आज के ज़्यादातर विश्वासियों में वह गहराई, समर्पण या सामर्थ नहीं दिखती जो शुरुआती मसीहियों में थी।
आपको क्या लगता है इसका कारण क्या है?
इसका मुख्य कारण यह है कि उनका ठीक तरह से मन फिराव नहीं हुआ है।
यीशु ने खुद जो संदेश प्रचारित किया वह था: "मन फिराओ और सुसमाचार पर विश्वास करो" (मरकुस 1:15)। उसने अपने प्रेरितों को भी यही संदेश प्रचारित करने की आज्ञा दी (लूका 24:47)। और उन्होंने ठीक वैसा ही किया (प्रेरितों 20:21)।
इस बारे में परमेश्वर का वचन बहुत स्पष्ट है। यदि आप सही और सच्चे रूप में परिवर्तित होना चाहते हैं तो मन फिराव और विश्वास को अलग करके नहीं देख सकते। परमेश्वर ने इन दोनों को एक साथ जोड़ा है। और जिसे परमेश्वर ने एक साथ जोड़ा है उसे कोई भी मनुष्य अलग नहीं कर सकता।
मन फिराव और विश्वास वास्तव में मसीह जीवन की नींव के पहले दो तत्व हैं (इब्रानियों 6:1)। यदि आपने ठीक से मन फिराव नहीं किया है, तो आपकी नींव कमजोर होना तय है। और तब ज़ाहिर है कि, आपका पूरा मसीही जीवन भी कमजोर हो जाएगा।
हम बाइबल में ऐसे कुछ लोगों के उदाहरण देखते हैं जिनका मन फिराव झूठा था।
जब राजा शाऊल ने परमेश्वर की आज्ञा को नजरंदाज किया, तो उसने शमूएल के सामने तो स्वीकार किया कि उसने पाप किया है। लेकिन वह नहीं चाहता था कि लोग यह जानें। वह अभी भी मनुष्यों से आदर चाहता था। उसने सच्चा मन फिराव नहीं किया था। उसे बस इस बात का अफसोस था कि वह पकड़ा गया (1 शमूएल 15:24-30)। यही उसके और राजा दाऊद के बीच का अंतर था जिसने पाप में गिरने पर उसे खुलेआम स्वीकार किया था (भजन 51)।
राजा अहाब शाऊल की तरह ही था। जब एलिय्याह ने उसे चेतावनी दी कि परमेश्वर उसका न्याय करने जा रहा है, तो उसे अपने लिए बहुत खेद हुआ। उसने अपने पापों के लिए खुद पर टाट भी ओढ़ा और विलाप किया (1 राजा 21:27-29)। लेकिन उसने सच में मन फिराव नहीं किया। वह बस परमेश्वर के न्याय से डरता था।
यहूदा इस्करियोती का मामला झूठे मन फिराव का एक स्पष्ट उदाहरण है। जब उसने देखा कि यीशु को मृत्यु दंड दिया गया है तो उसे बुरा लगा और उसने कहा, "मैंने पाप किया है" (मत्ती 27:3-5)। लेकिन उसने याजकों के सामने अपना अपराध स्वीकार किया - ठीक वैसे ही जैसे आज भी कुछ लोग करते हैं! उसने मन फिराव नहीं किया - भले ही उसे अपने किए पर दुख हुआ हो। अगर उसने सच में मन फिराव किया होता, तो वह टूटे मन से प्रभु के पास जाता और माफ़ी मांगता। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया।
इन उदाहरणों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं - कि मन फिराव क्या नहीं है!
