूसरा और कोई नहीं जानता, तो परमेश्वर अपने पवित्र नाम के प्रति अपनी विश्वासयोग्यता की वजह से अपनी सामर्थ्य हमें नहीं दे सकता।
भाइयो व बहनों, परमेश्वर सिर्फ ऐसे पुरुषों व स्त्रियों द्वारा ही अपनी असली कलीसिया का निर्माण कर सकता है जिनमें यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की आत्मा हो। एक असली कलीसिया है, और एक नकली कलीसिया है - एक यरूशलेम और एक बेबीलोन - जैसा कि प्रकाशितवाक्य की पुस्तक हमें स्पष्ट रूप में बताती है। यरूशलेम का निर्माण सिर्फ ऐसे लोगों द्वारा ही हो सकता है जो अपने आपको नीचा करते हैं, लेकिन बेबीलोन का निर्माण कोई भी कर सकता है। यरूशलेम अनन्त के लिए है, लेकिन बेबीलोन को परमेश्वर जल्दी ही नष्ट कर देगा (प्रका- 18:21)।
आपको याद होगा कि बाबुल की मीनार की शुरूआत (बेबीलोन) कैसे हुई थी? लोगों ने इकट्ठे होकर आपस में कहा था, “आओ, हम अपने लिए नाम कमाएं” (उत्पत्ति 11:4)। वर्षों बाद, बेबीलोन का राजा भी इसी स्वर में बोला था, “क्या यह महान् बाबुल नगरी नहीं है जिसे मैंने अपने बाहुबल और अपने प्रताप की महिमा के लिए बनाया है” (दानि. 4:30)।
कोई भी विश्वासी जो अपने लिए ऐसा ही नाम कमाना चाहता है और अपने आपको मनुष्यों की नज़र में ऊँचा उठाना चाहता है, उसमें बेबीलोन की यही आत्मा है, और अपने परिश्रम से वह जो कुछ भी बनाता है, वह अनन्त में बना नहीं रहेगा। और भाइयो, यह अफसोस की बात है कि सुसमाचारीय दायरों में यह आत्मा सबसे ऊपर तक पाई जाती है।
यह वही आत्मा है जो लूसीफर में थी। वह उस पद से संतुष्ट नहीं था जो उसे परमेश्वर ने दिया था। वह और ऊँचे पर जाना चाहता था, और इसलिए उसने अपना अभिषेक खो दिया था। वह एक समय एक अभिषिक्त करूब था, लेकिन अंत में वह शैतान बन गया। और सिर्फ वही नहीं है जिसने इस तरह से अपना अभिषेक खो दिया है।
मसीह की आत्मा इन सब बातों के विरोध में है। हालांकि वह परमेश्वर है, फिर भी उसने हमारे लिए आपको दीन किया और शून्य होकर दास का सा स्वरूप धारण कर लिया। और बाइबल कहती है, “अपने में वही स्वभाव रखो जो मसीह यीशु में था” (फिलि. 2:5-8)। परमेश्वर हमारे हृदय में से ऐसी हरेक अभिलाषा को जड़ से उखाड़ फेंके जिसमें हम अपने लिए बड़ा नाम कमाना और मनुष्यों द्वारा स्वीकार किए जाना चाहते हैं। हम इधर-उधर घूम-घूमकर अपने संपर्क बढ़ाने और सुसमाचार प्रचार करने वालों के दायरों में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश न करें। हम ऐसे प्रयास न करें कि हमें विदेशों से “मूर्तिपूजक भारत में से चमत्कारिक आत्मिक अजूबों” के रूप में आमंत्रण मिलें।
अगर हमें यीशु-जैसा होना है, तो हमें अपना समय सामान्य लोगों में बिताना पड़ेगा। हमें हर समय सिर्फ इधर-उधर घूमकर सुसमाचार प्रचारकों के साथ अपने सम्बंध बनाने की खोज में रहने की बजाय, यीशु की तरह मामूली पुरुषों व स्त्रियों के बीच में रहना होगा। बाइबल कहती है, “अभिमानी न हो, परन्तु दीन-हीन लोगों से मिलजुल कर रहो। अपनी दृष्टि में बुद्धिमान न बनो” (रोमियों. 12:16 - लिविन्ग बाइबल)।
परमेश्वर हमें नीचा बनाए रखे। सबसे सुरक्षित जगह सूली के नीचे है।
दूसरों को अपने अधिकार के वश में रहना
हमारा प्रभु एक सेवक था, लेकिन अफसोस, आज मसीही अगुवे और मिशनरी ज़्यादातर स्वामी होते हैं - मालिक और साहब। हम दूसरों को हमें ‘साहब’ बोलने से शायद न रोक सकें, लेकिन सवाल यह है कि क्या अपने हृदय हम साहिब होना चाहते हैं या नहीं।
हमें उस पाठ को दोबारा सीखने की ज़रूरत है जिसे यीशु ने अपने शिष्यों को बड़े धीरज के साथ सिखाना चाहा था। उनके पाँव धोने के बाद, उसने उनसे कहा था, “ग़ैर-यहूदियों के राजा और बड़े लोग अपने दासों को आज्ञा देते हैं... लेकिन तुममें जो तुम्हारी सबसे अच्छी सेवा करे वही तुम्हारा अगुवा हो। बाहर संसार में स्वामी मेज़ पर बैठता है और उसके दास उसके लिए परोसते हैं। लेकिन ऐसा नहीं होगा! मैं तुम्हारा सेवक हूँ” (लूका 22:25-27 - लिविंग बाइबल)। ऐसा हो कि ये शब्द हमारे उस मनोभाव के लिए हमें दोषी ठहराएं जिसमें हम अपने अधीन रहने वाले लोगों को अपने वश में रखते हैं। हमारे प्रभु के उदाहरण द्वारा हमें कितना नम्र व दीन हो जाना चाहिए। ऐसा हो कि हमारे अन्दर आत्म-सम्मान, गरिमा, और नस्लीय श्रेष्ठता के बारे में जो भी झूठे, सांसारिक विचार हैं, प्रभु उन सबको हमसे दूर कर दे। वह हमें फिर से यह सिखा दे कि परमेश्वर के राज्य में सेवक होना, यीशु की तरह एक पानी डालने वाला होना, महानता का सबसे बड़ा चिन्ह् है।
परमेश्वर एक नीचा स्थान ग्रहण करने में हमारी मदद करे, सिर्फ अभी नहीं बल्कि हमारे जीवनों के अंत तक। हम अपने भाइयों से कभी भी आदर, सम्मान और आज्ञापालन की अपेक्षा न करें, तब भी नहीं जब हम ऐसा महसूस करते हों कि हम प्रभु की दाख की बारी के पुराने मज़दूर हैं। दूसरों के प्रति हमारे मनोभाव में, हम हमेशा यह याद रखें कि वे स्वामी हैं और हम सेवक हैं - चाहे कलीसिया के प्रशासनिक ढाँचे में हमारा स्थान उनसे ऊँचा और हमारी आयु और अनुभव उनसे ज़्यादा भी क्यों न हो। हम जितना ऊँचे जाते हैं, दूसरों की सेवा करने की हमारी उतनी ही ज़्यादा जि़म्मेदारी बढ़ जाती है। 2 कुरिन्थियों 4:5 इस संदर्भ में एक बड़ा चुनौती से भरा वचन है। पौलुस कहता है (उसके शब्दों का यह भावार्थ है), “हम दो बातों का प्रचार करते हैंः अपने मुख से हम यीशु मसीह के प्रभु होने का प्रचार करते हैं। हमारे जीवन से हम स्वयं को यीशु की ख़ातिर तुम्हारा सेवक होने का प्रचार करते हैं।"
भाइयो व बहनों, यही हमारा दोहरा संदेश है; और जिसे परमेश्वर ने जोड़ा है, उसे कोई मनुष्य अलग न करे। यह पूरा सुसमाचार है। हम कभी इसका अधूरा प्रचार करने के दोषी न पाए जाएं, क्योंकि जब इस संदेश का पूरा प्रचार होगा, सिर्फ तभी ग़ैर-मसीही लोग हममें मसीह को पवित्र होता हुआ देख सकेंगे। हमारे देश में आज इस प्रचार की कमी की वजह से प्रभु के काम में बड़ी रुकावटें पैदा हो गई हैं।
अगर हमें सेवक होना है, तो हमें वास्तव में नम्र व दीन होना पड़ेगा। हम सहमति को नम्रता समझने की ग़लती न करें। सहमत होना आसान होता है। स्वार्थी राजनेताओं में भी ऐसी सहमति हो जाती है। अपने बारे में हम यह भ्रम से भरा मत पाल सकते हैं कि हम बड़े लोग हैं, और फिर छोटे लोगों के साथ सहभागिता करने के लिए सहमत होने द्वारा हम उसे नम्रता समझने की ग़लती कर सकते हैं। नहीं, यह हर्गिज़ नम्रता नहीं है।
