द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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हम सभी प्रतिदिन जिन परीक्षणों का सामना करते है, यीशु ने भी उन्हीं बातों का सामना किया था (इब्रानियों 4:15)। उसकी भी वही सीमाएं थी जो हमारी है, फिर भी वह जयवंत हुआ – क्योंकि जब कभी वह प्रलोभित हुआ तब “उसने धार्मिकता से प्रेम और बुराई से बैर किया, उसने मदद के लिए पिता को पुकारा” (इब्रानियों 1:9; 5:7)। जिस तरह से पवित्र आत्मा ने यीशु की मनुष्य रहते हुए सहायता की उसी तरह वह आपकी भी सहायता करेगा।

इस बारे में अक्सर सोचे कि एक युवक के रूप में यीशु ने प्रलोभनों का सामना कैसे किया। सभी युवाओं को जिन प्रलोभनो के आकर्षण का सामना करना पड़ता है, यीशु को भी उनका सामना बिलकुल उसी तरह ही करना पड़ा था। परीक्षणों पर जय पाना उसके लिए आसान नहीं था। असल में, वह ज़्यादा मुश्किल रहा होगा, क्योंकि उसका स्वभाव पूरी तरह से शुद्ध होने की वजह से प्रलोभन उसके लिए ज़्यादा घृणास्पद रहे होंगे- और इस वजह से इन प्रलोभनों का खिंचाव हमारे लिए जितना मज़बूत था, उससे कहीं ज़्यादा यीशु के लिए रहा होगा। और फिर भी उसने जय पाई।

और अब प्रलोभन के ख़िलाफ़ इस रस्सा-खींच प्रतियोगिता में यीशु आपकी तरफ़ है – और वह आपकी मदद करने के लिए तैयार खड़ा है। शत्रु का मूल-स्तम्भ (जिसकी कमर में रस्सा बंधा है), घमंड नाम का भारी भरकम खिलाड़ी है। उसके साथ स्वार्थ नाम का दूसरा वज़नदार खिलाड़ी है। लेकिन परमेश्वर आपकी मदद करेगा कि बाक़ी दूसरे पापों के साथ आप इन दोनों को भी खींच लाए – और आप जय पाएंगे। प्रभु की स्तुति हो!

यहाँ एक ऐसी प्रतिज्ञा है जिसे आप विश्वास से थामे रह सकते हैं: “यीशु तुम्हें ठोकर खाने से बचा सकता है” (यहूदा 24)। हमें विश्वास में भी ऐसे ही चलना सीखना पड़ता है जैसे हम शारीरिक रूप में चलना सीखते हैं। शुरू में हम बहुत बार गिरेंगे, जैसे एक बच्चा बार-बार गिरता है। लेकिन जैसे-जैसे आप कोशिश करके आगे बढ़ते रहेंगे, आप का गिरना कम होता जाएगा। अंततः आप फिर शायद ही कभी गिरेंगे, हालाँकि ऐसा समय कभी नहीं आएगा जिसमें एक सबसे महान संत भी यह कह सके कि अब वह कभी नहीं गिरेगा।

जब आप गिरते है तो यह हो सकता है कि आप अपने गिरने को “पाप” कहने की बजाय उसे किसी दूसरे ही नाम से पुकारने की परीक्षा में पड़ जाएं। यह एक ख़तरनाक बात है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो अपने पापों की व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी से बचने के लिए अपने पाप को ‘गलती’ या ‘भूल’ आदि के नाम से सम्बोधित करते हैं। वे तो रोमियों 7:17 को उसके संदर्भ से बाहर ले जाकर उसका भी हवाला देते हैं कि “ऐसी दशा में उसका करनेवाला मैं नहीं बल्कि पाप है जो मुझमें बसा हुआ है”, और इस तरह वे अपने प्रत्यक्ष पापों के लिए कोई बहाना बना सके। ऐसे रास्ते में आगे बढ़ना ख़तरनाक है। इससे बचें, वरना आप भी ऐसे लोगों की तरह ही अपने आप को धोखा देने वाला जीवन जीने लगेंगे। अगर हम अपने पापों को मान लेंगे तो परमेश्वर हमारे पापों को क्षमा करने और हमें शुद्ध करने में विश्वासयोग्य है (1 यूहन्ना 1:9)। लेकिन अगर हम अपने पापों को “भूल” कहेंगे, तब उनसे शुद्ध किए जाने की कोई प्रतिज्ञा नहीं है। यीशु का लहू सिर्फ़ पापों को शुद्ध करता है। इसलिए आप जब भी पाप में गिरे तो ईमानदार रहे। उसे “पाप” कहें, उससे मन फिरा ले, उससे घृणा करे, उसे त्याग दे, परमेश्वर के सम्मुख उसका अंगीकार कर ले – और फिर उसके बारे में भूल जाए, क्योंकि वह मिटा दिया गया है।

