मसीह में एक देह

द्वारा लिखित :   जैक पूनन श्रेणियाँ :   कलीसिया चेले
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अध्याय 0
प्रस्तावना

"क्या मेरे मसीही बनने में यह बात शामिल होगी", मन फिराए हुए एक नए व्यक्ति ने पूछा, "कि मुझे उस कलीसिया में जुड़ना होगा जो मेरे घर के पास है और जहाँ लोग अक्सर एक-दूसरे से झगड़ा करते रहते हैं?"

ऐसे सवाल का हम क्या जवाब दे सकते हैं?

मसीह के अलौकिक प्रेम की सुन्दरता प्रदर्शित करने के लिए बुलाई गई अनेक कलीसियाएं, यह करने की बजाय भीतरी राजनीति और प्रतिस्पर्धा के अखाड़े बने हुए हैं - जो मसीह ने उन्हें बनाना चाहा था, वे उसका व्यंग्य चित्र (मज़ाक) बन गए हैं। (इनमें ऐसी अनेक सुसमाचारीय कलीसियाएं भी शामिल हैं जिनके सारे मसीही सिद्धान्त सहीं हैं - प्रेम के सिद्धान्त के अलावा!)

सुसमाचार के एक प्रभावी प्रचार के लिए मसीही समाज की स्पष्ट साक्षी उसकी पहली ज़रूरत है। जब सुसमाचार के प्रचार पर ज़ोर दिया जाता है और सहभागिता को अनदेखा किया जाता है, तो सुसमाचार प्रचार करने वाले (इवैन्जलिस्ट) सारी बात को ही उलट-पलट कर देने के ख़तरे में पड़ जाते हैं।

ऐसी कलीसिया जिसमें ख़ून की कमी (की बीमारी) है, परमेश्वर के उद्देश्यों को पूरा नहीं कर सकती।

इससे पहले कि हम किसी को अपनी सहभागिता में आमंत्रित करें, यह ज़रूरी है कि पहले हम अपना घर ठीक कर लें।

मसीही समुदाय में आज लोगों के आपसी सम्बंधों की जो निराशाजनक दशा है, उसे सुधारने के लिए हम क्या कर सकते हैं?

अगर हम सुनना चाहें, तो परमेश्वर के वचन में इसका जवाब है...

अध्याय 1
एक देह - सहभागिता का आधार

मनुष्य द्वारा अनेक क्षेत्रों में बहुत विकास कर लेने के बावजूद, पूरे विश्व के लोगों के मानवीय सम्बंध लगातार अनेक समस्याओं से घिरे रहते हैं। कर्मचारियों के बीच मित्रभाव बनाए रखने के लिए व्यापारिक संस्थाएं और संगठन निष्णात सलाहकारों को नियुक्त करने के लिए बड़ी धनराशियाँ ख़र्च करते हैं।

हाँ, एक व्यक्ति यह सोच सकता है कि स्व-केन्द्रित, मन-न-फिराए हुए लोगों के परस्पर तालमेल में न रह पाने की बात तो समझ में आ जाती है, लेकिन जब लोग नया जन्म पा लेते हैं और मसीह में नई सृष्टि में बन जाते हैं, तब ऐसी समस्याएं कभी पैदा नहीं हो सकतीं। क्योंकि, जब एक व्यक्ति के जीवन और सेवा का केन्द्र परमेश्वर बन जाता है, तो ऐसी मामूली समस्याओं के लिए जगह ही कहाँ बचती है जो दूसरे लोगों को घेरे रहती हैं?

फिर भी, यह दुःखद बात है कि इस सच्चाई के लिए कोई सबूत की ज़रूरत नहीं है कि पूरे विश्व के मसीही आपस में एक-दूसरे से लड़ते और झगड़ते हैं। अनेक तो ऐसे हैं जो अपने साथी-मसीहियों से बात भी नहीं करते; और फिर कुछ ऐसे भी हैं जो कुछ ख़ास मसीहियों के मुँह भी देखना नहीं चाहते। जो अपने आपको विश्वासी कहते हैं, उनके द्वारा जगत में परमेश्वर के नाम की बदनामी लगातार हो रही है।

यीशु ने कहा कि जगत में उसके शिष्यों की यह पहचान होगी कि वे एक-दूसरे से गहरा प्रेम करेंगे। एक सामान्य रूप में, मसीही काल की पहली दो शताब्दियों में यह बात सार्थक रूप में पूरी हुई थी। संसार तब हैरान होकर मसीहियों की ओर देखता था और यह पुकार उठता था, "देखो, ये मसीही आपस में एक-दूसरे से कैसा प्रेम करते हैं!"

आपसी सम्बंध वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। दान-वरदान, योग्यताएं, तौर-तरीक़े, कार्य-प्रणाली, कार्यक्रम और आर्थिक मामले आदि, सभी मनुष्यों और आपसी रिश्तों के बाद आते हैं। कलीसिया जगत की ज्योति होने का उसके लिए परमेश्वर द्वारा ठहराया गया काम सिर्फ तभी पूरा कर सकती है जब उसके सदस्यों की एक-दूसरे के साथ सच्ची मसीही सहभागिता होती है। इसी तरह, एक विश्वासी व्यक्तिगत रूप में दूसरों के लिए जीवन का सेवक सिर्फ तभी बन सकता है जब उसने स्वयं अपने साथी-मसीहियों के साथ प्रेम के मसीही-सिद्धान्त के अनुसार जीना सीख लिया होगा।

द्विपक्षीय सहभागिता:

बाइबल स्पष्ट रूप में सिखाती है कि कोई विश्वासी अन्य विश्वासियों के साथ सहभागिता किए बिना परमेश्वर के साथ सहभागिता नहीं कर सकता। अगर आप अपने साथी-विश्वासी के साथ प्रेम में नहीं चल रहे हैं, तो आप परमेश्वर के साथ भी नहीं चल सकेंगे।

जिस सूली पर यीशु मरा उसमें लकड़ी के दो टुकड़े थे - एक सीधा, और एक सपाट; यीशु सिर्फ मनुष्य और परमेश्वर (सीधा) के बीच में ही नहीं, बल्कि मनुष्य और मनुष्य (सपाट) के बीच में भी शांति स्थापित करने के लिए आया था। सीधे और सपाट सम्बंध साथ-साथ चलते हैं। आप एक को छोड़ कर दूसरे को नहीं पकड़ सकते।

यूहन्ना ने, जो प्रेम का प्रेरित था, दृढ़ता के साथ इस विषय में कुछ बातें बोली हैं। वह कहता है, सच्चे मन-फिराव का एक सबूत यह होता है कि एक व्यक्ति अपने साथी-विश्वासियों से प्रेम करने लगता है। अगर एक व्यक्ति में यह प्रेम नहीं है, तो उसका मन-फिराव झूठा है और वह अनन्त मृत्यु की तरफ बढ़ रहा है (1 यूहन्ना 3:14)। एक व्यक्ति का परमेश्वर के साथ कैसा सम्बंध है, यह परखने के लिए प्रेरितों का एक-मात्र आधार सिर्फ धर्म-सिद्धान्त का सही होना नहीं होता था।

बाद में, उसी पत्री में, यूहन्ना कहता है कि अगर एक व्यक्ति परमेश्वर से प्रेम करने का दावा करता है, लेकिन अपने भाई से घृणा करता है, तो वह झूठा है। इस बात पर ध्यान दें! ऐसे व्यक्ति का सही नाम "विश्वासी" नहीं बल्कि "झूठा" है! और यूहन्ना के तर्क का प्रतिरोध नहीं किया जा सकता। वह कहता है कि एक भाई नज़र आता है जबकि परमेश्वर नज़र नहीं आता। अगर आप उससे प्रेम नहीं कर सकते जो नज़र आता है, तो उससे प्रेम करना असम्भव होगा जो नज़र नहीं आता (1 यूहन्ना 4:20)।

अब इसकी तुलना अधिकांश "विश्वासियों" के अनुभव के साथ करें। परमेश्वर के प्रति दर्शाया जाने वाले प्रेम का मूल्यांकन सामान्य तौर पर या तो मसीही काम में होने वाली व्यस्तता से भरी गतिविधियों द्वारा, या फिर एक सभा में स्वर्गीय स्थानों में ऊँचा उठा लिए जाने वाली भावनाओं द्वारा किया जाता है। ये बातें बहुत भरमाने वाली हो सकती हैं। मैं ऐसे विश्वासियों से मिला हूँ जो दूसरे विश्वासियों के साथ सहभागिता में नहीं हैं फिर भी वे "प्रार्थना में अद्भुत समय बिताने", और "कलीसियाई-सभा में आश्चर्यजनक परिणाम देखने" की साक्षी देते हैं।

उनके लिए परमेश्वर के संग-संग चलना कैसे सम्भव हो सकता है जबकि वे परमेश्वर के परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ, जिनसे उनका मनमुटाव है, अपने मामले निबटाने की कोशिश भी नहीं करते? यक़ीनन शैतान ने पवित्र शास्त्र के सत्य के प्रति उनके मनों को अंधा कर दिया है!

टूटी हुई सहभागिता की क़ीमत:

अक्सर, हमें यह समझ नहीं आता कि दूसरे विश्वासियों के साथ हमारी सहभागिता के टूटने से हम अपने आपको किन बातों से वंचित कर लेते हैं। बाइबल हमें बताती है कि हम "सब पवित्र लोगों (संतों) के साथ मिलकर" (इफि. 3:17-19) ही मसीह के प्रेम की लम्बाई, चौड़ाई, गहराई और ऊँचाई को जान सकते हैं, और परमेश्वर की सारी परिपूर्णता से भरे जा सकते हैं। जिन विश्वासियों को परमेश्वर ने हमारे साथ रखा होता है, उनके साथ एक वास्तविक सहभागिता द्वारा ही हम मसीह के प्रेम और परमेश्वर की परिपूर्णता की अनुभवात्मक समझ में प्रवेश कर सकते हैं।

जो अपने आपको हरेक मसीही सहभागिता से अलग कर लेता है, वह अपने आपको मसीह के उस प्रेम और कृपा के अनुभव से वंचित कर लेता है जो दूसरे व्यक्ति के द्वारा उसे प्राप्त हो सकते थे। जब हम प्रेम के सिद्धान्त के अनुसार जीने में निष्फल हो जाते हैं, तो हम एक हद तक मसीह की समृद्धि और एक हद तक परमेश्वर की भरपूरी को खो देते हैं।

मसीह की देह:

इफिसियों के मसीहियों को लिखी पौलुस की पत्री विश्वासियों के मसीह में एक देह होने के महान् सत्य पर केन्द्रित है। मसीह कलीसिया का सिर है, और कलीसिया उसकी देह है (इफि. 1:22,23)। हरेक विश्वासी इस देह का अंग है।

यह ऐसी वास्तविकता नहीं है जिसे सिर्फ बौद्धिक स्तर पर हमें स्वीकार करना है, बल्कि इससे हमारा प्रतिदिन का जीवन प्रभावित होना चाहिए।

इफिसियों को लिखी पत्री का पहला अर्धभाग मसीह की देह के मसीही सिद्धान्त के बारे में हैं। पत्री का दूसरा अर्धभाग इस सत्य के व्यावहारिक तौर पर बाहर काम करने के बारे में है। दूसरा अर्धभाग इस तरह से शुरू होता हैः

"इसलिए... जिस बुलाहट से तुम बुलाए गए हो उसके योग्य चाल चलो, अर्थात् सम्पूर्ण दीनता और नम्रता तथा धीरज के साथ प्रेम से एक-दूसरे के प्रति सहनशीलता प्रकट करो, और यत्न करो कि मेल के बंधन में आत्मा की एकता सुरक्षित रहे... एक देह है (जिसके हम सब अंग हैं)" (इफि. 4:1-4)।

दूसरे शब्दों में, जब एक व्यक्ति ने कलीसिया के मसीह की एक देह होने के सत्य को समझ और "देख" लिया होता है, तो उसे अपने साथी-विश्वासियों के साथ सम्पूर्ण दीनता, नम्रता, धीरज, प्रेम और सहनशीलता के साथ चलने की ज़रूरत होती है। जब एक मसीही इस तरह नहीं चलता, तो यह दर्शाता है कि उसने मसीह की देह को नहीं देखा है।

ऐसे व्यक्ति को इफिसियों के पहले तीन अध्यायों में लौटने की और यह कहने की ज़रूरत होती है, "प्रभु, यहाँ मैं कुछ बातों के प्रति अंधा हूँ। कृपा करके मुझे सिखा। मेरी आँखें खोल दे।" "देह" का सत्य कोई ऐसी बात नहीं है जिसे हम अपनी बुद्धि द्वारा समझ लेंगे। जैसे पौलुस कहता है कि अगर हमें यह जानना है, तो यह ज़रूरी है कि पहले हमारे मन की आँखें पवित्र-आत्मा द्वारा ज्योतिर्मय की जाएं (इफि. 1:18,22,23)।

कुरिन्थुस की कलीसिया को पौलुस ने लिखा, "तुम मसीह की देह और एक-एक करके उसके अंग हो" (1 कुरिन्थियों 12:27)। यह सच है कि कुरिन्थुस के पहली शताब्दी के मसीही, वैश्विक स्तर पर भूत काल, वर्तमान काल और भविष्य काल के विश्वासियों के उन समूहों का एक छोटा हिस्सा थे जो मसीह की देह तैयार करते हैं, लेकिन फिर भी उन्हें स्थानीय स्तर पर कुरिन्थुस में उस देह की अभिव्यक्ति होना था। हरेक युग में और हरेक जगह विश्वासियों के हरेक समूह की यही बुलाहट होती है। परमेश्वर की यह इच्छा है कि हरेक मसीही संगति, चाहे वह कलीसिया हो, संस्था हो या सेवकों का संघ हो, वह संसार के सामने मसीह की देह की एक नज़र आने वाली अभिव्यक्ति होनी चाहिए।

जब यीशु मसीह पृथ्वी पर आया, तो वह एक पार्थिव में आया था। परमेश्वर ने मसीह की उस पार्थिव देह में से अपने आपको मनुष्य को दिखाया। एक शारीरिक देह के बिना, मसीह वह सब हासिल न कर पाता जो उसने किया था, और संसार यह न जान पाता कि परमेश्वर कैसा है। एक शारीरिक देह का होना अनिवार्य था।

अब, यह सोचें कि अगर मसीह की देह में लकुवा होता या उसके हाथ-पैरों में परस्पर तालमेल न होता, तो पृथ्वी पर मसीह की सेवकाई में किस हद तक सीमित हो जाती। उदाहरण के तौर पर, अगर उसके हाथों, पैरों, और जीभ में लकुवा होता, तो वह पापियों के घरों तक चल कर न जा पाता, कोढ़ियों को अपनी बाहों में न ले पाता, और न ही वह जीवन का वचन बोल पाता। वह ये सारे काम और दूसरे भी सभी काम इसलिए कर सका क्योंकि उसकी एक सशक्त और स्वस्थ देह थी।

जब मसीह स्वर्ग में गया, तो परमेश्वर ने पृथ्वी पर उसका काम जारी रखने के लिए उसे एक और देह दी - हरेक देश, जाति और भाषा में से उसकी लहू के द्वारा छुटकारा पाई हुई विश्वासियों की एक देह। विश्वासियों की इस देह में उसी पवित्र-आत्मा का वास है जो पृथ्वी पर मसीह की देह में रहता था, और जिसे उसी सेवकाई को जारी रखना था जिसकी शुरूआत मसीह ने अपनी शारीरिक का देह का इस्तेमाल करते हुए की थी। कलीसिया की यही बुलाहट है।

क्या आप देख सकते हैं कि मसीह अब पृथ्वी पर कितना सीमित हो गया है? उसकी नई देह (कलीसिया) के ऐसे अंग और अवयव हैं जो पाप की वजह से या तो लकुवे के मारे हुए हैं, या उनमें फूट होने की वजह से आपस में तालमेल नहीं है।

शैतान अब मसीह की शारीरिक देह पर तो हमला नहीं कर सकता, लेकिन वह मसीह की नई देह पर हमला कर सकता है। शैतान यह बात जानता है (जिससे अनेक विश्वासी अनजान हैं) कि पृथ्वी पर मसीह का काम कलीसिया के काम-न-करने वाले और ताल-मेल में न-रहने-वाले अंगों द्वारा सीमित किया जा सकता है।

हमें व्यग्रतापूर्वक यह प्रार्थना करने की ज़रूरत है कि (विश्वासियों को) मसीह की देह का आत्मिक दर्शन मिले। वास्तव में यह आज की एक बड़ी ज़रूरत है। परमेश्वर हमारी मदद करे कि हम मसीह को उसकी देह के सिर के रूप में और हममें से हरेक को उसके अंगों के रूप में देख सकें। सिर्फ एक ऐसा दर्शन ही कलीसिया को जयवंत बना सकता है।

अध्याय 2
प्रेम में बढ़ना

मसीह की देह आत्मिक दान वरदानों के इस्तेमाल से और प्रेम से निर्मित और उन्नत होती है (इफि. 4:11,12,16)। दान-वरदान और प्रेम दोनों की ज़रूरत है। इसलिए नई वाचा में हम यह पाते हैं। जहाँ कहीं दान-वरदानों की बात की जाती है, तो उनके साथ-साथ वहीं प्रेम पर भी ज़ोर दिया जाता है (1 कुरिन्थियों अध्याय 12 में दान-वरदान पर, व अध्याय 13 में प्रेम पर; रोमियों 12:4-8 में दान-वरदानों पर, पद 9 व 10 में प्रेम पर; 1 पतरस 4:10,11 में दान-वरदानों पर, पद 8 में प्रेम पर)।

मसीह-समान प्रेम:

सूली पर चढ़ने से कुछ ही समय पहले, यीशु ने अपने शिष्यों को एक नई आज्ञा दी थी। उन्हें एक-दूसरे से वैसा ही प्रेम करना था जैसा उसने उनसे प्रेम किया था (यूहन्ना 13:14)। यीशु का यह अंतिम वाक्यांश ही है जो परमेश्वर की कृपा के बिना पूरा करना असम्भव है।

मसीह के प्रेम का विशिष्ट गुण क्या है? यक़ीनन, वह उसकी सूली है जिस पर वह हमारे लिए मरा। इसलिए जब वह मुझसे मेरे भाई से उसके समान प्रेम करने के लिए कहता है, तो यह उसके उदाहरण का अनुसरण करने की और मेरे भाई के साथ मेरे सम्बंध में अपनी ख़ुदी में मरने की बुलाहट है। मेरा ख़ुदी से इनकार करना ही मसीह की देह के दूसरे अंगों के साथ मेरे सम्बंध की विशिष्टता होनी चाहिए। यही, और इससे कम कुछ भी नहीं, सच्चा मसीही प्रेम है। जब हमसे यह कहा जाता है कि "हमें अपने भाइयों के लिए अपना प्राण देना चाहिए" (1 यूहन्ना 3:16), तो यह शारीरिक मृत्यु के बारे में नहीं है, बल्कि इससे कहीं ज़्यादा मुश्किल बात के बारे में है। शहीद होकर एक बार मर जाना ज़्यादा आसान होता है लेकिन हमारे साथी-विश्वासियों के साथ हमारे सम्बंध में प्रतिदिन अनेक बार अपनी ख़ुदी में मरना आसान नहीं होता। यीशु हमें इस दूसरे मरने में बुलाता है।

ऐसा बलिदान, निःस्वार्थ प्रेम मसीह की देह का बुनियादी सिद्धान्त है। वह जो अपनी सूली नहीं उठाता और अपनी ख़ुदी से इनकार करने का रास्ता नही चुनता, वह मसीह की देह में अपना काम नहीं कर सकता।

हम दूसरे मसीहियों से क्यों ठोकर खाते और चिढ़ जाते हैं? यक़ीनन, इस वजह से क्योंकि अहम् (ख़ुदी) अभी तक हमारे जीवन के सिंहासन पर राज कर रहा है। हम अपने आपको इतना महत्वपूर्ण समझते हैं, कि हम यह महसूस या अपेक्षा करते हैं कि हमारा आदर होना चाहिए और सभी को हमसे सलाह लेनी चाहिए। हम ऐसा सोचते हैं कि दूसरे लोगों का व्यवहार और काम-काज हमारी इच्छा के अनुसार होना चाहिए। हम दूसरों से यह अपेक्षा करते हैं कि वे हमारे प्रति दयालु और हमारा ध्यान रखें, हमें "बढ़-चढ़ कर मानें" और हमारी प्रशंसा करें। ऐसी भावनाएं और अपेक्षाएं इस सच्चाई का स्पष्ट प्रमाण हैं कि हमें अनुभवात्मक रूप में सूली के बारे में कुछ मालूम नहीं है। हमारे जीवन अभी तक स्वार्थ के वश में हैं और वे हमारी ख़ुदी और उसकी दिलचस्पियों के इर्द-गिर्द ही घूम रहे हैं।

अगर सूली के प्रेम को विश्वासियों के आचरण का प्राथमिक नियम नहीं बनाया जाता, तो उनके बीच सच्ची मसीही सहभागिता का अनुभव कभी नहीं पाया जा सकेगा। इस प्रेम के अलावा, आजकल जिसे "सहभागिता" के नाम से पुकारा जाता है, वह मसीह की देह की सच्ची सहभागिता नहीं सिर्फ सामाजिक मित्रता ही होगी। ऐसी सामाजिक मित्रता तो सांसारिक समूहों (क्लबों) में भी पाई जाती है। यह अफसोस की बात है कि अनेक मसीही कलीसियाएं और समूह क्लबों से बेहतर नहीं हैं!

मसीही सहभागिता में सभी सदस्य आपस में कड़ियों की तरह एक-दूसरे के साथ मज़बूती से जुड़े हुए होने चाहिए। परमेश्वर ने हमें किसी प्रयोगशाला में कटे हुए अंगों के समान एक साथ नहीं फेंक दिया है, बल्कि मानवीय देह जैसे एक जीव के विभिन्न जीवित अंगों के रूप में एक-दूसरे के साथ जुड़े रहने के लिए बनाया है। लेकिन अगर यह एक वास्तविकता बननी है तो इसकी एक क़ीमत चुकानी पड़ती है - हरेक अंग का दूसरे अंग के लिए अपनी ख़ुदी से इनकार करना। वह मसीही समूह वास्तव में बहुत आशिषित है जिसके सभी अंग इस नियम के अनुसार जीने के लिए तैयार रहते हैं।

प्रेम की व्यवस्था के अनुसार जीने की कुछ व्यावहारिक बातें क्या हैं?