असली नम्रता में यह समझना शामिल रहता है कि परमेश्वर की नज़र में मुझमें और एक दूसरे व्यक्ति में कोई फ़र्क नहीं है। मुझमें और दूसरे लोगों में जो भी फ़र्क हैं, वे परिस्थितियों और वातावरण से जुड़े तथ्यों आदि की वजह से हैं, और वे सभी सूली पर मिटा दिए गए हैं। मसीह की सूली हम सभी को शून्य बना देती है। अगर मेरे जीवन में यह अभी तक नहीं हुआ है, तो यह इस बात का संकेत है कि मैंने अभी तक दूसरों को अपने से बेहतर मानना शुरू नहीं किया है, जैसा कि फिलिप्प्पयों 2:3 में हमें आज्ञा दी गई है। एक बार जब हम शून्य हो जाते हैं, तो उसके बाद अपनी मज़ीर् और ख़ुशी से एक नीची जगह स्वीकार कर लेना आसान हो जाता है। और फिर परमेश्वर के लिए भी हमारे द्वारा उसका परामर्श हासिल कर लेना आसान हो जाता है।
जब तक मूसा को यह महसूस होता रहा था (40 साल की उम्र तक) कि उसे परमेश्वर के लोगों का अगुवा होना है, तब तक परमेश्वर उसे इस्तेमाल न कर सका था (प्रेरितों. 7:25)। परमेश्वर को उसे दूसरे 40 साल तक जंगल में ले जाकर तोड़ना पड़ा था। अंततः मूसा यह बोलने योग्य होने की जगह पर पहुँच सका था, “प्रभु, मैं इस काम के लिए नहीं हूँ। मैं बिलकुल अयोग्य हूँ। मैं तो बोलने में भी भद्दा हूँ” (और वह पूरी ईमानदारी के साथ यह बोल रहा था; यह ऐसी झूठी नम्रता नहीं थी जैसी इस तरह की बात करने वाले लोगों में अक्सर होती है!)। और सिर्फ तभी परमेश्वर मूसा को इस्तेमाल कर सका था, क्योंकि उसका स्वयं का ज़ोर अब पूरी तरह से कमज़ोर हो चुका था। 40 साल की उम्र में, उसके अपने ज़ोर में, मूसा सिर्फ इतना कर सका था कि वह एक मिस्री को मार कर ज़मीन में गाड़ सका था। जब परमेश्वर ने उसे तोड़ कर उसके ज़ोर को कमज़ोर कर दिया, तब वह पूरी मिस्री सेना को समुद्र में डुबा कर मार सका था। टूटेपन का यह नतीजा होता है।
यह काफी नहीं है कि प्रभु पाँच रोटियाँ लेकर उन्हें आशिष दे। इससे पहले कि वे भीड़ में खाने के लिए बाँटी जाएं, उनका टूटना ज़रूरी होता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे हमारे जीवन में लगातार चलते रहने की ज़रूरत है। परमेश्वर हमें लेता है, आशिष देता है, तोड़ता है, और इस्तेमाल करता है। और तब हम घमण्ड से भर कर इसलिए ऊँचे/बड़े हो जाते हैं क्योंकि परमेश्वर ने हमें इतने लोगों को खिलाने के लिए इस्तेमाल किया है। इसलिए उसे हमें लेकर फिर से तोड़ना पड़ता है। टूटेपन का यह नतीजा होता है।
हमें ऐसे टूटेपन की कितनी लालसा करनी चाहिए। जब एक सूक्ष्म अणु टूटता है तो उसमें से कैसी सामर्थ्य निकलती है! अगर हमारे देश में हमारी कलीसियाओं के अगुवे और उनकी मण्डलियाँ परमेश्वर के हाथ में टूटने लगें, तो उनमें से कितनी सामर्थ्य प्रवाहित होगी।
पहचान का चिन्ह्
जालसाज़ी भरी नक़ल के इन दिनों में, जबकि झूठ बहुत हद तक सच नज़र आने लगा है, मैंने अक्सर अपने आप से यह सवाल पूछा है कि परमेश्वर के एक सच्चे सेवक की पहचान का असली चिन्ह् क्या है।
क्या वह चमत्कार करने की सामर्थ्य है? नहीं। दुष्टात्माएं भी चमत्कार कर सकती हैं। क्या वह अन्य-भाषा में बोलना है, नहीं। दुष्टात्माएं उसकी भी नक़ल करती हैं। प्राथमिक रूप में, वह इनमें से कुछ भी नहीं है।
मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि यीशु के सच्चे शिष्य का चिन्ह् सूली की आत्मा है। प्रभु का सच्चा शिष्य वही है जिसने अपने जीवन में सूली को स्वीकार कर लिया है - वह सूली जिसने उसके आत्म-गौरव, आत्म-विश्वास, आत्म-केन्द्रीयता और जो कुछ भी उसका अपना है, उसे मार कर मिटा दिया है, और उसे घटा कर नगण्य कर दिया है। यही एक ऐसा स्पष्ट चिन्ह् है जिसके द्वारा हम उन व्यक्तियों को जान सकते हैं जो वास्तव में प्रभु की सेवा कर रहे हैं, और जो सिर्फ अपनी सेवा कर रहे हैं। बाक़ी कोई भी प्रमाण, भरमाने वाले हो सकते हैं।
हम अपने जैसे फल पैदा करते हैं
क्या आज हमारी कलीसियाओं में हमें उत्पात करने वालों, अभिमानी प्राचीनों, या अधिकार जमाने वाले सेवकों द्वारा तकलीफ दी जा रही है? क्या इसकी वजह यह तो नहीं है कि हमें वही काटना पड़ रहा है जो हम वर्षों से बोते आ रहे हैं, और अब हमने अपने ही जैसे फल पैदा कर दिए हैं? वह घमण्ड और अहंकार जो हमारे हृदयों में था (और अब भी है), हमारी आत्मिक संतानों के जीवनों में स्पष्ट नज़र आने लगा है। तो क्या यह हमारे लिए कोई हैरानी की बात होनी चाहिए?
और इसलिए, जब हम पुकार उठते हैं, “प्रभु, हमारे बीच में एक नवजागृति भेज,” तो प्रभु का यह वचन हमारे पास आता है, “और अगर मेरे लोग जो मेरे नाम के कहलाते हैं, दीन होकर प्रार्थना करें... तो मैं स्वर्ग से सुनूँगा... और उनके देश को चंगा करूँगा” (2 इति. 7:14)। आह! हमारे देश को चंगाई की कितनी ज़रूरत है। हम यह न कहें कि परमेश्वर नवजागृति भेजने में देर कर रहा है। भाइयो, यह रुकावट हममें पाई जाती है।
ऐसा हो कि परमेश्वर हमारे बीच में ऐसे पुरुष पाए जो सेवक और पानी डालने वाले होने के लिए तैयार रहें।
“फिर वह एलिय्याह की उस चादर को जो उस पर से गिरी थी, उठाकर लौटा और यरदन के किनारे खड़ा हुआ। तब उसने एलिय्याह की चादर, जो उसके ऊपर से गिरी थी, लेकर यह कहते हुए जल पर मारा, ‘एलिय्याह का परमेश्वर यहोवा कहाँ है?’ और उसके मारने पर भी जल विभाजित हो गया, और एलीशा पार हो गया। तब नबियों के चेलों ने जो यरीहो में उसके सामने थे, कहा, ‘एलिय्याह की आत्मा एलीशा पर ठहरी है’” (2 राजा 2:13-15)।
नबियों के ये पुत्र कोई भोले-भाले लोग नहीं थे। वे पवित्र शास्त्रों के छात्र थे और अपनी बाइबल को अच्छी तरह जानते थे, इसलिए उन्हें मालूम था कि एक अभिषिक्त जन होना क्या होता है। उन्होंने जान लिया था कि एलीशा एक अभिषिक्त जन था - ऐसा जिस पर परमेश्वर का आत्मा उतर आया था।
उन्होंने एलीशा द्वारा कोई उत्तेजना से भरा प्रचार या उसके अद्भुत अनुभव की साक्षी सुनकर इस सच्चाई को नहीं जान लिया था। नहीं। लेकिन जब उन्होंने उसके जीवन में मौजूद सामर्थ्य को देखा, जब उन्होंने उसे एलिय्याह की तरह यरदन नदी को दो भागों में बाँटते हुए देखा, तब उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि वह वास्तव में एक अभिषिक्त जन था।
