अगर कोई व्यक्ति पवित्र होने का दावा करता है, लेकिन स्वयं पवित्र प्रेम व्यक्त नहीं करता, तो उसकी पवित्रता असली न होकर फरीसी 'धार्मिकता' है। वहीं दूसरी तरफ, जो लोग पवित्रता और धार्मिकता में नहीं रहते और सभी के लिए अत्यधिक प्रेम का दावा करते हैं, वे भी अपनी अर्थहीन भावुकता को पवित्र प्रेम समझकर धोखा खा जाते हैं।
फ़रीसियों की 'धार्मिकता' कठिन और बेजान थी बिल्कुल हड्डियों के कंकाल की तरह – दुष्कर और घृणित। उनके पास जो कुछ भी सत्य था, वह पूरी तरह से भद्दा और बनावटी था। फरीसियों की तुलना में यीशु के पास जो सम्पूर्ण सत्य था, वह प्रत्येक स्थिति में परमेश्वर की आज्ञाकरिता के प्रति खरा था। उसमें केवल हड्डियाँ नहीं थी बल्कि उसकी हड्डियाँ मांस से ढकी हुई थीं, जैसा कि परमेश्वर ने मनुष्यों से चाहा था कि - सत्य प्रेम से ढँका रहे। उसने सत्य बोला, लेकिन उसने इसे प्रेम से बोला (इफिसियों 4:15)। उसके शब्दों में अधिकार था, लेकिन वे शब्द अनुग्रहपूर्ण भी थे (लूका 4:22, 36)।
यह वही स्वभाव है जिसके द्वारा पवित्र आत्मा हमसे संवाद करना और जिसे हमारे माध्यम से प्रकट करना चाहता है।
परमेश्वर प्रेम है। ऐसा नहीं है कि वह केवल प्रेम का दिखावा करता है। वह अपनी सम्पूर्णता में हमसे प्रेम करता है। यीशु में देखी गई परमेश्वर की महिमा इसे स्पष्ट रूप से प्रकट करती है। यीशु ने केवल प्रेम का दिखावा नहीं किया बल्कि वह "भलाई के काम” करता रहा (प्रेरितों 10:38)। लेकिन ऐसा इसलिए था क्योंकि परमेश्वर का प्रेम उसके पूरे अस्तित्व में व्याप्त था।
प्रेम की शुरुआत जैसे कि पवित्रता और विनम्रता, हमारे आंतरिक मनुष्यत्व में होती हैं। आत्मा से भरे मनुष्य के भीतरी अस्तित्व से ही जीवन की नदियाँ बहती हैं (यूहन्ना 7:38, 39)। हमारे विचार ही हमारे दृष्टिकोण (भले ही कभी व्यक्त न किए गए हों) शब्दों, कार्यों और हमारे व्यक्तित्व को एक गंध देते हैं और दूसरे लोग इस गंध को आसानी से पहचान सकते हैं। प्रेम के शब्द और कार्य कुछ भी मायने नहीं रखते, अगर दूसरों के प्रति हमारे विचार और दृष्टिकोण स्वार्थी और आलोचनात्मक हों। परमेश्वर "भीतरी सत्यता" चाहता है (भजन 51:6)।
यीशु ने सम्पूर्ण मानवता को महत्व दिया और इसलिए उन्होंने सभी मनुष्यों का आदर किया। ईश्वरीय, सुसंस्कृत और बुद्धिमान लोगों का सम्मान करना आसान है। हम यहाँ तक भी सोच सकते हैं कि जब हम मसीह में अपने सभी साथी-विश्वासियों से प्रेम करते हैं तो हम महान ऊँचाइयों को प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन परमेश्वर की महिमा यीशु में सभी मनुष्यों के प्रति प्रेम में देखी गई। यीशु ने कभी किसी को उसकी गरीबी, अज्ञानता, कुरूपता या सांस्कृतिक अभाव के कारण तुच्छ नहीं समझा। उन्होंने विशेष रूप से यह कहा कि पूरी दुनिया और उसमें मौजूद सभी चीजें उतनी मूल्यवान नहीं हैं जितना की मनुष्य का प्राण (मरकुस 8:36)। इसी तरह से उसने मनुष्यों को महत्व दिया और इसलिए वह सभी मनुष्यों से आनंदित भी था। उसने लोगों को शैतान द्वारा भरमाये जाने और बाँधते हुए देखा; और उसने उन्हें मुक्त करने के लिए तरस खाया।
यीशु ने देखा कि लोग वस्तुओं से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे। वह मनुष्यों से इतना प्रेम करता था कि वह पूरी तरह से उनके साथ जुड़ गया, और उन्हें महसूस कराया कि वह महत्वपूर्ण हैं। उसने उनके बोझ को स्वयं उठाया और दबे हुओं के लिए दयालुता के शब्द कहे, और जीवन की लड़ाई में हारे हुए लोगों के लिए प्रोत्साहन के शब्द कहे। उसने कभी किसी मनुष्य को बेकार नहीं समझा चाहे वे अधूरे या असभ्य ही क्यों न हों, क्योंकि वहाँ कई ऐसे लोग थे जिन्हें छुटकारा देने की आवश्यकता थी।
वहीं दूसरी ओर, वस्तुएं उसके लिए बिल्कुल भी मायने नहीं रखती थीं। भौतिक चीजों का तब तक कोई मूल्य नहीं है जब तक कि उनका उपयोग दूसरों के लाभ के लिए न किया जाए। कोई कल्पना कर सकता है कि अगर किसी पड़ोसी का बच्चा यीशु की बढ़ई की दुकान में चला जाता और कोई महंगी चीज तोड़ देता, तो इससे यीशु को किसी भी तरह से परेशानी नहीं होती, क्योंकि यीशु के लिए बच्चा टूटी हुई चीज से कहीं अधिक मूल्यवान और महत्वपूर्ण है। वह लोगों से प्यार करता था, चीजों से नहीं। वस्तुओं का इस्तेमाल लोगों की मदद के लिए किया जाना चाहिए।
पवित्र आत्मा हमारे दिमाग को दुबारा से नया कर देता है ताकि हम "चीजों को परमेश्वर के दृष्टिकोण से देख सकें" (कुलुस्सियों 1:9 - फिलिप्स)। किसी व्यक्ति से प्रेम करने का अर्थ है उसे वैसे देखना जैसे परमेश्वर उसे देखता है - करुणा के साथ।
परमेश्वर अपने लोगों पर गाकर आनन्दित होता है (सपन्याह 3:17)। और चूँकि यीशु परमेश्वर की आत्मा से भरा हुआ था, इसलिए उसने अपने बच्चों पर अपने पिता के आनन्द को साझा किया। ऐसा ही उन सभी के साथ भी होगा जिनके मन लोगों को परमेश्वर के दृष्टिकोण से देखने के लिए नए हो गए हैं। यीशु ने दूसरों के बारे में जो विचार किया वे हमेशा से प्रेम से भरे थे – लोगों के अपरिचित होने या उनकी असभ्यता के कारण उसने कभी भी उनके बारे में गलत विचार नहीं किया। इसलिए लोग उसकी आत्मा की मीठी सुगंध को पहचान पाए, "और आम लोगों ने उसे आनंद के साथ सुना" (मरकुस 12:37 – के.जे.वी.)। यही वह प्रेम है जो परमेश्वर हमारे दिल में भर देता है जब हम पवित्र आत्मा से भरे होते हैं (रोमियों 5:5)।