हम मत्ती के सुसमाचार में एक ऐसा वाक्यांश पाते हैं जो और कहीं नहीं पाया जाता - "स्वर्ग का राज्य"। इस सुसमाचार में इसका 31 बार उल्लेख किया गया है। यह सुसमाचार क्योंकि पवित्र आत्मा की प्रेरणा से लिखा गया है, इसलिए इस वाक्यांश के यहाँ बार-बार हुए इस्तेमाल की जरूर कोई खास वजह होनी चाहिए। यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला यह प्रचार करता हुआ आया, "मन फिराओ, क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है” (मत्ती 3: 2)। उसके समय के बाद यीशु ने मत्ती 4:17 में ठीक उसी संदेश का प्रचार किया। जब यीशु ने पहाड़ी उपदेश देना शुरू किया, तो उसके सबसे पहले शब्द यह थे, “धन्य है वे, जो मन के दीन है, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है” (मत्ती 5:3)। इसलिए हम यह देखते है कि नई वाचा के आरम्भ ही से “स्वर्ग” पर ज़ोर दिया गया है। अकेले पहाड़ी उपदेश में ही “स्वर्ग” का उल्लेख 17 बार किया गया है।
परमेश्वर ने इस्राएल के साथ जो वाचा बांधी थी, उसका संबंध पृथ्वी के राज्य से था। इस्राएल को कनान देश दिया गया और उससे भौतिक सम्पन्नता, शारीरिक चंगाई व पृथ्वी की अन्य आशीषों की प्रतिज्ञा की गई। बाद में उनके पास एक सांसारिक राजा, सांसारिक धन और अन्य सांसारिक आशिषे थी। लेकिन यीशु मनुष्य को पूरी रीति से एक दूसरे राज्य, अर्थात स्वर्ग की ओर उठाने आया था। इसलिए जब हम नया नियम पढ़ते हैं, तो हमें सबसे पहले यह अवश्य याद रखने की जरूरत है कि सुसमाचार मुख्यतः पृथ्वी के बारे में नहीं है – वह स्वर्ग के बारे में है। यदि हम इसे समझ लेंगे, तो हम आज मसीही जगत में फैली हुई बहुत सी उलझन से बच जाएंगे।
हम कहते हैं कि हमने "उद्धार" पा लिया हैं। यह विश्वासियों में पाई जाने वाली बहुत सामन्य अभिव्यक्ति है। लेकिन हमने किन बातों से "निजात" या "उद्धार" पाया हैं? क्या हमने सांसारिक तरीकों से उद्धार पाया है, या क्या हमने सिर्फ अपने पापों से माफी पाई है? क्या हमने पृथ्वी की बातों में दिलचस्पी रखने से, लोगों और परिस्थितियों को सांसारिक नजरिए से देखने से और पृथ्वी के तौर-तरीको के अनुसार आचरण करने से उद्धार पा लिया है?