अगर परमेश्वर की सेवा करते हुए हमें उसकी सम्पूर्ण इच्छा को पूरा करना है, तो पवित्र-आत्मा का अभिषेक अत्यावश्यक है। यह काफी नहीं है कि परमेश्वर का आत्मा हममें बसता है। हमें यह मालूम होना चाहिए कि उसकी सामर्थ्य हम पर उतर आई है। स्वयं यीशु को भी पृथ्वी पर अपनी सेवकाई पूरी करने से पहले अभिषेक प्राप्त करने की ज़रूरत पड़ी थी (मत्ती 3:16; देखें प्रेरितों. 10:38)।
अगर प्रभु के लिए हमारा काम सिर्फ इस वजह से चल रहा है क्योंकि हमारे अमेरिका में अच्छे संपर्क बन गए हैं और इसलिए हमारे सुसमाचार प्रचार करने के लिए और अपने किराए के प्रचारकों को देने के लिए पर्याप्त धन है, तो हम अपना समय बर्बाद कर रहे हैं। असल में, हमारी सेवकाई के बारे में हमारे पास देने के लिए अगर कोई पार्थिव स्पष्टीकरण है, तो फिर अच्छा यही रहेगा कि हम अपना मसीही काम बंद करके कोई सांसारिक काम कर लें, क्योंकि हमारे काम से परमेश्वर के राज्य में कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकेगा। हमारी सेवकाई की प्रवृत्ति ऐसी हो कि उसके जारी रहने की वजह पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य के बिना और कुछ भी न हो। सिर्फ इस तरह की सेवा ही परमेश्वर को स्वीकार्य हो सकती है।
आज विश्वासियों में पवित्र-आत्मा के अभिषेक के सच्चे प्रमाण के बारे में बहुत उलझन है। लेकिन एलीशा के जीवन की घटना से स्पष्ट हो जाता है कि अभिषेक का सबसे स्पष्ट प्रमाण सामर्थ्य है। दूसरे प्रमाण भरमाने वाले हो सकते हैं, लेकिन यह नहीं।
हम बोलने की प्रभावी शैली, भावनात्मक उत्साह, उत्तेजना या शोर को अभिषेक के प्रमाण न मान लें। नहीं। इनमें से वह कुछ भी नहीं है, बल्कि सिर्फ सामर्थ्य ही वह प्रमााण है। जब स्वयं यीशु का अभिषेक हुआ, तो उसने सामर्थ्य प्राप्त की थी (प्रेरितों. 10:38)। और, यीशु ने अपने शिष्यों से भी यही कहा था, कि जब उनका अभिषेक होगा, “जब पवित्र-आत्मा तुम पर आएगा, तब तुम सामर्थ्य पाओगे” (प्रेरितों. 1:8)। यह बात क्या इससे ज़्यादा स्पष्ट हो सकती है? अन्य-भाषाएं नहीं, उत्तेजना नहीं, बल्कि सामर्थ्य।
जब पौलुस ने कुरिन्थियों के मसीहियों को लिखा, जो अन्य-भाषाओं में बोलने को पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य समझने की ग़लती कर रहे थे, तो उसने कहा, “जब मैं तुम्हारे बीच में आऊँगा तो मैं सिर्फ तुम्हारी साक्षियाँ या तुम्हारे संदेश ही नहीं सुनूँगा” (चाहे वे ज्ञात भाषा में हों या अज्ञात भाषा में हों), लेकिन मैं यह देखूँगा कि तुम्हारे जीवनों में असली सामर्थ्य है या नहीं। क्योंकि परमेश्वर का अधिकार (पवित्र-आत्मा) “सिर्फ शब्दों में नहीं सामर्थ्य के प्रमाण में है” (1 कुरि. 4:19,20 - भावानुवाद)।
इसलिए, भाइयो व बहनों, हम कभी भी सिर्फ इस वास्तविकता से संतुष्ट न हो जाएं कि हम अच्छा बोलने वाले हैं या हमारे पास सुनाने के लिए एक अद्भुत साक्षी है। जो सवाल हमें अपने आपसे पूछना है, वह यह हैः क्या हमारे पास आत्मिक सामर्थ्य है, या नहीं है? अच्छी तरह तैयार किए गए प्रचार अभिषेक की जगह नहीं ले सकते, और न ही एक जीवंत व्यक्तित्व या अद्भुत साक्षी आत्मिक सामर्थ्य का विकल्प हो सकते हैं।
आज के वैज्ञानिक युग में, हम पवित्र-आत्मा पर निर्भर रहने के स्थान पर विद्युत यंत्रों और दूसरे बहुत से सुनने-देखने के सहायक उपकरणों की मदद ले सकते हैं। जहाँ विज्ञान के अनेक आविष्कारों द्वारा सुसमाचार प्रचार करने में मदद मिल सकती है, वहाँ हमें ज़रूर उनका इस्तेमाल करना चाहिए। लेकिन हमें सचेत रहने की ज़रूरत है, क्योंकि यह हो सकता है कि फिर धीरे-धीरे हमारी निर्भरता परमेश्वर के आत्मा के ऊपर से हटकर इन सब भौतिक वस्तुओं के ऊपर टिक जाए।
हम वास्तव में किस बात पर निर्भर हैं, यह जान लेना काफी आसान है। अगर हमारी निर्भरता पवित्र-आत्मा पर है, तो हम प्रार्थना में बार-बार यह स्वीकार करते हुए परमेश्वर के पास जाएंगे कि हम उसके बिना कुछ नहीं कर सकते। क्या हम ऐसा करते हैं? मैं यह नहीं पूछ रहा हूँ कि क्या हम अपने विवेक को शांत करने वाली उस प्रक्रिया में से गुज़रते हैं या नहीं जिसे हम ‘प्रार्थना’ कहते हैं। मेरा कहने का अर्थ यह हैः क्या हम अपने आपको परमेश्वर के आगे फेंक कर (अगर ज़रूरत हो तो उपवास के साथ) तब तक पूरी निष्ठा से उसके मुख के दर्शन के खोजी होते हैं जब तक कि हमें यह यक़ीन नहीं हो जाता कि उसका आत्मा वास्तव में हम पर उस सेवकाई का पूरा करने के लिए उतर आया है जिसके लिए उसने हमें बुलाया है? और यह कोई एक-बार और हमेशा-के-लिए वाला अनुभव नहीं होता!
अगर उपकरणों पर नहीं, तो हमारी निर्भरता धन पर हो सकती है। मुझे बताया गया है कि हमारे देश के एक सुसमाचार प्रचार करने वाले समूह में ऐसी प्रतियोगिता होती है कि कौन समूह के लिए सबसे ज़्यादा धन जमा करता है। जब एक मसीही संस्था इस हद तक गिर जाती है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वे अपने काम में सबसे बड़ी बुनियादी ज़रूरत किस बात को मानते हैं। यह बात साफ हो जाती है कि वास्तव में उनकी निर्भरता किस पर है। धन उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है, इसलिए वे सार्वजनिक सभाओं में लोगों को सुसमाचार सुनाने से पहले उनसे धन की भीख माँगते हैं और याचनाएं करते हैं। यह कितने शर्म की बात है! क्या कोई यह मानेगा कि यीशु ऐसा कर सकता है? और फिर भी वे कहते हैं कि वे उसका प्रतिनिधित्व करते हैं।
ये लोग अपना जितना समय धन की भीख माँगने में ख़र्च करते हैं, अगर ये उसका आधा समय भी परमेश्वर से पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य माँगने के लिए ख़र्च करें, तो उनके काम में बहुत कुछ हासिल किया जा सकेगा।
यह परखने के लिए, कि हमारी निर्भरता पवित्र-आत्मा पर है या धन पर है, मैं एक ऐसा सवाल सुझाना चाहता हूँ जो हम अपने आपसे पूछ सकते हैं। अगर परमेश्वर हमारे जीवनों पर से उसका अभिषेक हटा ले, तो क्या हम तब भी उतने ही विचलित होंगे जितने कि हमें मिलने वाली आर्थिक सहायता के बंद हो जाने से होंगे?