क्षमाशील प्रेम:

सबसे पहले, आपसी क्षमा के क्षेत्र के विषय में विचार करें। जो भी अपनी ख़ुदी से इनकार करता है, उसमें कभी किसी दूसरे व्यक्ति के खिलाफ़ कड़वाहट या शिकायत नहीं होती। सिर्फ ऐसे हृदयों में ही द्वेष बना रहता है जहाँ ख़ुदी अब भी सिंहासन पर विराजमान है।

यीशु ने एक बार एक सेवक का दृष्टान्त सुनाया, जिसके स्वामी ने उसका एक बड़ा कज़र् क्षमा किया था, लेकिन उसने अपने एक साथी-सेवक का मामूली कर्ज़ क्षमा नहीं किया था। जब उसके स्वामी ने यह सुना, तो उसने उसे यातना देने वाले के हाथों में सौंप दिया। "इसी प्रकार," यीशु ने कहा, "अगर तुम से प्रत्येक अपने भाई को हृदय से क्षमा न करे तो मेरा स्वर्गीय पिता भी तुम्हारे साथ वैसा ही करेगा" (मत्ती 18:35)। दण्डित किए जाने के लिए यातना देने वालों के हाथों में सौंपे जाने की आप चाहे जैसी भी व्याख्या करें, लेकिन यीशु के कहने का अर्थ बिलकुल यही था कि जो अपने किसी भी साथी-विश्वासी के प्रति क्षमा न करने का ऐसा मनोभाव अपनाएंगे या अपने अन्दर क्षमा न करने की ऐसी किसी आत्मा को प्रवेश करने देंगे, तो उनके साथ यही होगा। यह ध्यान दें कि यीशु ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि वह क्षमा हृदय से होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, इसका अर्थ यह था कि वह कोई बाहरी (धार्मिक) विधि नहीं बल्कि हृदय की भरपूरी में से आने वाली क्षमा होनी चाहिए। अगर आपके हृदय में किसी के प्रति अब भी कड़वाहट है, और आप उससे कहते हैं कि आपने उसे क्षमा कर दिया है, तो वह व्यर्थ है।

जब हम परमेश्वर के प्रेम की व्यवस्था को भंग करते हैं, तो हम मसीह के काम में रुकावट बनते हैं। लेकिन सिर्फ इतना ही नहीं होता। इसमें हम अपना भी नुक़सान करते हैं। नन ऑफ दीज़ डिज़ीज़ पुस्तक में डॉक्टर एस. आई. मैक्मिलन कहते हैं, "जिस पल में मैं किसी व्यक्ति से घृणा करने लगता हूँ, उसी पल में मैं उसका दास बन जाता हूँ। उसके बाद फिर मैं अपने किसी काम में कोई आनन्द नहीं पाऊँगा, क्योंकि वह व्यक्ति मेरे विचारों को भी अपने वश में कर लेता है। मेरा द्वेष मेरी देह में तनाव का इतना ज़्यादा भीतरी स्राव पैदा कर देगा कि मैं कुछ ही घण्टों के काम के बाद थकान महसूस करने लगूँगा। जिस काम से मुझे पहले बहुत आनन्द मिलता था, वही अब मुझे नीरस लगता है। छुट्टियों पर जाने से भी मुझे कोई ख़ुशी नहीं मिलती। जिस व्यक्ति से मैं घृणा करता हूँ, मुझे सताने के लिए वह हर जगह मेरे पीछे-पीछे रहेगा। मैं अपने मन पर से उसकी तानाशाही पकड़ से छूट नहीं सकता।"

छुपी हुई दुर्भावनाएं और कड़वाहट पूरे विश्व में बहुत से मसीहियों की और मसीही सेवकों की प्रभावशीलता और उनके शारीरिक स्वास्थ्य को भी बर्बाद कर रही हैं।

यीशु ने यह सिखाया कि जब एक भाई यह महसूस कर रहा हो (चाहे सही या ग़लत रूप में) कि हमने उसे चोट पहुँचाई है, तो उसके साथ सहभागिता को पुनःस्थापित करने की पहल हमें ही करनी होगी। "अगर तू अपनी भेंट वेदी पर लाए," यीशु ने कहा, "और तुझे याद आए कि मेरे भाई की मुझसे कुछ शिकायत है, तो अपनी भेंट वेदी के सामने छोड़ दे और जाकर पहले अपने भाई से क्षमा-याचना करते हुए उससे मेल कर ले, और फिर आकर परमेश्वर को अपनी भेट चढ़ा" (मत्ती 5:23,24, टी.एल.बी.)।

इसी तरह, उसने कहा, "जब कभी तुम खड़े होकर प्रार्थना करो, तो अगर तुम्हारे मन में किसी के प्रति कुछ विरोध है तो क्षमा करो, जिससे कि तुम्हारा पिता जो स्वर्ग में है, तुम्हारे भी अपराध क्षमा करे" (मरकुस 11:25 टी.एल.बी.)।

यीशु हमें हरेक परिस्थिति में हमारी ख़ुदी से इनकार करने, हमारा गर्व छोड़कर अपमान का घूँट पी लेने, और जहाँ कहीं भी सहभागिता टूटी हुई है, वहाँ मेल-मिलाप करने के लिए बुलाता है। कई बार, मेल-मिलाप करने की हमारी सारी कोशिशों के बावजूद, एक भाई की मनोदशा कठोर और क्षमा-न-करने वाली बनी रह सकती है। लेकिन अगर हमने कोशिश की है, तो परमेश्वर के सम्मुख हमने अपनी जि़म्मेदारी पूरी कर दी है।

यीशु के शब्द यह स्पष्ट कर देते हैं कि अगर हमने उसकी देह के किसी अंग को चोट पहुँचाई है, और उसके साथ मेल-मिलाप की कोई कोशिश भी नहीं की है, तो परमेश्वर हमारी आराधना या हमारी सेवा या हमारा कुछ भी ग्रहण नहीं करेगा।

कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि ऐसे मसीही कितने होंगे जो यीशु के शब्द को गंभीरता से लेते हैं। अनेक लोग परमेश्वर की आज्ञाओं को मामूली समझते हैं, और इस तरह, मसीह की देह में आत्मिक मृत्यु ले आते हैं।

"क्षमा करने का एक और कारण यह है," पौलुस हमें बताता है, "कि हमें अपने आपको शैतान की युक्तियों में फँसने से बचाए रखना है" (2 कुरिन्थियों 2:11 - टी.एल.बी.)।

उसके कहने का अर्थ क्या है ?

अगर हमारे प्रति किसी का व्यवहार शैतान द्वारा प्रेरित है, और अगर हम भी उसके प्रति वैसा ही व्यवहार करते हैं, तो हम भी शैतान के सेवक बन जाते हैं। अगर किसी दूसरे के बुरे व्यवहार से ठोकर खाकर हम शैतान की सेवा करने लगते हैं, तो हम कितने मूर्ख हैं!

जब लोग सूली पर लटके हुए यीशु की बुराई कर रहे थे और उसका ठट्ठा उड़ा रहे थे, तो वे शैतान की सेवा कर रहे थे। लेकिन यीशु अपने पिता की सेवा कर रहा था इसलिए वह यह प्रार्थना कर सका, "पिता, इन्हें क्षमा कर।"

इसलिए सवाल यह नहीं है कि हम सही हैं या हमारी कड़वाहट न्यायोचित है, बल्कि यह हैः हम किसकी सेवा करेंगे - शैतान की या परमेश्वर की?

हम सबसे ज़्यादा ख़तरे में तब होते हैं जब हमें यह मालूम होता है कि हम सही हैं और सामने वाला ग़लत है। ऐसी परिस्थितियों में ही हम स्वधर्मी फरीसी बन सकते हैं। उस मुद्दे में हम सही हो सकते हैं, लेकिन हमारा मनोभाव ग़लत हो सकता है - वह मसीह-समान न होकर शैतानी हो सकता है, नम्रता का नहीं घमण्ड का हो सकता है।

परमेश्वर दया करने से आनन्दित होता है, और उसके सभी बच्चों में भी यह गुण होना चाहिए। पूरी सृष्टि में सिर्फ नर्क ही एक ऐसी जगह है जो पूरी तरह दया-रहित है। इसलिए हमारे अन्दर एक निर्दयी मनोभाव और क्षमा-न-करने वाली आत्मा का होना इस बात का संकेत है कि हमारे हृदयों के एक कोने में नर्क की मौजूदगी है।

इसके अलावा, जब दूसरों की कमज़ोरियों में हम उनके प्रति दयावंत नहीं होते, तो हम अपने आपको भी परमेश्वर की दया से वंचित कर लेते हैं। बाइबल कहती है, "जिसने कोई दया नहीं की है, उस पर भी दया नहीं की जाएगी" (याकूब 2:13)। जिस तरह हम दूसरों के साथ व्यवहार करते हैं, परमेश्वर भी हमारे साथ वैसा ही व्यवहार करता है।

वह जो अपने जीवन में आनन्दपूर्वक सूली को स्वीकार कर लेता है, उसके लिए नम्र व दीन होना और दूसरों को क्षमा करना आसान हो जाता है। लेकिन जो लोग हठीले होकर ख़ुदी को अपने जीवन के सिंहासन पर बैठाए रखते हैं, उनके लिए क्षमा करना मुश्किल होता है।

दूसरों के प्रति दयावान होना और उन्हें क्षमा करना सिर्फ एक पहला क़दम है। हमें उससे आगे बढ़ते हुए अपने भाई के पापों को ढाँपना भी है (1 पतरस 4:8)। "प्रेम ग़लतियों को भूल जाता है" (नीति. 17:9, टी.एल.बी.) इसलिए जब हमने एक भाई को हृदय से क्षमा कर दिया होता है, तो हमें उस मामले को पूरी तरह दफन कर देना चाहिए। हमें उसके निष्फल हो जाने और हमारे उसे क्षमा कर देने के बारे में दूसरों को नहीं बताना चाहिए - क्योंकि इससे उस भाई की बदनामी होगी। हमारी कोशिश यही हो कि हम अपने साथी-विश्वासियों के लिए जहाँ तक हो अच्छी बातें ही बोलें।

ऐसे प्रेम के द्वारा मसीह की देह उन्नत होती है।

निष्ठावान प्रेम:

"अगर तुम किसी से प्रेम करोगे, तो तुम हर क़ीमत पर उसके प्रति निष्ठावान रहोगे" (1 कुरिन्थियों 13:7 - टी.एल.बी.)।

निष्ठावान होने का अर्थ है कि किसी व्यक्ति की पीठ-पीछे वह न बोलना जो आप उसके मुँह पर बोलने के लिए तैयार न हों। पीठ-पीछे बुराई करना डरपोक लोगों के लिए एक मनोरंजक क्रिया होती है।

इसका अर्थ यह नहीं है कि किसी प्रस्तावित विवाह या नौकरी देते समय की जा रही जाँच-पड़ताल में हमारा मत माँगे जाने पर हम अपने किसी साथी-विश्वासी के बारे में कुछ नकारात्मक बात नहीं कर सकते। ऐसी स्थितियों में, हमें यह याद रखना चाहिए कि हमारे साथी-विश्वासियों से ज़्यादा हमारी निष्ठा परमेश्वर और उसके काम के प्रति हो जो हमें सच बोलने के लिए प्रतिबद्ध करती है। लेकिन जहाँ सत्य हमें यह अनुमति देता हो, वहाँ हमें यथा-सम्भव अपने भाइयों की बुराइयों को छुपाना चाहिए।

धैर्यवान प्रेम

"प्रेम बहुत धैर्यवान होता है। वह झुंझलाता या कुड़कुड़ाता नहीं है" (1 कुरि. 13:4,5 टी.एल.बी.)।

जो लोग अपनी ख़ुदी से इनकार कर देते हैं, उनके लिए दूसरों की कमियों को सहना और उनके प्रति धैर्यवान होना आसान हो जाता है। अगर हम अपनी ख़ुदी में मर जाते हैं, तब दूसरों के व्यवहार से हमें झुंझलाहट नहीं होती और हम ठोकर नहीं खाते। हम भी बुरा मानने और अधीरता से मुक्त हो जाते हैं। ऐसा प्रेम जो दूसरों की कमियों को धीरज से नहीं सहता, वह सिर्फ भावुक और मानवीय प्रेम है। मसीह के प्रेम की गुणवत्ता पूरी तरह से भिन्न है।

बाइबल हमें यह आज्ञा देती हैः

"अपने प्रेम के कारण, एक-दूसरे की ग़लतियों के प्रति सहनशीलता प्रकट करो" (इफि. 4:2 - टी.एल.बी.)। यह एक ऐसा पद है जो हरेक कलीसिया और मसीही संगति में बड़े अक्षरों में लिखा जाना चाहिए। धीरज मसीह की सूली के सबसे स्पष्ट प्रमाणों में से एक है।

हम सभी गिरे हुए मनुष्य हैं। जब हम ईमानदारी से अपनी कमियों और ग़लतियों को देखते हैं, तब दूसरों की कमियों को सहना हमारे लिए आसान हो जाता है। हमारी अधीरता और झुंझलाहट अक्सर हमारे स्व-धर्मी होने का सबूत होता है।

द्वेष-रहित प्रेम:

"अगर तुम किसी से प्रेम करते हो, तो तुम सबसे बढ़कर उसका भला चाहोगे" (1 कुरिन्थियों 13:7 - टी.एल.बी.)।

हमारे स्वभाव क्योंकि स्व-केन्द्रित होते हैं, इसलिए हम दूसरों का मूल्यांकन अक्सर एक सीमित दृष्टिकोण से करते हैं - मतलब, हम दूसरों में वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं। अगर हम किसी व्यक्ति से द्वेष रखते हैं, तो हमें सिर्फ उसकी कमज़ोरियाँ ही नज़र आती हैं और हम उसके बारे में कही जाने वाली हरेक बुरी बात पर यक़ीन कर लेते हैं; और इसी तरह, जब हम किसी व्यक्ति को पसन्द करते हैं, तो हमें उसमें सिर्फ अच्छाईयाँ ही नज़र आती हैं और हम उसके बारे में कही जाने वाली हरेक अच्छी बात पर यक़ीन कर लेते हैं। हम लोगों को "रंगीन चश्मे" से देखते हैं। इसलिए यह कहावत है, "प्रेम अंधा होता है!"

सीमित दृष्टिकोण का एक उदाहरण यह हैः कुछ ख़ास जन-समुदायों और नस्लों के लोग कैसा आचार-व्यवहार करते हैं, इस बारे में हम सभी के अन्दर पहले से ही कुछ विचार (पूर्वाग्रह) होते हैं। और जब कभी उनमें से किसी एक के बारे में हम कोई अफवाह या बुराई सुनते हैं (जो पूरी तरह से झूठ भी हो सकती है), तब हमारे पूर्वाग्रहों की दोबारा से पुष्टि हो जाती है, हम कोई सवाल किए बिना ही उस अफवाह पर यक़ीन कर लेते हैं और इसमें हमारी सहभागिता का नाश हो जाता है।

ऐसे गड्ढों में गिरने से बचने के लिए, हमें हरेक श्रेणी के समुदायों या नस्लों का पहले से न्याय करने (या पूर्वाग्रसित होने) से अपना पीछा छुड़ा लेना चाहिए। जिन लोगों को हम स्वाभाविक रूप में पसन्द नहीं करते उनकी अच्छाईयों को, और जिन्हें हम बहुत पसन्द करते हैं उनकी कमज़ोरियों को याद रखने द्वारा अपने आपको अनुशासित करने से भी हमें मदद मिल सकती है। जिन्हें हम पसन्द नहीं करते उनका न्याय हमें दयालु होकर करना चाहिए, और जिन्हें हम बहुत पसन्द करते हैं उनका न्याय हमें यथार्थवादी होकर करना चाहिए।

हमें सुनी-सुनाई बातों के आधार पर कभी किसी का न्याय नहीं करना चाहिए, और न ही किसी देखी हुई बात के आधार पर जल्दबाज़ी में किसी निष्कर्ष पर पहुँच जाना चाहिए। यह हो सकता है कि एक व्यक्ति का व्यवहार शंकास्पद हो, लेकिन उसके उस व्यवहार की कोई सही वजह भी हो सकती है। जो कुछ भी दूसरे करते हैं, हमें हर समय उनके कामों के बारे में सबसे अच्छी सोच ही रखनी चाहिए।

यीशु के बारे में (एक नबूवत में) यह कहा गया था कि वह न तो मुँहदेखा न्याय करेगा और न ही कानों से सुनकर निर्णय लेगा, लेकिन वह लोगों का खरा मूल्यांकन करेगा (यशा. 11:2,3)।

मसीह की देह में भी ऐसा ही होना चाहिए।

आदरयुक्त प्रेम:

प्रेम दूसरे लोगों को मूल्यवान समझता है।

जब हमारे जीवनों के सिंहासन पर हमारी ख़ुदी विराजमान होती है, तो हमारी मनोवृत्ति का झुकाव दूसरों को तुच्छ जानने और उन्हें अनदेखा करने की तरफ होता है। लेकिन जब हम अपनी सूली उठाते और अपनी ख़ुदी के लिए मरते हैं, तब हम अपने साथी-विश्वासियों का आदर करना, उन्हें मूल्यवान जानना, और उनमें आनन्द मनाना भी शुरू कर देते हैं।

ऐसे विश्वासियों के प्रति हमारा क्या मनोभाव होता है जो सामाजिक, बौद्धिक या आत्मिक रूप में हमसे नीचे हैं? हमारा जवाब इस पर निर्भर होगा कि हमारे जीवनों में हमने कलवरी के प्रेम की सच्चाई को जाना है या नहीं जाना है। परमेश्वर के प्रेम को मसीह में तब देखा गया जब वह अपने परमेश्वर होने के पद और श्रेष्ठता के प्रति मर गया और नीचे उतर कर पतित मानव-जाति के साथ एक हो गया। इसलिए, अगर हमें परमेश्वर के लिए प्रभावशाली होना है, तो जैसा शीर्ष के साथ हुआ है, वैसा ही उसकी देह के अंगों के साथ भी होना चाहिए।

क्या आप अपने साथी-विश्वासियों को मूल्यवान समझते हैं? क्या आप यह मानते हैं कि आपको उनकी ज़रूरत है और क्या आप वास्तव में उनकी सहभागिता चाहते हैं? या आप एक ही नस्ल, समुदाय के या बौद्धिक या सामाजिक स्तर के लोगों के अनुकूल झुण्ड बना लेते हैं, फिर सिर्फ उनके बीच में ही घूमते हैं और फिर उसे "सहभागिता" हैं? अगर ऐसा है, तो उस बड़े धोखेबाज़ (शैतान) ने आपकी उस भरपूरी को चुरा लिया है जो आपको तब मिलती जब आप समानता के आधार पर "सभी संतो के साथ" नम्रतापूर्वक सहभागिता करना चाहते।

शिष्टाचारी प्रेम

"प्रेम दयालु होता है... अभद्र व्यवहार नहीं करता" (1 कुरि. 13:4,5 - टी.एल.बी.)।

बाइबल कहती है, "दया मनुष्य को शोभनीय बना देती है" (नीति. 19:22 - टी.एल.बी.)। हम अजनबियों के प्रति बहुत शिष्टाचारी होती हैं लेकिन जिनके साथ हम रोज़ मिलते-जुलते हैं, उनके प्रति हम अक्सर अभद्र होते हैं। सभ्य होने या सौम्यता से भरे कुछ शब्द बोलने की हमें कोई क़ीमत नहीं चुकानी पड़ती और इस तरह हम जहाँ भी जाते हैं, वहाँ "थोड़ी सी मिठास" फैला सकते हैं। फिर भी, हममें से ज़्यादातर ऐसा करने में लापरवाही करते हैं। स्नेह-भरे शब्दों और कामों द्वारा जिन संगतियों को गहराई में ले जाया जा सकता था, यह न होने की वजह से वे एक उथले स्तर पर ही रह गई हैं। जैसे किसी मशीन में तेल होता है, वैसे ही शिष्टाचार द्वारा हमारे बहुत से सम्बंधों में से घर्षण को मिटाया जा सकता था।

लेकिन हम सीखने में बहुत धीमे होते हैं।

हम क्योंकि मूल रूप में स्व-केन्द्रित होते हैं, इसलिए हमें सौम्य होने की कला में हमें अपने आपको शिक्षित और अनुशासित करना पड़ता है। सहभागिता स्वाभाविक रूप में विकसित नहीं होती। उसकी एक बाग़ की तरह बहुत ध्यान से देखभाल करनी पड़ती है।

अपनी बातचीत में लापरवाह होने की वजह से कैसे एक विश्वासी अक्सर दूसरे विश्वासी को चोट पहुँचाता रहता है। ऐसे कितने ही मसीही हैं जो दूसरों के बारे में हास्यस्पद बातें करने द्वारा अपने आपको सबके बीच में लोकप्रिय बना लेना चाहते हैं। लेकिन अपने बारे में वे कोई ऐसा मज़ाक करने के लिए बहुत उत्सुक न होंगे!

इसमें कोई संदेह नहीं कि हास्यरस मूल्यवान होता है, लेकिन इसका नतीजा यह नहीं होना चाहिए कि दूसरे लोग अपने आपको छोटा मानने लगें या बेचैन हो जाएं। याद रखें, "रूठे हुए भाई को मनाना दृढ़ नगर पर जय पाने से ज़्यादा मुश्किल है" (नीति. 18:19 - टी.एल.बी.)।

देखभाल करने वाला प्रेम:

प्रेम दूसरों की ज़रूरतों में दिलचस्पी रखता है।

मसीह का प्रेम, हमने देखा है, कि स्व-केन्द्रित नहीं है। वह निःस्वार्थ है। यह बात हमारे भाइयों की ज़रूरत के क्षेत्र में भी लागू होती है।

मानवीय देह के बारे में विचार करें। जब मानवीय शरीर के किसी अंग में कोई रिसने वाला घाव हो जाता है, तब लहू में तुरन्त ही एक बड़ी संख्या में श्वेताणुओं (श्वेत रक्त-कोषिकाओं) की रचना होती है जो रिसाव पैदा करने वाले कीटाणुओं से लड़ते हैं। ये श्वेताणु कीटाणुओं से लड़ने के लिए घाव के क्षेत्र की तरफ दौड़ते हैं और इस प्रक्रिया में स्वयं मर जाते हैं और उनसे फ्पीप" बनती है। घायल जगह की चंगाई के लिए करोड़ों श्वेताणु अपनी जान देते हैं।

मसीह की देह को किस तरह काम करना चाहिए, यह इसका कितना सुन्दर चित्रण है!

