उन दो अंधे व्यक्तियों की कहानी पर विचार कीजिए जो एक बार यीशु के पास आए थे। मत्ती 9:27 में, हम पढ़ते हैं कि दो अंधे व्यक्ति यीशु के पीछे-पीछे आए और कहा, "हम पर दया करो," और यीशु ने उनसे पूछा, "तुम क्या चाहते हो कि मैं तुम्हारे लिए करूँ?" (एक अन्य सुसमाचार में इसी तरह के एक अंश में यह बात स्पष्ट लिखी है) उन्होंने कहा, "हम चाहते हैं कि हमारी आँखें खुल जाएँ!" और फिर मत्ती 9:28 में यीशु ने उनसे एक प्रश्न पूछा, "क्या तुम्हें विश्वास है कि मैं तुम्हारे लिए यह कर सकता हूँ?"
यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है। यह महत्वपूर्ण प्रश्न इस अर्थ में है कि प्रभु किसी भी वादे के बारे में आपसे पूछता है जब आप परमेश्वर से कोई प्रार्थना करते हैं। "प्रभु, मैं चाहता हूँ कि मेरी अंधी आँखें खुल जाएँ," या, "मैं चाहता हूँ कि मेरी कोई बीमारी ठीक हो जाए," या, "मैं किसी खास पापपूर्ण आदत से मुक्ति चाहता हूँ," या, "प्रभु, मैं नौकरी पाना चाहता हूँ," या, "मैं रहने के लिए कोई जगह ढूँढ़ना चाहता हूँ।" ऐसी बहुत सी चीज़ें हैं जो हम परमेश्वर से माँग सकते हैं। प्रभु हमारी सभी आत्मिक और शारीरिक ज़रूरतों का ध्यान रखता है, लेकिन जब हम प्रभु से अपनी विशिष्ट प्रार्थनाएँ करते हैं, तो प्रभु हमसे यह प्रश्न पूछेगा: "क्या तुम्हें विश्वास है कि मैं तुम्हारे लिए यह कर सकता हूँ?" यीशु यही कह रहा है।
क्या आप जानते हैं कि प्रभु हमारे लिए अपनी क्षमता के अनुसार नहीं, बल्कि हमारे विश्वास के अनुसार करता है? अगर आपमें किसी चीज़ के प्रति विश्वास नहीं है, तो भले ही प्रभु आपके लिए उससे ज़्यादा करने की क्षमता रखते हो, फिर भी आप वह सब अनुभव नहीं कर पाएँगे जो प्रभु आपके लिए करना चाहता है। आप केवल अपने विश्वास के स्तर के अनुसार ही उद्धार का अनुभव कर पाएंगे।
कल्पना कीजिए कि अगर पहला अंधा आदमी कहे, "प्रभु, अगर आप मेरी एक आँख खोल दें तो मुझे बहुत खुशी होगी। मेरे लिए तो यही काफी है। मैं एक आँख के साथ इस पृथ्वी पर जीवित रह सकता हूँ, और मुझे विश्वास है कि आप (प्रभु) ऐसा कर सकते हैं।" प्रभु उसे ठीक वैसे ही उत्तर देंगे जैसे उन्होंने मत्ती 9:29 में कहा है, "तेरे विश्वास के अनुसार तेरे साथ हो।" प्रभु कहता है, "मेरी क्षमता के अनुसार" नहीं, बल्कि "तेरे विश्वास के अनुसार हो ।" यह आदमी उस कमरे से एक आँख खुली और दूसरी आँख बंद करके बाहर जायेगा। अब यह बहुत अच्छी बात है; एक अंधे आदमी की एक आँख भी खुली होना अद्भुत बात है।
फिर कल्पना कीजिए कि दूसरा अंधा आदमी आता है, और प्रभु उससे भी यही प्रश्न पूछता है, "क्या तुम्हें विश्वास है कि मैं तुम्हारे लिए यह कर सकता हूँ?" और वह कहता है, "हाँ प्रभु! मुझे विश्वास है कि आप मेरी दोनों आँखें खोल सकते हैं! आपके लिए क्या असंभव है?" उसकी दोनों आँखें खुल जाती हैं। अगर वह दूसरे अंधे आदमी से मिलता है (जिसकी सिर्फ़ एक आँख खुली है), और वह आदमी पूछता है, "आखिर तुमने दोनों आँखें कैसे खोल लीं?! यह ज़रूर कोई झूठी शिक्षा होगी!" यह झूठी शिक्षा नहीं है; दूसरे अंधे आदमी का विश्वास पहले वाले से ज़्यादा था, बस।
