मत्ती 28:20 कहता है कि शिष्यों को हमारे प्रभु द्वारा दी गई हर एक आज्ञा का पालन और उसका अभ्यास करना सिखाया जाना चाहिए। यही शिष्यत्व का मार्ग है। यीशु द्वारा दी गई कुछ आज्ञाओं को देखने के लिए केवल मत्ती अध्याय 5, 6 और 7 को पढ़ना है - जिन्हें मानने की अधिकांश विश्वासी पहल भी नहीं करते। एक शिष्य सीखने और अनुसरण करने वाला होता है।
ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो परमेश्वर की सम्पूर्ण इच्छा का प्रचार करने तथा उसकी बुलाहट को जान चुके हैं,, जो स्वयं यीशु द्वारा दी गई सभी आज्ञाओं पर चलने वाले हैं, और जो दूसरों को भी यीशु का आज्ञापालन सिखाने की तीव्र इच्छा रखते हैं - और इस प्रकार मसीह की देह का निर्माण करते हैं।
यीशु ने कहा कि उसके सभी शिष्यों की पहचान एक चिह्न से होगी अर्थात एक-दूसरे के प्रति उनका प्रेम (यूहन्ना 13:35)। इसे ध्यान से देखें! यीशु मसीह के शिष्यों की पहचान उनके उपदेशों या उनके संगीत की गुणवत्ता से नहीं होती, न ही उनके "अन्य भाषाओं में बोलने" से, न ही उनके द्वारा सभाओं में बाइबल ले जाने से, न ही उनके द्वारा सभाओं में किए जाने वाले शोर से!! उनकी पहचान एक-दूसरे के प्रति उनके शुद्ध प्रेम से होती है।
एक सुसमाचार प्रचार सभा, जो लोगों को मसीह के करीब लाती है, उसे आगे चलकर उस क्षेत्र में कलीसिया की स्थापना करनी चाहिए, जहाँ शिष्य एक-दूसरे से प्रेम करते हैं। फिर भी दुःख की बात यह है कि कई जगहों पर जहाँ सुसमाचार प्रचार सभाएँ साल दर साल बार-बार आयोजित की जाती हैं, वहाँ एक भी कलीसिया मिलना मुश्किल है जिसके सदस्यों के बारे में यह कहा जा सके कि वे एक-दूसरे से लड़ते या निंदा आदि नहीं करते बल्कि एक-दूसरे से प्रेम करते हैं।
यह बात तो समझ में आती है कि नए विश्वासी लोग तुरंत ऐसा विजयी जीवन जीने में असमर्थ हैं। लेकिन हम क्या कहेंगे अगर हमारे देश की कलीसियाओं में प्राचीनों और अगुओं के चरित्र में भी अपरिपक्वता और कलह देखने को मिलती है?
यह इस बात का सबसे स्पष्ट प्रमाण है कि महान आज्ञा का दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण भाग (मत्ती 28:19,20 में वर्णित) - शिष्यत्व और यीशु की सभी आज्ञाओं का पालन – इसे पूरी तरह से अनदेखा किया गया है।
सामान्यतः महान आज्ञा के पहले भाग पर (मरकुस 16:15) ही हर जगह जोर दिया जाता है। वहाँ, सुसमाचार प्रचार पर जोर देते हुए तथा परमेश्वर द्वारा किये गए चिन्हों और आश्चर्यकर्मों के द्वारा संदेश की पुष्टि की जाती है।
हालाँकि, मत्ती 28:19,20 में शिष्यत्व पर जोर दिया जाता है - शिष्य का जीवन यीशु की आज्ञाओं के प्रति पूर्ण आज्ञाकारिता द्वारा प्रकट होता है। बहुत से मसीही पहले वाले सिद्धांत को अपनाते हैं, लेकिन बहुत ही कम लोग दूसरे वाले सिद्धांत को स्वीकार करते हैं। फिर भी, दूसरे के बिना पहला उतना ही अधूरा और व्यर्थ है जितना कि मनुष्य का अधूरा शरीर। लेकिन कितने लोगों ने इसे देखा है?
यीशु की सेवकाई में हम पढ़ते हैं कि उसके सुसमाचार प्रचार और चंगाई देने वाली सेवकाई के कारण बड़ी भीड़ उसके पीछे चली। वह हमेशा उन्हें शिष्यत्व के विषय में सिखाता था (देखें लूका 14:25,26)। काश आज के प्रचारक भी ऐसा ही करते - या तो स्वयं, या प्रेरितों, भविष्यद्वक्ताओं, शिक्षकों और चरवाहों के साथ मिलकर जो प्रचारकों द्वारा शुरू किए गए कार्य है उन्हें पूरा कर पाते।
प्रचारक शिष्यत्व का संदेश देने में क्यों हिचकिचाते हैं? क्योंकि इससे उनकी मण्डलियों में संख्या कम हो जाएगी। लेकिन उन्हें यह एहसास नहीं है कि उनकी कलीसियाओं की गुणवत्ता कहीं बेहतर हो जाएगी!!
जब यीशु ने बड़ी संख्या में लोगों को शिष्यत्व का उपदेश दिया, तो जल्द ही यह संख्या घटकर केवल ग्यारह शिष्यों तक रह गई (तुलना करें यूहन्ना 6:2 की 6:70 से)। दूसरों को यह संदेश बहुत कठिन लगा, और उन्होंने उसे छोड़ दिया (देखें यूहन्ना 6:60,66)। परन्तु परमेश्वर ने अपने उन ग्यारह शिष्यों जो उसके साथ रहे, उनके माध्यम से, संसार में अपने उद्देश्यों को अंततः पूरा किया।
आज पृथ्वी पर मसीह की देह के रूप में, हमें उसी सेवकाई को आगे बढ़ाना है जिसे उन ग्यारह प्रेरितों ने पहली सदी में शुरू किया था। लोगों को मसीह के पास लाने के बाद, उन्हें शिष्यत्व और आज्ञाकारिता की ओर ले जाना चाहिए। इस तरह से ही मसीह की देह निर्मित की जा सकेगी।
जीवन का मार्ग संकरा है और इसे पाने वाले कम ही हैं।
जिसके पास सुनने के लिए कान हों, वह सुन ले।