बाइबल कहती है, "परमेश्वर ने (मसीह की) देह को इस तरह रचा है कि उसके अंग जैसी अपनी देखभाल करते हैं वैसे ही एक-दूसरे की भी देखभाल करें। अगर एक हिस्से को पीड़ा होती है, तो उसके साथ सभी हिस्से पीड़ा भुगतने हैं, और अगर एक हिस्सा सम्मानित होता है तो दूसरे भी सम्मान पाते और आनन्दित होते हैं" (1 कुरि. 12:24-26 - टी.एल.बी.)। अंतिम पद ऐसी आज्ञा नहीं है जो एक अंग के पीड़ा भुगतने या आनन्दित होने पर बाक़ी सभी अंगों को पीड़ा भुगतने या आनन्दित होने के लिए दी गई हो। इसकी बजाय, यह इस बात का विवरण है कि कैसे देह के एक अंग के पीड़ित या हर्षित होने से बाक़ी हरेक अंग प्रभावित होता है। मसीह की देह का हरेक अंग जो सिर के साथ नज़दीकी से जुड़ा हुआ है, वह दूसरे अंगों की पीड़ा या आनन्द में स्वतः सहभागी हो जाएगा।

अगर प्रभु और हमारे बीच में एक जीवित रिश्ता है, और अगर पवित्र-आत्मा ने मसीह की देह का सत्य देख लेने के लिए हमारी आँखें खोल दी हैं, तब जब दूसरे अंगों को पीड़ा होगी, तो हम भी उसके साथ पीड़ित होंगे। उसकी समस्या से हम भी चिंतित हो उठेंगे। अगर ऐसा नहीं हो रहा है, तो यह इस बात का संकेत होगा कि हमारा प्रभु के साथ संपर्क टूटा हुआ है।

उदार प्रेम:

पवित्र-शास्त्र कहता है, "अगर आप दूसरों की मदद करने द्वारा यह साबित नहीं कर रहे हैं तो यह कहने का क्या फायदा कि आपमें विश्वास है और आप एक मसीही हैं? क्या इस तरह के विश्वास से किसी का उद्धार हो सकता है? अगर आपके किसी मित्र को खाने और कपड़े की ज़रूरत हो, और आप उससे यह कहें, 'ठीक है, कुशल से जाओ, परमेश्वर तुम्हें आशिष दे, गर्म और तृप्त रहो,' और उसे खाना और कपड़ा न दो, तो इससे क्या लाभ होगा?" (याकूब 2:14-16 - टी.एल.बी.)।

और फिर ऐसा ही लिखा है, "अगर कोई अपने आपको मसीही कहता है, और अगर उसके पास संसार की काफी सम्पत्ति है, लेकिन वह अपने भाई को आवश्यकता में देखकर भी उसकी मदद नहीं करता है, तो उसमें परमेश्वर का प्रेम कैसे हो सकता है? …हम यह कहना बंद कर दें कि हम लोगों से प्रेम करते हैं; हम उनसे वास्तव में प्रेम करें और उस प्रेम को अपने कामों में दिखाएं" (1 यूहन्ना 3:17,18 - टी.एल.बी.)।

इसका अर्थ यह नहीं है कि हम बिना सोचे-समझे ऐसे हरेक मसीही को पैसा बाँटना शुरू कर दें जो यह कहता है कि वह ज़रूरतमंद है। नहीं। यहोशू और इस्राएल के अगुवों ने एक बार गिब्बोनी लोगों पर दया करने द्वारा बड़ी भूल की थी जिन्होंने बड़े ज़रूरतमंद होने का दिखावा करने द्वारा उन्हें धोखा दिया था (यहोशू 9)। अनेक भले और सहृदय मसीहियों को भी ऐसे ही पेशेवर धोखेबाज़ों द्वारा मूर्ख बनाया गया है।

ऐसे भोलेपन में कोई अच्छाई नहीं होती।

लेकिन पहले हम प्रभु से जुड़े रहने की अभिलाषा रखें, और तब हरेक स्थिति का सामना करने के लिए हमारे पास बुद्धि होगी। ऐसा न हो कि हम सिर्फ मानवीय संवेदना द्वारा ही प्रभावित होते रहें। हमें शीर्ष (सिर) के संपर्क में रहना है और उसके मार्गदर्शन में चलना है।

मसीह-निर्देशित प्रेम:

मानवीय देह में, अलग-अलग अंगों में इसलिए समन्वय होता है क्योंकि हरेक अंग सिर (या मस्तिष्क) का आज्ञापालन करता है या उसके द्वारा नियंत्रित किया जाता है। इसी तरह, कलीसिया में भी सच्ची सहभागिता सिर्फ तभी एक हक़ीक़त बन सकती है जब उसके सभी अंगों के आपसी सम्बंध मसीह (सिर) के नियंत्रण में रहेंगे। अगर मसीह दो मसीहियों के बीच में मौजूद नहीं है और वह उनके सम्बंध का केन्द्रीय बिन्दु नहीं है, तो उनके बीच का गहरा सम्बंध ख़तरनाक हो सकता है।

मैंने मित्रता की ख़ातिर सत्य में समझौता किए जाते हुए देखा है। आज बहुत जगहों में परमेश्वर के काम का इसलिए नुक़सान हो रहा है क्योंकि परमेश्वर के सत्य के प्रति ईमानदार होने की बजाय लोग मनुष्यों के प्रति ज़्यादा ईमानदारी दिखा रहे हैं। ऐसे सभी मामलों में, यह स्पष्ट है कि उनके बीच होने वाली सहभागिता मसीह के द्वारा नहीं बल्कि मानवीय परिमण्डल में ही हो रही है। इसे अक्सर गहरी मसीही सहभागिता मान लिया जाता है, लेकिन वास्तव में यह असल की सिर्फ एक नकल है।

अगर हम शीर्ष (सिर) के साथ एक नज़दीकी और गहरे सम्बंध में रहेंगे और उसके नियमों का पालन करेंगे, तो हम स्वाभाविक तौर पर मसीह की देह के बाक़ी अंगों के साथ एक सही मनोभाव में रह सकेंगे। तब जो सहभागिता हमारी एक-दूसरे के साथ होगी, वह भावुक और खोखली नहीं बल्कि गहरी और असली होगी।

अध्याय 3
सभी अंग बराबर हैं

वैज्ञानिक बताते हैं कि जगत में बर्फ के दो हिमलवों (स्नो फ्लेक्स) का आकार पूरी तरह कभी एक जैसा नहीं होता। इसी तरह, जगत में दो मनुष्य पूरी तरह कभी एक जैसे नहीं होते।

परमेश्वर ने पूरे ब्रह्माण्ड में असीम विविधता बनाई है। यही बात सारी सृष्टि को ऐसा अद्भुत और सुन्दर बनाती है। अगर ब्रह्माण्ड में विविधता न होती, तो जीवन अकल्पनीय रूप में नीरस होता। इसी तरह, अगर सभी मनुष्य मनोभाव और व्यक्तित्व में एक जैसे होते, तो जीवन कितना अरुचिकर और उचाट होता।

जैसे मानवीय देह में विविधता है, वैसे मसीह की देह में भी विविधता है। इसके साथ ही, विभिन्न् अंगों में एक जीवंत एकता भी है। देह में सभी अंगों का काम हालांकि एक-दूसरे से पूरी तरह भिन्न होता है, फिर भी सभी अंग समान रूप से महत्वपूर्ण और आवश्यक हैं। कोई अंग दूसरे से ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं होता। एक सेवक अपनी सेवकाई से दूसरे सेवक की सेवकाई को वर्जित न करे। जब देह का हरेक अंग अपना विशिष्ट काम पूरा करता है, सिर्फ तभी संसार के सामने मसीह की एक शक्तिशाली सामूहिक प्रस्तुति हो सकती है।

पुरानी वाचा के समयकाल में, परमेश्वर अक्सर एक-एक नबियों द्वारा बात करता था जो उसके प्रतिनिधि और वक्ता होते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है। आज, परमेश्वर मसीह की देह द्वारा काम करता है। एक ही देह में तालमेल के साथ होने वाले विश्वासियों के सामूहिक काम द्वारा संसार के सामने परमेश्वर और मसीह का प्रतिनिधित्व किया जाना है। और इस उद्देश्य को पूरा करने में, कोई एक विश्वासी दूसरे से ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं होता। मसीह की देह की उन्नति और जगत के प्रति उसकी सेवकाई के लिए हरेक अंग के दान-वरदान ज़रूरी हैं।

परमेश्वर के काम करने के इस तरीक़े को समझने में निष्फल हो जाने की वजह से कलीसिया में श्रेष्ठता और तुच्छता के मनोभाव पैदा हो सकते हैं।

तुच्छ महसूस करनाः

पौलुस पहले उन लोगों के बारे में बात करता है जो तुच्छ महसूस करते हुए, यह मान लेते हैं कि कलीसिया के निर्माण में उनके दान-वरदान दूसरों के दान-वरदानों जितने महत्वपूर्ण नहीं हैं।

"अगर पैर कहे, 'मैं हाथ नहीं, इसलिए मैं देह का अंग नहीं," तो क्या वह इस कारण देह का अंग नहीं? और अगर आप एक कान को यह कहता सुनें, 'मैं आँख नहीं कान हूँ, इसलिए मैं देह का अंग नहीं'? तो आप कैसे सुन सकेंगे? या अगर आपकी पूरी देह सिर्फ एक बड़ा कान ही होती, तो आप कैसे सूंघते? लेकिन परमेश्वर ने हमारी रचना इस तरह नहीं की है। उसने हमारी देह के बहुत से अंग बनाए हैं और उसने हरेक अंग को वहीं रखा है जहाँ वह उसे रखना चाहता था। एक देह में अगर सिर्फ एक ही अंग होता तो वह कितनी विचित्र नज़र आती! इसलिए उसने उसके बहुत से अंग बनाए, लेकिन फिर भी सिर्फ एक ही देह है" (1 कुरिन्थियों 12:15-20 टी.एल.बी.)।

मसीह की देह में अपनी तुलना किसी दूसरे से करना - चाहे सकारात्मक रूप में या नकारात्मक रूप में - वह हमेशा ही हानिकारक होता है। ऐसी तुलना से घमण्ड पैदा हो सकता है - या निराशा और ईर्ष्या भी पैदा हो सकती है। जब पैर अपनी तुलना हाथ से करने लगेगा, तो वह कहेगा, "देह में मेरा काम हाथ के काम जितना महत्वपूर्ण नहीं है। देह के सबसे निचले भाग में मैं ज़्यादातर मोज़े और जूतों से ढंका रहता हूँ, और मेरी मौजूदगी का भी ज़्यादा लोगों को अहसास नहीं होता। लेकिन हाथ पर सबका रोज़ ध्यान रहता है। वह हर समय कुछ-न-कुछ करने में व्यस्त रहता है लेकिन मैं ज़्यादातर निष्क्रिय ही रहता हूँ।" और एक बार इस तरह तुलना कर लेने के बाद, वह निराश हो जाने और परमेश्वर के खिलाफ़ एक ऐसी आत्मा के वश में हो जाने से सिर्फ एक क़दम की ही दूरी पर होता है जहाँ पहुँच कर वह यह शिकायत करेगा कि उसे हाथ न बनाकर पाँव क्यों बनाया। ऐसी आत्मा अनेक विश्वासियों की सारी योग्यता ख़त्म कर देती है और फिर वे मसीह की देह की मज़बूती और भलाई के लिए कुछ भी नहीं कर सकते। आज यीशु मसीह की कलीसिया का इसलिए नुक़सान हो रहा है क्योंकि विश्वासियों के बड़े समूह कोई शानदार वरदान पाने की अभिलाषा कर रहे हैं। जब वे ऐसा कोई वरदान नहीं पाते, तो वे कुछ भी न करने का चुनाव करते हैं। जब आप किसी दूसरे के पास वह वरदान देखते हैं जो आपके पास नहीं है, तो आप ईर्ष्या से सिर्फ एक ही क़दम की दूरी पर होते हैं; और ईर्ष्या सहभागिता को मिटा देती है। जैसा बाइबल में लिखा है, "जहाँ डाह और स्वार्थी आकांक्षा होती है, वहाँ बखेड़ा और हर प्रकार की बुराई भी होती है" (याकूब 3:16 - टी.एल.बी.)।

अगर मसीह की देह हम सिर्फ देख पाते, तो हममें ईर्ष्या के लिए कोई जगह न रहती। मानवीय देह में पैर को सिर्फ पैर होने में कोई मुश्किल नहीं होती। उसमें पैर के अलावा कुछ और होने की कोई अभिलाषा नहीं होती और वह कभी हाथ बन जाने का सपना नहीं देखता है। वह पैर होने से ही संतुष्ट रहता है। वह जानता है कि परमेश्वर ने उसे पैर बनाकर कोई ग़लती नहीं की है। वह पैर होने में आनन्दित रहता है, और वह हाथ द्वारा किए जाने वाले कामों को देखकर भी आनन्दित होता है हालांकि वह जानता है कि वह कभी उस तरह का कोई काम नहीं कर सकेगा।

ऐसा ही उन सबके साथ भी होगा जिन्होंने मसीह की देह को "देख" लिया है। जब आप किसी दूसरे से ईर्ष्या करते हैं, जब आप परमेश्वर द्वारा किसी दूसरे अंग को भरपूरी से इस्तेमाल करते हुए देखकर पूरे हृदय से आनन्दित नहीं होते, तो यह स्पष्ट है कि आपने इस सत्य को बिलकुल भी नहीं समझा है। जो अंग सिर के साथ एक नज़दीकी सहभागिता में रहता है, वह मसीह की देह के दूसरे अंग को सम्मानित होता देखकर आनन्दित और प्रसन्न होता है (1 कुरि. 12:26)।

मसीह की देह के एक अंग और दूसरे अंग के बीच प्रतियोगिता की भी कोई जगह नहीं होती। मसीह की देह का नियम स्पर्धा नहीं सहयोग है।

जब आप किसी दूसरे को योग्यता-पूर्वक एक सेवकाई को पूरा करता देखते हैं, और आप दूसरों को यह दिखाने की योजना बनाते हैं कि आप भी (उससे बेहतर नहीं तो) वैसा ही कर दिखाएंगे, तो यह स्पष्ट है कि आपकी ख़ुदी अब भी आपके जीवन के केन्द्र में है। अगर आप सिर की अधीनता में रह रहे होते, तो आप देह में कभी किसी के साथ कोई प्रतियोगिता नहीं करते। इसकी बजाय, आप सिर्फ अपने ख़ास काम पर, बल्कि उसे और अच्छी तरह करने पर ध्यान देते।

अगर हम परमेश्वर की सिद्ध बुद्धि पर भरोसा रखते हैं, तो हम यह जान लेंगे कि हम सबसे बढ़कर परमेश्वर ही यह जानता है कि हममें से हरेक को कौन सा दान-वरदान देना है। तब दूसरे के दान-वरदान के प्रति कोई शिकायत, निराशा या ईर्ष्या से भरी लालसा नहीं होगी।

मसीह की देह में कोई अपने आपको तुच्छ न समझे। यह हो सकता है कि देह के सभी अंग क्षमता या योग्यता में बराबर न हों, लेकिन स्वयं उनके लिए नियुक्त की गई जगह में वे परमेश्वर के लिए समान रूप से उपयोगी हैं।

हमें वही होने के लिए बुलाया गया है जो हम हैं - परमेश्वर द्वारा दिए गए उन ख़ास मन-मिज़ाजों, दान-वरदानों और योग्यताओं द्वारा परमेश्वर की महिमा फैलाने वाले। आज कलीसिया में सब कुछ बहुत सीमित हो गया है क्योंकि विश्वासी अब उसमें अपना ख़ास योगदान नहीं लाते। एक व्यर्थ रूप में दूसरे की नकल करने की कोशिश करते हुए वे अपनी ख़ास योग्यता को दबा देते हैं, जिसका नतीजा यह होता है कि वे मसीह की देह की सेवकाई में कोई योगदान नहीं दे पाते।

श्रेष्ठ महसूस करना:

जो अपने आपको श्रेष्ठ समझते हैं, उन्हें पौलुस ने यह लिखाः

"आँख हाथ से कभी यह नहीं कही सकती, 'मुझे तेरी ज़रूरत नहीं हैं।' सिर पैर से यह नहीं कह सकता, 'मुझे तेरी ज़रूरत नहीं है।' और जो अंग सबसे निर्बल और महत्वहीन नज़र आते हैं, असल में वही सबसे महत्वपूर्ण होते हैं ...इसलिए परमेश्वर ने देह की रचना इस तरह की है कि उन अंगों की ज़्यादा इज़्ज़त और देखभाल होती है जिन्हें वैसे महत्वहीन मान लिया जा सकता था ...अब मैं जो कहने की कोशिश कर रहा हूँ, वह यह हैः तुम सब मसीह में एक देह हो, और तुममें से हरेक उसका विशिष्ट और महत्वपूर्ण हिस्सा है (1 कुरि. 12:21-27 - टी.एल.बी.)।

कलीसिया में कपट से भरे कुछ ऐसे अहंकारी लोग होते हैं जो अपने आपको अपने साथी-विश्वासियों से ज़्यादा महत्वपूर्ण समझते हैं। मसीह की देह के लिए वे दूसरों की सेवकाई से ज़्यादा अपनी सेवकाई को ज़रूरी समझते हैं। यह सही है कि वे घमण्डी समझे जाने के डर से अपनी इन भावनाओं को व्यक्त नहीं करते, लेकिन उनके काम और मनोभाव उनका पर्दाफाया कर देते हैं। ऐसा आत्मिक गर्व न सिर्फ उन्हें आत्मिक तौर पर बर्बाद कर देता है, बल्कि सच्ची सहभागिता की भी मौत का ऐलान कर देता है।

आँख देह का एक बहुत महत्वपूर्ण अंग है और उसका एक ज़रूरी काम होता है। लेकिन अगर (चित्रण को जारी रखते हुए) वह यह कहते हुए हाथ को तुच्छ जाने कि, "मुझे तेरी ज़रूरत नहीं है", तो वह पूरी तरह यह समझने में चूक गई है कि देह में उसके क्या काम है।

और यही ऐसे हरेक उस व्यक्ति के लिए भी है जो अपनी सेवकाई को दूसरे से ज़्यादा ज़रूरी समझता है। हमारे मन ऐसे धोखा देने वाले होते हैं कि हम आसानी से यह सोच लेने की मूर्खता कर सकते हैं कि हम परमेश्वर के लोगों के बीच में आत्मिक अगुवे और नबी होने के लिए बुलाए गए हैं। जो इस फंदे में फँस जाते हैं, फिर वे कलीसियाओं में प्राचीन और मसीही संगठनों में अगुवे बनने की लालसा करते हैं। वे अपने आपको दूसरों से बेहतर मानने लगती हैं और मसीह की देह में कैंसर की तरह होते हैं।

ऐसा नहीं है कि किसी के न होने से परमेश्वर का काम नहीं होगा। जब एलिय्याह ने परमेश्वर से यह शिकायत की कि इस्राएल में सिर्फ वही एक नबी बचा था जो उसके प्रति विश्वासयोग्य था, तब प्रभु ने उससे कहा कि वह उसकी जगह नबी होने के लिए एलीशा का अभिषेक कर दे (1 राजा 19:14-16)। यह शायद एलिय्याह को यह सिखाने के लिए था कि परमेश्वर को कभी ऐसे लोगों की कमी नहीं होगी जिन्हें वह इस्तेमाल कर सके। महान् नबी एलिय्याह के बिना भी काम चल सकता था।

मसीह की देह में कोई ऐसा नहीं है जिसके बिना काम नहीं चल सकता। दूसरी तरफ, ऐसा भी नहीं है कि किसी के बिना काम चल सकता है। बाइबल कहती है कि सभी अंग महत्वपूर्ण हैं।

इससे पहले कि हम ऐसे बन सकें कि हमारे बिना काम न चले, हमें यह समझ लेने की ज़रूरत है कि हमारे बिना काम चल सकता है। जब हमें अपनी व्यर्थता का अहसास हो जाता है तभी हम मसीह की देह के लिए उपयोगी होते हैं। जब भी कोई यह महसूस करता है कि उसके बिना किसी एक ख़ास जगह में परमेश्वर का काम नहीं हो सकेगा, तो अक्सर सच्चाई यही होती है कि उसके बिना वह काम और ज़्यादा अच्छी तरह होगा।

परमेश्वर का काम किसी एक व्यक्ति पर नहीं बल्कि मसीह की देह की सामूहिक सेवकाई पर निर्भर रहता है। असल में, जब भी एक व्यक्ति स्वयं ही सब कुछ कर लेने की कोशिश करता है, तो वह परमेश्वर के काम में एक सकारात्मक बाधा बन जाता है - क्योंकि वह दूसरे लोगों के लिए काम करने की जगह नहीं छोड़ता।

आँख एक ज़रूरी अंग है, लेकिन अगर सारी देह एक बड़ी आँख होती तो ऐसी देह किसी काम की न होती। इसी तरह, जब एक कलीसिया या मसीही संस्था किसी एक व्यक्ति की सेवकाई पर केन्द्रित हो जाती है (चाहे वह कितना भी योग्य क्यों न हो), तब वह सेवकाई मसीह की देह की अभिव्यक्ति नहीं रह जाती। ऐसा समूह असल में परमेश्वर के काम में एक बाधा बन जाता है। आंकड़े चाहे कितने भी प्रभावशाली क्यों न नज़र आएं, लेकिन जो कलीसियाएं सिर्फ एक योग्य अगुवे या पास्टर की सेवकाई पर केन्द्रित हो जाती हैं, वे उनके लिए परमेश्वर-के-तय-किए -हुए काम को पूरा नहीं कर पाते। ऐसी स्थिति में सच्ची मसीही सहभागिता हो पाना सम्भव नहीं है।

जब शरीर में एक कोषाणु का आकार परमेश्वर-के-तय-किए-हुए आकार से बहुत बड़ा हो जाता है, तो यह प्रक्रिया तभी पूरी होती है जब वह दूसरे कोषाणुओं को दबा कर उनके जीवन का नाश कर देता है। यह कैंसर है, और अगर इसका इलाज न किया जाए, तो यह हमेशा के लिए ही देह को मार डालेगा।

अफसोस की बात यह है कि अनेक मसीही संस्थाओं और कलीसियाओं की यही दशा है। उनमें मौजूद विश्वासी आत्मिक तौर पर इसलिए नहीं बढ़ रहे हैं क्योंकि उनके बीच में एक व्यक्ति के व्यक्तित्व का दबदबा बना हुआ है। वे ऐसे छोटे खुमियों (मशरूम) की तरह हैं जो एक विशाल बांजवृक्ष के नीचे सूर्य का तेजोमय प्रकाश देखे बिना ही बड़े हो रहे हैं।

जिनके पास विशिष्ट आत्मिक दान-वरदान हैं, वे ध्यान देकर सुनेंः दूसरे विश्वासियों की उन्नति में, सामान्य दान-वरदान प्राप्त लोगों की अपेक्षा आप एक ज़्यादा बड़ी बाधा बन सकते हैं। इस बात की ज़्यादा सम्भावना है कि कम योग्यता वाले वे भाई नहीं बल्कि आप सच्ची सहभागिता को ख़त्म करेंगे। इसके अलावा, यह ख़तरा भी है कि आप मसीह की देह के अंगों को मसीह (सिर) से ज़्यादा स्वयं आपके ऊपर निर्भर रहने वाला बना देंगे।

अगर हम दूसरे लोगों को उनकी सेवकाई पूरी नहीं करने देंगे, तो हम मसीह की देह के एक बुनियादी नियम को भंग करने वाले बन जाएंगे। बाइबल हममें से हरेक को उत्साहित करती है कि हम दूसरों को अपने से बढ़ कर जानें (फिलि. 2:3)। अगर सच कहें, तो हमारे लिए यह मुश्किल है कि हम दूसरों को अपने से ज़्यादा आत्मिक मानें, और बाइबल हमसे यह आग्रह नहीं करती कि हम झूठी नम्रता दिखाएं। हमसे यह कहा गया है कि हम दूसरों को हमसे ज़्यादा महत्वपूर्ण मानें। यक़ीनन, अगर देह में हम अपनी और दूसरों की जगह को देख सकें, तो हम सभी इतना तो कर ही सकते हैं।