यह अफसोस की बात है कि हमारी दिलचस्पी इस बात में नहीं होती कि परमेश्वर का अभिषेक हम पर बना हुआ है या नहीं, बल्कि हम यह जानने के लिए ज़्यादा उत्सुक रहते हैं कि हमारा मासिक वेतन हमें पूरा मिला है या नहीं। ऐसा क्यों है? क्योंकि हम यह सोचते हैं कि मसीही काम अभिषेक के बिना तो चल सकता है, लेकिन धन के बिना नहीं। हम चाहे ऐसा कहें या न कहें, लेकिन हमारे काम हमारे भीतरी विचारों को प्रकट कर देते हैं।
जब हम आरम्भिक कलीसिया से अपनी तुलना करते हैं, तो हम क्या देखते हैं? सुसमाचार प्रचार करने के लिए उनके पास कोई विद्युत उपकरण नहीं थे, उनके पास ऐसे कोई धनवान व्यापारी नहीं थे जो उनकी आर्थिक मदद करते, और सामाजिक दायरों में भी वे स्वीकार नहीं किए जाते थे। फिर भी उन्होंने परमेश्वर के लिए बड़ी उपलब्धियाँ हासिल कीं क्योंकि उनके पास वह एक बात थी जो सबसे ज़्यादा ज़रूरी थी, और जिसके बिना बाक़ी सब व्यर्थ था। उनके पास पवित्र-आत्मा का अभिषेक था। इसलिए वे वहाँ सफल हुए थे जहाँ हम निष्फल होते हैं।
आज पवित्र-आत्मा का अभिषेक मसीही कलीसियाओं और मसीही अगुवों की सबसे बड़ी ज़रूरत है। और मैं यहाँ उस असली अभिषेक की बात कर रहा हूँ जो सामर्थ्य लाता है - उस सस्ती नक़ल की नहीं जिस पर आज ज़्यादातर लोग घमण्ड कर रहे हैं और उससे संतुष्ट हैं।
परमेश्वर का काम - उसका असली काम - आज भी वैसे ही होता है जैसे पहले होता था - आर्थिक शक्ति से नहीं, लेकिन परमेश्वर के पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य के द्वारा (ज़क- 4:6)।
परख
मैंने पहले भी उन दुर्बोध तरीक़ों का उल्लेख किया है जिनके द्वारा इन दिनों शैतान मसीही सेवकों को मूर्ख बनाने की कोशिश कर रहा है। जैसे-जैसे प्रभु का आना नज़दीक आ रहा है, वैसे-वैसे उसका धोखा बढ़ता जा रहा है। ऐसे समय में, ख़ास तौर पर मसीही कलीसिया में अगुवाई के पदों पर नियुक्त लोगों के लिए यह कितना ज़्यादा ज़रूरी है कि उनके पास परख का वरदान हो - कि वह यह जान सकें कि वह क्या है जो वास्तव में परमेश्वर की तरफ से है; वह यह जानें कि क्या असली है और क्या नकली है; और यह भी जान सकें कि हमारे इस समय में, कलीसिया के लिए परमेश्वर का सबसे बड़ा उद्देश्य क्या है।
लेकिन परखने की क्षमता और आत्मिक अंतर्दृष्टि सिर्फ पवित्र-आत्मा के अभिषेक द्वारा ही आती हैं। ये न तो मानवीय चतुराई या बुद्धि से, और न ही सैमिनरी के प्रशिक्षण से मिलती हैं। पिता को यह भाया है कि वह इन बातों को बुद्धिमान और चतुर लोगों से छुपा कर रखे और बच्चों पर प्रकट करे - उन पर जो यह स्वीकार करते हुए एक असहाय रूप में उस पर निर्भर रहते हैं कि “प्रभु, हालांकि हम बहुत सी बातों में चतुर हैं, फिर भी आत्मिक बातों में हम बिलकुल मूर्ख हैं।"
अपने समय में, यिर्मयाह में यहूदा के राजा योशिय्याह के राज्यकाल में हुई नक़ली नवजागृति को परखने की क्षमता थी, और उसने यह नबूवत की कि परमेश्वर अपने लोगों को बेबीलोन में भेजेगा। यहेजकेल ने भी यह परख लिया था कि परमेश्वर द्वारा लोगों को बेबीलोन बंधुवाई में भेजने के वास्तविक कारण क्या थे। जिन बातों को उनके समय के पेशेवर प्रचारक नहीं देख सके थे, उन्हें ये लोग सिर्फ इसलिए देख सके थेः यिर्मयाह और यहेजकेल के ऊपर परमेश्वर का अभिषेक था।
कुछ बहुत ही थोड़े से अपवादों के अलावा, आज सामान्य रूप में ज़्यादातर मसीही कलीसियाओं की दशा बिलकुल वैसी ही है जैसी बेबीलोनी बंधुवाई के समय में परमेश्वर के लोगों की दशा थी। आज हमें ऐसे पुरुषों की ज़रूरत है जिनके पास आत्मिक अंतर्दृष्टि है। और अगर संकट की इस घड़ी में परमेश्वर के लोगों में आत्मिक दर्शन की कमी है, तो निश्चित रूप में लोग बर्बाद हो जाएंगे (नीति. 29:18)।
ओह, हमें पवित्र-आत्मा के अभिषेक की कितनी ज़रूरत है! आज प्रभु की बारी में काम करने के लिए यह हमारी सबसे बुनियादी ज़रूरत है।
यीशु का नाम
एलीशा ने, जैसा कि हम पढ़ते हैं, यर्दन के पानी पर एलिय्याह की चादर से मारा। अगर हम यहाँ एलिय्याह को मसीह का वह प्रतीकात्मक स्वरूप मान लें जिसे स्वर्ग में उठा लिया गया है, और एलीशा को वह कलीसिया मान लें जिसे अब उसकी सेवकाई जारी रखने के लिए पृथ्वी पर छोड़ दिया गया है, तो एलिय्याह की चादर को हम प्रभु यीशु मसीह का नाम मान सकते हैं जो उसने अपनी कलीसिया को दिया है। यीशु ने हमें उसका नाम इस्तेमाल करने का अधिकार दिया है कि हम अपने मार्गों में आने वाली बाधाओं को उसी तरह दूर कर सकें जैसे एलीशा ने यर्दन ने में से रास्ता बनाने के लिए उसकी चादर के इस्तेमाल द्वारा किया था।
लेकिन, यह उसके नाम को एक मंत्र की तरह दोहराने की बात नहीं है। अनेक लोग ऐसा ही करते हैं, लेकिन कुछ नहीं होता। कोई सामर्थ्य प्रकट नहीं होती, और रास्ते में खड़ा कोई पहाड़ नहीं हटता।
गेहजी ने एक बार एलीशा की लाठी को लेकर एलीशा के निर्देश के अनुसार एक मृत बच्चे पर रख दी थी। गेहजी भी उस समय एक आधिकारिक स्वर में यह कह सकता था, “अब्राहम, इसहाक़ और याकूब के परमेश्वर के नाम में मृतकों में से जी उठ।" लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था।
परमेश्वर सिर्फ एक मनुष्य के शब्दों को ही नहीं सुनता। वह उसके हृदय को देखता है। शब्दों की सामर्थ्य उन्हें इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति पर निर्भर होती है। परमेश्वर जानता था कि गेहजी का हृदय परमेश्वर की महिमा करने वाली बातों में नहीं बल्कि संसार और उसके व्यक्तिगत स्वार्थ की बातों में लगा था।
एलीशा का हृदय अलग था। वह सिर्फ परमेश्वर की महिमा चाहता था, इसलिए परमेश्वर ने उसे अपना अधिकार दिया था। इसलिए जब एलीशा ने प्रार्थना की, तो वह बच्चा तुरन्त जीवित हो गया। जब उसने यर्दन नदी के पानी पर मारा तो वह दो भागों में बँट गया था।
मुझे ऐसे लोग मिले हैं जो यीशु के नाम का इस्तेमाल करते हैं, और फिर उसे दोहराते हैं (कई बार अपनी ऊँची से ऊँची आवाज़ में), लेकिन कुछ नहीं होता। उन्होंने मुझे बाल देवता के उन नबियों की याद दिलाई है जो कर्मेल पर्वत पर ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे। परमेश्वर का राज्य सिर्फ बातों में नहीं है (चाहे वह कितनी भी ज़ोर से या कितने भी आधिकारिक स्वर में बोली जाएं), बल्कि सामर्थ्य में है। अगर एलीशा एक अभिषिक्त जन न होता, तो वह चाहे जितनी भी ज़ोर से चादर को पानी पर मारता, तब भी कुछ न हुआ होता। वह सिर्फ समय और ऊर्जा की बर्बादी ही होती! अगर हमें यीशु के नाम को असली सामर्थ्य के साथ इस्तेमाल करना है, तो असल में पवित्र-आत्मा का अभिषेक ही हमारी बुनियादी ज़रूरत है।
प्रेरितों के काम अध्याय 3 में, हम पतरस को यीशु के नाम का इस्तेमाल करते हुए देखते हैं; और वहाँ परमेश्वर की सामर्थ्य प्रकट हुई थी। लंगड़ा मनुष्य चलने लगा था। यह चमत्कार इतना स्पष्ट था कि किसी को उसकी चंगाई साबित करने के लिए लोगों को उसकी मेडिकल रिपोर्ट दिखाते हुए इधर-उधर घूमने की ज़रूरत नहीं थी। उस चमत्कार के बारे में कुछ भी शंकास्पद या चालाकी-भरा नहीं था। किसी के भी मन में यह शंका नहीं थी कि एक चमत्कार हुआ भी है या नहीं - जैसा अक्सर उन ‘चमत्कारों’ में होता है जो आज के कुछ चंगा करने वालों द्वारा किए जाते हैं।