नई वाचा स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार है। जगत के बहुत से लोग संयुक्त राज्य अमेरिका के नागरिक बनने के लिए उत्सुक हैं, क्योंकि अमेरिका रहने के लिए एक बहुत ही आकर्षक जगह है। लेकिन कोई भी अफ्रीका में किसी पिछड़े हुए देश का नागरिक बनना न चाहेगा। फिर ऐसा क्यों है कि इस जगत में ऐसे बहुत ही कम लोग है जो सबसे आकर्षक स्थान अर्थात स्वर्ग के नागरिक बनने में रुचि रखते हैं? क्योंकि उन्होंने स्वर्गीय नागरिकता की असली महिमा का दर्शन नहीं पाया है। और यह इसलिए है क्योंकि सुसमाचार का प्रचार सही तरह नहीं किया गया है। इसलिए हम “तथा-कथित विश्वासियों” के ऐसे बड़े समूह कलिसियाओं में बैठे हुए देखते है, जिन्हें स्वर्ग के राज्य में कोई दिलचस्पी नहीं है। वे मरने के बाद स्वर्ग में जाना चाहते है, लेकिन उन्हें अभी स्वर्ग का राज्य नहीं चाहिए।
“राज्य” एक ऐसा शब्द है जिसे हम आज स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते है क्योंकि पहली शताब्दी की तुलना में अब बहुत कम राजा राज्य कर रहे है। राज्य की जगह हम अब “सरकार” शब्द का इस्तेमाल करते है। हम “भारत का राज्य” नहीं “भारत की सरकार” कहते है।
स्वर्ग के राज्य का यही अर्थ है - स्वर्ग की सरकार। इसका अर्थ है कि अब परमेश्वर आपके जीवन को प्रशासित कर रहा हैं। जब आप भारत में रहते हैं, तो आपको भारत सरकार के नियमों के अधीन रहना पड़ता है। और जब आप स्वर्ग की सरकार की अधीनता में आ जाएंगे, तो आपको स्वर्ग के नियमों के अधीन रहना पड़ेगा। क्या आपने अपनी नागरिकता पृथ्वी से बदलकर स्वर्ग की कर ली है?
उद्धार पाने का अर्थ यह है कि पृथ्वी के राज्य से बचाए जाकर स्वर्ग के राज्य में पहुंचाए जाना। लेकिन अनेक विश्वासियों का उद्धार अभी वहाँ नहीं पहुँच पाया है। वे मरने के बाद स्वर्ग में जाना चाहते हैं। लेकिन उन्हें स्वर्ग के राज्य का शासन अभी उनके जीवन में नहीं चाहिए। अभी तो वे पूरी तरह से पृथ्वी के ही नागरिक बनकर रहना चाहते है। इस वजह से ही उनके मसीही जीवन इतने उथले (ज्यादा गहरे नहीं) है।
मत्ती के सुसमाचार में एक और ऐसा शब्द है जो अन्य किसी सुसमाचार में नहीं है। वह शब्द है – “कलीसिया”। इसका उल्लेख तीन बार किया गया है – एक बार मत्ती 16:18 में और दो बार मत्ती 18:17 में। जिसके बारे में हम अभी बात कर रहे थे, इस शब्द को उस वाक्यांश के साथ रखें तो हम देखने पाएंगे कि कलीसिया इसलिए है कि वह पृथ्वी पर स्वर्ग का राज्य हो। स्वर्ग में सभी स्वर्ग की सरकार अर्थात परमेश्वर के राज्य के अधीन रहते है। लेकिन यहाँ पृथ्वी पर यह अलग है। यहाँ सब अपना जीवन खुद चला रहे है। ऐसे लोगों के बीच में, परमेश्वर के लोगों का एक ऐसा समूह है जो अपना जीवन खुद नहीं चलाते। वे लोग स्वर्ग की सरकार के अधीन हैं।
यह कलीसिया है। क्या जगत की कलिसियाएं पूरी तरह से स्वर्ग की सरकार के अधीन होकर रह रही है? नहीं। इन बात से मेरा हृदय वर्षो से बहुत दु:खी है। मुझे उम्मीद है कि इससे आपका भी हृदय दु:खी होता है। मैं दूसरों पर दोष नहीं लगा रहा हूँ। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि “वे ऐसे हैं”। मैं यह कह रहा हूं, “हम ऐसे हैं”। हम कलिसिया है और हम ही जगत के सामने यह प्रदर्शित करने में निष्फल रहे है, कि स्वर्ग के राज्य के अधीन रहनेवाला जीवन कैसा आशिषित जीवन होता है। इसलिए मैं प्रार्थना करता हूँ, “प्रभु, हमारी निष्फलता के लिए हमें क्षमा कर। जगत के सामने यह प्रदर्शित करने में हमारी मदद कर कि परमेश्वर के राज्य के अधीन रहने का अर्थ क्या होता है”।