नई वाचा का सेवक

द्वारा लिखित :   जैक पूनन श्रेणियाँ :   नेता चेले आदमी
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अध्याय 1
परमेश्वर अपने सेवकों को बुलाता और तैयार करता है

परमेश्वर को उसके काम के लिए पुरुषों की ज़रूरत होती है, क्योंकि उसने ऐसा प्रावधान किया है कि पृथ्वी पर उसका काम मनुष्य पर निर्भर रहे। परमेश्वर द्वारा बुलाया गया पुरुष अगर तैयार नहीं पाया जाता, तो परमेश्वर के काम में विलम्ब होता है या उसमें रुकावट पैदा हो जाती है। फिर भी, अगर एक व्यक्ति परमेश्वर की बुलाहट का प्रत्युत्तर नहीं देता, तब परमेश्वर किसी दूसरे को बुलाता है।

अब्राहम जब ऊर में था तब परमेश्वर ने उसे बुलाया कि वह अपने घर और अपने सम्बंधियों को छोड़ कर एक अनजान देश में चला जाए। अगर अब्राहम की उस आज्ञा का पालन करने की इच्छा न होती, तो परमेश्वर उसके साथ ज़बरदस्ती नहीं करता। उसकी जगह परमेश्वर फिर किसी दूसरे को बुलाता। और हमने कभी अब्राहम का नाम भी नहीं सुना होता।

परमेश्वर द्वारा उसकी सेवा के लिए बुलाया जाना एक ज़बरदस्त विशेषाधिकार होता है। लेकिन वह अपने साथ एक महान् और भयजनक जि़म्मेदारी भी लाता है।

याकूब के वंशजों के लिए परमेश्वर की सिद्ध योजना में, उन्हें मिस्र में पूरी चार शताब्दियाँ बितानी थीं। सालों पहले ही परमेश्वर ने अब्राहम को बता दिया था कि उसके वंशज एक दूसरे देश में परदेसी होकर रहेंगे (उत्पत्ति 15:13)। लेकिन अंततः परमेश्वर ने जब इस्राएलियों को मिस्र में से मुक्त किया, तब तक वे मिस्र में 430 साल बिता चुके थे (निर्ग. 12:40)।

ऐसा क्यों हुआ कि जो सिद्ध योजना परमेश्वर ने उनके लिए ठहराई थी, उन्हें उससे 30 वर्ष ज़्यादा क्यों बिताने पड़े थे?

यह शायद इसलिए हुआ क्योंकि मूसा उस समय तक उनकी अगुवाई करने के लिए तैयार नहीं था। इस्राएलियों को मिस्र में से छुड़ाने के लिए, परमेश्वर को एक पुरुष की ज़रूरत थी। लेकिन यह ज़रूरी था कि वह व्यक्ति पहले परमेश्वर द्वारा एक आत्मिक अगुवे के रूप में तैयार किया जाए।

परमेश्वर का सेवक टूटा हुआ होना चाहिए

मूसा जब 40 वर्ष का था, तो वह अपनी ख़ुदी में बड़ा सशक्त था और वह ऐसा महसूस करता था कि वह इस्राएलियों की अगुवाई करने योग्य है। लेकिन वह परमेश्वर की नज़र में तैयार नहीं था।

प्रेरितों के काम 7:22 कहता है 40 वर्ष की उम्र में, "मूसा को मिस्रियों की समस्त विद्या की शिक्षा दी गई थी, और वह बातों तथा कामों दोनों में सामर्थी था" (लिविंग)। एक बार जब मूसा अपने इस्राएली भाइयों से मिलने के लिए गया, तब उसने एक मिस्री को उनमे से एक के साथ बुरा व्यवहार करते देखा। उसने उस इस्राएली का बचाव किया और उसने उस मिस्री को मार डाला। उसने सोचा कि अब इस्राएली यह जान लेंगे कि वह उनका परमेश्वर द्वारा नियुक्त किया गया अगुवा है। लेकिन उन्होंने उसे इस रूप में स्वीकार नहीं किया।

मूसा उस समय तक यह नहीं जानता था कि परमेश्वर का सेवक होना क्या होता है।

इसलिए मूसा के उस भरोसे को तोड़ने के लिए जो उसका अपनी मानवीय शक्ति और बुद्धि में था, परमेश्वर उसे जंगल में ले गया। परमेश्वर की सिद्ध योजना में, उसके प्रशिक्षण शायद सिर्फ 10 वर्ष का समय लगना था। लेकिन मूसा के टूटने में 40 वर्ष लग गए।

इस कारण, इस्राएलियों को अपने अगुवे के तैयार होने के लिए, 30 साल तक इंतज़ार करना पड़ा था।

अगर परमेश्वर के अगुवे समय पर नहीं टूटते, तो परमेश्वर की योजना में विलम्ब हो सकता है। हमारे टूटने के लिए परमेश्वर की एक निश्चित समय-सीमा होती है। हम इस समय-सीमा को घटा नहीं सकते, लेकिन अगर हम परमेश्वर द्वारा प्रशिक्षित किए जाने के लिए तैयार नहीं होते, तो हम उसे बढ़ा ज़रूर सकते हैं। अगर हम कठोर और न-टूटने-वाले बनेंगे, तो उसमें हम स्वयं अपना ही बड़ा नुक़सान करेंगे। और इसमें परमेश्वर के काम का भी नुक़सान होता है।

मूसा की तरह, हम भी अपने आपको यह समझते हैं कि हम पवित्र-शास्त्र के धर्म-सिद्धान्तों में सिखाए हुए, परमेश्वर के पूरे परामर्श को जानने वाले, (अपनी नज़र में) पवित्र-आत्मा का अभिषेक पाए हुए, और "शब्दों और कामों में सामर्थी पुरुष" (प्रेरितों. 7:22) हैं। और हम भी, मूसा की ही तरह, अपने हारे और सताए हुए भाइयों के बारे में बहुत चिंता करने वाले भी हो सकते हैं। और इस तरह, हम यह समझने की भूल कर सकते हैं कि हम परमेश्वर की सेवा करने के लिए तैयार हैं। लेकिन हम तैयार नहीं हैं।

हम मूसा की तरह बोलने में बहुत कुशल ("शब्दों में सामर्थी") हो सकते हैं। इस हक़ीक़त से कुछ साबित नहीं होता कि लोग एक घण्टे तक हमारा प्रचार सुनने के लिए तैयार रहते हैं, क्योंकि लोग राजनैतिक नेताओं के भाषणों को दो-तीन घण्टे तक सुनने के लिए भी तैयार रहते हैं! हमें यह ध्यान रखने की ज़रूरत है कि हम अपने प्राकृतिक संसाधनों द्वारा परमेश्वर का काम करने की कोशिश न करें।

हमारे पास जितने ज़्यादा दान-वरदान होंगे, हम अपनी मानवीय योग्यताओं द्वारा परमेश्वर की सेवा करने पर निर्भर हो जाने के उतने ही बड़े ख़तरे में पड़ेंगे। इस वजह से ही हमें टूटा हुआ होने की ज़रूरत होती है।

इस्राएलियों का मूसा में कोई भरोसा नहीं था। परमेश्वर को भी मूसा में यह भरोसा नहीं था कि वह उसे उनका अगुवा बना सके। एक व्यक्ति दूसरों की अगुवाई कैसे कर सकता है जब न तो परमेश्वर को और न ही मनुष्य को उसमें भरोसा हो?

हम यह मान सकते हैं कि हम इस योग्य हैं कि परमेश्वर हमें उसके प्रतिनिधि के रूप में इस्तेमाल कर सके। लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि परमेश्वर भी ऐसा सोचता हो। अगर हमें प्रभु के लिए एक प्रभावशाली काम करना है, तो हमारी सेवकाई परमेश्वर द्वारा सत्यापित होनी चाहिए। और वह हमारी सेवकाई को तब तक सत्यापित नहीं करेगा जब तक हम टूट नहीं जाते।

फिर जब एक बार मूसा टूट गया, तब वही पुरुष जो "शब्दों और कामों में सामर्थी" था, अंततः यह बोला, "प्रभु मैं बोलना नहीं जानता" (निर्ग. 4:10)।

परमेश्वर ने मूसा को कैसे तोड़ा? उसने उसे जंगल में भेज दिया। वहाँ मूसा का विवाह हुआ और उसे अपनी पत्नी के माता-पिता के घर में रहना पड़ा था। यह वास्तव में एक अद्भुत बात है कि जब एक व्यक्ति को एक असहाय दशा में अपनी ससुराल वालों पर निर्भर रहना पड़ता है, तो वह कितनी जल्दी टूट जाता है! बहुत साल पहले, परमेश्वर ने याकूब को भी इसी तरह तोड़ा था।

मूसा के घर के हालातों में (उसकी पत्नी, बच्चों व सास-ससुर के साथ) और उसके काम के हालातों में (उसके ससुर की भेड़-बकरियों के साथ) परमेश्वर ने उसे तोड़ा और नम्र व दीन किया। और उसे इस तरह सिखाने में 40 साल का समय लगा। परमेश्वर प्रतीक्षा करने के लिए तैयार था। और परमेश्वर के लोगों को भी परमेश्वर के जन के तैयार होने के लिए इंतज़ार करना पड़ा था।

परमेश्वर आज भी इंतज़ार कर रहा है। भारत में ऐसी बहुत सी जगह हैं जहाँ ऐसी ज़रूरतमंद आत्माएं हैं जिनका मसीह की देह के रूप में निर्माण होना ज़रूरी है। लेकिन परमेश्वर ऐसे पुरुषों की खोज में है जिन्हें वह तोड़ सकता है और तैयार कर सकता है, कि वह उन्हें उस देह का निर्माण करने के लिए उसके सेवकों के रूप में इस्तेमाल कर सके।

इस वजह से ही हमें अपने घर और काम की स्थितियों को परमेश्वर के विश्व-विद्यालय के रूप में देखने की ज़रूरत है। हमारे ससुराल वालों और घर वालों के बीच में हम जिन तनाव भरी स्थितियों का सामना करते हैं, वे सब हमारी शिक्षा की प्रक्रिया वह हिस्सा है जिसमें परमेश्वर हमें उसके सेवक होने के लिए तैयार करता है। इन परिस्थितियों में वह हमें धर्म-सिद्धान्त से बढ़कर कुछ सिखा रहा होता है। वह हमें तोड़ रहा होता है।

लेकिन परमेश्वर को ऐसे लोग कम ही मिलते हैं जो उसके हाथ में इस तरह टूटने के लिए तैयार होते हैं जैसे कुम्हार के हाथ में मिट्टी। प्रशिक्षित किए जाने वाले ज़्यादातर विद्यार्थी उनकी ख़ुदी में मरने के लिए तैयार नहीं होते, इसलिए परमेश्वर उन्हें अलग हटा देता है।

मूसा ने उन 40 सालों में जो सीखा, वह धर्म-सिद्धान्त नहीं था। अगर एक व्यक्ति का दिमाग़ अच्छा हो, तो उसे धर्म-सिद्धान्त तो बहुत कम समय में सीखा जा सकता है। लेकिन तोड़े जाने में समय लगता है। हमारे अपने विषय के मामूली विचारों में हर समय में जड़ पकड़े और ज़मीन से जुड़े रहना आसान नहीं होता।

जब हम ज़्यादा परिपक्व विश्वासियों के बीच में होते हैं तब शायद हम अपने आपको ज़्यादा महत्वपूर्ण व्यक्ति न समझें। लेकिन जब हम अपनी घरेलू कलीसियाओं में लौटते हैं, तब वहाँ यह हो सकता है कि हम अपने आपको महत्वपूर्ण समझने लगें। यही ख़तरा है। परमेश्वर को हमें पूरी तरह से ऐसे तोड़ने की ज़रूरत होती है कि फिर हम जहाँ कहीं भी जाएं, हम अपने आपको सभी संतों में सबसे छोटे समझते रहें।

परमेश्वर युवाओं को बुलाता है

यीशु ने युवा लोगों को अपना शिष्य होने के लिए बुलाया था। बहुत लोग यह सोचते हैं कि एक प्रेरित बनने के लिए एक व्यक्ति का 60 या 65 साल का होना ज़रूरी होता है। लेकिन यीशु ने 30 साल वालों को उसके पहले प्रेरित होने के लिए बुलाया था। यीशु स्वयं उसकी मृत्यु के समय साढ़े 33 साल का था। और सभी 11 शिष्य उम्र में उससे छोटे थे क्योंकि हम जानते हैं कि यहूदियों के रब्बी अपने से कम उम्र के लोगों को ही शिष्य होने के लिए चुनते थे। पैन्तेकुस्त के दिन यूहन्ना की उम्र शायद 30 साल की ही रही होगी।

जब यीशु ने इन जवानों को अपना शिष्यों होने के लिए बुलाया, तो उसने उनके अनुभव नहीं बल्कि उनके हृदय के पूरे समर्पण को देखा था। पैन्तेकुस्त के दिन इन युवा पुरुषों का पवित्र-आत्मा से बपतिस्मा हुआ और वे प्रभु के प्रेरित होने के लिए अलौकिक रूप में सुसज्जित हुए थे। उनका अनुभव और परिपक्वता बाद में आए थे। तीमुथियुस भी एक बहुत छोटी उम्र में प्रेरित बन गया था (1 तीमु. 4:12)।

परमेश्वर आज भी युवाओं को उसकी सेवकाई के लिए बुलाता है। लेकिन यह ज़रूरी है कि वे नम्र व दीन रहें। परमेश्वर द्वारा बुलाए हुए किसी भी युवक को जिस सबसे बड़े ख़तरे का सामना करना पड़ता है वह आत्मिक गर्व है।

मैंने भारत में ऐसे बहुत दुःखद मामले देखे हैं जिनमें परमेश्वर ने युवाओं को उसके सेवक होने के लिए बुलाया था, और वे अपनी बुलाहट की जगह पर से नीचे गिर गए। कुछ मामलों में ऐसा हुआ कि जैसे ही परमेश्वर ने उन्हें किसी काम में इस्तेमाल करना शुरू किया, तो वे गर्व से भर गए - और परमेश्वर को उन्हें अलग हटा देना पड़ा क्योंकि उन्होंने उस महिमा को अपने लिए लेना शुरू कर दिया था जो परमेश्वर के लिए थी। दूसरे मामलों में, उन्होंने सांसारिक सुख-सुविधा चाहा, और अंततः वे अच्छे वेतन देने वाली पश्चिमी मसीही संस्थाओं के वेतन पाने वाले कर्मचारी बन गए। इस तरह, वे बिलाम की तरह भटक गए। और अन्य मामलों में, उन्होंने शिमशौन की तरह अपना अभिषेक खो दिया क्योंकि वे ख़ूबसूरत दलीलाओं की तरफ आकर्षित हो गए थे। इस तरह इन योग्य युवकों ने मनुष्यों से सम्मान और धनवान पाने के लिए या सुन्दर स्त्रियों के प्रति अपनी लालसा के लिए, परमेश्वर की बुलाहट और अपने अभिषेक की बलि चढ़ा दी।

आज भारत में परमेश्वर के ऐसे प्रेरित कहाँ हैं जो निर्भय होकर परमेश्वर के वचन का प्रचार करते हों, और जो धन की, सुन्दर स्त्रियों की, और मनुष्यों की सराहना की परवाह न करते हों? आज ऐसे नबी पाना दुर्लभ है। जिन्हें परमेश्वर ने बुलाया था, उनमें से ज़्यादतर मार्ग के किनारे गिर गए हैं।

एक टूटी हुई और दीन-हीन आत्मा ही परमेश्वर को ग्रहण-योग्य बलिदान है। अगर हम टूटे हुए और नम्र व दीन होंगे, तो परमेश्वर हमें हमेशा इस्तेमाल कर सकेगा। लेकिन जिस पल हम ऐसा सोचने लगेंगे कि हमें मिले महान् प्रकाशनों द्वारा, या परमेश्वर द्वारा हमें दी गई ज़बरदस्त सेवकाई द्वारा हम कुछ बन गए हैं, तो उसी पल से हम भटकने लगेंगे। तब परमेश्वर हमें अलग हटा देगा।

यह हो सकता है कि हम फिर भी किसी कलीसिया में अपने प्राचीन होने का पद बनाए रख सकें। लेकिन अनन्त में हमें यही पता चलेगा कि हमने अपने जीवन बर्बाद कर दिए हैं।

परमेश्वर उन्हें बुलाता है जो "शून्य हैं"

1 कुरिन्थियों 3:5 में, पौलुस एक प्रश्न करता है, "अपुल्लोस क्या है, और पौलुस क्या है?" इसके जवाब में हम यही कहेंगे कि पौलुस प्रभु का एक सामर्थी प्रेरित था जिसने मृतकों को जि़न्दा किया, अनेक कलीसियाएं स्थापित कीं, और पवित्र-शास्त्र भी लिखा। लेकिन वह स्वयं अपने बारे में कहता है, "पौलुस क्या है? एक सेवक।" उसके जीवन के अंत तक उसके बारे में सिर्फ यही मत था। इसलिए इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि पौलुस मार्ग के किनारे नहीं गिरा।

जिस पल हम अपने आपको दूसरों के सेवक होने के अलावा कुछ और समझने लगते हैं, उसी पल हम मार्ग से भटकने लगते हैं।

पौलुस आगे कहता है, "मैंने बोया, अपुल्लोस ने सींचा।" दोनों में से कौन बड़ा हुआ? वह जो बोता है - जो एक पथ-प्रदर्शक के रूप में एक ऐसी सुसमाचार-रहित जगह में जाता है जहाँ पहले कुछ नहीं था, और परमेश्वर के लिए एक नया काम करता है? या वह जो बात में बाद में आता है और परमेश्वर के वचन की शिक्षा और उत्साहवर्धन द्वारा पौधे को सींचता है और विश्वासी को एक देह में निर्मित करता है? इसका जवाब है "दोनों में से एक भी नहीं।" दोनों ही "कुछ" नहीं हैं - पौलुस कहता है (पद 7)। दोनों ही "शून्य" हैं। सिर्फ परमेश्वर - जिसने उस पौधे को बढ़ाया है - वही सब कुछ है।

पौलुस ने अपने जीवन के अंत तक अपने आपको एक शून्य माना था। इसलिए परमेश्वर उसके जीवन के अंत तक उसे इस्तेमाल कर सका था। पौलुस के लिए परमेश्वर ही सब कुछ था।

प्रभु को बिलाम से बात करने के लिए एक बार एक गधे की ज़रूरत पड़ी थी। एक दूसरे अवसर पर भी उसे यरूशलेम में प्रवेश करने के लिए एक गधे की ज़रूरत पड़ी थी। और आज भी उसे अपने उद्देश्य पूरे करने के लिए गधों की ज़रूरत पड़ती है। तब हम क्या हैं? सिर्फ ऐसे गधे जिन्हें प्रभु ने इसलिए चुना है कि वह उनके द्वारा बात करे या जिन पर सवारी करे।

जहाँ कहीं भी भाई लोग कुछ भी न होने के लिए तैयार हो जाते हैं कि फिर परमेश्वर ही सब बातों में सब कुछ हो, तब उनके बीच में इस बात के लिए कभी कोई स्पर्धा नहीं होगी कि किसे सबसे ज़्यादा आत्मिक या सबसे ज़्यादा महान् समझा जाए आदि।

जब भी कोई व्यक्ति अपने आपको किसी समूह के अगुवे के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है, तो परमेश्वर उसे अलग हटा देता है। यह सच है कि हरेक कलीसिया में अगुवे होने चाहिए। लेकिन अगुवा वही होता है जिसका चुनाव परमेश्वर करता है।

और अगर परमेश्वर किसी भाई पर ऐसी कृपा करता है कि दूसरे लोग उसे अपने अगुवों के रूप में स्वीकार कर रहे हों, तो हमें अपने आपको शीघ्र ही दीन करते हुए उस वास्तविकता को स्वीकार कर लेना चाहिए। लेकिन, अगर हम उसकी सेवकाई से ईर्ष्या करने लगेंगे, या उसके पद का लालच करने लगेंगे, तो हम अपने स्थानीय क्षेत्र में शैतान के ऐसे प्रतिनिधि बन जाएंगे जो मसीह की देह के निर्माण में बाधा पैदा करेंगे।

परमेश्वर अपनी सर्व-सामर्थ्य में यह जानता है कि किसी भी कलीसिया की अगुवाई करने के लिए कौन व्यक्ति सबसे अच्छा है। और वह चतुर और होशियार व्यक्ति की खोज में नहीं रहता। वह उन्हें चुनता है जो निर्बल और टूटे हुए हैं, और ऐसे हैं जो यह समझते हैं कि वे "शून्य" हैं। क्या हमने इस बात को समझा है?

अध्याय 2
अपने सेवकों के प्रति परमेश्वर की कठोरता

आरम्भ से अंत तक परमेश्वर का वचन हमें एक बात सिखाता है - कि परमेश्वर ने जिसे ज़्यादा दिया है, उससे ही वह ज़्यादा पाने की अपेक्षा करता है। परमेश्वर अपने सेवकों के प्रति इसलिए कठोर रहता है क्योंकि उसने उन्हें बहुत ज़्यादा सौंपा हुआ है।

जलती हुई झाड़ी के पास परमेश्वर द्वारा महान् कार्याधिकार सौंपे जाने के बाद, जब मूसा मिस्र जा रहा था, तो हम पढ़ते हैं कि परमेश्वर ने उसे मार डालना चाहा (निर्ग- 4:24)। यह देखते हुए कि परमेश्वर ने उसे अभी-अभी अपनी सेवा में नियुक्त किया था, यह एक अद्भुत बात थी। और उस काम को पूरा करने के लिए पृथ्वी पर मूसा ही एकमात्र पुरुष था। परमेश्वर के उद्देश्यों को पूरा करने में मूसा सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति था, और उसे प्रशिक्षित करने में परमेश्वर ने 40 वर्ष ख़र्च किए थे! तब परमेश्वर मूसा को क्यों मार डालना चाहता था?

मूसा की पत्नी सिप्पोरा का, जो यहूदी नहीं थी, उनके पुत्र का ख़तना करने में विश्वास नहीं था। और मूसा ने अपनी पत्नी की सलाह मान ली थी और इस तरह उसने परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन किया था। और मूसा अब लोगों का अगुवा बनने वाला था। लेकिन फिर भी उसने अपनी पत्नी को प्रसन्न किया था और अपने ही घर में परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन किया था। जब मूसा मर रहा था, तब सिप्पोरा ने तुरन्त अपने पति की बीमारी का कारण जान लिया था। और तब उसने फौरन अपने पुत्र का ख़तना कर दिया। परमेश्वर ने सिर्फ तभी मूसा को छोड़ा था।

वहाँ हम देखते हैं कि परमेश्वर अपने सेवकों में किसी तरह का समझौता, आज्ञा-उल्लंघन, या पत्नी को प्रसन्न करना सहन नहीं करता। अगर हमें परमेश्वर के लोगों की अगुवाई करनी है, तो हमें पूरी तरह आज्ञाकारी बनना होगा। परमेश्वर कोई पक्षपात नहीं करता। अगर उसके सबसे उत्कृष्ट सेवक भी आज्ञा का उल्लंघन करेंगे, तो वह उनका भी न्याय करेगा।

धीरज का महत्व

मूसा जब 120 साल का था, तब परमेश्वर ने उसे एक बार फिर दण्ड दिया था। और इस बार वह दण्डाज्ञा रद्द नहीं की गई। परमेश्वर ने उससे कहा था कि वह चट्टान से कहे कि वह उसका पानी प्रवाहित करे। लेकिन मूसा क्रोधित हो गया और पहले उसने परमेश्वर के लोगों पर अपना क्रोध उण्डेला और फिर चट्टान पर भी क्रोधित होकर दो बार मारा (गिनती 20:7:13)। हमें यह एक मामूली सी ग़लती लग सकती है। लेकिन परमेश्वर की नज़र में वह एक गंभीर बात थी।

मूसा ने क्रोधित होकर लोगों से कहा था, फ्हे दंगा करने वालो, सुनो..." (गिनती 20:10)। इन शब्दों में यह विचार अंतर्निहित था कि सभी लोग विद्रोही थे, जबकि मूसा स्वयं विद्रोही नहीं था! लेकिन मूसा भी एक विद्रोही था क्योंकि उसने अगले ही पल परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन किया था। परमेश्वर ऐसी भाषा से प्रसन्न नहीं होता। परमेश्वर का वचन कहता है, "मूसा की हानि हुई... क्योंकि वह उतावली से बोल उठा था" (भजन 106:33)।

परमेश्वर के लोगों पर क्रोधित होने में क्या हमें वहाँ पर हुआ विद्रोह नज़र आ रहा है? जबकि परमेश्वर ने हमें बोलने के लिए नहीं कहा होता, फिर भी हम अक्सर बोलते रहते हैं।

बाइबल कहती है, "प्रत्येक व्यक्ति सुनने में तो तत्पर, लेकिन बोलने में धीरजवंत, और क्रोध करने में धीमा हो, क्योंकि मनुष्य का क्रोध परमेश्वर की धार्मिकता हासिल नहीं कर सकता" (याकूब 1:19,20)।

जब हम अपने घर या कलीसिया में ऐसी कोई समस्या देखते हैं जिसे हमें हल करना होता है, तो हम क्या करते हैं? क्या हम प्रभु की प्रतीक्षा किए बिना उतावली से बोलते और जल्दबाज़ी करते हैं? अगर ऐसा है, तो इसमें कोई हैरानी नहीं कि हम निष्फल होते हैं और अपने घर और अपनी कलीसिया में गड़बड़ी पैदा करते हैं।

ऐसे समय में ही हमें यह याद रखने की ज़रूरत होती है कि हमारा क्रोध परमेश्वर की धार्मिकता हासिल नहीं करता। जब हमारा हृदय शांत नहीं होता, और हम किसी दूसरे व्यक्ति से क्रोधित होते हैं, तो सबसे अच्छा काम हम यह कर सकते हैं कि चुप रह सकते हैं। इस तरह, हम कम-से-कम परमेश्वर के काम का तो नुक़सान नहीं करेंगे।

परमेश्वर का सेवक होना एक गंभीर बात है। हम ऐसी जि़म्मेदारी को एक हल्के तौर पर नहीं ले सकते। परमेश्वर के सेवकों के पास बहुत अधिकार होता है। लेकिन उन्हें इस बात में बहुत ज़्यादा सचेत रहने की ज़रूरत होती है कि वे सबसे छोटी बात में परमेश्वर के आज्ञाकारी रहें - ख़ास तौर पर उनकी बोली में।

एक बार जब मूसा की बहन मरियम ने उसकी आलोचना की थी, तो वह चुप रहा था और उसने कोई जवाब नहीं दिया था। मूसा की प्रतिक्रिया को पवित्र-आत्मा ने इन शब्दों द्वारा सराहना की, "मूसा तो पृथ्वी भर के निवासियों में सबसे नम्र था" (गिनती 12:3)। एक दूसरे मौक़े पर, जब कोरह ने अन्य लोगों को इकट्ठा करके मूसा के अधिकार को चुनौती दी थी, तब दोबारा भी, मूसा उत्तेजित नहीं हुआ था बल्कि वह अपने मुँह के बल गिर कर ख़ामोश रहा था (गिनती 16:4)। फिर वह मरीबा में क्यों चुप न रह सका था जब लोगों ने उसके खिलाफ़ उपद्रव किया था? अपने जीवन के अंतिम समय में उसे लापरवाही से बोलने की क्यों ज़रूरत पड़ गई थी?

धीरज परमेश्वर के सेवक का (2 तीमु. 2:24), और एक प्रेरित का प्राथमिक चिन्ह् है। हम एक लम्बे समय तक धीरज रख सकते हैं और बार-बार अपने मुँह के बल गिर सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम जीवन के अंत तक "अपने आपको उसके हाथों में सौंपते रहेंगे जो धार्मिकता से न्याय करता है" (1 पत. 2:23), या बहुत सालों तक सहने के बाद, हम स्वयं अपने आपको सही ठहराना और स्वयं अपना बचाव करना शुरू कर देंगे? परमेश्वर ऐसा कभी नहीं होने देगा कि कोई दूसरा व्यक्ति हमारे सहने की क्षमता से ज़्यादा हमें परख सके (1 कुरि. 10:13)। लेकिन वह ऐसा होने देगा कि हमारी सहने की सीमा तक हमें परखा जाए। फिर भी, अगर हम अपनी ख़ुदी में, अपने अधिकारों में, और अपनी नेकनामी में मरने के लिए तैयार रहेंगे, तो वह हमें धीरज से सहने के लिए कृपा प्रदान करेगा।

परमेश्वर ऐसे पुरुष बनने में हमारी मदद करे जो अपमानित होने और बुरा व्यवहार किए जाने पर अपने मुँह के बल गिरते हैं- आज, कल, अगले सप्ताह, अगले माह, अगले वर्ष, और अपने जीवन के अंत तक।

अगर मरीबा में मूसा अपने मुँह के बल गिर गया होता, तो उसने कनान में ज़रूर प्रवेश किया होता। अपने जीवन के अंत में लापरवाह हो जाने की वजह से उसने कितना कुछ खो दिया था। परमेश्वर के ऐसे और भी बहुत से सेवक हुए हैं जो अनेक वर्षों तक विश्वासयोग्य रहे, लेकिन अपने जीवनों के अंत में वे लापरवाह होकर फिसल गए। इस तरह अपने जीवनों के लिए उन्होंने परमेश्वर की योजना को बिगाड़ दिया।

एक पिछले अवसर पर, हम यह पढ़ते हैं कि परमेश्वर ने जो दण्ड मूसा को दिया था, वही उसने इस्राएलियों को भी दिया था - कनान में प्रवेश न कर पाने का दण्ड। लेकिन उन्होंने परमेश्वर से दस बार विद्रोह किया था (गिनती 14:22)। परमेश्वर ने इस्राएलियों को दण्ड देने से पहले दस मौक़े दिए थे। लेकिन उसने मूसा को सिर्फ एक ही मौक़ा दिया। क्यों? क्योंकि इस्राएलियों की तुलना में परमेश्वर को मूसा से ज़्यादा अपेक्षा थी।

इस्राएलियों ने सिर्फ परमेश्वर के कामों को उनके बाहरी रूप में देखा था, लेकिन मूसा ने परमेश्वर से आमने-सामने बात करते हुए उसके मार्गों को समझा था। अगर हम परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करते हैं और उसके वचन का प्रचार करते हैं, तो वह हमसे हमारी कलीसिया के अन्य लोगों की तुलना में दस गुणा ज़्यादा अपेक्षा रखेगा।

परमेश्वर के सेवक, उत्तेजित किए जाने पर भी, अपनी बोली में लापरवाह नहीं हो सकते। वे सिर्फ तभी परमेश्वर के प्रवक्ता हो सकते हैं जब वे अपनी बोली में से व्यर्थ शब्द दूर कर देते हैं (यिर्म. 15:19)।

पूरे आज्ञापालन का महत्व

शाऊल एक और ऐसा व्यक्ति था जिसे परमेश्वर ने इस्राएल की अगुवाई करने के लिए चुना था। शाऊल कभी राजा बनना नहीं माँगता था। यह परमेश्वर था जिसने उसे इस्राएल के सिंहासन पर बैठाया था। और जब इस्राएली उसे राजा बनाने के लिए आए, तो उसने यह कहते हुए अपने आपको छुपा लिया था, "मैं कौन हूँ कि मैं राजा बनूँ? मेरा घराना इस्राएल के सारे घरानों में सबसे छोटा है" (1 शमू. 10:21,22)। वह कितना नम्र व दीन व्यक्ति था!

लेकिन जल्दी ही शाऊल अपनी नज़रों में बड़ा बन गया और परमेश्वर को उसके अभिषेक को उसके ऊपर से हटा लेना पड़ा।

1 शमूएल के अध्याय 15 में, हम पढ़ते हैं कि शाऊल ने परमेश्वर की आज्ञा में फेर-बदल किया और जो आज्ञा परमेश्वर ने उसे दी थी, उसके अनुसार उसने अमालेकिया का सब कुछ नाश नहीं किया। उसने अपनी सोच-समझ का सहारा लिया, और जिस बात से लोग प्रसन्न हुए, उसने वह किया। जो भी अपनी नज़र में बड़ा बन जाता है, उसके साथ यही होता है। और यहाँ हम उन दो सबसे बड़े फन्दों को देखते हैं जिनका सामना परमेश्वर के हरेक सेवक को करना पड़ता है - उसकी अपनी सोच-समझ का मत, और दूसरे लोगों का मत। शाऊल ने अपना अभिषेक इसलिए खो दिया था क्योंकि उसने इन दो बातों को उसे प्रभावित करने की अनुमति दी थी। हमारे पास यह अधिकार नहीं है कि हम परमेश्वर की आज्ञाओं में हमारी अपनी सोच-समझ के अनुसार फेर-बदल कर सकें। और अगर हम मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहेंगे, तो हम फ्मसीह के दास नहीं हो सकते" (गला. 1:10)।

अगर शाऊल उसकी नज़र में छोटा बना रहता, तो उसका अभिषेक उसके जीवन के अंत तक बना रहता। लेकिन उसने अपने सिंहासन से प्रेम करना शुरू कर दिया था। और इस तरह ही परमेश्वर के बहुत से सेवकों ने अपना अभिषेक खो दिया है। परमेश्वर के सेवकों के रूप में बार-बार लोगों के सम्मुख खड़े रहने में, अगर हम सचेत नहीं रहेंगे, तो ऐसा होगा कि हमारे मनों में घमण्ड आ जाएगा।

लेकिन शाऊल ने सिर्फ राजा होने को ही पकड़े रहना न चाहा था। जब उसने एक युवा भाई (दाऊद) को ऊपर आते और दूसरे लोगों को उसमें भरोसा व्यक्त करते देखा, तो उसने उसे दबाने के लिए युक्तियाँ की थीं। उसे दाऊद से ईर्ष्या हो गई थी, क्योंकि दाऊद में ऐसा विश्वास था जो उसमें नहीं था। और वह दाऊद को मार डालना चाहता था क्योंकि लोग उसकी प्रशंसा कर रहे थे।

लेकिन क्या परमेश्वर शाऊल जैसे लोगों के कामों को अनदेखा करता रहता है - जो परमेश्वर द्वारा अस्वीकार किए जाने के बाद भी अपने सिंहासनों से चिपके रहते हैं? यह हो सकता है कि परमेश्वर एक लम्बे समय तक उन्हें छोड़ता रहे। शाऊल के मामले में, परमेश्वर उसे 13 साल तक छूट देता रहा। दाऊद ने जब गोलियत को मारा था, तब वह शायद 17 साल का था। लेकिन वह 30 साल का होने के बाद राजा बना था। दाऊद का अभिषेक करने के बाद 13 साल तक, परमेश्वर ने शाऊल को इस्राएल के राजा के रूप में राज करने दिया था।

इन सब बातों में हमारे सीखने के लिए कौन से पाठ हैं ?