हम इन दो आँखों को अपने पापों की क्षमा और पापों से मुक्ति के रूप में सोच सकते हैं। एक व्यक्ति को दोनों आँखें मिलती हैं; दूसरे व्यक्ति को सिर्फ़ पहली आँख मिलती है। ऐसा क्यों? क्या इसलिए कि परमेश्वर उस व्यक्ति के प्रति पक्षपाती था? क्या इसलिए कि वह व्यक्ति एक बेहतर इंसान था? नहीं। उसे बस उन सभी बातों पर विश्वास था जो मसीह ने उसके लिए करने का वादा किया था। एक व्यक्ति को केवल यही विश्वास था कि मसीह ही उसके पाप क्षमा कर सकता है, और इसलिए उसे वह मिल गया। दूसरे व्यक्ति को यह भी विश्वास नहीं था कि मसीह उसके पाप क्षमा कर सकता है, इसलिए उसे क्षमा भी नहीं मिली।
दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं। एक को विश्वास है कि मसीह उसके पाप क्षमा कर देंगे, और उसे क्षमा मिल जाएगी। दूसरे को "दोनों आँखों" पर विश्वास है, कि मसीह न केवल मुझे क्षमा कर सकता है, बल्कि मुझे उस पापपूर्ण आदत से भी मुक्ति दिला सकता है। उसे दोनों मिलता है और जब कोई व्यक्ति दोनों का दावा करता है, कि मसीह न केवल हमें क्षमा कर सकता है, बल्कि हमें उद्धार भी दिला सकता है, तो जिन लोगों ने केवल क्षमा का अनुभव किया है, वे उस महान उद्धार को एक झूठी शिक्षा कहने लगते हैं। क्योंकि उन्होंने स्वयं इसका अनुभव नहीं किया है, वे कहते हैं कि यह असंभव है। वे कहते हैं कि किसी भी मनुष्य के लिए पाप से मुक्ति पाना असंभव है। लेकिन प्रश्न यह नहीं है कि क्या यह मनुष्यों के लिए असंभव है। प्रश्न यह है कि क्या यह परमेश्वर के लिए असंभव है?
यीशु ने कहा कि परमेश्वर के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। मनुष्य के लिए बहुत सी चीजें असंभव हैं। परमेश्वर की सामर्थ के बिना मनुष्य के लिए पापों की क्षमा पाना भी असंभव है, लेकिन परमेश्वर के साथ, कुछ भी असंभव नहीं है। कृपया याद रखें कि यदि आप किसी ऐसी चीज का अनुभव नहीं करते जो किसी और ने किया है, तो इसका कारण यह नहीं है कि उसके पास कोई झूठी शिक्षा है; ऐसा इसलिए हो सकता है कि आप उस पर उतना विश्वास नहीं करते जितना वह करता है।
एक और उदाहरण के तौर पर, कल्पना कीजिए कि सबके घर के बाहर बराबर बारिश हो रही है और शहर में पानी की कमी है, इसलिए लोग बारिश का पानी इकट्ठा करने के लिए बाहर बर्तन रख देते हैं। अगर एक आदमी अपने घर के बाहर एक छोटा कप रखता है, तो उसे कितनी बारिश मिलेगी? बस एक भरा हुआ कप। अगर कोई दूसरा व्यक्ति अपने घर के बाहर एक बड़ा टब रखता है, तो उसे कितना पानी मिलेगा? एक भरा हुआ टब! क्या एक भरे हुए टब और एक भरे हुए कप में कोई फ़र्क़ है? बिलकुल! भरे हुए कप वाला आदमी शायद कहे, "तुम्हें पानी से भरा हुआ टब कैसे मिला? परमेश्वर तुम्हारे साथ ज़रूर पक्षपाती रहा होगा, तुम्हारे घर के सामने ज़्यादा बारिश भेज रहा था!" टब वाला आदमी जवाब देगा, "नहीं; भाई, तुम्हारे घर के बाहर भी उतनी ही बारिश हुई थी, लेकिन तुम्हारे पास बाहर सिर्फ़ एक छोटा सा कप था! तुम्हारे विश्वास का स्तर यही था, इसलिए तुम्हें बस इतना ही मिला।"
हम परमेश्वर से अपने विश्वास के अनुसार प्राप्त करते हैं। परमेश्वर की आशीष असीमित है। इफिसियों 1:3 कहता है कि उसने हमें "स्वर्गीय स्थानों में सब प्रकार की आत्मिक आशीष" दी है, पवित्र आत्मा की हर आशीष ताकि हम अपने पूर्वज आदम से विरासत में मिली हर एक घिनौनी पापपूर्ण आदत से मुक्त हो सकें। लेकिन आज प्रभु हमसे यह प्रश्न पूछता हैं कि "क्या तुम्हें विश्वास है कि मैं तुम्हारे लिए यह कर सकता हूँ?"