द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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1. परमेश्वर का भय: परमेश्वर का भय मानना बुद्धि का आरंभ (वर्णमाला) है (नीतिवचन 9:10)। बुद्धि की पाठशाला में यह पहला पाठ है। यदि हम वर्णमाला नहीं सीखते है तो हम आगे नहीं बढ सकते हैं । “परमेश्वर का भय मानना बुराई से बैर रखना है”, क्योंकि परमेश्वर स्वयं बुराई से घृणा करता हैं (नीतिवचन 8:13)। जब हमने परमेश्वर की यह बुलाहट सुनी कि हम पवित्र बने क्योंकि वह पवित्र है और उसी बुलाहट की जकड़ से हम पाप से घृणा करेंगे। बहुत से विश्वासी दूसरों के सामने अपने पापों (क्रोध, यौन पाप आदि) पर आसानी से जय प्राप्त कर पाते है, क्योंकि उन्हें अपनी प्रतिष्ठा के खोने की ज्यादा चिंता रहती है। परंतु वे यही पाप बहुत आसानी से करते हैं जब वे एकांत में होते हैं। इसलिए ऐसा नहीं है कि वे इन पापों पर जिनमे वे गिरते है, जय पाने में सक्षम नहीं है, बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि वे परमेश्वर के भय से ज्यादा अपनी प्रतिष्ठा से प्रेम करते हैं। वे परमेश्वर की तुलना में मनुष्य की राय को अधिक महत्व देते हैं। ऐसे मसीहियों को "सृष्टिकर्ता" से अधिक “सृष्टि” (मनुष्य) की आराधना करने के लिए शोक और पश्चाताप करने की आवश्यकता है (रोमियों 1:25), और अपने पूर्ण हृदय के साथ परमेश्वर को पुकारने की आवश्यकता है कि वह उन्हें अपना भय मानना सिखाए। प्रतिज्ञा यह है कि यदि आप परमेश्वर को पुकारे और अपनी आवाज़ उठाएँ और प्रभु के भय को मानो एक छिपे हुए खजाने के समान ढूढ़ें, तब परमेश्वर अपना भय मानना आपको सिखाएगा (नीतिवचन 2: 3-5; मत्ती 5: 6)। परमेश्वर उन्हें ही मिलता है जो सम्पूर्ण हृदय से उसे ढूंढते है (यिर्मयाह 29:13)। केवल वे लोग ही जो अपनी असफलताओं पर शोक करते हैं, सांत्वना देने वाले (परमेश्वर) द्वारा सांत्वना (बल और सहायता) पाएंगे (मत्ती 5: 4)। हमें केवल परमेश्वर के सम्मुख रहने की आदत डालनी है। यही कारण है कि परमेश्वर ने हम में से प्रत्येक को एक निजी क्षेत्र - हमारा वैचारिक जीवन दिया है, ताकि वह परख कर हमे देख सके कि हम उसका भय मानते है या नहीं। यदि हम केवल दूसरों के सामने अपनी बाहरी प्रतिष्ठा के विषय में चिंता करेंगे तो हम अपने विचारो के जीवन में पाप के प्रति बहुत ही लापरवाह रहेंगे। इसलिए परमेश्वर ऐसे लोगों के झुंड के बीच अंतर करता है –जो संपूर्ण विजय की लालसा करते है और दूसरे जो केवल बाहरी तौर से पाप पर जय पाने की लालसा करते है। यदि हम बाहरी पाप के समान अपने वैचारिक जीवन के पापों पर शोक करते है, तो जल्द ही हम जय प्राप्त करेंगे।

2. दुख उठाने की मनसा धारण करना: पाप में सुख है लेकिन यह धोखेबाज और अल्पकालिक है (इब्रानियों 3:13; 11:25)। सुख का विपरीत दुख है। दुख उठाने का मतलब देह में किए गए पाप के सुख का इंकार करना है। हमें बताया गया है कि यदि हम अपने आपको इस स्वभाव से भर ले तो हम पाप करना छोड के जीवन भर परमेश्वर की इच्छा को पूरा कर सकते हैं (1 पतरस 4: 1,2)। देह में दु:ख उठाने का अर्थ शारीरिक कष्ट या चोट सहना नहीं हैं, क्योंकि किसी ने भी इस तरह पाप करना बंद नहीं किया है। इसका संदर्भ उस दर्द से है जो देह को तब होता है जब हम देह की