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बाइबल के अनुसार, जो व्यक्ति परमेश्वर पर निर्भर होता है वह उस वृक्ष के समान है जिसकी जड़ें नदी के भीतर तक फैली हैं। (यिर्मयाह 17:5-8) यीशु पवित्र आत्मा (परमेश्वर की नदी) से अपनी आत्मिक जरूरतों को लगातार प्राप्त करते हुए एक मनुष्य के रूप में इसी प्रकार रहा करते थे।

यीशु मसीह ने प्रलोभन पर विजय प्राप्त की और यह विजय उन्हें मानवीय क्षमताओं के आधार पर नहीं बल्कि इसलिए मिली क्योंकि उन्होंने पिता से प्रत्येक क्षण सामर्थ्य प्राप्त की। यीशु द्वारा दिए गए दृष्टान्तों और शिक्षाओं में ‘स्वयं के त्याग’ का रास्ता ऐसा नहीं है जहाँ आत्मा स्व-केन्द्रित होने का प्रयास करती है। ऐसी शिक्षा बौद्ध धर्म और योग की है जो शास्त्र (परमेश्वर के वचन) की शिक्षा से उतना ही अलग है जितना कि पृथ्वी स्वर्ग से है।

यीशु ने बताया है कि मनुष्य के रूप में हमारे पास जीने और परमेश्वर की सेवा करने की सामर्थ्य जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं है। उन्होंने कहा कि हम उन असहाय शाखाओं की तरह हैं जो फलने-फूलने के लिए पूरी तरह से पेड़ द्वारा दिए गए पोषण पर निर्भर रहते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि "मुझसे अलग होकर तुम कुछ भी नहीं कर सकते" (यूहन्ना 15:5)। इसलिए पवित्र आत्मा की सहायता के बिना किसी भी कार्य की सफलता, परमेश्वर की नज़र में निरर्थक है। इसलिए "निरंतर पवित्र आत्मा से परिपूर्ण होने की आवश्यकता है (इफिसियों 5:18)।”

यीशु स्वयं पवित्र आत्मा से परिपूर्ण और अभिषिक्त हुए (लूका 4:1, 18) और उन्होंने पवित्र आत्मा की सामर्थ्य द्वारा ही परमेश्वर के लिए जीवन जिया और परिश्रम भी किया। लेकिन यह केवल इसलिए संभव होने पाया, क्योंकि एक मनुष्य के रूप में वे आत्मा में दीन रहे।

यीशु अपने मनुष्य होने की शारीरिक कमज़ोरियों के विषय में सचेत थे। इसलिए, वे हमेशा एकांत में रहने और प्रार्थना करने के अवसरों की तलाश में रहा करते थे। किसी ने ऐसा कहा है कि, जिस प्रकार पर्यटक शहर में प्रवेश करते समय अच्छे होटलों और देखने के लिए महत्वपूर्ण स्थलों की तलाश करते हैं, वैसे ही यीशु ने एकांत स्थानों की तलाश की जहाँ वे प्रार्थना कर सकें।

उन्होंने प्रलोभन पर विजय पाने के लिए सामर्थ्य की खोज करते हुए अपनी आत्म-शक्ति को नष्ट किया। कोई भी मनुष्य शारीरिक दुर्बलताओं के विषय में यीशु जितना सचेत नहीं था इसलिए उन्होंने पिता की ओर देखते हुए सहायता के लिए प्रार्थना की, जबकि ऐसा किसी भी मनुष्य ने नहीं किया। उसने अपने शरीर के दिनों में "ऊँचे स्वर में पुकारकर और आँसू बहाकर" प्रार्थना की। इसका परिणाम यह हुआ कि उसे पिता द्वारा किसी भी अन्य व्यक्ति की तुलना में कहीं अधिक बल मिला। इस प्रकार, यीशु ने कभी पाप नहीं किया और न ही अपनी आत्मा से बाहर रहा (इब्रानियों 4:15; 5:7-9)।

क्या यह महत्वपूर्ण नहीं है कि सुसमाचारों में पच्चीस बार, यीशु के संबंध में "प्रार्थना" या "प्रार्थना करना" जैसे शब्दों का उपयोग किया गया है। यही उसके जीवन एवं उसके परिश्रम का गुप्त रहस्य है।

यीशु ने न केवल अपने जीवन की महान घटनाओं से पहले प्रार्थना की, बल्कि अपनी कुछ महान उपलब्धियों के बाद भी प्रार्थना की। पाँच हज़ार लोगों को चमत्कारिक रूप से भोजन कराने के बाद, वह प्रार्थना करने के लिए पहाड़ों पर चला गया। (मत्ती 14:23) इसमें कोई संदेह नहीं है कि उसके द्वारा किए गए कार्य पर गर्व या आत्मसंतुष्टि के प्रलोभनों से बचने और पुनः से सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए वह प्रार्थना करके अपने पिता की प्रतीक्षा करता था (यशायाह 40:31)। हम आमतौर पर केवल तभी प्रार्थना करते हैं जब हमें परमेश्वर के लिए कोई महत्वपूर्ण कार्य करना होता है। लेकिन अगर हम यीशु की तरह अपने काम को पूरा करने के बाद पिता के सामने प्रतीक्षा करने की आदत विकसित कर लें, तो हम खुद को घमंड से बचा लेंगे और इस तरह परमेश्वर के लिए बड़े काम करने के योग्य हो जाएँगे।

यीशु का जीवन जितना ही अधिक व्यस्त होता, वह उतना ही अधिक प्रार्थना करता था। उसके जीवन काल में ऐसा समय भी था, जब उसके पास भोजन करने या आराम करने का भी समय नहीं था (मरकुस 3:20; 6:31, 33, 46), लेकिन वह हमेशा प्रार्थना करने के लिए समय निकालता था। वह अच्छी तरह जानता था कि उसे कब सोना है और कब प्रार्थना करनी है, क्योंकि वह पवित्र-आत्मा की आज्ञाकारिता पर चलता था।

प्रभावी प्रार्थना के लिए ‘आत्मा की दीनता’ एक आवश्यक शर्त है। प्रार्थना मानवीय निर्बलता की अभिव्यक्ति है। अगर इसे सार्थक बनाना है और केवल धार्मिकता तक ही सीमित नहीं रखना है तो मसीही जीवन जीने या परमेश्वर की सेवा करने के लिए मानवीय संसाधनों की अभावशीलता की पहचान होना जरूरी है।

यीशु ने लगातार प्रार्थना में परमेश्वर के सामर्थ्य की खोज की और कभी निराश नहीं हुआ। इस प्रकार उसने प्रार्थना के माध्यम से उन चीजों को पूर्ण किया, जिन्हें वह किसी भी अन्य तरीके से पूर्ण नहीं कर सकता था।