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पौलुस ऐसी पवित्रता की बात करता है जो किसी तरह के "सम्मोहन का भ्रम" नहीं है (इफि. 4:24 जेबी. फिलिप्स अनुवाद)। यह कोई मसीही धर्म- सिद्धान्त सीखने से नहीं आती, लेकिन यह स्वयं यीशु में से आती है जो हमारे द्वारा उसका जीवन जीता है। ईश्वरीय भक्ति के जिस भेद की बात 1 तीमुथियुस 3:16 में की गई है, वह यीशु हमारे जैसे शरीर में आने का धर्म-सिद्धान्त नहीं है, बल्कि स्वयं यीशु का हमारे शरीर में आ जाना है। हम किसी धर्म-सिद्धान्त को देखने से नहीं बल्कि यीशु की तरफ देखने द्वारा उसकी समानता में बदलते जाएंगे (2 कुरि. 3:18 )। इसे अपने जीवन भर याद रखें।

हरेक धर्म-सिद्धान्त आपको भ्रमित कर सकता है: (1) अगर आप अपनी नज़र स्वयं प्रभु पर नहीं रखेंगे, और (2) अगर आप उन सभी से प्रेम नहीं करेंगे जो उससे प्रेम करते हैं चाहे वे किसी भी समूह में हों, या चाहे उनके - जो भी धर्म - सिद्धान्त हों। यीशु स्वयं उस कलीसिया का सिर है जो उसकी देह है। लेकिन अगर कोई धर्म - सिद्धान्त सिर बन जाता है, तब लोग फरीसी बन जाते हैं - और धर्म - सिद्धान्त जितना ज़्यादा शुद्ध होगा, वह उतने ही बड़े फरीसी पैदा करेगा। उस आराधना-गीत के शब्द याद रखें: "पहले आशिष थी, अब प्रभु है।"

हम कलीसिया की जो छवि प्रस्तुत करते हैं, वह यीशु द्वारा प्रस्तुत की गई पिता की छवि के अनुरूप होनी चाहिए, ख़ास तौर पर वह जो यूहन्ना 8:1-12 में है, जिसमें वह धार्मिक फरीसियों के विरोध में उस मन- फिराई हुई व्यभिचारी स्त्री के पक्ष में खड़ा था। यीशु ने पृथ्वी पर पवित्रता के सबसे ऊँचे मापदण्डों का प्रचार किया था, फिर भी वह सबसे बुरे पापियों के साथ मिलता-जुलता रहता था (जैसे, मरियम मगदलीनी जिसे जी उठे प्रभु को सबसे पहले देखने का विशेषधिकार मिला था)। उसने एक बार भी ऐसे पापियों की आलोचना नहीं की और न ही उन्हें उनका पिछला पापमय जीवन याद दिलाया। कलीसिया रूप में, हमारी भी यही बुलाहट है, उसी स्तर की पवित्रता का प्रचार करना जिसका प्रचार यीशु ने किया था, लेकिन फिर भी सबसे बुरे पापियों और भटके हुए विश्वासियों के प्रति (प्रेम में) सरगर्म रहना कि उन्हें प्रभु की तरफ खींचा जा सके।

हमारी कलीसिया एक अस्पताल की तरह है, जहाँ सबसे बुरी हालत में पहुँच चुके लोगों का भी स्वागत है। वे सभी चंगे हो सकते हैं। कोई पुरुष या स्त्री यह न समझे कि वह ऐसी दुर्दशा में पहुँच गया / गई है कि अब उसका कुछ नहीं हो सकता। कुछ कलीसियाएं क्लबों की तरह हैं जहाँ धनवान और आत्म-संतुष्ट लोग इकट्ठे होते हैं। लेकिन हम तो सबसे बुरे पापियों के एक लिए अस्पताल ही होना चाहते हैं।

आप पहले स्वर्ग के राज्य और उसकी धार्मिकता के खोज में लगे रहें। तब आप जो भी करेंगे उसमें सफल होंगे, और प्रभु आपकी तरफ से एक सामर्थी योद्धा की तरह लड़ेगा (यिर्म. 20:11)। मैने अपने पूरे जीवन-भर यही अनुभव किया है।

परमेश्वर के राज्य के खोजी होने का अर्थ मुख्य तौर से सुसमाचार प्रचार करने या मिशनरी काम करना नहीं है। इसका अर्थ परमेश्वर को अपने जीवन का राजा बना लेना, हर समय परमेश्वर के अधिकार के अधीन रहना और उसके स्वर्गीय मूल्यों को धन के आकर्षण, पृथ्वी के भोग-विलास, और मनुष्यों के सम्मान से बढ़कर स्थान देना है।

पहले धार्मिकता के खोजी होने का अर्थ यह लालसा करना है कि उसका स्वभाव आपके भीतरी जीवन में, और आपके बाहरी आचरण के हरेक भाग में से प्रकट हो सके।

ऐसा हो कि यह सत्य आपको जीवन भर इसकी गिरफ्त में जकड़े रहे। और जब आपके बच्चे हों, तो आप अपने बच्चों को भी यह सत्य सिखाना, कि वे भी उनके जीवनों में इसका वही नतीजा पा सकें। इस तरह इस पृथ्वी पर प्रभु के लौटने तक हमारी वंशावली में से उसकी साक्षी प्रकट होती रहेगी।