इसका अर्थ यह नहीं है कि पवित्र-आत्मा के सारे दान-वरदानों का मसीह की देह के निर्माण में एक जैसा मूल्य है। स्वयं बाइबल हमें बताती है कि कुछ दान-वरदान दूसरे दान-वरदानों से ज़्यादा मूल्यवान हैं (1 कुरि. 14) और हमसे यह कहा गया है कि "हम बड़े से बड़े वरदानों की धुन में रहें" (1 कुरि. 12:31)। मसीह की देह की सेवकाई में हरेक विश्वासी का एक निश्चित योगदान होता है, लेकिन यह स्वाभाविक ही है कि जिन्हें परमेश्वर ने एक ज़्यादा उपयोगी वरदान दिया है (और यहाँ उसकी सर्वसत्ता है), वे एक ज़्यादा महत्वपूर्ण योगदान देंगे। यह वास्तविकता कि कुछ विश्वासियों के पास एक विशिष्ट वरदान है, विश्वासियों की समता की बात से असंगत नहीं है - समता एकरूपता नहीं होती।

हमें एक-दूसरे की ज़रूरत है:

हमारे प्रभु के बारे में यह एक अनोखी बात है कि पृथ्वी पर रहते हुए हालांकि वह बाक़ी सब लोगों की तुलना में सिद्ध और श्रेष्ठ था, फिर भी उसने मनुष्यों को अपने बराबर का दर्जा दिया। हमें भी इस तरह जीने के लिए बुलाया गया है। यीशु एक ऐसे मनुष्य की तरह रहा जिसे दूसरे मनुष्यों की सहभागिता की ज़रूरत थी। गतसमनी के बाग़ में उसने पतरस, याकूब और यूहन्ना से कहा था, "मेरा मन बहुत उदास है, यहाँ तक कि मैं मरने पर हूँ। यहीं ठहरो और मेरे साथ जागते रहो" (मत्ती 26:38)। वह, जो परमेश्वर का पुत्र था, उसे अपने दोषपूर्ण शिष्यों की प्रार्थना-में-सहभागिता की ज़रूरत थी।

फिर भी हममें से बहुत लोग अपने आप में कितने आत्म-निर्भर हैं! हम देह के निर्बल अंगों को यह सोचते हुए अनदेखा कर देते हैं कि हमें उनकी ज़रूरत नहीं है। ऐसे मनोभाव द्वारा हम सिर्फ अपनी आत्मिक कंगाली और अंधेपन को ही प्रकट करते हैं। इसलिए, यह याद रखें कि बाइबल यह कहती है, "(देह के) कुछ ऐसे भाग जो सबसे ज़्यादा कमज़ोर और महत्वहीन लगते हैं, वही असल में सबसे ज़रूरी होते हैं" (1 कुरि. 12:22 - टी.एल.बी.)।

हमारी शारीरिक देह के भीतरी अंग, जैसे हृदय और जिगर, किसी को कभी नज़र नहीं आते, फिर भी वे जीवनदायक काम करते हैं। वैसे ही मसीह की देह में भी है। कुछ ऐसे लोग जिनकी कोई सार्वजनिक सेवा नहीं है और जो अनजान हैं, वास्तव में सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। बाइबल कहती है कि शीर्ष (मसीह) भी कभी पैर से (जो देह का छोटा और निचला हिस्सा है) यह नहीं कहता, 'मुझे तेरी ज़रूरत नहीं है' (1 कुरि. 12:21)। तब हमारे लिए तो यह और भी ज़्यादा मुश्किल होगा कि हम अपने सबसे कमज़ोर और सबसे कम दान-वरदान वाले साथी-विश्वासी के बिना काम चला सकें। उनके पास भी ऐसा कुछ है जिसके द्वारा हमारे लिए मसीह की कुछ सेवकाई होनी है। इसलिए हमें उनकी सुननी चाहिए। अगर हम उन्हें अनदेखा करेंगे या तुच्छ जानेंगे, तो हम उसी अनुपात में अपने आपको मसीह की भरपूरी से वंचित कर लेंगे।

सहभागिता हमेशा दोनों तरफ से होने वाले काम है। इसमें देना भी है और लेना भी है। हममें से जिनके पास वचन की सेवकाई की योग्यता है, वे अक्सर ऐसा महसूस करते हैं कि क्योंकि हमारे पास सभी को देने के लिए कुछ होता है, इसलिए सभी को हमेशा हमारी बात सुननी चाहिए। एक आम बातचीत में भी, हममें से बहुत ऐसे हैं जो अपना दबदबा इस तरह बनाए रखते हैं कि हमारे भाई को मुश्किल से ही एक शब्द बोलने का मौक़ा मिलता है। जब उसे कुछ बोलने का मौक़ा मिलता है, तो हम उसकी बात पूरी होने का बेचैनी से इंतज़ार करते हैं कि फिर हम उसके सामने प्रचार करन शुरू कर सकें। हम अपनी ख़ुदी में कितने महत्वपूर्ण होते हैं।

बाइबल कहती है, "प्रत्येक व्यक्ति (प्रचारकों सहित) सुनने के लिए तत्पर लेकिन बोलने में धीरजवंत हो" (याकूब 1:19)। हमें दूसरों की बात को सुनने की कला में ख़ुद को शिक्षित करने की ज़रूरत है। वर्ना ऐसा क्यों हुआ कि परमेश्वर ने हमें दो कान दिए, लेकिन मुँह सिर्फ एक ही दिया! और जैसा किसी ने कहा है, "परमेश्वर ने हमें कान दिए हैं जो हमेशा खुले रहते हैं, लेकिन एक मुँह दिया है जो बंद हो जाता है!" इसलिए हमारी प्रार्थना ऐसी होनी चाहिएः

"प्रभु, मेरे मुख अच्छी बातों से भर देना,

और अगर मैं ज़्यादा बोलने लगूँ,

तो मुझे हल्का सा टहोका मार देना।"

हमें एक-दूसरे की बात सुनने की ज़रूरत है। हमें एक-दूसरे की मदद की ज़रूरत है। मसीह की देह का कोई अंग आत्म-निर्भर नहीं होता।

घमण्ड के लिए कोई जगह नहीं है

जब हम मसीह की देह देख लेते हैं, तो हम सभी विश्वासियों के बराबर होने की बात समझ लेते हैं - चाहे उनकी नस्ल, पढ़ाई-लिखाई, बुद्धिमानी का स्तर या सामाजिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो। सभी बराबर हैं और सभी की समान रूप में ज़रूरत है। कोई एक किसी दूसरे से ज़्यादा ज़रूरी नहीं है, और क्योंकि सबके पास देने के लिए कुछ है, इसलिए किसी को तुच्छ महसूस करने की कोई ज़रूरत नहीं है, और कोई श्रेष्ठ महसूस नहीं कर सकता; और घमण्ड, तुलना और ईर्ष्या के लिए तो जगह ही नहीं है।

घमण्ड के उस प्रतिलोमी रूप के लिए (जो नम्रता का वेश धारण कर लेता है) भी कोई जगह नहीं होगी जो कुछ ऐसे मसीहियों में होता है जो इस बात में अपनी महिमा करते रहते हैं कि इतने आत्मिक (?) और योग्य होते हुए भी वे ऐसे भाइयों के अधीन होकर काम करने के लिए तैयार हैं जो उनसे कम आत्मिक और कम योग्य हैं। मसीह के देह को देख पाने में ऐसे लोग कितने अंधे हैं!

जब हम मसीह की देह का आत्मिक प्रकाशन पा लेते हैं, तब हमारी कितनी समस्याएं हल हो जाती हैं!

विविधता में एकता:

मसीह की देह में परमेश्वर द्वारा तय की गई विविधता है।

परमेश्वर हमारे विभिन्न मन-मिज़ाजों और दान-वरदानों को इस्तेमाल करता है कि जगत के सामने मसीह की देह का एक संतुलित चित्र प्रस्तुत किया जा सके। अपने आप में, हममें से हरेक अपना सर्वश्रेष्ठ करने पर भी मसीह को एक विकृत और असंतुलित रूप में ही चित्रित कर सकता है। किसी एक व्यक्ति की सेवकाई, अपने आप में, सिर्फ असंतुलित मसीही ही पैदा कर सकती है। हमें इस बात के लिए कितना धन्यवाद देना चाहिए कि मसीह की देह में अलग बातों पर ज़ोर देने वाले और अलग मन-मिज़ाज वाले दूसरे लोग भी हैं। जैसे, अगर दो भाई विश्वासियों के एक ही समूह के बीच में वचन की सेवकाई कर रहे हैं, तो एक भाई का ज़ोर इस बात पर होगा, "इस बात पर बहुत यक़ीन न कर लें कि आप पवित्र-आत्मा से भरे हुए हैं, क्योंकि हो सकता है कि आप अपने आपको धोखा दे रहे हों," और दूसरा भाई इस बात पर ज़ोर दे रहा हो, "यह सुनिश्चित करें कि आप पवित्र-आत्मा से भरे हुए हैं," जो सतही तौर पर एक-दूसरे का विरोध करते हुए प्रतीत हो रहे हों। लेकिन दोनों बातों पर ज़ोर दिए जाने की ज़रूरत है - इसलिए दोनों की सेवकाई परस्पर पूरक हो सकती हैं।

मसीह की देह में, हम कैल्विन के अनुयायों और आर्मीनिया के अनुयायियों को साथ मिलकर काम करता हुआ पा सकते हैं जिसमें वे दोनों ही अपने-अपने विशिष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत कर सकते हैं - क्योंकि ये दोनों दृष्टिकोण बाइबल में मौजूद हैं। जैसा कि चार्ल्स सिमियन ने एक बार इस बारे में कहा था, "सत्य न तो एक अंतिम छोर पर है और न दूसरे अंतिम छोर पर है। और बीच में तो वह हर्गिज़ नहीं है। एक ही समय जब दोनों अंतिम छोर एक साथ मिल जाते हैं, वही सत्य है।" इसलिए हमें ऐसे लोग चाहिए जो दोनों अंतिम छोर प्रस्तुत करते हों।

और फिर, (देह में) अगर ऐसे व्यक्तियों के लिए जगह है जिनके व्यक्तित्व "मुखर" हैं, तो ऐसे व्यक्तियों के लिए भी जगह है जो संकोची हैं। भिन्न मन-मिज़ाज एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। कुछ लोग अति-सतर्क हो सकते हैं - जो बहुत चिंतन-मनन किए बिना, सारे पक्ष और विपक्ष को जाँचे-परखे बिना, और एक लम्बे समय तक आगे बढ़ने या न बढ़ने पर सोच-विचार किए बिना एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ते। दूसरे ज़्यादा निश्चिंत होते हैं और परिणामों के बारे में ज़्यादा गहराई तक विचार किए बिना उत्साहपूर्वक आवेग के साथ आगे बढ़ते रहते हैं। मसीह की देह में क्योंकि ये दोनों (और अन्य) प्रकार के व्यक्तित्व पाए जाते हैं, इसलिए उसमें एक संतुलन है। अगर मसीह की देह में सिर्फ झिझकने वाले और गहरे सोच-विचार वाले लोग ही होते, तो प्रगति शायद बहुत धीमी होती। एक विपरीत रूप में, अगर मसीह की देह में सिर्फ उतावली करने वाले जल्दबाज़ लोग होते, तो शायद बहुत से काम अधूरे रह जाते।

हरेक मन-मिज़ाज की अपनी ताक़त और कमज़ोरियाँ होती हैं। अलग-अलग मन-मिज़ाज वाले अलग-अलग लोग, जब मसीहियों के रूप में एक साथ मिलकर काम करते हैं, तो वे जगत के सामने मसीह का एक ज़्यादा सही चित्र प्रस्तुत कर सकते हैं। इसलिए मसीह की देह में हमें सबको हमारे जैसा बनाने में अपना समय नष्ट नहीं करना चाहिए। हमें सबको यह अनुमति देनी चाहिए कि वे जो हैं वही बन कर रहें। हमें जिस बात पर ध्यान देना है, वह यह है कि हमारी शक्तियों से दूसरे की निर्बलताओं को कैसे सहारा दिया जा सकता है। और यह भी हो सकता है कि उसकी शक्तियों से हमारी निर्बलताओं को सहारा मिले।

एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करने से पतरस और यूहन्ना (जिनके मन-मिज़ाज एक-दूसरे से बहुत अलग थे) परमेश्वर की जितनी महिमा कर सके, उतनी वे एक-दूसरे से अलग होकर कभी नहीं कर पाते। पौलुस और तीमुथियुस - जिनके मन-मिज़ाज एक-दूसरे से बहुत भिन्न थे - सुसमाचार के लिए मिलकर काम कर सके और एक शक्तिशाली जोड़ी बना सके।

कलीसिया में प्रतिभावान् बुद्धिजीवी हैं और सामान्य बुद्धि वाले लोग भी हैं। यह स्वाभाविक है कि उनके द्वारा परमेश्वर के सत्य को प्रस्तुत करने में फ़र्क होगा। लेकिन दोनों श्रेणी के लोग न तो दूसरे को तुच्छ जान सकते हैं और न ही उनकी आलोचना कर सकते हैं, क्योंकि मसीह की देह में दोनों की ज़रूरत है कि वे एक ऐसे जगत के सामने सुसमाचार प्रस्तुत करें जिसमें बुद्धिजीवी और सामान्य लोग, दार्शनिक और घरेलू स्त्रियाँ, छात्र और किसान आदि, सभी शामिल हैं। परमेश्वर को उसके काम के लिए जहाँ पौलुस जैसे विद्वान और बुद्धिजीवी की ज़रूरत थी, वहीं उसे पतरस जैसे अनपढ़ मछुआरे की भी ज़रूरत थी। एक ही सुसमाचार का प्रचार करने की उनकी अपनी-अपनी अलग शैली थी, लेकिन हरेक की अपनी एक विशिष्ट भूमिका थी, और दोनों में से एक भी वह काम उस दक्षता के साथ नहीं कर सकता था जो परमेश्वर ने दूसरे में से किया था।

मन-फिराव से एक व्यक्ति की बौद्धिक क्षमताएं नहीं बदल जातीं। और ही वह उसके सामाजिक स्तर को बदल देता है। सुसमाचार पृथ्वी पर मसीही समाज की जातीय विषमताओं को नहीं मिटा देता हालांकि मसीह में सामाजिक भेदभावों की कोई प्रासंगिकता नहीं रह जाती। परमेश्वर को फिलेमोन जैसे एक धनवान व्यक्ति की ज़रूरत होती है और उसे उनेसिमुस जैसे एक व्यक्ति की भी ज़रूरत होती है जो फिलेमोन के घर में सेवक था। उनके सामाजिक स्तर और मानदण्ड नहीं बदले थे लेकिन मसीह की देह में उनका अपना-अपना विशिष्ट योगदान था जो एक की जगह दूसरा कभी नहीं कर सकता था। इस तरह वे सुसमाचार के लिए साथ मिलकर काम सके।

परमेश्वर की यह इच्छा कभी नहीं थी कि मसीह की देह ऐसे लोगों से भरी हुई हो जो हर बात में पूरी तरह एक समान हों - जैसे एक कारख़ाने में से एक जैसी कारें बन कर निकलती हैं। नहीं। मसीह की देह की सेवकाई उसके सदस्यों की विविधता पर ही निर्भर होती है। अगर सभी एक समान होते, तो उसमे सड़ाव और आत्मिक मृत्यु होती।

हमारे एक-दूसरे के प्रति मतभेदों को भी परमेश्वर हमारी सहभागिता को गहरा करने और हमें आत्मिक उन्नति की ओर ले जाने के लिए इस्तेमाल कर सकता है। नीतिवचन 27:17 में लिखा है, "लोहा लोहे को तेज़ करता है, वैसे ही मनुष्य, मनुष्य को सुधारता है।" दो "लौह -पुरुष" एक-दूसरे से टकराने की बजाय एक-दूसरे को धारदार बना सकते हैं।

परमेश्वर कभी-कभी दो अलग मन-मिज़ाज वाले व्यक्तियों को अपने काम के लिए जोड़ सकता है, और जब वे साथ मिलकर काम करते हैं, तो उनमें से चिंगारियाँ उड़ती हैं, लेकिन यह परमेश्वर का उन्हें "धारदार" बनाने का तरीक़ा हो सकता है। अगर एक व्यक्ति लोहे जैसा है और एक मिट्टी जैसा है, तो उनमें से कोई चिंगारियाँ नहीं उड़ेंगी और कोई धार भी नहीं लगेगी। इसकी बजाय मिट्टी पर लोहे की छाप लग जाएगी - एक मज़बूत इच्छा-शक्ति वाला व्यक्ति कमज़ोर इच्छा-शक्ति वाले पर अपनी इच्छा थोप देगा। लेकिन परमेश्वर की यह इच्छा नहीं होती कि एक व्यक्ति दूसरे पर अपनी मर्ज़ी थोपे, बल्कि यह कि दोनों एक-दूसरे से सीखें। हम असहमत हो सकते हैं, फिर भी हम एकता में बने रह सकते हैं, और एक-दूसरे से प्रेम कर सकते हैं। असल में, ऐसे हालातों में हम एक-दूसरे से ज़्यादा गहरा प्रेम कर सकते हैं।

मेरा मानना है कि परमेश्वर (गौण मामलों में) कलीसिया के विभिन्न सदस्यों के बीच विचारों में मतभेद की अनुमति देता है कि फिर उन्हें मसीही प्रेम को इस्तेमाल करने का ज़्यादा मौक़ा मिले। अगर हम हरेक मामले में एक-दूसरे के साथ सहमत होते तो एक-दूसरे से प्रेम करना आसान होता है। लेकिन जब हम असहमत होते हैं, तब हमारा प्रेम परखा जाता है। इसलिए हमें ऐसे मतभेदों के लिए परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए जो हमें विभाजित या अलग नहीं करते।

एक मसीही सहभागिता जो ऐसी बड़ाई करती है कि उनके बीच विचारों का कोई मतभेद नहीं है, तो वह 'शंकास्पद' है। ऐसी सहभागिता के सदस्य या तो अपने बारे में कुछ सोच-समझ नहीं रहे हैं, या वे किसी दृढ़ इच्छा-शक्ति वाले व्यक्ति के दबदबे में हैं।

सच्ची मसीही सहभागिता एक स्वस्थ और प्रेमपूर्ण असहमति की अहरन पर ठोकी-पीटी और धारदार बनाई जाती है।

अध्याय 4
एक-दूसरे की मदद करना

"प्रेम से सच्चाई से चलते हुए सब बातों में उसमें जो सिर है अर्थात् मसीह में बढ़ते जाएं जिससे सम्पूर्ण देह, प्रत्येक जोड़ में एक-साथ बंधकर और सुगठित होकर प्रत्येक अंग के ठीक-ठीक काम करने द्वारा बढ़ती जाती है, और इस तरह प्रेम में स्वयं उसकी उन्नति होती है" (इफि. 4:15,16)।

ये पद और नए नियम के अन्य पद यह स्पष्ट कर देते हैं कि हरेक विश्वासी की यह जि़म्मेदारी है कि वह अपने ही ख़ास तरीक़े से मसीह की देह की सेवकाई मसीह के जीवन से कर सके। यह सिर्फ प्रचारकों का ही विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि मसीह की देह के हरेक अंग की जि़म्मेदारी है।

हमने पहले ही सूली उठाने और ख़ुदी के लिए मरने के महत्व को देखा है। मसीह की देह में एक-दूसरे के साथ हमारे रिश्तों का यह बुनियादी नियम है। और यही वह प्राथमिक माध्यम है जिसके द्वारा मसीह की देह में उसका हरेक अंग में जीवन पहुँचाता है। "इस प्रकार मृत्यु तो हममें पर जीवन तुममें काम करता है" (2 कुरिन्थियों 4:12)। हम अपने जीवन में जितनी सूली उठाएंगे, तो प्रचार करने का वरदान न होने पर भी, हम मसीह की देह में जीवन की उतनी ही सेवकाई करने वाले (जीवन पहुँचाने वाले) होंगे।

सहभागिता, जैसा कि हमने पहले ही देखा है, दोनों तरफ आने-जाने वाले रास्ते की तरह है। इसमें देना और लेना दोनों शामिल हैं। हममें से हरेक को देह में दूसरों को देना है और दूसरों से लेना है। पिछले अध्याय में हमने देखा कि कैसे कुछ लोग हीन भावना की वजह से, ऐसा महसूस कर सकते हैं कि वे कुछ दे नहीं सकते, और कैसे दूसरे लोग, अपने आपको श्रेष्ठ मानते हुए, ऐसा महसूस कर सकते हैं कि वे कुछ ले नहीं सकते। जब सभी अंग उस तरह से काम करते हैं जैसा उन्हें करना चाहिए, तो वे प्रेम में लेन-देन करेंगे जिससे देह की उन्नति होगी।

बाइबल हमें उस दोहरी जि़म्मेदारी के बारे में बताती है जो देने और लेने के क्षेत्र में हममें से हरेक की है। हमसे यह कहा गया है कि हमें एक-दूसरे को उत्साहित करना है और एक-दूसरे को सुधारना है।

बाइबल की इन आज्ञाओं पर विचार करेंः

"तुम दिन-प्रतिदिन एक दूसरे को सचेत करते रहो (डाँटते रहो, आग्रह करते रहो, उत्साहित करते रहो) ...कहीं ऐसा न हो कि तुम में से कोई पाप के छल में पड़कर कठोर हो जाए" (इब्रा. 3:13)।

"एक-दूसरे के साथ (विश्वासियों के रूप में) इकट्ठा होना न छोड़ो जैसा कि कितनों की रीति है, वरन् उस दिन को निकट आते देखकर और भी ज़्यादा एक-दूसरे को डाँटते रहो - सचेत करते रहो, आग्रह करते रहो, उत्साहित करते रहो" (इब्रा. 3:13; 10:25, ऐम्प्लिफाइड बाइबल)।

ये आज्ञाएं विश्वासियों के एक बड़े बहुमत द्वारा पूरी तरह अनदेखी की जाती हैं, लेकिन फिर भी यही वे आज्ञाएं हैं जो मसीह की देह में हमारी प्रमुख जि़म्मेदारियों को उजागर करती हैं।

ऊपर दिए गए पदों में जिस शब्द का अनुवाद "डाँटना/उत्साहित करना" किया गया है, वह यूनानी शब्द पैराकालियो है। इस क्रिया की संज्ञा पैराक्लेटॉस है (जिसका अनुवाद है "सहायक - तसल्ली देने वाला") जो वही शब्द है जिसे यीशु ने यूहन्ना के अध्याय 14 और 16 में पवित्र-आत्मा के लिए इस्तेमाल किया है।

इससे यह संकेत मिलता है कि उत्साहित करना और डाँटना पवित्र-आत्मा की दो मुख्य सेवकाइयाँ हैं। और मसीह की देह के अंग होते हुए अगर पवित्र-आत्मा हममें वास करता है, तो हमारे अन्दर से वह एक-दूसरे को उत्साहित करने और ताड़ना देने की परस्पर सेवकाई द्वारा स्वयं को अभिव्यक्त करेगा। इसलिए अगर हम इस सेवकाई में शामिल नहीं होंगे तो हम पवित्र-आत्मा को बुझाएंगे। इसलिए परमेश्वर का वचन हमें यह प्रबोधन देता हैः

