जय के रहस्य

द्वारा लिखित :   जैक पूनन श्रेणियाँ :   चेले साधक
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अध्याय 1
निरंतर जय का जीवन

हमारे जीवन के लिए परमेश्वर की यह इच्छा है कि हम निरंतर जय पाते रहें। पवित्र-शास्त्र के अनेक वचन यह बात सिखाते हैं।

उनमें से सिर्फ कुछ वचनों पर विचार करेंः

"परमेश्वर का धन्यवाद हो जो मसीह के द्वारा विजयोत्सव के जुलूस में हमेशा हमारी अगुवाई करता है" (2 कुरि. 2:14)।

"इन सब बातों में हम उसके द्वारा जिसने हमसे प्रेम किया, जयवंत से भी बढ़कर है" (रोमियों. 8:37)।

"मैं ये बातें तुम्हें इसलिए लिख रहा हूँ कि तुम पाप न करो" (1 यूहन्ना 2:1)।

ऐसे वचनों और इनके जैसे और भी बहुत से वचनों के बावजूद ज़्यादातर विश्वासियों को इस बात का यक़ीन दिलाना मुश्किल होता है कि उनके लिए परमेश्वर की इच्छा यह है कि वे एक जयवंत जीवन बिताएं।

पवित्र-शास्त्र में जैसे लिखा गया है, अगर हम उसे बिलकुल वैसे ही सहज रूप में मान लें, एक छोटे बच्चे की तरह उस पर भरोसा कर लें, तो यह संदेश हमें एक स्पष्ट रूप में समझ आ जाएगा। लेकिन अगर हम अपनी सोच-समझ पर भरोसा रखेंगे, तो ऐसे बहुत से तर्क हमारे सामने आ जाएंगे जो हमें यक़ीन दिला देंगे कि बुराई से भरे इस संसार में ऐसा जीवन जीना सम्भव ही नहीं है। तब अनेक भरोसा-न-करने-वाले "विश्वासी" आकर हमारे तर्क के साथ अपनी साक्षी मिला देंगे। और फिर हम अपने आपको इस बात का यक़ीन दिला देंगे कि इस संसार में एक जयवंत जीवन जीना असम्भव है।

जब तक हमें पहले इस बात का यक़ीन नहीं होता कि एक जयवंत जीवन जीना हमारे लिए परमेश्वर की इच्छा है, तब तक ऐसा जीवन जीने के लिए हममें कभी विश्वास नहीं होगा। और विश्वास के बिना जय के जीवन में प्रवेश करना असम्भव है। मसीही जीवन में सब कुछ पूरी तरह विश्वास पर ही निर्भर होता है। और विश्वास का आधार वह प्रकाशन है जो परमेश्वर ने हमें उसके वचन में दिया है।

आपने चाहे अनेक वर्ष एक हारी हुई दशा में भी क्यों न बिता दिए हों, फिर भी इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता। अगर आप सिर्फ एक स्पष्ट रूप में, परमेश्वर के वचन में एक निरंतर जय के जीवन को देख लेंगे, तो वह जयवंत जीवन की दिशा में आपका पहला क़दम होगा।

अध्याय 2
विश्वास अति आवश्यक है

1 यूहन्ना 2:6 कहता है, "जो कहता है कि मैं उसमें बना रहता हूँ, तो वह स्वयं भी वैसा ही चले जैसे वह चलता था।"

यीशु कैसे चलता था? क्या वह कुछ समय जय में चलता था, या ज़्यादा समय जय में चलता था, या हर समय जय में चलता था? इसका जवाब हम जानते हैं। वह सब बातों में हमारी ही तरह परखा गया था, फिर भी उसने पाप नहीं किया था (इब्रा. 4:15)।

और अब हमसे कहा गया है कि हम भी वैसे ही चलें जैसे वह चलता था। क्या इस पृथ्वी पर यह हो सकता है? क्या परमेश्वर हमें ऐसा कुछ करने के लिए कहेगा जो वह जानता है कि हम नहीं कर सकते? नहीं। यह एक अकल्पनीय बात है। पृथ्वी के पिता भी अपने बच्चों से बेतुकी बातों की अपेक्षा नहीं रखते। तो परमेश्वर ऐसी अपेक्षा क्यों रखेगा!

नई वाचा में लिखे कुछ सबसे दुःखद शब्द मत्ती 13:58 में लिखे हैं - "और लोगों के अविश्वास के कारण उसने वहाँ सामर्थ्य के अधिक काम नहीं किए।"

इसका समान्तर भाग मरकुस 6:5 कहता हैः "वह वहाँ और ज़्यादा आश्चर्यकर्म न कर सका।"

उसने अपने नगर में उन लोगों के लिए महान् काम करने चाहे थे। उन्हें भी उन अद्भुत कामों की ज़रूरत थी। लेकिन उनके अविश्वास ने उसे सीमित कर दिया था।

अविश्वास सर्व-शक्तिशाली परमेश्वर के हाथों को बाँध देता है कि फिर वह हमारे लिए जो करना चाहता है, वह नहीं कर सकता है।

मुझे यह विचार आता है कि क्या ऐसे चमत्कार थे जो परमेश्वर ने आपके लिए करने चाहे, लेकिन आपके अविश्वास के कारण नहीं कर सका था? मसीह के न्यायासन के सामने, क्या हममें से किसी को ये शब्द सुनने पड़ेंगे, "मैं तेरे अविश्वास की वजह से तेरे लिए और तेरे द्वारा वह सब कुछ न कर सका जो मैंने करना चाहा था?" पृथ्वी पर हमारे जीवन का अंत हो जाने के बाद, यह जानना हमारे हृदयों को कितना खेद करेगा? इन बातों के बारे में अभी सोच-विचार कर लेना अच्छा है।

नया जन्म पाए हुए एक मसीही के रूप में, मेरे आरम्भिक साल ऐसे समूहों में बीच में गुज़रे थे जो वचन के ज्ञान पर ज़्यादा ज़ोर देते थे। एक भाव से, मैं इसके लिए परमेश्वर का आभारी हूँ क्योंकि उसके द्वारा मुझे पवित्र-शास्त्र का एक अच्छा बुनियादी ज्ञान मिल गया। लेकिन उनका अध्ययन पवित्र-आत्मा के प्रकाशन के बिना, ज़्यादातर मानवीय तर्क पर ही आधारित रहता था। हम बाइबल का इस तरह अध्ययन करते थे जैसे स्कूल में रसायन शास्त्र का अध्ययन किया जाता है। हमने पुरानी वाचा के प्रतीकात्मक स्वरूपों आदि, के बारे में सीखा था, लेकिन हम अपने जीवनों में फिर भी पाप से हारे हुए थे। मैं जानता था कि परमेश्वर ने मेरे पाप क्षमा कर दिए थे; लेकिन इससे आगे मेरे पास और किसी बात के लिए विश्वास नहीं था।

फिर जब मैंने वचन में पवित्र-आत्मा के बपतिस्मे के सत्य को देखा और वह पाने के लिए जब मैं परमेश्वर की खोज करने लगा, तो मैंने पाया कि मैं विश्वास ही नहीं कर पा रहा था। मैंने उपवास और प्रार्थना किए और मैं उसके लिए कोई भी क़ीमत चुकाने के लिए तैयार था, लेकिन मेरे लिए यह विश्वास करना बहुत मुश्किल हो रहा था कि परमेश्वर ने मेरी प्रार्थना सुन कर पूरी कर दी थी। यीशु ने यह सिखाया था कि हम जब भी प्रार्थना करें, तो हम यह विश्वास करें कि जो कुछ हमने माँगा है हम वह पा चुके हैं।

"मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम जो कुछ प्रार्थना में माँगते हो, विश्वास करो कि तुम वह पा चुके हो, और वह तुम्हें मिल जाएगा" (मरकुस 11:24)।

इस बात पर एक सहज, बच्चे जैसा विश्वास करने में मुझे बहुत समय - काफी साल लग गए। अंततः, परमेश्वर की कृपा से, मैं आगे बढ़कर यह विश्वास कर सका कि परमेश्वर ने मेरी प्रार्थना सुन ली थी। विश्वास से मेरा पवित्र-आत्मा में बपतिस्मा हुआ। अन्य भाषा का वरदान उसके साथ एक अनापेक्षित रूप में मिला, जो सिर्फ उस बात की पुष्टि था जो मैं पहले ही विश्वास से पा चुका था।

अब जब भी मैं अपने संघर्ष के उन दिनों की तरफ मुड़ कर देखता हूँ, तो मुझे साफ नज़र आता है कि मेरे रास्ते की रुकावट मेरा अविश्वास था।

पाप पर जय पाने के जीवन में प्रवेश करने में भी यही सिद्धान्त लागू होता है। हम उपवास करें, प्रार्थना करें या प्यासे रहें, लेकिन हम फिर भी तब तक कहीं नहीं पहुँच पाएंगे जब तक कि हम यह विश्वास नहीं करेंगे कि परमेश्वर हमें ऐसे जीवन में ले जा सकता है, और वह हमें ऐसे जीवन में ले जाएगा। शैतान यह जानता है कि आप विश्वास के बिना परमेश्वर से कुछ नहीं पा सकते। तो आप समझ ही सकते हैं कि वह आपके मन को अविश्वास से भरने की कितनी कोशिश करेगा। अविश्वास झूठ बोलने और व्यभिचार करने से ज़्यादा बड़ा ख़तरा है, क्योंकि ये तो आसानी से पाप के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन अविश्वास आसानी से इस रूप में नहीं जाना जा सकता।

इब्रानियों 3:12 कहता है, "हे मेरे भाइयो, सावधान रहो, कहीं ऐसा न हो कि तुममें से किसी का मन दुष्ट और अविश्वासी हो जाए और तुम जीवित परमेश्वर से दूर हो जाओ।"

अविश्वास से भरा दुष्ट मन हमें परमेश्वर से दूर ले जा सकता है। अविश्वास बाक़ी सभी पापों का मूल कारण होता है - जैसा कि हम आगे आने वाले अध्याय में देखेंगे। रोमियों 6:14 कहता है, "अब पाप तुम पर प्रभुता न करने पाएगा, क्योंकि अब तुम व्यवस्था के नहीं, कृपा के अधीन हो" (रोमियों. 6:14)।

यहाँ पवित्र-आत्मा हमें साफ तौर पर बता रहा है कि अगर हम कृपा के अधीन हैं, तो पाप हम पर प्रभुता न करने पाएगा। यह इतना सहज रूप में लिखा है कि एक बच्चा भी आसानी से समझ जाएगा। फिर भी, अनेक विश्वासी पाप पर जय पाने वाले जीवन की सम्भावना पर विश्वास नहीं करते।

परमेश्वर चाहता है कि आप जयवंत जीवन जीएं। इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि आपका वैचारिक जीवन कितना घिनौना है, या आप अपने क्रोध से कितना हारे हुए हैं। प्रभु आपको पूरी तरह से मुक्त करके आपको एक शुद्ध हृदय दे सकता है। लेकिन वह तब तक ऐसा नहीं कर सकता जब तक आप विश्वास नहीं करेंगे।

बाइबल कहती है कि जब हम हृदय में विश्वास करें तो मुँह से अंगीकार करें। रोमियों 10:10 में लिखा है, "मनुष्य हृदय से विश्वास करता है जिसका परिणाम धार्मिकता होता है, और मुँह से अंगीकार करता है जिसका परिणाम उद्धार होता है।"

यह एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है - क्योंकि हमारे मुँह के अंगीकार द्वारा ही हम अपने विश्वास को व्यक्त करते हैं। फिर वह हमें पाप की शक्ति से मुक्त करता है। इसलिए हमें शैतान से यह कहते हुए अपनी साक्षी का वचन बोलना है, "यह मेरा विश्वास है कि परमेश्वर पाप पर जय पाने वाले जीवन में मेरी अगुवाई करेगा।"

"वे मेमने के लहू के कारण और अपने साक्षी के वचन के कारण उस (शैतान) पर प्रबल हुए थे, क्योंकि मृत्यु सहने तक भी उन्होंने अपने प्राणों को प्रिय नहीं जाना था" (प्रका. 12:11)।

आप हर बार जब भी गिरें, तब यही अंगीकार करते रहें जब तक कि पाप पर जय आपके जीवन में एक सच्चाई न बन जाए। अगर वह रातों-रात नहीं आती तो निराश न हों। परमेश्वर अवश्य ही आपके मुँह के अंगीकार को सम्मानित करेगा। आप भी शैतान पर जय पा सकते हैं।

अध्याय 3
परमेश्वर के वचन को गंभीरता से लेना

अनेक विश्वासियों में यह एक बुरी आदत है कि वे परमेश्वर के वचन को गंभीरता से नहीं लेते। उदाहरण के तौर पर, मत्ती 12:36 में यीशु के शब्दों को ही लेंः "जो भी निकम्मी (व्यर्थ) बात मनुष्य अपने मुख से बोलेंगे, न्याय के दिन वे उसका लेखा देंगे। क्योंकि अपने शब्दों के द्वारा ही तू निर्दोष और अपने शब्दों के द्वारा ही तू दोषी ठहरेगा।"

ज़्यादातर विश्वासी यह नहीं मानते कि उन्हें वास्तव में उनके मुख से बोले गए हरेक निकम्मे शब्द का लेखा देना पड़ेगा। अगर हम वास्तव में इस बात पर विश्वास करेंगे, तो सारी पीठ-पीछे की बुराई, गप-शप, दुष्टता से भरे शब्द, और क्रोध हमारे जीवन में से मिट जाएंगे। यीशु के इन शब्दों को जो भी गंभीरता से लेगा, वह अपनी बोली में से निर्ममता के साथ हरेक निकम्मे शब्द को काट कर फेंक देगा।

यहाँ यीशु ने कहा है कि हम अपने शब्दों द्वारा ही निर्दोष ठहरेंगे। हम सभी विश्वास द्वारा धर्मी ठहराए जाने की बात जानते हैं। लेकिन कामों के बिना विश्वास मरा हुआ है, और ऐसा विश्वास जो हमारी बोली को शुद्ध नहीं करता मरा हुआ विश्वास है।

पिछले तीन महीनों में आपने जितने भी शब्द लिखे (या बोले) हैं, उनके बारे में विचार करें - अपने घर में और अपने कार्यालय में, अपने पति, पत्नी, बच्चों या सेवकों, आदि से। क्या आपकी बातों की टेप-रिकॉर्डिंग यह साबित कर देगी कि आप, अपने आसपास के संसार से अलग, परमेश्वर की एक धर्मी (सही) संतान हैं? या आपके शब्द अविश्वासियों के शब्दों जैसे ही होंगे?

अनेक विश्वासियों की बोली शुद्ध नहीं हो सकी है क्योंकि उन्होंने यीशु के शब्दों को गंभीरता से नहीं लिया है। और यह इसलिए है क्योंकि वे परमेश्वर का भय नहीं मानते। वे परमेश्वर से ज़्यादा मनुष्यों का भय मानते हैं। अगर हम परमेश्वर के वचन को गंभीरता से लेने की आदत नहीं डालेंगे, तो हम अपने जीवन में किसी भी तरह की आत्मिक उन्नति की उम्मीद नहीं कर सकेंगे।

याकूब 1:26 कहता है, "अगर कोई अपने आपको भक्त समझे और अपनी जीभ पर लगाम न लगाए, तो वह अपने हृदय को धोखा देता है, और उसकी भक्ति व्यर्थ है।"

अगर एक व्यक्ति अपनी जीभ को वश में नहीं रख सकता, तो उसकी मसीहियत व्यर्थ है - क्योंकि, जैसा यीशु ने कहा, कि जो शब्द हम बोलते हैं, वही यह दर्शाते हैं कि हमारा हृदय कैसा है। "...क्योंकि जो हृदय में भरा होता है, वही मुँह पर आता है" (मत्ती 12:34)। हम अपनी जीभ को कैसे इस्तेमाल करते हैं, वह हमारी आत्मिक दशा का सबसे स्पष्ट संकेत होता है।

यह एक और उदाहरण हैः परमेश्वर का वचन कहता है कि एक पति को अपनी पत्नी से कभी कड़वाहट से भरा व्यवहार नहीं करना चाहिए। "पतियों, अपनी पत्नी से प्रेम करो, और उनके साथ कटु व्यवहार न करो" (कुलु. 3:19)।

इसका क्या अर्थ है? क्या यह वचन एक पति को एक बार भी उसकी पत्नी के ख़िलाफ कड़वाहट से भर जाने की अनुमति देता है? हम यह जानते हैं कि जब परमेश्वर का वचन हमें व्यभिचार या हत्या न करने के लिए नहीं कहता है, तो हमें ऐसे पाप एक बार भी नहीं करने चाहिए। लेकिन, जब हम यह पढ़ते हैं कि एक पति को अपनी पत्नी से कभी कड़वाहट-भरा व्यवहार नहीं करना चाहिए, तब यह बात भी हमें वैसे ही प्रचण्ड रूप में प्रभावित नहीं करती है। ऐसा क्यों होता है? इसलिए क्योंकि परमेश्वर के वचन में से हम ख़ुद ही चुन कर यह तय कर लेते हैं कि उसकी कौन सी आज्ञाएं गंभीर हैं और कौन सी गंभीर नहीं हैं। हमें यह अहसास नहीं होता कि परमेश्वर के पूरे वचन को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है।

जो परमेश्वर के पूरे वचन को गंभीरता से लेते हैं, वे हर बार नाकाम होने पर अपने पाप के लिए विलाप करेंगे। तब वे पवित्र-आत्मा से सान्त्वना (शक्ति) पाएंगे और एक जयवंत जीवन में पहुँचाए जाएंगे। "धन्य हैं वे जो शोक करते हैं, क्योंकि वे सान्त्वना (शक्ति) पाएंगे" (मत्ती 5:4)।

इसलिए, जय का यह एक और रहस्य हैः परमेश्वर के हरेक शब्द को गंभीरता से लें, और जब भी आप परमेश्वर के मानक मापदण्ड को छूने से चूक जाएं, तो अपने पाप के लिए शोक मनाएं।