यह हो सकता है कि हमारे भटक जाने के बाद, पवित्र-आत्मा के हमारे अभिषेक के खो जाने के बहुत बाद तक भी, परमेश्वर हमें एक सेवकाई में बना रहने दे।

यह हो सकता है कि दूसरे लोग परखने की योग्यता न होने की वजह से यह न जान पाएं कि हमने अपना अभिषेक खो दिया है। तब वे हमें परमेश्वर के सेवकों के रूप में स्वीकार करना जारी रखेंगे, क्योंकि वे हमारे बाइबल के ज्ञान और अनुभव का आदर करते रहेंगे। लेकिन हम यह न सोच लें कि अगर लोग हमें स्वीकार कर रहे हैं, तो यह बात हमारे लिए परमेश्वर के सेवकों के रूप में बने रहने के लिए काफी है।

अगर परमेश्वर ने ही हमें अस्वीकार कर दिया है, तो मनुष्य के हमें स्वीकार करने से क्या लाभ होगा? जब एक व्यक्ति उसके जीवन में से अभिषेक के चले जाने के बाद भी प्रभु की सेवा या एक कलीसिया की अगुवाई करता है तो, यह एक बहुत दुःखद त्रासदी होती है।

उतावली के काम करने से बचे रहना

दुर्भाग्यवश, दाऊद ने भी राजा बनने के बाद, परमेश्वर की आज्ञाओं में फेर-बदल करने की कोशिश की। और परमेश्वर को उसे भी दण्ड देना पड़ा। परमेश्वर कोई पक्षपात नहीं करता। परमेश्वर अपने सभी सेवकों के प्रति कठोर है।

2 शमूएल अध्याय 6 में, हम देखते हैं कि अगर हम अचूक रूप में परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन नहीं करते, तो हमारे भले उद्देश्य भी हमें परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में चूक जाने से नहीं बचा सकते। दाऊद वाचा के सन्दूक को वापिस यरूशलेम ले जा रहा था - और यह एक भली बात थी। लेकिन उसने यह उस विधिनुसार नहीं किया था जैसी आज्ञा परमेश्वर ने अपनी व्यवस्था में दी थी। परमेश्वर ने यह आज्ञा दी थी कि वाचा के संन्दूक को लेवी अपने कंधे पर उठाकर चलें। लेकिन दाऊद ने इस आज्ञा में फेर-बदल कर दिया और वाचा के सन्दूक को एक बैलगाड़ी में रखकर उसे बैलों को खींचने दिया। इसमें उसने उन पलिश्तियों की नक़ल की जिन्होंने कुछ साल पहले यही तरीक़ा अपनाया था (1 शमु. 6:8-12)।

ऐसे मसीही अगुवे हैं जो आज यही कर रहे हैं। वे अपनी कलीसियाओं को परमेश्वर के वचन की शिक्षाओं के अनुसार नहीं बल्कि संसार के व्यापारिक प्रबंधन के तरीक़ों से चला रहे हैं।

जब वाचा का सन्दूक ले जा रहे बैलों ने ठोकर खाई, और उज्जा ने वाचा के संदूक को गिरने से बचाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, तब परमेश्वर का क्रोध उज्जा पर भड़का। और परमेश्वर ने उज्जा को उसी क्षण "उसके द्वारा किए गए अनादर के लिए" उसे मार डाला (2 शमु. 6:7)।

यह एक दुःखद लेकिन सच बात है कि जब परमेश्वर के चरवाहे ग़लती करते हैं, तब भेड़ों को भी पीड़ा सहनी पड़ती है। दाऊद ने ग़लती की थी, और उज्जा को उसकी पीड़ा सहनी पड़ी। और उस दिन दाऊद ने वहाँ यह पाठ सीखा कि परमेश्वर अपने सेवकों के प्रति बहुत कठोर है।

उज्जा का उद्देश्य बहुत भला था, लेकिन फिर भी "परमेश्वर का क्रोध उज्जा पर भड़क उठा" (पद 7)। उज्जा को उसके बचपन से यह सिखाया गया था कि सिर्फ लेवी ही वाचा के सन्दूक को हाथ लगा सकते हैं। लेकिन उस क्षण उसने परमेश्वर की आज्ञा को गंभीरता से नहीं लिया और उसे उसकी क़ीमत चुकानी पड़ी।

उज्जा की ग़लती को आज भी दोहराया जा सकता है। जब हम अपनी कलीसिया में बातों को बिगड़ता हुआ देखते हैं, तो हम भी "परमेश्वर के वाचा के सन्दूक को संभालने के लिए" अपना हाथ बढ़ा सकते हैं। और परमेश्वर हमें मार सकता है, क्योंकि चाहे हमारे उद्देश्य भले हैं, लेकिन फिर भी हम अपनी "हद" से आगे बढ़ गए हैं। हमने शायद वह किया है जिसे हमारी सोच-समझ ने कहा है कि वह सही है। लेकिन हमने प्रभु की इच्छा जानने के लिए उसकी प्रतीक्षा नहीं की। हमारा निकलना उतावली से हुआ है।

यीशु ने कहा, "मैं अपनी कलीसिया बनाऊँगा" (मत्ती 16:18)। कलीसिया का निर्माण करना हमारा नहीं प्रभु का काम है। उसने वह काम हममें से किसी को नहीं सौंपा है। इसलिए जब हम यह कहते हैं, "मैं अमुक जगह में कलीसिया बना रहा हूँ," तो वह एक घमण्ड से भरा धेाखा है। अगर हमने कभी भी ऐसा सोचना शुरू कर दिया कि मसीह की देह हमारा अपना निजी काम (धंधा) है, तो हम भी एक-न-एक दिन वही ग़लती करेंगे जो उज्जा ने की थी।

अगर हम कलीसिया को लड़खड़ाते हुए देखें तो हम परमेश्वर के पास जाकर उससे कह दें, "प्रभु कलीसिया का निर्माण मैं नहीं तू कर रहा है। तू अपनी कलीसिया को बचा।"

और जब हम ऐसा महसूस करें कि सब कुछ वैसा नहीं है जैसा होना चाहिए, तो उस समय हमें अपने आपसे यह पूछना चाहिए कि वह किसका काम है और वह किसके अधिकार में है। क्या वह पवित्र-आत्मा है या हम हैं?

ऐसे समय होते हैं, जब हम यह सोचते हैं कि हमें फौरन कुछ करना चाहिए। लेकिन अगर हम पवित्र-आत्मा की सुने बिना ही कुछ करेंगे, तो हम हमेशा ही शरीर में काम करेंगे। और तब हमारे काम, चाहे वे एक भले उद्देश्य से किए गए होंगे, तब भी वे इतनी गड़बड़ पैदा करेंगे जितनी हमारे कुछ-न-करने से नहीं होती। इसलिए हमें यही कहना चाहिए, "प्रभु, यहाँ सारा अधिकार तेरा है। प्रभुता तेरे काँधों पर है। और मैं तेरी सुनना चाहता हूँ। मुझे बता कि तू क्या चाहता है कि मैं करूँ।"

नीतिवचन की पुस्तक में अनेक प्रकार के मूर्खों का बयान किया गया है। लेकिन अंततः सबसे बड़े मूर्ख का बयान इस तरह किया गया हैः "क्या तू ऐसे मनुष्य को देखता है जो बोलने में (या उसके कामों में) उतावली करता है? उससे ज़्यादा तो मूर्ख से ही आशा है" (नीति. 29: 20)।

ऐसा व्यक्ति जो उतावला है - जो कुछ कहने या करने में उतावली करता है - इस बात पर पूरा यक़ीन रखता है कि वह ऐसी हरेक बात जानता है जो किसी भी स्थिति के लिए सबसे अच्छी बात है। उसे किसी बात में परमेश्वर से परामर्श करने की कोई ज़रूरत ही नहीं होती। वह अपने आप सब कर सकता है। ऐसा व्यक्ति संसार में सबसे मूर्ख व्यक्ति है।

यीशु के बारे में यह नबूवत की गई कि, "वह परमेश्वर का भय मानने से हर्षित होगा, और वह न तो मुँह देखा न्याय करेगा, और न कानों से सुनकर निर्णय लेगा" (यशा. 11:3)। यीशु बहुत सी बातों को देखे बिना नहीं रह सकता था क्योंकि उसकी आँखें अंधी नहीं थीं। और न ही वह बहुत सी बातों को सुने बिना रह सकता था क्योंकि वह बहरा नहीं था। लेकिन उसमें अपने पिता का ऐसा भय था कि वह सिर्फ देखी और सुनी हुई बातों के आधार पर न तो न्याय करता था और न ही इस आधार पर अपना मत बनाता था। जैसा कि उसने एक बार स्वयं कहा था, "पुत्र अपने आप कुछ नहीं कर सकता, केवल वह जो पिता को करते देखता है" (यूहन्ना 5:19)।

जब फरीसी व्यभिचार में पकड़ी गई स्त्री को लेकर यीशु के पास आए, तब यीशु ने कुछ समय तक उनके सवाल का कोई जवाब नहीं दिया था। वह अपने पिता से सुनने का इंतज़ार कर रहा था। जब उसने सुन लिया, तब वह बोला। वह सिर्फ एक ही वाक्य थाः "तुममें जो निष्पाप हो, वही उसे पहला पत्थर मारे।" इस एक वाक्य ने वह हासिल किया जो एक घण्टे का लम्बा संदेश भी हासिल नहीं कर सकता था!

अगर कोई हमारे पास एक जटिल समस्या लेकर आए, और अगर हम अपनी चतुराई और पिछले अनुभवों के आधार पर उसे अपनी सलाह दे दें, तो यह हो सकता है कि वह समस्या और भी ज़्यादा जटिल हो जाए। लेकिन पिता की ओर से आया बुद्धि का एक शब्द अद्भुत काम कर सकता है।

इसलिए अगली बार जब हम "बैलों को लड़खड़ाते और वाचा के सन्दूक को गिरते हुए देखें," तो हम मूर्खों की सूची में अपना नाम सबसे पहले लिखवाने के लिए उतावले न हो जाएं! हम एक अनादर भरा काम करते हुए उन बातों का उतावली से न्याय न करें जो हमारी आँखें देखती हैं या हमारे कान सुनते है। इसकी बजाय, हम प्रभु के सामने अपने मुँह धूल में रखें और उससे यही कहें, "प्रभु, इस बात में मुझमें बुद्धि की कमी है। तू क्या चाहता है कि मैं करूँ?"

हमारे लिए यह स्वीकार करना बहुत मुश्किल होता है कि हममें बुद्धि की कमी है, ख़ास तौर पर तब जबकि हम जानते हैं कि कलीसिया में सभी लोग हमसे उम्र में छोटे और परिपक्वता में कम हैं। लेकिन अगर हम नम्र व दीन होकर अपनी ज़रूरत को मान लेंगे, तो परमेश्वर हमें भरपूरी से बुद्धि प्रदान करेगा।

हमारे शब्द का पालन करना

हम 2 शमूएल 21:1 में उसके सेवकों के साथ परमेश्वर की कठोरता का एक और उदाहरण देखते हैं। दाऊद के राज्यकाल में, इस्राएल में लगातार तीन वर्ष तक अकाल पड़ा। जब हमारी मण्डली में भी नबूवत के शब्द का ऐसा अकाल पड़े, तो हमारे लिए भी वह करना अच्छा रहेगा जो दाऊद ने किया था। उसने इसके बारे में प्रभु से जवाब चाहा। और प्रभु ने कहा, "यह इसलिए है क्योंकि बहुत साल पहले, इस्राएल ने अपना वह वचन तोड़ा था जो उसने गिब्बोनियों को दिया था।"

इस्राएल ने 300 साल पहले, यहोशू के समयकाल में, गिब्बोनियों से यह प्रतिज्ञा की थी कि उनके वंशजों को कभी कोई हानि नहीं होगी। लेकिन शाऊल ने अपने समयकाल में उनमें से कुछ को मार डाला था। उस पाप ने इस्राएल को 30 साल के बाद आ दबोचा। परमेश्वर बहुत ध्यानपूर्वक अपना हिसाब रखता है। अगर हमने कुछ ग़लत किया है और अगर हम उन मामलों को सही तरह नहीं निपटाएंगे, तो उनमें से कुछ भी भुलाया नहीं जाएगा। परमेश्वर वह हिसाब चुकता करने में 30 साल भी लगा सकता है। लेकिन एक दिन उनका हिसाब चुकता ज़रूर होगा। परमेश्वर ने इस्राएल के ऊपर से तब तक अकाल को दूर नहीं किया जब तक वह मामला निपटाया नहीं गया।

परमेश्वर की सेवा करने वाले सभी लोगों को, न सिर्फ सभाओं में बल्कि सभाओं से बाहर भी, अपने शब्दों के प्रति बहुत सचेत रहने की ज़रूरत है।

किसी के लिए कुछ करने की प्रतिज्ञा करने के बाद, हमें वह भूल नहीं जाना चाहिए। जैसे, लोगों से प्रार्थना करने की प्रतिज्ञा करने के बाद (जो हमसे प्रार्थना के लिए निवेदन करते हैं), हमें उनके लिए प्रार्थना करना नहीं भूल जाना चाहिए।

अगर हम उन बहुत से लोगों के लिए प्रार्थना नहीं कर पाते जो हमसे उनके लिए प्रार्थना करने के लिए कहते हैं, तो हमें ईमानदारी से उनसे कह देना चाहिए, "मुझे जब भी याद आएगा, तब मैं आपके लिए प्रार्थना करूँगा।" या, आप वहीं उनके लिए प्रार्थना कर सकते हैं। लेकिन हमें ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं करनी चाहिए जिसे हम पूरा नहीं कर सकते।

हम गंभीरता के साथ परमेश्वर का वचन कैसे बोल सकेंगे अगर हम दूसरों को दिए हमारे वचन के प्रति स्वयं ही गंभीर नहीं होंगे? अगर हम किसी से की गई कोई प्रतिज्ञा पूरी न कर सकें, तो हमें उस व्यक्ति के पास जाकर उसे यह बता देना चाहिए कि हम क्यों उस प्रतिज्ञा को पूरा नहीं कर सके, और हमें उससे क्षमा माँग लेनी चाहिए। किसी से की गई प्रतिज्ञा को तोड़ना एक गंभीर बात होती है।

"जो भी निकम्मी बात मनुष्य बोलेंगे, न्याय के दिन वे उसका लेखा देंगे" (मत्ती 12:36)।

हम दूसरों को जो प्रतिज्ञा देते हैं, परमेश्वर उसे गंभीरता से लेता है। हमें अपना वचन तोड़ने का कोई अधिकार नहीं है, अविश्वासियों या सेवकों को दिया गया वचन भी नहीं (जैसे कि गिब्बोनी थे)।

हम यह कल्पना कर सकते हैं कि क्योंकि हमें बहुत समय से उन बातों के लिए कोई दण्ड नहीं मिला है जिनका हिसाब हमने अब तक चुकता नहीं किया है, इसलिए परमेश्वर हमारी बेईमानी के बारे में भूल गया है। लेकिन परमेश्वर कभी नहीं भूलता। परमेश्वर की दण्डाज्ञाओं के आने में कुछ समय लग सकता है, लेकिन अंततः वे ज़रूर आएंगी।

"इसलिए आओ, हम कृतज्ञ होकर आदर और भय सहित परमेश्वर की ऐसी आराधना करें जो उसे ग्रहणयोग्य हो, क्योंकि हमारा परमेश्वर भस्म करने वाली आग है" (इब्रा. 12:28,29)।

अध्याय 3
प्रभु प्राचीनों को डाँटता है

प्रकाशितवाक्य अध्याय 2 और 3 हमारे पढ़ने के लिए अच्छे अध्याय हैं क्योंकि उनमें कलीसिया के बड़े भाइयों (प्राचीनों-संदेशवाहक दूतों) के लिए प्रभु के संदेश हैं। सात में से पाँच कलीसियाओं के भटके हुए प्राचीनों को प्रभु ने सबके सामने डाँटा। उसने उन्हें प्रेरित यूहन्ना के हाथों "व्यक्तिगत और गुप्त" पत्र नहीं भेजे, लेकिन वे ऐसे पत्र थे जो उन कलीसिया के सारे विश्वासियों के सामने पढ़े जाने थे।

इफिसुस - जिसमें प्रभु के प्रति कोई प्रेमपूर्ण भक्ति नहीं थी

इफिसुस के प्राचीन को डाँटा गया, इसलिए नहीं क्योंकि वह कोई बड़े घिनौने पाप में पड़ गया था, बल्कि इसलिए क्योंकि प्रभु की भक्ति में उसका प्रेम अब पहले जैसा सरगर्म नहीं था (प्रका. 2:1-5)। शायद अब प्रत्येक रविवार को संदेशों का प्रचार करने में इतना व्यस्त हो गया था कि अब वह अपने व्यक्तिगत जीवन में प्रभु की प्रेमपूर्ण भक्ति करना भूल चुका था। यह एक गंभीर भूल थी।

शैतान हमेशा हमें "मसीह की सहज भक्ति" की तरफ से किसी गौण बात की तरफ मोड़ देना चाहता है (2 कुरि. 11:3)। जब प्रभु के लिए हमारा काम स्वयं प्रभु से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है, तो हमने पहले ही भटकना शुरू कर दिया है। प्रभु के लिए हमारा सारा परिश्रम प्रभु के साथ हमारे व्यक्तिगत सम्बंध में से प्रवाहित होना चाहिए। वर्ना उन कामों का कोई आत्मिक महत्व नहीं होगा। वे मरे हुए और सामाजिक काम होंगे।

जब कुछ भी हमारे लिए प्रभु से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है, तो हम नई वाचा के सेवक नहीं हो सकते - क्योंकि नई वाचा प्रभु के साथ व्यक्तिगत सम्बंध पर ज़ोर देती है, जबकि पुरानी वाचा प्रभु के लिए सेवा पर ज़ोर देती है। अगर हमने इस फ़र्क को नहीं जाना है, तो हम मसीह की देह का निर्माण नहीं कर सकते।

पिरगमुन - जिसमें सांसारिक शिक्षा को सहन किया जाता था

पिरगमुन के प्राचीन को इसलिए डाँटा गया क्योंकि उसने लोगों को ऐसी शिक्षाएं देने की अनुमति दे रखी थी जिससे कलीसिया सांसारिकता की तरफ बढ़ रही थी और पाप के प्रति उसका मनोभाव लचीला हो रहा था (प्रका. 2:14-15)। वह स्वयं शायद एक अच्छा व्यक्ति रहा होगा। लेकिन उसने दूसरों को बिलाम की शिक्षा देने की अनुमति दे रखी थी। इसलिए वह दोषी था।

प्रभु कलीसिया में प्राचीनों को यह सुनिश्चित करने के लिए जि़म्मेदार ठहराता है कि कलीसिया में ऐसे किसी प्रचार की अनुमति न दी जाए जिसमें लोग पाप को हल्के तौर पर लेने वाले बन जाएं। एक "ऐसी शिक्षा है जो ईश्वरीय भक्ति की तरफ ले जाती है" (ईश्वरीय, मसीह-समान जीवन की तरफ), और वही "साफ-सुथरी शिक्षा" है (1 तीमु. 6:3 - कोष्ठक)। इसके अलावा हरेक शिक्षा कम या ज़्यादा अनुपात में दूषित शिक्षा होती है।

इस प्राचीन ने अपनी कलीसिया में ऐसी कमज़ोर शिक्षा की अनुमति क्यों दी थी? उसने शायद एक भी भाई या बहन को कभी किसी बात के लिए नहीं रोका था क्योंकि वह एक नम्र व कोमल व्यक्ति के रूप में अपने लिए नाम कमाना चाहता था। अगर ऐसा था तो वह कलीसिया से ज़्यादा अपना भला चाह रहा था।

"नम्रता" व "कोमलता" ऐसे गुण हैं जिन्हें हमें यीशु के उदाहरण से सीखना चाहिए जैसा कि उसने स्वयं हमसे कहा है (मत्ती 11:29)। वर्ना हममें इनके अर्थ की एक ग़लत समझ आ जाएगी।

यीशु की नम्रता व कोमलता ने उसे न तो मन्दिर में से सर्राफों को बाहर निकालने से, और न ही पतरस को ऐसे कठोर शब्द बोलने से रोका था, "दूर हट, शैतान," जब उसने एक झूठे सिद्धान्त का प्रचार करने द्वारा यीशु को सूली से बच निकलने के लिए कहा था (मत्ती 16:22,23)।

शैतान कलीसिया को भटकाने के लिए पतरस जैसे एक अच्छे भाई का इस्तेमाल कर सकता है। क्योंकि वह भाई सभाओं में इस तरह से बोल सकता है कि वह सूली के शब्द में मिलावट कर सकता है। ऐसे प्रचार को हमेशा शैतान की आवाज़ के रूप में पहचाना जाना चाहिए - क्योंकि इस तरह शैतान कलीसिया को परमेश्वर की इच्छा की दिशा से भटका सकता है।

कलीसियाओं के अगुवे होते हुए एक सबसे बड़ी जि़म्मेदारी जो हम पर होती है, वह कलीसिया की दिशा को सुनिश्चित करना होता है। कलीसिया की दिशा सांसारिकता और (पाप से) समझौता नहीं होना चाहिए। और न ही वह दिशा फरीसीवाद और विधिवाद होना चाहिए। लेकिन वह सूली का रास्ता होना चाहिए - जो परमेश्वर की इच्छा की दिशा है।

बिलाम जैसे प्रचारकों में अक्सर बहुत जैविक-शक्ति होती है और वे कलीसिया में लोगों पर एक बुरा प्रभाव डाल सकते हैं। ऐसे प्रचारक जिनका एक सशक्त व्यक्तित्व होता है, वे दूसरे लोगों को हावी हो ही जाते हैं, और इस तरह वे उनके रास्ते की रुकावट बन जाते हैं कि फिर वे उनके शीर्ष के रुप में मसीह के साथ नहीं जुड़ पाते। वे दूसरे लोगों पर भी ऐसा प्रभाव डालते हैं कि वे उन्हें भी सच्ची आत्मिकता से दूर एक सतही, सांसारिक धार्मिकता में ले जाते हैं।

जब एक प्रचारक यह नहीं समझ पाता कि उसकी जैविक शक्ति को मौत के हवाले कर देना क्या होता है, तब वह विश्वासियों को मसीह जो सिर है उसके साथ नहीं बल्कि अपने साथ जोड़ लेगा। विश्वासी प्रचारक की प्रशंसा करेंगे और उसके पीछे चलेंगे, लेकिन उनके जीवनों में वे कभी संसार और पाप पर जय नहीं पा सकेंगे।

जैविक-शक्ति और आत्मिक शक्ति में बहुत बड़ा फ़र्क है, और हमें इन दोनों के बीच के फ़र्क को परखना आना चाहिए। एक व्यक्ति के पास बाइबल का बहुत ज्ञान और बोलने की कुशलता हो सकती है। वह भाइयों व बहनों का बड़ा सत्कार करने वाला और बहुत से व्यावहारिक तरीक़ों द्वारा उनकी मदद करने वाला भी हो सकता है। लेकिन अगर वह लोगों को मसीह के साथ नहीं बल्कि अपने साथ जोड़ता है, तो मसीह की देह के निर्माण में एक बाधा होगा।

बिलाम-जैसे प्रचारक दूसरों से उपहार/भेंट ग्रहण करने से बहुत ख़ुश होते हैं (गिनती 22:15-17)। एक भेंट हमारी आँखों को अंधा कर सकती है (नीति. 17:8), और वह हमें मनुष्यों का कज़र्दार बना सकती है कि फिर हम उनका गुलाम बनना पड़े। यह हमारे लिए परमेश्वर का सत्य बोलने में और हमें भेट देने वालों को सुधारने में रुकावट बन सकता है।

परमेश्वर के एक सेवक को हमेशा मुक्त रहना चाहिए। "तुम दाम देकर मोल लिए गए हो, इसलिए मनुष्यों के दास न बनो" (1 कुरि. 7:23)।

पिरगमुन की कलीसिया में बिलाम की शिक्षा इसलिए फल-फूल रही थी क्योंकि उसका प्राचीन मनुष्यों का दास बन गया था।

बिलाम की शिक्षा के दो भाग हैं। पतरस ने 2 पत. 2:14,15 में दोनों का उल्लेख किया है - लालच और व्यभिचार।

यीशु ने कहा कि जो धन से प्रेम करता है, वह परमेश्वर से घृणा करता है, और जो धन को पकड़े रखता है, वह परमेश्वर को तुच्छ समझता है (लूका 16:13 को ध्यान से पढ़ें)।

अगर हम एक स्पष्ट रूप में यह नहीं सिखाएंगे, तो हमारी कलीसिया में बिलाम की शिक्षा फलेगी-फूलेगी, और भाई-बहनें धन से प्रेम करने वाले बन जाएंगे।

लेकिन अगर हम वह सिखाएंगे जो यीशु ने सिखाया था, तो पहले स्वयं हमें धन के मोहपाश (पकड़) में से छूटना होगा। धन की गिरफ्त में से छूटने की बजाय गुस्से और आखों की लालसाओं से छूट जाना ज़्यादा आसान होता है। इस बुराई के खिलाफ़ लगातार संघर्ष करने द्वारा ही हम इससे छूट सकते हैं।

क्या हमने धन को "सारी बुराई की जड़" के रूप में देख लिया है (1 तीमु. 6:10)? जबकि गुस्से और आँखों की लालसा को बुराई के रूप में देखा जाता है, लेकिन धन के प्रेम को बुराई के रूप में नहीं देखा जाता। इस तरह, बहुत से लोग जिन्हें यह अहसास नहीं है कि वे परमेश्वर से घृणा करते हैं और उसे तुच्छ समझते हैं, धन के दास बन गए हैं।

भारत में तथा-कथित "पूर्णकालिक सेवक" बिलाम की तरह धन के प्रेम की गुलामी में जकड़े हुए हैं। वे धनवान विश्वासियों के घरों में जाते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि उन्हें वहाँ से उपहार/भेंट मिलेंगे। और फिर जब इन धनवान और प्रभावशाली को ताड़ना देने की ज़रूरत होती है, तब इन सेवकों के मुँह बंद हो जाते हैं। वे ऐसी कलीसियाओं में प्रचार करने के लिए यात्रएं करते हैं जहाँ वे जानते हैं कि उन्हें भरपूर भेंट/उपहार मिलेंगे। ऐसे प्रचारक परमेश्वर की सेवा कैसे कर सकते हैं? यह असम्भव है। वे मामोन (धन के देवता) की सेवा कर रहे हैं। यीशु ने कहा कि कोई भी दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता।

नई वाचा में,जो भी परमेश्वर की सेवा करना चाहते हैं,उनमें तीन मूल योग्यताएं होनी चाहिएः

1) उसके व्यक्तिगत जीवन में वह पाप से मुक्त होना चाहिए (रोमि. 6:22)।

2) वह मनुष्यों को प्रसन्न करने वाला नहीं होना चाहिए (गला. 1:10)।

3) वह धन से घृणा करने और उसे तुच्छ जानने वाला होना चाहिए (लूका 16:13)।

हमें इन तीनों क्षेत्रों में अपने आपको यह देखने के लिए लगातार परखते रहने की ज़रूरत है कि हम नई वाचा के सेवक होने के योग्य हैं या नहीं।

हमें भेंट/उपहार ग्रहण करने से घृणा करनी चाहिए क्योंकि यीशु ने कहा, "लेने से देना भला है" (प्रेरितों. 20:35)।

अगर हम अपने जीवनों में धन के मोहपाश में से मुक्त नहीं होंगे, तो जैसा हमें करना चाहिए, हम परमेश्वर से वैसा प्रेम और उसकी वैसी सेवा नहीं कर सकेंगे। और हम दूसरों की अगुवाई करते हुए उन्हें परमेश्वर से प्रेम करने वाला नहीं बना सकेंगे। और हम उन्हें बिलाम की शिक्षा से छुटकारा नहीं दिला सकेंगे।

बिलाम की शिक्षा का दूसरा पक्ष अनैतिकता (लैंगिक भ्रष्टाचार) है। यह शिक्षा भाइयों व बहनों को एक निस्संकोच रूप में एक-दूसरे के साथ घुलने-मिलने की अनुमति देती है। हम प्रकाशितवाक्य 2:14 में पढ़ते हैं, कि वह बिलाम ही था जिसने मोआबी लड़कियों को इब्रानी लड़कों के साथ आज़ादी के साथ घुलने-मिलने के लिए प्रोत्साहित किया था। इससे इस्राएलियों के बीच ऐसी लैंगिक अनैतिकता फैल गई कि परमेश्वर को एक ही दिन में 24,000 लोगों को मार डालना पड़ा (गिनती 25:1-9)।

सिर्फ पीनहास के उसका भाला उठाने के बाद ही इस्राएल पर से परमेश्वर की जलजलाहट शान्त हुई थी। परमेश्वर ने जब पीनहास का वह काम देखा, तो वह उससे इतना प्रसन्न हुआ कि उसने उसे और उसके वंश को सनातनकाल के लिए याजक पद की आशिष दी (गिनती 25:11-13)। कलीसिया में जो भाइयों व बहनों के आज़ादी से एक-दूसरे के साथ घुलने-मिलने के मामले में कठोर होते हैं, परमेश्वर हमेशा सम्मानित करता है।

प्राचीन होते हुए, हमें इस मामले में भी अपने व्यक्तिगत आचरण द्वारा एक आदर्श उदाहरण होना चाहिए। हमें बहनों के साथ गंभीर रहना चाहिए और उनके साथ किसी भी तरह की चंचलता से भरी और अनावश्यक बातचीत से दूर रहें। हमें ऐसी बहनों से ख़ास तौर पर संभल कर रहना चाहिए जो हमसे हमेशा बात करना चाहती हैं। अगर हमें भी बहनों से बातचीत करना अच्छा लगता है, तो हम परमेश्वर की कलीसिया की अगुवाई करने योग्य नहीं हैं। हमें कभी भी स्त्रियों से एक बंद कमरे में बातचीत नहीं करनी चाहिए। सबसे अच्छा यही है कि एक प्राचीन बहनों को अपनी पत्नी या एक अन्य प्राचीन की उपस्थिति में ही परामर्श दे।

जब शिष्यों ने यीशु को सामरिया में एक स्त्री से बातचीत करते देखा, तो ऐसा लिखा है कि "वे अचम्भे में पड़ गए" (यूहन्ना 4:27), क्योंकि सामान्य तौर पर यीशु किसी स्त्री से अकेले में बात नहीं करता था। वह ऐसा कोई काम नहीं करता था जिसमें किसी बुराई की झलक भी नज़र आती हो। यह उदाहरण हम सबके अनुसरण के लिए है।

थुआतीरा - एक स्त्री द्वारा चलाई जा रही कलीसिया

प्रभु ने थूआतीरा के प्राचीन को इसलिए डाँटा क्योंकि उसने एक स्त्री, येज़ेबेल (उसकी "पत्नी" - प्रका. 2:20 कोष्ठक) को कलीसिया के मामलों में इतना सशक्त प्रभाव डालने की अनुमति दे रखी थी कि जिसकी वजह से बहुत से भाई भ्रमित हो रहे थे। आज भी परमेश्वर के ऐसे सेवक हैं जो अपनी पत्नियों और दूसरी स्त्रियों को कलीसियाई मामलों में हस्तक्षेप करने से नहीं रोकते।

परमेश्वर ने नई वाचा की कलीसिया की अगुवाई में स्त्रियों के लिए कोई भाग नहीं ठहराया है। 1 तीमु- 2:12 में यह स्पष्ट रूप में सिखाया गया है। लेकिन सभी जगह ऐसी बहुत सी शक्तिशाली बहनें हैं जो कलीसियाओं को चलाने में प्रभावी भूमिका निभाना चाहती हैं। ऐसी सभी स्त्रियाँ ईज़ेबेल होती हैं। बहनों की बुलाहट "घर में काम करने वाली" होने के लिए है (तीतुस 2:5)। लेकिन अगर वे कलीसियाई मामलों में हस्तक्षेप करने वाली हो जाएंगी, तो कलीसिया में गड़बड़ होगी। एक प्राचीन की पत्नी घर पर अपने पति को ऐसे सशक्त रूप में प्रभावित कर सकती है कि फिर प्राचीनों की सभा में आकर वह जो कुछ भी कहेगा, वह सिर्फ उन बातों की गूँज ही होगी जो उसकी पत्नी ने घर पर उसके मस्तिष्क में भरा होगा!

ऐसे प्राचीन पौरुषहीन होते हैं और परमेश्वर के सेवक होने में पूरी तरह अयोग्य होते हैं। ऐसे प्राचीनों को स्त्रियों की श्रेणी में रखा जा सकता है, और इसलिए वे कलीसिया में अगुवाई का कोई भी पद ग्रहण करने योग्य नहीं होते।

सरदीस - अपनी लोकप्रियता पर जीने वाली कलीसिया

प्रभु ने सरदीस की कलीसिया के अगुवे को इसलिए डाँटा क्योंकि वह पाखण्डी था। लोगों के बीच में इस तरह लोकप्रिय था मानो वह जीवित है, जबकि वास्तविकता यह थी कि वह आत्मिक रूप में मरा हुआ था। लेकिन सरदीस में कुछ ऐसे लोग थे जो सच्चे हृदय से समर्पित और सरगर्म थे, जिन्होंने अपने वस्त्र शुद्ध रखे हुए थे। यह वास्तव में एक दुःखद स्थिति होती है जब मण्डली के दूसरे भाई प्राचीन से ज़्यादा परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं।

सरदीस का प्राचीन शायद अपने प्रचार द्वारा और उन महान् कामों की साक्षी देने द्वारा लोकप्रिय हो गया होगा जो परमेश्वर ने उसके जीवन के द्वारा किए थे। अपनी सेवकाई में हमें अद्भुत चिन्ह्-चमत्कारों का अनुभव हो सकता है। लेकिन जब हम उनके बारे में बोलने लगते हैं, तब हम बड़े ख़तरे में पड़ जाते हैं।

अगर आप यीशु के उदाहरण को देखें, तो आप यह देख सकेंगे कि उसने कभी इन बातों की चर्चा नहीं की थी। उसने एक जगह में उसके द्वारा किए गए चिन्ह्-चमत्कारों की चर्चा किसी दूसरी जगह में कभी नहीं की थी। वह परमेश्वर के वचन का प्रचार करता था और कभी उन बातों की साक्षी नहीं देता था जो पिता उसके द्वारा करता था। उसकी सारी धार्मिकता और काम गुप्त में उसके पिता के सम्मुख ही किए जाते थे।

यीशु ने जो 30 वर्ष नासरत में बिताए थे, उनमें अपने पिता के साथ उसे ज़रूर कुछ अद्भुत अनुभव हुए होंगे। लेकिन उसने उनके बारे में कभी एक शब्द भी नहीं बोला था। वह जानता था कि उन्हें गुप्त ही रखना चाहिए। उसने दूसरों के सामने कभी अपने लिए कोई नाम नहीं कमाना चाहा था। इस मामले में भी हमें यीशु को अपना उदाहरण बनाना चाहिए।

जब हम एक साक्षी देते हैं, तो हमारी बातों में बहुत आसानी से बेईमानी घुस सकती है और हम उन्हें बढ़ा-चढ़ा कर बता सकते हैं। जैसे, हम उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में बता सकते हैं जो हमारी प्रार्थना से चंगा हुआ था, लेकिन हम उन्हें उन सौ लोगों के बारे में नहीं बताते जिनके लिए हमने प्रार्थना की थी लेकिन वे चंगे नहीं हुए थे। ऐसे मामलों में हम पूरा सच नहीं बोल रहे होते।

अगर हमें प्रभु का सेवक होना है, तो हमें पूरी तरह ईमानदार होना पड़ेगा। हम जो हैं, ऐसा कभी न हो कि दूसरे हमारे बारे में उससे बढ़कर सोचने लगें। यह ज़्यादा अच्छा होगा अगर वे हमें उससे कम समझें जो हम असल में हैं।

और वे लोग जो ऐसे आत्मिक दान-वरदान वाले होने का दावा करते हैं जो असल में उनके पास नहीं हैं, उन बादलों की तरह हैं जो बारिश नहीं बरसाते। (नीति. 25:14)।

क्या आप वास्तव में ऐसे महान् विश्वासी हैं जैसा आपने दूसरों के सामने अपने आपको प्रदर्शित कर रखा है? उन समयों के बारे में सोचें जब आप चिंता में डूबे हुए थे? क्या उस समयों में भी आप ऐसे ही महान् विश्वास वाले व्यक्ति थे? क्या आपकी पत्नी (जो आपको सबसे अच्छी तरह जानती है) आपको एक महान् विश्वासी मानती है? अनेक प्राचीन जो दूसरों के बीच बहुत लोकप्रिय हैं, स्वयं अपनी पत्नियों के बीच में लोकप्रिय नहीं हैं जो उन्हें उनके असली रूप में जानती हैं!

हम इस बात से क्यों डरते हैं कि दूसरे हमें वैसे ही देख सकें जैसे हम असल में हैं? क्या यह इसलिए नहीं क्योंकि हम उनसे बेहतर नज़र आना चाहते हैं? और जब हम अपनी निष्फलताओं का अंगीकार करते हैं, तब क्या हम सिर्फ अपने फ्पवित्र पापों" का ही अंगीकार नहीं करते, जैसे कि यह वास्तविकता कि हम पर्याप्त प्रार्थना नहीं कर रहे हैं या पर्याप्त उपवास नहीं रख रहे हैं आदि।

ऐसे अंगीकार ढोंग-दिखावा हैं और सिर्फ एक व्यक्ति की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए ही होते हैं! ऐसे सभी पाखण्डी प्राचीनों को मन फिराने की ज़रूरत है।

हमें यह भी याद रखने की ज़रूरत है कि हम हमेशा बिलकुल अपने जैसे ही बच्चे उत्पन्न करेंगे। आदम के बारे में यह लिखा है कि "उसका एक पुत्र उत्पन्न हुआ जो उसकी समानता में था" (उत्पत्ति 5:3)। हमारे लहू की धारा में ऐसी निर्बलताएं हैं जो दूसरों को तब तक नज़र नहीं आतीं जब तक कि उन्हें एक शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी-यंत्र में से न देखा जाए। लेकिन हम फिर भी उन्हें अपने बच्चों में संप्रेषित कर देते हैं।

आत्मिकता में भी ऐसा ही होता है। हमारे जीवन में निष्फलता के ऐसे क्षेत्र हो सकते हैं जिन्हें दूसरे लोग कभी नहीं देख पाते। लेकिन समय गुज़रने के साथ-साथ हम यह देख पाएंगे कि हमारे आत्मिक बच्चों में भी वही निर्बलताएं आ गई हैं।

हरेक कलीसिया अंततः अपने अगुवे जैसा ही बन जाता है। यही वजह है प्रकाशितवाक्य 2 और 3 के सभी सात पत्र पहले उन कलीसियाओं के दूतों को लिखे गए हैं, और फिर ऐसा लिखा है, "जिसके कान हों वह सुने कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है।"

अगर हम एक छुपे तौर पर बेईमान होंगे, तब अंत में हम बेईमान भाई और बहनें ही पैदा करेंगे। अगर हम एक छुपे तौर पर लालची या कंजूस होंगे, तब हमारी कलीसिया के लोग भी अंततः वैसे ही बन जाएंगे। सिर्फ वही लोग हमारी तरह नहीं होंगे जिनमें हमारी सांसारिकता को परख लेने की क्षमता होगी और जो हमारे उदाहरण का अनुसरण नहीं करेंगे।

सरदीस में पूरे हृदय से समर्पित कुछ ऐसे विश्वासी थे जो अपने अगुवे जैसे नहीं बने थे, जिन्होंने उसकी सांसारिकता को बेधकर उसके आरपार देख लिया था और उन्होंने उसके उदाहरण का अनुसरण नहीं किया था।

एक सबसे बड़ा भ्रम जिसमें हम पड़ सकते हैं, वह यह है कि हम यह कल्पना कर सकते हैं कि हम सच्ची कलीसिया का निर्माण कर रहे हैं, जबकि वास्तव में हम बेबीलोन की आत्मा से प्रेरित हो रहे होंगे - अपने लिए नाम कमा रहे होंगे।

बेबीलोन का मूल (वह झूठी कलीसिया जिसका प्रकाशितवाक्य 17 और 18 में बयान किया गया है) बाबुल की मीनार में मिलता है।

बाबुल में, लोगों ने एक-दूसरे से कहा था, "आओ, हम अपने लिए एक गगनचुम्बी मीनार बनाएं, और अपने लिए नाम कमाएं" (उत्पत्ति 11:4)। यह बेबीलोन का मूल तत्व है।

क्या परमेश्वर ने हमारे काम को बढ़ाया है? क्या प्रभु के लिए किए गए हमारे काम द्वारा हमने अपने लिए नाम कमाया है? तब हमारे हृदयों में एक ऐसी अचेत अनुभूति हो सकती है कि दूसरों ने तो विश्वासघात किया है लेकिन हम विश्वासयोग्य रहे हैं। आत्मिक मृत्यु का सबसे आसान रास्ता आत्म-प्रशंसा का रास्ता है।

नबूकदनेस्सर इसी रास्ते में गिरा था, और एक पशु-समान क्रिया-कलाप करने लगा था। दानिय्येल का अध्याय 4 पढ़ें और उस पर विचार करें, क्योंकि उसमें एक ऐसा संदेश है जिसकी हम सबको बहुत ज़रूरत है। वहाँ नबूकदनेस्सर ने अपने मन में कहा, "क्या यह महान् बाबुल नहीं जिसे मैंने स्वयं अपने बाहुबल से बनाया है?" (दानि. 4:30)। ध्यान दें कि यह उसने किसी दूसरे से नहीं कहा था। यह सिर्फ ऐसे विचार थे उसके मन में आए थे। लेकिन परमेश्वर ने उसी क्षण उसका न्याय किया, और उसे पागल कर दिया।

बीती शताब्दियों में अनेक प्रचारकों और प्राचीनों ने भी इसी तरह परमेश्वर की कृपा खो दी है। जिसके सुनने के कान हैं वह सुने - और सुनकर सचेत हो जाए कि ऐसा न हो कि उसका भी यही हाल हो।

जिस सेवक के स्वयं अपने बारे में और प्रभु के लिए अपनी सेवा के बारे में ऐसे ऊँचे विचार होते हैं, परमेश्वर उसे कैसे नम्र व दीन करता है?

वह स्वयं अपने हृदय में और अपनी कलीसिया में सांसारिकता पाएगा। वह अपने वैचारिक-जीवन और धन-के-प्रेम में स्वयं को हारी हुई दशा में देख सकेगा। कलीसिया में कुछ भाइयों के बीच मन-मुटाव होने लगेगा। कलीसिया के बहुत से लोगों के पारिवारिक जीवन बिखरने लगेंगे। अनेक वर्ष गुज़र जाने पर कलीसिया में नबूवत की आत्मा नहीं होगी। कलीसियाई सभाएं निस्तेज और नीरस होंगी। शीर्ष पर बैठे प्राचीन के अलावा कलीसिया में कोई अगुवाई विकसित न हो पाएगी!

यह सब देखने के बाद, प्राचीन को यह अहसास होने लगेगा कि अब उसमें और कलीसिया में ज़्यादा आत्मिक अंश नहीं बचा है। शायद उसकी मण्डली की संख्या बढ़ी होगी, लेकिन उसकी आत्मिक उन्नति नहीं हुई होगी। इसके विपरीत, उसमें आत्मिक मृत्यु के सारे प्रमाण मौजूद होंगे।

ज़्यादातर प्राचीन, जब वे इन सब बातों को देखते हैं, तो वे इन्हें दूसरों से छुपाते हैं और ऐसा दिखावा करते हैं कि कलीसिया में सब ठीक है। और इस तरह, उनका भी पतन होता है और वे पूरी तरह सरदीस के प्राचीन जैसे ही बन जाते हैं।

इन सब बातों की जानकारी होने के लिए हमें बहुत साल तक इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं होती। परेश्वर हमें ऐसी परख दे सकता है कि हम जल्दी ही अपने अन्दर और कलीसिया में इन बातों को देख सकते हैं। लेकिन परमेश्वर हमें यह परख तभी देगा जब हम मनुष्यों से आदर-सम्मान पाने की परवाह न करते हुए सिर्फ उसकी महिमा चाहेंगे।

हमें याद रखना चाहिए कि अगर एक कलीसिया आत्मिकता में नहीं बढ़ रही है, तो परमेश्वर उसकी संख्या की वृद्धि से प्रभावित नहीं होता।

पौलुस ने कुरिन्थुस के मसीहियों से कहा कि परमेश्वर उनकी सांसारिकता से उसे नम्र व दीन करेगा (पढ़ें 2 कुरि. 12:20,21)। पौलुस को कुरिन्थयों की सांसारिकता से लज्जित होने की क्या ज़रूरत थी?

इसलिए क्योंकि पौलुस उनका आत्मिक पिता था। और परमेश्वर आत्मिक पिताओं को उनके बच्चों की आत्मिक दशा के लिए जि़म्मेदार ठहराता है।

जब हमें अपनी मण्डली में सांसारिकता नज़र आए, तो अगुवों के रूप में परमेश्वर हमारी अपनी निष्फलता हमें दिखा रहा होता है। तब भाइयों व बहनों पर दोष लगाने की बजाय हमें अपने आपको नम्र व दीन करने की ज़रूरत होती है। जब हम अपने बच्चों में सांसारिकता देखें, तो परमेश्वर पिताओं के रूप में हमारी निष्फलता को हमें दिखा रहा होता है। अपने बच्चों पर दोष लगाने की बजाए, हमें अपने आपको नम्र व दीन करना चाहिए।

अगर हम किराए के मज़दूर होंगे, तो हम अपने भाइयों व बहनों की निष्फलताओं को देखकर उन पर दोष लगाएंगे। लेकिन अगर हम परमेश्वर के जन होंगे, तो हम अपने आपको नम्र व दीन करेंगे और कहेंगे, "प्रभु मैं निष्फल हुआ हूँ। मुझे क्षमा कर दे।"

पौलुस पर यह एक बड़ा बोझ था कि जिन मूर्तिपूजकों को वह मसीह के पास लाया था, वे ऐसे पवित्र हो जाएं कि "उन्हें एक पवित्र भेंट के रूप में परमेश्वर को अर्पित किया जा सके" (रोमि. 15:16)।

पुरानी वाचा में, याजक को लोगों द्वारा लाई गई हरेक भेंट को यह देखने के लिए जाँचना पड़ता था कि वह दोष-रहित थी या नहीं (व्य.वि. 17:1)। यह जि़म्मेदारी याजक की थी। वह परमेश्वर को ऐसी कोई भेंट नहीं चढ़ा सकता था जो किसी भी तरह दोषपूर्ण हो। (परमेश्वर की दृष्टि में यह कितना गंभीर पाप था, यह समझने के लिए मलाकी अध्याय 1 और 2 पढ़ें)।

अब नई वाचा में, प्रभु जिन्हें कलीसिया में उसकी सेवा में बुलाता है, उनका भी वही काम है। जो लोग वे परमेश्वर के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं, वे परमेश्वर को ग्रहणयोग्य होने चाहिए। इस वजह से ही पौलुस यह परिश्रम करता था कि "प्रत्येक व्यक्ति को मसीह में सिद्ध करके उपस्थित कर सके" (कुलु. 1:28)।

मसीह के न्यायासन के सामने सब कुछ प्रकट हो जाएगा। अगर सब लोग यह समझें कि हम परमेश्वर के लिए बड़ा काम कर रहे हैं लेकिन उस दिन यह नज़र आए कि हमारा परिश्रम सतही और शारीरिक था तो हमें क्या लाभ होगा? सरदीस का प्राचीन मूर्ख था जो मनुष्यों द्वारा मिलने वाले सम्मान से संतुष्ट हो गया था।

क्या हम अपने बच्चों द्वारा अपने लिए नाम कमाना चाहते हैं? यह हो सकता है कि उनके साथ सब भला हो रहा हो। इसके लिए प्रभु की स्तुति हो। लेकिन क्या हम चाहते हैं कि दूसरे भी यह देखें, कि फिर इसमें से कुछ महिमा हमें भी मिल सके? क्या हम चाहते हैं कि दूसरे यह जानें कि हम कितने अच्छे पिता साबित हुए हैं? क्या हम अपने बच्चों को अपनी महिमा के लिए पाल रहे हैं या परमेश्वर की?

यक़ीनन, हम सभी यह चाहते हैं कि हमारे बच्चे पूरे हृदय से समर्पित मसीही हों। लेकिन अगर परमेश्वर यह देख रहा है, तब क्या यही काफी नहीं है? और अगर परमेश्वर ने यह देख लिया है, तो हमें किसी मनुष्य के समर्थन की क्या ज़रूरत है?

इससे क्या फ़र्क पड़ता है अगर दूसरे लोग यह सोचते हैं कि हमारे बच्चे सांसारिक हैं? अंत में हमें सिर्फ परमेश्वर को ही जवाब देना है।

और यह भी अच्छा है कि हमारी कलीसिया में हम अपने काम का एक सही मूल्यांकन करें।

शरीर में यह तीव्र लालसा होती है कि वह दूसरों के सामने अपनी मेहनत का फल प्रदर्शित करे। अगर हम इस लालसा को मृत्यु के हवाले नहीं करेंगे, तो शैतान हमेशा हमसे फायदा उठाएगा। शैतान जहाँ भी किसी प्राचीन के हृदय में अपने लिए नाम कमाने की मामूली सी भी लालसा देखेगा, तो वह उससे फायदा उठाएगा, और अगर वह शिष्यता, पवित्रता और मसीह की देह के बारे में भी प्रचार कर रहा होगा, तब भी वह उसे भरमाएगा।

ऐसा प्राचीन सिर्फ बेबीलोन की एक शाखा-कलीसिया ही बनाएगा!

अगर हम अपने लिए नाम कमाना चाह रहे हैं, तो मसीह की देह का निर्माण करना असम्भव होगा। नई वाचा की कलीसिया का निर्माण सिर्फ वही कर सकता है जिसमें मनुष्यों के बीच में नाम कमाने या ख्याति पाने की कोई अभिलाषा नहीं है।

अगर बहुत सालों के परिश्रम के बाद आपकी कलीसिया में पूरे हृदय से समर्पित सिर्फ तीन ही लोग हैं, क्योंकि आपने संकरे फाटक को सूई के छेद से बड़ा बनाने से इनकार किया है, तो इसमें आपको लज्जित होने की कोई ज़रूरत नहीं है। एक दिन परमेश्वर आपसे कहेगा, "शाबाश, मेरे अच्छे और विश्वासयोग्य दास।"

जिनके द्वारा प्रभु का नाम बदनाम होता हो, ऐसे 3,000 (पाप से) समझौता करने वाले लोगों की अपेक्षा एक नगर में ऐसे तीन शिष्य होना ही काफी है जो मसीह के लिए एक शुद्ध साक्षी हैं।

लेकिन जब हमारी संख्या कम होती है, तो दूसरों को अच्छे आँकड़ों से प्रभावित करने के लिए हम अपने मापदण्डों को नीचा करने की बड़ी परीक्षा में पड़ सकते हैं। अगर हम इस लालसा से संघर्ष नहीं करेंगे, तो हमारा अंत भी सरदीस के प्राचीन की तरह ही होगा।

लेकिन मैं यहाँ उन अगुवों के लिए एक चेतावनी का शब्द भी जोड़ना चाह रहा हूँ। जो इन शब्दों में से एक झूठी तसल्ली पा सकते हैं।

आपकी कलीसिया की संख्या के न बढ़ने का एक कारण यह भी हो सकता है कि शायद परमेश्वर ही आपकी मण्डली की सिफारिश दूसरे ज़रूरतमंद लोगों से न कर पा रहा हो।

प्रभु है जो कलीसिया में लोगों को जोड़ता है (प्रेरितों. 2:47)। और शुरूआती दिनों में उसने कलीसिया में बड़ी संख्या में लोगों को जोड़ा था (प्रेरितों. 6:7)।

आपके लिए कुछ इस तरह की प्रार्थना करना अच्छा रहेगाः

"प्रभु हम तुझसे यह प्रार्थना नहीं कर रहे हैं कि तू हमारी कलीसिया में समझौता करने वाले लोगों की भीड़ भर दे। लेकिन हम इस शहर में उन सभी लोगों के लिए प्रार्थना करते हैं जो एक ईश्वरीय भक्ति का जीवन जीना चाहते हैं।"

"प्रभु, इन तीनों में से एक काम करः

(1) हमें उनके पास पहुँचा दे; या

(2) उन्हें हमारे पास पहुँचा दे; या

(3) उनसे तू हमारी सिफारिश क्यों नहीं कर सकता, यह हमें दिखा।"

प्रभु आपको बता सकता है कि वह दूसरे लोगों से आपकी कलीसिया की सिफारिश इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि आपकी कलीसिया बहुत विधिवादी, ठण्डी और फरीसीवादी है! वह आपको यह भी बता सकता है कि आपकी कलीसिया के ऐसा होने का कारण यह है कि एक प्राचीन के रूप में आप स्वयं ऐसे हैं!

तब आप सिर्फ एक काम कर सकते हैं कि आप शोक मनाएं और मन फिराएं।

अगर हम अपनी सेवकाई मनुष्यों का सम्मान और समर्थन पाने से मुक्त होना चाहते हैं, तो इसका सिर्फ यही तरीक़ा है कि हम मसीह के साथ एक दुल्हन का रिश्ता बनाएं। सुलेमान के श्रेष्ठगीत में, दुल्हन अपने जीवन और काम को ऐसी बारी कहती है जो सिर्फ उसके दूल्हे के लिए ही फलवंत होती है (श्रेष्ठ. 4:16 बी)। जब हमारा लक्ष्य सिर्फ हमारे स्वर्गीय दूल्हे को प्रसन्न करना होता है, तो हमारा हृदय हर समय एक विश्राम की दशा में रहेगा।

हम यह जानते हुए संतुष्ट रहेंगे कि हमारे प्रभु ने हमें वैसा ही स्वीकार किया है जैसे हम हैं - हमारी सारी कमज़ोरियों के साथ। हमें यह समझ आ जाएगा कि वह यह अपेक्षा नहीं करता कि हमारी सेवकाई किसी दूसरे की सेवकाई जैसी हो। इस तरह हम प्रतियोगिता की उस आत्मा से मुक्त हो जाएंगे जो सारे मसीही जगत में भरी हुई है। तब हम इस लालसा से भी मुक्त हो जाएंगे कि हम दूसरे लोगों को अपने काम के परिणाम दिखाएं।

प्रभु ने हमें वह दान-वरदान दिए हैं जो मसीह की देह में हमारे विशिष्ट योगदान के लिए ज़रूरी हैं, और उसने हमें पूरा करने के लिए एक ख़ास काम दिया है। हमें उसकी कृपा और सामर्थ्य द्वारा इस काम को हमारी सर्वश्रेष्ठ क्षमता के अनुसार पूरा करना है। हमारी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं होनी चाहिए कि दूसरे लोग यह जाने कि हम प्रभु के लिए क्या कर रहे हैं - बिलकुल वैसे ही जैसे एक दुल्हन यह नहीं चाहती कि कोई उन बातों के बारे में जाने जो वह गुप्त रूप में अपने दूल्हे के लिए करना चाहती है!

इसलिए, हम अपने प्रभु के साथ अपना दुल्हन का रिश्ता बनाएं, वर्ना हमारा अंत भी सरदीस के प्राचीन की तरह हो सकता है।

लौदीकिया - अपनी दुष्टता से अनजान कलीसिया

प्रभु ने लौदीकिया की कलीसिया के प्राचीन को अनेक कारणों से बहुत कठोरता से डाँटा।

वह यह सोचता था कि वह बहुत धनवान है और उसे किसी वस्तु की कमी नहीं है। धनवान होना सिर्फ धन से ही जुड़ी हुई बात नहीं है। एक व्यक्ति ज्ञान, क्षमताओं और योग्यताओं में भी धनवान हो सकता है - और इस तरह वह अपने आपको आत्म-निर्भर समझ सकता है।

जो लोग बुद्धिमान, बोलने में कुशल और सक्षम हैं, उन्हें भय में चलने की ज़रूरत होती है क्योंकि वे लगातार इस ख़तरे में रहते हैं कि वे इन योग्यताओं पर गर्व करने लगें और प्रभु से ज़्यादा इन पर निर्भर हो जाएं।

इस कलीसिया का प्राचीन उसके बाइबल के ज्ञान, उसके दान-वरदानों, उसकी उपलब्धियों और उसके प्राचीन पद से संतुष्ट था। लेकिन वह यह नहीं जानता था कि परमेश्वर की नज़रों में आत्मिक तौर पर अभी भी "अभागा, तुच्छ, दरिद्र, अंधा और नंगा" (प्रका. 3:17)। यह वास्तव में एक दुःखद बात होती है जब हम अपनी उस असली आत्मिक दशा से अनजान होते हैं जिसमें परमेश्वर हमें देख रहा होता है।

जबकि यह प्राचीन भाई इस वास्तविकता से पूरी तरह अनजान था कि वह एक अभागा मनुष्य था, वहीं हम प्रेरित पौलुस जैसे ईश्वरीय पुरुष को देखते हैं जो यह कहता है, फ्मैं कैसा अभागा मनुष्य हूँ" (रोमि. 7:14)।

ऐसा कैसे हुआ कि पौलुस ने तो उसके अभागेपन को जान लिया था, लेकिन लौदीकिया का प्राचीन उसके अभागेपन को नहीं जान पाया था? क्योंकि पौलुस परमेश्वर के सम्मुख रहता था जबकि लौदीकिया का प्राचीन परमेश्वर के सम्मुख नहीं रहता था। परमेश्वर की ज्योति में, पौलुस को लगातार यह अहसास रहता था कि उसका शरीर भ्रष्ट था (रोमि. 7:18)। इस तरह, पौलुस आत्मा में लगातार दीन बना रहकर एक ईश्वरीय पुरुष बन गया था। लेकिन लौदीकिया का प्राचीन क्योंकि अपने शरीर की भ्रष्टता को नहीं देख पा रहा था, इसलिए वह सांसारिक और गुनगुना बन गया था।

अगर परमेश्वर का एक सेवक परमेश्वर के सम्मुख नहीं रहेगा, तो आत्म-तुष्टि और आत्म-निर्भरता बहुत आसानी से उसके जीवन में प्रवेश पा लेंगे - क्योंकि वह अपनी स्वयं की ज़रूरत को नहीं देख पाएगा। और इसका प्रमाण उसके बोलने और प्रचार करने के तरीक़े में देखा जा सकेगा। एक ज़रूरतमंद व्यक्ति के बोलने का तरीक़ा, और एक आत्म-निर्भर व्यक्ति के बोलने का तरीक़ा बहुत अलग होता है।

ऐसे योग्य प्रचारक हैं जिनकी अच्छी बोली है, जो कुशल वक्ता हैं, और जो मसीही धर्म के सिद्धान्त बहुत अच्छी तरह जानते हैं। लेकिन उनके बोलते समय जब आप उनकी आत्मा की आवाज़ सुनते हैं, तो उसमें आप एक अहंकार को महसूस कर पाएंगे। वे निष्णातों की तरह बोलते हैं, ऐसे लोगों की तरह नहीं जो ख़ुद ग़रीब और ज़रूरतमंद हैं।

मसीह की देह ऐसे लोगों द्वारा तैयार नहीं की जा सकती जिनमें एक सशक्त, अहंकारी आत्मा होती है, बल्कि वह सिर्फ ऐसे पुरुषों द्वारा तैयार की जाती है जिनमें एक नम्र और कोमल आत्मा होती है।

एक अहंकारी प्रचारक के लिए उसके प्रचारों में लोगों पर कोड़े बरसाना आसान होता है! तब वह ऐसा सेवक बन जाता है जिसके बारे में यीशु ने बताया था, जिसके स्वामी ने उसे नियुक्त किया था कि वह उसके अन्य सेवकों को सही समय पर भोजन-सामग्री दिया करे (लूका 12:45)। लेकिन सही समय पर उन्हें भोजन देने की बजाय वह उन्हें कोड़े मारने लगा! दुर्भाग्यवश, आज मसीही पुलपिटों से बहुत कोड़े बरसाए जाते हैं। कोड़े मारने से कोई भी व्यक्ति ईश्वरीय भक्ति के जीवन की तरफ नहीं मुड़ सकता बल्कि यह उसमें सिर्फ दोष की भावनाएं पैदा करेगा, और उन्हें कोड़े मारने वाले प्रचारक का गुलाम ही बनाएगा।

इस बात पर विचार करें कि एक निर्धन और असहाय भिखारी किसी से कैसे बात करता है। उसका बोलना हमेशा दीनता और आदर के साथ होता है - क्योंकि वह जानता है कि वह इस जगत में कुछ भी नहीं है। बाइबल हमें सभी मनुष्यों से इसी तरह बोलना सिखाती है - क्योंकि हम भी इस जगत में कुछ भी नहीं हैं (1 पत. 3:15)। दूसरी तरफ, एक तानाशाह कैसे बोलता है? वह हमेशा अहंकार से बोलता है।

क्या हमारी बोली आत्मा की दीनता में से आती है, या अहंकार में से आती है?

1 पत. 2:17 हमें आज्ञा देता है कि हम "सब मनुष्यों का आदर करें।" क्या कोई ऐसा मनुष्य है जिसे इस आज्ञा में से बाहर रखा गया है? नहीं।

एक भाई जो बोलने में कुशल नहीं है, और जो वचन के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जानता, लेकिन जिसमें एक दीन व कोमल आत्मा है, वह मसीह की देह का निर्माण उस भाई से ज़्यादा कर पाएगा जिसके पास दान-वरदान हैं और जो बोलने में कुशल है।

योग्य और कुशल भाई पृथ्वी पर ज़्यादा आत्मिक भाई के रूप में नज़र आ सकता है, और दूसरे लोग उसे कलीसिया के लिए बड़ी धरोहर भी मान सकते हैं, लेकिन मसीह के न्यायासन के सम्मुख यह देखा जा सकेगा कि असल में उस नम्र व दीन भाई ने ही मसीह की देह का निर्माण किया था।

यह बात हमें एक अनिवार्य रूप में समझ लेनी चाहिए कि मसीह की देह का निर्माण बाइबल के ज्ञान और आत्मिक दान-वरदानों से नहीं बल्कि मुख्य रूप से हमारे जीवन के द्वारा होता है।

परमेश्वर के राज्य का निर्माण सिर्फ वही कर सकते हैं जो मन में दीन हैं (मत्ती 5:3)। और मन में निरंतर दीन बने रहने का (अपनी आत्मिक ज़रूरत को जानने का) सिर्फ एक ही तरीक़ा हैः निरंतर यीशु की ओर देखते रहना।

जब हम अपने आपको उसकी ज्योति में देखते हैं, तब चाहे हम अपने आसपास के दूसरे लोगों से बेहतर भी क्यों न नज़र आते हों, हमें यह समझ आ जाता है कि हम उससे कितने भिन्न हैं। उसकी ज्योति में, हमें दूसरों की नहीं सिर्फ अपनी ही निर्बलताएं नज़र नहीं आएंगी। और हम एकाएक बोल उठेंगे, "ओह, मैं कैसा अभागा मनुष्य हूँ!" (रोमि. 7:24)। तब यह कहने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति को हमें प्रेरित करने की ज़रूरत नहीं रहेगी।

लेकिन हमें उस दशा में हमेशा बना रहना चाहिए, वर्ना हम आसानी से गुनगुनेपन, सांसारिकता और अहंकार-भरे घमण्ड के उस गहरे गड्ढे में गिर पड़ेंगे जिसमें लौदीकिया का प्राचीन गिरा हुआ था।

पुरानी वाचा में, महायाजक वर्ष में सिर्फ एक बार महापवित्र-स्थान में जा सकता था। वह वर्ष में सिर्फ एक ही बार परमेश्वर की महिमा को, और उस महिमा में अपने अभागेपन को देख सकता था। लेकिन अब जबकि यीशु द्वारा नया और जीवित मार्ग खोला जा चुका है (इब्रा. 10:20), इसलिए अब हम महापवित्र स्थान में - परमेश्वर की उपस्थिति में हर समय रह सकते हैं, और पौलुस की तरह, हम भी अपने अभागेपन को हर समय देख सकते हैं।

जब यशायाह ने उस महिमा को देखा तो वह पुकार उठा, "मुझ पर हाय, मैं तो नाश हुआ" (यशा. 6:5)। लेकिन अब हमारे पास यह विशेषाधिकार है कि हम निरंतर यह प्रकाशन पाते रहें। अब दूसरों को धिक्कारने की बजाय हम लगातार यह बात अपने लिए कह सकते हैं, "मुझ पर हाय।" जो आत्मा में रहते हैं, वे लगातार अपनी ज़रूरत को देखते रहेंगे और हर समय आत्मा में दीन बने रहेंगे।

सिर्फ एक ऐसा मनुष्य ही परमेश्वर की दृष्टि में आत्मिक तौर पर धनवान होता है जो हर समय आत्मा में दीन-हीन रहता है। और जब एक ऐसा व्यक्ति हमसे बात करता है, चाहे व्यक्तिगत बातचीत में या एक सभा में, तो हम उसके आत्मिक धन में से पा सकते हैं।

एक ऐसा प्रचारक जो अच्छा वक्ता तो है लेकिन मन में दीन नहीं है, वह हमें धन के सिर्फ चित्र दिखा सकता है। वह हमें वास्तव में धनवान नहीं बना सकता।

हमारी मण्डली में हमें सबसे ज़्यादा दान-वरदान पाए योग्य लोगों को नहीं, बल्कि मन में दीन लोगों को सेवकाई के प्रमुख स्थान देने चाहिए। दान-वरदान पाए ऐसे योग्य भाई जो आत्मा में दीन नहीं हैं, कलीसिया का नाश कर सकते हैं।

कलीसिया व्यभिचारियों और चोरों द्वारा नाश नहीं की जा सकती - क्योंकि ये लोग पापियों के रूप में सबके सामने होते हैं और सभी उन्हें पापियों के रूप में जान सकते हैं। लेकिन वाक्पटु प्रचारक और दान-वरदान पाए शिक्षक कलीसिया का नाश कर सकते हैं, क्योंकि लौदीकिया के प्राचीन की तरह, उन्हें अपनी ज़रूरत का कोई अहसास नहीं होता लेकिन फिर भी वे पवित्रता का प्रचार करते हैं।

अगर हम ऐसे लोगों के बीच फर्क़ नहीं जान सकते जो मन में दीन हैं और जो मन में अहंकारी हैं, तो इसका कारण यह हो सकता है कि हम स्वयं मन में दीन नहीं हैं। प्राचीन होते हुए, अगर हम पहले अपनी ज़रूरत को नहीं देखेंगे तो हम दूसरों की मदद कैसे कर सकेंगे कि वे उनके ज़रूरत को देख सकें?

अगर हमें प्रभु के लिए अपनी कलीसिया को शुद्ध रखना है, तो यह हमारी कितनी बड़ी ज़रूरत है कि हम परमेश्वर से प्रार्थना करें कि पहले वह हम पर अपनी ज्योति डाले कि हम स्वयं को देख सकें।

प्रभु को प्रत्यक्ष सुनना:

यह एक दुःखद बात है कि ये पाँच प्राचीन इतने बहरे थे कि वे प्रभु को उनसे प्रत्यक्ष बात करते हुए सुन नहीं सकते थे। प्रभु ने अपने शिष्य प्रेरित यूहन्ना को इसके लिए सचेत किया था। नई वाचा के युग में ऐसा करना ज़रूरी क्यों हुआ? ऐसा सिर्फ पुरानी वाचा में ही था कि लोगों को परमेश्वर का संदेश एक नबी द्वारा मिलता था। अगर ये प्राचीन भाई नम्र व दीन व परमेश्वर का भय मानने वाले होते तो यूहन्ना को उनके लिए संदेश नहीं लिखना पड़ता बल्कि वे स्वयं प्रत्यक्ष रूप में परमेश्वर का वचन सुन लेते।

और जब इन प्राचीनों ने यूहन्ना से पत्र प्राप्त किया, तो हम नहीं जानते कि उन्होंने मन फिराया या नहीं। हम सिर्फ ऐसी आशा कर सकते हैं। मैं सोचता हूँ कि क्या उसके बाद थूआतीरा के प्राचीन ने अपनी पत्नी से यह कहा होगा कि वह अपने काम से काम रखे और कलीसिया के मामलों में हस्तक्षेप न करे। या उसने अपने पति से कहा होगा कि वह यूहन्ना के पत्र की परवाह न करे?

अगर इन पाँच प्राचीनों ने यूहन्ना द्वारा प्रभु की डाँट को स्वीकार कर लिया था, तो बाद में उनके साथ यक़ीनन भला ही हुआ होगा।

लेकिन हम यह जानते हैं कि एक दूसरी कलीसिया में कम-से-कम एक प्राचीन ने यूहन्ना के लिखे शब्द को स्वीकार नहीं किया था। यूहन्ना ने 3 यूहन्ना में दियुत्रिफेस के बारे में लिखा है जो कलीसिया में अपने प्राचीन पद से बहुत प्रेम करता था, और उसने यूहन्ना की ताड़ना को स्वीकार नहीं किया था (3 यूह. 9)।

अगर हमें प्रभु की सेवा करनी हैं, तो हमें अपने आपको हर समय ऐसे ही देखना होगा जैसे प्रभु हमें देखता है - ऐसे नहीं जैसे हमारे भाई हमें देखते हैं। अगर हम लगातार परमेश्वर के सम्मुख रहें और उसके आत्मा की आवाज़ को सुनें - चाहे तब जब वह हमसे सीधे तौर पर बात करता है या तब जब वह किसी भाई के द्वारा बात करता है - तो परमेश्वर का वचन हमें हरेक आत्मिक ख़तरे से बचा सकता है।

अंत में, हमें यह याद रखना है कि प्रभु हमारी पिछली ग़लतियों के लिए दोषी ठहराने के लिए हमें कभी नहीं डाँटता, बल्कि इसलिए क्योंकि वह हमें एक बेहतर भविष्य देना चाहता है।

अध्याय 4
दूसरों के अनुसरण के लिए एक उदाहरण

पुरानी वाचा में यूहन्ना बपतिस्मा से बड़ा नबी कोई नहीं था। लेकिन यीशु ने कहा कि नई वाचा में जो सबसे छोटा है, वह भी यूहन्ना बपतिस्मा से बड़ी ऊँचाइयों पर पहुँच सकता है (मत्ती 11:11)। यह वास्तव में एक अद्भुत बुलाहट है - यूहन्ना बपतिस्मा से भी बड़ा होना।

नई वाचा की सेवकाई की बुलाहट उस बुलाहट से बहुत ऊँची है जो पुरानी वाचा की बुलाहट है। ऐसी बहुत सी बातें हैं जिन्हें हम पुरानी वाचा के मूसा, एलिय्याह, और यूहन्ना बपतिस्मा जैसे परमेश्वर के सेवकों के जीवनों में से सीख सकते हैं। लेकिन उन्होंने आज्ञाओं का अनुसरण करते हुए परमेश्वर की सेवा की थी, जबकि हमें एक उदाहरण का अनुसरण करते हुए परमेश्वर की सेवा करनी है।

परमेश्वर का सेवक होना क्या होता है, उसमें यीशु अब हमारा उदाहरण है। यीशु हमारा महायाजक कैसे बना है? अपनी चमत्कारिक सेवकाई द्वारा नहीं, बल्कि "सब बातों में अपने भाइयों के समान" बनने (इब्रा. 2:17) और हमारे लिए एक उदाहरण बनने द्वारा।

यीशु ने कहा कि पिता ने उसे फ्सारी मानव जाति पर अधिकार दिया है" (यूहन्ना 17:2)। उसे यह अधिकार क्यों दिया गया था? उसी पद में यीशु ने बताया कि इसका उद्देश्य यह था कि "जिन्हें पिता ने उसे दिया था, वह उन सबको अनन्त दे।" अनन्त जीवन का अर्थ वह जीवन नहीं है जो कभी ख़त्म नहीं होता, बल्कि अर्थ "एक ऐसा जीवन है जिसका न कोई आरम्भ है और न कोई अंत है।" दूसरे शब्दों में, यह परमेश्वर के जीवन या उसके स्वभाव का बयान करता है।

मूसा, यहोशू, शिमशौन, दाऊद आदि, जैसे पुरानी वाचा के परमेश्वर के सेवकों के पास इस्राएल पर राज करने का और उनके मानवीय शत्रुओं पर जय पाने का अधिकार था। लेकिन नई वाचा में, परमेश्वर के सेवकों को यह अधिकार दिया गया है कि वे दूसरों की अगुवाई करते हुए उन्हें ईश्वरीय स्वभाव (अनन्त जीवन) में सहभागी होने, और उनके शरीर में वासनाओं पर जय पाने योग्य बनाएं।

कलीसिया में हमारा अधिकार भाइयों व बहनों को यीशु-जैसा बनने में अगुवाई करना है जिसने उसके पाथिर्व जीवन की हरेक परिस्थिति में ईश्वरीय स्वभाव प्रदर्शित किया था। इसके अलावा हमारे पास कोई अधिकार नहीं है। अगर हम दूसरों की अगुवाई करते हुए उन्हें ईश्वरीय स्वभाव में सहभागी होने वाला नहीं बना रहे हैं, तो हमें अपने आपको निष्फल मान लेना चाहिए।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज बहुत से मसीही अगुवे परमेश्वर के पुरानी वाचा के सेवकों जैसे हैं जो लोगों पर राज कर रहे हैं। लेकिन यीशु और उसके प्रेरित सब मनुष्यों के सेवक थे।

हम कौन सी वाचा की अधीनता में अपने जीवन व्यतीत कर रहे हैं - पुरानी या नई ?

