असफलता का उद्देश्य

द्वारा लिखित :   जैक पूनन श्रेणियाँ :   Struggling मूलभूत सत्य साधक
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अध्याय 1
मानव की असफलता में परमेश्वर का उद्देश्य

आईए लूका अध्याय 22 पद 31 की ओर देखें।

यहाँ हम यीशु को पतरस को आने वाली भयसूचक घटना की चेतावनी के विषय में पढ़ते हैं। यीशु ने उससे कहा, "शम्मौन, हे शम्मौन! देख शैतान ने तुझे माँगा है कि गेहूँ की तरह फटके, परन्तु मैंने तेरे लिए विनती की है कि तेरा विश्वास जाता न रहे; और जब तू फिरे तो अपने भाइयों को स्थिर करना।"

हम सभी जानते हैं कि परतस ने उस रात तीन बार प्रभु को नकारा। पद 34 में, हम पढ़ते हैं कि यीशु ने पतरस से कहा "हे पतरस, मैं तुझसे कहता हूँ कि आज मुर्गा बाँग न देगा, जब तक तू तीन बार मेरा इन्कार न कर देगा कि तू मुझे नहीं जानता।"

मैं आज प्रातः जो आपके साथ वचन बांटना चाहता हूँ, वह है 'मानव की असफलता में परमेश्वर का उद्देश्य।' यह हम सब की हिम्मत बढ़ाएगा जो स्वयं को असफल होने के कारण निराश और निरुत्साही अनुभव करते हैं, क्योंकि हमारी असफलताओं के लिए भी आशा है।

सबसे पहले प्रश्न हैः क्या परमेश्वर असफलताओं की अनुमति देता है? क्या असफलता में कोई उद्देश्य है? अथवा असफलता का परमेश्वर की सिद्ध इच्छा में कोई उद्देश्य नहीं है या असफलता को परमेश्वर अपने उद्देश्यों में, आगे उपयोग नहीं कर सकते!

हम जब इस परिच्छेद को पढ़ते हैं, तब हम देखते हैं कि यीशु ने पतरस को उसका इन्कार करने से नहीं रोका। यीशु ने क्यों नहीं कहा, "शम्मौन मैंने तेरे लिए प्रार्थना की है कि तू मेरा एक बार भी इन्कार न करेगा।" क्यों प्रभु ने केवल यह प्रार्थना की, कि पतरस का विश्वास निष्फल न हो चाहे पतरस स्वयं निष्फल हो जाए? क्या यह दिलचस्प नहीं है कि प्रभु ने यह प्रार्थना नहीं की कि पतरस असफल न हो?

हम में से कुछ ऐसा ही पसंद करेंगे कि प्रभु हमारे लिए प्रार्थना करे कि हम कभी न गिरें। हम प्रभु से यह सुनना पसंद करेंगे, फ्मेरे पुत्र, मेरी पुत्री, मैंने तेरे लिए प्रार्थना की है कि तू कभी न तो गिरे और न कभी असफल हो।" किंतु कितना अद्भुत है कि हमारा प्रभु हमारे लिए ऐसी प्रार्थना नहीं करता।

यीशु ने शम्मौन के लिए क्या प्रार्थना की? कि जब शैतान उसकी परीक्षा ले तब उसका विश्वास जाता न रहे। यीशु ने प्रार्थना यह नहीं की कि पतरस परीक्षा में न पड़े, किंतु जब वह गिरे, तो परमेश्वर का सिद्ध प्रेम उसके विश्वास को निष्फल न होने दे 'ताकि यहाँ तक कि जब पतरस निष्फलता के गड्डे के तल तक पहुँचे, तो वह यह स्वीकार करे कि "परमेश्वर अब भी मुझसे प्रेम करता है।"

यह है विश्वास और यह है अंगीकार। जिसे हमें चाहिए कि सदा हमारे होंठो पर और हमारे दिल में रहे। 'कोई बात नहीं कि हम कितनी गहराई तक डूबे अथवा गिर चुके हैं' परमेश्वर हमसे अब भी प्रेम करता है, चाहे हम जैसे भी हों।

यही उड़ाऊ पुत्र का अंगीकार था। जब वह बहुत नीचे गिर गया, कि उससे और अधिक गिरा नहीं जा सकता था, उसे फिर भी विश्वास था कि उसका पिता उससे प्रेम करता है। मैं नहीं सोच सकता कि कोई भी उड़ाऊ पुत्र से अधिक नीचे गिर सकता है वह वही खाता था जो सुअर खाते थे। यह लड़का सबसे नीचे गिरा हुआ था। परन्तु जब यह गिरता हुआ सबसे नीचे पहुँच गया, तब उसे एक चीज याद आई कि उसका पिता उसे अब भी प्यार करता है। नहीं तो वह कभी भी घर वापिस न लौटा होता। मान लीजिए, उसने सुना होता कि उसके पिता की मृत्यु हो चुकी है और अब उसका बड़ा भाई घर चला रहा है, आप क्या सोचते हैं कि वह घर वापिस आया होता? नहीं। उसे ज्ञात था कि उसका बड़ा भाई कैसा है और यह जानते हुए वह कभी भी घर वापिस न आया होता। वह इसलिए वापिस घर आया क्योंकि वह जानता था कि उसका पिता उससे प्रेम करता है।

बहुत से ऐसे पापी हैं जो कलीसिया में सम्मिलित नहीं होते क्योंकि वे सोचते हैं कि पादरी/अगुवा अथवा वडीलजन दृष्टान्त में दर्शाए बड़े भाई के समान हैं। आप उन पापियों पर कलीसिया न आने के लिए दोष नहीं लगा सकते। हालाँकि अगर कलीसिया के पादरी/अगुवा उस पिता के समान हैं, तो सबसे बत्तर पापी उस कलीसिया में उद्धार की खोज में आएंगे, वैसे ही जैसे वे यीशु के पास आए थे। हमारी कलीसिया की अनिवार्यतः ऐसी छवि होनी चाहिए, कि सबसे बत्तर पापी भी स्वतंत्र रूप से हमारे पास आ सके। यदि यीशु वास्तव में हमारे मध्य है तब सबसे बत्तर पापी अवश्य ही आएगा। और हमारे मध्य उद्धार पाएगा।

सबके लिए जो पूर्ण तौर से निष्फल हो चुके हैं, जिन्होंने अपने जीवनों को बिगाड़ दिया है, और वे जो गिरने की अन्तिम सीमा तक पहुँच चुके हैं, उनके लिए अब भी आशा है। वहाँ से प्रभु आपको उठाकर महिमा की ऊँचाइयों तक ले जाएगा। हमारे लिए प्रभु की प्रार्थना यह है कि परमेश्वर के प्रेम में हमारा विश्वास कभी भी निष्फल न हो!

यदि आज आपको इस संदेश की आवश्यकता नहीं है, परंतु एक दिन भविष्य में आपको अवश्य ही इसकी आवश्यकता पड़ेगी जब आप बिल्कुल नीचे गिर पड़ेंगे। उस दिन एक चीज याद रखिए कि परमेश्वर अब भी आपसे प्रेम करता है, कोई बात नहीं कि आप कहाँ है और आप कितना नीचे गिर चुके हैं। प्रभु करे कि उस समय परमेश्वर के प्रेम में आपका विश्वास निष्फल न हो।

प्राथमिक रूप से विश्वास करना यह है कि परमेश्वर अब भी हमसे प्रेम करता है। वह हमारे पाप से प्रेम नहीं करता। वह नहीं चाहता कि हम अपने पापों में बने रहें। यह एक पिता के समान है जो अपने बच्चे को बीमार देखता है और उन बिमारियों से घृणा करता है किंतु अपने बच्चे से प्रेम करता है। एक ऐसी माता के विषय में सोचिए जो अपने बच्चे को कोढ़ अथवा क्षय रोग से पीड़ित देखती है। वह माता अपने बच्चे को अत्यंत प्रेम करती है परन्तु उन रोगों से बहुत नफरत करती है। परमेश्वर पापियों को प्रेम करता है, परन्तु वह उनके पापों से घृणा करता है।

हम कलवरी के क्रूस पर पापियों के प्रति परमेश्वर का प्रेम और पापों के प्रति उसकी घृणा देखते हैं। पापियों के प्रति उसका प्रेम इसमें दिखाई देता है कि उसने हमारे लिए यीशु को क्रूस पर मर जाने की अनुमति दे दी। पाप के प्रति उसकी घृणा दिखाई देती है कि जब क्रूस पर यीशु ने संसार के पाप अपने ऊपर ले लिए, तो पिता ने अपना मुख यीशु की ओर से फेर लिया।

कभी-कभी लोग पूछ बैठते हैं कि किस प्रकार एक प्रेम का परमेश्वर लोगों को नरक में भेज सकता है। नरक कैसा है? नरक एक ऐसा स्थान है जिसे परमेश्वर ने पूर्ण रूप से त्याग दिया है। एक ऐसा स्थान जहाँ परमेश्वर नहीं पाया जा सकता। इस पृथ्वी को परमेश्वर द्वारा त्यागा नहीं गया है। इसीलिए इस पृथ्वी पर अब भी बहुत अच्छाई और सौन्दर्य पाया जाता है। जरा सृष्टि के सौन्दर्य को देखें, उदाहरण के लिए, बहुत से मानवों में पाई जाने वाली अच्छाई और मर्यादा को देखें। दुष्ट आत्माएं समस्त मानवों को अपने अधिकार में कर लेना पसन्द करेंगी, परन्तु वे असमर्थ हैं, क्योंकि परमेश्वर ने उन्हें रोकने के लिए लोगों के चारों ओर एक दीवार बना रखी है, ताकि दुष्ट आत्माएं जो चाहती हैं, न कर सकें। यह परमेश्वर की दया है जो मनुष्य को स्वास्थ्य, सफलता और अन्य आराम प्रदान करती है। ये समस्त आशीषें सभी अच्छे और बुरे लोगों पर परमेश्वर की ओर से लागू होती हैं।

इस सभी से प्रमाणित होता है कि परमेश्वर ने इस संसार को नहीं त्यागा किन्तु नरक ऐसा नहीं है। नरक में थोड़ी सी भी दया नहीं है क्योंकि नरक परमेश्वर द्वारा पूर्ण रूप से त्यागा हुआ स्थान है।

इस संसार में अन्य जाति लोगों में भी भलाई है, क्योंकि परमेश्वर का प्रभाव अब भी उन पर हैं। परन्तु एक बार यदि वे नरक में गए तो, यही लोग शैतान की भांति बन जाएंगे क्योंकि परमेश्वर की दया उनके जीवनों पर से हट जाएगी।

नरक में, प्रथम बार लोग आभास करेंगे कि परमेश्वर के द्वारा पूर्ण रूप से त्यागा जाना कैसा होता है। यही तो था जिसे यीशु ने क्रूस पर अनुभव किया था। यीशु ने अंधकार के उन तीन घण्टों में क्रूस पर नरक को अनुभव किया था, जब परमेश्वर ने वास्तव में उसे त्याग दिया था। वहाँ हम देखते हैं कि परमेश्वर पाप से कितनी घृणा करता है।

तो उत्तर क्या है? क्या प्रेम करने वाला परमेश्वर लोगों को नरक में डाल सकता है? इस दूसरे प्रश्न के उत्तर में इसका उत्तर है। क्या प्रेमी परमेश्वर अपने ही पुत्र को क्रूस पर नरक भोगने के लिए अनुमति दे पाया था, जब कि संसार के पाप उसके ऊपर थे? यदि वह ऐसा कर सकता है, तो वह लोगों को भी नरक में भेज सकता है। प्रेमी परमेश्वर उन लोगों की ओर से अपना मुख फेर लेता है जो पाप करते रहते हैं, और जो परमेश्वर से कहते हैं, फ्मैं तेरी नहीं सुनने वाला। मैंने अपना मार्ग चुन लिया है, और मैं सदा इस पर चलता रहूँगा।"

बाईबल नीतिवचन 29:1 में कहती है (व्याख्या), "जो बार-बार डाँटे जाने पर भी हठ करता है, वह अचानक नष्ट हो जाएगा और उसे और मौका नहीं मिलेगा।" यदि कोई मनुष्य परमेश्वर के प्रेममय निमन्त्रणों का इन्कार करता रहे, तो समझ लीजिए वह वास्तविक खतरे में है।

मैं ऐसा कदापि नहीं चाहता कि आप में से कोई अधिक सचेतन भाई-बहन इसे सुनकर कहीं स्वयं को दोषी न समझ बैठे। क्योंकि यह पद उनके लिए नहीं लिखा गया था जो पाप में गिर पड़े थे बल्कि उन लोगों को चेतावनी थी जो पाप से प्रेम करते हैं और जो पाप में निरन्तरता बनाए रखना चाहते हैं। यह उनके लिए नहीं है जो प्रयास करते हैं कि वे शुद्धता में बने रहें, किन्तु डगमगा जाते अथवा गिर पड़ते हैं। यह विद्रोहियों के लिए है, जो परमेश्वर को तुच्छ जानते हैं और पाप करते रहना चाहते हैं।

आप कैसे जान सकते हैं कि आप विद्रोही तो नहीं? इसे जान लेना बहुत आसान है। बस, अपने आप से पूछिए कि क्या आप में पश्चाताप की इच्छा है और आप परमेश्वर के पास लौटकर आना चाहते हैं? यदि आप में परमेश्वर की ओर लौटने की हल्की सी भी इच्छा है और आप उसको प्रेम करना चाहते हैं, तब इससे ज्ञात होता है कि पवित्र-आत्मा अब भी आपके जीवन में क्रियाशील है और परमेश्वर आपको अपनी ओर खींचना चाहता है। आप निष्फल तो हो सकते हैं किन्तु आप विद्रोही नहीं है। जो निष्फल हैं और जो विद्रोही हैं, उनके बीच बहुत बड़ा फासला है।

एक उद्देश्य था कि परमेश्वर ने पतरस को गिरने की अनुमति दी। वह उद्देश्य पतरस को फटकने के लिए था। शैतान वास्तव में जो चाहता था, वह यह था कि परतस को पूर्ण रूप से नाश कर डाले, किन्तु परमेश्वर ने उसे ऐसा करने की अनुमति न दी। परमेश्वर हमें भी हमारी योग्यता से परे परीक्षा में पड़ने की अनुमति नहीं देते। अतः शैतान को पतरस को फटकने की आज्ञा दी गई थी। पतरस की असफलता के परिणाम-स्वरूप पतरस पूर्ण रूप से अपने जीवन के भूसे के गट्ठर से अलग करके शुद्ध कर दिया गया। यही वास्तविक अभिप्राय है जिसके द्वारा परमेश्वर हमें असफल होने देते हैं।