तब आप यह साबित कर सकेंगे कि आप परमेश्वर का भय मानते हैं - और परमेश्वर का भय उस बुद्धि का आरम्भ होता है जो एक जय के जीवन में ले जाती है।

जो लोग आत्मा में दीन और टूटे मन वाले हैं, और जो परमेश्वर के वचन के आगे थरथराते हैं, परमेश्वर उन पर कृपा करता है और उनसे प्रसन्न रहता है।

"मैं ऐसे व्यक्ति पर दृष्टि करूँगा, जो दीन और टूटे मन का हो, और जोमेरे वचन के कारण थरथराता हो" (यशा. 66:2)।

अध्याय 4
परमेश्वर का सारा बर्ताव प्रेम में होता है

परमेश्वर ने हमेशा मनुष्य से आज्ञापालन चाहा है। पुरानी वाचा में इस्राएलियों को पालन करने के लिए आज्ञाएं दी गई थीं। लेकिन उन्हें यह पता चला कि वे परमेश्वर की आज्ञाओं का एक सिद्ध रूप में पालन नहीं कर सकते।

नई वाचा में, परमेश्वर यह प्रतिक्षा करता है वह उसकी व्यवस्था को हमारे मनों और हृदयों में लिख देगा कि फिर हम न सिर्फ उसकी आज्ञापालन करेंगे, बल्कि उसके आज्ञापालन से प्रेम करेंगे। परमेश्वर की यह प्रतिज्ञा हैः "मैं अपना आत्मा तुम में डालूँगा और अपनी विधियों पर चलाऊँगा, और तुम मेरे नियमों का सावधानी से पालन करोगे" (यहेज. 36:27)।

परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करने द्वारा ही हम उसके साथ सहभागिता कर सकते हैं।

लेकिन आज्ञापालन एक ऐसी बात है जिसे अनेक विश्वासियों ने समझा ही नहीं है। ज़्यादातर विश्वासियों ने "कृपा" को इतना ग़लत समझ लिया है कि वे आज्ञापालन को ऐसा समझते हैं कि उसकी ज़रूरत सिर्फ पुरानी वाचा में ही थी। इसका नतीजा यह हुआ है कि परमेश्वर की आज्ञाओं को एक भारी बोझ समझा जा रहा है। यह एक शैतानी धोखा है। यह परमेश्वर के प्रेम की अज्ञानता की वजह से है। परमेश्वर की सारी आज्ञाएं हमारी भलाई के लिए हैं और उनका उद्देश्य हमें मुक्त करना है। वे सभी एक ऐसे परमेश्वर के हृदय में से आती हैं जो हमसे एक सिद्ध रूप में प्रेम करता है।

मूसा कहता है (परमेश्वर द्वारा सीनै पर्वत पर इस्राएल के लिए व्यवस्था देने के बारे में) "परमेश्वर के दाहिने हाथ में उसके लोगों के लिए ज्वालामय व्यवस्था थी; निःसंदेह (यह साबित करता है कि) वह अपनी प्रजा से प्रेम करता हैय् (व्य.वि. 33:2,3 कोष्ठक)। यह सच्चाई कि परमेश्वर ने हमें उसकी व्यवस्था दी है, हमारे प्रति उसके गहरे प्रेम का प्रमाण है।

परमेश्वर की कुछ आज्ञाओं में हमें अपनी ख़ुदी से इनकार करने की ज़रूरत होती है। लेकिन आगे जाकर हमें यह समझ आ जाता है कि वे हमारे सर्वश्रेष्ठ के लिए ही थीं। एक पिता अपने बच्चों पर बोझ लादने या उनका नुक़सान करने के लिए नहीं, बल्कि उनकी मदद करने के लिए उन्हें आज्ञाएं देता है। हमें परमेश्वर द्वारा दी गई आज्ञाओं को भी इसी तरह देखने की ज़रूरत है। विश्वास होने का अर्थ ऐसे परमेश्वर में भरोसा रखना है जो उसके प्रेम में सिद्ध है। जब हममें ऐसा विश्वास होता है, तब हम किसी भी क़ीमत पर परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करने से हर्षित होंगे।

हमारी ज़्यादातर हार की वजह यहीं पाई जा सकती है। शैतान ने लोगों को यक़ीन दिला दिया है कि परमेश्वर की आज्ञाएं या तो ज़रूरी नहीं हैं, या वे एक बोझ हैं। अगर हमें यह समझ नहीं आता है कि परमेश्वर हमें कुछ करने के लिए क्यों बुलाता है, तो इससे सिर्फ हमारी ही अपरिपक्वता साबित होती है। एक दिन, जब हम ज़्यादा परिपक्व हो जाएंगे, तब हम समझ सकेंगे।

जब बच्चों को स्कूल जाने के लिए मजबूर किया जाता है, तब वे यह नहीं समझ पाते कि उनके माता-पिता उन्हें घर में रहकर खेलने क्यों नहीं देते। वे यह सोच सकते हैं कि वे उनके साथ बहुत कठोरता कर रहे हैं। लेकिन यह प्रेम है जो उन माता-पिताओं को उनके बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए मजबूर करते हैं।

छोटे बच्चों की तरह, हम भी अक्सर परमेश्वर के तरीक़ों को नहीं समझ पाते। लेकिन अगर हम उसके प्रेम में विश्वास करें, तो हम बिना कोई सवाल किए उसके वचन का पालन करेंगे और सहर्ष हमारे साथ उसके सारे व्यवहार के अधीन हो जाएंगे।

पीड़ा का मामला देखें। एक प्रेम का परमेश्वर हमें पीड़ा में से क्यों गुज़रने देता है? यह इसलिए है क्योंकि पीड़ा हमारी आत्मिक शिक्षा के पाठ्यक्रम का एक हिस्सा है। पीड़ा के द्वारा ही परमेश्वर हमें परिपक्वता की तरफ ले जाता है। अगर आपको पीड़ा सहने का ज़्यादा मौक़ा नहीं मिला है, तो यक़ीनन अपने जीवन में आप आत्मिक मूल्य वाली ज़्यादा बातें नहीं सीख पाए होंगे।

पिछली बार थोड़ी पीड़ा होने पर आप शायद इतना ज़्यादा कुड़कुड़ाए थे और इतनी शिकायत की थी, कि अब परमेश्वर आपके मनमाने मार्ग पर जाने देता है। यह एक दुःखद बात होती है जब परमेश्वर आपको इस तरह अलमारी में ऊपर चढ़ा देता है। परमेश्वर द्वारा इस तरह अलग हटा दिए जाने की बजाए, मैं अपने जीवन में प्रतिदिन पीड़ा सहना ज़्यादा पसन्द करूँगा।

जब परमेश्वर हमें पीड़ाओं में से लेकर गुज़रे, तो दूसरों के साथ अपनी तुलना करना हमारे लिए एक मूर्खता की बात होती है। यह ऐसा ही है जैसे आपके बच्चे यह देख कर हैरान-परेशान हो जाएं कि जबकि झोंपड़-पट्टी में रहने वाले ग़रीब बच्चे सारा दिन मिट्टी में खेल सकते हैं तो उन्हें क्यों स्कूल जाना पड़ता है। हमारे साथ परमेश्वर का सारा बर्ताव प्रेम में होता है। वह चाहता कि हम प्रसन्न रहें - संसार की सतही, बुलबुले जैसी प्रसन्नता नहीं, बल्कि वह गहरी और सनातन प्रसन्नता जो जीवन की पवित्रता के जीवन में से आती है। और पीड़ा में से गुज़रने के अलावा पवित्र होने का दूसरा कोई तरीक़ा नहीं होता।

"वह हमारे भले के लिए हमारी ताड़ना करता है, कि हम उसकी पवित्रता में सहभागी हो जाएं" (इब्रा. 12:10)।

इस पृथ्वी पर चलने-फिरने वाले सभी मनुष्यों में यीशु सबसे प्रसन्न मनुष्य था। फिर भी उसने ही सबसे ज़्यादा पीड़ा सही। उसकी प्रसन्नता एक आसान और सुख-सुविधा वाले जीवन में से नहीं बल्कि पिता की इच्छा पूरी करने में से आती थी। वह अपने पिता को एक सिद्ध प्रेम के रूप में जानता था, इसलिए उसने आनन्द के साथ वह सब कुछ स्वीकार किया जो पिता ने उसकी ओर भेजा था। उसके जीवन का यही रहस्य था।

अध्याय 5
परमेश्वर हमसे यीशु के समान प्रेम करता है

सारी आत्मिक मुश्किलों का मूल कारण हमारा परमेश्वर को एक प्रेमी पिता और सर्व-शक्तिशाली परमेश्वर के रूप में न जानना होता है।

मेरे मसीही जीवन को आंदोलित करने वाले सत्यों में से एक यह है कि पिता हमसे वैसा ही प्रेम करता है जैसा उसने यीशु से किया था।

यीशु ने पिता से प्रार्थना की, "कि संसार यह जाने... कि जैसा तूने मुझ से प्रेम किया वैसे ही उनसे भी प्रेम किया है" (17:23)। यीशु ने यहाँ यह प्रार्थना की कि हमारे आसपास के लोगों को यह सत्य मालूम हो जाए। लेकिन इससे पहले कि यह बात संसार को समझ में आए, हमारे अपने हृदय इस सत्य में एक शिकंजे की तरह जकड़े जाने के लिए चाहिए।

एक परिकाल्पनिक रूप में सभी मसीही स्वर्ग में रहने वाले एक प्रेमी पिता में विश्वास करते हैं। लेकिन यह सच्चाई कि वे अक्सर आशंकित व चिंतित, और असुरक्षित व भयभीत रहते हैं, यह साबित करता है कि उनके हृदय की गहराई में वे इस बात पर विश्वास नहीं करते।

ऐसे लोग बहुत कम हैं जो यह विश्वास करने का दुस्साहस करेंगे कि परमेश्वर उनसे उतना ही प्रेम करता है जितना वह यीशु से करता है! अगर यीशु ने यह बात हमें ऐसे स्पष्ट रूप में न बताई होती, तो हममें से कोई भी ऐसे सत्य पर विश्वास करने का दुस्साहस न कर पाता।

एक बार जब आपकी आँखें इस सत्य की तरफ खुल जाती हैं, तो जीवन के प्रति आपका पूरा नज़रिया ही बदल जाएगा। आपके जीवन में से सारी कुड़कुड़ाहट, हताशा और विषाद पूरी तरह से मिट जाएंगे। मैं जानता हूँ कि ऐसा हो सकता है, क्योंकि मेरे साथ ऐसा हुआ है।

मैं बहुत सालों तक हताशा के बंधनों में जकड़ा और हारा हुआ था। मेरे लिए वह परमेश्वर की इच्छा नहीं थी, लेकिन मैं उस शिकंजे में से छूट ही नहीं पा रहा था। लेकिन जब से मेरी आँखें इस सत्य की तरफ खुली हैं कि परमेश्वर मुझ से वैसा ही प्रेम करता है जैसा वह यीशु से करता है, तब से मेरे लिए सब बातें बदल गई थीं। अब मैं यह देख सकता हूँ कि जो कुछ मेरी तरफ आता है, वह एक प्रेमी पिता के हाथ में से आता है। मैंने यह देख लिया है कि वह मेरी देखभाल अपनी आँख की पुतली की तरह करता है, इसलिए अब मेरे जीवन के कोई भी हालात मुझे कुड़कुड़ाने वाला और हताश हो जाने वाला नहीं बना सकते। जैसा पौलुस ने कहा, मैंने भी अपने सब हालातों में संतुष्ट रहने और परमेश्वर की स्तुति करते रहने का भेद जान लिया है।

"प्रभु में सदा आनन्दित रहो, मैं फिर कहता हूँ, सदा आनन्दित रहो! ... मैं अपने किसी अभाव के कारण यह नहीं कहता, क्योंकि मैंने अपनी प्रत्येक परिस्थिति में संतुष्ट रहना सीख लिया है" (फिलि. 4:4,11)।

"प्रत्येक परिस्थिति में धन्यवाद दो, क्योंकि मसीह यीशु में तुम्हारे लिए परमेश्वर की यही इच्छा है" (1 थिस्स. 5:18)।

अब यह बात मेरे जीवन की अटल बुनियाद हैः परमेश्वर मुझसे वैसा ही प्रेम करता है जैसा वह यीशु से करता है।

ऐसा नहीं है कि आपके पर्याप्त उपवास और प्रार्थना न कर पाने कि वजह से आप एक जयवंत जीवन में प्रवेश नहीं कर पा रहे हैं। जय हमारी अपनी कोशिश से नहीं विश्वास से मिलती है। "किस बात में विश्वास करने से?" - आप यह सवाल पूछ सकते हैं। आपके लिए परमेश्वर के सिद्ध प्रेम में विश्वास करने से।

अनेक विश्वासियों को शैतान ऐसी बातों में दोषी ठहरा कर दबाए रखता है जैसे "तुम पर्याप्त उपवास नहीं कर रहे हो। तुम पर्याप्त प्रार्थना नहीं कर रहे हो। तुम पर्याप्त साक्षी नहीं दे रहे हो। तुम पर्याप्त बाइबल अध्ययन नहीं कर रहे हो" आदि। वे ऐसे आत्म-दोष से भरे विचारों में गोते खाते हुए लगातार गतिविधियों और मरे हुए कामों के निरंतर चलते रहने वाले चक्रों में फँसे रहते हैं।

क्या आपको यह समझ आता है कि अगर आपके अनुशासन, उपवास, प्रार्थना, दसवांश, साक्षी आदि का मूल (जड़) परमेश्वर के प्रेम में नहीं है, तो वे सब मरे हुए काम हैं? और आपका मूल तब तक प्रेम में नहीं हो सकता जब तक पहले आप स्वयं परमेश्वर के प्रेम में दृढ़ता से जड़ पकड़े हुए नहीं होंगे।

इफिसियों के मसीहियों के लिए पौलुस की यही प्रार्थना थी कि वे परमेश्वर के प्रेम में जड़ पकड़ कर स्थिर हो जाएं; "कि वह (परमेश्वर) अपनी महिमा के धन के अनुसार तुम्हें यह दान दे कि तुम उसके आत्मा के द्वारा अपने भीतरी मनुष्यत्व में सामर्थ्य पाकर बलवान होते जाओ, और विश्वास के द्वारा मसीह तुम्हारे हृदयों में निवास करे कि तुम प्रेम में नींव डालो और जड़ पकड़ सको..." (इफि. 3:16,17)।

इफिसियों के मसीही पहले ही मन फिराए हुए और पवित्र-आत्मा में नया जन्म पाए हुए थे। फिर भी उन्हें भीतरी मनुष्य में नया बल पाने की ज़रूरत थी कि वे उनके लिए परमेश्वर के सिद्ध प्रेम में जड़ पकड़ कर स्थिर हो सकें जिससे कि वे उस प्रेम की चौड़ाई, लम्बाई, ऊँचाई और गहराई को समझ सकें। इसके बाद ही पौलुस ने फिर उन दान-वरदानों की बात की जिनके द्वारा मसीह की देह को उन्नत किया जा सकता है। "हम में से प्रत्येक को मसीह के दान के परिमाण के अनुसार कृपा प्रदान की गई है... उसने कुछ को प्रेरित, कुछ को नबी, कुछ को सुसमाचार-प्रचारक, कुछ को पास्टर, और कुछ को शिक्षक नियुक्त करके दे दिया, कि पवित्र लोग सेवा-कार्यों के योग्य बनें और मसीह की देह उन्नति करे" (इफि. 4:7,11,12)।

परमेश्वर के प्रेम की यह सिद्ध सुरक्षा हमेशा हमारा आधार होनी चाहिए। अगर हमारी सेवकाई को प्रभावशाली होना है, तो हमें उसमें जड़ पकड़ कर दृढ़ होना चाहिए।

एक दूसरी जगह, नई वाचा में इस बात को "विश्राम में प्रवेश करना" कहा गया है। प्रेरित कहता है, "हम जो विश्वास करते हैं (हमारे लिए परमेश्वर के सिद्ध प्रेम में), उसके विश्राम में प्रवेश पाते हैं" (इब्रा. 4:1,2)। फिर वह हमसे आग्रह करता है कि हम अपने पूरे हृदय से इस विश्राम में प्रवेश करने के लिए प्रयत्नशील रहेंः "इसलिए हम इस विश्राम में प्रवेश करने के लिए प्रयत्नशील रहें, कहीं ऐसा न हो कि आज्ञा न मानने वालों की तरह किसी व्यक्ति का पतन हो जाए" (इब्रा. 4:11)। जब हम परमेश्वर के प्रेम की सुरक्षा में सिद्ध "विश्राम" नहीं पा रहे होते, तो हमारा आसानी से पतन हो हो सकता है।

जगत में ऐसे लोग भरे पड़े हैं जो उनसे प्रेम करने वाले एक व्यक्ति की खोज में हैं। अनेक मसीही प्रेम की खोज में एक कलीसिया से दूसरी कलीसिया में घूमते रहते हैं। कुछ लोग मित्रता में तो कुछ विवाह में प्रेम की खोज करते हैं। लेकिन इस सारी खोज के अंत में निराशा हो सकती है। अनाथ बच्चों की तरह, आदम के बच्चे असुरक्षित हैं, जिसकी वजह से वे बार-बार स्वयं अपनी ही नज़र में दया के पात्र बनते रहते हैं। अफसोस की बात यह है, कि उनके मन-फिराव के बाद भी अनेक लोग असुरक्षित महसूस करते हैं, जबकि उन्हें ऐसा करने की कोई ज़रूरत नहीं है।

सुसमाचार में इस समस्या का क्या जवाब है? इसका जवाब है कि हमें अपनी सुरक्षा परमेश्वर के प्रेम में पानी है।

