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यीशु ने कहा कि स्वर्ग का राज्य उनका है जो आत्मा में गरीब हैं (मत्ती 5:3)। आत्मा में दीन वे हैं जो अपनी मानवीय अपर्याप्तता के प्रति सचेत हैं और इसलिए पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा के प्रति समर्पित हो जाते हैं।

इस अर्थ में, यीशु सदैव आत्मा में गरीब था। वह वैसे ही जीया जैसे परमेश्वर चाहता था कि मनुष्य जीवन जीए - परमेश्वर पर निरंतर निर्भरता में, परमेश्वर से अलग अपने मन की शक्तियों का प्रयोग करने से इनकार करते हुए। उनके शब्दों पर विचार करें:

पुत्र अपने आप से कुछ नहीं कर सकता, केवल वह जो पिता को करते देखता है। मैं अपने आप से कुछ नहीं कर सकता; जैसा सुनता हूं, वैसा न्याय करता हूं, क्योंकि मैं अपनी इच्छा नहीं, परन्तु अपने भेजने वाले की इच्छा चाहता हूं। और अपने आप से कुछ नहीं करता, परन्तु जैसे पिता ने मुझे सिखाया, वैसे ही ये बातें कहता हूं। मैं आप से नहीं आया, परन्तु उसी ने मुझे भेजा। क्योंकि मैं ने अपनी ओर से बातें नहीं कीं, परन्तु पिता जिस ने मुझे भेजा है उसी ने मुझे आज्ञा दी है, कि क्या कहूं। मैं पिता में हूं, और पिता मुझ में हैं। ये बातें जो मैं तुम से कहता हूं, अपनी ओर से नहीं कहता, परन्तु पिता मुझ में रहकर अपने काम करता है। (यूहन्ना 5:19, 30; 8:28, 42; 12:49; 14:10)।

यीशु ने कभी भी केवल इसलिए कार्य नहीं किया क्योंकि उसने एक आवश्यकता देखी थी। उसने आवश्यकता को देखा, इसके बारे में ख़याल से भरे सोच विचार किए, लेकिन उसने केवल तभी कार्य किया जब उनके पिता ने उसको करने को कहा।

उसने स्वर्ग में कम से कम चार हजार वर्षों तक प्रतीक्षा की, जबकि दुनिया को एक उद्धारकर्ता की सख्त जरूरत थी, और फिर जब उसके पिता ने उसे भेजा तो वह पृथ्वी पर आया (यूहन्ना 8:42)। "जब उचित समय आया, अर्थात जिस समय परमेश्वर ने निश्चय किया, उस ने अपने पुत्र को भेजा" (गलातियों 4:4 - टीएलबी)। परमेश्‍वर ने हर चीज़ के लिए एक सही समय नियुक्त किया है (सभोपदेशक 3:1)। उस समय को केवल परमेश्वर ही जानता है, और इसलिए यदि हम हर चीज़ में पिता की इच्छा खोजेंगे, जैसा कि यीशु ने किया था, तो हम गलत नहीं होंगे।

और जब यीशु पृथ्वी पर आया, तो उसने जो कुछ भी अच्छा समझा, उसे करते नहीं फिरा। यद्यपि उसका मन पूर्णतः शुद्ध था, तथापि उसने मन में आए किसी भी उज्ज्वल विचार पर कभी कार्य नहीं किया। नहीं, उसने अपने मन को पवित्र आत्मा का सेवक बनाया।

हालाँकि वह बारह वर्ष की आयु तक धर्मग्रंथों को भली-भांति जानता था, फिर भी उसने अगले अठारह वर्ष बढ़ई के रूप में, अपनी माँ के साथ रहकर, मेजें और कुर्सियाँ बनाते आदि में बिताए। उसके पास वह संदेश था जो उसके आसपास मरने वाले लोगों को चाहिए था, और फिर भी वह प्रचार सेवकाइ में बाहर नहीं गया। क्यों? क्योंकि पिता का समय अभी नहीं आया था।

यीशु इंतज़ार करने से नहीं डरता था।

जो विश्वास करता है वह जल्दबाजी नहीं करेगा (यशायाह 28:16)।

और जब उसके पिता का समय आया, तो वह अपनी बढ़ई की दुकान से बाहर गया और उपदेश देने लगा। उसके बाद अक्सर, वह किसी कार्य के संबंध में कहता था, "मेरा समय अभी तक नहीं आया" (यूहन्ना 2:4; 7:6)। यीशु के जीवन में सब कुछ पिता के समय और पिता की इच्छा से नियंत्रित होता था।

मनुष्य की आवश्यकता, अपने आप में, कभी भी यीशु के लिए कार्य करने का आह्वान नहीं करती थी, क्योंकि यदि ऐसा होता तो वह स्वयं से कार्य कर रहा होता। मनुष्यों की आवश्यकता को ध्यान में रखा जाना था, लेकिन यह परमेश्वर की इच्छा थी जिसे पूरा किया जाना था।

यीशु ने अपने दोस्तों द्वारा दिए गए सुझाव से बहुत अच्छे काम नहीं किए, क्योंकि वह जानता था कि अगर उसने लोगों की बात सुनी और स्पष्ट रूप से अच्छा किया, तो वह अपने पिता के लिए जो सबसे सर्वोतम था उससे चूक जाएगा।