द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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1.समय को बहुमूल्य जाने:

वह समय जो लापरवाही और पाप में बर्बाद हो जाता है, वह कभी दोबारा हासिल नहीं किया जा सकता। परमेश्वर हमारे बर्बाद हो चुके जीवन के लिए क्षमा करके हमें फिर भी उसके राज्य में ले सकता है। लेकिन परमेश्वर भी हमें हमारे बर्बाद हो चुके साल नहीं लौटा सकता। जो समय बर्बाद कर दिया गया है, वह समय हमेशा के लिए खो चुका है। उसे फिर दोबारा हासिल नहीं किया जा सकता। इसलिए अपनी युवावस्था से ही प्रभु के पीछे चलना शुरू कर देना कितना अच्छा होता है। पृथ्वी पर हमारा जीवन बहुत थोड़े समय का ही है। इसलिए यह ज़रूरी है कि समय को बर्बाद होने से बचाएँ, प्रलोभन पर जय पाने के हर एक मौक़े का पूरा फ़ायदा उठाए और सबके साथ भलाई करे। किसी भी क़ीमत पर नम्रता, शुद्धता और प्रेम में जड़ पकड़े रहे। इन्हीं दिनों में से किसी एक दिन जब यीशु लौटेगा और हम उसे आमने-सामने देखेंगे तब परमेश्वर की ज्योति में आने के बाद आपने जिस तरह का जीवन जीया, उस पर आपको कोई पछतावा नहीं होना चाहिए। जब अनेक विश्वासी यीशु को देखेंगे और उस दिन यह जानेंगे कि यीशु ने उनसे कितना प्रेम किया, तब स्वर्ग में प्रवेश करते हुए भी वे दर्द और पछतावे में डूबे हुए रहेंगे क्योंकि वे पृथ्वी के अपने सांसारिक जीवनकाल के दौरान अर्ध-समर्पित थे, भले ही वे स्वर्ग में प्रवेश करते हों। परमेश्वर आपको ऐसे पछतावे से बचाए। इस बारे में सोचने का समय आज और अभी है कि आप समझदार हो जाए। एसाव की तरह अपना जन्माधिकार (आत्मिक आशीष) दाल के एक कटोरे (शारीरिक भोग-विलास) के बदले में न बेच दे। “सब मनुष्यों के साथ मेल-मिलाप रखें और उस पवित्रता के खोजी बने जिसके बिना कोई प्रभु को नहीं देख पाएगा” (इब्रानियों 12:14)। “हम जब-जब उसके मुख को देखेंगे तो हम यही चाहेंगे कि काश़ हमने उसे ज़्यादा दिया होता….”

2.आपका भीतरी मनुष्य प्रतिदिन नया होता जाए:
हमारा बाहरी मनुष्य प्रतिदिन सड़ता जाता है। यह अपने आप होता है। लेकिन परमेश्वर की यह इच्छा है कि हमारा भीतरी मनुष्यत्व प्रतिदिन नया होता जाए (2 कुरिन्थियों 4:16)। लेकिन यह अपने आप नहीं होता। अनेक विश्वासी प्रतिदिन नए नहीं हो रहे हैं क्योंकि वे उस एक काम को नहीं करते जो यीशु ने हमें प्रतिदिन करने के लिए कहा है – और वह है अपना क्रूस उठाना (लूका 9:23)। भीतरी मनुष्य में नया होने का अर्थ हमारे भीतर यीशु के जीवन में सहभागी होना है। यह तभी हो सकता है जब हम प्रतिदिन यीशु की मृत्यु को अपने देह में लेकर चलेंगे (2 कुरिन्थियों 4:10)। हरेक दिन के लिए एक निश्चित मात्रा में पीड़ाएँ, परीक्षाएं और प्रलोभन रखे होते हैं (जैसा कि यीशु ने मत्ती 6:34 में कहा है)। हमें इन परीक्षाओं में ही क्रूस को उठाना और अपनी खुदी में मरना होता है कि हरेक परीक्षा हमारे लिए कुछ महिमा पैदा करते रहे।

परमेश्वर की यह इच्छा नहीं है कि हम एक उतार-चढ़ाव वाला जीवन व्यतीत करें (कभी पहाड़ की चोटी पर तो कभी घाटी की गहराई में)। वह चाहता है कि हमारा जीवन निरंतर ऊपर की तरफ़ ही बढ़ता रहे – भीतरी मनुष्य के लगातार नए हो जाने से। इसलिए हमें हर दिन हर जो अवसर मिलते है उनमें यीशु की मृत्यु को सहने के लिए अपने आपको दृढ़ करना होगा। हमें सभाओं या सम्मेलनों की ‘उत्तेजना’ से ईश्वरीय जीवन नहीं मिल सकता। अनेक लोग अपने आप को यह धोखा देते हैं कि वे आत्मिक हो गए हैं क्योंकि किसी सभा या सम्मेलन में वे भावनात्मक उत्तेजना से भर गए थे। लेकिन आत्मिक उन्नति सिर्फ़ सभाओं या सम्मेलनों में भाग लेने से नहीं होती है। हम आत्मिक रूप में तब उन्नत होते हैं जब हम विश्वासयोग्यता के साथ प्रतिदिन के जीवन के साधारण बातों में अपना क्रूस उठाते हैं। हम प्रतिदिन सभाओं में नहीं जा सकते हैं। लेकिन हम क्योंकि प्रतिदिन परीक्षणों का सामना करते हैं, इसलिए हमारे पास प्रतिदिन नए होते जाने का मौक़ा होता है।

इसलिए हमें प्रतिदिन के परीक्षणों में किसी भी तरह की शिकायत या कुड़कुड़ाहट बिना अपना जीवन प्रभु के प्रति एक सहज विश्वासयोग्यता में बिताने की खोज में रहना चाहिए, यह पहचानते हुए कि हमारा जीवन हमारे लिए नहीं है (कि हम अपनी मनमानी कर सके), बल्कि यह कि हमारा जीवन प्रभु का हैं क्योंकि उसने हमें रचा है और हमें ख़रीदा है। तब हमें प्रतिदिन नए होने का अनुभव होगा। लेकिन जैसे हमारी देह के सड़ने का हमें प्रतिदिन कोई अनुभव नहीं होता, बल्कि कुछ समय के बाद होता है, वैसे ही भीतरी मनुष्यत्व का नवीनीकरण भी कुछ वर्षों के बाद ही ध्यान देने योग्य होगा। अगर हम विश्वासयोग्य रहेंगे तब नवीनीकरण प्रतिदिन होगा (2 कुरिन्थियों 4:16)। इसलिए छोटी और बड़ी सभी बातों में विश्वासयोग्य रहे। और फिर अंत में आपको यह पता चलेगा कि अपने शरीर को क्रुसित करने (गलातियों 5:24), परमेश्वर को पहला स्थान देने और अपना जीवन पूरी तरह उसके लिए जीना, योग्य था।