यीशु ने अपने शिष्यों से यह बार-बार कहा कि उनके सिर के बाल भी गिने हुए हैं, और वह परमेश्वर जो करोड़ों पक्षियों को खिलाता है और करोड़ों फूलों को सजाता है, उनकी देखभाल भी ज़रूर करेगा।

और इन सब बातों से भी आगे बढ़कर जो तर्क किया जा सकता है, वह यह हैः "वह जिसने अपने पुत्र को भी नहीं छोड़ा परन्तु उसे हम सब के लिए दे दिया, तो वह उसके साथ हमें सब कुछ उदारता से क्यों न देगा?" (रोमि. 8:32)।

जैसे परमेश्वर ने यीशु की देखभाल की थी, वैसे ही वह हमारी भी देखभाल करेगा।

परमेश्वर कभी-कभी हमारे साथी-मनुष्यों से हमें इसलिए निराश होने देता है, क्योंकि वह हमें यह सिखाना चाहता है कि हम मनुष्यों पर भरोसा करना छोड़ दें। वह हमें ऐसी मूर्तिपूजा से छुड़ाना चाहता है (क्योंकि मनुष्यों पर भरोसा करना एक प्रकार की मूर्तिपूजा ही है), कि हम फिर पूरी तरह से सिर्फ उस पर ही भरोसा रखना सीखें। इसलिए अगर परमेश्वर आपके हालातों को इस तरह तैयार करे जिससे आपको चारों तरफ से निराश होना पड़े, तो उससे आपको हतोत्साहित नहीं हो जाना चाहिए। वह परमेश्वर का एक ऐसा काम है जिसमें वह सिर्फ आपका दूध छुड़ा कर आपको शारीरिक बाहों में से दूर कर रहा है, कि फिर आप विश्वास से उसमें जीना सीख सकें। इस सच्चाई में अपनी सुरक्षा पाना सीखें कि परमेश्वर आपसे वैसा ही प्रेम करता है जैसा उसने यीशु से प्रेम किया था।

मसीहियों के बीच होने वाली सारी प्रतियोगिता और ईर्ष्या इस असुरक्षा की वजह से ही होती है। वह जो परमेश्वर के प्रेम में सुरक्षित है, और जो यह विश्वास करता है कि जैसा वह है उसे वैसा बनाने में, और जो दान-वरदान और योग्यताएं उसके पास हैं उसे वे देने में परमेश्वर ने कोई ग़लती नहीं की है, वह कभी दूसरों से न तो कोई ईर्ष्या और न ही कोई प्रतियोगिता कर सकेगा। और विश्वासियों के बीच के आपसी सम्बंधों की सभी समस्याओं का कारण भी मूल रूप में यही असुरक्षा है।

ज़रा सोचें कि अगर आपकी आँखें इस एक सत्य की तरफ खुल जाएं, कि परमेश्वर आपसे बिलकुल यीशु की तरह ही प्रेम करता है, तो आपकी कितनी समस्याएं हल हो जाएंगी।

अध्याय 6
हरेक परीक्षा में परमेश्वर का एक उद्देश्य होता है

जब हमें यह नज़र आ जाता है कि परमेश्वर हमारे जीवन में जो कुछ भी होने दे रहा है उसमें उसका एक उद्देश्य, एक महिमा से भरा उद्देश्य है, तब हमारा जीवन अद्भुत बन जाता है। अगर वह हमारी प्रार्थनाओं के जवाब में "नहीं" कहता है, तो वह भी एक ऐसा जवाब है जो सिद्ध प्रेम से भरे हृदय में से आया है।

परमेश्वर ने जंगल में जब इस्राएलियों को डसने के लिए ज़हरीले साँप भेजे थे, तब क्या वह भी उसने प्रेम से किया था? "तब परमेश्वर ने उनमें विषैले सर्प भेजे जिन्होंने लोगों को डसा और बहुत से इस्राएली मर गए" (गिनती 21:6)। निश्चय ही वह एक प्रेम का काम था, क्योंकि परमेश्वर ने उसे एक ऐसे माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया जिसके द्वारा इस्राएली मन फिरा कर वापिस उसके पास आ सके और फिर वह उन्हें आशिष दे सका। वह उन्हें आशिष देना चाहता था, लेकिन उनके मन फिराए बिना वह उन्हें आशिष नहीं दे सकता था।

"मैं उन योजनाओं को जानता हूँ जिन्हें मैंने तुम्हारे लिए बनाया हैं; ऐसी योजनाएं जो हानि की नहीं परन्तु तुम्हारे कुशल की हैं, कि तुम्हें उज्ज्वल भविष्य और आशा दूँ" (यिर्म. 29:11)।

परमेश्वर ने इस जगत को एक बेचैनी से भरी जगह - रोग, बीमारी और ज़हरीले साँप आदि, की जगह इसलिए बनने दिया है कि फिर लोग उनके दुःख में उसकी तरफ मन-फिरा सकें कि फिर वह उन्हें आशिष दे सके। इस तरह, हम यह देख सकते हैं कि परमेश्वर कैसे (शैतान द्वारा पैदा की गई) बुराई को भी अपने उद्देश्य पूरे करने के लिए इस्तेमाल करता है।

जब छुटकारा पाए हुए सभी लोग अनन्त में मिलेंगे और एक-दूसरे की कहानियाँ सुनेंगे, तब हम पूरी तरह से यह जान पाएंगे कि परमेश्वर ने कैसे साँप के काटने, आर्थिक परेशानियों, कैन्सरों आदि, को इस्तेमाल किया था कि फिर लोग पाप से मन फिरा कर उसके बच्चे बन जाएं। हम यह भी सुनने पाएंगे कि परमेश्वर ने कैसे पीड़ा को अपने बच्चों को शुद्ध करने के लिए इस्तेमाल किया था कि फिर उसके बच्चे उसके स्वभाव में सहभागी हो सकें।

उस दिन हम ऐसी बहुत सी बातों के लिए परमेश्वर को धन्यवाद देंगे जिन्हें हम आज पृथ्वी पर रहते हुए नहीं समझ पाए थे। लेकिन एक विश्वास वाले व्यक्ति को उस दिन तक इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं है। वह परमेश्वर की बुद्धि और प्रेम में अभी और यहीं विश्वास करता है, और इसलिए उसने पहले ही सब बातों के लिए धन्यवाद देना शुरु कर दिया है।

हमारे साथ किए जाने वाले परमेश्वर के सारे बर्ताव का अंतिम उद्देश्य यही है कि हम उसके स्वभाव में सहभागी हो जाएं। परमेश्वर सारी बातों को मिलाकर हमारे लिए भला ही करता है - जिसमें भली बात यह है कि हम उसके पुत्र की समानता में बदल जाएं।

"जो लोग परमेश्वर से प्रेम रखते हैं, अर्थात् उसके भले अभिप्राय के अनुसार बुलाए गए हैं, उनके लिए वह सब बातों के द्वारा भलाई को उत्पन्न करता है, क्योंकि जिनके विषय में उसे पूर्वज्ञान था, उसने उन्हें पहले से ठहराया भी कि वे उसके पुत्र की समानता में बदल जाएं, जिससे कि वह बहुत से भाइयों में पहलौठा ठहरे" (रोमियों. 8:28,29)।

परमेश्वर ऐसा क्यों होने देता है कि अचानक ही हमारे पैसे खो जाते हैं, या हमारे साथ धोखेबाज़ लोग बेईमानी कर लेते हैं। हममें से अनेक लोगों का यह अनुभव है कि भीड़-भरी रेलों या बसों में हमारी जेब कट गई है। ऐसे मौक़ों पर मैंने हमेशा ही चोर या धोखेबाज़ व्यक्ति के लिए प्रार्थना करना याद रखा है। लेकिन इसके अलावा, परमेश्वर यह भी चाहता है कि धन या भौतिक वस्तुओं से हमारा ज़्यादा लगाव न रहे और उनकी तरफ से हममें एक अलगाव पैदा हो। वह यह नहीं चाहता कि हम ऐसा हिसाब लगाने वाले बन जाएं जो ख़र्च होने वाले हरेक रुपए का शोक मनाएं और पाने वाले हरेक रुपए का आनन्द मनाएं! वह चाहता है कि हम अपना आनन्द उसमें पाएं - ऐसा आनन्द जो किसी भौतिक लाभ से बढ़ नहीं सकता और किसी भौतिक लाभ से घट नहीं सकता।

यीशु पृथ्वी पर इसी तरह चला था - और हमसे यह कहा गया है कि हम भी वैसे ही चलें जैसे वह चलता था। बाइबल कहती है, "अपने में वही स्वभाव रखो जो मसीह यीशु में था" (फिलि. 2:5)।

अगर किसी ने यीशु की सेवकाई का आभार मानते हुए उसे दस हज़ार दिनार भेंट में दिए होते, तो उससे यीशु के आनन्द में मामूली सी भी वृद्धि नहीं होती। उसका आनन्द पहले ही पिता में परिपूर्ण और उमड़ता-छलकता हुआ था।

इसी तरह, किसी भौतिक नुक़सान के द्वारा भी यीशु का आनन्द कम नहीं हो सकता था। यहूदा इस्करियोती अक्सर यीशु को भेंट स्वरूप दी जाने वाली धनराशि में से पैसे चुराता रहता था। यीशु को इसकी पूरी जानकारी थी, और हालांकि उसे यहूदा के लिए दुःख हो रहा होगा, फिर भी वह सिर्फ धन की हानि से कभी विचलित नहीं हुआ था।

लेकिन आज के प्रचारकों की कहानी कितनी भिन्न है, और परमेश्वर के लोगों द्वारा दी जाने वाली भेंटों के प्रति उनके मनोभाव कितने अलग हैं! लेकिन हम प्रचारकों को उनके हाल पर ही छोड़ दें! हमारे बारे में क्या है? क्या हमारा आनन्द भौतिक वस्तुओं से बढ़ या घट सकता है? अगर हाँ, तो हमें अपना न्याय करते हुए, अपने उद्धार को बाहरी तौर पर काम करने देने की ज़रूरत है।

अगर हम वास्तव में यीशु के जीवन में सहभागी होना चाहते हैं, तो परमेश्वर आपको भौतिक वस्तुओं के प्रेम से, मनुष्यों का सम्मान पाने की इच्छा में से, अपनी ही नज़र में दया का पात्र बनने से, और ऐसे अनेक मनोभावों में से छुटकारा दिलाने के लिए आपके साथ ऐसी 1001 बातें होने देगा जो मसीह-समान नहीं हैं।

अगर आप उस रास्ते पर जाना न चाहेंगे, तो वह आपको जाने के लिए मजबूर नहीं करेगा। अगर आप अपने आसपास के ज़्यादातर विश्वासियों की तरह एक निचले स्तर का, हारा हुआ जीवन बिताना चाहते हैं, तो वह आपको आपके हाल पर छोड़़ देगा।

लेकिन अगर आप परमेश्वर का सर्वश्रेष्ठ पाने के लिए प्यासे हैं, तो वह आपके साथ निर्ममता से व्यवहार करेगा - आपको बर्बाद कर रहे सारे कैंसरों (असाध्य रोगों) को काट कर फेंकेगा और उन मूर्तियों का नाश करेगा जो आपको भ्रष्ट करती हैं। वह आपको पीड़ा, निराशा, हानि, टूटी आशाएं, तिरस्कार, अन्याय से भरी आलोचना, आदि, सब सहने देगा, कि आपको एक स्थिरता की जगह पर लाए - ऐसी जगह जहाँ से आपको फिर हिलाया न जा सके।

उसके बाद आपको अमीर या ग़रीब होने, आपकी आलोचना या प्रशंसा होने, या आपका सम्मान या अपमान होने से कोई फर्क़ नहीं पड़ेगा। इस संसार की हरेक बात की तरफ से मसीह की मृत्यु में उतर जाने के बाद, आप यीशु के उस जीवन में से पाने वाले बन जाएंगे, जो आपको इस पृथ्वी पर एक राजा की तरह चलने वाला बना देगा।

"हम यीशु की मृत्यु को सदा अपनी देह में लिए फिरते हैं, कि यीशु का जीवन हमारी देह में प्रकट हो" (2 कुरि. 4:10)।

ऐसे लोग कम ही हैं जो मसीह में इस भरपूर जीवन का मार्ग पाते हैं क्योंकि वे लोग कम ही हैं जो इसकी क़ीमत चुकाने को तैयार हैं - ख़ुदी को पूरी तरह से ख़त्म कर देने के लिए। अगर हम अपनी ख़ुदी के लिए नहीं मरेंगे, तो हम विश्वास का जीवन नहीं जी सकेंगे। अगर हम मसीह के साथ सूली पर मरने के लिए तैयार नहीं होंगे, तो परमेश्वर के सिद्ध प्रेम का हमारा ज्ञान सिर्फ अनुमानित ही रहेगा। अगर हम वह सब कुछ नहीं त्यागते जो इस संसार का है, तो हम यीशु के शिष्य नहीं हो सकते।

यीशु ने कहा, "जब तक कोई अपनी सारी सम्पत्ति को त्याग नहीं देता, तब तक वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता" (लूका 14:33)।

हमने पहले यूहन्ना 17:23 को देखा थाः "मैं उनमें और तू मुझमें, कि वे सिद्ध होकर एक हो जाएं, जिससे संसार जाने कि तूने मुझे भेजा है, और जैसे तूने मुझसे प्रेम किया है, वैसे ही उनसे किया है।"

यीशु वहाँ संसार या शारीरिक मसीहियों के लिए प्रार्थना नहीं कर रहा था। वह अपने उन ग्यारह शिष्यों के लिए प्रार्थना कर रहा था जिन्होंने उसके पीछे चलने के लिए अपना सब कुछ छोड़ दिया था। वे शिष्य पिता के उस प्रेम में सुरक्षा पा सकते थे जो शारीरिक मसीही और सांसारिक लोग कभी नहीं जान सकते थे।

एक मसीही एक शारीरिक मसीही कैसे हो सकता है? क्या यह इसलिए नहीं कि शैतान ने उसे भरमा कर ऐसा सोचने वाला बना दिया है, कि अगर वह स्वयं को पूरी तरह परमेश्वर को नहीं सौंपेगा, तो वह ज़्यादा प्रसन्न रह सकेगा? और फिर (जैसी एक कहावत भी है), वह "दोनों जहान् की सारी दौलत हासिल करने" की कोशिश करने लगता है। लेकिन यह एक धोखा है।

अगर हम परमेश्वर के सिद्ध प्रेम में विश्वास करते, तो हम सहर्ष बिना कुछ भी सोचे-समझे उसके लिए सब कुछ त्याग देते। तब हम पूरी तरह से चिंतामुक्त हो जाते।

फिलिप्पियों 4:6,7 हमें यह आज्ञा देता हैः "किसी भी बात की चिंता न करो, लेकिन हरेक बात में प्रार्थना और निवेदन द्वारा तुम्हारी विनती धन्यवाद के साथ परमेश्वर के सम्मुख प्रस्तुत की जाए।" तब परमेश्वर की शांति, जो समझ से परे है, तुम्हारे "हृदय और तुम्हारे विचारों को मसीह यीशु में सुरक्षित रखेगी।"

अध्याय 7
आपकी क्षमता से ज़्यादा आप नहीं परखे जाएंगे

1 कुरिन्थियों 10:13 एक महिमामय वचन है। हममें से हरेक के लिए उसमें ज़बरदस्त तसल्ली रखी है। वह कहता है, "परमेश्वर तो सच्चा है, जो तुम्हें सामर्थ्य से बाहर परीक्षा में पड़ने नहीं देगा, लेकिन परीक्षा के साथ-साथ बचने का उपाय भी करेगा कि तुम उसे सह सको।"

लोग अक्सर कहते हैं कि वे असहनीय परीक्षाओं और पीड़ाओं में से गुज़र रहे हैं। आदम के बच्चों के लिए यह बात सही हो सकती है, लेकिन यीशु के सच्चे शिष्यों के लिए यह हर्गिज़ सही नहीं हो सकती - क्योंकि परमेश्वर ध्यान से हरेक उस परीक्षा और प्रलोभन को देखता रहता है जो उनकी तरफ आती है।

यह हो सकता है कि शैतान और वे जो हमसे घृणा करते हैं, हमें बहुत तरह से सताना चाहें। लेकिन वे परमेश्वर की अनुमति के बिना हम तक नहीं पहुँच सकते। पुरानी वाचा में भी, शैतान को यह अहसास था कि परमेश्वर ने अय्यूब के चारों तरफ एक बाड़ा लगा रखा था।

शैतान ने परमेश्वर से कहा, "क्या तूने उसके, और उसके घर के, और जो कुछ उसका है, उसके चारों तरफ बाड़ा नहीं बाँध रखा है? तूने उसके हाथों के काम पर आशिष दी है, और देश में उसकी सम्पत्ति बढ़ गई है" (अय्यूब 1:10)।

लेकिन अय्यूब को पवित्र करने के लिए, परमेश्वर ने उस बाड़े को खोलने की अनुमति दे दी, और शैतान को उस पर हमला करने की अनुमति दे दी गई। लेकिन वह बाड़ा कितना खोला जाए, यह फैसला परमेश्वर ने किया था। पहले वह थोड़ा (अय्यूब 1), और बाद में और ज़्यादा खोला गया था (अय्यूब 2)। शबा और कसदी लोग, जिन्होंने अय्यूब की सम्पत्ति लूटी थी, वे सभी उस खोले हुए बाड़े में से ही आए थे। "शबा के लोग उन पर टूट पड़े और उनको ले गए। नौकरों को उन्होंने तलवार से मार डाला... कसदी तीन दलों में आए, और ऊँटों पर धावा करके उन्हें ले गए, और उन्होंने नौकरों को तलवार से मार डाला" (अय्यूब 1:15,17)।

वह तूफान जिसने अय्यूब के बच्चों पर उनका घर गिरा दिया था, वह भी बाड़े की उसी खुली हुई जगह में से आया था।

लेकिन वह दरार इतनी बड़ी नहीं थी कि उसमें से बीमारी आकर अय्यूब की देह पर हमला कर सके। लेकिन बाद में, जब परमेश्वर ने उस बाड़े को थोड़ा और खोल दिया, तब उसमें से बीमारी भी आकर अय्यूब पर हमला कर सकी थी। अय्यूब को पहले यह समझ नहीं आया था कि उसके साथ होने वाली सब बातें परमेश्वर के वश में थीं। यह बात उसे पूरी कहानी के अंत में - बहुत बाद में समझ आई। लेकिन हम उस पर दोष नहीं लगा सकते, क्योंकि उसके पास हमारी तरह लिखित वचन नहीं था। लेकिन अब हमारे पास परमेश्वर का वचन है जो हमें यह दिखाता है कि बाड़े के खोला जाना किसके हाथ में हैं।

वह बाड़ा असल में स्वयं परमेश्वर ही है जो हमें आग की दीवार की तरह घेरे हुए है। "मैं स्वयं उसके चारों ओर आग की दीवार और उसके बीच में महिमा ठहरूँगा" (ज़क. 2:5)।

लेकिन, जैसा कि हम पुरानी वाचा में एलीशा के सेवक के बारे में पढ़ते हैं, हमारी आँखें भी अक्सर बंद होती हैं और हमें भी अपने चारों ओर लगी आग की दीवार नज़र नहीं आती। लेकिन एलीशा को वह नज़र आ रही थी, इसलिए उसे कोई डर नहीं था।

"भोर को जब परमेश्वर का सेवक उठकर बाहर गया, तो देखो, घोड़ों और रथों सहित सेना नगर को घेरे हुए थी। तब उसके सेवक ने उससे कहा, 'हाय मेरे स्वामी, हम क्या करें?' उसने जवाब दिया, 'मत डर, क्योंकि जो हमारे साथ हैं वे उनसे ज़्यादा हैं जो उनके साथ हैं।' तब एलीशा ने प्रार्थना की, 'हे परमेश्वर, मैं प्रार्थना करता हूँ, इसकी आँखें खोल दे कि देख सके।' तब परमेश्वर ने सेवक की आँखें खोल दीं, और उसने देखाः एलीशा के चारों तरफ पर्वत तो घोड़ों और आग के रथों से भरा हुआ था" (2 राजा 6:15-17)।

सेवक इसलिए डर रहा था क्योंकि उसे वह नज़र नहीं आ रहा था जो एलीशा देख रहा था। जब एलीशा ने उसके लिए प्रार्थना की, तो उसकी आँखें खुल गईं। तब वह शांत हो गया। हमारी भी आँखें इसी तरह खोले जाने की ज़रूरत होती है।

परमेश्वर यह भी जानता है कि बाड़े को कब बन्द कर देना है। परमेश्वर हमारी आत्मिक क्षमता और उसकी सर्वोच्च महिमा के लिए आगे बढ़ने में हमारी उत्सुकता के अनुसार, वह बहुत ध्यान देकर, और पूरी तरह से हमारे हालातों को उसके नियंत्रण में रखता है।

जब हम आत्मिक रीति से अपरिपक्व और कमज़ोर होते हैं, तब परमेश्वर हमारी तरफ बड़ी परीक्षाएं नहीं आने देगा। और न ही वह शैतान को बड़े हिंसात्मक रूप में हम पर हमला करने देगा। लेकिन इसके साथ ही, अगर परमेश्वर यह देखेगा कि हमारे जीवनों के लिए उसके उद्देश्यों में हमारी दिलचस्पी नहीं है, तो वह हमें एक आसान रास्ते से गुज़र जाने देगा। तब हमारे लिए वह एक अनन्त हानि की बात होगी।

अय्यूब क्योंकि परमेश्वर का एक चुना हुआ सेवक था, इसलिए परमेश्वर उसे ऐसी गहरी पीड़ा में से गुज़रने दिया था। परेश्वर ऐसी पीड़ा की अनुमति हरेक के जीवन में नहीं आने देगा, क्योंकि बहुत कम लोग परिपक्वता के उस स्तर पर पहुँचते हैं जहाँ वे इसे सह सकते हैं। और वैसे भी, ऐसे लोग कम ही हैं जो ऐसी आत्मिक परिपक्वता में दिलचस्पी रखते हैं।

यीशु को उसके पिता ने ऐसी हरेक परीक्षा में से गुज़ारा जिसका हमें कभी सामना करना पड़ सकता है। वह इस तरह से सिद्ध हुआ था।

इब्रानियों 4:15 को देखेंः "क्योंकि हमारा ऐसा महायाजक नहीं है जो हमारी निर्बलताओं में हमसे सहानुभूति न रख सके। वह तो सब बातों में हमारे ही समान परखा गया, फिर भी सब बातों में निर्दोष निकला।"

इब्रानियों 5:7-9 भी देखेंः "अपनी देह में रहने के दिनों में, मसीह ने उससे जो उसे मृत्यु से बचा सकता था ऊँचे स्वर में पुकार कर और आँसू बहा-बहाकर प्रार्थनाएं और विनतियाँ कीं और आज्ञाकारिता के कारण उसकी सुनी गई। पुत्र होने पर भी उसने दुःख सह-सह कर आज्ञापालन करना सीखा। वह सिद्ध ठहराया जाकर, उन सबके लिए जो उसकी आज्ञापालन करते हैं, अनन्त उद्धार का स्रोत् बन गया।"

यीशु ने मनुष्य के रूप में अपनी शिक्षा इस तरह पूरी की और वह सिद्ध हुआ। सिद्ध होने का इसके अलावा दूसरा कोई उपाय नहीं है।

वह सच्चाई की वजह से, कि परमेश्वर हमारे सहने की क्षमता से ज़्यादा बोझ हम पर नहीं डालेगा, हम यह भरोसा कर सकते हैं कि हम हर समय एक जय का जीवन जी सकते हैं। अगर 1 कुरिन्थियों 10:13 में परमेश्वर की यह प्रतिज्ञा हमारे पास न होती, तो हमारे पास यह भरोसा भी नहीं हो सकता था।

परमेश्वर हमें यक़ीन दिलाता है कि जो भी पीड़ा या परीक्षा हमारी तरफ आती है, उस पर जय पाई जा सकती है। फिर हम क्यों गिर जाते हैं?

इसलिए क्योंकि हरेक पीड़ा और परीक्षा में से बच निकलने का जो रास्ता परमेश्वर ने हमारे लिए बनाया है, हम उस पर नहीं चलते।

और बचने का यह रास्ता क्या है?

वह नम्र और दीन होना है - सूली की मृत्यु तक, जैसा यीशु ने किया था। "उसने अपने आपको दीन किया, और यहाँ तक आज्ञाकारी रहा कि मृत्यु - वरन् सूली की मृत्यु को भी सह लिया" (फिलि. 2:8)।

भरपूर जीवन पाने का वह संकरा मार्ग यही है जिसे थोड़े ही लोग पाते हैं। घमण्ड हमारे शरीर में इतनी गहराई तक उतरा हुआ है कि ऐसे लोग बहुत कम हैं जो नम्रता व दीनता का यह महिमामय मार्ग पाते हैं - या यह समझ भी पाते हैं कि स्वयं को नम्र व दीन करने का अर्थ क्या होता है। यह वास्तव में एक रहस्य है - लेकिन परमेश्वर ऐसे हरेक व्यक्ति पर इसे प्रकट करेगा जो पूरे हृदय से इसकी खोज करेगा।

हम यह सोच सकते हैं कि जीवन के दबाव और तनाव हमारे जीने को असहनीय बना देते हैं। लेकिन, असल में, इसकी वजह हमारा घमण्ड है - स्वयं अपने बारे में हमारे ऊँचे विचार; वही हमारे जीना मुश्किल बना देते हैं।

मैंने इस बारे में तब बहुत चिंतन-मनन किया है जब मैं रेल के अनारक्षित डिब्बों में यात्रा किया करता था। बैठने की जगह न होने पर मुझे या तो एक कोने में नीचे ज़मीन पर बैठना पड़ता था या खड़े रहना पड़ता था। डिब्बा रेल यात्रा शुरु होने वाले स्टेशन से ही लोगों और सामान से भर जाता था। और रास्ते के हरेक स्टेशन से गुज़रते हुए यह दशा और ख़राब होती जाती थी। दबाव निरंतर बढ़ता जाता था। तब मैं सोचता था, "यहाँ अगर मैं एक चींटी बन जाऊँ, तो मुझ पर कोई दबाव नहीं रहेगा।" मुझ पर वह दबाव मेरे मनुष्य के आकार की वजह से था। एक मोटे व्यक्ति को तो वह दबाव और भी ज़्यादा महसूस होता होगा! यह सब हमारे आकार पर निर्भर होता है। लेकिन एक चींटी को उस डिब्बे की जगह में काफी आज़ादी महसूस होती, और वह किसी भी तरह का दबाव होने की कोई शिकायत नहीं करती।

लेकिन यह एक आत्मिक जवाब है। अगर बाहर से दबाव बढ़ता है, और मैं अपनी नज़र में छोटा, और छोटा होता जाता हूँ, तो दबाव कम होता जाएगा, और धीरे-धीरे आख़िरकार ख़त्म हो जाएगा। परमेश्वर हमें कम करना चाहता है। और इससे पहले कि वह हमारे द्वारा अपने उद्देश्य पूरे कर सके, उसे हमारी अपनी नज़र में हमें शून्य बनाना पड़ता है।

उदाहरण के तौर पर, हम दूसरों की बातों का बुरा क्यों मानते हैं? क्या इसलिए नहीं क्योंकि हम अपने बारे में, और अपने अधिकारों के बारे में, बहुत ऊँचे विचार रखते हैं? हम सोचते हैं कि लोग हमें वह सम्मान नहीं दे रहे हैं जिसके हम योग्य हैं, या फिर हमें ऐसा लगता है कि वे हमारे अधिकार छीन रहे हैं।

जब लोग पीठ पीछे हमारी बुराई करते हैं, तो हमें बुरा लगता है। हमारा फूल कर कुप्पा हुआ घमण्ड ही हमें ऐसी पीड़ा पहुँचाता है। घमण्ड के इस गुब्बारे में एक सूई चुभा दें, और जब उसकी सारी हवा निकल जाएगी, तब आपको पता चल जाएगा कि अब कोई दबाव नहीं रहा है।

वह भेद यही है। ऐसा हो कि इसे देख पाने के लिए परमेश्वर हमारी आँखें खोल दे।

हमारे आसपास के लोग जबकि एक हज़ार एक बातों के बारे में शिकायत कर रहे होंगे, लेकिन हममें कोई शिकायत नहीं होगी, क्योंकि हमने बचने का रास्ता पा लिया है - अपने आपको नम्र व दीन कर लिया है।

अध्याय 8
परमेश्वर सिर्फ नम्र व दीन लोगों को कृपा देता है

परमेश्वर ऐसा क्यों चाहता है कि हम अपने आपको नम्र व दीन करें, उसकी एक और वजह यह है कि वह हमें अपनी कृपा देना चाहता है। परमेश्वर स्वयं अपने ही विधान की विधियों को नहीं तोड़ सकता - और उसका बनाया हुआ एक विधान यह है कि वह घमण्डियों का तो विरोध करता है, लेकिन नम्र व दीन लोगों पर कृपा करता है (1 पत. 5:5)। वह हमसे चाहे कितना भी प्रेम क्यों न करता हो, लेकिन अगर हम घमण्डी होंगे तो वह हमें कृपा नहीं दे सकेगा। और हमें परमेश्वर से कृपा नहीं मिलेगी, तो हम एक जयवंत जीवन नहीं जी सकेंगे। प्रलोभन की शक्ति पर परमेश्वर की सामर्थ्य से ही जय पाई जा सकती है।

"व्यवस्था तो मूसा के द्वारा आई, लेकिन कृपा और सत्य यीशु मसीह के द्वारा पहुँचे" (यूहन्ना 1:17)। व्यवस्था (पुरानी वाचा) में, लोग उनके हृदयों में प्रलोभनों के खिलाफ़ संघर्ष करते रहे, लेकिन वे हमेशा हारते रहे थे।

तर्शिश के शाऊल ने परमेश्वर के नियमों के बाहरी मापदण्ड के अनुसार एक सिद्ध जीवन बिताया था। फिलिप्पियों 3:6 में उसने अपने जीवन की यह साक्षी दी, "मैं व्यवस्था की धार्मिकता के अनुसार निर्दोष था।" फिर भी उसने यह पाया कि उसके हृदय की विषय-वासना और स्वार्थ के आगे वह शक्तिहीन था। रोमियों 7:8 में वह कहता है, "पाप ने आज्ञा के द्वारा अवसर पाकर मुझमें हर तरह का लालच पैदा किया।"

व्यवस्था लोगों को इस योग्य नहीं बना सकती थी कि वे उनके हृदयों को शुद्ध रख पाते। वैसे भी, व्यवस्था का काम यह नहीं था। व्यवस्था इसलिए दी गई थी कि शरीर की वासनाओं के सामने वह मनुष्य की पापमय और असहाय दशा को प्रकट करे, और दण्ड के भय द्वारा उसे बाहरी पाप से दूर रख सके। एक व्यक्ति का जीवन दूसरे मनुष्यों के सामने व्यवस्था के द्वारा बाहरी तौर पर सिद्ध नज़र आ सकता था। फिर भी उसका हृदय पाप से भरा एक गंदा नाला हो सकता था! व्यवस्था ज़्यादा-से-ज़्यादा बस इतना ही हासिल कर सकती थी।

लेकिन यीशु मसीह के द्वारा नई वाचा की ख़ुश-ख़बरी यह है कि जो काम व्यवस्था न कर सकी, वह कृपा कर सकती है। परमेश्वर की कृपा सिर्फ एक ऐसा उपकार नहीं है जिसके लायक़ हम नहीं हैं। वह इससे बढ़ कर है। वह परमेश्वर की सामर्थ्य है जो हमें पाप पर प्रबल होने योग्य बना सकती है।

2 कुरिन्थियों 12:9 में "कृपा" को "सामर्थ्य" के बराबर माना गया है, क्योंकि वहाँ प्रभु कहता है, "मेरी कृपा तेरे लिए काफी है, क्योंकि मेरी सामर्थ्य निर्बलता में ही सिद्ध होती है।"

जब हम प्रलोभित होते हैं, तब यह कृपा (सामर्थ्य) हमारी मदद करने के लिए आती है। इब्रानियों 4:16 कहता है, "हम साहस के साथ कृपा के सिंहासन के पास आएं कि हम पर दया हो और आवश्यकता के समय हमारी सहायता के लिए कृपा पाएं।"

"हृदय का कृपा से दृढ़ रहना भला है" (इब्रा. 13:9)। तब हम अपने हृदय को वासना और लालच से भ्रष्ट होने से बचाए रख सकेंगे। यह नई वाचा की ख़ुश-ख़बरी है।

इब्रानियों 8:10 कहता है, "मैं अपनी व्यवस्था उनके मनों में डालूँगा, और उसे उनके हृदयों पर लिखूँगा।" पुरानी वाचा (व्यवस्था) में, परमेश्वर ने मनुष्य से कहा, "तू यह करना...", और "तू यह न करना..."। लेकिन (इस पद में) ध्यान दें कि नई वाचा में, परमेश्वर यह कहते हुए स्वयं जि़म्मेदारी ले रहा है, "मैं डालूँगा...", "मैं लिखूँगा..."। परमेश्वर हमारे मनों और हृदयों में कृपा के आत्मा के द्वारा स्वयं अपना काम करता है।

कृपा के द्वारा "स्वयं परमेश्वर, अपनी सुइच्छा के लिए, इच्छा करने और कार्य करने के लिए हममें सक्रिय है" (फिलि. 2:13)। इस तरह "व्यवस्था की धार्मिकता हममें पूरी हो जाती है" (रोमियों. 8:4)। पैन्तुकुस्त के दिन परमेश्वर द्वारा पवित्र-आत्मा उण्डेलने का यह मुख्य उद्देश्य था। परमेश्वर ने "उस दिन यरूशलेम के निवासियों पर कृपा का आत्मा उण्डेला था" (ज़क. 12:10)।

परमेश्वर के सिंहासन से वह नदी आज भी पृथ्वी की तरफ बह रही है। परमेश्वर के स्वर्गीय यरूशलेम (कलीसिया) के निवासी आज भी उसके झरने की धाराओं के नीचे आकर परमेश्वर की कृपा से तर-बतर हो सकते हैं।

तब रोमियों 6:14 की प्रतिज्ञा पूरी हो जाएगी, "पाप तुम पर प्रभुता न करने पाएगा, क्योंकि तुम व्यवस्था के नहीं कृपा के अधीन हो।"

इस झरने के नीचे आने की सिर्फ एक ही शर्त है - और वह यह है कि हम अपने आपको नम्र व दीन करें।

परमेश्वर हमारे पाप, सारे हालात, निराशा-भरे दबाव, बुरे मनोभाव, शैतान, कड़वाहट, घृणा, ईर्ष्या, वासना और हरेक बुराई से हमें ऊँचा उठा सकता है। "अपने आपको परमेश्वर के सामर्थी हाथ के नीचे नम्र व दीन करो, जिससे कि वह तुम्हें उचित समय पर उन्नत करे" (1 पत. 5:6)।

परमेश्वर का सामर्थी हाथ क्या है जिसके नीचे हमें दीन होना है? यह वह हाथ है जो हमारे प्रतिदिन के जीवन में आने वाले सारे हालातों और लोगों को तैयार करता है। अपने आपको दीन करने का अर्थ अपने आपको हर्ष के साथ उन सारी बातों के अधीन कर देना है जिनमें परमेश्वर हमारे साथ बर्ताव कर रहा है - हमारे सारे हालातों में - तब भी जब वह लोगों को हमारे सिर पर से होकर गुज़रने दे।

हमें यह डर कभी न सताने पाए कि यह हमारे सहने से ज़्यादा हो जाएगा, क्योंकि परमेश्वर बाड़े की उस दरार को देख रहा है, और वह यह जानता है कि उसे कब और कितना खोलना है। वह यह भी जानता है कि उसे कब बंद कर देना है।

अगर कोई पाप हम पर प्रबल हो रहा है, तो उसकी सिर्फ एक ही वजह हो सकती है - हमारा घमण्ड। और हम पाप पर तब तक जय नहीं पा सकते जब तक परमेश्वर हमें कृपा नहीं देता। लेकिन जब हम घमण्ड करते हैं, तब परमेश्वर हमें कृपा नहीं दे सकता। हम जब भी अपने आपको हारा हुआ पाएं, हमें परमेश्वर के पास जाकर यह कहने की ज़रूरत होगी, "प्रभु, मुझमें बसे उस घमण्ड को मुझे दिखा जिसने पाप पर जय पाने वाली कृपा को मुझे देने से तुझे रोक दिया है।" अगर हम हरेक नाकामी के लिए फौरन ही इस तरह अपना न्याय करने के लिए तैयार हो जाएंगे, तो हम जल्दी ही जय पाने वाले बन जाएंगे।

नई वाचा में पाप पर जय पाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। अज्ञानता या घमण्ड द्वारा शैतान को यह मौक़ा न दें कि वह आपको इससे वंचित कर दे। अगर हमें जय पाने में समय लगता है, तो वह इसलिए क्योंकि परमेश्वर को हमें नम्र व दीन करने में समय लगता है। आदम की संतान होते हुए हम जिस आत्म-निर्भरता से भरे हुए हैं, उसे तोड़ने में परमेश्वर को समय लगता है।

घमण्ड का एक स्वरूप यह विचार है कि हममें पाप पर जय पाने की शक्ति हैं। हम यह सोचते हैं कि इसके लिए हमें अपने थोड़े से और संकल्प, थोड़ा से और अनुशासन, थोड़ी सी और प्रार्थना और उपवास, और थोड़े से और बाइबल के ज्ञान की ज़रूरत है। जब हम ऐसी एक पुस्तक में जय के बारे में पढ़ते हैं, तो हम यह सोच सकते हैं कि क्योंकि हमने इसमें काम करने वाले मसीही सिद्धान्त को साफ तौर पर समझ लिया है, इसलिए अब हम आसानी से जय पा सकेंगे।

हम बड़े आत्म-विश्वास से आगे बढ़ सकते हैं, लेकिन हम यह नहीं समझ पाते कि हमारा भरोसा अब भी परमेश्वर की कृपा में नहीं बल्कि स्वयं हममें ही है। और देखो, हम फिर बुरी तरह नाकाम होते हैं!

क्या आप सोचते हैं कि हम एक ही बार गिरने के बाद यह पाठ सीख लेते हैं? नहीं, हम नहीं सीखते। इसलिए परमेश्वर हमें तब तक बहुत बार, बल्कि बार-बार गिरने देता है जब तक कि हम अपने सारे दृढ़ संकल्पों के बावजूद (और बहुत बार गिरने की वजह से), जय पाने की सारी आशा नहीं छोड़ देते। यही हमारा वह शून्य-बिन्दु है जहाँ से परमेश्वर हमारी अगुवाई करते हुए हमें प्रतिज्ञा-देश में ले जा सकता है।

पुरानी वाचा में, परमेश्वर मिस्र में से निकले इस्राएलियों को उनके मिस्र छोड़ने के दो साल बाद ही प्रतिज्ञा-देश की सीमाओं पर ले आया था। लेकिन वे उनके अविश्वास के कारण उसमें प्रवेश न कर सके (देखें गिनती अध्याय 13,14)। इसलिए परमेश्वर ने घमण्ड से भरे उन आत्म-विश्वासी इस्राएलियों को जंगल में अगले "38 साल तक भटकने दिया जब तक कि उस पीढ़ी के युद्ध करने वाले सब पुरुष (उनके आत्म-बल के प्रतीक) नाश न हो गए" (व्य.वि. 2:14)। फिर वे उनके शून्य-बिन्दु पर आ गए। और फिर वे उसमें प्रवेश कर सके। फिर तो उनके बिना कोई ज़ोर लगाए, उनके सामने यरीहो जैसी दीवारें गिरने लगी थीं।

इससे पहले कि परमेश्वर हममें और हमारे द्वारा कोई काम कर सके, उसे पहले हमें शून्य करना पड़ता है। यह ज़रूरी नहीं कि इसमें 40 साल ही लगें। अगर आप एक अति मौलिक होकर किसी भी क़ीमत पर अपने आपको नम्र व दीन करने के लिए संकल्प-बद्ध हो जाएंगे, तो आप साल-दो-साल में ही उसमें प्रवेश कर सकेंगे।

जब तक हम अपने हालातों और दूसरे लोगों पर दोष लगाते रहेंगे, तब तक हम जय की आशा नहीं कर सकते। लेकिन अगर हम अपने आपको दीन करेंगे, और यह विश्वास करेंगे कि हमारे सारे हालात परमेश्वर के नियंत्रण में हैं, और यह कि ऐसा कोई प्रलोभन/परीक्षा नहीं है जिस पर हम प्रबल नहीं हो सकते, तब हमारी जय सुनिश्चित है।

अध्याय 9
परमेश्वर हमारे हालातों को उसके वश में रखता है

हमारे विश्वास के अटल होने के लिए, यह ज़रूरी है कि वह परमेश्वर के बारे में इन तीन सच्चाइयों पर मज़बूती से टिका होः उसका सिद्ध प्रेम, उसकी सर्वशक्तिशाली प्रभुसत्ता, और उसकी सिद्ध बुद्धि। अगर हमें उसके प्रेम पर विश्वास है, तो हमें उसकी सर्वशक्तिशाली प्रभुसत्ता पर भी वैसा ही भरोसा होना चाहिए।

इस वजह से ही यीशु ने हमारी प्रार्थनाओं से पहले, परमेश्वर को इस तरह से सम्बोधित करना सिखाया था, "हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है।"

"हे हमारे पिता" हमें उसके सिद्ध प्रेम की याद दिलाता है; और "तू जो स्वर्ग में है" हमें यह याद दिलाता है कि वह ऐसा सर्वशक्तिशाली परमेश्वर है, जो अपनी पूरी प्रभुसत्ता में इस पृथ्वी पर होने वाली हरेक बात पर राज करता है। परमेश्वर होते हुए क्योंकि वह उसकी बुद्धि में सिद्ध है, इसलिए अपनी सिद्ध बुद्धि से वह हमारे मार्गों को तय करता है।

"परमेश्वर का मार्ग तो सिद्ध है (उसकी बुद्धि सिद्ध है)... और वही है जो मेरे मार्ग को सिद्ध करता है" (भजन. 18:30,32)।

अगर परमेश्वर प्रेम, सामर्थ्य और बुद्धि में सिद्ध नहीं होता, तो हमारे विश्वास के लिए पर्याप्त आधार नहीं होता। लेकिन क्योंकि वह ये तीनों है, इसलिए हमें कभी भी डगमगाने की कोई ज़रूरत नहीं है।

परमेश्वर के सिद्ध प्रेम, उसकी सिद्ध सामर्थ्य और उसकी सिद्ध बुद्धि में मानवीय व्यक्तित्व का पूरे भरोसे के साथ सहारा लिए रहना ही विश्वास है।

हम सभी यह बात सहर्ष स्वीकार कर लेंगे कि परमेश्वर की बुद्धि सिद्ध है। उसके मार्ग हमसे उतने ही ऊँचे हैं जैसे स्वर्ग पृथ्वी से ऊँचा है।

"परमेश्वर कहता है, 'मेरे विचार और तुम्हारे विचार एक जैसे नहीं हैं, और न ही तुम्हारे मार्ग और मेरे मार्ग एक-जैसे हैं। क्योंकि मेरे और तुम्हारे मार्गों में और मेरे और तुम्हारे सोच-विचारों में आकाश और पृथ्वी का अन्तर है" (यशा- 55:8,9)।

इस वजह से ही हम अक्सर यह नहीं समझ पाते कि वह कैसे काम करता है और हमारे हालातों को कैसे तैयार करता है। अगर एक बच्चा अपने पिता के सारे क्रिया-कलापों को नहीं समझ सकता, तो इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि हम भी परमेश्वर के कामों को नहीं समझ पाते। लेकिन हम जैसे-जैसे आत्मिक तौर पर बड़े होते और ईश्वरीय स्वभाव में ज़्यादा सहभागिता करते हैं, तो हम परमेश्वर के तौर-तरीक़ों को समझना शुरु कर देते हैं।

सभी लोगों और हालातों पर परमेश्वर की पूरी प्रभुसत्ता एक ऐसा मामला है जिसके बारे में अनेक विश्वासी संदेह की दशा में ही रहते हैं। वे अपने होठों से तो यह स्वीकार करते हैं, लेकिन वे यह नहीं मानते कि प्रतिदिन के व्यावहारिक जीवन के हालातों में यह (परमेश्वर की पूरी प्रभुसत्ता) "काम" करती है। लेकिन पवित्र-शास्त्र में ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि जिनमें परमेश्वर ने अपने लोगों की तरफ से काम किया था - और अक्सर वे काम बहुत असामान्य तरीक़ों से किए थे।

हममें से ज़्यादातर लोग साफ तौर पर किए गए उन चमत्कारिक कामों से परिचित हैं जो परमेश्वर ने अपने लोगों की तरफ से किए थे - जैसे इस्राएलियों का मिस्र में से छुटकारा, आदि। लेकिन हम अक्सर उन बड़े चमत्कारों को देखने से चूक गए हैं जिनमें परमेश्वर ने शैतान की बाज़ी को उसी के सिर पर तब उलट दिया था जब उसने परमेश्वर के लोगों पर हमला किया था।

युसुफ का मामला सबसे उत्कृष्ट है। याकूब के ग्यारहवें पुत्र के लिए परमेश्वर की यह योजना थी कि जब तक वह तीस साल का हो, वह उसे मिस्र का दूसरा शासक बना दे।

युसुफ एक ऐसा युवक था जो परमेश्वर का भय मानता था, इसलिए शैतान उससे घृणा करता था। इसलिए शैतान ने उसके बड़े भाइयों को उकसाया कि वे उससे पीछा छुड़ा लें। लेकिन परमेश्वर ने यह सुनिश्चित किया कि वे युसुफ को जान से न मार सकें। उन्होंने उसे ईश्माएली व्यापारियों को बेच दिया। लेकिन आप क्या सोचते हैं कि वे व्यापारी युसुफ को कहाँ ले गए? अवश्य ही, वे उसे मिस्र ले गए थे! यह परमेश्वर की योजना के पहले चरण का पूरा होना था।

मिस्र में युसुफ को पोतीपर ने ख़रीद लिया। यह भी परमेश्वर द्वारा तय किया गया था। पोतीपर की पत्नी एक दुष्ट स्त्री थी। उसे युसुफ पसन्द आ गया और वह उसे अपने जाल में फँसाने की कोशिश करने लगी। उसने बार-बार युसुफ को अपने वश में करना चाहा। अंत में जब उस स्त्री ने यह जान लिया कि वह सफल नहीं हो सकती, तो उसने युसुफ पर झूठा आरोप लगाकर उसे कारावास में डलवा दिया। लेकिन युसुफ को कारावास में कौन मिला? फिरौन का प्रधान साक़ी! परमेश्वर ने ऐसा होने दिया कि फिरौन का प्रधान साक़ी भी उसी समय कारावास में डाला जाए कि उसकी युसुफ से मुलाक़ात हो सके। यह परमेश्वर की योजना का यह दूसरा चरण था।

परमेश्वर की योजना का तीसरा चरण यह था कि फिरौन का साक़ी युसुफ के बारे में दो साल तक भूला रहे। "प्रधान साक़ी ने युसुफ को स्मरण न रखा; वह उसे भूल गया। पूरे दो वर्ष बीतने पर फिरौन ने एक स्वप्न देखा... तब प्रधान साक़ी ने फिरौन से कहा... " (उत्पत्ति 40:23; 41:1,9)।

परमेश्वर के कार्यक्रम के अनुसार, युसुफ के कारावास से छूटने का वही समय था।

भजन. 105:19,20 कहता है, "...जब तक उसके वचन पूरे न हो गए, और परमेश्वर के वचन ने उसे परख न लिया। तब राजा ने दूत भेजकर उसे छुड़ाया।"

युसुफ अब तीस साल का था। परमेश्वर का समय हो गया था। इसलिए परमेश्वर ने फिरौन को एक स्वप्न दिखाया। और परमेश्वर ने प्रधान साक़ी को भी याद दिलाया कि युसुफ ने उसके स्वप्न का अर्थ बताया था। इस तरह युसुफ फिरौन के सामने पहुँचा और मिस्र का दूसरा शासक बन गया। युसुफ के जीवन में होने वाली घटनाओं का चक्र इससे ज़्यादा सिद्ध नहीं हो सकता था!

जिस तरह परमेश्वर ने सारे घटनाक्रम को नियोजित किया था, हम ऐसा कभी नहीं कर सकते थे। अगर हमारे पास युसुफ के जीवन की योजना बनाने की शक्ति होती, तो हम शायद लोगों को उसे हानि पहुँचाने से रोक देते। लेकिन जैसा परमेश्वर ने किया, वही ज़्यादा अच्छा था।

जो बुराई लोग हमारे साथ करते हैं, जब वही बुराई हमारे जीवनों में परमेश्वर के उद्देश्यों को पूरा कर देती है, तो यह एक और भी बड़ा चमत्कार होता है! शैतान की चालों को उसके ही सिर पर उलट देने में परमेश्वर हर्षित होता है कि फिर सब बातें मिलकर उसके चुने हुओं के लिए भलाई को ही पैदा करें।

हम इन घटनाओं को अपने जीवन में लागू करके देखें।

हमारा मनोभाव ऐसे लोगों के प्रति कैसा होना चाहिए जो दुष्ट हैं, ऐसे भाइयों के प्रति जो हमसे ईर्ष्या करते हैं, ऐसी स्त्रियाँ जो हम पर झूठे दोष लगाती हैं, ऐसे मित्र जो हमारी मदद करने का वादा करते हैं लेकिन फिर भूल जाते हैं, या अन्यायपूर्वक कारावास में डाले जाने पर हम क्या करेंगे?

क्या हमारा यह भरोसा है कि परमेश्वर इतना प्रभुत्ता-सम्पन्न है कि वह इन सब लोगों को और जो कुछ वे करते हैं - चाहे जानबूझ कर या अनजाने में - हमारे जीवनों के लिए उसके उद्देश्यों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल कर सकता है? उसने युसुफ के लिए ऐसा किया था, क्या वह हमारे लिए भी ऐसा नहीं करेगा? वह ऐसा कर सकता है और वह ऐसा ज़रूर करेगा।

लेकिन मैं आपको एक ऐसे व्यक्ति के बारे में बता सकता हूँ जो युसफ के लिए परमेश्वर की योजना को बिगाड़ सकता था। सिर्फ एक ही व्यक्ति ऐसा कर सकता था - स्वयं युसुफ। अगर वह पोतीपर की पत्नी के प्रलोभन में पड़ जाता, तो परमेश्वर ने उसे ज़रूर अलग हटा दिया होता।

सारी सृष्टि में आपके लिए परमेश्वर द्वारा बनाई गई योजना को बिगाड़ कर नाकाम करने वाला सिर्फ एक ही व्यक्ति हो सकता है - और वह स्वयं आप ही होंगे। दूसरा कोई यह नहीं कर सकता। न तो आपके मित्र और न ही आपके शत्रु। न तो स्वर्ग के दूत और न ही शैतान। सिर्फ आप। जब एक बार हम यह देख लेते हैं, तो हम अपनी बहुत सी आशंकाओं में से, और जिन्होंने हमारा कुछ नुक़सान किया है, उन लोगों के प्रति हमारे ग़लत मनोभावों में से छूट जाते हैं।

हम पुरानी वाचा में से एक और उदाहरण देखते हैं, कि इस सत्य में हमारा विश्वास दृढ़ हो सके।

एस्तेर की पुस्तक में, हम यह पढ़ते हैं कि एक नस्ल के रूप में, परमेश्वर ने कैसे यहूदियों को नाश होने से बचाया था। लेकिन यह देखना वास्तव में बड़ा अद्भुत है कि परमेश्वर ने यह कैसे किया था - एक मामूली से घटना में से - कि राजा को एक रात ठीक से नींद नहीं आई थी। हामान और उसकी पत्नी एक रात यह योजना बना रहे थे कि अगली सुबह राजा की अनुमति लेकर वे मोर्दकै को फाँसी के खम्भे पर लटकाने द्वारा सारे यहूदियों को नाश करने की आरंभिक तैयारी कर लेंगे। लेकिन जिस समय हामान और उसकी पत्नी अपनी दुष्ट योजना बना रहे थे, उसी समय परमेश्वर भी मोर्दकै की तरफ से काम कर रहा था। "इस्राएल का रक्षक न कभी सोता है न ऊँघता है" (भजन. 121:4)।

परमेश्वर ने उस रात राजा को सोने नहीं दिया। "उस रात राजा को नींद नहीं आई, इसलिए उसने लेखों की अर्थात् इतिहास की पुस्तक लाने की आज्ञा दी, और वह राजा के सम्मुख पढ़ी गई" (एस्तेर 6:1)। राजा ने कई घण्टों तक अपने देश की कहानी सुनीं। तब वह भाग आया जहाँ यह दर्ज था कि मोर्दकै ने राजा की हत्या के षड्यंत्र का पर्दाफाश करने द्वारा राजा की जान बचाई थी। राजा ने सेवकों से कहा कि इस काम के लिए मोर्दकै को किस रूप में सम्मानित किया गया था, और उन्होंने राजा को बताया कि उसके लिए कुछ नहीं किया गया था।

फिर से, सारे घटनाक्रम में परमेश्वर का समय बिलकुल सिद्ध था। उसी समय हामान अन्दर आया कि वह उसकी योजना के अनुसार मोर्दकै को फाँसी के खम्भे पर लटकाने के लिए राजा की अनुमति ले सके। इससे पहले कि हामान उसका मुँह खोल पाता, राजा ने हामान से पूछा कि उसके विचार से ऐसे व्यक्ति के लिए क्या किया जाना चाहिए जिसका सम्मान राजा करना चाहता हो। दुष्टता से भरे हामान ने यह मान लिया कि राजा उसके बारे में ही बात कर रहा है, इसलिए उसने ऐसे व्यक्ति के सम्मान के लिए बड़ी शोभा-यात्र निकालने का सुझाव दे दिया। "शीघ्र जाकर मोर्दकै के लिए ये सब कर" राजा ने उसे आज्ञा दी। हमारा परमेश्वर कैसे अनोखे ढंग से शैतान की बाज़ी को उसके ही सिर पर उलट सकता है। अंत में हामान को ही उस फाँसी के खम्भे पर लटकना पड़ा जो उसने मोर्दकै के लिए बनाया था। बाइबल कहती है, "जो (दूसरों के लिए) गड्ढा खोदता है, वह स्वयं उसमें गिरेगा, और (दूसरों पर) लुढ़काया हुआ पत्थर, लुढ़काने वाले पर आ गिरेगा" (नीति. 26:27)।

इस कहानी में, हामान शैतान का प्रतीकात्मक स्वरूप है जो हमेशा हमारे खिलाफ़ दुष्टता की युक्तियाँ गढ़ता रहता है। परमेश्वर उसे नहीं रोकता, क्योंकि परमेश्वर के पास उससे अच्छी योजना होती है। वह शैतान की बाज़ी को उसी के सिर पर पलटना चाहता है। जो गड्ढा शैतान हमारे लिए खोदता है, अंत में वह स्वयं ही उसमें जा गिरेगा।

सपन्याह 3:17 (एक अनुवाद में) कहता है, हर समय "परमेश्वर चुपचाप प्रेम में हमारे लिए योजना बनाता रहता है।"

उस रात जबकि मोर्दकै चैन से सो रहा था, उन सब दुष्टता की युक्तियों से अनजान जो हामान और उसकी पत्नी उसके लिए बना रहे थे, उसी समय, परमेश्वर भी मोर्दकै को बचाने की योजना बना रहा था। इसलिए, अगर मोर्दकै को हामान की योजना की जानकारी भी होती, तब भी वह वैसे ही चैन से सो सकता था। अगर परमेश्वर उसकी ओर था, तो उसके विरोध में कौन हो सकता था?

जिस रात राजा हेरोदेस पतरस को मार डालने की योजना बना रहा था, उसी रात पतरस भी, यह जानते हुए कि परमेश्वर प्रेम में चुपचाप उसके लिए योजना बना रहा था, कारागार में रात को चैन से सो सका था। सही समय पर, परमेश्वर के दूत ने आकर पतरस को उठाया और उसे आज़ाद कर दिया (प्रेरितों. 12)।

अगर हमारा भी यह विश्वास होगा कि परमेश्वर सब बातों और सब लोगों पर उसकी प्रभुसत्ता में राज करता है, तब मनुष्य और दुष्टात्माएं हमारे खिलाफ़ चाहे कुछ भी करने की कोशिश करते रहें, हम भी रात को चैन की नींद सो सकेंगे।

एक बार जब हम परमेश्वर की सर्वसत्ता देख लेते हैं, तब हम किसी भी बात के लिए लोगों पर इल्ज़ाम लगाना छोड़ देते हैं। फिर हमें यह डर भी नहीं होगा कि शैतान हमारा किसी तरह से नुक़सान कर सकेगा। फिर हमें किसी बीमारी या रोग या संसार की किसी भी बात का डर नहीं रहेगा।

बाइबल हमें सब बातों के लिए, सारे हालातों में, और सब लोगों के लिए भी धन्यवाद देने के लिए कहती है।

"सदा सब बातों के लिए हमारे प्रभु यीशु के नाम में परमेश्वर पिता को धन्यवाद दो" (इफि. 5:20)।

"प्रत्येक परिस्थिति में धन्यवाद दो क्योंकि मसीह यीशु में तुम्हारे लिए परमेश्वर की यही इच्छा है" (1 थिस्स. 5:18)।

"सबसे पहले मेरा अनुरोध है कि सब मनुष्यों के लिए प्रार्थनाएं, निवेदन और धन्यवाद अर्पित किए जाएं" (1 तीमु. 2:1)।

हम एक सार्थक रूप में यह तभी कर सकते हैं जब हमने परमेश्वर की सर्व-शक्तिशाली प्रभु-सत्ता को देख लिया होगा।

परमेश्वर हमारी वैसी ही देखभाल करता है जैसे वह यीशु की करता था। वही कृपा जिसने यीशु की मदद की, पवित्र-आत्मा की वही सामर्थ्य जिसने उसे जय पाने योग्य बनाया, अब हमारे लिए भी उपलब्ध है।

यहूदा ने यीशु के साथ विश्वासघात किया, पतरस ने उसका इनकार किया, उसके शिष्य उसे छोड़ कर चले गए, विशाल भीड़ उसके खिलाफ़ हो गईं, उस पर एक अन्यायपूर्ण मुक़द्दमा चलाया गया, झूठे दोष लगाए गए और सूली पर चढ़ाने के लिए ले जाया गया। फिर भी कलवरी की तरफ जाते समय, वह मुड़कर लोगों से यह कह सका था, "मेरे लिए मत रोओ, अपने और अपने बच्चों के लिए रोओ" (लूका 23:28)।

उसके अन्दर लेशमात्र भी आत्म-दया नहीं थी (वह ख़ुद अपनी नज़र में दया का पात्र नहीं था)।

वह जानता था कि जो प्याला वह पी रहा था वह उसके पिता की ओर से था। यहूदा इस्करियोती तो सिर्फ उस प्याले को लाने वाला वाहक था। इसलिए वह यहूदा की तरफ प्रेम से देखकर उसे "मित्र" कह कर पुकार सका था।

यीशु ने पिलातुस से कहा, "अगर तुझे ऊपर से न दिया जाता, तो तेरा मुझ पर कोई अधिकार न होता" (यूहन्ना 19:11)।

इस आश्वासन ने ही यीशु को इस संसार में से एक राजा की तरह, गरिमा से, गुज़र जाने योग्य बनाया था। वह ऐसी ही आत्मिक गरिमा के साथ जीवित रहा था, और ऐसी ही आत्मिक गरिमा के साथ मरा था।

अब हमें भी "यीशु की तरह चलने" के लिए कहा गया है। जैसे उसने "पिलातुस के सामने एक अच्छा अंगीकार किया", वैसे ही हमें भी एक अविश्वासी पीढ़ी के सामने एक अंगीकार करना है।

1 तीमुथियुस 6:13,14 में, पौलुस ने तीमुथियुस को यह आज्ञा दी, "मैं सब के जीवनदाता परमेश्वर और मसीह यीशु की उपस्थिति में, जिसने पुन्तियुस पिलातुस के सामने उत्तम साक्षी दी थी, तुझ को यह दृढ़ आज्ञा देता हूँ कि हमारे प्रभु यीशु के प्रकट होने तक इस आज्ञा का निर्दोष और निष्कलंक रूप में पालन कर।"

जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं, परमेश्वर जिस सबसे बड़ी भलाई की दिशा में हमें ले जा रहा है, वह उसके स्वभाव में, उसकी पवित्रता में सहभागी होना है। अपनी अद्भुत सर्वसत्ता में, वह हमारे रास्ते में से गुज़रने वाले हरेक व्यक्ति को उसके उद्देश्य को पूरा करने के लिए इस्तेमाल करता है। इस वजह से ही हम सभी मनुष्यों के लिए धन्यवाद दे सकते हैं।

परमेश्वर उस झगड़ालू पड़ौसी, उस परेशान करने वाले रिश्तेदार, और उस तानाशाह मालिक को आपको लगातार क्यों सताने दिया है? वह उन्हें आसानी से कहीं और भेज सकता है या उन्हें मार के ख़त्म भी कर सकता है, और इस तरह आपके जीवन को आरामदेह बना सकता है। लेकिन वह ऐसा कुछ नहीं करता। क्यों? क्योंकि वह उन लोगों को आपको शुद्ध करने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है। यह भी हो सकता है कि वह आपके द्वारा उनका उद्धार करना चाहता हो।

परमेश्वर की स्तुति करें कि हमारी जय इस पर निर्भर नहीं होती कि हमारे आसपास किस तरह के लोग रहते हैं - चाहे हमारे घर में, कार्यालय में, या कहीं भी। हमारी जय पूरी तरह से परमेश्वर की कृपा पर निर्भर रहती है। और अगर हम अपने आपको नम्र व दीन करेंगे, तो हमें हरेक परिस्थिति में वह कृपा मिल सकती है।

अध्याय 10
विश्वास-परमेश्वर में या धन में?

धन इस संसार में एक बड़ी शक्ति है। इस वजह से ही यीशु ने यह कहा था कि सिर्फ दो ऐसे स्वामी हैं जो हमारी भक्ति चाहते हैं - परमेश्वर और धन।

"कोई भी सेवक दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता। या तो वह एक से घृणा और दूसरे से प्रेम करेगा, या फिर एक से मिला रहेगा और दूसरे को तुच्छ जानेगा। तुम परमेश्वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते" (लूका 16:13)।

संसार धन की शक्ति में विश्वास करता है और कहता है, "पैसा सब कुछ कर सकता है।" लेकिन विश्वासियों के रूप में, हम कहते हैं, "परमेश्वर सब कुछ कर सकता है।" लेकिन ज़्यादातर मामलों में, विश्वासियों का उनके सच्चे और जीवित परमेश्वर में जितना भरोसा नहीं होता, उससे ज़्यादा उन अविश्वासियों का उनके ईश्वर (धन) में होता है।

हम इस संसार में क्योंकि धन से जुड़े मामलों के साथ प्रतिदिन बहुत व्यवहार करते हैं, इसलिए हमें इस क्षेत्र में भी जय पाने की ज़रूरत है।

संसार का यह विश्वास है कि धन से अद्भुत काम हो सकते हैं। इसमें हम अपने बारे में क्या कहते हैं? क्या हमारा परमेश्वर उससे ज़्यादा अद्भुत काम नहीं कर सकता जो धन कर सकता है? लेकिन अगर हममें विश्वास न हो तो परमेश्वर हमारी तरफ से कुछ नहीं कर सकेगा।

"परमेश्वर के लिए सब कुछ सम्भव है... विश्वास करने वाले के लिए सब कुछ सम्भव है" (मरकुस 10:27; 9:23)।

कुछ भी असम्भव नहीं है - परमेश्वर के लिए और विश्वास करने वाले के लिए।

यह काल्पनिक लगता है। लेकिन यह विश्वास की शक्ति है - वह हमें परमेश्वर की सर्वसामर्थ से जोड़ देती है। ऐसे विश्वास से, हमें अपने आसपास के संसार के आगे यह प्रदर्शित करना है कि हमारा परमेश्वर धन से बड़ा है।

मुझे वह समय याद है जब हमें बैंगलोर में हमारा सभागृह बनाने के लिए सीमेन्ट की आपूर्ति के लिए सरकार के अनुमति-पत्र की ज़रूरत थी। मैं सम्बंधित सरकारी कार्यालय में गया और वहाँ बैठे क्लार्क ने मुझे अगले सप्ताह आने के लिए कह दिया। मैं अगले सप्ताह गया, और उसने मुझे तब भी बाद में आने के लिए कह दिया। यह कुछ समय तक चलता रहा, और एक व्यक्ति ने, जो सरकारी काम के तौर-तरीक़े जानता था, मुझे बताया कि वह क्लार्क असल में एक परोक्ष रूप में रिश्वत माँग रहा था!

रिश्वत देने का कोई सवाल ही नहीं था। इसकी बजाय हमने प्रार्थना की। मैं बार-बार वहाँ जाता रहा और इस तरह मैंने बहुत सा धीरज पाया! अंत में, कुछ महीनों के बाद, हमें वह अनुमति-पत्र मिल गया। मैंने तो सिर्फ सीमेन्ट की अनुमति माँगी थी, लेकिन मुझे धीरज भी मिल गया! परमेश्वर हमेशा हमारे माँगने से ज़्यादा हमें देता हैं! हालेलुय्याह!

यह कितनी अद्भुत बात है कि परमेश्वर ने एक भ्रष्ट अधिकारी को इस्तेमाल करने द्वारा मुझे ईश्वरीय स्वभाव - धीरज - में सहभागी होने योग्य बना दिया! अगर मैं उस व्यक्ति को रिश्वत दे देता, तो मुझे बहुत पहले सीमेन्ट मिल गया होता। लेकिन मुझे धीरज न मिला होता। परमेश्वर ऐसे तरीक़ों से काम करता है। अगर हम उसका आदर करेंगे, तो वह भी हमारा आदर करेगा।

प्रभु कहता है, "जो मेरा आदर करते हैं, मैं भी उनका आदर करता हूँ" (1 शमू. 2:30)।

अगर हमारे जीवन में परमेश्वर की इच्छा से बाहर कोई महत्वकांक्षा नहीं है, तो हमें कभी कोई समस्या नहीं होगी।

जहाँ तक बैंगलोर की कलीसिया में हमारा सम्बंध था, तो उस समय हम तभी सीमेन्ट चाहते थे, जब परमेश्वर हमें वह देना चाहता था। अगर परमेश्वर हमें सभागृह नहीं देना चाहता था, तो फिर हम भी वह नहीं चाहते थे। और न ही वह सभागृह हमें परमेश्वर के समय से पहले चाहिए था। इसलिए, अगर उस सीमेन्ट को आने में चार साल लगने थे, तो हम उसका इंतज़ार करने के लिए पूरी तरह तैयार थे। परमेश्वर का समय हमेशा सिद्ध होता है। वह हमेशा समय पर आता है - कभी देर नहीं करता। हमारे लिए सीमेन्ट प्राप्त करने की जो तारीख़ परमेश्वर ने तय की थी, हमें उसी तारीख़ पर सीमेन्ट मिलनी थी। परमेश्वर के समयानुसार उस सीमेन्ट को प्राप्त करने से संसार की कोई भी शक्ति हमें नहीं रोक सकती थी। इसलिए, अगर हम परमेश्वर के समयानुसार प्रतीक्षा करने के लिए तैयार रहते हैं, तो हम देखेंगे कि वह उस काम में शामिल अधिकारियों से अपने तरीक़े से, और अपने समय में निपट लेता है।

शाऊल ने धीरज की कमी की वजह से उसका राज्य खो दिया था। यह पढ़ेंः "शमूएल के ठहराए हुए समय के अनुसार शाऊल सात दिन ठहरा रहा। लेकिन शमूएल गिलगाल में नहीं आया, और लोग उसके पास से तितर-बितर होने लगे। तब शाऊल ने कहा, 'होमबलि और मेलबलि मेरे पास ले आओ।' और उसने होमबलि चढ़ाई। और उसने जैसे ही होमबलि चढ़ाई, उसी समय शमूएल वहाँ आ पहुँचा। अतः शाऊल उससे मिलने और उसका अभिवादन करने गया। तब शमूएल ने कहा, 'यह तूने क्या किया?' शाऊल ने जवाब दिया, 'मैंने देखा कि लोग मुझे छोड़कर तितर-बितर हो रहे हैं, और तू भी अपने तय किए हुए समय पर नहीं आया, और पलिश्ती भी मिकमाश में इकट्ठे हो रहे थे, इसलिए मैंने कहा, 'अब तो पलिश्ती गिलगाल में मुझ पर आक्रमण कर देंगे, और मैंने परमेश्वर की कृपा पाने के लिए प्रार्थना भी नहीं की है। इसलिए मैंने विवश होकर होमबलि चढ़ा दी।' शमूएल ने शाऊल से कहा, 'तूने मूर्खता का काम किया है। तेरे परमेश्वर ने तुझे जो आज्ञा दी थी, तूने उसका पालन नहीं किया, अब तक तो परमेश्वर ने इस्राएल पर तेरा राज्य सर्वदा के लिए स्थापित कर दिया होता। पर अब तेरा राज्य बना नहीं रहेगा। यहोवा ने अपने मन के अनुसार एक व्यक्ति को खोज लिया है, और उसको अपनी प्रजा पर राज्य करने के लिए नियुक्त भी कर दिया है, क्योंकि तूने उस आज्ञा का पालन नहीं किया जो उसने तुझे दी थी" (1 शमू. 13:8:14)।

अधीर हो जाने की वजह से बहुत लोग परमेश्वर का सर्वश्रेष्ठ पाने से चूक गए हैं। अगर आप सत्य और धार्मिकता के लिए खड़े होने, और परमेश्वर के समय का इंतज़ार करने के लिए तैयार हो जाएंगे, तो ऐसा कोई नहीं है जो आपके जीवन के लिए परमेश्वर की योजना में कोई रुकावट पैदा कर सके।

"विश्वास और धीरज के द्वारा हम प्रतिज्ञाओं के अधिकारी होते हैं" (इब्रा. 6:12)।

हमारे घर की ज़रूरतें पूरी करने के आर्थिक मामलों में भी यही सिद्धान्त काम करता है। हमारा विश्वास परमेश्वर में है, धन में नहीं। अगर आप परमेश्वर के राज्य के नियमों के अनुसार अपने घर प्रबन्ध करेंगे, तो आपकी ज़रूरतें पूरी करने के लिए हमेशा आपके पास पर्याप्त धन रहेगा। आप कभी धनवान नहीं बन सकेंगे, लेकिन यक़ीनन आपको कभी माँगना भी नहीं पड़ेगा। दाऊद ने कहा, "मैं जवान था, और अब बूढ़ा हो गया हूँ, लेकिन मैंने न तो कभी धर्मी को त्यागा हुआ, और न उसके वंश को भीख माँगते देखा है" (भजन. 37:25)।

यीशु ने कहा, "पहले तुम स्वर्ग के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज करो, और बाक़ी ये सब (भौतिक) वस्तुएं तुम्हें यूँ ही मिल जाएंगी" (मत्ती 6:33)।

अनेक "पूर्ण-कालिक सेवा" करने वाले मसीही, जिनकी शुरुआत विश्वास से हुई थी, अंत में सम्मानित भिखारी बन जाते हैं, जिन्हें हर महीने "प्रार्थना-पत्र" (जो असल में "भिक्षा-पत्र" का दूसरा नाम है) भेजने पड़ते हैं, जिनमें बड़ी चालाकी से उनकी आर्थिक ज़रूरतों की तरफ संकेत किया जाता है।

अगर वास्तव में आपका स्वर्ग में एक प्रेम करने वाला सर्वसामर्थी पिता है, तो आपको अपनी ज़रूरतों के बारे में मनुष्यों को बताने की ज़रूरत क्यों होनी चाहिए? अगर हमारी मासिक ज़रूरतें पूरी करने जैसी मामूली बात के लिए परमेश्वर पर भरोसा नहीं किया जा सकता, तो हमें उसकी सेवा करना बंद ही कर देना चाहिए! ऐसे हालातों में ही परमेश्वर और मनुष्य हमारी स्वामीभक्ति पर अपना दावा करते हैं। हम अपना किसमें भरोसा रखेंगे?

अगर हमारी दिलचस्पियाँ भी वही होंगी जो परमेश्वर की हैं, तो हमें कोई कष्ट नहीं होगा। अगर ऐसी कोई भी वस्तु पाने या ख़रीदने में हमारी दिलचस्पी नहीं होगी जो परमेश्वर नहीं चाहता कि हमारे पास हो, तो हम हमेशा एक विश्राम की दशा में रह सकेंगे - क्योंकि परमेश्वर हमारी ज़रूरतें हमेशा पूरी करेगा - और अगर ज़रूरत होगी, तो चमत्कारिक रूप में भी करेगा। लेकिन अगर हम अपनी भौतिक लालसाओं को पूरा करने के लिए व्यर्थ की अनेक वस्तुएं ख़रीद लेंगे, तो हम हर समय मुश्किलों में फँसते रहेंगे।

विश्वास का यही सिद्धान्त एक जीवन-साथी पाने के मामले में भी लागू होता है। फ्मकान और धन पूर्वजों से प्राप्त होते हैं, लेकिन समझदार पत्नी परमेश्वर से ही प्राप्त होती हैय् (नीति. 19:14 - लिविंग)।

अगर परमेश्वर ने आपका जीवन-साथी होने के लिए किसी को चुना हुआ है, तब क्या ऐसा कोई ख़तरा हो सकता है कि कोई दूसरा व्यक्ति उससे विवाह कर ले? अगर आप एक सर्व-शक्तिशाली परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो यह नहीं हो सकता।

इसलिए आपको अधीर होने की, और दबोचने की कोई ज़रूरत नहीं है। परमेश्वर इस योग्य है कि वह उस व्यक्ति को आपके लिए बचाए रखे। आप इसमें धीरज से प्रतीक्षा करते हुए शांत रह सकते हैं।

आदम को अदन की वाटिका में विवाह करने के लिए एक साथी पाने की कोशिश में बेचैन होकर इधर-उधर भागने की ज़रूरत नहीं पड़ी थी! अगर उसने ऐसी कोशिश भी की होती, तब भी उसे कोई न मिलता! परमेश्वर ने क्या किया था? उसने आदम को गहरी नींद में सुला दिया था। और जब आदम एक पूरे विश्राम की दशा में था, तब परमेश्वर उसके लिए एक पत्नी तैयार कर दी। जब आदम उठा, तो परमेश्वर ने उसे हव्वा दे दी।

परमेश्वर आपको भी आदम जितना ही प्रेम करता है, और वह आपको भी उस सही व्यक्ति के पास पहुँचा देगा जिसे उसने आपके साथ विवाह करने के लिए तैयार किया हुआ है। लेकिन आपको उसमें भरोसा रखना पड़ेगा। विश्वास के बिना प्रतीक्षा करने से सिर्फ निराशा ही पैदा होती है।

अगर परमेश्वर की इच्छा के बाहर आप में कोई महत्वकांक्षा नहीं है, अगर आप अविवाहित रहने के लिए भी तैयार हैं, और अगर परमेश्वर की आपके लिए वही इच्छा है, तो आपको बिलकुल डरने की ज़रूरत नहीं है।

फ्क्योंकि परमेश्वर की आँखें सारी पृथ्वी पर घूमती रहती हैं, कि जिनका हृदय सम्पूर्ण रीति से उसका है, वह उनके प्रति अपनी सामर्थ्य दिखाए" (2 इति. 16:9)। हमारा परमेश्वर कितना अद्भुत है!

फ्और वह जय जिसने संसार पर जय प्राप्त की है, वह यह है - हमारा विश्वास" (1 यूहन्ना 5:4)। अगर परमेश्वर की सिद्ध बुद्धि, प्रेम और सामर्थ्य में आपका विश्वास है - तो आप हमेशा इस संसार पर, इसके शासक पर, और इसकी शक्तियों (धन, भोग-विलास, आदर-सम्मान, आदि) पर जय पाते रहेंगे। लेकिन अगर आपको परमेश्वर की सर्वशक्तिशाली प्रभुसत्ता या उसके प्रेम में भरोसा नहीं होगा, तो आप यह पाएंगे कि आप भी आदम की अन्य संतानों के साथ दुःख, अभक्ति, समझौते और झुंझलाहट से भरे जीवन में घसीटे जा रहे हैं।

अध्याय 11
परमेश्वर निर्बलों की सहायता करता है

संसार यह कहता है कि परमेश्वर उनकी सहायता करते हैं जो स्वयं अपनी सहायता करते हैं। लेकिन बाइबल कहती है कि परमेश्वर उनकी सहायता करता है जो अपनी सहायता नहीं कर सकते। वह कमज़ोर और मजबूर लोगों का परमेश्वर है। वह अपने आपको विधवाओं, अनाथों और परदेसियों का परमेश्वर कहता है।

व्यवस्थाविवरण 10:17,18 कहते हैं, "क्योंकि तुम्हारा परमेश्वर ईश्वरों का ईश्वर और प्रभुओं का प्रभु है, वह अति महान्, पराक्रमी और भय-योग्य परमेश्वर है, जो न पक्षपात करता है, और न रिश्वत लेता है। वह अनाथ और विधवा का न्याय चुकाता है, और परदेसियों को भोजन-वस्त्र देकर उनके प्रति अपना प्रेम प्रकट करता है।" वह अपने आपको धनवान और शक्तिशाली लोगों का परमेश्वर नहीं कहता, क्योंकि उनके पास मानवीय और आर्थिक सहायता होती है। परमेश्वर कमज़ोर लोगों के पक्ष में रहता है। इस वजह से ही हमारी मदद करने से पहले उसे हमें कमज़ोर बनाना पड़ता है।

परमेश्वर ने पौलुस को कमज़ोर करने के लिए उसे एक काँटा चुभा रखा था, कि पौलुस को हमेशा उस पर छाया करने वाली परमेश्वर की सामर्थ्य का अहसास होता रहे।

2 कुरिन्थियों 12:7-10 में, पौलुस कहता है, "प्रकाशनों की अधिकता के कारण मैं घमण्ड न करूँ, इसलिए मेरी देह में एक काँटा चुभाया गया है, अर्थात् शैतान का एक दूत कि वह मुझे दुःख दे और घमण्ड करने से रोके रहे। मैंने इसके बारे में प्रभु से तीन बार प्रार्थना की कि यह मुझ से दूर हो जाए। और उसने मुझसे कहा, 'मेरी कृपा तेरे लिए काफी है, क्योंकि मेरी सामर्थ्य निर्बलता में ही सिद्ध होती है। इसलिए मैं सहर्ष अपनी निर्बलताओं पर घमण्ड करूँगा, जिससे कि मसीह की सामर्थ्य मुझमें वास करे। इस कारण मैं मसीह के लिए निर्बलताओं, अपमानों, दुःखों, सतावों और कठिनाइयों में प्रसन्न हूँ, क्योंकि जब मैं निर्बल होता हूँ तभी मैं सामर्थी होता हूँ।"

जब अपना जीवन सुख-चैन से बिताने के लिए आपकी निर्भरता धन-सम्पत्ति और प्रभावशाली मित्रों पर होगी, तब परमेश्वर आपके तरीक़े से सब कुछ करने के लिए आपको आपके हाल पर छोड़ देगा। वह मदद के लिए आपकी प्रार्थनाओं का जवाब भी नहीं देगा - क्योंकि वह देख रहा है कि आपका भरोसा शारीरिक बाहुबल पर है - आपके बैंक के खाते पर और आपकी जान-पहचान के प्रभावशाली लोगों पर।

अगर आप सिर्फ अपनी निर्बलता की जगह पर आ सकें - जहाँ आपकी निर्भरता फिर मानवीय संसाधनों या लोगों पर न हो - तब आप इस पृथ्वी पर सबसे आशिषित व्यक्ति होंगे। क्योंकि तब, स्वयं परमेश्वर आपका सहारा होगा। कमज़ोर और मजबूर होना धन्य होना है, क्योंकि तब हम सब बातों में परमेश्वर पर भरोसा कर सकते हैं।

यहूदा का राजा आसा ऐसा व्यक्ति था जिसकी परमेश्वर ने अनेक बार मदद की थी। फिर भी, जब एक बार उसके पैर में एक रोग हो गया, तो उसने अपनी चंगाई के लिए परमेश्वर की बजाय वैद्यों में भरोसा किया। हम अफसोस के साथ उसके बारे में ऐसे शब्द पढ़ते हैं, "अपने राज्य के उन्तालीसवें वर्ष में आसा को पैरों का रोग हो गया। उसका रोग भयंकर था, फिर भी उसने अपनी रेागी अवस्था में परमेश्वर की नहीं वैद्यों की शरण ली। इसलिए आसा मर गया" (2 इति. 16:12,13)।

आसा क्योंकि राजा था, इसलिए अपने धन से देश के सबसे अच्छे वैद्यों से इलाज करा सकता था। लेकिन उसका सारा प्रभाव और उसका सारा धन भी उसकी बीमारी से उसे चंगा न कर सका। उसके लिए कितना अच्छा रहता अगर वह प्रभु में अपना भरोसा बनाए रखता!

वैद्यों द्वारा उसका इलाज किए जाने में कोई बुराई नहीं थी। लेकिन उसके उन पर निर्भर हो जाने में पूरी बुराई थी।

ऐसी जगह में मौजूद रहना ही अच्छा है जहाँ सिर्फ परमेश्वर आपका सहायक हो। अगर आप एक ऐसे व्यक्ति हैं जो अपने जीवन में सिर्फ परमेश्वर की तरफ से ही अपने लिए सर्वश्रेष्ठ चाहते हैं, तो आप पाएंगे कि परमेश्वर आपको बार-बार शारीरिक बाहुबल का सहारा लेने से दूर कर रहा है। वह आपको कमज़ोर बनाएगा, जिससे कि आप सिर्फ उसके सहारे से आगे बढ़ने वाले बन सकें।

इस बात पर विचार करें कि परमेश्वर ने एलिय्याह के साथ कैसा व्यवहार किया था। जब इस्राएल में अकाल पड़ा हुआ था, तब परमेश्वर ने एक पानी के नाले के किनारे कौवों द्वारा एलिय्याह को खिलाया था। "परमेश्वर का वचन एलिय्याह के पास पहुँचा, 'यहाँ से चला जा और पूर्व की ओर मुड़कर करीत नाले में, जो यर्दन के पूर्व में है, छिप जा। और ऐसा होगा कि तू उसी नाले का पानी पीएगा, और मैंने कौवों को आज्ञा दी है कि वे वहाँ तेरे लिए भोजन पहुँचाएं। अतः उसने परमेश्वर के वचन के अनुसार किया और यर्दन नदी के पूर्व करीत नाम के नाले के पास जाकर रहने लगा। और कौए सुबह और शाम उसके लिए रोटी और माँस लाते थे, और वह नाले का पानी पीया करता था" (1 राजा 17:4-6)।

दिन में दो बार कौए उसके लिए रोटी और माँस लाते थे, और पीने के लिए नाले में पर्याप्त पानी रहता था। यह ऐसे नियमित रूप में होने लगा था कि फिर एलिय्याह परमेश्वर की बजाय नाले और कौवों पर ही निर्भर होने के ख़तरे में पड़ सकता था। तब परमेश्वर ने उसकी आपूर्ति के माध्यम को बदल देने का फैसला किया। फिर ऐसा हुआ कि उस देश में वर्षा न होने की वजह से नाला सूख गया" (1 राजा 17:7)। एक सुबह एलिय्याह ने देखा कि नाला सूख गया था। परमेश्वर उसके सेवक को यह सिखा रहा था कि उसे कौवों और नाले पर निर्भर नहीं रहना है। वह जो एक माँसाहारी कौवे को उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति के खिलाफ़ जाकर, उसके सेवक के लिए माँस पहुँचाने वाला बना सकता था, उस पर अब यह भरोसा किया जा सकता था कि अब वह आपूर्ति का एक दूसरा रास्ता भी बना देगा।

इसलिए परमेश्वर ने एलिय्याह को सारपत जाने के लिए कहा। और वहाँ परमेश्वर उसके सेवक की देखभाल किसी धनवान व्यापारी से नहीं, बल्कि एक बूढ़ी, असहाय, निर्धन, ग़ैर-यहूदी स्त्री द्वारा करने वाला था। अगर हमें चुनाव करना होता, तो सारपत में वह स्त्री हमारी अंतिम चुनाव होती।

लेकिन परमेश्वर के मार्ग हमारे मार्गों से अलग हैं। वह आपूर्ति के सबसे कमज़ोर माध्यम को इसलिए इस्तेमाल करता है जिससे कि हमारा विश्वास उस माध्यम पर नहीं बल्कि परमेश्वर पर हो।

"परमेश्वर ने संसार के मूर्खों को चुन लिया है कि ज्ञानवानों को लज्जित करें, और परमेश्वर ने संसार के निर्बलों को चुन लिया है कि बलवानों को लज्जित करें, और परमेश्वर के संसार के नीच और तुच्छ लोगों को, वरन् उनको जो हैं भी नहीं चुन लिया है, कि उन्हें जो है, व्यर्थ ठहराए, जिससे कि कोई प्राणी परमेश्वर के सामने घमण्ड न कर सके" (1 कुरि. 1:27-29)।

वह दिन हमारे लिए एक अद्भुत दिन होगा कि वे कौवे जो एक लम्बे समय से हमें खिला रहे थे, आना बंद कर दें। तब हम सिर्फ परमेश्वर में भरोसा रखना सीख सकेंगे।

जिस व्यक्ति ने आपकी मदद करने का वाचा किया था, जब वह आपको निराश कर देता है, तो निराश होकर उसके खिलाफ़ शिकायत न करें। परमेश्वर ने ही उसको आपको मदद करने से रोका होगा जिससे कि आप जीवित परमेश्वर को अपना सहारा बनाना सीख सकें।

परमेश्वर एक जलन रखने वाला परमेश्वर है और वह अपनी महिमा किसी दूसरे के साथ नहीं बाँटेगा।

"मैं परमेश्वर हूँ.... मैं अपनी महिमा दूसरे को न दूँगा" (यशा. 42:8)।

"मेरे अलावा तुम्हारा कोई दूसरा ईश्वर न हो" ऐसा शब्द है जिसे हमें बार-बार सुनने की ज़रूरत है, क्योंकि हमारे शरीर की प्रवृति मूर्तिपूजा की तरफ झुक जाने की - मानवीय और आर्थिक संसाधनों का सहारा ले लेने की तरफ होती है। परमेश्वर यह चाहता है कि हम अपनी सारी ज़रूरतों के लिए सिर्फ उस पर ही निर्भर रहें। तब हम हर समय जय में जी सकते हैं।

अध्याय 12
भरपूर कृपा

हमारी अब तक सारी चर्चा का कुल योग और सार यह है कि हमारा उद्धार कृपा से और विश्वास के द्वारा है।

"क्योंकि विश्वास के द्वारा कृपा से ही तुम्हारा उद्धार हुआ है; और यह तुम्हारी ओर से नहीं वरन् परमेश्वर का दान है" (इफि. 2:8)।

हमने अपने मसीही जीवन की शुरुआत - पापों की क्षमा और पवित्र-आत्मा में बपतिस्मा - कृपा से विश्वास द्वारा शुरु किया था। एक दिन जब हमारा प्रभु यीशु मसीह अपनी महिमा में लौटेगा, तो हम उससे मिलने के लिए आकाश के बादलों पर उठा लिए जाएंगे। वह भी कृपा और विश्वास द्वारा ही होगा।

इसलिए पृथ्वी पर हमारे मसीही जीवन का आरम्भ और अंत कृपा से और विश्वास के द्वारा है। और जो बात हमें सीखने की ज़रूरत है, वह यही है कि इसके बीच में जो कुछ है, वह भी इसी सिद्धान्त के आधार पर ग्रहण किया जाता है। कृपा से, विश्वास के द्वारा, हम हरेक दुष्टता पर जय पा सकते हैं और इस पृथ्वी पर हमारे लिए परमेश्वर द्वारा तय किए गए काम को पूरा कर सकते हैं।

परमेश्वर सारा भविष्य जानता है। हमारे साथ कल, अगले सप्ताह, या अगले वर्ष में भी ऐसा कुछ नहीं होगा जो परमेश्वर को हैरान कर सकता हो। वह अंत को आरम्भ से ही जानता है। इस बात से हमें बहुत तसल्ली मिल जानी चाहिए। क्योंकि परमेश्वर अगर यह जानता है कि कल या अगले सप्ताह हमें एक बड़ी परीक्षा का सामना करना पड़ेगा, तो उसका सामना करने के लिए वह अवश्य ही कृपा प्रदान करेगा।

प्रभु ने पौलुस से कहा, फ्मेरी कृपा तेरे लिए काफी है, क्योंकि मेरी सामर्थ्य निर्बलता में ही सिद्ध होती है" (2 कुरि. 12:9)। उसकी कृपा हरेक ज़रूरत के लिए काफी है।

"और परमेश्वर तुम्हें सब तरह की कृपा बहुतायत से दे सकता है, जिससे कि तुम सदैव सब बातों में परिपूर्ण रहो, और हर भले काम के लिए तुम्हारे भरपूरी से हो" (2 कुरि. 9:8)।

हमारी ज़रूरत के समय हमारी सहायता के लिए कृपा की भरपूरी मौजूद रहती है।

हम साहस के साथ कृपा के सिंहासन के पास आएं कि हम पर दया हो और कृपा पाएं, कि ज़रूरत के समय हमारी सहायता हो" (इब्रा. 4:16)।

आपकी ज़रूरत चाहे जैसी भी हो, उसे पूरा करने के लिए परमेश्वर की कृपा आपकी मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहती है। इस वजह से ही हमें साहस के साथ कृपा के सिंहासन के पास आमंत्रित किया गया है कि हम वह कृपा प्राप्त कर सकें।

बीते समय में हम हारे हैं क्योंकि हमने वह कृपा नहीं पाई थी। लेकिन भविष्य में यह बात बदल सकती है। हमारी ज़रूरत के समय में, अगर हम अपने आपको नम्र व दीन करके कृपा पाने के लिए पुकारेंगे, तो परमेश्वर हमें निराश नहीं करेगा।

बाइबल कहती है कि जो कृपा की भरपूरी पातें हैं वे यीशु मसीह के द्वारा राज करते हैं।

"जब एक ही मनुष्य के अपराध के कारण, मृत्यु ने उस एक ही के द्वारा राज्य किया, तो इससे बढ़कर, वे जो कृपा और धार्मिकता के दान को प्रचुरता से पाते हैं, उस एक ही यीशु मसीह के द्वारा जीवन में राज्य करेंगे" (रोमियों. 5:17)।

परमेश्वर की आदम के लिए यह इच्छा थी - कि वह एक शासक हो और सब वस्तुओं पर अधिकार रखे। उत्पत्ति 1:26 कहता है, "परमेश्वर ने कहा, 'हम मनुष्य को अपने स्वरूप में, अपनी समानता में बनाएं, और वे सारी पृथ्वी पर राज करें।"

आदम के आज्ञा-उल्लंघन की वजह से यह वचन उसके जीवन में पूरा न हो सका था। लेकिन परमेश्वर ने अब पृथ्वी पर एक नई नस्ल पैदा कर दी है - परमेश्वर के पुत्र जो यीशु मसीह में उनके विश्वास के द्वारा जीते हैं - जिन्हें राजाओं जैसी गरिमा के साथ रहना है और पृथ्वी पर राज करना है।

अगर आप अपने आपको दीन-हीन करेंगे और परमेश्वर की कृपा ग्रहण कर लेंगे, तो कोई पाप आप पर राज नहीं करने पाएगा।

आपके हृदय में फिर कभी किसी चिंता या आशंका को प्रवेश करने की ज़रूरत नहीं रहेगी।

इस पृथ्वी पर फिर आपके जीवन में कोई आपको दुःख नहीं दे सकेगा - न तो आपका मालिक, न आपका पड़ौसी, न आपके सम्बंधी, न आपके शत्रु, न शैतान, कोई भी नहीं - क्योंकि आपने जय के रहस्य जान लिए हैं।

परमेश्वर का धन्यवाद हो जो हमें मसीह में जय के उत्सव में लेकर चलता है।

परमेश्वर की कृपा की नई वाचा के अधीन रहना कितना अद्भुत है!

प्रतिज्ञा-देश आपके सामने खुला हुआ है!

फ्भीतर प्रवेश करें और उसे अपने अधिकार में ले लें!

अध्याय 13
परिशिष्ट 1 जय के रहस्य

1. हर समय एक जयवंत जीवन जीने के लिए, परमेश्वर आपकी मदद करना चाहता है। अपने पूरे हृदय से इस बात पर विश्वास करें।

2. परमेश्वर आपसे प्रेम करता है, इसलिए वह आपको अपनी आज्ञाएं देता है। इसलिए उनमें से हरेक आज्ञा को गंभीरता से लें।

3. परमेश्वर जितना यीशु से प्रेम करता है, उतना ही प्रेम वह उसके शिष्यों से करता है। इस प्रेम को व अपनी सुरक्षा पा लें।

4. हरेक परीक्षा का एक ईश्वरीय उद्देश्य होता है। परमेश्वर आपकी सहने की क्षमता से ज़्यादा सहने की अनुमति नहीं देगा। अपने पूरे हृदय से इस पर विश्वास रखें।

5. यीशु सब बातों में हमारे ही समान परखा गया था, फिर भी उसने कभी कोई पाप नहीं किया था। जब आपके किसी प्रलोभन/परीक्षा में पड़ें, तो अपने आदर्श उदाहरण के रूप में उसकी तरफ देखें।

6. परमेश्वर सिर्फ नम्र व दीन लोगों को ही कृपा देता है। इसलिए अपनी सूली उठाकर हर समय अपने आपको नम्र व दीन करते रहें।

7. परमेश्वर आपके सारे हालातों को उसके वश में रखेगा, जिससे कि सारी बातें मिलकर हमेशा आपके लिए सर्वश्रेष्ठ करेंगी।

8. सारी परिस्थितियों में आपके अटल सहायक के रूप में सिर्फ परमेश्वर पर ही भरोसा रखें। उससे कह दें कि वह आपको ऐसी हरेक बात या ऐसे हरेक व्यक्ति से दूर कर दे जिस पर आप निर्भर हो गए हैं।

9. परमेश्वर अपनी सामर्थ्य सिर्फ निर्बल लोगों को ही दे सकता है। इसलिए उसे अनुमति दें कि वह आपको तोड़-मरोड़ कर आपके "शून्य बिन्दु" पर पहुँचा दे।

अध्याय 14
परमेश्वर ने जो यीशु के लिए किया वही आपके लिए भी करेगा

बोझ और चिंताओं से जब हम झुक जाएं,

हमारा जीव पूरी तरह निराश हो जाए,

तब डरने की कोई बात नहीं है,

परमेश्वर कहीं आसपास ही है।

जो प्रेम उसने अपने पुत्र से किया,

वही प्रेम उसने तुमसे भी किया,

और तुम्हारी भी मदद वही करेगा,

सिर्फ उसके वादों में भरोसा रखना पड़ेगा

तुम्हारे बेड़े को वही पार करेगा

इसमें कोई रहस्य नहीं जो परमेश्वर कर सकता है

जो उसने यीशु के लिए किया, वही तुम्हारे लिए भी करता है

अपनी असीम सामर्थ्य से वह तुम्हें बलवंत करता है

इसमें कोई रहस्य नहीं जो परमेश्वर कर सकता है।

2. पाप और बुराई संसार में राज कर रहे थे

और वह तुम को अपने वश में किए हुए थे

लेकिन परमेश्वर का वचन हमेशा सच्चा है

'पाप का तुम पर राज नहीं हो सकता है'

जब प्रलोभनों की आंधी तेज़ हो जाएगी

प्रभु की कृपा तुम्हारी चट्टान बन जाएगी

तब तुम यीशु की तरह चलते रहोगे

हर दिन जय का उत्सव मनाते रहोगे

3. जब दुःख और बीमारी तुम्हारे पास आते हैं

और तुम्हारे प्रियजनों को भी छू जाते हैं

तब परमेश्वर तुम्हारा दर्द महसूस करता है

शिफा की ताक़त अपने पास महफूज़ रखता है

तुम्हारा पिता तुम्हारी ज़रूरत पूरी करता है

वही तो भरोसेमंद और सच्चा है

जैसे उसने यीशु को सम्भाला

वैसे ही तुम्हें भी सम्भालता है।

4. आह! यह कैसी तसल्ली की बात होती

अगर तुमने यह बात जान ली होती

कि यीशु ही तुम्हारा मालिक है

और वही तुम्हारा बड़ा भाई है

अब जो कुछ परमेश्वर का है वह तुम्हारा अपना है

और अब वह तुम्हें न कभी छोड़ेगा न त्यागेगा

और अब जबकि वही तुम्हारे हक़ में खड़ा है

तुम्हारा कौन सा दुश्मन अब आगे बढ़ेगा?

जैक पूनैन

( अनुवाद - विक्टर पॉल)

अध्याय 15
बुद्धि के वचन

अगर हम व्यवस्था के अक्षर का पालन करें लेकिन उसकी आत्मा का इनकार करें, तो हममें भक्ति तो होगी लेकिन उसकी शक्ति नहीं होगी।

2. एक नम्र व दीन व्यक्ति छोटी से छोटी बात के लिए भी परमेश्वर को और मनुष्य को धन्यवाद देता है।

3. अगर कोई पाप हम पर प्रबल हो जाए, तो उसके मूल कारणों में कहीं न कहीं घमण्ड मौजूद होगा।

4. अगर हम वास्तव में नम्र व दीन होंगे, तो यह असम्भव है कि हम परमेश्वर से कृपा न पाएं।

5. एक नम्र व दीन व्यक्ति पर दूसरे मनुष्य, शैतान और शरीर कभी जय नहीं पा सकते।

6. अगर हम अपने आपको नम्र व दीन करेंगे, तो परमेश्वर का सर्वशक्तिशाली हाथ हमारी रक्षा करेगा।

7. अगर दो लोग मन में दीन नहीं हैं, तो यह असम्भव है कि वे आपस में मिलकर एक हो जाएं।

8. मन के दीन वही हैं जो हमेशा अपनी ज़रूरत के प्रति सचेत रहते हैं, और इसलिए वे हमेशा अपना न्याय करते हैं।

9. प्रकाशन पाना वस्तुओं, लोगों और हालातों को परमेश्वर के नज़रिए से देखना है।

10. हमारी आँख का लट्ठा अपने एक ऐसे भाई के प्रति हमारा प्रेम-रहित और दोष लगाने वाला मनोभाव है जिसकी आँख में एक तिनका गिर गया है।

11. व्यवस्था हमें आज्ञाएं देती है, लेकिन उन्हें पूरा करने की योग्यता नहीं देती। कृपा हमें एक ऊँचे स्तर पर बुलाती है, लेकिन उस तक पहुँचने की सामर्थ्य भी देती है।

12. प्रतिदिन हमारे पास यह अवसर होता है कि या तो हम परमेश्वर की इच्छा पूरी करें, या अपना दिन बर्बाद कर दें।

13. हमारे रास्ते की रुकावटें, हमें पीछे हटने के संकेत नहीं बल्कि अक्सर हमारे विश्वास के लिए चुनौतियाँ होती हैं।

14. वह जो शरीर के अनुसार चलता है, दूसरों से अपेक्षाएं रखता है, लेकिन वह जो आत्मा के अनुसार चलता है, दूसरों की निर्बलताओं को सहता और उनकी सेवा करता है।

15. वह जो परमेश्वर के प्रेम में सुरक्षित है, दूसरों पर दोष नहीं लगाएगा, न उनसे ईर्ष्या करेगा, और न ही उनके साथ मुक़ाबला करेगा।

16. ऐसी महिमा जो परमेश्वर को महिमान्वित नहीं कर रही है, खोखली महिमा है।

17. अगर हम अभी स्वार्थ में जीवन व्यतीत करेंगे, तो ऐसे जीवन की स्मृति हमें पूरे अनन्त में पछतावे का कारण बनी रहेगी।

18. परमेश्वर हमें ज़रूरतमंद होकर दूसरों से मदद लेने देता है कि हम मसीह की देह में एक-दूसरे पर निर्भर रहना सीखें।

19. जब हम किसी को कोई भेंट देते हैं, तो हमें वह इस तरह देनी चाहिए कि उसकी मानवीय गरीमा को चोट न पहुँचे।

20. हमारे जीवन का असली मूल्य उसमें नहीं है जो हमने पाया है, बल्कि उसमें है जो हमने दिया है।

21. जो कुछ हम ईश्वरीय प्रकाशन के द्वारा पाते हैं, वही हमारा असली सम्पत्ति है। बाक़ी सब सिर्फ जानकारी है जो नकली नोट की तरह किसी काम की नहीं है।

22. विश्वास का आधार सिर्फ वह शब्द हो सकता है जो हमने परमेश्वर से सुना है। इसलिए मनुष्य को सिर्फ उसी शब्द के अनुसार जीवन बिताना चाहिए जो उसने परमेश्वर के मुख से सुना है।

23. इससे पहले कि परमेश्वर हमें ऊँचा उठा सके और हमारे द्वारा अपने उद्देश्यों को पूरा कर सके, यह ज़रूरी कि वह पहले हमें हमारे "शून्य-बिन्दु" पर पहुँचाए।

24. हमें मसीह की नकल करने के लिए नहीं बल्कि उसके पीछे चलने और उसके स्वभाव में सहभागी होने के लिए बुलाया गया है।

25. परमेश्वर का भय मानने का अर्थ है हमारे गुप्त जीवन में विश्वासयोग्य रहना।

26. परमेश्वर ने हमारे जीवन के लिए जो सिद्ध योजना बनाई है, उसे स्वयं हमारे अलावा और कोई नहीं बिगाड़ सकता।

27. पैसों के मामले में भरोसेमंद होना पैसों के मामले में सिर्फ ईमानदार होने से बहुत बढ़ कर होता है।

28. सच्ची आत्मिकता का अर्थ हमारी अपनी इच्छा का इनकार करके परमेश्वर की इच्छा पूरा करना होता है।

29. रेत पर घर बनाना एक मसीही सिद्धान्त को बौद्धिक रीति से समझ लेना और फिर उत्तेजित हो जाना है। परमेश्वर के वचन का पालन करना अपना घर चट्टान पर बनाना है।

30. आत्मिक होने के लिए, एक व्यक्ति को न सिर्फ वह त्यागना होता है जो ग़लत है बल्कि वह भी जिससे कोई (आत्मिक) लाभ नहीं होता।

31. ईश्वरीय प्रेम के बिना आत्मिक दान-वरदानों का होना ऐसा ही जैसे बिजली की नंगी तार; वह ज्योति की जगह मृत्यु लाती है।

32. यीशु को सूली पर चढ़ाया, इसलिए नहीं क्योंकि उसने एक पवित्र जीवन बिताया, बल्कि इसलिए क्योंकि उसने धार्मिक वेश्यावृत्ति का पर्दाफाश किया था। हम भी उसके उदाहरण का अनुसरण करें।

33. कोई भी सच्चा नबी किसी बाइबल कॉलेज में से नहीं आया था; सिर्फ झूठे नबी ही वहाँ से आए थे।

34. हमारी मानवीय क्षमताओं और पृथ्वी की योग्यताओं की परमेश्वर की नज़र में बिलकुल कोई क़ीमत नहीं है।

35. सबसे बड़ा स्वर्गदूत भी उसके सौन्दर्य, उसकी बुद्धि, और उसके पद पर घमण्ड करने की वजह से शैतान बन गया। हम ऐसे घमण्ड से हमेशा सचेत रहें।

36. व्यवस्था ऐसे मरहम की तरह है जो हमारे घावों को दबाए रखती है। कृपा ऐसी कीटाणुनाशक है जो घायल करने वाले कीटाणुओं को मिटा देती है।

37. विश्वास के सबसे साफ चिन्ह् परमेश्वर की स्तुति और धन्यवाद हैं।

38. परमेश्वर हमें भौतिक वस्तुएं इस्तेमाल करने के लिए देता है, इसलिए नहीं कि हम उनसे प्रेम करने लगें या उनके मोह में पड़ जाएं।

39. सच्ची मसीहियत वैराग्यवाद और भौतिकवाद के बीच में पाई जाती है।

40. हम यीशु जैसे सिर्फ उसके दूसरे आगमन के समय ही हो सकते हैं, लेकिन हम अभी वैसे चल सकते हैं जैसे वह चला था।

41. यीशु उसके घर में और उसके कार्यालय (बढ़ई की दुकान) में बुद्धि में बढ़ा था। हम भी इन दोनों जगहों में बुद्धि में बढ़ सकते हैं।

42. जब हम भाइयों पर दोष लगाते हैं, तो हम शैतान के सहकर्मी बन जाते हैं; जब हम उनके लिए मध्यस्थता की प्रार्थना करते हैं, तो हम मसीह के सहकर्मी हो जाते हैं।

43. अगर हम दूसरों के लिए एक ज़रूरत बन जाते हैं, तो हम उनके परमेश्वर के साथ चलने में रुकावट बन जाते हैं।

44. ऐसी हरेक बात जिसका मूल प्रेम में नहीं है, एक दिन मिट जाएगी।

45. एक शुद्ध हृदय का अर्थ परमेश्वर के अलावा और कोई अभिलाषा का न होना है।

47. अगर पवित्र-आत्मा के अभिषेक के बिना यीशु पिता की सेवा नहीं कर सकता था, तो हम भी नहीं कर सकते।

48. एक कलीसिया जिसमें पवित्र-आत्मा के दान-वरदान नहीं हैं, एक लकवा मारे हुए व्यक्ति की तरह है - उसमें जीवन हो सकता है, लेकिन वह एक प्रभावी रूप में किसी की सेवा नहीं कर सकता।

49. दो ऐसे व्यक्ति हैं जिनके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है - एक परमेश्वर, और दूसरा परमेश्वर में विश्वास करने वाला मनुष्य।

50. अगर हम अपनी ख़ुदी में मर जाएं, तो हम हर समय और हरेक परिस्थिति में "शांति में विश्राम" कर सकते हैं।