द्वारा लिखित :   जैक पूनन
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प्रकाशितवाक्य 3: 1-6 में: सरदीस की कलीसिया के दूत को लिख….। सरदीस का दूत एक ऐसा व्यक्ति था जिसने दूसरों के सामने अपनी छवि एक जबरजस्त आत्मिक मनुष्य के रूप में स्थापित कर ली थी। लेकिन उसके विषय में जो विचार सरदीस मैं उसके साथी-विश्वासियों का था, प्रभु का विचार उससे बिलकुल विपरीत था। यह दर्शाता है कि सरदीस के ज़्यादातर विश्वासी कितने शारीरिक और आसानी से धोखा खानेवाले थे।

90% प्रतिशत से ज़्यादा विश्वासी एक शारीरिक संदेश वाहक और एक आत्मिक संदेशवाहक के बीच के फ़र्क को नहीं जानते। और 99% प्रतिशत विश्वासी जैविक-शक्ति और आत्मिक-शक्ति के बीच के फ़र्क को नहीं जानते। ज़्यादातर विश्वासी आत्मिक दान-वरदानों के प्रदर्शन और उपयोग से प्रभावित हो जाते हैं और इसी तरीक़े से एक प्रचारक या प्राचीन का मूल्यांकन करते हैं। और वे इसी तरीक़े से भरमाए जाते हैं। लेकिन परमेश्वर हृदय को देखता है। सरदीस के दूत के पास आत्मा के दान-वरदान रहे होंगे, लेकिन वह आत्मा में मरा हुआ था। इसमें हम में से हर एक के लिए ध्यान देने योग्य चेतावनी है: यह कि हमारे विषय में हमारे साथी विश्वासियों के 99% विचार 100% ग़लत हो सकते हैं! हमारे बारे में परमेश्वर की राय उनकी राय के बिल्कुल विपरीत हो सकती है। यही बात कलीसिया पर भी लागू होती है। दूसरे लोग एक कलीसिया को “आत्मा में जीवित” मान सकते हैं, लेकिन परमेश्वर उसे एक मरी हुई कलीसिया के रूप में जानता है। और इसका उल्टा भी हो सकता है, कि वे कलीसियाएं जिन्हें परमेश्वर जीवित मानता है, उन व्यक्तियों द्वारा मृतक मानी जा सकती है जिन्हें कोई परख नहीं होती।

ज़्यादातर विश्वासी एक कलीसिया का मूल्यांकन उनके सभा में हुए स्वागत की गर्मजोशी, मंडली की संख्या, सभा के कोलाहल और भावुकता, आराधना गीतों की गुणवत्ता, संदेश की बौद्धिक विषय-सामग्री और दान में इकट्ठी हुई राशि से करते हैं!! लेकिन परमेश्वर इनमें से किसी भी चीज से प्रभावित नहीं है।

परमेश्वर एक कलीसिया का मूल्यांकन मसीह समान नम्रता, शुद्धता, प्रेम और स्व-केन्द्रीयता से मुक्ति पर आधारित करता है जो वह उसके सदस्यों में पाता है। इसलिए एक कलीसिया का परमेश्वर द्वारा किया गया मूल्यांकन और मनुष्य द्वारा किया गया मूल्यांकन एक दूसरे से बिलकुल अलग हो सकता है। सरदीस में कोई इज़ेबेल नहीं थी, बिलाम की कोई शिक्षा नहीं थी और न ही निकुलइयों की बातें थी, लेकिन उसमें इनसे भी बड़ी बुराई थी – पाखंड। सरदीस के दूत ने जो प्रतिष्ठित स्थान अपने लिए बना लिया था, उसे ज़रूर उसमें से एक गुप्त संतोष मिलता होगा। वरना वह एक पाखंडी मनुष्य न बनता। दूसरों के द्वारा आत्मिक रूप से जीवित होने के रूप में ज्ञात होने में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन हमें उनकी राय से कोई संतुष्टि नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन जो कुछ हम प्रभु के लिए करते हैं, अगर हम उसमें अपने लिए नाम कमाना चाहते हैं, तो आख़िर में हमारा जीना परमेश्वर के मुख के सामने नहीं बल्कि मनुष्यों के सम्मुख ही होगा। तब हमें यह मान लेना पड़ेगा कि हमें यह समझ ही नहीं आया है कि मनुष्य का मत किसी भी काम का नहीं होता।

