द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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सभी नबियों का बोझ पवित्रता था अर्थात अपनी मूर्तियों को त्याग कर अपने जीवन में पहले परमेश्वर को रखना। सच्ची पवित्रता हमारे जीवन में किसी भी प्रकार की मूर्तियों का नहीं होना है। पवित्रता परमेश्वर द्वारा हमारे हृदय को पूरी रीति से भरे जाना है। हमारी बुलाहट है कि आज ही यह घोषणा की जाए ताकि कलीसिया एक ऐसा स्थान बन सके जहां परमेश्वर प्रसन्नता के साथ निवास करे।

सच्ची पवित्रता केवल उस व्यक्ति के पास आती है जो अपने पूरे हृदय से उसको खोजता है, न कि उस व्यक्ति के पास जो केवल अपने मस्तिष्क में सही शिक्षा रखता हो। पवित्रता का रहस्य नए नियम के यूनानी शब्दों और काल के अध्ययन के माध्यम से नहीं, लेकिन सम्पूर्ण हृदय और पूरी ईमानदारी के साथ परमेश्वर को खोजने में है। परमेश्वर हमारे हृदय को देखता है, हमारे मस्तिष्क को नहीं!

पवित्रता में बढ़ोतरी, हमेशा परमेश्वर की दृष्टि में अपने स्वयं के पाप के प्रति बढ़ती चेतना के साथ होती है। पवित्रता परमेश्वर का मूल स्वभाव है। परमेश्वर जो आत्मा हमें देता है, वह पवित्र आत्मा है। जब यशायाह को परमेश्वर का दर्शन मिला, तो उसने परमेश्वर को उसकी पवित्रता में देखा और खुद को एक अशुद्ध व्यक्ति के रूप में देखा (यशायाह 6: 1-7) आत्मा से भरा जीवन पवित्रता में वृद्धि का जीवन है। जैसे-जैसे मनुष्य का अपना जीवन पवित्रता में बढ़ता है, वैसे-वैसे उसकी चेतना परमेश्वर की पवित्रता के बारे में बढ़ती जाती है। यह दोनों एक साथ चलते हैं। वास्तव में, चेतना में वृद्धि इस बात की परख है कि क्या कोई व्यक्ति वास्तव में पवित्रता में बढ़ रहा है या नहीं। अपने उद्धार के 25 साल बाद, पौलूस कहता हैं, "मैं प्रेरितों में सबसे छोटा हूं (1 कुरुन्थियों: 15: 9)।" और उसके पाँच साल बाद, वो कहता हैं, "मैं सभी पवित्र लोगों में से छोटे से भी छोटा हूँ (इफिसियों 3: 8)। फिर एक साल बाद वह कहता है, "मैं पापियों का प्रमुख हूँ" (ध्यान दे वो यहाँ "मैं था” नहीं कहता लेकिन "मैं हूं” कहता है) (1 तिमुथियुस 1:15)। क्या आप उसके इन कथनों में पवित्रता में उसकी प्रगति को देख सकते हैं? जितनी निकटता से पौलूस परमेश्वर के साथ चलता गया, उतना ही वह अपने हृदय की बुराई और दुष्टता के प्रति जागरूक बनता गया। उसने माना कि उसके शरीर में कोई भी अच्छी वस्तु वास नहीं करती (रोमियों 7:18)।

हमें उस स्थान पर आना चाहिए जहाँ हम संपूर्ण स्वास्थ्य से अधिक संपूर्ण पवित्रता की इच्छा करे। जैसे हम अपने शरीर में सभी बीमारियों से पूरी तरह मुक्त होना चाहते हैं, वैसे ही हमें अपने सभी पापों से पूरी तरह मुक्त होने की इच्छा होनी चाहिए, जो हमें अशुद्ध करते है। जितना हम बीमारी सहन कर सकते हैं उससे अधिक हमें पाप को सहन नहीं करना चाहिए। गंदे विचारों को सहन करना, टीबी या कुष्ठ रोग को सहन करने जैसा है। अपने क्रोध को सहन करने के लिए, सफाई देते हुए यह कहना कि, "यह मेरी कमजोरी है या यह मेरा स्वभाव है", और इस प्रकार अपने जीवन में इसे अनुमति देना, उसी प्रकार है जैसे हमारे शरीर में एड्स या सिफलिस (गुप्तरोग) के लिए अनुमति देना। पाप और बीमारी एक समान हैं।

“और प्रभु ऐसा करे कि जैसा हम तुम से प्रेम रखते है, वैसे ही तुम्हारा प्रेम भी आपस में और सब मनुष्यों के साथ बढ़े, और उन्नति करता जाएँ। ताकि वह तुम्हारे हृदयों को पवित्रता में निर्दोष स्थापित करे।” (1 थिस्सलूनीकियों 3: 12,13)। ये वचन हमें सिखाते हैं कि यदि हमें पवित्रता में निर्दोष होना है, तो हमें सभी मनुष्यों के साथ प्रेम में बढ़ते जाना अवश्य है। प्रेम के बिना पवित्रता नकली है और ऐसी कोई भी पवित्रता वास्तव में स्व:धार्मिकता और विधीवादी है, जो परमेश्वर की दृष्टि में मैले चिथड़ों के समान है (यशायाह 64: 6)।

पवित्रता और परमेश्वर का कभी न बदलनेवाला प्रेम, सभी नबियों का बोझ था अर्थात परमेश्वर के लोगों में पवित्रता और परमेश्वर का अपने लोगों के प्रति अपरिवर्तनीय प्रेम तब भी जब वे आत्मिक व्यभिचार में पड़कर भटक गए थे। परमेश्वर की इच्छा हमेशा अपने लोगों को वापस लाने की थी। वह उन्हें अनुशासित करता है, लेकिन फिर वह उन्हें अनुशासन खत्म होने के बाद वापस लाना चाहता है।

इसी प्रकार ही एक सच्ची नबूवत की सेवकाई को कलीसिया में काम करना चाहिए। आज कलीसिया के एक सच्चे नबी में वही बोझ होगा जो पुराने नियम के नबियों में परमेश्वर के लोगों के बीच पवित्रता के विषय में था। और पुराने नबियों के समान वह भी, परमेश्वर के उस अपरिवर्तनीय, धीरजवंत, दयालु प्रेम से प्रेरित होगा, जो हमेशा अपने भटके हुए लोगों को अपनी ओर और सच्ची पवित्रता की ओर वापिस लाने की निरंतर इच्छा रखता है। प्रत्येक कलीसिया को यदि परमेश्वर के लिए जीवित और कार्य करते रहना है (जैसा होना भी चाहिए), तो उसमें एक ऐसी नबूवत की सेवकाई होनी चाहिए।