द्वारा लिखित :   जैक पूनन श्रेणियाँ :   कलीसिया
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कुछ विश्वासी ऐसा समझते है कि मानो परमेश्वर के वचन में केवल एक ही आज्ञा है – कि संपूर्ण जगत में जाओ और सारी सृष्टि के लोगों को सुसमाचार प्रचार करो (मरकुस 16:15)। अवश्य ही, इस आज्ञा का पालन विश्व भर में फैली मसीह की पूरी देह द्वारा होना चाहिए – खास तौर पर उनके द्वारा जिन्हें मसीह ने सुसमाचार प्रचारकों के रूप में देह को दिया है (इफिसियों 4:11)। लेकिन यह काम तब तक अधूरा ही रहेगा जब तक इसे मसीह की दूसरी आज्ञा, कि जाओ और सब जातियों के लोगों को शिष्य बनाओ (मत्ती 28:19) के साथ संतुलित नहीं किया जाता।

हम उन सब लोगों के लिए परमेश्वर को धन्यवाद देते है जिन्होंने व्यक्तिगत तौर पर बड़ी कीमत चुकाते हुए भी सारे संसार में जाकर उन लोगों को सुसमाचार सुनाया जिन्होंने कभी यीशु का नाम नहीं सुना था। लेकिन 20 वीं शताब्दी के सुसमाचार प्रचार का एक यह दुखद सच है कि मत्ती 28:19, 20 की तीन स्तरीय आज्ञा – चेला (शिष्य) बनाना, पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से पानी में डूब का बपतिस्मा देना और यीशु की सारी आज्ञाओं को मानना सिखाना - लगभग पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है। जब विश्वासियों का विशाल समूह, बिना शिष्य बनाएँ सुसमाचार प्रचार पर ज़ोर दे रहा है, तो यह हमारा विशेष कार्य बन जाता है कि हम उस बात पर फिर से ज़ोर दे जो खो गई है अर्थात शिष्य बनाने पर और इस अधूरे काम को पूरा करने पर।

अनेक लोग सिर्फ इस अधूरे काम के बारे में ही सोचते है कि अभी तक जगत के अनेक क्षेत्रों में सुसमाचार प्रचार नहीं हुआ है। परमेश्वर उन लोगों को यह बोझ देता है, जिनकी बुलाहट सुसमाचार प्रचार करना हैं। लेकिन दूसरे लोगों को परमेश्वर उतना ही जरूरी काम – बल्कि उससे ज्यादा मुश्किल काम सौंपता है – इन नए विश्वासियों को शिष्य बनाने का काम।

इसका चित्रण एक बढ़ई की दुकान द्वारा किया जा सकता है, जहां अनेक बढ़ई मेजों के चार पैर बनाने में ही व्यस्त हैं लेकिन ऐसे लोग बहुत ही कम है जो मेज को पूरा करने के लिए उसका ऊपरी हिस्सा बना रहे हो। इसका नतीजा यह हो रहा है कि दुकान में अधूरी मेजों का ढेर लग गया है, लेकिन सारे बढ़ई अभी भी अधूरे काम को ही बढ़ाए जा रहें है। हम यकीन के साथ यह कह सकते है कि यीशु ने नासरत में, उसकी बढ़ई की दुकान में एक मेज का काम पूरा करने के बाद ही दूसरी मेज बनाना शुरू किया होगा। उसका हमेशा से इस बात में विश्वास रहा है कि जो काम शुरू किया गया है, वह पूरा हो (क्रूस पर भी उसने पुकार कर यही कहा था, “पूरा हुआ”) और वह आज भी वैसा ही है। हम उसके सहकर्मी है और हमें भी कोई शुरू किए गए काम को पूरा करने में विश्वास करना चाहिए। मन फिराये हुए सभी लोगों को शिष्य बनाना चाहिए।

पुरानी वाचा में, परमेश्वर के लोगों, इस्राएलियों के लिए एक देह बन पाना असंभव था। यह तभी संभव हुआ जब यीशु ने स्वर्ग में जाने के बाद मनुष्य में वास करने के लिए पवित्र आत्मा को उँड़ेला। अब दो, एक हो सकते है। पुरानी वाचा में इस्राएल एक मंडली थी। राष्ट्र का कद बड़ा हो गया लेकिन फिर भी वह एक मंडली ही थी। हालांकि, नई वाचा में कलीसिया को एक देह होना है, न की एक मंडली।

अगर दो एक नहीं होते, तो फिर आपके पास जो भी है सिर्फ एक मंडली है। मसीह की देह में महत्वपूर्ण बात उसकी विशालता नहीं अपितु एकता है। और इस मापदंड के अनुसार एक ऐसी “कलीसिया” पाना मुश्किल है जो एक मंडली नहीं हो। हर जगह हम ऐसी मंडलियाँ पाते है जो कद (विशालता) में तो बढ़ रही है, लेकिन एकता में नहीं। अगुवों के स्तर पर भी झगड़े, ईर्ष्या और प्रति स्पर्धा पाई जाती है।