क्या भूसे का हमारे जीवन से अलग हो जाना अच्छी बात नहीं है? निःसन्देह! जब किसान गेहूँ की कटनी करता है, तो इसे प्रयोग करने से पूर्व वह गेहूँ को फटकता है, और तब ही भूसा इस गेहूँ से अलग हो पाता है।

परमेश्वर हमारे जीवन से भूसे को हटाने के लिए शैतान का प्रयोग करते हैं। काफी अचरज की बात है, परमेश्वर इस उद्देश्य को हमारे द्वारा पूर्ण करने हेतु हमें बार-बार असफल होने देता है!! इसी प्रकार परमेश्वर ने पतरस में इस उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए शैतान का उपयोग किया, और वह हमारे जीवन में भी इस उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए शैतान का उपयोग करेगा। हम सभी में बहुत भूसा भरा हुआ है। घमंड का, आत्म-विश्वास का, तथा स्व-धार्मिकता का भूसा। और परमेश्वर हमें बार-बार असफल करने के लिए शैतान का प्रयोग करता है ताकि पूर्ण रूप से भूसा हमसे बिल्कुल अलग हो जाए।

केवल आप ही हैं जो जानते हैं कि क्या प्रभु इस उद्देश्य को आपके जीवन में पूरा करने में सफल हो रहे हैं या नहीं। परन्तु यदि भूसा अलग किया जा रहा है, तो आप अधिक नम्र और कम स्व-धर्मी होंगे। आप असफल होने वालों की नीचा नहीं जानेंगे और आप स्वयं को किसी से भी बेहतर न समझेंगे।

जैसा मैंने कहा कि परमेश्वर हमारी निरन्तर असफलता के द्वारा भूसे को हमसे अलग करने के लिए शैतान का उपयोग करते हैं। तो हिम्मत न हारिए यदि आप असफल हों। आप अब भी परमेश्वर के हाथ में हैं। एक महिमामय उद्देश्य है जो आपकी निरन्तर असफलता के द्वारा पूरा हो रहा है। किन्तु ऐसे अवसरों में परमेश्वर के प्रेम में आपका विश्वास अनिवार्यतः निष्फल नहीं होना चाहिए। यह प्रार्थना यीशु ने पतरस के लिए की और वह यह प्रार्थना नहीं कर रहा है कि हम कभी असफल न हों, किन्तु वह प्रार्थना कर रहा है कि जब हम गिर कर धाराशायी भी हो जाएं तब भी परमेश्वर के प्रेम में हमारा विश्वास स्थिर रहे।

असफलताओं के बहुत से अनुभवों के द्वारा हम अन्ततः एक " शुन्य बिन्दु" पर पहुँचते हैं, जहाँ हम वास्तव में टूट जाते हैं। यही था जब पतरस उस बिन्दु पर पहुँचा जहाँ उसमें दोबारा "बदलाव" आया (लूका 22:32)। वह फिरा वह प्रमाण जो यीशु ने पतरस के लिए प्रार्थना की उसको तब देखा गया जब पतरस बिल्कुल नीचे गिर कर धाराशायी हो गया, तब वह फिरा। उसने बस हिम्मत नहीं छोड़ी। उसने अपने विश्वास को न छोड़ा। वह उठ खड़ा हुआ। परमेश्वर ने उसे लम्बी दमरी तक जाने दिया था। परन्तु जब पतरस उस रस्सी के सिरे तक पहुँचा, परमेश्वर ने उसे वापिस खींच लिया।

परमेश्वर की सन्तान होना एक अद्भुत चीज है। जब परमेश्वर हमें थाम लेता है, वह हमारी सुरक्षा के लिए हमारे चारों ओर रस्सी बाँध देता है। उस रस्से में बहुत ही ढीले स्थान हैं, कि आप फिसल सकते हैं और हज़ारों बार गिर भी सकते हैं, और यहाँ तक कि प्रभु से अलग भी हो सकते हैं। परन्तु एक दिन, आप उस रस्सी के सिरे तक पहुँच जाएंगे, और तब परमेश्वर आपको वापिस अपनी ओर खींच लेगा।

निःसन्देह, उस बिन्दु पर पहुँच कर आप रस्सी को काट कर भाग जाने का निर्णय कर सकते हैं, अथवा आप परमेश्वर की कृपा के द्वारा टूटना नियुक्त कर लें और विलाप करें और उसके पास लौट आएं। यही तो परतस ने किया था। वह रोया और प्रभु की ओर लौट आया। परन्तु यहूदा इस्करियोती ने ऐसा नहीं किया। उसने रस्सी को काट डाला, अपने जीवन से परमेश्वर के अधिकार का विद्रोही बन गया और अनंतकाल के लिए खो गया किन्तु मैं भरोसा करता हूँ कि आप वही करेंगे जो पतरस ने किया।

यीशु ने तब पतरस से कहा, फ्जब तू फिरे और पुनः स्थिर हो, तो अपने भाइयों को स्थिर करना।य् यह तभी सम्भव है जब हम तोड़े जाएं और इतने बलवन्त हो जाएं और तब दूसरों को स्थिर कर सकें।

ऐसा केवल तब ही था जब पतरस निर्बल और टूटा हुआ था, कि वह उसके द्वारा वास्तव में इतना बलवन्त हुआ, इतना बलवन्त हुआ कि अपने भाई-बहनों को स्थिर करने योग्य बन पाया। हम कह सकते हैं कि परतस की आत्मा से भरपूर सेवकाई की तैयारी उसके असफलता के अनुभव से आई थी। अगर वह बिना असफलता के अनुभव से, पवित्र-आत्मा से परिपूर्ण होता, तो वह पिन्तेकुस्त के दिन एक घमंडी व्यक्ति की भांति खड़ा हुआ होता, एक ऐसा व्यक्ति जिसने कभी भी असफलता का मुँह नहीं देखा हो, जो निर्धन एवं खोए हुए पापियों पर जो उसके सम्मुख हैं, निम्नता एवं तिरस्कार की दृष्टि डालता हो और परमेश्वर उसका शत्रु बन गया होता क्योंकि परमेश्वर घमंडी का विरोधी है।

यही दुःख की बात है जिसने बहुत से मसीहियों को आज अपने नियन्त्रण में ले रखा है, जो एक बार पवित्र-आत्मा से परिपूर्ण हो चुके हैं। वे कभी टूटे नहीं हैं। वे शायद सच में आत्मा में परिपूर्ण हों, परन्तु वे कभी टूटे नहीं है और इसलिए घमंड के कारण वे शीघ्र ही अभिषेक को खो बैठते हैं।

मेरे स्वयं के जीवन में, पवित्र-आत्मा की परिपूर्णता से बहुत पहले परमेश्वर ने मुझे क्रूस के मार्ग की सत्यता, और तोड़े जाने की शिक्षा प्रदत्त की। यह मेरे लिए अच्छा था, क्योंकि इससे मैं भटकने से बच गया। परमेश्वर ने मेरे आत्म-विश्वास एवं स्व-धार्मिकता के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और यह मेरी असफलता के बहुत से वर्षों के माध्यम से सम्भव हो पाया हाँ ये असफलता के वर्ष थे। अगर मुझे अपने जीवन के साठ वर्षों के माध्यम से सम्भव हो पाया हाँ ये असफलता के वर्ष थे। अगर मुझे अपने जीवन के साठ वर्षों का रेखाचित्र खींचना पड़े, तो यह कुछ ऐसा होगा।

जब मैं पैदा हुआ, मैं बड़ा मासूम और प्यारा था, दूसरे बच्चों की भान्ति निष्पाप था। मेरे नये जन्म के पश्चात (जब मैं 19 वर्ष का था) कुछ समय तक सब ठीक रहा, वास्तव में कुछ वर्षों तक। यह रेखाचित्र धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ने लगा। परन्तु परमेश्वर ने जैसी मेरी सेवकाई को आशीषित करना आरम्भ किया और मसीही क्षेत्र में मुझे अच्छे प्रकार से लोग जान गए, इस कारण घमंड मुझमें आ गया और मेरा रेखाचित्र नीचे की ओर गिरने लगा जिसका मुझे आभास भी न हुआ। बाहरी रूप से मैं एक जाना-माना प्रचारक था। परन्तु मेरी अन्दरूनी जिन्दगी और परमेश्वर का साथ दूषित होने लगा। मैं अन्दरूनी रूप से पीछे की ओर लुढ़कने वाला हो गया। अंततः मैं ऐसे बिन्दु पर आ पहुँचा, जहाँ मैं कहूँगा कि मेरे जीवन का रेखाचित्र पूर्ण रूप से गिर कर धराशायी हो गया। ऐसा 26 वर्ष पूर्व था। उस बिन्दु पर पहुँच कर मैंने सेवकाई का परित्याग करने के लिए गंभीरता से सोच लिया क्योंकि मैंने लोगों को प्रचार के द्वारा धोखा देते रहना न चाहा, जो मेरे जीवन में सच नहीं था। उस बिन्दु पर, अपने पाखण्ड और पीछे फिसलने के लिए मैं परमेश्वर के न्याय के योग्य था। किन्तु मेरा न्याय करने और मुझे नरक में डालने की अपेक्षा, आप जानते हैं कि परमेश्वर ने क्या किया? उसने मुझे पवित्र-आत्मा से भर दिया।

उसने ऐसा क्यों किया? क्योंकि परमेश्वर के मार्ग हमारे मार्ग नहीं हैं। इस अचरज को आपको समझाने के लिए आइए मैं एक दृष्टान्त का प्रयोग करता हूँ।

मान लीजिए कि आप एक बहुत बड़ी मल्टी-नैशनल कम्पनी के कर्मचारी हैं, और आप उनके आदेशों का उल्लंघन करके, उनकी भलाई का लाभ उठाकर तथा उनके नाम को बदनाम करके, आप कम्पनी के प्रति अविश्वासी हो गए। एक दिन आप बहुत ही बड़ी गलती कर बैठते हैं, और वह अन्तिम अवसर था। तब कम्पनी के अध्यक्ष आप के पास आते हैं, और आपको दण्डित करने की बजाय, वह आपसे कहते हैं, "हमने निर्णय लिया है कि तुमको क्षमा कर दिया जाए और तुम्हारी पगार आज ही से तिगुनी कर दी जाए।" क्या आप सोच सकते हैं कि ऐसा हो सकता है? नहीं? जी हाँ, यह दर्शाता है कि परमेश्वर के मार्ग मनुष्य के मार्ग नहीं हैं। क्योंकि जो परमेश्वर ने 25 वर्ष पूर्व मेरे लिए किया, यही उसका वास्तविक चित्रण है।

मेरे साथ परमेश्वर के इस व्यवहार का क्या परिणाम हुआ? क्या उस दिन से मैं परमेश्वर की कृपा का लाभ उठाते हुए और पाप करता रहा? नहीं। इसके विपरीत, जैसा रोमियों 2:4 में कहा गया है, "परमेश्वर की कृपा तुझे मन-फिराव को सिखाती है।" और इसने मुझे विलाप और टूट जाना सिखाया। परमेश्वर की कृपा ने मुझे तोड़ दिया और मुझे उसके लिए पवित्र जीवन जीने की जिज्ञासा दी।

किन्तु यहाँ मैं आपसे सच कहता हूँ। उस दिन से मेरे जीवन का रेखाचित्र (ग्राफ) तेजी से नहीं बढ़ा। नहीं! अब भी मेरे जीवन में दूसरे संघर्ष मसीहियों की भान्ति उतार-चढ़ाव है। अब भी पौलुस की तरह "बाहर लड़ाईयाँ और भीतर भयंकर बातें" हैं। अब भी पौलुस की तरह मुझे अपने भाइयों की सहायता चाहिए "जब मैं बेचैन होऊँ तो मुझे शान्ति मिले" (2 कुरि. 7:5,6)। किन्तु मैं सिद्धता की ओर अग्रसर हूँ।

परमेश्वर ने इससे पूर्व कि अपने मार्ग मुझे दिखाए। बार-बार मुझे असफलता के गड्डे में गिरने दिया। और परमेश्वर को इसमें मेरे नए जन्म के पश्चात वाले 16 वर्ष लगे, तब वह मुझे शून्य बिन्दु पर लेकर आया। उस समय मैं 35 वर्ष का था। मेरा आधा जीवन व्यतीत हो चुका था। आपके लिए प्रभु न करे कि इतना लंबा अंतराल हो, क्योंकि आप मेरे जैसे हठी नहीं हो सकते। मैं तो आपको अपनी गवाही देना चाहता हूँ कि आप प्रोत्साहित हों ताकि आप आशा न छोड़ें। यदि परमेश्वर मेरे लिए ऐसा कर सका है, तो आप सबके लिए भी कर सकता है।

कोई भी आशा रहित नहीं है। क्या आपने सुना? कोई भी आशा से परे नहीं है। आप में से प्रत्येक के लिए आशा है जब तक आप जीवित हैं। आशा तब ही मिटती है जब आप मर जाते हैं।

पतरस को भी इससे पूर्व जो परमेश्वर की उसके प्रति इच्छा थी कि वही हो, उसे शून्य बिन्दु पर आना पड़ा था।

एक बार जब हम स्वयं गिरकर धाराशायी हो चुके हैं तो हम दूसरों का तिरस्कार जो अभी वहाँ हैं, कभी नहीं कर सकते। उसके पश्चात हम पापियों को और पीछे लौटने वाले विश्वासियों को, यहाँ तक कि गिर जाने वाले अगुवों को तुच्छ नहीं जान सकते। हम कभी भी अपने पापों पर विजय प्राप्त करने पर घमण्ड नहीं कर सकते नहीं क्योंकि हम जानते हैं कि असफलता क्या होती है, क्योंकि एक समय स्वयं हम भी उस स्थान पर रह चुके हैं।

इसीलिए पतरस स्वयं दूसरे मसीहियों को यह कहते हुए सचेत करता है, "अपने पिछले पापों के धोये जाने को न भूलो" (2 पतरस 1:9)। वह उनको सचेत करता है कि यदि वे भूल जाते हैं तो वे अन्धे और धुंधले देखने वाले बन जाएंगे। मैं कभी भी अंधा और धुंधला देखने वाला नहीं बनना चाहता। मैं स्वर्गीय और अनंत मूल्यों को सदा-सर्वदा देखने वाली दूर-दृष्टि चाहता हूँ।

