इस पुस्तक में, हम प्रकाशित-वाक्य की पुस्तक के पहले की तीन अध्यायों में से यह देखेंगे कि उनके द्वारा प्रभु अपनी कलीसिया से क्या कहना चाह रहा है।
शैतान प्रकाशित-वाक्य की पुस्तक से बहुत घृणा करता है क्योंकि वह आख़िर में होने वाली उसकी हार और उसकी अंतिम नियति का बयान करती है। अगर शैतान किसी पुस्तक से घृणा करता है, तो हम यक़ीन कर सकते हैं कि उसमें हमारे लिए ज़रूर कोई मूल्यवान बात रखी है। प्रकाशितवाक्य की पुस्तक विशेष रूप से उन लोगों के लिए लिखी हुई है जो अंत के दिनों में जयवंत होना चाहते हैं। उस पुस्तक के पहले अध्याय में हम प्रभु यीशु मसीह का दर्शन पाते हैं। अगले दो अध्यायों में हम उसके द्वारा एशिया मायनर की सात कलीसियाओं का मूल्यांकन पाते हैं। इन मूल्यांकनों में, अगर हम चाहें, तो अपना और अपनी कलीसियाओं का भी मूल्यांकन कर सकते हैं।
प्रभु द्वारा हमारे जीवन का मूल्यांकन उस मूल्यांकन से बहुत अलग हो सकता है जो हम ख़ुद करते हैं या दूसरे करते हैं। अपनी आत्मिकता के विषय में हममें से ज़्यादातर लोगों का मत वास्तविकता से बहुत ऊँचा होता है। अगर हम यहीं और अभी प्रभु द्वारा मूल्यांकित किए जाने, और ईमानदारी से उन बातों का सामना करने के लिए तैयार हो जाएं जो वह हमारे विषय में और हमारी कलीसिया के विषय में हमें दिखाता है, तो हम ऐसी बहुत सी पीड़ा और अप्रसन्नता से बच जाएंगे जो हमें एक दिन उसके न्यायासन के सामने खड़े रहने पर भोगनी पड़ेगी।
सात आरम्भिक कथन
"यीशु मसीह का प्रकाशन, जो परमेश्वर ने उसे इसलिए दिया कि अपने दासों को वे बातें दिखाए जो शीघ्र होने वाली हैं। उसने अपना स्वर्गदूत भेज कर इन्हें अपने दास यूहन्ना को बताया, जिसने परमेश्वर के वचन और यीशु मसीह की गवाही दी, अर्थात् उन सारी बातों की भी जो उसने देखीं। धन्य है वह जो इस नबूवत के वचन को पढ़ता है, और धन्य हैं वे जो इसे सुनते हैं तथा इसमें लिखी हुई बातों का पालन करते हैं क्योंकि समय निकट है" (प्रका. 1:1-3)।
इन पहले तीन पदों में हमें ऐसी सात अभिव्यक्तियाँ मिलती हैं जो प्रकाशित वाक्य की पूरी पुस्तक का परिचय हैं।
सबसे पहले, इस पुस्तक को एक प्रकाशन कहा गया है। प्रकाशन शब्द जिस मूल यूनानी भाषा का अनुवाद है, उसका अर्थ है 'एक पर्दे का हटाया जाना'। सिर्फ परमेश्वर ही अपने सत्यों पर से हमारे लिए पर्दा हटा सकता है। यह पहली बात है जिसे हमें अपने मन में रखना है। परमेश्वर अपने वचन में हमसे जो कुछ कहने की कोशिश कर रहा है, उसे समझने के लिए हमें बुद्धि और प्रकाशन का आत्मा चाहिए। मानवीय चतुराई उसे कभी नहीं जान सकती।
दूसरी बात, कि यह प्रकाशन "उसके (मसीह के) दासों को दिखाने" के लिए दिया गया है, यह सबके लिए नहीं है। यह सिर्फ प्रभु के बंधुवा मज़दूरों के लिए है।
एक वेतन लेने वाले सेवक और एक बंधुवा मज़दूर में फ़र्क होता है। एक सेवक वेतन के लिए काम करता है। लेकिन एक बंधुवा-मज़दूर अपने मालिक का गुलाम होता है और उसकी अपनी कोई मर्ज़ी नहीं होती, वह अपनी मर्ज़ी से कुछ नहीं कर सकता।
तो प्रभु के बंधुवा-मज़दूर कौन हैं? वे जिन्होंने ख़ुशी से अपनी सारी योजनाएं और महत्वकांक्षाएं छोड़ दी हैं। उन्होंने अपने सारे अधिकार भी छोड़ दिए हैं और अब वे अपने जीवन के हरेक क्षेत्र में बस प्रभु की ही इच्छा पूरी करने की अभिलाषा करते हैं। सिर्फ ऐसे विश्वासी ही वास्तव में बंधुवा-मज़दूर होते हैं।
प्रभु के बहुत सेवक हैं, लेकिन बहुत कम ऐसे हैं जो बंधुवा मज़दूर बनने के लिए तैयार हैं। परमेश्वर का वचन सिर्फ उसके बंधुवा-मज़दूरों द्वारा ही सही तरह समझा जा सकता है। दूसरे बौद्धिक तरीक़े से उसका अध्ययन कर सकते हैं, जैसे कोई एक पाठ्य-पुस्तक का अध्ययन करता है। लेकिन वे उसमें छुपी आत्मिक वास्तविकताओं को कभी नहीं जान पाएंगे। यीशु ने यूहन्ना 7:17 में यह स्पष्ट कर दिया था कि सिर्फ परमेश्वर की इच्छा का पालन करने के द्वारा ही एक व्यक्ति सत्य को जान सकता है।
तीसरी बात हमें यह बताई गई है कि यह पुस्तक यूहन्ना को "चिन्हित" की गई थी (पद 1- के.जे.वी.) इसका अर्थ है कि संदेश प्रतीकात्मक चिन्हों द्वारा दिया गया था। पहले तीन अध्यायों में हम दीपदानों और सितारों, कांसे के पैर और दोधारी तलवार, छुपा हुआ मन्ना और सफेद पत्थर आदि के विषय में पढ़ते हैं। ये शब्दार्थक रूप में वास्तविक नहीं हैं। ये आत्मिक वास्तविकताओं के चिन्ह् हैं। यह समझने के लिए कि इन प्रतीकात्मक चिन्हों का क्या अर्थ है, हमें वचन को वचन के साथ जोड़ कर देखना होगा।
चौथी बात यह कि यूहन्ना ने इस पर्दे के हटाए जाने को फ्परमेश्वर का वचनय् कहा है (पद 2)। प्रकाशितवाक्य 22:18,19 में, ऐसे हरेक व्यक्ति के लिए बहुत कठोर दण्ड की आज्ञा दी गई है जो फ्इस पुस्तक के वचनोंय् में से कुछ घटाएगा या बढ़ाएगा। पूरी बाइबल में ऐसी कोई पुस्तक नहीं है जिसके साथ ऐसी गंभीर चेतावनी जुड़ी हो।
परमेश्वर के वचन का हरेक भाग हमें "शिक्षा देने, ताड़ना देने, सुधारने, और धार्मिकता की शिक्षा देने के लिए" दिया गया है कि हम "प्रत्येक भले कार्य के लिए कुशल और तत्पर हो जाएं" (2 तीमु. 3:16,17 के.जे.वी.)।
प्रकाशितवाक्य के जिन तीन अध्यायों को हम देखेंगे, वे भी हमें सिद्ध बनाने के लिए ही दिए गए हैं। जो लोग अपने जीवन में सिद्ध होने में दिलचस्पी रखते हैं, सिर्फ वही परमेश्वर के वचन के किसी भी भाग के अध्ययन में से सबसे ज़्यादा फायदा ले सकते हैं।
पाँचवीं बात यह कि यह प्रकाशन "यीशु मसीह की गवाही" है (पद 2)। प्रकाशितवाक्य 19:10 में हमें यह बताया गया है कि "यीशु की गवाही नबूवत का आत्मा है।" सच्ची नबूवत सिर्फ घटनाओं की तरफ नहीं बल्कि हमेशा प्रभु की ओर संकेत करेगी। नबूवत की सच्ची समझ हमें प्रभु के सामने नम्र व दीन करेगी, वह होने वाली घटनाओं के किसी काल्पनिक ज्ञान पर हममें कोई गर्व पैदा नहीं करेगी। आने वाले दिनों में होने वाली घटनाओं के क्रमांकन में हमसे कोई ग़लती हो सकती है, लेकिन अगर प्रभु यीशु के ज्ञान के विषय में कोई ग़लती नहीं करते, तो हम भला ही करेंगे।
इस प्रकाशन में हालांकि उन बातों पर से पर्दा हटाया गया है "जो शीघ्र होने वाली हैं" (पद 1), फिर भी इसका प्राथमिक उद्देश्य यह नहीं है। इसे "यीशु मसीह की गवाही" कहा गया है। यह इसलिए नहीं दी गई है कि हमें भविष्य में होने वाली घटनाओं की विस्तृत जानकारी दे, बल्कि हमें यह दिखाने के लिए दी गई है कि भविष्य में होने वाली वे घटनाएं प्रभु यीशु के नियंत्रण में हैं। प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में से हम प्राथमिक रूप में प्रभु की जय को देखते हैं।
इसलिए, यह अध्ययन करते हुए, हम "अपनी दृष्टि यीशु पर लगाए रहें।"
छठी बात यह है, कि उन सब लोगों के लिए, "जो इसमें लिखी बातों का पालन करते हैं," एक आशिष की प्रतिज्ञा की गई है (पद 3 के.जे.वी.)। पवित्र शास्त्र की यह अंतिम पुस्तक हमें आज्ञापालन करने के लिए दी गई है। पवित्र शास्त्र के हरेक भाग का आज्ञापालन करना आशिष लाता है। लेकिन प्रकाशितवाक्य की पुस्तक ही एक ऐसी पुस्तक है, जो इसमें लिखी बातों का आज्ञापालन करने वाले के लिए एक ख़ास आशिष की प्रतिज्ञा करती है।
अगर इसके प्रतीकात्मक चिन्ह् हमें ज़्यादा समझ भी न आएं, तो जो हम पढ़ते हैं, उसका आज्ञापालन करना ही काफी होगा। आशिष की प्रतिज्ञा उनके लिए नहीं है जो इसके प्रतीकात्मक चिन्हों के अर्थ को समझ लेंगे या जो होने वाली घटनाओं के क्रमांकन की सही व्याख्या कर सकेंगे। परमेश्वर की नज़र में आज्ञापालन का महत्व उसके वचन की बौद्धिक समझ होने से कहीं बढ़कर है। दुर्भाग्यवश, ज़्यादातर विश्वासी उसके वचन के पालन से ज़्यादा उसके ज्ञान को मूल्यवान मानते हैं।
जो खाना हम खाते हैं, वह माँस, लहू और हड्डी में बदल जाता है, फिर चाहे हमें यह समझ भी न आए कि यह कैसे होता है। अगर हमारे पचाने वाले अंग सही तरह काम कर रहे हैं, तो यही काफी है। ऐसा ज्ञान जिसमें परमेश्वर की आज्ञापालन नहीं है, बिना पचे हुए खाने की तरह है। वह जीवन की जगह मृत्यु लाता है। ज्ञान के साथ आज्ञापालन, जीवन लाता है।
सातवीं बात, उनके लिए भी एक आशिष की प्रतिज्ञा की गई है जो इन "नबूवत के वचनों को पढ़ते हैं" (पद 3) यह उनके लिए है जो सार्वजनिक रूप में इसे ऊँची आवाज़ में पढ़ते हैं और दूसरों विश्वासियों को भी सिखाते हैं।
याद रखें कि पहली शताब्दी में विश्वासियों के लिए प्रकाशितवाक्य की व्यक्तिगत प्रतियाँ उपलब्ध नहीं थीं। एक व्यक्ति पुस्तक का संदेश सिर्फ तभी सुन सकता था जब वह कलीसियाई सभा में ऊँची आवाज़ में पढ़ी जाती थी। यही वजह थी कि पौलुस ने तीमुथियुस को "पवित्र शास्त्र पढ़ कर सुनाने, उपदेश देने, और सिखाने" के लिए उत्साहित किया (1 तीमु, 4:13)।
आज हमारे लिए यह इस तरह है कि जो कुछ भी हम परमेश्वर के वचन से पाते हैं, उसे दूसरों के साथ बांटते रहें। जो भी यह करते हैं, उनके लिए एक आशिष की प्रतिज्ञा है।
परमेश्वर की तरफ से कृपा और शांति
"यूहन्ना की ओर से उन सात कलीसियाओं के नाम जो एशिया में हैं, उसकी ओर से जो है, जो था और जो आने वाला है, और उन सात आत्माओं की तरफ से जो उसके सिंहासन के समक्ष हैं, और यीशु मसीह की ओर से जो विश्वासयोग्य साक्षी, मृतकों में से जी उठने वालों में पहलौठा, और पृथ्वी के राजाओं का शासक है, तुम्हें कृपा और शांति मिलती रहे। जो हमसे प्रेम रखता है और जिसने अपने लहू के द्वारा हमें पापों से छुड़ाया, और हमें एक राज्य और अपने पिता के लिए याजक बनाया, उसकी महिमा तथा सामर्थ्य युगानुयुग हो। आमीन। देखो, वह बादलों के साथ आने वाला है, हर आँख उसे देखेगी, वरन् वे भी देखेंगे जिन्होंने उसे बेधा था, और पृथ्वी के समस्त कुल उसके कारण विलाप करेंगे। हाँ, आमीन। प्रभु परमेश्वर, जो है, जो था, और जो आने वाला है, और जो सर्वशक्तिमान है, यह कहता है, 'मैं ही अल्फा और ओमेगा हूँ'" (प्रका. 1:4-8)।
यहून्ना ने प्रार्थना के साथ बात शुरू की कि उन्हें परमेश्वर की तरफ से कृपा और शांति मिले।
"कृपा" का अर्थ परमेश्वर द्वारा दी जाने वाली वह मदद है जो हमारी वर्तमान ज़रूरत के अनुसार है। अगर हमें क्षमा की ज़रूरत है, तो यह कृपा हमें क्षमा प्रदान करेगी। अगर हम पाप पर जय पाने के लिए सामर्थ्य चाहते हैं, तो वह कृपा हमें सामर्थ्य प्रदान करेगी। अगर हमें परखे जाने के समय विश्वासयोग्य बने रहने की ज़रूरत है, तो कृपा हमें ज़रूरी मदद प्रदान करेगी। परमेश्वर की कृपा हमारी हरेक ज़रूरत पूरी करने के लिए हमेशा काफी होती है।
"शांति" परमेश्वर का एक और अद्भुत उपहार है - हमारे हृदयों में ऐसी शांति जिसके साथ ऐसी किसी बात का कोई अहसास नहीं आता जिसमें हम दोषी ठहराए जा सकें या दण्डित किए जा सकें; और हमारे आसपास के लोगों के साथ शांति, जिससे कलीसिया में संगति संभव होती है।
यह अभिवादन त्रिएक्य परमेश्वर के नाम में भेजा गया है। वर्तमान, भूत और भविष्य में हमेशा बने रहने की बात पिता के विषय में है।
"सात आत्माएं" पवित्र-आत्मा के विषय में है। शास्त्रों में अंक सात सिद्धता दर्शाता है। और "सात आत्माएं" सिद्धता के आत्मा के रूप में पवित्र-आत्मा के विषय में है। यशायाह 11:2,3 में पवित्र-आत्मा को इस तरह दर्शाया गया हैः
1. प्रभु का आत्मा
2. बुद्धि का आत्मा
3. समझ का आत्मा
4. परामर्श का आत्मा
5. सामर्थ्य का आत्मा
6. ज्ञान का आत्मा
7. परमेश्वर के भय का आत्मा
यीशु मसीह, त्रिएकता का द्वितीय पुरुष, अनेक शीर्षकों द्वारा जाना जाता है, जिन्हें हम एक-एक कर देख सकते हैं (पद 5)।
मसीह के शीर्षक
"विश्वासयोग्य साक्षी" हमारे प्रभु का उसके द्वारा की गई प्रतिज्ञाओं के प्रति पूरी तरह भरोसेमंद होने के विषय में है।
"मृतकों में से जी-उठने वालों में पहलौठा" उसके ऐसा पहला मनुष्य होने के विषय में है जिसने मृत्यु पर जय पाई, और जो सदा के लिए कब्र से बाहर आ गया है। जो मुर्दे पहले जी-उठे थे वे फिर मर गए थे। अब जबकि यीशु ने मृत्यु पर स्थाई रूप से जय पा ली है, इसलिए हमें रोग और मृत्यु से बिलकुल भी डरने की ज़रूरत नहीं है।
यीशु को "पृथ्वी के राजाओं का शासक" भी कहा गया है। हमारे प्रभु को स्वर्ग और पृथ्वी का सारा अधिकार दिया गया है। वह पृथ्वी के राजाओं के मनों को अपने वश में रखता है। "प्रभु के हाथ में राजा का हृदय जल की नालियों के समान है, वह उसे जहाँ चाहता है मोड़ लेता है" (नीति. 21:1)।
फिर आगे हमारे प्रभु के विषय में लिखा है "जो हमसे प्रेम करता है और जिसने अपने लहू के द्वारा हमें पापों से छुड़ाया" (पद 5 ऐम्प्लिफाइड)। हमारे लिए उसका प्रेम अनन्त है। उसने अपना लहू सिर्फ हमारे पापों को क्षमा करने के लिए ही नहीं बहाया, बल्कि एक ही बार हमेशा के लिए हमारे सभी पापों से मुक्त करने के लिए भी बहाया है। नई वाचा में सबसे पहली प्रतिज्ञा यही है कि वह अपने लोगों को उनके पापों से छुड़ाएगा (मती 1:21)। पाप की शक्ति से छुटकारा पा लेना पूरी नई वाचा की एक महान् विषय-वस्तु है। अगर हम कृपा में जीते हैं, तो कोई पाप हम पर प्रबल नहीं हो सकता (रोमि. 6:14)।
परमेश्वर हमारे पिता के लिए एक राज्य और याजक
हमें आगे बताया गया है कि प्रभु यीशु ने हमें "एक राज्य और अपने पिता के लिए याजक बनाया है" (पद 6)।
परमेश्वर का राज्य वह परिमण्डल है जिसमें परमेश्वर का अधिकार उसकी पूरी प्रभुसत्ता में है। कलीसिया पृथ्वी पर "परमेश्वर के राज्य" की प्रतिनिधि है - अर्थात् एक ऐसे लोगों का समूह जिन्होंने अपने जीवन के हरेक क्षेत्र को परमेश्वर के अधिकार के अधीन कर दिया है। प्रभु ने एक उपद्रवी भीड़ को एक सुव्यवस्थित राज्य में बदल दिया है-एक ऐसी प्रजा जो अब परमेश्वर द्वारा प्रशासित है।
हमें याजक भी बनाया गया है। हरेक विश्वासी - स्त्री और पुरुष - व्यक्तिगत तौर पर प्रभु के याजक बनाए गए हैं। परमेश्वर की नज़र में, कलीसिया में "याजक" कहलाया जाने वाला कोई विशेष वर्ग नहीं है। यह पुराने नियम की व्यवस्था है। जहाँ कहीं ऐसी व्यवस्था है, वहाँ कलीसिया को वापिस ईसा-पूर्व के समयकाल में ले जाया जा रहा है! हम सब याजक हैं!
याजक होते हुए, हम सभी को परमेश्वर को बलिदान चढ़ाने के लिए बुलाया गया है। पुरानी वाचा में वे जानवरों की देह चढ़ाते थे, लेकिन आज हमें एक जीवित बलिदान के रूप में अपनी देह को चढ़ाना है (रोमि. 12:1)। "अपने परमेश्वर और पिता" एक वैसी ही अभिव्यक्ति है जो यीशु ने अपने जी-उठने के बाद व्यक्त की थी, "मेरा पिता और तुम्हारा पिता, मेरा परमेश्वर और तुम्हारा परमेश्वर" (यूहन्ना 20:17)। उसका पिता अब हमारा भी पिता है। जैसे यीशु ने अपने पिता में अपनी सुरक्षा पाई थी, वैसे ही हम भी परमेश्वर में अपने पिता के रूप में सुरक्षा पा सकते हैं। फ्आमीनय्, यूहन्ना ने कहा (पद 6)। और हम भी कहते हैं, "ऐसा ही हो!" सिर्फ उसकी ही "महिमा और सामर्थ्य युगानुयुग होती रहे" (पद 6)।
फिर पद 7 में, मसीह के पृथ्वी पर लौटने की नबूवत है। हमारे प्रभु को इस संसार ने अंतिम बार तब देखा था जब वह एक लज्जाजनक रूप में कलवरी की सूली पर था। लेकिन इन्हीं दिनों में से किसी एक दिन संसार उसे महिमा में बादलों पर आता देखेगा। हरेक आँख उसे देखेगी। जिन्होंने उसे बेधा है (इस्राएल देश) वे भी उसे देखेंगे। जब वह आएगा तब पृथ्वी के कुल विलाप करेंगे। लेकिन हम आनन्द मनाएंगे। यूहन्ना फिर से कहता है "आमीन"। और हम भी कहते हैं, "ऐसा ही हो!"
पद 8 में, परमेश्वर स्वयं को अल्फा और ओमेगा कहता है, सर्वसामर्थी और सदाकाल से अस्तित्व में रहने वाला परमेश्वर। जब कुछ नहीं था, वह तब भी था। और जब समय का अंत होगा, वह तब भी होगा। कहीं भी ऐसा कुछ भी नहीं हो सकता जो परमेश्वर को आश्चर्य में डाल सकता हो। हमारा पिता सिर्फ आरम्भ से ही अंत को नहीं जानता, बल्कि, सर्वशक्तिशाली परमेश्वर होते हुए, वह सब कुछ अपने वश में भी रखता है। इसलिए हमें भविष्य के विषय में किसी बात का कोई डर नहीं होना चाहिए।
प्रकाशितवाक्य की पुस्तक के अंत में, परमेश्वर को फिर से सर्व-सामर्थी और अल्फा और ओमेगा कहा गया है (19:6; 22:13)। हम यह भी कह सकते हैं कि प्रकाशितवाक्य की पूरी पुस्तक इन दो कथनों में बीच में रखी हुई है जो हमारे सर्वज्ञानी और सर्वसामर्थी परमेश्वर और पिता के विषय में बताते हैं। इसलिए, जब इस पुस्तक में हम अंत के दिनों में परमेश्वर के लोगों पर पड़ने वाली परीक्षाओं और दुःखों के विषय में और हमारे आसपास के संसार पर पड़ने वाली मुसीबतों के विषय में पढ़ते हैं, तब यह बात हमें पूरी सुरक्षा प्रदान करती है।
महिमा से भरे सात सत्य
अंत के इन दिनों में, हमारे प्रभु और उसके साथ हमारे सम्बंध के विषय में जिन महान् सत्यों में हमें जड़ पकड़ कर रहना हैं, उनके विषय में हमने अभी यह जाना हैः
1. हमारे प्रभु द्वारा की गई प्रतिज्ञाएं पूरी तरह भरोसा करने लायक़ हैं।
2. मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु - मृत्यु पर उसने जय पा ली है।
3. स्वर्ग और पृथ्वी की सब बातों पर उसका पूरा अधिकार है।
4. हमारे लिए उसका प्रेम हमेशा-बना-रहने-वाला और कभी-न-बदलने वाला है।
5. उसने हमें पाप की शक्ति से छुड़ा लिया है।
6. उसका पिता अब हमारा भी पिता है।
7. वह अपना राज्य स्थापित करने के लिए पृथ्वी पर वापिस आने वाला है।
आने वाले समयों में अगर हमें दृढ़ और स्थिर रहना है, तो हमें इन सत्यों में जड़ पकड़े और बने रहना होगा।
"मैं यूहन्ना, जो तुम्हारा भाई और यीशु के कारण क्लेश, राज्य और धीरज में तुम्हारा सहभागी हूँ, परमेश्वर के वचन और यीशु की गवाही के कारण पतमुस नामक द्वीप में था। मैं प्रभु के दिन आत्मा में आ गया और मैंने अपने पीछे तुरही की ध्वनि-सा एक बड़ा शब्द सुना" (प्रका. 1:9,10)।
यूहन्ना,जो तुम्हारा भाई है
हम यहाँ पढ़ते हैं कि यूहन्ना स्वयं को "तुम्हारा भाई" कहता है। उस समय, यीशु द्वारा चुने हुए शिष्यों में से सिर्फ यूहन्ना ही जीवित था। जब पतमुस के द्वीप में प्रभु ने उसे यह प्रकाशन दिया, तब वह लगभग 95 साल का था। तब तक वह परमेश्वर के साथ-साथ 65 वर्ष तक चल चुका था। लेकिन तब तक भी वह एक भाई ही था।
वह पोप जॉन या रैवरैन्ड जॉन नहीं था। वह पास्टर जॉन भी नहीं था! वह सिर्फ एक मामूली भाई था। यीशु ने अपने शिष्यों को यह सिखाया था कि वे हर तरह की पदवियों से बच कर रहें और अपनी पहचान सिर्फ एक भाई के रूप में ही बनाए रखें (मत्ती 23:8-11)। और जैसा उसने कहा था, प्रेरितों ने उसकी इस आज्ञा का ठीक वैसा ही पालन किया था। आज बहुत से लोग इस आज्ञा का पालन नहीं करते।
हमारा सिर्फ एक ही सिर और एक ही अगुवा है-अर्थात् मसीह। और कलीसिया में हमारी सेवकाई और अनुभव चाहे कुछ भी हो, लेकिन बाक़ी के हम सब लोग भाई हैं।
वह क्लेश जो मसीह में है
यूहन्ना ने अपने विषय में यह भी कहा कि वह "उस क्लेश में सहभागी है जो यीशु में है।" यीशु का जो भी शिष्य पूरे हृदय से उसके पीछे चल रहा है, जब तक वह इस संसार में है, उसे "उस क्लेश में सहभागी होना है जो यीशु में है।"
यूहन्ना को यह प्रकाशन ऐसे समय में नहीं मिला था जब वह बड़े आराम में जी रहा था। उसे यह तब मिला था जब वह "परमेश्वर के वचन और यीशु की गवाही" के प्रति विश्वासयोग्य रहने के कारण पतमुस द्वीप पर क्लेश भोग रहा था (पद 9)। उसे स्वयं वह क्लेश भोगना पड़ा जिससे कि वह अंत के दिनों में मसीह-विरोधी के हाथों महाक्लेश भोगने वाले संतों को लिख सके। इससे पहले कि परमेश्वर हमें उन लोगों के बीच एक सेवकाई दे जो क्लेश भोग रहे हैं, वह पहले हमें परीक्षाओं और क्लेशों में से लेकर गुज़रता है। पौलुस ने कहा, "परमेश्वर हमारे सब क्लेशों में हमें शांति देता है कि हम भी उनको जो क्लेशों में हैं वैसी ही शांति दे सकें जैसी परमेश्वर ने हमें दी है" (2 कुरि. 1:4)।
इसलिए इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि यह धर्म-सिद्धान्त, कि यीशु चुपके से आकर अपनी कलीसिया को महाक्लेश से पहले ही इस संसार में से ले लेगा (रैप्चर), सबसे पहले एक ऐसे देश (इंग्लैण्ड) में से आया जहाँ मसीही बड़े आराम से रह रहे थे, और ऐसे समय में (उन्नीसवीं शताब्दी का मध्य-भाग), जिसमें अपने विश्वास के लिए उन्हें कोई क्लेश नहीं भोगना पड़ रहा था।
इस धर्म-सिद्धान्त का आज भी प्रचार किया जा रहा है और वे सब मसीही इस पर विश्वास कर रहे हैं जो चैन और आराम में रह रहे हैं, ऐसे देशों में जहाँ मसीहियों को कोई सताव नहीं हो रहा है। ज़्यादातर मसीहियों की प्रार्थना क्योंकि अब मूल रूप में यही होती हैः "प्रभु, मेरे जीवन को पृथ्वी पर और ज़्यादा आरामदायक बना दे", इसलिए यह कोई हैरानी की बात नहीं कि उन्होंने महा-क्लेश से पहले कलीसिया के ले लिए जाने की इस शिक्षा को स्वीकार कर लिया है। इस तरह, शैतान ने बहुत से मसीहियों को झूठे आराम के एक ऐसे भ्रम में डाल दिया है, कि जब महाक्लेश उन पर आ पड़ेगा, तो वे उसके लिए बिलकुल तैयार न होंगे।