यीशु को हमारा अग्रदूत कहा गया है (इब्रा. 6:20)। वह हमारे आगे/हमसे पहले उसी रास्ते से होकर गुज़रा है जिसमें से हमें गुज़रना है। हमें इस बात के लिए उत्साहित किया गया है कि "जिस दौड़ में हमें दौड़ना है, उसमें हम यीशु पर अपनी दृष्टि लगाए रहें... जिसने क्रूस का दुःख सहा" (इब्रा. 12:1,2)। "वह सब बातों में हमारे ही समान परखा गया, फिर भी निष्पाप निकला" (इब्रा. 4:15), जिससे कि हम "उसके पदचिन्हों पर चलें जिसने कोई पाप नहीं किया" (1 पत. 2:21,22)।

यीशु ने ऐसी हरेक परीक्षा का सामना किया है जो हमारे सामने आती हैं जिससे कि वह हमारे अनुसरण के लिए एक उदाहरण बन सके। इस वजह से ही उसका शब्द इतना सामर्थी है जब वह यह कहता है, "मेरे पीछे चलो।" अब, परमेश्वर के झुण्ड के चरवाहे होते हुए, हमें भी उसके झुण्ड की चरवाही इसी रास्ते में करनी है। हमें भी दूसरों से यह कहने योग्य होने चाहिए जो पौलुस ने कहा, "मेरे पीछे चलो, जैसे मैं मसीह के पीछे चलता हूँ... मेरे उदाहरण का अनुसरण करो" (1 कुरि. 11:1; फिलि. 3:17)।

अनेक प्रचारक यह कहते हैं, "मेरे पीछे मत चलो, यीशु के पीछे चलो।" यह कथन एक बहुत नम्रता व दीनता से भरी बात लगती है, और हम इससे बहुत प्रभावित हो सकते हैं। लेकिन यह बात वचन के अनुसार नहीं है, क्योंकि किसी भी प्रेरित ने ऐसा कभी नहीं कहा था। उन्होंने हमेशा दूसरों को उनका वैसे ही अनुसरण करने के लिए कहा था जैसे वे मसीह का अनुसरण करते थे।

यीशु परमेश्वर के झुण्ड का प्रधान चरवाहा है, और हम उस झुण्ड के गौण-चरवाहे हैं। वैसे ही, यीशु अग्रदूत है, और हमें भी कलीसिया में दूसरे लोगों के छोटे-अग्रदूत होने के लिए बुलाया गया है। हमें भी उसी रास्ते से जाना है जिस रास्ते से वह गया है। जब हम स्वयं जय पाने वाले बनते हैं, तभी हम दूसरों को उत्साहित करते हुए कह सकते हैं कि "वे भी वैसे ही जय पाएं जैसे हमने जय पाई है" (प्रका. 3:21)।

नई वाचा की सेवकाई का रहस्य:

पौलुस अपनी प्रभावशाली सेवकाई के रहस्य को इन शब्दों में प्रकट करता है, "परमेश्वर हमारे सब क्लेशों में हमें शांति देता है कि हम भी उनको जो क्लेश में हैं वैसी ही शांति दे सकें जैसी परमेश्वर ने स्वयं हमें दी है" (2 कुरि. 1:4)।

पौलुस को उसकी आत्मिक शिक्षा ग्रहण करने के लिए अनेक पीड़ादायक क्लेशों में से गुज़रना पड़ा था। सिर्फ इस तरह ही वह दूसरों में वह शांति पहुँचा सका जैसी उसने स्वयं उसकी पीड़ाओं में से गुज़रते समय पाई थी। ऐसी शिक्षा के बिना कोई भी नई वाचा का सेवक नहीं हो सकता।

पुरानी वाचा के अभिषिक्त शिमशौन और नई वाचा के अभिषिक्त पौलुस में बहुत बड़ा फ़र्क है। शिमशौन के अन्दर पवित्र-आत्मा की वह शक्ति थी जो सिर्फ बाहरी शेरों पर जय पाने के लिए थी। लेकिन पौलुस के अन्दर पवित्र-आत्मा की वह शक्ति थी जो हमारे शरीर में बसने वाले शेरों पर जय पाने के लिए थी - जिन पर शिमशौन जयवंत नहीं हो सकता था।

पुरानी वाचा में, परमेश्वर के सेवक परमेश्वर की उपस्थिति में खड़े होते थे, जो परमेश्वर को कहना होता था वे उस बात को सुनते थे, और फिर वे लोगों को वह बात बताते थे जो वह सुनते थे। लेकिन नई वाचा में यह पर्याप्त नहीं है। अब परमेश्वर के सेवकों को परीक्षाओं और पीड़ाओं में गुज़रते हुए परमेश्वर की उस कृपा का अनुभव पाना है जो उन सभी परीक्षाओं में उन्हें जय पाने में मदद करता है, और फिर उन्हें दूसरों को उत्साहित करना है कि वे उनके स्वयं के उदाहरण का अनुसरण करें। इस तरह नई वाचा की सेवकाई पुरानी वाचा की सेवकाई से बहुत बढ़कर है - और क़ीमती भी (जिसमें भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है)।

हम किसी बाइबल कॉलेज में जाने द्वारा परमेश्वर के सेवक नहीं बन सकते। बाइबल का कोई भी सच्चा प्रेरित या नबी किसी बाइबल कॉलेज में से तैयार होकर नहीं निकला था। हम बाइबल का अध्ययन एक कक्ष (क्लासरूम) में आराम से बैठकर नहीं कर सकते। पवित्र-आत्मा पवित्र-शास्त्र के अर्थ को हमें जीवन की परिस्थितियों के बीच में सिखाता है। प्रेरितों ने वह इसी तरह सीखा था। और परमेश्वर के सेवक आज भी वह इसी तरह सीखते हैं। सिर्फ इस तरह ही हम दूसरों की अगुवाई करते हुए उन्हें अनन्त जीवन में से पाने (खाने) वाले बना सकते हैं। हम यीशु के पीछे चलने द्वारा ही नई वाचा के सेवक बन सकते हैं।

पुरानी वाचा में, लोगों के लिए सिद्धता की तरफ बढ़ना सम्भव नहीं था। लेकिन नई वाचा में हम ऐसा कर सकते हैं (देखें इब्रा. 6:1; 7:19 भी)।

लेकिन अगर हम स्वयं सिद्धता की ओर नहीं बढ़ रहे होंगे, तो हम दूसरों की भी सिद्धता में अगुवाई नहीं कर सकेंगे। अगर हम "परमेश्वर के भय में पवित्रता को सिद्ध करते हुए, देह और आत्मा की सब अशुद्धता से अपने आपको शुद्ध करेंगे" (2 कुरि. 7:1), और "अपने आपको वैसा ही पवित्र करेंगे जैसे यीशु पवित्र है", सिर्फ तभी हम दूसरों की ऐसे जीवन में अगुवाई कर सकेंगे। इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता/तरीक़ा नहीं है।

हमें दूसरों के लिए छोटे-अग्रदूत बनना पड़ेगा। यही वजह है कि परमेश्वर हमें अलग-अलग और हमें परखने वाले हालातों में से लेकर निकालता है- हमारी कलीसियाओं के सभी विश्वासियों से बढ़कर हमें इन हालातों में से गुज़रना पड़ता है। क्योंकि सिर्फ इस तरह ही हम उन सबके लिए सच्चे चरवाहे हो सकते हैं। वर्ना हम किराए के मज़दूर होंगे, ऐसे लोग जो सिर्फ अपने ही स्वार्थ की खोज में रहते हैं - चाहे धन की या मनुष्यों से सम्मान पाने की।

इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें उन सारे हालातों का सामना करने की ज़रूरत होगी जिनका सामना हमारी कलीसिया के दूसरे लोग करते हैं। यह तो असम्भव है। यीशु हमारे सभी हालातों का सामना करने द्वारा हमारा अग्रदूत नहीं बना है, बल्कि वह उन परीक्षाओं/प्रलोभनों में परखे जाने द्वारा हमारा अग्रदूत बना है जिनका हम सामना करते हैं (इब्रा. 4:15)। यीशु का एक शराबी पिता, या कुड़कुड़ करने वाली पत्नी, या आज्ञा न मानने वाले बच्चे नहीं थे जैसे हममें से कुछ लोगों के हैं। और आज जैसे हमें यह करना पड़ता है, वैसे यीशु को किसी तरह का कोई अनुमति-पत्र (लाइसेंस) पाने के लिए सरकारी कार्यालयों के आगे घण्टों इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। फिर भी वह हमारा अग्रदूत था क्योंकि उसनें अपने समय के अलग हालातों में उन सभी परीक्षाओं/प्रलोभनों का सामना किया था जिनका आज हम सामना करते हैं। परमेश्वर को हमें उन सभी परीक्षाओं व प्रलोभनों में से होकर गुज़रना पड़ता है जिनका सामना हमारे भाई बहन करते हैं। लेकिन अगर हमें उनका सेवक होना है, और अगर हमें अनन्त जीवन में सहभागी होने में उनकी अगुवाई करनी है, तो उन सभी परीक्षाओं व प्रलोभनों में हमें जय पाने वाला होना चाहिए। हम इस तरह नई वाचा के सेवक बनते हैं।

पतरस ने प्राचीनों को लिखा, "अपने झुण्ड के लिए आदर्श बनो" (1 पत. 5:3)। और पौलुस ने (1 तीमु. 4:12 में) तीमुथियुस को लिखा, कि उसे उसकी "बोली, प्रेम, विश्वास और पवित्रता में विश्वासियों के लिए आदर्श बनना है।"

सबसे पहले, हमें प्रेम में उदाहरण बनना है। दूसरों को यह नज़र आना चाहिए कि वे हमसे चाहे जो भी कहें या करें, उनके प्रति हमारा प्रेम कभी नहीं बदलता।

हमें विश्वास में उदाहरण बनना है। हमें परखने वाले जिन हालातों का हम सामना करते हैं, लोगों को उनमें यह नज़र आना चाहिए कि हम उनमें हड़बड़ी कर डर नहीं जाते बल्कि हमेशा हम यह पूरा भरोसा रखते हैं कि परमेश्वर इस योग्य है कि वह हमें उनमें से लेकर गुज़र जाएगा।

हमें शुद्धता में उदाहरण बनना है। अगर हम स्वयं अपने सम्बंधों में शुद्धता के एक उत्कृष्ट उदाहरण नहीं बनेंगे, तो हम अपनी कलीसिया में भाइयों व बहनों के आपसी सम्बंधों में भी शुद्धता की अपेक्षा नहीं रख सकेंगे।

मसीह का बंधुवा मज़दूर:

पौलुस ने अपने आपको मसीह का बंधुवा मज़दूर कहा (रोमि. 1:1)। सभी आरम्भिक प्रेरित यही थे। आज यीशु सेवकों की नहीं बंधुवा-मज़दूरों की खोज में है। एक सेवक और एक बंधुवा-मज़दूर (दास) में फ़र्क होता है। एक सेवक वेतन के लिए काम करता है। एक बंधुवा-मज़दूर को कोई वेतन नहीं मिलता। नई वाचा में परमेश्वर के कोई सेवक नहीं हैं, सिर्फ बंधुवा-मज़दूर हैं।

यीशु ने जिन्हें उसके प्रेरित होने के लिए बुलाया था, उसने उन्हें कोई वेतन देने का वादा नहीं किया था। अगर हमें पूर्ण-कालिक मसीही काम के लिए बुलाया गया है, तो हम यह सुनिश्चित करें कि हम वेतन के लिए कभी काम नहीं करेंगे वर्ना अंततः हम मनुष्यों के सेवक बन जाएंगे। लोग हमें भेंट/उपहार देंगे, इस अपेक्षा से हम अपनी कलीसियाओं की सेवा न करें। अगर वे ऐसा करने का चुनाव करते हैं, जिसमें हमने उनसे ऐसी कोई अपेक्षा न रखी हो, तो इसमें कोई बुराई नहीं है। लेकिन हम कभी किसी से कोई अपेक्षा न रखें।

हम अपना एक यह सिद्धान्त भी बनाएं कि हम ऐसे लोगों से कभी कोई पैसा नहीं लेंगे जिनके जीवन-यापन का स्तर हमसे नीचा है।

पूर्णकालिक काम में प्रभु की सेवा करने का सर्वोच्च तरीक़ा वही है जिस तरीक़े से पौलुस ने एक प्रेरित के रूप में प्रभु की सेवा की - किसी सांसारिक काम-धंधे द्वारा अपनी रोज़ी-रोटी कमाने द्वारा, जिससे हमारी ज़रूरतें पूरी करने के लिए हमें किसी की भेंट/उपहारों पर निर्भर न रहना पड़े (1 कुरि. 9:14-18; 2 कुरि. 11:7-15; प्रेरितों. 20:33,34)।

अगर हम वेतन पाने के लिए काम कर रहे हैं, तो हम नई वाचा के सेवक नहीं हो सकते। यह ज़रूरी है कि हम बंधुवा-मज़दूर हों। अगर हम ऐसा सोचते हैं कि हमें कुछ सुख और सुविधाएं पाने का अधिकार है, तो हम बंधुवा-मज़दूर नहीं वेतन-भोगी सेवक हैं। एक बंधुवा-मज़दूर का किसी वस्तु पर कोई अधिकार नहीं होता - सम्मान या ख्याति पाने का भी नहीं।

अगर प्रभु हमें रहने के लिए एक घर देता है, तो हम उसका आभार मानें। लेकिन अगर हमारे पास रहने के लिए घर भी न हो, तब भी हम उसकी सेवा करेंगे। जब हम उसके सच्चे बंधुवा-मज़दूर बन जाते हैं, तब हमारे लिए यही बहुत होता है कि वह हमें मसीह की देह का निर्माण करने का विशेषाधिकार देता है।

रोमियों 6:22 परमेश्वर के एक सच्चे बंधुवा-मज़दूर के भूतकाल, वर्तमान और भविष्य के बारे में बताता हैः

1) भूतकाल में - सचेत पाप से मुक्त किया गया

2) वर्तमान में - परिणाम स्वरूप एक क्रमिक रूप में शुद्ध/पवित्र हो रहा है

3) भविष्य में - जिसका प्रतिफल अनन्त जीवन होगा (ईश्वरीय स्वभाव की परिपूर्णता)।

सबसे पहले , हमें सचेत पाप से मुक्त होने की ज़रूरत होती है। अनेक लोग उनकी गुप्त निष्फलताओं के लिए शोकित नहीं होते, इसलिए वे पाप पर जय पाने वाले जीवन तक नहीं पहुँच पाते। हम यह सोच सकते हैं कि हमारे वैचारिक जीवन की अशुद्धता महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि दूसरे लोग हमारे जीवन के उस क्षेत्र को नहीं देख पाते। लेकिन परमेश्वर यह देखने के लिए हमें वहीं परखता है कि हम उसका भय मानते हैं या नहीं।

दूसरी बातः अगर हम वास्तव में परमेश्वर के सच्चे बंधुवा-मज़दूर होंगे, तो एक क्रमिक रूप में बढ़ता हुआ पवित्रीकरण हमारे जीवनों में से प्रकट होने वाला प्राथमिक फल होगा। लोगों को मसीह के पास लाना और उन्हें विश्वास में बढ़ाना उसके बाद प्रकट होने वाला गौण फल होगा। अगर हम वास्तव में प्रभु की सेवा कर रहे होंगे, तो हमारी सेवा का परिणाम एक निश्चित तौर पर हमारे व्यक्तिगत जीवनों में ईश्वरत्व का बढ़ना होगा।

पवित्रीकरण एक प्रक्रिया है जिसमें हमें अपने शरीर में बसने वाली बुराई (दुष्टता) पर एक क्रमिक रूप में बढ़ती हुई ज्योति प्राप्त होती है, और उसमें, हम जैसे-जैसे यीशु की मृत्यु को अपनी देह में लेकर चलते हैं, वैसे-वैसे अपने एक क्षेत्र के बाद दूसरे क्षेत्र में, हम मसीह के जीवन में ज़्यादा और ज़्यादा हिस्सेदार होते जाते हैं। उदाहरण के तौर पर, अगर हम पवित्र हो रहे हैं, तो अपने परिवार के सदस्यों से बात करते समय हमें अपने स्वर की कठोरता पर, या हमसे सहमत न होने वालों के प्रति प्रेम की कमी पर, या हमारी सेवकाई में आदर-सम्मान पाने की लालसा पर, या हमारे बहुत ज़्यादा बोलने और मूर्खता-भरी मज़ाक-मस्ती पर, या हमारे प्रचार के मृतकपन आदि पर ज्योति प्राप्त होगी।

और सब बातों के अंत में, एक बंधुवा-मज़दूर परमेश्वर के स्वभाव (अनन्त जीवन) की परिपूर्णता में सहभागी होने की बाट जोहता है। यही वह अंतिम लक्ष्य है जिसकी तरफ परमेश्वर का हरेक सच्चा बंधुवा मज़दूर हर समय बढ़ता रहता है।

परमेश्वर के दासों के रूप में, पृथ्वी पर हमें अनेक परीक्षाओं, ग़लतफहमियों, और झूठे आरोपों में से गुज़रना पड़ सकता है। लेकिन अगर हम अंत तक प्रेम में धीरज से सब सहते रहेंगे, तो जब हम यीशु को देखेंगे तो उन सब बातों की पूरी क़ीमत वसूल हो जाएगी।

पौलुस हमें याद दिलाता है कि नई वाचा के सेवकों के रूप में, फ्हम किसी बात में ठोकर का कारण न बनें जिससे कि हमारी सेवा पर कोई आँच न आए। बल्कि हम हर बात में परमेश्वर के योग्य दासों के सदृश अपने आपको प्रस्तुत करें, अर्थात् धैर्य में, क्लेशों में, अभावों में, संकटों में, परिश्रम में, जागने में, भूख में, पवित्रता में, धीरज में, कृपालुता में, सच्चे प्रेम में, आदर और निरादर में, बदनामी और सुनामी में, धोखा देने वाले समझे जाते हैं फिर भी सच्चे हैं, अनजानें (मनुष्यों के लिए) फिर भी जाने हुए (परमेश्वर के लिए), कंगालों के समान फिर भी बहुतों को धनवान बना देते हैं, ऐसों के समान जिनके पास कुछ नहीं है, फिर भी हम सब कुछ रखते हैं, जिनके हृदय हमारे लिए तंग हैं उनके लिए अपने हृदयों को पूरे तरह खोले हुए" (2 कुरि. 6:3-11)।

अपनी देह को वश में रखना:

पहला कुरिन्थियों 9:27 में, पौलुस हमें अपने जीवन का एक और रहस्य बताता है। वह अपनी देह को यातना देकर वश में रखता था, और इस तरह वह अपनी देह को उन कामों के लिए प्रशिक्षित करता था जो उसे करने चाहिए थे, वे नहीं जो वह करना चाहती थी (लिविन्ग)। वर्ना उसे यह डर था कि दूसरों को प्रचार करने के बाद वह स्वयं अयोग्य ठहर सकता था।

यह एक अद्भुत बात है कि प्रभु के लिए इतना सब करने के बाद भी पौलुस को यह डर था कि वह अयोग्य ठहर सकता है।

ऐसे डर होते हैं जो सही होते हैं, और ऐसे डर होते हैं जो ग़लत होते हैंः ऐसा डर, कि परमेश्वर हमें पीड़ा दे सकता है, ग़लत डर है। लेकिन यह डर, कि हम परमेश्वर को पीड़ा दे सकते हैं (हमारे किसी शब्द या काम से), एक सही डर है।

इसी तरह, यह डर कि हम अयोग्य ठहराए जा सकते हैं, एक सही डर है जो हमें हर समय "खड़े पाँव" रखेगा। यह हमें इस योग्य बनाएगा कि हम अपनी देह को यंत्रणा देकर उसे अपना दास बनाए रखेंगे।

परमेश्वर का वचन कहता है कि फ्हम डरते और काँपते हुए अपने उद्धार का काम पूरा करें" (फिलि. 2:12)। यह उपदेश ख़ास तौर पर प्रचारकों के लिए ज़रूरी है क्योंकि हरेक प्रचारक निरंतर एक पाखण्डी बनने के ख़तरे में पड़ा रहता है। वह ऐसी बातों का प्रचार करने के ख़तरे में रहता है जिनका उसने अभी तक स्वयं कोई अभ्यास नहीं किया है। वह दूसरों के सामने अपनी एक ऐसी छवि दिखाने के ख़तरे में रहता है जो पूरी तरह सच्ची नहीं है, और वह इस ख़तरे में रहता है कि वह अपने जीवन को सिद्ध बनाने में जितना समय ख़र्च नहीं करता, उससे ज़्यादा समय वह अपने संदेशों को तैयार करने और उन्हें त्रुटिहीन बनाने में ख़र्च करता है!

1 कुरिन्थियों 9:26 में पौलुस कहता है कि वह जो कर रहा है, उसमें उसका एक उद्देश्य है। वह एक निश्चित लक्ष्य पर निशाना लगा रहा है।

मुझे वे दिन याद हैं जब छात्र-सैनिकों के रूप में हमें सैन्य प्रशिक्षण-केन्द्र में बंदूक चलाना सिखाया जा रहा था। हमें बंदूक हाथ में लेकर एक-दूसरे से कुछ दूर ज़मीन पर लेटना होता था। हममें से हरेक के सामने कुछ दूरी पर एक गत्ते पर बना एक गोल निशाना होता था जिसमें एक गोल घेरे के अन्दर दूसरा गोल घेरा होता था और उनके बीच में "बुल्ज़ आई (बैल की आँख)" होती थी।

हमने जब निशाना लगाना शुरू किया, तब वह हमारे लक्ष्य से पूरी तरह चूक रहा था। हममें से कुछ लोगों के निशाने तो हमारे अपने लक्ष्यों को छोड़ हमारे पास वाले व्यक्ति के लक्ष्य पर लग रहे थे!

अनेक मसीहियों के साथ भी अक्सर ऐसा ही होता है। वे अपने लक्ष्यों पर नहीं बल्कि दूसरे लोगों के लक्ष्यों पर पहुँचते रहते हैं। वे दूसरे लोगों के मामलों में ही अपनी टाँग फँसाए रखते हैं। लेकिन अगर वे अपने उद्धार का काम पूरा करने लगें, तो धीरे-धीरे वे अपने लक्ष्य पर निशाना लगाना सीख जाएंगे और अंततः "बुल्ज़ आई" को भी बेध सकेंगे। तब उनका निशाना पक्का हो जाएगा। पौलुस का निशाना पक्का था। वह दूसरों का न्याय नहीं करता था। वह अपना स्वयं का न्याय करने वाला और अपनी स्वयं की देह को वश में रखने वाला था। इस तरह उसने एक अच्छी लड़ाई लड़ी थी और अपनी दौड़ पूरी की थी (2 तीमु. 4:7)।

हमारी आँखें और हमारी जीभ हमारी देह के दो ऐसे अंग हैं जिन्हें सबसे ज़्यादा अनुशासित करने की ज़रूरत होती है।

हम अविश्वासियों को आमंत्रित करते हैं कि वे अपने हृदय प्रभु को अर्पित कर दें। लेकिन प्रभु हमसे कहता है कि हम अपनी देह उसे अर्पित कर दें (रोमि. 12:1) - और वह विशेष रूप से हमारी आँखें और जीभ अर्पित करने के लिए कहता है। अगर हम हर समय उसे ये अर्पित नहीं करेंगे, तो हम मसीह के बंधुवा-मज़दूर या प्रवक्ता होने की, या अंतिम दिन में परमेश्वर द्वारा स्वीकार किए जाने की अपेक्षा नहीं कर सकेंगे।

अगर हम अपनी आँखों को अपने वश में नहीं रखेंगे - घर में, बस में, सड़क पर, और हमारे काम की जगह पर - तो हम पाएंगे कि चाहे हम स्वर्गदूतों की तरह प्रचार करने वाले क्यों न बन जाएं, हम अंतिम दिन में परमेश्वर द्वारा अयोग्य ठहरा दिए जाएंगे। बीती शताब्दियों में परमेश्वर के अनेक सेवकों का इसलिए पतन हो गया क्योंकि वे अपनी आँखों के प्रति सचेत नहीं थे। उन्होंने अपनी आँखों को भटकने की अनुमति दे दी थी और वे सुन्दर लड़कियों के पीछे घूमने लगी थीं, और फिर एक बात के साथ दूसरी जुड़ती रही और वे पाप में गिर गए। यह कह देना काफी नहीं है कि हम स्त्रियों की लालसा नहीं करते। बाइबल हमें स्त्रियों की सुन्दरता की प्रशंसा भी न करने के लिए चेतावनी देती है, कहीं ऐसा न हो कि वह हमें आत्मिक कंगाली में पहुँचा दें (नीति. 6:25, 26)। इसलिए हमें कितना ज़्यादा सचेत रहने की ज़रूरत है।

इसी तरह हमें अपनी जीभ के प्रति भी सचेत रहने की ज़रूरत है। अगर एक व्यक्ति अपनी जीभ को अन्य समयों में शैतान द्वारा इस्तेमाल होने देगा, तो परमेश्वर एक व्यक्ति की जीभ को उसके वचन का प्रचार करने के लिए इस्तेमाल नहीं करेगा। प्रभु ने यिर्मयाह से कहा, "अगर तू निकम्मों में से अनमोल को निकाल लाए तो तू मेरा प्रवक्ता बनेगा" (यिर्म. 15:19)।

हम कभी ऐसी कोई बात न बोलें जो एक भले हृदय में से न आती हो। यह करना आसान नहीं होता, क्योंकि हम इस क्षेत्र में बहुत कमज़ोर हैं। अगर हमें अपनी जीभ को अनुशासित करना है तो हमें बहुत निर्मम होना पड़ेगा।

मुझे यक़ीन है कि हमारे देश में ऐसे बहुत से युवा लोग होंगे जिन्हें परमेश्वर ने बीते समय में उसकी सेवा में बुलाया होगा, और जिन्हें उसने भारत में उसके नबी बनाना चाहा होगा। लेकिन वे नबी नहीं बने, क्योंकि उन्होंने उनकी आँखों व जीभों को अनुशासित करने पर ध्यान नहीं दिया था। उन्होंने अपनी देहों को अपने वश में नहीं किया था।

हम मसीह की देह के अंग कहलाते हैं, क्योंकि यह बात मसीह के साथ, जो सिर है, हमारे आत्मीय, भीतरी सम्बंध को बिलकुल वैसे ही प्रकट करती है जैसे हमारी शारीरिक देह में हमारे शरीर के अंग हमारे मस्तिष्क के साथ जुड़े होते हैं।

यीशु अपनी देह के हरेक भाग को उसके पिता (उसके सिर) के लिए एक अनन्य रूप में उपलब्ध कराने में विश्वासयोग्य रहा था। रोमियों 15:3 में लिखा है, उसने अपने आपको कभी प्रसन्न नहीं किया। जिस तरह उसने अपनी आँखों और जीभ को इस्तेमाल किया, उसमें उसने स्वयं अपने लिए कभी कोई भोग-विलास नहीं चाहा। उसने कभी उन दृश्यों की तरफ नहीं देखा जिन्हें उसने देखना चाहा था, और उसने कभी वह नहीं बोला जो वह बोलना चाहता था। उसने हमेशा वही करना चाहा जिससे उसका पिता प्रसन्न होता था। इस तरह वह अपनी देह को अपने पिता के सम्मुख निर्दोष चढ़ा सका और संसार के लिए पिता का सिद्ध प्रवक्ता बन सका (इब्रा. 9:14)। हमें भी अब उसकी आत्मिक देह के अंग बन कर इसी तरह जीना होगा।

पूरे हृदय से समर्पित यीशु के शिष्य होने का अर्थ अपने आपको परमेश्वर के सम्मुख निर्दोष चढ़ाने की तीव्र लालसा का होना है।

अगर हमें कलीसिया का निर्माण मसीह की देह के रूप में करना है, तो हमें ऐसे सभी लोगों को इकट्ठा करना होगा जो अपनी देह को परमेश्वर के सम्मुख इस तरह अर्पित करने के लिए तैयार हैं, और जो वास्तव में अपनी देह को अपने वश में कर लेना चाहते हैं।

हम जब भी "बुल्ज़ आई" पर निशाना लगाने से चूकते हैं, तो हमें अपनी नाकामी पर शोक मनाना चाहिए। हमारी आँखें जब पूरी तरह से शुद्ध न हों तो हमें शोक मनाना चाहिए। जब हमारी जीभ ने ऐसा कुछ बोला हो जिसमें भलाई की भरपूरी न हो, हमें तब भी शोक मनाना चाहिए।

रोमि. 7:23 में पौलुस ने ईमानदारी से यह स्वीकार किया कि उसकी देह के अंगों में उसे एक ऐसी व्यवस्था (मसीह की व्यवस्था के विरोध में) काम करती हुई नज़र आती रहती है (वर्तमान काल) जिसने उसे पाप की व्यवस्था का दास बना रखा था। अगर पौलुस ने यह भूत काल में कहा होता, एक ऐसी बात जो उसने सिर्फ एक ही बार देखी थी, तो वह एक अलग बात होती। लेकिन उसने वह देखा था और दिन प्रतिदिन उसे देखता रहता था। दूसरे शब्दों में, उसे हर समय इस बात में ज्योति प्राप्त होती रहती थी कि उसक देह में कुछ भी भला वास नहीं करता था। और वह अपने आपको लगातार देह और आत्मा की सारी अशुद्धता से शुद्ध करते हुए परमेश्वर के भय में पवित्रता को सिद्ध करता रहता था। इस तरह उसने अपनी देह को नियंत्रण में रखा और अपने जीवन के अंत तक परमेश्वर के प्रति विश्वासयोग्य रहा था। इस वजह से ही वह अयोग्य नहीं ठहरा था, और जैसा कि हमारे समयकाल के अनेक प्रचारकों के साथ नहीं हो पाता है, उसने अपनी दौड़ आनन्द के साथ पूरी की थी।

ईश्वरीय भक्ति - सच्ची और झूठी:

पुरानी वाचा के अंतर्गत, लोगों को "परमेश्वर की व्यवस्था" (भजन. 1:2) पर मनन करने के लिए उत्साहित किया जाता था। लेकिन नई वाचा में, हमें "परमेश्वर की महिमा" (2 कुरि. 3:18) पर मनन करने के लिए प्रेरित किया गया है।

अगर हम सिर्फ परमेश्वर के वचन के अक्षर पर ध्यान देंगे, तो हम फरीसी बन जाएंगे और हम एक फरीसियों की कलीसिया की रचना करेंगे। लेकिन अगर हम यीशु के जीवन की महिमा को देखेंगे, जैसा कि हम वचन में देखते हैं, तो हम लगातार बढ़ते हुए उसकी समानता में बदलते जाएंगे।

एक ईश्वरीय भक्ति का जीवन जीने का भेद (1 तीमु. 3:16 में पवित्र-आत्मा हमें बताता है) यीशु के उदाहरण को देखने द्वारा है, जो पृथ्वी पर देह की सारी हदों के साथ रहा, और जिसके पास उससे ज़्यादा कुछ नहीं था जो आज हमारे पास है - पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य, और फिर भी जो उसकी आत्मा में एक सिद्ध शुद्धता में रहा। अगर वह ऐसा जीवन व्यतीत कर सका, तो हम भी ऐसा कर सकते हैं।

"जो कहता है मैं उसमे बना रहता हूँ, तो वह स्वयं भी वैसा ही चले जैसे वह चलता था" (1 यूह. 2:6)।

हम पाप करते रहने के लिए अब देह को दोषी नहीं ठहरा सकते। क्योंकि इसी पृथ्वी पर एक मनुष्य देह में चला-फिरा, फिर भी उसने पाप नहीं किया। उसने परमेश्वर की कृपा की सामर्थ्य द्वारा जय पाई - और हम भी यह कर सकते हैं।

एक जय पाने वाले जीवन में, जिस अनुपात में हम स्वयं यीशु के पीछे चलेंगे, वही उस अनुपात को सुनिश्चित करेगा जिसमें हम अपने साथी-विश्वासियों की भी यीशु की तरह चलने में अगुवाई करेंगे।

ईश्वरीय भक्ति के भेद के बारे में बोलने के फौरन बाद (1 तीमु. 3:16 में), पवित्र-आत्मा ने हमें उन भरमाने वाली आत्माओं के बारे में चेतावनी दी जो अंत के दिनों में विश्वासियों को पवित्र बनने के लिए इस ईश्वरीय भक्ति से मोड़ कर एक नक़ली भक्ति की ओर मोड़ देंगी।

"आत्मा स्पष्ट कहता है कि अन्तिम दिनों में कुछ लोग भरमाने वाली आत्माओं और दुष्टात्माओं की शिक्षा पर मन लगाने के कारण विश्वास से भटक जाएंगे" (1 तीमु. 4:1)।

भरमाने वाली सभी आत्माओं का प्राथमिक चिन्ह् यही होता है कि फ्वे यह स्वीकार नहीं करतीं कि यीशु मसीह देह में होकर आया था" (2 यूह. 7)। वे यह स्वीकार नहीं करेंगी कि यीशु ने देह में रहते हुए सारे पाप पर जय पाई थी।

ऐसी भरमाने वाली आत्माओं की बात सुनने द्वारा, अंत में विश्वासी "दुष्टात्माओं की शिक्षा पर मन लगाने" वाले बन जाएंगे (1 तीमु. 4:2)। दुष्टात्माओं की शिक्षा के यहाँ दो उदाहरणों का उल्लेख किया गया हैः विवाह पर रोक लगाना और कुछ ख़ास तरह की चीज़ों के खाने-पीने पर रोक लगाना।

मूर्तिपूजक धर्मों में अविवाहित रहने और उपवास रखने को हमेशा ही पवित्र होने के तरीक़े माने गए हैं। लेकिन अंत के दिनों में दुष्टात्माओं की ये शिक्षाएं मसीही जगत में भी प्रवेश करेंगी। हम अपने समय आज इस बात को पूरा होते देख रहे हैं। ऐसे मसीही समूह हैं जो यह सिखाते हैं कि अगर हम अविवाहित रहेंगे और नियमित उपवास रखेंगे तो हम ज़्यादा पवित्र हो जाएंगे। क्या ये दुष्टात्माओं की शिक्षाएं हैं? हाँ। क्योंकि ये हमारे ध्यान को ईश्वरीय भक्ति की तरफ से सन्यास की तरफ मोड़ती हैं। पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य में यीशु के पीछे चलने की बजाय हम एक सन्यासी आत्म-संयम द्वारा ईश्वरीय भक्ति के खोजी बन जाएंगे।

अविवाहित रहने और उपवास रखने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन जब इन्हें ईश्वरीय भक्ति के भेद के रूप में आगे बढ़ाया जाने लगता है, तब यह एक गंभीर भूल बन जाती है। ऐसी कोई भी शिक्षा जो लोगों को इस शिक्षा से दूर ले जाती है - "देह में प्रकट होने वाला मसीह ईश्वरीयता का भेद है" - असल में एक दुष्टात्मा की शिक्षा है। सच्ची आत्मिकता योग या ध्यान या आत्म-संयम द्वारा नहीं, बल्कि पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य द्वारा प्राप्त की जाती है।

कुलुस्सियों 2:20-23 में, पौलुस कहता है कि आत्म-संयम की ऐसी बातों से कुछ बाहरी लाभ हो सकता है, लेकिन इनसे हमारी देह में ईश्वरीय स्वभाव प्रकट नहीं हो सकता। वह सिर्फ पवित्र-आत्मा ही कर सकता।

कलीसिया में, हमें लोगों को धार्मिक सन्यास से मुक्त करना चाहिए, वर्ना हम भी सिर्फ योग के एक मसीही रूप का ही प्रचार करेंगे।

शैतान की इच्छा हमेशा यही रहती है कि वह विश्वासियों को या तो भौतिकता के अंतिम छोर पर ले जाए, या फिर विपरीत रूप से सन्यास के अंतिम छोर पर ले जाए।

भौतिकवाद इतना ख़तरनाक नहीं है, क्योंकि वह एक शारीरिक विश्वासी को भी उसके सांसारिक रूप में नज़र आ जाता है। लेकिन सन्यास ख़तरनाक है क्योंकि उसमें ऐसा लगता है मानो वह ईश्वरीय भक्ति की तरफ ले जा रहा है। लेकिन ये पर्वत की दो ऐसी चोटियों की तरह हैं जो एक-दूसरे के सामने खड़ी रहती हैं। दोनों ही घाटी में पहुँचाती हैं। ऐसे अधर्मी जो धन के प्रेमी हैं, और ऐसे फरीसी जो धार्मिक व आत्म-संयमी हैं, दोनों ही नर्क की तरफ जा रहे हैं। और परमेश्वर के सेवक होते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए।

संसार की दृष्टि में जो बड़े और महान् हैं:

कलीसिया का निर्माण करने में, हमें यह याद रखने की ज़रूरत है कि "वह जो मनुष्यों में अति सम्मानित है, परमेश्वर की दृष्टि में तुच्छ हैं" (लूका 16:15)।

इसलिए हमें कलीसिया में कभी मानवीय महानता नहीं लानी चाहिए। जब हम परमेश्वर के वचन का प्रचार करते हैं, तब हममें यह इच्छा न हो कि हम अपनी चतुराई, अपने ज्ञान, या अपनी सभ्य बोली द्वारा लोगों को प्रभावित करें। अगर हम ऐसा करेंगे, तो कलीसिया में अपनी जैविक-शक्ति का ही प्रदर्शन करेंगे।

कलीसिया में हमारे मूल्य सांसारिक लोगों के मूल्यों से बिलकुल उलटे होते हैं। सांसारिक लोग धन को बहुत मूल्यवान मानते हैं जबकि हमारे लिए धन का कोई मूल्य नहीं है। सांसारिक लोग उनका आदर करते हैं जो संसार में महान् और प्रभावशाली होते हैं, लेकिन हम उन्हें कुछ नहीं समझते। इसके विपरीत, हम उन्हें मूल्यवान समझते हैं जो नम्र व दीन व परमेश्वर का भय मानने वाले हैं। संसार मानसिक बुद्धिमानी को बहुत मूल्यवान मानता है, लेकिन हम मनुष्य की चतुराई को कुछ नहीं समझते। संसार और कलीसिया के बीच का फ़र्क मामूली नहीं है, बल्कि वे एक-दूसरे से विपरीत दिशा में हैं। कलीसिया में अपनी चतुराई या महानता दिखाना परमेश्वर की नज़र में ईशनिन्दा है। यह ऐसा ही है जैसे पुरानी वाचा में परमेश्वर के सम्मुख एक सूअर की बलि चढ़ाना। हम परमेश्वर की सेवा में अपनी मानवीय ईश-निन्दक बातें न ले आएं, इसके प्रति हममें एक स्वस्थ भय होना चाहिए।

एक छोटे बच्चे जैसा होना:

यशायाह 11:6 में, हमें बताया गया है कि यीशु के पृथ्वी पर लौटने के बाद, उसके 1000 वर्ष के राज्य में सब बातों में शांति का राज होगा। कोई पशु भी हिंसक नहीं होगा, और पृथ्वी पर एक अद्भुत जीवन होगा।

लेकिन हम पहले ही उस जीवन का पूर्व स्वाद कलीसिया में पाते हैं - क्योंकि स्वर्ग का राज पहले ही कलीसिया में आ चुका है। कलीसियाई संगति में पहले ही "भेड़िये" "मेमनों" के साथ लेटे हुए हैं, "चीते" "बकरियों" के साथ शांत हैं, और "गाय -बैल" "शेरों" के बीच में सुरक्षित हैं।

और यशायाह ने कहा, कि राज्य में "एक छोटा लड़का उनकी अगुवाई करेगा" (यशा. 11:6)। इस तरह हम देख सकते हैं कि असल में कलीसिया की अगुवाई करने योग्य कौन है - वही जो सबसे ज़्यादा एक बच्चे जैसा है।

कलीसिया में एक असली अगुवा वही है जिसमें कपट नहीं है और जो एक छोटे बच्चे की तरह नम्र व दीन है। ऐसे भाई के साथ संगति करना आसान होता है। लोगों को ऐसे भाई में भरोसा हो जाता है - जो अन्दर-बाहर एक जैसा है, जो दूसरों को अपने व्यक्तित्व या दान-वरदानों से प्रभावित करने की कोशिश नहीं कर रहा है, और जो एक ज़्यादा परिपक्व भाई की नक़ल करने की कोशिश नहीं कर रहा है।

अनेक मसीही समूहों में, अगुवाई ज़्यादातर ऐसे ही लोगों को दी जाती है जो चतुर, प्रतिभाशाली और हास्यात्मक होते हैं, और जो अच्छे संगीतकार और आयोजक होते हैं। लेकिन नई वाचा की कलीसिया में, परमेश्वर ऐसे लोगों को नियुक्त करता है जो छोटे बच्चों की तरह हैं - क्योंकि वही स्वर्ग के राज्य में सबसे बड़े हैं।

अगर एक कलीसिया में मौजूद "भेड़िये" "मेमनों" को फाड़ कर खा रहे हैं, तब उस कलीसिया में अभी तक स्वर्ग का राज्य नहीं आया है। और इसकी वजह यही होगी क्योंकि उसका अगुवा एक बच्चे-जैसा नहीं है! इसलिए, अगर कलीसिया में कुछ बिगड़ता है, तो पहले अगुवों को अपने आपको जाँचने-परखना चाहिए।

मत्ती 18:4 में यीशु ने अपने शिष्यों को छोटे बच्चों की तरह बनने के लिए कहा था, क्योंकि एक बच्चा परमेश्वर के राज्य में सबसे बड़ा है।

अब हम जानते हैं कि परमेश्वर के राज्य में सबसे बड़ा स्वयं यीशु है। तो इसका अर्थ यही है कि यीशु ने अपने आपको हर समय एक छोटे बच्चों की तरह नम्र व दीन किया था।