धुंधली दृष्टि वाले कौन हैं? वही जो संसार की चीजों के मूल्यों पर दृष्टि रखते हैं। पापमय आनंद, भौतिक धन तथा मानव द्वारा सम्मान तथा स्वीकृति। ऐसे सभी लोग धुंधली दृष्टि वाले होते हैं। हमें ऐसे विश्वासियों पर अफसोस करने की आवश्यकता है। अगर आप ऐसे किसी व्यक्ति को देखें जिसकी दृष्टि इतनी दुर्बल हो कि वह अपने 10 फुट आगे की किसी भी वस्तु को नहीं देख सकता तब आप उस पर क्रोधित नहीं होते, अपितु आप उस पर अफसोस करते हैं। यदि आप एक आदमी को देखते हैं जो एक पुस्तक पढ़ने के लिए उसे अपनी आँखों से दो इंच की दूरी पर रखता है, आप उस पर क्रोधित नहीं होते हैं। आप उस पर अफसोस करते हैं। क्या आप ऐसा नहीं करते? यदि एक आँखों का डॉक्टर एक मोटे लेंस पहने हुए आदमी से पूछता है कि क्या वह "आई चार्ट" पढ़ सकता है और वह आदमी उत्तर देता है कि वह बस सबसे ऊपर के अक्षर को देख सकता है, किन्तु उसे यह विश्वास नहीं कि वह अक्षर फ्अ है या झय् है तब डॉक्टर क्या करता है? क्या वह उस पर क्रोधित होता है? नहीं, उसे उस पर अफसोस होता है।

और जब हम ऐसे विश्वासियों को देखते हैं जिनको धुंधला दिखाई देता है, अर्थात वे धन तथा पापमय आनंद तथा मानवी स्वीकृति में जीते हैं, ऐसे लोगों को डाँटने से कोई लाभ नहीं। हमें अनिवार्यतः उन पर अफसोस अनुभव करना चाहिए क्योंकि उनको बहुत धुंधला दिखाई देता है। एक दिन जब वे प्रभु के सम्मुख खड़े होंगे तो उन्हें बहुत खेद होगा। ऐसे ढेरों विश्वासी हैं। आपको ज्ञात है कि वे कैसे अन्धे हो गए? वे भूल गए फ्तू अपने पिछले पापों से धुलकर शुद्ध होने को भूल बैठा है (2 पतरस 1:9)।य् वे उस गड्डे को भूल बैठे हैं जहाँ से परमेश्वर ने उनको बैठाया था। वे घमंड से भर गए कि परमेश्वर ने उन्हें बाद में बहुत आशीषित कर दिया है।

मैं कदापि उस गड्डे को नहीं भूलना चाहता जहाँ से परमेश्वर ने मुझे उठाया था। मुझे ज्ञात है कि मेरे सारे पाप मिटाए जा चुके हैं और यह भी कि परमेश्वर उनमें से एक पाप को भी जो मैंने किए हैं, कभी याद नहीं करता। मैं परमेश्वर के सम्मुख आज ऐसे खड़ा होता हूँ जैसे मैंने अपने 60 वर्षीय जीवन में एक बार भी कोई पाप न किया हो, क्योंकि मैं "उसके (यीशु के) लहू के कारण धर्मी ठहरा।" (रोमि. 5:9)। इसी प्रकार परमेश्वर हमें देखता है। परन्तु मैं कदापि न भूलूँगा कि एक समय मैं क्या था। परमेश्वर मुझसे कहता है, "मैं उनके (तुम्हारे) पापों को कभी स्मरण न करूंगा।" (इब्रा. 8:12)। किन्तु मैं उस गड्डे जिसमें मैं एक समय था, सर्वदा याद रखूँगा।

अब, मैं अपने अतीत को इस तरह से याद नहीं करता कि शैतान को अवसर दूँ कि मुझ पर दोष लगाए अथवा मेरे पापों के विचारों से मुझे बेचैन करे। नहीं, कदापि नहीं, "अब जो मसीह यीशु में हैं, उन पर दण्ड की आज्ञा नहीं" (रोमियों 8:1)। जब शैतान मुझ पर दोषारोपण करता है, मैं उससे सीधे रूप से कह देता हूँ कि "यीशु के लहू ने मुझे सारे पापों से शुद्ध कर दिया है।" मैं शैतान पर जयवंत होता हूँ "मेमने के लहू के द्वारा" (प्रका. 12:11)। किन्तु मैं उस गड्डे को नहीं भूल सकता जिसमें मैं एक समय पड़ा था उस समय जब परमेश्वर मुझे मिला और पवित्र-आत्मा से भर दिया।

वैसा ही, जैसा एक बार परमेश्वर ने यहूदा से कहा था, मैं भी बिल्कुल ऐसा ही था "तू अपने घृणित होने के कारण खुले मैदान में फेंक दी गई, किसी की दया दृष्टि तुझ पर नहीं पड़ी। जब मैं तेरे पास से हो कर निकला, और तुझे लहू में लौटते हुए देखा… तब मैंने जल से नहला कर तुझ पर से लहू धो दिया, और तेरी देह पर तेल मला..." (हिज. 16:5,6,9,10,14)।

मेरे भाईयों, मेरी बहनों, आपके साथ कैसा है? मैं जानता हूँ कि आप में से बहुत से पवित्र-आत्मा से भर दिए गए हैं। किन्तु मुझे भरोसा नहीं है कि परमेश्वर ने आपको आपके आत्म-विश्वास तथा घमण्ड को तोड़ा है। यदि ऐसा कुछ आपके साथ हुआ है तो उसे ढूँढ लेना बहुत सरल है। बस इन दो प्रश्नों का उत्तर दीजिएः

सर्वप्रथम क्या आप दूसरों को तुच्छ मानते हैं शायद उनको जो दूसरी कलीसियाओं से हैं?

हम दूसरे मसीहियों से, धार्मिक सिद्धांत से हो सकता है सहमत न हों। परन्तु हमें उनमें से किसी को भी तुच्छ नहीं समझना चाहिए। मैं ईमानदारी से कह सकता हूँ कि दूसरी कलीसियाओं के बहुत से मसीही, मैं मानता हूँ कि मुझसे बहुत अच्छे हैं। हमारे सिद्धांत के अन्तर के कारण मैं उनमें से बहुतों के साथ कार्य करने में असमर्थ हूँ। किन्तु मैं उनमें से किसी का भी तिरस्कार नहीं करता।

क्या कभी आपने उस फरीसी की भान्ति कहा है, "हे परमेश्वर, मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ कि मैं दूसरे लोगों के समान नहीं" (लूका 18:11)। यदि ऐसा है, तो आप तोड़े गए मनुष्य नहीं है, चाहे आपको पवित्र-आत्मा का कुछ भी अनुभव रहा हो।

और तब, दूसरा प्रश्नः क्या आपको अपनी आत्मिक उन्नति पर अथवा उपलब्धि पर गर्व है?

एक व्यक्ति जो तोड़ा जा चुका है, वह जानता है कि उसके शरीर में कुछ भलाई नहीं बसती अतः जब वह अपने जीवन अथवा सेवकाई में कभी फलवंत होता है, तो सारी महिमा परमेश्वर को देता है।

अतः ये दो चिन्ह टूटे हुए व्यक्ति के हैंः

1. वह कदापि किसी को तुच्छ नहीं समझता- विश्वासी या अविश्वासी।

2. वह अपनी आत्मिक उन्नति एवं सेवकाई को महिमा नहीं देता।

याकूब ऐसे व्यक्ति का एक महान उदाहरण है जिसे परमेश्वर तोड़ने में सफल हुआ। उसकी परमेश्वर के साथ दो भेंट हुईः एक बेतेल में (उत्प. 28) और दूसरी पनिएल में (उत्प. 32)।

बेतेल का अर्थ है फ्परमेश्वर का भवनय् (कलीसिया जैसा) और पनिएल का अर्थ है "परमेश्वर का मुख।" हम सबको परमेश्वर की कलीसिया में प्रवेश कर, जाकर परमेश्वर का मुख देखने की आवश्यकता है।

बेतेल में कहा जाता है कि सूर्य अस्त होता है (उत्प. 28:11) केवल एक भौगोलिक सत्य परन्तु एक संकेत कि याकूब के जीवन में क्या घट रहा है, क्योंकि आगामी 20 वर्ष उसके लिए घोर अंधकार के थे। फिर पनिएल में, यह कहते हैं, "सूर्य उदय हो गया" (उत्पत्ति 32:31)- पुनः एक भौगोलिक सत्य परन्तु याकूब अंततः परमेश्वर की ज्योति में आ गया।

याकूब के दो परिवर्तनों की भांति, बहुत से विश्वासी जो परमेश्वर के साथ-साथ युगों से चलते आए हैं, उनकी भी परमेश्वर से दो बार भेंट हुई है। प्रथम बार तब, जब उन्होंने परमेश्वर के घर (चर्च) में प्रवेश किया, उस समय जब उन्होंने नया जन्म पाया। और दूसरी बार तब, जब उन्होंने परमेश्वर को आमने-सामने देखा और वे पवित्र-आत्मा से परिपूर्ण हो गए और उनके जीवन रूपान्तरित हो गए।

बेतेल में, याकूब ने एक सपना देखा कि एक सीढ़ी पृथ्वी पर खड़ी है और उसका सिरा स्वर्ग तक पहुँचा है। यूहन्ना 1:51 में प्रभु यीशु ने स्वयं को उस सीढ़ी के रूप में दर्शायाः पृथ्वी से स्वर्ग का मार्ग। अतः जो कुछ याकूब ने देखा, वास्तव में वह यीशु का पृथ्वी से स्वर्ग का मार्ग खोलने का एक भविष्यद्वक्ताई दर्शन था। तब परमेश्वर ने सपने में याकूब से बहुत सी चीजों की प्रतिज्ञा की। परन्तु याकूब ऐसा सांसारिक व्यक्ति था कि वह तो केवल सांसारिक सुरक्षा के विषय, तथा शारीरिक स्वास्थ्य और आर्थिक समृद्धि के विषय में विचार कर सका था। और उसने परमेश्वर से कहा, "यदि परमेश्वर मेरे संग रहकर इस यात्रा में मेरी रक्षा करे, और मुझे खाने के लिए रोटी, और पहनने के लिए वस्त्र दे। और मैं अपने पिता के घर कुशल क्षेम से लौट आऊँ; तो यहोवा मेरा परमेश्वर ठहरेगा और जो कुछ तू मुझे देगा उसका दशमाँश मैं अवश्य ही तुझे दिया करूँगा। याकूब ने परमेश्वर को केवल एक रखवाला ही समझा, जिसे उसकी रक्षा करनी थी। और यदि परमेश्वर ऐसा करे तो वह परमेश्वर को उसका वेतन अपनी कमाई का दशमाँश देगा!!

ऐसा ही आज भी बहुत से विश्वासी परमेश्वर से व्यवहार करते हैं। वे परमेश्वर से केवल भौतिक आराम की इच्छा रखते हैं। और यदि परमेश्वर उन्हें ये वस्तुएं प्रदान करता है, तो वे कलीसियाई सभाओं में भाग लेते हैं और अपना कुछ धन परमेश्वर के कार्यों के लिए देते हैं। ऐसे विश्वासी वास्तव में परमेश्वर के साथ अपने स्वयं के सुख-चैन तथा लाभ के लिए बिल्कुल एक सांसारिक व्यापारी की तरह व्यापार कर रहे हैं।

याकूब ने सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए अपने जीवन के 20 वर्ष व्यतीत कर दिए। उसने लाबान के परिवार से एक पत्नी को प्राप्त करने का प्रयत्न किया और दो प्राप्त की! उसने दो पत्नियाँ नहीं मांगी, परन्तु उसे दो मिलीं। फिर उसने लाबान को छला और उसकी भेड़े प्राप्त कर ली, और इस प्रकार वह बहुत धनी आदमी बन गया। वह लाबान के घर खाली हाथ गया था और वहाँ एक बहुत धनवान व्यक्ति बन के लौटा। इसमें सन्देह नहीं कि उसने आजकल के विश्वासियों की भान्ति समृद्धि को परमेश्वर की आशीष का नाम दिया!!

किन्तु फ्परमेश्वर की आशीषय् का वास्तविक चिन्ह क्या है? क्या यह समृद्धि है? नहीं, यह यीशु मसीह की समानता में रूपान्तरित हो जाना है।

यदि आपका जीवन अब तक परमेश्वर और मनुष्य के प्रति बेकार है तो एक अच्छी नौकरी, एक अच्छे घर, तथा बहुत आराम होने का क्या लाभ?

परन्तु परमेश्वर ने याकूब के साथ व्यवहार समाप्त नहीं किया। वह उसने दूसरी बार पनिएल में मिला।

मेरे भाइयों और बहनों, मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि आप में से बहुतेरों को परमेश्वर के साथ दूसरी मुलाकात की आवश्यकता हैः एक ऐसा साक्षात्कार तब होगा जब आप अपने जीवन में गिर कर धाराशायी हो जाएंगे और जब परमेश्वर आपका न्याय करने तथा आपको नरक में डालने की बजाय आपको पवित्र-आत्मा से परिपूर्ण कर देगा!

