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1 कुरिन्थियों 2:14-15 में, हम “प्राकृतिक (जैविक) मनुष्य" और "आत्मिक मनुष्य" के बारे में पढ़ते हैं। एक जैविक मसीही और एक आत्मिक मसीही में बड़ा फर्क होता है। मानवीय चतुराई इसे नहीं समझ सकती, जैसा कि वहाँ लिखा है: "एक प्राकृतिक मनुष्य परमेश्वर के आत्मा की बातों को ग्रहण नहीं करता क्योंकि वे उसे मूर्खतापूर्ण बातें लगती हैं; और न ही वह उन्हें समझ सकता है क्योंकि उनकी परख आत्मिक रीति से होती है। लेकिन आत्मिक मनुष्य इन बातों को परखता है, हालांकि वह स्वयं इन बातों में किसी के द्वारा परखा नहीं जाता।"

मन और आत्मा एक-दूसरे से इतने ही भिन्नू हैं जैसे आँख और कान एक-दूसरे से भिन्न् हैं। और जैसे यह सम्भव है कि एक व्यक्ति को अच्छी तरह सुनाई देता हो, लेकिन वह अंधा हो, ठीक उसी प्रकार ही एक व्यक्ति के लिए यह सम्भव है कि उसमें ज़बरदस्त बौद्धिक समझ हो लेकिन उसकी आत्मा "मृतक” हो - या फिर इसका उलट-पलट हो। इस जगत में हमारे काम के लिए हमें एक अच्छी मन (समझ) की ज़रूरत होती है। लेकिन जब बात परमेश्वर की बातों की हो, तब हमारी आत्मा की दशा निर्णायक बात होती है। परमेश्वर की बातों को समझने के लिए हमें पवित्र आत्मा के प्रकाशन की ज़रूरत होती है, और वह चतुर लोगों को नहीं (जब तक वे नम्र व दीन न हों) बल्कि नम्र लोगों को दिया जाता है (ऐसे "बच्चे" जिनमें एक नम्र व दीन आत्मा होती है - मत. 11:25)।

एक चतुर मनुष्य के लिए नम्र व दीन होना असम्भव नहीं तो कठिन ज़रूर होता है। यह ऐसा ही है जैसे उस स्व-धर्मी फरीसी के लिए अपने आपको पापी मानना मुश्किल ज़रूर था लेकिन असम्भव नहीं था। वेश्याओं और चोरों के लिए यह मान लेना आसान होता है कि वे पापी हैं। ईश्वरीय प्रकाशन के मामले में भी ऐसा ही है: एक अनपढ़ व्यक्ति के लिए यह मान लेना आसान है कि वह चतुर नहीं है - इसलिए उसे जल्दी ही ईश्वरीय प्रकाशन मिल सकता है। इस वजह से ही यीशु ने अपना ज़्यादा समय तीन अनपढ़ मछुआरों - पतरस, याकूब और यूहन्ना - के साथ बिताया था, क्योंकि उसने उन्हें आत्मिक बातों के प्रति सबसे अधिक प्रतिक्रियाशील पाया। और इस वजह से ही फरीसियों के लिए मसीह को स्वीकार करना मुश्किल था क्योंकि उनकी बौद्धिक चतुराई में उनका घमण्ड उनके लिए यह स्वीकार करने में एक बाधा था कि वे आत्मिक तौर पर मूर्ख थे। जब आप कॉलेज के ऐसे छात्रों के बीच में हों जो बौद्धिक रूप में चतुर हैं, तो इस बात को याद रखना आपके लिए अच्छा होगा।

परमेश्वर के सम्मुख मानवीय चतुराई का कोई मूल्य नहीं है। परमेश्वर के सम्मुख यह इतना 'महत्वहीन है जैसे हमारी त्वचा का रंग - क्योंकि ये दोनों ही ऐसी बातें हैं जो लोगों के जन्म के समय से ही उनके पास होती हैं, और लोग जिन बातों के साथ ही पैदा होते हैं, उनमें वे परमेश्वर के सम्मुख घमण्ड नहीं कर सकते। मानवीय धार्मिकता की तरह चतुराई भी परमेश्वर के सामने मैले चिथड़ों के समान है (यशा. 64: 6)। मसीह न सिर्फ हमारी धार्मिकता, बल्कि वह हमारी बुद्धि भी बन गया है (देखें 1 कुरिन्थियों 1:30)।

लेकिन यह हकीकत हमें उत्साहित करती है कि पौलुस जैसा एक व्यक्ति, जो एक स्व-धर्मी फरीसी और एक ज़बरदस्त बुद्धिजीवी था - (दोनों बड़ी कमियाँ) - इनके बावजूद न सिर्फ एक उद्धार पाने वाला, बल्कि मसीह का एक महान् प्रेरित भी बना। लेकिन ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि उसने स्वयं को लगातार नम्र व दीन किया था। कुरिन्थियों के लोगों से बात करते हुए वह कहता है कि उसे यह डर है कि वह अपनी बौद्धिक क्षमता पर भरोसा करने वाला न बन जाए, और इसलिए वह उनके बीच में "निर्बलता और भय से थरथराता" हुआ रहा (1 कुरि. 2:3)। उसे यह डर था कि कहीं वह उनके बीच में परमेश्वर के आत्मा की सामर्थ्य की बजाय अपनी जैविक (मन) शक्ति में होकर प्रचार करने वाला न बन जाए (1 कुरि. 2:4)। जब भी हम बोलते हैं हम सभी को वह भय होना चाहिए। इस वजह से ही हमें लगातार पवित्र आत्मा की सामर्थ्य के लिए प्रार्थना करते रहना चाहिए क्योंकि हमें इसकी लगातार ज़रूरत होती है।

इसलिए, ऐसा न हो कि हम बाइबल के सत्यों की एक बौद्धिक प्रस्तुति को आत्मिक प्रचार मान लेने की गलती कर दें। और न ही हमें एक बहुत भावनात्मक संदेश को एक आत्मिक संदेश समझ लेना चाहिए। बौद्धिक और भावनात्मक दोनों ही हमारे जीव का हिस्सा हैं। ये अच्छे सेवक तो होते हैं, लेकिन हमारे मालिक के रूप में बहुत बुरे होते हैं। हमारे जीवनों में सिर्फ पवित्र आत्मा ही हमारा प्रभु हो। अंत में, जैसा मैंने पहले कहा था, कि हमारे मसीही जीवन के आत्मिक होने के तीन भेद हैं: नम्रता, नम्रता, व नम्रता। अगर आपके अन्दर यह होगी, तो आपका कुशल होगा।