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कोई भी परमेश्वर से अनुग्रह प्राप्त किए बिना नए नियम की आज्ञाओं का पालन नहीं कर सकता है। कुछ लोग व्यवस्था की दस आज्ञाओं में से पहली नौ आज्ञाओं को बिना अनुग्रह के पालन करने में सक्षम हो सकते हैं। लेकिन दसवीं आज्ञा - "जो तुम्हारा नहीं है उसके लिए कभी भी लालसा न करें" (व्यवस्थाविवरण 5:21)- कोई भी परमेश्वर के अनुग्रह के बिना उसका पालन नहीं कर सकता था। और कोई भी अनुग्रह के बिना नई वाचा के जीवन की ऊंचाइयों तक नहीं पहुंच सकता (जैसा कि मत्ती 5 से 7 में वर्णित है)। और परमेश्वर अपना अनुग्रह केवल नम्र लोगों को देता है (1 पतरस 5:5)।

नम्रता उन गुणों में से एक है जिसकी सबसे आसानी से नकल हो सकती है। सच्ची नम्रता कोई ऐसी बात नहीं है जो दूसरे हम में देखते हैं। यह वह है जो परमेश्वर हममें देखता है - और वह भीतर है। इसका उदाहरण यीशु के जीवन में मिलता है। फिलिप्पियों 2:5-8 हमें बताता है कि यीशु ने परमेश्वर के रूप में अपने विशेषाधिकारों और सौभाग्यों को त्याग दिया और एक सेवक बन गया, और यहां तक कि मनुष्यों के हाथों से क्रूस पर चढ़ाए जाने को भी स्वीकार करने के लिए तैयार था। हमें उस नम्रता के मार्ग में उसका अनुसरण करना है।

यीशु ने खुद को 3 चरणों में नम्र किया।
1. वह एक मनुष्य बना।
2. वह सेवक बना।
3. क्रूस पर, उसके साथ एक अपराधी की तरह व्यवहार किये जाने के लिए वह तैयार हो गया।
वहाँ हम मसीही जीवन के तीन भेद देखते हैं: नम्रता, नम्रता और नम्रता।

यीशु के पृथ्वी पर बिताए हुए 33 सालों के जीवन को देखकर स्वर्गदूत विस्मित होते होंगे कि उसने कितनी नम्रता से दूसरों की सेवा की, और धैर्यपूर्वक पीड़ा, अपमान और शारीरिक यातना सही। वे वर्षों से स्वर्ग में उसकी आराधना करने के आदी थे। लेकिन जब उन्होंने पृथ्वी पर उसके आचरण को देखा, तो उन्होंने परमेश्वर के स्वभाव के बारे में कुछ और सीखा - उसकी दीनता और नम्रता - जो उन्होंने यीशु को स्वर्ग में रहते हुए कभी नहीं देखा या समझा था। अब परमेश्वर स्वर्ग में स्वर्गदूतों को हमारे द्वारा कलीसिया में मसीह की वही आत्मा दिखाना चाहता है (जैसा कि इफिसियों 3:10 में कहा गया है)। स्वर्गदूत हम में और हमारे चालचलन में अब क्या देखते हैं? क्या हमारे आचरण से परमेश्वर की महिमा होती है?

याद रखें कि नम्रता सबसे बड़ा गुण है। नम्रता स्वीकार करती है कि हम जो कुछ भी हैं और हमारे पास जो कुछ भी है वह परमेश्वर के वरदान हैं। नम्रता हमें सभी मनुष्यों, विशेष रूप से कमजोर, असंस्कृत, मंदबुद्धि और गरीबों को महत्व और सम्मान देना सिखाती है। केवल उस नम्रता की भूमि पर ही आत्मा का फल और मसीह के गुण विकसित हो सकते हैं। इसलिए आपको निरंतर अपने आप का न्याय करते जीना चाहिए, यह सुनिश्चित करने के लिए कि कोई भी उच्च विचार या सम्मान-प्राप्ति या महिमा जो परमेश्वर को दी जानी चाहिए, कभी भी किसी भी समय आपके हृदय में प्रवेश नहीं करती है। यीशु की नम्रता पर अधिक ध्यान दें। आपके लिए यह मेरा सबसे महत्वपूर्ण उपदेश है।

यीशु ने अपने सत्तर शिष्यों से कहा, "इस बात से आनन्दित न हो कि दुष्टआत्माएं तुम्हारे वश में हैं, परन्तु इस से आनन्दित हो कि तुम्हारे नाम स्वर्ग पर लिखे गए हैं" (लूका 10:20)। हमें इसमें आनन्दित नहीं होना चाहिए: (1) हम क्या हैं; (2) हमने क्या किया है; या (3) हम क्या कर सकते हैं। परन्तु हमें इसमें आनन्दित होना चाहिए: (1) प्रभु कौन है; (2) प्रभु ने क्या किया है; और (3) प्रभु क्या करेगा। जब हम उस पर आनन्दित होते हैं जो हम करने में सक्षम होते हैं, तो हम स्वयं महिमा प्राप्त करते हैं और यह हमें अन्य विश्वासियों से श्रेष्ठ बनाता है। यह फरीसीवाद है। तब हम "अपने हाथों के कामों से आनन्दित होते हैं" (प्रेरितों के काम 7:41) - चाहे वह काम दुष्टात्माओं को निकालना, बीमारों को चंगा करना, वचन का प्रचार करना, लेख लिखना, पहुनाई (मेहमाननवाज़ी) करना, अच्छा खाना पकाना, अच्छी तरह से कार चलाना हो, या किसी सांसारिक कार्य को उत्कृष्ट तरीके से करना आदि, अपने लिए महिमा पाने के कई तरीके हैं। लेकिन यह सब मूर्तिपूजा है। इसके बजाये, जब हम केवल परमेश्वर द्वारा किए गए कार्यों में आनन्दित होते हैं, यह हमें विनम्र रखता है, और हम अन्य सभी विश्वासियों के साथ समान स्तर पर हैं, और इस प्रकार मसीह की देह का निर्माण किया जा सकता है।