हम उत्पत्ति 32 अध्याय में पढ़ते हैं कि याकूब को बहुत डर लगा जब उसने सुना कि एसाव (जिसका पहिलौठे का अधिकार उसने 20 वर्ष पहले धोखे से लिया था) उससे मिलने के लिए आ रहा था। उसे विश्वास था कि एसाव उसे मार डालेगा। हमारे लिए बहुत अच्छा है जब परमेश्वर ऐसी परिस्थितियों से सामना करने देता है जो हमें भयभीत कर देती हैं। क्योंकि जब हम मनुष्य के भय-युक्त कार्यों से डरते हैं, तब ही हम परमेश्वर के निकट आ जाते हैं।

पनिएल में याकूब अकेला था (उत्पत्ति 32:24)। परमेश्वर हमसे भेंट कर सकने से पूर्व हमको अकेला कर देता है। इसीलिए तो शैतान ने जीवन को अति गतिवान एवं व्यस्त कर रखा है (विशेषतः शहरों में) जहाँ अधिकतर विश्वासियों के पास समय नहीं है कि परमेश्वर के साथ अकेले हों अर्थात परमेश्वर से अकेले में मिलें। उनके जीवन अति व्यस्त हो चुके हैं, जो उनके समय सूचित कार्यक्रमों को घेरे हुए हैं, जिनमें परमेश्वर को उचित प्राथमिकता नहीं है! यह आजकल की मसीहत में एक शोकयुक्त घटना है।

रात्रि में कई घंटे परमेश्वर ने याकूब से कुश्ती लड़ी लेकिन याकूब ने हार न मानी। वह कुश्ती एक चिन्ह था कि याकूब के जीवन में पिछले बीस वर्षों से क्या कुछ होता रहा था। और जब परमेश्वर ने देखा कि याकूब जिद्दी (हठी) है, उसने अंततः उसकी जाँघ की नस को छुआ और उसके जाँघ के नस अपने स्थान से हट गए। उस समय याकूब केवल 40 वर्ष का था, और बहुत बलवान व्यक्ति था। उसका दादा अब्राहम 175 वर्ष तक जीया, हम कह सकते हैं कि याकूब अपने यौवन के शिखर पर था, जबकि उसका 75 जीवन आगे शेष था। इतनी युवा अवस्था में जाँघ के नस हटना उसकी अन्तिम इच्छा रही होगी, इस कारण उसने अपने सब भावी कार्यक्रम निरस्त कर दिए होंगे। आज के परिपेक्ष में समझने के लिए, एक 20 वर्षीय युवक के लिए जिसकी नस चढ़ गई हो और उसे सदा-सर्वदा के लिए बैसाखी का सहारा लेना हो! यह एक बहुत ही बुरा अनुभव होगा। याकूब अपने शेष जीवन में बैसाखी के बिना चलने योग्य कदापि न रहेगा।

परमेश्वर ने कई प्रकार से याकूब को तोड़ने का प्रयास किया, परन्तु वह सफल न हो सका, अतः उसने याकूब को सदा के लिए शारीरिक विकलांगता दी, जिसके कारण याकूब अंततः टूट जाने में सफल हुआ।

परमेश्वर ऐसा हमारे साथ भी कर सकता है, यदि वह देखे कि हमें इसकी आवश्यकता है। वह केवल उनको ही अनुशासित करता है, जिनको वह प्रेम करता है कि उनको किसी आने वाली महाविपत्ति से सुरक्षित करे।

यदि किसी प्रकार परमेश्वर आपको सुधारना बंद कर दे, तब यहाँ तक कि जब आप पीछे फिरने वाले हों वह आपको अच्छे स्वास्थ्य में रहने दे, अपार धन कमाने दे तथा आपके जीवन को बेकार होने दे। परन्तु इसको कौन चाहेगा? मैं तो पसंद करूँगा कि परमेश्वर मुझे तीक्ष्णता से प्रयोग करे, और अनुशासित करे और इसी समय तोड़ डाले (यहाँ तक कि यदि आवश्यकता हो तो शारीरिक रूप से भी) ताकि मैं उसके साथ-साथ चल सकूँ और पृथ्वी पर उसके उद्देश्यों को पूरा कर सकूँ।

यहाँ तक कि महान प्रेरित पौलुस को भी अपने शरीर में एक काँटे कि आवश्यकता थी जो उसे तोड़े रखे (2 कुरि. 12:7)। पौलुस के शरीर का काँटा कोई शारीरिक विकलांगता हो सकती है, जिसने उसे निरन्तर परेशान रखा। उसने परमेश्वर से बार-बार प्रार्थना की कि यह "शैतान का संदेशवाहक" उससे दूर किया जाए। परन्तु परमेश्वर ने कहा, नहीं, चाहे यह शैतान का संदेशवाहक ही क्यों न हो, मैं इसे दूर नहीं करूँगा। तुझको नम्र रहने देने के लिए इसकी आवश्यकता है ताकि तू मेरे लिए और अपने लोगों के लिए उपयोगी हो।"

याकूब की जाँघ की नस के पश्चात, उसने उससे कहा, "ठीक है, मैंने तो अपना काम कर दिया। अब मुझे जाने दे। तुझे कदापि मेरी आवश्यकता नहीं थी। तुझे तो केवल स्त्रियों तथा धन की आवश्यकता थी।" किन्तु याकूब ने परमेश्वर को जाने न दिया। वह बदल चुका था अंततः! यह मनुष्य जो स्त्रियों और धन-दौलत प्राप्त करने में अपना जीवन व्यतीत करता था, अब परमेश्वर को पकड़े रहा, और कहता है, "जब तक तू मुझे आशीर्वाद न दे, तब तक मैं तुझे जाने न दूँगा।" जब उसकी जाँघ की भेड़े अपनी जगह से हट गई तब याकूब के हृदय में कितना महान कार्य पूरा हुआ, ताकि अब वह केवल परमेश्वर की इच्छा का कार्य करे।

पुरानी कही गई कहावत है, "जब आपके जीवन में परमेश्वर के अतिरिक्त कुछ न बचा हो, तब आप जानेंगे कि परमेश्वर ही सब कुछ है!" यह बिल्कुल सत्य है।

अब परमेश्वर उससे पूछता है, "तेरा नाम क्या है?" और याकूब उत्तर देता है, "मेरा नाम याकूब है।" याकूब का अर्थ है धोखेबाज। अंत में याकूब ने स्वीकार किया कि वह एक धोखेबाज है।

क्या शायद आप भी धोखेबाज हैं? क्या आप लोगों को मूर्ख बनाते रहे हैं कि आप एक आत्मिक जन हैं? यदि ऐसा है, तो क्या आज परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी होंगे और उसे बताएंगे कि आप एक पाखण्डी व्यक्ति है?

बहुत वर्षों पूर्व, जब उसके अन्धे पिता इसहाक ने उससे उसका नाम पूछा, याकूब ने बहाना बनाया कि वह एसाव था। परन्तु अब वह ईमानदार था। और प्रभु ने तुरन्त उससे कहा, "तेरा नाम अब धोखेबाज (याकूब) न होगा।" (पद 28)।

क्या यह उत्साहपूर्ण वचन नहीं?

हालेलुय्याह!

ऐसा नहीं है कि आप पुनः पापों में गिरेंगे नहीं। किन्तु फिर आपके जीवन में कोई धोखा न होगा, फिर आपके जीवन में कोई छल कपट न होगा। और तब परमेश्वर ने याकूब से कहा, "तेरा नाम अब याकूब नहीं, परन्तु इस्राएल (परमेश्वर का राजकुमार) होगा, क्योंकि तू परमेश्वर से और मनुष्यों से भी युद्ध करके प्रबल हुआ।" यह कैसा रूपांतर है एक धोखेबाज से परमेश्वर का राजकुमार। और यह सब जब पूरा हुआ, केवल जब याकूब तोड़ा गया।

यही हमारी भी बुलाहट है एक राजकुमार की भांति परमेश्वर के साथ उसके सिंहासन पर बैठना। शैतान पर आत्मिक अधिकार रखना, तथा स्त्रियों एवं पुरुषों को शैतान के बंधनों से मुक्त करना। मसीह के शरीर के एक सदस्य की तरह हमें परमेश्वर और मनुष्य के साथ प्रबल होना है। हमें सब मानवों के लिए एक आशीष होने के लिए बुलाया गया है। परन्तु यह तब ही हो सकता है, जब हम तोड़े जाएं। और हम तब ही तोड़े जा सकते हैं जब हम अपने पाखण्ड और कपट से निकल कर ईमानदार बनें।

कई शताब्दियों पश्चात जब याकूब का एक वशंज, नतनएल, यीशु से मिला, तब प्रभु ने उसके लिए कहा, "देखो यह सचमुच इस्राएली है, इसमें कपट नहीं (याकूब नहीं)" (यूह- 1:47)!! तब यीशु ने नतनएल को उस सीढ़ी के विषय में स्मरण कराया जो याकूब ने बेथेल में देखी थी, और उससे कहा कि वह भी एक "इस्राएल था- इसलिए नहीं की नतनएल सिद्ध था बल्कि उसमें कोई धोखा अथवा छल-कपट नहीं था।

यहाँ यह कहा गया है कि याकूब ने उस स्थान का नाम "पनिएल" रखा क्योंकि उसने अंततः परमेश्वर का मुख देखा था। बेतेल में वह परमेश्वर के भवन में लाया गया था। आप भी कई वर्षों से परमेश्वर के भवन में रहे हों, और अभी तक आपने परमेश्वर का मुख न देखा हो। तब आपको परमेश्वर के साथ दूसरे साक्षात्कार की आवश्यकता पड़ती है जहाँ आप उसके मुख को देखते हैं।

याकूब बड़े उत्साहपूर्वक कहता है, "परमेश्वर को आमने-सामने देखने पर भी मेरा प्राण बच गया है।"

"मुझे कम्पनी से निकाल दिया गया होता, परंतु जिसमें मेरा वेतन तिगुना कर दिया गया है!!"

"मैं नरक में झोंक दिया गया होता किन्तु उसने इसकी बजाय मुझे पवित्र-आत्मा से भर दिया है!! हालेलुय्याह!!"

"मैं सोचता हूँ" अब मैं कारण जान गया हूँ कि क्यों बहुतेरे विश्वासी पवित्र-आत्मा से नहीं परिपूर्ण होते। वे इसको कमाना चाहते हैं। वे परमेश्वर के योग्य होना चाहते हैं। इसी प्रकार बहुत बड़ी संख्या में बहुत से धर्मों के आज्ञाकारी लोग भी अपने पापों की क्षमा ढूँढ रहे हैं। वे क्यों क्षमा नहीं प्राप्त करते? क्योंकि वे इसे कमाने का प्रयत्न कर रहे हैं।

आपने पापों से क्षमा कैसे प्राप्त की? क्या आपने इसको कमाया है या आप इसके योग्य थे? एक दिन आपके जीवन में आपने अनुभव किया कि आप परमेश्वर की क्षमा प्राप्ति के योग्य नहीं है। तब आप यीशु के पास आए, एक मसीही के रूप में नहीं बल्कि एक पापी के रूप में। और तुरंत आपके पाप क्षमा कर दिए गए। हमें बिल्कुल इसी प्रकार पवित्र-आत्मा की परिपूर्णता की प्राप्ति हेतु आना चाहिए।

आज बहुत से विश्वासी हैं जो उपवास रख रहे हैं, प्रार्थना कर रहे हैं, और पवित्र-आत्मा की परिपूर्णता की प्राप्ति के लिए ठहरे हुए हैं। ये सब कुछ करने में कुछ समस्या नहीं है। ये सब कुछ उचित है। परन्तु यदि आप इन चीजों को स्वयं को पवित्र-आत्मा की परिपूर्णता की प्राप्ति के योग्य बनाने के लिए करते हैं, तब आप गलत मार्ग पर हैं।

जब आप पवित्र-आत्मा की परिपूर्णता नहीं प्राप्त करते, तो आप परमेश्वर से यह कहते हुए प्रश्न कर सकते हैं, "प्रभु मैंने तो उपवास किए, प्रार्थनाएं कीं और प्रतीक्षा भी की। आपने क्यों मुझे परिपूर्ण नहीं किया?" परन्तु आप कदापि पवित्र-आत्मा को कमा नहीं सकते और न ही इसके योग्य हो सकते हैं, यहाँ तक कि आप पापों की क्षमा भी कमा नहीं सकते और न ही स्वयं को इस योग्य कर सकते हैं। ये दोनों ही परमेश्वर का अनुपम दान हैं। आप इनमें से किसी को दाम देकर खरीद नहीं सकते। इन्हें तो आपको मुफ्त में लेना है- अथवा आप कभी भी इन्हें प्राप्त नहीं कर पाएंगे।

परमेश्वर के समस्त वरदान मुफ्त है। परन्तु मनुष्य परमेश्वर को दाम चुका कर इनको प्राप्त करने की गलती करता है, और इसीलिए वह इनमें से किसी को प्राप्त नहीं करता। यदि आप परमेश्वर के वरदानों को प्राप्त करने के लिए योग्य बनने का प्रयत्न करते हैं, तो आप उन्हें कदापि प्राप्त नहीं कर सकते। शायद यह मुख्य कारण हो सकता है कि क्यों आप अभी तक पवित्र-आत्मा से परिपूर्ण न हो सके। जब यीशु पृथ्वी पर थे, तब फरीसियों ने सोचा था कि वे दूसरों से बढ़कर पापों से क्षमा प्राप्त करने के योग्य है। परन्तु उनको क्षमा प्राप्त न हुई, और वे नरक में गए। दूसरी ओर कुख्यात पापिन जैसे मरियम मगदलीनी ने तुरन्त पापों से क्षमा प्राप्त की। एक डाकू जिसका जीवन अपराधों से भरा हुआ था, एक ही पल में क्षमा कर दिया गया और क्रूसीकरण की रात ही को स्वर्ग में जा पहुँचा।

परमेश्वर अपने अति उत्तम वरदान उन्हीं को प्रदान करते हैं, जो स्वयं को योग्य नहीं समझते। जो दाख की बारी में ग्यारहवें घंटे काम करने आये थे, उन्होंने समझा कि वे योग्य नहीं है, अतः उन्होंने पहले वेतन पाया। किन्तु वे जो बहुत पहले आए थे, उन्होंने अनुभव किया था कि वे वेतन पाने के योग्य हैं, उनको अंत में मिला।

उड़ाऊ पुत्र की कहानी में, हम पढ़ते हैं कि पिता के हाथ में एक अंगूठी थी। एक दिन पिता ने उसे हाथ में से उतारा और अपने छोटे बेटे को दी, जिसने अपने हिस्से का सारा धन नष्ट कर दिया था। उसने अपने बड़े बेटे को क्यों नहीं दी? क्योंकि वह स्व-धार्मिक था। मनुष्य की दृष्टि में, बड़े बेटे को वह अंगूठी मिलनी चाहिए थी। परन्तु पिता ने अपने छोटे बेटे को उसे दे दिया।

यह तरीका परमेश्वर का है, वह ऐसा करता है कि मनुष्य का घमंड नम्रता में परिवर्तित हो जाए, ताकि कोई भी उसकी उपस्थिति में बढ़ाई न मार सके। उसके मार्ग हमारे मार्ग नहीं, न ही उसके विचार हमारे विचार हैं।

यदि आप इस सच्चाई को समझ चुके हैं, जो मैं समझाने का प्रयत्न कर रहा हूँ, तब आप उस मूल सिद्धान्त को भी समझ चुके होंगे कि परमेश्वर मानव से कैसे व्यवहार करता है। यह परमेश्वर की कृपा है कि पहले उसने मुझे पश्चात्ताप की ओर अगुवाई की, और प्रत्येक आगामी कृपा जो सदा परमेश्वर ने दिखाई, उसने मुझे महान पश्चात्ताप का मार्ग दिखाया।

आपको भी परमेश्वर की दया पश्चात्ताप का मार्ग दिखाए। परमेश्वर की भलाई का गलत लाभ न उठाइए। बहुत तरह से परमेश्वर हम पर दया करता है। लेकिन हमें यही नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि प्रभु कृपालु है वह हमारे जीवन से खुश है। वह सब मनुष्यों पर कृपा करता है। उसकी कृपा हमें पश्चाताप का मार्ग दिखाने के लिए है। और यदि हम निष्कपट होकर उसकी ओर फिरते हैं तब वह भी अपनी अंगूठी उतार कर हमारे हाथ में पहनाएगा। उसने वह अंगूठी विशेषकर हम जैसे पापियों के लिए रखी हुई है।

एक बार यीशु ने आक्षेप के साथ फरीसियों से कहा था, फ्तुम सब स्वस्थ हो, तुमको वैद्य की आवश्यकता नहीं है। वैद्य भले चंगों के लिए नहीं परन्तु बिमारों के लिए आवश्यक है, और मैं उनके लिए आया हूँ।" (मत्ती 9:12) यीशु ने प्रेम में आक्षेप का प्रयोग किया था कि वे जाग जाएं। परन्तु वे नहीं जागे।

यीशु उनके लिए नहीं आया जो स्वयं को धर्मी समझते हैं, किन्तु जो स्वीकार करते हैं कि वे पापी हैं। यह बिल्कुल सम्भव है कि आप में से बहुतेरे जो आज प्रातः यहाँ बैठे हैं ऐसे बीमार हो सकते हैं जैसे कि वे फरीसी के समान थे, पाखण्ड से, घमण्ड से तथा आत्म-धार्मिकता से पीड़ित। ये रोग एड्स तथा कैंसर से भी अधिक गम्भीर हैं और ये आपको अन्य पापों की तुलना में अधिक नष्ट कर सकते हैं, दूसरे पाप जैसे हत्या तथा व्यभिचार तो केवल ज्वर एवं जुकाम जैसे हैं। आप सोच सकते हैं कि हत्यारे तथा व्यभिचारी बिमार हैं। किन्तु आप उन दोनों की अपेक्षा में अधिक बिमार होंगे!!

