द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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प्रार्थना सिर्फ परमेश्वर से बोलना नहीं बल्कि परमेश्वर की सुनना भी है। और परमेश्वर से बात करने से ज्यादा महत्वपूर्ण सुनना है। इस बात पर विचार करें: अगर आप एक ज़्यादा ईश्वर-भक्त और बड़ी उम्र वाले व्यक्ति से फोन पर बात करेंगे, तब आप बोलने से ज्यादा सुनने का काम करेंगे। सच्ची प्रार्थना में भी ऐसा ही होना चाहिए - यह ज़रूरी है कि आप परमेश्वर से जितना अधिक बात करते हो, उससे कहीं अधिक तुम्हें परमेश्वर की बात सुननी चाहिए।

अगर आपकी कुछ करने में बहुत दिलचस्पी होगी, तो आप अपने आपको आसानी से यह धोखा दे सकते हैं कि वह परमेश्वर की इच्छा है, और यह आप इस तरह करेंगे कि “अपने विवेक को शांत करने के लिए थोड़ी देर" प्रार्थना करेंगे, और फिर यह कहते हुए कि उसे करने के लिए “आप अपने हृदय में शांत हैं" - आगे बढ़कर उसे कर लेंगे! इस तरह आप परमेश्वर की इच्छा जानने से पूरी तरह चूक सकते हैं। याद रखें: आपको जितना ज्यादा महत्वपूर्ण फैसला करना होगा, उसमें आगे बढ़ने से पहले उतना ही ज़्यादा परमेश्वर के सम्मुख इंतज़ार करना होगा।

शरीर मूल रूप में आलसी होता है, भोग-विलास से प्रेम करता है, और सुख-सुविधाओं को चाहता है। इससे धोखा न खाएं। जब आप परमेश्वर की इच्छा को खोजने की कोशिश करते हैं, तो आपको अपनी इंद्रियों के माध्यम से आपके पास आने वाली हर बात को मना करना चाहिए। आपकी सोच-समझ और परमेश्वर के विचारों में इतना ही फर्क है जितना कि ज़मीन और आसमान में फर्क है (यशा. 55:8,9)। परमेश्वर के काम करने के तरीके आपके तरीकों से बहुत श्रेष्ठ हैं। इस वजह से ही परमेश्वर यह चाहता है कि आप उसके अधीन हो जाएं कि ताकि आप उसका सर्वश्रेष्ठ पा सकें।

शायद आपको प्रार्थना करने के लिए ज़्यादा समय न मिल सके। लेकिन अपने फैसलों के संबंध में आपका यह मनोभाव होना चाहिए कि आप प्रभु की बाट जोहने वाले हों। इसलिए परमेश्वर के साथ कुछ मिनटों का समय बिताने के लिए अपने आपको अनुशासित करें - जिसके लिए सुबह सबसे अच्छा समय होता है। अगर सुबह सम्भव न हो सके, तो दिन में किसी भी समय। अन्यथा, आपको प्राप्त होने वाले प्रभाव आपको आपके जीवन के लिए परमेश्वर की इच्छा से भटका सकते हैं।

परमेश्वर आपसे प्रतिदिन बात करना चाहता है। बाइबल के पहले ही पृष्ठ से हमें यह संदेश मिलता है, "पहले दिन, परमेश्वर ने बोला... दूसरे दिन, परमेश्वर बोला... तीसरे, चौथे, पाँचवें, और छठे दिन परमेश्वर बोला..."। और परमेश्वर के बोलने से हरेक दिन कुछ हुआ था, और उसका जो अंतिम परिणाम हुआ वह "बहुत अच्छा " था। अगर आप प्रतिदिन परमेश्वर को बोलता हुआ सुनेंगे, तो आपके जीवन के साथ भी ऐसा हो सकता है। यीशु ने कहा, "मनुष्य सिर्फ रोटी ही जीवित नहीं रहेगा, बल्कि हरेक उस शब्द से परमेश्वर के मुख से निकलता है" (मत्ती 4:3 )। अगर आप परमेश्वर को अपने जीवन में प्रथम स्थान नहीं देंगे, तो बहुत आसानी से विश्वास से भटक जाएंगे।

“परमेश्वर की सुनने” से मेरा मतलब बाइबल पढ़ने से नहीं है, बल्कि अपने विवेक में पूरे दिन पवित्र आत्मा की आवाज़ को सुनते रहना कि आप वह कर सकें जिससे परमेश्वर प्रसन्न होता है, और उससे बचें जिससे परमेश्वर अप्रसन्न होता है।

परमेश्वर हमेशा हमारी प्रार्थनाओं का जवाब देना चाहता है। लेकिन हमें एक उत्तर के लिए ईमानदारी से उसकी प्रतीक्षा करनी चाहिए। कभी-कभी उसका उत्तर 'नहीं' हो सकता है। कभी-कभी यह "रुको" हो सकता है। लाल, पीले और हरे रंग की ट्रैफिक लाइट की तरह, परमेश्वर का जवाब "नहीं", "रुको" या "हां" हो सकता है।