यीशु के शब्द एकदम स्पष्ट हैंः संसार में तुम्हें क्लेश होता है, लेकिन साहस रखो, मैंने संसार को जीत लिया है (यूहन्ना 16:33)। क्लेश चाहे छोटे हों या बड़े, उसने यह कभी नहीं कहा कि हम क्लेश से बचा लिए जाएंगे; लेकिन उसने यह ज़रूर कहा कि जैसे उसने उन पर जय पाई थी, वैसे ही हम भी उन पर जयवंत होंगे। हमें क्लेश में से बचाने से कहीं बढ़कर उसकी दिलचस्पी हमें जसवंत बनाने में है, क्योंकि हमारे आराम से कहीं बढ़ कर उसकी दिलचस्पी हमारे चरित्र बनाने में है।
और न ही यीशु ने कभी यह कहा, जैसा कुछ लोग सिखाते हैं, कि महाक्लेश में से बच निकलना विश्वासयोग्य रहने का प्रतिफल है। इसके विपरीत, उसने यह कहा कि जिन्होंने उसके पीछे चलने के लिए अपना सब कुछ छोड़ दिया है, उन्हें उन लोगों से ज़्यादा क्लेश पड़ेगा जो उसके पीछे नहीं चल रहे हैं (मरकुस 10:30)।
उसने जब शिष्यों के लिए अपने पिता से प्रार्थना की, तब उसने कहा, "मैं तुझसे यह विनती नहीं करता कि तू उन्हें संसार में से उठा ले, बल्कि यह कि तू उन्हें उस दुष्ट से बचाए रख" (यूहन्ना 17:15)। वह यह नहीं चाहता था कि उसके शिष्य उस समय संसार में से उठा लिए जाएं, क्योंकि उन्हें क्लेश में से गुज़रना था।
तीसरी शताब्दी में, जब मसीहियों को रोमी अखाड़ों में शेरों के आगे फेंका जा रहा था और उन्हें रोमी साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में चौराहों पर बांध कर ज़िन्दा जलाया जा रहा था, तब भी प्रभु ने उन्हें उन क्लेशों में से नहीं छुड़ाया। जिसने दानिय्येल के समय में शेरों के मुँह बंद किए थे और जलते हुए भट्ठे की आग की ताक़त ले ली थी, उस परमेश्वर ने यीशु के शिष्यों के लिए ऐसे चमत्कार नहीं किए-क्योंकि ये नई वाचा के मसीही थे जो मृत्यु के द्वारा परमेश्वर की महिमा करने वाले थे। अपने स्वामी यीशु की तरह, उन्होंने न तो यह माँगा और न ही यह अपेक्षा रखी कि उनके शत्रुओं से उन्हें बचाने के लिए स्वर्गदूतों के बारह सैन्य-दल आ पहुँचे।
स्वर्ग से परमेश्वर ने अपने पुत्र की दुल्हन को शेरों द्वारा टुकड़े-टुकड़े किए जाते हुए और आग में भस्म होकर राख बनते हुए देखा_ और उनकी साक्षी में उसकी महिमा हुई - क्योंकि ये वे हैं जो मेमने के पीछे जहाँ वह जाता है चलते हैं - एक हिंसक शारीरिक मृत्यु तक भी (प्रका. 14:4)। सिर्फ एक बात जो प्रभु ने उनसे कही वह यह थी, "प्राण देने तक विश्वासयोग्य रह, तब मैं तुझे जीवन का मुकुट दूँगा" (प्रका. 2:10)।
आज भी, जबकि बहुत से देशों में यीशु के शिष्यों को उसके नाम के कारण यातनाएं दी जा रही हैं और उन्हें सताया जा रहा है, तो प्रभु उन्हें संसार में से ले नहीं रहा है। और न ही महाक्लेश से पहले वह हमें स्वर्ग में उठा लेगा। वह इससे भी बेहतर कुछ करेगा। वह महाक्लेश के बीच में रहते हुए हमें जयवंत करेगा।
हमें क्लेश से बचाने से ज़्यादा, यीशु की ज़्यादा दिलचस्पी हमें बुराई से बचाने में है। वह हमें क्लेश में से गुज़रने देता है क्योंकि वह जानता है कि सिर्फ यही वह तरीक़ा है जिससे हम आत्मिक बल पाते हैं।
ऐसा संदेश आराम-देह जीवन से प्रेम करने वाले उस मसीही-जगत के लिए विचित्र ही है जो वर्षों तक प्रत्येक रविवार कानों की खुजली मिटाने वाले प्रचारकों द्वारा पंक्तियों में बैठा कर रखे गए हैं। लेकिन आरम्भिक कलीसियाओं में प्रेरितों ने इस संदेश का प्रचार किया था। "और वे (पौलुस और बरनाबास) चेलों के मनों को स्थिर करते और विश्वास में स्थिर बने रहने के लिए यह कहते हुए प्रोत्साहित करते रहेः 'हमें बड़े क्लेश उठाकर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना है'" (प्रेरितों. 14:22)।
जिन छोटी-छोटी परीक्षाओं का सामना हम अपने घरों और कार्यस्थलों में करते हैं, वे हमें आने वाले दिनों के बड़े क्लेशों के लिए तैयार करती हैं। इसलिए यह अति आवश्यक है कि हम अभी विश्वासयोग्य रहें। क्योंकि परमेश्वर कहता है, "अगर तू पैदल सेना के साथ दौड़ा और उन्होंने तुझे थका दिया है, तो तू घोड़ों का मुक़ाबला कैसे कर सकता है?" (यिर्म. 12:5)।
यूहन्ना यहाँ यह कहता है कि वह "उस क्लेश, राज्य और धीरज में सहभागी है जो यीशु में है" (पद 9)। इससे पहले कि हम उसके राज्य में उसके सिंहासन के सहभागी हों, हमें पहले यीशु के साथ उसके क्लेशों में सहभागी होना पड़ता है।
धीरज एक ऐसा महान् गुण है जिस पर पूरी नई वाचा में ज़ोर दिया गया है। स्वयं यीशु ने यह कहा, "वे क्लेश दिलाने के लिए तुम्हें पकड़वाएंगे... लेकिन जो अंत तक धीरज धरे रहेगा, उसी का उद्धार होगा" (मत्ती 24:13)।
"आत्मा में" होना
यूहन्ना ने यह प्रकाशन प्रभु के दिन में पाया (पद 10)। सप्ताह का पहला दिन "प्रभु का दिन" कहलाता था क्योंकि इसी दिन पाप, शैतान, मौत और कब्र को हरा कर यीशु मुर्दों में से जी उठा था।
आरम्भिक शिष्य प्रत्येक सप्ताह के पहले दिन मिलते थे और एक-दूसरे को उत्साहित करते और रोटी तोड़ते थे (प्रेरितों. 20:7; 1 कुरि. 16:2)। वर्ष में उनके कोई विशेष दिन नहीं थे। उनके लिए कोई "गुड फ्राइडे", "ईस्टर" या "बड़ा दिन" नहीं था। वे दिन या पर्व आदि मनाने से मुक्त हो चुके थे क्योंकि वे अब नई वाचा के अधीन थे (कुलु. 2:16,17)।
यूहन्ना "आत्मा में" था और इस वजह से ही वह प्रभु की आवाज़ सुन सका। अगर हम आत्मा में हों, तो हम भी वह आवाज़ सुन सकते हैं। यह सब इस बात पर निर्भर होता है कि हमारे मन कहाँ लगे हैं। अगर हमारा मन पृथ्वी की बातों पर लगा होगा, तो जो आवाज़ें हम सुनेंगे, वह पार्थिव होंगी।
उदाहरण के तौर पर, हम जानते हैं कि हमारे आसपास की हवा की ध्वनि-तरंगों में बहुत सी आवाज़ें होती हैं। उनमें से हम तक पहुँचने वाली आवाज़ वही होगी जिसके साथ हमारे रेडियो की फ्रीक्वैंसी मिली हुई होगी। अपने रेडियो में आप परमेश्वर का वचन भी सुन सकते हैं या शैतान का रॉक-संगीत भी सुन सकते हैं। इसमें चुनाव आपका होगा।
हमारे मन के साथ भी ऐसा ही है। अगर हम आत्मा में हैं - अर्थात अगर हम आत्मा से भरे हुए हैं और हमारा मन उन बातों पर लगा है जो स्वर्गीय हैं (कुलु. 3:2) तो हम प्रभु की आवाज़ सुन सकेंगे।
लेकिन हवा में ऐसी और भी आवाज़ें हैं जो हमारा ध्यान आकर्षित करना चाहती हैं। ऐसी आवाज़ें हैं जो आपको यह बताएंगी कि आप ज़्यादा पैसा कैसे कमा सकते हैं, पारिवारिक सम्पत्ति में से अपना हिस्सा कैसे पा सकते हैं, जिसने आपको धोखा दिया है उससे कैसे बदला ले सकते हैं, और जो आपके विषय में ग़लत बातें फैला रहे हैं, उनसे अपना बचाव कैसे कर सकते हैं, आदि, आदि। शैतान के रेडियो स्टेशन प्रतिदिन 24 घण्टे झूठ, कड़वाहट और चिंतित करने वाली बातों का प्रसारण कर रहे हैं। आपको सिर्फ उनके साथ जुड़ने की ही देर होती है और फिर उनमें से आप अपने लिए जो चाहे ले सकते हैं।
जब विश्वासी यह शिकायत करते हैं कि परमेश्वर उनसे बात नहीं करता, तो ऐसा नहीं है कि परमेश्वर बात नहीं करता। वह हर समय बोल रहा है। लेकिन उनके मन इस संसार और उसकी बातों में लगे होते हैं। मुझे यक़ीन है कि बीते समय में पवित्र-आत्मा ने ऐसी बहुत बात की है जो हमारे लिए थी, लेकिन हम उसे फ्पकड़ नहीं पाएय् क्योंकि हम आत्मा में नहीं थे।
यह हो सकता है कि आप एक कलीसियाई सभा में बैठे हों और जो कुछ भी प्रचारक ने कहा वह सब आपको समझ भी आ गया हो, लेकिन फिर भी यह संभव है कि आपको पवित्र-आत्मा की कोई बात सुनाई न दी हो। लेकिन यह हो सकता है कि आपके साथ बैठा एक व्यक्ति जो "आत्मा में" है, प्रभु की आवाज़ को वैसे ही सुन ले जैसे यूहन्ना ने सुन ली थी। यूहन्ना ने प्रभु की आवाज़ को इतना स्पष्ट सुना कि वह उसे तुरही जितनी ऊँची महसूस हुई! परमेश्वर इतनी ऊँची आवाज़ में बोलता है! लेकिन जो बहरे हैं उन्हें तुरही की आवाज़ भी सुनाई नहीं देगी।
मैं आप में से हरेक को प्रतिदिन आत्मा में रहने के लिए उत्साहित करना और आपके सामने यह चुनौती रखना चाहता हूँ- ख़ास तौर पर इस युग के इन अंतिम दिनों में। अपने आपको पाप के प्रति संवेदनशील बनाए रखें और परमेश्वर के मुख के सम्मुख नम्र और दीन होकर चलें कि आपके कान वह सुनने के लिए तैयार रहें जो प्रभु आपसे कहना चाहता है।
"जो तू देखता है उसे पुस्तक में लिख और सातों कलीसियाओं में, अर्थात् इफिसुस, स्मुरना, पिरगमुन, थूयातीरा, सरदीस, फिलादेलफिया और लौदीकिया को भेज दे। तब मैं उसे, जो मुझसे बोल रहा था देखने के लिए मुड़ा और फिर कर मैंने सोने के सात दीपदान देखे, और उन दीपदानों के बीच मनुष्य के पुत्र जैसा एक पुरुष देखा जो पैरों तक चोग़ा पहने और छाती पर एक सुनहरा पट्टा बांधे हुए था। उसका सिर तथा उसके बाल ऊन की तरह सफेद और हिम की तरह उज्ज्वल थे, और उसकी आँख आग की ज्वाला की तरह थी। उसके पैर ऐसे चमकदार पीतल के समान थे जो भट्ठी में तपा कर चमकाया गया हो। उसकी वाणी महाजलनाद जैसी थी। वह दाहिने हाथ में सात तारे लिए हुए था, और उसके मुख से तेज़ दोधारी तलवार निकलती थी। उसका मुखमण्डल दोपहर के सूरज की तरह चमक रहा था। जब मैंने उसे देखा तो एक मृतक के समान उसके पैरों पर गिर पड़ा। तब उसने अपना दाहिना हाथ मुझ पर रखा और मुझसे कहा, 'भयभीत न हो; मैं ही प्रथम, अन्तिम और जीवित हूँ। मैं मर गया था और देख, अब मैं युगानुयुग जीवित हूँ। मृत्यु और अधोलोक की कुंजियाँ मेरे पास हैं। इसलिए जो बातें तूने देखी हैं, जो बातें हो रही हैं, और जो बातें इनके बाद होने वाली हैं, उन्हें लिख ले। उन सात तारों का रहस्य जो तूने मेरे दाहिने हाथ में देखे और सात स्वर्ण दीपदानों का रहस्य यह हैः सात तारे सात कलीसियाओं के दूत हैं, और वे सात दीपदान सात कलीसियाएं हैं" (प्रका-1:11-20)।
सात स्थानीय कलीसियाएं
परमेश्वर जो संदेश हमें देता है वह सिर्फ हमारे लिए नहीं बल्कि दूसरों के लिए भी होता है। जब परमेश्वर हमसे बात करे, तो यह एक अच्छी आदत है कि जो हमने सुना है हम उसे लिख लें, जैसा कि यूहन्ना को आज्ञा दी गई थी (पद 11)। वर्ना यह हो सकता था कि वह उन बातों को भूल जाता।
इस घटना में वह संदेश एशिया की सात कलीसियाओं के लिए था। उस समय जिसे एशिया कहा जाता था वह आज तुर्की का छोटा सा हिस्सा है। ये सभी कलीसियाएं एक-दूसरे के नज़दीक 75 मील के दायरे के अन्दर थीं। लेकिन यह ध्यान देने योग्य बात है कि हालांकि वे एक-दूसरे के इतना पास थीं, फिर भी उन्हें सामूहिक तौर पर "एशिया की कलीसिया" नहीं कहा गया था। उन्हें "एशिया की कलीसियाएं" कहा गया था।
यह एक सामान्य बात है, लेकिन फिर भी यह बहुत महत्वपूर्ण है। "एशिया की कलीसिया" कहने का अर्थ यह होता है कि ये कलीसियाएं एक धर्म-मत बन गया था जिसका एक केन्द्रीय मुख्यालय था। लेकिन "एशिया की कलीसियाएं" यह दर्शाता है कि हरेक कलीसिया एक स्थानीय कलीसिया थी जो सीधे प्रभु के शीर्षाधीन थीं।
कलीसिया परमेश्वर का काम है जिसका निर्माण मसीह करता है। लेकिन धर्म-मत मनुष्यों का काम है। प्रेरितों के सभी लेख यह स्पष्ट दर्शाते हैं कि परमेश्वर की इच्छा यही है कि हरेक कलीसिया, किसी धर्म-मत का हिस्सा न होकर, सीधे तौर पर मसीह के शीर्षाधीन रहे।
इन सातों कलीसियाओं का अधिकारी कोई ऐसा बिशप या अधीक्षक नहीं था जिसे यूहन्ना ये पत्र कलीसियाओं में बांटने के लिए भेज सकता था। हरेक पत्र को व्यक्तिगत रूप से उस कलीसिया के दूत को भेजना था-क्योंकि हरेक कलीसिया अपने आप में एक स्वतंत्र इकाई थी। प्रभु ने कलीसिया को प्रेरित दिए थे। यूहन्ना भी उनमें से एक था। लेकिन प्रभु ने कोई बिशप या सुपरिन्टैन्डैन्ट (अधीक्षक) नियुक्त नहीं किए थे।
उदाहरण के तौर पर, "भारत की कलीसिया" जैसी कोई कलीसिया नहीं है। भारत में कलीसियाएं हैं, और वे प्रभु द्वारा विभिन्न जगहों में तैयार की गई हैं, जिनमें से हरेक सीधे उसके शीर्षाधीन हैं।
शैतान का अंतिम लक्ष्य उसकी वैश्विक "कलीसिया" बैबीलोन, बनाना है। और इस दिशा में उसने अपना पहला क़दम कई सदियों पहले, कलीसियाओं को धर्म-मतों के समूहों में बांध देने के द्वारा उठाया था। वह जानता था कि यह किए बिना उसके लिए बैबीलोन का निर्माण करना असम्भव होता। हमें शैतान की युक्तियों से अनजान नहीं रहना है।
सोने के सात दीपदान सात कलीसियाएं हैं (पद 20)। पुरानी वाचा में, मन्दिर में सात नालियों वाला एक दीपदान होता था। यह इसलिए क्योंकि इस्राएल के सभी गोत्र एक ही "धर्म-मत" की शाखाएं थीं और उसका केन्द्रीय मुख्यालय और अगुवे यरूशलेम में थे।
लेकिन नई वाचा में ऐसा नहीं है। सात अलग दीपदान हैं, और हरेक दूसरे से पूरी तरह अलग है। इसका कारण, जैसा कि हमने ऊपर देखा है, यही हैं कि हरेक कलीसिया, हालांकि वह शीर्ष द्वारा दूसरी कलीसियाओं के साथ संगति करती है, फिर भी, वह दूसरी कलीसिया से अलग है और सीधे तौर पर प्रभु के शीर्षाधीन है।
कलीसिया का एक दीपदान कहलाना यही दर्शाता है कि परमेश्वर की नज़र में कलीसिया का प्राथमिक काम ज्योति देना है। दीपदान का सोने का होना सच्ची कलीसिया के मूल रूप में ईश्वरीय होने की तरफ संकेत करता है। उसका निर्माण प्रभु करता है, मनुष्य नहीं।
एक दीपदान सिर्फ एक शोभा की वस्तु होने के लिए नहीं होता। और न ही कलीसिया कोई शोभा की वस्तु है! वह ज्योति जो हरेक कलीसिया में से प्रकट होनी चाहिए, वह परमेश्वर का वचन है, जो एकमात्र ऐसा उजाला है जो हमारे मार्गों को और अंधकार में डूबे इस संसार का ज्योति देता है (भजन. 119:105)। इस ज्योति को लेकर आगे चलने की जगह जब हम इन तथाकथित "कलीसियाओं" को मुख्य रूप से स्कूल और अस्पताल चलाते हुए और सामाजिक काम करते हुए देखते हैं, तो हम यक़ीन के साथ कह सकते हैं कि ये परमेश्वर के प्राथमिक उद्देश्य से भटक गए हैं।
जी-उठा प्रभु
जब यूहन्ना उसे देखने के लिए मुड़ा जो उससे बात कर रहा था, तो उसने यीशु को देखा (पद 12,13)। लेकिन उसने उसे कलीसियाओं के बीच में देखा। स्थानीय कलीसिया के द्वारा प्रभु अपने आपको प्रकट करना और दूसरों से बात करना चाहता है।
बाइबल में परमेश्वर की जिस रहने-की-जगह का सबसे पहला उल्लेख किया गया है, वह वीरान जंगल में मूसा द्वारा देखी गई जलती हुई झाड़ी थी (व्य.वि. 33:16)। पतमुस द्वीप में यूहन्ना की तरह, मूसा ने भी मुड़ कर उस अद्भुत दृश्य को देखा था। और तब परमेश्वर ने उससे बात की थी
(निर्ग. 3:3)।
आज कलीसिया परमेश्वर के रहने का स्थान है। परमेश्वर यह चाहता है कि उस जलती हुई झाड़ी की तरह, हरेक कलीसिया उसकी आत्मा की आग से जलती हुई हो। जब लोग एक स्थानीय कलीसिया को देखें, तो उनको उसके सदस्यों में से मसीह का जीवन नज़र आना चाहिए। तब परमेश्वर उस कलीसिया द्वारा लोगों से बात कर सकता है।
यूहन्ना ने फिर प्रभु यीशु के उस रूप का वर्णन किया जो उसने देखा था। हालांकि वह जी-उठा प्रभु था, फिर भी उसे "मनुष्य का पुत्र" कहा गया, जो इस बात पर ज़ोर देना है कि उसकी मानव जाति के साथ बन चुकी पहचान अब हमेशा के लिए है।
उसका लम्बा चोग़ा, (जो अवश्य ही सफेद रंग का था), उसके पैरों तक था, जो हमारे लिए उसकी मध्यस्थता की महायाजकीय सेवा का प्रतीक था, क्योंकि यहूदी महायाजक भी, साल में एक बार, प्रायश्चित्त करने के लिए मिलाप वाले तम्बू के महापवित्र स्थान में ऐसा ही वस्त्र पहन कर जाता था (पद 13)।
प्रभु ने छाती पर एक सुनहरा पट्टा बांधा हुआ था (पद 13)। सोना ईश्वरीय बातों का प्रतीक होता है। पट्टा, यशायाह 11:5 के अनुसार, धार्मिकता और विश्वासयोग्यता का प्रतीक है। यह परमेश्वर की धार्मिकता के उस सिद्ध रूप को जो यीशु के पार्थिव जीवन में देखी गई थी, और हमारे प्रति उसकी विश्वासयोग्यता के उस सिद्ध रूप को दर्शाता है जिसमें वह हमारे लिए अपनी प्रतिज्ञाओं को पूरा करता है। उसका सिर और उसके बाल ऊन की तरह सफेद थे (पद 14)। दानिय्येल 7:9 भी परमेश्वर की अनन्तता (उसकी अनन्त आयु) दर्शाने के लिए ऐसी ही प्रतीकात्मक भाषा इस्तेमाल करता है। सफेद बाल बुद्धि के विषय में भी बताते हैं। इसलिए यह इस बात पर ज़ोर देना है कि यीशु, हालांकि मनुष्य का पुत्र है, फिर भी वह अनन्त परमेश्वर है जो बुद्धि में सिद्ध है।
उसकी आँखें आग की ज्वाला की तरह थीं (पद 14)। इसका अर्थ है कि "उसकी आँखों के सामने सब कुछ खुला और नग्न है" (इब्रा. 4:13)। उसकी आँखें सारे धार्मिक दिखावे को, और एक धार्मिक ढोंगी की लच्छेदार और पुण्य भाषा को, और उसकी बातों के "ईश्वरीयता के रूप" के आरपार देखती हैं। वह एक टूटे और हकलाते हुए उस जीव के पार उसके हृदय की निष्ठा को भी देख सकती हैं जो परमेश्वर का भय मानने वाला है। इसका परिणाम यह होता है कि उसके मूल्यांकन मनुष्य से बिलकुल अलग होते हैं। उसके पैर चमकाए हुए पीतल की तरह थे (पद 15)। पीतल वह धातु था जिससे बलि-वेदी बनाई गई थी (मिलाप वाले तम्बू के बाहरी आंगन में), जहाँ पाप-बलि चढ़ाई जाती थी। इसलिए पीतल कलवरी पर मनुष्य के पाप के विरुद्ध परमेश्वर के न्याय का प्रतीक है। सर्प के सिर को कुचलने के लिए, यीशु के पैरों का बेधा जाना ज़रूरी था (उत्पत्ति 3:15)।
उसकी आवाज़ महाजलपाद के समान थी (पद 15)। जीवन के जल की नदियाँ पवित्र-आत्मा का प्रतीक हैं (यूहन्ना 7:37, 39)। यीशु की बातें हमेशा पवित्र-आत्मा की सौम्यता और बुद्धि से भरी होती थीं।
उसके दाहिने हाथ में सात तारे थे (पद 16)। सात तारे सात कलीसियाओं के दूत हैं (पद 20)। परमेश्वर ने यह ठहराया है कि नई वाचा की कलीसिया की अगुवाई बहुसंख्यक प्राचीनों द्वारा हो (प्रेरितों- 14:23; तीत. 1:5; प्रेरितों. 20:17)। लेकिन परमेश्वर अकसर प्राचीनों में से एक को, उसके दूत के रूप में, कलीसिया के बीच परमेश्वर के वचन का संदेशवाहक बनाता है। उसे यहाँ "कलीसिया का दूत" कहा गया है। (जिस शब्द का अनुवाद "स्वर्गदूत" किया गया है, उस मूल यूनानी शब्द का अर्थ असल में "समाचार लाने वाला" या "संदेशवाहक" है।
ये संदेशवाहक मसीह द्वारा उसके हाथ में रखे जाते हैं। यही वजह है कि हमें ऐसे प्राचीनों का दोगुना आदर करने के लिए कहा गया है "जो प्रचार और शिक्षा-कार्य का कठिन परिश्रम करते हैं" (1 तीमु- 5:17)।
फिर भी यह कह देना ज़रूरी है आज कलीसियाओं के बहुत से प्राचीन और ऐसे बहुत से लोग जो परमेश्वर के वचन का प्रचार करते हैं, मसीह ने अपने हाथ में थामे हुए नहीं हैं, क्योंकि वे उसके द्वारा नियुक्त किए हुए नहीं हैं; उन्होंने अपने आपको ख़ुद ही नियुक्त कर लिया है।
एक दूत जो प्रभु द्वारा नियुक्त किया हुआ होगा, वह परमेश्वर का ऐसा जन होगा जो आपमें भरोसा जगाएगा, और जिसके जीवन और सेवकाई द्वारा आप पोषण, अगुवाई और आशिष पाएंगे। ऐसे व्यक्ति का आदर किया जाना चाहिए- क्योंकि उसे प्रभु ने अपने हाथ में लिया हुआ है। आज इस संसार में ऐसे बहुत कम लोग हैं- लेकिन परमेश्वर की स्तुति हो कि चाहे थोड़े ही सही, लेकिन हैं।
परमेश्वर के सेवक शैतान का ख़ास निशाना होते हैं। इसलिए वे ख़ास तौर पर प्रभु द्वारा हाथ में रखे जाते हैं। जब तक वे नम्रता से वहाँ रहेंगे, शैतान उन्हें छू भी नहीं सकता। लेकिन जैसे ही वे गर्व करते हैं, और पाप करते हैं लेकिन मन नहीं फिराते, तो परमेश्वर शैतान को अनुमति देता है कि वह विभिन्न प्रकार से उन्हें सताए कि वे मन-फिराव की मनोदशा में आ सकें। प्रभु के दूत के रूप में उसके हाथ में होना एक बड़ा विशेषाधिकार है। लेकिन इसके साथ ही भयजनक जिम्मेदारियाँ भी हैं।
यीशु के मुख से एक तेज़ दोधारी तलवार निकल रही थी (पद 16)। यह परमेश्वर का वह वचन है जो वह बोलता है (इब्रा. 4:12)। पद 15 में हमने देखा कि उसकी आवाज़ महाजलनाद की तरह थी। इन दोनों पदों को साथ में पढ़ने से यही संकेत मिलता है कि यीशु परमेश्वर के वचन को हमेशा पवित्र-आत्मा के सामर्थ्य में बोलता है। वह बहुत सौम्यता से बोलता है, लेकिन जब ज़रूरी होता है, तो कठोरता से ताड़ना भी देता है।
उसका मुख दोपहर के सूर्य की तरह चमक रहा था (पद 16)। पतरस, याकूब और यूहन्ना ने भी रूपान्तर के पहाड़ पर उसे ऐसे ही रूप में देखा था ( मत्ती 17:2)। यह उस अगम्य ज्योति का प्रतीक है जिसमें परमेश्वर का वास है (1 तीमु. 6:16)। परमेश्वर की पवित्रता की तुलना यहाँ दोपहर के सूर्य से की गई है, जिसके सामने हम सीधे तौर पर नहीं देख सकते। सूर्य आग का ऐसा गोला है जिसमें कोई जीवाणु या कीटाणु नहीं रह सकता। परमेश्वर की उपस्थिति में, कोई पाप नहीं रह सकता (यशा. 33:14)।
प्रभु के चरणों में
वही यूहन्ना जो अंतिम भोज के समय यीशु की छाती पर सिर रखे हुए था, अब एक मुर्दे की तरह उसके चरणों में गिर पड़ा (पद 17)। यूहन्ना परमेश्वर के साथ 65 साल तक चला। निश्चय ही अपने समय में वह पृथ्वी पर सबसे संतनुमा व्यक्ति था। फिर भी वह प्रभु की उपस्थिति में सीधा खड़ा नहीं रह सका। जो प्रभु को सबसे ज़्यादा जानते हैं, वे उसका सबसे ज़्यादा आदर करते हैं। जो उसे सबसे कम जानते हैं, वे उसके साथ एक सतही परिचय होने का दिखावा करते हुए आएंगे।
स्वर्ग के साराप प्रभु के सामने अपने मुख ढांपे रहते हैं (यशा- 6:2,3)। परमेश्वर की महिमा देखते ही अय्यूब और यशायाह को अपने पापमय होने का अहसास हुआ था और उन्होंने विलाप किया था (अय. 42:5,6; यशा. 6:5)। लेकिन "जहाँ स्वर्गदूत भी जाने से डरते हैं, वहाँ मूर्ख दौड़ कर घुस जाते हैं!" एक शारीरिक विश्वासी ऐसी मूर्खता करता है।