परमेश्वर हमको अपना जीवन, अपनी सामर्थ तथा अपना अधिकार देना चाहता है। तभी तो वह हमें बार-बार गिरने देता है जब तक हम अंततः टूट न जाएं।

अय्यूब की कहानी में हम देखते हैं कि कैसे परमेश्वर ने उसे उसकी जायदाद, उसकी संतान, और उसके स्वास्थ्य को नष्ट करके उसे नीचे गिराकर धराशायी किया। एक प्रकार से उसने अपनी पत्नी को (जो निरंतर उसपे दोषारोपण करती रहती थी), और अपने तीन अच्छे मित्रों (जो उसे उचित रूप से नहीं समझे थे और उससे वाद-विवाद करते रहते थे), को खो दिया था। उसके मित्र उसके सामने आत्म-धर्मी प्रचारक स्वरूप आए जो उस समय "जब वह दुखी होता तो उसे ठुकराकर आनंदित होते।" वे उसे ठुकराते और नकारते रहे जब तक परमेश्वर ने अपनी दया और करुणा के द्वारा इन दुःखों का अंत न कर दिया। इन सारे दबावों के मध्य, अय्यूब ने स्वयं को बार-बार खरा ठहराया। जब परमेश्वर ने अंत में उससे बात की, अय्यूब ने स्वयं में आत्म-धार्मिकता का खोट देखा और उसने पश्चाताप किया। वह एक धर्मी जन था। वह अच्छा था। लेकिन उसे अपने धार्मिकता पर गर्व था। यह अच्छा नहीं था। किन्तु जब परमेश्वर ने उससे व्यवहार किया तो वह एक टूटा हुआ व्यक्ति था, तभी से वह केवल परमेश्वर को महिमा देने लगा। इस प्रकार अय्यूब के द्वारा परमेश्वर का उद्देश्य परिपूर्ण हुआ।

जब अय्यूब तोड़ा गया, देखिए, उसने परमेश्वर से क्या कहा, "मैंने कानों से तेरा समाचार सुना था, परन्तु अब मेरी आँखें तुझे देखती हैं (अय्यूब 42:5)।" यह अय्यूब का पनिएल था! उसने भी परमेश्वर का आमने-सामने (चेहरा) देखा था और उसका जीवन सुरक्षित हो गया। और परिणाम क्या हुआ? उसने धूल और मिट्टी में पश्चाताप किया (पद 6)। वे चार प्रचारक जो अपने वाद-विवाद के पश्चात भी पूरा न कर पाए वह परमेश्वर ने अय्यूब में पूरा कर दिया, और वह भी अपनी कृपा से एक ही पल में। यह परमेश्वर ही की कृपा थी कि उसने अय्यूब को तोड़ा और उसे पश्चाताप की ओर प्रेरित किया।

हम में से बहुत से सभाओं में प्रचारकों से परमेश्वर के विषय में सुनते हैं। हमें जो चाहिए वह है परमेश्वर से आमना-सामना होना, जहाँ हम अपने प्रति उसकी कृपा देखते हैं और इससे टूटते हैं। यही है जो पतरस के साथ भी हुआ। क्या आपको याद है कि आगामी घटना क्या थी जो प्रभु का इन्कार करने के पश्चात् पतरस के साथ घटी और मुर्गे ने बाँग दी? उसने परमेश्वर को आमने-सामने देखा। पतरस को भी अपना पनिएल मिल गया! हम पढ़ते हैं कि, "तब प्रभु ने घूम कर पतरस की ओर देखा" (लूका 22:61)। और परिणाम क्या हुआः "और वह बाहर निकल कर फूट-फूट कर रोया" (पद 62)।

यीशु की उस दयालु और क्षमा युक्त दृष्टि ने एक रुक्ष मछुवारे का हृदय तोड़ दिया।

पुराने नियम के अंतर्गत परमेश्वर ने इस्राएल से स्वास्थ्य, धन तथा बहुत सी भौतिक आशीषों की प्रतिज्ञा की थी। परन्तु एक आशीष थी जो इन सबसे महानतम थी जिसकी व्याख्या गिनती 6:22-26 में दी गई है। वहाँ हम पढ़ते हैं कि हारून को आज्ञा दी गई कि लोगों को आशीष दे, इस प्रकारः "यहोवा तुझ पर अपने मुख का प्रकाश चमकाए। यहोवा अपना मुख तेरी ओर करे और तुझे शान्ति दे"।

क्या यह लज्जा की बात नहीं कि बहुतेरे विश्वासी आज भी स्वास्थ्य और धन की निकृष्ठ आशीषें खोजते है (जो अविश्वासियों को भी बिना प्रार्थना के प्राप्त हैं) तथा भावुकता के अनुभवों (जिनमें बहुत से बनावटी हैं) की आशीषें खोजते हैं बजाय सबसे महानतम आशीषों को खोजे, जो उनके जीवनों को पूर्ण रूप से रूपान्तरित कर सकती हैः परमेश्वर से आमने-सामने हो जाना।

यहाँ तक कि यदि हम कभी भी धनवान नहीं हुए, न कभी चंगे हुए, यदि हम परमेश्वर को आमने-सामने देखते हैं, इससे भी हमारी सारी आवश्यकताएं पूरी हो जाएंगी।

अय्यूब जब परमेश्वर से मिला तो उसके पूरे शरीर पर फोड़े थे, परन्तु उसने परमेश्वर से चंगाई के लिए नहीं कहा। उसने कहा, "मैंने परमेश्वर का मुख देख लिया, यही मेरे लिए पर्याप्त है।"

वे तीनों प्रचारक बड़े ढोंगी एवं "दूर दृष्टि वाले" थे और परमेश्वर के एक वचन ने अय्यूब को बताया कि वह उसके जीवन के कुछ गुप्त पापों के लिए दन्डित किया जा रहा था। उस समय की तरह आज भी स्वयं नियुक्त भविष्यद्वक्ता हैं जो अपने प्रवचनों को "ऐसा परमेश्वर ने कहा" बताते हैं, जो परमेश्वर के लोगों को दंड में घसीट लाते हैं। परन्तु परमेश्वर ने अय्यूब से उसकी असफलता के विषय में कुछ नहीं कहा न ही उसे स्मरण कराया कि उसने शिकायत (परमेश्वर के विरुद्ध) की थी, जब वह दबाव में था। परमेश्वर ने बस अपनी कृपा अय्यूब पर प्रगट की थी, उसकी कृपा दिखाई देती है सारे भूमंडल में जो उसने मनुष्य के मनोरंजन हेतु रचा है और पशुओं को उसने रचा कि वे मनुष्य के अधीनता में रहें। यह परमेश्वर की कृपा का प्रगटीकरण है जिसने अय्यूब को पश्चाताप की ओर प्रेरित किया। बहुतेरे परमेश्वर की कृपा का गलत लाभ उठाते। किन्तु अय्यूब के प्रति इस कृपा ने उसे पश्चाताप का मार्ग दिखाया, और तब परमेश्वर ने अय्यूब को पहले जो उसके पास था, उससे दुगुने की आशीष दी।

हमको तोड़ने में परमेश्वर का अन्तिम उद्देश्य हमको भरपूर आशीषें देना है। जैसा हम याकूब 5:11 में पढ़ते हैं। अय्यूब के लिए जो परमेश्वर के मन में लक्ष्य था वह उसकी आत्म-धार्मिकता और उसके अहंकार को समाप्त करना और उसको एक टूटा हुआ मनुष्य बनाना था ताकि परमेश्वर उसे अपना मुख दिखा सके और उसे भरपूर आशीषें प्रदान कर सके। यहाँ तक कि भौतिक एवं शारीरिक आशीषें जो परमेश्वर हमें प्रदान करता है, हमको परमेश्वर से दूर करके बर्बाद कर सकती हैं, यदि हम इन सबके पीछे परमेश्वर का मुख न देखें। आज कितने ही विश्वासी ऐसे हैं जो भौतिक समृद्धि के द्वारा परमेश्वर से दूर चले गए हैं। परमेश्वर के चेहरे का एक दर्शन हमको सारी जिज्ञासा से जो संसार हमको दे सकता है छुटकारा दे सकता हैः

"अपना मुख मुझे दिखा, दिव्य सौन्दर्य की चंचल प्रकाश किरण, और कभी न तो सोचूँगा, न स्वप्न देखूँगा अन्य किसी प्रेम के जो अनुरक्षण है।

सब निर्बल प्रकाश अंधकार में शांत हो जाएंगे, सारी धीमी महिमा घट जाएगी।

पृथ्वी का सौन्दर्य फिर कदापि न दिख पाएगा।"

पतरस ने प्रभु का चेहरा देखा और फूट-फूट कर रोया। हम अब सोच सकते हैं कि पतरस अंततः टूट गया होगा। किन्तु नहीं। अपने पनिएल के लिए तैयार होने से पूर्व, प्रभु को उसे एक और निष्फलता के अनुभव से साक्षात करना था।

यूहन्ना 21:3 में हम पढ़ते हैं कि पतरस अपने साथी प्रेरितों से कह रहा था, "मैं तो मछली पकड़ने जा रहा हूँ।" उसका यह मतलब नहीं था कि बस इसी संध्या मछली पकड़ने जा रहा था। उसका कहने का अर्थ था कि वह प्रेरितावस्था छोड़ रहा है क्योंकि वह निष्फल रहा था, और अब वह पुनः मछली पकड़ने के कार्य में स्थायी रूप से लौट रहा था।

कुछ वर्ष पूर्व ही पतरस ने मछली पकड़ने का व्यवसाय छोड़ा था, उस समय जब प्रभु ने उसे बुलाया था। वह प्रत्येक चीज छोड़कर ईमानदारी से प्रभु के पीछे हो लिया था, जितने अच्छे प्रकार से वह जानता था। परन्तु वह निष्फल रहा।

उसने अब अनुभव किया था कि प्रेरित बनना उसके लिए न था। अति अद्भुत प्रवचन जो पहले कभी प्रचारित न हुए थे सुनने के साढ़े तीन वर्ष पश्चात और वह भी ऐसे महानतम और सदा जीवते प्रचारक के द्वारा उसने तुरंत प्रभु का इन्कार कर दिया था और वह भी एक बार नहीं, परंतु तीन बार। प्रेरित होने के प्रयत्न में वह निष्फल रहा।

परन्तु एक चीज थी जो वह अच्छे प्रकार से कर सकता था, मछली पकड़ना। उसने लड़कपन ही से उसे किया भी था और वह उसमें माहिर भी था। अतः उसने एक बार फिर मछुवारा बनने की ठान ली थी। कुछ अन्य प्रेरितों ने भी ऐसा ही अनुभव किया था। आवश्यकता की घड़ी में उन्होंने प्रभु को छोड़ दिया और भाग गए। अतः वे भी लौट कर पुनः मछली पकड़ने चले गए थे, क्योंकि वे "प्रेरित" होने में निष्फल रहे थे!

वे आज्ञाकारी मनुष्य थे। उन्होंने यीशु के प्रवचनों की प्रशंसा की थी, और जब वे प्रवचन सुनते तो उनके हृदय उत्तेजित हो जाया करते थे। उन्होंने चाहा था कि वे पूरे हृदय से उसके चेले बने रहें, परन्तु वे निष्फल हो गये थे। आपका अनुभव भी उनके जैसा हो सकता है। आपने भी सामर्थी प्रवचन सुने होंगे और आप भी प्रोत्साहित हुए होंगे। आपने भी हो सकता है कि सब कुछ त्याग कर ईमानदारी से चाहा होगा कि प्रभु के पीछे हो लें। शायद आपने भी सामर्थी प्रवचनों को सुनकर कई बार फ्निर्णयय् किए होंगे। शायद निरंतर निष्फलताओं के पश्चात, ऐसे समय आपने स्वयं से कहा हो, "इस बार मैं सच में कुछ कर दिखाऊँगा" परन्तु आप पुनः निष्फल हो गए।

शायद आप अपने पीछे सब कुछ देख सकते हैंः ढेरों निष्फलताओं के बाद फिर निष्फलता, हजारों बार ऐसा हो चुका होगा। हो सकता है आप में से कुछ आज इतने निराश हो गए हों, कि सोच रहे हों कुछ लाभ नहीं। मैं छोड़ देता हूँ। यह सुसमाचार अन्य लोगों के लिए प्रभावी हो सकता है। परन्तु यह मेरे काम का दिखाई नहीं देता। मैं बहुत ही दूर निकल गया हूँ। इसको मैं कभी नहीं कर सकता।

क्या आज आप भी ऐसा ही सोच रहे हैं? क्या आपने निर्णय कर लिया है कि आप पुनः कदापि प्रयत्न नहीं करेंगे, क्योंकि इससे कोई लाभ नहीं? क्या आपने वापिस संसार में भाग्य की खोज में तथा निराधार आनंद की खोज में लौटने का निर्णय कर लिया है। क्या आप अनुभव करते हैं कि यह अच्छा रहेगा कि आप पूर्णतः सांसारिक मनुष्य बन जाएं जो एक मसीही होने का कोई बहाना नहीं करता इसकी अपेक्षा में कि यीशु मसीह का शिष्य कहलाए?