प्रेरितों के काम की पूरी पुस्तक में हम देखते हैं कि शिष्यों ने बार-बार परमेश्वर के उद्देश्य पूरे करने के लिए उनके रास्ते में आने वाली रुकावटों को दूर करने के लिए यीशु के नाम का इस्तेमाल किया था। वे वास्तव में अभिषेक के बारे में जानते थे। इसलिए प्रेरितों के काम की पुस्तक का अंत “बिना किसी रुकावट” के साथ होता है (एन.ए.एस.बी.)। अधोलोक के फाटक ऐसी सामर्थी कलीसिया पर प्रबल नहीं हो सकते थे।
जी-उठने की सामर्थ्य
एलीशा का यर्दन नदी को दो भागों में बाँट देना एक ऐसे जीवन का चित्र है जो प्रबल होता है और आत्मिक मृत्यु पर जय पाता है। बाइबल में, यर्दन नदी का पानी मृत्यु को दर्शाता है। इसलिए पानी का दो भागों में बाँटा जाना मृत्यु पर जय पाने को दर्शाता है।
एलीशा की सेवकाई में, उस समय के बाद से, हम उसे बार-बार मृत्यु में से जीवन को लाने का काम करता हुआ पाते हैं। यरीहो में, वह बंजर भूमि को उपजाऊ बनाता है। शूनेम में, वह एक बांझ स्त्री की कोख को सजीव करता है। बाद में, वह एक मरे हुए बच्चे को जि़न्दा करता है। उसने एक बार एक बर्तन के ज़हरीले खाने को जीवनयदायक खाना बनाया था। उसने एक कोढ़ी सेनापति की मृतप्राय देह में भी जीवन का संचार किया था।
एलीशा की सामर्थ्य कभी कम नहीं हुई थी। उसके मरने और उसकी देह के मिट जाने के बाद, जब एक मरे हुए व्यक्ति को उसकी कब्र में फेंका गया था, तो वह मृतक भी जि़न्दा हो गया था! यह एलीशा की सेवकाई थी - वह जहाँ भी गया, वहाँ उसने मृत्यु में से जीवन निकाला। यह उसके अभिषिक्त होने का प्रत्यक्ष परिणाम था।
पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य इस तरह का अभिषेक लाती है - मृत्यु में से जीवन प्रकट करने की सामर्थ्य - जी-उठने की सामर्थ्य। अभिषेक का सिर्फ यही स्पष्ट प्रमाण होता है। हम नई वाचा में अक्सर इस सामर्थ्य के बारे में पढ़ते हैं। पौलुस इफिसियों के मसीहियों को लिखते समय यह कहता है कि उनके लिए उसकी यह प्रार्थना है कि वे इस सामर्थ्य को जाने। वह आगे उन्हें बताता है कि परमेश्वर की शक्ति का सबसे बड़ा प्रदर्शन न तो सृष्टि में है और न उन चमत्कारों में जिनका लेखा बाइबल में दर्ज है, बल्कि मसीह को मृतकों में से जीवित करने में है (इफि. 1:19-23)। फिलिप्पयों के मसीहियों को लिखते समय पौलुस उनसे कहता है कि उसकी यह इच्छा है कि वह जी-उठने की इस सामर्थ्य के बारे में और ज़्यादा जानें (फिलि. 3:10)।
मुझे यक़ीन है कि यही वह सामर्थ्य है जिसके बारे में यीशु ने अपने शिष्यों से कहा था कि जब पवित्र-आत्मा तुम पर आएगा तब तुम सामर्थ्य पाओगे (प्रेरितों. 1:8) - जी-उठने की सामर्थ्य, आत्मिक मृत्यु में से जीवन को निकाल ले आने की शक्ति। और परमेश्वर हमें भी यही देना चाहता है।
भाइयो और बहनों, यही अभिषेक का चिन्ह् है। कोई अनुभव नहीं, कोई बोली नहीं, लेकिन यह कि हम जहाँ भी जाएं वहाँ हमारे पास मृत्यु में से आत्मिक जीवन निकाल ले आने की सामर्थ्य हो। क्या हमारी सेवकाई इस उद्देश्य को पूरा कर रही है? हम पर अभिषेक होना या न होना, इसी कसौटी पर परखा जाता है।
लेकिन अफ़सोस, कितने मसीही जीवन की सेवकाई करने की बजाय मृत्यु की सेवकाई कर रहे हैं। मूर्तिपूजक लोग अक्सर हमारे प्रभु की तरफ आकर्षित होने की बजाय उससे दूर भाग जाते हैं, और इसकी वजह यह है कि जो अपने आपको नया जन्म पाए हुए कहते हैं, उनके बीच में वे लड़ाई-झगड़े और बेईमानी की ऐसी बातें देखते हैं, जो मसीह-समान बातें नहीं हैं। हमारी यह कितनी बड़ी ज़रूरत है कि हम अपने आपको परमेश्वर के आगे नम्र व दीन करें, और हमारे आचरण द्वारा उसके नाम को बदनाम करने के लिए उससे क्षमा माँगें।
हम सिर्फ इस बात में गौरव महसूस न करें कि हम “सुसमाचार प्रचार करने वाले” मसीही हैं। अगर हम सचेत नहीं रहेंगे, तो हमारा अंत भी सरदीस की कलीसिया की तरह हो सकता है, जो जीवित तो कहलाती थी लेकिन असल में मरी हुई थी (प्रका. 3:1)।
इतना काफी नहीं है कि हम जिस मत की आस्था और विश्वास के कथन को दोहराते हैं, वह पवित्र शास्त्रों के साथ सुसंगत है। यह हो सकता है कि हमारे हस्ताक्षर विश्वास की मूल बात पर ही हों। शैतान भी यह कर सकता है! वह बाइबल को अच्छी तरह जानता है, इसलिए वह भी एक आधुनिकवादी है। जहाँ तक धर्म-सिद्धान्तों की बात है, तो वह पूरा मौलिक परम्परावादी है! इसलिए, सिर्फ मौलिक परम्परावादी होने का श्रेय लेने से हमें कोई ख़ास फायदा नहीं होगा।
सिद्धान्त ज़रूरी होते हैं। परमेश्वर ऐसा कभी न होने दे कि मैं उन्हें मूल्यवान न जानूँ। लेकिन मसीही सिद्धान्तों से भी ऊपर, और उनसे बढ़कर, परमेश्वर के लिए यह महत्व की बात है कि हम आत्मिक जीवन की सेवकाई कर रहे हैं या नहीं।
प्रेरित पौलुस यह कह सका कि परमेश्वर की मदद से वह नई वाचा का एक योग्य सेवक है, और वह आत्मिक जीवन की सेवकाई करता है (2 कुरि. 3:5,6)। उसने अहंकारी होकर यह नहीं कहा था कि वह एक परम्परावादी है। और न ही उसने सिर्फ अपने अनुभवों की बात की थी - न तो दमिश्क के मार्ग की और न ही सीधी कहलाने वाली गली की। नहीं। उसने अपनी मूल आस्थाओं और अपने आत्मिक अनुभवों की हक़ीक़त को लगातार आत्मिक मृत्यु की स्थितियों में जीवन लाने द्वारा प्रदर्शित किया था।
पौलुस के जीवन में भी एलीशा के जीवन की तरह सामर्थ्य कम नहीं हुई थी। उनकी वृद्धावस्था में भी उनकी सामर्थ्य कम नहीं हुई थी जैसा कि हमारे समय में हम अक्सर परमेश्वर के अनेक सेवकों के जीवनों में होता हुआ देखते हैं। पौलुस और एलीशा कभी उस स्तर तक नहीं गिरे थे जहाँ वे सिर्फ उन बातों में गौरान्वित होते जो परमेश्वर ने बीते समय में की थीं। वे हर समय अभिषेक और परमेश्वर की सामर्थ्य के वर्तमान में आनन्दित रहते थे। उनकी आत्मिक सामर्थ्य कम होने की बजाय बढ़ती जाती थी। उनके दिनों की संख्या के अनुपात में उनकी सामर्थ्य बढ़ती थी। उनकी ज्योति इस तरह बढ़ती थी जैसे एक दिन में प्रकाश की भरपूरी हो जाने तक ज्योति बढ़ती जाती है। जीवन जीने का यह कैसा आशिष भरा तरीक़ा है! और परमेश्वर यह चाहता है कि उसके बच्चे इसी रास्ते पर चलें (नीति. 4:18)।
एलीशा निरंतर परमेश्वर के सम्पर्क में रहता था, और इस वजह से ही वह जहाँ भी जाता था वहाँ वह मृत्यु में से जीवन को निकाल सकता था। इसलिए लोग अपनी समस्याओं और ज़रूरतों के लिए उसके पास आते थे। उसे सेवकाई ढूंढने के लिए कहीं जाने की ज़रूरत नहीं होती थी। उसे इधर-उधर घूम कर लोगों से यह कहने की ज़रूरत नहीं होती थी कि वे उसे समर्थन दें और आमंत्रित करें। नहीं। उसे सेवकाई के भरपूर मौक़े मिलते थे और इसमें उसे अपने शरीर का कोई ज़ोर लगाने की ज़रूरत नहीं होती थी।
