द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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हमारी सभी आत्मिक समस्याओं का मूल कारण, परमेश्वर को अपने सर्वशक्तिमान प्रेमी पिता के रूप में न जानना है।

एक सच्चाई जिसने मेरे मसीही जीवन में क्रांति ला दी वह यह महिमामय प्रकासन है जो यीशु ने हमें दिया था, कि पिता यीशु के शिष्यों को उसी तरह प्रेम करता हैं जैसे उसने यीशु को प्रेम किया। यीशु ने अपने शिष्यों के लिए पिता से प्रार्थना की, ".....और संसार जाने की तू ही ने मुझे भेजा है, और जैसा तू ने मुझ से प्रेम रखा वैसे ही उनसे प्रेम रखा” (यूहन्ना 17:23)। हमारे आसपास की दुनिया को इस सच्चाई को जानना चाहिए। इससे पहले कि दुनिया इसे अनुभव कर सके, इसे हमारे हृदयों को पहले जकड़ना होगा।

यह प्रतिज्ञा सभी के लिए नहीं है, परंतु केवल उन लोगों के लिए है जो यीशु के चेले बन गए हैं - अर्थात्, जो लोग यीशु से प्रेम करते हैं (1) पृथ्वी पर किसी भी व्यक्ति से बढ़कर (2) अपने स्वयं के जीवन से बढ़कर और (3) अपनी संपत्ति से बढ़कर (ये शिष्यत्व की तीन शर्तें है जिनका यीशु ने लुका 14: 26,27,33 में उल्लेख किया है)। यह प्रतिज्ञा उन लोगों के लिए है जिन्होंने इन तीन शर्तों को पूरा किया है।

हम स्वर्ग में एक प्रेम करनेवाले पिता पर सैद्धांतिक रूप से विश्वास कर सकते हैं। लेकिन अगर हम चिंतित और व्याकुल और असुरक्षा और भय से भरे हैं, तो इससे यह साबित होगा कि हम यीशु के शिष्य नहीं हैं, या यह कि हम अपने हृदयों में इस बात का गहरा विश्वास नहीं करते हैं कि हमारा पिता हमसे उतना ही प्रेम करता है जितना वह यीशु से प्रेम करता है! मानवीय रूप से यह मानना असंभव होगा कि परमेश्वर हमें इस तरह प्रेम करता है। लेकिन यीशु ने स्वयं स्पष्ट रूप से हमें बताया कि ऐसा ही था। तो इससे हम जानते हैं कि यह सच है।

एक बार जब हमारी आँखें इस महिमामय सत्य की ओर खुल जाती हैं, तो यह जीवन के प्रति हमारे पूरे दृष्टिकोण को बदल देगा। हमारे जीवन से सभी कुड्कूड़ाहट, अवसाद, निराशा, भय और चिंता मिट जाएंगे। मैं जानता हूँ कि ऐसा हो सकता है, क्योंकि ऐसा मेरे जीवन में हुआ है। अब यह बात मेरे जीवन की अटल नींव है: परमेश्वर मुझसे वैसा ही प्रेम करता है जैसा वह यीशु से करता है।

ऐसा नहीं है कि हमारे पर्याप्त उपवास और प्रार्थना न कर पाने की वजह से हम एक जयवंत जीवन में प्रवेश नहीं कर पा रहें हैं। नहीं। विजय हमारी अपनी कोशिश से नहीं परंतु विश्वास से मिलती है। "और वह विजय जिस से संसार पर जय प्राप्त होती है हमारा विश्वास है" (1 यूहन्ना 5: 4)। "किस बात में विश्वास करने से? – आप यह प्रश्न पूछ सकते है। उत्तर है: "आपके लिए परमेश्वर के सिद्ध प्रेम में विश्वास"।

अनेक विश्वासी शैतान की दोष भावना के अधीन रहते हैं, जो उन्हें निरंतर कहती रहती है कि, "आप पर्याप्त उपवास नहीं कर रहे हैं। आप पर्याप्त प्रार्थना नहीं कर रहे हैं। आप पर्याप्त रूप से सुसमाचार नहीं बाँट रहे हैं। आप बाइबल का पर्याप्त अध्ययन नहीं कर रहे हैं” इत्यादि। वे ऐसे आत्म-दोष से भरे विचारों में गोते खाते हुए लगातार गतिविधियों और मरे हुए कामों के निरंतर चलते रहने वाले चक्रों में फसे रहते है।