"हे भाइयो, हम तुमसे आग्रह करते हैं, जो भटक रहे हैं उन्हें डाँटो (चेतावनी दो और गंभीरता से परामर्श दो) ...कमज़ोर और डरपोक लोगों को उत्साहित करो... आत्मा को न बुझाओ" (1 थिस्स. 5:14,19 - ऐम्प्लिफाइड बाइबल)।

इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपना पूरा समय दूसरों को उत्साहित करने और ताड़ना देने में ही ख़र्च करें। नहीं। किसी भी सेवकाई के लिए एक समय और जगह होती है। लेकिन, इन क्षेत्रों में हमें अपनी जि़म्मेदारी का अहसास होना चाहिए।

अंतिम भोज के समय यीशु शायद इसी सेवकाई के बारे में बात कर रहा था जब उसने अपने शिष्यों से यह कहा, "तुम्हें भी एक-दूसरे के पैर धोने चाहिए" (यूहन्ना 13:14)। धूल भरी सड़कों पर सिर्फ खुली जूतियाँ पहन कर चलने के बाद, पाँव धोए जाने के बाद वे तरोताज़ा और साफ-सुथरे महसूस कर सकते थे।

इसी तरह उत्साहित किए जाने द्वारा एक निर्बल और निराश भाई तरोताज़ा महसूस करेगा और डाँट से एक भटक रहा भाई शुद्ध हो सकता है। हमें दूसरों के पाँव धोने और अपने पाँव धुलवाने के लिए तैयार रहना चाहिए।

दूसरों को उत्साहित करना:

ऐसा लिखा है (प्रेरितों. 14:22), कि पौलुस और बरनबास उनके द्वारा स्थापित की गई कलीसियाओं में शिष्यों के जीवों को "उत्साहित करते हुए" उन्हें दृढ़ करते रहते थे।

हम भी उत्साहित करने की सेवकाई द्वारा दूसरों को दृढ़ कर सकते हैं - न सिर्फ वचन की सेवकाई करने द्वारा, बल्कि जहाँ ज़रूरी हो वहाँ सराहना करने द्वारा भी उत्साहित करना है।

जहाँ ज़रूरी होता था, वहाँ यीशु तुरन्त उत्साहित करने वाला शब्द बोलता था। उसने एक सूबेदार के विश्वास के लिए उसकी प्रशंसा की (मत्ती 8:10), एक मन-फिराने वाले स्त्री के प्रेम के लिए (लूका 7:47), और बैतनिय्याह की मरियम की भक्ति के लिए (लूका 10:42; मरकुस 4:8,9)।

अपने निष्फल हो रहे शिष्यों को उसने कहा, "तुम वे हो जो मेरी परीक्षाओं में मेरे साथ रहे हो" (लूका 22:28)।

पौलुस ने कलीसियाओं को लिखते समय - सबसे सांसारिक कलीसियाओं को भी - उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए हमेशा उनमें कुछ पाया था। कुरिन्थियों की कलीसिया, जिसमें बहुत से गुट, वाद-विवाद और अनैतिकता थी, पौलुस ने अपनी पत्री का आरम्भ इस तरह कियाः

"अब जबकि तुम मसीह के हो, मैं निरंतर परमेश्वर का उन अनोखे दान-वरदानों के लिए धन्यवाद देता रहता हूँ जो उसने तुम्हें दिए हैं। उसने तुम्हारे पूरे जीवन को समृद्ध किया है। उसने तुम्हें उसका प्रवक्ता होने में मदद की है और उसके सत्य की पूरी समझ दी है; मैंने जो कहा था कि मसीह तुम्हारे लिए कर सकता है, वह हो गया है! अब तुम समस्त वचन और सम्पूर्ण ज्ञान में धनवान हो गए हो। हमारे प्रभु यीशु मसीह के लौटने की उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा करते हुए, अब उसकी इच्छा पूरी करने के लिए तुम्हारे पास अब हरेक आत्मिक वरदान और सामर्थ्य है। और प्रभु तुम्हें पूरा यक़ीन दिलाता है कि उसके आने के दिन तक तुम सारे पाप के दोष से पूरी तरह मुक्त रहोगे। परमेश्वर यक़ीनन तुम्हारे लिए यह करेगा, क्योंकि वह हमेशा वही करता है जो वह कहता है, और यह वही है जिसने तुम्हें उसके पुत्र हमारे प्रभु यीशु मसीह की अद्भुत संगति में बुलाया है" (1 कुरि. 1:4-9 - टी.एल.बी.)।

इसके बाद ही फिर उसने यह कहा, "अब हे भाइयो, मैं प्रभु यीशु मसीह के नाम में तुमसे यह आग्रह करता हूँ कि तुम आपस में वाद-विवाद करना बंद कर दो" (पद 10)।

पौलुस ने एक सकारात्मक बात से शुरू करने की कोशिश की थी। हमें भी ऐसा ही करना चाहिए।

हम सब के लिए यह एक स्वाभाविक बात नहीं है। हममें से ज़्यादातर पहले दूसरों की नकारात्मक बातों को देखते हैं। लेकिन अगर हम पवित्र-आत्मा को हमें अनुशासित करने देंगे, तो हम यह पाएंगे कि वह हमें हरेक व्यक्ति में ऐसा कुछ दिखा रहा है जिसमें हम उसकी प्रशंसा कर सकते हैं।

एक शिक्षिका ने अपनी कक्षा के सामने एक बड़ा सफेद कागज़ रखा जिसके एक कोने में स्याही का एक छोटा सा काला धब्बा था। फिर उसने छात्रों से वह लिखने के लिए कहा जो उन्हें नज़र आ रहा था। सबने उस काले धब्बे के बारे में तो लिखा लेकिन किसी ने भी कागज़ के बड़े और साफ हिस्से का कोई उल्लेख नहीं किया। ऐसा ही मानवीय सम्बंधों में भी होता है। हम अक्सर लोगों की मामूली कमियों को देखते हैं, लेकिन उनकी अच्छाइयों को अनदेखा करते रहते हैं।

अगर हम एक मज़बूत इरादा बना लें तो हम अपने नज़रिए बदल सकते हैं, लेकिन ऐसे प्रयास का हमें एक अच्छा फल मिलेगा। लोगों के अच्छे गुणों पर ध्यान देने की आदत को धीरे-धीरे विकसित किया जा सकता है। फिर अगला क़दम उन्हें यह बताना होता है कि आप उनकी अच्छाइयों की कितनी सराहना करते हैं।

ईमानदारी:

हम अपनी मानवीयता और अपने संघर्षों के बारे में ईमानदारी से अपने साथी-विश्वासियों के सामने मान लेने द्वारा उन्हें उत्साहित कर सकते हैं।

हमें मसीह का साक्षी होने के लिए बुलाया गया है। लेकिन हमारी साक्षी में जब हम दूसरों के सामने अपनी ग़लत छवि प्रस्तुत करते हैं, तो हम झूठे साक्षी बन जाते हैं। विश्वासियों का एक बड़ा बहुमत इसी श्रेणी में आता है। वे अपनी जीत के बड़े गौरवशाली लेखे देते हैं, लेकिन अपने संघर्षों और निष्फलताओं के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलते। वे ऐसी प्रार्थनाओं की तो साक्षी देते हैं जिनका परमेश्वर ने जवाब दिया, लेकिन वे ऐसी प्रार्थनाओं के बारे में कुछ नहीं बोलते जिनका उसने इनकार में जवाब दिया था। वे अपनी पहाड़ी-अनुभवों का तो विस्तार से बयान करते हैं, लेकिन बीच में आई लम्बी घाटियों के बारे में एक बात भी नहीं बताते। ये झूठे साक्षी हैं, क्योंकि ये मसीही जीवन का एक झूठा चित्र प्रस्तुत करते हैं।

मुझे याद है कि मैं जब एक युवा मसीही के रूप में परमेश्वर को ग्रहणयोग्य जीवन जीने के लिए संघर्ष कर रहा था, तो मैंने दूसरे मसीहियों की ऐसी अनेक साक्षियाँ सुनी थीं। उनमें से एक ने भी, न तो पुलपिट पर से और ही न व्यक्तिगत बातचीत में, मुझे यह नहीं बताया कि उनके अन्दर भी अनजाने डर, अनसुलझी मुश्किलें और जवाब-रहित प्रार्थनाएं थीं, या बाइबल की कुछ बातें उन्हें भी उलझन में डाल देती थीं। इसलिए मैंने यह मान लिया था कि ऐसी मुश्किलें और सवाल सिर्फ मेरे अपने ही थे। इसका परिणाम यह हुआ कि उनकी साक्षियों ने और ज़्यादा निराश किया था। और वह निराशा मुझे प्रभु से ज़्यादा दूर ले गई थी।

फिर मैंने बाइबल में यह पढ़ा कि कैसे महान् प्रेरित पौलुस भी अक्सर उलझ जाता था, कैसे वह भी निराश हो जाता था, और कैसे उसकी भी कुछ प्रार्थनाओं का कोई जवाब नहीं दिया गया था, कैसे कुछ बीमार लोगों के लिए उसके द्वारा की गई प्रार्थनाओं से वे चंगे नहीं हुए थे, और कैसे उसमें भी आशंकाएं थीं, और उसके तनाव से भरे समयों में उसके साथी-विश्वासियों ने उसे तसल्ली दी थी (2 कुरि. 4:8; 1:8; 12:8,9; 2 तीमु. 4:20; 2 कुरि. 7:5,6)। पौलुस की ईमानदारी ने मेरी आत्मा को उभारा था और मुझे आगे बढ़ने के लिए बहुत उत्साहित हुआ था।

पौलुस की ऐसी इच्छा कभी नहीं थी कि वह दूसरों के सामने अपनी ग़लत छवि बनाए (2 कुरि. 12:6)। इसलिए उसने साफ शब्दों में उनसे कह दिया कि वह कोई स्वर्गदूत नहीं बल्कि एक मनुष्य था। वह सचेत स्तर के सभी पापों पर एक जयवंत जीवन जीता था, लेकिन फिर भी वह एक मनुष्य मात्र ही था जो ग़लती कर सकता था, और जिसमें से अब तक शरीर की बातों को मिटाया नहीं गया था। पौलुस का लक्ष्य हमेशा दूसरों को प्रभावित करना नहीं बल्कि उनकी मदद करना होता था। अपनी मानवीयता के बारे में ईमानदार होने द्वारा, वह बहुत लोगों को उत्साहित करने वाला एक पात्र बन गया था।

हमारे अन्दर दूसरों को प्रभावित करने की अभिलाषा ही हममें से बहुत से लोगों को ईमानदारी के साथ हमारे संघर्षों और आशंकाओं के बारे में दूसरों को बताने से रोक देती है। यह दर्शाता है कि वास्तव में हमारी इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं है कि हम परमेश्वर के संग-संग चलने में उनकी मदद करें। यह दर्शाता है कि हमारी इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं है कि वे उन अवास्तविक मापदण्डों से निरुत्साहित हो गए हैं जो हमने उनके सामने रख दिए हैं। हम तब तक संतुष्ट नज़र आते हैं जब तक हमें एक आदर का पात्र माना जाता है।

अगर हमें ऐसे पात्र बनना है जिनके द्वारा पवित्र-आत्मा को दूसरों को उत्साहित करना है, तो उसकी एक क़ीमत चुकानी पड़ती है - ईमानदारी की क़ीमत।

सच्ची मसीही सहभागिता का आधार ज्योति होना चाहिए। हम एक-दूसरे के साथ सिर्फ तभी एक गहरी सहभागिता कर सकते हैं जब हम ज्योति में चलने के लिए तैयार होते हैं। इसमें हमें अपनी इच्छा से एक-दूसरे के साथ इस तरह रहना है जैसे हम अपने आप में असल में हैं - जिसमें किसी भी तरह का ढोंग और दिखावा नहीं होता। परमेश्वर चाहता है कि सभी मसीही एक-दूसरे के साथ इसी तरह रहें। यह याद रखें कि आरम्भिक कलीसिया में परमेश्वर ने जिस पाप का सबके सामने सबसे पहले न्याय किया था वह पाखण्ड ही था (देखें प्रेरितों. 5:1-14 में दर्ज हनन्याह और सफीरा की कहानी)।

पाप की वजह से हम सभी एक-दूसरे के साथ अपने रिश्ते में मुखौटा लगाए रखते हैं। हम असल में जैसे हैं, हम उस रूप में पहचाने जाने से डरते और लज्ज्ति होते हैं। हम ऐसे संसार में रहते हैं जो ऐसे लोगों से भरा हुआ है जो मुखौटा लगाए घूम रहे हैं। वे अपने मुखौटे लगाए रहते हैं, सभाओं में जाते हैं, दूसरे लोगों से मिलते हैं, और उसे सहभागिता कहते हैं। लेकिन ऐसी सहभागिता एक दिखावा है। फिर भी, शैतान ने ज़्यादातर मसीहियों को इसी में संतुष्ट कर रखा है।

यह भी सच है कि हममें से किसी के लिए भी यह सम्भव नहीं है कि हम अपना मुखौटा पूरी तरह से हटा दें। एक पापमय संसार में रहते हुए, एक त्रुटिपूर्ण कलीसिया में संगति करते हुए, और स्वयं शरीर में जकड़े हुए होने की वजह से, दूसरों के साथ पूरी तरह से ईमानदार होना न तो सम्भव है और न ही वांछित है। पूरी ईमानदारी व्यवहार्य नहीं है क्योंकि हम अपने आपको पूरी तरह नहीं देख पाते। और न ही ऐसा करने की सलाह दी जा सकती है क्योंकि इससे दूसरों के लिए रुकावट पैदा हो सकती है।

यक़ीनन, ईमानदार होने में हमें समझदारी की ज़रूरत है। लेकिन हम कभी वह होने का दिखावा न करें जो हम नहीं हैं। यह पाखण्ड है, और यीशु ने पाखण्ड को स्पष्ट रूप से दोषी ठहराया था।

एक स्व-धर्मी और फरीसी मनोभाव ही अनेक मसीहियों को दूसरों के लिए सहायता और प्रोत्साहन का माध्यम होने से रोकता है। हमारा मनोभाव ऐसा होना चाहिए कि हमारे साथी-विश्वासी और दूसरे लोग भी हमारे पास आने में ख़ुद को आज़ाद महसूस कर सकें और यह जानते हुए अपने "मन की बातें" बताकर अपने आपको हल्का कर सकें कि उनके साथ हमदर्दी और समझदारी से बात की जाएगी, और उनकी अज्ञानता या उनकी नाकामियों के लिए उन्हें तुच्छ नहीं जाना जाएगा।

यह संसार एकाकी, तनाव-भरे, डरे-हुए, और मानसिक दबाव वाले लोगों से भरा पड़ा है। मसीह के पास उनकी इन सारी मुश्किलों का हल है, लेकिन यह हल उनके पास उसकी देह में से, कलीसिया में से आना चाहिए।

द टेस्ट ऑफ न्यू वाइन में कीथ मिलर ने कहा, "हमारी आधुनिक कलीसिया ऐसे लोगों से भरी हुई है जो देखने में शुद्ध लगते हैं, सुनने में शुद्ध लगते हैं, और भीतरी तौर पर अपने आपसे, अपनी कमज़ोरियों से, अपनी नाकामियों से, और कलीसिया में उनके आसपास वास्तविकता की कमी से तंग आए हुए होते हैं। हमारे ग़ैर-मसीही मित्र या तो यह महसूस करते हैं, 'वे अच्छे और शान्त लोग कभी मेरी मुश्किलों को नहीं समझ सकेंगे'; या जो पैनी नज़र वाले विधर्मी हैं, जो हमें सामाजिक या व्यावसायिक रूप में जानते हैं, कि हम मसीही या तो मनुष्य की हालत से पूरी तरह अनजान हैं, या पहले दर्जे के पाखण्डी हैं।"

हमें यह सीखने की ज़रूरत है कि व्यक्तिगत स्तर पर दूसरों के साथ ईमानदारी से सहभागिता करना क्या होता है - और हम सभी इसकी शुरूआत एक व्यक्ति से कर सकते हैं।

लेकिन एक ईमानदार सहभागिता के परिमण्डल में ऐसे ख़तरे भी हैं जिनकी हमें जानकारी होनी चाहिए, कि फिर हम उनसे बचे रह सकें। नीचे दिए गए कुछ दिशा-निर्देश इसमें मदद कर सकते हैंः

सबसे पहले, ऐसी घनिष्ठ सहभागिता सिर्फ एक ही लिंग के व्यक्तियों तक सीमित रहने चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम अभी तक एक एक पतित संसार में रह रहे हैं और हमारा शरीर (जिसमें पाप करने की क्षमता है) अभी तक हम सब में मौजूद है। इसलिए, विवाह के सम्बंध के अलावा, किसी के लिए भी दूसरे लिंग के व्यक्ति के साथ एक गहरी सहभागिता करना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। जिन्होंने ऐसा करने की कोशिश की है, वे अवश्य ही एक-न-एक पाप में गिर गए हैं।

दूसरी बात, हमारी सहभागिता के लिए हमें परमेश्वर के वचन में ठहराए गए आत्मिक सिद्धान्तों का ही पालन करना चाहिए - और किसी भी तरह की मनोवैज्ञानिक कार्य-प्रणाली को नहीं अपनाना चाहिए। हमारी सहभागिता पवित्र-आत्मा के वश में रहनी चाहिए, और हमें उसे यह अनुमति देनी चाहिए कि वह एक सहज रूप में हमें एक-दूसरे के नज़दीक ले जाए। हमें किसी को भी ईमानदारी का दिखावा करने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए।

तीसरी बात, यह याद रखें कि सहभागिता का उद्देश्य एक-दूसरे के सामने अपने पापों का अंगीकार करना और उसके द्वारा एक ऐसी तसल्ली पाना नहीं है जो वचन के अनुसार नहीं है। बाइबल में हमें कहीं भी इस बात के लिए प्रोत्साहित नहीं किया गया है कि हम किसी के भी सामने या सबके सामने अपने पापों का अंगीकार करें। जिनके बीच में वह पाप हुआ है, उसका अंगीकार हमें उन्हीं लोगों के बीच में करना है। अगर हमने सिर्फ परमेश्वर के खिलाफ़ पाप किया है, तो उसका अंगीकार सिर्फ परमेश्वर के सामने करें। लेकिन अगर हमारा पाप किसी व्यक्ति या समूह के भी खिलाफ़ है, तो उसका अंगीकार उनके सामने भी किया जाना चाहिए। लेकिन हमें अपने पापों का अंगीकार सभी विश्वासियों के सामने नहीं करना है। पाप का ऐसा अंगीकार, जिसकी कोई ज़रूरत नहीं है, असल में दूसरों के लिए एक रुकावट बन सकता है - जो उनके मनों को दूषित कर सकता है और शायद उन्हें भी उसी तरह पाप करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। हमें मसीह की देह का निर्माण करना है। यह ध्यान रखें कि आप उसे ध्वस्त न करें। पवित्र शास्त्र हमें अपने पापों का एक-दूसरे के सामने अंगीकार करने के लिए नहीं बल्कि एक-दूसरे को उत्साहित करने और ताड़ना देने के लिए कहता है।

पवित्र शास्त्र में सिर्फ एक ही जगह जहाँ अपने पापों का एक-दूसरे के सामने मान लेने के लिए लिखा है (याकूब 5:16) वहाँ यह स्पष्ट है, जैसा कि उसका संदर्भ बताता है, कि वह शारीरिक चंगाई के बारे में है। कभी-कभी ऐसे पाप की वजह से होती है जिसका अंगीकार नहीं किया गया है। इसलिए याकूब ने प्राचीनों के सामने पाप के पूरे अंगीकार का आग्रह किया कि इस वजह से चंगाई मिलने में कोई बाधा न आ जाए। इस आज्ञा को इसके संदर्भ से बाहर ले जाकर एक ऐसे व्यापक स्तर पर लागू नहीं कर देना चाहिए जो उसके मूल उद्देश्य में शामिल नहीं था। याद रखें, कि "एक लेख जो उसके संदर्भ से बाहर चला जाता है, वह एक बहाना बन जाता है।"

एक मूर्खता भरी ईमानदारी मसीह की साक्षी को नुक़सान पहुँचा सकती है और उससे व्यर्थ की गपशप भी शुरू हो सकती है। मैंने ऐसे तीन कलीसियाई सेवकों की कहानी सुनी जिन्होंने यह फैसला किया कि वे एक-दूसरे के साथ पूरी ईमानदारी से सहभगिता करेंगे। एक ने अपनी धन की कमज़ोरी के बारे में बताते हुए कहा कि वह कलीसिया का पैसा चुरा रहा था। दूसरे ने यह अंगीकार किया कि वह लैंगिक रूप से कमज़ोर था और वह कलीसिया की एक स्त्री के साथ लैंगिक पाप कर रहा था। तीसरे ने कहा, "मेरी कमज़ोरी निन्दा करना है, और अब मेरे लिए अपने आपको रोक पाना मुश्किल हो रहा है क्योंकि यहाँ से जाते ही मुझे यह करना है!"

बाइबल कहती है, "अगर तुम यह नहीं चाहते कि तुम्हारी गुप्त बात सारे जगत को मालूम न हो जाए, तो वह एक निन्दा करने वाले को न बताना" (नीति. 20:19 - टी.एल.बी.)। कलीसिया में भी बेईमान लोग होते हैं। इसलिए यह ध्यान रखें कि आप अपनी नासमझी भरी "ईमानदारी" से अपने आपको और दूसरों को एक लज्जाजनक स्थिति में न पहुँचा दें। जब इस बात में शंका हो कि आपको एक दूसरे व्यक्ति के साथ सहभागिता में कितना ईमानदार होना है, तो ज़्यादा बोलने की ग़लती करने की बजाय कम बोलने की ग़लती करना ज़्यादा सही होगा।

जब हम परमेश्वर के वचन की शिक्षा को थामे रहते हैं, तो हम सुरक्षित रहते हैं।

और चौथी बात यह कि हमें अपने उद्देश्यों पर नज़र रखने की ज़रूरत है। ऐसी "ईमानदारी" जिसका उद्देश्य नम्र व दीन संत के रूप में हमारे नाम को आगे बढ़ाना है, वह घृणित है। मैंने विश्वासियों को कुछ इस तरह के "सम्मानित पापों" का अंगीकार करते सुना है (जैसे "मैं पर्याप्त प्रार्थना नहीं कर रहा हूँ", "मैं उतनी साक्षी नहीं दे पा रहा हूँ जितनी मुझे देनी चाहिए", "मुझे ज़्यादा संवेदनशील होने की ज़रूरत है", आदि) जो उसे एक पापी से ज़्यादा एक संत के रूप में प्रस्तुत करते हैं। निःसंदेह, उनका उद्देश्य भी यही होता है - उनकी "ईमानदारी" के लिए उनके साथी-विश्वासियों का समर्थन पाना। ऐसी "नम्र घमण्ड" से सचेत रहें!

