द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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नई वाचा यह सिखाती है कि अगर एक मनुष्य को उद्धार पाना है, तो पहले उसे मन फिराना है। मन-फिराव का अर्थ है कि जीने के हमारे पुराने तरीक़े से मुड़ जाना। इसका अर्थ शराब पीने या जुआ खेलने जैसी कुछ बुरी आदतों को छोड़ देने से बहुत बढ़कर है। हमारा पुराना जीवन स्व-केन्द्रित जीवन है, और मन फिराने का अर्थ यह कहना है, “प्रभु, मैं स्वयं अपने आपमें केन्द्रित रहते हुए थक चुका हूँ, इसलिए अब मैं तेरी तरफ़ फिरना और तुझमें केन्द्रित रहना चाहता हूँ”

यीशु हमें पाप से बचाने के लिए आया। दूसरे शब्दों में, वह हमें स्व-केंद्रियता से बचाने के लिए आया। नई वाचा में ‘पाप’ शब्द की जगह 'स्व-केंद्रियता' को रखकर देखें, और फिर देखें कि बाइबल के अनेक भागों में से क्या अर्थ सामने आता है। “पाप तुम पर प्रभुता नहीं करेगा” बदल कर “स्व-केंद्रियता तुम पर प्रभुता नहीं करेगा” हो जाता है (रोमियो 6:14)। परमेश्वर की उसके लोगों के लिए यही इच्छा है। फिर भी, अगर हम अपने जीवन को जाँचे, तो हम पाएंगे कि हमारी सबसे पवित्र अभिलाषाओं में भी स्व-केंद्रियता मौजूद होती है। अगर हम पवित्र आत्मा की सामर्थ को हमें एक महान प्रचारक या एक महान चंगाई देने वाला आदि बनाने के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं, तब परमेश्वर से यह कहना भी एक स्व-केन्द्रित अभिलाषा होगी कि वह हमें उसके पवित्र आत्मा से भर दें। यह उतनी ही स्व-केंद्रित अभिलाषा है जैसे संसार में महान होने की अभिलाषा होती है। क्या आपको यह नज़र आ रहा है कि सबसे पवित्र जगहों में भी पाप कैसे प्रवेश कर जाता है?

यही वजह है कि यीशु ने सबसे पहले पवित्र-आत्मा से भरे जाने के लिए नहीं, बल्कि यह प्रार्थना करना सिखाया कि परमेश्वर का नाम पवित्र माना जाए (मत्ती 6:9, लूका 11:2)। सिर्फ़ एक ऐसा व्यक्ति ही इस प्रार्थना को पूरी ईमानदारी के साथ कर सकता है जो एक सच्चे रूप में आत्मिक व्यक्ति है। यह सच है कि इस प्रार्थना को कोई भी दोहरा सकता है। एक तोता भी ऐसा कर लेगा। लेकिन अपने हृदय की गहराइयों में से इसे एक सार्थक रूप में करने के लिए, पूरी भक्ति के साथ परमेश्वर को समर्पित होने की ज़रूरत होगी जहाँ वह हमारे जीवन में प्रथम स्थान पर होगा, जहाँ हम उसमें केंद्रित होंगे, और जहाँ हम उसकी आशीषों से ज़्यादा स्वयं उसे चाहने वाले होंगे। अगर वह हमें उसके दान-वरदान देता है, तो वह एक भली बात है; लेकिन अगर वह हमें उसके दान-वरदान नहीं भी देता, तो हमारे लिए वह भी भला है, क्योंकि हम स्वयं परमेश्वर को चाहते हैं, उसके दान-वरदानों को नहीं। परमेश्वर ने इस्राएलियों को यह क्यों सिखाया कि वे उससे उनके सारे हृदय से प्रेम करें और उनके पड़ोसियों से अपने समान प्रेम करें? सिर्फ़ उन्हें उनकी स्व-केंद्रियता से मुक्त करने के लिए।

