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रोमियों 7:14-25 ऐसे लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण भाग है जो सिद्धता की तरफ बढ़ते रहना चाहते हैं। पौलुस वहाँ एक नया जन्म पाए हुए विश्वासी के रूप में अपने अनुभव की बात कर रहा है, क्योंकि एक व्यक्ति जिसने मन नहीं फिराया है, वह यह नहीं कह सकता, “क्योंकि मैं भीतरी मनुष्यत्व में आनन्दपूर्वक परमेश्वर की व्यवस्था से सहमत रहता हूँ" (रोमियों 7:22)।

पौलुस द्वारा रोमियों को लिखा गया पत्र अध्याय 1 से शुरू करते हुए "उद्धार के लिए परमेश्वर की सामर्थ्य" (रोमियों 1:16) का क्रमानुसार बयान करता है। अध्याय 3,4 व 5 में विश्वास द्वारा धर्मी ठहराए जाने के बाद, रोमियों 6 में पौलुस पाप पर जय पाने के बारे में बात करता है। फिर अध्याय 7 में पौलुस अगले चरण में प्रवेश करता है। इस बिन्दु पर वह लौट कर अपने जीवन के उस काल की बात नहीं करता जब उसने अपना मन नहीं फिराया था। नहीं। वह सुसमाचार का अपना बयान जारी रखता है। अब वह उस व्यक्ति बारे में बात करता है जो सिद्धता की तरफ बढ़ते हुए अपने अन्दर एक भीतरी संघर्ष पाता है। इसके बाद वह सोच-समझ कर सिर्फ परमेश्वर की इच्छा को ही पूरा करने का चुनाव करता है। वह जय पाने का अभिलाषी है और अपनी ज़रूरत के समय उसे अनुग्रह रूपी मदद मिल गई है। फिर भी, वह दो बातें पाता है: (i) कि लापरवाही के एक क्षण में, वह फिर भी एक ऐसे क्षेत्र में गिर जाता है जहाँ वह पहले ही ज्योति पा चुका है - (सचेत पाप); और (ii) कभी-कभी वह मसीही स्तर से नीचे गिर जाता है लेकिन इसका अहसास उसे बाद में होता है (एक ऐसा नया क्षेत्र जिसमें गिरने से पहले उसके पास ज्योति नहीं थी- अचेत पाप )।

वह जिसकी संपूर्ण सिद्धता में कोई दिलचस्पी नहीं है, वह अपने अन्दर ऐसा संघर्ष नहीं पाएगा, क्योंकि वह रोमियों 5 में ही रुक गया है। लेकिन वह जो पाप पर संपूर्ण जय पाने की खोज में है (रोमियों 6:14), वही अपने भीतर यह संघर्ष पाता है और वह अपने आपसे कहता है, “मैं कैसा अभागा मनुष्य हूँ। मुझे इस मृत्यु की देह से कौन बचाएगा" (रोमियों 7:24)।

वे जो ऐसे संघर्ष का अनुभव नहीं करते, अपने भीतरी जीवन के प्रति ईमानदार नहीं होते। और यही बात हमें बड़ी आशा देती है कि जब हम अपनी कमज़ोरी के किसी पल में गिर जाते हैं, तो हालांकि वह ऐसा पाप होता है जिससे हमें मन फिराने की, उसे छोड़ देने की और मसीह से हमें उसके लहू से शुद्ध कर देने के लिए कहने की ज़रूरत होती है, फिर भी वह कोई ऐसी बात नहीं होती जिसे हमने जानबूझ कर चुना होता है। बाद में उस पर हमारा पछताना एक स्पष्ट रूप में यह प्रकट कर देता है। हम क्योंकि पाप के ऐसे कामों से घृणा करना जारी रखते हैं और उन पर शोक करते हैं, इसलिए हम एक दिन उन पर जय भी ज़रूर पा लेंगे।

रोमियों के अध्याय 7 को ध्यानपूर्वक पढ़ें और परमेश्वर से कहें कि वह आपको इस पर ज्योति दे। रोमियों 7:1-13 यह कहता है कि अब हम व्यवस्था मार्गदर्शन से मुक्त हो गए हैं। अब हमारा विवाह मसीह से हो गया है जिससे कि हम व्यवस्था से भी ऊँचे स्तर का जीवन जी सकते हैं, लेकिन जिसमें हमारा मनोभाव परमेश्वर की आज्ञाओं के प्रति विधिवादी नहीं होगा। "हम लेख की पुरानी विधियों के अनुसार नहीं बल्कि पवित्र आत्मा की नई विधि से सेवा करते हैं" (रोमियों 7:6)।

जो लोग अपने संघर्षों के बारे में ईमानदार नहीं हैं, उनके लिए कोई जय नहीं है। यह प्राथमिक रूप में रोमियों 7 को सही तरह समझने की बात नहीं है, बल्कि अपने भीतरी संघर्षों के बारे में पूरी तरह ईमानदार होने की बात है। मैं आपसे आग्रह करना चाहूँगा कि आप ऐसे लोगों से दूर रहें जो अपने भीतरी संघर्षो के बारे में ईमानदार नहीं हैं क्योंकि वे पाखण्डी हैं। आपको परखने वाला होना होगा। साँप की तरह चतुर और कबूतर की तरह भोले बने रहो। यह याद रखें कि जो सबसे ज़रूरी बात परमेश्वर आपसे चाहता है, वह आपका ईमानदार होना है। यह शुद्धता की तरफ बढ़ाया जाने वाला पहला कदम होता है।