यूहन्ना बपतिस्मा के साथ भी ऐसा ही था। यरूशलेम, यहूदिया प्रांत, और यर्दन के आसपास के क्षेत्र में से लोग लम्बी यात्राएं करते हुए उसका संदेश सुनने के लिए आते थे - हालांकि यूहन्ना ने अपने बारे में न तो कभी कोई विज्ञापन दिया था और न ही कभी कोई चमत्कार किया था।
ये अभिषिक्त पुरुष थे, और ये हमेशा अभिषेक तले रहते थे। यही उनका रहस्य था। इसके अलावा कुछ नहीं था।
लेकिन अगर पवित्र-आत्मा का अभिषेक इतना ही ज़रूरी है, तो परमेश्वर वह अपने सभी बच्चों को क्यों नहीं देता है? इसकी वजह बस इतनी है कि ऐसे लोग थोड़े ही हैं जो इसे पाने के लिए इसकी क़ीमत चुकाने को तैयार रहते हैं।
एलीशा के अभिषिक्त होने के अनेक कारण थे, और मैं कम-से-कम 3 कारणों के बारे में बात करना चाहता हूँ।
प्यास
इसमें कोई शक नहीं है कि एलीशा में अभिषेक पाने की प्यास थी। संसार में सबसे बढ़कर वह यह पाना चाहता था।
2 राजा 2:1-10 में, हम यह पढ़ते हैं कि कैसे एलिय्याह ने उसे इस बात में परखा था। उसने पहले एलीशा को गिलगाल में ही रुक जाने के लिए कहा था, जबकि वह आगे जा रहा था। लेकिन एलीशा ने एलिय्याह का साथ छोड़ने से इनकार कर दिया था। फिर एलिय्याह उसे बेत-ऐल से 15 मील दूर पश्चिम में ले गया था, और फिर 12 मील वापिस यरीहो की तरफ लाया था, और फिर 5 मील यर्दन के पूर्व में ले गया था, और उसने हरेक स्तर पर एलीशा के आग्रह और निष्ठा को परखा था। अंत में, एलिय्याह ने एलीशा से पूछा कि उसके जाने से पहले, उसकी ऐसी कौन सी इच्छा है जो वह चाहता है कि वह पूरा करे। और एलीशा ने उससे कहा, “मैं सिर्फ एक बात चाहता हूँ। और इसी एक बात के लिए मैं तेरे पीछे लगा रहा हूँ। मैंने इस वजह से ही तेरा पीछा नहीं छोड़ा है हालांकि तूने मुझसे पीछा छुड़ाने की पूरी कोशिश की है। मुझे तेरी आत्मा का दोगुना अभिषेक चाहिए।"
एलीशा अपने पूरे हृदय से अभिषेक की लालसा कर रहा था। इससे कम वह और किसी भी बात से संतुष्ट होना नहीं चाहता था। और उसने जो चाहा, वह उसे मिल गया।
मेरा मानना है कि जैसे एलिय्याह एलीशा को लेकर चला था, वैसे ही परमेश्वर भी हमें परख कर यह देखने के लिए लेकर चलता है कि क्या हम किसी ऐसी बात से संतुष्ट हो जाते हैं जो पवित्र-आत्मा के अभिषेक की भरपूरी से कम है। अगर हम उससे कम किसी बात से संतुष्ट हो जाएंगे, तो हमें सिर्फ उतना ही मिलेगा। परमेश्वर यह अभिषेक किसी ऐसे आत्म-संतुष्ट और लापरवाह विश्वासी को नहीं देता जो यह सोचता है कि वह इस अभिषेक के बिना भी सब कुछ आसानी से कर सकता है।
लेकिन अगर हमें यह समझ आ जाएगा कि बाक़ी सब बातों से ज़्यादा हमें इसकी ज़रूरत है, और अगर हम एलिय्याह की तरह तब तक इसके पीछे रहेंगे जब तक हम इसे पा नहीं लेते, जब तक हम पूरी निष्ठा से पनीएल में याकूब की तरह यह कहने वाले नहीं होते, “प्रभु, मैं तुझे तब तक नहीं छोड़ूगा जब तक तू मुझे आशिष न दे,” अगर हम वास्तव में पवित्र-आत्मा की इस सामर्थ्य के लिए लालायित हो जाते हैं - यह जी-उठने की सामर्थ्य, तो हम इसे ज़रूर पा लेंगे। तब हम वास्तव में ‘इस्राएल’ बन जाएंगे - ऐसे जिनमें परमेश्वर के सम्मुख और मनुष्यों के सम्मुख सामर्थ्य है।
परमेश्वर अक्सर हमारे जीवनों में यह देखने के लिए ही निष्फलता और झुंझलाहट को आने देता है कि क्या हम पवित्र-आत्मा के पूरे अभिषेक से कम किसी और बात से संतुष्ट हो जाते हैं या नहीं। वह हमें यह समझाना चाहता है कि मसीही सिद्धान्तों में हमारे सुसमाचारीय होने और हममें पवित्र-आत्मा का वास होने के बावजूद, हमें यह जानने की ज़रूरत है कि क्या परमेश्वर का आत्मा सामर्थ्य के साथ हम पर उतरा हुआ है या नहीं।
अभिषेक का होना कोई आसान बात नहीं है। जब एलिय्याह ने एलीशा का निवेदन सुना, तो उसने उससे यह नहीं कहा, “यह तो एक आसान बात है। तू यहाँ मेरे आगे घुटने टिका कर बैठ जा और मैं तेरे सिर पर हाथ रख दूँगा और वह तुझे मिल जाएगा।" नहीं। एलिय्याह ने एलीशा से यह कहा, “तूने एक मुश्किल बात माँग ली है।" हाँ, यह एक मुश्किल बात है। हमें इसकी क़ीमत चुकानी पड़ती है। इसे पाने के लिए हमें संसार में बाक़ी सब कुछ खो देने के लिए तैयार रहना पड़ता है।
हममें इस अभिषेक की लालसा पृथ्वी पर अन्य किसी भी वस्तु को पाने से ज़्यादा हो - धन, सुख-सुविधा और भोग-विलास से भी ज़्यादा; ख्याति, लोकप्रियता, और मसीही काम में सफलता से भी ज़्यादा। हाँ, यक़ीनन यह एक मुश्किल बात है। लेकिन प्यासा होने का यही अर्थ होता है। जब हम उस चरण में पहुँचते हैं, तो हम यीशु के पास जाकर पी सकते हैं, और, जैसा कि पवित्र शास्त्र में लिखा है, तब हमारे भीतर से अनेक दिशाओं में जीवन के जल की नदियाँ बह निकलेंगी, जो जहाँ भी पहुँचेंगी वहाँ वे मृत्यु में से जीवन को ले आएंगी (यूहन्ना 7:37-39; यहेज़. 47:8,9)।
अगर हमने अभिषेक पा लिया है, तो हम यह ध्यान रखें कि उसे किसी भी क़ीमत पर खो न दें। हम उसे पा सकते हैं, और अगर हम सचेत नहीं होंगे, तो हम फिर उसे खो भी सकते हैं। जैसे ही हम निर्दयी आलोचना में, व्यर्थ बातचीत में, या अशुद्ध कल्पनाओं में रस लेने लगेंगे, या अपने हृदय में घमण्ड या शिकायत पालेंगे, तो उसी क्षण अभिषेक ख़त्म हो जाएगा।
1 कुरिन्थियों 9:27 में, प्रेरित पौलुस ने कहा कि उसने अपनी देह के अंगों को कठोर यंत्रणा देकर इसलिए वश में रखा था कि कहीं ऐसा न हो कि वह दूसरों को प्रचार करने के बाद ख़ुद अयोग्य ठहरे। मैं इस बात से हमेशा अचंभित रहता हूँ कि पौलुस जैसा सामर्थी प्रेरित, इतनी कलीसियाएं स्थापित करने, इतने चमत्कार करने और परमेश्वर द्वारा ऐसे शक्तिशाली ढंग से इस्तेमाल किए जाने के बाद भी इस ख़तरे में पड़ा था कि अगर उसने अपनी देह के अंगों को इस्तेमाल करने में लापरवाही की, तो वह भी परमेश्वर द्वारा अयोग्य ठहरा दिया जा सकता है। अगर यह इस तरह से है, तो हम अपने बारे में क्या कहें?
हमें लगातार प्रार्थना करते रहने की ज़रूरत है, “प्रभु, मैं अपने जीवन में चाहे और कुछ भी खो दूँ, लेकिन मुझे तेरा अभिषेक न खोने देना।"
उद्देश्य की शुद्धता
एलीशा के अभिषिक्त होने का दूसरा कारण यह था कि उसके उद्देश्य शुद्ध थे। उसकी दिलचस्पी सिर्फ परमेश्वर की महिमा में थी। यह बात कहीं स्पष्ट शब्दों में नहीं लिखी है, लेकिन जब हम उसके जीवन का लेखा पढ़ते हैं तो यह साफ नज़र आता है। परमेश्वर के लोगों की ज़रूरतें बहुत बड़ी थीं और परमेश्वर के नाम की बदनामी से उसे वैसी ही पीड़ा होती थी जैसे उससे पहले एलिय्याह को होती थी। और वह अभिषेक पाने की बड़ी लालसा रखता था कि वह उस देश में परमेश्वर के लिए एक सेवकाई पूरी करे और उस महिमामय नाम पर से सारी बदनामी दूर करे।
परमेश्वर के बच्चों के अभिषिक्त न होने की वजह अक्सर उनके अशुद्ध और स्व-केन्द्रित उद्देश्य होते हैं। ज़्यादातर मसीही बाहरी तौर पर सही नज़र से ही संतुष्ट रहते हैं, लेकिन परमेश्वर भीतरी भागों में सत्य चाहता है। वह यह देखता है कि हमारी दिलचस्पी उसकी महिमा में है या हम अपनी महिमा चाहते हैं। वह यह देखता है कि क्या उसके नाम की बदनामी से हमें पीड़ा होती है या नहीं। अगर आज हमारे देश में परमेश्वर के नाम को बदनाम होता हुआ देखने के बाद हमारे हृदयों पर बोझ नहीं आता, और हम पीड़ित नहीं होते, तो मुझे यह विचार आता है कि क्या परमेश्वर कभी हमारा अभिषेक कर सकेगा।