JOY (जे. ओ. वाय.) शब्द का एक परिवर्णि काव्य है (ऐसे शब्द जिनके पहले अक्षर से एक नई शब्द रचना होती है)। J – (Jesus) यीशु को पहले स्थान पर रखें, O – (Others) दूसरों को उसके बाद रखें और Y – (You) अपने आपको सबसे अंत में रखें। तब आपको (JOY) आनंद प्राप्त हो सकता है। परमेश्वर हमेशा आनंद से भरा रहता है। स्वर्ग में कोई दुख या चिंता नहीं है क्योंकि वहाँ सब कुछ परमेश्वर में केन्द्रित है। वहाँ स्वर्गदूत हमेशा आनंद मनाते रहते हैं क्योंकि वे हमेशा परमेश्वर में केन्द्रित रहते हैं। अगर आज हममें आनंद, शांति और बहुत से दूसरे आत्मिक गुणों की कमी है, तो उसकी वजह यह है कि हमने अपना उचित केंद्र नहीं पाया है। हम अपने उद्देश्य पूरे करने के लिए परमेश्वर का इस्तेमाल करते हैं। और हमारी प्रार्थना भी कुछ इस तरह की बन जाती है, “प्रभु, कृपया मेरे व्यवसाय को समृद्ध होने दें .....मुझे अपनी नौकरी में पदोन्नति पाने में मदद करें .....कृपया मुझे एक बेहतर घर प्राप्त करने में मदद करे .....” इत्यादि। हम चाहते हैं कि परमेश्वर हमारा सेवक बन जाए और वह पृथ्वी पर हमारे जीवनों को आरामदायक बनाने में हमारी मदद करे– बिलकुल अल्लादिन के चिराग के जिन्न की तरह!

अनेक विश्वासी इसी तरह के परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं – ऐसा परमेश्वर जो उन्हें इस संसार में आगे बढ़ाने और फ़ायदे पहुँचाने का एक ज़रिया हो। लेकिन नई वाचा का परमेश्वर वह नहीं है जो आपको ओलंपिक्स में 100 मीटर की दौड़ जीतने या किसी व्यापारिक सौदे में आपके प्रतियोगी को हराने में मदद करे। हमारी प्रार्थनाए यह प्रकट करती है कि हम कितने स्व-केन्द्रित होते हैं।

बाइबल कहती है “परमेश्वर में आनंदित रहो, तब वह तेरे सब मनोरथों को पूरा करेगा” (भजन 37:4)। परमेश्वर में आनंदित रहना परमेश्वर को अपने जीवन के केन्द्र स्थान में रखना है। इस तरह, सिर्फ़ एक परमेश्वर-केन्द्रित व्यक्ति ही उसके हृदय की सारी अभिलाषाओं को पूरा होता हुआ पाएगा। “जो खरी चाल चलते हैं (अर्थात उनसे जिनके सिर अर्थात् मन ऊपर की ओर लगे है - जिनके पास उसंके जीवन को नियंत्रित करने वाला परमेश्वर है) परमेश्वर उनसे कोई भी अच्छी वस्तुएँ नहीं रख छोड़ेगा (भजन 84:11)“एक धर्मी-जन की प्रभावशाली प्रार्थना से बहुत कुछ हासिल हो सकता है” – क्योंकि एक धर्मी-जन परमेश्वर-केन्द्रित व्यक्ति होता है (याकूब 5:16)। इसके विपरीत, एक स्व-केन्द्रित व्यक्ति की उत्साही प्रार्थना, चाहे वह पूरी रात भी प्रार्थना क्यों न करें, कुछ हासिल नहीं कर सकती। हम जिस तरह का जीवन जीते हैं, वही हमारे द्वारा की जाने वाली प्रार्थना का मूल्य तय करता है।

इस वजह से ही हमारे जीवन की पहली तीन इच्छाएँ यही होनी चाहिए: “हे पिता, तेरा नाम पवित्र माना जाएगा। तेरा राज्य आए। तेरी इच्छा पूरी हो"(मत्ती 6:9,10)। हमारे और भी बहुत से निवेदन हो सकते है, जैसे “मेरे पीठ के दर्द को चंगा करें, मुझे रहने के लिए एक अच्छा घर ढूंढने में मदद करें, मेरे बेटे को नौकरी पाने में मदद करें” इत्यादि। ये सब अच्छे प्रार्थना-निवेदन है। लेकिन अगर आप यह कह सके, “पिता, अगर तू मेरी इन प्रार्थनाओं के उत्तर न भी दे, तो भी मेरी प्रमुख इच्छा यही है कि तेरा नाम महिमा पाएं” – तब आप वास्तव में एक आत्मिक व्यक्ति है।