मसीही जगत ऐसे प्रचारकों से भरा पड़ा है जो लगातार ऐसे काम कर रहे हैं और ऐसी रिपोर्ट बना रहे हैं जिनसे वे अपने लिए नाम कमा सके। उनका सबका अंत सरदीस के दूत के समान ही होगा। और प्रभु अंतिम दिन उनका न्याय करेगा, क्योंकि उनके काम परमेश्वर के सम्मुख सिद्ध नहीं पाए जाएंगें। अगर हमारा उद्देश्य मनुष्यों को प्रसन्न करना है, तो परमेश्वर के सम्मुख हमारे कामों का सिद्ध होना असंभव होगा। सरदीस का दूत भी गहरी आत्मिक नींद में था।

यीशु ने अपने शिष्यों को जागते और प्रार्थना करते रहने के लिए सचेत किया था, कि जब उसके आने का समय हो तो वे तैयार पाए जाए – क्योंकि संसार की चिंता और धन के प्रेम में ऐसी ताक़त होती है कि वह सर्वश्रेष्ठ विश्वासियों को भी गहरी नींद में सुला देता हैं (देखे लूका 21:34-36)। जब एक व्यक्ति सो रहा होता है, तो वह अपने आस पास के वास्तविक संसार में होने वाली बातों से अनजान रहता है। वह अपने स्वप्नों के अवास्तविक संसार के प्रति ज़्यादा जागरूक रहता है। आत्मिक रूप में सोए हुए व्यक्तियों के साथ भी ऐसा ही होता है। वे परमेश्वर के राज्य के असली संसार, अपने आस पास की खोए हुए आत्माओं और अनंत वास्तविकताओं से अनजान रहते हैं। फिर भी, वे अवास्तविक और अस्थाई भौतिक संसार की भरपूरी, भोग-विलास, सुख-सुविधा, पार्थिव सम्मान और ख्याति के प्रति सजीव रहते हैं। सरदीस के दूत की यही दशा थी।

प्रभु ने उसे जाग उठने के लिए प्रोत्साहित किया – दूसरे शब्दों में, उसे उसके सपनों के अवास्तविक संसार (भोग-विलास के संसार) को त्यागने के लिए, और उन बातों को दृढ़ करने के लिए कहा जो आत्मिक मृत्यु की तरफ़ बढ़ रही थी, लेकिन जो अभी पूरी तरह से मरी नहीं थी (पद 2)। चिंगारिया अभी पूरी तरह बुझी नहीं थी। लेकिन उसे उन्हें प्रज्वलित करने की ज़रूरत थी वरना वे पूरी तरह बुझ जाने वाली थी (2 तीमुथियुस 1:6)। प्रभु ने उससे कहा कि उसके काम परमेश्वर की नज़र में सिद्ध नहीं थे (पद 2 KJV)। बहुत से विश्वासी “सिद्धता” शब्द से डरते हैं। लेकिन हम यहाँ देखते हैं कि प्रभु की यह अपेक्षा है कि इस दूत के काम परमेश्वर के सम्मुख सिद्ध हो।

आत्मिक सिद्धता एक व्यापक विषय हैं। लेकिन यहाँ इसका अर्थ यही है कि इस प्राचीन ने अपने हृदय को इस तरह एकाग्र-चित्त करते हुए काम नहीं किया था कि उसके लिए सिर्फ़ परमेश्वर ही उसकी सराहना करें। उसके काम अच्छे काम थे और यही वजह थी कि उसे आत्मिक तौर पर जीवित मान लिया गया था। लेकिन वे परमेश्वर की महिमा के लिए नहीं किए गए थे। वे मनुष्य को प्रभावित करने के लिए किए गए थे। इसलिए वे सब मरे हुए काम थे। “उसकी पवित्र क्रियाओ में अधर्म था” (निर्गमन 28:38)। इससे पहले कि परमेश्वर उसे मान्यता देता, उसे इस आत्मिक गंदगी से अपने आप को शुद्ध करना था (2 कुरिन्थियों 7:1)। मनुष्य से सम्मान पाने के लिए किए गए अच्छे काम मरे हुए काम होते है। सिद्धता की तरफ़ बढ़ने का सबसे पहला क़दम परमेश्वर के सम्मुख रहना है। अगर हमारी शुरुआत यहाँ नहीं होती तो हम कहीं नहीं पहुंचेंगे। प्रार्थना हो, उपवास हो, या किसी की मदद करना हो, जो सबसे ज़रूरी सवाल हमें अपने आप से पूछना है वह यह है: “क्या मुझमें यह विचार है कि कोई मनुष्य मुझे देख रहा है और मेरी सराहना कर रहा है, या मैं परमेश्वर के सम्मुख खड़ा रह कर यह सिर्फ़ उसकी महिमा के लिए कर रहा हूँ?” एक ग़लत उद्देश्य बहुत से अच्छे कामों को भ्रष्ट कर देता है और उन्हें परमेश्वर की नज़र में त्रुटिपूर्ण बना देता है।