हम प्रभु को जितना ज़्यादा जानेंगे, हम अपना मुँह धूल में छुपा कर एक आराध्यपूर्ण भक्ति के साथ उसके चरणों में उतना ही गिरते रहेंगे। जब हम प्रभु की महिमा लगातार देखते रहते हैं, तभी हमें अपनी मसीह-असमानता नज़र आती है। सिर्फ तभी हम दूसरों पर दोष लगाना छोड़ कर अपने दोष देखना शुरू करते हैं। सिर्फ तभी हमें उसकी उस सामर्थ्य से भरे स्पर्श का अनुभव होगा जिसे पतमुस पर यूहन्ना ने महसूस किया था।
यीशु ने अपना दाहिना हाथ यूहन्ना पर रखा (पद 17)। यह सामर्थ्य और अधिकार के दिए जाने का प्रतीक है। उसने यूहन्ना से कहा कि वह भयभीत न हो।
"मत डर" और "मेरे पीछे आ" यीशु की दो ऐसी आज्ञाएं हैं जो सुसमाचारों में बार-बार दोहराई गई हैं। वह आज हमसे भी वही कहता है।
फिर यीशु ने यूहन्ना को बताया कि वह प्रथम और अंतिम है - वही शीर्षक जो पहले पिता के लिए इस्तेमाल हुआ है (पद 8)। वह आरम्भ से अंत जानता है, और वह स्वयं आरम्भ से पहले और अंत के बाद है। यही वजह है कि हमें कभी डरने की ज़रूरत नहीं होती।
यीशु ने फिर यूहन्ना को बताया कि कैसे उसने मृत्यु और कब्र पर जय पा ली है और अब उसके पास मृत्यु और अधोलोक (गुज़री हुई आत्माओं के रहने की जगह) की कुंजियाँ हैं (पद 18)। कुंजियाँ दरवाज़ों को खोलने और बंद करने के अधिकार को दर्शाती हैं। पहले शैतान था जिसे मृत्यु पर अधिकार प्राप्त था (इब्रा. 2:14,15)। लेकिन जब यीशु मरा और फिर जी उठा, तो उसने वह कुंजियाँ शैतान से ले लीं।
आज मृत्यु और अधोलोक की कुंजियाँ यीशु के पास हैं। इसका अर्थ यह है कि अगर आप पूरे हृदय से यीशु के शिष्य हैं, और अपने जीवन में सिर्फ परमेश्वर की इच्छा पूरी करना चाहते हैं, तो जब तक परमेश्वर का ठहराया हुआ समय नहीं आएगा, आप मर नहीं सकते। कोई भी दुर्घटना या रोग आपको मार नहीं सकेगी, जब तक यीशु ही यह फैसला न करे कि अब समय हो गया है कि मृत्यु के द्वार को खोला जाए कि उसमें से होकर आप उसकी उपस्थिति में पहुँचाए जाएं। जो वास्तव में यीशु के सच्चे शिष्य हैं, उनके लिए यह एक ज़बरदस्त उत्साहवर्धक बात है।
यूहन्ना को पतमुस में मनुष्य सता रहे होंगे। लेकिन जब तक उसके लिए परमेश्वर का ठहराया हुआ समय नहीं आता, वे उसे मार नहीं सकते थे। और प्रभु के पास यूहन्ना के लिए अभी सेवकाई बाक़ी थी। प्रभु ने यूहन्ना को अब एक नई सेवकाई का सामर्थ्य और अधिकार दिया-प्रकाशितवाक्य की अद्भुत पुस्तक लिखने की सेवकाई (पद 19)। अगर हमें जयवंत होते हुए अपनी सेवकाई पूरी करनी है, तो हमें बार-बार प्रभु के पास से सामर्थ्य पाने की ज़रूरत होगी।
इस "प्रकाशन" के तीन विभाजन इस प्रकार हैंः
1. जो यूहन्ना पहले ही देख चुका है (अध्याय 1) जयवंत प्रभु यीशु का दर्शन जिसमें वह यह कह रहा है, "मत डर।" उस शिष्य के हृदय में डर के लिए बिलकुल कोई जगह नहीं होगी जिसने प्रभु की महिमा को देख लिया है।
2. यूहन्ना के समय की दशा (अध्याय 2 व 3) जो एशिया माइनर की सातों कलीसियाओं की दशा के विषय में है। इन सातों कलीसियाओं को दिए गए प्रभु के संदेश सभी समयकालों की कलीसियाओं और उनके "दूतों" को दी गई एक चेतावनी और एक चुनौती है।
3. वे घटनाएं जो यूहन्ना के समय के बाद होने वाली हैं (अध्याय 4-22) - और वह वाक्यांश-" इन बातों के पश्चात्", जो यहाँ इस्तेमाल किया गया है, अध्याय 4:1 में फिर इस्तेमाल किया गया है और यह दर्शाता है कि पुस्तक का तीसरा भाग यहाँ से शुरू हो रहा है।
प्रभु यूहन्ना को फिर दीपदानों और तारों (पद 20) का भेद बताता है। पद 12 व 16 की व्याख्या में हमने इसका अध्ययन किया है।
अपने वचन के भेदों का प्रकाशन हमें सिर्फ प्रभु ही दे सकता है। ये प्रकाशन पाने के लिए, हममें दो अनिवार्य गुण होने चाहिए- परमेश्वर का भय और नम्रता। "यहोवा का भेद वे ही जानते हैं जो उसका भय मानते हैं... नम्र लोगों को वह अपने मार्ग की शिक्षा देता है" (भजन. 25:14,9)।
तो आइए, हम ऐसी ही आत्मा में होकर कलीसियाओं को लिखे इन पत्रें का अध्ययन करें।
"इफिसुस की कलीसिया के दूत को यह लिखः वह जो अपने दाहिने हाथ में सात तारे लिए है, और वह सात स्वर्ण दीपदानों के बीच चलता-फिरता है, यह कहता हैः 'मैं तेरे कामों, परिश्रम और धैर्य को जानता हूँ, और यह भी कि तू दुष्ट लोगों को सहन नहीं कर सकता, और जो अपने आपको प्रेरित कहते हैं पर हैं नहीं, तूने उन्हें परखा और झूठा पाया है। तुझ में धैर्य है और तू मेरे नाम के कारण दुःख उठाते-उठाते थका नहीं है। पर मुझे तेरे विरुद्ध यह कहना है कि तूने अपना पहला-सा प्रेम छोड़ दिया है। इसलिए याद कर कि तू कहाँ से गिरा है और मन फिरा और पहले की तरह काम कर-वर्ना मैं तेरे पास आता हूँ और अगर तू मन न फिराए तो तेरे दीपदान को उसके स्थान से हटा दूँगा। पर इतना अवश्य है कि तू निकुलइयों के काम से घृणा करता है। जिसके कान हों वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है। जो जय पाए, उसे मैं जीवन के वृक्ष में से, जो परमेश्वर के स्वर्ग में है, खाने को दूँगा'" (प्रका. 2:1-7)।
प्रभु का मूल्यांकन
हालांकि ये सात पत्र प्राथमिक तौर पर कलीसियाओं के दूतों को लिखे गए हैं, फिर भी हरेक संदेश के अंत में हम एक आमंत्रण पाते हैं जो ऐसे हरेक व्यक्ति के लिए है जिसके पास सुनने वाले कान हैं, कि वह उन बातों पर ध्यान दे जो पवित्र-आत्मा सभी कलीसियाओं से कहता है। इसलिए इनमें हरेक पीढ़ी की हरेक कलीसिया के हरेक शिष्य के लिए एक संदेश है।
हमने पहले अध्याय में देखा कि हमारे प्रभु का बयान एक विश्वासयोग्य साक्षी के रूप में किया गया है। हम देखते हैं कि वह अपनी यह सेवकाई इन पत्रों में पूरी कर रहा है। एक आधुनिक अभिव्यक्ति का उपयोग करें, तो यीशु ने "सीधी-सच्ची बात कह दी है।" मसीह अपनी कलीसिया के बीच न्यायकर्ता है, जो दूत और कलीसिया दोनों का न्याय करता है। वह संदेशवाहकों और कलीसियाओं को बिलकुल वही बात बताता है जो वह उनके विषय में सोच रहा है।
अपने मूल्यांकन में प्रभु ने आधुनिक छायाकारों की तरह चित्रों को "यहाँ-वहाँ सुधारा" नहीं है। वह अपने लोगों से बहुत प्रेम करता है और वह जानता है कि हमारे लिए यही अच्छा है कि हम अभी और यहीं पाप, सांसारिकता, गुनगुनेपन और स्व-केन्द्रीयता से निबट लें, वर्ना हमें बाद में इन बातों का सामना उसके न्यायासन के सामने करना पड़ेगा। इन बातों के लिए हमारा न्याय वहाँ होने से हमें कोई लाभ न होगा; प्रभु की नज़र हमारी अनन्त भलाई पर लगी है। इसलिए हमारे लिए अच्छा होगा अगर हम उन बातों पर ख़ास तौर पर ध्यान दें जो इन पत्रों द्वारा प्रभु हमसे कहना चाहता है। जो सराहनीय बातें हैं, प्रभु ने उनकी पूरी सराहना की है। और जहाँ ताड़ना की ज़रूरत है, वहाँ उसने बिना झिझक गंभीर ताड़ना की है। कैंसर को साबुन और पानी से नहीं धोया जा सकता। और उसे सौम्यता के साथ धीरे से भी नहीं निकाला जा सकता। उसकी काट-छांट जड़ में से करनी पड़ती है। पाप के साथ भी ऐसा ही करना पड़ता है।
ताड़ना से पहले सराहना
इफिसूस के दूत को लिखे पत्र में, प्रभु स्वयं अपना बयान इस रूप में करता है कि वही है जो अपने दाहिने हाथ में सात तारे लिए हुए है और जो सातों कलीसियाओं के बीच चलता-फिरता है (पद 1)।
प्रभु हमेशा कलीसियाओं के बीच चलता-फिरता रहता है, और वह हरेक व्यक्ति द्वारा कही जाने वाली हरेक बात और काम को परखता रहता है, ख़ास तौर पर उन दूतों द्वारा कही गई बातें और उनके काम जिन्हें वह अपने हाथों में थामे रहता है। और सब कुछ नापता-तोलता है, उन नीचे मापदण्डों के अनुसार नहीं जो शारीरिक मसीहियों के होते हैं, दस आज्ञाओं के स्तर के अनुसार भी नहीं, बल्कि वह ईश्वरीय धार्मिकता के साहुल के अनुसार नापता है।
निष्फलताओं की तरफ इशारा करने से पहले, वह अपना समर्थन और सराहना व्यक्त करता है। ईश्वरीय स्वभाव ऐसा ही होता है। प्रभु हमेशा पहले वह देखता है जो भला है, और उसकी सराहना करने के बाद ही वह उसकी तरफ इशारा करता है जिसे सही करने की ज़रूरत है।
लेकिन मनुष्य का स्वभाव इससे बहुत भिन्न है। वह पहले दूसरों में वह नहीं देखता जो अच्छा है, बल्कि वह देखता है जो बुरा है। अपने स्वभाव में मनुष्य सराहना करने में धीमा और आलोचना करने में बहुत तेज़ होता है। यह उस ज़हर का एक चिन्ह् है जो "भाइयों पर दोष लगाने वाले" ने हमारे अन्दर डाला हुआ है (प्रका. 12:10)। लेकिन हम जितना ज़्यादा ईश्वरीय स्वभाव में सहभागी होंगे, हम उतना ही ज़्यादा प्रभु जैसे बनते जाएंगे - सराहना करने में तेज़ और आलोचना करने में धीमे।
पूरे जीवन भर इस सिद्धान्त पर चलना अच्छा हैः "मैं ऐसे किसी व्यक्ति की तरफ अंगुली नहीं उठाऊँगा जिसमें मुझे अभी तक सराहना करने के लिए कुछ नहीं मिला है।"
इस सहज नियम का पालन करने से हम ईश्वरीयता की ऐसी ऊँचाइयों पर पहुँच सकते हैं जिन पर पहुँचने की हमने कभी कल्पना भी नहीं की है। कलीसिया में यह बात हमें दूसरों के लिए एक ऐसी आशिष बनाएगी जैसी हम अब तक नहीं थे, और हमारा ऐसा उपद्रवी होना मिटाएगी जैसे हम अब तक थे।
जब हम दूसरों की सराहना करते हैं, सिर्फ तभी हम एक रचनात्मक रूप में उनकी आलोचना करने की बुनियाद रख सकते हैं। वर्ना हम उन पर ईटें फेंकने वाले ही होंगे। एक चॉक से आप हवा में नहीं लिख सकते। जो आप लिखते हैं, अगर लोगों को वह देखना है तो यह ज़रूरी है कि वह ब्लैकबोर्ड पर लिखा जाए। इसी तरह, हमारे द्वारा व्यक्त की गई सराहना वह ब्लैकबोर्ड बन जाता है जिस पर लिख सकते हैं और दूसरों के लिए "प्रेम में होकर सत्य" बोल सकते हैं। फिर, जो कुछ हम कहेंगे, उसके स्वीकार कर लिए जाने की ज़्यादा सम्भावना होगी।
सराहना और ताड़ना दोनों प्रेम के चिन्ह् हैं। लेकिन हमारी शुरूआत सराहना से होने चाहिए। यह ध्यान देने योग्य है कि पौलुस ने कुरिन्थियों के शारीरिक मसीहियों को लिखते समय कैसे इस सिद्धान्त का अनुसरण किया था (1 कुरि. 1:4-10)।
प्रभु इफिसुस के दूत के उस परिश्रम और धीरज की सराहना करता है जो उसने कलीसिया को दुष्ट मनुष्यों से बचाए रखने के लिए किया था। इसमें कोई संदेह नहीं कि उसने सांसारिकता को कलीसिया में घुसने से रोकने के लिए बड़ा युद्ध किया होगा। सिर्फ इतना ही नहीं, उसने कलीसिया को उसके धर्मज्ञान में शुद्ध रखने के लिए भी संघर्ष किया था। उसने उन्हें परखा जो अपने आपको प्रेरित कहते थे और उसने उनके दावों को झूठा पाया था।
पद 2 में प्रभु द्वारा "प्रेरित" शब्द का उपयोग स्पष्ट रूप में यह दर्शाता है कि प्रभु द्वारा उसके पृथ्वी पर रहने के दिनों में नियुक्त किए गए 11 प्रेरितों के अलावा, पहली शताब्दी की कलीसिया में अन्य प्रेरित भी थे। प्रभु ने "आकाशों से ऊपर चढ़ जाने" के बाद भी कलीसिया को प्रेरित दिए हैं (इफि. 4:11), और आज भी प्रेरित हैं। लेकिन बहुत से ऐसे भी हैं जो प्रेरित होने का दावा तो करते हैं, लेकिन वे प्रेरित नहीं हैं। इसलिए हमें झूठे प्रेरितों के भ्रम में नहीं पड़ना है (पद 2)।
इफिसुस का दूत प्रभु के नाम के लिए "दुःख सहते-सहते" थका नहीं था (पद 3)। ज़्यादातर विश्वासियों के मापदण्ड के अनुसार यह दूत कितना अद्भुत व्यक्ति था! और इफिसियों की कलीसिया भी कितनी अद्भुत कलीसिया नज़र आती है - ऐसी जिसने परिश्रम किया है, धीरज रखा है, दुष्ट मनुष्यों को दूर रखा है, झूठी शिक्षा को दूर रखा है, और झूठे प्रेरितों का भी पर्दाफाश किया है - और इस तरह जीवन में शुद्धता और धर्मज्ञान में भी शुद्धता बनाए रखने पर ज़ोर दिया है।
तूने अपना पहला-सा प्रेम छोड़ दिया है
एक व्यक्ति यह सोच सकता है कि ऐसी कलीसिया में वह सब कुछ है जो प्रभु एक कलीसिया में देखना चाहता है। लेकिन अफसोस, कि ऐसा नहीं था। उसमें उस मुख्य बात की कमी थी जो प्रभु चाहता है। उसने अपना पहला-सा प्रेम छोड़ दिया था - प्रेम जो प्रभु के लिए था, और प्रेम जो एक-दूसरे के लिए था (पद 4)।
प्रभु ने जो उनसे कहा, मूल रूप में वह यह थाः "तुम्हारे सारे उत्साह और सारे कामों के बीच, मैं अब तुम्हें नज़र नहीं आ रहा हूँ। मेरे लिए जो तीव्र भक्ति पहले तुम में थी, अब वह नहीं है। तुमने अपने आपको बुराई से दूर रखा है और धर्म-सैद्धान्तिक भूल करने से साफ तौर पर बचते रहे हो। लेकिन याद करो कि तुमने जब पहली बार मेरी तरफ मन फिराया था, तब मुझसे कैसा तीव्र प्रेम किया था, और मेरे लिए सब कुछ उस प्रेम में से ही किया था। लेकिन अब सब कुछ एक नीरस दिनचर्या बन गया है। तुम अब भी सभाओं में जाते हो, बाइबल पढ़ते हो, और प्रार्थना करते हो। लेकिन यह सब अब एक विधि बन गया है।"
ये कलीसिया अब एक ऐसी पत्नी के समान बन गई थी जो पहले बड़े आनन्द के साथ अपने पति की सेवा प्रेम से करती थी, लेकिन अब वह उन्हीं कामों को एक नीरस काम समझती है - क्योंकि उसके वैवाहिक सम्बंध में से अब प्रेम की आग बुझ गई है। पहले वह बहुत उत्सुकता से अपने पति के काम पर से लौटने का इंतज़ार करती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है। वह उसके प्रति अब भी विश्वासयोग्य है, लेकिन उसका पहला-सा प्रेम अब खो गया है।
एक सच्चा पति सबसे पहले अपनी पत्नी से क्या चाहता है? क्या वह उसका काम चाहता है या उसका प्रेम चाहता है? अवश्य ही, वह उसका प्रेम चाहता है। प्रभु के साथ भी ऐसा ही है। वह सबसे पहले यही चाहता है कि हम अपने हृदय से उससे प्रेम करें। जब वह नहीं होता, तो हमारे बाक़ी सारे काम मरे हुए होते हैं।
अगर परमेश्वर का प्रेम वह शक्ति नहीं है जो अच्छे कामों के पीछे काम कर रही है, तो वह काम मरे हुए काम हो जाते हैं।
यहाँ के विश्वासियों का एक-दूसरे के प्रति जो तीव्र प्रेम था, वह भी खो गया था। अब वे एक-दूसरे की निर्बलताओं को नहीं सह सकते थे और न ही एक-दूसरे के पापों को अनदेखा कर सकते थे। उन्होंने एक-दूसरे के प्रति भी अपना पहला-सा प्रेम खो दिया था।
दूत ने अपना पहला-सा प्रेम खो दिया था - और धीरे-धीरे कलीसिया भी उसके दूत के समान ही हो गई थी।
यह कोई मामूली भूल नहीं थी। यह एक बहुत ऊँचाई पर से नीचे गिरना था - क्योंकि प्रभु कहता है, "इसलिए याद कर कि तू कहाँ से गिरा है।" हम अकसर एक विश्वासी को पाप में गिरा हुआ तभी मानते हैं जब वह व्यभिचार करता है, चोरी करता है, या सिग्रेट पीता है आदि। लेकिन जब हम पवित्र-आत्मा की आवाज़ के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं, तो हमें प्रभु के प्रति हमारी भक्ति में होने वाली मामूली सी कमी, और दूसरों के प्रति हमारे प्रेम में होनेवाला मामूली सा ठण्डापन, हमें फौरन पीछे हटने का अहसास दिलाते हैं।
इफिसुस की कलीसिया कहाँ से गिरी थी ?
इफिसुस वह जगह थी जहाँ लगभग चालीस साल पहले प्रेरित पौलुस ने आकर एक कलीसिया स्थापित की थी। उस समय एक ऐसी नव-जागृति आई थी कि पूरे नगर को मालूम हो गया था (प्रेरितों. 19)। यहाँ वह कलीसिया थी जहाँ पौलुस ने 3 साल तक परिश्रम किया था, प्रतिदिन आँसुओं के साथ प्रचार किया था (20:31)। जब उसने इफिसुस से प्रस्थान किया तब उसने कलीसिया के प्राचीनों को उन ख़तरों के विषय में चेतावनी दी थी जिनका सामना वे उसके जाने के बाद करने वाले थे (प्रेरितों. 20:17-35)।
चार साल बाद, पौलुस ने उन्हें एक पत्र लिखा जिसमें नई वाचा के ऐसे गहरे सत्य हैं जो पूरी बाइबल में कहीं नहीं मिलते। वह इन मामलों के विषय में उन्हें इसलिए लिख सका क्योंकि उसकी नज़र में इफिसुस की कलीसिया उसके द्वारा स्थापित की गई सभी कलीसियाओं में सबसे परिपक्व और सबसे ज़्यादा आत्मिक सोच-समझ वाली थी। उस पत्र में हम यह भी देखते हैं कि पौलुस को उनमें ऐसा कुछ नज़र नहीं आया था जिसके लिए वह उनको डाँटता या सुधारता। उस समय इस कलीसिया का ऐसा ऊँचा स्थान था।
पौलुस के पत्र को इफिसियों को लिखी पहली पत्री कहा जा सकता है। प्रकाशितवाक्य के अध्याय 2 में हम इफिसियों को लिखी दूसरी पत्री पाते हैं। अब बात पूरी तरह बदल गई है। कलीसिया में एक नई पीढ़ी आ गई है जिसमें उनके पिताओं जैसी भक्ति या आत्मिकता नहीं है।
पिछली 20 शताब्दियों की मसीहियत में लगभग हरेक कलीसिया और आंदोलन का यही दुःखद इतिहास रहा है। दूसरी पीढ़ी के पास वही धर्म-सिद्धान्त होता है, लेकिन वही जीवन नहीं होता जो उनके पिताओं में था।
इसलिए प्रभु ने इफिसुस की कलीसिया से कहा, "याद कर कि तू कहाँ से गिरा था।"
मन-फिराव की ज़रूरत
इस समस्या का सिर्फ एक ही हल था। "मन फिरा और पहले के समान काम कर", प्रभु ने कहा (पद 5)।
अविश्वासियों के बीच अकसर हम जिस बात का प्रचार करना चाहते हैं- "मन फिराओ" - वह शब्द है जिसका प्रचार प्रभु कलीसिया को करता है। "इससे पहले कि तू दूसरों से उनके पाप से मन फिराने के लिए कहे, तू अपने पहले-से प्रेम को छोड़ देने के पाप से मन फिरा," उसने उनसे कहा। उन्हें अपने पहले-से प्रेम को त्याग देने के लिए शोक मनाने की ज़रूरत थी। "पहले के समान काम कर," प्रभु ने कहा (पद 5)। अगर उनके काम प्रेम में से नहीं आ रहे थे, तो उनके किसी काम की उसकी नज़र में कोई क़ीमत नहीं थी। उनके काम अब ऐसे लकड़ी, भूसा और घास-फूस थे जो सिर्फ आग में झोंकने लायक़ थे।
हरेक काम के पीछे रखा उद्देश्य ही उस काम का मूल्य निर्धारित करता है। आपके धीरज, परिश्रम और शुद्धता के पीछे रखा उद्देश्य ही उन्हें प्रभु के सामने स्वीकार्य या अस्वीकार्य बनाता है। जिस दिन हम प्रभु के सामने खड़े होंगे, उस दिन हम यह पाएंगे कि "क्या?" से ज़्यादा ज़रूरी सवाल "क्यों?" है। जो हमने किया वह हमने क्यों किया ही वह बात होगी जिससे प्रभु हमारे कामों का मूल्यांकन करेगा। हमें यह कभी नहीं भूलना है।
जो कुछ प्रभु के लिए हमारे प्रेम में से नहीं आ रहा है, वह एक मरा हुआ काम है।
याद रखें कि हमें मरे हुए कामों से मन फिराने के लिए कहा गया है। इब्रानियों 6:1 हमें बताता है कि यह हमारे जीवनों में सिद्धता की तरफ बढ़ने की एक बुनियादी बात है।
अगर दूत और उसकी कलीसिया मन नहीं फिराते, तो प्रभु कहता है कि वह उसके दीपदान को उसके स्थान से हटा देगा। इसका अर्थ यह है कि इसके बाद वह पृथ्वी पर उन्हें अपनी कलीसिया नहीं मानेगा। वे अपनी सभाएं और संगतियाँ जारी रख सकते हैं, और हो सकता उनकी संख्या भी बढ़ती जाए। लेकिन जहाँ तक प्रभु का सम्बंध है, वे मरे हुए और अस्तित्वहीन हैं, और उसके पवित्र-आत्मा और उसकी कृपा से रहित हैं।
पहले-से प्रेम को खो देना इतना गंभीर है।
निकुलइयों का मत
प्रभु ने फिर निकुलइयों की शिक्षा से घृणा करने के लिए दूत की सराहना की क्योंकि प्रभु को भी उससे घृणा थी (पद 6)।
पवित्र शास्त्र में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि निकुलई कौन थे और वे क्या करते थे। इसलिए हम यक़ीन के साथ यह नहीं कह सकते कि प्रभु उनके कौन से कामों के विषय में कह रहा था। फिर भी, (यूनानी भाषा में) निकुलई का अर्थ है "प्रजा के विजेता।"
अगर प्रभु के कहने का यह अर्थ था तो फिर यह उन लोगों के विषय में था जो "अपने झुण्ड पर प्रभुता करना चाहते हैं" (1 पतरस 5:3) - ऐसे अगुवे जो सेवकों के समान नहीं पर राजाओं की तरह व्यवहार करते हैं। ऐसे अगुवे अपने आपको एक याजकीय वर्ग की तरह स्थापित करते हैं (पुरानी वाचा के लेवी) और दूसरे विश्वासियों पर प्रभुता करते हैं। प्रभु ने कहा कि उसे निकुलइयों के काम से घृणा थी। आज हम अपने बीच ऐसे मसीही प्रचारक पाते हैं जो कलीसिया में अपने आपको दूसरों से ऊँचा उठाने के लिए अपने लिए "रैवरेण्ड" (ऐसा शीर्षक जो पवित्र शास्त्र में सिर्फ परमेश्वर के लिए इस्तेमाल हुआ है - भजन. 111:19 के.जे.वी.) और "पास्टर" आदि जैसे शीर्षक इस्तेमाल करते हैं (जो कोई शीर्षक या पद नहीं एक वरदान है)।
फिर भी, यह सिर्फ पदवियाँ ही नहीं हैं जिनसे प्रचारक दूसरों पर प्रभुत्व जमाते हैं। ऐसे बहुत हैं जो अपने आपको सिर्फ "भाई" कहते हैं, लेकिन फिर भी अपने साथी-विश्वासियों को अपनी जैविक शक्ति (दबंग व्यक्तित्व), आर्थिक-शक्ति और आत्मिक वरदानों द्वारा वश में रखते हैं।
जो कुछ भी निकुलईवाद का है, वह परमेश्वर के लिए घृणित है।
भारत में हम यह दुःखद नज़ारा देखते हैं कि अनेक मसीही कलीसियाओं और संस्थाओं पर उनके पश्चिमी स्वामी धन-की-शक्ति द्वारा राज करते हैं। आर्थिक बोझ से दब कर और पश्चिमी देशों में आमंत्रित किए जाने के साथ जुड़ी विवशताओं की वजह से बहुत से भारतीय विश्वासी "गोरों" के गुलाम बन गए हैं। एक विश्वासी का दूसरे विश्वासी के प्रति ऐसी गुलामी का मनोभाव "निकुलईवाद" है और यह परमेश्वर की नज़र में ईशनिंदा है।
निकुलईवाद के एक और स्वरूप को देखते हैं। रोमन कैथोलिक कलीसिया यह सिखाती है कि मरियम मसीह और मनुष्य के बीच मध्यस्थ है। फिर उनके पुरोहित रोमन कैथोलिक लोगों और मरियम के बीच मध्यस्थ बन जाते हैं! लेकिन मध्यस्थता के इस मनोभाव का अभ्यास, जिसका कोई पवित्र शास्त्रीय आधार नहीं है, रोमन कैथोलिक पुरोहित की तरह एक प्रोटैस्टंट पास्टर द्वारा भी अपनाया जा सकता है!