स्वभाव के भीतरी पाप, अक्सर क्रिया के बाहरी पापों से ज़्यादा गंभीर होते हैं क्योंकि उन्हें पहचानना आसान नहीं होता। यहाँ स्वभाव के कुछ पाप है: घमंड, आलोचना करनेवाला स्वभाव, कड़वाहट, ईर्ष्या, भीतरी तौर पर दूसरों का न्याय करना (सुनी और देखी हुई बातों के आधार पर – यशायाह 11:3), अपना हित चाहना, स्वार्थ, फरीसीवाद, आदि।

अगर एक विश्वासी पाप पर जय पाने पर प्रचार करता है, लेकिन अगर वह दूसरों को नीची या तुच्छ नज़र से देखता है, तो उसे इस बात का एहसास ही नहीं है कि उसने अभी तक सबसे बड़े पाप – आत्मिक घमंड पर जय नहीं पाई है। दूसरों को तुच्छ जानना लगातार व्यभिचार करने जैसा है। और ऐसे विश्वासी के लिए पाप पर जय पाने के बारे में बात करना बिलकुल ही बेतुकी बात है! आप आत्मिक तौर से जितना बढ़ेंगे, आप उतने ही पवित्र बनते जाएंगे और आप पाप पर जितना अधिक जय पाएंगे आप उतने ही ज़्यादा नम्र और दीन होते जाएंगे। यह असली पवित्रता का सबसे प्राथमिक सबूत है। एक फलदार पेड़ की जिन डालियों में फल लगे होते हैं वे सबसे ज़्यादा झुकी हुई होती है।

अनेक लोग मानवीय आत्म-संयम को “ईश्वरीय स्वभाव में सहभागी होना” समझ लेते हैं। मानवीय आत्म-संयम एक बाहरी सुधार कर सकता है। लेकिन यह भीतरी मनुष्य को अहंकारी, घमंडी और स्वभाव में फरीसी बना देता है। हमें परमेश्वर का अनुग्रह पाने और पाप पर जय पाने के लिए बुलाया गया है – और जो हमें सेंत-मेंत मिला हो हम उस पर कभी घमंड नहीं कर सकते। हम सिर्फ़ उसी बात पर गर्व कर सकते हैं जिसकी रचना हमने स्वयं की हो, और जिस पवित्रता की रचना हमने स्वयं की होगी, वह हमेशा ही एक नक़ली पवित्रता होगी।

आपको जिस ईश्वरीय स्वभाव में सहभागी होने के लिए बुलाया गया है, वह प्रेम है। परमेश्वर कृतघ्‍न और दुष्ट लोगों के प्रति भी दयालु और भला है और वह धर्मियों और अधर्मियों दोनों पर सूर्य उदय करता है (मत्ती 5:46 -48)। आपको भी इसी उदाहरण का अनुसरण करना चाहिए। सभी से प्रेम करें – चाहे वे आपसे सहमत हो या न हो। सभी विवादास्पद चर्चा और बहस से दूर रहें – वैसे ही जैसे आप किसी घातक बीमारी से दूर रहना चाहेंगे। अगर आपके आस-पास के लोग किसी विषय पर आपसे बहस करना चाहे, तो उनसे प्रेम-पूर्वक कह दे कि आप सभी विवादास्पद बातों से दूर रहना चाहते है। अपने पूरे हृदय से प्रेम में सिद्ध होने की खोज में रहें।