यहाँ हम मसीही अगुवों के अनुसरण के लिए एक उदाहरण पाते हैं।

हम पढ़ते हैं कि एक बार यीशु ने एक बहुत बड़ी भीड़ को चंगा किया, लेकिन उसने लोगों से कहा कि वे इसके बारे में किसी को न बताएं। वह स्वयं अपना कोई प्रचार नहीं करना चाहता था। यह पवित्र-शास्त्र के उस शब्द को पूरा करने के लिए था, "कोई उसकी आवाज़ गलियों में न सुनेगा" (वह अपना स्वयं का प्रचार नहीं करेगा (मत्ती 12:15-20)।

यह पवित्र-शास्त्र इन शब्दों से शुरू होता है, "देखो, मेरा बच्चा..." (मत्ती 12:18 - कोष्ठक)। परमेश्वर वहाँ यह कह रहा है, "मेरे बच्चे को ध्यान से देखो - वह जो स्वर्ग के राज्य में सबसे बढ़कर है - वह बीमारों को चंगा करता है और फिर ऐसे ग़ायब हो जाता है जैसे उसने कुछ किया ही न हो।"

कलीसिया में, वही सच्चा अगुवा है जिसमें यह आत्मा है।

एक छोटे बच्चे को यह अहसास होता है कि वह कुछ नहीं है, और यह कि वह लगभग कुछ नहीं जानता। और यही अहसास, कि हम कुछ नहीं हैं और आत्मिक बातों के बारे में हम लगभग कुछ नहीं जानते, हमें हमेशा छोटे बच्चों की तरह बनाए रखेगा। परमेश्वर सिर्फ ऐसे व्यक्ति को ही कलीसिया में अपने प्रतिनिधि के रूप में सत्यापित कर सकता है।

यीशु ने नम्रता का पाठ सीखने के लिए हमें सिर्फ दो ही उदाहरण दिएः एक स्वयं उससे, व दूसरा छोटे बच्चों से। सुसमाचारों में हम देखते हैं कि यीशु कैसे रहा था, और उस उदाहरण से हम नम्रता सीख सकते हैं। अपने आस-पास हम छोटे बच्चों को देखते हैं, और हम उनसे भी नम्रता सीख सकते हैं।

एक बच्चा जब झूले में पड़ा होता है, तब उसके मन में कैसे विचार आते हैं? क्या वह यह सोचता है कि वह कितना बुद्धिमान है या दूसरे उसकी कितनी प्रशंसा करते हैं आदि। नहीं। उसमें ऐसे कोई विचार नहीं होते। उसमें उसकी ख़ुदी का बिलकुल कोई अहसास नहीं होता। वह सिर्फ जो है वही है - प्राकृतिक, जिसमें कोई दिखावा या नकलीपन नहीं है। वह हमारे लिए एक आदर्श उदाहरण है।

क्या हम ऐसे विचारों से परेशान हो जाते हैं कि दूसरे लोग हमारे बारे में या हमारी सेवकाई के बारे में क्या सोचते हैं? तब हम छोटे बच्चों के समान नहीं हैं। हमें अपने विषय के इन ऊँचे विचारों से तब तक लड़ना पड़ेगा जब तक कि हम छोटे बच्चों के समान नहीं बन जाते। हम सिर्फ तभी परमेश्वर के लोगों की अगुवाई करने योग्य बन सकेंगे।

तब हम पृथ्वी के ऐसे किसी भी छोटे से कोने में ख़ुश रहेंगे जिसमें हमें परमेश्वर उसका काम करने के लिए रखेगा। और हममें ऐसी कोई महत्वकाँक्षा नहीं होगी कि हम मनुष्यों की दृष्टि में महान् बन जाएँ। हम उस काम को पूरा करने से ही ख़ुश होंगे जिसे करने के लिए परमेश्वर ने हमें मसीह की देह में रखा है। और हम किसी दूसरे की सेवकाई से ईर्ष्या भी नहीं करेंगे।

परमेश्वर की स्तुति हो कि हम ऐसे अद्भुत सुसमाचार का अनुभव भी कर सकते हैं और उसका प्रचार भी कर सकते हैं - कि हम अपनी स्मृति में से सभी "बड़े तौर-तरीक़े" विस्मृत कर सकते हैं और एक बार फिर छोटे बच्चे बन सकते हैं।

इस तरह हम नई वाचा के सच्चे सेवक बन सकते हैं।

अध्याय 5
पवित्र-आत्मा पर निर्भरता

"शापित है वह मनुष्य जो नश्वर मनुष्य पर भरोसा रखता है, और देह को अपनी शक्ति बना लेता है। वह मरुभूमि में उगी झाड़ी के समान होगा। लेकिन धन्य है वह मनुष्य जिसने प्रभु में भरोसा रखा है और उसे अपनी आशा और भरोसा बनाया है। वह एक ऐसे वृक्ष के समान होगा जो एक नदी के किनारे लगाया गया है और जो लगातार स्वादिष्ट फल पैदा करता रहेगा" (यिर्म. 17:5-8 - लिविंग)।

नई वाचा के एक सेवक को पूरी तरह से परमेश्वर पर निर्भर होकर जीने वाला और परमेश्वर की सेवा करने वाला होना चाहिए जिससे कि उसके हरेक काम में उसे परमेश्वर की कृपा व सामर्थ्य मिल सके। इस वजह से ही प्रार्थना उसके जीवन का एक मार्मिक हिस्सा होना चाहिए - क्योंकि प्रार्थना हमारी असहाय दशा की लेकिन परमेश्वर पर एक भरोसे से भरी निर्भरता की अभिव्यक्ति होती है।

एक आत्म-निर्भर व्यक्ति की प्रार्थना धार्मिक विधि के अलावा और कुछ नहीं होती। जो मसीही अगुवे प्रार्थना नहीं करते, वे परमेश्वर पर निर्भर नहीं रहते क्योंकि वे आत्म-निर्भर होते हैं। और ये एक निरपवाद रूप में निष्फल पेड़ के समान होंगे, और उनकी मण्डलियाँ मरुभूमि के समान होंगी। ऊपर लिखे पद में जिस नदी की बात की गई है वह पवित्र-आत्मा है। एक ऐसा व्यक्ति जो उसकी मदद के लिए सिर्फ प्रभु पर ही भरोसा रखता है, वह निष्ठापूर्वक लगातार पवित्र-आत्मा से भरे जाने के लिए प्रार्थना करता रहेगा।

नबी ज़कर्याह को एक बार एक सोने के दीपदान का दर्शन दिया गया था - वह कलीसिया का प्रतीक था (ज़क. 4:2; देखें प्रका. 1:20)।

दीपक को जलाए रखने के लिए, सबसे बड़ी ज़रूरत तेल की लगातार आपूर्ति है (पद 3)। और इसके लिए दीपदान के दोनों तरफ जैतून के दो पेड़ लगाए गए थे - जो पवित्र-आत्मा के फल और दान-वरदानों के प्रतीक हैं जिनसे कलीसिया का निर्माण होता है।

स्वर्गदूत ने फिर ज़कर्याह को बताया कि परमेश्वर का काम मानवीय शक्ति से नहीं बल्कि पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य से होगा, और यह कि रास्ते में खड़े हरेक पहाड़ (रुकावट) को हटा दिया जाएगा (ज़क. 4:6,7)।

हर पहाड़ गिरा दिया जाएगा

परमेश्वर के काम में, हमें बहुत तरह की रुकावटों और बाधाओं का सामना करना पड़ेगा। हम यह सोच सकते हैं कि जबकि हम पूरे हृदय से परमेश्वर की ही इच्छा पूरी करना चाहते हैं, तो वह हमारा सामना ऐसे पहाड़ों से क्यों होने देता है। लेकिन परमेश्वर का उद्देश्य हमारे विश्वास को सक्रिय करना होता है कि जिसमें हम उसकी महान् सामर्थ्य को उन सभी पहाड़ों को एक सपाट बनाता हुआ पाते हैं। हम सुसमाचारों में एक ऐसी घटना के बारे में पढ़ते हैं जिसमें यीशु ने अपने शिष्यों को गलील की झील के पार जाने के लिए कहा था। उसके शिष्य जाना नहीं चाहते थे, लेकिन उसने उनसे जाने के लिए आग्रह किया (मत्ती 14:22)। जब उन्होंने उसकी आज्ञा का पालन किया, तो वे एक भयंकर तूफान में फँस गए। अगर उन्होंने उसकी आज्ञा का पालन न किया होता, तो वे हर्गिज़ तूफान में न फँसे होते। लेकिन फिर उन्हें प्रभु की उस सामर्थ्य का भी अनुभव न होता जिसमें उसने तूफान को शांत किया था। जब हम तूफानों का सामना करते हैं, हम तभी परमेश्वर की सामर्थ्य का भी अनुभव करते हैं।

एक आज्ञा न मानने वाला और (पाप से) समझौता करने वाला मसीही ही ऐसा होता है जो अपना जीवन आराम से बिताता है। लेकिन वह परमेश्वर की सामर्थ्य का अनुभव भी नहीं पाता है। यीशु के एक शिष्य को "अनेक क्लेशों" में से गुज़रना पड़ सकता है, लेकिन वह प्रभु द्वारा "उन सभी छुड़ाए जाने का अनुभव" भी पाता है (भजन. 34:19)।

परमेश्वर को यह देखकर ख़ुशी होती है जब उसके लोग ऐसी बड़ी समस्याओं में उस पर भरोसा रखते हैं जिन्हें कोई मनुष्य हल नहीं कर सकता। ऐसी ही स्थितियों में हम यह साबित करते हैं कि हम एक सर्वशक्तिशाली परमेश्वर में भरोसा करते हैं। परमेश्वर के बहुत लोग अपनी ही कल्पना के एक ऐसे ईश्वर में भरोसा रखते हैं जो उस समय उनकी कोई मदद नहीं कर सकता जब वे मानव-निर्मित या दुष्टात्मा-निर्मित तूफानों या पहाड़ों का सामना करते हैं। वह बाइबल का परमेश्वर नहीं है, बल्कि उनका ख़ुद का बनाया हुआ ईश्वर है - उनकी अपनी कल्पना की असमर्थ मूर्ति, जो किसी भी विधर्मी मूर्ति से बेहतर नहीं है।

क्या कोई भी समस्या हमारे परमेश्वर के लिए ज़्यादा बड़ी हो सकती है? नहीं। तब फिर जब मनुष्य या दुष्टात्माएं हमारे रास्ते में पहाड़ खड़ा करती हैं तो हम क्यों डर जाते हैं?

जब इस्राएलियों ने कनान के विशालकाय पुरुषों के बारे में सुना, तो वे यह सोचने लगे, "ये पुरुष इतने विशाल हैं कि हमारा ईश्वर भी इनसे नहीं निपट सकेगा।" उनका ईश्वर कौन था? वह यक़ीनन वह परमेश्वर नहीं था जिसने उन्हें मिस्र में से छुड़ाया था, बल्कि वह उनकी अपनी कल्पना की एक सामर्थ्यहीन वस्तु थी। इसलिए इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि फिर परमेश्वर ने उन्हें 38 साल तक जंगल में भटकने का दण्ड दिया था (व्य.वि. 2:14)।

वे अविश्वासी थे - और उनके अविश्वास ने परमेश्वर का अपमान किया और उसके हाथ इस तरह बाँध दिए थे कि फिर वह उनका कुछ नहीं कर सकता था। आज मसीही अगुवे भी ऐसे हैं जो अपने अविश्वास के द्वारा परमेश्वर के हाथ बाँध देते हैं।

लेकिन परमेश्वर यहोशू और कालेब जैसे पुरुषों को ढूँढ रहा है, जिनका यह विश्वास होगा और वे यह प्रचार करेंगे कि परमेश्वर के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।

परमेश्वर शैतान के खिलाफ़ हमेशा हमारे पक्ष में रहता है। और हमारे अविश्वास के अलावा उसे हमारी ओर से काम करने से कोई बात नहीं रोक सकती। अगर संसार के अरबों लोग और शैतान की करोड़ों दुष्टात्माएं मिलकर हमारा विरोध करें, तब भी - अगर हम परमेश्वर में भरोसा रखेंगे, तो वे हमारे लिए परमेश्वर के उद्देश्यों को पूरा होने से न रोक पाएंगे। इसलिए चाहे कुछ हो जाए, हम कभी निराश नहीं होते या हार नहीं मानते। अगर हम मर भी जाएं, तब भी हम सर्वशक्तिशाली परमेश्वर में यह विश्वास रखते हुए मरेंगे कि हमारी मृत्यु द्वारा भी उसकी महिमा होगी!

परमेश्वर जब हमें पहाड़ों का सामना करने की अनुमति देता है - चाहे वे उन दुष्टात्माओं के रूप में हों जो हमसे संघर्ष करती हैं, या मनुष्यों के रूप में हों जो हमारा विरोध करते और हम पर दोष लगाते हैं - तब उसमें परमेश्वर का उद्देश्य यह होता है कि वह हमें दृढ़ और समृद्ध करे। "अगर परमेश्वर हमारी ओर है तो हमारे विरोध में कौन हो सकता है?" (रोमि. 8:31)।

जब हम पहाड़ों का और दुष्टात्माओं और मनुष्यों के विरोध का सामना करते हैं, सिर्फ तभी ऐसा होता है कि ज़कर्याह 4:6,7 के शब्द हमारे लिए दीवार-पर-टंगे एक शोभायमान लेख से बढ़कर हो जाते हैं। वे हमारे लहू की धारा में लिख दिए जाते हैं!

लेकिन हम पूरे हृदय से समर्पित और यह कहने वाले हों, "प्रभु, मुझे चाहे कुछ भी क़ीमत चुकानी पड़े, लेकिन मैं यहाँ वास्तव में तेरे लिए खड़ा होना चाहता हूँ। चाहे मेरे सभी संगी-विश्वासी गुनगुने हो जाएं, और चाहे मेरी पत्नी भी मेरा विरोध करे, तब भी खड़े रहने के लिए मुझे अपनी कृपा प्रदान करना। मैं पूरी तरह से तेरा हूँ। जो कुछ मेरा है वह तेरा है। मैं तेरे काम के लिए अपना सारा पैसा भी ख़र्च करने के लिए तैयार हूँ।" तब हम यह पाएंगे कि हम जहाँ कहीं भी जाएंगे, परमेश्वर वहाँ हमारे सामने खड़े हरेक पहाड़ को समतल कर देगा।

देश में चाहे कितने भी विशालकाय पुरुष हों, हमारा परमेश्वर उन सबसे निपट सकता है। वह हमारे "शत्रुओं का शत्रु होगा", और "उनसे लड़ेगा जो हमसे लड़ेंगे" (निर्ग. 23:22; यशा. 49:25)। परमेश्वर ने प्रतिज्ञा की है कि "हमारी हानि के लिए बना कोई भी शस्त्र हम पर सफल न होगा" (यशा. 54:17)। इसलिए हम पर जब भी झूठे आरोप लगाए जाएं, तब हमें अपना बचाव करने की कोई ज़रूरत नहीं होती। हम ख़ामोश रहकर अपना मामला "परमेश्वर के हाथों में सौंप सकते हैं जो धार्मिकता से न्याय करता है" (1 पत. 2:23)। नई वाचा के सेवकों को ऐसा गौरवपूर्ण आचरण करना चाहिए।

हम पूरी तरह परमेश्वर पर निर्भर रहते हैं, यह जानते हुए कि वह हमें कभी निराश नहीं करेगा। जो उसने यीशु, हमारे अग्रदूत के लिए किया था, वही वह हमारे लिए भी करेगा।

हमारी अपनी साक्षी यह है, कि भारत में मसीह की देह के निर्माण के हमारे काम में, हमने पिछले सालों में अनेक पहाड़ों का सामना किया है - मनुष्यों और दुष्टात्माओं का विरोध, झूठे आरोप, ईर्ष्या-भरी निन्दा और "झूठे भाइयों द्वारा विश्वासघात" (2 कुरि. 11:26) आदि। हमने कभी अपना बचाव नहीं किया है। हमने हमेशा परमेश्वर के सामने मुँह के बल गिरकर यह कहा है, "प्रभु, यह हमारा नहीं तेरा काम है। हम सिर्फ तेरे सेवक हैं। हमारा यह विश्वास है कि हमारे देश में तू जो कुछ भी हासिल करना चाह रहा है उसे कोई मनुष्य या दुष्टात्मा नहीं रोक सकती। हम इस पहाड़ को यीशु के नाम में हमारे रास्ते में से हटने की आज्ञा देते हैं।"

आज, 26 साल के बाद, हम यह साक्षी दे सकते हैं कि परमेश्वर ने हमारे रास्ते में खड़े हरेक पहाड़ को हटाया है। वह हमारे शत्रुओं का शत्रु बना है, और उसने स्वयं हमें सही ठहराया है और सत्यापित किया है। सारी महिमा उसके नाम को मिले। हम जानते हैं कि वह भविष्य में भी ऐसा ही करेगा।

विश्वासियों को प्रभु के हाथों में सौंप देना

परमेश्वर के सेवक होते हुए, हमें विश्वासियों की अगुवाई इस तरह करनी चाहिए कि वे हम पर भी नहीं बल्कि पवित्र-आत्मा पर निर्भर हों। जब वे बच्चे होते हैं, तब उन्हें बहुत से मामलों में हमारी मदद की ज़रूरत हो सकती है। लेकिन अगर उन्हें प्रभु को जाने हुए चाहे कुछ महीने ही हुए हों, तब भी मदद पाने के लिए हम उन्हें प्रभु के हाथों में सौंप सकते हैं।

परमेश्वर ने यह ठहराया है कि बच्चे पैदा होने के बाद एक साल के अन्दर ही चलने लगें। हमारी कलीसियाओं में भी ऐसा ही होना चाहिए। नया जन्म पाने के एक साल के अन्दर ही उन्हें प्रभु के पीछे चलने वाले और पाप पर जय पाने वाले हो जाना चाहिए। और दो साल के होने तक वे अपने पैरों पर स्थिर हो जाने चाहिए।

परमेश्वर इस्राएल को भी मिस्र से निकालने के बाद दो साल में ही कादेश-बर्नै में ले आया था, और उसने उन्हें प्रतिज्ञा देश में प्रवेश करने के लिए कहा था। लेकिन उन्होंने परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन किया था। नई वाचा में उनकी निष्फलता को एक चेतावनी के रूप बार-बार हमारे सामने रखा गया है (देखें 1 कुरि. 10 व इब्रा. 3)।

हमें विश्वासियों को यह अनुमति नहीं देनी चाहिए कि वे उनके स्वयं के लिए परमेश्वर की इच्छा जानने की बात में हम पर निर्भर हो जाएं। हमें उन्हें प्रभु के हाथ में सौंप देना चाहिए। वे सिर्फ इसी तरह बढ़ सकते हैं। नई वाचा में, परमेश्वर का वचन यह है, "'प्रभु को पहचान,' क्योंकि छोटे से बड़े तक सब मुझे पहचानेंगे" (इब्रा. 8:11)।

यीशु ने कहा कि उसकी भेड़ें उसकी आवाज़ सुनती हैं। यह ज़रूरी नहीं कि उन्हें वह आवाज़ हमेशा हमारे अन्दर से ही सुनाई दे। इसी बात में ज़्यादातर मसीही अगुवों ने परमेश्वर को निराश किया है। वे विश्वासियों की अगुवाई इस तरह करते हैं जिसमें वे उन्हें पुराने नियम जैसा जीवन जीने वाले बना देते हैं, जिसमें अपने फैसलों के लिए वे अपने अगुवे पर निर्भर हो जाते हैं।

एक नई वाचा का परमेश्वर का सेवक विश्वासियों की अगुवाई करते हुए उनका सीधा सम्बंध मसीह के साथ जोड़ता है जो कि उनका शीर्ष है। हम सिर्फ इस तरह से ही कलीसिया का निर्माण मसीह की देह के रूप में कर सकते हैं।

मसीह की देह का निर्माण करने में दिलचस्पी

ज़कर्याह 4:9 में हम देखते हैं कि जिस ज़रुब्बाबेल ने (जो प्रभु यीशु का एक प्रतीकात्मक स्वरूप था) मन्दिर की नींव डाली थी, वही उसे पूरा भी करने वाला था। प्रभु अपना काम अधूरा नहीं छोड़ेगा।

प्रभु जब एक नगर में अपने नाम की महिमा के लिए एक शुद्ध साक्षी तैयार करने वाले दो विश्वासी पा लेता है, तब वह पहले ही उनमें अपने काम की बुनियाद डाल चुका होता है। फिर उन्हें यह सुनिश्चित करना होता है कि उस बुनियाद में कोई दरार न पड़ जाए - उन दोनों के बीच में कोई दूरी न हो जाए।

अगर वे एक-दूसरे के साथ अपनी संगति को बनाए और बचाए रखने में विश्वासयोग्य रहेंगे, तो प्रभु अपना काम पूरा करेगा। वह वहाँ अपनी कलीसिया का निर्माण करेगा।

अगर आपके हृदय में यह दृढ़ इच्छा है कि आप अपने नगर में मसीह की देह का निर्माण करें, तो आप निश्चित रूप में यह जान लें कि इस काम के लिए परमेश्वर के हृदय की इच्छा और भी ज़्यादा दृढ़ है। कलीसिया के निर्माण में आपकी दिलचस्पी उसकी दिलचस्पी की तुलना में सिर्फ सागर में एक बूँद की तरह है। यह वह है जिसने उस बोझ को आपके हृदय में एक बीज की तरह डाला है। यह कल्पना करना बड़ा पाखण्ड होगा कि ऐसा बोझ हमारा अपना बोझ है। आप सिर्फ उस बीज में पानी दे सकते हैं जिसे स्वयं परमेश्वर ने आपके अन्दर बोया है। वही उसे बढ़ाएगा।

सबसे पहले, अगर आप कलीसिया के निर्माण को परमेश्वर का काम नहीं मानेंगे, तो एक मुश्किल हालात में फँसने पर आप यह सोचेंगे कि क्या परमेश्वर उसमें आपकी मदद करेगा या नहीं करेगा। तब आप भी प्रभु से उसके शिष्यों की तरह यह सवाल करेंगे, "क्या तुझे यह चिंता नहीं कि हम नाश हुए जाते हैं?" (मर. 4:38)।

यह गर्व है। ऐसा गर्व जो हमें यह सोचने वाला बना देता है कि हम मसीह की देह का निर्माण कर रहे हैं, हमें अविश्वासी बना देता है। गर्व और अविश्वास में एक नज़दीकी रिश्ता है।

हबक्कूक 2:4 में हम पढ़ते हैं कि विश्वास करने वाले व्यक्ति का विपरीत रूप अविश्वास करने वाला व्यक्ति नहीं बल्कि गर्व करने वाला व्यक्ति हेाता है! और यूहन्ना 5:44 में, यीशु ने कहा कि यह गर्व है (मनुष्यों का आदर पाने की इच्छा) जो लोगों को विश्वास करने से रोकती है। इस तरह, हम देख सकते हैं कि अविश्वास गर्व में से आता है। गर्व से भरे लोगों को परमेश्वर पर निर्भर होने की ज़रूरत नहीं होती। इसलिए उनमें विश्वास नहीं होता।

ठीक इसी तरह, नम्रता और विश्वास का भी एक नज़दीकी रिश्ता है। एक नम्र व दीन व्यक्ति वह होता है जो आत्म-निर्भर नहीं होता। वह सिर्फ परमेश्वर पर निर्भर रहता है।

हमारा अपने आपमें कोई भरोसा न होना

पुरानी वाचा में, एक इस्राएली का प्राथमिक चिन्ह् ख़तना था। एक ख़तना-रहित व्यक्ति को परमेश्वर के लोगों के बीच में से नाश कर दिया जाता था, क्योंकि वह ईश्वरीय वाचा को तोड़ने वाला व्यक्ति होता था (उत्पत्ति 17:14)।

नई वाचा में, हमें ख़तना का आत्मिक अर्थ इस रूप में सिखाया गया है कि यह "अपने आपमें भरोसा न रखना" है (फिलि. 3:3)।

परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को ही ऊँचा उठाता है और लगातार अपने आत्मा से उसका अभिषेक करता है जिसका अपने आपमें कोई भरोसा नहीं होता। यीशु के बारे में एक नबूवत है जिसमें ऐसा कहा गया है, "मेरे दास को देखो जिसे मैं सम्भाले हुए हूँ ... मैंने अपना आत्मा उस पर रखा है" (यशा. 42:1; देखें मत्ती 12:18)।

पवित्र-आत्मा का अभिषेक नई वाचा का सेवक होने की प्रमुख अनिवार्यता है। इस पद में हम देखते हैं कि परमेश्वर यह अभिषेक उन्हें देता है जिन्हें वह सम्भाले हुए है - मतलब, उन्हें जो एक असहाय रूप में उस पर निर्भर हैं।

जब तक हम अपने आप में निर्बल नहीं होंगे, तब तक हम परमेश्वर में अपने विश्वास को काम में नहीं ला सकेंगे। ऐसा न होने पर हमारा विश्वास शरीर में ही होगा - जो या तो हमारी अपनी चतुराई, योग्यता और धन में होगा, या ऐसे दूसरे लोगों के संसाधनों में होगा जिन्हें हम जानते हैं और जिन पर हम निर्भर हो सकते हैं।

मैं इसका एक चित्र प्रस्तुत करता हूँः अगर एक धनवान और एक निर्धन भाई दोनों ही अचानक किसी आर्थिक तंगी में आ जाते हैं, तो परमेश्वर में किसे ज़्यादा भरोसा रखना पड़ेगा? यक़ीनन, निर्धन भाई को। धनवान भाई के पास पहले ही पर्याप्त धन है। इसलिए उसे प्रार्थना करने की कोई ज़रूरत नहीं होगी। लेकिन निर्धन भाई, अगर उसमें विश्वास है, तो वह परमेश्वर को पुकारेगा, और वह निराश नहीं होगा। जब हमारे पास ऐसे संसाधन नहीं होते जिन पर हम भरोसा कर सकते हों, सिर्फ तभी हम विश्वास से जीना सीख सकते हैं।

बहुत से तथा-कथित "पूर्णकालिक सेवक" भी, जो "विश्वास से जीने" का दावा करते हैं, उनके भी ऐसे भरोसेमंद मानवीय संसाधन होते हैं जिन पर वे निर्भर रह सकते हैं। उनके ऐसे भाई होते हैं जो प्रतिमाह उन्हें पैसा भेजते हैं - अगर कभी ऐसा हो जाए कि परमेश्वर उन्हें न संभाले तो!

"विश्वास सुनने से होता है" (रोमि. 10:17)। जो कुछ परमेश्वर बोलता है, जब हम वह सुनते हैं, तब हमारे हृदय में विश्वास पैदा होता है। परमेश्वर उसके वचन के द्वारा, और उसके पवित्र-आत्मा द्वारा भी हमसे बात करता है। इसलिए, अगर हम परमेश्वर की नहीं सुनेंगे, तो हममें विश्वास नहीं होगा। हम चाहे जो कुछ भी करते हों, लेकिन हमारे आत्मिक ऐरियल सारा दिन परमेश्वर का शब्द सुनने के लिए उसके साथ जुड़े रहने चाहिए।

परमेश्वर के एक सेवक की सबसे बड़ी ज़रूरत उसका हमेशा परमेश्वर की बात सुनते रहना होता है। यीशु प्रतिदिन पवित्र-आत्माा की आवाज़ को सुनता और उसका पालन करता था (देखें यशा. 50:4)। इससे यह प्रमाणित होता है कि उसका अपने आपमें कोई भरोसा नहीं था, और वह जानता था कि सिर्फ पिता ही उसे वे बातें दिखा सकता है जिनका अनन्त मूल्य है और जिनका अनन्त मूल्य नहीं है। हम ऐसे बहुत से कामों में अपना समय बर्बाद कर देते हैं जिनका अनन्त मूल्य नहीं होता, क्योंकि हम बहुत जल्दी में रहते हैं और हमारे पास परमेश्वर की बात सुनने का समय ही नहीं होता।

परमेश्वर हमें यह सिखाना चाहता है कि हम उसमें विश्वास से कैसे जी सकते हैं। बाइबल 4 बार यह कहती है कि "धर्मी जन विश्वास से जीवित रहेगा।" यह सिर्फ पूर्ण-कालिक सेवकों के लिए ही नहीं बल्कि सभी विश्वासियों के लिए लिखा है। इसलिए परमेश्वर हमारे हालातों को कुछ इस तरह तैयार करता है कि हमें मार्गदर्शन के लिए बार-बार उसकी तरफ मुड़ने पर मजबूर होना पड़ता है। और अगर हम परमेश्वर के लिए सर्वोच्च चाहेंगे, तो वह उन सारे मानवीय सहारों को धीरे-धीरे हमारे आसपास से हटा लेगा जिन पर हमारा बहुत समय से भरोसा रहा है, और वह हमें उस जगह पर ले आएगा जहाँ अपनी सारी ज़रूरतों के लिए सिर्फ उस पर ही भरोसा रखें - चाहे वे ज़रूरतें आर्थिक हो, भौतिक हों, या जैसी भी हों।

2 इतिहास 16:12 में, हम यह पढ़ते हैं कि यहूदा का राजा आसा बीमार था। जब एक राजा बीमार होता है, तो वह अपने इलाज के लिए सबसे अच्छे वैद्य को बुला सकता है। फिर भी आसा मर गया। "उसका रोग भयंकर था, तो भी अपनी रोगी अवस्था में उसने प्रभु की नहीं वैद्यों की शरण ली थी" (पद 12)।

लेकिन अगर इस्राएल का एक निर्धन व्यक्ति बीमार पड़ा होता, तो उसे प्रभु को पुकारना पड़ता, और प्रभु उसे चंगा कर सकता था। हम परमेश्वर को सिर्फ तभी खोजते हैं जब हम कमज़ोर होते हैं और हमारे मानवीय संसाधन सीमित होते हैं।

मसीही जीवन में विश्वास एक इतना महत्वपूर्ण घटक है कि हमें यह बताया गया है कि "विश्वास के बिना परमेश्वर को प्रसन्न करना असम्भव है" (इब्रा. 11:6)। इसका अर्थ यह है कि अगर हम पूरी तरह शुद्ध और भला जीवन व्यतीत कर रहे हों - पीठ-पीछे बुराई या निन्दा न कर रहे हों, या बेईमानी न करते हों या झूठ न बोलते हों, और चाहे हम अपना सारा धन परमेश्वर के काम के लिए दे देते हों लेकिन फिर भी हम विश्वास से न जीते हों (एक असहाय रूप में परमेश्वर पर निर्भर रहते हुए और अपने आपमें कोई भरोसा न रखते हुए), तो हम तब भी उसे प्रसन्न न कर पाएंगे।

नई वाचा के सेवक होते हुए, हमें कलीसिया में दूसरे लोगों को सिर्फ बाइबल का ज्ञान ही नहीं बल्कि विश्वास देना है। हमें अपने अनुभव से उन्हें यह सिखाना चाहिए कि सभी परिस्थितियों में प्रभु में कैसे भरोसा रखा जा सकता है।

जैविक-शक्ति,विद्युत-शक्ति व धन-शक्ति

एक और बात जो परमेश्वर के सेवक होते हुए हमें समझने की ज़रूरत है, वह यह है कि हमें जैविक-शक्ति और पवित्र-आत्मा की शक्ति के बीच का फ़र्क मालूम होना चाहिए।

पतरस ने एक बार प्रभु से कहा था, "तू जीवित परमेश्वर का पुत्र मसीह है।" यीशु ने फोरन यह कहते हुए उसे जवाब दिया, "माँस और लहू ने तुझ पर यह प्रकट नहीं किया है।" दूसरे शब्दों में, पतरस ने उस आत्मिक सत्य को अपनी जैविक-शक्ति से नहीं जाना था - उसकी मानवीय चतुराई या चालाकी से।

हमारा जीव (मन) हमें ईश्वरीय प्रकाशन नहीं दे सकता। अगर हम मानसिक रूप में बुद्धिमान होंगे, तो बाइबल में से हम चतुराई भरे विचार प्राप्त कर सकेंगे। और फिर कलीसिया में उन विचारों को दूसरों के साथ बाँटने के द्वारा हम उन लोगों को प्रभावित कर सकेंगे जिनमें परख नहीं है। लेकिन मानवीय चतुरता से भरे विचार और ईश्वरीय प्रकाशन एक-दूसरे से उतने ही अलग और इतने दूर हैं, जितने कि पृथ्वी और स्वर्ग।

पौलुस ने डरते और थरथराते हुए प्रचार किया था, क्योंकि परमेश्वर के वचन का प्रचार करते समय वह अपनी मानवीय चतुराई का इस्तेमाल करने से डरता था - क्योंकि तब लोगों के विश्वास का आधार परमेश्वर की सामर्थ्य नहीं बल्कि उसकी बुद्धिमानी बन जाती (1 कुरि. 2:1-5)।

मानवीय रीति से कहें, तो एक आदर्श रूप में पौलुस यहूदियों के बीच में प्रचार करने के लिए बिलकुल अनुकूल व्यक्ति था (क्योंकि वह उनके शास्त्रें को जानता था), और पतरस ग़ैर-यहूदियों के बीच में। फिर भी परमेश्वर ने उन्हें विपरीत सेवाएं दीं (गला. 2:8), कि वे अपनी योग्यताओं पर नहीं बल्कि पवित्र-आत्मा पर निर्भर रहें।

चतुराई भरे विचार अकसर वे होते हैं जिनका प्रचार हम दूसरे लोगों के आगे करके उनका आदर-सम्मान पाना चाहते हैं। दूसरी तरफ, प्रकाशन वह होता है जो हमें परमेश्वर के सम्मुख मुँह के बल गिरा देता है। अपनी चतुराई से, हम लोगों को प्रभावित कर सकते हैं, लेकिन प्रकाशन से हम लोगों की मदद कर सकते हैं।

जब यशायाह ने परमेश्वर की महिमा देखी, तब उसने उस दर्शन के बारे में यह नहीं सोचा था कि उसके अगले संदेश के लिए उसे एक प्रचार का मुद्दा मिल गया था! उसने मुँह के बल गिरकर परमेश्वर की आराधना की थी। यूहन्ना के साथ भी पतमुस के द्वीप में यही हुआ था। जब ये दोनों प्रभु के सामने मुँह के बल गिरे, उसके बाद ही ऐसा हुआ था कि प्रभु ने उन्हें दूसरों के पास ले जाने के लिए एक संदेश दिया था। इससे पहले कि हम परमेश्वर की सेवा करें, हमें उसकी आराधना करनी होगी।

जैविक-शक्ति उन प्रचारकों की सेवकाई में भी देखी जा सकती है जिसमें सम्मोहन-शक्ति द्वारा लोग ज़मीन पर गिर जाते हैं, वे उन्मत्त होकर हँसते हैं, और अपना धन प्रचारकों को दे देते हैं। ऐसी सभाओं में वे लोग भी फ्चंगे" हो जाते हैं जिन्हें मनोदैहिक बीमारियाँ होती हैं (ऐसी बीमारियाँ जो ग़लत मानसिक मनोभावों द्वारा होती हैं)। यह सब मानवीय जैविक-शक्ति द्वारा लेकिन यीशु के नाम को इस्तेमाल करने द्वारा होता है जिसमें बहुत से विश्वासी भी भरमाए जाते हैं। परमेश्वर के सेवक होते हुए, हमें इन नक़ल करने वालों का पर्दाफाश करना चाहिए।

जैविक-शक्ति को उस तरीक़े में भी देखा जा सकता है जिसमें अनेक मसीही अगुवे अपने अनुयायियों को दबा कर रखते हैं, और अपने व्यक्तित्व द्वारा उन्हें अभिभूत करते हैं। लोगों पर ऐसे अगुवों का भय छा जाता है और वे "परमेश्वर के पवित्र जनों" के रूप में उनका आदर करने लगते हैं। और ये अगुवे अपने अनुयायियों की ऐसी सराहना को बहुत पसन्द करते हैं।

संगीत में भी ज़बरदस्त जैविक-शक्ति होती है। वह हमारी भावनाओं को उत्तेजित कर सकता है। लेकिन हम इस धोखे में न पड़ जाएं कि वह पवित्र-आत्मा की शक्ति है। हम अच्छे संगीत द्वारा बहुत लोगों को अपनी मण्डली की तरफ आकर्षित कर सकते हैं। लेकिन हम कैसे लोगों को आकर्षित करेंगे? ऐसे लोगों को नहीं जो आत्मा में नम्र व दीन होंगे और जो एक ईश्वरीय जीवन जीने के लिए मदद चाह रहे हैं, बल्कि वे ऐसे सुसंस्कृत और तार्किक लोग होंगे जिन्हें अपनी समझ और संगीत की पसन्द पर गर्व होगा।

मुझे याद है कि एक रविवार को हमारी बैंगलोर मण्डली में एक संगीत का दान पाई हुई पति-पत्नी की जोड़ी आई थी। उन्हें हमारे संगीत का स्तर नीचा लगा, इसलिए वे दोबारा नहीं आए। हमने ऐसे लोगों से हमें बचाए रखने के लिए प्रभु को धन्यवाद दिया जो एक ईश्वरीय नहीं बल्कि संगीतमय कलीसिया की खोज में थे!

हमें कलीसिया में एक अच्छे संगीत की नहीं बल्कि पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य की ज़रूरत होती है। पतरस ने पैन्तेकुस्त के दिन लोगों को एक बाजे या ढोल से नहीं बल्कि परमेश्वर के अभिषेक से आकर्षित किया था। जब यह अभिषेक चला जाता है, तभी ऐसा होता है कि फिर लोग उसकी जगह अच्छे संगीत, हँसी-ख़ुशी भरे संदेश और भव्य भवनों आदि, को दे देते हैं।

विद्युत-वाद्य व यंत्र भी एक फंदा हो सकते हैं। परमेश्वर के अभिषिक्त दासों के संदेशों के टेप यक़ीनन हमारी आत्मिक उन्नति में मदद कर सकते हैं। लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि परमेश्वर जब हमसे बात करे, तो हम पवित्र-आत्मा से ज़्यादा उन टेपों पर भरोसा न करने लगें। अगर हमारे पास प्रेरित पौलुस के टेप भी होते, तब हम उनसे भी मसीह की देह का निर्माण नहीं कर पाते!