जब एक पास्टर अपने झुण्ड में से किसी की नौकरी, शादी या अन्य किसी बात के लिए फ्परमेश्वर की इच्छाय् का पता लगाता है, तो वह एक निकुलई मध्यस्थ की तरह ही काम करता है। इन तरीक़ों से पुरोहित और पास्टर अपने झुण्ड पर इस तरह से अधिकार जमा लेते हैं जिससे परमेश्वर घृणा करता है।
आत्मिक परामर्श और सलाह देना एक ईश्वरीय बात है। लेकिन मसीह की देह के किसी अंग के लिए "परमेश्वर की इच्छा" जानने का काम करना मसीह के उसका सिर होने के सम्बंध को उससे चुरा लेना है।
पुरानी वाचा में, नबी लोगों के लिए परमेश्वर की इच्छा मालूम कर उन्हें बताते थे, क्योंकि तब तक व्यक्तिगत तौर पर हरेक व्यक्ति को पवित्र-आत्मा नहीं दिया गया था। लेकिन अब, नई वाचा में, बातें बदल गई हैं। सभी परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप में जान सकते हैं (इब्रा. 8:8-12)। असल में, प्रभु उत्सुकता से यह चाहता है कि उसकी कलीसिया (उसकी देह) का हरेक अंग उसके साथ सीधे तौर पर जुड़ा हो और वह उसका शीर्ष (सिर) हो (कुलु. 2:18,19)। फिर भी, निकुलई इसमें रुकावट बनते हैं।
इफिसुस की कलीसिया ने सफलतापूर्वक निकुलईवाद को दूर रखा था। उन्हें उससे घृणा थी और प्रभु ने उनकी प्रशंसा की क्योंकि उसे भी उससे घृणा थी। उसे पहली शताब्दी में घृणा थी, और वह अब भी इससे घृणा करता है।
इस विषय में आप अपने विषय में क्या कहना चाहेंगे? क्या आप इस बुराई से इसी तरह घृणा करते हैं जैसे प्रभु इससे घृणा करता है? अगर नहीं, तो आप मसीह-समान नहीं हैं, और आप उसके सच्चे दूत नहीं हो सकते। एक निकुलई मसीह की देह का निर्माण नहीं कर सकता।
जय पाने वालों की बुलाहट
अंत में, पवित्र-आत्मा उन सभी को उत्साहित करता है जिनके पास सुनने वाले कान हैं, कि जो वह कहता है वे सुनें, क्योंकि संदेश सभी कलीसियाओं के लिए है (पद 7)। प्रभु जो कहता है, हरेक विश्वासी वह मानने के लिए तैयार नहीं होता - क्योंकि ज़्यादातर अपनी मनमानी करना चाहते हैं या अपने साथियों को प्रसन्न करना चाहते हैं। इस सच्चाई को जानते हुए, पवित्र-आत्मा कलीसिया में सभी को व्यक्तिगत रूप से एक जयवंत जीवन जीने की चुनौती देता है।
यहाँ पवित्र-आत्मा पूरे हृदय से समर्पित और विश्वासयोग्य विश्वासियों के एक ऐसे समूह को मान्यता देता है जिन्हें वह कलीसिया के बीच फ्जय पाने वालेय् कहता है। ये वे हैं जो पाप और सांसारिकता पर जय पाते हैं और जो उनके आसपास होने वाले आत्मिक पतन के बीच प्रभु के लिए विश्वासयोग्य रह कर खड़े रहते हैं।
हरेक स्थान में परमेश्वर ऐसे लोगों को ढूंढ रहा है जो उसके सच्चे मापदण्डों के लिए खड़े रहने और उनके पक्ष में लड़ने के लिए कोई भी क़ीमत चुकाने के लिए तैयार हैं। सातों कलीसियाओं को लिखे पत्रों में, हम देख सकते हैं कि प्रभु की दिलचस्पी मुख्य रूप से जय पाने वालों में ही है।
जो जय पाए, उससे प्रभु एक वरदान की प्रतिज्ञा करता है। यहाँ, वह जीवन के वृक्ष में से खाने के लिए दिए जाने की प्रतिज्ञा करता है (पद 7); वह विशेषाधिकार जिससे आदम चूक गया था। जीवन का वृक्ष ईश्वरीय जीवन और ईश्वरीय स्वभाव का प्रतीक है। जो सबसे बड़ा वरदान परमेश्वर मनुष्य को दे सकता है, वह उसके स्वभाव में सहभागी होना है। यहाँ, पृथ्वी पर, बहुत से विश्वासी इस बात को बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानते। लेकिन अनन्त की ज़्यादा स्पष्ट ज्योति में, हम यह देख पाएंगे कि वास्तव में यही वह सबसे बड़ा वरदान है जो परमेश्वर एक मनुष्य को दे सकता है।
स्मुरना की कलीसिया के दूत को लिखः जो प्रथम तथा अंतिम है, जो मर गया था, और अब जी-उठा है, वह कहता है, 'मैं तेरे क्लेश और ग़रीबी को जानता हूँ-पर तू धनवान है - तथा उनकी ईश-निन्दा को भी जानता हूँ जो अपने आपको यहूदी कहते हैं पर हैं नहीं, वरन् शैतान के सभागृह हैं। जो क्लेश तू सहने पर है, उनसे न डर। देखो, शैतान तुममें से कितनों को बंदीगृह में डालने पर है कि तुम परखे जाओ, और तुम्हें दस दिन तक क्लेश उठाना पड़ेगा। प्राण देने तक विश्वासी रह - तब मैं तुझे जीवन का मुकुट प्रदान करूँगा। जिसके कान हो वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है। जो जय पाए, उसे दूसरी मृत्यु से कोई हानि न होगी" (प्रका. 2:8-11)।
क्लेश
प्रभु अपने आपको प्रथम और अंतिम कहता है, वह जिसने मृत्यु पर जय पाई है। एक कलीसिया जो विरोध और क्लेश का सामना कर रही है, उसे प्रभु को ऐसे देखने की ज़रूरत है कि वही है जो आरम्भ से अंत तक सभी घटनाओं को अपने वश में रखे हुए है, और वही है जिसने मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु- मृत्यु-को हराया है।
इस कलीसिया पर प्रभु ने कोई आरोप नहीं लगाया।
यह ऐसी कलीसिया थी जो क्लेश सह रही थी, और जो ग़रीबी और दोष लगाए जाने का सताव सह रही थी।
प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में, क्लेश एक बार-बार दोहराया जाने वाले विषय है- और यह ध्यान देने योग्य बात है कि इसका सामना प्रभु के सबसे विश्वासयोग्य लोगों को ही करना पड़ता है, पाप से समझौता करने वालों को नहीं। प्रकाशितवाक्य के पहले अध्याय में हम यूहन्ना को क्लेश सहते हुए पाते हैं। यहाँ हम एक विश्वासयोग्य कलीसिया को क्लेश सहते हुए पाते हैं। यह एक ऐसी कलीसिया है जिस पर प्रभु ने कोई दोष नहीं लगाया - वह जो सताव सह रही है। सांसारिक और पाप से समझौता करने वाली कलीसियाएं आराम से रहती हैं।
इन सब बातों का उद्देश्य हमें यह याद दिलाना है कि जो बच्चे पूरे हृदय से परमेश्वर के हैं, उनके लिए उसकी सिद्ध इच्छा यही है कि वे क्लेश उठाएं। इसलिए जब हम भी किसी दिन बड़े क्लेश का सामना करें, तो ऐसा न मान लें कि हम पर कोई अनहोनी बात घट रही है। हम भी उसी रास्ते से होकर जा रहे हैं जिस पर परमेश्वर के विश्वासयोग्य लोग सदियों से चलते आए हैं।
परमेश्वर अपने बच्चों में से सबसे अच्छे बच्चों को क्लेश सहने देता है। ऐसा पहली शताब्दी में था। ऐसा कलीसिया के पिछली 20 शताब्दियों के इतिहास में रहा है और ऐसा युग के अंत तक रहेगा।
परमेश्वर के बच्चों में से जो सर्वश्रेष्ठ, और जो सबसे विश्वासयोग्य हैं, वे ही प्रभु की सेना के वे विशिष्ट सैन्य-दल होंगे जो मसीह-विरोधी के दिनों में इस पृथ्वी पर उसके साक्षी के रूप में खड़े रहेंगे। हरेक सेनाध्यक्ष अपने सबसे श्रेष्ठ सैन्य-दल वहीं भेजता है जहाँ सबसे भीषण युद्ध चल रहा होता है। प्रभु भी ऐसा ही करता है। प्रभु के ऐसे सैन्य-दल का हिस्सा होना एक बड़े विशेषाधिकार और सम्मान की बात है।
निश्चय ही परमेश्वर जय पाने वालों को पृथ्वी पर से ऐसे समय में नहीं उठा लेगा जिसमें उनकी साक्षी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। उसने बीते समय में ऐसा नहीं किया है, और वह आने वाले समय में भी ऐसा नहीं करेगा।
महाक्लेश के दिनों में मसीह-विरोधी का सामना करने वाले प्रभु के विशिष्ट सैन्य-दलों को प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में "परमेश्वर की आज्ञा मानने वाले, और यीशु की गवाही पर स्थिर रहने वाले" कहा गया है (प्रका. 12:17)। वे मसीह-विरोधी के सामने झुकने से इनकार करने वाले और अपने देह पर उसका चिन्ह् लगवाने से इनकार करने वाले लोग होंगे। इसलिए उनमें से ज़्यादातर को अपने विश्वास के लिए अपने जीवन बलिदान करने पड़ेंगे (प्रका- 13:7,8, 15-17)। इसलिए वे सभी समयकालों के उन शहीदों में शामिल हो जाएंगे जिन्होंने "मृत्यु सहने तक भी अपने प्राणों को प्रिय नहीं जाना" (प्रका. 12:11)।
हममें से किसी में भी प्राकृतिक रूप में प्रभु के लिए मृत्यु सहने की ताक़त नहीं होती। लेकिन अगर परमेश्वर ने हमें इसलिए बुलाया है कि हमारी साक्षी हमारे लहू से मोहरबंद की जाए, तो हमें आश्वस्त रहना चाहिए कि जब ऐसा समय आएगा, तब उस समय वह हमें विशेष कृपा प्रदान करेगा। कृपा की ऐसी ही विशेष आपूर्ति की वजह से बीते समय में प्रत्येक मसीही ने निर्भय होकर मौत का सामना किया था। और परमेश्वर ने जो उनके लिए किया था, वही वह हमारे लिए भी करेगा-हममें से सबसे कमज़ोर और सबसे डरपोक के लिए भी। हमें सिर्फ इतना करना है कि उससे यह कह दें कि हम किसी भी क़ीमत पर उसके प्रति विश्वासयोग्य रहना चाहते हैं। अगर हममें इच्छा होगी, तो परमेश्वर हमें साहस देगा।
ग़रीबी
स्मुरना के संत ग़रीब थे। ग़रीबी भी एक ऐसी बात है जिसका सामना पूरे कलीसियाई इतिहास में परमेश्वर के विश्वासयोग्य बच्चों ने किया है।
पुरानी वाचा के बहुत से संत धनवान थे। पुरानी वाचा में परमेश्वर ने उसके प्रति आज्ञाकारी रहने के प्रतिफल के रूप में धन-सम्पत्ति की प्रतिज्ञा की थी क्योंकि इस्राएल की बुलाहट एक पार्थिव राज्य के लिए थी। लेकिन यीशु ने एक नई वाचा की शुरूआत की और स्वर्ग के राज्य को पृथ्वी पर ले आया। अब जिस धन की प्रतिज्ञा हमसे की गई है, वह पार्थिव नहीं स्वर्गीय है। इसी कारण यीशु और उसके शिष्य ग़रीब थे।
आज, बहुत से लोग यह सिखा रहे हैं कि धनवान होना इस बात का चिन्ह् है कि परमेश्वर अपने बच्चों को आशिष दे रहा है। इस धर्म-सिद्धान्त का आविष्कार सबसे पहले पश्चिम के प्रचारकों ने किया, जिन्होंने इसका इस्तेमाल परमेश्वर के लोगों के दसवांशों से धनवान बन जाने को सही ठहराने के लिए किया! फिर इस सुविधाजनक धर्म-सिद्धान्त को मसीही व्यापारियों ने धन के अम्बार लगाने को न्यायोचित ठहराने के लिए अपना लिया। और सभी जगह के लालची प्रचारकों ने भी इसे अपने लिए एक उपयोगी धर्म-सिद्धान्त मान लिया है!
यीशु और शिष्यों की ग़रीबी ही इस बात को दर्शाने के लिए काफी होनी चाहिए कि ऐसे सभी प्रचारक उनके लालच द्वारा पूरी तरह भरमाए गए हैं।
स्मुरना के विश्वासी बड़ी परीक्षाओं के बीच प्रभु के प्रति विश्वासयोग्य थे, और वे ग़रीब थे। लौदीकिया की कलीसिया, दूसरी ओर, पूरी तरह मरी हुई थी, और भौतिक रूप से धनवान थी। इससे क्या साबित होता है? इसका जवाब स्पष्ट रूप में सबके सामने है।
"परमेश्वर ने इस जगत के निर्धनों को विश्वास में धनवान होने के लिए चुना है... परमेश्वर ने जगत के मूर्खों को चुना है... परमेश्वर ने जगत के निर्बलों को चुना है... परमेश्वर ने जगत के ऐसे लोगों को चुना है जो कुछ भी नहीं हैं... कि कोई मनुष्य गर्व न कर सके" (याकूब 2:5; 1 कुरि. 1:27, 29)।
परमेश्वर ने अपने बच्चों का चुनाव करने में कोई ग़लती नहीं की है।
अगर हम पहले परमेश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज करेंगे, तो उसकी यह प्रतिज्ञा है कि वह हमारी भौतिक ज़रूरतें पूरी करेगा (मत्ती 6:33_ फिलि- 4:19)।
हमने भारत की कलीसियाओं में बार-बार इस बात का सबूत देखा है, कि जब बहुत ग़रीबी और क़र्ज़ में डूबे विश्वासियों ने अपने जीवन में परमेश्वर का आदर किया, तो उनके स्वर्गीय पिता ने उन्हें आर्थिक रूप में भी आशिष दी। भारत जैसे देश में यह एक चमत्कार है जहाँ कोई सरकारी सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था नहीं है, बेरोज़गारी की ऊँची दर है, और नौकरशाही में व्यापक भ्रष्टाचार फैला हुआ है। लेकिन हमने यह भी देखा है कि परमेश्वर ने उन्हें धनवान नहीं बनाया है। परमेश्वर ने उनकी ज़रूरतें पूरी की हैं। लेकिन उसने उन्हें धनवान नहीं बनाया है।
हमने यह भी देखा है कि जब विश्वासी धन-दौलत के पीछे लगते हैं तो वे आत्मिक रीति से अपना नाश कर लेते हैं (1 तीमु. 6:9,10)।
अगर एक विश्वासी पहले से ही धनवान है-विरासत में पैतृक सम्पत्ति या अन्य किसी वजह से - तब उसे क्या करना चाहिए? तब उसे परमेश्वर के वचन का पालन करना चाहिएः (I) सबसे पहले उसे यह समझना चाहिए कि उसके पास जो कुछ है, वह प्रभु का है (पवित्र शास्त्र के इन वचनों का अध्ययन करेंः 1 कुरि. 10:26; 1 कुरि. 4:7; लूका 14:33; यूहन्ना 17:10); (II) प्रभु की इस आज्ञा का पालन करें कि उसके धन को सुसमाचार फैलाने के लिए इस्तेमाल करें, और इस तरह, अपने धन से पहले स्वर्ग के राज्य की खोज करें ("अपने धन का उपयोग अनन्त के लिए मित्र बनाने में करें" - लूका 16:9-भावानुवाद); (III) परमेश्वर की इस आज्ञा का पालन करें कि अपने धन को ज़रूरतमंद विश्वासियों के साथ बांटें (1 तीमु. 6:18,19)।
अगर वह ये तीन क़दम उठाएगा, तो वह ज़्यादा समय तक धनवान नहीं रहेगा। लेकिन वह एक आत्मिक मनुष्य बन जाएगा, क्योंकि परमेश्वर हमें उसी अनुपात में आत्मिक आशिष देता है जिस अनुपात में हम भौतिक वस्तुओं में विश्वासयोग्य रहते हैं (लूका 16:11)। बहुत से लोग आत्मिक रूप से ग़रीब हैं क्योंकि वे "अधर्म के धन" में विश्वासयोग्य नहीं रहे जिसके द्वारा परमेश्वर ने उन्हें परखा था।
परमेश्वर ने नई वाचा में हमसे भौतिक धन-सम्पत्ति की प्रतिज्ञा नहीं की है। लेकिन उसने स्मुरना की कलीसिया से यह कहा,… "लेकिन तू धनवान है" (पद 9)। वे परमेश्वर की नज़र में धनवान थे, क्योंकि वे अपनी परीक्षाओं में विश्वासयोग्य रहे थे और इस तरह वे ईश्वरीय स्वभाव में सहभागी हुए थे। यह वह सच्चा अनन्त धन है जो नई वाचा में परमेश्वर हमें देता है।
निन्दा
स्मुरना की कलीसिया को उनकी "ईश-निन्दा सहनी पड़ रही थी जो अपने आपको यहूदी कह रहे थे" (पद 9)।
निन्दा एक ऐसी बात है जिसका सामना परमेश्वर के सब विश्वासयोग्य बच्चों को करना पड़ता है। ध्यान दें कि इस कलीसिया को उन लोगों के हाथों निन्दा और विरोध का सामना करना पड़ रहा था जो अपने आपको परमेश्वर के लोग कह रहे थे- "जो अपने को यहूदी कहते हैं पर हैं नहीं, वरन् शैतान की सभागृह के हैं" (पद 9)।
ये यहूदी धार्मिक लोग थे, जो अपनी बाइबल पढ़ते थे (उत्पत्ति से मलाकी तक)। फिर भी प्रभु ने उन्हें "शैतान का सभागृह" कहा, क्योंकि वे ढोंगी थे। इसी वजह से वे यीशु के सच्चे शिष्यों को सता रहे थे।
बहुत से आराधनालय जो परमेश्वर का भय मानने वाले यहूदियों द्वारा शुरू किए गए थे, समय गुज़रने के साथ शैतान की सभागृह बन गए थे। इसी तरह, बहुत सी कलीसियाएं जो परमेश्वर का भय मानने वाले विश्वासियों द्वारा शुरू की गई थीं, आज, परमेश्वर की नज़र में, "शैतान की कलीसियाएं" बन चुकी हैं।
आज, यीशु के सच्चे शिष्यों का विरोध न सिर्फ मूर्तिपूजक धर्मों द्वारा किया जाता है (जो समझ में आ जाता है), लेकिन उनके द्वारा भी "जो अपने आपको मसीही कहते हैं लेकिन हैं नहीं, बल्कि शैतान के सभागृह हैं।"
अगर आज हम यह कहें कि एक तथा-कथित "कलीसिया" "शैतान का सभागृह है," तो बहुत से लोग हम पर यह दोष लगाएंगे कि हम मसीह-समान नहीं हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि वह स्वयं यीशु ही था जिसने पतरस को यह कहते हुए डाँटा था, "दूर हट, शैतान" (मत्ती 16:23), और यह यीशु ही था जिसने इस धार्मिक समूह को "शैतान का सभागृह" कहा था। वह उन कलीसियाओं के लिए आज भी ऐसी ही कठोर भाषा का इस्तेमाल करेगा जो अपनी बुलाहट से दूर हट चुके हैं।
यीशु ने अपने शिष्यों को चेतावनी दी, "वे तुम्हें आराधनालय से निकाल देंगे, लेकिन वह समय आ रहा है कि जो कोई तुम्हें मार डालेगा, समझेगा कि परमेश्वर की सेवा कर रहा है। और वे ऐसा इसलिए करेंगे क्योंकि उन्होंने न तो पिता को जाना है और न मुझे" (यूहन्ना 16:2,3)।
जो उसने उस समय कहा था, कि उसके शिष्यों के साथ आराधनालय में लोगों द्वारा किया जाएगा, सदियों बाद वही "कलीसियाओं" में भी किया गया। मध्यकालीन युग में, परमेश्वर का भय मानने वाले यीशु के बहुत से शिष्य रोमन कैथोलिक धर्म-परीक्षकों द्वारा मारे गए थे।
मसीह-विरोधी और बैबीलोनी "वैश्विक कलीसिया" के समयकाल में, यीशु मसीह के शिष्यों के प्रति ये घृणा उसकी चरम सीमा पर पहुँचेगी। जब उसका समय आ जाए, तो हमें उसका सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। इसलिए इन दिनों के तथा-कथित मसीहियों की मामूली निन्दा और विरोध का जो सामना हम करते हैं, हमें उससे डरना नहीं चाहिए।
हमें अपनी निन्दा से डरने की ज़रूरत नहीं है- क्योंकि स्वयं यीशु की भी निंदा की गई थी। उसे पेटू मनुष्य, झूठा शिक्षक, ईश-निन्दक, पागल, दुष्टात्मा-ग्रस्त, और शैतानी शक्ति वाला व्यक्ति कहा गया था (लूका 7:34; यूहन्ना 7:12; मत्ती 26:65; मत्ती 3:21,22; यूहन्ना 8:48)।
उसने अपने शिष्यों से कहा कि एक शिष्य अपने गुरु से बड़ा नहीं होता, और न ही एक दास अपने स्वामी से बड़ा होता है। शिष्य के लिए यही बहुत है कि वह अपने गुरु जैसा बन जाए, और एक दास अपने स्वामी जैसा बन जाए। अगर उन्होंने घर के स्वामी को बालज़बूल कहा (शैतान का यहूदी नाम- दुष्टात्माओं का सरदार) तो घर के सदस्यों को क्या कुछ न कहेंगे! (मत्ती 10:24, 25)।
पतरस हमें यह कहते हुए उत्साहित करता है, "अन्यजातियों के बीच अपना चाल-चलन अच्छा बनाए रखो, जिससे वे जिन बातों में कुकर्मी कह कर तुम्हारी निन्दा करते हैं, उन्हीं बातों में तुम्हारे भले कामों को देख कर न्याय के दिन परमेश्वर की महिमा करें" (1 पतरस 2:12)।
परमेश्वर हमसे यह प्रतिज्ञा करता है, "तेरी हानि के लिए बनाया गया कोई भी हथियार सफल न होगा और जितनी भी जीभें तुझ पर दोष लगाएं, तू उन्हें दोषी ठहराएगी। यहोवा के दासों का यही भाग होगा, और वे मेरे कारण निर्दोष ठहराए जाएंगे" (यशा. 54:17)। इसलिए हमें निन्दा से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। प्रभु स्वयं उचित समय पर हमें निर्दोष ठहराएगा। तब तक हमें चुप रहकर ऐसी बातों को अनसुना करते रहना होगा जो अधर्मी लोग हमारे विषय में कहते हैं।
भय से मुक्ति
फिर प्रभु ने स्मुरना की कलीसिया से न डरने के लिए कहा (पद 10)। यीशु के पृथ्वी के रहने के दिनों में "मत डर" एक ऐसी बात थी जो उसके मुख से बार-बार निकलती रही थी। और यही बात वह आज उस कलीसिया से कहता है जो उसके नाम के लिए पीड़ा सहती है। शायद यही वह एक बात है जो इन दिनों हम सब को सबसे ज़्यादा सुनने की ज़रूरत है।
आज पूरे संसार पर एक भय का आत्मा छाया हुआ है और लोगों पर उसका शिकंजा मज़बूत होता जा रहा है। यीशु ने हमें चेतावनी दी थी कि अंत के दिनों में ऐसा ही होगा (लूका 21:26)। लेकिन उसने अपने शिष्यों से यह भी कहा कि उन्हें भय की इस आत्मा से प्रभावित नहीं होना है। लेकिन यह अफसोस की बात है कि ज़्यादातर विश्वासी इस आत्मा से मुक्त नहीं हैं। अनेक विश्वासी भविष्य में होने वाली बातों के डर, मनुष्यों के डर, बीमारी के डर, मृत्यु के डर, और दूसरे अनेक प्रकार के डर के गुलाम हैं।
डर शैतान का बाहुपाशी-हथियार है जिससे वह बहुत से विश्वासियों को गुलाम बनाता है। यही भय की आत्मा बहुत से विश्वासियों को कलीसियाई सभाओं में, और उनके काम करने की जगहों में, साहसपूर्वक प्रभु का साक्षी होने से रोकती है। बहुत से विश्वासी नम्रता और निर्बलता के बीच उलझन में आ जाते हैं और शैतान उन्हें भरमा देता है।
वह भय ही था जिसने महायाजक के महल में दासी-लड़की के सामने पतरस को साहसपूर्वक प्रभु का साक्षी होने से रोका था। लेकिन जब पैन्ताकुस्त के दिन पतरस का पवित्र-आत्मा में बपतिस्मा हो गया, तब उसका भय दूर हो गया था। फिर वह किसी के भी सामने प्रभु का साक्षी हो सकता था।
बाद में, जब वह और अन्य प्रेरित दोबारा भयभीत होने की परीक्षा में पड़े, तो उन्होंने प्रार्थना की और वे फिर से पवित्र-आत्मा द्वारा भरे गए, और एक बार फिर भय की आत्मा उनके पास से भगाई गई (प्रेरितों. 4:31)।
इसलिए, इसका जवाब यह हैः हमें बार-बार पवित्र-आत्मा द्वारा भरा जाना है।
परमेश्वर यह नहीं चाहता कि आप एक ऐसी भय की आत्मा के गुलाम बनें जो आपको अपना मुँह खोलकर अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और काम की जगह पर मसीह का साक्षी होने से रोकती है। वह आपको पवित्र-आत्मा से भरना और साहसी बनाना चाहता है। आपको सिर्फ यह स्वीकार करना है कि आप डरपोक हैं और फिर आप परमेश्वर से यह कह सकते हैं कि वह आपको पवित्र-आत्मा से भरे, जिससे कि आप उसके साहस से भरे साक्षी बन सकें। जो भूखे और प्यासे होंगे, वे तृप्त किए जाएंगे।
आने वाले दिनों में हम और ज़्यादा भयभीत होने की परीक्षा में पड़ेंगे। इसलिए अभी से हमें अपने डर पर जय पाने के हरेक मौक़े का फायदा उठाते रहना है।
पीड़ा जो परमेश्वर की योजना के अनुसार है
परमेश्वर अपने विश्वासयोग्य बच्चों को पीड़ा से नहीं बचाता। वह जानता है कि हमारी आत्मिक उन्नति के लिए पीड़ा ज़रूरी है। इसलिए स्मुरना की कलीसिया को उसकी पीड़ा से मुक्त नहीं किया गया। लेकिन प्रभु ने उनको यह कहते हुए उत्साहित किया, "जो क्लेश तू सहने पर है उससे न डर" (पद 10)।
प्रभु ने उन्हें चेतावनी दी कि शैतान उनमें से कुछ को बंदीगृह में डालेगा। परमेश्वर ने शैतान को यह शक्ति दी है कि वह विश्वासियों को अन्यायपूर्वक बंदीगृह में डाल सके। लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि परमेश्वर से अनुमति पाने से पहले, शैतान हमारा कुछ नहीं कर सकता। और अगर हम बंदीगृह में भी डाले जाते हैं, तो वह हमें परखने के लिए ही होगा (पद 10)। परमेश्वर कारागार को भी अपने उद्देश्य पूरे करने के लिए इस्तेमाल करता है।
पौलुस ने कहा, "जो कुछ मुझ पर बीता है (मेरे बंदी होने से), उससे सुसमाचार की उन्नति ही हुई है" (फिलि. 1:12-14)। परमेश्वर ने पौलुस के बंदी बनाए जाने को अनेक उद्देश्य पूरे करने के लिए इस्तेमाल कियाः (1) पौलुस को शुद्ध करने के लिए (2) पौलुस के अनेक जेलरों के मन-फिराव के लिए; (3) पौलुस को उसकी पत्रियाँ लिखने का मौक़ा देने के लिए; (4) बहुत से अन्य विश्वासियों को साहसपूर्वक प्रचार करने में उत्साहित करने के लिए।
हमारा परमेश्वर वास्तव में सब कुछ शैतान के सिर पर इस तरह वापिस लौटा देता है कि सब कुछ (कारावास भी), सिर्फ उसके ईश्वरीय उद्देश्यों को ही पूरा करता है (रोमि. 8:28; भजन. 76:10)।
हमें कारावास में कितना समय बिताना है, यह भी प्रभु ही तय करता है। "तुम्हें दस दिन तक क्लेश उठाना पड़ेगा" प्रभु ने उनसे कहा (पद 10)। हमारा स्वर्गीय पिता समय की उस अवधि को तय करता है जो उसके बच्चों को क्लेश में गुज़ारने देते हैं।
महाक्लेश के दिनों के लिए भी, यीशु ने कहा, "चुने हुओं के लिए वे दिन घटा दिए जाएंगे" (मत्ती 24:22)। जलप्रलय के समय जब पृथ्वी डूबी हुई थी, "तब परमेश्वर ने नूह की सुधि ली" (उत्पत्ति 8:1)। और पृथ्वी जब महाक्लेश में घिरी होगी, तब भी वह अपने चुने हुओं को नहीं भूलेगा। "मैं तुझे नहीं भूलूँगा... मैंने तेरा नाम अपनी हथेली पर खोद कर लिख लिया है" (यशा. 49:15,16)।
यह जानना हमारे लिए बहुत तसल्ली की बात है। और आने वाले दिनों में जब हमें प्रभु के लिए कष्ट सहने होंगे, तब हमें यह याद रखना होगा। वह ऐसा नहीं होने देगा कि हमारी सहने की क्षमता से बढ़कर हमें परखा जाए। सब कुछ उसके हाथ में है और जब हम पर दबाव बढ़ जाएगा तो वह उसे कम कर देगा।
"प्राण देने तक विश्वासयोग्य रह, तब मैं तुझे जीवन का मुकुट दूँगा," प्रभु यह कहते हुए हमें उत्साहित करता है (पद 10)। प्रभु के सत्य का साक्षी होने के लिए, अगर ज़रूरी हो तो हमें मरने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। उन विश्वासियों के उदाहरण का अनुकरण न करें जो थोड़े से सांसारिक फायदे - किसी सम्मान, पदोन्नति या धन आदि के लिए अपनी साक्षी में समझौता कर लेते हैं। ऐसे विश्वासी उस समय प्रभु के लिए कैसे खड़े रहेंगे जब मसीह-विरोधी की छाप लगवाए बिना हम अपने खाने की ज़रूरी चीज़ें भी नहीं ख़रीद सकेंगे (प्रका. 13:16,17? निश्चय ही, ऐसे "विश्वासी" जीने के लिए मसीह-विरोधी की छाप लगवा लेंगे।
याद रखें कि जीवन का मुकुट किसी भी पार्थिव सम्मान से, बल्कि शारीरिक जीवन से भी बढ़कर है।
प्रभु ने फिर से यह माना कि ऐसा संदेश सुनने के लिए सबके पास कान नहीं है। इसलिए वह उनसे, जिनके पास सुनने के कान हैं, कहता है कि वे सुनें।
जय पाने वालों को दूसरी मृत्यु से कोई हानि न होगी (पद 11)।
दूसरी मृत्यु अनन्त मृत्यु है - परमेश्वर की उपस्थिति से हमेशा के लिए दूर हो जाना, आग की झील में डाला जाना। यह एक महत्वपूर्ण बात है कि आग की झील से बचाए जाने की प्रतिज्ञा सिर्फ जय पाने वालों से ही की गई है। इसीलिए पाप पर जय पाना इतना महत्वपूर्ण है - क्योंकि मृत्यु पाप का ही अंतिम परिणाम है (जैसा याकूब 1:15 स्पष्ट बताता है)।
पूरी नई वाचा में पवित्र-आत्मा का प्राथमिक संदेश यही है कि हमें पाप पर उसके हरेक स्वरूप में जय पानी है।
"पिरगमुन की कलीसिया के दूत को लिखः जिस के पास तेज़ दोधारी तलवार है, वह यह कहता हैः मैं यह जानता हूँ कि तू वहाँ रहता है जहाँ शैतान का सिंहासन है। तू मेरे नाम पर स्थिर रहता है, और तूने मेरे नाम पर विश्वास करने से उन दिनों में भी इनकार नहीं किया जब अन्तिपास, मेरा विश्वस्त साक्षी, तुम्हारे बीच वहाँ मारा गया जहाँ शैतान का निवास है। लेकिन मुझे तेरे खिलाफ़ कुछ कहना है, क्योंकि तेरे यहाँ कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जो बिलाम की शिक्षा को मानते हैं, जो बालाक को सिखाता रहा कि इस्राएलियों को ठोकर खिलाए कि वे मूर्तियों पर चढ़ाई हुई वस्तुएं खाएं और व्यभिचार करें। इसी प्रकार तेरे यहाँ भी कुछ ऐसे लोग हैं जो निकुलइयों की शिक्षा को मानते हैं। इसलिए मन फिरा वर्ना मैं शीघ्र तेरे पास आ रहा हूँ और अपने मुख की तलवार से उनसे युद्ध करूँगा। जिसके कान हों वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है। जो जय पाए उसे मैं गुप्त मन्ना में से दूँगा और उसे एक श्वेत पत्थर भी दूँगा जिस पर एक नया नाम लिखा हुआ होगा जिसे प्राप्त के अलावा और कोई न जानेगाय् (प्रका. 2:12-17)।
घोर अंधकार के बीच ज्योति
प्रभु यहाँ अपने विषय में कहता है कि वह वही है जिसके पास आत्मा की तेज़ दोधारी तलवार है- परमेश्वर का जीवित और सामर्थी वचन (पद 12; इफि. 6:17)। यही वह तलवार है जिससे पृथ्वी पर रहने के दिनों में उसने जंगल में शैतान पर जय पाई थी। यही तलवार आज भी उसके मुख से निकलती है। और शैतान से होने वाले युद्ध में हमें इसी हथियार की ज़रूरत होती है।
पिरगमुन एक ऐसी दुष्टता से भरा नगर था कि प्रभु ने यह कहा कि वह पृथ्वी पर शैतान का मुख्यालय था। इसका उल्लेख पद 13 में दो बार किया गया है। और उस नगर के बीच में प्रभु ने अपनी कलीसिया को रखा हुआ था।
प्रभु ने उनसे कहा, "मैं जानता हूँ तू कहाँ रहता है।" वह जानता है हम कहाँ रहते हैं और हम कैसे हालातों में रहते हैं। और अगर हम वहीं रहते हैं जहाँ शैतान ने अपना सिंहासन लगा रखा है, तो भी प्रभु हमें शुद्ध और जयवंत बनाए रख सकता है। आत्मा की तलवार से हम भी जयवंत हो सकते हैं।
कोई भी दीपदान यह शिकायत नहीं कर सकता कि उसके आसपास का अंधकार उसके चमकने के लिए कुछ ज़्यादा ही है। दीपदान की ज्योति की चमक का उसके आसपास के वातावरण से कोई सम्बंध नहीं होता। उसकी ज्योति उसमें भरे तेल की मात्र पर निर्भर होगी।
एक स्थानीय कलीसिया के साथ भी ऐसा ही होता है। आसपास का वातावरण दुष्टता भरा हो सकता है। शैतान का सिंहासन भी उस नगर में हो सकता है। लेकिन अगर कलीसिया पवित्र-आत्मा के तेल से भरी है, तो ज्योति भरपूरी के साथ चमकेगी। असल में, एक जगह जितनी ज़्यादा अंधकारमय होगी, उस वातावरण में चमकने वाली ज्योति उतनी ज़्यादा तेज़ चमकती नज़र आएगी! आसमान में सितारे दिन में नहीं रात को नज़र आते हैं।
प्रभु ने उसके नाम को थामे रहने और सताव के समयों में भी उसके नाम में विश्वास होने से इनकार न करने के लिए इस कलीसिया की सराहना की। उसने विशेष तौर पर अन्तिपास का उल्लेख किया, जो एक ऐसा विश्वासयोग्य साक्षी था जिसने अपने विश्वास के लिए अपनी जान दे दी।
अन्तिपास एक ऐसा व्यक्ति था जो परमेश्वर के सत्य के लिए खड़ा रहा था, तब भी, जब वह अकेला रह गया था। उसका विश्वास दृढ़ था और वह मनुष्यों को प्रसन्न करने वाला व्यक्ति नहीं था। जो परमेश्वर को जानते हैं, उन्हें यह जानने के लिए अपने आसपास नहीं देखना पड़ता कि लोगों का भी क्या वही विश्वास है जो उनका है। वे प्रभु के लिए अकेले खड़े होने को तैयार रहते हैं, और अगर ज़रूरी हो तो सारी दुनियाँ के खिलाफ़ होकर भी खड़े रहते हैं। अन्तिपास एक ऐसा ही व्यक्ति था। और इसके परिणाम-स्वरूप वह मारा गया।
अगर वह मनुष्यों को प्रसन्न करने वाला होता, तो वह मौत से बच सकता था। वह इसलिए मारा गया क्योंकि वह परमेश्वर के प्रकाशित सत्य के लिए बिना कोई समझौता किए खड़ा रहा। लोगों ने शायद उसे संकीर्ण विचारों वाला, हठीला, बात-करने-लायक़-नहीं, और पागल कहा होगा। लेकिन इससे उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ा था। वह अपने प्रभु के प्रति सच्चा रहा, सारे पाप, सांसारिकता, समझौतों, परमेश्वर के वचन की आज्ञा न मानने और शैतान के खिलाफ़ खड़ा रहा। यह एक ऐसा व्यक्ति था जो शैतान के राज्य के लिए एक ख़तरा था।
शायद अन्तिपास के पिरगमुन में होने की वजह से ही शैतान ने अपना सिंहासन वहाँ लगाने का फैसला किया होगा। अन्तिपास कैसा व्यक्ति रहा होगा जिससे शैतान को भी डर लगने लगा था!