इच्छाओं का इंकार करते हैं। हम स्वयं को खुश करने से इंकार करते हैं, यहां तक कि यीशु ने भी कभी स्वयं को खुश नहीं किया (रोमियों 15:3)। इस प्रकार हम उसके दुखों में सहभागी होते हैं। पतरस ने कहा कि शरीर में दुख उठाने का यह दृढ़ स्वभाव युद्ध के दिन में हमारा हथियार है। परंतु युद्ध के आरंभ होने से पहले ही ये हथियार हमारे पास होना चाहिए। परीक्षा की मार के बाद इस हथियार को खोजना व्यर्थ हैं क्योंकि तब ये नहीं मिलेगा। नहीं । युद्ध के आरंभ से पहले हथियार धारण करना हैं। जब किसी के पास यह हथियार नहीं होता है (एक पापी विचार से थोड़ा सा भी सुख पाने के बजाय आत्म इनकार में दुख उठाने का दृढ़ संकल्प), तब वह परीक्षा के समय पीछे हटता और गिर जाता है (इब्रानियों10:38)। लेकिन अगर हम पाप करने के बजाय आत्म की मृत्यु के लिए तैयार है, जैसा यीशु “मृत्यु तक आज्ञाकारी रहा” (फिलिप्पियों 2:8), तब यह हथियार हमारी ताकत और युद्ध के दिन में हमारी सुरक्षा होगी। उदाहरण के तौर पर, यदि हम पार्थिव वस्तुओ से प्रेम रखते है तो हम सरलता से शांति खो देते है और पाप में गिर जाते हैं, जब हम भौतिक नुकसान का सामना करते हैं या कोई ओर उसे नुकसान पहुंचाता है या मूल्यवान संपत्ति खो देते है। लेकिन यदि हमने शरीर में दुख उठाने के मार्ग का चुनाव किया है, तो यह विश्वास करते हुए किया है कि परमेश्वर हमारे लिए सब बातों को मिलाकर भलाई को उत्पन्न करता है (रोमियों 8:28), तब हम अपने धन-संपत्ति की हानि को भी सहर्ष ग्रहण करेंगे (इब्रानियों 10:34)

3. संगति का मूल्य करना: नए नियम में एकलवादी मसीहत जैसी कोई वस्तु नहीं है। पुराने नियम के भविष्यद्वक्ता (जैसे एलिय्याह और यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला) अकेले रह सकते थे, लेकिन यह उन दिनों में था जब केवल छाया मात्र थी और कोई शरीर नहीं था (कुलुस्सियों 2:17)। लेकिन अब हमारे पास मसीह की देह है, और जब हम इसमें अपना स्थान पाते हैं, तो सिर अर्थात मसीह हमें गिरने से बचाता है। पौलूस स्पष्ट रूप से कहता है कि त्रुटि से सुरक्षा और मसीही जीवन में प्रगति तभी आ सकती है जब हमारी आंखे मसीह की ओर लगी रहती है (हम सिर अर्थात मसीह को पकड़े रहते है) और आपूर्ति की पंक्तियों को शरीर के अन्य सदस्यों के लिए भी खुला रखें रहते है (कुलुस्सियों 2:19)। यीशु ने कहा, यह कलीसिया है जिसके विरोध में अधोलोक के फाटक प्रबल न होंगे (मत्ती 16:18)। शैतान निश्चित रूप से एक ऐसे अकेले मसीही के विरुद्ध प्रबल होगा, जो अपने स्वयं की शक्ति पर जीने की कोशिश करता है। हालांकि, सप्ताह में दो बार सभा में जाना पर्याप्त नहीं है। हमें अन्य सदस्यों के साथ संगति को महत्व देना चाहिए और मसीह की देह में एक होना चाहिए। जब हम मसीह की देह के कार्यकारी सदस्यों के रूप में अपना स्थान पाते हैं, तब हम सिर (मसीह) की जय में भागी हो सकते हैं। तब देह में हमारे साथी सदस्य उस समय हमारे लिए एक ताकत बन जाते हैं, जब दबाव हमारे स्वयं अकेले के लिए बहुत अधिक हो जाता है (सभोपदेशक 4: 9-12)। मसीह की देह में आपसी प्रोत्साहन, परमेश्वर का हमें छल और पाप में गिरने से बचाने का साधन है (इब्रानियों 3:13)। इस तरह की संगति को महत्व दे, और आप कई असफलताओ और हृदय की वेदनाओ से बच जाएंगे।