द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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पौलुस प्रेरित के वचनों में से, मैं चार बातें आत्मा से भरपूर सेवकाई के संबंध में कहना चाहूँगा।

प्रेम का दास:
सर्व प्रथम, आत्मा से भरपूर सेवकाई प्रेम से भरे हुए दास की सेवकाई है। प्रेरितों 27:23 में पौलुस ने कहा, “परमेश्वर जिस का मैं हूँ और जिसकी मैं सेवा करता हूँ”। वह अपने परमेश्वर का प्रेमी सेवक था। उसने अपने जीवन पर कोई अधिकार नहीं रखा। उसने अपना सबकुछ अपने स्वामी को दे दिया। इसलिए जब कोई व्यक्ति अपना संपूर्ण जीवन परमेश्वर को सौंप देता है तो वह परमेश्वर पर कोई बड़ा उपकार नहीं करता। नहीं! वह केवल उन चीजों को लौटा रहा है जिसे उसने परमेश्वर से चुरा लिया था। यदि मैं किसी व्यक्ति के पैसों की चोरी करूँ और कुछ समय पश्चात अपने पाप का बोध होने पर उसे वापिस लौटा दूँ तो निश्चय ही मैं उस व्यक्ति पर कोई उपकार नहीं करूंगा। मैं उसके पास एक मन फिराये हुए चोर के समान जाऊंगा। केवल इसी उचित स्वभाव के साथ हम परमेश्वर को अपना जीवन समर्पित करते समय उसके निकट जा सकते है। परमेश्वर ने हमें खरीदा है। जब हम इस बात को जान लेते हैं, तो हम पवित्रता के लिए एकमात्र उचित आधार पर पहुंचते हैं। पौलुस प्रभु के प्रेम से पूर्ण दास था। इब्रानी दास के समान, जो अपने कार्यकाल के सातवें वर्ष में मुक्त हो सकता था किन्तु अपने स्वामी के प्रेम के कारण पुनः सेवकाई करने का चुनाव करता है (निर्गमन 21: 1-6)। पौलुस ने अपने प्रभु की सेवा की। वह मजदूरी पर लगा हुआ सेवक नहीं था जो मजदूरी पाने के लिए काम करे, किन्तु ऐसा दास था जो बिना स्वयं के अधिकारो के सेवकाई करे। परमेश्वर उनकी खोज में है जो उसके प्रति इतने समर्पित है तथा सदा इस ताक में रहते है कि वह उनसे जो काम लेना चाहे उन्हें दर्शाए, यह नहीं कि वे परमेश्वर के लिए अपनी मनमानी सेवकाई करने में व्यस्त रहें। एक गुलाम वह नहीं करता जो वो स्वयं चाहता है। नहीं। वह अपने मालिक से पूछता है, “मालिक, आप क्या चाहते है मैं करू?” और उससे जो कहा जाता है वही वह करता है। बाइबल में लिखा है “एक दास के विषय में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, कि वह केवल वही करे जो उसका स्वामी उसे करने को कहे”। (1 कुरिन्थियों 4:2 टी. एल. बी.)।

सुसमाचार की धुन:
दूसरा, आत्मा से भरपूर सेवकाई ऐसी सेवकाई है जिसमें आत्मा से भरपूर व्यक्ति यह जान लेता है कि वह दूसरों का ऋणी है। पौलुस ने कहा, “मैं यूनानियों (बुद्धिमानों) और अन्यभाषियों (निर्बुद्धियों) का कर्जदार हूँ” (रोमियों 1:14)। परमेश्वर ने संसार के साथ बांटने के लिए हमें संपत्ति दी है। हम एक डाकिए के समान है जिसे बहुत बड़ी धन राशि की ज़िम्मेदारी दी गई है, जिनको उसे कई लोगों को मनी-ऑर्डर के रूप में लौटाना है। ऐसा डाकिया उन लोगों का तब तक कर्जदार रहता है जब तक प्रत्येक को उसका हिस्सा नहीं बाँट देता। उसके पास थैले में हजारों रुपए हो सकते है किन्तु एक भी पैसा उसका स्वयं का नहीं होता। वह बहुतों का ऋणी होता है। पौलुस प्रेरित ने स्वयं को इसी प्रकार ऋणी जाना जब परमेश्वर ने उसे सुसमाचार सौंपा। उसे ज्ञात था कि शुभ संदेश दूसरों तक पहुंचाना ही है। वह इस बात से भी अवगत था कि वह तब तक दूसरों का ऋणी रहेगा जब तक वह उद्धार के संदेश को उन तक नहीं पहुंचा दे। शुभ संदेश का प्रचार पच्चीस वर्षों तक कर लेने के उपरांत भी पौलुस ने कहा, “मैं कर्जदार हूँ”। और वह रोम के मसीहियों से कहता है कि वह रोम आकर उनके ऋण को चुकाने के लिए तैयार है। रोमियों 1:14-16 पर ध्यान दीजिये जहां तीन बार उसने “मैं हूँ” का प्रयोग किया: “मैं...कर्जदार हूँ... मैं तैयार हूँ”...मैं सुसमाचार प्रचार करने से लजाता नहीं”। आत्मा से भरपूर सेवकाई दूसरों तक पहुँचने वाली सेवकाई है। यह दूसरों के प्रति अपने ऋण को स्वीकार करते हुए, हमेशा तत्पर रहना कि जाकर अपने ऋण को चुकाए। आत्मा से भरपूर सेवकाई में सुसमाचार प्रचार के लिए तीव्र धुन होती है और वह उसे निरंतर दूसरों तक पहुंचाना चाहती है। यह स्वयं की संतुष्टि पर ध्यान नहीं देता परंतु दूसरों की आवश्यकताओं की भी चिंता करता है। मसीह ने स्वयं कभी अपने को संतुष्ट करने का प्रयत्न नहीं किया (रोमियों 15:3)।

