द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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जिसका जीवन परमेश्वर तथा उसकी सेवा के प्रति स्व-केन्द्रित होता है वह रूढ़िवादिता की आत्मा को प्रगट करता है। स्व-केन्द्रित व्यक्ति परमेश्वर की सेवा करने का प्रयत्न कर सकता है। वह उसकी सेवा में भी अत्यंत सक्रिय हो सकता है – परंतु ऐसी सेवकाई हमेशा रूढ़िवादिता की सेवकाई होती है। परमेश्वर के लिए की गई सेवा के बदले में वह प्रतिफल खोजता है। बड़े पुत्र ने अपने पिता से कहा, “मैं इतने वर्ष से तेरी सेवा कर रहा हूँ, तो भी तूने मुझे कभी एक बकरी का बच्चा भी नहीं दिया (लुका 15:29)"। उसने प्रतिफल की आशा से अब तक पिता की सेवा की थी, जो अभी तक प्रकट नहीं हुआ था। दबाव के क्षण ने इस तथ्य को प्रगट कर दिया।

स्व-केन्द्रित व्यक्ति इसी प्रकार से परमेश्वर की सेवा करता है – और न की स्वत्रंतता-पूर्वक, आनंद और स्वेच्छा से, किंतु प्रतिफल की आशा से। वह सेवा के बदले में परमेश्वर से कोई आत्मिक आशीष या प्रतिफल प्राप्त करने की अपेक्षा करता है। किंतु ऐसे उद्देश्य से की गई सेवा भी रूढ़िवादी होती है और परमेश्वर के सम्मुख ग्रहण योग्य नहीं होती।

ज्येष्ठ पुत्र ने इतने वर्षों तक अपनी सेवकाई के लिए पिता से कुछ इनाम न पाने के कारण अपने पिता को कठोर और निर्दयी समझा। वह उस व्यक्ति के समान था जिसे एक तोड़ा दिया गया था। जिसने बुलाए जाने पर अपने स्वामी के पास जाकर कहा, “मैंने तेरे तोड़े को सुरक्षित रखा है (लाभ के लिए व्यापार किए बिना) क्योंकि मैं तुझ से डरता था (कि कही तू मेरा लाभ न माँग ले) इसलिए कि तू कठोर मनुष्य है” (लूका 19:21 लिविंग अनुवाद)। स्व-केन्द्रित व्यक्ति यह सोचता है कि परमेश्वर बहुत अधिक माँग करने वाला है और जिसे प्रसन्न करना बहुत कठिन है, इसलिए वह परमेश्वर की सेवा में कठिन परिश्रम करते जाता है और ऐसे कठोर परमेश्वर की माँगों को पूरा न कर सकने के कारण स्वयं को धिक्कारता है।

इस प्रकार की सेवा परमेश्वर हमसे नहीं चाहता। बाइबल में लिखा है “परमेश्वर हर्ष से देने वाले से प्रेम रखता है”। (2 कुरिन्थियों 9:7)। सेवा के सम्बंध में भी परमेश्वर उससे प्रसन्न होता है, जो आनंद के साथ परमेश्वर की सेवा करते है और न की दबाव और कुड़कुड़ाहट के साथ। अनिच्छा-पूर्वक की गई सेवा से तो उत्तम है कि कोई सेवा ही न की जाए। जब कोई प्रतिफल के लिए सेवकाई करता है तो थोड़ा समय बीतने के बाद ही वह परमेश्वर पर कुड़कुड़ाने लगता है कि उसे पर्याप्त आशीष नहीं प्राप्त हो रही है। स्थिति और भी गम्भीर हो जाती है जब दूसरों को उससे बढ़कर आशीष मिलती है।