पाँचवीं बात, हमें यह याद रखना चाहिए कि जो बातें गुप्त रखने के लिए दूसरों ने हमें बताई हैं, वे एक पुण्य भरोसा हैं जिनमें हमें कभी विश्वासघात नहीं करना चाहिए। ऐसी बातें जो लोगों ने हमें उनके बारे में और दूसरों के बारे में बताई हैं, उन्हें "प्रार्थना निवेदनों" के रूप में भी हमें कभी दूसरों के साथ नहीं बाँटना चाहिए। "यह बात तो मैं सिर्फ प्रार्थना के निवेदन के रूप में बाँट रहा/रही हूँ" - इस पुण्य छतरी के नीचे लाकर पीठ-पीछे कितनी बुराई की जा रही है, वह सुनना बहुत आघातजनक होता है।

छठी बात यह कि जब कोई अपने हृदय की बात हमारे साथ बाँटे, तो हमें अपनी विकृत और शारीरिक जिज्ञासा से बचने की ज़रूरत होती है। परमेश्वर के वचन में हमें दूसरों के मामलों में हस्तक्षेप करने के प्रति सचेत किया गया है (1 पतरस 4:1)। हमें दूसरों की बातों को कुरेदने की कोई ज़रूरत नहीं है। सहभागिता करने में हमारा लक्ष्य एक-दूसरे की कमियों और पापों को ढूँढ निकालना नहीं बल्कि एक-दूसरे की मदद करना है।

अंत में, जब हम अपनी बातें एक-दूसरे के साथ बाँटें और सहभागिता करें, तो हम परमेश्वर से कहें कि वह हमारे बीच में रहे। हमारी सहभागिता में सिर्फ उसकी उपस्थिति ही हमें बचाए रख सकती है। अगर मसीह, जो शीर्ष है, हमारे बीच में नहीं है, तो हमारी सहभागिता का पतन एक ऐसे शारीरिक काम के रूप में हो सकता है जो परमेश्वर के उद्देश्य को पूरा नहीं कर पाएगी।

हरेक सच्ची मसीही सहभागिता में प्रत्येक सदस्य दूसरे सदस्य को उत्साहित करता है। जहाँ यह व्यावहारिक रूप में किया जाता है, वहाँ सहभागिता के सम्बंध मधुर और सशक्त होते हैं।

दूसरों का डाँटना:

मसीह की देह में हमारे साथी-अंगों के प्रति हमारी विश्वासयोग्यता यह माँग करती है कि हम उन्हें जब भी भटकते हुए देखें, तो प्रेम में उन्हें डाँटें और सुधारें। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि सच्चा प्रेम लापरवाह हो जाए और एक भाई को एक ऊँची चोटी पर से नीचे गिरते हुआ देखता रहे।

बाइबल कहती है, "अपने भाई से बैर न रखना। जो पाप करे उसे अवश्य डाँटना। अगर तू उसे वह करने देगा, तो तू भी उसके अधर्म में दोषी ठहरेगा" (लैव्य. 19:17 - टी.एल.बी.)।

बाइबल हमसे यह नहीं कहती कि हम चारों तरफ घूमते हुए हरेक की कमियों पर अंगुलियाँ उठाते रहें। हम सिर्फ उन्हें ही डाँट/सुधार सकते हैं जिनके साथ हमने पहले ही एक सहभागिता का रिश्ता बना लिया है; वर्ना हमारी ताड़ना से ग़लतफहमी भी हो सकती है जिससे फिर फायदे से ज़्यादा नुक़सान होगा।

अगर हमने एक व्यक्ति के अच्छे गुणों के लिए पहले कभी उसकी प्रशंसा नहीं की है, तो हमें अवश्य ही उसे डाँटना से बचना चाहिए। हमारे द्वारा व्यक्त की गई सराहना ही वह पार्श्व होगा जिसके ऊपर हम उसके दोष उसे दिखा सकते हैं। हमने पहले ही यह देख चुके हैं कि कुरिन्थियों के मसीहियों को लिखते समय पौलुस ने कैसे इस उदाहरण का अनुसरण किया था।

इसी तरह, हमें ऐसे लोगों की ग़लतियों को सुधारने से भी बचना चाहिए जिनके बारे में हम जानते हैं कि वे नहीं मानेंगे। बाइबल कहती है, "अगर तू एक उपहास करने वाले को डाँटेगा, तो वह तुझे मक्कारी से भरा जवाब देगा; हाँ, तुझ पर गुर्राएगा। इसलिए उसे उसके हाल पर छोड़ दे क्योंकि उसकी मदद करने की तेरी कोशिश के लिए, वह तुझसे घृणा ही करेगा। लेकिन जब एक बुद्धिमान व्यक्ति को डाँटा जाएगा, तो वह तुझसे और ज़्यादा प्रेम करेगा" (नीति. 9:7,8 - टी.एल.बी.)।

और यह कहने की तो कोई ज़रूरत ही नहीं है कि अगर हम स्वयं दूसरों से ताड़ना और सुधार ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं हैं, तो हम उन्हें भी कभी सुधारने की कोशिश न करें।

फिर भी, ऐसे मौक़े होते हैं जब हमें अपने भाइयों को सुधारने की ज़रूरत होती है। यीशु ने कहा, "अगर तेरा भाई पाप करे तो उसे डाँट, और अगर वह मन फिराए तो उसे क्षमा कर दे" (लूका 17:3 - टी.एल.बी.)।

अपने भाई को डाँटना भी उसे क्षमा करने जितनी ही पुण्य जि़म्मेदारी है। हमने एक को भी अनदेखा नहीं करना है।

मत्ती 18:15-34 में, यीशु ने इन दोनों विषयों - सुधार और क्षमा पर, विस्तार से बात की है। सुधार के बारे में, वह कहता है, "अगर तेरा भाई पाप करे, ता जाकर उसे अकेले में समझा। अगर वह सुनता है और अंगीकार कर लेता है, तो तुझे तेरा भाई वापिस मिल गया है। लेकिन अगर वह न सुने तो अपने साथ दो-तीन लोगों को लेकर उसके पास वापिस जा जिससे कि दो या तीन गवाहों के मुँह से हरेक बात की पुष्टि हो जाए। अगा वह फिर भी न सुने, तो कलीसिया से कह, और अगर कलीसिया का फैसला तेरे पक्ष में है और वह उसे स्वीकार नहीं करता, तो कलीसिया को उसे अपने बीच में से निकाल देना चाहिए" (मत्ती 18:15-17 - टी.एल.बी.)।

"खुली डाँट गुप्त प्रेम से उत्तम है।" आप यह पाएंगे, कि "अंत में लोग चापलूसी से ज़्यादा सीधी-सच्ची बात की ज़्यादा प्रशंसा करेंगे", क्योंकि "चापलूसी घृणा का एक रूप है जो क्रूरता से घायल करती है" (नीति. 27:5; 28:23; 26:28 - टी.एल.बी.)।

लेकिन हमें इस बात में सचेत रहना होगा कि हम अपने साथी-विश्वासियों को कैसी आत्मा में होकर उन्हें सुधारने वाली बातें बोलते हैं। हमारी बुलाहट यह नहीं है कि हम "दूसरों के स्व-नियुक्त निरीक्षक" बन जाएं, कि हम परमेश्वर द्वारा और भी ज़्यादा कठोर दण्ड पाएं (याकूब 1:3 - ऐम्प्लिफाइड बाइबल)। हम यहाँ लोगों को यह बताने के लिए नहीं हैं कि उन्हें अपने घर कैसे चलाने हैं, या उनकी जीवन-शैली का कौन सा स्तर होना चाहिए। हमारी सांसारिक प्रवृत्तियों की वजह से, हममें से बहुत लोग "दूसरों के मामलों में टाँग अड़ाने वाले" बन जाते हैं। कुछ लोग ऐसे "स्व-नियुक्त" नबियों की वजह से प्रभु को छोड़ कर चले जाते हैं जो यह सोच लेते हैं कि उन्हें दूसरों को सुधारने के लिए बुलाया गया है!

हमारी बुलाहट मसीह की देह का निर्माण करने के लिए है। हम किसी व्यक्ति को सुधरने के लिए जो भी सुझाव देते हैं, वह इसी लक्ष्य को पूरा करने के लिए होना चाहिए। अगर नहीं, तो हमारे चुप रहने से ही बड़ी भलाई होगी।

हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारे तथ्य सही हों, जिसमें हमें दूसरों को, जहाँ तक हो सके, शक का लाभ देते रहना चाहिए। यह करने के बाद, फिर हमारी जि़म्मेदारी इस उपदेश का पालन करने में है, "अगर कोई मसीही पाप में पकड़ा जाए, तो तुम जो आत्मिक हो, कोमलता और नम्रतापूर्वक उसे सम्भाल कर यह याद रखते हुए उसे वापिस ले आओकि अगली बार शायद तुम उस पाप में गिर सकते हो। एक-दूसरों की तकलीफों और मुश्किलों का भार उठाओ, और इस तरह हमारे प्रभु की आज्ञाओं का पालन करो। अगर कोई यह सोचता है कि वह इतने ऊँचे पर है कि कभी इतना नीचे नहीं गिर सकता, तो वह अपने आपको धोखा देता है। वह कुछ भी नहीं है" (गलतियों 6:1-3 - टी.एल.बी.)।

यह आज्ञा सभी विश्वासियों के लिए नहीं है बल्कि उनके लिए है जो "ईश्वरीय" या "आत्मिक" है (पद 1)। आत्मिक मनुष्य वह है जो अपने भाई की आँख में पड़े तिनके को निकालने के लिए क़दम बढ़ाने से पहले अपनी आँख का लट्ठा निकाल चुका हो (मत्ती 7:1-5)। और वह मनुष्य भी आत्मिक है जो इतना नम्र व दीन है कि वह यह समझता है कि जिस पाप में उसका भाई गिर गया है, उसमें वह स्वयं भी गिर सकता है (गलतियों 6:1; 1 कुरि. 10:12)।

इसके अलावा, एक "तिनका निकालने वाला" आत्मिक होने के अलावा कोमल भी होना चाहिए। क्योंकि किसी की आँख में से तिनका निकालना एक कोमल काम है। अगर यह काम वह एक कठोर और निर्मम तरीक़े से करेगा, तो वह तिनके को आँख में और अन्दर तक पहुँचाते हुए फायदे से ज़्यादा नुक़सान करेगा!

और वह भी एक आत्मिक मनुष्य है जो एक व्यक्ति से विश्वासयोग्यता के साथ सिर्फ तभी बात करता है जब वह पहले प्रार्थना द्वारा अपनी एक सही मनोदशा तैयार कर लेता है, कि फिर जितनी चोट उसके भाई को उसकी डाँट से नहीं लगती उससे कहीं ज़्यादा उसे अपने भाई के पाप में गिर जाने से लगती है। "एक-दूसरे का भार उठाने" का यही अर्थ है (गलतियों 6:2)।

एक आत्मिक मनुष्य वह है जो पवित्र-आत्मा के वश में रहता है - क्योंकि "आत्मिक" शब्द का यही अर्थ होता है। इसमें यह संकेत है कि वह सिर्फ तभी किसी को सुधरने की सलाह देता है जब वह पवित्र-आत्मा के ऐसे आग्रह की भीतरी साक्षी प्राप्त कर लेता है। क्योंकि, जैसा बाइबल कहती है, "प्रत्येक बात के लिए एक समय नियुक्त किया गया है... चुप रहने का समय और बोलने का समय" (सभो. 3:1,7 - टी.एल.बी.)। अगर हमें देह के किसी अंग के पास एक ताड़ना का शब्द लेकर जाना है, तो हमें सिर के साथ एक नज़दीकी संपर्क में रहने की ज़रूरत होगी। सिर्फ उन लोगों को ही ऐसी सेवकाई करनी चाहिए जो सिर के साथ एक नज़दीकी रिश्ते में रहते हैं।

मसीह की देह के अंग होते हुए, यह हमारी एक पुण्य जि़म्मेदारी है कि हम एक-दूसरे को सुधारें। यीशु ने (मत्ती 7:5 में) कहा कि जब हम अपनी आँख में से लट्ठा निकाल लें, फिर हमारी यह जि़म्मेदारी हो जाती है कि हम जाकर अपने भाई की आँख में से तिनका निकालें। हमारी आँख साफ हो जाने के बाद, ऐसा न हो कि हम हाथ-पर-हाथ रख कर बैठे रहें और कुछ न करें। और ऐसा भी न हो कि हम अपने भाई के पास सिर्फ उसकी आँख का तिनका दिखाने के लिए ही जाएं। हमारी जि़म्मेदारी यह है कि हम उस तिनके को निकालने में उसकी मदद करें। इसमें हमें उसके साथ खडे़ रहना और उसे निकालने में उसके साथ सहयोग करना शामिल होता है।

उत्साहवर्धन ग्रहण करना:

जैसा कि हमने बार-बार देखा है, सहभागिता एक लेन-देन का दोहरा मामला है। मानवीय देह के हरेक अंग को मदद लेने की ज़रूरत होती है, और देह के दूसरे अंगों को मदद देने की ज़रूरत होती है। मसीह की देह में भी ऐसा होता है।

हम इतने नम्र व दीन ज़रूर हों कि हम यह मान सकें कि हमें भी दूसरों द्वारा उत्साहित किए जाने की ज़रूरत होती है। वह एक घमण्डी आत्मा है जो यह कहती है कि वह किसी से कोई प्रोत्साहन प्राप्त किए बिना अपना काम चला सकती है। अगर हम ईमानदार हैं, तो हमें यह मानना पड़ेगा कि हम तभी ज़्यादा अच्छी तरह काम कर सकते हैं जब हम प्रोत्साहन पाते हैं। हममें से हरेक को प्रोत्साहित किए जाने की ज़रूरत होती है।

जब प्रेरित पौलुस ने रोम के नए मसीहियों को लिखा, तब उसके मनोभाव पर विचार करें। "मैं तुमसे मिलने की बड़ी लालसा करता हूँ", उसने कहा, "कि मैं तुम्हें ऐसा विश्वास दे सकूँ जो तुम्हारी कलीसिया की प्रभु में मज़बूत होने में मदद कर सके। और, मुझे तुम्हारी मदद की भी ज़रूरत है, क्योंकि मैं तुम्हारे साथ सिर्फ अपना विश्वास ही बाँटना नहीं चाहता बल्कि तुम्हारे विश्वास से स्वयं भी प्रोत्साहित होना चाहता हूँ। हम एक-दूसरे को आशिष देंगे" (रोमियों 1:11,12 - टी.एल.बी.)।

इसमें हमें इस बात का एक स्पष्ट उदाहरण मिलता है कि मसीह की देह के अंगों को आपस में एक-दूसरे के साथ मिलकर कैसे काम करना चाहिए। उस महान् प्रेरित ने भी, अपने सारे अनुभव और परिपक्वता के बावजूद, रोम के नए विश्वासियों द्वारा सहायता और उत्साहवर्धन पाने की अपनी ज़रूरत को पहचाना था।

हमें भी एक-दूसरे की मदद और उत्साहवर्धन की ज़रूरत है।

ताड़ना ग्रहण करना:

हम इतने नम्र व दीन भी हों कि हम दूसरों की ताड़ना भी ग्रहण कर सकें। हम सभी में कमियाँ होती हैं। इससे भी ज़्यादा बुरी बात यह है, कि हम सभी के अन्दर "अंधेरे कुएं" होते हैं, जिनकी वजह से हमें अपनी कुछ कमियाँ ऐसी स्पष्ट नज़र नहीं आतीं जैसी वे दूसरों को नज़र आती हैं।

यहाँ, अगर हम देह के दूसरे अंगों से मदद लेने के लिए तैयार हों, तो वे हमारी मदद कर सकते हैं। लेकिन, अगर उन्हें हमारे अन्दर एक घमण्डी, सिखाई-न-जा-सकने वाली आत्मा नज़र आती है, तो वे हमारे पास आकर हमें कभी वह नहीं बताएंगे जो उन्हें नज़र आ रहा है, और इसमें सिर्फ हमारा ही नुक़सान होगा।

पौलुस ने जब पतरस को समझौता करते देखा, तो वह पतरस की ताड़ना करने में विश्वासयोग्य रहा था। और पतरस भी इतना नम्र था कि उसने पौलुस की ताड़ना को ग्रहण कर लिया था, क्योंकि उसने यह देख लिया था कि पौलुस सही था। इसका परिणाम यह हुआ कि दूसरे भी आशिषित हुए और मसीह की देह भी उन्नत हुई थी (गलातियों 2:11-16)। अगर पौलुस चुप रहा जाता, या अगर पतरस (वरिष्ठ प्रेरित होते हुए) गर्व से भर कर ताड़ना का वह शब्द ग्रहण करने से इनकार कर देता, तो कितना नुक़सान हो गया जाता!

जिनके पास हमारे लिए ताड़ना का शब्द है, क्या हम उनकी पहुँच में हैं और क्या वे हमारे पास आ सकते हैं? या क्या हम अपने मनोभाव द्वारा यह संकेत देते हैं कि हम कोई आलोचना नहीं चाहते? अगर मसीह की देह के दूसरे अंगों को हमें सलाह देने के लिए आने में मुश्किल होती है, तो इस बात की और भी ज़्यादा सम्भावना है कि स्वयं मसीह को, जो शीर्ष है, हम तक पहुँच पाने में मुश्किल हो रही होगी।

इस विषय-वस्तु पर,बाइबल यह कहती हैः

"बुद्धिमान की डाँट सुनना, मूर्ख की प्रशंसा सुनने से अच्छा है! ...जो शिक्षा पर ध्यान देता है, वह जीवन के पथ पर है... जो शिक्षा से प्रीति रखता है वह ज्ञान से प्रेम रखता है, ताड़ना से घृणा करना मूर्खता है... जो मनुष्य शिक्षा की उपेक्षा करता है, उस पर दरिद्रता और लज्जा आ पड़ते हैं, लेकिन जो ताड़ना का आदर करता है, वह सम्मानित होता है... जो रचनात्मक आलोचना से लाभ उठाता है, उसकी गिनती बुद्धिमानों में होती है। लेकिन आलोचना को अस्वीकार करना अपना और अपने सर्वोच्च हितों का ही नुक़सान करना है... जब बुद्धिमान की ताड़ना की जाती है, तो वह ज्ञान प्राप्त करता है... आलोचना ग्रहण करने से इनकार न करें; जहाँ से भी मिले, मदद पाते रहें... मित्र के हाथ से लगे घाव शत्रु के चुम्बन से अच्छे होते हैं" (सभो॰ 7:5; नीति. 10:17; 21:1; 13:18; 15:31,32; 21:11; 23:12; 25:12; 27:6 - टी.एल.बी.)।

जब हरेक अंग देने और लेने की अपनी जि़म्मेदारी पूरी करेगा, तो मसीह की देह उन्नत होगी।

अध्याय 5
अधीनता और अगुवाई

परमेश्वर के राज्य के नियम पृथ्वी के राज्यों के नियमों से बिलकुल उलटे होते हैं - वैसे ही भिन्न जैसे आकाश और पृथ्वी (यशा. 55:8,9)।

पृथ्वी पर, जो अगुवे दूसरों के ऊपर अधिकार रखते हैं, उन्हें श्रेष्ठ माना जाता है, और जिन्हें उनके अधीन रहना होता है, उन्हें तुच्छ माना जाता है। लेकिन मसीह की देह में इससे उलटा है। मसीह की देह के नियमों की हमारे लिए यह बुलाहट हैः

"एक-दूसरे के अधीन रहते हुए मसीह का आदर करो" (इफि. 5:21 - टी.एल.बी.)।

फ्नम्र व दीन आत्मा द्वारा एक-दूसरे की सेवा करो" (1 पतरस 5:5 - टी.एल.बी.)।

और "प्रेम द्वारा एक-दूसरे की सेवा करो" (गला. 5:6)।

हरेक अंग की यही बुलाहट है कि वह दूसरे के अधीन रहे। "यह कैसे हो सकता है?" कोई व्यक्ति यह सवाल कर सकता है, "क्या युवाओं को वृद्ध जनों के अधीन नहीं होना है?"