परमेश्वर की इच्छा यह है कि सारे जगत में विभिन्न स्थानों में मसीह की देह की एक अभिव्यक्ति हो। बेबीलोन की मसीहियत इसे अर्जित नहीं कर सकती। लेकिन परमेश्वर का काम अब भी ऐसे बचे हुओं के द्वारा होता रहा है जो यह समझते है कि यीशु के शिष्यों का चिन्ह, संख्या में बढ़ना नहीं परंतु एक दूसरे के लिए सरगर्म प्रेम में बढ़ना है।

मसीह की देह में, प्रत्येक व्यक्ति मूल्यवान है, भले ही उसे कोई वरदान प्राप्त न हो। उसका मूल्य इसमें है कि वह देह का एक अंग है। असल में, यह लिखा है कि परमेश्वर ऐसे सदस्य को ज्यादा आदर देता है जिन्हें वरदानों की घटी है, जिससे देह में एकता बनी रह सके (1 कुरिंथियों 12:24, 25)। कलीसिया में, अगर ऐसे लोग है जो वरदानों से भरे नहीं है लेकिन परमेश्वर का भय मानने वाले और नम्र है, तो हमें परमेश्वर के उदाहरण के अनुसार, ऐसे मनुष्यों का भी आदर करना है। बेबीलोन में प्रतिभावान प्रचारक, प्रतिभाशाली गायक और मन फिराया हुआ अन्तरिक्ष यात्री सम्मान पाता है। लेकिन कलीसिया (परमेश्वर के तम्बू) में, हम उनका आदर करते है जो परमेश्वर का भय मानते है (देखे, भजन 15:1,4)।

यीशु ने कहा कि हमें वे सारी बातें जिसे उसने सिखाया है, मसीहियों को मानना सिखाना हैं (मत्ती 28:20)। परमेश्वर बलिदान से अधिक आज्ञापालन चाहता है (1 शमूएल 15:22)। यह एक अन्यजातिय अवधारणा है कि ईश्वर के लिए अपने प्रेम को प्रमाणित करने के लिए हमें विभिन्न शारीरिक यातनाओं से गुजरने की जरूरत होती है। यह विचारधारा भारत की अन्यजातिय संस्कृति में बहुत प्रबल है और दुर्भाग्य से यह हमारे देश की मसीहियत में भी व्याप्त है। इसलिए आध्यात्मिकता अब एक मनुष्य द्वारा अपनी नौकरी त्यागने, और किसी दुर्गम स्थान में जाने, अनेक पीड़ाएँ सहने, आदि में देखी जाती है। इन सब में बहुत त्याग शामिल हो सकता है, लेकिन ये सब परमेश्वर के वचन के आज्ञापालन की जगह कभी नहीं ले सकतें।

यीशु के लिए हमारा प्रेम बलिदान (त्याग) द्वारा नहीं, बल्कि उसकी आज्ञाओं के पालन द्वारा प्रमाणित किया जाता है – जैसे कि यूहन्ना 14:15 में स्वयं यीशु ने कहा है। उन सारी बातों को मानना जिन्हें यीशु ने मत्ती अध्याय 5 से 7 में सिखाया, उसके प्रति हमारे प्रेम का सबसे बड़ा प्रमाण है, बजाये अपनी कमाई का 50 प्रतिशत देने और नौकरी छोड़कर मिशनरी बनने से।

पवित्रता ही सच्ची कलीसिया (यरुशलेम) की विशेषता है। यरुशलेम की बढ़ोतरी को उसकी पवित्रता की बढ़त से मापा जाता है – जिसमे एक दूसरे के लिए प्रेम सम्मिलित है। यीशु ने कहा था कि जीवन का मार्ग सकरा है और थोड़े ही हैं जो उसे पातें हैं। जो सकरे फाटक की घोषणा उतना ही सकरा बना कर करते है जितना सकरा यीशु ने किया, वे पाएंगे की बहुत कम लोग उनकी कलीसिया के हिस्सा बनेंगे (मत्ती 7:13,14)। यदि दूसरी तरफ, अगर हम उस फाटक को जैसा यीशु ने उसे बनाया, उससे अधिक चौड़ा बना दे, तो हम अपनी संख्याओं में अति शीघ्र बढ़त को हासिल करेंगे। और यही पर आज मसीही जगत का एक बड़ा तबका भटक गया है। यीशु ने सकरे फाटक और सकरे मार्ग का उल्लेख ‘पहाड़ी उपदेश’ के संदर्भ में किया (मत्ती अध्याय 5 से 7)। उन अध्यायों में लिखित बातें ही है, जो सकरे फाटक और सकरे मार्ग की संरचना करती हैं।