धन भी संसार की एक और ऐसी वस्तु है जिसमें ज़बरदस्त शक्ति होती है, और हम आसानी से उसका सहारा लेने वाले बन सकते हैं। आज लगभग हरेक मसीही संस्था धन की आवश्यकता के बारे में बात करती है, और वे पश्चिमी देशों में पत्र व पत्रिकाओं द्वारा सहज व निष्ठावान् (लेकिन भोले) विश्वासियों से "सर्वशक्तिशाली" डॉलर बटोरते हैं।

दूसरी तरफ, प्रेरितों ने एक बार भी अपने लिए या अपने काम के लिए विश्वासियों से पैसा नहीं माँगा था। उन्होंने विश्वासियों से यही आग्रह किया कि वे "कंगालों की सुधि लें" (गला. 2:10), और उनकी मदद करें जो ज़रूरतमंद हैं (2 कुरि. 8 और 9)। लेकिन अफसोस, जो बात प्रेरितों ने एक बार भी नहीं बोली वह मसीही काम में आजकल हर समय बोली जाती है।

परमेश्वर कहता है, "अगर मैं भूखा होता, तो तुझसे न कहता, क्योंकि जगत और जो कुछ उसमें है वह मेरा ही है" (भजन. 50:12)।

हम अपने बारे में क्या कहें जो इस परमेश्वर के सेवक हैं? जब हमें ज़रूरत होती है - खाने की या पैसे की - तब हम क्या करते हैं? क्या हम अपने स्वर्गीय पिता से वह कहते या मनुष्यों से कहते हैं? अगर हम वास्तव में परमेश्वर के बुलाए हुए हैं, तो हमें कभी किसी ज़मीनी चीज़ की कोई कमी नहीं होगी। परमेश्वर को धन की कोई कमी नहीं है। लेकिन उसके पास टूटे हुए, नम्र, विश्वासयोग्य और भरोसेमंद सेवकों की कमी है।

परमेश्वर ऐसे टूटे हुए, नम्र व विश्वासयोग्य लोगों को ढूंढ रहा है जिन्हें वह अपने पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य से भरना और अपनी कलीसिया को बनाने में इस्तेमाल करना चाहता है।

परमेश्वर एक जलन रखने वाला परमेश्वर है। वह अपनी महिमा किसी दूसरे को नहीं देगा। वह अपनी कलीसिया का निर्माण अपनी सामर्थ्य के अलावा किसी दूसरी शक्ति द्वारा नहीं करेगा।

परमेश्वर का काम आज भी, पुराने दिनों की तरह - जैविक-शक्ति, विद्युत यंत्र शक्ति, या धन-शक्ति से नहीं बल्कि पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य से होता है!

यीशु का जीवन व सेवकाई

जब भी पवित्र-आत्मा से भरे जीवन के बारे में सोचें, तो हमें यीशु के जीवन और उसकी सेवकाई के बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि आत्मा-से-भरे एक व्यक्ति का वह सबसे स्पष्ट उदाहरण है।

यीशु के पास क्या था - आत्मा के दान-वरदान या आत्मा के फल? इसका जवाब है - "दोनों।" इसलिए हम भी इन दोनों की खोज में रहें।

पवित्र-आत्मा परमेश्वर के वचन के दर्पण में हमें यीशु की महिमा दिखाएगा, और फिर वह हमें उसके समान बनाएगा (2 कुरि. 3:18)।

पवित्र-आत्मा हमें पहले यीशु का जीवन दिखाएगा। उदाहरण के लिए, वह हमें उसका सिद्ध धीरज दिखाएगा - कि जब लोगों ने उसे थप्पड़ मारे, उसकी दाढ़ी के बाल नोचे, और उस पर झूठे आरोप लगाए, तो कैसे वह झुंझलाया नहीं था। आत्मा हमें यह दिखाएगा कि उसके घर और उसकी बढ़ई की दुकान की विभिन्न स्थितियों उसने कैसी प्रतिक्रियाएं की थीं। और अगर हम अपने आपको पवित्र-आत्मा के अधीन कर देंगे, तो वह हममें भी वही स्वभाव तैयार कर देगा।

परमेश्वर अपनी सुइच्छा के लिए हमारी इच्छा और कामों को प्रोत्साहित करने के लिए हममें सक्रिय होना चाहता है। लेकिन अपने उद्धार के काम को स्वयं हमें डरते और काँपते हुए पूरा करना होगा (फिलि. 2:12,13)। और तब हम धीरे-धीरे अपने जीवनों में एक बदलाव होता हुआ देखेंगे।

परमेश्वर के स्वभाव में सहभागी होना एक बात है, और उसे निर्मित करने की कोशिश करना बिलकुल अलग बात है। हम परमेश्वर के स्वभाव को जब हम परमेश्वर के स्वभाव में सहभागी होना चाहते हैं, तो उसे निर्मित करने की अपनी अयोग्यता को जानते हुए, हमें अपने टूटेपन में आने की और दीनता के साथ उसे पवित्र-आत्मा से ग्रहण करने की ज़रूरत होती है। लेकिन अफसोस, कि बहुत लोगों को यह समझने में बहुत समय लगता है कि वे ईश्वरीय स्वभाव को स्वयं निर्मित नहीं कर सकते।

अगर हमें ऐसा लगता है कि हम आज पूरा दिन धीरजवंत रहे हैं क्योंकि हम पूरे हृदय से समर्पित हुए हैं, और क्योंकि हमने अपने आपको अनुशासित किया है, तो हम शैतान द्वारा भरमाए जा रहे हैं। वह इस तरह ही हमें घमण्ड से भरना चाहता है कि फिर वह हमारा नाश कर सके। हममें जो धीरज है, अगर उसे हमने स्वयं ही निर्मित किया है, तो वह व्यर्थ मानवीय गुण है - मनुष्य के मल जितना व्यर्थ।

लेकिन दूसरी तरफ, अगर हम यह समझते हैं कि हमने अपना धीरज परमेश्वर से पाया है, और यह कि उसे हमने स्वयं निर्मित नहीं किया है, तब हमारे लिए यह मुश्किल न होगा कि हमारे जीवन में परमेश्वर ने जो कुछ किया है, हम उन सब बातों की सारी महिमा उसे ही दें।

इसलिए हम पवित्र-आत्मा को यह अनुमति दें कि वह हमारे जीवन के हरेक क्षेत्र में हमें यीशु की महिमा दिखाए और हमें मसीह की समानता में बदलता जाए।

पवित्र-आत्मा हमें यह भी दिखाएगा कि यीशु ने पिता की कैसे सेवा की थी। यीशु का पवित्र-आत्मा द्वारा अभिषेक हुआ था और वह अलौकिक दान-वरदानों से सुसज्जित था। उसने अभिषिक्त होने से पहले पिता की सेवा करने का दुस्साहस नहीं किया था - जैसा कि आज विश्वासियों के बड़े समूह करना चाह रहे हैं।

यीशु के बारे में यह लिखा है कि "परमेश्वर ने उसका पवित्र-आत्मा और सामर्थ्य से अभिषेक किया था।" इसका परिणाम क्या हुआ था? "वह भलाई करता हुआ और उन सब को जो दुष्टात्मा द्वारा सताए हुए थे, चंगा करता हुआ (छुटकारा देता हुआ) फिरा क्योंकि परमेश्वर उसके साथ था" (प्रेरितों. 10:38)।

हमारे आसपास का संसार ऐसे लोगों से भरा हुआ है जो किसी न किसी तरह से शैतान के दबाए हुए, सताए हुए और जकड़े हुए हैं। जब परमेश्वर हमारे साथ होगा तब हम भी वही करेंगे जो यीशु ने किया था - उनकी भलाई करते हुए और उन्हें शैतान के बंधनों से छुटकारा दिलाते हुए फिरते रहेंगे। पवित्र-आत्मा के अभिषेक के बिना ऐसा कर पाना असम्भव होगा।

अगर स्वयं यीशु पवित्र-आत्मा के अभिषेक के बिना ऐसी सेवकाई पूरी न कर सका था, तो हम कैसे कर सकेंगे?

जब हम पवित्र-आत्मा के बपतिस्मे और दान-वरदानों को यीशु की सेवकाई के संदर्भ में देखते हैं, तो हम कभी ग़लती नहीं कर सकते। यीशु ने न सिर्फ एक पवित्र जीवन बिताया, बल्कि दूसरों के लिए उसके पास एक सेवकाई भी थी। उसने प्रचार किया, बीमारों को चंगा किया, दुष्टात्माओं को निकाला, और शिष्य बनाए।

अगर हम यीशु की तरह अभिषिक्त नहीं होंगे, तो हम कलीसिया में परमेश्वर के सेवकों के रूप में कभी एक प्रभावशाली सेवकाई नहीं कर सकेंगे।

ऐसे बहुत लोग हैं जो वचन का ध्यान से अध्ययन करते हैं और उसका सही प्रचार करते हैं, लेकिन उनके ऊपर पवित्र-आत्मा का अभिषेक नहीं होता। इसलिए उनकी सेवकाई सूखी और मरी हुई होती है।

नई वाचा के सेवक होते हुए, हमारे प्रचार हमेशा पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य में होने चाहिए। यीशु ने जब भी प्रचार किया, वह कभी भी मंद या नीरस नहीं था - क्योंकि वह अभिषिक्त था। जब हम भी उसकी तरह अभिषिक्त होंगे, तब हम भी मंद, नीरस या निस्तेज नहीं होंगे। इसकी बजाय, हमारी सेवकाई सबके लिए एक ताज़गी-भरी आशिष होगी।

जब यीशु ने इम्माऊस के मार्ग पर जा रहे शिष्यों को वचन का प्रचार किया था, तब उन्होंने यह साक्षी दी थी कि उनके "हृदय उनके भीतर उत्तेजित हो रहे थे" (लूका 24:32)। एक वास्तव में अभिषिक्त सेवकाई ऐसी ही होती है - वह लोगों के हृदयों को उनके भीतर उत्तेजित करती है। और हमारी सेवकाई भी हर समय ऐसी ही होनी चाहिए।

ऐसा कोई समय नहीं होना चाहिए जिसमें हम पवित्र-आत्मा के अभिषेक के बिना हों। तब हमारे रास्ते में आने वाले हरेक व्यक्ति के लिए हमारे पास हमेशा एक शब्द होगा, वैसे ही जैसे यीशु के पास होता था (देखें यशा. 50:4)।

प्रेरितों के काम 1:1 में, यह लिखा है कि लूका के सुसमाचार में "उन सब बातों को लिखा गया है जिन्हें यीशु ने करना और सिखाना शुरू किया था।" इस तरह, प्रेरितों के काम उन बातों का जारी रहना है जिन्हें यीशु ने करना और सिखाना शुरू किया था। सुसमाचारों में, हमारे पास उन बातों का बयान है जो यीशु ने अपनी शारीरिक देह द्वारा किए थे। प्रेरितों के काम में हमारे पास वह बयान है जो उसने अपनी आत्मिक देह के द्वारा किए थे। इसलिए प्रेरितों के काम असल में प्रेरितों के द्वारा किए गए यीशु के काम हैं।

यीशु आज पृथ्वी पर उस सेवकाई के अलावा दूसरी कोई सेवकाई नहीं कर रहा है जो उसने 2000 साल पहले उस समय की थी जब वह पृथ्वी पर आया था। वह अब भी अपनी आत्मिक देह - कलीसिया द्वारा भलाई करता हुआ और उन सब को जो शैतान द्वारा सताए हुए हैं, चंगा करता हुआ फिर रहा है।

इसलिए प्रभु की देह में उसके सेवक होना हमारे लिए एक ज़बरदस्त जि़म्मेदारी है। हम इस जि़म्मेदारी को कभी हल्के तौर पर न लें। अगर 30 साल तक ऐसा सिद्ध जीवन जीने वाले यीशु को पिता की सेवा शुरू करने से पहले पवित्र-आत्मा के अभिषेक की ज़रूरत थी, तो हम ऐसी सेवकाई में वैसे ही अभिषेक के बिना जुड़ने का दुस्साहस कैसे कर सकते हैं?

अगर हम अभी तक पवित्र-आत्मा द्वारा अभिषिक्त नहीं किए गए हैं, तो इसका कारण यही है कि हमने अभी पर्याप्त रूप में उसे पाना नहीं चाहा है। और अगर हमने उसे पाना नहीं चाहा है, तो यह शायद इसलिए है क्योंकि हमने पर्याप्त रूप में उसे मूल्यवान नहीं जाना है। और अगर हमने उसे मूल्यवान नहीं जाना है, तो यह अवश्य ही इसलिए है क्योंकि अभी तक हमने अपने आपको आत्म-निर्भर जाना है। इसलिए हम अपनी आत्म-निर्भरता की तरफ से अपने मन फिराएं, और परमेश्वर को यह अनुमति दें कि वह हमारे हृदयों में से सारी आत्म-निर्भरता का ख़तना कम कर दे।

पवित्र-आत्मा का अभिषेक

भाइयो, हम अपने पूरे हृदय से पवित्र-आत्मा का अभिषेक पाने के लिए परमेश्वर के खोजी बनें। हम इसके बिना कभी भी कलीसिया का निर्माण नहीं कर सकते और न ही परमेश्वर की सेवा कर सकते हैं। यह हमारी सबसे बड़ी और सबसे निर्णायक आवश्यकता है। आग का जो बपतिस्मा यीशु ने पैन्तेकुस्त के दिन अपने शिष्यों को दिया था, हम उससे कम किसी भी बात से संतुष्ट न हों। और जब भी परमेश्वर की आग हमारी सेवकाई में से बाहर निकल जाए, तो हम शोक मनाएं।

पवित्र-आत्मा का अभिषेक हमेशा दूसरों की ज़रूरत पूरी करने के साथ जुड़ा होता है। यीशु ने लूका 4:18 में कहा है, "प्रभु का आत्मा मुझ पर है, क्योंकि उसने कंगालों को सुसमाचार सुनाने के लिए मेरा अभिषेक किया है। उसने मुझे भेजा है कि मैं बन्दियों को छुटकारे का और अंधों को दृष्टि पाने का सन्देश दूँ और दबे-कुचलों को छुड़ाऊँ।"

ध्यान दें कि पवित्र-आत्मा के अभिषेक का बयान यहाँ सिर्फ दूसरों की ज़रूरतें पूरी करने वाले के रूप में किया गया है - कंगाल, बंदी, अंधे और दबे-कुचले। यह हमारी अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए नहीं है। जब हमारी कलीसियाओं में हमारे ऊपर कंगालों, दबे-पिछड़ों और शैतान के बन्दियों के लिए एक बोझ आता है और हमें उनमें दिलचस्पी होती है, परमेश्वर सिर्फ तभी हमारा अभिषेक करता है।

यीशु ने एक बार एक दृष्टान्त सुनाने के द्वारा हमें सिखाया कि हमें किस तरह पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य माँगनी है (लूका 11:5-13)। एक व्यक्ति के घर एक रात एक अतिथि आया और उसके घर में उसे देने के लिए कुछ नहीं था। तब वह अपने पड़ौसी के घर गया और वह तब तक उसके द्वार को खटखटाता रहा जब तक कि उसने अपने बिस्तर में से निकल कर उसके अतिथि के लिए उसे खाना नहीं दिया। तब यीशु ने कहा कि हमें भी अपने स्वर्गीय पिता से इसी तरह पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य पाने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए (पद 13)।

अगर हमारे घर (कलीसिया) में आने वाले ज़रूरतमंद लोगों के लिए हममें दिलचस्पी नहीं होगी, तब उन्हें आशिष देने के लिए और उनके बंधनों से मुक्त करने के लिए परमेश्वर के खोजी नहीं बनेंगे।

जब हम एक भाई को शैतान द्वारा सताए जाता हुआ देखते हैं, तब हम क्या करते हैं? क्या हम सिर्फ उसके लिए प्रार्थना करते हैं और उसे वापिस भेज देते हैं। तब हम प्रभु के प्रतिनिधि होने योग्य नहीं हैं जो लोगों को शैतान के बंधनों से छुड़ाने के लिए आया था। हम परमेश्वर से वह माँगें जिसकी हमारे भाई को ज़रूरत है। हमें प्रभु से कह देना चाहिए कि उस भाई की मदद के लिए जो चाहिए वह हमारे पास नहीं है, और हम प्रभु से उसे छुड़ाने के लिए सामर्थ्य माँगें। और हमें सामर्थ्य तब तक माँगते रहना है जब तक हम वह प्राप्त न कर लें। तब हम वह प्राप्त कर लेंगे।

यह उपरोक्त दृष्टान्त का व्यावहारिक रूप में लागू किया जाना है।

हममें से हरेक के पास पवित्र-आत्मा के वे सभी दान-वरदान नहीं हो सकते जैसे यीशु के पास थे, क्योंकि आत्मा मसीह की देह के अंगों में अपनी इच्छानुसार दान-वरदान बाँटता है। आरम्भ में स्वयं यीशु मसीह की देह था। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि उसमें पवित्र-आत्मा के सभी दान-वरदान थे। लेकिन आज मसीह की देह के बहुत से अंग हैं जिन्हें ये दान-वरदान दिए जाते हैं। यह हो सकता है कि पवित्र-आत्मा ने आपको शिक्षा देने का या चंगा करने का वरदान न दिया हो। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। यह हो सकता है कि उसने आपको दूसरों को उत्साहित करने का वरदान दिया हो। अगर ऐसा है, तो विश्वासयोग्य रहते हुए उस वरदान का उपयोग करें, और दूसरों को यह अनुमति दें कि वे उनके दान-वरदानों का उपयोग कर सकें।

आप स्वयं ही सब कुछ होने की कोशिश न करें - क्योंकि आप वह नहीं हो सकते।

सिर्फ एक ही व्यक्ति हुआ है जो अपने आपमें सब कुछ हो सकता था - और वह यीशु था। आज हम उसकी देह का सिर्फ एक अंग हो सकते हैं। इसलिए जब हम यह देखें कि परमेश्वर ने युवा भाइयों को कुछ ऐसे ख़ास दान-वरदान दिए हैं जो हमारे पास नहीं हैं, तो हम आनन्द मना सकते हैं। तब वे देह के काम के उस हिस्से को हमसे बेहतर तरीक़े से कर सकेंगे। इसमें प्रभु की महिमा हो!

एक बार जब हम मसीह की देह को देख लेंगे, तो उसके बाद हम कभी किसी से ईर्ष्या नहीं करेंगे। इसकी बजाय, हम उस सेवकाई में आनन्दित होंगे जो परमेश्वर ने उन्हें दी है।

परमेश्वर हमें कृपा देता है कि हम किसी एक क्षेत्र में लोगों की मदद कर सकें, और परमेश्वर दूसरों को कृपा देता है कि वे किसी दूसरे क्षेत्र में उन्हीं लोगों की मदद कर सकें। इस तरह, हमारे हृदय में हरेक भाई व बहन के लिए एक सच्चा आभार होगा।

कलीसिया के सबसे कमज़ोर भाई या बहन की भी एक अति आवश्यक सेवकाई होती है। असल में, वे जितना ज़्यादा कमज़ोर होंगे, उनके पवित्र-आत्मा पर निर्भर होने की उतनी ही ज़्यादा सम्भावना होगी।

हम परमेश्वर के सिर्फ तभी एक प्रभावशाली सेवक हो सकते हैं जब हम अपनी स्थानीय कलीसिया में सभी भाइयों व बहनों की सेवकाइयों को शामिल कर लेते हैं। एक ऐसा मसीही अगुवा जो सब कुछ ख़ुद ही करता है, परमेश्वर के सेवक के रूप में निष्फल रहता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज अनेक पास्टरों की यही दशा है।

सही संतुलन

हमें इस बात में सचेत रहने की ज़रूरत होती है कि हमारे जीवन सिर्फ उन अतिवादी बातों के प्रति हमारी प्रतिक्रिया न बन जाए जो हम दूसरे मसीही समूहों में देखते हैं।

मसीही जगत के इतिहास में, ऐसे बहुत से समूह हुए हैं जिन्होंने पवित्रता पर ही ज़ोर दिया और पवित्र-आत्मा के दान-वरदानों को तुच्छ जाना - यहाँ तक कि उन्होंने उन्हें शैतानी भी कह दिया! वे सब परमेश्वर के उन सर्वोच्च उद्देश्यों को पूरा करने में निष्फल रहे जिन्हें यीशु ने पूरा किया था।

एक विपरीत रूप में, दूसरे छोर पर ऐसे समूह हैं जिन्होंने सिर्फ पवित्र-आत्मा के दान-वरदानों पर इस हद तक ज़ोर दिया कि उन्होंने अपनी व्यक्तिगत पवित्रता को ही पूरी तरह से अनदेखा कर दिया था। निश्चित रूप से ऐसे समूह भटक जाएंगे, क्योंकि वे धार्मिक दुष्टात्माओं के धोखे में पड़ जाएंगे।

इसी तरह, कुछ ऐसे समूह हैं जो परमेश्वर के वचन के बौद्धिक अध्ययन पर ज़ोर देते हैं। और एक अतिवादी रूप में, इसके दूसरे छोर पर ऐसे समूह हैं जो भावनात्मक जोश पर ज़ोर देते हैं। लेकिन ये दोनों ही समूह अपनी जैविकता के प्रति अनजान होते हैं। बौद्धिकता और भावुकता दोनों ही जैविकता हैं। इनमें से कोई भी सच्ची आत्मिकता नहीं है। यह पवित्र-आत्मा ही है जो परमेश्वर की संतानों की अगुवाई करते हुए उन्हें आज्ञापालन के जीवन में ले जाता है।

हम इन समूहों में से किस के पीछे जाएं? किसी के भी नहीं।

हम अपने प्रभु के उदाहरण का अनुसरण करेंगे जिसमें पवित्र-आत्मा का फल और उसके दान-वरदान दोनों थे, और जो सिर्फ वचन का अध्ययन करके उत्तेजित नहीं हुआ था बल्कि उसने उसका पालन किया था! अगर हम यह करेंगे, तो हम कोई ग़लती नहीं करेंगे।

हम अपने पूरे हृदय से "प्रेम का पीछा करें और आत्मिक वरदानों की खोज में रहें" (1 कुरि. 14:1), और तब हम जिससे भी मिलेंगे, उससे प्रेम कर सकेंगे, और हमारे रास्ते में आने वाले शैतान के सताए हुए हरेक व्यक्ति को मुक्त कर सकेंगे।

एक आशिष बनना

पहला कुरिन्थियों अध्याय 12 में पवित्र-आत्मा के दान-वरदानों की तुलना मानवीय देह के अंगों से की गई है - आँख, कान, हाथ और पैर। हमें देखने के लिए आँखों की, सुनने के लिए कानों की, दूसरों की मदद के लिए हाथों की, और इस जगत के विभिन्न स्थानों में जाने के लिए पैरों की ज़रूरत होती है। इसी तरह, परमेश्वर ने हमें पवित्र-आत्मा के ये वरदान दिए हैं कि हम इनके द्वारा अपने आसपास के ज़रूरतमंद जगत को आशिष दे सकें। वह हमें सामर्थ्य देना चाहता है कि हम लोगों के जीवनों पर से शैतान की पकड़ को तोड़ सकें और उन्हें उनकी निष्फलताओं और आशंकाओं में से मुक्त कर सकें।

जब परमेश्वर अपने तेल से हमारे सिरों का अभिषेक करता है, तब हमारा प्याला यक़ीनन उमड़ कर दूसरों को आशिषित करता है। और हमारा तेल जब हम दूसरों के बर्तन में उण्डेलते रहेंगे, तो हमें भी (एलीशा के समय में 2 राजा 4:1-7) की उस विधवा जैसा ही अनुभव होगा कि परमेश्वर के अभिषेक में इतनी सामर्थ्य और आशिष होती है कि वह हमारे रास्ते में आने वाले हरेक व्यक्ति की मदद कर सके। उस दिन उस ग़रीब विधवा के घर में एक भी ऐसा बर्तन नहीं था जिसमें तेल नहीं भरा था। उसके द्वारा उसके आसपास के सभी लोगों को भी आशिष मिली थी। और हमारे आसपास के लोग भी इसी तरह आशिष पा सकते हैं।

लेकिन हमें दूसरों के जीवनों में उण्डेलते रहना होगा। यह ईश्वरीय नियम है। अगर हम स्वार्थी होकर परमेश्वर की आशिष को अपने लिए रख लेंगे, तो चाहे हमारी आशिष स्वर्ग से भी क्यों न आई हो, वह मन्ना की तरह ही सड़ने व बदबू उड़ाने लगेगी।

नीति. 11:25 कहता है कि जो दूसरों की खेती सींचता है, उसकी स्वयं की खेती भी परमेश्वर द्वारा सींची जाएंगी।

यीशु कलवरी की सूली पर हमारे लिए श्राप बना था कि अब्राहम की आशिष हम तक पहुँच सके - पवित्र-आत्मा की प्रतिज्ञा (गला- 3:13)। अब्राहम की आशिष का बयान उत्पत्ति 12:3 में किया गया है कि वह "पृथ्वी की सब जातियों के लिए आशिष" होना है। नई वाचा का सेवक होने का यही अर्थ होता हैः हम पृथ्वी पर ऐसे हरेक परिवार के लिए एक आशिष हों जिससे हमारी भेंट होती है। मसीह में यह हमारा जन्माधिकार है।

इसलिए हम "छोटी बातों की शुरुआत को तुच्छ न जानें" (ज़क. 4:10)। पवित्र-आत्मा का काम हममें इस तरह से शुरू हो सकता है कि जिसका बोझ परमेश्वर ने हमारे हृदय पर डाला गया है, हम ऐसे सिर्फ एक ही व्यक्ति के उत्साहवर्धन के लिए उसे पत्र लिखें।

परमेश्वर सिर्फ एक ज़रूरतमंद भाई को हमारी तरफ भेजकर उसकी सेवा के लिए हमारी उत्सुकता को परख सकता है - सिर्फ एक भूखा आगन्तुक।

तब हम क्या करेंगे? क्या हम उस भाई की मदद करने के लिए परमेश्वर से सामर्थ्य माँगेंगे?

अगर ऐसे मामलों में हम विश्वास-योग्य न रहेंगे, तो हम उन सब बातों से चूक जाएंगे जो परमेश्वर ने हमारे लिए तैयार की होंगी। लगातार अभिषेक की अवस्था में रहने के लिए, हमें छोटी से छोटी बात में भी विश्वासयोग्य रहना होगा। छोटे कामों से ही बड़ी सामर्थी सेवकाइयाँ शुरु होती हैं। जीवन के जल की वे नदियाँ (जिनके बारे में यीशु ने कहा था) मन्दिर में से बहनी शुरू हुई थीं। वह टपकने से शुरु होकर फिर एक शक्तिशाली नदी बन गई थी (देखें यहे. 47:1, 9)।

परमेश्वर छोटी-छोटी बातों में विश्वासयोग्य रहने में हमारी मदद करे।

अध्याय 6
दूसरों के लिए एक पिता होना

पौलुस ने कहा कि हालांकि उसके समय में असंख्य शिक्षक थे, लेकिन अनेक (कलीसियाई) पिता नहीं थे (1 कुरि. 4:15)। यह बात आज भी सच है।

परमेश्वर के हरेक सेवक को भाइयों व बहनों के प्रति कलीसिया में एक पिता की आत्मा वाला बनना चाहिए।

एक पिता बनना आसान होता है, लेकिन एक पिता होना आसान नहीं होता। एक पुरुष आसानी से दस बच्चे पैदा कर सकता है। लेकिन इन सभी बच्चों की देखभाल करते हुए उन्हें एक परिपक्व व्यक्ति बनाना एक अलग मामला होता है।

कलीसिया में भी ऐसा ही है। लोगों को नए जन्म तक ले आना तुलनात्मक रूप में आसान होता है। लेकिन उन्हें मसीह में सिद्ध करके पिता के सम्मुख प्रस्तुत करना उससे कहीं ज़्यादा मुश्किल होता है।

हमारी महत्वकांक्षा एक बहुसंख्यक कलीसिया का नहीं बल्कि एक शुद्ध कलीसिया का निर्माण करना होना चाहिए। अगर हमारी कलीसिया में ज़्यादा लोग हों लेकिन वे परिपक्वता व सिद्धता की ओर न बढ़ रहे हों, तो इससे कोई लाभ न होगा।

अगर हमारे सभी बच्चे मंदबुद्धि हों, तो हम बहुत बच्चे होने पर गर्व कैसे कर सकते हैं? अगर हमारे सभी जवान लड़के व लड़कियों ने अभी तक शौचालय का अनुशासन भी नहीं सीखा है, और वे अपने कपड़ों में ही मल-मूत्र करने वाले हैं, और अगर उन्होंने चलना नहीं सीखा है और अभी तक बोतल में से ही दूध पीते हैं, तो यह कोई गर्व करने की बात नहीं है।

लेकिन अनेक कलीसियाएं ऐसे बड़े बच्चों से भरी हुई हैं। वे 20 साल से विश्वासी हैं, लेकिन उनमें अभी भी गंदे विचार भरे हैं, वे जय में नहीं चल रहे हैं बल्कि अभी तक दूध ही पी रहे हैं (उन्हें सिर्फ पापों की क्षमा के बारे में मालूम है)। उनके ऐसे मंदबुद्धि होने की वजह यह है कि उनके अगुवे पिता नहीं सिर्फ शिक्षक हैं।

पिता व शिक्षक

एक आत्मिक पिता के रूप में, पौलुस ने कुरिन्थियों के विश्वासियों से कहा, "ये बातें मैं तुन्हें लज्ज्ति करने के लिए नहीं लिख रहा हूँ" (1 कुरि. 4:14)। शिक्षक अपने निष्फल वाले विद्यार्थियों को अपमानित करते हैं और सबके सामने लज्जित करते हैं। लेकिन पिता अलग होते हैं। जब उनके बच्चे लड़खड़ा जाते हैं, तब वे उनके हरेक पाप को ढाँपते हैं, और उन्हें लगातार एक ऊँचे जीवन की तरफ बढ़ाते रहते हैं।

एक मण्डली में एक पिता होने की जगह एक शिक्षक बहुत आसान होता है, क्योंकि अपने हृदयों पर दूसरों का बोझ उठाने में अपनी ख़ुदी का बहुत इनकार करने की बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है। शिक्षक कभी एक परिवार नहीं बना सकते। वे सिर्फ पाठशाला की कक्षा बना सकते हैं। और अनेक कलीसियाएं घर नहीं विद्यालय ही हैं। सिर्फ एक पिता ही एक घर और एक परिवार बना सकता है।

अगर हमारी कलीसिया एक परिवार नहीं है, तो इसका क्या कारण है? इसका कारण यही होगा कि हम शिक्षक हैं पिता नहीं। क्या हम कलीसिया में अपने भाइयों व बहनों को ऐसे देखते हैं मानो वे ऐसे छात्र हैं जिन्हें सिखाने की ज़रूरत है? तब हममें एक ग़लत आत्मा है। अगर हम पिता हैं तो हम उन्हें ऐेसे देखेंगे जिन्हें धीरज से सहना है, और प्रेम में देखभाल करते हुए समझदारी के साथ संभालना है। हमारे लिए अपने आपको परख कर देखना अच्छा होगा कि हम क्या हैं - पिता हैं या शिक्षक हैं।

कलीसिया में भाइयों व बहनों पर यह कहते दोष लगाने से कोई लाभ न होगा कि वे सभी शारीरिक हैं। हम पहले अपना न्याय करें।

एक सच्चा आत्मिक पिता किसी भी बात में अपने लिए कोई लाभ न चाहेगा, बल्कि वह हमेशा अपने आत्मिक बच्चों का कल्याण व हित चाहेगा। दूसरा कुरिन्थियों 12:14,15 में पौलुस कहता है, "मैं तुम पर भार न बनूँगा, क्योंकि मैं तुम्हारी किसी वस्तु को नहीं बल्कि तुम्हें चाहता हूँ। क्योंकि बच्चों की यह जि़म्मेदारी नहीं कि वे अपने माता-पिता के लिए धन बचा कर रखें, बल्कि माता-पिता बच्चों के लिए बचाते हैं। मैं बड़े हर्ष के साथ तुम्हारी आत्माओं के लिए ख़र्च करूँगा और ख़र्च हो जाऊँगा।" ये एक सच्चे पिता के शब्द हैं।

पिता होने के लिए पौलुस को अपना सब कुछ दाँव पर लगाना पड़ा था। अपने जीवन में उसने जो कुछ हासिल किया था, मसीह को पाने की तुलना में उसने वह सब कूड़ा-करकट समझ लिया था। और उसे यह भी उचित लगा था कि जिन्हें वह मसीह के पास लाया था, उनके लिए भी वह अपना सब कुछ बलिदान कर दे।

एक शिक्षक वेतन पाने के लिए काम करता है। मुख्य तौर पर वह अपने छात्रें का नहीं अपना भला चाहता है। जो लाभ हम चाहते हैं, वह शायद धन न होकर आदर-सम्मान हो सकता है। क्या आप यह चाहते हैं कि दूसरे लोग परमेश्वर के सेवक के रूप में आपका आदर-सम्मान करें? तब हम उनसे एक वेतन - आदर-सम्मान - चाह रहे हैं। तब हम पिता नहीं शिक्षक हैं।

पिता अपने बच्चों के लिए जो कुछ करते हैं, उसके बदले में वे उनसे कुछ नहीं चाहते। पौलुस दूसरों से सम्मान या अधीनता भी नहीं चाहता था। वह सिर्फ उनकी आत्मिक उन्नति चाहता था। हम अपने बारे में क्या कहें? हम जो कुछ भी करते हैं, क्या उसमें हम अपने भाइयों व बहनों का भला चाहते हैं?

प्रेरितों के समय में ऐसी "पास्टर-व्यवस्था" कहीं देखी-सुनी नहीं गई थी जैसी हम आज के मसीही जगत में पाते हैं। इस ग़ैर-पवित्र-शास्त्रीय व्यवस्था ने ही मसीही जगत में बहुत से शिक्षक पैदा कर दिए हैं - ऐसे शिक्षक जिन्हें उनके शिक्षण-कार्य के लिए हर महीने एक वेतन देना पड़ता है, और उनके छात्र अपने जीवन के हरेक बड़े फैसले के लिए - चाहे वह विवाह हो, काम-धंधा हो या कुछ भी हो - उन पर निर्भर हो जाते हैं। वे हमेशा आत्मिक बच्चे ही बने रहते हैं, क्योंकि यह मानवीय व्यवस्था उन्हें उनके शीर्ष मसीह के साथ वह सीधा सम्बंध बनाने से वंचित कर देती है जो नई वाचा में उनका जन्माधिकार है।

एक पिता अपने बच्चों की देखभाल कैसे करता है? एक ग़रीब घर में, अगर बच्चों के खाने के लिए पर्याप्त खाना नहीं है, तो एक माता-पिता भूखे भी रह जाते हैं। वे ख़ुशी से अपनी ख़ुदी का इनकार कर देते हैं, और वे अपने बच्चों को अपने भूखे रहने की जानकारी भी नहीं होने देते कि कहीं ऐसा न हो कि उनके बच्चे यह जानकर दुःखी हो जाएं। एक पिता अपने बच्चों से अपनी ख़ुदी से इनकार करने की बात छुपाता है। क्या हम एक ऐसी आत्मा वाले व्यक्ति हैं जो अपने भाइयों व बहनों की भलाई के लिए अपनी ख़ुदी से इनकार करता है, और उन्हें इस बात की जानकारी भी नहीं होने देता।

एक पिता की एक और विशिष्टता यह होती है कि वह यह चाहता है कि उसके बच्चे उनके जीवन में उससे भी आगे निकल जाएं - पढ़ाई-लिखाई में और हरेक बात में। ऐसे बहुत से पिता हैं जिन्होंने हाई स्कूल से ज़्यादा पढ़ाई नहीं की है लेकिन जो अपने बच्चों में कॉलेज की पढ़ाई कराने के लिए बड़े बलिदान करते हैं। इसके लिए वे ख़ुशी से अपने जीवन के सुख-चैन को त्याग देते हैं और जब उनके बच्चे स्नातक हो जाते हैं तो वे बहुत आनन्दित होते हैं। किसी भी पिता का पुत्र जब उसकी स्वयं की प्रतिष्ठा या शैक्षणिक स्तर से आगे निकल जाता है, तो यह देखकर उसे कभी ईर्ष्या नहीं होती।

परमेश्वर का एक सच्चा सेवक भी ऐसा ही होगा। वह हर्षित होगा जब पूरे हृदय से समर्पित छोटे भाइयों को पवित्र-शास्त्र में से प्रकाशन मिलेंगे, और जब उन्हें दूसरों को आशिष देने के लिए प्रभु द्वारा इस्तेमाल किए जाएंगे। वह निष्ठापूर्वक यह चाहेगा कि वे आत्मिक रूप में उससे आगे निकल जाएं, और प्रभु के हाथों में जितना उपयोगी वह स्वयं कभी नहीं रहा, वे उससे ज़्यादा उपयोगी बन जाएं।

जब कलीसिया में हम युवा भाइयों को बढ़ता हुआ देखते हैं, उनके जीवनों में कोई ग़लती नहीं पाते क्योंकि एक अच्छी अगुवाई द्वारा उनकी रक्षा की जाती है, तब हमें हर्षित होना चाहिए कि उनकी युवावस्था में उन्हें ऐसी आशिष मिली हुई है जो हमें नहीं मिल सकी थी। अगर हम पिता होंगे, तो हममें लेशमात्र भी ईर्ष्या नहीं होगी। इसके विपरीत, हम आनन्दित होंगे। हमें ख़ुशी होगी कि उनके लिए सब भला ही हो रहा है।

अगर हम एक युवा भाई की सेवकाई, या प्रभाव, या आत्मिक उन्नति से ईर्ष्या करते हैं, तो यक़ीनन हम शिक्षक हैं पिता नहीं। एक स्कूल में, अगर एक छात्र किसी ऐसे प्रश्न को हल कर देता है जो उसका शिक्षक भी हल नहीं कर पाता, तो उसका शिक्षक इतने क्रोध और ईर्ष्या से भर जाएगा कि फिर वह ऐसे हरेक मौक़े की तलाश में रहेगा जिसमें वह उस छात्र को लज्जित करने की कोशिश करेगा। परमेश्वर के सेवकों के रूप में हमें तब कैसा महसूस होता है जब दूसरे लोग हमारी किसी ग़लती की तरफ इशारा करते हैं?