बिल्कुल ऐसा ही उन प्रेरितों ने अनुभव किया था जब उन्होंने वापिस मछली पकड़ने के पेशे में लौटने का निर्णय लिया था। और प्रभु ने उन्हें यह कहते हुए जाने की अनुमति दे दी, "ठीक है, जाओ और प्रयत्न करो अगर तुम सफल हो सकते हो।" अतः पतरस और उसे मित्रों ने रात-भर मछली पकड़ने का प्रयत्न किया और दुर्भाग्य से निष्फल हो गए। पूरे जीवन में उन्होंने ऐसी बुरी बात कभी न देखी थी।

एक बार यदि आपको परमेश्वर ने अपना होने के लिए बुला लिया, तो वह आपको जाने न देगा। वह निश्चय कर लेगा कि आप निष्फल हों चाहे मछली पकड़ने में या कुछ भी आप करने का प्रयत्न करें। आप जितना चाहें यत्न कर लें, किन्तु आप निष्फल होंगे। परमेश्वर का प्रेम आपको अनुमति नहीं देगा कि आप तुच्छता में अपना जीवन बर्बाद कर लें। अतः यदि आप उससे भागने का प्रयत्न करेंगे, आप हरेक चीज में जहाँ कहीं भी आप जाएं निष्फल ही रहेंगे जब तक आप लौट कर परमेश्वर के पास नहीं आ जाते।

किन्तु यह उन पर लागू नहीं होता जिनको परमेश्वर ने नहीं बुलाया है। बहुतेरे कुटिल व्यापारी और राजनैतिक अगुए हैं, जिन्होंने बहुत सा काला धन कमाया है, जो आज भी परमेश्वर के बिना अच्छे स्वास्थ्य में जीते हैं। परमेश्वर ऐसी अनुमति क्यों देता है? क्योंकि वे उसकी संतान नहीं है। परन्तु मैं अब उनके विषय में बात नहीं कर रहा। मैं उनके विषय में बात कर रहा हूँ, जिनको परमेश्वर ने संसार की सृष्टि से पूर्व ही बिल्कुल अपना बनाने के लिए बुलाया है।

वास्तव में गलील की झील में बहुत मछलियाँ थीं, मुझे भरोसा है कि उस रात अन्य मछुआरों ने उनमें से ढेरों मछलियाँ पकड़ी होंगी। वे मछलियाँ दूसरे मछुआरों की नाँवों के निकट जा पहुँची। परन्तु परमेश्वर ने उन्हें पतरस की नाव से दूर ही रखा, यहाँ तक कि एक मछली भी उसके आसपास न आए। वे मछुआरे पतरस की नाव के पास आए होंगे और बताया होगा कि उन्होंने ढेरों मछलियाँ पकड़ीं। और इस सबने पतरस और उसके मित्रें को अवश्य ही विस्मित किया होगा कि वे क्यों कुछ भी न पकड़ सके!

क्या आपको कभी आश्चर्य हुआ है कि आप शेयर बाजार में कभी भी अन्य लाभान्वित लोगों की तुलना में धन अर्जित करने योग्य नहीं रहे। क्या आप विस्मित हैं कि क्यों आपका व्यापार अन्य लोगों की तुलना में करोड़ों न बटोर सका।

आपके चारों ओर के लोग धनवान होते दिखते हैं, परन्तु आपके मार्ग में समृद्धि आती दिखाई नहीं देती। ऐसा इसलिए कि परमेश्वर की बुलाहट आपके जीवन पर है, और वह चाहता है कि उन सांसारिक लोगों के पास जो कुछ है उसकी अपेक्षा में कुछ आपको और अच्छा प्रदान करें।

पतरस अपने जीवन पर परमेश्वर की बुलाहट से मुड़ कर दूर जा रहा था, परन्तु परमेश्वर को उसे निष्फल करके एक बार पुनः तोड़ना था। उन प्रेरितों ने मछली पकड़ना सांय लगभग 6 बजे आरम्भ किया था। परन्तु यीशु अगली सुबह लगभग 5 बजे तक उनके पास गया। यीशु तो जानता ही था कि पतरस को उस रात एक भी मछली नहीं मिलने वाली। तब वह क्यों पहले नहीं आया। वह क्यों उनके पास उसी रात 9 बजे तक नहीं आया? क्यों उसने अगली सुबह लगभग 5 बजे तक प्रतीक्षा की? क्यों उसने उनके 11 घंटे तक कठिन परिश्रम करके थक कर चूक-चूर होकर निष्फल हो जाने की प्रतीक्षा की?

इस प्रश्न के उत्तर को पाने के लिए हम अपने निष्फल होने में परमेश्वर का प्रयोजन खोजेंगे। यहाँ हम मनुष्य की निष्फलता में परमेश्वर का उद्देश्य देखेंगे। यहाँ हम समझेंगे कि जब हम निरंतर सहायता की दुहाई दे रहे थे और कठिन परिश्रम कर रहे थे, ऐसा होते हुए भी वह पहले हमारी सहायता करने को कभी भी क्यों नहीं आया? क्यों? क्यों हमारी सभी प्रार्थनाएं बिना उत्तर रही।

जब उस शाम को 6 बजे पतरस और उसके मित्र मछली पकड़ने को निकले थे, वे निष्फल न थे। वे आशा से भरे हुए थे। 9 बजे तक वे कोई मछली न पकड़ सके, और शायद थोड़े निरुत्साहित थे। परन्तु वह अब तक "निष्फल" नहीं थे। आधी रात तक वे बहुत हताश हो गए होंगे। अगली सुबह 4 बजे तक उन्होंने सारी आशा छोड़ देना आरम्भ कर दिया था। किन्तु उन्हें पूर्ण रूप से निष्फल होना शेष था। ऐसा हो जाने के लिए उन्हें अधिक असफल होना था। उनके आत्म-विश्वास का ग्राफ (तालिका) नीचे की ओर गिर रहा था। परन्तु उसे धाराशायी होने के लिए तो हर प्रकार से शून्य पर जाना था। और ऐसा सुबह 5 बजे हुआ। तब वे छोड़ देने को अवश्य ही तैयार थे। तब अवश्य उन्होंने कहा होगा, "और प्रयत्न करने में कोई लाभ नहीं। आओ घर चलें।"

और तभी प्रभु प्रगट हुए। यही परमेश्वर का मार्ग है। और परमेश्वर ने उनके मछली पकड़ने के जाल ऊपर तक भर दिए। उन्होंने जीवन भर में किसी भी दिन इतनी मछलियाँ नहीं पकड़ी थीं। उस सवेरे उन्होंने 153 बड़ी मछलियाँ पकड़ीं। अपने अतीत में उन्होंने 20 अथवा 30 मछलियाँ अपने अच्छे दिनों में शायद पकड़ी हों। परन्तु यह वास्तव में एक चमत्कार था। उस झील में कभी किसी ने एक दिन में इतनी मछलियाँ नहीं पकड़ी थीं। यह शिकार गलील की अभिलेख पुस्तकों में एक कीर्तिमान होगा! उन्होंने सर्वदा याद रखा कि परमेश्वर ने उनके लिए एक चमत्कार किया था, और वह भी जब वे सारी आशा छोड़ चुके थे। क्या आज आपकी परिस्थिति समझ से परे है कि आप नहीं जानते कि किस ओर मुड़ना है, और आगे क्या करना है, क्योंकि हर स्थान जहाँ पर आप भटक चुके हैं वहाँ आपने केवल निराशा और निष्फलता ही पाई। तब आप शायद उस स्थान के अति निकट हों जहाँ प्रभु प्रगट होने वाले हैं। निराश न हो, प्रभु केवल आपके आत्म-विश्वास को शून्य बिन्दु पर आ जाने की प्रतीक्षा कर रहा है। यदि प्रभु अब तक आपके पास नहीं आया है, इसका केवल कारण यह है कि आपके आत्म-विश्वास का ग्राफ अभी तक शून्य बिन्दु पर नहीं आया है। वह अभी तक आप में आप के अहं का अंश शेष देखता है, जिसे दूर करना है। प्रभु के आने से पूर्व लाजर को मरना तथा दफन होना पड़ा था।

उस सुबह जब यीशु अंततः झील के किनारे आया, उसने उनसे क्या पूछा? वह जानता था कि उनके पास कोई मछली नहीं है। फिर भी उसने उनसे पूछा, "जवानों, क्या तुम्हारे पास कोई मछली है?" शायद इस बार उनमें से किसी ने उत्तर न दिया हो। हो सकता है कि यीशु ने दूसरी बार पूछा हो। तब उन्होंने उत्तर दिया, "नहीं।" उन्होंने स्वीकार कर लिया कि वे असफल हैं। वे ईमानदार थे उनसे पूर्व के याकूब और अय्यूब की तरह। वही तो था जो प्रभु उनसे स्वीकार करवाना चाहता था कि वे असफल थे।

मेरे जीवन के महान आनंदो में से एक, यह शानदार सत्य जानना थाः कि विशेष तथा मुख्य चीज जो हमसे प्रभु हमारे जीवन के हर मोड़ पर चाहता है वह है ईमानदारी। तब वह हमारे लिए एक आश्चर्यकर्म कर सकता है।

"क्या तुम्हारे पास कोई मछली है" "नहीं।" "दाहिनी ओर अपना जाल डालो।" और वहाँ एक आश्चर्यकर्म होता है।

"तेरा नाम क्या है?" "धोखेबाज़।" "तेरा नाम अब से धोखेबाज नहीं, बल्कि परमेश्वर का राजकुमार होगा।" और वहाँ एक और आश्चर्यकर्म होता है।

मेरे भाइयों और बहनों परमेश्वर इसी तरीके से काम करता है। सब कुछ जो परमेश्वर हमसे चाहता है वह है ईमानदारी। क्या आप आज ईमानदार नहीं हो सकते।

हमारी कलीसिया एक अस्पताल की तरह है। यहाँ हम सब मरीज हैं। हम विशेषज्ञ अथवा दक्ष नहीं हैं। हम में से कुछ इस अस्पताल में दूसरों से अधिक लम्बे समय से हैं। परन्तु हम सब मरीज हैं। डॉक्टर तो एक ही है और वह है स्वयं प्रभु यीशु। हमारे मध्य कोई सलाहकार नहीं है। विशेषज्ञ और सलाहकार तो आत्म-धर्मी लोगों के पंथों में पाए जाते हैं, जीवते परमेश्वर की कलीसिया में नहीं। हमारे अस्पताल में सबका स्वागत है। जितना अधिक गंभीर आपका रोग है, उतना ही अधिक आपको चंगाई पाने के लिए हमारे मध्य होने की आवश्यकता है। हमारा संदेश तो बस यही है कि "प्रभु यीशु संसार में पापियों को बचाने के लिए आए- जिनमें हम महानतम (पापी) हैं।"

परमेश्वर उनसे मिलता है जो किसी के योग्य नहीं है। चुंगी लेने वाले ने यह कहते हुए प्रार्थना की, "हे परमेश्वर मुझ पापी पर दया कर" (लूका 18:13)। उसने स्वयं को "पापी" कहा। उसका अर्थ था कि उसने अनुभव किया कि उसके चारों ओर सभी उसकी तुलना में संत हैं! अपनी दृष्टि में, केवल वह संसार में पापी था! यीशु ने कहा कि वही धर्मी ठहराया गया और अपने घर गया। ऐसे ही लोगों को प्रभु धर्मी ठहराता है।

मैं आपके साथ इस शब्द "धर्मी ठहराए जाने" के अर्थ के विषय में बाँटना चाहता हूँ। यह एक सुन्दर तथा छुटकारा देने वाला शब्द है। (लूका 18:14)।

एक पुस्तक के पृष्ठों को देखें। क्या आप देखते हैं कि कितना दाहिनी ओर का हाशिया बाएं ओर के हाशिये की भांति सीधा है? कम्प्यूटर की भाषा में इसे "जस्टिफिकेशन" अर्थात ठहराया जाना कहते हैं। हालांकि प्रत्येक पंक्ति में अक्षरों की संख्या भिन्न है, तौभी कम्प्यूटर दाहिनी ओर के हाशिये की पूरी तरह सीधा बना देता है। अब यदि आपको बिना "जस्टिफाई" किए अपने कम्प्यूटर पर कुछ लिखना पड़े, तो आप देखेंगे कि सीधे हाथ वाला हाशिया टेढ़ा-मेढ़ा है। ऐसा ही जब हम पुराने समय में टाइप-राईटर प्रयोग करते थे तब यह असम्भव था कि प्रत्येक पंक्ति एक लम्बाई की हो, चाहे एक ही पन्ना टाईप क्यों न करना पड़े। परन्तु अब हम "जस्टिफिकेशन" का आश्चर्यकर्म देखते हैं और ऐसा अंत में आने वाले शब्दों को जोड़ कर भी नहीं होता था। यदि आप किसी भी पुस्तक को देखें तो पाएंगे कि वह जोड़कर मिलाने वाली बात (हाइफेनिंग) नहीं है क्योंकि ऐसा करने से पुस्तक कुरुप लगेगी। कम्प्यूटर स्थानों को ठीक बिठाकर शब्दों को "जस्टीफ़ाइड" कर देता है।

यहाँ तक कि यदि आपने किसी पृष्ठ की 30 पंक्तियाँ टेढ़े-मेढ़े हासियों में लिख दी हों। आप कम्प्यूटर को आज्ञा दे सकते हैं कि पहले से लिखी पंक्तियों को "जस्टिफाई" कर दे, और देख लीजिए कि एक ही (की) बटन को दबाने से सारी पंक्तियाँ तुरन्त "जस्टीफ़ाइड" हो गईं।

परमेश्वर भी बिल्कुल ऐसा ही हमारे साथ करता है जब वह हमें "जस्टिफाई" (धर्मी ठहराता) करता है, हो सकता है हमने अपने जीवन को गन्दा बना डाला है, और आपके पिछले जीवन का हर एक दिन टेढ़े-मेढ़े हाशियों पर समाप्त हुआ हो। किन्तु यदि आप दिृस्त के पास आ जाते हैं, तो वह आपको एक पल में ही "जस्टिफाई" (धर्मी ठहरा देता है) कर देता है। आपके अतीत की प्रत्येक पंक्ति सिद्ध एवं निपुण कर दी जाती है। जैसे की आपने कभी अपने अतीत में, यहाँ तक कि एक बार भी पाप न किया हो, कोई टेढ़ा-मेढ़ा पन शेष नहीं रहता, पूर्ण रूप से सिद्ध एवं सीधे हाशिये।