मानवीय असमर्थता:
तीसरा आत्मा से परिपूर्ण सेवकाई ऐसी सेवा है जो मानवीय असमर्थता के बारे में जागरूक है। 2 कुरिन्थियों 10:1 में पौलुस के वचन इस प्रकार है, “मैं तुम्हारे सामने दीन हूँ” या दूसरे शब्दों में “मेरा व्यक्तित्व प्रभावशाली नहीं है”। इतिहास बताता है कि पौलुस प्रेरित की ऊंचाई महज 4 फुट 10 इंच थी और वह गंजा था। उसकी नाक अंकुशाकार थी और वह संभवतः आंख की बीमारी से पीड़ित था। निश्चित तौर पर उसका व्यक्तित्व फिल्म अभिनेताओं जैसा नहीं था। किसी मानवीय कारण पर उसके परिश्रम की सफलता आधारित नहीं थी क्योंकि उसके भाषण व रूप में कुछ भी आकर्षक नहीं था। अपने प्रचार के संबंध में, पौलुस ने कुरिन्थियों को लिखा “मैं निर्बलता और भय के साथ, और बहुत थरथराता हुआ तुम्हारे साथ रहा” (1 कुरिन्थियों 2:3)। जब वह प्रचार करता था, वह अपनी निर्बलताओं को भली भांति जानता था बजाय इसके कि कैसे परमेश्वर की सामर्थ उसके द्वारा प्रवाहित हो रही हे। यही आत्मा से पूर्ण सेवकाई है क्योंकि स्मरण कीजिये कि पौलुस के प्रचार के कारण उस अन्यजाति शहर कुरिन्थुस में कलीसिया की स्थापना हुई।

अपनी बुलाहट को पूरी करना:
चौथी, आत्मा से परिपूर्ण सेवकाई ऐसी सेवा है जिसमे व्यक्ति परमेश्वर की विशिष्ट बुलाहट को पूर्ण करता है। कुलुस्सियों 1:23, 25 में पौलुस ने कहा “जिसका मैं पौलुस सेवक बना” और 1 तिमिथियुस 2:7 में, “मैं सत्य का उपदेशक ठहराया गया”। पौलुस अपने उद्धार कर्ता के छिदे हाथों द्वारा प्रेरित ठहराया गया न की किसी मनुष्य द्वारा। यह परमेश्वर था जिसने पौलूस को प्रेरित होने के लिए बुलाया। यह बुलाहट, जैसा उसने कुलुस्सियों 1:25 में कहा, उसे सौंपी गई। यह परमेश्वर का दान था – उसकी उपलब्धि नहीं, न ही इसे उसने अपनी विश्वासयोग्यता के द्वारा अर्जित किया था। उसने इस वचन में यह भी कहा कि यह बुलाहट उसे दूसरों की सेवा के लिए सौंपी गई। कलिसिया को बनाने के लिए वह भण्डारीपन उसे परमेश्वर द्वारा सौंपा गया था। हममे से प्रत्येक के लिए परमेश्वर की विशिष्ट बुलाहट है। परमेश्वर ने जिसके लिए हमें नहीं बुलाया है वैसा बनने की चाहत रखना तथा परमेश्वर से उसके लिए विनती करना निरर्थक है – क्योंकि पवित्र आत्मा निर्णय करता है कि हममें से प्रत्येक को क्या वरदान दे। पौलुस को प्रेरित होने के लिए बुलाया गया था। परंतु प्रत्येक की यह बुलाहट नहीं है। हम परमेश्वर से विनती कर ऐसा सामर्थ मांगे कि उसकी बुलाहट के अनुसार कर सके। पौलुस ने आर्खिप्पुस को सलाह दी “जो सेवा प्रभु में तुझे सौंपी गई है, उसे सावधानी से पूरी करना” (कुलुस्सियों 4:17)। परमेश्वर ने मसीह की देह में बहुत से वरदान रखे है। हमारे लिए प्रमुख बात यह है कि हम अपने वरदान और अपनी बुलाहट को पहचाने और अपने वरदानो का सदुपयोग करे और अपनी बुलाहट को पूर्ण करे। आत्मा से भरपूर सेवकाई, परमेश्वर द्वारा दी गई अपनी विशिष्ट बुलाहट को पूर्ण करना है। नए नियम में विशेष रीति से यदि किसी वरदान की खोज करने के लिए हमें प्रोत्साहित किया गया है, तो वह भविष्यवाणी का वरदान है (2 कुरिन्थियों 14:39)। शायद आज कलिसिया में सर्वाधिक आवश्यकता इसी वरदान की है। भविष्यवाणी की सेवकाई एक ऐसी सेवकाई है जो उन्नति प्रदान करती है (सामर्थ प्रदान करना और निर्माण करना), जिसमे उलाहना देना (डांट-फटकार लगाना और चुनौती देना) और सांत्वना देना है (आराम देना और प्रोत्साहित करना) (1 कुरिन्थियों 14:3)। हमें परमेश्वर से प्रार्थना करने की आवश्यकता है कि वह हमारी कलिसियाओं में भविष्यद्वक्ताओं को दे जो निर्भय और निष्पक्ष होकर परमेश्वर का वचन सच्चाई से कह सके – जो ऐसे व्यावसायिक धार्मिक पंडितों से विभिन्न प्रकृति के हो जिनकी रुचि केवल अपने वेतन, पदवी और प्रसिद्धि में रहती है। परमेश्वर हम सब की सहायता करे कि हम उसकी बुलाहट को जानने के लिए उत्साह पूर्वक उसके मुख की खोज करे।