आज परमेश्वर को पृथ्वी के हरेक कोने में अन्तिपास जैसे लोगों की ज़रूरत है। वह समय अब जल्दी ही आ रहा है जब हमें अपने विश्वास के लिए उसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी। हमारे आसपास का सारा बैबीलोनी मसीही-जगत समझौते कर मसीह-विरोधी के सामने झुक जाएगा। क्या उस दिन हम दृढ़ता से अन्तिपास की तरह खड़े रह पाएंगे? या हम अपनी जान बचाने के लिए शैतान के आगे अपने घुटने टिका देंगे? क्या हमें इस बात का यक़ीन है कि परमेश्वर का सत्य इस योग्य है कि उसके लिए हम अपनी जान भी दे दें?
आज परमेश्वर छोटी-छोटी परीक्षाओं द्वारा हमें परख रहा है। अगर हम इन छोटी परीक्षाओं में स्थिर रहेंगे, तभी हम भविष्य में आने वाली बड़ी परीक्षाओं में भी स्थिर रह सकेंगे। आपको शैतान के लिए इतना बड़ा ख़तरा बन जाना है कि उसे आपके ही शहर में अपना डेरा लगाना पड़ जाए।
अन्तिपास की मृत्यु के बाद पतन
यह एक दुःख की बात थी कि अन्तिपास की मृत्यु के बाद पिरगमुन की कलीसिया का आत्मिक पतन हुआ था। अन्तिपास जब जीवित था तब शायद वही कलीसिया का दूत था। उसके मरने के बाद किसी दूसरे व्यक्ति ने कलीसिया की अगुवाई संभाली थी और तभी से कलीसिया का पतन होने लगा था। बहुत सी कलीसियाओं का ऐसा ही दुःखद इतिहास है।
पौलुस ने इफिसुस से विदा होते समय प्राचीनों से कहा था कि वह जानता है कि उसके जाने के बाद कलीसिया समझौता करेगी और पीछे हटेगी (प्रेरितों. 20:28-31)। जब तक पौलुस वहाँ था उसने सांसारिकता और पाप से लड़ कर मसीह-विरोधी की आत्मा को दूर रखा था। लेकिन पौलुस के जाने के बाद इफिसुस में कोई इस योग्य नहीं था जो यह कर सके। इसलिए भेड़ों के बीच फिर भेड़िए घुस आए और आराम से भेड़ों को खाने लगे, और अगुवे खड़े देखते रहे!
अन्तिपास के मरने के बाद शैतान ने अपनी युक्ति को बदला था। किसी जगह में शैतान का सिंहासन होने का अर्थ यह नहीं है कि वह सताव द्वारा ही कलीसिया पर हमला करेगा।
पवित्र शास्त्र में शैतान का वर्णन न सिर्फ एक फाड़ खाने वाले सिंह बल्कि एक ऐसे धूर्त सर्प के रूप में भी किया गया है जो एक ज्योतिर्मय स्वर्गदूत भी बन जाता है (प्रका. 12:9; 2 कुरि. 11:14)। बीती हुई सदियों में उसने यह जान लिया है कि जितनी अच्छी तरह उसके उद्देश्य कलीसिया को बाहर से सताने द्वारा पूरे होते हैं, उससे ज़्यादा अच्छी तरह वे कलीसिया के भीतर से उसे सांसारिक बना देने द्वारा पूरे होते हैं।
उसने अंततः पिरगमुन में "बिलामवाद" द्वारा यही किया, जहाँ वह सताव द्वारा सफल नहीं हुआ था, वहाँ वह बिलाम की शिक्षा द्वारा सफल हुआ!
बिलाम की शिक्षा
प्रभु यहाँ कलीसिया से कहता है, "तेरे यहाँ कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जो बिलाम की शिक्षा को मानते हैं" (पद 14)। बिलाम वह व्यक्ति था जिसे राजा बालाक ने इस्राएलियों को श्राप देने का काम कराने के लिए पैसा दिया था। जिनके विषय में हम बाइबल में पढ़ते हैं, ऐसे "पैसा लेकर प्रचार करने वालों" में वह पहला व्यक्ति था।
मसीही जगत आज किराए पर बुलाए हुए ऐसे लोगों से भरा पड़ा है जिनके लिए प्रचार करना उनकी जीविका अर्जित करने का माध्यम है। परमेश्वर ऐसे किराए के टट्टुओं के खिलाफ़ है; ये परमेश्वर की झुण्ड के चरवाहे होने का दिखावा करते हैं, लेकिन इनकी दिलचस्पी सिर्फ भेड़ों का ऊन कतरने में ही होती है।
पहली बार बालाक के बुलाने पर बिलाम नहीं गया क्योंकि परमेश्वर ने साफ तौर पर उसे जाने से मना किया था। लेकिन जब बालाक ने ज़्यादा धन और ज़्यादा सम्मान देने का प्रस्ताव भेजा, तब बिलाम ने फिर से "परमेश्वर की इच्छा जाननी चाही" - जैसा कि ऐसी ही परिस्थितियों में आज बहुत से लोग करते हैं! परमेश्वर ने बिलाम को पैसे के पीछे जाने दिया, और इस तरह उसे स्वयं को बर्बाद करने दिया। और परमेश्वर आज बहुत से मसीही प्रचारकों को भी बिलाम के क़दमों पर चलने देता है और जैसा बिलाम का अंत हुआ था, ऐसा ही अंततः उनका भी होने देता है।
जब बिलाम ने यह देखा कि वह इस्राएल को श्राप नहीं दे सकता, तो उसने बालाक को यह सुझाव दिया कि इस्राएल को अनैतिकता और मूर्तिपूजा द्वारा भ्रष्ट किए जाने की परीक्षा में डाला जाए (गिन. अध्याय 24, 25)। इस तरह बिलाम ने स्वयं परमेश्वर द्वारा उन्हें दण्डित करवाया।
शैतान इसी तरह पिरगमुन में भी सफल हुआ था। वह जानता था कि वह कलीसिया पर तब तक प्रबल नहीं हो सकेगा जब तक कि कलीसिया किसी न किसी रूप में सांसारिक नहीं हो जाती। इसलिए उसने उसे भीतर से भ्रष्ट कर दिया। इस तरह कलीसिया प्रभु के लिए अपनी साक्षी में और शैतान के खिलाफ़ अपने संघर्ष में प्रभावहीन हो गई। कलीसिया के विषय में शैतान का आदर्श-वाक्य यही रहा हैः "अगर इसे हरा नहीं सकते तो उसके साथ घुल-मिल जाओ।" और इस तरह पिछली 20 शताब्दियों में वह इसी तरह बहुत सी कलीसियाओं की साक्षी नष्ट करता रहा है।
मूर्तिपूजा और अनैतिकता दो ऐसे पाप थे जिन्हें परमेश्वर पुरानी वाचा के पूरे समयकाल में दोषी ठहराता रहा था। और इन दोनों पापों को वह आज भी धिक्कारता है। नई वाचा के मानक माप के अनुसार लालची होना, या धन, अपने काम, किसी व्यक्ति, या किसी भी सांसारिक वस्तु की आराधना करना मूर्तिपूजा है। और अपनी आँख से किसी भी स्त्री की लालसा करना अनैतिकता है। अपनी पत्नी को तुच्छ जानते हुए उसकी तुलना किसी दूसरे की पत्नी से करना "अपने पड़ौसी की पत्नी की लालसा करना" है। यह भी अनैतिकता है।
जहाँ नई वाचा के इन मानक मापदण्डों का लगातार प्रचार नहीं किया जाता, वहाँ एक गुप्त रूप में मूर्तिपूजा और अनैतिकता कलीसिया के सदस्यों में फैल जाएगी और वह कलीसिया जल्दी ही पिरगमुन जैसी हो जाएगी।
जब सांसारिकता पिरगमुन की कलीसिया पर प्रबल होने लगी, तो अफसोस की बात यह थी कि उस कलीसिया के दूत ने इस विषय में कुछ नहीं किया, बल्कि वह बैठे-बैठे यह होते हुए देखता रहा। बहुत से प्राचीन आज उनकी कलीसियाओं में बाढ़ की तरह आ घुसी सांसारिकता के सामने ऐसे ही कमज़ोर नज़र आ रहे हैं।
पिरगमुन का दूत स्वयं बिलाम की शिक्षा में नहीं फँसा था। लेकिन उसके यहाँ "कुछ ऐसे व्यक्ति थे" जो सांसारिकता के शिकार हो गए थे। लेकिन दूत का दोष यह था कि उसने कलीसिया में घुस आई सांसारिकता को धिक्कारा नहीं था। उसकी यही निष्फलता थी।
उसकी इस निष्फलता का कारण यही रहा होगा कि उसने अपने विचारों में सांसारिकता का न्याय उस कठोरता के साथ नहीं किया था जैसा उसे करना चाहिए था। कलीसिया में हमें सिर्फ उन्हीं बातों पर अधिकार होता है जिन्हें हम शरीर में सूली पर चढ़ा चुके हैं। जब पाप और सांसारिकता को हम अपने जीवन में एक हल्की बात के रूप में स्वीकार कर लेते हैं, तब हम उन्हें कलीसिया में दूसरों के जीवनों में स्वीकार कर लेंगे। एक कलीसिया के किसी सांसारिक व्यक्ति के प्रति एक अगुवे में जो "दयालुता" का मनोभाव बाहर नज़र आता है, असल में इस हक़ीक़त को दर्शाता है कि स्वयं उसके हृदय में अभी सांसारिकता को दोषी नहीं ठहराया गया है।
पिरगमुन का दूत सांसारिक शिक्षाओं के प्रति इतना लापरवाह था कि उसने अपनी कलीसिया में निकुलइयों की शिक्षा को भी फलने-फूलने दिया था (पद 15)। पिरगमुन की कलीसिया में पुरोहित-तंत्रवाद एक धर्म-ज्ञान के रूप में सिखाया जा रहा था! और उसके दूत ने उसके विषय में कुछ नहीं किया था। यह एक और बात थी जो उसके खिलाफ़ प्रभु को कहनी थी।
प्रभु उसे और उसकी कलीसिया को चेतावनी देते हुए मन-फिराने के लिए कहता है। और उनके मन न फिराने पर, वह अपने मुख की तलवार से उनका न्याय करने वाला था (पद 16)। परमेश्वर अपने वचन से हमारा न्याय करता है। यीशु ने कहा कि अंतिम दिन में हमारा न्याय उन वचनों के अनुसार होगा जो उसने हमसे बोले हैं (12:48)। हमारे जीवनों की तुलना परमेश्वर के उन वचनों से की जाएगी जो हमने सुने हैं, और हमारा न्याय उनके अनुसार किया जाएगा।
जय पाने की बुलाहट
फिर जय पाने वाले को गुप्त मन्ना और एक ऐसे श्वेत पत्थर के दिए जाने की प्रतिज्ञा की गई जिस पर उसका नया नाम लिखा होगा (पद 17)।
पुरानी वाचा में मूसा से यह कहा गया था कि वह स्वर्ग से गिरने वाले मन्ना में से कुछ लेकर मिलाप वाले तम्बू के महापवित्र स्थान में रख दें (निर्ग. 16:33,34)। वह मन्ना जो इस्राएली उनके तम्बू में रखते थे चौबीस घण्टे के अन्दर ही सड़ने लगता था, लेकिन वाचा के सन्दूक में रखा यह "छुपा हुआ मन्ना" इस्राएलियों के जंगल में घूमते हुए बिताए गए चालीस सालों तक तरो-ताज़ा रहा था। अगर हम हर समय परमेश्वर के मुख के सामने रहें, तो महापवित्र स्थान में हमें तरोताज़ा रखने की ऐसी सामर्थ्य है।
महापवित्र स्थान में सिर्फ देह के फटे हुए पर्दे में से होकर ही प्रवेश किया जा सकता है (इब्रा. 10:20)। यह वह मार्ग है जो यीशु ने हमारे लिए उसकी देह द्वारा खोला है। अगर हम इस नए और जीवित मार्ग पर चलते हैं, तो हम वह गुप्त मन्ना पा सकते हैं जो परमेश्वर हमें देता है-उसके वचन का प्रकाशन और उसकी संगति। और फिर हमारे जीवन हमेशा प्रभु की ताज़गी की सुगन्ध लिए रहेंगे। वह छुपा हुआ मूल्यवान पत्थर जिस पर जय पाने वाले का नाम लिखा है (पद 17), एक ऐसे घनिष्ठ सम्बंध का प्रतीक है जो एक दुल्हन और उसके दुल्हे के बीच होता है। आत्मिक रीति से इसकी तुलना सगाई की उस अंगूठी से की जा सकती है (जिसमें एक मूल्यवान पत्थर और एक नाम लिखा होता है) जो सांसारिक पुरुष अपनी मंगेतर को देते हैं।
दूल्हा अपनी दुल्हन को एक आत्मीय नाम देता है जिसके विषय में और कोई नहीं जानता
(पद 17)। जय पाने वालों के लिए यह प्रतिज्ञा है कि उनका प्रभु के साथ एक ऐसा ही आत्मीय सम्बंध होगा जैसा एक दूल्हा-दुल्हन के बीच होता है।
एक औसत विश्वासी का प्रभु के साथ एक शुष्क और नीरस सम्बंध होता है क्योंकि वह पाप और सांसारिकता के मूल रूप में उनसे घृणा नहीं करता। लेकिन जो वास्तव में जय पा लेता है, वह अपने प्रभु के साथ एक ऐसे हर्षोल्लासी सम्बंध में प्रवेश पा लेता है जैसे अपने दूल्हे के प्रेम में डूबी दुल्हन। "श्रेष्ठगीत" में एक ऐसे ही सम्बंध का बयान किया गया है-और एक जय पाने वाला ही इसे पूरी तरह समझ सकता है और इसका अनुभव पा सकता है।
"थुआतीरा की कलीसिया के दूत को लिखः परमेश्वर का पुत्र, जिसकी आँखें अग्नि-ज्वाला और जिसके पैर चमकते हुए पीतल के समान हैं, यह कहता हैः मैं तेरे कार्य, विश्वास, प्रेम और धर्य को जानता हूँ, और यह भी कि तेरे वर्तमान काम पहले के कामों से बढ़कर हैं। लेकिन तेरे खिलाफ़ मुझे यह कहना है कि तू उस स्त्री ईज़ेबेल को अपने बीच रहने देता है जो अपने आपको नबिया कहती है और मेरे दासों को व्यभिचार करने तथा मूर्तियों के आगे चढ़ाई हुई वस्तुएं खाने के लिए सिखाती और भटकाती है। मैंने उसे मौक़ा दिया कि वह मन फिराए, लेकिन वह मन फिराना नहीं चाहती। देख, मैं उसे बीमारी के बिस्तर पर डालूँगा, और जो उसके साथ व्यभिचार करते हैं, अगर वे उसके जैसे कामों से मन नहीं फिराएंगे, तो उन्हें भारी क्लेश में डालूँगा। मैं उसके बालकों को महामारी से मारूँगा, और सारी कलीसियाओं को यह मालूम हो जाएगा कि मनों और हृदयों को जाँचने वाला मैं ही हूँ और मैं तुममें से हरेक को उसके कामों के अनुसार ही प्रतिफल दूँगा। पर मैं थूआतीरा के बाक़ी लोगों से कहता हूँ कि जो इस शिक्षा को नहीं मानते, और जैसा कि वे कहते हैं कि शैतान की गहरी बातों को जानते हैं, हालांकि वे नहीं जानते, मैं तुम पर और अधिक भार नहीं डालता। फिर भी जो कुछ तुम्हारे पास है, उसे मेरे आने तक दृढ़तापूर्वक थामे रहो। जो जय पाए और मेरे कामों को अंत तक करता रहे, उसे मैं जाति-जाति पर अधिकार दूँगा। वह उन पर लोहे के राजदण्ड से शासन करेगा, जैसे कुम्हार के बर्तन टूट कर चकनाचूर हो जाते हैं, वैसे ही मैंने भी अपने पिता से अधिकार पाया है। मैं उसे भोर का तारा प्रदान करूँगा। जिसके कान हों, वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है (प्रका, 2:18-19)।"
एक झूठी नबिया
प्रभु कहता है कि उसकी आँखें अग्नि-ज्वाला हैं (पद 18)। वह हृदय के छुपे हुए विचारों और उद्देश्यों को परखता है-इसलिए वह मनुष्यों की तरह न्याय नहीं करता जो सिर्फ बाहरी रूप को देखते हैं। उसके पैर चमकाए हुए पीतल की तरह हैं - जिसका अर्थ है कि वह पाप का कठोरता से न्याय करने में विश्वास रखता है। अगर कलवरी की सूली से हमें एक स्पष्ट संदेश मिलता है तो वह यही हैः परमेश्वर पाप से घृणा करता है, और जहाँ भी पाप पाया पाएगा, उसका वह कठोरता से न्याय करेगा।
प्रभु थूआतीरा के दूत और कलीसिया के काम, प्रेम, विश्वास और धीरज को जानता था। औैर उसने इस बात पर ध्यान दिया कि हालांकि उनके काम पहले से बढ़ कर हो गए थे (पद 19), फिर भी उनके कामों की गुणवत्ता में कमी आ गई थी। समझौता और सांसारिकता कलीसिया में घुस आए थे।
यह समझौता मुख्य रूप में इस तरह हुआ था कि दूत ने एक स्त्री को (जिसे प्रतीकात्मक रूप में "ईज़ेबेल" कहा गया है), यह अनुमति दे दी थी कि वह कलीसिया को एक दुष्ट और सांसारिक रूप में प्रभावित कर सके (पद 20)। उसने एक नबिया होने का दिखावा किया था, और दूत उसके भ्रम में आ गया था।
मसीह ने कलीसिया को नबी तो दिए हैं, लेकिन उसने कोई नबिया नहीं दी है (देखें इफि- 4:11,12)। पवित्र-आत्मा स्त्रियों को कलीसिया की सभाओं में नबूवत का अभिषेक दे सकता है (प्रेरितों. 2:17, 1 कुरि. 11:5)। फिलिप्पुस की पुत्रियाँ इसका उदाहरण हैं (प्रेरितों. 21:9)।
पुरुष व स्त्रियाँ नबूवत कर सकते हैं - अर्थात् कलीसिया को उत्साहित और उन्नत करने के लिए परमेश्वर का वचन बाँट सकते हैं (1 कुरि. 14:3 के.जे.वी.)। यह वरदान पाने के लिए सभी विश्वासियों को उत्साहित किया गया है (1 कुरि. 14:1, प्रेरितों. 2:18)। लेकिन एक नबी और नबूवत करने वाले में फ़र्क होता है। नई वाचा में प्रभु ने किसी स्त्री को नबिया नियुक्त नहीं किया है, इसका कारण यही है कि परमेश्वर ने यह कभी नहीं चाहा कि एक स्त्री पुरुष पर अधिकार रखे।
पुरानी वाचा में नबिया थीं। हम बाइबल में उनमें से पाँच के विषय में पढ़ते हैं, जिनमें हन्नाह सबसे अंतिम थी (लूका 2:36)। वे सभी प्रभु के वचन को अधिकार के साथ बोलती थीं। उनमें से एक उदाहरण दबोरा का है (न्या. 4)। लेकिन नई वाचा में, कलीसिया का अधिकार प्रभु ने पुरुषों को ही दिया है।
परमेश्वर ने कलीसिया में स्त्रियों को पुरुषों के ऊपर क्यों अधिकार नहीं दिया है, पौलुस ने इसके दो कारण दर्शाए हैंः (1) उसकी रचना पुरुष के बाद की गई थी - उसका सहायक होने के लिए; (2) वह शैतान द्वारा पहले भरमाई गई थी (1 तीमु. 2:12-14)।
एक पुरुष की अपेक्षा एक स्त्री ज़्यादा आसानी से शैतान द्वारा भरमाई जा सकती है। यही वजह है कि मसीह ने अपनी कलीसिया में स्त्री-शिक्षक भी नियुक्त नहीं की हैं।
लेकिल ईज़ेबेल फिर भी अपने आपको नबिया कह रही थी। और थूआतीरा का दूत इतना कमज़ोर और बुज़दिल था कि वह उसे ख़ामोश नहीं कर पा रहा था।
एक घर में, अगर एक पुरुष कमज़ोर और पौरुषहीन होगा, तो उसकी पत्नी घर का नेतृत्व अपने हाथ में ले लेगी। यही एक कलीसिया में भी होगा। जब शक्तिशाली स्त्रियाँ यह देखती हैं कि कलीसिया के अगुवे कमज़ोर हैं, तो वे कलीसिया में स्वयं को मज़बूत करने लगती हैं।
परमेश्वर का वचन हमें "पुरुषार्थ" करने के लिए कहता है (1 कुरि. 16:13)। आज बहुत से अगुवों के लिए इस प्रोत्साहन की बहुत सख़्त करने की ज़रूरत है, क्योंकि जहाँ शक्तिशाली स्त्रियों को ख़ामोश करने की बात आती है, तो उनकी रीढ़ की हड्डी पानी हो जाती है! वे राजा अहाब की तरह होते हैं जो अपनी पत्नी ईज़ेबेल से इतना डरता था कि उसने उसे अपने राज्य में सब कुछ करने की पूरी छूट दे दी थी - इस हद तक कि वह परमेश्वर का भय मानने वाले निर्दोष लोगों की हत्याएं भी करवाने लगी थी (1 राजा 21)। अहाब इस्राएल का सिर्फ नाम का ही राजा था। असल में, ईज़ेबेल ही राज चलाती थी। आज बहुत से कलीसियाई प्राचीनों का काम अहाब की ही तरह है!
लेकिन एलिय्याह परमेश्वर का एक ऐसा निर्भय जन था जो ईज़ेबेल के सारे झूठे नबियों के खिलाफ़ खड़ा हुआ और उसने उन सभी को नाश कर दिया था (1 राजा 18:40)। यही वजह थी कि ईजे़बेल एलिय्याह से इतनी घृणा करती थी और इसीलिए वह उससे डरती भी थी। उस समय इस्राएल में ऐेसे 7 हज़ार पुरुष थे जिन्होंने ईज़ेबेल की मूर्तियों के आगे अपने घुटने नहीं टिकाए थे। स्वयं परमेश्वर ने यह कहा था (1 राजा 19:18)। लेकिन ईज़ेबेल उनमें से किसी से नहीं डरती थी। वह सिर्फ एलिय्याह से डरती थी। वह जानती थी कि चाहे उन 7 हज़ार लोगों ने उसकी मूर्तियों के आगे घुटने नहीं टिकाए थे, फिर भी वे उससे डरते थे।
आज की ईज़ेबेल 99-9 प्रतिशत विश्वासियों से नहीं डरेगी, क्योंकि वह जानती है कि चाहे वे उससे सहमत न भी हों, फिर भी वे उसे नहीं रोक सकते। ईज़ेबेल सिर्फ एलिय्याह से डरती है, और मसीही-जगत में बहुत कम एलिय्याह बचे हैं।
आज की ईज़ेबेल एलिय्याह जैसे प्राचीन से घृणा करती हैं लेकिन अहाब जैसे प्राचीनों को पसन्द करती हैं। इस मामले में हरेक कलीसिया का प्राचीन या तो अहाब का, या एलिय्याह का अनुसरण करेगा।
एक प्राचीन की पत्नी
जिस यूनानी शब्द का अनुवाद यहाँ "स्त्री" हुआ है, उसका अनुवाद "पत्नी" भी हो सकता है। इसका अर्थ यह है कि ईज़ेबेल कलीसिया के दूत की पत्नी थी। यह परिस्थिति दूत के लिए और भी मुश्किल भरी हो गई होगी।
अगर दूत वास्तव में प्रभु का सच्चा शिष्य होता और अगर उसने अपनी पत्नी से "घृणा" करना सीख लिया होता (जैसा प्रभु ने अपने शिष्यों से करने के लिए कहा था-लूका अध्याय 14), तो कोई समस्या न होती। लेकिन स्पष्ट तौर पर वह प्रभु और कलीसिया से ज़्यादा अपनी पत्नी से प्रेम करता था, और वह उसे नाराज़ नहीं करना चाहता था। और इसलिए उसने कलीसिया में उसे मनमानी करने दी थी। थूआतीरा की कलीसिया इस तरह भ्रष्ट हुई थी। और इसी तरह बहुत सी कलीसियाएं आज भ्रष्ट हो रही हैं।
ऐसे बहुत सी कलीसियाएं हैं जिन्हें एक इज़ेबेल ने बर्बाद किया है, जो अकसर एक कमज़ोर, पौरुषहीन प्राचीन की पत्नी होती है। इस तरह की स्त्री अकसर कलीसियाओं की सभा में अन्य भाषाएं बोलने, अपनी ही "अन्य भाषाओं" का अनुवाद करने, लम्बी प्रार्थनाएं करने, या और किसी बेढंगे गै़र-बाइबिलिय तरीक़े द्वारा अपने लिए एक विशिष्ट स्थान पाने की खोज में हो सकती है। वह घर पर अपने पति पर दबाव बना कर प्राचीनों के फैसलों को बदलने की भी कोशिश कर सकती है।
ऐसे भी मूर्ख अगुवे होते हैं जो प्राचीनों की सभा में चर्चा करने के बाद, अपने घर जाकर उन्हीं बातों की चर्चा अपनी पत्नी से भी करते हैं। फिर घर में उनकी पत्नियाँ जब अपने विचारों से उन्हें प्रभावित कर देती हैं तो ये पौरुषहीन प्राचीन, अगुवों की अगली सभा में आकर उन नए विचारों को प्रकट करते हैं! और वह फैसले जो पिछली सभा में लिए गए थे उन्हें बदल दिया जाता है! एक छुपी हुई इज़ेबेल में कलीसिया को प्रभावित करने की ऐसी शक्ति होती है!