यह सवाल इसलिए खड़ा हो जाता है क्योंकि अक्सर अधीनता को एक ग़लत तरह से सिर्फ आज्ञापालन समझ लिया जाता है। लेकिन हम अपनी ख़ुदी से इनकार करने द्वारा भी लोगों के अधीन हो सकते हैं। यीशु इसी तरह रहा था। दूसरों के साथ अपने रिश्ते में वह लगातार अपने अधिकारों का इनकार करता रहा था। प्राथमिक रूप में अधीनता का यही अर्थ होता है। और देह के हरेक अंग को यही करने के लिए बुलाया गया है।

यीशु ने हमें अधीनता की महिमा दिखाई है, इसलिए हमें पूरे जीवन-भर इस मार्ग पर चलते हुए आनन्द मनाना है।

ईश्वरीय अधिकारी के अधीन होना

परमेश्वर सारी सृष्टि में सबसे बड़ा अधिकारी है। इसमें कोई शक नहीं है। लेकिन परमेश्वर अपना अधिकार दूसरों को भी देता है। सरकारी शासकों, माता-पिताओं, और कलीसियाई अगुवों का क्रमशः समाज में, घर में और कलीसिया में अधिकार होता है।

जैसा कि कुछ लोग समझते हैं, कलीसिया कोई लोकतंत्र नहीं है जहाँ हरेक सीधे तौर पर परमेश्वर के प्रति जवाबदेह है। नहीं। मसीह की देह में प्रभु द्वारा ऐसे अधिकारी नियुक्त किए गए हैं हमें जिनके अधीन रहना है और कलीसियाई मामलों में जिनका आज्ञापालन करना है। यह परमेश्वर की इच्छा है जिसके बारे में परमेश्वर के वचन में स्पष्ट सिखाया गया है।

जैसे परमेश्वर का वचन यह सिखाता है कि लोगों को शासकों के, पत्नियों को पति के, बच्चों को माता-पिता के, और दासों को स्वामियों के अधीन रहना है, वैसे ही वह कलीसिया में अगुवों के अधीन होने की आज्ञा देता है।

उदाहरण के तौर पर, बाइबल यह सिखाती है कि पुरुष को स्त्री के ऊपर अधिकार दिया गया है। हालांकि छुड़ाए हुए पुरुष व स्त्री मसीह की देह में बराबर हैं, फिर भी परमेश्वर यह आज्ञा देता है कि कलीसिया में स्त्री को पुरुष के अधीन रहना है (1 कुरि. 11:3; 14:33-35; 1 तीमु. 2:11-13)।

इसी तरह, परमेश्वर ने स्थानीय कलीसियाओं में अगुवाई करने के लिए उनमें अगुवे नियुक्त किए हैं। जिस कलीसिया में वास्तव में परमेश्वर द्वारा अगुवे नियुक्त किए गए हैं, वे प्रभु के प्रतिनिधि हैं और उनके पास उसके अधिकार का कुछ भाग होता है। प्रभु ने जब अपने शिष्यों को भेजा था, तो उसने उनसे कहा था, "जो तुम्हारी सुनता है वह मेरी सुनता है, और जो तुम्हें अस्वीकार करता है, वह मुझे अस्वीकार करता है" (लूका 10:16)।

परमेश्वर के वचन में ऐसी आज्ञाएं हैंः

"अपने अगुवों की आज्ञा मानों और उनके अधीन रहो, क्योंकि वे तुम्हारी जान की यह जानकर रखवाली करते हैं कि उन्हें उसका लेखा देना है। उन्हें यह काम आनन्द के साथ करने दो न कि आहें भरते हुए, क्योंकि इससे तुम्हें कोई लाभ न होगा" (इब्रा. 13:17)।

"लेकिन हे भाइयो, हम तुमसे निवेदन करते हैं कि तुम उनका आदर करो जो तुम्हारे बीच कठिन परिश्रम करते हैं और जो प्रभु में तुम्हारे ऊपर नियुक्त हैं और तुम्हें शिक्षा देते हैं। उनके काम के कारण उनका प्रेमपूर्वक अत्यंत सम्मान करो" (1 थिस्स. 5:12,13)।

"भाइयों, तुम स्तिफनास के कुटुम्बियों को जानते हो कि वे अखाया का पहला फल हैं और पवित्र लोगों क सेवा के लिए सदा तैयार रहते हैं। मेरा तुमसे आग्रह है कि तुम ऐसे लोगों के अधीन रहो, और ऐसे प्रत्येक के भी जो इस काम में सहायक और परिश्रमी हैं " (1 कुरि. 16:15,16)।

फ्जो प्राचीन अच्छा प्रबन्ध करते हैं, वे दोगुने आदर के योग्य समझे जाएं, विशेषकर वे जो शिक्षा-कार्य में कठिन परिश्रम करते हैं" (1 तीमु. 5:17)।

फ्हे नवयुवकों, तुम भी प्राचीनों के अधीन रहो" (1 पतरस 5:5)।

परमेश्वर हमें सहभागिता-समूहों (कलीसियाओं या मसीही सेवकों) के रूप में मसीह की देह में रखता है। उसमें, हमें उन आत्मिक अगुवों के अधीन रहने के लिए बुलाया जाता है जिन्हें परमेश्वर हम पर नियुक्त करता है, और उनके साथ हमें एक समूह के रूप में काम करता होता है। व्यक्तिगत मामलों में, हम परमेश्वर से सीधा मार्ग-दर्शन पाते हैं, लेकिन सामूहिक मामलों में, हमारा मार्गदर्शन आत्मिक अगुवों द्वारा आता है।

प्रेरितों के काम 16:9,10 में, हम पढ़ते हैं सिर्फ पौलुस को ही परमेश्वर से यह मार्गदर्शन मिला था कि उसे और उसके साथियों को आगे कहाँ जाना था। उसके समूह में, जिसमें सीलास, तीमुथियुस और लूका थे, उसके पीछे चले क्योंकि उन्हें यक़ीन था कि परमेश्वर अगुवाई कर रहा था, और वे पौलुस के नेतृत्व में काम कर रहे थे। उन्हें परमेश्वर से अलग से यह जानने की ज़रूरत नही थी कि वे क्या करें क्योंकि वह एक सामूहिक मामला था और परमेश्वर पहले ही उनके अगुवे से बात कर चुका था।

मानवीय देह में भी, कुछ अंगों को इस तरह रखा गया है कि जब एक अंग काम करता है तो उसके साथ उन्हें भी काम करना पड़ता है। उदाहरण के तौर पर, मेरे दाहिनी हाथ की छोटी अंगुली अपने आप में एक ऐसा स्वतंत्र अंग है जो मस्तिष्क से मिले निर्देश का आज्ञापालन करते हुए अकेले काम कर सकती है। इसके साथ ही, उसे बांह के हिलने पर हिलना ही पड़ता है क्योंकि वह बांह का हिस्सा है। ऐसे समयों में वह अपने आपको बांह से अलग रखते हुए हिलने से इनकार नहीं कर सकती, क्योंकि परमेश्वर ने उसे उस "समूह" का एक हिस्सा बनाया है जिनसे मेरी दाहिनी बांह बनी हुई है। जब मेरा बायाँ हाथ हिलता है, तो उसके साथ दाहिनी छोटी अंगुली को हिलने की ज़रूरत नहीं होती क्योंकि वह उस "समूह" का हिस्सा नहीं है, लेकिन उसे अपने समूह के साथ हिलना पड़ता है।

अगर परमेश्वर ने हमें एक कलीसियाई संगति में या मसीही सेवकों के एक समूह में रखा है, तो हमें उस अगुवाई के अधीन होना पड़ेगा जिन्हें परमेश्वर ने हमारे ऊपर नियुक्त किया है और सामूहिक मामलों में हमें उस अगुवाई में चलना पड़ेगा। हमें सिर्फ यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत होती है कि परमेश्वर ने ही हमें उस समूह में रखा है। एक बार जब यह बात स्पष्ट हो जाती है, तो इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि फिर परमेश्वर हमसे यह अपेक्षा करता है कि हम अपने अगुवों की आज्ञा का पालन करें। पवित्र-शास्त्र के इस सिद्धान्त को समझ लेने से मसीही काम की अनेक समस्याएं हल हो जाती हैं।

स्वयं परमेश्वर के पुत्र के उदाहरण पर विचार करें। एक किशोर के रूप में, हम पढ़ते हैं कि वह मरियम और युसुफ के अधीन रहा था (लूका 2:51)। यीशु सिद्ध था। यूसुफ और मरियम सिद्ध नहीं थे। फिर भी वह सिद्ध पुरुष उन त्रुटिपूर्ण मनुष्यों के अधीन रहा क्योंकि यह उसके लिए परमेश्वर की इच्छा थी। पिता की इच्छा यीशु के सारे मामलों को पूरी तरह तय कर देती थी।

अगर पिता की यह इच्छा थी कि वह मरियम और यूसुफ की अधीनता में रहे, तो वह वही करने के लिए तैयार था - और वह भी तब तक जब तक पिता चाहता था।

लेकिन यीशु के जीवन में बाद में फिर ऐसा समय आया (उसके बपतिस्मे के बाद), जब वह उनकी अधीनता में से निकल गया था - जब उसके पिता ने उसे उसका घर छोड़ देने और परमेश्वर के पुत्र के रूप में उसकी सेवा करने के लिए बुला लिया था। उसके बाद, उसका माता मरियम के लिए उसका यह जवाब था, "हे नारी, मेरा तुझसे क्या काम?" (यूहन्ना 2:4)। लेकिन जब तक उसके पिता ने उसे मरियम और युसुफ की अधीनता में रखा, तो वह आनन्दपूर्वक उनके अधीन रहा था।

इस तरह, हम परमेश्वर के सिद्ध पुत्र के उदाहरण द्वारा भी यह देखते हैं, कि एक-मात्र महत्वपूर्ण सवाल यह है, "क्या यह परमेश्वर की इच्छा है कि मैं इस सहभागिता में रहूँ?" अगर इसका जवाब "हाँ" है, तब यह हमारी जि़म्मेदारी बन जाती है कि हम परमेश्वर द्वारा नियुक्त किए गए अधिकार के अधीन रहें।

अधिकार के खिलाफ़ किया गया विद्रोह ही सृष्टि में हुआ पहला पाप है, जब लूसिफर ने, जो स्वर्गदूतों का प्रधान था, उसके ऊपर परमेश्वर के अधिकार के खिलाफ़ विद्रोह किया था।

जगत में आज दो आत्माएं काम कर रही हैं - मसीह की आत्मा, जो लोगों को परमेश्वर द्वारा नियुक्त अधिकारी के अधीन होने में उनकी अगुवाई कर रही है, और शैतान की आत्मा, जो लोगों को उस अधिकार के खिलाफ़ विद्रोह करने में उनकी अगुवाई कर रही है।

आज मानवीय समाज में विद्रोह की आत्मा भरी हुई है - घर में भी और कलीसिया में भी। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि संसार तेज़ी से परमेश्वर से दूर होता जा रहा है, और उस पर नियंत्रण बढ़ता जा रहा है। मसीह की देह के अंगों के रूप में, हमारी बुलाहट यह है कि हम विद्रोह के इस शैतानी सिद्धान्त के खिलाफ़ खड़े हों और अधीनता के मसीह के उदाहरण का अनुसरण करें।

परमेश्वर द्वारा नियुक्त किए गए अगुवों के अधिकार के अधीन होने से हमारा कभी कोई नुक़सान नहीं होगा। दूसरी तरफ, विद्रोह करने से हमारा बहुत नुक़सान हो जाएगा।

परमेश्वर द्वारा नियुक्त ईश्वरीय अगुवों के अधीन होना वह तरीक़ा है जिसके द्वारा परमेश्वर हमें आत्मिक रूप में परिपक्व बनाता है। परमेश्वर ने हमें जो करने के लिए बुलाया है, अगर हम वहाँ अधीन नहीं होंगे जहाँ परमेश्वर ने हमें अधीन होने के लिए बुलाया है, तो हमारी आत्मिक उन्नति नहीं हो पाएगी।

ऐसे अनेक विश्वासी हैं जो जिन्होंने अपने अनुभव में कभी भी परमेश्वर की सर्वाधिकार की वास्तविकता को नहीं जाना है क्योंकि उन्होंने कभी यह नहीं जाना है कि नम्र व दीन होकर अपने आत्मिक अगुवों के अधीन होने के परिणाम-स्वरूप अपनी स्वयं की योजनाओं में रोका जाना और उनका पूरा न होना क्या होता है। जो व्यक्ति अपने जीवन के कभी किसी दूसरे के अधीन नहीं हुआ है, वह न तो परमेश्वर की सेवा कर सकता है और न ही उसके जीवन में स्वयं एक आत्मिक अगुवा बन सकता है।

जैसा शैतान हमारे कानों में फुसफुसाता रहता है, अधीनता कोई अपमानजनक और दमनकारी बात नहीं होती। इसके विपरीत, यह एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा परमेश्वर आत्मिक रूप में हमारी रक्षा करता है। हमारे मसीही जीवन के आरम्भिक सालों में, जब हम परमेश्वर के मार्गों से अनजान होते हैं, तब आत्मिक अगुवों के अधीन रहने से हम स्वयं बहुत से गड्ढों में गिरने से बच सकते हैं, और अपने युवावस्था के उत्साह में दूसरों को भी भटकने वाले स्थानों में पहुँचाए जाने से बचा सकते हैं। अधीनता में बिताए गए वे साल ऐसा समय भी हो सकता है जब परमेश्वर हमें उसके राज्य के सिद्धान्त सिखाने द्वारा हमें आत्मिक तौर पर धनवान बना सकता है कि फिर हमारे पास दूसरों के लिए एक सेवकाई हो।

अधीनता के मार्ग से बच निकलने के द्वारा हम कितना कुछ खो देते हैं!

अगुवाई

परमेश्वर स्वयं मसीह की देह के कुछ अंगों को दूसरों के ऊपर आत्मिक अगुवा होने के लिए बुलाता है।

ऐसे सभी अगुवों को सबसे पहले यह समझने की ज़रूरत होती है कि देह में मसीह एकमात्र शीर्ष (सिर) है। मसीह अपनी शीर्षता कभी किसी को नहीं देता। इसलिए एक स्थानीय कलीसिया (या कलीसियाओं के एक समूह) में, या मसीही सेवकों की सहभागिता में, किसी एक व्यक्ति का अधिकार मसीह की सर्वशक्तिशाली शीर्षता का स्पष्ट उल्लंघन होता है।

यही वजह है कि नई वाचा की कलीसिया की अगुवाई प्राचीनों के एक समूह (एकवचन नहीं बहुवचन) के लिए ठहराई गई है। प्राचीनों को सामूहिक रूप में आत्मिक अधिकार का इस्तेमाल करना है (देखें प्रेरितों. 14:23; 20:17; 1 तीमु. 5:17; तीतुस 1:5; याकूब 5:14; 1 पतरस 5:1)।

मत्ती 18:18-20 में, यीशु ने कहा कि जहाँ दो या तीन मेरे नाम में इकट्ठे होते हैं, वहाँ वह उन्हें खोलने व बाँधने का अधिकार देने के लिए उनके बीच में हाजि़र रहता है। इस भाग का तत्काल संदर्भ (पद 17) यह संकेत देता है कि मसीह (विशिष्ट रूप में नहीं) लेकिन मुख्य रूप में, कलीसिया के प्राचीनों (संख्या में दो या तीन) द्वारा इस अधिकार के इस्तेमाल के बारे में बोल रहा था। यह स्पष्ट है कि एक व्यक्ति अपने आप में इस अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकता। (वर्ना मसीह को विशेष रूप में "दो या तीन" का उल्लेख करने की ज़रूरत नहीं होती)।

आज हम पुरानी वाचा के अधीन नहीं हैं। उन दिनों में, परमेश्वर उसके लोगों की अगुवाई करने के लिए अक्सर एक व्यक्ति को नियुक्त करता था - जैसे मूसा, यहोशू, दाऊद आदि। वे सभी अगुवे मसीह का प्रतीकात्मक स्वरूप थे। अब जबकि मसीह स्वयं आ गया है, तो सिर्फ वही परमेश्वर के लोगों का शीर्ष है और देह की सामूहिक अगुवाई द्वारा काम करता है।

मसीही युग के आरम्भिक समयकाल में, यह सही है कि प्रभु ने ग्यारह शिष्यों और प्रेरित पौलुस को कलीसियाओं के ऊपर विशेष अधिकार दिया था, लेकिन यह इसलिए था क्योंकि प्रेरित कलीसिया की बुनियाद थे (इफि. 2:20; प्रका. 21:14) और ऐस माध्यम थे जिनके द्वारा परमेश्वर ने कलीसिया को लिखित वचन दिया। आज ऐसी स्थिति नहीं है, और अगर आज कोई अपने अधिकारवादी कामों को सही ठहराने के लिए प्रेरित के रूप में पौलुस का उदाहरण देता है, तो वह न सिर्फ एक मूर्खता का बल्कि धृष्टता का काम होगा। तब ज़्यादा सम्भावना यही है कि वह व्यक्ति पौलुस से ज़्यादा दियुत्रिफेस जैसा होगा (3 यूहन्ना 9)।

दियुत्रिफेस एक "स्व-नियुक्त" प्रेरित था जो कलीसिया में अकेले ही अगुवाई करना चाहता था। यूहन्ना ने स्पष्ट शब्दों में उसे धिक्कारा है।

जब भी कोई व्यक्ति परमेश्वर के लोगों की अकेले ही अगुवाई करना चाहता है, तो आत्मिक तौर पर वह उन्हें वापिस पुरानी वाचा के समयकाल में ले जाने के ख़तरे में पड़ जाता है। यह बात ख़ास तौर पर उन्हें याद रखने की ज़रूरत है जिनमें अगुवाई करने की सशक्त योग्यताएं हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि परमेश्वर आज भी मसीही सेवकों का एक मज़बूत समूह बनाता है जिसमें एक तीमुथियुस और एक तीतुस एक पौलुस की अधीनता में रहते हुए काम कर सकते हैं। लेकिन यह समूह बनाए जाने के आरम्भिक समय में ही होना चाहिए। समय गुज़रने के साथ, पौलुस ने तीमुथियुस और तीतुस को भी अपने छोटे सहायक नहीं बल्कि साथी-सेवक माना था।

मसीह की देह में अगुवाई करने के लिए ईश्वरीय योजना यह है कि वह प्राचीनों के एक समूह द्वारा हो (चाहे वह एक कलीसिया के लिए हो या सेवकों के एक गुट के लिए हो)। किसी एक व्यक्ति का दृष्टिकोण बहुत प्रबल न हो जाए, इसलिए परमेश्वर ने कलीसिया की सुरक्षा के लिए यह प्रावधान किया है।

जिनके पास एक बड़ा दर्शन और कार्य-कुशलता है, वे उनके साथ मसीही काम में अगुवाई कर रहे लोगों के काम की धीमी गति की वजह से बड़ी आसानी से अधीर हो सकते हैं। वे अपनी ख़ुदी में मज़बूत होकर और यह दावा करते हुए दूसरों को कुचल कर आगे बढ़ने की परीक्षा में पड़ सकते हैं कि वे परमेश्वर के काम को आगे बढ़ाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। लेकिन परमेश्वर की आज्ञा का ऐसा उल्लंघन अंततः मसीह की देह के दूसरे अंगों के बढ़ने को रोक देगा। अपने आसपास देखें और उन कलीसियाओं और संस्थाओं की हालत देखें जहाँ एक अधिकारवादी सशक्त अगुवा है, और यक़ीनन आप यही पाएंगे कि वहाँ के मसीहियों का आत्मिक क़द बहुत छोटा है। ऐसी एक-व्यक्ति वाली अगुवाई बहुत से कार्यक्रमों आदि की वजह से बहुत जीवंत नज़र आ सकती है, लेकिन जिन मसीहियों की वहाँ अगुवाई की जा रही है, वे उन्नत नहीं होते। मसीह की देह के लिए परमेश्वर की यह इच्छा नहीं है। इसकी बजाय, परमेश्वर यही चाहेगा कि कार्यक्रमों और परियोजनाओं की संख्या कम हो लेकिन उसके अंगों की आत्मिक उन्नति ज़्यादा हो।

अगुवों की योग्यताएं:

सिर्फ परमेश्वर ही एक व्यक्ति को आत्मिक अगुवे के रूप में नियुक्त कर सकता है। अगर किसी जगह पर हमारी नियुक्ति सिर्फ एक मनुष्य द्वारा हुई है, तो हम मसीह के अधिकार का कभी उपयोग नहीं कर सकेंगे। यही वह बात है जिसमें उन लोगों की मूर्खता रखी है जो मसीही अगुवाई की जगहों में चुने जाना चाहते हैं; वे परमेश्वर द्वारा अपनी नियुक्ति नहीं चाहते हैं।

यह अत्यावश्यक है कि एक आत्मिक अगुवा अपने झुण्ड की अगुवाई सूली के मार्ग में करे। इसमें यह संकेत है कि वह एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो स्वयं विश्वासयोग्यता के साथ अपनी ख़ुदी से इनकार करने के मार्ग पर चल रहा हो।

और फिर यह भी, कि मसीह की देह में ऐसा कोई व्यक्ति अगुवा नहीं हो सकता जो दूसरों का सेवक नहीं होना चाहता, जैसा मसीह स्वयं था। यीशु ने कहा, "पृथ्वी के राजा और महापुरुष लोगों पर प्रभुता करते हैं, लेकिन तुम्हारे बीच ऐसा नहीं होगा। तुममें जो भी बड़ा बनना चाहे, वह तुम्हारा सेवक बने। और जो सबका प्रधान बनना चाहे, वह सबका दास बने। क्योंकि मैं स्वयं, जो मसीह हूँ, सेवा कराने नहीं बल्कि सबकी मदद करने आया हूँ" (मरकुस 10:42-45 - टी.एल.बी.)। महान् प्रेरित पौलुस, जिसका अधिकार सबसे बढ़कर था, वह दूसरों का सेवक था (2 कुरि. 4:5; 1 कुरि. 9:19)। एक आत्मिक अगुवे की यह एक और मुख्य योग्यता है।

एक आत्मिक अगुवे की यह बुलाहट होती है कि वह परमेश्वर द्वारा उसके अधीन किए गए लोगों पर आत्मिक अधिकार रखे, औैर इसके साथ ही वह उसी देह में उनका भाई और एक साथी-अंग हो। अगुवा-भाई के सम्बंध का यह संवेदनशील संतुलन ही है जिसे बनाए अक्सर बहुत मुश्किल हो जाता है। हम कभी इधर या कभी उधर हो जाने की वजह से असंतुलित हो जाते हैं। अगर हमें इस संतुलन को बनाए रखना है, तो हमें लगातार प्रभु से भरपूर मात्र में कृपा पाते रहने की ज़रूरत होगी। इसलिए एक अगुवे के लिए यह अति आवश्यक है उसका परमेश्वर के साथ ऐसा सम्बंध हो जिसमें वह उसके "आमने-सामने" रहता हो। मूसा की अगुवाई का यही रहस्य था, और इस वजह से ही वह 40 साल तक बड़ी विपरीत परिस्थितियों में भी परमेश्वर के 30 लाख लोगों की एक प्रभावशाली ढंग से अगुवाई कर सका था (व्य. वि. 34:10; गिनती 12:8)।

आत्मिक अधिकार, जो परमेश्वर द्वारा दिया जाता है, कोई ऐसा अधिकार नहीं होता जो हमें दूसरों के ऊपर जमाना है या जिसके अधीन होने के लिए दूसरों को मजबूर करना है। हम दूसरों को कभी हमारी बात सुनने या मानने के लिए मजबूर न करें। परमेश्वर स्वयं उनसे निबटेगा जो उसके प्रतिनिधियों का विरोध करते हैं। प्रभु के सेवक को कभी लोगों के साथ झगड़ा नहीं करना चाहिए (2 तीमु. 2:24,25) - क्योंकि अगर हमारे अधिकार के पीछे परमेश्वर है, तो हमें अपना बचाव करने की क्या ज़रूरत है? परमेश्वर स्वयं हमारा बचाव करेगा और हमारे अधिकार को स्थापित करेगा। अगर हम अपना अधिकार स्थापित करना चाहते हैं, तो उसकी वजह यही होगी कि हमारा अधिकार कदापि परमेश्वर-प्रदत्त नहीं होगा।

एक आत्मिक अगुवे पर जब हमला किया जा रहा हो और उसकी निन्दा की जा रही हो, तो उसे न तो अपना बचाव करना चाहिए और न ही अपने आपको सही ठहराने की कोशिश करनी चाहिए। बाइबल कहती है, "मसीह तुम्हारा नमूना है। उसके पदचिन्हों पर चलो... उसने गाली सुनते हुए गाली नहीं दी; दुःख सहते हुए उसने बदला लेने की धमकी नहीं दीं; उसने अपना मामला उसके हाथ में सौंप दिया जो धार्मिकता से न्याय करता है" (1 पतरस 2:21,23 - टी.एल.बी.)। परमेश्वर का पुत्र, जो सबसे बड़ा अधिकारी था, उसने मनुष्यों से संघर्ष करने और उन पर अधिकार जमाने से इनकार कर दिया था। उसका बचाव करने और उसे सही ठहराने का काम उसने परमेश्वर के हाथ में सौंप दिया था। यही वह रास्ता है जिस पर कलीसिया के सभी गौण-चरवाहों को चलना चाहिए। एक आत्मिक अगुवे के रूप में, अगर आप स्वयं परमेश्वर के अधिकार के अधीन रहते हैं, तो आप आसानी से सब कुछ उसके हाथों में सौंप सकते हैं। आपके खिलाफ़ हो रही सारी निन्दा, आलोचना, और पीठ-पीछे होने वाली बुराई को अनदेखा कर सकेंगे, क्योंकि परमेश्वर की यह प्रतिज्ञा है कि वह स्वयं ऐसे आक्रमणों से अपने सेवकों को बचाएगा (यशा. 54:17)। ऑस्वॉल्ड चेम्बज़र् ने कहा है कि अगर कोई हम पर कीचड़ उछालता है, और अगर हम उसे साफ करने की कोशिश करते हैं, तो हम अपने कपड़े ख़राब कर लेंगे। लेकिन अगर हम उसे वहीं छोड़ देंगे, तो कुछ समय बाद वह सूख जाएगा और अपने आप गिर जाएगा; उसका कोई धब्बा भी नहीं रहेगा। निन्दा से निबटने का यह सबसे अच्छा तरीक़ा है।

वॉचमैन नी ने, अपने अनेक वर्षों के उस अनुभव में से जो चीन में आत्मिक अगुवाई करते हुए उसे परमेश्वर ने दिया था, हमें उसकी पुस्तक "स्पिरिचुअल अथॉरिटी" में बुद्धिमानी-भरी कुछ सलाह देता है। वह कहता हैः

"परमेश्वर किसी हिंसक या शक्तिशाली पुरुष को नहीं, बल्कि पौलुस जैसे व्यक्ति को अधिकारी के रूप में नियुक्त करता है, जिसकी व्यक्तिगत उपस्थिति प्रभावहीन और जिसका प्रवचन व्यर्थ था" (2 कुरि. 10:10) …लोग अक्सर ऐसा पूर्वानुमान लगा लेते हैं कि एक अधिकारी होने के लिए कुछ ऐसी निम्न बातों का होना ज़रूरी होता हैः गौरव और भव्यता, शक्तिशाली व्यक्तित्व, आकर्षक रूप, और सामर्थ्य। उनके तर्क के अनुसार, एक अधिकारी के अन्दर दृढ़ निश्चय, चतुराई भरे विचार, और सुन्दर बोली होनी चाहिए। लेकिन ये बातें अधिकार का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। इयकी बजाय, ये शारीरिक बातों का प्रतीक हैं। पुरानी वाचा में परमेश्वर द्वारा नियुक्त किए गए अधिकारियों में मूसा से बढ़कर कोई नहीं था, फिर भी वह सबसे नम्र व दीन व्यक्ति था। जब वह मिस्र में था, तब वह बहुत क्रूर था - एक मिस्री को मार डालने में भी, और यहूदियों की ताड़ना करने में भी। वह लोगों के साथ स्वयं अपने शारीरिक हाथों से व्यवहार करता था। इसलिए परमेश्वर ने उस समय उसे अपने अधिकारी के रूप में नियुक्त नहीं किया था। लेकिन जब वह बहुत नम्र व दीन हो गया - पृथ्वी के सभी लोगों से ज़्यादा नम्र (गिनती 12:3) - सिर्फ तभी हो सका कि परमेश्वर उसे अपने अधिकारी के रूप में इस्तेमाल कर सका। इसलिए, एक व्यक्ति की अपनी सोच में उसके पास जितना अधिकार होता है, असल में उसके पास उतना ही कम अधिकार होता है...