शिक्षक सिर्फ बेबीलोन का ही निर्माण कर सकते हैं। सिर्फ पिता ही सच्ची कलीसिया का निर्माण कर सकते हैं - नए यरूशलेम का निर्माण। हम नई वाचा के सत्यों को समझ कर उनका प्रचार कर सकते हैं, लेकिन फिर भी अगर हम यह एक शिक्षक की आत्मा में होकर करेंगे, तो फिर भी हम बेबीलोन का ही निर्माण करेंगे।

एक शिक्षक अपने छात्रों के लिए कितना परिश्रम करता है, उसे इसका हर समय बहुत अहसास रहता है। अगर उसका छात्र अच्छा प्रदर्शन करता है, तो शिक्षक स्वयं को मिलने वाले सम्मान के बारे में विचार करता है। जब उसके छात्र अच्छा प्रदर्शन कर रहे होंगे, तब भी वह हमेशा उस लाभ के बारे में सोचेगा जो उसे मिलने वाला है। लेकिन एक पिता बहुत अलग होता है। वह सिर्फ अपने बच्चों का भला चाहता है। वह अपने लिए कुछ नहीं चाहता।

एक शिक्षक अपने छात्रें की आलोचना करता है। लेकिन एक पिता अपने बच्चों को उत्साहित करता है। अगर हम भाइयों व बहनों की आलोचना करते रहेंगे, और हमारे द्वारा कही गई सब बातें सच होने पर भी हम ज़्यादा कुछ हासिल न कर सकेंगे। एक पिता अपने बच्चों को उत्साहित करने द्वारा ज़्यादा हासिल कर सकता है।

सिर्फ एक पिता ही कृतज्ञहीन और दुष्ट संतानों के प्रति लगातार दयालु बना रह सकता है।

जब मण्डली के कुछ समस्याग्रस्त भाई हमारे लिए समस्याएं पैदा करते हैं, और अगर हम यह आशा करते हैं कि चाहे वे अपने आपको नाश कर लें लेकिन वे मण्डली छोड़ कर चले जाएं, तो हम स्पष्ट रूप में जान लें कि हममें एक शिक्षक की आत्मा है। एक पिता अपने किसी भी बच्चे के लिए कभी ऐसा नहीं चाहेगा।

यीशु ने हमसे कहा है कि जैसा हमारा स्वर्गीय पिता कृतज्ञहीन और दुष्ट लोगों पर दया करता है, वैसे ही हम भी उन पर दया करें (लूका 6:35,36)।

धार्मिकता के खोजी होते हुए, अगर हम निरन्तर और अंतहीन रूप में दया करने वाले नहीं होंगे, तो हमारा बहुत आसानी से पतन हो जाएगा और हम फरीसी और शिक्षक बन जाएंगे।

एक पिता और एक बड़ा भाई

उड़ाऊ पुत्र के दृष्टान्त से, हम परमेश्वर के उन लोगों के प्रति प्रेम के बारे में कुछ सीख सकते हैं जो उससे दूर होकर भटक जाते हैं और उनके प्रति उसकी भलाई का ग़लत फायदा भी उठाते हैं। यहाँ हम ईश्वरीय स्वभाव के बारे में बहुत कुछ सीखते हैं - और यही वह स्वभाव है जिसमें हमें सहभागी होना है। इस दृष्टान्त में, हम उड़ाऊ युवक के बड़े भाई और उसके पिता के मनोभाव में एक बहुत बड़ा फ़र्क देखते हैं। यही फ़र्क एक शिक्षक और पिता में भी होता है।

बड़ा भाई एक सीधा व्यक्ति था। लेकिन वह अपने छोटे भाई से प्रेम नहीं करता था और उसे उसकी कोई चिन्ता नहीं थी। उसमें उसे सिर्फ दोष ही नज़र आता था। अनेक मसीही अगुवे भी ऐसे ही होते हैं। वे बहुत जल्दी अपना संतुलन खो देते हैं और भाइयों व बहनों की आलोचना करते हुए उन्हें डाँटने-फटकारने लगते हैं।

लेकिन उस कहानी के पिता को देखें। उसमें कितनी आत्मा थी। वह चित्र हमें दिखाता है कि परमेश्वर कैसा है। और जब हम परमेश्वर के स्वभाव में सहभागी हो जाएंगे, तब हम भी वैसे ही बन जाएंगे। बड़े भाई को वे सारी बातें याद थीं जिनमें उसके छोटे भाई ने बुराई की थी, और उन बातों को उजागर करने में उसे बहुत ख़ुशी हो रही थी। लेकिन पिता उन बातों के बारे में सोचना भी नहीं चाहता।

एक अविश्वासी में से विश्वासी बन जाना एक बात है। लेकिन अगर हमें नई वाचा के सेवक होना है, तो हमें हमारे मन-फिराव को उससे आगे बढ़ना होगा - "एक बड़े भाई" से "एक पिता बनना होगा", "फरीसी-समान" होने से "मसीह-समान" होना होगा।

क्या कोई ऐसा भाई है जिसने परमेश्वर का सेवक होने के आपके अधिकार के सामने विद्रोह किया है, जिसने आपके लिए बुरी बातें बोली हैं जबकि आपने अनेक वर्षों तक उसके लिए सिर्फ भला ही किया है? अब उसके प्रति आपका क्या मनोभाव है? क्या वह एक शिक्षक का मनोभाव या एक पिता का?

कलीसिया में भले और पूरे हृदय से समर्पित भाइयों द्वारा नहीं बल्कि हमें विद्रोही भाइयों द्वारा परखा जाता है।

एक या दो विद्रोही भाई सौ आत्मिक भाइयों से ज़्यादा हमारी आत्मिक दशा को हम पर प्रकट कर सकते हैं, क्योंकि वे समस्या-ग्रस्त भाई कुछ ऐसा करेंगे जिससे हमारे शरीर के कोने-खाँचों में दबी-छुपी वासनाएं ज्योति के सामने आ जाएंगी।

इसलिए हमें प्रोत्साहित करते हुए कहा गया है कि हम न सिर्फ पूरे हृदय से समर्पित विश्वासियों के लिए बल्कि "सब मनुष्यों के लिए धन्यवाद" देते रहें (1 तीमु. 2:1)। हमारी जिससे भी मुलाक़ात होती है, वह हमें पवित्र करने में किसी-न-किसी रूप में मदद करता है।

आप शायद वर्षों से एक आत्मिक पिता होने के धोखे में रहे हैं। और तब आपकी मण्डली में से एक समस्या-ग्रस्त भाई खड़ा होता है। और शीघ्र ही, उस भाई के प्रति आपके मनोभाव द्वारा, आप यह जान लेंगे कि आप एक शिक्षक हैं या एक पिता हैं!

कलीसिया में पूरे हृदय से समर्पित सभी भाई मिलकर आपकी जिस सच्ची आत्मिक दशा को आपको नहीं दिखा सके थे, वह समस्या-ग्रस्त भाई आपको उसे देखने योग्य बना देगा। क्या आपको ऐसे भाई के लिए धन्यवाद नहीं देना चाहिए जिसने आपको अंत तक स्वयं को धोखा देते रहने से बचा लिया है?

जब उन भाइयों को सहना हमारे लिए मुश्किल हो जाता है जो हमारे लिए समस्याएं पैदा करते हैं, तब यह अच्छा होगा कि उस समय हम स्वयं के बारे में यह जान लें कि हमने भी अनजाने ही दूसरे लोगों को इसी तरह हैरान-परेशान किया होगा। उन्हें भी हमें सहने में मुश्किल हुई होगी।

हममें से कोई सिद्ध नहीं है। हम सब के अन्दर एक शरीर है। और हरेक जिसमें एक शरीर है, उसे उन लोगों को सहना पड़ता है जिनमें वैसा ही शरीर है। वे लोग जो हमसे ज़्यादा परिपक्व हैं, वे हमारे आचरण में उन सभी क्षेत्रें को देखते रहते हैं जिनमें हम मसीह-समान नहीं होते, जिन्हें हम, अपनी पूरी ईमानदारी में भी नहीं देख पाते।

आप यह सोच सकते है कि हालांकि आपकी एक समस्या-ग्रस्त पत्नी है, फिर भी आप उसे सह रहे हैं, उसे प्रेम कर रहे हैं और उससे आपको कोई शिकायत नहीं है। यह हो सकता है कि आप गुप्त रूप में अपने "मसीह-समान" व्यवहार के लिए स्वयं को बधाई भी दे रहे हों! लेकिन शायद आपको यह अहसास न हो कि आपकी पत्नी भी आपके बारे में यही सोच रही है! वह भी यह सोच रही है कि उसे एक समस्या-ग्रस्त पति के साथ रहना और उसे झेलना पड़ रहा है!

इसलिए यह अच्छा है कि हम अपने बारे में हमेशा एक छोटी सोच रखें। हमारे लिए यह जानना अच्छा है कि हममें ऐसी कमियाँ हैं जिन्हें हम नहीं देख पाते हैं।

उड़ाऊ पुत्र के व्यवहार ने उसके पिता के हृदय की अच्छाई को एक अध्भुत रीति से उजागर किया। अगर वह अपने घर में एक अच्छा लड़का बन कर रहा होता, तो वह अपने पिता की ज़बरदस्त भलाई को कभी न देख पाता।

हमारी मण्डली में (या हमारे घर में भी), जब किसी भाई (या परिवार के किसी सदस्य के साथ भी) जब ऐसी कोई समस्या पैदा हो जाए, तो हमें उसे एक ऐसे मौक़े के रूप में देखना चाहिए जिसमें परमेश्वर ग़लती करने वाले उस व्यक्ति के प्रति - चाहे वह व्यक्ति एक भाई, या पत्नी, या पुत्र, या पुत्री हो - हमारे द्वारा अपने पिता-के-हृदय को प्रकट करना चाह रहा है।

ऐसी स्थिति में, जब हम उसके हृदय की बजाय एक शिक्षक का हृदय प्रदर्शित करते हैं, तब परमेश्वर कितना खेदित होता है।

क्या कोई व्यक्ति आपका कुछ ले गया है, क्या उसने अपने व्यवहार द्वारा आपके और आपकी मण्डली के नाम को ख़राब किया है? अगर एक दिन वह मन फिरा कर आपके पास वापिस आ जाए, तब आप क्या करेंगे? आप उसे कैसे ग्रहण करेंगे? क्या कुछ महीनों तक उसको निगरानी मे रखते हुए उसे सेवकों के निवास-स्थान में भेज देंगे कि आप यह सुनिश्चित कर सकें कि उसका मन-फिराव सच्चा है या नहीं।

या आप उड़ाऊ पुत्र के पिता की तरह दौड़ कर उसके पास जाएंगे और उसे गले लगाएंगे, और बड़ी गर्मजोशी से उसका घर में स्वागत करेंगे? यह सब इस बात पर निर्भर होगा कि आप कौन हैं - एक पिता या एक शिक्षक। एक शिक्षक भी एक भटके हुए को वापिस ग्रहण कर सकता है, लेकिन वह एक सरगर्म हृदय के साथ ऐसा नहीं करेगा!

मन फिराने वाली हरेक आत्मा के लिए स्वर्ग में आनन्द मनाया जाता है। अगर हम उस आनन्द में सहभागी नहीं होते, तो इसका अर्थ यही है कि हममें कुछ बड़ी ख़राबी है।

उड़ाऊ पुत्र के भाई में एक शिक्षक की आत्मा थी। उसने अपने पिता से कहा, फ्देख, मैं इतने सालों तक कैसे रहा हूँ। मैंने कुछ ग़लत नहीं किया है। मैं पूरे हृदय से समर्पित रहा हूँ और मैंने उत्साहपूर्वक काम किया है। मैं विश्वासयोग्य रहकर काम करता रहा हूँ। लेकिन देख कि तेरे इस पुत्र ने कितना बुरा किया है।

कलीसिया में एक शिक्षक हमेशा अपनी अच्छाई और विश्वासयोग्यता की तुलना कलीसिया के शारीरिक लोगों की निष्फलताओं से करता है। वह परमेश्वर की कृपा की भरपूरी से ज़्यादा अपने भाइयों की कमियों पर ध्यान लगाए रखता है। यीशु के समयकाल में फरीसियों का यह प्राथमिक लक्षण था। एक शिक्षक की आत्मा वाले सभी लोग फरीसी होते हैं।

बड़े भाई ने उड़ाऊ पुत्र के बारे में जो कहा था, उसमें कुछ सच्चाई थी - कि "उसके छोटे भाई ने पिता की सम्पत्ति को उड़ाया था।" लेकिन उसे यह किसने बताया था कि उसने "वेश्यावृत्ति में धन बर्बाद किया था?" यह उसका अनुमान था, और यह एक शिक्षक की विशिष्टता होती है। जब भी वह किसी के खिलाफ़ हो जाता है, तो उसके बारे में वह हमेशा सबसे बुरे अनुमान लगाता है और उसके बारे में सबसे बुरी बातों पर विश्वास करता है। वह एक पापी को लज्जित करने के लिए उसके उसके पापों का पर्दाफाश करने से बहुत आनन्दित भी होता है।

जब हम दूसरे लोगों पर दोष लगाते हैं, तो यह कहने से कोई फायदा नहीं है कि हमारे तथ्य 100% सही हैं? हमारी आत्मा फिर भी 100% ग़लत हो सकती है क्योंकि यह भाइयों पर दोष लगाने वाले के साथ संगति है (प्रका. 12:10)।

शैतान जब परमेश्वर के सामने उसके बच्चों पर दोष लगाता है, तो आप यक़ीन के साथ कह सकते हैं कि उसके तथ्य 100% सही होते हैं। वह परमेश्वर से झूठ बोलने का दुस्साहस नहीं कर सकता। लेकिन फिर भी उसकी आत्मा दोष लगाने वाली होती है।

अगर हम सचेत नहीं रहेंगे, तो यही बात हमारे लिए सही हो सकती है। इसलिए हम यह कहते हुए अपने लिए इसमें कोई तसल्ली न ढूँढें कि हमने ध्यान से सारे तथ्यों की पुष्टि कर ली है और उन्हें सही पाया है। हमारी आत्मा में से फिर भी नर्क की बदबू आ सकती है।

दूसरी तरफ, अगर हम पिता हैं, तो हम एक भाई द्वारा किए गए असंख्य पापों को ढाँप देंगे और इस बात में आनन्द मनाएंगे कि उसने अब मन फिरा लिया है। "हम मोटा बछड़ा कटवाएंगे और उत्सव मनाएंगे।" इस ऊँचाई तक पहुँचना एक बड़ी बात है। लेकिन जब तक हम वहाँ नहीं पहुँच जाते, हमें आगे बढ़ते रहना है। हम यह कल्पना करते हुए अपने आपको धोखा न दें कि हम पहले ही वहाँ पहुँच चुके हैं।

हम परमेश्वर की कृपा पाने के लिए प्रार्थना करें कि हम दूसरों के लिए एक सच्चे पिता बन सकें।

दाऊद व अबशालोम

दाऊद के जीवन में एक ऐसा समय आया जब उसके पुत्र अबशालोम ने उसके खिलाफ़ षड्यंत्र रचा, इस्राएल के बहुत से लोगों के दिल जीत लिए, और दाऊद को सिंहासन छोड़ कर भागने पर मजबूर कर दिया था।

लेकिन दाऊद के साथ अब भी उसके कुछ ऐसे मित्र थे जो पहले दर्जे के योद्धा थे जो युद्ध करके उसका बचाव करना चाहते थे। दाऊद यह जानता था कि वे अबशालोम से युद्ध करेंगे। तब उसने अपने सेनापति योआब से कहा, "मेरी ख़ातिर उस जवान पुरुष अबशालोम से कोमलता का व्यवहार करना" (2 शमू. 18:5)।

हमें जब भी कलीसिया में किसी समस्या-ग्रस्त व्यक्ति से व्यवहार करना हो, तो ये शब्द बड़े अक्षरों में हमारे मनों में लिखे होने चाहिएः "प्रभु की ख़ातिर, उस व्यक्ति के साथ कोमलता का व्यवहार करो।"

बाद में, जब दाऊद को यह पता चला कि अबशालोम मारा गया है, तो वह रोया और उसने यह कहा, "हाय मेरे बेटे अबशालोम! काश, तेरे बदले मैं मर गया होता!" (2 शमू. 18:33)।

दाऊद कोई शिक्षक नहीं था! एक विद्रोही पुत्र के प्रति उसका एक पिता का हृदय था। इसलिए इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि उसे ऐसा व्यक्ति कहा गया जो परमेश्वर के हृदय के अनुसार था।

परमेश्वर के हृदय में भी यही अभिलाषा होती हैः "काश, मैं तेरे बदले में मर गया होता!" और इस वजह से ही यीशु कलवरी पर हमारे बदले में मरा था। जब हम परमेश्वर के हृदय के साथ संगति करते हैं तब हम पिता बनते हैं।

यीशु को मनुष्य के अन्दर पाप को धिक्कारने का अधिकार था क्योंकि वह मनुष्य को पाप से छुड़ाने के लिए मरने को तैयार था। हमें भी किसी के अन्दर पाप को धिक्कारने का तब तक कोई अधिकार नहीं है जब तक हम उसे पाप से छुड़ाने के लिए मरने को तैयार न हों।

हम तभी सच्चे पिता हो सकते हैं। वर्ना हम सिर्फ शिक्षक ही हैं।

चरवाहा और किराए का मज़दूर:

यहेज़केल 34:3-6 में, प्रभु इस्राएल के चरवाहों को डाँटता है।

उसने उन्हें डाँटा क्योंकि वे भेड़ों की चर्बी खा रहे थे और उनके ऊन से अपने वस्त्र बना रहे थे। उन्होंने दुर्बल को हृष्ट-पुष्ट नहीं किया था, न बीमार को चंगा किया, न घायलों को पट्टी बांधी, न भटकी हुई को वापिस लाए, और न खोई हुई को ढूंढा। उन्होंने वन-पशुओं से उनकी रक्षा नहीं की। इसकी बजाय, उन्होंने बल और कठोरता से उन पर प्रभुता की। वे सच्चे चरवाहे नहीं, किराए के मज़दूर थे।

किराए के मज़दूर शिक्षकों की तरह होते हैं। वे सिर्फ अपने स्वार्थ की खोज में रहते हैं और वेतन पाने के लिए काम करते हैं।

इसके विपरीत, हम पद 11-16 में यह देखते हैं कि एक सच्चा चरवाहा कैसा व्यवहार करता है। वह अपनी भेड़ों की देखभाल करता है, उन्हें खिलाता-पिलाता है, उन्हें विश्राम के स्थान में ले जाता है, खोई हुई भेड़ को ढूँढता है, भटकी हुई को वापिस लाता है, और बीमार को चंगा करता है। एक अच्छा चरवाहा अपनी भेड़ों के लिए अपनी जान भी दे देता है।

एक आत्मिक पिता अपने झुण्ड के लिए ऐसा चरवाहा होता है।

नई वाचा के सेवक होते हुए हमारी यही बुलाहट है।

हम ऐसा न सोचें कि हमारी सेवकाई सिर्फ सभाओं में प्रचार करना है। शायद कोई भाई ऐसा निराश है जिससे भेंट करने और उसे उत्साहित करने की ज़रूरत है। किसी दूसरे को छुटकारे की ज़रूरत हो सकती है क्योंकि वह शैतान द्वारा सताया जा रहा है।

हमें ऐसे सभी लोगों को ऐसी भेड़ों के रूप में देखने की ज़रूरत है सिंह शैतान ने दबोच रखा है (1 पत. 5:8)। हमें दाऊद की तरह, सिंह के खिलाफ़ खड़े होने की, उस पर हमला बोल देने की, और मेमनों को उसके मुँह से छुड़ा लेने की ज़रूरत है (1 शमू. 17:34,35)। एक सच्चा चरवाहा यही करता है। जब उसका सामना एक समस्या-ग्रस्त भाई से होता है, तब वह शैतान से लड़ता है, और भाई की आलोचना नहीं करता। इस तरह वह मेमने को सिंह के मुँह में से छुड़ा लेता है।

क्या हमने माता-पिताओं को उनके बीमार बच्चों के बिस्तर के पास सारी रात बैठे और उनकी देखभाल करते हुए नहीं देखा है?

शिक्षकों के पास ऐसी देखभाल करने का समय नहीं होता जिसमें इस तरह का ख़ुदी-का-इनकार शामिल हो। वे अपने बीमार छात्रें से यह कह देंगे कि जब वे चंगे हो जाएं तब स्कूल आ जाएं।

जब हमारे बीच में कुछ भाई बीमार होते हैं, तब हमें यह पता चल जाता है कि हम असल में पिता हैं या शिक्षक हैं।

अगर आपकी एक समस्या-ग्रस्त पत्नी है, तो आप जल्दी ही यह जान लेंगे कि आप एक चरवाहे-पति हैं या किराए के मज़दूर-पति हैं। लेकिन अगर आपकी एक आत्मिक पत्नी होती, तो आप शायद अपनी आत्मिक दशा को कभी न जान पाते!

यहेज़केल के समय में परमेश्वर ने चरवाहों से कहा कि उनकी निष्फलता की वजह से इस्राएल बेबीलोन में पहुँच गया है।

आज परमेश्वर के बहुत से लोग बेबीलोन में रह रहे हैं, और इसका कारण भी यही हैः उनके चरवाहे निष्फल हो गए हैं।

पहला तीमुथियुस 3:1 कहता है कि अगर एक व्यक्ति कलीसिया में अगुवा होना चाहता है, तो वह एक भले काम की अभिलाषा कर रहा है। यक़ीनन, कलीसिया में एक आत्मिक पिता के रूप में दूसरों के लिए एक आशिष होना और उनकी मदद करना एक भला काम है।

लेकिन हममें से किसी में ऐसे किसी पद की अभिलाषा न हो कि हम प्राचीन या परमेश्वर के सेवकों के रूप में जाने जाएं।

परमेश्वर हमारी मदद करे कि हम इस मामले की गंभीरता को समझ सकें।

अध्याय 7
कलीसिया का निर्माण

नई वाचा में परमेश्वर का अंतिम उद्देश्य बहुत से मसीह-समान एकल व्यक्तियों को पैदा करने नहीं "एक नया मनुष्य" - मसीह में एक देह बनाना है (इफि. 2:15,16)।

पुरानी वाचा में, परमेश्वर ने एक मूसा, एक एलिय्याह, एक यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला खड़ा किया था। वे सभी ऐसे एकल व्यक्ति थे जो अपनी पीढ़ी में परमेश्वर के लिए साक्षियों के रूप में खड़े हुए थे। लेकिन कलीसिया एक ऐसा रहस्य था जो उन सबसे छुपा हुआ था। इस्राएल एक देह नहीं सिर्फ एकल व्यक्तियों की एक मण्डली थी। एक देह में, उसके सभी अंग आपस में एक-दूसरे से जुड़े होते हैं जिनमें से हरेक का सिर के साथ एक भीतरी और व्यक्तिगत सम्बंध होता है।

जब यीशु नई वाचा का मध्यस्थ होकर आया, तब उसने अपने शिष्यों को दो-दो करके भेजा। अब उन्हें उसके एकल साक्षी नहीं होना था। उसने उनसे यह भी कहा कि जहाँ कहीं उसके नाम में कम-से-कम दो शिष्य एक मन होकर इकट्ठे होंगे, वहाँ सामर्थ्य के साथ उसकी उपस्थिति प्रकट होगी (मत्ती 18:18-20) - जहाँ कहीं यीशु के नाम में दो लोग एक मन होकर इकट्ठे होते हैं, वहाँ मसीह की देह का प्रतिनिधित्व होता है।

नई वाचा के सेवकों के रूप में, हमें कभी इस बात से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए कि एकल भाई व बहनें ईश्वरीय बन रहे हैं। एक स्थानीय सभा को ही मसीह की देह का प्रतिनिधित्व करने वाला होना चाहिए। वर्ना हम परमेश्वर के सबसे ऊँचे उद्देश्य को पूरा करने से चूक गए हैं।

परमेश्वर की उपस्थिति

नई वाचा की कलीसिया का मुख्य चिन्ह् क्या है? बहुत लोग यह सोचते हैं कि वह शायद कलीसियाई प्रशासन का कोई ख़ास नमूना, या कलीसियाई सभा की कोई ख़ास संरचना होती है। लेकिन वह इनमें से एक भी नहीं है। कलीसिया की महत्वपूर्ण बात यह है कि उसमें ईश्वरीय जीवन होना चाहिए।

एक माता के गर्भ में जब एक बच्चे की रचना हो रही होती है, तो उसके आरम्भिक सप्ताहों में तो उसका रूप (आकार) एक मनुष्य जैसा भी नहीं होता। उसमें सिर्फ जीवन होता है। उसका रूप (आकार) बाद में बनता है। जहाँ कहीं एक नई कलीसिया की स्थापना हो रही होती है, वहाँ भी ऐसा ही होता है। उसके सही आकार के प्रकट होने में समय लगेगा। लेकिन इस बीच उसमें जीवन होना चाहिए।

एक नई वाचा की कलीसिया का प्राथमिक चिन्ह् यह होता है कि उसके बीच में परमेश्वर मौजूद होता है। जब कलीसिया इकट्ठी होती है, तो सभी पवित्र-आत्मा के अभिषेक द्वारा नबूवत करते हैं, और ऐसा होना चाहिए कि बाहर से आने वाले लोग उनके पापों के लिए दोषी ठहराए जाएं और वे यह अंगीकार करें कि परमेश्वर वहाँ मौजूद है (1 कुरि. 14:24,25)। और सिर्फ यही बात यह साबित करती है कि एक कलीसिया के रूप में उनका नमूना सही है।

अगर परमेश्वर की उपस्थिति मौजूद नहीं है, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि हम परमेश्वर की सिद्ध योजना को पूरा नहीं कर रहे हैं - और तब हमें मन फिराना चाहिए।

इस्राएलियों द्वारा जंगल में बनाए गए मिलाप वाले तम्बू के बारे में विचार करें। निर्गमन की पुस्तक में उसके नमूने के बारे में स्पष्ट लिखा हुआ था। पलिश्ती भी आसानी से वैसा ही एक मिलाप वाला तम्बू बना सकते थे।

लेकिन एक ऐसी बात थी जिसे वे कभी पूरा नहीं कर सकते थे - और वह महापवित्र स्थान में परमेश्वर की उपस्थिति थी जो एक धधकती हुई आग के रूप में मिलाप वाले तम्बू को ज्योति से भर देती थी। वह तम्बू का सबसे महत्वपूर्ण भाग था। कलीसिया में भी ऐसा ही है।

आप कहीं पर एक सामर्थी कलीसिया देखते हैं, और आप यह कल्पना कर लेते हैं कि उसका रहस्य उसकी कलीसियाई सभा के नमूने में, या उसके द्वारा प्रचार किए जा रहे मसीही सिद्धान्तों में है। इसलिए आप उसके नमूने की नक़ल करते हैं, और उसके मसीही सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं, और यह मान लेते हैं कि अब आपकी नई वाचा की कलीसिया तैयार हो गई है। लेकिन आप अपने आपको धोखा दे रहे हैं। जब तक आपके बीच में परमेश्वर की उपस्थिति सामर्थ्य के साथ प्रकट नहीं होगी, तब तक नई वाचा की कोई कलीसिया नहीं होती।

एक कलीसिया के रूप में जब परमेश्वर सामर्थ्य के साथ हमारे बीच में होता है, तो उसकी ज्योति हमें लगातार यह दिखाती रहेगी कि उसे क्या भाता है और क्या नहीं भाता है। वह ज्योति हमारे आगे मौजूद ख़तरों के प्रति हमें सचेत करती रहेगी। वह न सिर्फ अंधकार को दूर करेगी बल्कि अंधकार के शासक को भी दूर हटा देगी। ऐसी कलीसिया के खिलाफ़ अधोलोक की शक्तियाँ कभी प्रबल न हो सकेंगी।

कलीसिया में सिर्फ सही मसीही सिद्धान्तों का होना काफी नहीं होता। हमें सब बातों से ज़्यादा जिस बात की ज़रूरत होती है वह है परमेश्वर की उपस्थिति।

नबूवत का आत्मा

जब परमेश्वर हमारे बीच में होता है, तो हम सभाओं में उसे एक शक्तिशाली रूप में हमसे बात करता हुआ सुनेंगे। नबूवत का यह अर्थ होता है।

पुरानी वाचा के समयों में, नबूवत ज़्यादातर भविष्य के बारे में बताने के लिए या लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए होती थी। लेकिन अब, नई वाचा में, नबूवत एक उपदेश (लोगों को चुनौती देना, डाँटना, सुधारना), सान्त्वना (लोगों को तसल्ली देना और उत्साहित करना) और उन्नति (कलीसिया का निर्माण करना) है (1 कुरि. 14:3)।

नबूवत पवित्र-आत्मा का वह प्रमुख दान है जिसके द्वारा कलीसिया का निर्माण होता है। नबूवत का शब्द "अंधेरे में चमकता हुआ दीपक है" (2 पत. 1:19)। जब तक यह ज्योति कलीसिया में लगातार जलती न रहेगी, तब तक अंधकार के शासक की युक्तियों से बचना असम्भव होगा। स्वयं कलीसिया ही अंधकार में डूब जाएगी। ऐसे बहुत से मसीही समूह हैं जिनकी शुरूआत अच्छी थी लेकिन समय गुज़रने के साथ उनके पतन का कारण यही रहा है कि उनके बीच में से नबूवत का दान धीरे-धीरे लुप्त हो गया था।

पुरानी वाचा में, जब इस्राएल के बीच में से परमेश्वर की उपस्थिति हट जाती थी, तो उसके द्वारा उन्हें त्याग देने का एक चिन्ह् यह होता था कि फिर उनके बीच कोई नबी नहीं बचता था (भजन. 74:1,9)।

इस्राएल में किसी नबी के मौजूद न होने से उसका हमेशा पतन ही होता था, जैसा एली के समय में हुआ था (देखें 1 शमू. 3:1)। लेकिन जब इस्राएलियों के बीच एक नबी होता था, तो उन्हें एक प्रतिष्ठित जगह पर ऊँचा उठाया जाता था, जैसा शमूएल के समय में हुआ था (1 शमू. 3:20)। शमूएल के द्वारा ही दाऊद का इस्राएल का राजा होने के लिए अभिषेक किया गया था। और इससे इस्राएल के इतिहास में एक नए गौरवशाली युग का आरम्भ हुआ था।

जब शमुएल ने नबूवत की, तब "प्रभु ने उसके किसी वचन को असफल नहीं होने दिया" (1 शमू. 3:19 - के.जे.वी.)।

हमें भी कलीसिया में नबूवत की एक ऐसी ही सामर्थी सेवकाई के लिए प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारे द्वारा बोला गया हरेक शब्द लोगों के हृदयों में एक निशाने पर लगे तीर की तरह हो।

नबूवत की सेवकाई द्वारा "लोगों के हृदयों के भेद प्रकट हो जाते हैं" (1 कुरि. 14:25)। इस तरह कलीसिया में हरेक को पाप के धोखे पर ज्योति प्राप्त होगी।

हमें यह आज्ञा दी गई है कि "हम (कलीसिया में) प्रतिदिन एक-दूसरे को उत्साहित करते रहें, कहीं ऐसा न हो कि हम पाप के छल में पड़कर कठोर न हो जाएं" (इब्रा. 3:13)। ऐसे पाप हैं जो साफ नज़र आते हैं, और ऐसे पाप हैं जो गूढ़ और गुप्त होते हैं। लेकिन नबूवत का आत्मा पाप के धोखे और शैतान की युक्तियों दोनों का पर्दाफाश करता है कि हम सुरक्षित रह सकें।

हम पुरानी वाचा में इसका एक उदाहरण देखते हैं। जब अराम का राजा इस्राएल से युद्ध कर रहा था, और वह जब भी अपने सेनापतियों के साथ मिलकर इस्राएल पर किसी एक मोर्चे पर हमला करने की गुप्त योजना बनाता था, तब नबूवत द्वारा उसकी योजना की जानकारी एलीशा द्वारा इस्राएल के राजा को दे दी जाती थी (2 राजा 6:8-12)। इस तरह इस्राएल के राजा को यह मालूम होता था कि देश की रक्षा के लिए उसे अपनी सेना को कहाँ तैनात करना है, और तब वह बार-बार अपने देश को बचा सका।

इसी तरह, प्रभु भी नबूवत द्वारा कलीसियाई-सभाओं में हमें पहले ही चेतावनी दे देता है, और हमें वे क्षेत्र दिखा देता है जहाँ शैतान आने वाले दिनों में हमला करने वाला होता है। तब हम उन क्षेत्रों में अपने आपको सुरक्षित रख सकते हैं।

पौलुस ने तीमुथियुस को उत्साहित करते हुए कहा कि वह "उसके बारे में की गई नबूवतों पर ध्यान देने द्वारा (शैतान के खिलाफ़) अच्छी लड़ाई लड़े" (1 तीमु. 1:18)।

हमने अपनी बैंगलोर की कलीसिया में यह बार-बार देखा है कि हमारी सभाओं में नबूवत की आत्मा ने पहले से ही अनेक भाइयों व बहनों को उन बातों में सचेत कर दिया था जिनमें आने वाले दिनों में उन्हें शैतान के हमले का सामना करना था। नबूवत के वचन द्वारा परमेश्वर ने हमें बुद्धि दी है - हमारे व्यक्तिगत-जीवन के लिए, हमारे पारिवारिक-जीवन के लिए, और हमारे कलीसियाई-जीवन के लिए।

नीतिवचन 24:3,4 कहता है, "बुद्धि से घर बनाया जाता है, और ज्ञान से उसके कमरे सब मनभावनी वस्तुओं से भर जाते हैं।"

कलीसिया में ज्ञान के लिए जगह है - परमेश्वर के वचन का अभिषिक्त शिक्षकों द्वारा सिखाया जाना। लेकिन ज्ञान घर की उन वस्तुओं की तरह है जिन्हें तब भरा जाता है जब पहले बुद्धि से घर का निर्माण कर लिया जाता है।

इसलिए अगर हमारी कलीसियाओं में सिर्फ बाइबल का ज्ञान है, तो हम एक ऐसे परिवार की तरह होंगे जो ज़मीन के एक खुले हुए भाग में, एक घर बिना, अपने आसपास बहुत से महँगे सामान के साथ रह रहे होंगे - न कोई दीवारें होगी, न कोई छत होगी, और न ही कोई फर्श होगा! इस वजह से ही नई वाचा में हमें सबसे पहले बुद्धि की खोज करने के लिए प्रेरित किया गया है। "जिस किसी के पास बुद्धि की कमी हो, वह परमेश्वर से माँगे, और उसे दी जाएगी" (याकूब 1:5)।

कलीसिया का निर्माण बुद्धि से होता है। और कलीसिया में परमेश्वर की बुद्धि नबूवत द्वारा आती है।

इस वजह से ही, हमें हरेक कलीसियाई सभा में "पूरी ईमानदारी से नबूवत के वरदान की खोज" करनी चाहिए (1 कुरि. 14:1,5)। बाइबल अध्ययन और सुसमाचार-प्रचार की सभाएं अच्छी बात हैं। लेकिन अगर हमें मसीह की शुद्ध साक्षी के लिए कलीसिया का निर्माण करना है, तो नबूवत के दान को पहला स्थान दिया जाना चाहिए।

सत्य का स्तम्भ और आधार

पहला तीमुथियुस 3:15 में कलीसिया को सत्य का स्तम्भ व आधार कहा गया है। परमेश्वर की यह इच्छा है कि सभी मनुष्य सत्य को जानें (1 तीमु. 2:4)। वह सत्य क्या है जो परमेश्वर चाहता है कि सभी मनुष्य जानें? यूहन्ना 8:32 में यीशु ने कहा, "तुम सत्य को जानोगे और सत्य तुम्हें मुक्त करेगा।" वह सत्य जो लोगों को पाप से मुक्त करता है (यूहन्ना 8:34)।

हरेक प्रकार की गुलामी के बंधनों की वजह यही है कि हम सत्य को नहीं जानते। झूठे धर्म-मतों के अगुवे अपने अनुयायियों को इस वजह से ही अपने गुलाम बना कर रख पाते हैं क्योंकि वे उन्हें सत्य के ज्ञान से अनजान रखते हैं। हम सत्य को जितना जानेंगे, हम उतना ही मुक्त होते जाएंगे। जहाँ प्रभु का आत्मा है, वहाँ मुक्ति होती है (2 कुरि. 3:17)।

यूहन्ना 16:13 में, यीशु ने अपने शिष्यों से कहा, "जब सत्य का आत्मा आएगा, तो वह सारे सत्य में तुम्हारी अगुवाई करेगा।" पवित्र-आत्मा को 'सत्य का आत्मा' कहा गया है, क्योंकि वह हमें सारे सत्य में ले जाना चाहता है।

सत्य कनान की भूमि की तरह एक विशाल जगह है। और जैसे परमेश्वर ने इस्राएलियों को कनान की भूमि को थोड़ा-थोड़ा करके सौंपा था, वैसे ही पवित्र-आत्मा भी हमें धीरे-धीरे सारे सत्य में ले जाता है। हम जितना सत्य जानेंगे, हम उतना ही मुक्त होते जाएंगे - पाप से, लोगों के मतों से, और उन धार्मिक परम्पराओं से जो पवित्र-शास्त्र के अनुसार नहीं हैं, आदि।

इसलिए जब कलीसिया को "सत्य का स्तम्भ व आधार" कहा जाता है, तो इसका अर्थ है कि कलीसिया वह जगह है जहाँ लोग सत्य सुनने आते हैं, और ज़्यादा से ज़्यादा मुक्त होते जाते हैं। अगर हमारी कलीसियाओं में लोग मुक्त नहीं हो रहे हैं, तो हम अपनी सेवकाई में निष्फल हो रहे हैं।

लोगों को मुक्त करने के लिए, हमें सत्य के वचन (परमेश्वर के वचन) की, और सत्य के आत्मा (पवित्र-आत्मा) की ज़रूरत होती है। यीशु ने पिता से यह कहते हुए प्रार्थना की, "सत्य के द्वारा उन्हें पवित्र कर। तेरा वचन सत्य है" (यूहन्ना 17:17)। परमेश्वर का वचन वह सत्य है जो लोगों को पवित्र करता है।

अगर पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य में कलीसिया में नियमित रूप से परमेश्वर के वचन को समझा कर सिखाया नहीं जा रहा है, तो हम कलीसिया का निर्माण नहीं कर सकते। परमेश्वर और नई वाचा के सच्चे सेवक होने के लिए हमें वचन के पुरुष व पवित्र-आत्मा के पुरुष बनना पड़ेगा।

अगर स्वयं कलीसिया को सत्य का स्तम्भ व आधार बनना है, तो यह ज़रूरी है कि पहले कलीसिया में ऐसे भाई व बहनें हों जो स्वयं स्तम्भ बन गए हों। प्रकाशितवाक्य 3:12 में, प्रभु यह कहता है कि अगर हम जय पाएंगे, तो वह हमें कलीसिया में एक स्तम्भ बना देगा। एक बहन भी अगर जय पाने वाली हो, तो वह भी एक स्तम्भ बन सकती है।

लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि स्तम्भ इसलिए बनाए जाते हैं कि वे इमारत का बोझ उठाएं। इसलिए प्रभु जब हमें कलीसिया में स्तम्भ बनाएगा, तो वह दूसरों का बोझ उठाने के लिए ही होगा। जो स्वार्थी हैं और ऐसे बोझ उठाने के लिए तैयार नहीं हैं, तो उनमें स्तम्भ बनने की योग्यता नहीं है।

ऐसे बहुत से भाई होते हैं जो प्राचीन नहीं होते, लेकिन वे फिर भी कलीसिया में एक स्तम्भ होते हैं। अगर हम अपने प्रतिदिन के जीवन में जय पाएं, तो चाहे हम अगुवे न हों, फिर भी हम स्तम्भ हो सकते हैं। अपनी कलीसिया में सिर्फ परमेश्वर ही लोगों को स्तम्भों के रूप में स्थापित और सत्यापित करता है।

आत्मिक अधिकार

परमेश्वर का सेवक एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो आत्मिक अधिकार के साथ बोलता हो। हम पढ़ते हैं कि यीशु आत्मिक अधिकार के साथ सिखाता था, जो शास्त्री नहीं कर पाते थे (मत्ती 7:29)। अगर हमारे पास आत्मिक अधिकार नहीं होगा, तो हम कलीसिया का निर्माण नहीं कर सकेंगे। शास्त्री धर्म-सिद्धान्त जानते थे, लेकिन उनकी सेवकाई में उनके पास आत्मिक अधिकार नहीं था।

हम दूसरों पर अपनी आयु, अपनी पढ़ाई, अपने बाइबल के ज्ञान, और अपनी जैविक शक्ति से लोगों पर अपना अधिकार जमा सकते हैं। लेकिन इनमें से कोई आत्मिक अधिकार नहीं है। यह ज़रूरी है कि हमारा आत्मिक अधिकार परमेश्वर द्वारा सत्यापित किया जाए।

अगर हमारे पास आत्मिक अधिकार है, तो हम अपने दृष्टिकोण को दूसरों के ऊपर नहीं थोपेंगे। लोगों का हममें भरोसा होगा, क्योंकि वे हममें परमेश्वर के अधिकार को जानेंगे। अगर हम दूसरों पर अपना अधिकार सिर्फ इसलिए थोपते हैं क्योंकि हमारे पास एक अगुवाई का पद है, तो हमने अब तक आत्मिक अधिकार को जाना ही नहीं है। दूसरों के प्रति हमारे मनोभाव एलीहू जैसा होना चाहिए जिसने यह कहा था, "देख, मेरे कारण तू किसी प्रकार भयभीत न होना, मेरा दबाव तुझ पर भारी न हो" (अय्यूब 33:7)।

क्या जीवन के किसी भी क्षेत्र में दूसरे लोग आपकी तरफ से कोई दबाव महसूस करते हैं? या आप उन्हें यह पूरी आज़ादी देते हैं कि वे अपने विवेक के अनुसार काम कर सकें?