हैं न कितना अद्भुत? जो कम्प्यूटर हमारे पृष्ठों के साथ करता है, वही परमेश्वर हमारे जीवन में करता है। यहाँ हम 20वीं शताब्दि का एक दृष्टान्त शब्द "जस्टीफ़ाइड" (ठहराया जाना) में देखते हैं। आइए मैं कुछ और बताऊँ। यदि एक बार हमने कम्प्यूटर को "जस्टिफाई" का कमाण्ड दे दिया तो प्रत्येक पंक्ति जो हम तत्पश्चात लिखते हैं, वह अपने आप ही "जस्टिफाई" होती रहती है, और दूसरी पंक्तियों के साथ ताल-मेल के साथ सिद्ध होती जाती है। जस्टिफिकेशन (सिद्ध ठहराया जाना) हमारे भविष्य पर बिल्कुल अतीत की भांति लागू होता है। निःसन्देह यह एक अद्भुत समाचार है।

परमेश्वर अब हमको यीशु मसीह में देखता है। अब हमारे पास डिंगे मारने के लिए हमारी स्वयं की धार्मिकता नहीं है। यीशु मसीह स्वयं हमारी धार्मिकता है।

जब परमेश्वर हमें धर्मी ठहरा देता है, तब हम ऐसे हो जाएंगे कि जैसे हमने अतीत में एक भी पाप न किया हो और हमने अपने सम्पूर्ण जीवन में कोई गलतियाँ नहीं की हों। और हम निरंतर यीशु मसीह के लहू से धर्मी ठहराए जाते रहते हैं- क्योंकि हम ज्योति में चलते हैं, तो यीशु मसीह का लहू निरंतर हमें जाने और अनजाने दोनों पापों से हमारे पापों से शुद्ध करता रहता है।

गलतियों में सबसे महान गलती जो हम कर सकते हैं, वह है कि जब हम परमेश्वर का वचन पढ़ रहे हैं तो हम मनुष्य के तौर पर सोचते हैं, बिल्कुल वैसा ही जैसा हम अंक गणित के किसी प्रश्न को हल करते समय करते हैं। क्योंकि परमेश्वर अंक गणित के तर्कानुसार कार्य नहीं करता! अतः हम तर्को का प्रयोग उस समय नहीं कर सकते जब हम अपने भूतकाल में बहुत सी गलतियों के करने के पश्चात् गणना करने का प्रयत्न करते हैं कि क्या हम अपने जीवन के लिए अब भी परमेश्वर की सिद्ध योजना को पूरा कर सकते हैं। अंक गणित के तर्कानुसार ऐसा असम्भव है- क्योंकि अंक गणित के एक प्रश्न में यदि कहीं एक कदम गलत है तो उसका उत्तर भी सदा गलत रहेगा।

यदि आपको वह तर्क प्रयोग करना है, तो कहना पड़ेगा कि यदि आपने अतीत में कभी परमेश्वर की योजना को खो दिया है (चाहे जब आप दो वर्ष के अथवा 52 वर्ष के रहे हों कोई अंतर नहीं), आप अब कदापि परमेश्वर की सिद्ध इच्छा को पूरा नहीं कर सकते चाहे आप कितना ही कठिन श्रम क्यों न करें और चाहे आप कितना ही पश्चाताप क्यों न कर लेंµ क्योंकि इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि किस स्तर पर आने अंक गणित के प्रश्न को हल करने में गलती की है (चाहे स्तर दो पर अथवा स्तर बावन पर), आपका आखिरी उत्तर अब भी गलत होगा।

परन्तु परमेश्वर कहता है, फ्मेरे मार्ग तुम्हारे मार्ग नहीं हैं।य् (यशा. 55:8)।

परमेश्वर का धन्यवाद कि हमारे जीवन के लिए उसकी योजना गणित के तर्कानुसार कार्य नहीं करती। यदि ऐसा होता, तो एक भी मानव (यहाँ तक की प्रेरित पौलुस भी) परमेश्वर की सिद्ध योजना को पूर्ण करने के योग्य नहीं रहता।

क्योंकि हम में से हर एक कभी न कभी निष्फल रहे हैं। हम यहाँ तक कि विश्वासी होने पर भी निष्फल रहे हैं- बहुत बार। हमने जानबूझ कर भी विश्वासी हो कर पाप किए हैं। सभी जो ईमानदार हैं इसको तुरंत मान लेंगे। परन्तु अद्भुत सत्य यह है कि हम में से प्रत्येक के लिए अब भी आशा है। गणित में छोटी सी गलती के लिए कोई स्थान नहीं है। 2 $ 2 कदापि 3- 99999999 के बराबर नहीं होता। इसे तो बिल्कुल 4 होना है न अधिक और न कम।

परन्तु परमेश्वर की योजना गणित की भान्ति कार्य नहीं करती। परमेश्वर की योजना में निष्फल होना अनिवार्य है। कोई उपाय नहीं जिसके द्वारा हम में से कोई तोड़ा जा सकता होः निष्फलता के अतिरिक्त। अतः हम कह सकते हैं कि निष्फलता हमारी आत्मिक शिक्षा के पाठ्यक्रम का एक अनिवार्य भाग है।

यीशु ही केवल एक मात्र ऐसा था जो बिना किसी निष्फलता के रहा। परन्तु शेष हम सब (चाहे कोई हम सब में बढ़िया) को निष्फलता के माध्यम से परमेश्वर के द्वारा तोड़ा जाना था। यहाँ तक कि पतरस और पौलुस को भी निरंतर निष्फलताओं के द्वारा तोड़ा गया था। अतः सुसमाचार के संदेश में आनंदित रहिए। और परमेश्वर की कृपा आपको पश्चाताप के लिए मार्गदर्शन करें। यह वचन आपको आनन्दित जीवन और परमेश्वर में पूर्ण विश्राम, एक ऐसा विश्राम जो यह जानने से आता है कि परमेश्वर ने "आपको अपने सर्वदा प्रिय पुत्र में स्वीकार कर लिया है" (इफिसियों 1:6)।

हर एक दिन हम बहुत गलतियाँ करते हैं। हम फिसल कर पाप में गिर जाते हैं- चाहे अक्समात अथवा अनजाने में। ऐसे समयों पर हम पर अधिक तनाव होता है कि हम उदास तथा निरुत्साहित हो जाते हैं- तब हम परीक्षा में पड़ कर और अधिक पापग्रस्त हो जाते हैं। परमेश्वर हमारे तनाव को समझता है और वह तरस खाने वाला है। वह हमारी योग्यता से परे हमें परीक्षा में नहीं डालेगा, परंतु हमारे बच निकलने का मार्ग बना देगा। वह हमारे जीवन में सब कुछ सीधा कर देगा।

मसीही जीवन मानवीय तर्कानुसार नहीं चलता। यह चमत्कार करने वाले सामर्थ्य से चलता है जो स्वर्गीय पिता का दिव्य ज्ञान और शुद्ध तथा सिद्ध प्रेम है।

कोई भी कभी अपने जीवन को निपुण पंक्तियों में टंकणित (टाइप) नहीं कर सकता अथवा निपुण हाशिये नहीं बना सकता। यह तो परमेश्वर ही है जो हम में से प्रत्येक को "जस्टिफाई" (धर्मी ठहराता) करता है- यहाँ तक कि हम में से सबसे बढ़िया व्यक्ति भी। परमेश्वर के आगे अपनी बढ़ाई नहीं मार सकता।

तब आईए हम भी अन्य लोगों के प्रति दयालु बन जाएं, उन लोगों के प्रति जो यत्न करने पर भी अपने जीवन के युद्ध में असफल हो गए हैं, क्योंकि हम सभी असफल हुए हैं, और हम सभी ने परमेश्वर से अधिक दया प्राप्त की हैं।

यीशु के नाम में, मैं आपसे अंत में कुछ कहना चाहूँगाः

आप जहाँ पर भी हैं, इसी समय, आप आरम्भ कर सकते हैं, और अब भी अपने जीवन के लिए परमेश्वर की सिद्ध योजना को पूरा कर सकते हैं।

यदि कल आप निष्फल हो जाते हैं, तो पश्चाताप के साथ तुरंत परमेश्वर के पास जाइए, वह पुनः आपको धर्मी ठहराएगा (जस्टिफाई करेगा)। कदापि न कहें कि यह सुसमाचार आप पर कार्य नहीं करेगा। यदि आप ऐसा कहते हैं कि आप परीक्षा में पड़े तो यह इसका कारण है कि आपने लम्बे अन्तराल तक झूठे गुरुओं, अपनी-अपनी व्यवस्था से बंधे प्रचारकों तथा शैतान को सुना है, उनको सुनना बंद कर दीजिए, उनकी पुस्तकों को पढ़ना बंद कर दीजिए और अब से परमेश्वर को सुनना, उसके वचन को पढ़ना आरम्भ कर दीजिए। जैसे परमेश्वर का वचन कहे, अंगीकार कीजिए।

परीक्षा की घड़ी में तुम्हारा विश्वास न जाता रहे।

आइए जैसा हमारा प्रभु करता है वैसे ही हम भी एक दूसरे के लिए प्रार्थना करें।

आमीन।

अध्याय 2
जो निष्फल हो गए हैं उनके लिए परमेश्वर की सिद्ध योजना

बहुत से भाई-बहन है जो सोचते हैं कि, क्योंकि उन्होंने अपने जीवन के बीते समय में परमेश्वर के विरुद्ध पाप किया है और निष्फल हो गए हैं, अतः अब वे परमेश्वर की सिद्ध योजना को पूरा नहीं कर सकते।

आईए इस विषय में परमेश्वर का वचन क्या कहता है, देखें। अपनी स्वयं की समझ से और अपने तर्क चेतना से लिपटे न रहें।

सबसे पहले देखें कि बाइबल कैसे आरम्भ होती है।

"आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की" (उत्पत्ति 1:1)। आकाश और पृथ्वी जब परमेश्वर ने उनकी रचना की, उस समय निपुण एवं सिद्ध रहे होंगे, क्योंकि कुछ भी अपूर्ण तथा अधूरा उसके हाथों से कदापि नहीं बन सकता।

परन्तु कुछ स्वर्गदूत जिनकी सृष्टि उसने की थी, गिर गए और यह हमारे लिए व्याख्या सहित पाया जाता है यशायाह 14:11-15 तथा यहेजकेल 28:13-18 में। तत्पश्चात् पृथ्वी उस स्थिति में थी जैसा उत्पत्ति 1:2 में लिखा है, "बेडौल और सुनसान और अधंकार युक्त।"

उत्पत्ति अध्याय-1 का शेष भाग दिखाता है कि किस प्रकार परमेश्वर ने बेडौल, सुनसान और अंधकार-युक्त पृथ्वी पर कार्य किया और इसमें कुछ इतना सुन्दर बनाया कि स्वयं परमेश्वर ने घोषित कर दिया "बहुत अच्छा" (उत्पत्ति 1:31)। यह अंतर तब आया जब हम उत्पत्ति 1:2,3 में पढ़ते हैं कि परमेश्वर का आत्मा पृथ्वी पर मंडराता था, और परमेश्वर ने (वचन) बोला।

इसमें आज हमारे लिए क्या संदेश है?

कोई बात नहीं कि हम कितने असफल हो चुके हैं और अपने जीवन को कितना खराब कर चुके हैं, परमेश्वर अपने आत्मा तथा वचन के द्वारा हमारे खराब जीवनों को शानदार और महिमामय बना सकता है।

परमेश्वर के पास स्वर्गों और पृथ्वी के प्रति एक सिद्ध योजना थी जब उनको बनाया। परन्तु इस योजना को लूसीफर की असफलता के कारण छोड़ देना पड़ा था। परन्तु परमेश्वर ने पुनः स्वर्ग और पृथ्वी को बनाया और फिर भी इस उपद्रव के होते हुए, उसने कुछ "बहुत अच्छा" बना डाला। अब देखिए आगे क्या हुआ।

परमेश्वर ने आदम और हव्वा को बनाया और सब कुद पुनः निर्मित किया। परमेश्वर के पास अवश्य उनके लिए भी सिद्ध योजना रही होगी जिसमें उनका पाप करना सम्मिलित न होगा, जो बुरे-भले के ज्ञान के वृक्ष के फल के खाने से हुआ। किन्तु उन्होंने निषेध फल खाया और परमेश्वर की असली योजना को हताश कर दिया- वह योजना जो कुछ भी रही होगी।

तर्क तो बताते हैं कि वे परमेश्वर की सिद्ध योजना को आगे पूरा न कर सके। इस पर भी हम देखते हैं कि जब परमेश्वर उनसे भेंट करने को वाटिका में आया, तो वह उन्हें नहीं बताता कि अपने शेष जीवन में उनको उसकी "दूसरी उत्तम योजना" के अन्तर्गत जीना होगा। नहीं, वह उनसे प्रतिज्ञा करता है (उत्पत्ति 3:15) कि नारी के वंश से सर्प के सिर को कुचला जाएगा। यही प्रतिज्ञा मसीह की कलवरी की मृत्यु से शैतान पर विजय होने की थी।

अब आप इस वास्तविकता को सोचिए और देखिए कि क्या आप कोई तर्क दे सकते हैं?