फिर ऐसे भी मामले हो सकते हैं जिसमें ईज़ेबेल कोई ऐसी स्त्री हो जो किसी प्राचीन को एक जैविक तरीक़े से प्रभावित कर रही हो। कुछ प्राचीनों की पत्नियों के व्यक्तित्व इतने शक्तिशाली होते हैं और उनकी जैविक शक्ति इतनी प्रबल होती है कि कलीसिया के दूसरे पुरुष (प्राचीनों सहित) उन्हें किसी भी तरह से नाराज़ नहीं करना चाहते। कुछ स्त्रियों के मामलों में तो उनके पति भी उनसे डरते हैं।
अगर कलीसिया के प्राचीन एक स्त्री को उन पर किसी भी तरह का अधिकार जमाने देंगे, तो किसी भी जगह में, मसीह की देह का निर्माण करना असम्भव हो जाएगा।
एक प्राचीन की पत्नी "एक दीन और शांत" आत्मा का नमूना होनी चाहिए जिसे अपने आपको छुपाए रखने पर हर समय ख़ास ध्यान देना चाहिए। उसे सहायक पास्टर, या आराधना-मण्डली की अगुवा, या प्रशासनिक सहायक नहीं होना चाहिए (जैसा बहुत सी पत्नियाँ हैं), बल्कि उसे अपने पति की एक गुप्त सहायक होना चाहिए, ऐसी नहीं जो पर्दे के पीछे से कलीसिया चलाने की कोशिश करने वाली हो। परमेश्वर की स्तुति हो कि ऐसी भी पत्नियाँ हैं जो अपने पतियों की सच्ची मददगार हैं क्योंकि स्त्रियों के रूप में वे अपनी हदों को जानती हैं। जिस प्राचीन की ऐसी पत्नी है वह धन्य है। सभी प्राचीनों को ऐसी स्त्री पर नज़र रखनी चाहिए जो अपने लिए कलीसिया में प्रमुख स्थान की खोज में रहती है। उसमें यक़ीनन ईज़ेबेल की आत्मा होगी। अगर उसे आज़ादी दे दी जाएगी, तो वह शैतान की प्रतिनिधि बन कर कलीसिया को धीरे-धीरे लेकिन यक़ीनी तौर पर नाश कर देगी।
जिस व्यभिचार की यहाँ बात की गई है (पद 20) वह स्पष्ट रूप में आत्मिक व्यभिचार है-क्योंकि यह निश्चित है एक धर्मी परमेश्वर शारीरिक व्यभिचार से जन्में निर्दोष बच्चों को दण्ड नहीं दे सकता। आत्मिक व्यभिचार शारीरिक व्यभिचार से ज़्यादा ख़तरनाक होता है क्योंकि वह साफ तौर पर नज़र नहीं आता। धार्मिक व्यभिचार कृपा के विषय में दी जाने वाली झूठी शिक्षा का परिणाम होता जिसमें विश्वासी पाप को हल्के तौर पर लेने लगते हैं। मामूली बातों में परमेश्वर की आज्ञा न मानना और मामूली अविश्वासयोग्यता को अनदेखा कर दिया जाता है। ऐसी ही शिक्षा बैबीलोन का-व्यभिचारी कलीसिया का निर्माण करती है। प्रभु ने यहाँ इस बात को धिक्कारा है।
मन फिराने का समय
प्रभु ने ईज़ेबेल को मन फिराने का समय दिया (पद 21)। ईज़ेबेलों को भी मन फिराने को मौक़ा दिया जाता है। परमेश्वर की दया ऐसी होती है।
लेकिन परमेश्वर ने उसके मन फिराने की एक समय-मर्यादा भी तय कर दी थी। अगर वह उस समय-मर्यादा के पूरे होने तक मन नहीं फिराती, तो उसका न्याय होने वाला था। न सिर्फ ईज़ेबेल बल्कि उसके साथ व्यभिचार करने वाले सभी लोग, और उसके बच्चे भी (पद 22, 23) मारे जाने थे। पापियों और ढोंगियों के लिए परमेश्वर का धीरज अंतहीन नहीं है।
उस आत्मिक व्यभिचार में ईज़ेबेल के साथी वे लोग थे जो उसके साथ मिल कर उस झूठी शिक्षा को फैला रहे थे। उसके "बच्चे" कृपा के विषय में दी जा रही झूठी शिक्षा में से पैदा हुए अधूरा मन फिराए वे दोग़ले लोग थे जिन्होंने पाप से मन नहीं फिराया था, और वे यह कल्पना कर रहे थे कि उनके जीवन बदल गए हैं, या वे ऐसे लोग थे जो यह मान रहे थे कि क्योंकि उनके "जीवन बदल गए हैं", इसलिए अब वे पाप को सहज रूप में ले सकते थे।
जो लोग संसार में पाप में जीते हैं, वे परमेश्वर द्वारा बहुत जल्दी दण्डित नहीं किए जाते। लेकिन जो कलीसिया में आने के बाद पाप को हल्के तौर पर लेते हैं, उनके साथ बहुत कठोरता और शीघ्रता के साथ व्यवहार किया जाता है।
जो लोग मसीह का नाम हल्के तौर पर लेते हैं, उनके प्रति परमेश्वर कैसी कठोरता से व्यवहार करता है, इसके उदाहरण हनन्याह और सफीरा और वे हैं जिन्होंने कुरिन्थियों की कलीसिया में पाप किया था (1 कुरि. 11:29,30)।
प्रभु ने आगे यह कहा कि वह हरेक को उसके कामों के अनुसार प्रतिफल देगा (पद 23)। यह कृपा के विषय में थूआतीरा में दी जा रही उस झूठी शिक्षा के विषय में दिया गया जवाब था जिसमें यह सिखाया जा रहा था कि "अगर हम सिर्फ विश्वास करें तो हमारे कामों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता।" हमारे कामों से फ़र्क पड़ता है।
परमेश्वर का वचन कहता है, "क्योंकि हम सब के लिए मसीह के न्यायासन के सामने हाज़िर होना ज़रूरी है, कि प्रत्येक को अपने भले और बुरे कामों का बदला मिले जो उसने देह के द्वारा किए हैं" (2 कुरि. 5:10)। "अगर तुम शरीर के अनुसार जीवन बिता रहे हो तो तुम्हें अवश्य ही मरना है" (रोमि. 8:13)।
प्रभु ने कहा कि वह थूआतीरा के पापियों को "भारी क्लेश" में डालेगा (पद 22)।
नई वाचा में दो तरह के क्लेशों की बात की गई हैः (1) वह जो यीशु के खिलाफ़ मनुष्यों द्वारा सताव के रूप मे आता है (नई वाचा में ज़्यादातर इसी क्लेश के विषय में लिखा गया है), (2) वह जो परमेश्वर की ओर से क्लेश के रूप में उस "प्रत्येक मनुष्य पर आता है जो बुरा करता है" (रोमि. 2:9 और प्रका. 2:22 ही इस तरह के क्लेश के उदाहरण हैं)।
परमेश्वर ने थूआतीरा के मन न फिराने वाले पापियों को भारी क्लेश में डालने की चेतावनी दी। लेकिन यह मसीह-विरोधी के समय मे होने वाले महा-क्लेश में विषय में नहीं है क्योंकि वह अभी भविष्य में है, जबकि थूआतीरा के पापी पहले ही मर चुके हैं। इसलिए प्रभु उस दण्ड के विषय में ही बात कर रहा होगा जो परमेश्वर पापियों और ढोंगियों को देता है।
शैतान की गहरी बातें
लेकिन थूआतीरा में कुछ ऐसे भी थे जो ईज़ेबेल से सहमत नहीं थे, या उसकी शिक्षा को नहीं मानते थे। इनके विषय में प्रभु कहता है कि वह उन पर कोई और बोझ नहीं डालेगा (पद 24)। वे "शैतान की गहरी बातों" से दूर रहे थे क्योंकि उनके भीतर के अभिषेक ने उन पर यह प्रकट कर दिया था कि ईज़ेबेल द्वारा दी जा रही कृपा की शिक्षा में कुछ ग़लत था, और उन्होंने अभिषेक की बात मानी थी (1 यूहन्ना 2:27)।
यह ध्यान देने योग्य बात है कि प्रभु ने कृपा के विषय में झूठी शिक्षा को "शैतान की गहरी बातें" कहा। झूठी कृपा की शिक्षा शैतान के सर्वोच्च कामों में से एक है जिससे उसने अधिकांश मसीही जगत को भरमाया है। इसलिए इसके विषय में यह कहना उचित ही होगाः "शैतान के गहरे सत्यों में से एक!"
धर्म-सिद्धान्त एक बीज की तरह होता है। एक बीज अच्छा है या बुरा यह उसमें से पैदा होने वाले फल द्वारा तय किया जाता है। बहुत से मसीही अपने धर्म-ज्ञान के सूक्ष्मदर्शी यंत्र से विभिन्न बीजों (धर्म-सिद्धान्तों) को परखते रहते हैं और कुछ को अच्छा और कुछ को बुरा घोषित करते रहते हैं। लेकिन एक बीज की गुणात्मकता को परखने का यह तरीक़ा नहीं होता। अच्छा यही है कि पहले उस बीज को बोया जाए, और यह देखा जाए कि वह किस तरह का फल पैदा करता है।
"कृपा" के विषय में दी जाने वाली कोई भी शिक्षा जो पाप करने के भय को मिटा देती हो, यक़ीनन एक झूठी शिक्षा है। अगर एक धर्म-सिद्धान्त आपको आसानी से पाप करने और एक ऐसे सस्ते तौर पर उसकी क्षमा माँगने योग्य बना दे जिसमें सच्चे मन-फिराव द्वारा होने वाला गहरा दुःख और पाप के प्रति तीव्र घृणा न हो, तो आप यक़ीन के साथ कह सकते हैं कि वह धर्म-सिद्धान्त "शैतान के गहरे सत्यों" में से एक है!
आजकल ऐसे बहुत से विश्वासी हैं जो "अंत के समय के सत्यों" और "राज्यों के सत्यों" आदि के विषय में बात करते हैं। हमें किसी भी तरह के तथा-कथित सत्य को उसी कसौटी पर परखना चाहिए जो स्वयं यीशु ने दी हैः "सत्य तुम्हें मुक्त करेगा... तुम पाप के दासत्व से मुक्त हो जाओगे" (यूहन्ना 8:32-36)। एक सत्य जो आपके प्रतिदिन के जीवन में आपको पाप से मुक्त नहीं करता, चाहे वह आपको कितना भी बाइबल-आधारित नज़र आए, वह सत्य परमेश्वर का सत्य नहीं है। वह एक झूठा धर्म सिद्धान्त है।
आपने परमेश्वर के सत्यों को सही तरह समझ लिया है, उसका एक संकेत यह होगा कि आपको अपने जीवन में हरेक प्रकार के बंधन से ज़्यादा-से-ज़्यादा आज़ादी का अनुभव होता रहेगा। पवित्र-आत्मा आज़ादी का आत्मा है, और "जहाँ पवित्र-आत्मा है, वहाँ आज़ादी है" (2 कुरि. 3:17)।
फिर प्रभु ने थूआतीरा के बचे हुए लोगों को उत्साहित किया कि जो कुछ उनके पास है वे उसे अंत तक दृढ़ता से थामें रहें - अर्थात्, "परमेश्वर की सच्ची कृपा" को थामें रहें (1 पतरस 5:12)। हमें यह दृढ़ता से थामे रहना होगा क्योंकि शैतान इसे हमसे छीन कर ले जाना चाहेगा। हमें यह आज्ञा दी गई है कि यीशु के आने तक हम इसे दृढ़ता से थामे रहें (पद 25)।
जय पाने वाले की बुलाहट
प्रभु ने एक जय पाने वाले का बयान यहाँ एक ऐसे व्यक्ति के रूप में किया है जो प्रभु के कामों को अंत तक करता रहेगा (पद 26)। यीशु का काम, उसके देह में रहने के दिनों में, परीक्षाओं / प्रलोभनों पर जय पाना था। जय पाने वाला वह है जो यीशु की तरह प्रलोभनों पर जय पाता है, और जो इस रास्ते में चलते हुए अंत तक अपना धीरज बनाए रखता है।
प्रभु जय पाने वाले से यह प्रतिज्ञा करता है कि उसके प्रतिफल के रूप में वह उसे जाति-जाति पर अधिकार देगा (पद 26)। यह दूसरों को दबा कर उन पर अधिकार जमाना नहीं है, जैसा कि अधिकार के विषय में आज की आम सांसारिक सोच-समझ है। यह अभिव्यक्ति "वह उन पर लोहे के राजदण्ड से राज करेगा" (पद 27), असल में यह है कि "वह उनकी चराई करेगा" (जिसमें "राज करना" उस यूनानी शब्द का अनुवाद है जिसका अर्थ "चराई करना" है)।
यह इस तरह का अधिकार है जो एक जय पाने वाला इस समय अपने घर और कलीसिया में इस्तेमाल करता है, और एक दिन जगत के देशों पर करेगा। जो दूसरों पर अधिकार जमाते हैं, चाहे घर में या कलीसिया में, असल में वे एक शैतानी अधिकार का इस्तेमाल कर रहे हैं और वे देशों की चराई करने में अयोग्य पाए जाएंगे। हममें से हरेक, जिसके पास अधिकार है-पिता, माता और प्राचीन-सब इस समय प्रभु द्वारा परखे जा रहे हैं।
फिर प्रभु ने इस अभिव्यक्ति का इस्तेमाल किया, फ्वैसे ही मैंने भी अपने पिता से अधिकार पाया है" (पद 27)। पिता ने मुख्य रूप से यीशु को यह अधिकार दिया था कि जिन्हें उसने चुना है वह उन्हें अनन्त जीवन दे' (यूहन्ना 17:2)। प्रभु इसी उद्देश्य से कलीसिया में अपने दूतों को भी अधिकार देता है - कि वे दूसरों की अगवाई करें कि वे भी अनन्त जीवन को थाम लें (1 तीमु. 6:12)। कोई भी प्राचीन अगर अपने अधिकार को इसके अलावा किसी दूसरे रूप में इस्तेमाल करता है, तो असल में वह अपने अधिकार का दुरुपयोग करता है।
जो अपने जीवनों पर प्रभु के इस अधिकार को अस्वीकार करते हैं, उनके साथ फिर उस लौह-दण्ड से व्यवहार किया जाएगा जो यीशु के हाथ में होगा (भजन. 2:7-9, प्रका. 12:7, 19:15)। प्रभु अपने लौह-दण्ड को जय पाने वाले के साथ बाँटेगा, उसके साथ जिसने अपने पृथ्वी पर रहने के दिनों में यह सीख लिया होगा कि अधिकार के राज-दण्ड को नरमी और मज़बूती के साथ कैसे इस्तेमाल किया जाता है (प्रका. 2:26-27)।
"अपनी आत्मा को वश में करने वाला, नगर को जीतने वाले से उत्तम होता है" (नीति. 16:32)। जो अपने शरीर में अपनी वासनाओं पर, संसार के आकर्षणों पर, शैतान की युक्तियों पर जय पा लेते हैं, परमेश्वर की दृष्टि में असल में वही एक दिन उसके राज्य में देशों पर शासन करने योग्य पाए जाएंगे।
जय पाने वाले के लिए "भोर के तारे" की भी प्रतिज्ञा की गई है (पद 28)। भोर का तारा स्वयं यीशु मसीह है (देखें प्रका. 22:16)। यीशु को धार्मिकता का सूर्य भी कहा गया है जो दुराचारी लोगों को भस्म करेगा, देशों को चंगा करेगा (मलाकी 4:1,2)। संसार उसको धार्मिकता के सूर्य के रूप में जानेगा, लेकिन जय पाने वाला उसे भोर के तारे के रूप में जानेंगे।
भोर का तारा सूर्य के उदय होने से पहले नज़र आता है। इस युग के अंतिम पलों में, महाक्लेश के अंत में, जबकि संसार अंधकार में डूबा होगा, तब अंतिम तुरही फूंकी जाएगी, और प्रभु स्वयं एक ऊँचे स्वर के साथ स्वर्ग से उतरेगा। सभी पीढ़ियों के जयवंत लोग फिर उसके पास आकाश में पहुँचाए जाएंगे कि वे पृथ्वी पर वापिस आने के लिए उसका स्वागत करें। तब वे उसे भोर के तारे के रूप में देखेंगे।
प्रभु फिर धार्मिकता के सूर्य के रूप में पाप के रोग से ग्रस्त इस संसार को चंगा करने के लिए आएगा और हर आँख उसे देखेगी। जय पाने वाले भी उस समय उसके साथ पृथ्वी पर राज करने के लिए नीचे उतर आएंगे।
जिसके कान हों वह सुने कि आत्मा कलीसिया से क्या कहता है (पद 29)।
"सरदीस की कलीसिया के दूत को लिखः जिसके पास परमेश्वर की सात आत्माएं और सात तारे हैं, वह यह कहता हैः मैं तेरे कामों को जानता हूँ, कि तू जीवित तो कहलाता है, पर है मरा हुआ। जागृत हो, और जो वस्तुएं शेष रह गई हैं और मिटने पर हैं, उन्हें दृढ़ कर, क्योंकि मैंने अपने परमेश्वर की दृष्टि में तेरे किसी काम को पूरा नहीं पाया। इसलिए याद कर कि तूने कैसी शिक्षा पाई और सुनी थी -उसमें बना रह और मन फिरा। इसलिए अगर तू जागता न रहे, तो मैं चोर की तरह आऊँगा, और तू जान न पाएगा कि मैं किस घड़ी तुझ पर आ पडूँगा। पर सरदीस में तेरे पास कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने वस्त्र अशुद्ध नहीं किए हैं। वे श्वेत वस्त्र पहने हुए मेरे साथ चलेंगे-फिरेंगे, क्योंकि वे इस योग्य हैं। वह जो जय पाए, उसे इसी प्रकार श्वेत वस्त्र पहनाया जाएगा। मैं उसका नाम जीवन की पुस्तक में से न मिटाऊँगा, वरन् अपने पिता और उसके स्वर्गदूतों के समक्ष उसका नाम मान लूँगा। जिसके कान हों वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है" (प्रका. 3:1-6)।
प्रभु के विचार और मनुष्य के विचार
प्रभु यहाँ अपने विषय में कहता है कि वह वही है जिसके पास परमेश्वर की सात आत्माएं हैं, या सात गुणा पवित्र-आत्मा है। हमने पहले अध्याय में इसका अर्थ देखा था। उसके पास सात तारे भी हैं। वह उसके हाथ में मौजूद हरेक तारे (संदेशवाहक) से यह अपेक्षा करता है कि वह कलीसिया में आत्मा-से-भरा हुआ उसका प्रतिनिधि हो।
सरदीस का दूत एक ऐसा व्यक्ति था जिसने दूसरों के सामने अपनी छवि एक ज़बरदस्त आत्मिक मनुष्य के रूप में स्थापित कर ली थी। लेकिन उसके विषय में जो विचार सरदीस में उसके साथी-विश्वासियों का था, प्रभु का विचार उससे बिलकुल विपरीत था। यह दर्शाता है कि सरदीस के ज़्यादातर विश्वासी कितने शारीरिक और कमज़ोर थे।
90 प्रतिशत से ज़्यादा विश्वासी एक शारीरिक संदेशवाहक और एक आत्मिक संदेशवाहक के बीच के फ़र्क को नहीं जानते। और 99 प्रतिशत विश्वासी जैविक-शक्ति और आत्मिक शक्ति के बीच के फ़र्क को नहीं जानते। ज़्यादातर विश्वासी आत्मिक दान-वरदानों के प्रदर्शन और उपयोग से प्रभावित हो जाते हैं और इसी तरीक़े से वे एक प्रचारक या प्राचीन का मूल्यांकन करते हैं। और वे इसी तरीक़े से भरमाए जाते हैं।
लेकिन परमेश्वर हृदय को देखता है। सरदीस के दूत के पास आत्मा के दान-वरदान रहे होंगे, लेकिन वह आत्मा में मरा हुआ था।
इसमें हममें से हरेक के लिए एक ध्यान देने योग्य चेतावनी हैः यह कि हमारे विषय में हमारे साथी-विश्वासियों के 99 प्रतिशत विचार 100 प्रतिशत ग़लत हो सकते हैं!
यही बात एक कलीसिया पर भी लागू होती है। दूसरे लोग एक कलीसिया को "आत्मा-में-जीवित" मान सकते हैं, लेकिन परमेश्वर उसे एक मरी हुई कलीसिया के रूप में जानता है। और इसका उलट भी हो सकता है, कि वे कलीसियाएं जिन्हें परमेश्वर जीवित मानता है, उन व्यक्तियों द्वारा मृतक मानी जा सकती हैं जिन्हें कोई परख नहीं होती।
ज़्यादातर विश्वासी एक कलीसिया का मूल्यांकन उनके सभा में हुए स्वागत की गर्मजोशी, मण्डली की संख्या, सभा के कोलाहल और भावुकता, आराधना-गीतों की गुणवत्ता, संदेश की बौद्धिक विषय-सामग्री, और दान में इकट्ठी हुई राशि से करते हैं।
परमेश्वर एक कलीसिया का मूल्यांकन मसीह-समान नम्रता, शुद्धता, प्रेम और स्व-केन्द्रीयता से मुक्ति के अनुसार करता है जो वह उसके सदस्यों में पाता है। इसलिए एक कलीसिया का परमेश्वर द्वारा किया गया मूल्यांकन और मनुष्य द्वारा किया गया मूल्यांकन एक-दूसरे से बिलकुल अलग हो सकता है। असल में, वे एक-दूसरे से अलग ही होता है।
सरदीस में कोई इज़ेबेल नहीं थी, बिलाम की कोई शिक्षा नहीं थी और न ही निकुलइयों की बातें थीं, लेकिन उनमें इनसे भी बड़ी बुराई थी - पाखण्ड।
सरदीस के दूत ने जो प्रतिष्ठित स्थान अपने लिए बना लिया था, उसे ज़रूर उसमें से एक गुप्त संतोष मिलता होगा। वर्ना वह एक पाखण्डी मनुष्य न बनता। दूसरे लोग हमारे विषय में क्या सोच रहे हैं, अगर हमें इसमें कोई आत्म-संतोष नहीं मिल रहा है, तो इसमें कोई बुराई नहीं कि दूसरे लोग हमें एक आत्मिक व्यक्ति के रूप में जानें।
लेकिन जो कुछ हम प्रभु के लिए करते हैं, अगर हम उसमें अपने लिए नाम कमाना चाहते हैं, तो आख़िर में हमारा जीना परमेश्वर के मुख के सामने नहीं बल्कि मनुष्यों के सम्मुख ही होगा। तब हमें यह मान लेना पड़ेगा कि हमें यह समझ ही नहीं आया है कि मनुष्य का मत किसी काम का नहीं होता।
मसीही-जगत ऐसे प्रचारकों से भरा पड़ा है जो लगातार ऐसे काम कर रहे हैं और ऐसी रिपोर्ट बना रहे हैं जिनसे वे अपने लिए नाम कमा सकें। उनका सबका अंत सरदीस के दूत के समान ही होगा। और प्रभु अंतिम दिन उनका न्याय करेगा, क्योंकि उनके काम परमेश्वर के सम्मुख सिद्ध नहीं पाए जाएंगे। अगर हमारा उद्देश्य मनुष्यों को प्रसन्न करना है, तो परमेश्वर के सम्मुख हमारे कामों का सिद्ध होना असम्भव होगा।
सरदीस का दूत भी गहरी आत्मिक नींद में था।
यीशु ने अपने शिष्यों को जागते और प्रार्थना करते रहने के लिए सचेत किया था, कि जब उसके आने का समय हो तो वे तैयार पाए जाएं - क्योंकि संसार की चिंता और धन के प्रेम में ऐसी ताक़त होती है कि ये सर्वश्रेष्ठ विश्वासियों को भी गहरी नींद में सुला देते हैं (देखें लूका 21:34-36)।
जब एक व्यक्ति सो रहा होता है, तो वह अपने आसपास के वास्तविक संसार में होने वाली बातों से अनजान रहता है। वह अपने स्वप्नों के अवास्तविक संसार के प्रति ज़्यादा जागरूक रहता है। आत्मिक रूप में सोए हुए व्यक्तियों के साथ भी ऐसा ही होता है। वे परमेश्वर के राज्य के असली संसार, अपने आसपास के खोए हुए जीवों और अनन्त वास्तविकताओं से अनजान रहते हैं। फिर भी, वे अवास्तविक और अस्थाई भौतिक संसार की भरपूरी, भोग-विलास, सुख-सुविधा, पार्थिव सम्मान और ख्याति के प्रति सजीव रहते हैं।
सरदीस के दूत की यही दशा थी।
प्रभु ने उसे जाग उठने के लिए प्रोत्साहित किया - दूसरे शब्दों में, उसे उसके सपनों के अवास्तविक संसार (भोग-विलास के संसार) को त्यागने के लिए, और उन बातों को दृढ़ करने के लिए कहा गया जो आत्मिक मृत्यु की तरफ बढ़ रही थीं, लेकिन जो अभी पूरी तरह मरी नहीं थीं (पद 2)। चिंगारियाँ अभी पूरी तरह बुझी नहीं थीं। लेकिन उसे उन्हें प्रज्ज्वलित करने की ज़रूरत थी वर्ना वे पूरी तरह बुझ जाने वाली थीं (2 तीमु. 1:6)।
वे काम जो परमेश्वर की नज़र में सिद्ध हैं
प्रभु ने उससे कहा कि उसके काम परमेश्वर की नज़र में सिद्ध नहीं थे (पद 2 के.जे.वी.)। बहुत से विश्वासी "सिद्धता" शब्द से डरते हैं। लेकिन हम यहाँ देखते हैं कि प्रभु की यह अपेक्षा है कि इस दूत के काम परमेश्वर के सम्मुख सिद्ध हों।
आत्मिक सिद्धता एक व्यापक विषय है। लेकिन यहाँ इसका अर्थ यही है कि इस प्राचीन ने अपने हृदय को इस तरह एकाग्र-चित्त करते हुए काम नहीं किया था कि उनके लिए सिर्फ परमेश्वर ही उसकी सराहना करे।
उसके काम अच्छे काम थे-यही वजह थी कि उसे आत्मिक तौर पर जीवित मान लिया गया था। लेकिन वे परमेश्वर की महिमा के लिए नहीं किए गए थे। वे मनुष्यों को प्रभावित करने के लिए किए गए थे। इसलिए वे सब मरे हुए काम थे। "उसके पवित्र क्रिया-कलापों में अधर्म था" (निर्ग. 28:38)। इससे पहले कि परमेश्वर उसे मान्यता देता, उसे इस आत्मिक गंदगी से अपने आपको शुद्ध करना था (2 कुरि. 7:1)।
मनुष्य से सम्मान पाने के लिए किए गए अच्छे काम मरे हुए काम होते हैं।
सिद्धता की तरफ बढ़ने का सबसे पहला क़दम परमेश्वर के सम्मुख रहना है। अगर हमारी शुरूआत यहाँ नहीं होती तो हम कहीं नहीं पहुँचेंगे। प्रार्थना हो, उपवास हो, या किसी की मदद करना हो, जो सबसे ज़रूरी सवाल हमें अपने आपसे पूछना है वह यह हैः "क्या मुझमें यह विचार है कि कोई मनुष्य मुझे देख रहा है और मेरी सराहना कर रहा है, या मैं परमेश्वर के सम्मुख खड़ा रह कर यह सिर्फ उसकी महिमा के लिए कर रहा हूँ?" एक ग़लत उद्देश्य बहुत से अच्छे कामों को भ्रष्ट कर देता है और उन्हें परमेश्वर की नज़र में त्रुटिपूर्ण बना देता है।
प्रभु ने दूत को वे सब बातें याद करने के लिए कहा जिनके द्वारा उसने पहले प्रेरणा पाई थी और उसे उनका पालन करने के लिए कहा (पद 3)। जिन्हें ज़्यादा दिया गया है, प्रभु उनसे ज़्यादा पाने की अपेक्षा करता है। इस दूत ने सिद्धता के विषय में, और आवश्यक रूप में सब कुछ परमेश्वर की महिमा के लिए ही करने के विषय में बहुत कुछ सुना हुआ था। लेकिन उसने उन प्रेरित बातों को गंभीरता से नहीं लिया था। सत्य को जानना और उसका पालन न करना अपना घर रेत पर बनाना है। एक दिन वह गिर जाएगा। और सरदीस की कलीसिया के साथ अंततः यही हुआ।
मन-फिराव की बुलाहट
दूत को अब मन-फिराने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है (पद 3)। अंत के इन दिनों में प्रभु सब कलीसियाओं से यही कहता हैः मन फिराओ।
इस दूत के लिए अभी भी आशा थी, क्योंकि वह अभी भी प्रभु के हाथ में एक तारे के रूप में मौजूद था (पद 1)। प्रभु उससे पूरी तरह निराश नहीं हुआ था। लेकिन उसे पहले जागने और मन फिराने की थी।
यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला मसीह का अग्रदूत था जिसने प्रभु के पहले आगमन के लिए इस्राएल की प्रजा को तैयार करने के लिए मन-फिराव का प्रचार किया था। अब कलीसिया में नबियों को मसीह के दूसरे आगमन के लिए परमेश्वर के लोगों को मन-फिराव के प्रचार द्वारा तैयार करना है। कलीसिया में मन-फिराव का संदेश उसकी सबसे बड़ी ज़रूरत है। अगर दूत नहीं जागता और मन नहीं फिराता है, तो प्रभु ने कहा कि वह उसे दण्डित करने के लिए उस पर अचानक इसी तरह आ पड़ेगा जैसे रात में एक चोर आता है। प्राथमिक रूप में प्रभु रात में आने वाले चोर की तरह अविश्वासियों के लिए आता है, लेकिन अंधकार में चलने वाले विश्वासियों के लिए भी वह इसी तरह आता है। दिन के पुत्र जो ज्योति में चलते हैं, प्रभु के आने से चकित नहीं होंगे, लेकिन अंधकार में रहने वाले चकित होंगे (1 थिस्स. 5:4-5)।
जय पाने वाले हमेशा प्रभु के आने के लिए तैयार रहेंगे, क्योंकि वे हमेशा ज्योति में चलते हैं। लेकिन, जो अंधकार में चलते हैं, जिनके जीवनों में ऐसे पाप हैं जिनसे उन्होंने अभी मन नहीं फिराया है, वे चाहे अपने आपको "विश्वासी" भी क्यों न कहते हों, वे तैयार नहीं पाए जाएंगे।
प्रकाशितवाक्य 3:3 स्पष्ट संकेत देता है कि जो विश्वासी आत्मिक रूप में सोए हुए हैं (चाहे वे कलीसिया के दूत भी क्यों न हों), और जो मन नहीं फिराते, वे उस समय चकित रह जाएंगे जब प्रभु आएगा। वे अंधकार की संतानों की श्रेणी में ही होंगे। ये वे मूर्ख कुँवारियाँ हैं जो प्रभु के आने पर बंद द्वार के बाहर ही रह जाएंगी (मत्ती 25:10-13)।
प्रभु कहता है, "देखो, मैं चोर के समान आता हूँ, धन्य है वह जो जागते हुए अपने कपड़ों की रक्षा करता है कि नंगा न फिरे, और लोग उसकी नग्नता को न देखें" (प्रका. 16:15)।
बचे हुए विश्वासयोग्य लोग
लेकिन सरदीस में फिर भी कुछ ऐसे लोग थे जिन्होंने अपने वस्त्र अशुद्ध नहीं किए थे (पद 4)। इस कलीसिया के विषय में यही एक भली बात थी।
परमेश्वर के पास ऐसे लोगों की सूची है जिन्होंने अपने हृदय शुद्ध रखे हुए हैं। उनकी शुद्धता सिर्फ शरीर के पापों से मुक्त रहने तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें मनुष्यों से सम्मान पाने के पाप और अन्य आत्मिक पापों से मुक्त रहना भी शामिल है।
सरदीस में जय पाने वाले ये वे बचे हुए लोग थे जो परमेश्वर के मुख के सम्मुख रहते थे। जैसा कि स्वयं प्रभु ने स्पष्ट किया, ये जय पाने वाले थोड़े ही थे। हरेक पीढ़ी में ये बचे हुए लोग थोड़े ही रहे हैं, क्योंकि वे थोड़े ही हैं जो उस संकरे फाटक से प्रवेश करते हैं जो जीवन की ओर जाता है (मत्ती 7:14)।
प्रभु कहता है कि ये थोड़े से लोग योग्य हैं और इसलिए वे श्वेत वस्त्र पहन कर उसके साथ चलेंगे-फिरेंगे (पद 4)। यही वे लोग है जिन्होंने लूका 21:36 में प्रभु के प्रोत्साहन भरे वचन का पालन किया हैः "परन्तु तुम हर समय प्रार्थना में लगे रहो जिससे कि इन सब बातों से बच निकलने और मनुष्य के पुत्र के सामने खड़े होने के लिए तुम में सामर्थ्य हो।" उन्हें योग्य गिना गया। इस तरह मेमने के विवाह के दिन वे दुल्हन के श्वेत वस्त्रों में चलेंगे-फिरेंगे।
फिर सभी जय पाने वालों को श्वेत वस्त्र दिए जाने की प्रतिज्ञा की गई है (पद 5)। इससे यह स्पष्ट होता है कि सिर्फ जय पाने वाले ही मसीह की दुल्हन होंगे।
जय पाने वालों से यह प्रतिज्ञा भी की गई है कि उनके नाम जीवन की पुस्तक में से नहीं मिटाए जाएंगे (पद 5)। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि एक व्यक्ति का नाम जीवन की पुस्तक में हो सकता है और फिर उसमें से मिटाया जा सकता है। अगर इस तरह के ख़तरे का कोई अस्तित्व ही न होता तो जो प्रतिज्ञा यहाँ एक जय पाने वाले से की गई है, उसका कोई अर्थ न होता। पवित्र शास्त्र की यह स्पष्ट शिक्षा है कि जो शरीर के अनुसार जीते हैं वे आत्मिक मृत्यु पाएंगे (रोमि. 8:13)। वे उस उद्धार को खो देंगे जो एक समय उनके पास था।
प्रभु ने मूसा से कहा, "जिसने भी मेरे विरुद्ध पाप किया है, मैं उसका नाम अपनी पुस्तक में से मिटा दूँगा" (निर्ग. 32:33)।
भजन संहिता 69:25 में हम यहूदा इस्करियोती के विषय में एक नबूवत पढ़ते हैं जिसका उल्लेख पतरस ने प्रेरितों के काम 1:20 में किया है। भजन 69 में आगे पढ़ने पर हम यहूदा इस्करियोती के नाम को जीवन की पुस्तक में से मिटाए जाने की नबूवत का वचन पढ़ते हैं (पद 28)। उसका नाम एक समय उस पुस्तक में था, और फिर वह उसमें से मिटा दिया गया।
अपना नाम जीवन की पुस्तक में बनाए रखने के लिए एक व्यक्ति को जय पाने वाला होना होगा।
प्रभु ने जय पाने वाले के नाम को पिता और दूतों के आगे मान लेने की भी प्रतिज्ञा की है। जो मनुष्यों के सामने लज्जित हुए बिना उसके नाम का अंगीकार करते हैं, उनके लिए बड़े प्रतिफल की प्रतिज्ञा की गई है (मत्ती 10:32, लूका 12:8)। हमारे द्वारा अपने सम्बंधियों, मित्रों, पड़ौसियों और सह-कर्मियों के सामने सार्वजनिक रूप में प्रभु के नाम का अंगीकार करने को प्रभु बहुत मूल्यवान जानता है। बहुत से विश्वासी इस बात में विश्वासयोग्य नहीं हैं। और इसमें वे यह प्रमाणित कर देते हैं कि वे जय पाने वाले नहीं हैं।
अंत के उस दिन सबके सामने प्रभु द्वारा हमारे नाम का अंगीकार किया जाना कितने बड़े सम्मान की बात होगी!
