द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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राजाओं का वृतांत 1 के दूसरे अध्याय में हम पढ़ते है कि सुलैमान ने उसके सौतेले भाई अदोनिय्याह (पद 19-27), योआब (पद 28-35) तथा शिमी (पद 36-46) को मारकर स्वयँ का राज्य स्थापीत किया। स्वयँ का राज्य स्थापन करने की यह कैसी रीत है! सोचो कि यह वही दाऊद है जो परमेश्वर के मन के अनुसार था जिसने सुलैमान को ऐसा करने को कहा और इसतरह सुलैमान ने नाश के मार्ग पर चलने की शुरुआत की। अशुद्ध कर्म का यह दीर्घकालीन परिणाम है जिसके द्वारा बहुत से लोग भी अशुद्ध हुए। फिर भी सुलैमान इस भ्रम में था कि यह सभी कर्म करने के पश्चात् परमेश्वर उसे आशीषित करेगा (पद 45)। इंसान कितना धोखा खा सकता है!

अध्याय 3 : आप एक बार यदि गलत राह को पकड़ लेते है तो आप अधिक और अधिक परमेश्वर से दूर जाते है। दूसरी बात जो सुलैमान ने की वह यह कि उसने अधर्मी लड़की से विवाह किया - फारो की कन्या से विवाह किया। बदला कैसे लेना यह सिखने के बावजूद दाऊद ने यदि सुलैमान को सही मार्ग से याने ज्ञान से विवाह करने के लिये मार्गदर्शन किया होता तो सुलैमान के जीवन में अन्य अच्छी बातें करने के लिये मार्ग मिलता। आप अपने बच्चों को कौनसा मार्गदर्शन देते है? आपके जीवन में कौनसी बातों को अधिक महत्व है?

हम पढ़ते है कि सुलैमान राजा परमेश्वर से बहुत प्रेम करता था, परन्तु वह ऊंचे स्थानों पर भी बलि चढ़ाया और धूप जलाया करता था (3:3)। कैसी है यह विपरीतता! इस समझौते के कारण अंत में सुलैमान का नाश हुआ। वह दो तरह से जीवन जीया - एक जीवन आराधनालय का था और दूसरा उसका स्वयँ का व्यक्तिगत जीवन। दुःख की बात यह है कि आज बहुतसे मसीही लोगों का जीवन भी ऐसा ही है। परमेश्वर के प्रति प्रेम को वे जोर जोर से चिल्लाकर बताते है, परन्तु, व्यक्तिगत जीवन में अधर्मी बने रहते है और पाप करते है। छोटी बातों में परमेश्वर से दूर होने का परिणाम बड़ी बातों में होता है और फिर उनका नाश होता है।

परमेश्वर का भवन बनाने के लिये सुलैमान को सात वर्ष लगे (6:38) और स्वयं का घर बनाने के लिये उसे 13 वर्ष लगे (7:1)। इससे यह समझ में आता है कि उसने कौनसी बात को अधिक महत्व दिया!! आज जो मसीही लोग सेवकाई कर रहे है उनका भी वर्णन इसी रीति किया जा सकता है। वे मसीही कार्य तो अच्छी तरह से ही करते है। परन्तु उनकी मुख्य इच्छा उनके स्वयं के घर के विषय होती है तथा उनके परिवार के सुखविलासों के विषय होती है। उनके लिये परमेश्वर का कार्य तथा परमेश्वर का भवन प्राथमिक नही होता। सुसमाचार के प्रचार ने उन्हें धनी बनाया है।

सुलैमान धीरे धीरे विश्वास से पीछे गया। उसने उसका राज्य लोगों को मारकर शुरू किया। वह सरलता से उसके पिता को याने दाऊद को स्वयं की असहमती दिखा सकता था तथा शिमी और योआब को मारने का इन्कार कर सकता था। वह अदोनिय्याह को क्षमा कर के जीवीत रख सकता था। एक बार वह नीचे गिरा और फिर वह उस ढलान से जोर से नीचे गिरता गया। फिर उसने फारो की लड़की से विवाह किया - वह भी उसकी संपत्ती के लिये। फिर उसने 13 वर्ष स्वयं का घर बनाने में खर्च किये। इन सब वास्तविकताओं के बावजूद परमेश्वर ने उसे ज्ञान दिया। बहुत बार मैं मसीही कार्यकर्ताओंको देखता हूं कि वे उनके जीवन के शुरू से ही संसार की ओर धीरे धीरे जाते रहते है। सेवकाई का आरंभ करने के दिन से ही वे अपने अधिकार की खोज में लगे रहते है। कुछ वर्षों बाद यदि आप उन्हें देखेंगे तो आप यह पाएंगे कि वे खुद के अधिकार की खोज में निपुण हुए है।

