द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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इब्रानियों 10:5 में हम पढ़ते है कि, “परमेश्वर हमारी भेंटों को नहीं चाहता”। मैं यह वचन उन लोगों को बताता रहता हूँ जो उन प्रचारकों के सताए हुए हैं जो उनसे लगातार यह कहते हैं कि परमेश्वर उनसे भेंट चाहता है। यहाँ क्या लिखा है कि परमेश्वर हम से क्या चाहता है? हमारी देह। पुरानी वाचा में, इस बात पर ज़ोर दिया जाता था कि, “अपने दसवांश याजकों के पास लाओ”। नई वाचा में इस बात पर ज़ोर दिया गया है, “अपनी देह परमेश्वर को सौंप दो” (रोमियो 12: 1)। ऐसी कलीसिया जो अपने लोगों से निरंतर दसवांश देने के लिए कहती है, वह एक पुरानी वाचा की कलीसिया है। एक नई वाचा की कलीसिया हमारी देह को समर्पण करने के लिए कहेगी - हमारी आँख, हमारे हाथ, हमारी जीभ, आदि - एक जीवित बलिदान के रूप में परमेश्वर को चढ़ाना। आज परमेश्वर हम से भौतिक बलिदान नहीं बल्कि हमारी देह चाहता है। नई वाचा में परमेश्वर को हमारी देह सौंपना, पुरानी वाचा में दसवांश देने के बराबर है - वैसे ही जैसे मसीह का क्रूस पर मरना, फ़सह के दिन पुरानी वाचा के मेमने की बलि के बराबर है। तब क्या इसका अर्थ यह है कि हमें पृथ्वी पर परमेश्वर के कामों के लिए धन देने की ज़रूरत नहीं है? आप ज़रूर दे सकते हैं, लेकिन परमेश्वर केवल वह चाहता है जो आप हर्ष से देते हैं (2 कुरिन्थियों 9:7)। लेकिन, सब से पहले वह आपकी देह चाहता है। जो उसे अपनी देह देते हैं, वे अक्सर फिर उसे बाक़ी सब कुछ भी दे देते हैं। लेकिन सब कुछ हर्ष और आनंद से दिया जाना चाहिए।

जब यीशु जगत में आया, तो वह अपने पिता को भौतिक दसवांश या भेंट अर्पित करने नहीं आया था (इब्रानियों 10:5)। लेकिन वह अपनी देह को एक बलि के रूप में चढ़ाने के लिए आया था। वह नई वाचा का मध्यस्थ है और वह हमें यह सिखाता है कि परमेश्वर सबसे पहले हमसे हमारी देह चाहता है।

यीशु जब स्वर्ग में था तब उसकी कोई देह नहीं थी। जब वह इस जगत में आया तो पिता ने उसे एक देह दी। उसे उस देह से क्या करना था? क्या उसे एक मिशनरी बनकर अफ़्रीका जैसी किसी मुश्किल जगह में जाने द्वारा पिता के प्रति अपना प्रेम प्रकट करना था? या क्या उसे प्रतिदिन चार घंटे प्रार्थना और सप्ताह में दो बार उपवास करना था? उसे यह सब नहीं करना था। वह कहता है, “हे परमेश्वर देख मैं (पृथ्वी पर) भेंट/बलि चढ़ाने नहीं, तेरी इच्छा पूरी करने आया हूँ” (इब्रानियों 10:7)। यीशु ने अपनी देह को इस काम के लिए इस्तेमाल किया - और हमें भी अपनी देह का इसी तरह इस्तेमाल करना है। जब हम परमेश्वर को अपनी देह अर्पित कर देते है, तो फिर उसके हर एक अंग से हमें उसकी इच्छा पूरी करनी चाहिए – हमारी आँखों, हाथों, जीभ, मनोवेगों, अभिलाषाओं, आदि से। और उसके बाद हमारे जीवन का एकमात्र मनोवेग प्रतिदिन परमेश्वर की इच्छा पूरी करना होगा।