अगर हमें प्रभु के लिए प्रतिदिन 100 साल तक इस पृथ्वी पर अपमान और निन्दा सहनी पड़े, और अंततः एक दिन हमें उसका यह प्रतिफल मिले कि प्रभु पिता और उसके पवित्र दूतों के सामने हमारा अंगीकार कर ले, तो यह हमारे लिए एक लाभदायक सौदा है। उसके मूल्यवान होठों से सराहना का एक शब्द हमारे जीवन-भर की पीड़ा और अपमान की सारी यादों को मिटा देगा।
जिसके कान हों वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है (पद 6)।
"फिलादेलफिया की कलीसिया के दूत को यह लिखः जो पवित्र और सच्चा है, और जिसके पास दाऊद की कुंजी है - वह खोलता है तो कोई बंद नहीं कर सकता और बंद करता है तो कोई खोल नहीं सकता - वह यह कहता हैः मैं तेरे कामों को जानता हूँ। देख, मैंने तेरे लिए एक द्वार खोल रखा है जिसे कोई बंद नहीं कर सकता। हालांकि तेरी सामर्थ्य थोड़ी तो है, फिर भी तूने मेरे वचन का पालन किया है और मेरे नाम का इनकार नहीं किया। देख, जो शैतान की सभा के हैं, जो अपने आपको यहूदी कहते हैं जबकि हैं नहीं, पर झूठ बोलते हैं - मैं उन्हें बाध्य करूँगा कि वे आकर तेरे चरणों पर झुकें और जानें कि मैंने तुझसे प्रेम किया है। इसलिए कि तूने मेरे धैर्य के वचन का पालन किया है, मैं भी परखे जाने की घड़ी में तुझे बचा रखूँगा, अर्थात् उस घड़ी में जो सारे संसार पर आने वाली है कि संसार के निवासी परखे जाएं। मैं शीघ्र आने वाला हूँ। जो कुछ तेरे पास है उसे थामे रह कि कोई तेरा मुकुट तुझ से छीन न ले। जो जय पाए उसे मैं अपने परमेश्वर के मन्दिर में एक स्तम्भ बनाऊँगा। वह वहाँ से फिर कभी बाहर न निकलेगा, और मैं अपने परमेश्वर का नाम, और अपने परमेश्वर के नगर अर्थात् नए यरूशलेम का नाम, जो मेरे परमेश्वर की ओर से स्वर्ग से उतरने वाला है, और अपना नया नाम भी उस पर लिखूँगा। जिसके कान हों वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है" (प्रका. 3:7:13)।
दाऊद की कुंजी
प्रभु यहाँ स्वयं के विषय में कहता है कि वह पवित्र और सच्चा है। "उसने न तो कोई पाप किया और न उसके मुख से छल की कोई बात निकली" (1 पतरस 2:22)। वह अपने दूतों में भी पवित्रता और वास्तविकता देखना चाहता है।
वह यह भी कहता है कि उसके पास दाऊद की कुंजी है। नई वाचा का सुसमाचार परमेश्वर के पुत्र के बार में है जो शरीर की रीति के अनुसार दाऊद के वंश में पैदा हुआ था (रोमि. 1:1-3)।
पौलुस द्वारा तीमुथियुस को दिए गए अंतिम उपदेशों में से एक यह था कि वह दाऊद के वंशज यीशु मसीह को याद रखे जो मृतकों में से जी-उठा है (2 तीमु. 2:8)। यहाँ इस बात की तरफ इशारा किया जा रहा है कि हालांकि वह दाऊद की देह के साथ आया, फिर भी उसने कभी पाप नहीं किया। इसलिए परमेश्वर ने उसे मृतकों में से जीवित करने योग्य जाना था। मसीह का देह में प्रकट होना और आत्मा द्वारा उसे धर्मी ठहराया जाना ही ईश्वरत्व का भेद है (1 तीमु. 3:16)।
कुंजी एक ताले को खोलने की योग्यता दर्शाती है। यीशु क्योंकि दाऊद की देह में आया (जो कि हमारी ही देह के समान है), और उसने पाप और शैतान पर जय पाई, इसलिए अब वह हमारे लिए भीतर आने का रास्ता खोल सकता है। जो जय पाना चाहते हैं, उन सभी के लिए यीशु एक अग्रदूत और उदाहरण है।
हरेक द्वार की कुंजी
प्रभु अपना बयान इस तरह भी करता है कि वह वही है जो अब हरेक द्वार को खोल सकता है या बंद कर सकता है। अगर हम जय पाने वाले हैं, तो जब परमेश्वर की इच्छा होगी कि हम किसी द्वार में से प्रवेश करें, तो हमें कभी किसी बंद द्वार के आगे खड़े रहने की ज़रूरत न होगी।
लेकिन प्रभु हमारे लिए कुछ द्वार बंद भी कर देता है, कि हम ऐसे रास्तों में न चले जाएं जो उसने हमारे लिए तय नहीं किए हैं - ऐसे रास्ते जो वह जानता है कि उनमें जाना हमारे लिए अच्छा न होगा। जयवंत होना वास्तव में बहुत उत्तेजना से भरा जीवन होता है। प्रभु स्वयं यह फैसला करता है कि हमें किन दरवाज़ों में से गुज़रना है और हमें किन दरवाज़ों को खटखटाना बंद कर देना है।
योना की पुस्तक में, हम देखते हैं कि कैसे प्रभु ने एक द्वार बंद किया (जहाज़ का द्वार, जिसमें से योना को बाहर समुद्र के पानी में फेंक दिया गया), और एक दूसरा द्वार खोल दिया (मछली के मुख का द्वार, जिसने योना को निगल कर अपने अन्दर ले लिया)। जब मछली इस्राएल के तट पर पहुँची तो उसने प्रभु के दास को किनारे पर पहुँचा दिया। इस तरह, परमेश्वर ने योना को वापिस वही पहुँचा दिया जहाँ से उसने अपनी यात्र शुरू की थी। परमेश्वर ने उससे फिर नीनवे जाने के लिए कहा, जहाँ वह चाहता था कि वह प्रचार करे। और फिर योना वहाँ गया।
अगर परमेश्वर चाहता है कि हम किसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए किसी जगह पर मौजूद हों, तो उसके पास ऐसे बहुत से रास्ते और तरीक़े हैं जिनके द्वारा वह हमारे सामने खुले हुए ग़लत दरवाज़े बंद कर देगा (शायद कहीं से हमें बाहर भी फेंक दिया जाएगा!) और हमारे सामने सही दरवाज़ा खोल दिया जाएगा। उसके पास ऐसे तरीक़े भी हैं कि वह हमारे जीवनों में हमें वापिस वहीं पहुँचा देगा जहाँ से हम चले थे जिससे कि हम उसके सर्वश्रेष्ठ से चूक न जाएं! उसने जो योना के लिए किया वही वह हमारे लिए भी करेगा। बल्कि वह उससे भी बढ़ कर करेगा।
हरेक दरवाज़े की कुंजी उसके पास है। अगर आप अपने जीवन के लिए कोई महत्वकांक्षा रखे बिना पूरे हृदय से यीशु के शिष्य होकर उसके पीछे इस तरह चल रहे हैं कि आप सिर्फ उसकी महिमा चाहते हैं, तो आप एक बात के प्रति पूरी तरह आश्वस्त रह सकते हैं - कि आपके रास्ते में कोई रुकावट नहीं आ सकती। स्वचालित दरवाज़ों की तरह, जो एक व्यक्ति के पास आते ही अपने आप खुल जाते हैं, हरेक दरवाज़ा जो आपको आगे बढ़ने से रोकता है, जैसे ही आप उसके पास आएंगे, वह परमेश्वर की इच्छा पूरा करने के लिए आपके सामने खुल जाएगा। वह हरेक दरवाज़े को सही समय पर ही खोलता है - न पहले, न देर से। वह उन दरवाज़ों को भी बंद कर देगा जो आपके जीवन के लिए उसकी सिद्ध इच्छा को पूरा होने से रोक सकते हैं।
एक आदर्श दूत और उसकी कलीसिया
फिलादेलफिया में, हमें वह दूसरा दूत और कलीसिया नज़र आते हैं जिन्हें प्रभु की तरफ से कोई उलाहना नहीं मिलती। पहला हमने स्मुरना में देखा था।
ये तो उदाहरण हमें दिखाते हैं कि ऐसा दूत और ऐसी कलीसिया होना सम्भव है जो प्रभु द्वारा परखे जाने पर भी उससे कोई ताड़ना न पाएं। हममें से हरेक के लिए यह एक चुनौती होनी चाहिए।
यहाँ का दूत और उसकी कलीसिया कमज़ोर लोग थे (पद 8)। मानवीय रूप में उनका प्रभाव और सामर्थ्य थोड़ी ही थी। लेकिन उन्होंने परमेश्वर की आज्ञा का पालन किया था और प्रभु के नाम का अंगीकार किया था।
जिन दिनों में हम रह रहे हैं, इनमें यही दो प्राथमिक ज़रूरतें हैं - और इस वजह से ही हम यह पाते हैं कि इन्हें प्रकाशितवाक्य में बार-बार दोहराया गया हैः परमेश्वर के वचन का आज्ञापालन करना, और यीशु के नाम की साक्षी देना।
उनकी विश्वासयोग्यता की वजह से, प्रभु कहता है कि उसने उनके लिए एक दरवाज़ा खुला रखा है कि वे उसके साक्षी हो सकें (पद 8)। उस दरवाज़े को कोई बंद नहीं कर सकता। यह स्वाभाविक है कि शैतान उनकी साक्षी का विरोध करेगा। लेकिन अधोलोक के फाटक भी इस कलीसिया पर प्रबल न हो सकेंगे, क्योंकि यह एक ऐसी जयवंत कलीसिया है जिससे स्वयं शैतान डरता है।
धार्मिक लोगों का विरोध
इस कलीसिया का विरोध शैतान के सभागृह द्वारा किया जा रहा था - वैसा ही विरोध जैसा स्मुरना में था (पद 9)। इस बात पर ध्यान दें कि एशिया की सात कलीसियाओं में से शैतान सिर्फ दो का ही विरोध कर रहा था - वही दो कलीसियाएं जिनकी प्रभु ने अपना दिल खोल कर प्रशंसा की थी। शैतान उन्हीं कलीसियाओं का विरोध करता है जो पूरे दिल से प्रभु को समर्पित होती हैं। और शैतान का विरोध ज़्यादातर धार्मिक लोगों में से ही आता है।
यीशु के देह में रहने के दिनों में उसका विरोध किया गया था, और वह विरोध रोमियों या यूनानियों द्वारा नहीं किया गया था, बल्कि उन यहूदियों द्वारा जो प्रतिदिन अपनी बाइबल पढ़ते थे! मसीह की देह के साथ भी यही होगा। प्रमुख रूप में हमारा विरोध वही करेंगे जो अपने आपको मसीही कहते हैं, लेकिन जो पाप की शक्ति से मुक्त होने का प्रचार नहीं करते।
प्रभु ने कहा कि वह शैतान के सभाग्रह को स्पष्ट तौर पर यह दिखा देगा कि वह फिलादेलफिया की कलीसिया के साथ है। शैतान के प्रतिनिधि कलीसिया के सामने झुकने के लिए मजबूर हो जाएंगे (पद 9)। परमेश्वर ने यह ठहराया है कि शैतान कलीसिया के पैरों तले कुचला जाए (रोमि. 16:20)। हम यह कभी न भूलें कि शैतान के खिलाफ़ संघर्ष में परमेश्वर हमेशा हमारी तरफ रहता है। इसलिए हमें शैतान और उसके प्रतिनिधियों से कभी डरने की ज़रूरत नहीं होती।
यीशु ने यह प्रार्थना की कि संसार यह जाने कि उसके शिष्यों से पिता प्रेम करता है (यूहन्ना 17:23)। इस प्रार्थना का जवाब फिलादेलफिया में मिलने वाला था। यहूदियों के सभागृह को इस वास्तविकता का पता चलने वाला था कि प्रभु अपनी कलीसिया से प्रेम करता है और वह उनके साथ खड़ा रहेगा (पद 9)। परमेश्वर के पास ऐसे अद्भुत तरीक़े हैं जिनके द्वारा वह हमारे शत्रुओं को चकरा देता है और उन्हें यह बता देता है कि हम उसके प्रेम और कृपा के पात्र हैं!
फिलादेलफिया की कलीसिया ने यीशु के धैर्य के वचन का पालन किया था (पद 10)। उन्होंने प्रभु की आज्ञा मानी थी और अंत तक धीरज से सहते हुए आज्ञाकारी बने रहे थे। परीक्षा के समयों में विश्वासयोग्य रहकर धीरज से सहते रहने द्वारा ही हम सिद्ध बनते हैं और हममें किसी बात की कमी नहीं रहती (याकूब 1:4)।
प्रभु की प्रतिज्ञा
इस कलीसिया से प्रभु ने यह प्रतिज्ञा की थी, "मैं परखे जाने की घड़ी में तुझे बचाए रखूँगा, अर्थात् उस घड़ी में जो सारे संसार पर आने वाली है" (पद 10)। यहाँ प्रभु ने उन्हें पहले ही परखे जाने के उस समय के विषय में बता दिया जो उनके समय में पूरे संसार पर आने वाला था (पहली शताब्दी के अंत में या दूसरी शताब्दी के आरम्भ में)। परखे जाने के उस समय में, फिलादेलफिया की कलीसिया को ईश्वरीय सुरक्षा दिए जाने की प्रतिज्ञा की गई थी।
प्रभु ने उन्हें "परखे जाने की घड़ी में बचाए" रखने का काम कैसे किया था? निश्चय ही, उसने यह उन्हें संसार में से उठा लेने के द्वारा नहीं किया था। नहीं। उन्हें परीक्षाओं के बीच में ही सुरक्षित रखा गया था। उन्होंने अपने क्लेशों के बीच में ही प्रभु के बचाने वाले हाथ का अनुभव पाया था।
यह वचन हमें भी उत्साहित करता है, क्योंकि प्रभु इसी तरह हमें भी मसीह-विरोधी के समयकाल में आने वाले महाक्लेश में बचाए रखेगा। जैसे दूसरी शताब्दी में उसने फिलादेलफिया की कलीसिया को बचाया था, वैसे ही वह हमें भी पृथ्वी पर बुराई से बचाए रखेगा, हालांकि हमें उसके नाम के लिए कष्ट सहने होंगे।
यीशु ने कहा है, "मेरे नाम के कारण सब तुमसे घृणा करेंगे... लेकिन उनसे न डरो जो शरीर को घात करते है... तुम्हारे सिर के बाल भी गिने हुए हैं... तुम्हारा एक बाल भी बांका न होगा" (मत्ती 10:28, 30, लूका 21:18)।
महाक्लेश में भी, प्रभु की अनुमति के बिना कोई आपके सिर का एक बाल भी नहीं छू सकेगा। इसलिए हम शांत रह सकते है।
प्रभु ने फिर फिलादेलफिया की कलीसिया को बताया कि "परखे जाने की घड़ी में" जिन्हें परखा जाएगा, वे "पृथ्वी के निवासी" हैं- वे जिन्होंने इस पृथ्वी को अपना आवास बना लिया है, जिनके मन पृथ्वी की बातों पर लगे हैं, और जो धनवान होना और मनुष्यों से आदर पाना चाहते हैं (पद 10)।
कोई जय पाने वाला इस तरह का पृथ्वी का निवासी नहीं है, क्योंकि उसका मन उन बातों पर लगा होगा जो स्वर्गीय हैं।
प्रभु फिर आगे कलीसिया से कहता है कि जो कुछ उसके पास है वह उसके आने तक उसे थामे रहे जिससे कि वह अपना मुकुट न खो दे (पद 10)। इसलिए, इस बात की सम्भावना है कि परमेश्वर ने जो मुकुट आपके लिए रखा है, वह किसी दूसरे को मिल जाए।
परमेश्वर की योजना में आपके लिए एक काम और एक मुकुट है। लेकिन अगर आप उस काम को पूरा करने में विश्वासयोग्य नहीं रहेंगे, तो आपको वह मुकुट नहीं मिलेगा। उस काम को करने के लिए परमेश्वर किसी और को खड़ा कर देगा, और जो मुकुट आपके लिए था, वह उसे मिल जाएगा। ऐसा होने की पूरी सम्भावना है, इसलिए हमें सचेत रहना है।
परमेश्वर ने जैसा अन्य प्रेरितों के लिए, वैसे ही यहूदा इस्करियोती के लिए भी एक ख़ास काम रखा था। लेकिन यहूदा विश्वासयोग्य नहीं था। इसलिए उसने अपना मुकुट खो दिया। जो काम उसे करना था वह किसी दूसरे ने (शायद पौलुस ने) पूरा किया। उस व्यक्ति को उसके स्वयं के मुकुट के साथ यहूदा का मुकुट भी मिल जाएगा।
परमेश्वर ने हमें जो दिया है, वह हमें मज़बूती से थामे रहना है। हम कभी किसी बात में लापरवाह नहीं हो सकते।
जो जय पाएगा उसे कलीसिया में एक स्थाई स्तम्भ बनाया जाएगा (पद 12)। इसका अर्थ यही है कि वह कलीसिया में दूसरों को संभालने वाला होगा जो उनका बोझ उठाएगा। वह दूसरों के लिए एक आत्मिक "पिता" समान होगा। हरेक कलीसिया में ऐसे स्तम्भों की ज़रूरत है।
जय पाने वाले के मस्तक पर परमेश्वर का नाम, नए यरूशलेम का नाम, और प्रभु का नया नाम लिखा होगा। दूसरे शब्दों में, वह जहाँ भी जाएगा, सार्वजनिक तौर पर यीशु के सच्चे शिष्य के रूप में जाना जाएगा। इसका परिणाम यह होगा कि पृथ्वी पर उससे घृणा की जाएगी, लेकिन प्रभु के वापिस आने पर वह सम्मानित किया जाएगा।
नया यरूशलेम मसीह की कलीसिया का प्रतीकात्मक नाम है (प्रका. 21:9,10)। जय पाने वालों के मस्तक पर उस नगर का नाम लिखा जाएगा। इस तरह हम देख सकते हैं कि सिर्फ जय पाने वाले ही मसीह की दुल्हन होंगे।
जिनके सुनने के कान हों, उन्हें इन उत्साहित करने वाले वचनों को बहुत गंभीरता से लेने की ज़रूरत है (पद 13)।
"लौदीकिया की कलीसिया के दूत को लिखः जो आमीन, विश्वासयोग्य, और सच्चा गवाह है, और परमेश्वर की सृष्टि का मूल कारण है, वह यह कहता हैः मैं तेरे कामों को जानता हूँ, कि तू न तो ठण्डा है न गर्म। भला होता कि तू ठण्डा या गर्म होता। इसलिए कि तू गुनगुना है, न ठण्डा है न गर्म, मैं तुझे अपने मुख में से उगल दूँगा। तू कहता है कि मैं धनवान हूँ और धनी हो गया हूँ, और मुझे किसी वस्तु की कमी नहीं है। पर तू नहीं जानता कि तू अभागा, तुच्छ, दरिद्र, अंधा और नंगा है। इसलिए मैं तुझे सम्मति देता हूँ कि आग में शुद्ध हुआ सोना मुझ से मोल ले कि तू धनी हो जाए, और श्वेत वस्त्र ले ले कि पहन कर तेरे नंगेपन की लज्जा प्रकट न हो, और अपनी आँखों में लगाने के लिए सुरमा ले ले कि तू देख सके। मैं जिनसे प्रेम करता हूँ उनको डाँटता और ताड़ना भी देता हूँ - इसलिए सरगर्म हो और मन फिरा। देख, मैं द्वार पर खड़ा खटखटाता हूँ। अगर कोई मेरी आवाज़ सुनकर द्वार खोले तो मैं उसके पास भीतर आकर उसके साथ भोजन करूँगा, और वह मेरे साथ। जो जय पाए उसे मैं अपने साथ अपने सिंहासन पर बैठाऊँगा, जैसे मैं भी जाकर अपने पिता के सिंहासन पर बैठा हूँ। जिसके कान हों वह सुन ले कि आत्मा कलीसिया से क्या कहता है" (प्रका. 3:14-22)।
सम्मानित और मृत
प्रभु यहाँ अपने आपको आमीन कहता है - वह जिसका शब्द अवश्य ही पूरा होगा। वह विश्वासयोग्य और सच्चा साक्षी भी है जो सत्य का बयान ठीक उसी तरह करता है जैसा वह होता है। वह परमेश्वर की सृष्टि का आरम्भ (या उसका रचने वाला) है। वही है जिसने पहली सृष्टि की रचना की थी, और वही है जिसने अपनी मृत्यु और जी-उठने द्वारा नई सृष्टि की शुरूआत की है। "वही सब वस्तुओं में प्रथम है" (कुलु. 1:17) - उन सब वस्तुओं को रचने वाला जो दृश्य और अदृश्य हैं, आदि और अंत है।
यह एक और ऐसी कलीसिया है जिसमें कोई ईज़ेबेल या झूठी शिक्षा नहीं है। वे न तो अनैतिक थे और न ही दुष्ट। लेकिन वे परमेश्वर के लिए सरगर्म भी नहीं थे। वे सिर्फ "गुनगुने" थे (पद 16)। वे अपने धर्म-सिद्धान्तों में मुर्दे की तरह सही थे - लेकिन वे मुर्दे और सही दोनों थे! वे नैतिक रूप में सम्मानित थे लेकिन आत्मिक रूप में मृत थे!
प्रभु यह चाहता है कि हमारे हृदय हर समय सरगर्म रहें - उसके लिए और दूसरे विश्वासियों के लिए एक उत्साही प्रेम की गर्माहट से भरे हुए।
"वेदी की आग निरंतर जलती रहे, वह कभी बुझने न पाए" (लैव्य. 6:13)।
एक प्रतीकात्मक रूप में हम यहाँ देख सकते हैं कि परमेश्वर यीशु के एक सच्चे शिष्य की सामान्य दशा किस रूप में देखना चाहता है। इससे कम कुछ भी उसके स्तर के अनुसार नहीं है। जब झाड़ी प्रभु की आग से जल रही थी तो कोई कीड़ा या कीटाणु उसमें जीवित नहीं रह सकता था। और इसी तरह जब हृदय हमारे पवित्र-आत्मा की आग से भरे रहते हैं, तो उसमें कोई भी प्रेम-रहित मनोभाव नहीं रह सकता।
यह एक तरीक़ा है जिससे हम यह पता लगा सकते हैं कि हम ठण्डे हैं, गर्म हैं या सरगर्म हैंः "गर्म" होना दूसरों को उत्साह से भर कर प्रेम करना है। "ठण्डा" होना दूसरों के प्रति कड़वाहट से भरे हुए और क्षमा न करने वाले होना है। "गुनगुना" होने का अर्थ दूसरों के लिए न तो प्रेम और न कड़वाहट से भरा होना है।
जब एक विश्वासी कहता है, "मेरे हृदय में किसी के खिलाफ़ कुछ नहीं है," तो असल में वह यह कह रहा है कि वह गुनगुना है। क्या यीशु ने यह कहा था, "जब तुम्हारे हृदय में एक-दूसरे के खिलाफ़ कुछ नहीं होगा तब सब लोग यह जान लेंगे कि तुम मेरे शिष्य हो?" नहीं। दूसरों के प्रति दुष्टता के मनोभाव न होना यीशु के शिष्य होने की पहचान नहीं है (देखें, यूहन्ना 13:35)।
हमारे हृदयों में कुछ होना चाहिए। हममें अपने साथी-विश्वासियों के लिए एक उत्साह-भरा प्रेम होना चाहिए। प्रेम बुराई का न होना नहीं है बल्कि वह एक सकारात्मक गुण है।
कड़वाहट की आत्मा को हमारे हृदय में से निकाल देना और फिर उसे साफ और ख़ाली छोड़ देना यक़ीनन गुनगुने होने के रास्ते पर चल देना है जो आगे जाकर पहले से भी बुरी दशा में पहुँचा देगा (लूका 11:24-26)।
संसार कहता है, "न होने से तो कुछ होना अच्छा है।" अगर ऐसा है, तो ठण्डा होने से गुनगुना होना अच्छा है। लेकिन प्रभु यह नहीं कहता। वह कहता है, "भला होता कि तू ठण्डा होता" (पद 15)। हम निरुत्साही होकर कुछ करें इसकी बजाय वह यही चाहता है कि हम ठण्डे ही रहें।
एक गुनगुना, समझौता कर लेने वाला मसीही पृथ्वी पर मसीह के उद्देश्यों को जितना नुक़सान पहुँचाता है, उतना एक सांसारिक अविश्वासी नहीं पहुँचाता। अविश्वासी मसीह का नाम नहीं लेता, इसलिए उसकी सांसारिकता सुसमाचार के लिए कोई रुकावट नहीं हो सकती। लेकिन एक निरुत्साही और बुराई से समझौता करने वाला मसीही जन परमेश्वर का नाम लेता है, और इसलिए वह मूर्तिपूजक और विधर्मी लोगों के बीच अपनी सांसारिकता द्वारा मसीह का नाम बदनाम करता है।
एक गुनगुने और स्व-धर्मी फरीसी की तुलना में एक ठण्डे और सांसारिक अविश्वासी का उसकी आत्मिक ज़रूरत के विषय में जान लेना ज़्यादा सहज है (देखें, मत्ती 21:31)।
इन सब कारणों से ही प्रभु हमें गुनगुना देखने की बजाए ठण्डा ही देखने के लिए तैयार है।
व्यावहारिक तौर पर इसका अर्थ यह है कि अगर आप में धन के प्रेम से, या क्रोध से, या अशुद्ध विचारों से मुक्त होने की इच्छा नहीं है (अगर हम पाप के सिर्फ इन तीन क्षेत्रें की ही बात करें), तो यही अच्छा होता कि यीशु का शिष्य कहलाने की बजाय आप एक अविश्वासी ही रहते। अगर आप गुनगुने होने की जगह ठण्डे हैं तो आपके लिए ज़्यादा आशा है। यह एक अद्भुत बात लगती है, लेकिन यह सच है।
अपनी दशा से अनजान होना
लौदीकिया की कलीसिया को उसकी भौतिक समृद्धि पर गर्व था। इसके "विश्वासी" अपने आपको ऐसे धनवान समझते थे जिन्हें किसी वस्तु की ज़रूरत नहीं थी - शायद वे सत्य के ज्ञान से भी भरपूर थे, और उनके पास बहुत सा धन भी था। हो सकता है कि लौदीकिया के समाज के सम्मानित लोग भी उनकी कलीसिया के सदस्य थे।
मन्दिर में प्रार्थना करने वाले उस फरीसी की तरह, अपनी धार्मिक गतिविधियों की भरपूरी की वजह से शायद ये मसीही भी स्वयं को बहुत आत्मिक समझते रहे थे (लूका 18:9-14)।
कारण चाहे जो भी रहा हो, लेकिन दूत और कलीसिया में आत्मा की भी निर्धनता नहीं थी।
दूत और कलीसिया दोनों ही अपने पीछे लौट जाने की दशा से पूरी तरह अनजान थे - वैसे ही जैसे आज बहुत से विश्वासी अपनी इस दशा से अनजान हैं। उन्होंने जो अपना मूल्यांकन किया था, प्रभु का मूल्यांकन उसके बिलकुल विपरीत था। वह उन्हें "तुच्छ, दरिद्र, अभागा, अंधा, और नंगा" कहता है (पद 17)। प्रभु ने कितने कठोर विशेषणों के प्रयोग द्वारा उन्हें यह बताया कि उनकी दशा वास्तव में कितनी दयनीय थी!