क्या हम कभी अपने काम और आशीष की तुलना दूसरों से करते है? यह केवल रूढ़िवादी सेवा का ही परिणाम हो सकता है। यीशु ने एक बार दृष्टांत में कुछ मज़दूरों के विषय में बताया जो किसी व्यक्ति द्वारा अलग-अलग समय पर कार्य में नियुक्त किए गए। दिन बीत जाने पर स्वामी ने प्रत्येक को एक-एक दीनार दिया। जिन्होंने सबसे अधिक समय तक मज़दूरी की थी उन्होंने कुड़कुड़ाहट के साथ स्वामी से कहा, “तू हमें इन दूसरों के बराबर मज़दूरी कैसे दे सकता है? हमें अधिक मज़दूरी मिलनी चाहिए”। उन्होंने मज़दूरी के लिए सेवा की और जब उन्हें वही मज़दूरी मिली जिसके लिए वे सहमत हुए थे, तब उन्होंने कुड़कुड़ा कर कहा कि दूसरों को उनके बराबर मज़दूरी नहीं मिलनी चाहिए (मत्ती 20: 1-16)।

ठीक यही हम बड़े पुत्र में देखते है, “तू इतना सब-कुछ मेरे छोटे भाई को कैसे दे सकता है। उसने नहीं, किंतु मैंने तेरी सेवकाई ईमानदारी के साथ की है”।

जब इस्राएलीयों ने कुड़कुड़ाते हुए परमेश्वर की सेवा की, तब परमेश्वर ने उन्हें बंधुवाई में भेज दिया जैसा उसने उनसे कहा था: “क्योंकि तूने आनंद और प्रसन्नता के साथ अपने परमेश्वर यहोवा की सेवा नहीं की, इस कारण तुझको अपने शत्रुओं की सेवा करनी पड़ेगी” (व्यवस्थाविवरण 28:47,48)। रूढ़िवादी सेवकाई से परमेश्वर को थोड़ी भी प्रसन्नता नहीं होती।

स्व-केंद्रित मसीही परमेश्वर की सेवकाई इसलिए करते हैं कि दूसरों की दृष्टि में स्वयं की आत्मिक छाप बनाए रखें। मसीह के प्रति शुद्ध और निष्कपट प्रेम के कारण नहीं किन्तु इस भय से वे मसीह के कार्य में सक्रिय रहते हैं कि कुछ न करने के कारण दूसरे लोग उन्हें आत्मिक बातों में निरुत्साहित न सोच बैठे। और जब ऐसे लोग स्वयं के लिए सहज तथा इस प्रकार का मार्ग चुन लेते हैं जिससे उनको आर्थिक लाभ प्राप्त हो, तब वे सब को यह विश्वास दिलाने का कठिन प्रयास करते हैं कि उस मार्ग में कैसे परमेश्वर ने उनकी अगुवाई की है! इस तरह से स्वयं को उचित ठहराने की क्या ज़रूरत है जब तक कि उमनें यह गुप्त भय न हो कि अन्य लोग उन्हें कम आत्मिक सोच सकते है! इस प्रकार से परमेश्वर की सेवकाई करने में कितना अधिक संघर्ष और दबाव है।

उस सेवकाई में कितना आनंद और कितनी स्वतंत्रता है, जो मसीह के प्रति प्रेम से प्रेरित हो! प्रेम ऐसा तेल है जो हमारे जीवन की मशीन को गतिमान बनाए रखता है जिससे वह धरधराएँ न! याकूब ने राहेल को पाने के लिए सात वर्ष तक सेवकाई की। और बाइबल में लिखा है कि वे सात वर्ष उसे उसके प्रति प्रेम के कारण कुछ ही दिन जैसे प्रतीत हुए (उत्पत्ति 29:20)। हमारे साथ भी ऐसा ही होगा जब हमारी सेवा परमेश्वर के प्रति प्रेम से प्रभावित होगी। उसमें कोई तनाव और संघर्ष नहीं होगा।

बाइबल सिखाती है कि मसीह और उसकी कलीसिया का सम्बंध पति-पत्नी के संबंध जैसा है। पति अपनी पत्नी से मुख्य रूप से क्या अपेक्षा करता है? उसकी सेवा नहीं। वह मुख्यतः उसके साथ विवाह इसलिए नहीं करता कि वह उसके लिए खाना पकाए या उसके वस्त्र धोए। वह तो मुख्यतः उसके प्रेम की इच्छा रखता है। उसके बिना सब निरर्थक है। परमेश्वर हम से भी यही चाहता है।