यहेज़केल 9:1-6 में, हम यह पढ़ते हैं कि परमेश्वर ने कुछ लोगों को एक ख़ास तरह से अपने लोगों के रूप में चिन्हित् किया था। जिन पर चिन्ह् लगाया गया था ये वे लोग थे जो परमेश्वर के लोगों में पाप को देखकर विलाप कर रहे थे और आहें भर रहे थे। ये परमेश्वर के बचे हुए वे लोग हैं जिन्हें वह अभिषिक्त करता है - वे जिनके हृदयों में उसके नाम के लिए हमदर्दी है और जो सिर्फ उसकी महिमा चाहते हैं।
इस संसार के लिए कोई प्रेम नहीं
एलीशा के अभिषिक्त होने का तीसरा कारण यह था कि उसमें संसार के कोई प्रेम नहीं था। यह बात नामान के साथ उसके बर्ताव में साफ नज़र आती है। जब नामान ने उसे धन देना चाहा तो उसने उसके द्वारा किए गए चमत्कार के लिए धन लेने से इनकार कर दिया। एलीशा में न तो इस संसार के लिए और न ही इसके धन के लिए कोई प्रेम था। प्रभु के काम में वह अपने लिए कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं चाहता था।
दूसरी तरफ, हमें गेहजी में एक बिलकुल विपरीत बात नज़र आती है। वह इसी तरह से एलीशा का सहायक था जैसे एलीशा एलिय्याह का सहायक था। अगर एलीशा एलिय्याह की आत्मा का दोगुना अभिषेक पाकर उसकी सेवकाई को आगे बढ़ा सकता था, तो निश्चय ही गेहजी भी एलीशा की आत्मा का दोगुना अभिषेक पाकर एलीशा की सेवकाई को आगे बढ़ा सकता था। लेकिन उसे अभिषेक नहीं मिला। उसे कोढ़ मिला। क्यों, क्योंकि परमेश्वर ने उसके हृदय को देखा। आत्मिक होने के सारे बाहरी दिखावे के बावजूद, गेहजी के हृदय की गहराई में व्यक्तिगत स्वार्थ था। प्रभु का काम शुरू करते समय वह शायद ईमानदार रहा होगा, लेकिन फिर जल्दी ही उसने भौतिक फायदों के बारे में भी सोचना शुरू कर दिया था। उसने सोचा था कि वह भौतिक धन-सम्पत्ति भी इकट्ठी कर लेगा और अभिषेक भी पा लेगा। लेकिन उसकी यह सोच ग़लत थी। अनेक मसीही सेवकों ने भी यही ग़लती की है।
प्रभु ऐसा कभी न होने दे कि हम किसी भी कलीसिया या मसीही संस्था में, अपने पद को अपने व्यक्तिगत लाभ का साधन बनाने की कोशिश करें। एक अविश्वासी ने मुझसे एक बार कहा कि वह यह देख रहा है कि आजकल मसीही काम के साथ जुड़ जाना काफी लाभदायक है। उसने एक मसीही सेवक का उदाहरण दिया जो उसके सांसारिक व्यवसाय में इतना सम्पन्न नहीं था। लेकिन अब उसके पास सब कुछ भरपूरी से था। उसे अमेरिका से बहुत सा धन मिल रहा था। उसने अपने लिए एक बड़ा घर बना लिया था और अब बड़ी भोग-विलासिता के बीच में रह रहा था। और इन सब बातों से बढ़कर बात यह थी कि वह अपने आपको एक ऐसा सुसमाचार प्रचारक मानता था जिसके लिए स्वर्ग में जगह आरक्षित हो चुकी थी! निश्चय ही, ऐसे लोग परमेश्वर की सेवा नहीं कर रहे हैं।
भाइयो, जब मसीही काम हमारे लिए भौतिक लाभ का माध्यम बन जाए, तो अपने जीवनों को दोबारा जाँच कर हमें यह देखने की ज़रूरत पड़ जाती है कि हम यीशु के पीछे चल रहे हैं या नहीं। ऐसी स्थिति में हम अक्सर यही पाएंगे कि हम उसके पीछे नहीं चल रहे हैं।
वॉचमैन नी ने कहा है कि परमेश्वर के लिए आगे बढ़ने में अगर हमने कोई क़ीमत नहीं चुकाई है, कोई बलिदान नहीं किया है, तब हमें गंभीरता से यह सवाल पूछना पड़ेगा कि हमारी बुलाहट परमेश्वर की तरफ से थी या नहीं।
हम अपने आपसे यह सवाल पूछें कि क्या हमारे हृदय में इस संसार के लिए, इसके भोग-विलास, सुख-सुविधा और भरपूरी के लिए कोई प्रेम है? अगर है, तो परमेश्वर हमारा अभिषेक नहीं कर सकता।
बचे हुओं का एक जयवंत समूह
परमेश्वर आज हमारे देश में ऐसे पुरुषों व स्त्रियों को ढूंढ रहा है जिन्हें वह अपने आत्मा से अभिषिक्त कर सके - बचे हुए ऐसे लोग जो सामर्थ्य के दिए जाने को ग्रहण करने, और उसे बनाए रखने की क़ीमत चुकाने के लिए तैयार हैं।
आज यर्दन का पानी हमारे लिए उस आत्मिक मृत्यु का प्रतीक है जो अंधकार की शक्तियों के काम द्वारा हमारे देश को घेर रहा है। परमेश्वर आज अपने लोगों में बचे हुए एक ऐसे जयवंत समूह को ढूंढ रहा है जो इसमें से गुज़रेंगे, और मृत्यु में से जीवन निकाल लाएंगे। वह ऐसे लोगों को ढूंढ रहा है जो शत्रु की सेनाओं को भगाने के लिए प्रभु यीशु मसीह के नाम का इस्तेमाल कर सकते हों, और जो हरेक बाधा में से बिना रोक-टोक गुज़र सकते हैं; ऐसे लोग जो हरेक यर्दन में से रास्ता बना लेंगे और इस देश में हमारे परमेश्वर के लिए एक राजमार्ग तैयार कर देंगे। तब हमारी कलीसियाओं में हम उस नवजागृति को देख सकेंगे जिसका सबको इंतज़ार है, और सारे मूर्तिपूजक यह जान लेंगे कि वास्तव में हमारा प्रभु यीशु मसीह ही एकमात्र सच्चा परमेश्वर है।
हमारे देश में से शत्रु के जुए को सिर्फ अभिषेक द्वारा ही तोड़ा जा सकता है (यशा. 10:27)। यीशु का नाम हमें दिया गया है। लेकिन क्या हमारे पास उसका अभिषेक है?
काश, ऐसा हो कि हम अपने जीवन और सेवकाई में पवित्र-आत्मा का सामर्थ्य पाने के लिए प्यासे हो जाएं कि हम परमेश्वर की महिमा कर सकें, उसके इच्छा पूरी कर सकें और उसका राज्य ला सकें।
ऐसा हो कि प्रभु को हमारे बीच में ऐसे बहुत से लोग मिलें जो परमेश्वर के पवित्र, नम्र्र व दीन, और अभिषिक्त पुरुष व स्त्रियाँ होने की क़ीमत चुकाने को तैयार हों। आमीन।
चिंतन-मनन की इन श्रृंखलाओं को एक योग्य रीति से समाप्त करने के लिए, मैं ए. डब्ल्यू. टोज़र की लिखी प्रार्थना करना चाहता हूँ जिसे मैं 20वीं शताब्दी के कुछ गिने-चुने नबियों में से एक मानता हूँ।
इसका शीर्षक है - एक छोटे नबी की प्रार्थनाः
“हे प्रभु, मैंने तेरी आवाज़ को सुना और मैं डर गया।" तूने एक गंभीर और ख़तरनाक समय में एक भयानक काम के लिए बुलाया है। तू अब सभी जातियों और सारी पृथ्वी और आकाश को भी हिलाने वाला है, कि सिर्फ वही बाक़ी रह जाए जो हिलाया नहीं जा सकता। हे प्रभु, हमारे प्रभु, तूने नीचे झुक कर मुझे अपना सेवक होने का सम्मान दिया है। कोई मनुष्य स्वयं यह सम्मान नहीं ले सकता क्योंकि हारून की तरह यह सिर्फ उसके लिए है जिसे परमेश्वर ने बुलाया है। तूने अपना संदेशवाहक बनाकर मुझे उनके लिए नियुक्त किया है जो हठीले मन वाले, और ऊँचा सुनने वाले हैं। उन्होंने तुझे, जो स्वामी है, अस्वीकार किया है, और ऐसी कोई अपेक्षा नहीं है कि वे मुझे, जो तेरा सेवक है, स्वीकार करेंगे।
मेरे परमेश्वर, मैं (राज्य के) काम के लिए अपनी निर्बलता और अयोग्यता पर अफसोस करते हुए अपना समय नष्ट नहीं करूँगा। तूने कहा है, ‘मैं तुझे जानता हूँ-मैंने तुझे अलग किया है-मैंने तुझे पवित्र किया है।’ और तूने यह भी कहा है, ‘जिनके पास मैं तुझे भेजूँगा तू उनके पास जाएगा, और जो आज्ञा मैं तुझे दूँगा, तू वह उनसे बोलेगा।’ मैं तेरे साथ बहस करने वाला या तेरे प्रभुता-सम्पन्न चुनाव का विरोध करने वाला कौन हूँ? यह फैसला तेरा है मेरा नहीं। तो ऐसा ही हो प्रभु। मेरी नहीं, तेरी इच्छा पूरी हो।