सरदीस में, दूत और उसकी कलीसिया की पहचान एक "आत्मिक" रूप में थी। लौदीकिया की तो यह पहचान भी नहीं थी। वे सिर्फ उनकी ख़ुद की ही नज़र में "आत्मिक" थे।
ज़्यादातर विश्वासी अपनी आत्मिकता के विषय में प्रभु से भी बढ़-चढ़ कर सोचते हैं। यह बात हरेक मसीही समूह के विश्वासियों के लिए सही है। बहुत ही कम विश्वासी ऐसे होते हैं जो अपना एक सच्चा और सही मूल्यांकन करते हैं, क्योंकि ऐसे बहुत ही कम हैं जो एक निर्मम रूप में अपने प्रति सच्चे होते हैं।
इस बात की पूरी सम्भावना है कि जैसा प्रभु आपको देख रहा है, आप स्वयं अपनी आत्मिकता का मूल्यांकन उससे कहीं बढ़कर कर रहे हों। अपने आपको दीन करें और प्रभु को पुकारें कि वह उसके द्वारा किए गए आपके जीवन के मूल्यांकन को आप पर प्रकट करे। इस पुस्तक को कुछ देर के लिए छोड़ कर आप यह प्रार्थना अभी कर सकते हैं...
सम्भव है कि लौदीकिया के विश्वासी एक समय फिलादेलफिया के विश्वासियों की तरह ही सरगर्म रहे हों। लेकिन वे पीछे हट गए थे और अपने आत्मिक जीवन के विषय में लापरवाह हो गए थे। उन्होंने अभी तक आत्मा से भरे जीवन के धर्म-सिद्धान्त थामे हुए थे, लेकिन उन्होंने उस जीवन की वास्तविकता को खो दिया था।
पतरस ने ऐसे लोगों के लिए यह कहा, "उनके लिए उस पवित्र आज्ञा को जानकर जो उन्हें दी गई थी, फिर जाने की अपेक्षा भला होता कि वे धामितता के मार्ग को न जानते" (2 पतरस 2:21)।
प्रभु द्वारा उगल दिया जाना
प्रभु ऐसे लोगों के साथ क्या करता है? वह कहता है कि वह दूत और उसकी कलीसिया को उसके मुँह में से उगल (उल्टी कर) देने पर है (पद 16)।
वह क्या है जो हम अपने मुँह में से उगल देते हैं? हम वही उगलते हैं जो हमने खाया तो है लेकिन जिसे हज़म नहीं कर पाए, और इसलिए वह हमारी शारीरिक देह का हिस्सा नहीं बन पाया है।
जब हम अपने आपको प्रभु को सौंपते हैं, तो उसमें उद्देश्य यही होता है कि हम "उसके द्वारा हज़म कर लिए जाएं" ("अब मैं जीवित नहीं हूँ बल्कि मसीह मुझ में जीवित है") और उसकी देह का हिस्सा बन जाएं। लेकिन, अगर हम अब भी अपनी बातों की खोज में रहेंगे, तो हमारा अंत भी अपचे खाने की तरह ही होगा, और इसके परिणाम-स्वरूप हम प्रभु द्वारा उगल दिए जाएंगे।
यह भी हो सकता है कि आप कुछ समय तक प्रभु के दूत रहे हों, और फिर भी आपको उगल दिया जाए कि आप उसके दूत ही न रहें। हम एक समय "मसीह में" हो सकते हैं और बाद में उसके द्वारा उगल दिए जा सकते हैं कि फिर हम उससे बाहर निकल जाएं।
लेकिन, इस दूत और इस कलीसिया के लिए प्रभु के पास फिर भी आशा थी। यह वास्तव में अद्भुत बात है। वह हमेशा उन लोगों का भी छुटकारा करने की खोज में रहता है जो अभागे, तुच्छ, दरिद्र, अंधे और नंगे हैं। जिन्हें मनुष्यों ने भी बहुत पहले अनुपयोगी जानकर फेंक दिया होता है, प्रभु उन्हें भी लेकर उपयोगी बना लेना चाहता है। इसलिए हममें से सबसे बुरे से बुरे के लिए भी आशा रहती है। अगर हम मन फिरा लें, तो हम भी उपयोग में ले लिए जाने के लिए चुने जा सकते हैं।
एक मूल्य चुकाना
प्रभु दूत और कलीसिया को यह सलाह देता है कि वह उससे सोना, श्वेत वस्त्र, और आँखों के लिए सुरमा ले ले (पद 18)।
मसीही जीवन में कुछ वस्तुएं हैं जो मुफ्त हैं। पापों की क्षमा और पवित्र-आत्मा में बपतिस्मा हमारे लिए परमेश्वर की ओर से मुफ्त वरदान हैं।
लेकिन खेत में छुपे हुए धन और मूल्यवान मोती खोजने वाले व्यक्ति के दृष्टान्त हमें स्पष्ट रूप में बताते हैं कि परमेश्वर का राज्य सिर्फ उन्हीं लोगों को मिल सकता है जो अपना सब कुछ छोड़ देने के लिए तैयार हैं (मत्ती 13:44-46)।
लौदीकिया के मसीहियों के लिए भी, प्रभु यही बात कहता है - कि आत्मिक धन पाने के लिए उन्हें उसकी क़ीमत चुकाने पड़ेगी। उन्हें वह ख़रीदना पड़ेगा।
आग में ताया हुआ सोना उस ईश्वरीय स्वभाव का प्रतीक है जो शुद्ध है- जिसमें कोई मिलावट नहीं है। हमारे भीतर हमें इसमें से लेना है।
श्वेत वस्त्र बाहरी धार्मिकता दर्शाते हैं - बाहरी तौर पर हमारी जीवन शैली, वार्तालाप, और आचरण आदि के विषय में बताते हैं।
सुरमा पवित्र-आत्मा के वे प्रकाशन हैं जो हमें इस योग्य बनाते हैं कि हम परमेश्वर के नज़रिए से सब बातों को देखने वाले हो जाएं। इस तरह हम परमेश्वर और उसके उद्देश्यों को समझ सकते हैं, और ख़ुद को इस तरह देख सकते हैं जैसा परमेश्वर हमें देखता है। यह हमें इस पृथ्वी के धन-दौलत और मान-सम्मान की व्यर्थता को देखने योग्य भी बनाता है।
ये सब पाने के लिए, हमें मूल्य चुकाना पड़ता है। हमें सब कुछ छोड़ कर परमेश्वर के लिए "बिका हुआ" हो जाना पड़ता है। अगर हम ऐसा करते हैं, तो हम प्रभु द्वारा दी जा रही इन मूल्यवान वस्तुओं को पा सकते हैं - असली मूल्य वाली वस्तुएं जिनका अनन्त मूल्य है।
फिर प्रभु ने कहा कि वह उन्हें ही ताड़ना देता और अनुशासित करता है जिनसे वह प्रेम करता है (पद 19)। यह जानना कितनी तसल्ली की बात है। जब हम प्रभु द्वारा अनुशासित व दीन किए जाएं, तो हम यह याद रख सकते हैं कि ये उसके महान् प्रेम के चिन्ह् हैं। ये साबित करते हैं कि उसे हममें अभी भी आशा है।
इसके विपरीत, जब आप पाप करें और अपने विवेक में कोई ताड़ना महसूस न करें, और आपको प्रभु दीन न करे, तो आप वास्तव में ख़तरे में पड़ चुके हैं। शायद प्रभु ने आपको बदलने का प्रयास करना छोड़ दिया है। और इसकी वजह शायद यही है कि बीते समय में आप उसकी ताड़ना की धीमी आवाज़ सुनने से लगातार इनकार करते रहे हैं।
तो मन फिराएं, और इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, उसकी ओर लौट आएं।
"अगर आप अनुशासनहीन हैं - दस अनुशासन के अधीन नहीं हैं जिसमें सभी (असली पुत्रों) का हिस्सा होता है, तो आप पुत्र नहीं बल्कि अवैध संतान हैं" (इब्रा. 12:8)।
मन-फिराव की बुलाहट
प्रभु लौदीकिया के दूत और कलीसिया को उत्साहित करता है कि वह "सरगर्म हो और मन फिराए" (पद 19)। हमारा मन-फिराव भी आलस्य से भरा हो सकता है, इसलिए, हमें अपना मन-फिराव भी सरगर्म होकर पूरे हृदय से करना चाहिए।
प्रभु अब कलीसिया से बाहर खड़ा है, खटखटा रहा है, और अन्दर आना चाह रहा है (पद 20)। लेकिन कलीसियाओं की सभाओं में सब "पहले की तरह ही चल रहा है" जिसमें एक नीरस नियमितता के साथ स्तुति, और प्रार्थना और प्रचार चल रहे हैं। लेकिन मण्डली अपने आनन्द में मग्न इस बात से ही अनजान है कि प्रभु बाहर खड़ा हुआ है!
ऐसी कलीसिया के कभी सदस्य न बनना जहाँ स्वयं प्रभु ही द्वार के बाहर हो। अगर प्रभु ही बाहर है, तो आपके अन्दर होने का कोई अर्थ नहीं है! आपको भी बाहर ही होना चाहिए। अगर दूल्हा बाहर खड़ा है, तो दुल्हन को भी उसके साथ बाहर ही होना चाहिए।
प्रभु अब व्यक्तिगत रूप से कलीसिया में लोगों से उनके हृदय खोलने के लिए कहता है। वे ऐसा कैसे कर सकते हैं? इसका संदर्भ यह स्पष्ट कर देता है कि वे इस द्वार को सरगर्म होने और मन फिराने द्वारा खोल सकते हैं। ये द्वार हमारी अपनी समझदारी या हमारी अपनी भावनाओं का द्वार नहीं है। यह हमारी इच्छा का द्वार है। जब इच्छा खुल जाती है, तब प्रभु अन्दर आता है और हमारी आत्मा में हमारे साथ संगति (भोजन) करता है।
फिर से जय पाने की बुलाहट है। इस बार उसने यह स्पष्ट किया कि हम भी ऐसे ही जय पा सकते हैं जैसे अपने पृथ्वी पर रहने के दिनों में उसने जय पाई थी (पद 21)।
जय पाने वाला सबसे पहला व्यक्ति यीशु है। वह हमारा अग्रदूत है जिसने पहले ही संसार, शरीर और शैतान को जीत लिया है। उसे पिता के सिंहासन पर बैठने के लिए ऊँचे पर उठाया गया। अब हम भी इन सब पर ऐसे ही जय पा सकते हैं जैसे उसने पाई है। अगर हम ऐसा करते हैं, तो एक दिन उसकी दुल्हन के रूप में हम भी उसके सिंहासन पर बैठ सकते हैं।
"अगर हम धीरज से सहें, तो उसके साथ राज्य भी करेंगे" (2 तीमु. 2:12)।
अंत में, हम फिर वही शब्द सुनते हैंः "जिसके कान हों वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है" (पद 22)।
जिन सात दूतों और कलीसियाओं को हमने देखा, वे उन सात प्रकार के दूतों और कलीसियाओं के चित्र हैं जो पिछली 20 शताब्दियों से अस्तित्व में हैं। ये सात प्रकार के दूत और कलीसियाएं आज भी संसार में हैं। इन कलीसियाओं के चित्रण में हममें से हरेक अपना मूल्यांकन कर यह जान सकता है कि वह स्वयं कहाँ है।
पीछे लौट चुके दूत और कलीसियाएं
जिन पाँच दूतों और कलीसियाओं को प्रभु ने ताड़ना दी, उनको देखने पर हम उनमें पतन की एक निश्चित प्रवृत्ति पाते हैं।
1. इफिसुस में, हम प्रभु के लिए उसके पहले-से प्रेम की कमी पाते हैं। जब हम मसीह के प्रति अपनी श्रद्धा छोड़ देते हैं, तो वह हमारे पतन का पहला क़दम होता है। फिर, कुछ ही समय में, हमारे साथी-विश्वासियों के प्रति भी हमारा प्रेम ख़त्म होने लगेगा।
2. पिरगामुन में हम देखते हैं कि वहाँ बिलाम की शिक्षा द्वारा सांसारिकता ने धोखे से प्रवेश कर लिया था। निकुलइयों ने (जिन्हें इफिसुस की कलीसिया से बाहर रखा गया था), इस कलीसिया में अपने लिए एक शक्तिशाली जगह बना ली थी। मसीह के प्रति जब श्रद्धा ख़त्म हो जाती है तो सांसारिकता कलीसिया में रेंगती हुई घुस आती है, और फिर एक धर्माधिकारी वर्ग उस पर क़ब्ज़ा जमा लेता है। जब एक बार एक धर्माधिकारी वर्ग कलीसिया की अगुवाई अपने हाथ में ले लेता है, तो बाबुल का निर्माण आसानी से होने लगता है।
3. थूआतीरा में, कलीसिया पूरी तरह सांसारिक बन चुकी थी, और इसके परिणाम-स्वरूप धार्मिक व्यभिचार व्यापक रूप में फैल गया था। अब कलीसिया को प्रभावित करने का अधिकार एक स्त्री के हाथ में आ गया था और वह कृपा के झूठे सुसमाचार का प्रचार कर रही थी और पवित्र-आत्मा के वरदानों की (ख़ास तौर पर नबूवत की) भी नक़ल कर रही थी।
4. सरदीस में हम एक पाखण्डी कलीसिया देखते हैं। इसमें पाप को ढांपा जाता है और मनुष्य के विचार को परमेश्वर के विचार से ज़्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है। कलीसिया का दूत आत्मिक तौर पर सोया हुआ है (वह आत्मिक वास्तविकताओं से पूरी तरह अनजान था)। फिर भी, जिस आत्मिक मृत्यु को उसके ईश्वरीय पाखण्ड ने मनुष्यों की दृष्टि से छुपा रखा है, प्रभु उसे देख रहा है।
5. लौदीकिया में हालात इस हद तक ख़राब हो चुके हैं कि देह न सिर्फ मर चुकी है, बल्कि सड़ने और दुर्गन्ध मारने लगी है। गुनगुनापन और आत्मिक गर्व इसकी मृत्यु के कारण हैं। इन उपरोक्त चार कलीसियाओं में से हरेक में प्रभु ने फिर भी कुछ अच्छाई देखी थी। लेकिन लौदीकिया की कलीसिया में उसे कुछ भी अच्छा नज़र नहीं आया था।
इन उपरोक्त कलीसियाओं के किसी भी दूत को न तो अपनी न अपनी कलीसियाओं की सच्ची आत्मिक दशा के विषय में कुछ मालूम था। उनमें से प्रत्येक स्वयं को ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही ऊँचा समझने की वजह से लापरवाह हो चुका था। उनके पास यह सुनने के लिए समय नहीं था कि प्रभु व्यक्तिगत रूप में उनसे क्या कहना चाह रहा था, क्योंकि उनमें से हरेक दूसरों को प्रचार करने के लिए संदेश तैयार करने में व्यस्त था। उनकी दिलचस्पी अपनी ज़रूरत की तरफ ध्यान देने से ज़्यादा दूसरों को प्रचार करने में थी।
एक बार जब एक व्यक्ति कलीसिया का दूत बन जाता है, तो वह बहुत आसानी से यह मान लेता है कि अब उसे किसी बात को सुधारने की ज़रूरत नहीं है। बाइबल में एक ऐसा "वृद्ध और मूर्ख राजा (है) जो अब सम्मति ग्रहण करना नहीं जानता" (सभो. 4:13)।
इन पाँचों कलीसियाओं के दूत उस मूर्ख राजा के ही समान थे। उनका शब्द इतने लम्बे समय से क़ानून बना हुआ था कि वे अब यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि वे किसी बात में ग़लत में हो सकते हैं! वे ऐसी भ्रमित अवस्था में थे। उनकी कल्पना के अनुसार वे अपने जीवन में से कभी परमेश्वर का अभिषेक नहीं खो सकते थे। उनके गर्व से भरे मनोभाव ने उन्हें आत्मिक रीति से बहरा बना दिया था।
राजा शाऊल भी एक ऐसा ही मूर्ख राजा था जिसकी शुरूआत अच्छी थी लेकिन आगे जाकर वह रास्ते से भटक गया था। जब राजा होने के लिए प्रभु ने पहले उसका अभिषेक किया था तो वह "अपनी नज़र में छोटा" था (1 शमू. 15:17)। लेकिन वह अपनी नज़र में छोटा नहीं बना रहा। और इस तरह उसने परमेश्वर द्वारा दिया गया अभिषेक खो दिया था। वह अभिषेक फिर युवा दाऊद के ऊपर चला गया था। शाऊल को इसका अहसास हो गया था लेकिन फिर भी उसने इसे स्वीकार नहीं किया था। वह हठीला होकर सिंहासन पर बैठा रहा और दाऊद को मारने की कोशिश करता रहा। अंततः परमेश्वर ने शाऊल की जान लेकर दाऊद को सिंहासन पर बैठा दिया।
हम आज कलीसियाओं में इसी तरह की परिस्थितियाँ देखते हैं। जो एक समय में कभी परमेश्वर के दूत रहे थे, उनके ऊपर से अभिषेक को हटे बहुत समय हो चुका है, और अब बड़े सामर्थ्य के साथ किसी युवा भाई पर उतर आया है। लेकिन "वृद्ध और मूर्ख राजा" अब यह देख कर सहन नहीं कर पाते। तो वे क्या करते हैं? उनकी ईर्ष्या और उनके राज को बनाए रखने की उनकी अभिलाषा उन्हें उकसाती रहती है कि वे किसी न किसी तरीक़े से उन युवाओं को दबाए रखें।
शायद एशिया माईनर की पीछे लौट चुकी इन पाँच कलीसियाओं में भी कुछ ऐसा ही हो रहा था। इसलिए प्रभु ने इन पाँच कलीसियाओं को एक अंतिम चेतावनी दी थी।
परमेश्वर कोई पक्षपात नहीं करता और उसके चुने हुए कोई विशेष पात्र नहीं हैं। पौलुस प्रेरित को भी इस बात का अहसास हो चुका था कि अगर वह सचेत नहीं रहा और उसने एक अनुशासित जीवन नहीं बिताया, तो वह भी मार्ग से भटक कर अयोग्य ठहराया जा सकता था (1 कुरि. 9:27)।
पौलुस ने तीमुथियुस से कहा, "अपने आप पर और अपनी शिक्षा पर ख़ास ध्यान दे; उसमें बना रह, क्योंकि जब तू ऐसा करेगा तो अपने और अपने सुनने वालों के उद्धार का कारण बनेगा" (1 तीमु. 4:16)।
सबसे पहले तीमुथियुस को अपने आप पर ध्यान देना था। तब वह पहले अपने जीवन में से मसीह-समान-न-होने की बातों में से छुटकारा पाएगा और तब वह इस योग्य बन सकेगा कि दूसरों को भी ऐसे उद्धार तक पहुँचा सकेगा। प्रभु ने हरेक कलीसिया में अपने दूतों के लिए यही तरीक़ा ठहराया है।
पौलुस ने इफिसुस की कलीसिया के प्राचीनों से भी यही कहा कि वे पहले अपनी और अपने झुण्ड की रखवाली करें (प्रेरितों. 20:28)।
प्रभु के हरेक दूत की यही ज़िम्मेदारी है - कि वह पहले अपने जीवन की शुद्धता और अपने ऊपर पवित्र-आत्मा के अभिषेक को लगातार बनाए रखें। "तेरे वस्त्र हर समय श्वेत रहें और तेरे सिर पर तेल का अभाव न हो" (सभो. 9:8)।
प्रभु ने इन दूतों से सीधी बात करनी चाही थी। लेकिन उनके पास सुनने वाले कान नहीं थे। अंततः उसे उनसे एक प्रेरित द्वारा बात करनी पड़ी थी। परमेश्वर का धन्यवाद हो कि वहाँ कम से कम एक यूहन्ना मौजूद था जो प्रभु की आवाज़ को साफ सुन सकता था।
फिर भी, अपनी निष्फलताओं के बावजूद प्रभु को इन सभी पाँच दूतों के लिए आशा थी - उसने उन्हें अभी भी अपने हाथों में थामा हुआ था। अगर वे मन फिराएं, तो फिर से महिमा से भरे भाई बन सकते थे। और उनकी कलीसियाएं एक बार फिर प्रभु की महिमा की ज्योति देने वाली बन सकती थीं। लेकिन अगर वे इस अंतिम चेतावनी पर ध्यान देने में निष्फल होते हैं, तो प्रभु उन्हें निकाल सकता था।
विश्वासयोग्य कलीसियाएं और दूत
इस पतन और अधोगति के बीच, दो अद्भुत दूत और कलीसियाएं थे (स्मुरना और फिलादेलफिया में) जिन पर प्रभु ने कोई अभियोग नहीं लगाया।
उनमें हमें ये गुण नज़र आते हैंः (1) निर्धनता और विरोध के बीच विश्वासयोग्यता (2) परमेश्वर के वचन का पालन करने के लिए धीरज (3) लजाए बिना मसीह की साक्षी देना।
पीछे हटने वाले उन पाँचों दूतों और कलीसियाओं को प्रभु ने इसलिए डाँटा क्योंकि उन्होंने अपने आपको परख कर दोषी नहीं पाया था।
विश्वासयोग्य रहने वाले दोनों दूतों और उनकी कलीसियाओं को किसी प्रकार की ताड़ना की ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि वे स्वयं को लगातार जाँच और परख रहे थे और शरीर और आत्मा की सारी गंदगी से साफ करते जा रहे थे (2 कुरि. 7:1)।
परमेश्वर का वचन कहता है, "अगर हम अपने आपको ठीक से जाँचते तो दण्ड न पाते" (1 कुरि- 11:31)।
"क्योंकि समय आ गया है कि परमेश्वर के घराने से ही न्याय का आरम्भ हो... न्याय का आरम्भ पहले हमसे ही होगा!" (1 पतरस 4:17)। परमेश्वर के सच्चे घराने की यही पहचान है कि वह पहले और लगातार ख़ुद को जाँचता रहेगा।
प्रभु ने यह विशेषाधिकार हमें अभी और यहीं दिया हुआ है कि हम अपने आपको जाँचते और परखते रहें, कि फिर जब एक दिन हमें उसके न्यायासन के सामने खड़ा रहना पड़े तो हमारे जीवनों में जाँचने-परखने के लिए कुछ बाक़ी ही न बचे। इसीलिए हमारे लिए यह ज़रूरी है कि हम स्वयं का न्याय करने वाले मनोभाव के साथ ही परमेश्वर का वचन पढ़ा करें और उस पर मनन किया करें। इस तरह, हम भी ऐसे लोग बन सकेंगे जिनमें प्रभु को डाँटने के लिए कुछ न मिलेगा।
जय पाने वाले
सभी कलीसियाओं को दिए संदेशों में हरेक विश्वासी को व्यक्तिगत रूप में जय पाने के लिए प्रोत्साहित किया गया है। जय पाने वाले वे होते हैं जो अपने जीवन में पतन की प्रवृत्तियों पर (जिन्हें हमने ऊपर देखा है), रोक लगा देते हैं, और इस तरह परमेश्वर की महिमा प्रकट करते हैं। वे इस बात को समझते हैं कि जैसा उनके आसपास के लोगों का शरीर है, वैसे ही उनका भी वही शरीर है जिसमें पीछे हटा देने वाली दुष्टता की वही प्रवृत्तियाँ हैं। लेकिन वे उन प्रवृत्तियों के खिलाफ खड़े रहते हैं और पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य से उन्हें सूली पर चढ़ाते रहते हैं।
जय पाने वालों को आज क्या करना चाहिए? वे जिन मरी हुई कलीसियाओं में फँसे हुए हैं, क्या उन्हें वहीं रहना चाहिए या उनमें से बाहर निकल जाना चाहिए? "प्रकाशितवाक्य" सातों कलीसियाओं को दी गई आज्ञाओं में हम जय पाने वालों के लिए ऐसी कोई आज्ञा नहीं पाते कि वे स्थानीय कलीसिया को छोड़ कर चले जाएं। लेकिन यह इसलिए था क्योंकि वहाँ एक स्थान में सिर्फ एक ही कलीसिया थी। और प्रभु ने अभी तक उनमें से किसी का भी दीपदान हटाया नहीं था।
आज परिस्थिति बहुत अलग है। आज हमारे क़स्बों और शहरों में बहुत सी "कलीसियाएं" हैं। लेकिन हम इन सबको प्रभु के दीपदान नहीं कह सकते, क्योंकि ज़्यादातर कलीसियाओं को प्रभु ने स्थापित ही नहीं किया है। उनके दूत कभी भी उसके हाथ में तारे नहीं थे क्योंकि उसने उनमें से किसी को प्राचीन होने के लिए न तो कभी बुलाया और न ही नियुक्त किया था।
और अन्य बहुत से मामलों में, प्रभु बहुत समय पहले ही दूत और कलीसिया दोनों को ही त्याग चुका है क्योंकि उन्होंने मन फिराने से इनकार कर दिया था। इसलिए, किसी भी कलीसिया का सदस्य बनने से पहले, हममें यह परखने की क्षमता होनी चाहिए कि एक दूत और कलीसिया पर "प्रभु का अभिषेक" है या नहीं।
जय पाने वालों को निश्चय ही ऐसी किसी कलीसिया का सदस्य नहीं बन जाना चाहिए जो "परमेश्वर की सम्पूर्ण इच्छा" का प्रचार न करती हो (प्रेरितों. 20:27)।
इफिसुस के दूत को यह चेतावनी दी गई थी कि अगर उसने मन न फिराया तो प्रभु उसके दीपदान को उसकी जगह पर से हटा देगा (प्रका. 2:5)। अगर दूत ने मन नहीं फिराया होता तो क्या होता? प्रभु ने अपने दूत के रूप में उसे हटा दिया होता और उसकी जगह किसी दूसरे को उसके दूत के रूप में नियुक्त कर दिया होता।
अगर इफिसुस की कलीसिया ने भी मन नहीं फिराया होता तो क्या होता? तो उसे कलीसिया के रूप में अलग हटा दिया गया होता और प्रभु उसे मान्यता नहीं देता। वह एक मण्डली के रूप में अवश्य बनी रहती, लेकिन प्रभु की नज़र में वह सिर्फ एक "बैबीलोनी" कलीसिया ही होती।
तब इफिसुस के जय पाने वाले क्या करते ?
तब "पुरानी" कलीसिया में से प्रभु के हटते ही वे स्वयं भी उसमें से हट जाते और अलग से इकट्ठा होना शुरू कर देते। फिर जिनके पास यह देखने की आँखें होतीं कि प्रभु पुरानी व्यवस्था में से निकल कर नई कलीसिया में चला गया है, तो वे भी इन जय पाने वालों के साथ संगति करने के लिए इकट्ठे होने लगते। तब ये नई मण्डली इफिसुस की कलीसिया बन जाती, क्योंकि प्रभु ने अपना दीपदान इनके बीच में रख दिया होता।
अब अगर किसी भी समय यह नई कलीसिया परमेश्वर के मार्गों में चलना या अपने आपको परख कर दोषी ठहराना छोड़ देगी, तो प्रभु को इसके दीपदान को भी बीच में से हटा देना पड़ेगा और सब दोबारा शुरू करना पड़ेगा। परमेश्वर कोई पक्षपात नहीं करता।
मसीही कलीसिया का इतिहास यह दर्शाता है कि जगत के प्रत्येक कोने में पिछली बीस शताब्दियों में किस तरह यह प्रक्रिया बार-बार दोहराई जाती रही है। यही वजह है कि आज बहुत सी जगहों में बहुत सी बैबीलोनी "कलीसियाएं" पाई जाती हैं। एक जगह पहुँच कर तो यह मामला बिगड़ कर इतना ख़राब भी हो सकता है कि किसी नगर में कोई दीपदान ही न रह जाए। यह हो सकता है कि हरेक तथा-कथित कलीसिया बैबीलोनी कलीसिया ही बन कर रह जाए।
फिर भी, अगर स्वयं प्रभु किसी कलीसिया में से निकल गया है, तो हमें भी ऐसी "कलीसिया" में नहीं रहना चाहिए। हमारी श्रद्धा हमेशा प्रभु और उसकी कलीसिया में होनी चाहिए - उस "कलीसिया" में नहीं जिसमें हम पले-बढ़े हैं। प्रभु के साथ-साथ चलने में हमारे मानवीय लगाव एक बाधा बन सकते हैं।
इन सातों कलीसियाओं के हमारे अध्ययन में, हमने यह स्पष्ट रूप में देखा है कि प्रभु एक कलीसिया में क्या देखना चाहता है। और इसलिए, जय पाने वालों को भी अपनी स्थानीय कलीसिया में इन्हीं बातों को देखना चाहिएः
1. जो मसीह के प्रति भक्ति और एक-दूसरे के प्रति प्रेम में सरगर्म हो।
2. जो परमेश्वर में एक जीवित विश्वास का प्रचार करती हो।
3. जो परमेश्वर की सारी आज्ञाओं के प्रति पूरे आज्ञापालन पर ज़ोर देती हो।
4. जो लज्जित हुए बिना यीशु यीशु की साक्षी देती हो।
5. जो आत्मिक गर्व, पाखण्ड और सांसारिकता के खिलाफ़ खड़ी रहती हो।
6. जो झूठे प्रेरितों, झूठे शिक्षकों, और झूठे वरदानों का पर्दाफाश करती हो।
7. जो लगातार शरीर को सूली पर चढ़ाए जाने का प्रचार करती हो।
8. जो सभी विश्वासियों को उनकी स्वयं की जाँच-परख कर न्याय करने के लिए प्रोत्साहित करती हो।
9. जो सभी विश्वासियों को यीशु की ही तरह जय पाने के लिए उत्साहित करती हो।
प्रभु हर जगह उसके नाम की ऐसी ही साक्षी चाहता है।
ऐसी कलीसियाओं का निर्माण करने के लिए प्रभु ऐसे दूत चाहता है जो उन सत्यों को, जिन पर इस पुस्तक में विचार किया गया है, अपने हाथों में मज़बूती से थामें रह सकते हों।
अंत के इन दिनों में, पृथ्वी के हर क्षेत्र में प्रभु ऐसे बहुत से पुरुष और कलीसियाएं पाए। आमीन।