सबसे पहले हमारे लिए परमेश्वर की इच्छा क्या है?। “परमेश्वर की इच्छा यह है कि तुम पवित्र बनो” (1 थिस्सलुनीकियों 4: 3)। हम में से हरेक के लिए परमेश्वर की इच्छा का यह पहला भाग है। और जब हमारी सेवकाई की बात आती है, तो हमें परमेश्वर के लिए कुछ करने को यहाँ-वहाँ नहीं भागना चाहिए। हमें अपनी सेवकाई में भी परमेश्वर की इच्छा पूरी करनी चाहिए। यीशु ने हमें प्रार्थना करना सिखाया, “तेरी इच्छा जैसे स्वर्ग में पूरी होती है, वैसे ही पृथ्वी पर भी हो”। स्वर्ग में दूत परमेश्वर की इच्छा पूरी करने की कोशिश में यहाँ-वहाँ नहीं भागते रहते। यीशु भी अपने पिता की इच्छा पूरी करने की कोशिश करते हुए यहाँ-वहाँ नहीं भागता रहा था। उसने पिता की इच्छा जाननी चाही और फिर उसने वही किया। जब उसके पिता ने 18 से 30 साल की उम्र तक उसे बड़ई का काम करने के लिए कहा, तो उसने वही किया। इतने सालों तक अपने पार्थिव कामों में विश्वासयोग्य रहने के बाद, पिता ने उससे कहा कि अब वह बाहर निकलकर साढ़े तीन साल तक प्रचार करें। यीशु ने जब 12 साल तक मेज़ और कुर्सियाँ बनाई, वह तब भी अपने पिता को उतना ही प्रिय था, जितना प्रिय वह प्रचार करते समय और बीमारों को चंगा करते समय था।

यीशु पृथ्वी पर एक मिशनरी होने के लिए या एक पूर्णकालिक सेवक होने के लिए नहीं आया था। वह सिर्फ़ अपने पिता की इच्छा- चाहे वह जो भी हो, पूरी करने के लिए आया था। जब उसके लिए पिता की इच्छा बढ़ई का काम था, तो उसने वह किया। और जब उसके लिए पिता की इच्छा पूर्ण कालिक सेवक होने की थी, तो उसने वही किया। हमें भी अपने आप को इस काम या उस काम में नहीं, बल्कि पिता की इच्छा को पूरा करने के प्रति समर्पित करना चाहिए। यह हो सकता है कि परमेश्वर आपको एक मिशनरी नहीं बल्कि एक बड़ई होने के लिए बुलाए। क्या आप इच्छुक है?

यीशु ने कहा, “हे परमेश्वर, देख, मैं तेरी इच्छा पूरी करने आया हूँ”। इस तरह उसने पहली वाचा हटा कर दूसरी वाचा स्थापित की (इब्रानियों 10:8,9)। पहली वाचा में बहुत सी धार्मिक गतिविधियाँ थी, ख़ास तौर पर मिलाप वाले तम्बू और मंदिर में। लेकिन यीशु ने अपने पृथ्वी के जीवन के लगभग 90 प्रतिशत भाग में कोई धार्मिक काम नहीं किया। उसने 30 साल तक अपनी माँ की घर में मदद की और बढ़ई के रूप में काम करते हुए अपने परिवार की देखभाल की। फिर अगले साढ़े तीन साल तक उसने प्रचार किया। इस तरह उसने अपने पिता के दिए हुए काम को पूरा किया और उसकी महिमा की (देखें यूहन्ना 17:4)। यहाँ हम यह सीखते है कि परमेश्वर की नज़र में घर में माँ की मदद करना, बीमारों को चंगा करने जितना ही महत्वपूर्ण है। नई वाचा में, परमेश्वर एक ख़ास समय में आपसे जो भी काम चाहता है, वही आपके लिए परमेश्वर की इच्छा है और उस समय जो सबसे पवित्र काम आप कर सकते है, वह वही काम है।