हे नबियों और प्रेरितों के प्रभु, यह मैं भली-भांति जानता हूँ कि जब तक मैं तेरा आदर करूँगा, तू मेरा आदर करेगा। इसलिए, मेरी मदद कर कि मैं पूरी ईमानदारी के साथ यह प्रतिज्ञा कर सकूँ कि अपने भावी जीवन और काम में तेरा आदर करूँगा - चाहे वह लाभ के द्वारा हो या हानि के द्वारा, जीवन के द्वारा हो या मृत्यु के द्वारा - और फिर मेरे जीवन-भर उस प्रतिज्ञा को एक अटूट रूप में पूरा कर सकूँ।
हे परमेश्वर, अब तेरे काम करने का समय आ गया है, क्योंकि शत्रु तेरी चारागाहों में आ गया है, और तेरी भेड़ें घायल और बिखरी हुई हैं। चारों तरफ ऐसे झूठे चरवाहों के झुण्ड हैं जो ख़तरे का इनकार करते हैं, और उन ख़तरों को मज़ाक में उड़ाते हैं जो तेरे झुण्ड के चारों तरफ है। भेड़ें इन किराए के मज़दूरों द्वारा धोखा खा रही हैं और पूरी वफादारी से उनके पीछे चल रही हैं जबकि भेड़िया मार डालने और नाश करने के लिए पास आ रहा है। मैं तुझसे विनती करता हूँ कि शत्रु की मौजूदगी को भाँप लेने के लिए मेरी मन की आँखें ज्योतिर्मय कर; मुझे यह समझ दे कि मैं झूठे और सच्चे मित्रों के बीच के फ़र्क को समझ सकूँ। मुझे देखने के लिए दृष्टि दे और यह साहस दे कि जो कुछ मैं देखूँ उसका विश्वासयोग्यता के साथ बयान कर सकूँ। मेरी आवाज़ को इस तरह अपनी आवाज़ जैसी बना दे कि बीमार भेड़ें भी उसे सुन कर पहचान लें और तेरे पीछे हो लें।
प्रभु यीशु, मैं आत्मिक तैयारी के लिए तेरे पास आता हूँ। अपना हाथ मुझ पर रख दे। नई वाचा के नबी के तेल से मेरा अभिषेक कर दे। ऐसा हर्गिज़ न हो कि मैं एक धार्मिक गुरु बन जाऊँ और नबी होने की अपनी बुलाहट को खो दूँ। मुझे उस श्राप से बचा जो आधुनिक पुरोहितवाद के मुख पर काले बादल की छाया है - समझौता कर लेने, नक़ल करने, और पेशेवर बन जाने का श्राप। मुझे एक कलीसिया का मूल्यांकन उसके आकार, उसकी लोकप्रियता, और उसकी वार्षिक भेंटों के आधार पर करने की भूल से बचाए रखना। मुझे यह याद रखने में मेरी मदद करना कि मैं एक नबी हूँ, कोई प्रवर्तक या धार्मिक प्रबंधक नहीं हूँ। मैं कभी भीड़ का गुलाम न बनूँ। मेरे जीव को शारीरिक महत्वकांक्षाओं से बचाए रखना, और मुझे लोकप्रियता की ललक से छुटकारा देना। मुझे भौतिक वस्तुओं के बंधनों से बचाना। मैं अपने दिन-भर में इधर-उधर घूमकर बर्बाद नहीं करना चाहता। हे प्रभु, तेरा भय मुझ पर छाया रहे। तू मुझे प्रार्थना की उस जगह में पहुँचाता रहे जहाँ मैं प्रधानताओं, अधिकारियों और अंधकार की आत्मिक शक्तियों के ख़िलाफ संघर्ष कर सकूँ। मुझे ज़्यादा खाने और देर तक सोने से बचाए रखना। मुझे आत्म-अनुशासन सिखाना कि मैं यीशु मसीह का एक अच्छा योद्धा बन सकूँ।
मैं इस जीवन में कठोर परिश्रम और मामूली प्रतिफल स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ। मैं कोई आसान जगह नहीं चाहता। मैं ऐसी हरेक मामूली बात की तरफ से अंधा बन जाने की कोशिश करूँगा जो मेरे जीवन को आसान बना सकती हो। अगर दूसरे आसान रास्ते का चुनाव करेंगे, तो मैं उनके प्रति कठोर हुए बिना अपने लिए मुश्किल रास्ता चुनूँगा। मैं विरोध की अपेक्षा रखूँगा, और जब वह होगा तो मैं ख़ामोशी से उसे सहने वाला बनने की कोशिश करूँगा। और, जैसा कि तेरे दासों के साथ कभी-कभी होता है, तो दयालु लोेगों द्वारा जब मुझ पर थोड़ा दबाव बनाकर कुछ भेंट/उपहार दिए जाएं, तो मेरे साथ खड़े रहकर उसके पीछे आने वाली बुराई से मुझे बचाना। जो कुछ मैं पाऊँ, मुझे उसका इस्तेमाल इस तरह करना सिखाना कि उससे न तो मेरे जीव की हानि हो और न ही मेरी आत्मिक सामर्थ्य कम हो। और तेरे अनुमतिबोधक प्रबन्ध में, अगर तेरी कलीसिया की तरफ से मुझे कुछ सम्मान मिलता है, तो उस घड़ी में मैं यह न भूलूँ कि मैं तेरी मामूली से मामूली दया के भी लायक़ नहीं हूँ, और लोग अगर मुझे गहराई में जाकर इस तरह जान जाते जैसे मैं अपने आपको जानता हूँ, तो फिर वे मुझे वह सम्मान नहीं देते, और उसे मुझसे ज़्यादा योग्य किसी दूसरे व्यक्ति को दे देते।
और अब, हे स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु, मैं अपने बचे हुए दिन तुझे अर्पित करता हूँ; तेरी इच्छा के अनुसार, वे चाहे ज़्यादा हों या कम। मैं चाहे पृथ्वी के महान् लोगों के सामने खड़ा होऊँ या ग़रीब और दीन-हीन लोगों के बीच सेवा करूँ, यह चुनाव मेरा नहीं है, और अगर मैं यह चुनाव कर सकता तो भी नहीं करता। मैं तेरा सेवक इसलिए हूँ कि मैं तेरी इच्छा पूरी करूँ, और वह इच्छा मेरे लिए पद, धन-सम्पत्ति या बड़े नाम से ज़्यादा मधुर है, और मैं पृथ्वी और आकाश की सब बातों से बढ़कर इसका चुनाव करता हूँ।
हालांकि मैं तेरा चुना हुआ हूँ और एक उच्च और पवित्र बुलाहट द्वारा सम्मानित किया गया हूँ, फिर भी मैं यह कभी न भूलूँ कि मैं धूल और राख हूँ, ऐसा मनुष्य जिसमें वे सारे प्राकृतिक दोष और मनोवेग हैं जिनसे पूरी मानव-जाति पीड़ित है। इसलिए, हे मेरे प्रभु और मुक्तिदाता, मैं तुझसे प्रार्थना करता हूँ, कि मुझे स्वयं मुझसे और उन सारी पीड़ाओं से बचाना जिनसे मैं अपने आपको पीड़ित करता हूँ, और इन सब बातों के बीच में मैं दूसरों को आशिष देने वाला बना रह सकूँ। पवित्र-आत्मा के द्वारा मुझे अपनी सामर्थ्य से भर दे, और मैं तेरी सामर्थ्य में आगे बढूँ और सिर्फ धार्मिकता की ही बात करूँ। जब तक मेरी सामान्य शक्तियाँ काम कर रही हैं, तब तक मैं छुटकारा देने वाले तेरे प्रेम के संदेश का सब जगह प्रचार करता रहूँ। तब, प्यारे प्रभु, जब मैं बूढ़ा होकर थक जाऊँगा, और आगे बढ़ने लायक़ नहीं रहूँगा, तो मेरे लिए ऊपर एक जगह तैयार रखना, और मेरी गिनती अनन्त महिमा में अपने संतों के साथ कर लेना।
आमीन। आमीन।
(डेविड जे. फैन्ट जूनियर द्वारा ए. डब्ल्यू- टोज़र में उद्धृत)।
ये आपके और मेरे दोनों के हृदय की प्रार्थना हो।
इस पुस्तक में ऐसे संदेशों की श्रृंखलाओं का मूल सार है जो जनवरी 1971 में ईवैन्जैलिकल फैलोशिप ऑफ इन्डिया के वैल्लोर में हुए वार्षिक सम्मेलन में दिए गए थे।
यहाँ मैं ऐसे व्यक्ति के रूप में नहीं बोल रहा हूँ जो पा चुका है, बल्कि ऐसा जो लक्ष्य की तरफ बढ़ते हुए प्रभु की कृपा माँग रहा है, और एक पीड़ादायक रूप में मैं इस वास्तविकता के प्रति जागरूक हूँ कि मुझे अभी एक लम्बी दूरी तय करनी है।
यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि परमेश्वर के वचन को विश्वासयोग्यता के साथ बोला जाना चाहिए, चाहे इस प्रक्रिया में परमेश्वर का वचन स्वयं संदेशवाहक के लिए भी एक चुनौती क्यों न बन जाए। इसलिए मेरा यह मानना है कि परमेश्वर के वचन के रूप में ये संदेश पहले मेरे हृदय के लिए हैं। ये अनेक बातों में मुझे दोषी ठहराते हैं।
सम्मेलन में इस वचन को आशिष देने से प्रभु को प्रसन्नता हुई क्योंकि पूरे जगत में अनेक लोग प्रार्थना कर रहे थे। अब इसे इस प्रार्थना के साथ भेजा जा रहा है कि यह और भी बहुत से लोगों के लिए एक आशिष का वचन साबित होगा।
ये संदेश यहाँ उनकी मूल मौखिक शैली में ही प्रस्तुत किए जा रहे हैं।