द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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इब्रानियों 5:8 में हम पढ़ते है, “पुत्र होने पर भी उसने दु:ख उठा-उठाकर आज्ञा मानना सीखा”। यीशु को आज्ञापालन सीखना पड़ा था। “सीखना” शब्द शिक्षा से सम्बंधित है। यीशु को अपनी देह में रहने के दिनों में आज्ञापालन की शिक्षा लेनी पड़ी थी। स्वर्ग में परमेश्वर के स्वरुप में, उसने किसी का आज्ञापालन नहीं किया था। अगर आपने अपने जीवन में एक काम कभी न किया हो, और फिर जब आप उसे पहली बार करते है, तो आप कुछ सीखते है। यीशु जब पृथ्वी पर मनुष्य बन कर आया, तो उसने आज्ञापालन करना सीखा। तब उसे न केवल अपने पिता का आज्ञापालन करना पड़ा बल्कि युसुफ और मरियम का भी आज्ञापालन करना पड़ा था। युसुफ और मरियम पापमय और त्रुटिपूर्ण व्यक्ति थे। उन्होने भी बाकी सभी माता-पिताओं की तरह अनेक गलतियाँ की होंगी। फिर भी यीशु ने उनकी आज्ञा का पालन किया था। यह करना मुश्किल रहा होगा। उसने अपने आज्ञापालन में पीड़ा सही थी। इसका अर्थ है कि अपने पूरे जीवन-भर उसने अपनी इच्छा का इनकार करने और पिता की इच्छा पूरी करने की पीड़ा सही। जब उसने पीड़ा द्वारा कीमत चुकाई, तब उसने आज्ञापालन करना सीखा।

आज्ञापालन के कुछ क्षेत्र आनंदायक हो सकते है। अगर आप अपने बच्चे को आइसक्रीम खाने की आज्ञा देंगे, तो उसे आज्ञापालन में बड़ा आनंद मिलेगा। उसमे उसके लिए कोई पीड़ा नहीं है। लेकिन जब वह अपने दोस्तों के साथ खेल रहा हो और आप उसे खेलना छोड़कर उसका गृहकार्य (होमवर्क) करने के लिए कहेंगे, तो आज्ञापालन पीड़ादायक हो जाती है। हमारे जीवनों में भी, ऐसे क्षेत्र होते है जहां आज्ञापालन आसान और मज़ेदार हो सकता है। हम आज्ञापालन करते है क्योंकि हम जानते है, कि वह हमारे लिए अच्छा है। लेकिन हमारे आज्ञापालन की असली परीक्षा तब होती है जब हमें वह करना पड़ता है जो हमें पसंद नहीं है, कुछ ऐसा जिसमें हमें अपनी इच्छा का इनकार करना पड़ता है, ऐसी बात जो पीड़ा पहुंचाती है। यही वह स्थान है जहाँ हमारी आज्ञाकारिता परखी जाती हैं।

यीशु ने अपने स्वयं का इनकार करने द्वारा आज्ञापालन करना सीखा था। जिस किसी बात के लिए उसके पिता ने कहा “नहीं”, तो उसके लिए उसने भी कहा “नहीं”। जिन बातों में उसने पीड़ा सही, उनमे उसने आज्ञापालन करना सीखा और उसका यह शिक्षण पूर्ण हो जाने के बाद, “वह सिद्ध ठहराया गया” (इब्रानियों 5:9)। यहाँ “सिद्ध” होने का अर्थ “पूर्ण” है। इसमें यीशु स्नातक हुआ और उसने डिग्री हासिल कर ली। हमें भी इसी डिग्री की जरूरत है। हमें भी उसकी तरह बहुत सी परीक्षाओं में सफल होना है। अगर हम किसी परीक्षा में निष्फल हो जाते है तब क्या होगा? हमें वह परीक्षा दोबारा देनी पड़ती है। जब हम अपनी सारी परीक्षाओं में सफल होते है, उसके बाद ही हमें डिग्री प्राप्त होती है। तब हम जयवंत होते है। यह सबसे बड़ी डिग्री है जिसे हम अपने जीवन में प्राप्त कर सकते है। इसकी तुलना में, बाकी सभी डिग्रियां कूड़ा-करकट है। जब यीशु कहता है, “मेरे पीछे आओ”, तो वह हमें वह कार्य करने को कह रहा है जिसने उसे हमारे उद्धार का मुखिया हो कर किया है। वह हमसे कभी किसी ऐसी परीक्षा का सामना करने के लिए नहीं कहेगा जिसका सामना उसने नहीं किया हो। इसलिए हम हियाव बांधकर अनुग्रह के सिंहासन के पास जाएँ, और हमारी शिक्षा पूर्ण करने के लिए अनुग्रह प्राप्त करें। अगर हमें पीड़ा सहना पड़े, तो हम सहेंगे। परंतु हमने यह ठान लिया है कि हम आज्ञाकारिता को सीखेंगे और अपने शिक्षण को पूर्ण करेंगे।

इब्रानियों की पत्री 5: 9 में हम पढ़ते है, “वह सिद्ध ठहराया जाकर उन सबके लिए जो उसकी आज्ञा का पालन करते, अनंत जीवन का स्रोत बन गया है”। यीशु आज्ञापालन के इस महाविद्यालय का प्राध्यापक (प्रोफेसर) बन गया है। वह इस कॉलेज में सबसे निचले स्तर से सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंचा और उसने सब बातों में आज्ञापालन किया। परमेश्वर के सेवक होते हुए, अब हमें आज्ञापालन के इस कॉलेज में व्याख्याता (लेक्चरर) होने के लिए बुलाया गया है। पीड़ा द्वारा आप जितना आज्ञापालन सीखेंगे, आप प्रभु के उतने ज्यादा ऐसे सच्चे सेवक बनेंगे जो दूसरों की आज्ञापालन की ओर अगुवाई करेंगे। केवल यह ही सच्ची मसीही सेवकाई है।