सच्चा मन फिराव "मूर्तियों से परमेश्वर की ओर मुड़ना" है (1 थिस्सलुनीकियों 1:9)।
मूर्तियों से यहाँ तात्पर्य सिर्फ़ लकड़ी और पत्थर से बनी मूर्तियाँ नहीं हैं जो बेजान मंदिरों में पाई जाती हैं। ऐसी खतरनाक मूर्तियाँ भी हैं जिनकी लोग आराधना करते हैं जो इतनी बदसूरत नहीं लगतीं। ये मूर्तियाँ हैं सुख, आराम, पैसा, अपनी प्रतिष्ठा, अपनी मर्जी से काम करना आदि।
हम सभी ने कई सालों से इनकी आराधना की है। मन फिराव करने का अर्थ है इन मूर्तियों की आराधना करना बंद करना, और उनसे दूर होकर परमेश्वर की ओर मुड़ना।
सच्चे मन फिराव में हमारा पूरा व्यक्तित्व शामिल होता है - हमारा मन, हमारी भावनाएँ और हमारी इच्छाशक्ति।
सबसे पहले, मन फिराव का अर्थ है कि हम पाप और संसार के प्रति अपना मन बदल लें। हमें एहसास होता है कि हमारे पाप ने हमें परमेश्वर से अलग कर दिया है। हम यह भी देखते हैं कि इस संसार की पूरी जीवन-शैली परमेश्वर-विरोधी है। और हम परमेश्वर का विरोध करने वाली उस जीवन-शैली से दूर हो जाना चाहते हैं।
दूसरा, मन फिराव में हमारी भावनाएँ शामिल होती हैं। हम अपने जीने के तरीके के बारे में दुखी महसूस करते हैं (2 कुरिन्थियों 7:10)। हम अपने पिछले कार्यों के लिए खुद से घृणा करते हैं; और उससे भी बढ़कर, हम अपने भीतर उस बड़ी बुराई से घृणा करते हैं जिसे कोई और नहीं देख सकता (यहेजकेल 36:31)।
हम रोते हैं और विलाप करते हैं कि हमने अपने जीने के तरीके से परमेश्वर को इतना दुख पहुँचाया है। बाइबल में कई महान पुरुषों की प्रतिक्रिया यही थी जब उन्हें अपने पापों का एहसास हुआ। दाऊद (भजन 51), अय्यूब (अय्यूब 42:6) और पतरस (मत्ती 26:75) - सभी अपने पापों का मन फिराव करते हुए फूट-फूट कर रोए थे।
यीशु और प्रेरितों दोनों ने हमें अपने पापों के लिए रोने और विलाप करने के लिए प्रोत्साहित किया है (मत्ती 5:4; याकूब 4:9)। यही परमेश्वर के पास वापस जाने का मार्ग है।
अंत में, मन फिराव में हमारी इच्छा शामिल है। हमें अपनी मनमानी इच्छा - 'अपना रास्ता खुद बनाने' – जैसी प्रवृत्ति को त्यागना होगा और यीशु को अपने जीवन का प्रभु बनाना होगा। इसका मतलब है कि हम अब से जो भी परमेश्वर हमसे करवाना चाहता है, उसे करने के लिए तैयार हैं, चाहे इसके लिए हमें कितनी भी कीमत चुकानी पड़े और चाहे यह कितना भी अपमानजनक क्यों न हो।
उड़ाऊ युवा पुत्र टूटे मन और नम्रतापूर्वक अपने पिता के पास वापस आकर पिता द्वारा कहे गए हर काम को करने के लिए तैयार हुआ। तो यही सच्चा मन फिराव है (लूका 15:11-24)।
हमें परमेश्वर के सामने अपने द्वारा किए गए हर एक पाप को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है। वैसे भी उन सभी को याद रखना असंभव होगा। उड़ाऊ पुत्र ने ऐसा नहीं किया। उसने बस इतना ही कहा, "पिताजी, मैंने पाप किया है।" और हमें भी यही कहना चाहिए।
लेकिन याद रखें कि यहूदा इस्करियोती ने भी कहा था, "मैंने पाप किया है।" हालाँकि, उसके और उड़ाऊ पुत्र के बीच पाप के स्वीकारे जाने में बहुत अंतर था। परमेश्वर केवल हमारे द्वारा कहे गए शब्दों को ही नहीं सुनता। वह शब्दों के पीछे छिपी भावना को समझता है, और उसी के अनुसार हमारे साथ व्यवहार करता है।