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यीशु ने युवा लोगों को अपना शिष्य होने के लिए बुलाया था। बहुत लोग यह सोचते हैं कि एक प्रेरित बनने के लिए एक व्यक्ति का 60 या 65 साल का होना ज़रूरी होता है। लेकिन यीशु ने 30 साल वालों को उसके पहले प्रेरित होने के लिए बुलाया था। यीशु स्वयं उसकी मृत्यु के समय साढ़े 33 साल का था। और सभी 11 शिष्य उम्र में उससे छोटे थे क्योंकि हम जानते हैं कि यहूदियों के रब्बी अपने से कम उम्र के लोगों को शिष्य होने के लिए चुनते थे। पैन्तेकुस्त के दिन यूहन्ना की उम्र शायद 30 साल की ही रही होगी।

जब यीशु ने इन जवानों को अपना शिष्यों होने के लिए बुलाया, तो उसने उनके अनुभव नहीं बल्कि उनके हृदय के पूरे समर्पण को देखा था। पैन्तेकुस्त के दिन इन युवा पुरुषों का पवित्र आत्मा से बपतिस्मा हुआ और वे प्रभु के प्रेरित होने के लिए अलौकिक रूप में सुसज्जित हुए थे। उनका अनुभव और परिपक्वता बाद में आए थे। तीमुथियुस भी एक बहुत छोटी उम्र में प्रेरित बन गया था (1 तीमु. 4:12)।

परमेश्वर आज भी युवाओं को उसकी सेवकाई के लिए बुलाता है। लेकिन यह ज़रूरी है कि वे नम्र व दीन रहें। परमेश्वर द्वारा बुलाए हुए किसी भी युवक को जिस सबसे बड़े ख़तरे का सामना करना पड़ता है वह आत्मिक गर्व है।

मैंने भारत में ऐसे बहुत दुःखद मामले देखे हैं जिनमें परमेश्वर ने युवाओं को उसके सेवक होने के लिए बुलाया था, और वे अपनी बुलाहट की जगह पर से नीचे गिर गए। कुछ मामलों में ऐसा हुआ कि जैसे ही परमेश्वर ने उन्हें किसी काम में इस्तेमाल करना शुरू किया, तो वे गर्व से भर गए और परमेश्वर को उन्हें अलग हटा देना पड़ा क्योंकि उन्होंने उस महिमा को अपने लिए लेना शुरू कर दिया था जो परमेश्वर के लिए थी। दूसरे मामलों में, उन्होंने सांसारिक सुख-सुविधा चाहा, और अंततः वे अच्छे वेतन देने वाली पश्चिमी मसीही संस्थाओं के वेतन पाने वाले कर्मचारी बन गए। इस तरह, वे बिलाम की तरह भटक गए। और अन्य मामलों में, उन्होंने शिमशौन की तरह अपना अभिषेक खो दिया क्योंकि वे खूबसूरत दलीलाओं की तरफ आकर्षित हो गए थे। इस तरह इन योग्य युवकों ने मनुष्यों से सम्मान और धन पाने के लिए या सुन्दर स्त्रियों के प्रति अपनी लालसा के लिए, परमेश्वर की बुलाहट और अपने अभिषेक की बलि चढ़ा दी।

आज भारत में परमेश्वर के ऐसे प्रेरित कहाँ हैं जो निर्भय होकर परमेश्वर के वचन का प्रचार करते हों, और जो धन की, सुन्दर स्त्रियों की, और मनुष्यों की सराहना की परवाह न करते हों?

आज ऐसे नबी पाना दुर्लभ है। जिन्हें परमेश्वर ने बुलाया था, उनमें से ज़्यादतर मार्ग के किनारे गिर गए हैं।

एक टूटी हुई और दीन-हीन आत्मा ही परमेश्वर को ग्रहण-योग्य बलिदान है। अगर हम टूटे हुए और नम्र व दीन होंगे, तो परमेश्वर हमें हमेशा इस्तेमाल कर सकेगा। लेकिन जिस पल हम ऐसा सोचने लगेंगे कि हमें मिले महान् प्रकाशनों द्वारा, या परमेश्वर द्वारा हमें दी गई ज़बरदस्त सेवकाई द्वारा हम कुछ बन गए हैं, तो उसी पल से हम पीछे हटने लगेंगे। तब परमेश्वर हमें अलग हटा देगा।

यह हो सकता है कि हम फिर भी किसी कलीसिया में अपने प्राचीन होने का पद बनाए रख सकें। लेकिन अनन्त में हम यह पाएँगे कि हमने अपने जीवन बर्बाद कर दिए हैं।