क्या आपको एहसास है कि आपका सारा आत्म-अनुशासन, उपवास, प्रार्थना और गवाही देना सभी मृत कार्य हैं, यदि वे परमेश्वर के प्रति प्रेम के परिणाम स्वरूप उत्पन्न नहीं होते है? और वे ऐसे प्रेम के साथ उत्पन्न नहीं हो सकते, जब तक कि पहले आप परमेश्वर के प्रेम में सुरक्षित न हों। इफिसुस के मसीहियों के लिए पौलूस की यही प्रार्थना थी कि वे परमेश्वर के प्रेम में जड़ पकड़ कर स्थिर हो जाएँ (इफिसियों 3:16,17)।

जगत ऐसे लोगों से भरा पड़ा है जो उनसे प्रेम करने वाले एक व्यक्ति की खोज में है। अनेक मसीही प्रेम की खोज में एक कलीसिया से दूसरी कलीसिया में घूमते रहते है। कुछ लोग मित्रता में तो कुछ विवाह में प्रेम की खोज करते है। लेकिन इस सारी खोज के अंत में निराशा हो सकती है। अनाथ बच्चों की तरह, आदम के बच्चे असुरक्षित है, जिसके परिणाम स्वरूप वे बार बार आत्म-हीनता के शिकार बनते है।

इस समस्या का उत्तर क्या है? इसका उत्तर परमेश्वर के प्रेम में हमारी सुरक्षा की खोज करना है। यीशु ने अपने चेलों से यह बार बार कहा कि उनके सिर के बाल भी गिने हुए है, और वह परमेश्वर जो करोड़ों पक्षियों को खिलाता है और करोड़ों फूलों को सजाता है, उनकी देखभाल भी जरूर करेगा। और इन सब बातों से भी आगे बढ़कर जो तर्क किया जा सकता है, वह यह है “वह जिसने अपने पुत्र को भी नहीं रख छोड़ा परंतु उसे हम सबके लिए दे दिया तो वह उसके साथ हमें सबकुछ उदारता से क्यों न देगा” (रोमियों 8:32)। जैसे परमेश्वर ने यीशु की देखभाल की थी वैसे ही वह हमारी भी देखभाल करेगा।

एक कारण कि, क्यों परमेश्वर कभी कभी हमें हमारे साथी मनुष्यों से निराश होने देता है, क्योंकि वह हमें यह सिखाना चाहता है कि हम मनुष्यों पर भरोसा रखना छोड़ दे। वह हमें ऐसी मूर्ति पूजा से छुड़ाना चाहता है, क्योंकि मनुष्यों पर भरोसा रखना एक प्रकार की मूर्ति पूजा ही है। परमेश्वर चाहता है कि हम पूरी तरह से सिर्फ उस पर ही भरोसा रखना सीखे। इसलिए यदि परमेश्वर हमारे हालातों को इस तरह तैयार करे जिससे हमें चारों तरफ से निराश होना पड़े तो उससे हमको हतोत्साहित नहीं हो जाना चाहिए। यह परमेश्वर का तरीका है हमें शारीरिक भुजा से दूर करने का ताकि हम उस पर विश्वास करके जीना सीख सकें।

यहोवा यह कहता है “श्रापित है वह पुरुष जो मनुष्य पर भरोसा रखता है और उसका सहारा लेता है....क्योंकि वह निर्जल देश के अधमरे पेड़ के समान होगा। परंतु धन्य है वह पुरुष जो यहोवा पर भरोसा रखता है जिसने परमेश्वर को अपना आधार माना हो....वह उस वृक्ष के समान होगा जो नदी के किनारे पर लगा हो, जब धूप होगी तब उसको न लगेगी, उसके पत्ते हरे रहेंगे, और सूखे वर्ष में भी उसके विषय में कुछ चिंता न होगी, क्योंकि वह तब भी फलता रहेगा’ (यिर्मयाह 17:5-8)।

मसीहों के बीच में होनेवाली सारी प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या इसी असुरक्षा की वजह से ही होती है। वह जो परमेश्वर के प्रेम मे सुरक्षित है, और जो यह विश्वास करता है कि जैसा वह है उसे बनाने में, और जो दान वरदान और योग्यताएँ उसके पास है उसे देने में परमेश्वर ने कोई गलती नहीं की है, वह कभी दूसरों से न तो कोई ईर्ष्या और न हीं कोई प्रतिस्पर्धा कर सकेगा। विश्वासियों के मध्य में रिश्तों एवं संबंधों की सभी समस्याओं का कारण मूलतः असुरक्षा है।

इसलिए लुका 14: 26-34 पर मनन करें और यीशु के पीछे सम्पूर्ण हृदय से चलने वाले शिष्य बने। फिर इस तथ्य में अपनी सुरक्षा को पाएँ कि परमेश्वर अब आपको उसी तरह प्रेम करता हैं जैसा प्रेम उसने यीशु से किया।