"अधिकार इसलिए स्थापित किया जाता है कि वह परमेश्वर के आदेश को लागू करे, इसलिए नहीं कि वह अपने आपको ऊँचा उठाए।" यह इसलिए होता है कि उसमें से परमेश्वर के बच्चे परमेश्वर को महसूस करें, इसलिए नहीं कि उसमें से अपने अहम् की अनुभूति हो। यह महत्व की बात होती है कि लोगों को परमेश्वर के अधिकार के अधीन होने में उनकी मदद की जाए। एक नियुक्त किया हुआ अधिकारी होना बिलकुल भी आसान नहीं है, क्योंकि इसमें अपने आपको अपनी ख़ुदी से ख़ाली करना पड़ता है...

"अधिकार एक पद का मामला नहीं है। जहाँ सेवकाई की कमी है, वहाँ कोई पद से जुड़ा अधिकार नहीं हो सकता। जिस किसी के पास परमेश्वर के सम्मुख आत्मिक सेवकाई है, उसके पास मनुष्य के सम्मुख अधिकार है। फिर, यह अधिकार पाने के लिए कौन लड़ सकता है, क्योंकि सेवकाई पाने के लिए संघर्ष नहीं किया जा सकता? जैसे सेवकाई प्रभु द्वारा बाँटी जाती है, वैसे ही अधिकार के बारे में भी वही फैसला करता है... हमें अपनी सेवकाई के अधिकार से बाहर निकल कर काम नहीं करना चाहिए... अनेक भाई यह ग़लत कल्पना कर लेते हैं कि वे कभी भी अधिकार प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन वे यह नहीं जानते-- एक व्यक्ति का मनुष्यों के सम्मुख उतना ही अधिकार है, जितनी परमेश्वर के सम्मुख उनकी सेवकाई है। अगर अधिकार सेवकाई से बढ़ कर होगा, तो वह पदाधिकार हो जाएगा, और फिर वह आत्मिक अधिकार नहीं रहेगा...

जो अधिकार का इस्तेमाल करने के लिए उसे पाना चाहते हैं, उन्हें अधिकार नहीं देना चाहिए, क्योंकि परमेश्वर कभी ऐसे लोगों को अधिकार नहीं देता। लेकिन यह कहना एक विचित्र बात है, कि जिसे अपनी अयोग्यता का अहसास रहता है, परमेश्वर उन्हें अधिकार देता है... इससे पहले कि एक व्यक्ति को इस्तेमाल किया जा सके, उसे परमेश्वर के आगे गिरने की ज़रूरत होती है; वह जब भी अपने आपको ऊँचा उठाता है, वह परमेश्वर द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है...

उन लोगों का न्याय कितना गंभीर रूप में होगा जो परमेश्वर के अधिकार को अपने शारीरिक हाथों से दबोचते हैं। हम अधिकार से ऐसे ही डरें जैसे हम नर्क की आग से डरते हैं। परमेश्वर के प्रतिनिधि होना आसान बात नहीं है; उसे छूना हमारे लिए बहुत बड़ी और बहुत अद्भुत बात है। हमें दृढ़ता के साथ आज्ञापालन के मार्ग में चलने की ज़रूरत है। हमारा मार्ग अधिकार का नहीं आज्ञापालन का है; वह शीर्ष नहीं सेवक होने का है; शासक नहीं दास होने का है। मूसा और दाऊद दोनों सबसे महान् अधिकारी थे, फिर भी वे ऐसे लोग थे जिन्होंने अपना अधिकार जमाने की कोशिश नहीं की थी। आज जो अधिकार के स्थानों में होना चाहते हैं, उन्हें उनके पद्-चिन्हों में चलना चाहिए। अधिकारी होने के मामले में हमेशा भय और थरथराना होना चाहिए।"

आज कलीसिया का नुकसान हो रहा है क्योंकि उसमें आत्मिक अगुवों की बहुत कमी है। ऐसे बहुत लोग हैं जिनके अनेक पास शीर्षक हैं और जो अपने अधिकार का आधिकारिक तौर पर इस्तेमाल करते हैं। लेकिन आत्मिक अधिकार पाना दुर्लभ है। यीशु ने एक बार उसके पास आने वाली बड़ी भीड़ को देखा और उसे उन पर बहुत दया आई, "क्योंकि उनकी समस्याएं इतनी बड़ी हैं कि उन्हें यह समझ नहीं आता कि वे क्या करें और मदद पाने के लिए कहाँ जाएं। वे ऐसी भेड़ें थीं जिनका कोई चरवाहा नहीं था" (मत्ती 9:36 - टी.एल.बी.)। आज भी यही परिस्थिति है।

हमें कलीसिया में ऐसे अगुवों की सख़्त ज़रूरत है जिनका एक चरवाहे का हृदय और एक सेवक की आत्मा हो, ऐसे पुरुष जो परमेश्वर का भय मानते हों और उसके वचन के सामने थरथराते हों।

अध्याय 6
एकता द्वारा सामर्थ्य

"दो लोग मिलकर उससे दोगुना हासिल कर सकते हैं जो एक अकेला कर सकता है, उनके अपने परिश्रम का अच्छा प्रतिफल मिलता है। अगर उनमें से एक गिर जाए तो दूसरा उसे उठा सकता है; लेकिन एक व्यक्ति अगर अकेला गिरता है, तो उसे उठाने वाला कोई नहीं होता... अकेले व्यक्ति पर कोई भी प्रबल हो सकता है, लेकिन दो होने से वे उसका सामना कर सकते हैं... और तीन तो और भी अच्छे हैं, क्योंकि तीन लड़ियों से बंटी हुई रस्सी जल्दी नहीं टूटती" (सभो. 4:9-12 - टी.एल.बी.)।

आपको पंचतंत्र कथाओं में से वह एक कथा याद होगी जिसमें एक किसान ने अपने तीन बच्चों को, जो हर समय आपस में लड़ते रहते थे, एकता के बारे में एक बड़ा पाठ सिखाया। उसने कुछ कमज़ोर लकड़ियाँ लेकर उन्हें यह दिखाया कि कैसे एक अकेली लकड़ी को आसानी से तोड़ा जा सकता है, लेकिन एक-साथ जोड़ दिए जाने पर उन्हें तोड़ना असम्भव होता है।

सांसारिक लोगों की संतानें भी यह समझती हैं कि एकता और सहभागिता में शक्ति होती है।

बाइबल कहती है, "टिड्डियाँ हालांकि छोटी होती हैं फिर भी बहुत समझदार होती हैं, क्योंकि हालांकि उनका कोई कोई राजा नहीं होता, फिर भी वे झुण्ड में रहती हैं" (नीति. 30:27- टी.एल.बी.)।

यीशु मसीह की कलीसिया में हमें यह पाठ दोबारा सीखने की ज़रूरत है।

लेकिन शुरू में ही मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं मसीहियों या कलीसियाओं की उस संस्थागत एकता की बात नहीं कर रहा हूँ जो मनुष्यों की बनाई हुई हैं - जैसे आज का एकतावादी आंदोलन जिसमें परमेश्वर के सत्य के साथ समझौता किया जाता है और उसे बलिदान किया जाता है। इस तरह की एकता एक दिखावा है और उस एकता की नकल है जिसकी याचना मसीह ने अपनी महायाजकीय प्रार्थना में की थी (जो यूहन्ना अध्याय 17 में दर्ज है)।

नई वाचा में जिस एकता की बात की गई है, वह मसीह की शीर्षता में उसकी देह के अंगों की एक-दूसरे के साथ है - संस्थागत नहीं बल्कि एक जीवंत एकता। इसमें वे लोग शामिल नहीं हैं जो मसीह की देह से बाहर हैं - चाहे उन पर "मसीही" होने का लेबल भी क्यों न लगा हो। जीवितों और मृतकों का कोई मेल नहीं हो सकता। जो नया जन्म पाने द्वारा मसीह में जीवित हो चुके हैं, वे सिर्फ ऐसे लोगों के साथ ही आत्मिक एकता पा सकते हैं जो परमेश्वर द्वारा इसी तरह जीवित किए गए हैं। मसीही एकता पवित्र-आत्मा द्वारा तैयार की जाती है क्योंकि सिर्फ वही हमें मसीह की देह के अंग बनाता है। बाइबल हमें उत्साहित करते हुए कहती है, "यत्न करो कि मेल के उस बंधन को सुरक्षित रख सको जिसे पवित्र-आत्मा ने बनाया है" (इफि. 4:3 - ऐम्प्लिफाइड बाइबल)। मनुष्य निर्मित कोई भी एकता व्यर्थ होती है।

शैतान की रणनीति (युक्ति):

शैतान एक चालाक शत्रु है और वह जानता है कि एकता में बंधी ऐसी मसीही सहभागिता का कुछ नहीं कर सकता जो मसीह और उसके वचन के अधिकार की अधीनता में रहती है। इसलिए, उसकी रणनीति यह होती है कि एक सहभागिता के सदस्यों में शक और ग़लतफहमी पैदा करे जिससे कि वह एक एक सदस्य को अलग-अलग गतिहीन कर सके।

यीशु ने कहा कि अधोलोक की सामर्थ्य उसकी कलीसिया पर प्रबल नहीं हो सकती (मत्ती 16:18)। शैतान के खिलाफ़ युद्ध में जय पाने की प्रतिज्ञा कलीसिया से - मसीह की देह से की गई है। एक विश्वासी जो दूसरे विश्वासियों से अलग होगा, वह स्वयं को हारा हुआ पा सकता है।

शैतान ने पृथ्वी पर मसीह के रहने के दिनों में उस पर लगातार हमले किए, लेकिन वह उस पर प्रबल न हो सका। अंत में, मसीह ने सूली पर शैतान की उस शक्ति को उससे ले लिया जो उसे मनुष्य पर प्राप्त थी (इब्रा. 2:14; कुलु. 2:15)।

आज शैतान जी-उठे मसीह पर हमला नहीं कर सकता, इसलिए अब उसका हमला मसीह की देह, कलीसिया पर होता है। शैतान पर हम तभी जय पा सकते हैं जब हम मसीह के शीर्षस्थ एक देह के रूप में एक होकर खड़े होते हैं।

एक मसीही सहभागिता में, अगर एक सदस्य भी अपना काम नहीं कर रहा है, तो देह की शक्ति उतनी कम हो जाती है। शैतान, यह जानते हुए, एक समूह के व्यक्तियों को लगातार अलग करने की, या एक समूह (या कलीसिया) में फूट डालकर दलबन्दी करने की कोशिश करता रहता है। इनमें से किसी भी तरीक़े से वह अपने उद्देश्य में सफल हो जाता है।

इस वजह से ही हमें हर समय शैतान की युक्तियों से सचेत रहने की ज़रूरत होती है, कहीं ऐसा न हो कि वह हमारे और मसीह की देह के अंगों के बीच की कड़ियों को कमज़ोर कर दे।

देह का अधिकार:

पौलुस द्वारा इफिसियों को लिखी पत्री के शुरु के अध्याय, मसीह की देह के फ्रहस्य" को प्रकट करते हैं। पत्री के अंत में, कलीसिया द्वारा लड़े जा रहे आत्मिक युद्ध का, और उस युद्ध को जीतने के लिए ज़रूरी परमेश्वर के अस्त्रों व शस्त्रों का वर्णन दिया गया है।

इफिसियों की पत्री की सामान्य विषय-वस्तु क्योंकि मसीह की देह है, इसलिए पत्री के अंत में जिस युद्ध का वर्णन किया गया है, वह इस बात की ओर संकेत करता है कि वह युद्ध एक व्यक्तिगत सदस्य द्वारा लड़ा जाने वाला युद्ध नहीं है बल्कि वह ऐसा युद्ध है जिसमें पूरी देह सामूहिक रूप से शामिल है। इस युद्ध में हमें एक-दूसरे की ज़रूरत है।

इसी पत्री में, हमें पहले यह बताया गया है कि मसीह, कलीसिया के सिर के रूप में, सबसे ऊँचे स्थान में उठाया गया है (इफि. 1:20-23)। यह जान लेना एक बात है कि मसीह ऊँचे पर उठाया गया है, और यह जानना एक अलग बात है कि वह अपनी देह, कलीसिया के सिर के रूप में ऊँचा उठाया गया है। इफिसियों के मसीहियों के लिए पौलुस की यह प्रार्थना थी कि इस दूसरे सत्य के बारे में उन्हें आत्मिक प्रकाशन मिल सके।

पृथ्वी पर कलीसिया के लिए इस सत्य के दूरगामी प्रभाव व परिणाम हैं। क्योंकि अगर कलीसिया के सिर के रूप में सबसे ऊँचे स्थान पर उठाया गया है, तो इसका अर्थ यह है कि मसीह के अधिकार के इस्तेमाल में कलीसिया का भी भाग है। मानवीय देह में एक उदाहरण देखें। मेरे सिर के लिए एक सिंहासन पर बैठना सम्भव न होगा अगर उसके साथ मेरी देह भी उसी सिंहासन पर बैठी न हो। मसीह और उसके देह के साथ भी ऐसा ही है।

मसीह के पास जो अधिकार है, वह उसे अपनी कलीसिया को भी देना चाहता है। फिर कलीसिया आज इतनी सामर्थ्यहीन क्यों है? अवश्य ही इसकी वजह यही हो सकती है कि उसने मसीह सिर के नीचे अपने आपको देह के रूप में नहीं जाना है और वहाँ अपना स्थान ग्रहण नहीं किया है।

मसीह के अधिकार का इस्तेमाल उसकी देह के द्वारा होता है, एकाकी व्यक्तियों द्वारा नहीं। मानवीय देह सिर (मस्तिष्क) के आज्ञाओं का पालन करने के द्वारा काम करती है क्योंकि वह एक तालमेल में काम रहते हुए काम करने वाली रचना है, सिर्फ यूँ ही बिखरे पड़े हाथों और पैरों व अंगों और अवयवों का ढेर नहीं है। मसीह की देह में भी ऐसा ही है। जहाँ एक तालमेल में रहने वाला मसीही समूह होगा, वहाँ मसीह के अधिकार का प्रभावी इस्तेमाल हो सकेगा।

क्या अब आप यह देख सकते हैं कि शैतान फ्देह" के सत्य से कितनी घृणा करता है, और वह क्यों यथाशक्ति यह कोशिश करेगा कि हमें इस सत्य की तरफ से अंधा बनाए रखे? और इसके बौद्धिक सत्य को जान लेने के बाद भी शैतान यह कोशिश करेगा कि वह हमें इसे व्यावहारिक रूप में लागू करने की तरफ से अंधा बनाए रखे।

देह में तालमेल:

यीशु ने परमेश्वर से प्रार्थना करने वाले व्यक्तिगत विश्वासियों से बहुत सी प्रतिज्ञाएं की हैं। लेकिन मत्ती 18:18,19 में, हम मसीह की देह के एक भाग से की गई प्रतिज्ञा पाते हैं जो एकमत होकर प्रार्थना कर रहा हैः

"जो कुछ तुम पृथ्वी पर बांधोगे", यीशु ने कहा, "वह स्वर्ग में बंध जाएगा, और जो कुछ तुम पृथ्वी पर खोलोगे, वह स्वर्ग में खुल जाएगा। मैं तुम से फिर कहता हूँ, अगर तुम से दो जन पृथ्वी पर किसी विनती के लिए एकमत हों, तो वह मेरे स्वर्गीय पिता की ओर से उनके लिए पूरी हो जाएगी" (टी.एल.बी.)।

पद 19 में जिस शब्द कर अनुवाद "एकमत" किया गया है, वह यूनानी शब्द "सिम्फोनियो" है जिसमें से अंग्रेज़ी का "सिम्फनी" शब्द बना है। इन पदो में यीशु यह कह रहा था कि अगर उसके सिर्फ दो ही बच्चों के बीच में एकता होगी, तो वह एक संगीत के सुरों के तालमेल की तरह होगी। इसका अर्थ यह है कि यह मामला एक विश्वासी की प्रार्थना के अंत में "आमीन" कह देने से कुछ ज़्यादा है। संगीतमय जुगलबंदी एक-साथ प्रार्थना करने वालों के बीच आत्मा का एक गहरा तालमेल दर्शाती है। जब मसीहियों के एक छोटे समूह की सहभागिता एक अच्छे निर्देशन वाली संगीत मण्डली की जुगलबंदी की तरह होती है, तब (यीशु ने कहा कि) उनकी प्रार्थनाओं में वह अधिकार होगा कि वे जो कुछ भी माँगेंगे, वह उन्हें मिल जाएगा। मसीहियों के ऐसे समूह के पास यह अधिकार होगा कि वे शैतान की शक्ति को बांध सकें और उसके बंदियों को रिहा कर सकें।

ऐसी सहभागिता द्वारा ऐसे अधिकार का इस्तेमाल कर पाने का कारण बताते हुए यीशु ने कहा, "क्योंकि जहाँ दो या तीन मेरे नाम में इकट्ठे होते हैं, वहाँ उनके बीच में मैं हूँ" (पद 20, ऐम्प्लिफाइड)। मसीह जो सिर है, ऐसी सहभागिता के बीच अपने अधिकार के साथ मौजूद रहता है और इसलिए अधोलोक की शक्तियाँ उस सहभागिता के खिलाफ़ कभी नहीं टिक सकतीं।

जिस कलीसिया का "प्रेरितों के काम" में बयान किया गया है, वह इस अधिकार की वास्तविकता को इसलिए जानती थी क्योंकि उनकी सहभागिता में ऐसी एकता थी। फ्वे सब (11 प्रेरित) एकचित्त होकर प्रार्थना में लगे हुए थे...

"सब विश्वासी मिल-जुल कर रहते थे... और वे एक मन होकर दिन-प्रतिदिन मन्दिर में जाते थे..."

"और उन्होंने (प्रेरितों और अन्य विश्वासियों ने) एक मन होकर ऊँची आवाज़ से परमेश्वर को पुकारा..." (प्रेरितों- 1:14; 2:44, 46; 4:24, ऐम्प्लिफाइड)।

मसीह के अधिकार के नीचे क्योंकि वे एक देह के रूप में जुड़े हुए थे, इसलिए वे प्रार्थना में प्रभु के अधिकार को इस्तेमाल कर सके। वे बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे, और उनका न तो कोई सामाजिक प्रभाव था और न ही उन्हें कोई आर्थिक समर्थन प्राप्त था, फिर भी उन्होंने मसीह के लिए उस समय के संसार को उलट-पलट कर दिया था।

पतरस जब कारावास में बंद कर दिया गया था, तो हेरोदेस की सारी शक्ति भी परमेश्वर के सामने घुटनों पर झुकी हुई कलीसिया का सामना न कर सकी थी (प्रेरितों. 12:5:11)। जब एक देह के रूप में वह कलीसिया आगे बढ़ी थी, तो शैतान के राज की बुनियादें हिलने लगीं थी, और उसने पूरे रोमी साम्राज्य के मानवीय जीवनों में मसीह की जय और अधिकार को स्थापित कर दिया था (इसके एक उदाहरण के लिए देखें प्रेरितों. 19:11-20)।

आज शैतान एक विभाजित कलीसिया की उन कोशिशों का ठट्ठा उड़ाता है जिसमें वह चालबाजि़यों, उपकारणों, सभाओं, धर्म-सैद्धान्तिक ज्ञान, चतुर वाक्शैली और प्रशिक्षित आराधना मण्डलियों द्वारा उसके गढ़ों में से उसे निकालने की कोशिश करते हैं।

इनमें से कुछ भी शैतान के खिलाफ़ काम नहीं कर सकता। अब यह फिर से ज़रूरी हो गया है कि कलीसिया मसीह के शीर्षस्थ एक देह होने की वास्तविकता को जाने।

मसीहियों की एक ऐसी संगति जिसके सदस्यों का आपस में सही तालमेल हो, जो एक-दूसरे के लिए प्रेम में बढ़ रही हो, और जो मसीह और उसके वचन के प्रति आज्ञाकारी हो, वह पृथ्वी पर शैतान और उसके राज्य के लिए के लिए सबसे बड़ा ख़तरा होती है। शैतान इससे ज़्यादा और किसी बात से नहीं डरता।

यह हमारी प्रार्थना का विषय हो कि प्रभु हमारी मदद करे कि हम प्रतिदिन मसीह में एक देह होने के महिमामय सत्य की ज्योति में चल सकें। जगत में मसीही लोग जैसे-जैसे इस सत्य को समझने और इसके अनुसार जीने वाले होते जाएंगे, वैसे-वैसे हम कलीसिया को, हालांकि उसकी संख्या कम होगी, उसकी पहली महिमा में पुनःस्थापित होता हुआ देखेंगे; तब वह परमेश्वर के हाथों में एक ऐसा साधन होगी जो अंधकार की शक्तियों को हराएगी और एक ज़रूरतमंद जगत को आशिष देने वाला एक माध्यम बन जाएगी।