फिर भी परमेश्वर अपने लोगों से प्रेम करता है, उनका राजा विश्वास से पिछे गया हो तौभी। इसलिये जब भवन पूर्ण हुआ तब वह परमेश्वर की महिमा से भर गया (8:10)। जिस दिन मूसा ने निवासमंडप पूर्ण किया वैसा ही यह भी दिन था। निवासमंडप के नाई इस भवन की रचना थी परन्तु यह बड़े पैमाने पर था।

सुलैमान ने समर्पण की बहुत अच्छी प्रार्थना की (8:22-61)। तब परमेश्वर उसके सामने दूसरी बार प्रगट हुआ और परमेश्वर ने उससे कहा कि परमेश्वर ने उसकी प्रार्थना सुन ली है तथा परमेश्वरने उसे सरलता से तथा सच्चे मन से वर्तन करने की बिनती की, जिसकारण परमेश्वर का राज्य स्थापन हो। परमेश्वर ने सुलैमान को चेतावनी दी कि यदि उसने परमेश्वर का अनुसरण नही किया तो जो देश इस्राएली लोगों दिया है, वह काट डालेगा और इस भवन को जो उसने स्वयं के नाम के लिए पवित्र किया है, उसकी दृष्टि से उतार देगा (9:3-9)।

फिर ऐसा ही हुआ। बाबुल के लोग आए और उन्होंने यहूदा पर कब्ज़ा किया और भवन का नाश किया। परमेश्वर ने उन्हें चेतावनी दी, ''आपने अपने मन के अनुसार व्यवहार किया तौभी मैं तुमपर आशीष बरसाऊंगा ऐसा न सोचे।'' नाश की मार्ग पर जाने के पूर्व ही परमेश्वर ने हमें चेतावनी दी है।

दसवे अध्याय में हम पढ़ते है कि परमेश्वर के नाम के विषय सुलैमान की किर्ती सुनकर शीबा की रानी आती है और उससे मिलती है। सुलैमान के ज्ञान की किर्ती पूरे संसार में फैलने के बावजूद सुलैमान दुविधा की मनःस्थिति में था। बहुत से मसीही लोगों की तरह वह भी सार्वजनिक स्थान पर अच्छी प्रार्थना कर सकता था। परन्तु उसके व्यक्तिगत जीवन में वह बहुत से मसीही लोगों के जैसा अधर्मी था। उसकी वासना शमशौन के नाई थी। उसने 700 स्त्रियों से विवाह किया था और वह भी उसे पर्याप्त नहीं लगी तो उसने 300 रखेलियाँ रखा था। उसमें से बहुतसी धर्मी नहीं थी (11:1-3)। वह उनमें से एक को तीन वर्ष में एक बार मिलता होगा। अन्त में उसकी यह पत्नियाँ उसे परमेश्वर से दूर मूर्तिपूजा की ओर ले गई।

जब सुलैमान नाश के मार्ग पर गया तब परमेश्वर को उसपर क्रोध आया। परमेश्वर ने उससे कहा कि वह सुलैमान के राज्य को दो भागों में विभाजीत करेगा (11:9)। परन्तु दाऊद धर्मी होने के कारण वह जब तक जीवित रहा तब तक उसने ऐसा नहीं किया (11:12)। हम देखते हैं कि पिता के धर्मी जीवन के कारण कितने बच्चों को परमेश्वर ने आशीषित किया है। परमेश्वर ने सुलैमान को दुःख देने के लिये शत्रु खड़े किए, परन्तु फिर भी उसने पश्चाताप नहीं किया (11:14)। जब सुलैमान को डर लगा कि यराबाम उसके विरुद्ध खड़ा हुआ है तब उसने यराबाम को जान से मारने का प्रयत्न किया (11:26)। फिर यराबाम विभाजीत राज्य का राजा बना। और सुलैमान का अन्त हुआ (11:43)।