जब लोग यह जान लेते हैं कि हमारे पास ईश्वरीय अधिकार है, तब वे परामर्श के लिए हमारे पास स्वयं ही आएंगे। अगर वे हमसे सलाह नहीं करते, तो इससे यह साबित होता है कि उन्हें हममें कोई भरोसा नहीं है।

एक उदाहरण पर विचार करेंः जब हमारे बच्चे छोटे होते हैं, तब पिता होते हुए हमारे लिए यह आसान होता है कि हम उन पर अपनी मर्ज़ी थोप सकें और उनके हरेक फैसले में उन्हें हमारी सलाह लेने पर मजबूर कर सकें। लेकिन जब वे बड़े हो जाते हैं और अपने घर बसा लेते हैं, तब हम यह जान सकते हैं कि उन्हें वास्तव में हममें भरोसा है या नहीं। अगर उन्हें हम में भरोसा होगा, तो वे अपनी मर्जी से हमसे सलाह लेने के लिए आएंगे।

इसी तरह, हम कलीसिया में भी यह जान सकते हैं कि लोगों को हममें भरोसा है या नहीं। क्या वे अपनी मर्जी से हमसे सलाह लेने के लिए आते हैं?

अगर वे सलाह लेने के लिए एक युवा भाई के पास जाने में ज़्यादा आज़ादी महसूस करते हैं, तो यह इस बात का संकेत है कि उन्हें उसमें ज़्यादा भरोसा है। ऐसे भाई से ईर्ष्या करने की कोई ज़रूरत नहीं है। हमें आनन्दित होना चाहिए कि कलीसिया में एक आत्मिक व्यक्ति है जिसके पास लोग मदद पाने के लिए जा सकते हैं।

मत्ती 18:18 में यीशु ने अपने शिष्यों को कलीसिया के उस अधिकार के बारे में बताया जिसमें वह दुष्टता की शैतानी शक्तियों को बाँध सकती है और उनके बंधकों को मुक्त कर सकते हैं। उसने कहा कि यह अधिकार कभी भी एक व्यक्ति द्वारा नहीं, बल्कि दो लोगों द्वारा इस्तेमाल किया जा सकेगा - और ये दोनों लोग अपनी आत्मा में एकमत होने चाहिए, क्योंकि प्रभु सिर्फ तभी उन्हें अपना अधिकार देने के लिए उनके बीच में सामर्थ्य के साथ उपस्थित हो सकता है (मत्ती 18:19,20)।

"जहाँ दो या तीन मेरे नाम में इकट्ठे होते हैं, वहाँ मैं उनके बीच में होता हूँ" (मत्ती 18:20) नई वाचा में एक ऐसा पद है जिसके बारे में सबसे (विश्वासियों में) सबसे ज़्यादा ग़लतफहमी है। वह पद दो या तीन मसीहियों के इकट्ठा होने के बारे में नहीं है। नहीं। वह पद कलीसिया के अधिकार को दर्शाता है (पद 15-18), जो उन दो या तीन व्यक्तियों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है जिन्हें पवित्र-आत्मा ने इकट्ठा किया है, और जो यीशु के नाम की महिमा के लिए आत्मा में एक हुए हैं। ऐसी देह के पास शैतान की गतिविधियों को बाँधने और परमेश्वर के लोगों को शैतान के शिकंजे में से छुड़ाने का ज़बरदस्त अधिकार होगा। यह वह अधिकार है जिसका इस्तेमाल हरेक कलीसिया के प्राचीनों को लगातार करते रहना चाहिए।

हम शैतान या उसकी दुष्टात्माओं को नहीं बाँध सकते - जैसा कि कुछ नासमझ विश्वासी करना चाहते हैं - क्योंकि यह तो यीशु के लौटने पर परमेश्वर करेगा (प्रका. 20:1,2; मत्ती 8:29 भी देखें)। लेकिन शैतान और उसकी दुष्टात्माओं के कामों को बाँध (रोक) सकते हैं (2 थिस्स. 2:7)।

शैतान इस अधिकार के बारे में जानता है जो सिद्ध एकता में काम करने वाले दो या तीन प्राचीनों के पास होता है। इसलिए वह हरेक कलीसिया में अगुवों को एक होने से रोकने की अपनी पूरी कोशिश करेगा। अगर अगुवों में एकता नहीं होगी, तो मसीह की देह का कभी निर्माण नहीं हो सकेगा।

अगर एक कलीसिया में दो या तीन सदस्य एक मन न हों तो यह बहुत गंभीर बात नहीं होगी। यह एक दुःख की बात होगी लेकिन अगुवों के एक मन न होने जितनी गंभीर न होगी। हरेक कलीसिया में दो या तीन ऐसे अगुवे होने चाहिए जो पूरी तरह से एक मन हों। प्रभु ऐसे 200 या 300 लोगों को नहीं ढूंढ रहा है जो एक मन हैं - लेकिन मुख्य अगुवों में सिर्फ दो या तीन ऐसे लोग जो पूरी तरह एक मन हों। वहाँ उसका अधिकार सामर्थ्य के साथ प्रकट होगा।

चेतावनी - ऐसे लोग जो अपने ही स्वार्थ की खोज में थे

परमेश्वर अगर यह देखता है कि हम अपना ही राज खड़ा कर रहे हैं, या ख़ुद-ही-सब-कर-लेते हैं (वन-मैन शो चलाते हैं), तो वह हमें हमारे हाल पर छोड़ देगा। मसीही जगत में ऐसे वन-मैन शो बहुत चल रहे हैं। वे कहते तो हैं कि वे "मसीही काम" कर रहे हैं, लेकिन वह व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए किया जा रहा है - या तो धन-प्राप्ति या यश-प्राप्ति के लिए। इसलिए वे सब बेबीलोन का ही निर्माण कर रहे हैं।

परमेश्वर को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। अगर ऐसे प्रचारक बहुत से चेले भी इकट्ठे कर लेंगे, तब भी वह उन पर भरोसा नहीं करेगा। वे पुरानी वाचा की मण्डलियाँ तो बना सकते हैं, लेकिन वे नई वाचा की कलीसिया का निर्माण नहीं कर पाएंगे।

प्रेरितों के काम 5:36 में, हम थियूदास नाम के एक व्यक्ति के बारे में पढ़ते हैं जिसने अपने पीछे चलने वाले 400 शिष्य बना लिए थे। एक 400 सदस्यों की कलीसिया काफी प्रभावशाली नज़र आ सकती है। लेकिन "वे मिट गए।" हम एक यहूदा के बारे में भी पढ़ते हैं जिसने बहुत से लोगों को अपने साथ मिला लिया था। "वह भी मिट गया था" (प्रेरितों. 5:37)।

मसीही इतिहास में हमेशा ही इस तरह के लोग होते रहे हैं। लेकिन मसीह की देह का निर्माण करना एक बिलकुल अलग बात है। हम अपने शहर में 400 लोगों को इकट्ठा कर सकते हैं। फिर भी, अगर हम अपने ही स्वार्थ की खोज में हैं, तो हम थियूदास से बेहतर नहीं होंगे। परमेश्वर कभी हमारा समर्थन नहीं करेगा। आत्मिक अधिकार परमेश्वर के लिए इतना ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है कि वह उसे हरेक व्यक्ति को नहीं देगा।

लोग यीशु को इतना ज़्यादा सम्मान देते थे कि उसके शिष्यों में से एक होने की वजह से यहूदा इस्करियोती काफी मशहूर हो गया होगा! यहूदा भी उस सम्मान में सहभागी होगा। लेकिन इससे उसकी स्व-केन्द्रित प्रवृत्ति नहीं बदली थी। वह फिर भी नाश हो गया।

इसी तरह देमास प्रेरित पौलुस का एक सहकर्मी था। पौलुस का साथी होना बहुत आदर की बात रही होगी। अनेक विश्वासी पौलुस का बहुत आदर करते थे, और पौलुस के साथ जुड़े होने की वजह से देमास भी उस आदर-सम्मान में सहभागी रहा होगा। लेकिन उसके हृदय के भीतर पौलुस जैसी अपनी ख़ुदी से इनकार करने वाली बलिदानी आत्मा नहीं थी। देमास तीमुथियुस जैसे ईश्वरीय और निःस्वार्थ भाई के साथ घुल-मिल कर रहा होगा, लेकिन उसने ऐसे लोगों की आत्मा ग्रहण नहीं की थी।

यह यीशु के समय में और पौलुस के समय में हुआ था। और यह आज भी हो रहा है। ऐसे भाई हैं जिन्होंने अपने लिए बड़ा नाम कमा लिया है, लेकिन यह उनके अपने जीवन या सेवकाई द्वारा नहीं, बल्कि यह सिर्फ किसी ऐसे ईश्वरीय भाई के साथ जुड़ जाने द्वारा हुआ है जिसकी सेवकाई को परमेश्वर ने एक सामर्थी रूप में सत्यापित किया है।

अगर हम ऐसे हैं तो हमारा अंत भी यहूदा इस्करियोती या देमास की तरह हो सकता है। हम सिर्फ किसी ईश्वरीय भाई के साथ जुड़ जाने से एक अलौकिक अधिकार नहीं पा सकते। यह तभी हो सकता है जब हम स्वयं के स्वार्थ की खोज करने से, स्वयं के लिए नाम कमाने से, स्वयं के लिए चैन-आराम पाने से, स्वयं के लिए सुख-सुविधाएं जुटाने से, और जो कुछ स्वयं का है उसमें रखी बुराई से अपने आपको शुद्ध कर लेंगे, तब परमेश्वर हमारा समर्थना करेगा। सिर्फ तभी हमारे पास वह मसीह की कलीसिया का निर्माण करने का आत्मिक आधिकार होगा।

क्या हम अपने राज का निर्माण करना चाहते हैं या परमेश्वर के राज का? परमेश्वर हमारे हृदयों को देखता है। पौलुस ने एक बार कहा था कि उसके पास तीमुथियुस जैसा दूसरा कोई साथी नहीं था। सभी अपने स्वार्थ की खोज में थे, न कि मसीह यीशु की। सिर्फ तीमुथियुस की ही मसीह की देह का निर्माण करने में दिलचस्पी थी (फिलि. 2:19-21)।

सब कुछ बलिदान कर देना

हम सभी ऐसा अधिकार पाना चाहेंगे जैसा अधिकार पौलुस जैसे पुरुष के पास था। लेकिन वह अधिकार पाने के लिए हमें सब कुछ वैसे ही बलिदान कर देना पड़ेगा जैसे उसने किया था, और सब बातों को उसकी तरह कूड़ा-करकट समझना पड़ेगा (फिलि. 3:7-9)।

यीशु ने पिता से कहा, "सब कुछ जो मेरा है वह तेरा है।" और इसलिए वह यह भी कह सका, "और जो कुछ तेरा है वह मेरा है" (यूहन्ना 17:10)। जो कुछ हमारा है जब वह सब हम पूरी तरह से परमेश्वर को सौंप देते हैं, तो जो कुछ परमेश्वर का है, वह भी हमें पूरी तरह सौंप दिया जाएगा। हम जिस अनुपात में उसे देते हैं, उसी अनुपात में वह भी हमें देता है। यही वजह है कि जब आत्मिक अधिकार की बात आती है, तब अनेक मसीही अगुवे इतने कंगाली-के-मारे नज़र आते हैंः उन्होंने अपना सब कुछ परमेश्वर को नहीं दिया है।

यूहन्ना 2:23-25 में, हम यह पढ़ते हैं कि हालांकि बहुत लोग यीशु में विश्वास करते थे, फिर भी उसने अपने आपको उनके भरोसे पर नहीं छोड़ा था। हम भी ऐसे लोग हो सकते हैं जिन पर प्रभु को भरोसा न हो क्योंकि वह यह देखता है कि हममें क्या है, और हमारे उद्देश्य क्या हैं।

अगर हमें अपने काम-धंधे और मसीह की देह के निर्माण के बीच में चुनाव करना पड़े, तो हम किसे चुनेंगे? क्या हम अपने पार्थिव काम में होने वाली उन्नति को इसलिए त्याग देंगे कि हमें कलीसिया के निर्माण के लिए ज़्यादा समय की ज़रूरत है? अगर नहीं, तो परमेश्वर अपने आपको हमें क्यों अर्पित करे?

क्या हम अपने घरों को प्रभु के लोगों के लिए खोलने को तैयार हैं? या फिर हमारी सुविधा और निजी जीवन हमारे लिए ज़्यादा ज़रूरी हैं? अगर हम किसी भी क्षेत्र में अपने स्वार्थ की खोज में रहेंगे, तो प्रार्थना और उपवास करने के बाद भी हम परमेश्वर से कोई आत्मिक अधिकार नहीं पाएंगे। परमेश्वर को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता।

अगर हम मसीह की देह का निर्माण करना चाहते हैं, तो परमेश्वर के राज्य के सामने हमारे जीवन में सब कुछ, हाँ सब कुछ दूसरे स्थान पर होना चाहिए। परमेश्वर कोई पक्षपात नहीं करता। उसके लिए हम सब एक जैसे हैं। उसने जो दूसरों के लिए किया है वही वह हमारे लिए भी करेगा। यीशु और पौलुस को परमेश्वर ने उनकी सेवकाइयों में सामर्थ्य के साथ सत्यापित किया था, क्योंकि उन्होंने उसकी क़ीमत चुकाई थी। अगर हम भी वही क़ीमत चुकाने के लिए तैयार हैं, तो परमेश्वर हमारे लिए भी वही करेगा।

अगर हमें कलीसिया का निर्माण करना है तो हमारा धन और हमारी बचत भी परमेश्वर की होनी चाहिए। जब परमेश्वर ने नूह को जहाज़ बनाने के लिए कहा, तो नूह ने परमेश्वर से यह नहीं पूछा था कि इतने बड़े जहाज़ को बनाने का ख़र्च कौन देगा। अगर उसने यह पूछा होता तो परमेश्वर ने उससे यह कहा होता, नूह, उसका सारा ख़र्च तुझे ही उठाना पड़ेगा। "उसका ख़र्च दूसरा कौन उठाएगा?" लेकिन नूह को पूछने की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि वह यह पहले ही जानता था।

सवाल यह है कि क्या हम यह जानते हैं? नूह को जहाज़ बनाने के लिए शायद अपनी कुछ सम्पत्ति भी बेचनी पड़ी होगी। लेकिन हम परमेश्वर के ऐसे कितने सेवक पाते हैं जो परमेश्वर के काम का ख़र्च उठाने के लिए अपनी निजी सम्पत्ति बेचने के लिए तैयार रहते हैं? वे जो परमेश्वर को अपना सब कुछ नहीं देते, वे यह पाएंगे कि परमेश्वर भी उन्हें अपना सब कुछ नहीं सौंपता।

परमेश्वर के ज़्यादातर सेवकों का यह मनोभाव होता है कि अगर वह प्रभु का काम है, तो उसके लिए पैसा उनकी अपनी जेब से नहीं किसी दूसरी जगह से आना चाहिए। दान-पात्र में से जो धन आता है, उसे वे खुले हाथों से ख़र्च करते हैं, लेकिन वे अपना पैसा परमेश्वर के काम के लिए देने में अपने हाथों को नहीं खोलते हैं। परमेश्वर का एक सेवक जो अपने जीवन पर से धन का शिकंजा नहीं तोड़ सका है, वह अपने जीवन में कभी आत्मिक अधिकार भी नहीं पा सकता।

क्या हमने कभी प्रभु से कहा है, "प्रभु, तेरा काम मेरा काम है। और मेरी बचत तेरी बचत है। मैं अपने धन और तेरे धन के बीच में कोई फ़र्क नहीं जनूगा।" अगर हमने प्रभु से यह नहीं कहा है (और अगर इसमें हम ईमानदार नहीं है), तो हम अभी तक पुरानी वाचा के अधीन हैं जिसमें वे यह मानते थे कि उनके धन का 10% परमेश्वर का था और 90% उनका अपना था। अपना दसवांश देने के बाद उनकी जि़म्मेदारी ख़त्म हो जाती थी।

लेकिन यीशु, पिता को अपनी आमदनी का सिर्फ 10% देने के लिए नहीं आया था। वह नई वाचा स्थापित करने और नई वाचा की कलीसिया का निर्माण करने के लिए आया था। इसलिए उसने पिता को अपना 100% दिया था। और अब वह हमसे कहता है, "मेरे पीछे चलो।" जिस व्यक्ति ने अपना सब कुछ परमेश्वर को दे दिया है, सिर्फ उसके पास ही आत्मिक अधिकार होगा।

हमें चाहे उसकी कोई भी क़ीमत चुकानी पड़े, लेकिन हममें मसीह की देह का निर्माण करने की इच्छा होनी चाहिए - चाहे वह क़ीमत हमारा धन हो, हमारा सम्मान हो, हमारी सुविधा हो, हमारी शारीरिक ऊर्जा हो, हमारी नेकनामी हो, हमारा काम-धंधा हो, या कुछ भी हो। प्रभु की ख़ातिर हम जो बलिदान करना चाहते हैं उसकी कोई सीमा नहीं होनी चाहिए। हमें किसी भी बात में अपनी सुविधा या अपना चैन-आराम नहीं ढूंढना चाहिए। हम जो कुछ भी करें, वह मसीह की देह के निर्माण से सम्बंधित होना चाहिए। हमारा पार्थिव काम-धंधा भी सिर्फ हमारी आजीविका का माध्यम होना चाहिए जिससे कि हम अपनी आर्थिक ज़रूरतों के लिए कलीसिया में दूसरों पर बोझ न बन जाएं।

इसलिए हम परमेश्वर के प्रति अपने कंजूसी के मनोभाव की तरफ से अपने मन फिराएं।

आने वाले दिनों में हम परमेश्वर के प्रति धनवान हों कि हमारे जीवनों में आत्मिक अधिकार हो और अपने देश में हमारे प्रभु यीशु मसीह की महिमा के लिए मसीह की देह का निर्माण कर सकें।

अध्याय 8
परमेश्वर को पुरुषों की आवश्यकता है

परमेश्वर को आज पुरुषों की ज़रूरत हैः

l ऐसे पुरुष जो उसके सम्मुख खड़े रहते और प्रतिदिन उसकी आवाज़ सुनते हैं।

l ऐसे पुरुष जिनके हृदय में परमेश्वर को छोड़ और किसी व्यक्ति की या किसी वस्तु की कोई अभिलाषा नहीं होती।

l ऐसे पुरुष जो परमेश्वर का ऐसा भय मानते हैं कि पाप से उसके हरेक रूप में घृणा करते हैं, और अपने सब कामों में धार्मिकता और सत्य से प्रेम करते हैं।

l ऐसे पुरुष जिन्होंने क्रोध और पापमय लैंगिक विचारों पर जय पा ली है, और जो विचार या व्यवहार में पाप करने की बजाय मर जाना बेहतर समझते हैं।

l ऐसे पुरुष जिनकी दैनिक जीवन-शैली अपनी सूली उठाने और सिद्धता की ओर बढ़ते रहने वाली है, और जो डरते-काँपते लगातार अपने उद्धार का काम पूरा करते जाते हैं।

l ऐसे पुरुष जो पवित्र-आत्मा से भरे रहते हैं, और जिन्होंने प्रेम में ऐसी गहरी जड़ पकड़ी हुई है कि चाहे उन्हें कितना भी उकसाया जाए, फिर भी वे किसी दूसरे मनुष्य के प्रति एक प्रेम-रहित मनोभाव नहीं अपनाते।

l ऐसे पुरुष जो नम्रता व दीनता में ऐसी जड़ पकड़े होते हैं कि न तो कोई मानवीय प्रशंसा और न ही आत्मिक उन्नति, न ही अलौकिक रूप से सत्यापित सेवकाई और न ही कोई दूसरी बात उन्हें इस अहसास से दूर कर पाती है कि वे सभी संतो में सबसे छोटे हैं।

l ऐसे पुरुष जिन्होंने परमेश्वर के वचन में से उसके स्वभाव और उसके उद्देश्यों को जान लिया है, और जो परमेश्वर के वचन के आगे ऐसे थरथराते हैं कि वे उसकी सबसे छोटी आज्ञा का भी उल्लंघन नहीं करते और न ही उसे दूसरों को सिखाने में लापरवाही करते हैं।

l ऐसे पुरुष जो परमेश्वर के पूरे परामर्श का प्रचार करते हैं, और सारी धार्मिक वेश्यावृत्ति और उन मानवीय परम्पराओं का पर्दाफाश करते हैं जो वचन के अनुसार नहीं है।

l ऐसे पुरुष जो कर्मठ और परिश्रमी हैं, और जिनमें हास्यरस का भाव भी है, और जो विनोदी होकर बच्चों के साथ खेल सकते हैं और प्रकृति में परमेश्वर के अच्छे दान-वरदानों का आनन्द मना सकते हैं।

l ऐसे पुरुष जो बैरागी नहीं हैं लेकिन फिर भी जो एक अनुशासित जीवन जीते हैं और मुश्किलों से नहीं डरते।

l ऐसे पुरुष जिनकी महँगे कपड़े पहनने में या घूमने-फिरने में कोई दिलचस्पी नहीं होती, और जो अपना समय व्यर्थ के कामों में या अपना धन व्यर्थ ख़र्च नहीं करते।

l ऐसे पुरुष जिन्होंने स्वादिष्ट भोजनों की अभिलाषा पर जय पा ली है और जो संगीत, खेल-कूद या अन्य हरेक वैध गतिविधि के बंधन में जकड़े हुए नहीं हैं।

l ऐसे पुरुष जिन्हें परमेश्वर ने पीड़ा, अपशब्द, झूठे आरोप, शारीरिक रोग, आर्थिक तंगी, संबंधियों के विरोध और धार्मिक अगुवों द्वारा सफलतापूर्वक अनुशासित किया है।

l ऐसे पुरुष जो दया से भरे हैं, जो सबसे घिनौने पापी और सबसे बुरे विश्वासी के प्रति भी संवेदना रख सकते हैं, और उनसे निराश नहीं होते क्योंकि वे अपने आपको उनसे बड़ा पापी मानते हैं।

l ऐसे पुरुष जो अपने स्वर्गीय पिता के प्रेम में ऐसी गहरे जड़ पकड़े हुए हैं कि वे कभी किसी बात की चिंता नहीं करते, और न ही शैतान, दुष्ट मनुष्यों, मुश्किल हालातों, या और किसी बात से डरते हैं।

l ऐसे पुरुष जिन्होंने यह विश्वास रखते हुए परमेश्वर के विश्राम में प्रवेश कर लिया है कि उसकी सर्वसत्ता के सारे काम उसकी भलाई के ही लिए काम करते हैं, और इसलिए जो हमेशा सब लोगों के लिए, सब बातों के लिए और सब हालातों के लिए धन्यवाद देते है।

l ऐसे पुरुष जो अपना आनन्द सिर्फ परमेश्वर में ही पाते हैं और इस वजह से वे अपने सभी बुरे मनोभावों पर जय पाकर हमेशा प्रभु के आनन्द से ही भरे रहते हैं।

l ऐसे पुरुष जिनका जीवित विश्वास है, और जिनका अपने आप में और अपनी प्राकृतिक योग्यताओं में कोई भरोसा नहीं है, लेकिन सभी हालातों में अपने अचूक सहायक के रूप में परमेश्वर में पूरा भरोसा रखते हैं।

l ऐसे पुरुष जो अपने तर्क की आवाज़ सुनकर नहीं बल्कि पवित्र-आत्मा की अगुवाई में चलते हैं।

l ऐसे पुरुष जिनका स्वयं मसीह ने वास्तव में पवित्र-आत्मा और आग में बपतिस्मा दिया है (वे नहीं जो किसी भावुकता भरी नक़ली बात से उत्तेजित हो गए हों या किसी धर्म-सैद्धान्तिक तर्क से आश्वस्त हो गए हों)।

l ऐसे पुरुष जो लगातार पवित्र-आत्मा के अभिषेक में जीते हैं, और जिनके पास प्रभु के दिए हुए अलौकिक दान-वरदान हैं।

l ऐसे पुरुष जिनके पास कलीसिया के मसीह की देह (कोई मण्डली या मसीही-मत नहीं) होने का प्रकाशन है, और जो अपनी सारी ऊर्जा, भौतिक धन-सम्पत्ति, और आत्मिक वरदान उस कलीसिया के निर्माण के लिए दे देते हैं।

l ऐसे पुरुष जिन्होंने पवित्र-आत्मा की मदद से अपनी जीभ को वश में रखना सीख लिया है, और अब जिनकी जीभ ईश्वरीय शब्द की आग से भरी हुई है।

l ऐसे पुरुष जिन्होंने अपना सब कुछ त्याग दिया है, जो धन या भौतिक वस्तुओं से जुड़े हुए नहीं हैं, और जो दूसरों से किसी तरह के उपहार/भेंट नहीं चाहते।

l ऐसे पुरुष जो अपनी सारी पार्थिव ज़रूरतों के लिए परमेश्वर में भरोसा रख सकते हैं, और जो कभी अपनी भौतिक ज़रूरतों की भनक भी नहीं लगने देते और न ही अपने परिश्रम के बारे में बड़े बोल बोलते हैं - न तो अपनी बातचीत में, और न ही अपने पत्रों या किसी रिपोर्ट द्वारा।

l ऐसे पुरुष जो हठीले बल्कि भद्र हैं, जो आलोचना के शब्द सुनने के लिए तैयार रहते है, और अपने से बड़े और परिपक्व भाइयों द्वारा सुधारे जाने के लिए उत्सुक रहते हैं।

l ऐसे पुरुष जिनमें दूसरों पर अधिकार जमाने और परामर्श देने की कोई अभिलाषा नहीं होती (हालांकि वे सलाह माँगने वालों को सलाह देने के लिए तैयार रहते हैं), और जिनमें एक 'प्राचीन' भाई या अगुवा कहलाने की कोई लालसा नहीं होती, लेकिन जो इस बात के लिए तैयार रहते हैं कि वे लोगों के लिए तकलीफ उठाएं और दूसरों के काम आएं (चाहे वे उनसे एक ग़लत ढंग से फायदा भी क्यों न उठा रहे हों)।

l ऐसे पुरुष जो एक करोड़पति और एक कंगाल में, एक गोरे और काले में, बुद्धिमान और मूर्ख में, और सभ्य और असभ्य में कोई फ़र्क न समझेंगे, बल्कि उनके साथ एक जैसा व्यवहार करेंगे।

l ऐसे पुरुष जो उनकी पत्नी, बच्चों, सम्बंधियों, मित्रें, या और किसी को भी यह अनुमति नहीं देते कि वे मसीह के प्रति उनकी भक्ति में और परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करने में उन्हीं मामूली सा भी ठण्डा हो जाने के लिए प्रभावित कर सकें।

l ऐसे पुरुष जो शैतान द्वारा प्रस्तावित किसी भी उपहार/भेंट द्वारा (चाहे वह सम्मान या धन या कुछ भी हो), समझौता करने के लिए प्रलोभित नहीं किए जा सकते।

l ऐसे पुरुष जो मसीह के निर्भय साक्षी हैं जो न तो धार्मिक मुखियाओं से और न ही सांसारिक राजाओं से डरते हैं।

l ऐसे पुरुष जो पृथ्वी पर किसी मनुष्य को नहीं सिर्फ परमेश्वर को प्रसन्न करना चाहते हैं, और इसमें ज़रूरी होने पर वे मनुष्यों के लिए ठोकर का पत्थर भी बन जाते हैं।

l ऐसे पुरुष जिनके लिए परमेश्वर की महिमा, परमेश्वर की इच्छा, और परमेश्वर का राज्य मानवीय आवश्यकता मात्र से और उनकी स्वयं की सुख-सुविधा से बढ़कर होता है।

l ऐसे पुरुष जिन पर न तो दूसरों द्वारा और न ही उनके अपने तर्क द्वारा परमेश्वर के लिए "मरे हुए काम" करने के लिए दबाव डाला जा सकता है, लेकिन जो अपने जीवनों के लिए सिर्फ परमेश्वर की प्रकाशित इच्छा को पूरा करने के लिए उत्सुक रहते हैं और उससे ही संतुष्ट होते हैं।

l ऐसे पुरुष जिन्हें पवित्र-आत्मा ने यह परखने की क्षमता दी है कि वे मसीही काम में जैविक और आत्मिक के बीच फ़र्क जान सकें।

l ऐसे पुरुष जो बातों को पार्थिव नहीं बल्कि स्वर्गीय दृष्टिकोण से देखते हैं।

l ऐसे पुरुष जो परमेश्वर के लिए किए गए काम के लिए सभी तरह के मान-सम्मान और पद-प्रतिष्ठा को अस्वीकार कर देते हैं।

l ऐसे पुरुष जो निरन्तर प्रार्थना करना, और ज़रूरत होने पर उपवास और प्रार्थना करना जानते हैं।

l ऐसे पुरुष जिन्होंने बुद्धि द्वारा उदारता से, हर्ष से, और गुप्त रूप से देना सीख लिया है।

l ऐसे पुरुष जो सब मनुष्यों के लिए सब कुछ होने के लिए तैयार हैं कि वे किसी-न-किसी तरह उनमें से कुछ को बचा सकें।

l ऐसे पुरुष जिनमें न सिर्फ यह अभिलाषा है कि वे दूसरों को उद्धार पाता हुआ देखें, बल्कि यह भी कि वे मसीह के शिष्य बनाए जाएं, और सत्य के ज्ञान और परमेश्वर की सब आज्ञाओं के पालन तक पहुँचाए जाएं।

l ऐसे पुरुष जिनकी यह अभिलाषा है कि वे सभी जगहों में मसीह की शुद्ध साक्षी को स्थापित होता हुए देखें।

l ऐसे पुरुष जिनमें यह ज्वलंत आवेग है कि वे कलीसिया में मसीह को महिमामय होता हुआ देखें।

l ऐसे पुरुष जो किसी भी बात में अपने स्वार्थ की खोज में नहीं रहते।

l ऐसे पुरुष जिनके पास आत्मिक अधिकार और आत्मिक गरिमा है।

l ऐसे पुरुष जो ज़रूरत पड़ने पर परमेश्वर के लिए जगत में अकेले खड़े रहेंगे।

l ऐसे पुरुष जो प्रेरितों और प्राचीन काल के नबियों की तरह (पाप/संसार/ शरीर/शैतान से) किसी भी तरह का कोई समझौता नहीं करते।

आज जगत में परमेश्वर के काम की हानि हो रही है, क्योंकि आज ऐसे पुरुषों की गिनती बहुत कम है।

एक पापी और भ्रष्ट पीढ़ी, और एक समझौता करने वाले मसीही जगत के बीच में, अपने पूरे हृदय से यह संकल्प करें कि आप परमेश्वर के एक ऐसे पुरुष होंगे।

अगर आप स्वयं पूरी ईमानदारी से परमेश्वर के ऐसे पुरुष बनना चाहते हैं, और परमेश्वर क्योंकि कोई पक्षपात नहीं करता, इसलिए आपके लिए भी ऐसा पुरुष बनना सम्भव है।

परमेश्वर क्योंकि सिर्फ हमारे जीवन के सचेत क्षेत्र में ही हमारा समर्पण और आज्ञापालन चाहता है, इसलिए आपके लिए ऐसा पुरुष होना सम्भव है। (हालांकि आपके जीवन का सचेत क्षेत्र अभी सीमित हो सकता है, लेकिन जैसे-जैसे आप ज्योति में चलेंगे और सिद्धता की ओर बढ़ेंगे, वह क्षेत्र बढ़ता जाएगा)। और तब ऐसा पुरुष न होने के लिए आपके पास कोई बहाना न रहेगा।

हमारे शरीर में क्योंकि कुछ भला वास नहीं करता, इसलिए हमें ऊपर दी गई सूची के गुण पाने के लिए परमेश्वर से कृपा प्राप्त करनी होगी इसलिए परमेश्वर को प्रतिदिन पुकारें, और युग के अंत के इन दिनों में वह आपको कृपा देगा कि आप में एक ऐसा पुरुष हो सके।

जिसके सुनने के कान हों वह सुने।

"प्रभु यूँ कहता है, 'मैंने उनके मध्य एक ऐसे पुरुष की खोज की... जो मेरे सामने खड़ा हो" (यहेजकेल 22:30)।