हम जानते हैं कि मसीह की मृत्यु परमेश्वर की सिद्ध योजना का भाग था, "(मेम्ना) जो जगत की उत्पत्ति के समय से घात हुआ है" (प्रका. 13:8)। इस प्रकार हम जानते हैं कि मसीह इस कारण मरा क्योंकि आदम और हव्वा ने पाप किया और परमेश्वर को निराश किया। तर्कानुसार हम कह सकते हैं कि परमेश्वर की सिद्ध योजना मसीह की, जगत के पापों के लिए मरने भेजने से पूर्ण हो गई थी, न कि बावजूद आदम की निष्फलता के परंतु उसकी असफलता के ही कारण! हम कलवरी की क्रूस पर परमेश्वर के प्रेम को नहीं जान पाते, क्या यह आदम के पाप के कारण नहीं था।

इससे हमारे तर्क गड़बड़ा जाते हैं, और इसी कारण परमेश्वर का वचन कहता है कि "तू अपनी समझ का सहारा न लेना" (नीतिवचन 3:5)।

यदि परमेश्वर ने गणितीय तर्कानुसार कार्य किया होता तब हमको कहना पड़ता कि पृथ्वी पर मसीह का आगमन परमेश्वर की "दूसरी उत्तम योजना" थी, परन्तु ऐसा कहना परमेश्वर की निंदा करना होता। यह मानव के लिए परमेश्वर की सिद्ध योजना का एक भाग था। परमेश्वर कोई गलती नहीं करता। परन्तु क्योंकि परमेश्वर सर्व शक्तिमान एवं अनंत है, और क्योंकि वह आरम्भ ही से अंत जानता है और क्योंकि वह सर्वदा से प्रेम में हमारे लिए चुपचाप योजना बना रहा है तो मानवीय तर्क-वितर्क निष्फल हो जाते हैं, जब हम उसके हमारे प्रति व्यवहार की व्याख्या करने का प्रयत्न करते हैं।

"परमेश्वर के विचार और हमारे विचार एक समान नहीं हैं, और न उसके मार्ग और हमारे मार्ग एक समान हैं क्योंकि उसके और हमारे मार्ग में आकाश और पृथ्वी का अंतर है" (यशायाह 55:8-9)। अतः हमारे लिए यही अच्छा है कि अपने चालाक तर्कों को और युक्तियों को उस समय दूर रखें जब हम परमेश्वर के मार्गों को समझने का प्रयत्न कर रहे हों।

तब क्या संदेश है जो परमेश्वर बाईबल के प्रारम्भिक पाठों से ही हमें प्रदान करना चाहता है? बस यही, कि वह ऐसे मनुष्य को ग्रहण कर लेता है जो असफल हो चुका है और उसके जीवन में कुछ शानदार और महिमामय बना देता है कि उसके जीवन से परमेश्वर की सिद्ध योजना पूरी हो सके। यही मनुष्य के लिए परमेश्वर का संदेश है- हमें कदापि इसे न भूलना चाहिएः परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को ग्रहण कर सकता है जो बार-बार निष्फल हुआ है, और अब भी वह उसे अपनी सिद्ध योजना पूर्ण करने के योग्य बना सकता है- परमेश्वर की "दूसरी उत्तम" नहीं, परन्तु परमेश्वर की "सबसे उत्तम योजना।"

हालाँकि मनुष्य को कुछ पाठ सिखाने हेतु, असफलताएँ परमेश्वर की सिद्ध योजना का एक भाग है, जो हमें ऐसे पाठ पढ़ाता है जो हम कभी भूल नहीं सकते। हमें मानवीय तर्कों से इसे समझना असम्भव है, क्योंकि हम परमेश्वर को बहुत ही कम जानते हैं।

वे तो केवल टूटे हुए स्त्री-पुरुष हैं, जिनको परमेश्वर उपयोग कर सकता है और एक तरीके से वह हमको तोड़ता है, वह है निरन्तर असफलताओं के द्वारा।

एक बहुत बड़ी कठिनाई जो परमेश्वर को हमसे है, यह है कि वह हमको इस रीति से आशीषित करे कि हम घमंड से फूल न जाएं। क्रोध पर विजय प्राप्त करना, और फिर इस पर घमंड करना तो और अधिक गहरे गड्डे में गिर जाना है उसे गड्डे की अपेक्षा में जिसमें हम पहले थे। परमेश्वर हमें विजय में नम्र बनाए रखना चाहता है।

पापों पर उचित विजय में तो गहरी नम्रता और दीनता होती है। यह निरन्तर असफलताएं हमारे आत्म-विश्वास को नष्ट करती हैं, ताकि हमें प्रतीति हो कि पापों पर विजय परमेश्वर के अनुग्रह के बिना सम्भव नहीं है। तब, जब हम जयवंत हों, तब हम कदापि घमंड नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त, जब कि हम स्वयं ही निरन्तर निष्फल होते रहे हैं, तो हम एक-दूसरे को जो निष्फल हुए हैं कदापि तुच्छ नहीं जान सकते। हम उनसे जो असफल हुए हैं, सहानुभूति रख सकते हैं, क्योंकि हम अपनी शारीरिक दुर्बलता को अपने बार-बार गिर जाने से जान चुके हैं। हम "अज्ञानों और भूले-भटकों के साथ नर्मी से व्यवहार कर सकते हैं, इसीलिए कि हम भी स्वयं दुर्बलता से घिरे हुए हैं" (इब्रा. 5:3)।

ऐसे संदेश को सुनकर अपने तर्कों पर आधारित एक व्यक्ति तब कह सकता है, "हम क्यों न बुराई करें कि भलाई निकले।"

रोमियों 3:7-8 इन शब्दों से ऐसे व्यक्ति को उत्तर देता हैः "तुम कहते हो, मेरे झूठ के कारण परमेश्वर की सच्चाई उसकी महिमा के लिए, अधिक करके प्रगट हुई।" यदि तुम इस विचार को अपनाओ तो कह सकते होः हम जितने भी बुरे हों, परमेश्वर उतना ही हमें पसंद करता है। "परन्तु ऐसों का दोषी ठहराना ठीक है।"

नहीं हम यह प्रचार नहीं करते कि हमें पाप करना चाहिए ताकि भलाई निकले। न ही हम कहते हैं कि हम परमेश्वर के अनुग्रह का फायदा उठाएं और परमेश्वर की जानबूझ कर और निर्भय होकर आज्ञा तोड़ते या आज्ञा से अन्जान बने रहें, और अब तक अपने बोये को काटने की अवहेलना करते रहें। बिल्कुल नहीं।

किन्तु हम कहते हैं कि हमारे मानवीय तर्क यह नहीं समझ सकता कि परमेश्वर का अनुग्रह गिरे हुए मनुष्यों को कैसे प्राप्त हुआ।

परमेश्वर के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। यहाँ तक कि हमारे बार-बार बुरी तरह से निष्फल होने के पश्चात भी वह हमको अपनी सिद्ध इच्छा में ला सकता है। केवल हमारा अविश्वास ही उसे रोक सकता है।

यदि आप कहते हैं, "परन्तु मैंने बहुत बार सब कुछ बिगाड़ दिया है। परमेश्वर के लिए असम्भव है अब मुझे उसकी सिद्ध योजना में ले आना," तब तो यह परमेश्वर के लिए असम्भव है, क्योंकि आप विश्वास नहीं कर सकते कि वह आपके लिए क्या कुछ कर सकता है। परन्तु यीशु का कथन है कि परमेश्वर के लिए कुछ भी असम्भव नहीं कि हमारे लिए कर दे। यदि हम विश्वास करें तो।

"तुम्हारे विश्वास के अनुसार तुम्हारे लिए हो" हर बात में यह परमेश्वर का नियम है (मत्ती 9:29)। हमारा जिसके लिए विश्वास है, वही हम प्राप्त करते हैं। यदि हमारा विश्वास है कि कुछ परमेश्वर के लिए असम्भव है कि वह हमारे लिए करे तो वह हमारे जीवन में कभी पूरा न होगा।

दूसरी तरफ आप यीशु के न्याय सिंहासन पर पाएंगे कि एक विश्वासी जिसने आप की तुलना में अपने जीवन को अधिक गंदगी से भर लिया था, इस पर भी उसने अपने जीवन हेतु परमेश्वर की सिद्ध योजना को पूरा कर दिया। बस इसलिए कि उसने विश्वास किया कि परमेश्वर उसके जीवन के टूटे हुए टुकड़ों को लेकर कुछ "बहुत अच्छा" बना देगा।

अपने जीवन में उस दिन आप कितने दुखी होंगे जिस दिन आप जानेंगे कि यह आपकी निष्फलता नहीं थी (यद्यपि बहुत रही होगी) जिसने आपके जीवन में परमेश्वर की योजना को क्रियाशील नहीं होने दिया, परंतु आपका अविश्वास था!

उड़ाऊ पुत्र की कहानी, जिसने अपने बहुत वर्ष बेकार में गंवा दिए, में पता चलता है कि परमेश्वर निष्फलता के बाद भी बहुत कुछ अच्छा प्रदान करता है। इस कहानी में पिता कहता है, "जल्दी से बढ़िया वस्त्र निकाल लाओ," उसके लिए ऐसा कहता है जिसने अपने आपको गिरा कर बुरी तरह से धराशायी कर लिया था। यही सुसमाचार का संदेश है- एक नया शुभारम्भ है, न केवल एक बार, परन्तु बार-बार- क्योंकि परमेश्वर कभी भी किसी पर हार नहीं मानता।

गृह स्वामी का दृष्टांत, जो मजदूरों को लेने गया (मत्ती 20:1-16) भी हमें ऐसा ही सिखाता है। वे लोग जो ग्यारहवें घंटे में लाए गए थे उन्हें पहले वेतन मिला। दूसरे शब्दों में, वे जिन्होंने 90 प्रतिशत (11/12 भाग) अपने जीवन का नष्ट कर दिया था, जिन्होंने अनंत मूल्यों हेतु कुछ नहीं किया, वे परमेश्वर के प्रति अब भी अपने 10 प्रतिशत शेष जीवन में कुछ उत्तम कर सकते हैं। यह निष्फल लोगों के लिए एक उत्साहवर्धक संदेश है।

"परमेश्वर का पुत्र इस कारण प्रगट हुआ कि शैतान के कामों का नाश करे (1 यूहन्ना 3:8)।"

इस पद का वास्तविक अर्थ है कि यीशु हमारे जीवन में "शैतान के समस्त बंधनों को खोलने आया।" इसका चित्रण इस प्रकार कर सकते हैं कि जब हम पैदा हुए तो परमेश्वर ने सुतली की एक गेंद हमको दी, प्रतिदिन हम उसे खोलने लगे और हमने उसमें गाँठ लगाना आरम्भ कर दिया (पाप करना)। आज सुतली खोलते-खोलते वर्षों व्यतीत हो जाने पर भी, हम निराश हैं, क्योंकि हम देखते हैं कि हजारों गाँठे लगी हुई हैं। परन्तु यीशु "शैतान के समस्त बंधनों को खोलने आया।" अतः उनके लिए भी आज आशा है जिनकी सुतली में गाँठे (पाप) भरी पड़ी हैं। परमेश्वर प्रत्येक गाँठ को खोल सकता है, और आपके हाथों में एक बार फिर एक निपुण गेंद दे सकता है। यह सुसमाचार का संदेश हैः आप एक नया शुभारम्भ कर सकते हैं।

यदि आप कहते हैं, "यह असम्भव है।" ठीक है, तब आपके लिए आपके विश्वास के अनुसार ही होगा। आपके मामले में यह सम्भव नहीं होगा। परन्तु मैंने कुछ लोगों को, जिनके जीवन आपसे भी अधिक खराब हैं, ऐसा कहते सुना है, "हाँ, मुझे विश्वास है कि परमेश्वर मेरे लिए ऐसा करेगा।" उसके लिए भी उसके विश्वास के अनुसार हो जाएगा। उसके जीवन में परमेश्वर की सिद्ध योजना पूरी हो जाएगी।

यिर्मयाह 18:1-6 में परमेश्वर एक व्यवहारिक दृष्टान्त के द्वारा यिर्मयाह से कुम्हार के घर जाने को कहता है, और वहाँ उसने देखा कि कुम्हार एक बर्तन बनाने का प्रयत्न कर रहा है। किन्तु बर्तन जो वह बना रहा था, "वह उसके हाथ में बिगड़ गया।" अतः कुम्हार ने क्या किया? "तब उसने उसी का दूसरा बर्तन अपनी समझ के अनुसार बना दिया।"

तब एक निवेदन आता हैः क्या मैं "इस कुम्हार के समान तुम्हारे साथ काम नहीं कर सकता?" यह परमेश्वर का प्रश्न था (पद 6)। (अपना नाम उपरोक्त रिक्त स्थान में भरिए, यह आपके लिए परमेश्वर का प्रश्न होगा)।

यदि आपकी समस्त निष्फलताओं के कारण आपके जीवन में कोई परमेश्वरीय खेद है, तब चाहे आपके पास अर्गवानी रंग के हों अथवा लाल रंग के हों, तो न ही केवल आपके हृदय हिम के समान श्वेत हो जाएंगे- पुराने नियमानुसार (यशायाह 1:18)- परन्तु इससे भी अधिक नये नियमानुसार "और उनके (तुम्हारे) पापों को फिर स्मरण न करूंगा।" (इब्रानियों 8:12)।

आपकी महान गलतियाँ अथवा असफलताएँ चाहे कुछ भी रही हो आप परमेश्वर संग एक नया शुभारम्भ कर सकते हैं। और चाहे अपने भूतकाल में हजार शुभारम्भ किए हो और निष्फल हो गए हों, आप आज ही परमेश्वर के साथ 1001 वाँ शुभारम्भ कर सकते हैं। परमेश्वर अब भी आपके जीवन से कुछ शानदार कर सकता है। जब तक जीवन है, तब तक आशा भी है।

अतः परमेश्वर पर भरोसा रखना न छोड़िए। वह अपने बहुत से बच्चों पर अपने बलवंत कार्य प्रगट नहीं कर सकता, इसलिए नहीं कि उन्होंने बीते समय में उसे हताश किया, किन्तु इसलिए कि वे अब भी उस पर भरोसा नहीं रखते।

आईए तब हम "विश्वास में दृढ़ होकर परमेश्वर की महिमा करें" (रोमियों 4:20), आने वाले दिनों के लिए जिन चीजों को अब तक हमने असम्भव समझा, उस पर भरोसा रखें।

समस्त लोग- जवान और बूढ़े- आशा रख सकते हैं, कोई बात नहीं कि आप अतीत में कितने भी निष्फल क्यों न हुए हों। यदि केवल वे अपनी निष्फलताओं को स्वीकार करें, नम्र बनें, और परमेश्वर पर भरोसा रखें तो आशा ही आशा है।

इस प्रकार हम सब अपनी निष्फलताओं से सीख ले सकते हैं और अपने जीवनों से परमेश्वर की सिद्ध योजना की पूर्ति के लिए आगे बढ़ सकते हैं।

और आने वाले युग में परमेश्वर हमें उदाहरण-स्वरूप दूसरों को दिखा सकता है कि वह उनके प्रति, जिनके जीवन पूर्ण रूप से निष्फल हो चुके हैं, क्या कुछ कर सकता है।

और उस दिन परमेश्वर हम में क्या कुछ कर सका है दिखा सकता है कि- "वह अपनी उस कृपा से जो मसीह यीशु में हम पर है, आने वाले समयों में अपने अनुग्रह का असीम धन दिखाए" (इफिसियों 2:7)।हालेलुयाह

आमीन और आमीन।