WFTW Body: 

“टूटा मन परमेश्वर के योग्य बलिदान है; हे परमेश्वर, तू टूटे और पिसे हुए मन को तुच्छ नहीं जानता” अर्थात् अपने निकम्मेपन और लाचारी का अहसास (भजन. 51:17 )। हाबिल के पास यह भेंट थी जो कैन के पास नहीं थी। और यही वजह है कि यह लिखा है, "प्रभु ने हाबिल और उसकी भेंट को तो ग्रहण किया, लेकिन (इस वजह से) कैन और उसकी भेंट को ग्रहण नहीं किया" (उत्पत्ति 4:4,6)

विश्वास का अर्थ परमेश्वर के ऊपर हमारे जीव की असहाय निर्भरता है और इसी के द्वारा “हाबिल ने परमेश्वर के लिए कैन से उत्तम बलिदान चढ़ाया” (इब्रानियों 11:4)। इसलिए हाबिल की भेंट परमेश्वर को स्वीकार्य हुई।

यह विचार बड़ा भ्रामक है कि हाबिल और कैन की भेंटों में यह फर्क था कि हाबिल ने लहू की भेंट चढ़ाई थी और कैन ने लहू नहीं चढ़ाया था। इस विचार में यह शिक्षा है कि एक व्यक्ति को परमेश्वर के सम्मुख जो बात स्वीकार्य बनाती है, वह उसका परमेश्वर के सामने यीशु का लहू प्रस्तुत करना है। यह ऐसा कहना है कि मानो उस व्यक्ति के हृदय की दशा (कि वह टूटा हुआ है या नहीं, उसमें विश्वास है या नहीं) कोई फर्क नहीं पड़ता। वह सिर्फ यीशु के लहू की दुहाई देता है मानो वह कोई जादूई ताबीज़ है, और परमेश्वर उसे ग्रहण कर लेता है। यह एक झूठ है और बहुत लोग इससे भरमाए जा रहे हैं।

यीशु के लहू पर सभी या कोई भी दावा नहीं कर सकता। बाइबल यह नहीं कहती कि यीशु का लहू किसी के भी या सभी के पाप धो सकता है। नहीं, यह वचन को चालाकी से तोड़ना - मरोड़ना है। पवित्र - शास्त्र जो कहता है वह यह है कि यीशु का लहू उन सबको शुद्ध करता है जो “उसी तरह ज्योति में चलते हैं जैसे परमेश्वर स्वयं ज्योति में है" (1 यूहन्ना 1:7)। परमेश्वर की ज्योति में चलने के लिए यह ज़रूरी है कि एक व्यक्ति का ऐसा टूटा और पिसा हुआ हृदय हो जैसा हाबिल का था। सिर्फ तभी एक व्यक्ति की भेंट स्वीकार की जाएगी।

अगर एक व्यक्ति कहता है कि वह यीशु के लहू में विश्वास करता है, लेकिन उसमें एक घमण्डी और अहंकारी आत्मा है, तो परमेश्वर उससे दूर रहेगा और उसका विरोध करेगा (1 पतरस 5:6), जैसे उसने कैन का किया। सिर्फ दीन व्यक्ति ही अनुग्रह पाता है (याकूब 4:6 )।

हमारी आराधना, प्रार्थना और सेवा परमेश्वर को सिर्फ तभी स्वीकार्य होती हैं जब वे एक टूटे और पिसे हुए विश्वासी हृदय (परमेश्वर पर दीनता से भरी निर्भरता) में से आती हैं। यह हमारा निपुण बोलना या सेवा में कुशलता नहीं है जिसे परमेश्वर देखता है, बल्कि वह हमारे हृदय की दशा को देखता है। यह पहला पाठ है जो हम उत्पत्ति 4 से सीख सकते हैं।

कैन और हाबिल के समय से लेकर समय के अंत तक, परमेश्वर को ग्रहणयोग्य बलिदान हमेशा से एक टूटा और पिसा हुआ हृदय ही रहा हैं। परमेश्वर बदलता नहीं है। उसके नियम वही रहते हैं।

परमेश्वर ने कैन को तब भी स्वीकार न किया होता अगर कैन एक मेमना लाकर उसके लहू की भेंट चढ़ा देता क्योंकि उसका हृदय घमण्ड से भरा और फूला हुआ था।

मन की दीनता उद्धार का पहला कदम है। तब फिर हम ज्योति में आ सकते हैं और मसीह के लहू को हमें सब पापों से शुद्ध करने के लिए कह सकते हैं।

जो मन के दीन हैं सिर्फ वही पौलुस का जयघोष कर सकते हैं, “अगर परमेश्वर हमारी ओर है, तो हमारे विरोध में कौन हो सकता है" (रोमि 8:31) क्योंकि परमेश्वर हमेशा उनकी ओर रहता है जो मन के दीन हैं। घमण्डी यह नहीं कह सकते क्योंकि परमेश्वर उनके विरोध में होता है। जिस किसी में भी उसके स्वयं के बारे में ऊँचे विचार हैं, जैसे कैन में थे, उसका अंत भी कैन जैसा ही होगा, चाहे वह यीशु के लहू की कितनी भी दुहाई देता रहे। “धोखा न खाओ, परमेश्वर ठट्ठों में नहीं उड़ाया जाता, क्योंकि जैसा बोओगे, वैसा काटोगे" (गलातियों 6:7 )। और यह कानून वैश्विक स्तर पर सब पर लागू होता है, इसमें कोई भेदभाव नहीं होता।