अंत के दिनों में हमारे सामने सबसे बड़ा ख़तरा यह है कि इन दिनों में लोग “भक्ति का वेश तो धारण करेंगे, लेकिन उसकी शक्ति से इनकार करेंगे" (2 तीमु. 3:5)। हमारे पास जो दान वरदान और योग्यताएं हैं, उनसे हम आसानी से संतुष्ट हो सकते हैं। जैविक शक्ति अपने आपको बौद्धिक शक्ति, भावनात्मक शक्ति और इच्छा शक्ति में प्रदर्शित करती है। लेकिन इनमें से कोई भी वह ईश्वरीय शक्ति नहीं है जो मसीह और पवित्र आत्मा हमें देने आए हैं।
बौद्धिक शक्ति को वैज्ञानिकों, विद्वानों और चतुर प्रचारकों में देखा जा सकता है। भावनात्क शक्ति को गीत-संगीत के सितारों में, और प्रचारकों में भी देखा जा सकता है। इच्छा शक्ति को योगा के निष्णातों और कुछ तपस्वियों में देखा जा सकता है - और कुछ ऐसे प्रचारकों में भी जो अपने व्यक्तित्व द्वारा दूसरों पर राज करना चाहते हैं। हमें इन तीनों में से किसी को भी आत्मिक सामर्थ्य समझने की गलती नहीं करनी चाहिए।
आत्मिक सामर्थ्य प्राथमिक तौर पर हमें सभी बातों में परमेश्वर की आज्ञापालन करने वाला बनाती है। उन तारों, ग्रहों व नक्षत्रों को देखें जिन्हें हज़ारों सालों से परमेश्वर की सामर्थ्य उनकी कक्षाओं में एक सिद्ध समय-मर्यादा में बाँध कर रखे हुए हुए है। इस सिद्धता की वजह यही है कि उन्होंने एक सम्पूर्ण रूप में परमेश्वर की व्यवस्था का पालन किया है। आकाश के गण इस बात की ख़ामोशी से गवाही देते हैं कि सबसे अच्छी बात यही है कि परमेश्वर की आज्ञा का पूरा आज्ञापालन किया जाए।
यीशु ने शैतान पर अपनी दैहिक शक्ति से नहीं बल्कि आत्मिक सामर्थ्य से जय पाई थी। जब शैतान ने उसे परखा, तब उसने पत्थर को रोटी बनाने से इनकार कर दिया; हालांकि वह ऐसा कर सकता था, ख़ास तौर पर इसलिए क्योंकि उसकी देह को 40 दिन तक उपवास करने के बाद उस समय रोटी की ज़रूरत भी थी। यह उस काम से कितना अलग है जो हव्वा ने किया था जिसने अदन में, भूखी न होने पर भी, अपनी शारीरिक लालसा को तुरन्त तृप्त कर लिया था। खाने की लालसा की तरह, हमारे अन्दर लैंगिक सम्भोग की भी लालसा होती है। वह भी तुरन्त तृप्त किए जाने की माँग करती है। जब हम आत्मिक होंगे तो हम यीशु की तरह होंगे, जिसने कहा कि अपनी शरीर की लालसाएं तृप्त करने की बजाय वह "परमेश्वर के हरेक शब्द" से जीना ज़्यादा पसन्द करेगा।
शिमशोन में शेरों को फाड़ डालने लायक बड़ा शारीरिक बल था। लेकिन उसके अन्दर बैठा कामुक लालसा का शेर उसे बार-बार फाड़ खाता था। इससे यह साबित होता है कि लैंगिक लालसा किसी भी शेर से ज़्यादा शक्तिशाली होती है। लेकिन युसुफ शिमशोन से ज़्यादा शक्तिशाली था, क्योंकि वह लैंगिक लालसा के शेर को दिन-प्रतिदिन, और बार-बार फाड़ डालता था (उत्पत्ति 39:7-13 )।
हमारे उद्देश्य यह तय करते हैं कि परमेश्वर हमें आत्मिक सामर्थ्य देगा या नहीं। अगर आपके जीवन में आपका लक्ष्य और अभिलाषा सिर्फ परमेश्वर की महिमा करना है, तो वह आपको सहर्ष यह सामर्थ्य दे देगा। “तुम माँगते तो हो लेकिन पाते नहीं, क्योंकि तुम बुरे उद्देश्य से माँगते हो" (याकूब 4:3)।
एक नौकरी या धंधा सिर्फ हमारी रोज़ी-रोटी का ज़रिया होते हैं। लेकिन हमारे जीवन का उद्देश्य सिर्फ परमेश्वर को प्रसन्न करना होना चाहिए - अपने लिए जीना और इस संसार में महान् होना नहीं। शैतान ने यीशु को भी इस संसार के वैभव से प्रलोभित करना चाहा था । इसलिए आप यकीन कर सकते हैं कि वह हमें भी इनसे प्रलोभित करेगा। लेकिन हमें इनसे लगातार इनकार करते रहना चाहिए (जैसे यीशु ने किया था), क्योंकि हमें यह वैभव / गौरव सिर्फ किसी-न-किसी रूप में शैतान के आगे झुकने द्वारा ही मिल सकता है। हमें ख़ास तौर पर यह ध्यान रखने की ज़रूरत है कि कहीं धन का प्रेम हमें हमारे जीवनों में परमेश्वर की योजना को पूरा करने से दूर न हटा दे। अब से 2000 साल बाद भी हमें अपने आज के चुनावों पर पछतावा करने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए।